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________________ ३०६ पाण्डव-पुराण । बहुतसे राजा शत्रुका ध्वंस करनेके लिए बंद्ध परिकर होकर युद्ध-स्थलमें उतरनेको चल पडे । वह राजे बलदेव, नारायण, जयशील समुद्र-विजय, वसुदेव, अनावृष्टि, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, प्रद्युम्न, धृष्टद्युम्न, सत्यक, जय, भूरिश्रत्र, भूप, सहदेव, * सारण, हिरण्यगर्भ, शंव, अक्षोभ्य, विद्भरथ, भोज, सिंधुपति, वज्र, द्रुपद, पौंड्भूपति, नारद, नकुल, दृष्टि, कपिल, क्षेमधूर्तक, महानेमि, पद्मरथ, अक्रूर, निषध, दुर्मुख, उन्मुख, कृतवर्मा, विराट, चारु, कृष्णक, विजय, यवन, भानु, शिखंडी, सोमदत्तक और वाह्रीक आदि थे। उधर जरासंधका भेजा हुआ दूत दुर्योधन के पास गया और उसने दुर्योंधनको प्रणाम कर उससे जरासंधके उद्देश्यको कह सुनाया। उसने कहा कि जिस बलीने दुर्द्धर विद्वान् और जरासंधके दामाद कंशका ध्वंस किया, जिसने अपने मुष्टि प्रहारसे चाणूरको चूर डाला और गोवर्द्धन नाम पहाड़को उठा लिया वह सॉपोंका मर्दन करनेवाला, प्रजाका सुरक्षा और महान् वक्षःस्थलबाला गोपालकृष्ण-संसार भरमें विख्यात है। उसे सब जानते हैं । और जो यादव युद्धमें भाग कर आग जल गये थे, सुना जाता है कि वे सब जीते हैं और पच्छमकी - ओरवाले समुद्र में रहते हैं । यह सब हाल बहुतसे रत्न वगैरह भेंट देकर वहींसे आये हुए एक वैश्यने जरासंध चक्रवर्तीसे कहा है । उसने कहा है कि द्वारिकामे यादवोंका बड़ा भारी राज्य है और वहाँ उनका पूरा पूरा वैभव है । उसके मुंहसे यादवों और पांडवोंको द्वारिकामें रहते हुए सुन कर जरासंधको वड़ा क्रोध आया। उसने नृपोंके पास दूत भेज कर सब राजोंको चुलाया । उनके निमंत्रणसे सब राजे सज्ज होकर वहाँ इकट्ठे हो गये हैं। अतः हे दुर्योधन महाराज, आपको बुलानेके लिए भी चक्रवर्तीने मुझे आपके पास भेजा है । इस लिए विभो, आप चलनेको तैयारी कीजिए । स्वामिन् , चक्रवर्तीने यह संदेशा भेजा है कि यशस्वी वत्स, वीरोंसे युक्त, इष्टको साधनेवाली अपनी सव सेना लेकर अति शीघ्र ही आइए । दूतके हाथ जरासंधके इस संदेशेको पाकर आनन्दके मारे दुर्योधनके रोमाञ्च हो आये । खुशीमें आकर उसने वस्त्राभूषण और धन देकर दूतका खूब आदर किया। वह मन-ही-मन सोचने लगा कि जिस बातको में पहलेसे ही चाहता था, उसीको चक्रवर्ती कर रहे हैं यह बहुत ही अच्छा हुआ। इसके बाद वीर दुर्योधनने उसी समय रणभेरी वजवाई। जिसे सुन कर रणकी लालसा रखनेवाले वीर योद्धा बड़े प्रसन्न हुए । वे सब सेनाको सजा
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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