SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौदहवाँ अध्याय । २२३ लोभी साधुकी । और भी देखो कि विधवा होने पर स्त्रीको श्रृंगार करने, अच्छे खानेपीने आदि बातें लज्जित करनेवाली हैं। केवल सफेद वखके सिवा और कोई वस्त्र, आभूषण वगैरह उसे शोभा नहीं देता। इस लिए पतिके मर जाने या परदेश चले जाने पर खीको उचित है कि वह संयमका शरण ले और तपके द्वारा शरीरको सुखा कर इन्द्रियों को जीते। मतलब यह है कि भोजन, वस्त्र, बोलचाल, जीवन, धन और घरगिरस्तीसे प्रेम ये सब बातें पतिके विना स्त्रीको शोभा नहीं देतीं । - इस प्रकार वे सब राजकन्यायें आपस में विचार कर ही रही थीं कि इतने में ही वहाँ जिनालय में संयम - कुशल और ज्ञानी दमतारि नाम एक सुन आ गये। उन्हें देख कर वे सब बडी प्रसन्न हुई और उन्होंने तीन प्रदक्षिणा देकर भक्तिभाव से उनके चरण-कमलोंमें नमस्कार किया । इसके बाद वे बोलीं कि स्वामिन, योगीन्द्र, योगभास्कर और मनोमल रहित स्वच्छ भगवन्, आप कृपा करके हमें दीक्षा दान दीजिए। हम दीक्षा के लिए बहुत दिनोंसे उत्सुक हैं। अब आप हमारी, उत्सुकता को मिटाइए। उत्तरमें योगीन्द्रने कहा कि पुत्रियों, सुनो एक तो तुम्हारी अभी बाल्यावस्था है और दूसरे तुम अबला हो, ऐसी अनस्थामें तुम सव वैराग्य क्यों धारण करना चाहती हो, इसका कोई कारण होना चाहिए । यह सुन कन्याओंने मुनींद्रको पांडवों पर बीती हुई सारी कथा कही और कहा कि जब हमारे पति मर चुके हैं तब हमारे लिए दीक्षा लेना ही श्रेष्ठ है, शुभ है और इसमें हमारा कल्षाण भी है । क्योंकि कुलीन नारियोंका एक ही पति होता है | कन्याओंके इन वचनों को सुन कर उन अवधिज्ञानी सुनिने कहा कि तुम अभी ठहरो । देखो, अभी एक क्षणमें ही पवित्रात्मा पाँचों पांडव यहीं आये जाते हैं और उनके साथ अभी तुम्हारा समागम होता है । मुनिराजके इन वचनोंको सुन कर वहाँ जितने श्रावक थे वे सब बड़े अचम्भे में पड गये । वे सोचने लगे कि भला जले हुए पांडव कैसे अभी यहाँ आये जाते हैं । सब इसी सोच-विचार में उलझ रहे थे कि इतनेमें पवित्रात्मा पाँचों पांडव सफेद वस्त्र पहिने हुए निःसहि निःसहि कहते हुए वहीं आ पहुँचे । और आते ही उन्होंने मुनिराजको नमस्कार किया तथा स्तुति कर उन्होंने उनकी भक्तिभाव से पूजा की । वे भक्तिके भाजन थे और मुनियोंको जिन भगवानका प्रतिनिधि जानते थे | पांडवों देख कर सब कन्यायें मुनिराजके ज्ञानकी प्रशंसा करने लगीं कि देखो, इन प्रभुका ज्ञान कितना बड़ा है कि ये सारे लोकको जानते हैं
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy