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________________ पाण्डव-पुराण । womram. we mmm rewom था और भानुका दूसरा नाम सूरज भी है, इसलिये सूर्यसुत नामसे इसकी प्रसिद्धि हो गई। जिस तरह कि नंदगोप नामक गुवालके यहाँ पालन-पोषण होनेके कारण लोग कृष्ण नारायणको भी गोपाल कह कर पुकारते हैं। - अब कौरव-पांडवोंकी शास्त्र और लोकके अनुसार विस्तारसे उत्पत्ति वताई जाती है । सुनिए, एक समय अंधकरष्टिने नय-नीतिके ज्ञाता अपने पुत्रोंके साथ कुन्तीके विवाह सम्बन्ध विचार किया। उस समय यह बात उपस्थित हुई कि यदि पांडुके सिवा दूसरेको कुन्ती दी जायगी तो वह व्यभिचारिणी कही जायगी; और एक बात यह भी है कि उसे ऐसा सुनकर कोई दूसरा ग्रहण भी नहीं करेगा। ___ इसलिये अच्छा इसीमें है कि पांडुको ही कन्या दी जाय । विचार कर अन्तमें उन्होंने पांडुको ही पुत्री देनेका निश्चय किया और उसी समय वरके योग्य भेट तथा पत्र देकर एक विज्ञ और सहनशील दूतको व्यासके पास रवाना किया । वह थोड़े ही समयमें कौरवोंके राजा व्यासकी सभामें पहुँचा । वहाँ द्वारपालकी आज्ञासे भीतर जाकर दूरसे उसने राजाका दर्शन किया। राजा सिंहासन पर विराजे थे । जान पड़ता था कि मानों वे और और राजोंको हॅस रहे है, या अपने उत्कर्षकी भावना करते हैं । उनके ऊपर जो चमर हुलते थे उनसे • वे आकाशके कुछ हिस्सेको विभूषित करते थे। उनके ऊपर छत्र लगा हुआ था। वह सूरजके प्रकाशको उनके ऊपर नहीं आने देता था; वह सूरजका तिरस्कार करता था। उनके आगे देश-विदेशके राजा लोगों द्वारा भेजी हुई भेंटोंके ढेरके ढेर लगे हुए थे, जिनसे उनकी अपूर्व ही शोभा हो रही थी। वे ढेर ऐसे जान पड़ते थे कि मानों राजा लोगों द्वारा दिखानेके लिये भेजे गये उनके खजाने ही हैं या पृथ्वी देवीके सुन्दर भूषणोंके जैसे वे राजाके अपूर्व भूषण ही रक्खे हैं । राजा व्यास सारे संसारमें उत्कृष्ट थे। वे कानोंमें मनोहर कुंडल पहिने हुए थे । जान पड़ता था मानों वे चाँद और सूरजके दो मंडल ही हैं और वे कुंडलोंका रूप घर कर इनकी सेवा ही करते है । एवं जैसे वादी शास्त्रके यशको गाते है वैसे ही भॉति भाँतिके मागधों द्वारा उनके यश दिग्गजों तक पहुँचाए जा रहे थे; मानों वे उन मागोंके द्वारा उनकी वाणीसे अमृतकी वरसा करवा रहे थे। वे कटाक्ष-पातकी दीक्षासे दीक्षित नेत्रोंके द्वारा रसीली गंभीर दृष्टिसे लोगोंकी और देखते थे, जान पड़ता था कि वे उन्हें अपने बन्धुओंकी भाँति अपनाते हैं। वे सेवामें आये हुए शत्रुओंको मनचाही दृष्टिसे हॅससे रहे थे । उनके हाथमें एक
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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