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________________ man www बीसवाँ अध्याय। और उसने अभिमन्युके धनुषको तोड़ डाला । तब अभिमन्यु दूसरा धनुष लेकर शत्रुओंको हटाने लगा। उसे इस प्रकार असह्य देख एक साथ हजारों ही शत्रुओंने , आकर उस प्रौढ़मना और महावीर अभिमन्युको सव ओरसे घेर लिया । उस समय ऐसा भान होता था मानों मतवाले बहुतसे हाथियोंने महान् पराक्रमी सिंहको हो घेर लिया है । तब हाथमें गांडीव धनुष उठा पार्थ आया और उसने सब शत्रुओंको वातकी वातमें ही तितर-बितर कर अपने वीर पुत्रको स्वतंत्र कर दिया; जैसे वायु मेघोंको तितर-बितर करके सूरजको स्वतंत्र कर देता है । इस प्रकार योद्धाओंका युद्ध होते होते जब नौवॉ दिन आया तव शिखंडीने युद्धके लिए गांगेयको ललकारा। ___ उस समय पार्थने शिखंडीसे कहा कि वैरियोंका ध्वंस करनेके लिए सर्वथा समर्थ मेरा यह वाण लो और तुम इसके द्वारा वैरियोंका ध्वंस करो । देखो, इसी वाणके द्वारा मैंने पहले खंड वनको दग्ध किया था, अतः तुम इसकी शक्तिमें कुछ सन्देह न करो। यह सुन कर वीर शिखंडीने उस बाणको ले लिया और वैरियोंका ध्वंस करता हुआ वह यमकी नाई युद्धके लिए उठ खड़ा हुआ। गांगेय और शिखंडी दोनों ही वीर आपसमें भीषण युद्ध करने लगे । उन्हें युद्ध करते हुए बहुत समय बीत गया पर उनमेंसे किसीने भी किसीको जीत न पाया । इस वक्त इन दोनोंको सिंहकी नॉई भिड़ते हुए देख कर देवतोंने इनकी भूरि भूरि प्रशंसा की। यह देख बुद्धिमान् धृष्टद्युम्नने शिखंडीसे कहा कि शिखंडिन् , तुमने युद्ध तो बहुत किया है, पर अब तक भी गांगेय रणमें मेघकी नॉई गाज रहे हैं, उनका रथ भी वैसा ही अखंड है एवं पताका भी वैसी ही उड़ रही है । फिर तुम्हारे इस युद्धसे लाभ ही क्या हुआ । अतः अपने पराक्रमको वरावर काममें लाकर शत्रुका शीघ्र नाश करो । तुम निःसहाय नहीं हो, तुम्हारी पीठ पर शत्रुओंको पीस डालनेवाला पार्थ है और विराट भी इस महारणमें तुम्हारी सहाय कर रहा है । यह सुन शिखंडीको खूब जोश आया। उसने धनुप चढ़ा और एक साथ असंख्य बाणोंको छोड़ कर धनुर्धर दुर्द्धर पितामहको वाणोंसे पूर दिया; जैसे मेघ आकाशको पूर देते हैं । यह देख कौरवोंकी सेनाने भी शिखंडी पर खूब वाणोंकी वरसा की; परन्तु उसके बाण उसे न लगे, मानों वे उससे डरते थे । इसी समय वज जैसे कठोर मुँहवाले बाणों को धान भी छोड़ रहा था जो शत्रुओंके पक्ष-स्थलरूप पर्वतमें बजकी
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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