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________________ ३२० पाण्डव-पुराण। नॉई विषम घाव करते थे । उधरसे गांगेयके छोड़े हुए वाण आकर शिखंडीके हृदयमें फूलके जैसे लगते थे जिनसे कि उसे उल्टा सुख होता था । और है भी ठीक ही कि पुण्यके उदयसे कष्ट भी सुख रूप हो जाता है । पितामह इस समय जो जो धनुष हाथमें लेते थे उसे समुद्धत धृष्टद्युम्न वाणके द्वारा छेदता जाता था। सच है कि पुण्य क्षीण होने पर सब कुछ देखते देखते ही विला जाता है । चाहे धन हो, चाहे आयु हो, चाहे पुत्र-मित्र-कलत्र आदि हो, एवं चाहे सुख हो। इसी समय शिखंडीने अपने वाणोंके द्वारा गांगेयका कवच भेद डाला; जैसे वरसा कालके मेघकी धारा वनोंको भेद डालती है। उसने थोड़ी ही देरमें उसके सारथी और रथकी धुजाको पृथ्वी पर गिरा दिया तथा स्थके दोनों घोड़ोंको वाणोंकी मारसे जर्जरित कर दिया। यह देख पितामह अकंप हो कर-रथ बिना ही-हायमें तलवार लेशिखंडीको छेद डालनेके लिए दौड़े। शिखंडीने अपने प्रखर वाणोंके द्वारा उनकी' तलवारको भी बेकाम कर दिया और उस हतात्माने उनके हृदयको भी वेध दिया। इसके साथ ही वह पावन वीर घडामसे पृथ्वी पर गिर पड़े और अपने प्राणोंको निकलते देख उन्होंने संन्यास ले लिया । इस प्रकार धर्ममें लीन होकर उन्होंने परम धैर्यका सहारा लिया। उन्होंने अपने हृदयमें सु-परीक्षित वारह भावनाओंको धारण किया। पितामहकी यह हालत देख कर सव राजे युद्ध छोड़ कर उनके पास आ गये । पांडवों को उनकी दशासे बड़ा दुःख हुभा । वे उनके चरणोम प्रणाम कर ऑसू बहाते हुए बोले-हे गुणी, आपने जन्म भर वह ब्रह्मचर्य पाला है जो सब व्रतोंमें उत्तम है और जिसका पालना बड़ा कठोर है । इस व्रतके बराबर कठिन दूसरा कोई व्रत नहीं है । उस समय दुःखसे जर्जरित होकर युधिष्ठिरने कहा कि हे सुवतिन् , हे उन्नत-हृदय वीर, यह मौत हम लोगोंको क्यों नहीं आई, आपके इस दुःखको हम नहीं सह सकते। तब बाणोंसे जजेरित भीष्म पितामहने कौरवों और पांडवोंसे कहा कि हे भव्यो, अन्तमें मेरा आप लोगोंसे यही कहना है कि अब परस्परकी शत्रुता छोड़ कर आप लोग मैत्री कर ले और इन बेचारोंको अभयदान दें । कहते दुःख होता है कि ये नौ दिन यो ही चले गये, किसीके हाथ कुछ नहीं लगा। हाँ, इतना जरूर हुआ कि युद्धमें जो लोग मरे हैं वे बिचारे निंद्य गतिमें गये होंगे । अस्तु, जो हो गया सो तो हो गया। अब आप लोग दस लक्षण धर्मको धारण करें। , .
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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