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बीसवाँ अध्याय ।
इसी समय आकाश-मार्गसे वहाँ दो चरण मुनीश्वर आ गये। उनके नाम हंस और परमहंस थे। वे शुद्ध मनवाले थे, गुणोंके भंडार थे, उत्तम उत्तम तपोको तपते• वाले थे और उनके चरण-कमल आकाशमें चलनेसे कारण अतीव उज्ज्वल थे
धूलसे धूसरित न थे । वे महाभाग पितामहके पास जाकर बोले कि हे महा पुरुष, तुम बड़े वीर हो, वीरोंके शिरोमणि हो। इस पृथ्वी पर तुम्हारे जैसा दूसरा कोई वीर और धीर नहीं है । यह सुन कर अगणित गुणोंके पुंज और गंभीराशय पितामह उन दोनों मुनियोंको प्रणाम कर अपनी मधुर वाणीके द्वारा वोले कि प्रभो, इस संसार-रूप वनमें भटकते हुए मैने अब तक यह परम धर्म नहीं पाया । अव वताइए कि मैं क्या करूँ । महामुने, मैं अब आपकी शरण हूँ। मुझे आशा है कि मैं आपके प्रसादसे संसार पार कर सकूँगा । यह सुन मुनिराजने कहा कि हे भन्य, तुम सनातन सिद्धोंको नमस्कार कर चार आराधनाओंका आराधन करो । तत्वार्थ-श्रद्धानको दर्शन-आराधना कहते हैं और इसमें सम्यक्त्वकी आराधना की जाती है । आत्माके निश्चित ज्ञानको ज्ञान आराधना कहते हैं और इसमें जिनदेवकी कही हुई भावनाओंके मानकी आराधना होती है । चैतन्य-स्वरूपमें प्रवृत्ति करनेको चारित्र-आराधना कहते हैं और इसमें फर्मोंकी निवृत्ति और आत्मामें प्रवृत्तिकी आराधना की जाती है। और जो दो प्रकारका तप तपा जाता है, दो तरहका संयम लिया जाता है उसे तप-आराधना कहते हैं । इन सब आराधनाओंमें निश्चय और व्यवहारका सम्बन्ध लगा हुआ है । इस प्रकार आराधनाओंकी विधि बता कर वे महामुनि तो चले गये और इधर गुणी, बुद्धिमान् पितामहने आराधानाओंको धारण आराधना शुरू किया।
इसके बाद उन्होंने चार प्रकार आहार और शरीरसे ममता छोड़ कर तथा दर्शन-ज्ञान-चरित्रमें लीन हो सल्लेखना ग्रहण की; और सब जीवोंसे क्षमा
करा कर तथा सवको क्षमा करके पंच नमस्कार मंत्रको जपते जपते उन्होंने - अपनी जीवन-लीला समाप्त की । वह जाकर ब्रह्म नाम पाँचवें स्वर्गमें देव हुए, जहाँ कि भन्यजीव सदा आत्मासे उत्पन्न हुए सुखोंको भोगते हैं ।
इसके बाद जगत्की शून्यताको नित्य मानते हुए तेजस्वी कौरव और पांडव शोक सन्तप्त होकर खूब रोये । एवं और लोगोंने भी शोकसे वह रात
पाण्डव पुराण ४१