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इकबीसवौं अध्याय ।
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पीड़ित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा । इस समय देवोंके हाहाकार शब्दसे पृथ्वी भर गई । न्यायी राजोंने कहा कि अभिमन्युके साथ यह बड़ा भारी अन्याय हुआ है जो एक साथ इतने वीरगण एक वालक टूट पड़े । उसे पीड़ित देख कर्णने कहा कि कुमार, पानी पिओ । इससे तुम्हें कुछ शान्ति होगी । सुमना अभिमन्युने उत्तरमें निर्मल वचनों द्वारा कहा कि नृप, मैं अब जल न पीकर उपवास करूँगा और परमेष्ठीका स्मरण करते हुए माणोंका त्याग करूँगा । यह सुन कर द्रोण आदि क्षमाशील अभिमन्युको निर्जन स्थानमें ले गये । वह वहाँ आत्मस्वरूपका चितवन करता हुआ स्थिर रहा; और काय तथा कपायको क्षीण करके जिनदेवका स्मरण करते हुए तथा सवको क्षमा कर और सबसे क्षमा कराते हुए उस वीरात्माने इस अशुचि शरीरका त्याग किया और निदानरहित हो स्वर्गमें विक्रिया-युक्त दिव्य गुणोंके भंडार दिव्य शरीरको पाया।
उधर दुर्योधन आदि कौरवोंने जब अभिमन्युके मरणका समाचार सुना तष वे बड़े हर्षित हुए और उन्होंने खूब खुशी मनाई।
इसी समय सूर्य अस्ताचल पर पहुंचा। रात हुई । जान पडा कि मानों वह युद्धको वारण करने और कौरवोंकी सेनाको नया उत्साह देनेके लिए ही आई है। ___अभिमन्युकी मृत्युसे कृष्णकी सेनामें बड़ा शोक फैल गया। विलाप करते और आँसुओंकी धारा बहाते राजा-गण बड़े दुखी हुए । अभिमन्युकी मृत्युसे युधिष्ठिर भूञ्छित हो उन्नत कुलाचलकी भॉति पृथ्वी गिर पर पड़े। इसके बाद जब वह होशमें आये तव दुःख-पूर्ण 'स्वरसे यह कहते हुए रोने लगे कि हा पुत्र, तुम्हारे सिवा और कौन ऐसा संग्राम करनेवाला है जो अकेला ही हजारों शत्रुओंको इस वीरताके साथ मौतका घर दिखा सके । तुमने जालंधर राजाकी बारह हजार सेनाको नष्ट करके विजय पाई थी । हाय ! न जाने किस पापीने तुम जैसे शुरको भी धराशायी कर दिया।
युधिष्ठिरको इस प्रकार विलाप करते देख शोकसे सन्तप्त हुआ अर्जुन आया और बोला कि भाई, और और सब कुमार तो युद्धभूमिसे आ गये; परन्तु अभिमन्यु अब तक नहीं देख पड़ा, यह क्यों ? क्या चक्रव्यूहमें उसे शत्रुओंने मार डाला है या वह स्वयं मर गया है ! युधिष्ठिरने बड़े दुःखके साथ कहा कि अर्जुन, वह हाल सुन कर की तुम क्या करोगे! कैसे धैर्य धरोगे! कहते हुए छाती फटती है कि क्षत्रिय धर्मको