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________________ ३७५ पञ्चीसवाँ अध्याय । rron manram .nnnn . antar वाले मनुष्य-जन्मको पाकर धर्म नहीं करते वे अधम पुरुष पुनः पुनः दुर्गतिमें पड़ते है और विविध दुःख भोगते हैं। इस लिए मनुष्यको चाहिए कि वह मद्य, मांस, मधु और पंच उदम्बर फलोंको छोड़ दे । एवं प्राणियोंकी हिंसा भी न करे । जो मनुष्य ऐसा करता है-वही संसारमें धर्म-प्रिय होता है । इसके सिवा रात्रि भोजन और अनंतकायका त्याग करे, कभी बिना छाना पानी न पीवे और न बहु बीजवाले पदार्थ खावे । मक्खन और द्विदलको छोड़ दे । इसी प्रकार दो दिनके रक्खे हुए मठा वगैरहको भी न खावे, फूलोंका खाना छोड़ दे और जिन फलोमैसे दूध निकलता है उन्हें काममें न लावे । कभी झूठ न बोले और न चोरी करे । हमेशा शीलको पाले और परिग्रहकी मर्यादा करे । पर वात यह है कि जो श्रद्धा-पूर्वक इन त्यागीमें बुद्धिको निर्मल रक्खेगा फल उसीको मिलेगा । और जो केवल वाहिरी दिखावके लिए त्यागी बनेगा वह उल्टा फल पावेगा-दुःख भोगेगा । इसके सिवा जिनदेवके बताये मार्गका श्रद्धान रखना, सद्बुद्धिके साथ ध्यान करना और पंच मंत्रका जाप जपना-यही आत्माकी स्वतन्त्रता है और यही सचा धर्म है । इसको पालना और इसकी भावना करना मनुष्यका पूरा-पूरा कर्तव्य है । जो सर्वोत्तम मनुष्य-जन्मको पाकर ऐसे धर्मका पालन नहीं करता उस अधर्मीके लिए दुर्गति-रूपी खाड़ा खुदा हुआ तैयार है ही। इसमें जरा भी सन्देह नहीं है। यो धर्मका उपदेश देकर उन मुनिनाथने कहा कि, ऊपर जो कुछ भी कहा गया है यह सब तुम्हें विधि-पूर्वक पालन करना चाहिए। मुनिनाथका यह पवित्र उपदेश सुन कर उस चांडालिनने उसी क्षण पंच मंत्रको स्वीकार किया और यथायोग्य पवित्र व्रतोंको लेकर मद्य-मांस आदिका त्याग किया । इसके बाद वह धर्मका पालन करती हुई जब मरी तब जाकर मनुष्य भवको प्राप्त हुई। चंपा नगरी एक सुबन्धु नामका धन्यात्मा और बहुत धनी वैश्य था। इसे राज-सम्मान प्राप्त था और सभी स्वजन इसकी सेवा करते थे । इसकी स्त्रीका नाम धनदेवी था। वह बड़ी चतुर और कुलको पालनेवाली कुलपालिका थी। उस चांडालिनने आकर ईसीके यहाँ जन्म लिया-वह इसके यहाँ पुत्री हुई । उसके शरीरसे बड़ी दुर्गन्ध आती थी, इस लिए उसका नाम भी दुर्गन्धा पड़ गया था।
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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