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तेरहवाँ अध्याय ।
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संतोष हुआ । सम्पूर्ण राज्य मिल जानकी खुशी में उसने पुत्रकी बधाई के बहाने
खूब उत्सव मनाया ।
धीरे धीरे पांडवोंके जल-मरनेकी बात सारे संसार में फैल गई और कुछ समय में वह द्वारिका पुरीमें समुद्रविजय आदि दसों भाइयों और वलभद्र नारा
के कानोंमें पड़ी । उसको सुन कर उन्हें भी बड़ा भारी रंज हुआ । अत एव भयानक वडवानल से क्षोभको प्राप्त हुए समुद्रविजयसे न रहा गया— कौरवों का यह अन्याय उनसे न सहा गया । अतः वे समुद्रकी तरंगोंकी नाँई सेनारूप तरंगोंसे लहराते हुए द्वारिका से हस्तिनापुरका ओर रवाना हुए और इसी प्रकार सब तरह से समृद्ध, भाँति भाँतिके आयुधोंवाला महान योधा, चली बलभद्र भी युद्ध के लिए उसी वक्त तैयार हुआ । और है भी ठीक ही कि जो बलवान् होता है वह ऐसे समय कभी विलम्ब नहीं कर सकता । इसी प्रकार अनेक शत्रुओंको जड़ मूलसे उखाड़ फेंक देनेवाले और सिंहके जैसे पराक्रमी कृष्ण नारायणने भी कवच पहिननेको अभिमान से अपने हाथ पसारे और कवच पहिन कर वह युद्ध के लिए तैयार हो गया । इस घटनाको सुन कर और सब यादवों को भी बड़ा दुःख हुआ। उन सबका शरीर भी शोकसे संतप्त हो उठा । उनके नेत्रों में आँसू भर आये | और कौरवोंके इस अन्यायसे वे बहुत ही क्षुब्ध हुए । अतः उन्होंने युद्ध के लिए रणभेरी बजवाई - युद्धकी घोषणा कर दी। उस भेरीके शब्दको सुन कर कुछ पंडित लोगोंको क्षोभ हुआ और वे समुद्रविजय, कृष्ण और वलदेवके पास आकर उनसे कहने लगे कि आप लोगोंका योग्य बातके लिए उद्योग करना अच्छा ही है । विद्वानोंको चाहिए भी ऐसा ही, नहीं तो मरणके सिवा और कोई दूसरा फल नहीं हो सकता है । यह सुन कर अपनी दीप्तिसे सुरजकी तुलना करनेवाला नारायण बोला कि मै कौरवोंको यहाॅ बॉध लाकर वडवानळमें डाल दूँगा अथवा युद्धमें जीत कर उनके टुकड़े टुकड़े करके दिशाओं की बलि चढ़ा दूँगा ।
पर हाथियोंको कहीं सरीखे समृद्धशालीके उन्हें कहीं भी जगह न जर्जर बिचारे कौरव
मै सच कहता हूँ कि जिस तरहसे सिंहके क्रुद्ध होने भी जंगलमें रहनेको जगह नहीं मिलती उसी तरह मुझ क्रुद्ध होने पर पांडवोंको मारनेवाले चंड कौरव कहाँ रहेंगे मिलेगी -- वे भागे भागे फिरेंगे । सुनिए ये रंक और तभी तक गर्जते हैं जब तक कि इन्होंने मुझे नहीं देखा | कौन नहीं जानता कि मेंडक तब तक ही टरटर किया करते हैं जब तक कि वे सॉपका दर्शन नहीं करते ।
पाण्डव-पुराण २६