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________________ 'पाण्डव-पुराण। माज्य राज्यका स्मरण करते हुए बड़े ही शोकाकुल हुए । बोले कि आश्चर्य है जो देवतोंके द्वारा रची हुई भी यह पुरी भस्म हो गई---आँखोंको आनन्द देनेवाली गननपुरीकी भाँति आँखोंकी ओट हो गई-अदृश्य हो गई। बड़ा दुःख होता है कि जिनके यहाँ नित नये उत्सवोंकी भीड़ रहा करती थी और जो सर्वोत्तम पूजाके योग्य थे वे दशाह कहाँ गये । वे कृष्ण-बलदेव कहाँ हैं, जिनका कि पराक्रम देखते ही बनता था। हा! रुक्मिणी आदि स्त्रियोंके वे निवास-महल तो एक भी दृष्टि नहीं पड़ते, जिनको देख कर देवगण भी लजित होते थे। उनके वे पुत्र गण कहाँ है जो कि सदाकाल ही हर्षके उत्कर्ष द्वारा उन्नत रहते थे। सच बात तो यह है कि यह स्वजन-समागम विजलीकी भॉति क्षण-नश्वर है और मनुष्योंका जीवन चुल्लुके पानी-तुल्य है । यही कारण है कि जो पुरुष स्त्रियोंके रागसे रंगे हुए है वे भी संसारकी यह दशा देख माहुरकी भॉति बहुत जल्दी विरक्त हो जाते हैं । जिस तरह माहुरका रंग बहुत जल्दी छूट जाता है उसी तरह उनका राग भी थोड़े ही समयमै ढीला पड़ जाता है। सच है कि ऐसे पदार्थों में अचल-बुद्धि करेगा ही कौन । इसी प्रकार पुत्र-पौत्र आदि जो पवित्र पदार्थ हैं वे भी वास्तवमें अपने नहीं है। अपने अपने कमाँके कर्ता-भोक्ता हैं-अपनेको सिर्फ संकल्प मात्रसे सुखदायी भास पड़ने लगते हैं वास्तवमें सुख तो आत्मामें है । इसी तरह महल-मकान भी मनुष्योंके लिए विकारमें डालनेवाले ग्रह हैं, पर पदार्थोमें प्रेम करानेवाले हैं, इस लिए आपत्ति रूपी रोगमें फँसानेवाले और सम्पदाको हरनेवाले हैं। गरज यह कि वे परमें प्रेम करा कर निज सम्पदाको भुला कर आपदामें फँसाते हैं। धन-दौलत मेघ-मण्डलकी भाँति चंचल और क्षण-क्षणमें आत्माको लुभानेवाली है । यह प्राणियोंके शरीर भी विनाशशील हैं, चंचल है, सूखे पत्तोंकी भॉति कालका निमित्त पाकर नष्ट हो जाते है । हमारा यह शरीर भी जिसको कि हम विविध भाँतिके तेल-फुलेल लगा कर बढ़ाते है, कालका निमित्त पाकर विपरीतता धारण कर लेता है-कॉपने लगता है और काम देनेमें आनाकानी करने लगता है। बात यह है कि इसका स्वभाव दुर्जन पुरुषके जैसा है। दुर्जन पुरुषको चाहे जैसा ही क्यों न रक्खो वह निमित्त पाकर विपरीत हो ही जायगा। यह कितने दुःखकी वात है कि उत्तम उत्तम आहारों द्वारा पुष्ट किया गया भी यह शरीर शत्रु-समूहकी भॉति एक क्षणमें ही विमुख हो जाता है, जरा भी लिहाज नहीं करता है । जव कि यह शरीर सात धातुमय है, नाश-युक्त है, 'पापका पिटारा है, दुर्गन्धियुक्त है तव फिर न जाने इसमें मनुष्योंकी थिर बुद्धि कैसे होती है। आश्चर्य है
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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