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ग्यारहवाँ अध्याय |
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वे जरासे भी गये बीते थे अर्थात् जरा तो कुछ दिन मनुष्यको ठहरने भी देती है, पर वे पकते ही फलोंको गिरा देते थे । वहाँ फल-पुष्प आदिकी शोभासे रहित क्षीरवृक्ष थे । एवं वहाँ घुघरूके समान शब्दवाले और विल्कुल छोटे छोटे पत्तोंवाले पवित्र इमलीके वृक्ष थे । वहाँ विपुल और सुन्दर पत्तोंवाले निर्मल केलेके वृक्ष शोभित थे, जो अपने फलोंसे कल्पवृक्षके फलोंको भी जीतते थे। और वहीं कषैले फलोंसे सुशोभित आँवले के वृक्ष थे, वे ऐसे जान पड़ते थे कि मानों मुनि - गण द्वारा जीती गई कषायें ही स्थित है।
ऐसे रमणीक वनमें पहुँच कर उन सबने खूब क्रीड़ा की । वहॉ भीमसेनने एक ऑवलेका वृक्ष देखा । वह खूब फला हुआ था । उसकी डालियाँ बड़ी मोटी थी । वह पत्तोंसे और फलोंसे लदा हुआ था । उस पर अभिमानी कौरवोंके साथ साथ बली भीम क्रीड़ा करने लगा वह उस पर कभी चढ़ता और कभी उतरता था । कोई उस पर चढने का यत्न करता था और फिर चढ़नेको असमर्थ हो स्वयं ही उतर पड़ता था । कोई उसे दिलाता और कोई चढ़नेके लिए उसका आलिंगन करता था, पर डर कर फिर दूर हट जाता था । कोई उसे अपनी छाती के बल खूब हिला डालता था और दूसरा कोई आकर गिरे हुए उसके फलोंको बटोरता था । उस पर चढ़ने के लिए यद्यपि उन सबने बड़ी कोशिशें कीं, पर वह बहुत ही ऊँचा था, इसलिए उस पर कोई भी न चढ़ सका-सव हिम्मत हार गये । कौरवों लिए उस पर चढना कठिन होने पर भी भीमसेन हिम्मतके साथ उस पर अति शीघ्र चढ़ गया । यह देख कौरवोंको बहुत बुरा लगा और वे उस पवित्र आत्माको पेड़ परसे नीचे गिरा देना चाहने लगे---उनके चित्तमें द्वेप-बुद्धि-वश भीमको नीचे गिरा कर कष्ट देनेकी इच्छा हुई । उसको गिरानेके लिए उन्होंने इकट्ठे होकर जोरके साथ उस महान् वृक्षको खूब प्रचंडतासे हिला डाला । परन्तु उस हिलते हुए वृक्ष पर भी वह बली निश्चल ही बैठा रहा-रंच मात्र भी न चला। और है भी ठीक कि नदियोंका चाहे जैसा ही क्षोभ क्यों न हो, उससे समुद्र बिल्कुल नही चलता है । उनके इस उद्योगको देख कर ऊपरसे भीमने कहा कि यदि आप लोगों में इस विपुल वृक्षको उखाड़ देनेकी ताकत हो तो उखाड़िए | परन्तु इतना कहने पर भी वे चंचल-चित्त कुछ भी न कर सके चुप रह गये | सच है कि दीन-दुर्वल पुरुष चाहे कितने ही क्यों न हों, पर वे एक थोडेसे ऊँचे पहाड़को भी नहीं चला सकते । आखिर भीमको उनका खोटा अभिप्राय मालूम पड़ गया और वह अपने घरको चला आया ।
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पाण्डव-पुराण २०