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________________ mer.mmmmmun . .. ... .. m m m mmmm armamerirman normanarar १५२ पाण्डव-पुराण। लोग परस्परमें धनुर्वेदके द्वारा क्रीड़ा करते, धनुष-बाण द्वारा लक्ष्यवेध करते हुए दिल बहलाते । परन्तु दुर्योधन आदिसे पांडवोंकी राज्यवृद्धि न सही गई-वे उनके अम्युदयको देख देखकर जलने लगे और उनके विरोधी वन गये। वे उनके साथ बड़ी उद्धतत्ता दिखाने लगे। उनमें परस्पर स्पर्धा पढ़ने लगी और साथ ही साथ विरोध भी बढ़ता जाने लगा। धीरे धीरे उनमें अतीव दुःखदाई वैर हो गया। यह देख गांगेय आदि गंभीर पुरुषोंने वैर-विरोध मिटानेके लिए युक्तिसे पांडवों और कौरवोंमें आधा आधा राजा वाँट दिया । परन्तु तो भी प्रचंड पांडवों और कौरवोंमें वैर-विरोध बढ़ता ही गया-वह कम न हुआ। कारण, अकेले कौरव ही पूरे राज्यको चाहते थे। कौरव लोग स्वभावसे ही हृदयके दुष्ट और वाणीके मिष्ट थे । वे रोषके भरे सदा ही पांडवोंको मारनेकी चेष्टामें लगे रहते थे, पर तो भी वाहिरसे प्रीति ही दिखाते थे । इन सब बातोंके रहते हुए भी सब कौरव-पांडव सुन्दर सुंदर प्रदेशोंमें एक साथ क्रीड़ा किया करते थे। एक दिन महान् योधा भीमसेन अपनी इच्छासे कौरवोंके साथ वनमें क्रीड़ा करनेको गया; और वहाँ अपने आपको धूलसे पूर कर वह कौरवोंसे वोला कि जो कोई मुझे इस धूलमेंसे निकाल लेगा वही घलवानोंमें वली है । यह सुन सबके सव कौरव उसे धूलमेंसे निकालनेको तैयार हुए और अभिमानमें आकर उसे निकालनेकी प्रतिज्ञा करने लगे। परन्तु वे उसे रंचमात्र भी न चला सके---जोर लगा लगा कर थक गये।ठीक ही है कि बहुतसे चूहे मिलकर सुमेरुको नहीं चला सकते । यह देख उन छुपे हुए शत्रुओंके मनका उत्साह मंद हो गया और उनके मुंह मालन हो गये। इसके बाद वे वहाँ से वापस घर लौट आये। इसके बाद एक दिन फिर भीमसेन कौरवोंके साथ वनक्रीडाको गया और एक ऐसे वनमें पहुंचा, जो घने वृक्षोंसे सुशोभित था । जिसका एक एक वृक्ष डालियोंके आगेके भागमें लगे हुए पत्तों, फलों और पुष्पोंसे युक्त था। वहॉके मनोहर आमके वृक्ष फलोंके भारसे नम गये थे और उन पर कोयलें बोलती थीं। अतः जान पड़ता था कि मानों वे कोयलोंके शब्दोंके बहानसे फलोंको चाहनेवाले सत्पुरुपोको ही बुलाते हैं । सबेरेकी लाल छटाके जैसे उनके जो लाल पत्ते थे वे मूंगाकी घेलोंको हँसते थे । ठीक ही है कि समानता हँसी ही कराती है । वहॉके खजूर-वृक्ष ऐसे शोभते थे मानों वे जर्जरा जराको ही जीत रहे है । क्योंकि
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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