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________________ २२६ • पाण्डव-पुराण। wwwmar पन्द्रहवाँ अध्याय । -- -- 'उन पुष्पदत्त भगवानको प्रणाम है जिनके दॉत कुन्दके पुप्प-तुल्य हैं, कान्तिशाली है, जिनके शरीरका वर्ण भी कुन्दके पुष्पके जैसा निर्मल है और जो संसारके प्राणियोंको निर्मल-कर्ममल रहित करते हैं । वे मुझे निर्मलता प्रदान करें। ____ इसके बाद गंभीर पांडव आनन्द-चैनसे त्रिशंगपुरके गली-पाजारों वगैरहकी सुंदर शोभाको देखते हुए वहाँसे चले और एक महान् अरण्यमें पहुंचे, जो उत्तम प्राणियोंका शरण और वृक्षावलिसे प्रच्छन्न था । वहाँ मार्गकी थकावट और सूरजकी गर्मीसे युधिष्ठिरको प्यासकी पीड़ा सताने लगी। उन्होंने पीड़ित होकर भीमसे कहा कि प्यारे भीम, मुझे बहुत प्यास लग रही है और उसके कारण अब मैं आगे एक कदम भी नहीं जा सकता हूँ। इस लिए तुम सब कुछ देर तक यहीं ठहर जाओ । यह कह कर युधिष्ठिर पृथ्वी पर बैठ गये।। उनके इस समयके प्यासके दुःखको सूरज भी अपनी आँखोंसे देख न सका, सो इसी लिए मानों वह पच्छिमकी ओर अस्ताचल पर जाकर छिप गया। वात भी यही है कि दुर्द्धर आपत्ति किसीसे देखी नहीं जाती । सुरजके अस्त होते ही भौरोंके समान विल्कुल काले अंधेरेके समूहने सभी दिशाओं पर अपना अधिकार जमा लिया। इस समय प्याससे अत्यन्त दुःखी होकर युधिष्ठिरने पुनः भीमसे कहा कि भाई भीम, तुम जल्दी जाओ और कहीसे ठंडा जल लाकर मेरी प्यासको शान्त करो । तुम्हें यह नहीं मालूम कि प्यासा पुरुप न तो मार्ग ही तय कर सकता है और न अपने शरीरकी ही रक्षा कर सकता है । इतना कह कर कष्टसे युधिष्ठिर वहीं भूमि पर लेट गये । उनकी ऐसी अवरथा देख कर भीम बड़ा भयातुर हुआ और वह उसी समय वर्तन ले, जल लानेके लिए दूसरे वनमें गया । दैवयोगसे वहाँ पहुँचते ही उसे एक सुन्दर तालाब दीख पड़ा। उसे देख कर उसके हृदयका भव कम हुआ । तालाव हंसोके द्वारा हँसता हुआ और चकवे चकत्रीके शब्दों द्वारा बोलता हुआ जान पड़ता था । उसमें तरंगें लहरा रही थीं और सुन्दर कमल खिल रहे थे । वह लम्बा-चौड़ा भी खूब था। उसके किनारों पर सघन वृक्षावलि उसकी अपूर्व ही शोभा बढ़ा रही
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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