________________
चौदहवाँ अध्याय।
२२५
कल्पलोंके पासमें खड़ी हुई कल्पलतायें ही हैं । यहाँ प्रन्यकार कहते हैं कि जीवोंको इस लोक और परलोकमें जो सुख मिलता है, वह सब पुण्य-क्षका ही फल है । इस लिए जो सुख चाहते हैं उन्हें सदा धर्ममें लगा रहना चाहिए। देखो, यह सव पुण्यका ही फल है, जिससे कि युधिष्ठिर सारे संसारमें युद्धमें पीछे पॉच नहीं देनेवाले प्रसिद्ध हुए । उन्हें श्रेष्ठ बन्धुओका लाभ हुआ । वे देश, विदेश, भयानक वन-जंगलों में जहाँ कही गये वहीं राजी महाराजाने उनका आदर किया; स्त्रियोंने उनकी पूजा की और उन्हें अपना पति बनाया । वह युधिष्ठिर वाञ्छित फलको देनेवाले इन्द्रके जैसे सुशोभित हुए ।
और भी देखो, फि कहाँ तो हाथियों के नादोंसे शब्दमय होनेवाला हस्तिनापुर है-और कहाँ कौशिफपुरी जहाँसे युधिष्ठिरको कन्याका लाभ हुभा; कहाँ कौशाम्बीपुरी जहाँसे उन्हें वसन्तसेना मिली; और कहाँ त्रिशंगपुर जहाँप्ते उन्होंने ग्यारह सुंदरियाँ लाभ की । यह सब क्या, है, इस प्रश्नका उत्तर यही है कि पुण्यका फल ।
पाण्डव-पुराण २९