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________________ दूसरा अध्याय। देखनेसे संसार-समुद्रसे पार जानेवाला कोई महान् पुरुष नियमसे आज अपने घर आयगा । इसके बाद दो पहरके समय सच मुच ही प्रभु उनके घर आ पहुंचे। प्रभुको देखते ही श्रेयान्सको बहुत हर्प हुआ । उन्हें अपने पिछले भवकी याद हो आई । उन्हें यह भी स्मरण हो आया कि दिगम्बर मुनियों को किस विधिसे आहार दिया जाता है । फिर क्या था, वे सोमप्रभ सहित प्रभुके चरणों में पड़ गये और उन्होंने वैशाख सुदी तीन दिन प्रभुको साँटके मधुर रसका आहार दिया। भगवान को आहार देनेके प्रभावसे उनके यहाँ रत्नोंकी बरसा हुई। आहार लेकर मौनी और महामना प्रभु वहॉसे वनका चले गये और घोर तप तपने लगे। इसके बाद एक हजार वर्षमें प्रभुको केवलज्ञान प्राप्त हुआ-वे केवली हो गये। इधर भरत महाराजकी आयुधशालामें चक्ररत्नकी उत्पत्ति हुई और वे बहुतसी सेनाको साथ लेकर भारतवर्षको अधीन करने के लिए तैयार हुए । उस समय भरतने कौरव कुलदीपक जयको चुलाया और उन्हें सेनापतिका पद दिया। चक्रवर्तीके चौदह रत्नोंगेंसे सेनापति एक रत्न है। इस रत्नकी हजार देव रक्षा करते है । इसके बाद भरत चक्रवर्तीने दिग्विजय करना आरम्भ किया और साठ हजार वर्षमें सारे भरत-क्षेत्रको अपने अधीन कर लिया। एवं दिग्विजयका अन्त होने पर वे वापिस अयोध्या नगरीमें आ पहुँचे । सेनापति जयने मेघेश्वर देवतोंको । बड़ी बहादुरीसे जीता था, जिससे प्रसन्न होकर चक्रवर्तीने उनका नाम भी मेघेश्वर रख दिया। इसके बाद जय अपने राज्य गजपुरमें आये और वहाँ अमनचैनसे रहने लगे। उन मेघेश्वर जयकी जय हो, जो शुद्ध मना है; मनोहर रूपकी राशि हैं; बड़े बड़े प्रचंड शत्रुओं पर विजय-लाभ करनेको उद्यत है । जिन्होंने राजनीतिक द्वारा बैरियोंके समूहके समूह नष्ट-भ्रष्ट कर दिये और जो चक्रवर्तीके हृदयको प्रफुल्लित करनेके लिए सूरज हैं । एवं जिन्होंने मेघेश्वरको जीत कर सुरेन्द्रकी समता की और अपने अखंड पराक्रमसे वैरियों पर विजय पाई । जो सच्चे गुणोंके भंडार और तेजके पुंज है । जयशील होनेके कारणसे ही जिन्हें जय कहते हैं । जो सेनापति-रत्न हैं तथा देवता-गण और महान् पुरुष जिनकी सेवा करत हैं । यहाँ ग्रन्थकार कहते हैं कि संसारमें धर्मके फलसे ही पुरुष गण्य-मान्य होते हैं। पूज्य तथा उत्तम उत्तम पद पाते है । इस कारण जीवमात्रका पहला कर्तव्य है कि वह हमेशा धर्मका ध्यान रक्खे । पांडव पुराण ५
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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