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________________ १४२ पाण्डव-पुराण । ~ ~mmmmmmm x mmer woom comn ...... . ... ... .mom ww.rr .. निकट वीरशय्या स्वीकार की । इस वक्त वह आराधना-रूप नौका पर चढ़ कर संसार-समुद्रको पार करनेकी इच्छा रखता था । वह सब जीवों पर हमेशा समताभाव रखता था, सब जीवोंसे मैत्री रखता था, गुणी पुरुषोंको देखकर - बड़ा आनन्दित होता था और विपरीत आचरण करनेवालों पर मध्यस्थ---- उदासीन-रहता था। वह दीन-दुःखी जीवों पर दया करता था। उसका मन बिल्कुल स्वच्छ था । उसने प्रायोपगमन संन्यास धारण किया। वह अपने शरीरकी किसीके द्वारा या अपने आप सेवा-टहल नहीं चाहता था। घोर तप करनेसे उसका शरीर वड़ा कृश हो गया था । पंच परमेष्ठीका सदा काल ध्यान करनेसे उसका हृदय उत्तम उत्तम भावोंका स्थान हो गया था । उपवास आदि . ' द्वारा उसका शरीर ही कृश हुआ था, पर की हुई प्रतिज्ञा एक भी शिथिल न हुई थी। और ऐसा ही होना भी चाहिए, क्योंकि वास्तवमें उत्तम पुरुषोंका व्रत वही है जो कभी भंग न हो । तपके वलसे शरातुके मेघोंकी नॉई उसका स्वच्छ और सफेद शरीर कृश हो गया था, अत: वह ऐसा देख पड़ता था मानों मांस आदिसे रहित स्वच्छ शरीरवाला सुर ही है । उसके शरीरमें केवल चर्म और हड्डी रह गई थी; मांस नाम मात्रको भी न था । दुर्द्धर परीपहोंको सहनेसे उसका आत्मवल प्रगट हो गया था। सच पूछो तो यह सब ध्यानका ही प्रभाव था । वह ध्यानी ध्यानके वळसे हमेशा मस्तक पर सिद्धोंको, मनमें, जिनोंको, मुँहमें साधुओंको, नेत्रोंमे परमात्माको धारण किये रहता था । कानोंसे , मंत्रोंको सुनता था और जीभसे उन्हें बोलता था। वह अपने मनोगृहमें सदा निरंजन अर्हन्तदेवको विराजमान किये रखता था। जिस तरह भ्यानसे तलवार जुदी होती है, उसी तरह वह शरीरसे आत्माको जुदा समझता था। ऐसी अवस्था में ही उस मंत्र-वेदीने अपने प्राणोंका त्याग किया। वह देह-भारसे हलका हो, धर्मके फलसे सौधर्म स्वर्गमें गया। वहाँ उसने मेघ-रहित आकाशमें विजलीकी ' नॉई, एक अन्तर्मुहूर्तमें, नवयौवन परिपूर्ण, सब लक्षणोंसे लक्षित शरीर धारण कर उपपादशय्यामें सोतेसे उठ-बैठनेके जैसा जन्म धारण किया । वह केयूर, कुंडल, सुकुट और अंगद आदि भूषणोंसे विभूषित था, दिव्य वस्त्र पहिने था, सुन्दर सुंदर मालायें उसके गलेमें पड़ी हुई थी । उसके शरीरकी कान्ति दिव्य थी । उस समय उस पर कल्प-वृक्षोंने दिव्य फूलोंकी बरसा की। दुंदुभि वाजे वजे, जिनके शब्दसे दिशाओंके तट गूंज उठे । सुगन्धित शीतल वायु- जल-कणोंको फैकती हुई वही, जिसके सम्बन्धसे इधर उधर
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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