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________________ दसवाँ अध्याय । १४१ देवतों पर भी विजय पाई-काल वलीकी फलाओं द्वारा अपने प्राणोंका त्यागकर शिवको गया तब हमारी तुम्हारी तो वात ही क्या है। यहाँ तो काल ही वली है, उसके आगे किसीकी भी नहीं चलती। और भी देखो कि जिस कुरुवंश-शिरोमणि कुरु राजाने सम्पूर्ण शत्रुओंफा नाश किया, पर काल-शत्रुने उसका भी ग्रास कर लिया उससे वह भी न बच सका । सच बात तो यह है कि इस असाता-रूप संसारमें चकार लगाता हुआ कोई भी सत्पुरुप सनातन नहीं देख पड़ता; फिर पर्थ शोक करनेसे लाभ ही क्या है । वताओ तो सही कि 'इस पृथ्वीको भोगकर कौन कौन नहीं चले गये; और यहाँ किस किसका हृदय भोगोंसे हताश नहीं हुआ। अब जब कि मेरी विल्कुल ही थोड़ीसी आयु रह गई है तव मैं भोगोंका क्यों विश्वास करूँ, मुझे तो उनका छोडना ही उचित जान पड़ता है। लक्ष्मी, महल, चन्द्रवदनी स्त्रियॉ, हाथी और घोड़े वगैरह ये सब निश्चयसे चंचल-अथिर-हैं। भला, सवेरेके वक्त तिनकोंके आगेके भागमें जो ओसकी दें लगी रहनी है उनमें कान मूढ़ स्थिरताकी घुद्धि करेगा । इस प्रकार सवको समझा बुझाकर पानी पाइ पंडितने शुद्ध मन हो, धन वगैरहसे बुद्धिको हटाकर धर्ममें चित्त लगाया। उस समय पांडुने भक्तिभावसे जिन भगवानकी पूजा की और पापसे भयभीत हो जिनपूजाके साथ-साथ खूब नृत्य-गान आदि उत्सव किया; साधर्मी जनाको चार प्रकारका दान दिया; दीन-दुःखी जीवोंको संतुष्ट किया और अन्य सवको भी यथायोग्य संतुष्ट कर वह भव भेदनेके लिए तैयार हुआ । इसके बाद उसने अपने युधिष्ठिर आदि पाँचों पुत्रोंको बुलाया और उन्हें राजभारसे विभूपित कर तथा धृतराष्ट्रके हवाले कर धृतराष्ट्रसे कहा कि भाई, तुम इन मेरे पुत्रोंको अपने पुत्र ही समझकर इनका पालन-पोषण करना । आपसे अधिक कहने सुननेकी आवश्यकता नहीं है, आप कुरुवंशके रक्षक हैं । इसके बाद उसने पुत्रों के पालन-पोपणके सम्बन्धमें कुम्तीको भी उचित शिक्षा दी और वह संसार-देहभोगोंसे विल्कुल ही उदास हो परलोक साधनके लिए तैयार हो गया। इस समय मोहके वश हो युधिष्ठिर आदि सभी रोने लगे। पांडने उन्हें भी अपने राज्यको यथावत णलनेके सम्बन्धमें समझाया । इसके बाद उस चतुरने अपने कुटुंबके सब लोगोंसे क्षमा मांगी और अपनी ओरसे सवको क्षमा फी; तथा परिग्रह वगैरहको छोडकर, घरसे वाहिर हो, वह वनकी ओर चल दिया। वह आत्म-वेदी गंगा-तट पर गया और वहाँ एक मासुक प्रदेशमें संन्यास धारण कर स्थिरताके साथ बैठ गया। उसने आजन्मके लिए आहार, शरीर आदिका त्यागकर ज्ञानी गुरुके
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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