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अठारहवाँ अध्याय ।
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अठारहवाँ अध्याय।
tove रन वासुपूज्य तीथेश्वरको प्रणाम है जो बसुपूज्यके पुत्र हैं, इन्द्र, नरेन्द्र
आदि जिनकी पूजा-स्तुति करते हैं और जिनके प्रसादसे जीव स्वयं भी पूज्य बन जाते हैं । वे प्रभु मुझे संसार-समुद्रसे पार करें।
इसके बाद जहाँ पांडव ठहरे हुए थे, वहाँ एक मुनियोंका संघ आ गया। वह सब गुण-सम्पन्न था, निर्मल-बुद्धिका धारक था, ईर्यापथ शुद्धिका पालक था, परिग्रह-रहित और शीलसे विभूषित था । उसको देख कर पांडव बहुत हर्षित हुए; और वे धर्मात्मा उसी वक्त मुनियोंकी वन्दनाके लिए गये तथा उन्हें विनीत भावसे प्रणाम कर उनके आगे बैठ गये।
इसके बाद विचार-चतुर युधिष्ठिरने मन-ही-मन विचार किया कि मेरे पापका बड़ा उदय है और उसीका प्रेरा हुआ मैं वनमें घस रहा हूँ । इस समय मैं अपने कर्तव्यको कैसे 'निवाह सवता हूँ जब कि 'मैं स्वयं 'यहाँ फलों पर निर्भर रह कर ज्यों त्यों अपने कुदिनोंको विता रहा हूँ । मेरे पास कुछ धन भी नहीं है । तव ऐसी हालत मैं इन महात्मा मुनिजनोंको दान कैसे हूँ और जन्म सफल करूँ । मुर्दे जैसे मुझ गरीवका यह जीवन धिक्कारका पात्र है । मुनिदानके विना दिये जीते रहनेसे तो कहीं मरना ही अच्छा है।
युधिष्ठिर इसी चिन्तामें उलझ रहे थे। उन्हें इस प्रकार चिंतित देख कर संघनायक महामुनिने उनसे कहा कि युधिष्ठिर, जब कि तुम संसारकी हालतको जानते समझते हो तव तुम्हें इस सम्बन्धमें तनिकसा भी विषाद और खेद नहीं करना चाहिए । विनयके आगार और वात्सल्यके भंडार भव्य, तुम देखो कि हमारा तुम्हारा जो समागम हो गया है यह भी एक भारी धर्मका वैभव है, इसे तुम कुछ थोड़ा न समझो । और एक बात यह है कि यहाँसे आगे तुम्हें और भी बड़े बड़े कष्ट होंगे; परन्तु तुम उससे विचलित न होकर उन्हें शान्तिसे सह लेना । - इसके बाद वह मुनियोंका संघ तो सिंह, शार्दूल आदिके निवास स्थान और महान उन्नत सगिरि नाम पहाड़ पर चला गया और न्यायके ज्ञाता तथा गंभीराशय मांडव धर्म द्वारा अपना समय बिताते हुए बहुत दिनों तक वहीं रहे ।
एक समय रूप-सौन्दर्यशाली अर्जुन, हायमें गांडीव धनुष ले इन्द्र-क्रीडाके लिए निकला । उस समय उस निर्भयने किसी भयंकर रास्तेमें जाते हुए