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पाण्डव-पुराण दुखी हुई द्रोपदीको भी वहीं छोड़ना चाहा, पर वह रूप-सौन्दर्यकी सीमा वहाँ नहीं ठहरी । वह उनके साथ ही वनको चली । धर्मात्मा पांडव मन-ही-मन भावनाओं पर विचार करते हुए द्रोपदीकी गतिके अनुसार मंद मंद चले जाते थे। . वे वन, उपवन, शिला और पहाड़की चोटी पर सिंहकी नॉई निर्भय हो कर वास करते थे । वे मार्गमें जो फले हुए वृक्ष मिलते थे उनके फलोंको खाते, रास्तेमें पड़नेवाली नदियोंका पानी पीते और वल्कलोंके वस्त्र पहिनते थे।
इसके बाद वे मार्गके कष्टोंको सहते हुए पहाड़ों आदि विषम स्थलोंको लाँघ कर भॉति भॉतिके वृक्षोंसे सुशोभित कालिंजर नामके वनमें पहुंचे । वहाँ उन्होंने एक ऐसा वरगदका पेड़ देखा, जो पत्तों और डालियोंसे खूब छायादार था। उसे देख कर भूख-प्याससे थके हुए पांडव उसके नीचे घनी छायावाली भूमिमें आराम करनेके लिए ठहर गये।
जूआ नरफका रास्ता है, दुःख-रूपी साँपका बिल है, धर्मका विध्वंसक है, सब दोषोंका स्थान है, पराभवको देता है, आपत्तिका समुद्र है और हित-अहितके विवेकको भुला देनेवाला है । इस लिए सुखके चाहनेवालोंको उससे सदा दूर ही रहना चाहिए।
और भी देखो कि यह द्यूतकर्म दुर्गतिको देनेवाला है, झूठ तथा पापका खजाना है । माँस मदिराकी रुचिको बढ़ाता है, अत एव शिकारमें प्रत्ति कराता है, वेश्या और परस्त्रीकी चाहको बढ़ाता है और चोरीकी शिक्षा देता है । इसकी संगतिसे जीवोंकी लोलुपता बढ़ जाती है । मतलब यह कि यह सभी व्यसनोंमें प्रकृति कराता है। और इसी कारणसे आचार्योंने इसे सारे व्यसनोंमें प्रधान बताया है, अतः उत्तम पुरुषको इसका नाम भी नहीं लेना चाहिए।
देखो, यह सब इसी जूआका ही प्रभाव है कि जिसके निमित्तसे उपमारहित प्रवीण पांडव भी अपने देशसे भ्रष्ट होकर व्याघ्र, साँप वगैरहके निवासस्थान वनमें रहे और सो भी आहार आदिके बिना दारुण दुःखोंको सहते हुए। भतः महान महान पुरुषोंको भी दारुण दुःखोंमें डालनेवाले इस दुष्ट कर्मको चेष्टाकी धिक्कार है और यह सब अनौँका मूल छोड़ने योग्य है।
महातिसे जीवोंकी लाचाहको बढ़ाता जाता है, अत एवमला है, झूठ तथ