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पहला अध्याय |
४ कर्ता - इस ग्रन्थके मूलकर्ता तो तीर्थकर भगवान है और उत्तर- कर्ता गौतम स्वामी तथा विष्णुनन्दि, अपराजित, गोवर्द्धन, भद्रबाहु आदि श्रुतकेवली और ऋषिगण है।
५ अभिधान --- इस ग्रन्थका नाम पांडव-पुराण है, क्योंकि इसमें पुराण पुरुपोंकी कथा कही गई है, इस लिए तो यह पुराण है और वे पुराण- पुरुष पाडव हैं, इस लिए इसका नाम पांडव-पुराण पड़ा है ।
६ संख्या - अर्थतः तो इसकी संख्या अनंत है; पर अक्षर-रचना के हिसावसे संख्यात ही है ।
इन छह वातोंका विचार कर ही पुराणकारको पुराणकी रचना करनी चाहिए | इसी नियमके अनुसार यहाँ इन पर विचार किया गया है । पर ध्यान रहे कि ये बातें द्रव्य, क्षेत्र, तीर्थ, काल, और भावके भेदसे पॉच ही हैं । यह सव विचार कर ही पुराणकार अपने पुराणको आरम्भ करते हैं । और श्रोताओंके मनोविनोदके लिए उसकी आदिमें वक्ता, श्रोता और कथाका भी विचार कर लेते हैं । उसीके अनुसार यहाँ भी वक्ता आदिके स्वरूप पर विचार किया जाता है
वक्ता — उपदेश देनेवाला - वह अच्छा है जो शुद्ध और साफ बोलनेवाला, व्याख्याता, धीरवीर, बुद्धिमान और साफ-स्वच्छ अभिप्रायवाला हो; जिसे लोक व्यवहारका पूरा पूरा ज्ञान हो जो चतुर हो; पूरा विद्वान और शास्त्रोंके रहस्यको जाननेवाला हो; निस्पृह तथा मंद कपायवाला हो; जिसकी इंद्रियॉ वशमें हों और जो आत्म-संयमी हो; शान्त-मूर्ति, सुन्दर एवं मनोहर नेत्रोंवाला और देखने में प्यारा लगता हो; जिसे संसार - समुद्र से पार करनेवाले तत्त्वोंका पूरा पूरा ज्ञान हो; जो छह मत और न्यायका पूर्ण विद्वान हो; जिसके मतको सभी मानते हों; जो स्वयंव्रतका धारक और व्रती पुरुषों द्वारा मान्य हो, जिन आगमका प्रेमी, चतुर और उत्तम लक्षणोंवाला हो; राजा लोग जिसका सत्कार करते हों; जिसका पक्ष समर्थ --- शक्तिवाला हो; जो प्रश्नोंका पहलेसे ही उत्तर जाननेवाला, सुन्दर और कुलीन हो; अपने देश और अपनी जातिका हो : प्रतिभावाला, शिष्टाचारी और अनिष्ट आपत्ति वगैरहसे रहित हो; सम्यग्दृष्टि और मीठा बोलनेवाला हो; सबको प्यारा और खूब समझानेवाला हो; गौरवशाली और प्रसन्न - 'चित्त हो; वादियोंका स्वामी और उनके ऊपर अपना प्रभाव डालनेवाला हो;