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पाण्डव-पुराण ।
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बहुतसे नौकर-चाकरोंको साथ ले राजा वहाँ आया और उसने सन्दूकको जलसे बाहिर निकलवाया। इसके बाद उसे खोलकर देखने पर उसमें एक अद्भुत वालक पड़ा हुआ मिला । उसे उठाकर राजाने अपनी गोदमें ले लिया और निमित्तज्ञानीके वचनों पर गहरी दृष्टिसे विचार कर वह रानीसे बोला कि पिय राधे, तुम शुद्ध विचारोंको अपने हृदयमें स्थान देती हो, समृद्ध और बुद्धिके पारंगत हो, अतः अपने तेजसे सूरजको भी लज्जित करनेवाले इस अतीव मनोहर वालकको ग्रहण कगे-गोदमें लो। स्वामीके इन वचनोंको सुनकर रानी बड़ी प्रसन्न हुई। उसने बड़े हर्षके साथ उस वालकको अपनी गोदमें ले लिया। उसे लेते समय रानी अपने कानोंको खुजा रही थी, अतएव राजाने उसका कर्ण नाम प्रसिद्ध किया। राजा भानुके यहाँ कर्ण कला, शोभा, लक्ष्मी, आदिसे सब प्रकार वढ़ने लगा। उसका तामस--अज्ञान-नष्ट होकर वह सारी पृथ्वीको आनन्द देने लगा । जैसे दोजका चॉद बढ़कर और धीरे धीरे तामस-अँधेरे-को नष्ट कर लोगोंको आनंद देने लगता है।
पुण्योदयसे जिसे ऐसा सौभाग्य प्राप्त है, सारे देवता-गण जिसकी सेवा करते हैं, और जिसका शरीर दिव्य है, जो सकल शास्त्रोंका ज्ञाता है, जिसकी शास्त्र के विषयमें हमेशा ही शुभमति रहती है वह कर्ण सारे संसारमें सुशोभित हो । ___जो शास्त्र-श्रवणमें दक्ष है, कला और कीर्तिका स्वामी है, कान्ति-शाली और करुणा-भावसे पूरित है, जिसका चित्त हमेशा ही दयासे भीगा रहता है, जो कुन्तीका पुत्र तथा-कोमल कासिनी-जनोंको सुख देनेवाला है, मनोहर और सुकृती है, लक्ष्मीका स्थान और प्राणी-रूप कमलोंको विकशित करनेके लिए सूरज है वह कर्ण अपनी श्री-कान्ति-से सुशोभित हो । '