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________________ आठवाँ अध्याय । ११५ दानको पाकर लोग कल्पवृक्षोंको भी भूल जाते थे । एवं इसके होते हुए वे न तो चिंतामणिको याद करते थे और न कामधेनुको ही । वह बड़ा ज्ञानी था । बड़े बड़े शास्त्रज्ञ भी उसे विद्वान् मानते थे। वह युद्धकलामें कुशल योधा था; प्रतापशाली और शत्रु-पक्षका विध्वंसक था। उसकी प्रियाका नाम था राधा। राधाके लिए भानुने देवतोंकी आराधना की थी। तब कहीं वह उसे मिली थी। वह भी प्रेमकी अन्तिम सीमा ही थी। लोग उसे लक्ष्मीकी उपमा देते थे। कारण कि जैसे लक्ष्मी लोगोंको आनंद देकर सुखी बनाती है वैसे ही वह भी प्रजाको आनंद देकर सुखी करती थी । तात्पर्य यह कि उसकी कृपासे प्रजाका समय सुख-चैनसे वीतना था । लक्ष्मीको लोग शुभ मानते हैं । वह भी शुभ थी; उसके दर्शनसे लोगोंके अभीष्टकी सिद्धि होती थी | सच तो यह है कि उसके रूप-लावण्य, कान्ति-कला, गुण-चतुराई और अटूट सौभाग्यकी कोई विद्वान् तारीफ ही नहीं कर सकता है । वह भानुके हृदयसे लगी हुई सरस्वतीसी जान पड़ती थी। क्योंकि सरस्वतीमें अलंकार वगैरह होते हैं, वह भी अलंकार-भूषण वगैरह पहिने थी। सरस्वती सुरीतियाँ बताती है, वह भी अपनी चाल-ढालसे लोगोंको सुरीतियाँ वताती थी। सरस्वती निर्दोष और गुणवती होती है, वह भी दोपरहित और गुणोंसे युक्त थी । सरस्वती लोगोंके हृदय-मन्दिरमें रहती है, वह भी राजाके हृदय-मंदिरमें निवास करती थी। वह रंभाके जैसी सुन्दर थी; यही नहीं किन्तु उससे भी बढ़कर सुन्दर थी । उसकी जॉर्षे केलेके थंभेके जैसी सुन्दर थीं। उसकी दृष्टि लोगोंके मनमें विभ्रम पैदा करती थी । वह भोगोंसे पूर्ण और मनको मोहित करनेवाली होनेके कारण इन्द्रकी इन्द्राणी जैसी शोभती थी। वह बड़ी सम्पत्तिशालिनी थी। विपति उसके पास भी न फटकती थी। यह सब कुछ होने प भी दैवदुर्विपाकसे उसके कोई सन्तान थी। __एक दिन राजाने एक निमित्तज्ञानीको बुलाया और पूछा कि मेरे यहाँ पुत्र पैदा होगा या नहीं ? इस प्रश्नको सुनकर अष्टांग-निमित्तके पंडित और वाग्मी उस निमित्तज्ञानीने सोचकर कहा कि हे सूरजके जैसे प्रतापशाली और मजा-पालक महाराज, मैं निमित्त-ज्ञानसे आपके इस प्रश्नका उत्तर देता हूँ, उसे सावधान चित्त होकर सुनिए । यमुना नदीके किनारे तुम्हें एक संदूक मिलेगी। उसमें मे एक सुन्दर बालक निकलेगा, जो सारे संसार द्वारा मान्य होगा। इसके वाद कुछ काल बीत चुकने पर ऐसा ही हुआ और एक सन्दूक यमुना नदीके प्रवाहमें बहती हुई किनारे आकर लगी। सन्दूकको वहकर आनेका समाचार सुनकर
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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