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पाण्डव-पुराण |
वॉध लिया था । इस प्रकार शत्रुओ पर विजय लाभ कर सिंहके समान पराक्रमी राजा जय बड़ा सुखी हुआ । जब देवतोंको जयके जीतकी खबर लगी तब उन्होंने आकाशसे फूलोंकी बरसा की और जयध्वनिसे दशों दिशाओंको शब्द-मय कर दिया। इसके बाद जयने रणस्थलका निरीक्षण किया और मरे हुए बीरोंकी दग्ध क्रिया तथा जीते हुओंकी जीवनक्रिया अर्थात् औषधि वगैरहका प्रबंध किया । यह सब किये बाद जय अकंपन महाराजके साथ साथ काशी आये । काशी मनुष्योंसे भरपूर और लहलहाती हुई धुनाओंसे सुशोभित थी और भाँति भाँतिकी सम्पत्ति से सजाई गई थी, जान पड़ता था कि जयकी जीतकी खुशीमें नगरीने अपनी काया ही पलट डाली है । वहाँ पहुँच कर जयने पकड़े हुए राजों और अर्ककीर्तिको चतुर पुरुषोंके द्वारा आश्वासन दिलवा कर उन्हें उनके योग्य स्थान पर ठहराया । इसके बाद जय वगैरहने यह समझ कर कि सव विवाधाओंका नाश जिनेन्द्र देवके प्रसादसे ही होता हैं, उनकी पूजा-वन्दना की और भाँति भॉतिकी स्तुतियों द्वारा उनकी स्तुति की। बाद सबके सब अपने अपने स्थानको चले गये । वहाँ जाकर जय और अकंपनने पकड़े हुए राजों और विद्याधरोंको छोड़ दिया और योग्य मीठे वचनों द्वारा उनके हृदयोंमें विश्वास करा दिया कि तुम लोग किसी भी तरहकी चिन्ता मत करो ।
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इसके बाद भव्य और सरलचित्त जय और अकंपनने अर्ककीर्ति कुमारकी स्तुति कर उन्हें नमस्कार किया और कहा कि कुमार ! हमारे कुलोंको आपने ही बढ़ाया, पाला तथा पोषा है । फिर ये कुल आपके ही द्वारा कैसे नष्ट हो सकते थे । इसी लिए ऐसा हुआ । वास्तव में आपकी हार नहीं हुई । हम सब लोग तो आपके ही सेवक है । और एक बात यह कि सुत, बंधु तथा सिपाही वगैरहसे चाहे सौ अपराध ही क्यों न हो जायें, महापुरुष सभी माफ कर देते है; क्योंकि वास्तवमें उत्तम पुरुषोंका क्षमा ही भूषण है । कुमार ! हम अविवेकियोंसे आपका एक अपराध हो गया है, पर हम आपके सेवक है, इस लिए आप हमें क्षमा प्रदान कर दें। हमारी यही अभ्यर्थना है । प्रभो ! एक सुलोचनाकी तो वात ही क्या है, यह सर्वस्व ही आपका है और हम भी आपके हैं। यदि आपको सुलोचनाकी चाह ही थी तो पहलेसे ही स्वयंवर विधिको रोक देना चाहिए था । पर वास्तव में ऐसा भाव आपका न था; क्योंकि आप तो विश्वके पालक हैं । किन्तु किसी दुष्ट पुरुषने आपको आगकी नाई भडका दिया और उसीसे