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________________ १५० पाण्डव-पुराण । MARAN ग्यारहवाँ अध्याय । ie . उन सुमतिनाथ प्रभुको नमस्कार है जो बुद्धिक दाता और पंडितों द्वारा पूज्य हैं, जिन्हें सम्पूर्ण इन्द्र और नरेन्द्र आकर नमते हैं; वे मुझे सुमति दें। एक दिन विचारशील, दूरदर्शी, भविष्यको जाननेवाले, सूरजकी नॉई प्रभासे विभूषित और राजोंसे घिरे हुए धृतराष्ट्रने विचारा कि अहो, मेरे ये दुर्योधन आदि पुत्र युद्ध करनेमें शूरवीर हैं, शुद्धमना है, बुद्धिशाली चतुर हैं, पंडितों द्वारा सेवित हैं, वुद्धिसे बृहस्पतिके तुल्य हैं, लक्ष्मीके स्वामी है, सर्वश्रेष्ठ और वीर्यशाली हैं, धीरज और गम्भीरतासे युक्त हैं, संसार भर जिनके चरण-कमलोको पूजना है और राज्य के भोक्ता हैं परन्तु ये भी राज्य छोड़कर महायुद्धमें मरेंगे ! अहो, धिक्कार है ऐसे उन्नत राज्य-पदको, और धिक्कार है मरनेवाले इन अपवित्र पापात्मा पुत्रोंको; तथा आत्म-कल्याण नहीं करनेवाले मेरे इस जीवनको भी धिक्कार है । देखो, यह उत्तम राज्य चलके समान है और विषय विषके समान हैं । लक्ष्मी विजलीकी नॉई चंचल है, शोकका स्थान है । ये स्त्रियाँ जीवनको हरनेवाली हैं और पुत्र साँकलके समान है । तथा यह घोड़ोंकी घरा जेलखानेके तुल्य है । हाथी जन्म-जराके आकार हैं । ये रथ अनर्थको करनेवाले हैं और प्यादे-गण विपत्तिके निवास हैं, सम्पत्तिको हरनेवाले हैं। ये परिवारके लोग शत्रुके तुल्य हैं । मंत्री शोकको देनेवाले हैं । एवं भॉति भाँतिके रूपको धरनेवाले ये मित्र अपने अपने स्वार्थके साधक हैं। इस प्रकार धृतराष्ट्रने संसार-भोगोंसे विरक्त हो, गांगेयको बुलाकर उससे ये सव बातें कहीं। वह बोला कि गांगेय, जैसे चॉद हमेशा ही आकाशमें घूमा करता है उसी तरह यह जीव भी सतत संसारमें चक्कर लगाया करता है । अतः मैं अब इस हेय राज्यको पुत्रोंके लिए सौंपे देता हूँ। इतना कह कर उसने अपने पुत्रों और पांडवोंको बुलाया और गांगेष तथा द्रोणाचार्य के सामने उन पर राज्यका सव भार डाल दिया। इसके बाद उसने मातासुभद्रा सहित वनमें जाकर वहाँ सुव्रत योगांद्रको नगस्कार कर तथा केशोंका लोचकर जिनदीक्षा धारण की । वह विचार-चतुर तेरह प्रकारके चारित्रको पालता था और हमेशा पर्वतकी नाँई अचल होकर चैतन्य-स्वरूपका चिंतन करता था । उसने थोड़े ही समयमें समस्त आगमके अर्थको जान लिया । वह पुद्धिमान् मुनीश्वर हमेशा साधुओंके समागममें रहता था और विहार करता था ।
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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