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________________ पाण्डव-पुराण। में उसकी दृष्टि नाना लक्षणोंसे युक्त सुतारा रानी पर जा पड़ी । उसे देख कर उसका मन ललचा गया और वह उसे ले जानेके लिए उद्यत हो गया । उसने छलसे राजाके सन्मुख एक माया-मय मृग छोड़ा। वह नृत्य करता हुआ बहुत ही मनोहर जान पड़ता था। उसे देख कर मनोरमा सुताराने पतिदेवसे कहा कि हे प्रिय ! आप इस सुन्दर हिरणको दिल बहलानेके लिए पकड़ लाइए । सुताराके कहने पर राजा तो मृगको पकड़ लानेके लिए चला गया और इधर अशनिघोषने राजाका रूप धर कर सुताराके पास आकर कहा कि प्रिये ! आओ कुछ जल्दी है, अतएव सूर्यास्तके पहिले पहिले हम नगरको पहुच जाय । इतना कह कर वह सुताराको विमानमें बैठा कर आकाश मार्गसे ले चला । कुछ दूर पहुँच कर उस.कामीने अपना वास्तव रूप प्रगट किया, जिसको देख कर सुतारा बड़ी चिन्तित हुई। वह सोचने लगी कि यह कौन है ? उधर जब वह माया-मय मृग राजाके हाथ न आया और बहुत दूर निकल गया तव श्रीविजय वापिस लौट कर उसी स्थान पर आये, जहाँ वे सुताराको छोड़ गये थे । वहाँ उन्होंने वैताली विद्याको सुताराके रूपमें बैठी हुई देखा, जो अशनिघोषकी आज्ञासे वहाँ सुताराका रूप धर कर बैठी थी और यह कह रही थी कि मुझे कुक्कर नाय सर्पने काट खाया है । उसे देख कर मालूम पड़ता था मानो वह मर रही है । उसे इस दशामें देख कर श्रीविजय बड़े व्याकुल हुए। उन्होंने मणि, मंत्र, औषध आदिके बहुतसे उपचार किये पर जब कुछ भी फल न हुआ तब समझा कि यह विष वड़ा विषम और प्राणोंको हरनेवाला है। इसका उतरना बहुत ही कठिन है । अन्तमें वह भी उसके साथ मरनेको तैयार होगये । उन्होंने चिता बना कर उस पर सुताराको रख दिया और सूर्यकान्त मणिसे आग जला कर चिताको सुलगा दिया । इसके बाद वह स्वयं आकुल हो चितामें कूदनेके लिए पैर रखनेको ही थे कि इतनेमें आकाशसे उनके पास दो विद्याधर आ पहुँचे और उन्होंने विच्छेदिनी विद्याके द्वारा उस वैताली विद्याको नष्ट कर अपने वायें पैरसे उसके एक जोरकी ठोकर लगाई, जिसे न सह कर वह अपना वास्तविक रूप प्रगट कर उसी समय अदृश्य हो गई। यह देख श्रीविजयको बहुत ही अचंभा हुआ । उन्होंने विद्याधरोंसे पूछा कि, यह वात.क्या है ? उन्होंने उसकी कथा इस भॉति कहना प्रारंभ की भरतक्षेत्रके विजयार्द्ध पर्वतकी उत्तर श्रेणी में एक ज्योति प्रभपुरं नाम नगर है । वहाँका मैं राजा हूँ । मेरा नाम संभिन्न है। मेरी प्यारी स्त्रीका नाम सर्वकल्याणी है । और यह द्वीपशिख नाम मेरा सुखी और सुकुमार पुत्र है । स्थन् ।
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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