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तेरहवाँ अध्याय ।
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तेरहवाँ अध्याय ।।
-+are . उन सुपार्थ प्रभुकी मैं स्तुति करता हूँ जो जीवोंका हित करनेवाले हैं,
जिनके प्रभावसे जाति-विरोधी जीव भी अपने वैर-विरोधको छोड़ कर मित्र वन जाते हैं और जिनके चरण-कमलोंमे साथियाका चिन्ह है । वे मुझे संसारसमुद्रके पार पहुंचा।
एक समय यादव-गण अपनी सभामें बैठे हुए थे, इतनेहीमें वहाँ नारदजी आ गये । उन्हें आया देख कृष्ण आदि सव यादव-गण उठ खड़े हुए और सबने उनका स्वागत कर विनीत भावसे उन्हें नमस्कार किया । इसके बाद वे महलमें सत्यभामाके पास गये । सत्यभामाने उनका यथोचित आदर नहीं किया। इससे असन्तुष्ट हो वे एकदम कुंडिनपुरको चले गये । वहाँ पहुँच कर उन्होंने भीष्म और श्रीमतीकी पुत्री, रुक्मीकी छोटी बहिन रुक्मिणीको देखा । उसे देख कर वे मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए । वहाँसे वे फिर कृष्णके पास द्वारिका आये । यहाँ आकर उन्होंने रुक्मिणीकी सारी कहानी कृष्णको सुनाई, जिससे कृष्णके हृदयमें उसके प्रति राग हो गया और वह उसे चाहने लगे । यह वात बल्देवके कानमें पहुंची । उनने कृष्णको कुंडिनपुर जानेकी प्रेरणा की । कृष्ण उन्हें साथ लेकर कुंडिनपुर पहुँचे । कृष्ण चलते समय अपनी सब सेनाको भी कुंडिनपुर आनेका आदेश कर गये थे, अतः उनकी सेना भी अति शीघ्र ही वहाँ पहुँच गई । उधर रुक्मीने पहले हीसे शिशुपालको रुक्मिणी देनेका वचन दे रक्खा था, अतः शिशुपाल पहलेसे ही कुंडिनपुर घेरे हुए था। ___इन्हीं दिनों एक दिन सोनेके जैसी आभावाली रुक्मिणी नागदेवकी पूजाके लिए नाग-मन्दिरको गई हुई थी। वहाँ उसे कृष्ण नारायणने हर लिया; और इसकी उसने शंख-ध्वनि द्वारा औरोंको भी सूचना कर दी। इसके बाद ही कृष्ण
और बलदेव दोनों भाई वहॉसे चल दिये.। उन वीरोंके चलनेसे पृथ्वी भी चलती हुई सी जान पडती थी। उधर जव शंख-ध्वनिसे रुक्मिणीके हरे जानेकी रुक्मी और शिशुपालको सूचना मिली तब वे दोनों भी बहुतसी सेनाको साथ लेकर कृष्ण और पलदेवके साथ युद्ध करनेको निकले । इधर द्वारिकासे आई हुई कृष्णकी सेना पहले से ही तैयार थी, अतः कृष्ण और वलदेवके साथ उन दोनों मतवालोंका युद्ध छिड़ ही गया। दोनों ओरके योधा खूव ही वीरतासे शत्रु-दलके योधाओंको
पाण-पुराण २४