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पण्डिव-पुराण
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इसके बाद वह प्रभुको गोदमें लेकर देव-गणके साथ वापिस द्वारिकाको चला आया। वहाँ आकर उसने देवोंके देव और जगत्पूज्य प्रभुको उनके माता-पिताको सौंप कर उनके आँगनमें खूब नृत्य किया। इसके बाद वह भाँति भॉतिकी निर्मल भोग-सम्पदाकी योजना कर और प्रभुकी रक्षाके लिए देवोंकों नियुक्त कर स्वर्गको चला गया।
इधर देवों द्वारा सेवित नेमिप्रभु कला और कान्तिसे बढ़ने लगे । वे मनोहर थे, श्रेष्ठ और संसारके बन्धु थे--जिस तरह चॉद समुद्रको वृद्धिंगत करता है उसी तरह वे भी संसारमें सिद्धिको वृद्धिंगत करते थे । प्रभुके साथ देव-गण बच्चोंको सा रूप धर-धर कर खेलते थे और उन्हें जिस तरह होता खुश रखते थे । प्रभु जब लड़खड़ाते हुए पृथ्वी पर चलते तब बहुत ही सुशोभित होते और महाराज उन्हें देख कर अति हर्षित होते थे। प्रभु विनोद करते हुए अपने अंगूठेको मुँहमें दे लेते थे और उससे अमृतमय आहारका स्वाद लेते थे।
इसके बाद भभुके पॉच कुछ जमने लगे; वे अच्छी तरह दृढ़तासे पॉव जमाकर सुन्दर चालसे चलने लगे । प्रभुका मुँह पूर्ण चॉदसे भी सुन्दर था, नेत्र कमलके जैसे थे । कान कुण्डलोंसे सुशोभित थे । प्रभुका मस्तक (ललाट ) खूब विशाल था। उनके वाहु (हाथ) कल्पक्षकी नॉई मनोरथोंके साधक थे। उनका वक्षस्थल रक्षाके लिए पूर्ण समर्थ था । वह अंजन पर्वतके तट जैसा था। उनकी नाभि सुहावनी और गंभीर थी । कटिभाग करधौनीसे सुशोभित था । उनके उरु स्तंभके समान थे । जाँघे सुन्दर हाथीकी रॉड़के जैसी और विनोंको हरनेवाली थीं । कमल जैसी आभावाले उनके पॉच पापको हरनेवाले थे । उनके नख नक्षत्रके जैसे चमकते हुए थे । वे प्रभु महान् पांडित्य-पूर्ण, अतुल ऐश्वर्यके धारक और अनुपम प्रभा-मंडलसे शोभमान थे । वे श्री नेमि जिनेश्वर संसारकी रक्षा करें।