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इतने बड़े बड़े वीरोंके रहते हुए भी मुझे पुत्र वियोगका विशाल और अतिशय गहरा समुद्र तैरना पड़ा ।
इस समय दीर्घ निसॉसें खींचते हुए पार्थने सुभद्रासे कहा कि प्रिये, सुनो — मेरे पुत्रका वध करके जिस दुष्टने मेरी यह दुर्दशा की है मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि उस जयार्द्रका सिर यदि मैं घड़से जुदा न कर दूँगा तो अग्नि- प्रवेश करूँगा । क्योंकि मुझसे अपने प्रिय पुत्रकी यह दुर्गति सही नहीं जाती है । प्यारी, अब तुम न रोभो; किन्तु धीरजका शरण लो और पानी लेकर मुँह घो डालो | इसके बाद कृष्णने धैर्य देते हुए सुभद्रासे कहा कि बहिन, तुम शोक मत करो, शोक करने से अब कुछ हाथ लगनेका नहीं; क्योंकि जो कुछ होना था वह तो हो चुका । अब उसके लिए शोक करनेसे लाभ ही क्या है ? और देखो, यह संसार चंचल है, विचित्र है तथा इसका यह हमेशाका नियम है कि इसमें जीवोंको कभी सुख मिळता है तो कभी दुःख भी भोगना पड़ता है । इसमें सदा सुखी कोई नहीं रहते और न कोई सदा स्थिर ही रहते हैं; किन्तु इसी सुखदु:ख-रूप हालत में विलीन हो जाया करते हैं । बात यह है कि संसारमें जीव हमेशा ही जन्म-मरणके चक्कर लगाया करते हैं और दुःख भोगते हैं ।
बहिन, इस संसार में पहले भी तो अपने पूर्व- पुरुष स्वयं अपनी ही रक्षा न कर सकनेके कारण कालकी शिकार बन गये हैं, यह क्या तुम नहीं जानती । और अपनी ही नहीं, किन्तु सारे संसारकी ही यही हालत है । कारण कि संसार रहटकी घड़ियोंके समान उलट पलट होते रहनेवाला है, और यही कारण है कि यहाँ कोई भी थिर नहीं है; सभी अधिर दीखते हैं - सभी कमोंके चक्कर में पड़े हुए हैं । कर्म जैसा उन्हें नचाते हैं वैसे ही वे नाचते हैं । कृष्णने इस प्रकार अपनी बहिनको बहुत कुछ समझाया और उसे धीरज दिया ।
उधर जया के किसी हितैषीने उसे जाकर यह समाचार दिया कि भद्र, पार्थने आपको मार डालनेका दृढ संकल्प किया है । इस लिए आप उसकी शरण में जाइए, नहीं तो परिणाम बहुत ही बुरा होगा - आप अपनी स्थिति कायम न रख सकेंगे । आश्चर्य हैं कि आप मृत्युके आँखोंके आगे घूमते रहते भी बेफिक्र बैठे है ! यह सुन कर जयार्द्र चिन्ताओंसे घिर गया और बहुत देर तक सोच विचार करता रहा । यह सोच कर उसका हृदय हिल उठा कि प्रभात होते ही यमकी भाँति क्रोधित हो वीर अर्जुन मेरे मस्तकको घड़से जुदा कर देगा ! कुछ स्थिर