________________
चौथा अध्याय। धरोंके साथ लड़ाईमें मारे गये। यह सुन अशनिघोषको बहुत क्रोध आया। तव वह स्वयं युद्ध के लिए आ चढ़ा । दोनोंमें घमासान युद्ध होने लगा । युद्धभूमि कोलाहलसे पूर्ण हो गई । वैरीफे शरीरको खंड खंड करने के लिए श्रीविजय जो वाण छोड़ता था, उन्हें अशनिघोष भ्रामरीविद्याके वळसे नष्ट कर अपने दूने रूप बनाता जाता था। इसी तरह ज्यों ज्यों श्रीविजय वाणोंके द्वारा उसके शरीरको खंड खंड करता जाता था त्यो त्यों वह अपने रूपोंको अनेक बनाता जाता था । थोड़ी ही देरमें सारा युद्धस्थल अशनिघोष-मय देख पड़ने लगा। उधरसे सब विद्याओंका स्वामी रथनूपुरका अधिपति अमिततेज भी महाज्वाला विद्याको सिद्ध कर युद्धस्थलमें आ पहुंचा और पंद्रह दिन वरापर युद्ध कर उसने महाज्वालाके प्रभावसे अशनिघोपकी सारी विद्याएँ नष्ट कर दी। तब अशनिघोष बहुत ही लज्जित हुआ और वहॉसे भाग कर वह भयके मारे कैलाश पर्वत पर विजय भगवानकी सभामें जा छिपा । उसके पीछे पीछे और और राजगण भी उसके पकड़नेको वहॉ जा पहुंचे। पर वे सब मानस्तंभोंको देखते ही मान-रहित हो शान्तचित्त हो गये उनका जो कुछ वैर-विरोध था वह सब मिट गया। उन्होंने भगवान्की तीन प्रदक्षिणा देकर उन्हें नमस्कार किया और सबके सव एक साथ बैठ गये । इसी समय वहाँ अशनिघोषकी माता आसुरी भी साथमें सुताराको लेकर आ गई । वह उनसे वोली कि मेरे पुत्रका जो अपराध हुआ है उसे आप दोनो ही क्षमा करो। इतना कह कर उसने श्रीविजय और अमिततेजको सुतारा सौंप दी । इसके बाद अमिततेजके पूछने पर विजय भगवान धर्मका उपदेश करने लगे । उन्होंने सम्यग्दर्शन व्रत और तत्त्वोंका व्याख्यान किया। उसे सुन कर अमिततेजने पूछा कि भगवन् ! यह बताइए कि अशनिघोपने मेरी बहिन सुताराको क्यों हरा ? इसके उत्तरमें भगवान् बोले कि मैं. इसका कारण बताता हूँ, तुम ध्यान देकर सुनो।
भरतक्षेत्रके मगधदेशमें अचलग्राम नामक एक गॉव है । वहाँ एक धरणीघर नाम ब्राह्मण रहता था। उसकी स्त्रीका नाम अग्निला था । उसके इन्द्रभूति और अभिभूति नाम दो पुत्र हुए। वे बहुत सुन्दर थे । इनके सिवा धरणीधरके एक दासी पुत्र भी था। उसका नाम था कपिल । वह हमेशा वेदके पढ़नेमें लगा रहता था। थोड़े ही समयमें वह वेदका अच्छा जानकार पण्डित हो गया। उसे ऐसा देख कर ईसे धरणीधरने घरसे निकाल दिया। पिताके इस वर्तावसे वह बहुत खेदखिन्न हुआ। घरसे निकल कर थोड़े ही दिनोंमें रह रत्नपुर पहुंचा।