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________________ पाडण्व-पुराण। कहा, जिसको सुन कर स्वयंप्रभा दावानलसे जली हुई वेलके समान मुरझा गई अथवा बुझते हुए दीयेकी प्रभा रहित शिखाके समान तेजहीन हो गई; या यों कहिए कि जिस तरह मेघकी ध्वनिको सुन कर हंसिनी शोकमें डूब जाती है उसी तरह वह भी पूत्रवधूके हरे जानेको सुन कर बहुत शोकाकुल हुई । इसके बाद ही वह विद्याधरों तथा पुत्रोंको साथ लेकर चतुरंग सेना-सहित उसी वनमें पहुंची जहाँ श्रीविजय थे । अपनी माता स्वयंप्रभाको आती हुई देख कर उसके पास आ श्रीविजयने उसे छोटे भाइयों-सहित नमस्कार किया । दुःखिनी माताने पुत्रको देख कर कहा कि उठो, वत्स उठो, घरको चलो और शोक छोड़ो । माताकी आज्ञासे श्रीविजय आदि सव नगरको लौट आये । वहाँ आकर जब पुत्र शान्तचित्त हुआ तव स्वयंप्रभाने उससे सुताराके हरे जानेका सारा हाल पूछा । श्रीविजयने मातासे सबका सब हाल जैसाका तैसा कह कर कहा कि माता! यह संभिम विद्याधर हम लोगोंका बड़ा उपकारी है । यह बुद्धिमान् आमिततेजका सेवक है। इसने हमारे साथ जो कुछ उपकार किया है वह वचनातीत है।। इसके बाद श्रीविजय, माता और अपने छोटे भाई विजयभद्रसे सलाह कर तथा विजयभद्रको पोदनापुरकी रक्षाके लिए छोड़ कर माताके साथ विमानमें बैंठ स्थनपुर पहुँचे । पुत्र-सहित अपनी भुआको आया जान कर अमिततेज अगवानीके लिए नगरके वाहिर आया और उन्हें लेजाकर उसने एक उत्तम स्थानमें ठहराया। इसके बाद स्वयंप्रभाने अमिततेजके पास आकर उससे अशनिघोषका सारा हाल कहा । उसे सुन कर अमिततेजने अशनिघोषके पास अपना दूत भेजा । दूतका नाम मरीचि था । वह अशनिघोपके पास पहुँचा । अशनिघोषने उसे निष्ठुर और कर्कश वचन कह कर फटकारा । इतने वापिस आकर अशनिघोषके जैसेके तैसे वचन अमिततेजसे कहे। इसके बाद अमिततेजने मंत्रियोंसे सलाह कर अशनिघोषका नाश करनेका संकल्प किया और श्रीविजयको युद्धवीय, अनवारण और वंधमोचन ये तीन विद्यायें जो उसकी परम्परासे चली आ रही थीं, देकर तथा रस्मिवेग सुवेग आदि पुत्रोंको साथ भेज कर उसे शत्रुके साथ युद्ध करनेको भेजा। और स्वयं सहस्र नाम अपने बड़े पुत्रको साथ ले ह्रीमंत पर्वत पर गया और वहाँ संजयंत मुनिके चरणोंमें बैठ कर अन्य विद्याओंको नष्ट करनेवाली महाज्वाला नामकी विद्या सिद्ध करने लगा । इधर दुष्ट अशनिघोषने श्रीविजयको आया सुन कर रस्मिवेग आदिके साथ युद्ध करनेको सुघोष, : शतघोष और सहस्रघोष आदि अपने पुत्रोंको भेजा। वे सब श्रीविजयके विद्या- ।
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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