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पाण्डवे-पुराणे ।
कर सिद्धोंको और अपने बड़े भाई युधिष्ठिरको प्रणाम कर विशुद्ध-बुद्धि अर्जुन उठ खड़ा हुआ। उस समय उस द्विज-वेष-धारी और कामदेवसे भी अतिशय रूपशालीको दूरसे ही देख कर द्रोपदी उसके रूप पर मोहित हो कामके वाणों द्वारा वेधी जाने लगी।
इसके बाद अर्जुन सव राजोंको लॉघ कर धनुषके आगे जाकर खड़ा हो गया। उसके वहाँ पहुँचते ही पुण्यसे वह सब ज्वाला उसी समय विल्कुल शान्त हो गई और सब साँप अन्तर्हित हो गये । पुण्यात्मा पुरुपोंके सम्बंधसे बहुधा सब शान्त हो जाते हैं । और वे यदि शूरवीर हों तव तो कहना ही क्या है । धनुर्धर अर्जुनने उस गांडीव धनुषको उसी क्षण हाथमें उठा लिया और चढ़ा कर उस पवित्र आत्माने उसकी डोरीका शब्द किया, जिसे सुन कर वहाँ बैठे हुए सब राजा बहिरे हो गये और घोड़े भड़क कर इधर उधर भागने
और हांसने लगे । हाथी चिंघाड़ने लगे तथा दिग्गज अपनी प्रतिध्वनिके द्वारा शब्द करते हुए ऐसे जान पड़ने लगे मानों मड़ उठा कर गर्न ही रहे हैं। उस विशाल शब्दको सुन कर द्रोणाचार्य चकित होकर बोल उठे कि क्या यहाँ मरा हुआ अर्जुन आ गया है । इसके बाद उस महान् विक्रमी पार्थने धनुषवाण चढ़ाया और घूमते हुए राधाकी नाकके मोतीको बातकी बातमें ही वेध दिया । उस समय मोतीके साथ बाणको पृथ्वी पर गिरा हुआ देख कर वहाँ बैठे हुए सभी राजोंको बड़ा भारी हर्ष हुआ और वे उसके गुणोंको ग्रहण करनेके लिए उत्कंठित हो उठे । इस द्विज-वेष-धारी पार्थकी यादव, मागध आदि राजोंने बड़ी प्रशंसा की और द्रुपद राजा तथा उसके पुत्र भी मन-ही-मन बहुत आनंदित हुए। इसके बाद ही द्रोपदीने अपनी धायके हाथमेंसे 'वरमाला' लेकर अर्जुनके गलेमें पहिना दी । परन्तु दैववशात् वह माला वायुके अति वेगसे टूट गई, जिससे वहीं पासमें बैठे हुए चार पांडवोंकी गोदमें भी उसके मोती जा पड़े । अतः लोगोंकी मूर्खतासे यह दन्तकथा चल पड़ी कि इसने पॉचों ही पांडवोंको घरा है । उन दुर्जनोंने--जहाँ तक उनसे बन सका-इसकी संसारमें खूब घोषणा कर दी।
इस समय द्रोपदी अर्जुनके पासमें खड़ी हुई ऐसी शोभती थी मानों साक्षात् लक्ष्मी ही है । अर्जुनकी आज्ञाको पकिर द्रोपदी कुन्तीके पास जाकर बैठ गई। इस समय वह मनमोहनी ऐसी जानी जाती थी मानों मेघमालासे युक्त