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पाण्डव-पुराण। .
फैलाये हुए वैसा ही जल-तल पर पड़ा रहा जैसा शय्या पर सोता था । भावार्थ यह कि वह विना हाथ-पैर हिलाये ही जलके ऊपर स्थित रहा ।
इसके बाद वह मनोहर शरीरधारी लीला मात्र ही गंगा पार कर जल वाहर निकल आया। पुण्ययोगसे उसे विल्कुल ही परिश्रम न हुआ । वह कपट रहित था, अत: जलको पार कर वह उन दुष्ट कौरवोंके साथ ही साथ घर आ गया, जो उसे बहानेको गये थे । इसके बाद उस वीरके साथ ईपर्या-द्वेष करनेवाले कौरवोंने उसको मारनेके लिए मंत्री-गणसे फिर सलाह की; और उन्होंने एक दिन परमोदयशाली भीमको भक्तिभावसे निमंत्रण देकर भोजनके लिए बुलाया । वहाँ दुष्ट दुर्योधनने उसे तत्काल प्राणहारी हालाहल विषका मिला हुआ भोजन खिला दिया । परन्तु पुण्योदयसे वह हालाहल विष भी अमृतरूप हो. गया
और वह भोजन भी उसे बहुतं रुचिकर मालूम पड़ा । यहाँ गौतम गुरु कहते है कि श्रेणिक, देखो पुण्यका माहात्म्य कैसा है कि जिससे प्राणोंको हरनेवाला विष भी अमृत-तुल्य हो गया । और भी देखो कि पुण्यात्माके पुण्यसे विष अमृत हो जाता है और शाकिनी, भूत, राक्षस वगैरह सब दूर भाग जाते हैं । धर्मात्माके लिए धर्मके प्रभावसे फणकी फुकारसे डरावना और क्रोधसे लाल नेत्रोंवाला महान् सॉप काँचली सा हो जाता है । सारे संसारको जलानेवाली अत एवं दुःखदाई तीव्र ज्वालावाली भयंकर आग जल हो जाती है । और तो क्या धर्मात्मा जनोंके धर्म-वलसे बड़े बड़े हाथियोंके समूहको रोकनेवाला सिंह, स्याल और समुद्र स्थल हो जाता है । तथा धर्मके प्रभावसे मनुष्योंको चक्रवर्तीका-जिन्हें बड़े बड़े राजा-महाराजा सिर झुकाते हैं-महान् राज्य मिल जाता है । इसी धर्मसे लोगोंको कुचोंके भारसे सुहावनी, लावण्यकी समुद्र और चंचल' भौह नेत्र-कमलवाली स्त्रियाँ मिल जाती है । एवं मनुष्योंकी तुलना करनेवाले हाथी प्राप्त हो जाते हैं । जैसे मनुष्यों के कर (हाथ) होते हैं वैसे ही वे भी कर (सूंड़) वाले होते हैं । जैसे मनुष्य महान् वंशवाले होते है वैसे ही वे भी महान् वंश (पीठकी रीढ़ ) वाले होते है । मनुष्योंके सुन्दर दाँत होते हैं, उनके भी सुन्दर दाँत होते हैं ।। और मनुष्य भूतों-परिवारके लोगों से परिपूर्ण होते हैं, वे भी भूतों-भस्म-पुंजोंसे सजे होते हैं । मनुष्य सुन्दर कपोलवाले होते है, उनके भी कपोल-गंडस्थलसुंदर होते हैं । और भी सुनो कि धर्मके प्रभावसे जीवोंको इतना ही परिकर नहीं मिलता; किन्तु विना परिश्रम किये ही धन-धान्य, पवित्र और धर्म-अर्थ-काम-रूप