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बारहवाँ अध्याय ।
१७९ देवियोंके साथ नाना तरहकी रस भरी बातें करती थी। शिवादेवीने इस तरहसे दिक्कुमारियोंके साथ बहुतसा काल बिताया । इस समय वह अपनी कान्तिसे चन्द्रमा की कलाके जैसी सुशोभित होती थी। इसी प्रकार आनंद- चैनसे धीरे धीरे आठ महीने बीत कर नौवाँ महीना लग गया । इस समय वे देवियाँ गर्भिणी जिनमाताको रस पूर्ण और उत्तम रचनावाले गद्य-पद्य सुनाती थी और उसका चित्त प्रसन्न करती थीं। इसके सिवा वे प्रभुकी मातासे गूढ़ अर्थवाले प्रश्न पूछती थीं और जिनमांता उनका उत्तर करती थी । किसीने पूछा कि हे माता,
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पुष्पावगुंठिता का स्यात्का शरीरपिधायिका । का देहदाहिका देवि, वदाद्याक्षरत पृथक् ॥ १ ॥
अर्थात- पुष्पोंसे गूँथी गई क्या चीज होती है ? शरीरको कौन ढँकता है ? और शरीरको क्षीण कौन करता है ? इन तीन प्रश्नोंके ऐसे उत्तर दीजिए जिनका पहला अक्षर ही केवल दूसरा दूसरा हो ।
उत्तर में माताने कहा --- खक् ( माला ) त्वक् ( खाल ), रुक् ( रोग ) । किसीने पूछा
संसारासुखच्छेवी को -- पादो भ्राम्यति स्वयम् । को दत्ते जनतातोप, पठाद्यव्यंजने पृथक् ॥ २ ॥
अर्थात्- सांसारिक दुःखों को दूर कौन करता है ? पैरों विना कौन चलता हैं ? और लोगोंको संतोष कौन देता है ? इन प्रश्नोंके ऐसे उत्तर कीजिए जिनका आदि व्यंजन ही केवळ दूसरा दूसरा हो ।
उत्तर में माता ने कहा- जिन ( अर्हन्त ), स्वन ( शब्द ), घन (मेघ ) । किसीने पूछा अच्छा माता
आद्यंतरहितः कोऽत्र कः कीलालसमन्वितः ।
वादुत्पद्यते कोsa, कथयाद्यक्षरै पृथक् ॥ ३ ॥
अर्थात् — इस लोक में आदि-अन्त रहित कौन है ? जल-युक्त क्या होता है ? और इसे क्या उत्पन्न होता है ? इन प्रश्नोंके ऐसे जवाब दीजिए जिनके पहले के अक्षर ही दूसरे दूसरे हों ।
उत्तर में माता बोली- संसार, कासार ( तालाव ), और व्याहार ( वचन ) । किसीने पूछा
नरार्थवाचक कोsa, कः सामान्यप्ररूपकः ।
का ते प्रथमे ख्याता, कीडशी त्वं भविष्यसि ॥ ४ ॥