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________________ आठवाँ अध्याय । कभी और और क्रीड़ायें करता था । वे दोनों एक दूसरेके ऊपर आसक्त होकर बहुत ही प्रमन्न हुए और एक ऐसे विचित्र भावको प्राप्त हो गये, जो कि वचनोंसे वाहिर है । उन दोनोंने एक दूसोका झालिंगन और स्पर्शन करके कुछ काल तक सुखका अनुभव किया । वे परस्परमें एक दूसरेके मुंहको सूंघते थे और जमाई लेते थे । इस प्रकार काम-सुखसे प्यारी मेयसीको प्रसन्न कर वह पांडु पण्डित स्वयं भी खूब प्रसन्न हुआ । ठीक ही है, प्रियासे किसे संतोप नहीं होता । इस तरह अदृश्य-रूपको बनाकर वह अपवित्र हमेशा ही कुन्तीके यहॉ आता जाता रहा और निःशंक होकर उसके साथ काम-क्रीडा करता रहा । एक दिन दैवयोगसे कुन्तीफे साथ बैठे हुए उसे कुन्तीकी धायने प्रत्यक्ष आखों देख लिया और वह मन-ही-मन सोचने लगी कि यह कौन है ? कहाँसे और किस लिये यहाँ आता है ? इसके बाद जब वह चला गया तव कुछ बनावटीसे नाराजी दिखाकर, अधीर हो, उस धायने व्यग्र मनसे कुन्तीको पूछा कि पुत्री, एक अचम्भेकी बात है, जो मेरे चित्तको चंचल और विदीर्ण करे डालती है । कहते तो सही, यह कौन है ? और हर दिन कहाँसे तेरे पास आता है ? यह सुन कर कुन्तीके मनमें बड़ी धवराहट हुई । उसकी नेत्र चंचल हो गये। शरीर बिल्कुल अचल हो गया । उसमें लोहूका संचार वन्द हो गया। वह कुछ लड़खड़ाती हुई जवानसे, बड़े कष्टके साथ, बोली कि माता! तुम मेरी इस खोटी कृतिको कान देकर सुनो । मैं तुमसे जैसीकी तैसी बात कहे देती हूँ । वात यह है कि कर्मके वश हो कर कामी पुरुष चाहे जैसे दुष्कृत्योंको भी कर डालते हैं। देखो, कर्मके अधीन होकर किस किसने कष्ट नहीं उठाया और कौन कौन नष्ट-भ्रष्ट नहीं हुए । रावण आदि तो नीतिके अच्छे ज्ञाता थे; परन्तु कर्मके झकोरेसे चे भी न बचे-उनको भी आपत्तिका सामना करना पड़ा। माता, कर्मके निमित्त से नहीं होनेवाली घटना तो हो जाती है और होनेवाली आसानसे आसान भी घटना दूर चली जाती है । कर्मके सम्बन्धमें कहॉ तक कहा जावे, इनके निमित्तसे वे वे काम हो जाते हैं, जिनका बड़े बड़े महात्मा और चतुर पुरुषोंने भी कभी स्वममें विचार नहीं किया। माता, एक दिन संध्याके बाद अकस्मात ही कर्मका प्रेरा यह पुरुष मेरे पास आया । ठीक ही है, कि कर्म क्या क्या नहीं करता। मेरी और इसकी परसरमें बातचीत हुई । उस समय मैं कमेंकी प्रेरी हुई अचल चित्तवाली होकर भी इस भोगार्थदर्शी महान पुरुपके द्वारा जीती गई । तात्पर्य यह कि बातचीतमें उसने मुझे अपनी ओर झुका लिया, पर मैं
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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