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पाण्डव-पुराण ।
चाहे भोगोंको भोगते हुए सुख-चैनसे काल बिताने लगे । इनके पास विद्याधरके भव प्राप्त की हुई वहुतसी विद्यायें थीं, जिनके प्रभावसे वे मेरु और कुलाचलों पर जहाँ चाहते जाकर क्रीड़ा करते थे और सांसारिक सुखोंका स्वाद लेते थे । एक वार जयकुमार क्रीड़ाके लिए कैलाश पर्वत के मनोहर वनमें गये और वहाँ सुलोचनाको एक स्थान पर छोड़ कर स्वयं कुछ दूर निकल गये । देवयोगसे इसी समय इन्द्रने अपनी समामें जयकुमारके शीलवती बड़ी बड़ाई की और सुलोचनाके पातिव्रत्यको सराहा । इन्द्रके द्वारा की गई उनकी वह प्रशंसा रविप्रभ नाम एक देवसे न सही गई और उसने उसी समय कांचना नामकी एक अप्सराको जयके पास भेजा । वह जयके पास आकर कहने लगी
इसी भरतक्षेत्रके विजयार्द्धकी उत्तर श्रेणीमें एक रत्नपुर नाम नगर है । वहाँका राजा पिंगलगांधार है । उसकी रानीका नाम सुप्रभा है और पुत्रीका नाम विद्युत्प्रभा । मैं वही विद्युत्प्रभा हूँ | मेरा ब्याह राजा नमिके साथमें हुआ था । एक दिन मैने पुण्ययोग से मेरुके नन्दन वनमें आपको क्रीड़ा करते हुए देखा । तभी से मै आपके लिए बहुत उत्सुक हूँ । मेरे चित्त पर आपका चित्र खिंच गया है। दुर्भाग्यसे इतने दिनों तक आपके दर्शनका मौका न मिला । पुण्यके उदयसे आज फिर आपके दर्शन हो गये । अतः हे जय ! मुझे स्वीकार कर मेरे साथ मनचाहे सुख भोगो ।
विद्युत्प्रभाकी इस प्रकार दुष्ट चेष्टा देख कर जयने कहा कि तुम ऐसा पाप मत विचारो; मैं परस्त्रीका त्यागी हूँ । तुम यहाँसे अभी चली जाओ । इस प्रकार जयने उसे खूब डाटा-डपटा। यह देख विद्युत्मभाको बड़ा क्रोध आया। वह राक्षसीका रूप बना जय पर उपद्रव करने लगी । परन्तु उस दुष्टाका जब जय पर कुछ वश न चला तब वह वहाँ से भाग कर सुलोचनाके पास पहुँची । सुलोचनाने भी उसे खूब फटकारा | अन्तमें वह उसके शीलके माहात्म्यसे डर कर क्षणभरमें अदृश्य हो गई। देखो, शील - व्रतधारियोंसे देव भी डरते हैं। स्वर्गमें जाकर उसने स्वामीको नमस्कार किया और जयकुमार तथा सुलोचना के शीलकी बड़ी प्रशंसा की । सुन कर रविप्रभको वढ़ा आश्रर्य हुआ। इसके बाद उसने स्वयं आकर बड़े विनयसे उन दम्पतीको नमस्कार किया और उन्हें अपना सारा हाल कह सुनाया; और कहा कि आपका मैं अपराधी हूँ। आप मुझे क्षमा करें। इसके बाद वह उन दम्पतीको रत्नाभरण और दिव्यवस्त्र भेंट कर स्वर्गको चला गया । इधर जयकुमार भी अपनी कान्ताके साथ-साथ नगरको चले आये ।