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पाण्डव-पुराण ।
और माताको नमस्कार किया । अब वह वली युधिष्ठिर अपनी चाल देनेको तैय्यार हुए । यह देख भयके मारे काँपने हुए भीम आदि सब भाई वडे दुखी होकर बोले कि देव आपने यह क्या दुःखका कारण उपस्थित कर दिया है, जिसको कि हमने कभी स्वप्नमें भी नहीं विचारा था। यह वात बड़ी दुराराध्य, दुःसह तथा कष्ट-मय है । देव, आपका यह प्रयत्न हमारे लिए असह्य है; हमें वड़ा दुःख हो रहा है । हमारी तो यह इच्छा थी कि हम लोग अपना वनवास समाप्त कर फिर वापिस जायेंगे और इन दुष्ट कौरवोंको घोर युद्ध करके यमराजका ग्रास बनायेंगे । सो हम तो इच्छा ही करते रह गये और देवने एक दूसरी ही अवस्था सामने खड़ी कर दी। इस दैवको धिक्कार है जो पुरुषार्थको जगह ही नहीं देता।
इन सवकी यह दशा देख दैवको दूषण देनी हुई, करुणासे पूर्ण-चित्त कुन्ती भी इस दुःखदशासे पीड़ित होकर विलाप करने लगी । हा पुत्र, हा पवित्रात्मन्, हा करुणरससे कोमल-चित्त, हा राज्ययोग्य, हा राज्य भोगनेवाले भव्य, हा भव-भाव विदांवर, हा बाहुवलसे वैरियोंको खंडित करनेवाले युधिष्ठिर, तुम्हारे विना अब कुरुजांगल देशको कौन पालेगा । पुत्र, शत्रुओंको मार कर अब राज्यको तुम्हारे विना कौन हस्तगत करेगा, क्योंकि तुम्हारे सिवा दूसरा कोई भी ऐसा नहीं है जो कौरवोंका ध्वंस करनेके लिए समर्थ हो । इस प्रकार विजलीकी प्रभाके समान प्रभावाली कुन्ती रोती हुई
और हाथोंसे छाती पीटती हुई मोहके वश हो, मूच्छित हो गई । सच है मोह चेतना-सुध-बुध-हर लेता है। कुन्ती तो इधर मूर्छित ही पड़ी थी कि इतनेमें युधिष्ठिर जलमें कूद पड़ने के लिए उद्यत हुए।
इसी समय भयसे विह्वल हो कर उनसे भीप बोला कि स्वामिन् , आप तो स्थिर रह कर पृथ्वीका पालन कीजिए और शत्रुओंको यमका घर दिखाइए । हे कुरु-वंश-रूप आकाशके चंद्रमा, आप मुझे गंगामें कूद पड़नेकी आज्ञा दीजिए । मैं अपनी बलिसे तुंडिकाको सन्तुष्ट कर दूंगा। इस पर युधिष्ठिरने कहा कि भाई भीम, तुम्हें व्यर्थ यमके मुंहमें पड़नेकी आवश्यकता नहीं है । भीमने कहा कि मैं उस महासुरी तुंडिकाके साथ अपने वज्रके जैसे हाथोंके प्रहारोंके द्वारा युद्ध. करके अभी उसे पद-दलित किये देता हूँ और देखता हूँ कि उसका पुरुषार्थ कितना है । यह कह