________________
उन्नीसवाँ अध्याय । ___इसके बाद अति शीघ्रतासे पार्थके साथ युद्ध करनेके लिए पितामह युद्धस्थलमें उतरे और उन्होंने पार्थको भीषण ध्वनिके द्वारा ललकारा । तब पार्थने , तीन प्रदक्षिणा दे, नमस्कार कर उनसे नन शब्दोंमें कहा कि पूज्यपाद, वनमें घूमते हुए हम लोग तेरह साल विता कर बड़े पुण्ययोगसे फिर भी आपके चरणोंमें आये हैं । अतः प्रभो, अव आप धनुषको रख दीजिए और धीरजकी शरण लीजिए, जिससे इन आपके सेवकोंका राज्य हो जाय । परन्तु पितामह गांगेयने अर्जुनकी वात पर कुछ भी ध्यान न दिया और रोपमें आकर अर्जुनके ऊपर उन्होंने एक साथ सोलह वाण छोड़ दिये । तब उधरसे अर्जुनने भी बाण-महार शुरू किया और गांगेयके रथको सारथी-सहित वेध दिया। यह देख मद-माते गांगेयके क्रोधका कुछ ठिकाना न रहा । फिर दोनोंमें वाणोंकी तीन मारके द्वारा महान् भीषण युद्ध होने लगा । युद्ध करते करते जब वे सामान्य वाणों के द्वारा एक दूसरे पर विजय न पा सके तब उन्होंने विशेष वाणोंका महार जारी किया । पहले ही पितामहने शत्रुकी सेनाका मोहन, उच्चाटन
और स्तंभन करनेवाले मोहन, उच्चाटन और स्तंभन नाम बाणोंको छोड़ा और ' उन सबको महाभाग पार्थने अपने कौशलसे व्यर्थ कर दिया।
इसके बाद पार्थने मन-ही-मन अनिदेवको याद किया। अर्जुनके याद करते ही वह देव पृथ्वी, वन और सेनाको भस्म करता हुआ आया और सर्वत्र अपना प्रभाव जमाने लगा। गांगेयने उसे पार्थका वाण समझ कर अपनी विद्याके वलसे छेद दिया । इस वक्त देवगण आकाशमें ठहरे हुए उन दोनोंका भीषण युद्ध देख रहे थे और उनके कला-कौशल्यकी तारीफ कर रहे थे । वलसे उद्धत हुए अर्जुनने गांगेयके उस पाणको भी छेद दिया जो कि उसने अर्जुनके अग्निवाणको छेदनेके लिए छोड़ा था । लेकिन अब तक उन दोनों से कोई भी हारा और जीता न था। इसके बाद अर्जुनने अपने एक प्रबल वाणके द्वारा पितामहका वाण छेदा ही था कि इसी बीचमें उन दोनोंके मध्यमें द्रोणाचार्य आ गये । शत्रुको कष्ट देनेवाले वे निरंकुश हाथीकी भाँति खड़े थे । अर्जुनने उनके चरणों में झुक कर बड़े भक्तिभावसे प्रणाम किया और उनसे वह बोला कि आप मेरे गुण-गरिष्ठ गुरु हैं, फिर हे नीति-नयके परम विद्वान् आप ही कहिए कि मैं आपहीका शिष्य हो कर थापके साथ कैसे युद्ध करूँ । अतः गुरुवर्य, आप अपने स्थानको जाइए । मैं आज वैरियोंको यम मन्दिरका अतिथि बनाऊँगा । यह सुन द्रोणने कहा कि पार्थ, तुम जल्दी तैयार हो और वरावर