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सातवाँ अध्याय। womenternmommmmmierrimminer प्रभुफे सोलह हजार खेट और छियानवें हजार गाँव थे । एवं वे चौदह हजार वाहनों और समुद्रपर्यन्त दीपोंका पालन करते थे । वे बत्तीस हजार नाटकोंको देखते थे। उनके यहॉ एक करोड़ थालियॉ, तीन करोड़ गायें और एक करोड़ हल थे। सातसौ कुक्षिवास और अठत्तरसौ अटवी-दुर्ग थे । उनको अठारह हजार म्लेच्छ राजा नमस्कार करते थे । उनके यहाँ नौ निधियाँ और चौदह रत्न थे। उनके चरणोंकी रक्षा करनेवाली उनके यहाँ दो खड़ाउऍ थी जो विप-विकारको दूर करती थीं । चक्रवर्तीका अभेद्य नाम कवच और अजितेजय नाम रथ था। वज्रकांड नाम धनुप और अमोघ नाम शर थे। उनके वज्रतुंडा नाम शक्ति और सिंहाटक नाय भाला था | सुनंदा नाम तलवार
और भूतमुख नाम खेट-ढाल-थी। सुदर्शन नाम चक्र और चंडवेग नाम दंड था, जो दुष्ट प्रजाको दंड देता था। वज्रमयी चर्मरत्न, चिंतामणि और काँकिणी रत्न थे । पवनंजय नाम घोड़ा और विजय-पर्वत नाम हाथी था । एवं उनके यहॉ आनंद देनेवाली वारह भेरियाँ थीं; और बारह विजयघोष नाम नगाड़े थे। इस प्रकारकी ऋद्धिवाले प्रभु एक दिन किसी वैराग्यके निमित्तको पाकर विरक्त हो गये और उन्होंने अरविंदकुमारको सारा राज-पाट सौंप दिया । इसी समय अपना नियोग पूरा करनेको लौकान्तिक देव आये और उन्होंने प्रभुके आगे मार्गका निर्देश किया। इसके बाद सच्चे मार्गको वतानेवाले वे प्रभु वैजयन्ती नाम पालकी में सवार हो देवता-गणके साथ साथ सहेतुफ वनमें गये । वहाँ उन्होंने वन्यवृत्ति अर्थात् दिगम्बर मुद्रा धारण की । तात्पर्य यह कि अगहन सुदी दसमीके दिन हजारों राजों-सहित वे देवतों द्वारा सेवित और इंद्रके स्वामी प्रभु दीक्षित हो गये और उन्होंने छह उपवासों के बाद आहार लेनेकी प्रतिज्ञा की। वाद चार ज्ञानके धारक उन बुद्धिमान स्वामीने पारणाके दिन चक्रपुरमें अपराजित राजाके यहाँ पारणा फिया । प्रभुने सोलह वर्ष छद्मस्थावस्था बिताये । वाद घाति कर्मोको घातकर निष्पाप और विनवाधासे रहित वे प्रभु, आमके वृक्षके नीचे बैठे हुए कातिक सुदी पारसके दिन षष्ठोपवासके प्रभावसे फेवलज्ञानी हुए । उस समय सुर-असुर सभी आये और उन्होंने भगवानके पंचम ज्ञानकी पूजा की और घातिकर्मोंके अरि-वैरी-अराजिनका समवरण रचा। इसके बाद सम्मेदशिखर पर योगनिरोध कर हजारों मुनियों-सहित वे चैत वदी अमावसके दिन मोक्ष-महलमें जा विराजे । इस समय देवता-गण आये और उन्होंने मीठे मीठे शब्दों द्वारा प्रभुका गुण-गान किया और विकल्प