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________________ पाण्डव-पुराण। भी नहीं समझते हैं । महाराज, वे पुण्यहीन पापी हैं और इसी लिए आपकी सेवा नहीं करना चाहते । दूतके वचनोंको सुन कर जरासंधको अत्यंत कोध आया और युद्ध के लिए उचत हो उसने सव दिशाओंको बहिरा कर देनेवाली रण- . भेरी बजवा दी; युद्धकी घोषणा कर दी । उसकी घोषणाको सुन कर आकाश मार्गसे जाते हुए बहुतसे विद्याधरोंने आकर अपने विमानोंसे जरासंघको चारों ओरसे घेर लिया। इस वक्त वह, ऐसा शोभता था जैसा कि किरणोंसे घिरा हुआ सूरज शोभता है । एवं कुमुद ( कुमुदपुष्प और पक्षमें पृथ्वी ) को विकशित करनेवाले चन्द्रमाके से बहुनसे भूमिगोचरी राजे आये । वे राजनीतिक अच्छे ज्ञाता और उसीके अनुसार चलनेवाले थे । गंभीराशय और सब प्रकार सुख-सम्पन्न थे। उनका सुयश सभी दिशाओंमें व्याप्त था । अत एव जैसे तारागणके द्वारा आकाशकी शोभा होती है वैसे ही उनके द्वारा राज-मन्दिरकी शोभा हो रही थी। इनके सिवा और भी बहुतसे वीर राजे उसके साथ हुए। वे द्रोण, भीष्म, कर्ण, रुक्मी, शल्य, अश्वत्थामा, जयद्रथ, कृप, अर्जुन, चित्र, कृष्णकर्म, रुधिर, इन्द्रसेन, हेमप्रभ, भूभुज, दुर्योधन, दुःशासन, दुमर्पण, कलिंग आदि थे। इत्यादि अनेक राजों महाराजोंके साथ अपने भारसे सारी पृथ्वीको पाता हुआ जरासंध राजा कुरु-क्षेत्रके युद्ध-स्थलमै जो उतरा । उसके वहाँ आनेके समाचार सुन कर जीवनसे निराश हो बहुतसे लोगोंने जाकर प्रभुकी पूजा की और गुरुके निकट जाकर अहिंसा आदि व्रत ले वे विरक्त हो गये । एवं बहुनोंने शस्त्र-ग्रहणके लिए उद्यत अपने अधीन सेवकोंको धन आदि देकर उनसे कहा कि प्रत्य-गण, अब शरीर-क्षाकी परवाइ मत करो; किन्तु हाथोंमें चमकती हुई तलवारें लो, धनुषोंको चढ़ाओ, हाथियोंको सजाओ, घोड़ों पर पलान वगैरह रक्खो और रथोंमें घोड़ोंको जोतो। ___ इसके बाद कृष्णका दूत कर्णके पास आया और उसे भक्तिभावसे नमस्कार कर बोला कि राजन् , नारायणका आपके लिए यह संदेश है कि राजन्, वही कीजिए जो आपको योग्य जान पड़े; परंतु मेरा तुमसे इतना ही कहना है कि कृष्ण थोड़े ही समयमें नियमसे चक्रवर्ती राजा बनेंगे। इसमें कुछ सन्देह नहीं है। क्योंकि जिन भगवान्का ऐसा ही कहना है और उनका कहा झूठ नहीं होता। अतः हे नप, तुम कुरुजांगल देशका राज्य ग्रहण करो और झगड़ेमें न फँसो । तुम पांडके पुत्र हो और कुन्तीसे तुम्हारा जन्म हुआ है । इस कारण पाँचों पाडिव
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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