SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तेरहवां अध्याय । ran ammnanAN AN O mnnaromans समता करनेवाला मेघेश्वर नरेश आज ही मृत्युका ग्रास बना है और आज ही शान्तिनाथ चक्रवर्तीने इसे अनाथ किया है । क्या हम लोगोंके दुःखको देख न सकनेके कारण आज ही शांतनु राजा और व्यास काल-कवलित हुए हैं । क्या सचमुच आज पांडुकी मृत्यु हुई है ! तात्पर्य यह कि पांडवोंके गुप्त रूपसे चले जाने और उनकी जगह मुर्दे देखनेसे नगरवासी लोगोंने बड़ा विलाप किया। जव गांगेयने इन सब बातोंको सुना तब उसका मन शोकसे भर आया । उसके चेहरे पर बड़ी उदासी छा गई । तीच मोहके कारण उसे मूर्जा आ गईवह बेहोश हो गया । जान पड़ता था मानों उसके शरीरसे मृत्यु ही लिपट गई है । और है भी ऐसा ही कि मृत्यु भूछीकी सखी ही है, तब उसका वहाँ भ्रम होना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । मृत्युसे जिस तरह मनुष्य सब सुध भूल जाता है उसी तरह मूर्छासे भी भूल जाता है अतः मूर्छाके समय मृत्युका भ्रम होना बहुत ही वाजिव है। इसके बाद चंदन आदि शीतोचारसे उसकी मूर्छा दूर हुई और वह दरिद्रकी नॉई शोकमें डूबा हुआ उठा । शोकसे संतप्त होनेके कारण उसके नेत्रोंसे ऑसुओंकी धारा वह निकली; वह शोकरूप वारि (जल ) से एकदम सरोवरके जैसा हो गया । उसके हृदयमें बड़ा खेद हुआ । वह विलाप करने लगा कि पुत्र, तुम तो सब वातोंको जानते-समझते थे, फिर इस तरह कैसे जला दिये गये! क्या तुम्हें इस वातका कभी भान ही न हुआ था। कहिए तो अब तुम्हारे विना हमेशा दुखित रहनेवाले हम लोग सुख कैसे पा सकेंगे। हमें इस बातमें सन्देह है कि भला, तुम सरीखे पुण्य-पुरुषोंकी मृत्यु आगसे क्यों कर हुई । चाहिए तो यह था कि यदि तुम्हारी मृत्यु ही इस समय होती तो वह वैरियोंके मदको उतार देनेवाले युद्धमें होती । अथवा धर्मधारणके साथ दीक्षा और आत्म-साध्य संन्यासके द्वारा तुम्हारी मृत्यु होती। इसके सिवा और तरहसे तुम्हारी मृत्यु होना बहुत ही बुरा हुआ । जान पड़ता है कि तुम लोगोंको इन दुष्ट कौरवोंने ही जला दिया है । इसमें तनिक भी सन्देह नहीं । पापी पुरुषोंकी बुद्धि पाप-रूप ही होती है, उसमें हित-अहितके विचारकी तो गंध ही नहीं रहती। और ऐसा ही हुआ भी है। पांडवोंकी मृत्युका हाल सुन गांगेयकी तरह द्रोणाचार्यको भी मूर्छा आ गई । और वह शोकसे विलाप करने लगे जिससे दशों दिशायें शब्द-मय हो
SR No.010433
Book TitlePandav Purana athwa Jain Mahabharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Nyayatirth
PublisherJain Sahitya Prakashak Samiti
Publication Year
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy