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ओसवाल जाति का इतिहास
प्रथमवार
अगस्त १९३४,
मूल्य २५)
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प्रकाशक ओसवाल हिस्ट्री पब्लिशिंग हाउस
भानपुरा (इन्दौर )
मुदक नथमल लूणिया
आदर्श-प्रिंटिंग प्रेस, केसरगंज, (डाकखाने के पास ) अजमेर।
संचालक-जीतमल लूणिया
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ओसवाल जाति का इतिहास
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लेखकगा
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श्री सुखसम्पत्तिराय भण्डारी एम. आर. ए. एस.,
श्री कृष्णलाल गुप्त.
श्री चन्द्रराज भण्डारी 'विशारद',
श्री भ्रमरलाल सोनी.
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AUTHORS $. R. Bhandari I. R. A. S. P. R. Bhandari “Visharad"
A. L. Gupta. B.A. Moni. 13. R. Ratnawał.
PUBLISHED BY Oswal History Lublishing House
. BHANPURA. ( Indore)
लेखकश्री सुखसम्पतराय भण्डारी एम० आर० ए० एस० श्री चन्द्रराज भण्डारी 'विशारद
श्री कृष्णलाल गुप्त
श्री भ्रमरलाल सोनी . . श्री बलराम रतनावत
प्रकाशक
'प्रोसकाल हिस्ट्री पब्लिशिंग हाउस
भानपुरा (इन्दौर)
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प्रोसकाल जाति का इतिहास
श्रीमान् सेठ राजमलजी ललवाणी, जामनेर. ( श्रोसवाल-इतिहास के प्रधान आधारस्तम्भ )
वैदिक-यन्त्रालय, अजमेर
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at समर्पण
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श्रीमान सेठ राजमलजी ललवानी, जामनेर.
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आप ही के उत्साह प्रदान से इस महान् ग्रन्थ की कल्पना को प्रबल उत्तेजना मिली, आप ही की सहायता-सहयोग से इस प्रन्थ का कार्य विद्युत् वेग से विकसित हुआ, और आप हो की मङ्गल कामना से यह ग्रन्थ आज अत्यन्त सफलता के साथ सानन्द सम्पूर्ण हो रहा है, अतएव यह महान् ग्रन्थ अत्यन्त धन्यवाद पूर्वक आप ही की सेवा में समर्पित किया
जा रहा है।
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निवेदक लेखक-समुदाय
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सेठ राजमलजी ललवानी का संक्षिप्त
जीवन-परिचय
संसार के अंतर्गत कई व्यक्तियों का जीवन चरित्र इस प्रकार का होता है कि उसका विकास विपत्ति और सम्पत्ति के घात प्रतिघातों के अंतर्गत ही होता है। कई महापुरुषों की जीवनियों को देखने से इस बात का पता लगता है कि उनका जीवन चक्र अनेक टेढ़े मेढ़े रास्तों से होता हुआ परिवर्तन के प्रबल भंवरों में मँडराता हुआ उन्नति की ओर अग्रसर होता है। फिर भी यह एक अनूठा सत्य है कि इन सभी अनुकूल और विपरीत परिस्थितियों में भी उनके अंतर्गत जो प्राकृतिक विशेषताएं हैं. वे प्रकाश की तरह चमकती रहती हैं।
, सेठ राजमलजी ललवाणी की जीवनी का जब हम बारीकी के साथ अध्ययन करते हैं, तो उसमें भी कई तत्व हमें इसी प्रकार के दृष्टिगोचर होते हैं। इनका जीवन भी कई प्रकार के घात प्रति घात और विपत्ति सम्पत्ति के दुर्धर्श चक्रों में घूमता हुआ आज की स्थिति में पहुंचा है। फिर भी हम देखते हैं कि जो प्राकृतिक विशेषताएं शुरू से इनके अन्दर थीं, वे आज भी उसी प्रकार बनी हुई हैं।
आपका जन्म संवत् १९५१ की वैसाख सुदी ३ को आऊ (फलोदी) नामक ग्राम में हुआ। जिस घर में भाप पैदा हुए, वह बहुत साधारण स्थिति का घर था । खेती बाड़ी का काम होने की वजह
से बाल्यकाल में आपको खेती और ऊँट की सवारी का बहुत काम पड़ता था। मगर बाल्यजीवन उस कठिन परिस्थिति में भी आपका उत्साह बड़ा प्रबल था। जब आप वर्ष के
हए, जब अपने पिता के साथ खानदेश के मुड़ी नामक गाँव में भाये तब वहाँ मराठी की २ क्लास तक आपका शिक्षण हुआ। मगर इसी बीच आपके स्कूल जीवन में एक ऐसी विचित्र घटना घटी, जिससे आपके जीवन में एक बड़ा ही महत्व का परिवर्तन हुआ। आपका एक सहपाठी लड़कों से पैसे ठगने के लिये देवता को शरीर में लाने का ढोंग किया करता था। आप भी इस लड़के के चक्कर में आगये, और घर से पैसे ला ला कर उसे देने लगे। यह बात दैवयोग से भापके भाई को मालूम पड़ गई और एक दिन उन्होंने आपको जा पकड़ा, तथा खूब मारा। यह वहाँ से भागे, और घर न जाकर दूसरे गांव का रास्ता पकड़ लिया, उस समय केवल ११ वर्ष की अवस्था में किसमत पर भरोसा करके १५ कोस तक बराबर पैदल चले गये, और "वरुल भटाना" नामक गाँव में पहुँचे। उस गांव के नीमाजी नामक पटेल ने इनको आश्रय दिया, और वहीं पर दुकान कायम करने के लिये ५) कर्ज दिये। इन पाँच रुपयों से इन्होंने दूसरे बाजारों से सौदा लाकर इस बाजार में बेंचना शुरू किया। इससे गाँव वालों को
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[ २ ]
भी कुछ सुभीता हो गया, तथा इनको भी कुछ कुछ आमदनी होने लगी। एक महीने में इन्होंने पटेकका कर्जा चुका दिया, तथा ५) निज की पूंजी के कर लिये। इसी समय वहाँ पर एक ओर कपास का तथा दूसरी ओर खजूर का मौसिम चला। इस मौसम से भी आपने खूब लाभ उठाया, तथा ४ महीने में ८०) जोड़ लिये। जब इनके पिताजी को यह बात मालूम हुई, तो उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई, तथा वे भी यहीं आकर अपना धंधा करने लगे।
इसी बीच जामनेर के प्रसिद्ध सेठ लक्खीचन्दजी ललवाणी को एक पुत्र दत्तक लेने की आवश्यकता हुई। उनके पास इसके लिये करीब १२ लड़के उम्मीदवार होकर आये। मगर उनमें से उन्हें एक भी पसन्द न आया। जब उन्हें श्री राजमलजी की खबर लगी तो उनके पिता रामलालजी ललवाणी के पास उन्होंने खबर भेजी। कुछ समय पश्चात् स्वयं सेठ लक्खीचन्दजी, राजमलजी को देखने के लिये "मुड़ी" गये। यद्यपि इनको शिक्षा बहुत कम हुई थी, फिर भी अपनी प्रतिभा के बल से इन्होंने सेठ लक्खीचन्दजी को आकर्षित कर लिया और उन्होंने बड़ी प्रसन्नता के साथ संवत् १९६३ में इन्हें दत्तक ले लिया। इसके साथ ही साथ आपके भाग्य ने एक जबर्दस्त पलटा खाया।
सेठ राजमलजी के बाल्य जीवन पर गंभीरता पूर्वक विचार करने से पता चलता है कि यद्यपि इनका घर गरीब था, यद्यपि इनकी सब परिस्थितियाँ इनके प्रतिकूल थीं, और यद्यपि इनकी शिक्षा संतोषजनक रूप में नहीं हुई थी, फिर भी इनके अन्दर कुछ ऐसी विशेषताएं विद्यमान थीं, जिन्होंने उन संकर की घड़यों में जिनमें-कि माता पिता भाई वगैरा सबने इनका साथ छोड़ दिया था-इनके उत्साह धैर्य व सत्साहस को कायम रक्खा और ये एक बांके कर्मवीर की तरह मैदान में डटे रहे । आगे जाकर इन्हीं विशेषताओं का प्रताप था, कि इतने महान घर में जाने पर भी इन्हें अहंकार ने स्पर्श तक नहीं किया। प्रत्यक्ष जीवन में हम स्पष्ट देखते हैं कि लोगों को थोड़ी सी सम्पत्ति और सौभाग्य के मिलते हो उनकी आंखों में अहंकार और मादकता का नशा छा जाता है, तथा शीघ्र ही वे अपने कर्तव्य और चरित्र से भ्रष्ट हो जाते हैं। मगर यह आपकी बड़ी विशेषता थी कि सौभाग्य के इस प्रलोभन में भी आप वैसे ही सादे और कर्मशील बने रहे जैसे पहले थे। बल्कि आपकी विनयशीलता दिन दिन और जागृति होती गई। इस नवीन घर में आने के बाद आपने अपने पिता सेठ लक्खीचंदजी की तन मन से सेवा करना प्रारम्भ किया। इसका प्रभाव यह हुआ कि जब तक सेठ लक्खीचंदजी जीवित रहे, तब तक कभी उन्होंने इनको बिना साथ बैठाये भोजन नहीं किया। . संवत् १९६४ में सेठ लक्खीचन्दजी का स्वर्गवास हुआ। मृत्यु के समय करीब १ लाख रुपया वे अपने कुटुम्बियों तथा रिश्तेदारों को दे गये। तथा २ लाख रुपया उनकी मृत्यु के पश्चात् खर्च किये गये। सेठ लक्खीचन्दजी के पश्चात् सारे कार्य का बोझा आप पर आकर पड़ गया। केवल १३ वर्ष की उम्र में इतने बड़े काम और जमीदारी को संभालना आसान बात नहीं थी। मगर इन्होंने अत्यन्त दूरदर्शिता और बुद्धिमानी से इस काम को संचालित किया। संवत् १९७१ में आपका विवाह हैदराबाद (दक्षिण )के मशहूर सेठ दीवानबहादुर थानमलजी लूणिया के यहाँ हुआ। आपके हाथों में सब प्रकार की जिम्मेदारी आते ही राजनैतिक, सामाजिक, और धार्मिक सभी क्षेत्रों में आपकी प्रतिभा चमक उठी ।
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[ ३ ] आपका राजनैतिक जीवन समय २ पर अत्यन्त महत्व पूर्ण भागों में काम करता रहा। सबसे पहिले उस जमाने में जब कि भारत की राजनीत गवर्नमेंट को सेवा और राज्य भक्ति में ही सफल समझी
- जाती थी, और महात्मा गांधी के समान महापुरुषों तक ने गवर्नमेंट को युद्ध में मदद राजनैतिक जोवन पहुंचाने की अपील की थी। उस समय आग्ने गवर्नमेंट को ५० हजार रुपया वार
लोन में प्रदान झिया था। और कुछ रंगरूट भी युद्ध में भेजे थे। इससे गवर्नमेंट बड़ी प्रसन्न हुई। और उसने आपका स्टेच्यू जलगाँव में स्थापित किया, तथा आपको सब प्रकार के हथियारों का फ्री लायसेंस प्रदान किया। इसके पश्चात् जब भारतीय गजनीति का धोरण बदला, तब आपने इस ओर सेवा करना प्रारम्भ किया । जब लोकमान्य तिलक काले पानी से लौट कर मलकापुर पधारे,, तब आप वहाँ की स्वागत समिति के अध्यक्ष थे। - सन् १९९१ में जब महात्मा गान्धी का असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ हुभा तब आपने उसमें भी बड़े उत्साह के साथ भाग लिया, जिसके फलस्वरूप आपको गवर्नमेंट का कोप भाजन बनना पड़ा और आपके लाइसेंस व हथियार जप्त कर लिये गये। सन् १९२० में जलगांव के अन्दर बम्बई प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी का जो अधिवेशन हुआ था, उसके अध्यक्ष आप ही थे। दो वर्ष पूर्व वहाँ जो "स्वदेशी प्रदर्शनी” हुई थी, उसके स्वागताध्यक्ष भी आप ही थे। इसी वर्ष करीब १५ हजार वोटों से बम्बई प्रान्त की तरफ से आर बम्बई की लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य चुने गये थे। इसी से आपकी लोकप्रियता का पता चलता है। इसी समय. आपको हथियारों का लायसेंस पुनः पापिस मिल गया। भाप शुद्ध खदर धारण करते हैं। तथा हर एक राष्ट्रीय कार्य में बड़े ही उत्साह के साथ भाग लेते हैं।
_____आपका सामाजिक जीवन आपके राजनैतिक जीवन से भी बहुत उज्वल है। भारतवर्ष के मोसवालों में सुधार और उन्नति की जो लहर पैदा हुई है, उसमें आपका बहुत बड़ा हाथ रहा है। पहिले
पहिल आपने खानदेशीय ओसवाल सभा की स्थापना की। उसके पश्चात् मुनी पदमासामाजिक जीवन नन्दजी के सहयोग से आपने अखिल भारतीय मुनि-मण्डलकी स्थापना की। और "मनी"
नामक एक मासिक पत्र का भी निकालना प्रारम्भ किया। इसी समय अखिल भारतीय भोसवाल महासभा की भी आपने स्थापना की, और प्रारम्भ में आप ही उसके अध्यक्ष रहे । मालेगाँव में जब इसकी कार्य कारिणी की मीटिंग हुई उसमें करीब 1 हजार प्रतिनिधि आये थे। इसके पश्चात् आपने अपने गतीय युवकों को उच्च शिक्षा दिलाने के उद्देश्य से अपने पास से २० हजार रुपया देकर “खानदेश एज्यूकेशन सोसायटी" नामक शिक्षण संस्था की स्थापना की। इसके प्रेसीडेण्ट भी आप ही हैं। यह संस्था अभी तक करीव २० हजार रुपये ओसवाल विद्यार्थियों को वितरित चुकी है। और करीव ५२ हजार का फण्ड इसके पास मौजूद है। इसके अतिरिक्त जलगांव के अन्दर आपने ओसवाल जैन बोडिंग की स्थापना की, जिसके अध्यक्ष भी आप ही हैं। जामनेर में आपने अपनी माता श्रीमती भागीरथीबाई के नाम से एक लायब्रेरी की भी स्थापना की । इस लायब्रेरी के पास इस समय करीब २० हजार रुपयों की जायदाद है। अपनी मातृभूमि बड़लू के अंतर्गत भी मापने एक जैन गुरुकुल स्थापित किया है। इसके अध्यक्ष भी आप ही हैं। इसके अतिरिक्त आप चांदवड़ के "नेमिनाथ ब्रह्मचर्याश्रम" के अध्यक्ष तथा अमलनेर
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[ ४ ]
की "खानदेश एज्यूकेशन सोसायटी" के उपाध्यक्ष हैं। अजमेर में होने वाले "अखिल भारतीय ओसवाल सम्मेलन” के प्रथम अधिवेशन के आप स्वागताध्यक्ष रहे, और उसमें आपने काफी सहायता पहुँचाई ।
संवत् १९७२।७३ में जब अनाज का भाव एकदम मँहगा हो गया और जामनेर की गरीब प्रजा तबाही की स्थिति में आ गई, उस समय १२ महीने तक जनता को गेहूँ व ज्वार सस्ते भाव में सप्लाय करने की जबाबदारी आपने अपने ऊपर लेली । उस समय आपने बाजार भाव से दो तिहाई मूल्य पर 1 साल तक अनाज सप्लाय कर गरीब जनता को सहायता पहुँचाई। इसी प्रकार प्लेग तथा एन्फ्लूएन्जी के समय में भी आपने पब्लिक की बहुत कीमती सेवाएँ कीं । न केवल इन संस्थाओं ही में रहकर आपने समाज सेवाएँ कीं । पर कई महत्वपूर्ण पंचायतों में भी आपने बहुत दिलचस्पी से भाग लिया। सिल्लौड़, लोण्ढरी, धूलिया, इगतपुरी में पेंचीदे सामाजिक विवाद खड़े होने पर आपके सभापतित्व एवं नेतृत्व में पंचायतें भरीं एवं उनमें आपने ऐसी बुद्धिमानो पूर्ण फैसले किये कि जिन्हें देखकर आपके सामाजिक उन्नत विचारों का सहज ही पता लगता है ।
•
धार्मिक जीवन
प्रारम्भ में आप कट्टर जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी थे । इसके बाद "पहाड़ी बाबा" नामक एक विख्यात साधु के सत्संग से आपको वेदान्त, पातंजलि दर्शन और योगाभ्यास का बहुत शौक लगा । इसी योगाभ्यास के निमित्त आपने अपने बगीचे में जमीन के भीतर एक बहुत शान्त और भव्य योगशाला का निर्माण कराया। इसके पश्चात् आपने मुस्लिम, ईसाई और आर्यसमाज आदि सब धर्मों का अध्ययन किया । इसके पश्चात् आपके जो 'विचार' हुए, बहुत उच्च हैं। आपने अनुभव किया कि "इस जगत् में तीन प्रकार के धर्मं प्रचलित है" पहला ईश्वरीय धर्मं, दूसरा प्राकृतिक धर्म और तीसरा मनुष्यकृत धर्मं । अहिंसा, सत्य, निर्बेर भावना और अखिल शान्तिमय विशुद्ध भावना ईश्वरीय धर्म है । तथा भूख पर भोजन करना, प्यास पर पानी पीना यह प्राकृतिक धर्म है । यह दोनों धर्म सत्य हैं और अमर हैं । तीसरा धर्म जो मनुष्यकृत है और मनुष्य की स्वार्थ प्रकृति की वजह से जिसका रूप बहुत विकृत हो गया है, वह भेदभाव का प्रवर्तक है, और उसीने मनुष्य जाति में इतने भेदभाव और उपद्रव पैदा किये हैं। विश्वास मनुष्य धर्म से उठकर प्राकृतिक और ईश्वरीय धर्मों पर जम गया है । सम्बन्ध में आपके विचार कितने उन्नत हैं।
इन्हीं सब अनुभवों से आपका कहना न होगा कि इस
उपरोक्त अवतरणों से स्पष्ट हो गया है कि क्या सभी विषयों में आपका जीवन उत्तसेत्तर प्रगतिशील रहा है। ओसवाल समाज में नामांकित धनिक और उदार पुरुष हैं। नामक एक पुत्री हैं, जिनका विवाह मांजरोद निवासी श्री अभी बी० ए० में पढ़ते हैं। सेठ राजमलजी का जामनेर में ' लक्खीचंद रामचंद" के नाम से बैंकिंग व कृषि का कार्य होता है । आपकी जलगाँव दुकान पर भी बैंकिंग व्यापार होता है ।
राजनैतिक, क्या धार्मिक और क्या सामाजिक आप खानदेश, बरार तथा महाराष्ट्र प्रान्त के इस समय आपके सौभाग्यवती माणिक बाई दीपचन्दजी सबदरा के साथ हुआ है । आप
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ओसवाल जाति का इतिहास
ग्रन्थ के द्वितीय आधार स्तम्भ
V. Y. Ajmer.
श्रीयुत सुगन्धचन्द्रजी लुणावत, धामक ( बरार )
परिचय:
आप वरार प्रान्त की प्रसिद्ध फर्म मेसर्स बुधमल बिरदीचन्द लूणावत के मालिक हैं। आप बड़े शान्त, विशुद्धहृदय एवं उच्चप्रवृत्तियों वाले युवक हैं । इतनी अल्पवय होते हुए भी आप सभा, सोसायटियों तथा शिक्षा संस्थाओं में बहुत दिलचस्पी से भाग लेते रहते हैं, एवं उनमें उदारतापूर्वक सहायताएं देते हैं। श्रोसवाल समाज आप जैसे “अपने” सम्पत्तिशाली एवं होनहार युवकों से बहुत बड़ी आशा रखता है। इस ग्रन्थ के प्रणयन में आपकी सहायता एवं सहानुभूति ने प्रकाशकों के मार्ग को अत्यन्त सुगम किया है।
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ओसवाल जाति का इतिहास
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ग्रन्थ के माननीय संरक्षक
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ग्रन्थ के माननीय संरक्षक
5.
१ - रायबहादुर सिरेमलजी बापना सी० आई० ई०, इन्दौर
भारतवर्ष के ओसवाल समाज में आप सर्व प्रथम व्यक्ति हैं, जो इस समय इन्दौर के समान बड़ी रियासत के प्रधान मंत्री ( प्राइम मिनिस्टर) के उत्तरदायित्वपूर्ण पद को सफलता पूर्वक सञ्चालित कर रहे हैं। आप बड़े उदार, गम्भीर और महान हृदय के पुरुष हैं 1 इस ग्रन्थ के प्रणयन में आपकी प्रेरणा ने प्रकाशकों के मार्ग को बहुत प्रकाशित किया ।
२- श्री० मेहता फतेलालजी, उदयपुर
बीकानेर
आप सुप्रसिद्ध बच्छावत कर्मचन्दजी के वंशज और उदयपुर के भूतपूर्व दीवान मेहता पन्नालालजी सी० आई० ई० के सुपुत्र हैं । आप बड़े साहित्य प्रेमी और इतिहास रसिक व्यक्ति हैं। प्राचीन ग्रन्थों और चित्रों का आपके पास अच्छा संग्रह है । ओसवाल इतिहास के निर्माण में आपने अच्छा उत्साह प्रदान किया । ३ –– स्वर्गीय सेठ चांदमलजी डड्डा सी० आई० ई०, ओसवाल जाति के रईस पुरुषों में आपका स्थान. सर्व प्रथम था । अपने समय में आप ओसवाल जाति के प्रधान पुरुष थे । आप बड़े उदार और महान हृदय के पुरुष थे। आपकी ओर से भी इस ग्रन्थ को अच्छा उत्साह प्राप्त हुआ । खेद है कि ग्रन्थ के छपते २ हाल ही में आपका स्वर्गवास हो गया । ४ - बाबू बहादुरसिंहजी सिंघी,
कलकत्ता
आप कलकत्ते की सुप्रसिद्ध "हरिसिंह निहालचन्द” फर्म के मालिक और बंगाल के एक बड़े जमींदार हैं। आप बड़े विद्यारसिक और साहित्य प्रेमी पुरुष हैं। आपके पास भी प्राचीन वस्तुओं का दर्शनीय संग्रह है। इस ग्रन्थ के निर्माण में आपकी सहायता भी बहुमूल्य है ।
५- बाबू पूरनचन्दजी नाहर एम० ए० बी० एल०, कलकत्ता | आप समस्त ओसवाल समाज में सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ हैं । न केवल ओसवाल
समाज ही में प्रत्युत सारे भारत के इतिहासकारों में आप अपना एक खास स्थान रखते हैं। आप बड़े प्रसन्न चित्त और सरल हृदय के पुरुष हैं। प्राचीन वस्तुओं का संग्रह आपके पास बहुत गज़ब का है । आपने अनेकों ऐतिहासिक ग्रन्थों की रचना बहुत खोज के साथ की है । आपके द्वारा हमें इस ग्रन्थ की सामग्री संग्रह में बहुत सहायता प्राप्त हुई है।
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६-दीवान बहादुर सेठ केशरीसिंहजी, कोटा आप ओसवाल समाज के धन कुबेरों में से एक हैं। आपके द्वारा भी इस ग्रन्थ निर्माण में 8 अच्छी सहायता प्राप्त हुई।
.-सिंघवी रघुनाथमलजी बैंकर, हैदराबाद (दक्षिण)
आप सारे ओसवाल समाज में ऐसे प्रथम व्यक्ति हैं जो व्यक्तिगत रूप से इंग्लिश स्टाइल पर बैङ्किग, व्यापार सफलता पूर्वक कर रहे हैं। आपका हृदय बड़ा विशाल और सहानुभूतिपूर्ण है। जितनी ( प्रसन्नता हमको आपके सहयोग में रहने से हुई उतनी अन्यत्र कहीं न हुई । आपकी सहायताएं भी इस ग्रन्थ । निर्माण में बहुमूल्य हैं।
८-श्री कन्हैयालालजी भण्डारी, इन्दौर आप भारतवर्ष के मारवाड़ी ओसवालों में पहले या दूसरे नम्बर के इण्डस्ट्रियालिस्ट हैं । आप इन्दौर १ के "श्रीनन्दलाल भण्डारी मिल" के मैनेजिंग एजंट हैं । आपने भी इस ग्रंथ में अच्छी सहायता प्रदान की है।
९-श्री ईसरचन्दजी चोपड़ा, गंगा शहर ___आप बड़े उदार और इतिहास प्रेमी व्यक्ति हैं । आप कलकत्ते के जूट के प्रसिद्ध व्यवसायी हैं। ! आपने भी इस ग्रन्थ में महत्वपूर्ण सहायता पहुंचाई है। .
१०-श्री इन्द्रमलजी लूणिया, हैदराबाद (दक्षिण) आप हैदराबाद के सुप्रसिद्ध सेठ दीवान बहादुर थानमलजी लुणिया के पौत्र हैं। आप बड़े १ सजन व्यक्ति हैं। आपने भी इस ग्रन्थ में. अच्छी सहायता की है।
११-श्री शुभकरणजी सुराणा, चूरू आप प्रसिद्ध व्यापारी और साहित्य प्रेमी व्यक्ति हैं। आपने भी इस ग्रन्थ में सहायता पहुंचाई है।
१२-श्री तिलोकचन्दजी सुराणा, चूरू __ आप तेरा पन्थी समाज में गण्यमान्य व्यक्ति हैं। भाप कलकत्ते के मारवाड़ी समाज में । प्रतिष्ठित सार्वजनिक कार्यकर्ता हैं। इस प्रन्थ में आपने भी सहायता पहुंचाई है।
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ग्रन्थ के माननीय सहायक
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श्रीयुत मेहता जगन्नाथ सिंहजी, लक्ष्मणसिंहजी, उदयपुर. लालचन्दजी डढ्ढा, डढ्ढा एण्ड कम्पनी, मद्रास. बाबू लक्ष्मीचन्दजी छल्लानी, सिकंदराबाद (दक्षिण) बाबू सोहनलालजी दूगड़, कलकत्ता
सेठ कनकमलजी चौधरी, बड़नगर ( गवालियर )
सेठ बख्तावरमल मोहनलाल सेठिया पट्टालमसुला, मद्रास.
राय साहिब सेठ मोतीलाल बालमुकुन्द मूथा, सतारा
श्रीयुत रोशनलालजी चतुर, उदयपुर. चलसिंहजी, आगरा.
सेठ
सेठ हीरालालजी मुल्थान वाले, खाचरोद ( गवालियर ) सेठ केशरीचन्द मंगलचन्द भाबक, मद्रास.
सेठ अगरचन्द मानमल चोरड़िया, मद्रास सेठ खुशालचंद धर्मचंद गोलेच्छा, टिंडीवरम् (मद्रास). सेठ हंसराज सागरमल खांटेड़, ट्रिवल्लूर ( मद्रास ) सेठ पृथ्वीराजजी ललवानी, मांडल ( खानदेश ) सेठ माणकचंद गेंदमल वेद, मद्रास.
सेठ रावतमल भेरोंदान कोठारी, बीकानेर.
श्री महासिंहराय मेघराज बहादुर मुर्शिदाबाद. श्रीयुत पुखराजजी कोचर, हिंगनघाट.
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सरदारनाथजी मोदी "वकील" जोधपुर. सेठ बनेचंद जुहारमल दुगड़, तिरमलगिरी ( हैदराबाद ) लाला रतनचंद हरजसराय बरड़, अमृतसर. सेठ जेठमल श्रीचंद गधइया, सरदार शहर. सेठ चैनरूप सम्पतराम दूगड़, सरदार शहर. सेठ निहालचन्द पूनमचन्द गोलेच्छा, फलोदी. लाला शादीराम गोकुलचन्द नाहर, देहली. श्री जीवनमल चन्दनमल बैगानी, लाडनूँ. श्री शिवजीराम खूबचंद चंडालिया, सरदारशहर.
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प्रेस बिजली से चलता है
काम उमदा, सस्ता और बहुत जल्दी होता है।
सवाल समाज का बहुत बड़ा छापाखाना
आदर्श प्रेस, अजमेर
( केसरगंज डाकखाने के पास )
इस प्रेस में संस्कृत, हिन्दी व अंग्रेज़ी की पुस्तकें, लेटर पेपर, बिलफॉर्म, मानपत्र, कुंकुंपनी, इकरंगे, दोरंगे व तीन रंगे ब्लाकों की छपाई आदि सब तरह का काम होता है । एक दिन में तीन फार्म कंपोज़ करके छाप सकते हैं ।
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संशोधन का भी प्रबन्ध है । आशा है ओसवाल सजन अपना सब काम यहीं पर भेजने की कृपा करेंगे और अपने स्वजातीय प्रेस को अपनावेंगे ।
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विनीत - जीतमल लूणिया, संचालक
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भूमिका
आज हम बड़ी प्रसन्नता के साथ इस महान ग्रन्थ को लेकर पाठकों के सम्मुख उपस्थित होते हैं। जिस समय हमने इस विशाल कार्य का बीड़ा उठाया था, उस समय हमें यह आशा न थी, कि यह कार्य इतने सर्वाङ्ग रूप में हम लोगों के द्वारा प्रस्तुत हो सकेगा। फिर भी महत्वाकांक्षा और उत्साह की एक प्रबल चिनगारी हमारे हृदयों में प्रदीप्त हो रही थी, और वह हमारे मार्ग को प्रकाशित कर रही थी। उसी की प्रेरणा से ज्यों ज्यों हम इसके अंदर घुसते गये, त्यों त्यों सर्वतोमुखी सफलता के दर्शन हमें होते गये। काम बड़ा कठिन था, परिश्रम भी बहुत बड़ा था, मगर हमारा उत्साह भी अदम्य था। इसीका परिणाम है, कि हिन्दुस्तान के कोने २ में बड़े से बड़े शहर और छोटे से छोटे गाँव में घर २ जाकर हम लोगों ने इस महान ग्रन्थ की सामग्री एकत्रित की। हमारी चार पार्टियों ने रेलवे और मोटर को मिलाकर करीब 1लाख मील की मुसाफिरी की । जाड़े की कड़कड़ाती हुई रातों और गर्मियों की धधकती हुई दुपहरियों में हमारे कार्यकर्ता अविश्रांत भाव से इसकी सामग्री संग्रह में जुटे रहे। इस प्रकार करीब २० महीनों के अनवरत परि से यह ग्रन्थ इस रूप में तयार हुआ ।
इस ग्रन्थ के अन्दर हमने ओसवाल जाति से सम्बन्ध रखने वाली प्रत्येक महत्वपूर्ण बातों का उल्लेख किया है। इस जाति का इतिहास कितना महत्वपूर्ण और गौरवमय रहा है, यह बात इस इतिहास से पाठकों को भली भाँति रोशन हो जायगी। ऐसे महत्वपूर्ण इतिहास के प्रकाशन से कितना लाभ हुआ है, इसका निर्णय करना, हमारा नहीं प्रत्युत पाठकों का काम है।
हमें सब से बड़ी प्रसन्नता इस बात की है, कि भारत भर के ओसवाल गृहस्थों ने हमारी इस योजना का हृदय से स्वागत किया । जहाँ २ हम गये, वहाँ २ के सद्गृहस्थों ने हमारा बड़े प्रेम से स्वागत किया, तथा हमें हर तरह से सहायता पहुँचाने की कोशिश की। कहना न होगा, कि यदि इतना प्रबल सहयोग ओसवाल गृहस्थों की तरफ से हमें प्राप्त न हुआ होता, तो आज यह ग्रन्थ कदापि इस रूप में पाठकों की सेवा में न पहुँच पाता। .
यद्यपि ग्रन्थ के द्वारा जो सामग्री पाठकों के पास पहुंच रही है, वह बहुत पर्याप्त मात्रा में है, फिर भी इसके अंदर जो त्रुटियां शेष रह गई हैं, वे हमारी नजरों से छिपी हुई नहीं है। पहिली त्रुटि जो हमें खटक रही है, वह उन शिलालेखों का न दिया जाना है, जो ओसवाल जाति के सम्बन्ध में हमें प्राप्त हो सकते थे। यद्यपि इसके धार्मिक अध्याय में कई प्रधान २ शिला लेखों का वर्णन कर दिया गया है, फिर भी अनेकों ऐसे छोटे २ शिला लेख रह गये हैं जो अधिक महत्व पूर्ण न होने पर भी इस ग्रन्थ के लिए आवश्यक थे। दूसरी त्रुटि जिन प्रशस्तियों के फोटो हमने इस ग्रन्थ में दिये हैं, उनके अनुवाद यथास्थान हम नहीं सजा सके. इसका भी हमें अफसोस है। तीसरा यह विचार था कि भारतवर्ष के अंदर जितने ओसवाल ग्रेज्युएट्स और रिफार्मर्स हैं, उनका संक्षिप्त परिचय एक स्वतंत्र अध्याय में किया जाय । इसके लिए हमने बहुत पत्र न्यवहार भी किया, मगर खेद हैं कि उन लोगों के पूर्ण परिचय न आने की वजह से
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[ २ ] हमें इस कार्य से वंचित रहना पड़ा। ओसवाल जाति के निर्माण करने वाले जैनाचार्यों के चिन देने का भी हमारा विचार था, मगर असली चित्र प्राप्त न होने की वजह से वह विचार भी हमको स्थागित कर देना पड़ा। अगर यह सब त्रुटियाँ पूर्ण हो गई होतीं, तो यह ग्रन्थ बहुत ही अधिक सुन्दा होता। फिर भी जिस रूप में यह प्रकाशित हो रहा है, हमारा दावा है कि अभीतक कोई भी जातीय इतिहास, भारतवर्ष में इसकी जोड़ का नहीं है। और हमें आशा है कि भविष्य में संदर जातीय इतिहासों की रचना करने वाले व्यक्तियों के लिये यह ग्रन्थ मार्ग दर्शक होगा। प्रेस सम्बन्धी जो अशुद्धियाँ इस ग्रन्थ के अंदर रह गई हैं, उसके लिये भी हमें बहुत बड़ा दुःख है। पर इतने बड़े कार्य के अन्दर जहाँ पचीसों व्यक्ति प्रफ पढ़ने वाले और मेटर तय्यार करने वाले हों, इस प्रकार की भूलों का होना स्वाभाविक है। दृष्टे दोष से या
और किन्हीं अभावों से इस ग्रन्थ के अंदर जो भूले, त्रुटियाँ और कमियाँ रह गई हों, पाठकों से हमारा निवेदन है कि उनके सम्बन्ध में वे हमें अवश्य सूचित करें, यथा साध्य अगले संस्करण में उनको सुधारने का प्रयत्न करेंगे। इस ग्रन्थ के "ओसवाल जाति की उत्पत्ति, अभ्युदय” इत्यादि एक दो अध्यायों को छोड़ कर, जितनी भी राजनैतिक, व्यापारिक और कोटुम्बिक इतिहास की सामग्री एकत्रित की गई है, वह सबओसवाल गृहस्थों के द्वारा ही हमें प्राप्त हुई है, अतएव उसके सही या गलत होने की जबाबदारी उन्हीं सज्जनों पर है।
. इस ग्रंथ के प्रणयन में जिन सजनों ने महान सहायताएँ पहुँचाई हैं उनमें से श्रीयुत राजमल जी ललवानी, सुगन्धचन्द्रजी लूणावत, रायबहादुर सिरेमलजी बापना सी० आई० ई०, मेहता फतेलालजी. स्वर्गीय सेठ चांदमलजी ढड्डा सी० आई० ई०, सेठ बहादुरसिंहजी सिंघी, बाबू पूरनचन्द्रजी नाहर एम० ए० बी० एल०, दीवान बहादुर सेठ केशरीसिंहजी, सिंघवी रघुनाथमलजी बैंकर्स, श्री कन्हैयालालजी भण्डारी, श्री ईसरचंदजी चौपड़ा, श्री इन्द्रमलजी लुणिया एवं श्री शुभकरणजी सुराणा का नामोल्लेख तो हम पहिले संरक्षकों के परिचय में कर ही चुके हैं। इनके अलावा मुनि ज्ञानसुन्दरजी, गणी रामलालजी तथा जैन साहित्य नो इतिहास के लेखक, फलौदी निवासी श्रीयुत फूलचंदजी और श्रीयुत नेमीचंदजी झाबक, मद्रास के श्रीयत मंगलचंदजी झाबक, श्रीयुत जसवंतमलजी सेठिया, हैदराबाद के श्रीयुत किशनलालजी गोठी. देहली के श्रीयुत गोकुलचन्दजी नाहर, अमृतसर के लाला रतनचन्दजी बरड़, जोधपुर के मेहता जसवंतरायजी, भण्डारी जीवनमलजी, भण्डारी अखेराजजी, भण्डारी विशनदासजी, मुहणोत वृद्धराजजी, मुहणोत सरदारमलजी तथा डड्डा मनोहरमलजी, कलकत्ते के श्री सोहनलालजी दूगड़, उदयपुर निवासी लेफ्टिनेंट कुँवर दलपतसिंहजी इत्यादि महानुभावों ने इस ग्रंथ के प्रणयन में जो अमूल्य सहायताएँ पहुँचाई हैं, उनके प्रति धन्यवाद प्रदर्शित करना हम अपना परम कर्तव्य समझते हैं। अंत में आदर्श प्रिंटिंग प्रेस अजमेर के संचालक बाबू जीतमलजी लुणिया को भी धन्यवाद देना भूल नहीं सकते, जिनके सौजन्य पूर्ण व्यवहार ने इस प्रन्थ की छपाई में हर तरह की सहूलियतें दीं।
एक बार फिर हम पाठकों को इस ग्रंथ की सफलता के लिए बधाई देते हैं और त्रुटियों के लिये क्षमा मांगते हैं। शांति मन्दिर, भानपुरा (इन्दौर) ।
भवदीयतारीख १-८-१९३४ ईस्वी ।
"लेखकगण"
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विषय-सूची
पेज नं०
३८० ३८६ ३८८ ३९३ ३९९
१८७
डोसी ...
१९३
४०२
४४
४६५
विषय
पेज नं0 | विषय सिंहावलोकन
कावड़िया ओसवाल जाति की उत्पत्ति...
चील मेहता ओसवाल जाति का अभ्युदय
२० चतुर (सांभर) ओसवाल जाति का राजनैतिक और सैनिक महत्व ३९ मुरडिया धार्मिक क्षेत्र में ओसवाल जाति
१२९ शिशोदिया ओसवाल जाति की मुख्य २ संस्थाएं
घलूंडिया ओसवाल जाति और उसके आचार्य ...
दूगड़ ... ओसवाल जाति के प्रसिद्ध धरानेगेलड़ा ...
चोपड़ा ... बच्छाधत
गधैया ... बोथरा ...
कोचर ...
झाबक ... दस्साणी मुहणोत
गोलेछा... सिंघवी, सिंघी
सेठिया, सेठी, रांका भंडारी ...
बांठिया... बेद मेहता.
१६६
नाहटा ... बापना ...
छल्लानी... कोठारी...
२१९
बोहरा ... लोदा ...
२४४ चोरडिया, (रामपुरिया) डढढा ...
२६४ बोरड़-बरड़ सुराणा ...
२७६ खींवसरा नाहर ...
२९७ नौलखा दुधोरिया
३१२
धाड़ीवाल ललवाणी
३१७
हरखावत लूणावत लूणिया...
पावेचा
३३४ बन्दा मेहता
३४०
नांदेचा बागरेचा मेहता
३४६ कांकरिया (मेहता)
डागा ...
पारख ... रतनपुरा, कटारिया
३६० भाण्डावत
३७०
बरमेचा ओसतवाल
३७१
गोठी बोलिया
३७४ पूगलिया
११९
१९३
::::::::::::::::::::::::::::::::
५०५ ५०६ ५०९
५२२
:
.
.
.
.
३२८
.
५२७ ५३१ ५३३ ५३५ ५३७ ५३० ५४० ५४२ ५४७
.
छाजेड़
३५३
५५४
५५८
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पेज नं.
५६१
५६२
M NO
५८३
५१०
[ २ ] विषय
पेज नं० | विषय बेंगाणी
पटावरी
१२४ चंडालिया
बम्बोली, श्री श्रमाल ..
६२५ कठौतिया, भूतेड़िया ...
सबदरा
१२६ कांसटिया
५६६ जालोरी
६२६ समदड़िया
५६७ फलोदिया, धूपिया ...
६२८ खांटेड़
मुदरेचा (बोहरा) मम्बइया
बैताला संचेती, सुचिन्ती, सचेती
बिनायक्या भंसाली
मालू ...
मरोठी ... फिरोदिया
५८५ सावण सुखा
६३५ बोरदिया
रेदासनी
६३० कीमती
नीमानी
६३० ५८७ पीतलिया
घेमावत देवड़ा ...
६४० जम्मड़ ...
डाँगी ...
६४१ नखत ...
५९. आंचलिया
६४२ ५९३ गोधावत
६४३ खजांची
५९५ कोचेटा
दनेचा (बोहरा) ५९७
बागचार सांढ ...
५९९ सालेचा, टांटिया
६४५ भाभू ...
६०० आबड़!...
६४६ लिगे
६०४
ठाकुर ... मनिहानी
भादाणी
६१० पगारिया, भटेवड़ा ....
६४८ पाटनी ...
पूनमियों, ललँड़या राठौड़ मालकस
छजलानी, भूरा नागोरी
गाँधी
६५१ गुगलिया ६४ गड़िया
६५३ संखलेचा, सखलेचा ६१५ रूणवाल
६५४ बरडिया
सीयाल, रायसोनी, कातरेला
६५५ बनवट ... .
मरलेचा, मडेचा ...
६५६ बढ़ेर, भड़गतिया
बागमार, कुचेरिया, हड़िया
६५० सांखला ६२२ धोका
६५८ हिंगड़ ... ६२३ । परिशिष्ट
६५० नोट-कई खानदानों के परिचय भूल से यथास्थान छपना रह गये और कई परिवारों के परिचय ग्रन्थ छप चुकने
के पश्चात् आये । अतएव ऐसे सब परिवारों के परिचय “परिशिष्ट" में दिये गए हैं।
::::::::::::::::::::::::::::::
६४३
लिग
....
तांतेड़ ...
६१७
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सवाल जाति की उत्पत्ति
Origin of the Oswals.
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भारतवर्ष के इतिहास की सामग्री इतने अन्धकार में है कि पुरातत्ववेत्ताओं की सैकड़ों वर्षों
| से लगातार खोज जारी रहने पर भी अभीतक उसका बहुत सा भाग तिमिराच्छन है और बहुत-सी महत्वपूर्ण बातों के अभाव से उसके कई अङ्ग अधूरे पड़े हुए हैं। इस देश में एक तो वैसे ही लोगों की रुचि अपने वैज्ञानिक इतिहास का निर्माण करने की ओर बहुत कम रही, दूसरे जिन लोगों ने इस विषय पर कुछ लिखा भी तो समय के भीषण प्रहारों से, बार-बार होने वाले राज्यपरिवर्तनों और राज्यक्रान्तियों से वह सामग्री भी रक्षित न रह सकी। फिर भी आधुनिक अन्वेषणाओं से और पुरातत्ववेत्ताओं के सतत प्रयत्नों से जो कुछ भी टूटे फूटे शिलालेख, ताम्रपत्र, प्रशस्तियाँ वगैरह प्राप्त हुई हैं उनसे भारतवर्ष के राजनैतिक इतिहास और राजपरिवर्तनों पर काफ़ी प्रकाश पड़ने लगा है। मगर जातियों का अलग अलग इतिहास तो अभी भी वैसा ही अन्धकार के गर्क में लीन है।
ओसवाल जाति के इतिहास के सम्बन्ध में भी यही बात सोलह आना सच उतरती है। इस महान् जाति के द्वारा किये गये उज्ज्वल और महान कार्यों से राजपूताने का मध्यकालीन इतिहास दैदीप्यमान हो रहा है और इसके अन्दर पैदा होने वाले महापुरुषों का नाम उस समय के इतिहास के अन्दर स्थान-स्थान पर दृष्टिगोचर होता है। इतने पर भी यदि आज पूछा जाय कि राजपूताने के रणांगण में भांति-भांति के खेल दिखानेवाली इस जाति की उत्पत्ति कब, कैसे और कहाँ से हुई तो इतिहासवेत्ता चुप हो जाते हैं। पुरातत्ववेत्ता आँखें बन्द कर लेते हैं और इतिहास अपनी असमर्थता को प्रकट कर देता है। कोई मज़बूत आधार नहीं, कोई सन्तोषजनक प्रमाण नहीं. कोई विश्वासनीय लेख नहीं जिसके बल पर इसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में कोई निर्विवाद बात बतलाई जासके ।
प्राचीन यतियों के शास्त्र भण्डारों में, भाटों की वंशावलियों में, और जैनाचार्यों के जैन ग्रन्थों में ओसवाल जाति की उत्पत्ति के विषय में अनेक दंतकथाएँ, अनेक किम्बदंतियाँ और अनेक कान्य प्राप्त होते हैं। मगर उन सबके ऊपर विचार करने पर इस बात का पता चलता है कि कुछ लोगों ने तो इस जाति
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ओसवाल जाति का इतिहास
को अधिक-से-अधिक प्राचीन सिद्ध करने के लोभ में, कुछ लोगों ने अपने-अपने गच्छों और अपने-अपने भाचार्यों की प्रतिष्टा को बढ़ाने के हेतु से, इन सब प्रमाणों के ऊपर पक्षपात का ऐसा गहरा रंग बड़ा दिया है कि उसमें से आज असलियत को ढूंढ निकालना भी बहुत कठिन हो गया है और बहुत-से इतिहास रसिक और पुरातत्ववेत्ता तो इस प्रकार की अतिशयोक्ति पूर्ण कातों पर विचार तक करने में बुराई समझने लग गये हैं।
ऐसी स्थिति में ओसवाल जाति की उत्पत्ति का समय निर्णय करना किसी भी इतिहासवेत्ता . के लिये कितना कठिन, और दुरूह है यह बतलाने की ज़रूरत नहीं।
फिर भी जो लेखक भोसवाल जाति का इतिहास लिखने के लिये बैठता है उसके लिये सबसे पहला और आवश्यक कर्तव्य यह हो जाता है कि इस जाति की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जो अधिक-से-अधिक सामग्री उपलब्ध हो, वह पाठकों के सम्मुख उपस्थित करदे । ऐसा किये बिना उसका पवित्र कर्त्तव्य पूरा नहीं हो सकता। इन्हीं सब बातों को मद्दे नज़र रखकर इस जाति की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जो महत्वपूर्ण तथ्य हमें प्राप्त हुए हैं वह हम नीचे प्रस्तुत करते हैं।
इस समय भोसवाल जाति की उत्पत्ति के सम्बन्ध में तीन मत विशेषतया प्रचलित हैं। उन तीनों मतों पर हम पहाँ अलग-अलग रूप से विचार करते हैं।
-पहला मत जैन ग्रंथों और जैनाचार्यों का है जिनके मतानुसार वीर निर्वाण संवत् ७० में अर्थात् वि० संवत् से करोब ४०० वर्ष पूर्व भीनमाल के राजा भीमसेन के पुत्र उपलदेव ने ओसियां नगरी (उपकेश नगरी) बसाई और भगवान पार्श्वनाथ के वे पाटधर उपकेश गच्छीय श्री आचार्य रत्नप्रभ सूरि ने उस राजा को प्रतिबोध देकर जैनधर्म की दीक्षा दी और उसी समय ओसवाल जाति की स्थापना की।
२-दूसरा मत भाटों, भोजकों और सेवकों का है, जिनकी वंशावलियों से पता लगता है कि सम्वत् २२२ विक्रमी में उपलदेव राजा के समय में ओसियाँ (उपकेश नगरी) में रखप्रभसूरि के उपदेश से ओसवाल जाति के १८ मूल गौत्रों की स्थापना हुई।
. ३तीसरा मत भाधुनिक इतिहासकारों का है जिन्होंने अपनी अकाव्य खोजों और गम्भीर गवेषणाओं के पश्चात् यह सिद्ध किया है कि विक्रमी सं० ९०० के पहले ओसवाल जाति और भोसियाँ नगरी का भस्तित्व न था। इसके पश्चात् भीनमाल के राजपुत्र उपलदेव ने मंडोर के पड़िहार राजा के पास आकर आश्रय ग्रहण किया और उसी की सहायता से ओसियाँ नगरी की बसाया। तभी से सम्भव है भोसवाल जाति की उत्पत्ति हुई हो।
उपरोक्त तीनों मतों का विस्तृत विवेचन अब हम नीचे करते हैं:
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ओसवाल जाति की उत्पत्ति
जैनाचायों के मत से ओसवालों की उत्पत्ति
विक्रम संवत् १३९३ का लिखा हुआ एक हस्तलिखित उपकेशगच्छ चरित्र नामक ग्रन्थ मिलता है। उसमें तथा भौर भी जैन ग्रंथों में मोसवाल जाति और भोसियाँ नगरी की उत्पत्ति के विषय में जो कथा लिखी हुई है वह इस प्रकार है:
आसियां नगरी की स्थापना
वि० सं० से करीब चार सौ वर्ष पूर्व भीनमाल नगरी में भीमसेन मामक राजा राज्य करता था, जिसके दो पुत्र थे। जिनके नाम क्रमशः श्रीपुज और उपलदेव था। एक समय युवराज श्रीपुष और उपलदेव के बीच में किसी कारण वश कुछ कहा सुनी हो गई जिस पर श्रीपुंज ने ताना मारते हुए कहा कि इस प्रकार के हुकम तो वही चला सकता है जो अपनी भुजाओं के बल से राज्य की स्थापना करे । यह ताना उपलदेव को सहन न हुभा और वह उसी समय नवीन राज्य स्थापन की प्रतिज्ञा करके अपने मंत्री उहद भौर उधरण को साथ ले वहाँ से चल पड़ा । उसने देखीपुरी (दिल्ली) के राजा साधु की आज्ञा लेकर मंडोवर के पास उपकेशपुर या भोसियां पट्टण नामक नगर बसा कर ही अपना राज्य स्थापित किया उस समय भोसियाँ नगरी का क्षेत्रफल का बहुत लम्बा चौड़ा था । ऐसा कहते है कि वर्तमान भोसियाँ नगरी से १२ मील पर जो तिवरी गाँव है वह पहले भोसियों का तेलीवाड़ा था तथा जो इस समय खेतार नामक ग्राम है वह पहले यहां का क्षत्रीपुरा था। इसी प्रकार भौर मुगलों के निशानात भी पाये जाते हैं।
ओसवाल जाति की स्थापना
राजा उपलदेव वाममार्गी था और उसकी खास कुलदेवी चामुंग माता थी । इसी समय में जैनाचार्यों में भगवान पार्श्वनाथ के • वें पाटश्वर आचार्य रमप्रभसूरिजी अपने उपदेशों के द्वारा जैनधर्म का प्रचार करते हुए आबू पहाड से होते हुए उपकेशपट्टण में पधारे और पास ही लूणाद्री नामक छटी सी पहाड़ी पर एक २ मास के उपवास की तपश्चर्या कर भ्यानावस्थित हो गये । इस समय पाँच सौ मुनियों का संघ उनके साथ था। कई दिन होने पर भी जब उन मुनियों के लिये शुद्ध मिक्षा की व्यवस्थाउस नगरी
* इस विषय में दो मत और पाये जाते है पहला यह कि पट्टावली नं. ३ में भीमलेन के एक पुत्र मीपुज था जिसके सुरसुन्दर एवं उपलदेव नामक दो पुत्र हुए। दूसरा यह कि भीमसेन के तीन पुत्र थे जिनके नाम क्रमशः उपलदेव, भासपाल भौर भासल थे। जिनमें से उपलदेव ने भोसियाँ तथा भासल ने मिनमाल बसाया ।
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ओसवाल जाति का इतिहास
में न हो सकी तब सब लोगों ने आचार्य श्री से प्रार्थना की कि "भगवान् यहाँ पर साधुओं के लिये पवित्र भिक्षा * की कोई समुचित व्यवस्था नहीं है ऐसी स्थिति में मुनियों का इस स्थान पर निर्वाह होना कठिन है। यह सुनकर आचार्य श्री ने कहा “यदि ऐसा है तो यहाँ से विहारकर देना चाहिये ।" यह देखकर वहाँ की अधिष्टायिका चामुंडादेवी ने प्रगट होकर कहा कि महात्मन् , इस प्रकार से आपका यहाँ से चला जाना अच्छा न होगा, यदि आप यहाँ पर अपना चातुर्मास करेंगे तो संघ और शासन का बड़ा लाभ होगा। इस पर आचार्य ने मुनियों के संघ को कहा कि जो साधु विकट तपस्या करने वाले हों वे यहाँ रह जायें शेष सब यहाँ से बिहार कर जायें । इस पर से ४६५ मुनितो आचार्य की आज्ञा से विहार कर गये । शेष ३५ मुनि तथा आचार्य चार २ मास की विकट तपस्या स्वीकार कर समाधि में लीन हो गये । इसी बीच देवयोग से एक दिन राजा के जामात्र त्रिलोकसिंह + को रात्रि में सोते समय भयंकर सर्प ने डस लिया है। इस समाचार से सारे शहर में हाहाकार मच गया। बहुत से मंत्र, तंत्र शास्त्री इलाज करने के लिए आये मगर कुछ परिणाम न हुआ। अंत में जब उसे स्मशान यात्रा के लिए ले जाने लगे तब किसीने इन आचार्य श्री का इलाज करवाने की भी सलाह दी। जब राजकुमार की रथी भाचार्य श्री के स्थान पर लाई गई तो भाचार्य श्री के शिष्य वीर धवल ने गुरू महाराज के चरणों का प्रक्षालन कर राजकुमार पर छिड़क दिया। ऐसा करते ही वह जीवित हो उठा । इससे सब लोग बड़े प्रसन्न हुए और राजा ने आचार्य श्री से प्रसन्न होकर अनेकों थाल बहुमूल्य जवाहरातों के भर कर आचार्य श्री के चरणों में रख दिये। इस पर आचार्यश्री ने कहा कि राजन् हम त्यागियों को इस द्रव्य और वैभव से कोई प्रयोजन नहीं है। हमारी इच्छा तो यह है कि आप लोग मिथ्यात्व को छोड़कर परम पवित्र जैनधर्म को श्रद्धा सहित स्वीकार करे, जिससे आपका कल्याण हो । इस पर सब लोगों ने प्रसन्न होकर आचार्य श्री का उपदेश श्रवण किया और श्रावक के बारह व्रतों को श्रवण कर जैनधर्म को ग्रहण किया XI तभी से ओसियाँ नगरी के नाम से इन लोगों की गणना ओसवाल वंश में की गई।
* कुछ लोगों का मत है कि उस समय भाचार्य रत्नप्रभसूरि के साथ केवल एक ही शिष्य था भौर उसे भी जब मिदा न मिलने लगी तब उसने जंगल से लकड़ी काट कर लाना और पेट भरना शुरू किया।
+कुछ ग्रन्थों में राजा के जामात्र के स्थान पर राजा के पुत्र का उल्लेख हैं।
* कुछ स्थानों पर ऐसा उल्लेख है कि प्राचार्य रत्न प्रभ सूरि ने देवी के कहने से रुई की पूणो का सर्प बना कर भरी सभा में राजा के पुत्र को काटने के लिए भेजा था। '
४ ऐसी मी किम्बदन्ती है कि उस समय उस नगरी में जितनी जातियाँ थीं। याने ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य और शद सबने मिलकर जैनधर्म स्वीकार किया। इन्हीं की वजह से जैनधर्म में कई ऐसे भी गोत्र पाये जाते हैं जो उन जातियों के नाम के सूचक है।
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ओसवाल जाति की उत्पत्ति
इसके पूर्व चामुंडा माता के मन्दिर में आश्विन मास की नव रात्रि के अवसर पर भैसों और बकरों का बलिदान हुआ करता था । आचार्यश्री ने उसको रोककर उसके स्थान पर लड्डू, चूरमा, कापसी, खाजा नारियल इत्यादि सुगंधित पदार्थों से देवी की पूजा करने का आदेश किया। इससे चामुडा देवी वड़ी नाराज हुई और उसने आचार्यश्री की भाँख में बड़ी तकलीफ़ पैदा कर दी। आचार्यश्री ने बड़ी शांति से इस तकलीफ़ को सहन किया । चामुंडा ने जब आचार्यश्री को विचलित होते न देखा तब वह बड़ी लाजत हुई और आचार्यश्री से क्षमा माँग कर सम्यक्त को ग्रहण किया उसी समय से उसने प्रतिज्ञा की कि आज से माँस और मदिरा तो क्या लालरंग का फूल भी मुझपर नहीं चढ़ेगा तथा मेरे भक्त जो ओसियों में स्वयंभू महावीर की पूजा करते रहेंगे उनके दुःख संकट को मैं दूर करूँगी। तभी से चामुंडा देवी का नाम सच्चिया देवी पड़ गया और आज भी यह मंदिर सच्चिया माता के मंदिर के नाम से मशहूर है। जहाँ पर अभी भी बहुत से ओसवालों के बालकों का मुण्डन संस्कार होता है।
ऐसा कहा जाता है कि उसी समय उहड़ मंत्री ने महावीर प्रभु का मंदिर तैयार करवाया और उसकी मूर्ति स्वयं चामुंडा देवी ने बालरेत और गाय के दूध में तैयार की जिसकी प्रतिष्ठा स्वयं रत्नप्रभ सूरि मे मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी गुरुवार को अपने हाथों से की। ऐसा कहा जाता है कि ठीक इसी समय कोरंटपुर नामक स्थान में भी वहाँ के श्रावकों ने श्री वीरप्रभु के मन्दिर की स्थापना की जिसकी प्रतिष्ठा का मुहूर्त भी ठीक वही था जोकि उपकेश पट्टण के मंदिर की प्रतिष्ठा का था। दोनों स्थानों पर अपनी विद्या के प्रभाव से आचर्य श्री ने स्वयं उपस्थित होकर प्रतिष्ठा करवाई । इसके लिए उपकेश चरित्र में निम्न लिखित श्लोक लिखा है । ..
सप्तत्य ( ७० ) वत्सराणां चरम जिनपतेर्मुक्त जातस्य वर्षे । पंचम्यां शुक्लपक्षे सुहगुरु दिवसे ब्रह्मणः सन्मुहूर्ते ॥ रत्नाचार्यः सकलगुणयुक्तै, सर्व संघानुज्ञातैः । श्रीमद्वीरस्य बिम्बे भवशत मथने निर्मितेयं प्रतिष्ठाः ॥ १ ॥
उपकेशे च कोरंटे, तुल्यं श्री वीर बिम्बयो ।
प्रतिष्ठा निर्मिता शक्त्या, श्री रत्नप्रभसूरिभिः ॥ १ ॥ ऊपर हमने ओसवाल जाति की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जैनाचार्यों तथा जैनग्रन्थों का जो मत है उसका विस्तृत रूप से उल्लेख कर दिया है। इस उल्लेख के अंतर्गत हम समझते हैं कि बहुत सी बातें
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
ऐसी हैं जो अत्यन्त अतिशयोक्ति और काव्यमय हैं और विचार स्वातंत्र्य के इस युग में बुद्धिमान लोगों के मस्तिष्क पर अनुकूल प्रभाव नहीं डाल सकती । फिर भी इसके अंदर जो मूल तत्व हैं उनपर विचार करना प्रत्येक बुद्धिमान और शोध करने वाले व्यक्ति का कर्तव्य हो जाता है । इसमें से नीचे लिखे हुए खास तत्व निकाले जा सकते हैं ।
( १ ) ऊपलदेव के द्वारा ओसियां नगरी का बसाया जाना ।
(१) रत्नप्रभसूरि के द्वारा ऊपलदेव का मय नगर के सारे क्षत्रियों के जैन-धर्म ग्रहण करना और ओसवाल जाति की स्थापना होना ।
(३) मंत्री उहड़ के द्वारा महावीर मन्दिर का निर्माण किया जाना और स्वयं चामुंडा देवी के द्वारा बालू एवम् दूध से उस प्रतिमा का बनाया जाना ।
(४) इन सब घटनाओं का विक्रम के चार सौ वर्ष
का होना ।
उपरोक्त मत का समर्थन जैनमुनि ज्ञानसुन्दरजी ने कई दलीलों और प्रमाणों के साथ किया है। आपने जैन जातियों के इतिहास के सम्बन्ध में बहुत गहरा परिश्रम और खोज करके " जैन जाति महोदय" नामक एक ग्रन्थ लिखा है । इस ग्रन्थ में आपने जहाँ पौराणिक चमत्कारपूर्ण दन्त कथाओं और किम्वदन्तियों को आश्रय दिया है वहाँ ऐतिहासिक खोज, अन्वेषण और तर्क-वितर्क के सम्बन्ध में बहुत मेहनत के साथ बहुत सी ऐतिहासिक सामग्री भी संग्रहित की है आपका यह दृढ़ मत है कि ओसवाल जाति की उत्पत्ति वि० सं० से चार सौ वर्ष पूर्व हुई है। आपकी दी हुई दलीलों पर हम आगे चलकर विचार करेंगे ।
'भाटों, भोजकों और सेवकों का मत
दूसरा मत इस जाति के सम्बन्ध में भाटों, भोजकों और सेवकों की वंशावलियों में पाया जाता है। इन वंशावलियों में ओसवालों की उत्पत्ति संवत् २२२ ( बीये बाईसा ) में बतलाई गई है। समय के भेद के अलावा कथानक और किम्ब देतियाँ इनकी और जैन ग्रन्थों की प्रायः एक समान ही है । ये लोग भी राजा ऊपलदेव को ओसियाँ नगरी का बसाने वाला मानते हैं और रख प्रभ सूरि के द्वारा उसका जैन-धर्म में दीक्षित होना तथा ओसवाल जाति की स्थापना उसी प्रकार मानते हैं। इसी दलील की पुष्टि में हम को कई ओसवाल खानदानों के पास ऐसे वंश वृक्ष मिले जिनका सम्बन्ध संवत २२२ वि० से मिलाया हुआ था। मगर जब घटनाएं सब एक समान हैं और आचार्य तथा राजा और स्थान का नाम भी
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ओसवाल जाति की उत्पत्ति
एक ही समान मिलता है तब उत्पत्ति के सम्बन्ध में ६२२ वर्ष का अंतर किस प्रकार पड़ गया, यह समास में नहीं आता।
आधुनिक इतिहास कारों का मत
ऊपर हम ओसवाल जाति के सम्बन्ध में जैन ग्रन्थों और भाटों की वंशावलियों के मत दे चुके हैं। अब नवीन इतिहास के प्रकाश में हम यह देखना चाहते हैं कि ओसवाल जाति की उत्पत्ति के सम्बन्ध में उपरोक्त मतों का वैज्ञानिक और तार्किक आधार कितना मजबूत है और सत्य और वास्तविकता की कसौटी पर ये विचार पद्धतियां कहां तक खरी उतरती हैं। यह बात तो प्रायः निर्विवाद सिद्ध है कि ओसियां नगरी की स्थापना उपलदेव परमार ने की जो कि किसी कारण वश अपना देश छोड़ कर मंडोवर के पहिः हार राजा की शरण में आया था। यह उपलदेव कहां से आया था इसके विषय में कई मत हैं। ऊपर हमने जिन मतों का उल्लेख किया है उनमें इसका आना भीनमाल से सिद्ध होता है और कुछ लोगों के मत से इसका आना किराड़ नामक स्थान से पाया जाता है। मगर ये दोनों ही बातें गलत मालूम होती हैं । क्योंकि भीनमाल के पुराने मन्दिरों में जो संस्कृत लेख पत्थरों पर खुदे हुए मिले हैं, उनमें से दो लेख कृष्णराज परमार के हैं । एक संवत् ११३ का और दूसरा संवत २३ का है। पिछले लेख में कृष्णराज के बाप का नाम धंधुक लिखा है। यह धंधुक आबू का राजा था। इसके दो पुत्र थे। एक पूर्णपाल और दूसरा कृष्णराज । पूर्णपाल के समय का एक लेख संवत १०९८ का सिरोही जिले के एक वीरान गाँव बसंतगढ़ से मिला है और दूसरा संवत ११०२ का लिखा हुआ मारवाड़ के भडूंद नामक एक गाँव में मिला है। इन दोनों लेखों से यह बात पायी जाती है कि धंधुक का बड़ा पुत्र पूर्णपाल अपने पिता की गद्दी पर बैठा और कृष्णराज को भीनमाल का राज मिला।
कृष्णराज के पीछे भीनमाल का राज्य १५० वर्ष तक उसके वंश में रहा जिसका उल्लेख संवत् १२३९ के लेख में पाया जाता है जिसमें “महाराजपुत्र जैत्तसिंह" का नाम आया है । नाम के साथ यद्यपि जाति नहीं लिखी हुई है पर ऐसा संभव है कि यह भीनमाल का अंतिम राजा या युवराज रहा होगा। क्योंकि इसके पीछे संवत १२६२ के लेख में चौहान राजा उदयसिंह का नाम आता है और उसके पश्चात् संवत १३६२ तक के लेखों में चौहान राजाओं के ही नाम आते हैं जिनका कि मूल पुरुष नाडोल
® यह लेख अजमेर में रा. ब. पं. गौरीशंकर जी ओझा के पास है।
+ रोहड़े नामक स्थान से रा. पं. गौरीशंकरजी को दानपत्र मिला है जिसमें उत्पल राज से वंशावली दी है और उक्त वंशावली में अंधुक के तीन पुत्र बतलाये हैं। ये तीनों ही अपने पिता के पीछे क्रमश: राजा हुए।
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
के राजा अल्हण देव का पुत्र कीतू था और जिसने पंवारों से जालोर लेकर अपमा राज्य अलग जमाया था। इसका एक दानपत्र संवत १२१८ का लिखा हुआ इस समय नाडोल के महाजनों के पास है इस दानपत्र से पता चलता है कि उस समय यह अपने बड़े भाई कल्हणदेव के दिये हुए गांव 'नाडलाई' में रहता था । संवत् १२१८ के पश्चात् इसने जालोर को विजय किया होगा और संभव है जिन पंवारों से यह किला लिया गया वे या तो राजा कृष्णराज के खानदान के होंगे या उसकी आबूवाली बड़ी शाखा के। राजा कीतू के पश्चात उसका लड़का उदयसिंह हुआ। इसीने संभव है, कृष्णराज के पोतों से संवत १२३९ और संवत १२६२ के बीच किसी समय भीनमाल को फतह किया होगा ।
उपरोक्त दलीलों से यह बात सहजही मालूम हो जाती है कि भीनमाल का पहला पंवार राजा कृष्णराज संवत ११०० के पश्चात हुभा। उससे पहले भीनमाल उसके पिता धुंधुक के खालसे में होगा। उपलदेव का इन लेखों में पता नहीं है।
दूसरा मत किराडू के सम्बंध में है। यहां पर भी एक लेख संवत ११३८ का मिला है जो पंवारों से सम्बंध रखता है। इस लेख से पता चलता है कि मारवाद का पहला पंवार राजा सिंधुराज था। उसका राज्य पहाड़ों में था। उसके वंश में क्रमशः सूरजराज, देवराज, सोमराज, और उदयराज हुए। उदयराज संवत ११३८ में मौजूद था। यहां भी उपलदेव का कुछ पता नहीं लगता।
जैन इतिहास के सुप्रसिद्ध विद्वान् बाबू पूरनचंदजी नाहर एम. ए, कलकत्ता निवासी से जब हमने इस विषय में पूछा तो उन्होंने आबू के लेखों की की हुई खोज को हमें बतलाया। उन्होंने कहा कि पंवारों का जन्म स्थान आबू है। वहां के एक लेख में धंधुक से पांच पुश्त ऊपर उत्पलराज का नाम मिलता है। इन लेखों * में यद्यपि पंवारों का मूल पुरुष धूमराज को माना है मगर वंशवृक्ष उत्पल राज से ही शुरु किया गया है। इससे पता चलता है कि संभव है भूमराज के पीछे और उत्पलराज के पहले बीच के समय में कुछ राजनैतिक गड़बड़ हुई हो और उत्पलराज से फिर राज्य कायम हुआ हो । क्या आश्चर्य है इसी कारण उत्पलराज को मंडोवर के पदिहार राजा की शरण में माना पड़ा हो। इससे जहांतक हमारी समझ है ओसियां का बसाने वाला उपलदेव ही आबू का उत्पलराज हो। जैन प्रश्नोत्तर ग्रंथ में भी उपलदेव को उत्पल कंवार लिखा है। ज्यादा खोज करने पर यह भी पता चलता है कि विपत्ति के टल जाने पर उत्पलराज वापस आबू को लौट गया और वहां का राजा हुआ।
स्थान ही को तरह उत्पलराज के समय या जमाने में भी बड़ी गड़बड़ है । जैन ग्रन्थों में
* ये लेख पाद पर बसंतपाल और अचलेश्वर जी के मन्दिर में बुरे हुए है।
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प्रातबाट माति की स्पात
वि.सं. से ४०० वर्ष पहले वीर निर्वाण संवत .. में उसका उपकेश नगरी बसाना लिया है और दूसरी ख्यातों में इस समय से १०० वर्ष पश्चात् पाने संवत २२२ में उपलदेव के सम्मुख ही भोसियां के लोगों का जैनी होना वर्णन किया है। एक ख्यात में उपलदेव का होना संवत १०३५ पीछे लिखा है अब कि पंवार राठोड़ों से भावू ले चुके थे। मुहता नेणसी ने अपनी ख्यात में उपलदेव का कोई साल संवत् तो नहीं बतलाया मगर उपलदेव को धारा नगरी के राजा भोज की • वीं पुरत में माना है। कहना न होगा कि राजा भोज सिंधुराज का बेटा और वाक्पति मुंजराज का भतीजा था। मगर यह दलील गलत मालूम होती है। और धूमरिख (धूमराज ) के सिवाय सब नाम भी गलत हैं। क्योंकि राजा भोज के तथा उसके वंशजों के दानपत्रों में न तो ये पिड़ियां हैं और न उपलदेव का उमसे कोई सम्बन्ध ही। इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक खोजों से भी मारवाड़ में राजा भोज की संतानों का राज करना साबित नहीं होता।
हाँ, इतना अवश्य है कि मारवादक पंवार राजा कृष्णराज तथा सिंधुराज मालवे के राजाभोज और उसके पुत्र उदयादित्य के समकालीन थे। पाठकों की जानकारी के लिये हम मालवा और भावूके पवार राजामों की वंशावली नीचे देते हैं। .
मालवा
उत्पलराज
उपेन्द्र बैरिसिंह
भरण्यराज
सीयक वाक्पतिराज
भरण्यराज बैरिसिंह
महीपाल सीयक हर्ष
धन्धुक वाक्पति मुंजराज सं १०३१
पूर्णपाल सं० १०९९-11.. सिन्धुराज (नं. १ का भाई)३६-५०
ध्रुवमह भोजराज ( राजा भोज) .....
रामदेव • राजा भोज (१), राजा विंद (२), राणा उदयचंद (३), राजा जगदेव (४), राजा गवरिख (५), राना भूमरिस (६), राजा उपलदेव (७)
+ राम मृगांक से राजा भोज का राव सं० १.६ में भी माराम होता है।
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पासवान जाति का इतिहास
उदयादित्य सं० १५
यशोधवल मरवर्मा सं० ११
धारावर्ष १२३६-१२५६ पशोवर्मा सं० ११९२-९३
सोमसिंह १२६० भजयवर्मा
कृष्णराज विंध्यवर्मा सं० १२००
प्रतापसिंह सुभटवर्मा सं० १२३५
जैतकरण सं० १३४५ भर्जुनवर्मा सं. १२५६
उपरोक्त वंशावलियों और उनके संवतों पर विचार करने से यह भी अनुमान किया जा सकता है कि उपेन्द्र और उत्पल दोनों नाम शायद एक ही राजा के हों और अरण्यराज और बैरिसिंह भाई २ हो । जिनमें पहले से आबू एवम दूसरे से मालवे की शाखा निकली हो । ऊपर लिखी हुई दोनों वंशावलियों में पूर्णपाल का समय करीब संवत् ११०० के निश्चित होता है और उत्पलराज इसके ७ पुश्त पूर्व हुआ है । हर पुरत का समय यदि २५ वर्ष मान लिया जाय तो इस हिसाब से यह समय याने उत्पलराज का समय करीब वि० सं० ९५० वर्ष का ठहरता है । यही समय वाक्पतिराज और महाराज भोज के शिला लेखों से उपेन्द्र का आता है। यह वह समय है जब कि मंडोवर में पड़िहार राजा बाहुक राज्य करता था। इस समय का एक शिलालेख संवत् ९४० का जोधपुर के कोट में मिला है । यही समय ओसियाँ के बसने का मालूम होता है। इस कल्पना की पुष्टि ओसियों के जैन मन्दिर की प्रशस्ति की लिपि से भी होती है। जो संवत १०१३ की खुदी हुई है । पड़िहार राजा बाहुक और उसके भाई कक्कुक के शिलालेखों * (संवत ११८ और संवत् ९४०) की लिपि से भी उक्त प्रशस्ति की लिपि मिलती हुई है। इससे पुरानी लिपि ओसियां में किसी और पुराने लेख की नहीं है। वहाँ एक भी लेख अभी तक ऐसा नहीं मिला है जिसकी लिपि संवत २०० और ३०.के बीच की लिपि से मिलती हो और जिससे यह बात मानी जा सके कि ओसियाँ नगरी संवत २२२ में या इसके पूर्व बसी थी।
एक और विचारणीय वात यह है कि ऊपलदेव ने मंडोवर के जिस राजा के यहाँ आश्रय लिया था उसको सब लोगों ने पड़िहार लिखा है लेकिन पड़िहारों की जाति विक्रम की सातवीं सदी में पैदा हुई ऐसा पाया जाता है । इसका प्रमाण बाहुक राजा के उस शिलालेख में मिलता है जिसमें लिखा है कि ब्राह्मण हरि. चन्द्र की राजपूत पत्नी से पड़िहार उत्पन्न हुए । हरिश्चन्द्र के चार पुत्र रंजिल वगैरह थे जिन्होंने अपने बाहु. बल से मंडोवर का राज लिया। मालूम होता है कि यह हरिश्चन्द्र मंडोवर के पूर्ववर्ती राजा का ब्योढ़ीदार
• यह शिलालेख जोधपुर परगने के घटियाले गाँव में है?
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श्रोसवान जाति की म्पति रहा होगा। इसी प्रकार उसकी राजपूतनी सी के पुत्र भी प्रतिहार या पड़िहार कहलाये। इस लेख से निम्नलिखित दो बातों का और भी पता लगता है।
पहला तो यह कि पंवारों ही की तरह पड़िहारों की उत्पत्ति भी आबू के अनिकुंड से मानी जाती है लेकिन वह गलत है। अगर ऐसा होता तो राजा बाहुक अपने आपको हरिश्चन्द्र ब्राह्मण की संतानों में क्यों लिखता और अपने पुश्तैनी पेशे ड्योढ़ीदारी की महिमा सिद्ध करने के लिये लेख के भारंभ में श्री रामचन्द्रजी के भाई लक्ष्मणजी के प्रतिहार पने की नज़ीर क्यों लाता।
दूसरा यह कि पड़िहारों की उत्पत्ति का समय जो अब से हजारों वर्ष पहले माना जाता है। वह भी इस लेख से गलत साबित होता है। क्योंकि पड़िहार जाति की उत्पत्ति ही राजा बाहुक से १२ पुश्त पहले याने हरिश्चन्द्र ब्राह्मण से हुई है और बारह पुश्तों के लिये ज्यादा से ज्यादा समय ३.. वर्ष पूर्व का निश्चित किया जा सकता है। राजा बाहुक का समय संवत ८९४ का था। इस हिसाब से हरिश्चंद्र का पुत्र रंजिल जो मंडोवर के पबिहार राजाओं का मूल पुरुष था, वह संवत ६०० के करीब हुमा होगा। फिर संवत २२२ में पबिहारों का मंडोर में होना कैसे संभव हो सकता है। इस दलील से भी शोसियां नगरी की स्थापना संवत ६०० के पीछे राजा बाहुक या उसके भाई कक्कुक के समय में बाने संवत ८०० या ८५० के करीब हुई होगी। इन सब दलीलों से अधिक मजबूत दलील पह कि भाचार्य रत्नप्रभ सूरि के उपदेश से जो अठारह राजपूत कौमें एक दिन में सम्यक्त्व ग्रहण करके भोसवाल जाति में प्रविष्ट हुई थीं उन सबके नाम करीब २ ऐसे हैं जो संवत २२२ में दुनियां के परदे पर ही मौजूद नहीं थी। उन अठारह जातियों के नाम और उनकी उत्पत्ति का समय नीचे देने की कोशिश करते हैं। .. . परमार . पड़िहार
१३ मकवाणा २ सिसोदिया ८ बोड़ा
१४ कछवाहा ३ राठोड ९ दहिया
१५ गौड़ ४ सोलंकी १. भाटी
१६ खरवद ५ चौहान " मोयल
5. बेरड ६ सांखला १२ गोयल
१८ सौंख
परमार-यह जाति ऐतिहासिक दुनियां में वि० सं० ९०० के पश्चात् दृष्टिगोचर होती है। महाराज विक्रमादित्य को कई लोग पंवार मानते हैं मगर इसकी ऐतिहासिक तसदीक अभी तक नहीं हो पाई है। इस समय जो संवत् विक्रम संवत के नाम से प्रचलित है उसके पीछे विक्रम का नामांकित करना ही संवत्
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बांसवान नाति का इतिहास
एक हजार के करीब से अनुमान किया जाता है। क्योंकि इस संवत् के साथ पहले विक्रम का नाम नहीं लगाया जाता था, जैसा कि पबिहारों के दोनों लेखों में नही है। भाबू पर्वत पर जो लेख वस्तुपाक और भचलेश्वरजी के मन्दिरों में है उनमें धूमराज को पंवारों का मूल पुरुष लिखा है और उसकी उत्पत्ति वशिष्ठजी के अग्निकुंड से बतलाई है। यह मराज उत्पलराज से पहले था। क्योंकि उत्पलराज को उसके सामदान में लिखा है। इससे स्पट पता चलता है कि संवत २२२ में पंवारों का भस्तित्व न था।
सिसोदिया-यह गहलोतों की एक शाखा है जो रावल समरसिंहजी के पौत्र राणा राहप के गाँव सिसोद से मशहूर हुई है । रावल समरसिंहजी के समय का एक शिलालेख संवत १३४२ का खुदा हुआ आबू पहाड़ पर है। इससे पता चलता है कि सिसोदिया जाति की उत्पत्ति भी संवत १३४२ के पीछे हुई । संवत २२२ में यह लोग भी नहीं थे।
राठौड़- राठौड़ों के विषय में यह लिखा जा सकता है कि संवत १००० के करीब मारवाड़ के इथुण्डिया नामक ग्राम में ये लोग बसते थे उनको बीजापुर के संवत ९९६ और संवत १९५३ के लेख में राष्ट्रकूट और हस्तिकुंडी नगरी का मालिक लिखा है। ये राष्ट्रकूट शायद दक्षिण से भाये थे ।क्योंकि वहां इनके बहुत से लेख मिले हैं। मगर उनमें कोई भी लेख संवत् ९.. पूर्व का नहीं है। इनके इधर आने का समय संवत् .०० के पीछे मालूम होता है। यहाँ आकर पहले ये हथुडी नामक नगरी में, जो कि इस समय भरवली पर्वत के नीचे बीरान पड़ी है, बसे थे।
___ सोलंकी-राष्ट्रकूटों के पश्चात् सोलंकियों का नम्वर आता है। ये लोग पहले दक्षिण में रहते थे और चालुक्यवंश के नाम से प्रसिद्ध थे । दक्षिण में इनके कई शिलालेख मिलते हैं, मगर उनमें से कोई भी शिलालेख संवत् ६८ के पूर्व का नहीं है। इनकी विशेष प्रसिद्धि संवत् १००० के पश्चात् , अब कि मूल राज सोलंकी गुजरात में राज्य करने लगा, हुई । इससे पता चलता है कि ये लोग भी राष्ट्रकूटों के ही समकालीन थे । अतएव संवत् २२२ में इनके अस्तित्व का होना भी निराधार है।
___चौहान-सोलंकियों ही की तरह चौहानों के लेख भी संवत् १००० के पूर्व के महीं मिले हैं, अतएव उस समय चौहानों का होना भी विश्वसनीय नहीं माना जा सकता।
सांखला- यह परमारों की एक पिछली शाखा है । मुहता नेणसी ने धरणीवराह के पुत्र बाघ की भौलाद से इस शाखा की उत्पत्ति लिखी है। अगर यह धरणीवराह वही है जिसका कि नाम बीजापुर के लेख में पाया जाता है तो उसका समय संवत् १०५० के करीब और उसके पौत्र का संवत् ११०० के करीब होना चाहिये । सांखलों का राज्य संवत् १२०० के करीब किराडू में होना पाया जाता है । भतः संवत् २२२ में इस जाति का अस्तिव्य भी सिद्ध नहीं होता।
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ओसवाल जाति की उत्पत्ति
पड़िहार - पड़िहारों के विषय में हम ऊपर काफ़ी प्रकाश डाल चुके हैं। उस समय में गाने संवत् २२२ में यह जाति भी प्रकट नहीं हुई थी ।
माटी - इस जाति का प्रमाणिक इतिहास संवत् १२०० के करीब से प्रकाश में आता है। इसके पूर्व इसका अस्तित्व नहीं था हां, इतना अवश्य है कि जैसलमेर के दीवान मेहता अजित सिंहजी ने अपने भट्टीनामें में इनकी उत्पत्ति का समय संवत् ३३६ के पश्चात् लाहौर के राजा भट्टी की संतानों से होना लिखा है । मगर यह बात उस समय तक सच नहीं मानी जा सकती जब तक कि उस समय का कोई शिलालेख प्राप्त न हो जाय । खैर इस संवत् से भी भाटी जाति का उत्पन्न होना संवत २२२ के पश्चात् ही सिद्ध होता है ।
मोयल - मोयल जाति कोई स्वतंत्र जाति नहीं है यह चौहानों की एक शाखा है। इसका संवत् १५०० तक लाडनू नामक स्थान पर राज्य करना पाया जाता है ।
गोयल - गोयल जाति भी स्वतंत्र जाति न हो कर गहलोतों की एक शाखा है। इसकी उत्पत्ति बाप्पा रावल से हुई है। यह इतिहास प्रसिद्ध बात है कि बाप्पा रावल ने संवत् ७७० के पश्चात् मानराज मोरी से चित्तौड़ का राज्य लिया था । इन गोयलों का राज्य मारवाद के इलाके में था, जिसे कन्नौज से भाकर राठौड़ों ने छीन लिया ।
दहिया - इस जाति का राज्य चौहानों से पूर्व संवत् १२०० के करीब जालोर में था । ये परमारों के नौकर या आश्रित थे ।
हुए,
मकवाना —यह शाखा परमारों की कही जाती है। ये लोग कभी इतने मशहूर नहीं
कि इनके पूर्व होने वाली इनकी छोटी शाखा “शाला" के लोग रहे ।
जितनी
कछवाहा - इस जाति का संवत् ११०० के पश्चात् गवालियर में राज करना पाया जाता है। इसका कारण यह है कि इनके समय का एक शिलालेख संवत् ११५० का ख़ुदा हुआ गवालियर के किले में मौजूद है। इसमें राजा महिपाल के पूर्व आठ पुश्तें लिखी हुई हैं । प्रत्येक पुश्त यदि २५ वर्ष की मानली जाय तो करीब २०० वर्ष पूर्व अर्थात् संवत् ८५० तक उनका वहाँ रहना सम्भव हो सकता है। इसके पूर्व का कोई शिला लेख नहीं मिलता । अतएव इस जाति के विषय में भी मानना पड़ेगा कि यह भी संवत् २२२ . में ओसियां में ओसवाल नहीं हुई ।
गौड़- इ- इस जाति का पता बंगाल में लगता है और वहीं से इसका राजपूताने में आना दिल्लीपति महाराज पृथ्वीराज के समय में माना जाता है। इसके पूर्व इस जाति के मारवाड़ में होने का कोई सबूत नहीं मिला । अतपुच यह जाति भी संवत् १२२ में थोसवाल कैसे हुई, समझ में नहीं आता ।
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पोसवाल जाति का इतिहास
ऊपर हमने भोसवाल जाति की उत्पत्ति के संबन्ध में उन सब मतों का संक्षिप्त में विवेचन कर दिया है जो इस समय विशेष रूप से सब स्थानों पर प्रचलित है। मगर ये सभी मत अभी तक इतने संशयात्मक है कि बिना अनुमान की अटकल लगाये केवल तर्क या प्रमाण के सहारे इस जाति की उत्पत्ति के संबन्ध में किसी निश्चित मत पर पहुँचना कठिन है। प्राचीन जैनाचार्यों के मत की पुष्टि में-जोकि ओसवाल जाति की उत्पत्ति को भगवान् महावीर से ७० वर्ष के पश्चात् से मानते हैं अभी तक कोई ऐसा मजबूत और दृढ़ प्रमाण नहीं मिलता है जिसके बल पर निर्विवाद रूप से इस मतकी सत्यता को स्वीकार की जा सके।
दूसरा मत जो संवत् २२२ का है, उसके विषय में कई विद्वानों ने कुछ प्रमाण एकत्रित किए हैं जो हम नीचे देते हैं:
(1) जैन साहित्य के अन्दर समराहच्च कथा नामक एक बहुत प्रसिद्ध और माननीय ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की ऐतिहासिक महत्ता को जर्मनी के प्रसिद्ध जैन विद्वान् डा. हरमन जेकोवी ने इसके अनुवाद पर लिखी हुई अपनी भूमिका में मुक्त कंठ से स्वीकार की है। इस ग्रंथ के लेखक सुप्रसिद्ध विद्वान् आचार्य श्री हरिभद्र सूरि ने सातवीं सदी में पोरवाल जाति का संगठन किया। इसी कथा के सार में एक श्लोक आया है जिसमें लिखा हुआ है कि उएस नगर के लोग ब्राह्मणों के कर से मुक्त हैं। उपकेश जाति के गुरू ब्राह्मण नहीं हैं । श्लोक इस प्रकार है:
तस्मात् उकेशज्ञाति नाम गुरवो ब्राह्मणः नहीं। उएस नगरं सर्व कर ऋण समृद्धि मत् ॥ सर्वथा सर्व निर्मुक्त मुएसा नगरं परम् । तत्प्रभृति सजातिविति लोक प्रवीणम् ॥
यहाँ यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि समराइच कथा के लेखक आचार्य हरिभद्रसूरि का समय पहले संवत् ५३० से संवत् ५८५ के बीच तक माना जाता था, मगर अब जैन साहित्य के प्रसिद्ध विद्वान जिनविजयजी ने कई प्रमाणों से इस समय को संवत् ७५७ से लेकर संवत् ८५७ के बीच माना है। यदि इस मत को स्वीकार कर लिया जाय तो संवत् ७५७ के समय में उएश जाति और उएश नगर बहुत समृद्धि पर थे, यह बात मालम होती है और यह मानना भी अनुचित न होगा कि इस समृद्धि को प्राप्त करने में कम से कम २०० वर्षों का समय अवश्य लगा होगा । इस हिसाब से इस जाति के इतिहास की पौर विक्रम की पाँचवी शताब्यो तक पहुँच जाती है।
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श्रीसवाल जाति की उत्पत्ति
( २ ) आचार्य बध्यभट्ट सूरिजी जैन संसार में बहुत नामाङ्कित हुए हैं। आपने कन्नौज के राजा मागावलोक वा नागभट्ट पड़िहार (आम राजा) को प्रति बोध देकर जैनी बनाया था। उस राजा के एक रानी वणिकपुत्री भी थी। इससे होने वाली संतानों को इन आचार्य ने भोसवंश में मिला दिया । जिनका गौत्र राजकोष्टागर हुआ । इसी गौत्र में भागे चल कर विक्रम की सोलहवीं सदी में सुप्रसिद्ध करमाशाह हुए जिन्होंने सिद्धाचल तीर्थ का अन्तिम जीर्णोद्धार करवाया । इसका शिलालेख संवत् १५८० का ख़ुदा हुआ शत्रुंजय तीर्थ पर आदिश्वरजी के मन्दिर में है। इस लेख में दो श्लोक निम्न लिखित हैं:
इतश्च गोपाह गिरौ गरिष्टः श्रीबप्प भट्टी प्रतिबोधितश्च ।
श्री श्रमराजो ऽजति तस्य पत्नि काचित्वं भूव व्यवहारी पुत्री ॥
तत्कुक्षिजाताः किल राजकोश शाराह्न गौत्रे सुकृतैक पात्रे ।
श्री श्रोस बस विशादे विशाले तस्यान्वमेऽश्रिपुरुषाः प्रसिद्धाः ॥
आचा बच्चभट्टसूरि का जन्म संवत् ८०० में हुआ। इस से पता चलता है कि उस समय बोसवाल जाति विशाक क्षेत्र में फैली हुई थी और इसका इतना प्रभाव था कि जिस को पैदा करने में कई शताब्दियों की आवश्यकता होती है।
(३) ओसियों के मन्दिर के प्रशस्ति शिलालेख में भी उपकेशपुर के परिहार राजाओं में बत्सराज की बहुत 'तारीफ लिखी है। इस वत्सराज का समय भी विक्रम की आठवीं सदी में सिद्ध होता है । (४) सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ स्व० मुंशी देवीप्रसाद जी जोधपुर ने 'राजपूताने की शोध-खोज' नामक एक पुस्तक लिखी है । उसमें उन्होंने लिखा है कि कोटा राज्य के अटरू नामक ग्राम में जैन मन्दिर के एक खंडहर में एक मूर्ति के नीचे वि० सं० ५०८ का भैंसाशाह के नाम का एक शिलालेख मिला है। मुंशीजी ने लिखा है कि इन भैंसाशाह और रोड़ा बनजारा के परस्पर में इतना स्नेह था कि इन दोनों ने मिलकर अपने सम्मिलित नाम से “भैंसरोड़” नामक ग्राम बसाया । जो वर्तमान में उदयपुर रियासत में विद्यमान है । यदि यह भैंसाशाह और जैनधर्म के अन्दर प्रसिद्धि प्राप्त भादित्यनाग गोत्र का भैंसाशाह एक ही हो तो, इसका समय वि० सं० ५०८ का निश्चित करने में कोई बाधा नहीं भाती। जिससे ओसवाक जाति के समय की पहुँच और भी दूर चली जाती है ।
(५) श्वेत हूण के विषय में इतिहासकारों का यह मत है कि श्वेत हूण तोरमाण विक्रम की छठी शताब्दि में मरुस्थल की तरफ़ आया । उसने भीनमाल को अपने हस्तगत कर अपनी राजधानी वहाँ स्थापित की। नैनाचार्य्यं हरिगुप्तसूरि ने उस तोरमाण को धर्मोपदेश देकर जैनधर्म का अनुरागी बनाया । जिसके परिणाम स्वरूम तोरमाण ने भीनमाल में भगवान् ऋषभदेव का बड़ा विशाक मन्दिर बनवाया ।
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
इस तोरमाण का पुत्र मिहिरगुल जैनधर्म का कट्टर विरोधी शैवधर्मो-पासक हुभा। उसके हाथ में राजसंत्र के आते ही जैमियों पर भयंकर अत्याचार होने लगे। जिसके परिणाम स्वरूप जैनी लोगों को देश छोड़कर काट गुजरात की ओर भगना पड़ा, इन भगनेवालों में उपकेश जाति के व्यापारी भी थे। लाट गुजरात में जो आजकल उपकेश जाति निवास करती है; वह विक्रम की छठवीं शताब्दी में मारवाड़ से गई हुई है। अतएव इससे भी पता चलता है कि उस समय उपकेश जाति मौजूद थी। ..
उपरोक्त प्रमाणों से पता चलता है कि विक्रम की छठवीं शताब्दी तक तो इस जाति की उत्पत्ति की खोज में किसी प्रकार खींचातानी से पहुँचा भी जा सकता है मगर उसके पूर्व तो कोई भी प्रमाण हमें नहीं मिलता जिसमें ओसवाल जाति, उपकेश जाति, या उकेश जाति का नाम आता हो । उसके पहले का इस जाति का इतिहास ऐसा अंधकार में है कि उस पर कुछ भी छान बीन नहीं की जा सकती। दूसरे उस समय इस जाति के न होने का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि ओसवाल जाति के मूल १८ गौत्रों की उत्पत्ति क्षत्रियों की जिन अठारह शाखाओं से होना जैनाचार्यों ने लिखा है, उन शाखाओं का अस्तित्व भी उस समय में न था । जब उन शाखाओं का अस्तित्व ही न था तब कोई भी जिम्मेदार इतिहासकार उन शाखाओं से १८ गौत्रों की उत्पत्ति किस प्रकार मान सकता है। इसके अतिरिक मूल 16 गौत्रों के पश्चात् अन्य गौत्रों की उत्पत्ति के विषय में जो किम्बदंतियाँ और कथाएँ यतियों और जैनाचार्यों के दफ्तरों में मिलती हैं, उनमें भी संवत ७०० के पहले की कोई किम्बदंति हमें नहीं मिली । यदि विक्रम से ४०० वर्ष पूर्व इस जाति की स्थापना हो चुकी थी तो उसी समय के पश्चात् से समय २ पर आचार्यों के द्वारा नवीन गौत्रों की स्थापनो को पता लगना चाहिये था। संवत् ९०० से संवत १४०० तक लगातार जैनाचार्यों के द्वारा औसवाल गौत्रों की स्थापना का वर्णन हमें मिलता चला जाता है। ऐसी स्थिति में विक्रम के ४०० वर्ष पूर्व से लेकर विक्रम की सातवीं शताब्दी तक अर्थात् लगातार १०० वर्षों में इस जाति के सम्बन्ध में किसी भी प्रमाणिक विवेचन का न मिलना इसके अस्तित्व के सम्बन्ध में शंका उत्पन्न कर सकता है।
इन सब कारणों की रूप रेखाओं को मिलाकर अगर हम किसी महत्वपूर्ण तथ्य पर पहुँचने की कोशिश करें तो हमें यही पता लगेगा कि विक्रम संवत् ५०० के पश्चात् और विक्रम संवत् ९०० के पूर्व इस जाति की उत्पत्ति हुई होगी । बाबू पूरणचन्दजी नाहर लिखते हैं कि “जहाँ तक मैं समझता हूँ (मेरा विचार भ्रमपूर्ण होना भी असंभव नहीं ) प्रथम राजपूतों से जैनी बनानेवाले श्री पार्श्वनाथ संतानीय श्री रखप्रभसूरि जैनाचार्य थे। उक्त घटना के प्रथम श्री पार्श्वनाथ स्वामी की इस परम्परा का नाम उपकेश गच्छ भी न था। क्योंकि श्री वीर निर्वाण के ९८० वर्ष के पश्चात् श्री देवर्द्धिगणि क्षमासमण ने जिस समय जैनागमों को पुस्तकारूद किये थे उस समय के जैन सिद्धान्तों में और श्री कल्पसूत्र की स्थविरावलि आदि
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ओसवाल जाति की उत्पत्ति
प्राचीन ग्रन्थों में उपकेश गच्छ का उल्लेख नहीं हैं। उपरोक्त कारणों से संभव है कि संवत् ५०० के पश्चात् : और संवत् १००० के पूर्व किसी समय उपकेश या ओसवाल जाति की उत्पत्ति हुई होगी और उसी समय से उपकेशगच्छ का नामकरण हुआ होगा।
हमारा खयाल है कि बाबू साहब का उपरोक्त मत तर्क, प्रमाण और युक्तियों से परिपूर्ण है। . बाबू पूरणचन्दजी इतिहास के उन विद्वानों में से हैं जिन्होंने अपना सारा जीवन इन्हीं ऐतिहासिक खोजों के पीछे उत्सर्ग कर दिया है। ऐसी स्थिति में आपके निकाले हुए तथ्य को स्वीकार करने में किसी भी इति. हासकार को कोई आपत्ति नहीं हो सकती।
हम जानते हैं कि हमारे निकाले हुए इस निष्कर्ष से बहुत से ऐसे सजनों को जोकि प्राचीनता ही में सब कुछ गौरव का अनुभव करते हैं अवश्य कुछ न कुछ असंतोष होगा। क्योंकि भारतवर्ष के कई मवीन और प्राचीन लेखकों की प्रायः यह प्रवृति रही है कि वे किसी भी तरह अपनी जाति अपने धर्म और भपने रीति रिवाजों को प्राचीन से प्राचीन सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं। साथ ही उसके गौरव को बतलाने के लिए उसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की चमत्कार पूर्ण घटनाओं की सृष्टि करते हैं, पर हम लोगों का इस प्रकार के सजनों से बड़ा ही नम्र मतभेद है। हमारा अपना खयाल है कि शुद्ध इतिहासवेत्ता के सामने शुद्ध सत्य ही एक आदर्श रहता है । वह सब प्रकार के पक्षपातों और सब प्रकार के प्रभावों से मुक्त होकर एक निष्पक्ष जज की तरह अपनी स्वतंत्र खोजों और अन्वेषणाओं के द्वारा सत्य पर पहुंचने की चेष्टा करता है। हम यह मानते हैं कि मानवीय बुद्धि बहुत परिमित है और अत्यन्त चेष्टा करने पर भी सत्य के नजदीक पहुँचने में कभी २ वह असफल हो जाती है, मगर अंत में सत्य के खोज की पूर्ण लालसा उसे पूर्ण सत्य पर नहीं तो भी उसके निकटतम पहुँचा देने में बहुत सहायता करती है।
दूसरी बात यह है कि दूसरे लोगों की तरह हम लोग अपने सारे गौरव और सारे वैभव की झलक केवल प्राचीनता में देखने के ही पक्षपाती नहीं । हम स्पष्टरूप से देखते हैं कि संसार की रंग-स्थली में समय र पर कई नवीन जातियाँ पैदा होती हैं और वे अपनी नवीन बुद्धि, नवीन पराक्रम, और नवीन प्रतिभा से संसार की सभ्यता और संस्कृति के ऊपर एक नवीन प्रकाश डालती है और अपने लिए एक बहुत ही गौरव पूर्ण नवीन इतिहास का निर्माण कर जाती है। हम अहलानिया इस बात को कह सकते हैं कि किसी भी जाति का गौरव इस बात में नहीं है कि वह कितनी प्राचीन है या कितनी नवीन, वरन उसका गौरव उसके द्वारा किये हुए उन कार्यों से है जो उसकी महामता के सूचक है और जो मनुष्य जाति को एक नये प्रकार का संदेश देते हैं।
भोसवाल जाति का गौरव इस बात से नहीं है कि वह विक्रम से ४०० वर्ष पूर्व पैदा हुई थी या
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ओसवाल जाति का इतिहास विक्रम के १००० वर्ष पश्चात्, बल्कि उसका गौरव उस महान् विश्वमाव के सिद्धान्त से है जिसके पास होकर आचार्य रखप्रभसूरि मे उसकी स्थापना की थी। उसके पाचात इस जाति का गौरव उन महान् पुरुषों से है जिन्होंने इस जाति में पैदा होकर क्या राजनीति, या धर्मनीति, क्या अर्थनीति इत्यादि संसार की प्रायः सभी नीतियों में अपने आश्चर्यजनक कारनामें दिखलाये और जिन्होंने अपनी प्रतिभा और अपने त्याग के बल से राजपूताने के मध्ययुगीन इतिहास को दैदीप्यमान कर रखा है।
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ओसवाल जाति का अभ्युदय Rise of the Oswals.
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सवाल जाति की उत्पत्ति के सम्बन्ध में हम प्रथम अध्याय में काफी विवेचन कर चुके
- है। अब इस अध्याय के अन्दर हम यह देखना चाहते हैं कि इस जाति का क्रमागत् अभ्युदय किस प्रकार हुआ, किन २ महापुरुषों ने इस जाति की उमति के अन्दर महत्व पूर्ण भाग प्रदान किया। बाहर के कौन २ से प्रभावों ने इस जाति की उन्नति पर असर डाला और किस प्रकार अत्यन्त प्रतिष्ठा और सम्मान को साथ रखते हुए यह जाति भारत के विभिन्न प्रान्तों में फैली।
___ओसवालों की उत्पत्ति का इतिहास चाहे विक्रम सम्वत् के पूर्व १०० वर्षों से प्रारम्भ होता हो, चाहे वह संवत २२२ से चलता हो; चाहे और किसी समय से उसका प्रारम्भ होता हो, मगर यह तो निर्विवाद है कि ओसवाल जाति के विकास का प्रारम्भ संवत् १०.. के पश्चात् ही से शुरू होता है, जब कि इस जाति के अन्दर बड़े २ प्रतिभाशाली आचार्य अस्तित्व में भाते हैं। जिनकी विचार धारा अत्यन्त विशाल और प्रशस्त थी। इन आचार्यों ने मनुष्य मात्र को प्रतिबोध देकर अपने धर्म के अन्दर सम्मिलित किया और इस प्रकार जैन धर्म और ओसवाल जाति की वृद्धि की ।
ओसवाल जाति की उत्पत्ति का सिद्धान्त
श्री रवप्रभसूरि ने जिस महान सिद्धान्त के उपर इस जाति की स्थापना की, वह सिद्धान्त हमारे खयाल से विश्ववन्धुत्व का सिद्धान्त था। जैनधर्म वैसे ही विश्ववन्धुत्व की नींव पर खड़ा किया हुमा धर्म है, मगर आचार्य श्री के हृदय में ओसवाल जाति की स्थापना के समय यह सिद्धान्त बहुत ही ज़ोरों से लहरें ले रहा होगा । आजकल प्रायः यह मत अधिक प्रचलित है कि ओसवाल धर्म की दीक्षा केवल
ओसियाँ के राजपूतों ने ही ग्रहण की थी। मगर एक उड़ती हुई किम्बदती इस प्रकार की भी है कि राजा की भाशा से और ओसियाँ देवी की मदद से सारी भोसियां नगरी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूव सब यहाँ तक कि स्वयं ओसियाँ माता तक एक रात में जैनधर्म की दीक्षा ग्रहण कर भोसवाल नाम से मशहूर हुए। हम नहीं कह सकते कि इस किम्बदंती के अन्दर सत्य का कितना भंश है; क्योंकि हमारे पास इस बात का कोई भी पका प्रमाण नहीं। मगर इतमा हम जरूर कह सकते हैं कि अगर पह किम्बदन्ती सत्य हो
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ओसवान जाति का इतिहास
तो इससे उन भाचार्य श्री की सागरवत् गंभीरता और उनके हृदय की विशालता का असर मनुष्य के ऊपर बीस गुना ज्यादा पड़ता है। वे हमको उन दिव्य महात्माभों के अंदर दृष्टिगोचर होते हैं जो जाति, वर्ण, और प्रान्तीयता की भावनाओं से उंचे उठकर मनुष्य मात्र को एक समान और निस्पृह रष्टि से देखते हैं। इस प्रकार यदि यह किम्बदन्ती सत्य हो तो भोसवाल जाति की उत्पत्ति का सिद्धान्त और भी अधिक ऊँचाई पर पहुंच जाता है।
भी रखप्रभसूरि के पश्चात् भौर भी भनेक भाचार्यों ने इस जाति की उन्नति के लिये बहुत ही प्रभाव शाली चेष्टा की। उन्होंने स्थान २ पर मनुष्य जाति को प्रतिबोध देदे कर नये नये गौत्रों के नाम से इस जाति में मिलाना शुरू किया। ऐसा कहा जाता है कि इन आचार्यों के परिश्रम से भोसवाल जाति के अन्दर चौदह सौ से भी अधिक गौत्रों और उपगौत्रों की सृष्टि हुई। इन गौत्रों के नामकरण कहीं पर स्थान के नाम से, कहीं पर प्रभाव शाली पूर्वजों के नाम से, कहीं पर भादि वंश के नाम से, कहीं म्यापारिक कार्य को संश से और कहीं पर अपने प्रशंसनीय कार्य कुशलता के उपलक्ष्य में हुए पाये जाते हैं। इससे पता लगता है कि उन भाचार्यों का हृदय अत्यन्त विशाल था, जाति और धर्म की वृद्धि ही उनका प्रधान लक्ष्य था । इसके सम्बन्ध में वे किसी भी प्रकार की रूदिया हठ पर भरे हुए नथे । अस्तु ।
जैनाचार्यों पर चमत्कारवाद का असर
इस सम्बन्ध में इस सारे इतिहास के वातावरण में हमें एक ऐसे भाव का असर भी दिखलाई देता है जो किसी भी निष्पक्ष व्यक्ति के हृदय में खटके बिना नहीं रह सकता। जो शायद जैनधर्म के मूल सिद्धान्त के भी खिलाफ है। इतिहासकार के कठोर कर्तव्य के माते इस भाव पर प्रकाश डालने के लिए भी हमें मजबूर होना पड़ रहा है। ओसवाल जाति के गौत्रों की उत्पत्ति के इतिहास को जब हम बारीकी की निगाह से देखते हैं तो हमें मालूम होता है कि उन आचार्यों ने मनुष्यों को धार्मिक प्रभाव से प्रभावित करके नहीं, प्रत्युत अपने चमस्कारों के प्रभाव से अपने वश कर इस जाति में मिलाया था। कहीं पर किसी सांप के काटे को अच्छा कर; कहीं पर किसी को भनन्त द्रव्य की प्राप्ति करवाकर, कहीं किसी को पुत्ररत प्रदान कर, कहीं किसी को जलोदर, कुटि भादि भयंकर रोग से मुक्त कर इत्यादि और भी कई प्रकार से उने अपने वश में कर इस जाति के कलेवर को बढ़ाया था।
यह प्रवृत्ति जैनधर्म के समान उदार धर्म के साधुओं के लिए प्रशंसनीय नहीं कही जा सकती, मगर ऐसा मालूम होतो है कि उस समय की जनता की मनोवृत्तियाँ चमत्कारों के पीछे पागल हो रही थी। वा युग शांति और सुव्यवस्था का युग नहीं था। कई प्रकार के प्रभाव उस समय की जनता की मनो
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ओसवाल जाति का अभ्युदय
इत्तियों में काम कर रहे थे उनमें चमत्कारों का प्रभाष भी एक प्रधाम था । जैनाचार्यों ने जब देखा होगा कि जनता साधारण उपदेश से प्रभावित नहीं हो सकती तब संभव है उन्होंने अपने आपको चमत्कारों में निपुण किया होगा और इस प्रकार जनता के हृदय पर विजय प्राप्त करने की कोशिश की होगी । बहुत से ऐसे. समय भाते हैं जिनमें युग प्रवर्तकों को प्रचलित सनातन धर्म के विरुद्ध युगधर्म के नाम से अस्थाई व्यवस्था करना पड़ती है, संभव है उस समय के आचार्यों ने यही सोचकर चमत्कारवाद का आश्रय ग्रहण किया होगा।
अब हम यह देखना चाहते हैं कि इस जाति की उन्नति और विकास के इतिहास में किन र महान् भाचार्यों ने महत्व पूर्ण योग प्रदान किया।
ऐसा कहा जाता है कि शुरू २ में ओसवाल जाति के अन्दर १८ गौत्रों की स्थापना हुई थी और उसके पश्चात् इनमें से अनेक गौत्रों की और २ शाखाएँ निकलती गई । मुनि ज्ञानसुन्दरजी ने अपने ग्रंथ 'जैन जाति महोदय' में इन अठारह गौत्रों की ४९८ शाखाएं इस प्रकार लिखी हैं।
(१)मूलगौत्र तातेड़-तातेड़, तोडियाणि, चौमोला, कौसीया, धावग, चैनावत, तळोवडा, नरवरा, संघवी, इंगरिया, चोधरी, रावत, मालाक्त, सुरती, जोखेका, पाँचावत, विनायका, साडेरावा, नागडा पाका, हरसोत, केलाणी, एवं २२ जातियों तातेड़ों से निकली यह सब भाई है।
(२) मूलगोत्र बाफणा-बाफणा, (बहुफणा)नाहटा, (नाहाटा नावटा) भोपाला, भूतिया, भाभू, नावसरा, मुंगडिया, डागरेचा, चमकीया, चाधरी जांघडा, कोटेचा, बाला, धातुरिया, तिहुयणा,करा, बेताला, सलगणा, बुचाणि, सावलिया, तोसटीया, गान्धी, कोठारी, खोखरा, पटवा, दफतरी, गोडावत, चेरिया, बालीया, संघवी, सोनावत, सेलोत, भावडा, लघुनाहटा, पंचषया, हुभिया, टाटीया, उगा, लघुचमकीपा, बोहरा, मीठडीया, मारू, रणधीरा, ब्रोचा, पाटलीया पानुणा, ताकलीया, योद्धा, पारोळा, दुद्धिमा, बादोला, शुकनीया, इस प्रकार ५९ जातियां बाफना गोत्र से निकली हुई भापस में भाई हैं।
(३) मूलगौत्र करणावट-करणावट, वागडिया, संघवी, रणसोत, भाच्छा, दावलिया, हुना, काकेचा, थंभोरा, गुदेचा, जीतोत, लाभांणी, संखला, भीनमाला, इस प्रकार करणावटों से १४ साखाएँ निकली बहसव आपस में भाई हैं।
(४) मूलगौत्र बलाहा-बलाहा, रांका, बांका, सेट, सेठिया, छावत, चौधरी, काला, बोहरा, भूतैदा कोठारी रांका देपारा, नेरा, सुखिया, पाटोत, पेपसरा, धारिया, जडिया, सालीपुरा, चित्तोडा, हाका, संघवी, कागडा, कुशलोत, फलोदीया, इस प्रकार २६ साखाएं बलाहा गोत्र से निकली वह सब भाई हैं।
.. (५) मूलगौत्र मोरख-मोरख, पोकरणा, संघवी, तेजारा, लघुपोकरणा, चांदोलीपा, पंगा,
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श्रो सवाल जाति का इतिहास
छघुचंगा, गजा, चौधरी, गोरीवाल, केदारा, धातोकडा, करचु, कोलोरा, शीगाला, कोठारी इस प्रकार १७ शाखाएँ मोरखगोत्र से निककी वह सब भाई हैं।
( ६ ) मूल गौत्र कुलहर - कुलहट, सुरवा, सुसाणी, पुकारा, मसांणिया, खोडीया, संघवी, लघुसुखा, बोरद, चोधरी, सुराणिया, साखेचा, कटारा, हाकडा, जालोरी, मन्नी, पालखिया, खुमाणा १८ शाखाएँ कुलहट गोत्र से निकली वह सब भाई हैं ।
( ७ ) मूल गौत्र विरहट - बिरहट, भुरंट, तुहाणा, औसवाला, लघुभुरंट, गागा, नोपत्ता, संघवी, निबोलिया, हांसा, धारिया, राजसरा, मोतिया, चोधरी पुनमिया सरा, उजोत, इस प्रकार १७ शाखाएँ बिरहट गौत्र से निकली है वह सब भाई हैं।
(८) मूलगौत्र श्री श्रीमाल - श्री श्रीमाल; संघवी, लघुसंघवी, निलडिया, कोटडिया, साबांणी, नाहरलाणि, केसरिया, सोनी, खोपर, खजानची, दानेसरा, उद्घावत, अटकलिया, धाकडिया भीश्नमाला, देवड, मांडलिया, कोटी, चंडाचा, साचोरा, करवा इस प्रकार २२ शाखाएँ श्री श्रीमाल गौत्र से निकली वह सब भाई हैं ।
(६) मूल गौत्र श्रेष्ठि-श्रेष्ठ, सिंहावत्, 'भाला, रावत, वैदमुत्ता, पटवा, सेवडिया, चोधरी, थानावर, चितोडा, जोधावत्, कोठारी, बोत्थाणी, संघवी, पोपवत, ठाकूरोत्, बाखेटा विजोत्, देवराजोत, गुदिया, पालोटा, नागोरी, सेखांणी, लाखांणी, भुरा, गान्धी; मेडतिया, रणधीरा, पालावत्, शूरना इसी प्रकार ३० शाखाएँ श्रेष्ठि गोत्र से निकली वह सब भाई हैं ।
(१०) मूलगौत्र संचेति - संचेति (सुचंति साचेती) डेलूडिया, धमाणि, मोतिया, बिंबा, मालोत, काकोत्, चोधरी, पाकाणि छघुसंचेति, मंत्रि, हुकमिया, कजारा, हीपा, गान्धी बेगाणिया, कोठारी, मालखा, छाछा, चितोडिया, इसराणि, सोनी, मरुषा, घरंघटा, उदेचा, लघुचौधरी, चोसरीया, बापावत् संघवी, मुरगीपाल, कीलोला, लालोत, खरभंडारी, भोजावत्, काटी, जाटा, तेजाणी, सहजाणी, सेणा मन्दिरवाल, मालतीया, भोपावत्, गुणीया, इस प्रकार ४४ साखाएँ संचेति गोत्र से निकली वह सब भाई हैं ।
(११) मूल गौत्र आदित्यनाग - आदित्यनाग, चोरडिया, सोढाणि, संघवी, उढक मसाणिया, मिणियार, कोठारी, पारख, 'पारखों' से भावसरा, संघवी टेलडिया, जसाणि, मोल्हाणि; सडक, तेजाणि, रूपावत्, चोधरी, गुलेच्छा 'गुलेच्छात्रों' से दोलताणी, सागाणि संघवी, नापडा, काजाणि, हुला, सेहजावत, नागडा, चिसोडा, चोधरी, दातारा, मीनागरा, सावसुख 'सावसुखों' से मीनारा, लोका, बीजाणि, केसरिया, वला, कोठारी नांदेचा, भटनेराचोधरी 'मटेनराचौधरियों' से कुंपावत्, भंडारी, जीमणिया, दावत् सांभरिया, कानुंगा, गवइया 'गदईयों' से गेहलोत, लुगावत् रणशोभा, बालोत, संघवी, नोपत्ता,
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ओसवाल जाति का अभ्युदयं
बुचा 'बुचों' से सोनारा, भंडलिया, दालीया, करमोत्, दालीया, रत्नपुरा, चोरड़िया चोरडियोंसे नाबरिया, सराफ, कामाणि, दुद्रोणि, सीपांणि, आसाणि, सहलोट्, लघु सोढाणी, देदाणि, रामपुरिया, लघुपारख, नागोरी, पाटणिया डाडोत्, ममइया, वोहरा, खजानची, सोनी, हाढेरा, दफतरी, चोधरी, तोलावत्. राय, जौहरी, गलाणि, इत्यादि इस प्रकार ८५ शाखाएँ आदित्यनाग गोत्र से निकली वह सब आई हैं । (१२) मूल गौत्र भूरि-भूरि, भटेवरा, उडक, सिंधि, चोधरी, हिरणा, मच्छा, बोकड़िया, बलोटा, बोसूदिया, पीतलिया, सिहावत्, जालोत, दोसाखा, लाडवा, हलदिया, नाचाणी, मुरदा, कोहारी, पाटोतिया इस प्रकार २० शाखाएँ भूरि गौत्र से निकली वह सब भाई हैं।
(१३) मूल गौत्र भद्र — भद्र, समदडिया, हिंगड, जोगड, गिंगा, खपाटिया, खवहेरा, बालडा, मामाणि, भमराणि, देलडिया, संधी, सादावत्, भांडावत् चतुर, कोठारी, लघु समदड़िया लघु हिंगड, सांडा, चौधरी, भाटी, सुरपुरिया, पाटणिया, नांनेचा, गोगढ, कुलधरा, रामाणि नाथामत्, फूलगरा, इस प्रकार १९ शाखाएँ भद्र गौत्र से निकली वह सब भाई हैं ।
(१४) मूलगौत्र चिवट -- विघट, देसरडा, संघवी, ठाकुरा, गोसलांणि, खीमसरा, लघुचिंचट, पाचोरा, पुर्विया, मासाणिया, मौपोला, कोठारी, तारांवाल, लाडलखा, शाहा, आकतरा, पोसालिया, पूजारा, बनावत्, इस प्रकार १९ शाखाएँ चिंचटगोत्र से निकली वह सब भाई हैं।
(१५) मूल गौत्र कुमट - कुमट काजलिया, घनंतरी, सुधा, जगाबत्, संघवी पुगलिया, कठोरिया कापुरीत, संभरिया, चोक्खा, सोनीगरा, लाहोरा, लाखाणी, मरवाणी, मोरचिया, छालिया, मालोत्, लघुकुंमट, नागोरी इस प्रकार १९ शाखाएँ कुंभगोत्र से निकली यह सब भाई हैं ।
(१६) मूलगौत्र डिंडू -- डिंडू, राजोत, सोसलाणि, धापा, धीरोत्, खंडिया, योद्धा, भाटिया, भंडारी, समदरिया, सिंधुडा, लालन, कोचर, दाखा, भीमावत्, पालणिया, सिखरिया, वांका, वडवडा, बादलिया, कानुंगा, एवं २१ शाखाएँ डिड् गौत्रसे निकली वह सब भाई हैं ।
(१७) मूलगौत्र कन्नोजिया - कन्नोजिया, वडभटा, रांकावाल, तोलिया, धाधलिया वेवरिया, गुंगलेचा, करवा, गढवाणि, करेलिया, राडा, मीठा भोपावत् जालोरी जमघोटा, पटवा, मुसलिया इस प्रकार १७ शाखाएँ कम्नोजिया गोत्रसे निकली यह सब भाई हैं ।
(१८) मूलगोत्र लघुश्रेष्टि - लघुश्रेष्टि, वर्धमान, भोभलिया, लुणेचा, बोहरा, पटवा, सिंधी, चितोडा, खजानची, पुनोत्, गोधरा, हाडा, कुबडिया, लुणा, मालेरिया, गोरेचा, इस प्रकार १६ शाखाएँ लघुश्रेष्ट गोत्र से निकली वह सब भाई हैं।
ऊपर जिन शाखाओं का वर्णन किया गया है, उनमें कई ऐसी हैं जिनका नाम दो २ सीब. २
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मोसवाल जाति का इतिहास
और चार २ बार आया है ऐसी स्थिति में इन शाखाओं के सम्बन्ध में शंका होना स्वाभाविक है सम्भव है दूसरे आचायों का भी इस से मतभेद हो । मगर यह निश्चित है कि संवत् १००० के पश्चात् जो आचार्यं हुए उनमेंसे बहुतसों ने इन गौत्रों की शाखाओं तथा नवीन गौत्रों की स्थापना की । उनमें से कुछ प्रसिद्ध २ आचायों का परिचय हम नीचे देने की चेष्टा कर रहे हैं।
श्राचार्य्य बप्पभट्टर
आचार्य बप्पभट्टसूरि का जम्म वि० सं० ८०० में हुआ। उस समय जाबालिपुर में पड़िहार वंश का महाप्रतापी वत्सराज नाम का राजा राज्य करता था। इसने गौड़ प्रांत, बंगाल प्रांत, मालव प्रांत वगैरह दूर २ के प्रदेशों को विजय कर उत्तरापथ में एक महान साम्राज्य स्थापित करने की कोशिश की थी। इसी समय में अणहिलपुर नामक एक छोटा सा ग्राम बसाकर चावड़ा वंशीय राजा बनराज ने अपना राज्य विस्तार करना प्रारम्भ किया था। इसने सारस्वतमण्डल, आनर्त और बागड़ इत्यादि आसपास के प्रान्तों पर अधिकार करके पश्चिम भारत के अन्दर एक बड़ा साम्राज्य स्थापित करने की कोशिश की।
सम्राट वत्सराज के नागभट्ट नामक एक पुत्र हुआ जो इतिहास में नागावलोक व आमराजा के नाम से मशहूर है । इसने अपनी राजधानी जाबालिपुर से हटाकर हमेशा के लिए कन्नौज में स्थापित की । ग्वालियर की प्रशस्ति से पता चलता है कि इस राजा ने कई देशों को जीतकर अपने राज्य में मिलाया । इसी राजा को आचार्य बप्पभट्टसूरि ने जैनधर्म का प्रतिबोध देकर जैनी बनाया। इस राजा के एक रामी afts पुत्री थी उसकी संतान ओसवाल जाति में सम्मिलित की गई, जिनका गौत्र राज कोटागर या राज कोठारी के नाम से मशहूर हुआ। इसी आम राजा ने कन्नौज में एक सौ हाथ ऊँचा जिनालय बंधवाकर उसमें आचार्य बप्पभट्टसूरि के हाथ से महावीर स्वामी की एक सुवर्ण प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई। इसी प्रकार गोपगिरि ( गवालियर) में भी इन्होंने २२ हाथ ऊँची महावीर स्वामी की प्रतिमा प्रतिष्ठित की। ये आचार्य गौड ( बंगाल ) देश की राजधानी लक्षणावती में भी गये और वहाँ तत्कालीन राजा धर्म को उपदेश देकर आम राजा तथा उसके बीच की विद्रोहानि को शांत कर दिया । इन्हीं सूरिजी ने मथुरा में शैव वाक्पति नामक एक योगी को जैनी बनाया। इन्हीं के उपदेश से आम राजा ने संवत् ८२६ के करीब कनौज, मथुरा, अणहिलपुर पट्टण, सतारक नगर तथा मोढेरा आदि शहरों में जैन मन्दिर बनवाये। इसी राजा आम का पुत्र भोज राजा हुआ, जिसके दूसरे नाम मिहिर और आदिवराह भी थे । यह सम्वत् ९०० से ९५० तक गद्दी पर रहा। इसी परिवार में आगे चलकर सैकड़ों वर्षों पश्चात् सिद्धाचल का अन्तिम उद्धार कर्त्ता
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मोसवाल जाति का अभ्युदप रमांशाह हुआ, जिसका शिलालेख शगुंजय तीर्थ पर भाविनाथजी के मन्दिर में पाया जाता है। इसके अन्दर के दो श्लोक हम यहाँ उद्धत करते हैं।
इतश्च गोपाह गिरौ गरिष्टः श्री बप्पमट्टी प्रतिबोधितश्व, . . श्री आमराजोऽ जनि तस्य पनी काचित्व भूव व्यवहारी पुत्री ॥ ८॥ तत्कुक्षिजाताः किल राज कोटगाराह गोत्रे सुकृतैक पात्रे ।
श्री ओसवंशे विशदे विशाले तस्यान्वयेऽमि पुरुषाः प्रसिद्धः ॥ १ ॥ इन आचार्य श्री का स्वर्गवास सम्वत् ८९५ में हुआ। श्री नेमिचन्द्रसूरि
श्री नेमिचन्दसूरि का समय संवत् ९५० के आसपास होना पाया जाता है। महाजनवंश मुकाबली में हमको उद्योतमसूरि के गुरू लिखा है। कहा जाता है कि इनके समय में मालव देश में तंवरों का राज्य था । ये आचार्य भी बड़े प्रतिभाशाली एवम् भोसवाल जाति को अभ्युदय प्रदान करनेवालों में से थे। इन्होंने संवत् ९५४ में बरदिया गौत्र की स्थापना की। भी बर्दमानसूरि
श्री वर्धमानसूरि का समय संवत् १००० से लेकर संवत् १०८८ तक पाया जाता है। इनका एक प्रतिमा लेख कटिग्राम में संवत् १०४५का लिखा हुआ मिला है । इन्होंने संवत् १०५५ में हरिश्चन्द्रसूरि कृत “उपदेश पद" नामक ग्रंथ की टीका रची। ऐसा मालूम होता है कि 'उपमिति भव प्रपचा माम समु. प" और "उपदेश माला बृहद्” नामक कृतियाँ भी इन्होंने रची थीं। ये चन्द्रगच्छ के थे। इन्होंने संवत् १०२६ में संचेती और संवत् १०७२ में लोदा और पीपाड़ा गौत्र की स्थापना की । भी जिनेश्वरसूरि
श्री वर्धमानसूरि के शिष्य श्री जिनेश्वरसूरि भी बड़े प्रतिभाशाली प्रचारक थे । इनका अमष संवत् १०६१ से लेकर संवत् ११तक का पाया जाता है। इनके समय में गुजरात के अन्तर्गत राजा दुर्लभराज राज्य करता था, उसका पुरोहित शिवशर्मा नामक एक ब्राह्मण था, जिसको आचार्यश्री मे भामार्य में पराजित किया था। दुर्लभराज के समय में अणहिलपुर पट्टन में चैत्यवासियों का बड़ा ज़ोर था। श्री जिनेश्वरसूरिजी ने इन्हें भी शाबार्य में पराजित कर अपनी विजयपताका फह
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
राई थी। संवत् १०८० में इन्हें खरतर' का विरुद प्राप्त हुआ, सभी से इनका गच्छ खरतरगच्छ के नाम मशहूर हुआ । इन्होंने श्रीपत्ति ढड्डा, तिलौरा ढड्ढा और भणसाली नामक गौत्रों की स्थापना की, ऐसा महाजन वंश मुक्तावली से पाया जाता है ।
से
श्री अभयदेवसूरि
श्री अभयदेवसूरि श्री जिनेश्वरसूरिजी के शिष्य और श्री जिनचन्द्रसूरिजी के गुरु भाई थे । आपका जन्म संवत १०७२ में हुआ था । संवत् १०८८ में अर्थात् जब कि आप केवल १६ वर्ष के थे आपको आचार्य पद प्राप्त हुआ था । आपने जैनों के नव आगमों पर संस्कृत टीकाएँ रचीं इससे आप नवांग वृत्तिकार के नाम से प्रसिद्ध हुए । आप बड़े प्रतिभा शाली और विद्वान पुरुष थे । आपने कई उत्तमोत्तम ग्रन्थों की रचना की। आपका स्वर्गवास संवत ११३५ में कपड़वंज में हुआ । आपने खेतसी, पगारिया और मेड़तवाल नामक गौत्रों की स्थापना की ।
श्री मलधारी हेमचन्द्रसूरि
श्री मलधारी हेमचन्द्रसूरि मलधारी श्री अभयदेवसूरि के शिष्य थे। इनके सम्बन्ध में इन्हीं की परम्परा के मलधारी राजशेखर संवत् १३८७ में लिखी हुई 'प्राकृत द्वयाश्रयवृति' में लिखते हैं कि इनका मूल नाम गृहस्थावस्था में प्रद्युम्न था । ये राजसचिव थे। श्री अभयदेवसूरि के उपदेश से इन्होंने अपनी चार स्त्रियों को छोड़कर दीक्षा ग्रहण करली। इनकी प्रतिभा के सम्बन्ध में इन्हीं के समकालीन शिष् श्रीचन्द्रसूरि अपने मुनिसुप्रत चरित्र की प्रशारित में लिखते हैं कि इनके व्याख्यानकी मधुरता और उसके आकर्षण से गुणीजनों के हृदय में बड़ी श्रद्धा उत्पन्न होती थी। गुजरात का तत्कालीन राजा जयसिंहदेव या सिद्ध राज स्वयं अपने परिवार के साथ आपके दर्शन करने और आपका भाषण सुनने के लिये उपाश्रय में भाता था। इन्हीं आचार्य श्री के कहने से उसने अनेकों जैन मंदिरों पर कलश चढ़वाये | धंधुका सांचोर वगैरह तीर्थस्थानों में अन्य धर्मियों के द्वारा जिन शासन पर पहुँचाई जाने वाली पीड़ा को उसने दूर किया । पाटन से गये हुए गिरनार के विशाल संघ के साथ आप भी थे। उस समय मार्ग में सोरठ के राजा राव खंगार ने संघ के ऊपर उपद्रव किया और उसको रोक दिया। तब श्री हेमचन्द्रसूरि ने जाकर उसको प्रतिबोध दिया और संघ पर आयी हुई विपत्ति को दूर किया । आपने सांकला, सुराणा, सियाल, सांड, सालेचा, पूनमियां वगैरह २ गौत्रों की स्थापना की । आप पण्डित श्वेताम्बराचा भट्टारक के नाम से प्रसिद्ध थे। अंत में ७ दिन का अनशन करके आप स्वर्गवासी हुए ।
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मोसवाल जाति का अभ्युदय
श्री जिनवल्लभसूरि
श्री जिनघल्लभ सूरि राजा कर्ण के समय में एक गणि की तरह और उसके पश्चात् सिदराज के समय में एक ग्रंथकार और आचार्य की तरह प्रसिद्ध हुए। आपका स्थान खरतरगच्छ के भापार्यों में बहुत ऊंचा है। शुरू में ये चैत्यवास के उपासक जिनेश्वर नाम के मठाधिपति के शिष्य थे । उन्होंने इन को पाटन में श्री अभयदेवसूरि के पास शास्त्राध्ययन करने के लिए भेजा। वहाँ पर इन्होंने चैत्य वास के मत को छोड़कर शास्त्र रीति के अनुसार आचार को ग्रहण किया । इनके उपदेश से जो चैत्य बने वे विधि चैत्य के नाम से मशहूर हुए । इन चैत्यों में कोई शास्त्रविरुद्ध कार्य न हो इसके लिए आपने कई श्लोकों की रचना कर के वहाँ लगाई । यहाँ से आपने मेवाड़ में बिहार किया। उस समय मेवाड़ चैत्यवासी आचार्यों से भरा हुआ था। चित्तौड़ में आपने अपने उपदेश से कई लोगों को जैन धर्म में दीक्षित किया । यहाँ पर भी आपने दो विधिचैत्यों की प्रतिष्ठा की । इसके पश्चात् आप बागढ़ में गये। वहाँ जाकर मापने वहाँ के लोगों को प्रतिबोध दिया । वहाँ से चलकर धारा नगरी के राजा नरवा की सभा में आपने बहुत ख्याति प्राप्त की । नागौर में आपने नेमि जिनालय की प्रतिष्ठा की। संवत् ११५६ में आपने चोपड़ा, गणधर चौपड़ा, कुकड़चौपड़ा, बड़ेर साँड वगैरह गौत्रों की तथा संवत् १६० में गॉरिया, लखवानी, बरमेचा, हरकावत, मल्लावत, साह सोलंकी इत्यादि कई गौत्रों की स्थापना की । इसके पूर्व संवत् ११४२ में भाप कांकरिया गौत्र की स्थापना कर चुके थे । संवत् ११६४ में आपने सिंधी गौत्र की स्थापना की । आप का स्वर्ग वास संवत् ११६७ में हुआ। श्री जिनदत्तसूरि - श्री जिनदत्तसूरि खरतरगच्छ में सब से ज्यादा नॉमाकित भऔर प्रतिभासम्पम भाचार्य हुए । आप का जन्म संवत् ११३२ में हुआ। आपके पिता श्री का नाम वाधिगमन्त्री तथा माताजी का नाम वाहड़देवी था । आप का गौत्र हुँबड़ था और आप धन्धूक नगर के निवासी थे। भापका मुख्य नाम सोमचन्द्र था। संवत् ११४१ में आप ने जैन धर्म की दीक्षा ली । संवत् ११६९ में चित्तौड़ नगर में भाप को श्री देवभद्र माधाय द्वारा आचार्य पद प्राप्त हुभा । जिस समय आप आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किये गये उस समय भान कर का सा जमाना नहीं था। वह चमत्कारवाद का युग था। चारों ओर चमत्कार की पूजा होती थी । भाचार्य श्री भी इस विद्या में पारङ्गत थे । अतएव कहना न होगा कि आपने अपने अपूर्व चमत्कारों की बजह से तत्कालीन जनता के हृदय पर अपनी गहरी धाक जमाली थी। भापके चमत्कारों से प्रभावित होकर
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भोसवाल जाति का इतिहास
कई व्यक्ति आप के द्वारा जैन धर्म में दीक्षित किये गये। उस समय आपका प्रताप चारों भोर चमक रहा था । भाप उन महानुभावों में से थे जिन का नाम उस समय ही नहीं, आज भी प्रत्येक जैन समाज के व्यक्ति के मुंह पर हमेशा रहा करता है।
आप के द्वारा भिन्न २ समय में भिन्न २ रूप से कई गौत्रों की स्थापना हुई। जिन का थोड़ा सा विवरण महाजन वंश मुक्तावली के अधार से नीचे दिया जा रहा है
संवत् ।।६९ में धादेवा, पाटेवा, टोटियाँ और कोठारी संवत् १७५ में बोरड़, खीमसरा, और समदरिया संवत् १७६ में कठोतिया, संवत् 161 में रतनपुरा, कटारिया, ललवाणी वगैरह ५१ संवत् १८१ में डागा, माल, भाभू संवत् १८५ में सेठि, सेठिया, रंक, बोक, राका, बाँका, संवत् १८0 में सखेचा, मूंगलिया, संवत् १९२ में चोरदिया, साँवसुखा, गोलेछा, लूनियां वगैरह संवत् ११९७ में सोनी, पीतलिया, बोहित्थरा, ७. गौत्र संवत् १९८ में भायरिया लूनावत्, बापना इत्यादि संवत् ११९६ में भणसाली, चंडालिया संवत् १२०१ में भाबेड़ा, खटोल
संवत् १२०२ में गडवाणी, भड़गतिया, पोकरण वगैरह लिखने का मतलब यह है कि आप के द्वारा ओसवाल जाति एवम् जैनधर्म का बहुत उत्थान हुआ। पही कारण है कि समाज में भाप दादाजी के नाम से पुकारे जाने लगे। वर्तमान में भारतवर्ष भर में जहाँ २ जैन वस्ती हैं वहाँ २ दादा वाड़ियाँ है जो प्रायः आप के ही स्मारक में बनी हुई है और वहाँ भाप के चरण स्थापित हैं। भाप का स्वर्गवास संवत् १२११ में हुआ। श्री जिनचन्द्रसरि
श्री जिनचंद्रसूरि भी जैनधर्म के अन्दर बड़े प्रभावशाली आचार्य हुए है । ओसवाल जाति का विस्तार करने में भापने बहुत बड़ा भाग लिया है। भाप खरतरगच्छ के भाचाय थे । भापका जन्म संवत् ॥९० भाद्रपद शुक्ला को हुमा । आप के पिता का नाम साहरासलक और माता का नाम देहण.
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ओसवाल जाति का अभ्युदय देवी था। संवत् १२०३ की फाल्गुन वदी ९ को आपने दीक्षा ग्रहण की। भापके गुरु दादाजी श्रीजिनदत्त. मूरिजी थे। संवत् १२१ की बैशाख सुदी ६ को आप आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए । आपने संवत् १२१४ में अधारिया, १२१५ में छाजेड़, संवत् १२१६ में मिन्मी खजाँची, भूगड़ी, श्रीश्रीमाल, १२१७ में सालेचा, दूगड़, सुघड़, शेखाणी, कोठारी, आलावत, पालावत इत्यादि कई गौत्रों की स्थापना की । आप का स्वर्गवास संवत् १९२३ की भादवा बदी १४ को हो गया। श्री जिनकुशलसरि
___दादाजी जिनदत्तसूरिजी के पश्चात् श्री जिनकुशलसूरि जैन समाज के अन्दर बड़े प्रभाविक एवम् प्रतिभा सम्पन्न भाचार्य हुए । भापका जन्म संवत् १३३० में हुआ। आप छाजेड़ गौत्रीय मंत्री जिल्हागर के पुत्र थे । आपकी माताका नाम जयन्तश्री था। संवत् १३४७ में आपने दीक्षा ग्रहण की। इनके पश्चात् संवत् १३७७ में आपको आचार्य पद प्राप्त हुआ। आपने बावेल, संघवी, जड़िया वगैरह २१ शाखाओं की तथा डागा गोत्र की स्थापना की। आपने पाटन में साह तेजपाल से नन्दिमहोत्सव करवाया, जिसमें २४.० साधु साध्वी आपके साथ थे। संवत् १३८० में साह तेजपाल ने शंध्रुजय तीर्थ का संघ निकाला उसमें भी आप सम्मिलित हुए। आपने भीमपल्ली नामक नगर में भुवालकृत एक वीर चैत्य की, जेसलमेर नगर में धवलकृत चिन्तामणि पार्श्वनाथ की तथा जालोर नगर में श्री पार्श्वनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा की । आपके संघ में १२०० साधु तथा १०५ साध्वियाँ थीं। आप भी अपने गुरु की सरह जैन समाज में दादाजी के नाम से प्रसिद्ध हैं। संवत् १३८९ को फाल्गुन वदी अमावस्या को देराउर नगर में आठ दिनके अनशन के साथ आप स्वर्गवासी हुए। श्री जिनभद्रसूरि
श्री जिनभद्रसूरि खरतर गच्छ के अन्दर एक प्रभाविक, प्रतिष्ठावान, और प्रतिभाशाली आचार्य हुए । आपने जैम शासन को बहुत उरोजन प्रदान किया। आपके उपदेश से जैन श्रावकों ने गिर. मार, चित्रकूट ( चित्तौड़ ) मंडोवर आदि अनेक स्थानों में बड़े २ जिन मन्दिर बनवाये । अणहिलपुर पहन भादि स्थानों में आपने विशाल पुस्तक भंडारों की स्थापना की। माँडवगढ़, पालनपुर, तलपाटक आदि मगरों में अनेक जिन बिम्बों की प्रतिष्ठा की । जैसलमेर के तत्कालीन राजा रावत श्री बैरसिंह और थंबक. दास सरीखे प्रतिष्ठित व्यक्ति आपके चरणों में गिरते थे । आपके उपदेश से साह शिवा आदि चार भाइयों ने संवत् १४९५ में जैसलमेर में एक भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया । संवत् १४९७ में आचार्य सूरिजी ने
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ओसवाल जाति का इतिहास
इसमें करीब ३०० जिन बिम्बों की प्रतिष्ठा की। जिसकी प्रशस्ति आज भी उस मन्दिर में लगी हुई है। इन सूरिजी ने 'जिन सत्तरी प्रकरण; और अपवर्गनाममाला नामक ग्रन्थों की रचना की। इन प्रन्थों में आपने अपने गुरु का नाम श्रीजिनवल्लभ, श्री जिनदत्त और श्रीजिनप्रिय बतलाया है। श्री जिनचन्द्रसूरि
___श्री जिनचन्द्रसूरि श्री जिनमाणिक्य सूरि के शिष्य थे। आपका जन्म संवत् १५९५ में हुआ। संवत् १६०४ में आपने दीक्षा ग्रहण की। संवत् १६१२ में आप सूरिपद पर प्रतिष्ठित हुए। आपको बादशाह अकबर ने युग प्रधान का पद प्रदान किया था ।
- अकबर का दरबार भिन्न २ प्रकार के दर्शन शास्त्रियों, विद्वानों और राजनीति-दक्ष पुरुषों से भरा रहता था। उसकी विद्या रसिकता और धार्मिक स्वाधीनता अतुलनीय थी। बीकानेर के सुप्रसिद्ध बच्छावत कर्मचन्द भी उसके दरबार में आया जाया करते थे। एक दिन अकबर बादशाह ने पूछा कि इस समय जैनियों में सब से प्रभावशाली आचार्य कौन है, उत्तर में किसी ने आचार्य जिनचन्द्रसूरि का नाम उसको बतलाया और यह भी बतलाया कि कर्मचन्द बच्छावत उनके शिष्य हैं, तब बादशाह ने कर्मचन्दजी को हुक्म दिया कि वे आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि को लाहौर में लावें । बादशाह की आज्ञा से कर्मचन्दजी आचार्य श्री को लाहौर में लाये। बादशाह अकबर ने आपका बहुत सम्मान एवम् स्वागत किया। बादशाह के आग्रह से आचार्य श्री ने लाहौर ही में चातुर्मास किया। आचार्य श्री के उपदेश का अकबर के ऊपर बहुत प्रभाव पड़ा और आचार्य श्री के कहने से उसने द्वारका और शत्रुज्जय के सब जैन मन्दिरों की व्यवस्था कर्मचन्दजी बच्छावत् के सिपुर्द करदी और उसका लिखित फरमान अपनी मुद्रा से अतित कर आजमखाँ को दिया और कहा कि सब जैन तीर्थ कर्मचन्द को बक्ष दिये हैं, उनकी रक्षा करो। जब अकबर काश्मीर जाने लगा तो उसने पहले मन्त्री के द्वरा श्री जिनचन्द्रसूरिजी को बुलाकर उनसे धर्म-लाभ लिया। इसके उपलक्ष्य में भसाद सुदी ९ से लेकर सात दिन पर्यंत सारे साम्राज्य में जीवहिंसा न की जाय इस आशय का फरमान निकाल कर अपने ग्यारह सूबों में भेज दिया । बादशाह के इस हुक्म को सुनकर उसको खुश करने के लिये उसके अधीनस्थ राजाओं ने भी अपने २ राज्य की सीमा में कहीं पंद्रह दिन,कहीं बीस दिन और कहीं एक मास सक जीव हिंसा न करने का फरमान निकाला। इसी सिलसिलेमें बादशाह अकबरने इन्हें युग प्रधान का पद प्रदान किया और उनके शिष्य मानसिंह को आचार्य पद प्रदान करके उनका नाम जिनसिंहसूरि रक्खा । अकबर के पश्चात् संवत् १६६९ में जहाँगीर बादशाह ने हुक्म निकाला कि सब दर्शनों के साधुओं को देश से बाहर निकाल दिया जाय । इससे जैन मुनि मण्डल में बहुत भय हो गया । तब श्री जिनचन्द्रसूरि मे पान
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से आगरा जाकर बादशाह को समझाया और उस हुपम को रह करवाया। इन्हीं जिनचन्द्रसूरि ने पींचा गौत्र तथा संवत् १६२७ में १८ भौर गौत्र स्थापित किये । इनका स्वर्गवास संवत् १६७० में हो गया । श्री हीरविजयसूरि
- श्री हीरविजयसूरि-अब हम एक ऐसे तेजस्वी और प्रभापूर्ण आचार्य का परिचय पाठकों के सम्मुख रखते हैं जिन्होंने अपनी दिन्य प्रतिभा से न केवल जैन समाज पर प्रत्युत अकबर के समान महान् सम्राट और प्रतापी राजवंशीय सभी पुरुषों पर अपना अखण्ड प्रभाव स्थापित किया था। इन आचार्य श्री की प्रतिभा सूर्य-किरणों की तरह तेजपूर्ण और चन्द्रकिरणों की तरह शीतल और जन-समाज को मुग्ध कर देने वाली थी। बादशाह अकबर के ऊपर इन आचार्य श्री का कितना प्रभाव था यह नीचे लिखी हुई प्रशस्ति, जो कि शत्रुजय तीर्थ के आदिनाथ मन्दिर में संवत् १६५० की लगी हुई है, से मालूम हो जायगा। पाठकों की जानकारी के लिये हम उस प्रशस्ति को नीचे लिख रहे हैं।
दामेवासिल भूपमूईसु निजमाशां सदा धारयन् ... श्रीमान् शाहि अकम्बरो नरवरो [ देशेष ] शेषेप्वपि । पएमासाभयदान पुष्ट पटहोघोषा नर्वसितः
कामं कारयति स्म हष्टहृदयौ यद्वाक् कला रंजितः ॥ १७॥ यदुपदेशवशेन मुदं दधन् निखिल मण्डलवासि जने निजे ।
मृतधनं च करं च सुजीजिया भिधमकब्बर भूपति रत्य जत् ॥ १८ ।। यद् वाचा कतकामया विमालतस्वांतांबुपूरः कृपा
पूर्ण शाहिर निन्ध नीतिवनिता कोड़ी कृतात्मात्यजत् । शुक्लं त्यक्तु मशक्यमन्यधरणीराजांजन प्रीतये .. तद्वान् नार्डज पुंज पुरुष पशूश्चामूमुचद् भूरिशः ॥ १६ ॥ यद् वाचां निचयैर्मुधाकृत सुधा .स्वादैरमंदैः कृता
ल्हादः श्रीमद्कब्बरः क्षितिपतिः संतुष्ठि पुष्ठाशयः । त्यक्त्वा तत्करमर्थ सार्थमतुलं येषां मनः प्रीतये
__ जैनभ्यः प्रददौ च तीर्थतिलकं शत्रुजयोवधिरम् ॥ २० ॥ यद्वाग्भिर्मुदितश्चकार करुणा स्फूर्जन्मनाः पौस्तकं
भाण्डागारमपारवाङ्मयमयं वेश्मेव वाग्दैवतम् ।
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ओसवाल जाति का इतिहास
यत्संवेगमेरेण भावितमतिः शाहिः पुनः प्रत्यहं
पूतात्मा बहु मन्यते भगवर्ता सदर्शनो दर्शनम् ॥ २१ ॥ इन आचार्य श्री का जन्म पालनपुर नगर में कुरां नामक एक ओसवाल सजन के यहाँ सं० १५४५ में हुआ था । इनकी माता का नाम श्री नाथीबाई था। संवत् १५९६ में तपेगच्छ के श्री विजयदानसूरिजी के उपदेश से आपने दीक्षा ग्रहण की । मुनि हीर हर्ष ने पहले अपने गुरू के पास तमाम साहित्य और शास्त्र का अध्ययन किया। फिर इनके गुरु ने धर्म सागर मुनि के साथ इन्हें दक्षिण के देवगिरी नामक स्थान पर अध्ययन करने के लिए नैयायिक ब्राह्मण के पास भेजा । पहाँ पर उन्होंने प्रमाणशास्त्र, तर्क परिभाषा, मित भाषिणि, शशधर, माणिकंठव, घरददाजि, प्रस्तपद भाष्य, वद्ध'मानेन्दु, किरणावली इत्यादि का अध्ययन करके वापस मरूदेश को अपने गुरूदेव के पास गये । वहाँ नडलाई (नारदपुर) में संवत् १६०७ में गुरुदेव ने इन्हें 'पण्डित' का और फिर संवत् १६०८ में 'वाचक उपाध्याय' का पद दिया । संवत् १६१० में इन्हें सिरोही में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया और हीरविजयसूरि नाम रखा। इनका उत्सव दूधा राजा के जैन मंत्री-धरणाक के वंशज रासतपुर के प्रसिद्ध प्रसाद का निर्माण करवानेवाले. चांगा नामक सिंघवी ने किया। इस उपलक्ष्य में यहाँ के राजा ने अपने राज्य में होनेवाली हिंसा को बंद करवाया । संवत् ११३1 में इनके गुरू विजयदानसूरि का स्वर्गवास हो गया। उसी समय से ये स्वयं तपेगच्छ के नायक हो गये । इसी समय बादशाह अकबर ने फतहपुर सीकरी में मोक्ष साधक धर्म का विशेष परिचय प्राप्त करने की इच्छा से राज-सभा में बड़े २ विद्वानों की एक शास्त्र गोष्ठी कायम की थी । इस गोष्ठी में उन्होंने आचार्य हीरविजयसूरि को भी आमंत्रित किया था।
उस समय हीरविजयसूरि का चातुर्मास गंधार बंदर में था । अकबर ने गुजरात के सूबे साहिवखाँ को फरमान के द्वारा सूचित किया कि हीरविजयसूरि को बहुत आदर और सम्मान के साथ यहाँ हमारे पास दरबार में भेजो ! अतएव कहना न होगा कि हीर विजय सूरि बड़े सम्मान और आदर के साथ स्थान २ पर ठहरते हुए फतेपुर सीकरी पधारे । बादशाह के मंत्री अबुलफजल ने उनका सत्कार किया । बादशाह ने स्वयं वहाँ आकर हाथी घोड़े इत्यादि की मेंट आचार्यश्री की सेवा में रखी । मगर निस्पृह जैनाचार्य ने उसको स्वीकार करने से इनकार कर दिया । तब बादशाह ने कहा कि आपको कुछ न कुछ तो अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा। तब आचार्य ने कैदियों को कैद में से और पिंजर बद्ध पक्षियों को पीजरे से छोड़ देने और उन्हें आजाद
* सम्राट ने विविध धर्मों का रहस्य समझ कर संवत् १६३५ में दीने इलाही नामक एक नवीन धर्म को प्रचलित किया था । यह धर्म सुधरे हुए हिन्दू धर्म का ही एक रूप था। सम्राट अकबर कहा करते थे कि जब तक भारतवर्ष में भनेक जातियाँ और अनेक धर्म रहेंगे तब तक मेरा मन शांत न होगा।
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ओसवाल जाति का अभ्युदय
कर देने के लिए कहा । बादशाह ने फिर उन्हें अपने लिये कुछ मांगने को कहा । इस पर भाचार्य ने कहा कि हमारे पर्युषण पर्व में आठ दिन तक जींव हिंसा न होने पावे । इस पर बादशाह ने अपनी तरफ से और चार दिन मिलाकर बारह दिन के लिये समस्त साम्राज्य में हिंसा बंद करवाई और अपनी सही और मोहर के ६ फरमान अपने साम्राज्य के सब स्थानों पर भेज दिये । उसके पश्चात् समर तालाब नामक जला. शय जो उन्होंने स्वयं बड़े शौक से बनाया था आचार्य श्री के अर्पण कर दिया और वहाँ मछलियाँ मारने की मनाई कर दी । स्वयं सम्राट ने भी कभी शिकार न करने की प्रतिज्ञा ली ।*
संवत् १६४० नवरोज के अवसर पर सम्राट ने आचार्य श्री को जगद्गुरु का विरुद प्रदान किया । इस अवसर पर भी सम्राट ने सारे कैदियों को छुड़वा दिये । गमर तलाव पर जाकर वहाँ के पीजरे में बंद पशुपक्षियों को मुक्त किया।
___ उसके पश्चात् बादशाह के मान्य जौहरी दुर्जनमल ने सूरिजी के पास से जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा करवाई। इसी प्रकार और भी कई स्थानों पर आपने मन्दिरों और मुत्तियों की प्रतिष्ठा करवाई । कुछ समय पश्चात् वहाँ से बिहार कर आपने संवत् १६४५ में पाटन में चौमासा किया । इस समय इनके शिष्य शांतिचं उपाध्याय ने, जो कि सूरिजी की आज्ञा से बादशाह के पास रह गये थे,सूरिजी के दर्शनार्थ जाने की इच्छा प्रकर की । तब बादशाह ने अपनी तरफ से सूरिजी को भेंट करने के लिए उनके पास निम्नलिखित फरमान भेजे ।
- जज़िया नामक कर को गुजरात में दूर करने का फर्मान्, पर्युषग के बारह दिनों के अलावा सब रविवार सूफी लोगों के सब दिन,ईद,के दिन, संक्रान्ति की सब तिथियाँ, अपना जन्म जिस मास में हुमा था वह सारा मास, मिहिर के दिन, नवरोज के दिन ,अपने तीनों पुत्रों के जन्म दिन, मोहर्रम महिने का दिन, इस प्रकार सब वर्ष में कुल ६ मास और दिन सारे साम्राज्य में कोई भी किसी जीव की हिंसा न करें इस प्रकार का फरमान बादशाह ने निकाल कब भेजा !
* पाइने अकबरी पृष्ट ३३० और ४०० में अकबर बादशाह कहते है कि राज्य के नियम से यद्यपि शिकार खेलना पुरा नहीं है लेकिन जीव रक्षा का ख्याल रखना उससे भी ज्यादा आवश्यक है।
+कट्टर मुसलमान लेखक बदाउनी लिखता है:
" In these days (991-1583 A. D.) new orders were given. The killing of animals on cartain days was forbidden, as on sundays because this day is sacred to the Sun; during the first 18 days of the month forwarding the whole month of abein (the month in which His Majesty was born) and several other days so please the Hindoos. Thus order was extended over the whole realm and capital punishment was inflicted on every on who acted against the command." -Radaoni Page. 321,
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ओसवाल जाति का इतिहास
संवत् १६४६ में खम्बात् में जाकर सोनी सेजपाल के बनाए हुए भव्य मन्दिर की प्रतिष्ठा सूरिजी ने को । इसके बाद संवत् १६४८ में सम्राट अकबर ने शत्रुजय पर लगे हुए कर को बंद करने का और उसके दान का फरमान भेजा और आचार्य विजयसेन सूरि (हीर विजय सूरि के शिष्य) के दर्शनों की इच्छा प्रकर की तब श्री विजयसेन सूरि लाहौर की ओर गये और जेठ सुदी १२ को लाहौर शहर में प्रवेश किया । यहाँ पर बादशाह ने इन्हें खुशफहम ( सुमति ) का विरुद प्रदान किया। इसके पश्चात् सूरिजी के उपदेश से सम्राट ने गाय, बैल, भैंस, और पाड़े की हिंसा न करना, मृतक व्यक्ति ( लावारिसी) के द्रव्य को सरकार में न लेना इत्यादि ६ फरमान और जारी किये । विजयसेनसूरि ने अकबर की राजसभा में ३६६ ब्राह्मणवादियों को शास्त्रार्थ में पराजित कियेजिससे खुश होकर सम्राट ने इन्हें 'सवाई' विजयसेन सूरि का विरुद दिया।
इस प्रकार राजा और प्रजा, हिन्दू और मुसलमान सबकोजैन शासन की पवित्र लाईन पर लगानेवाले और जैन शासन का विश्वव्यापी प्रचार करने वाले इन आचार्य श्री का स्वर्गवास संवत् १६५२ में हो गया। कहना न होगा कि सम्राट अकबर पर जो जैनधर्म की छाप पड़ी थी, वह आचार्य श्री ही की कृपा का फल था।
अन्य प्राचार्य
इसी प्रकार संवत् ११३२ में श्रीजिनराजसुरि और संवत् १४७८ में श्रीभद्रसूरि हुए जिन्होंने भण्डारी गोत्र की स्थापना की । संवत् १५७५ में श्रीजिनभद्रसूरि ने शावक, शामक और संबढ़ गौत्र की और संवत् १५५२ में श्री जिनहँससूरि ने गेहलड़ा गौत्र की स्थापना की । इसी प्रकार श्री (रविप्रभ-सूरि ने लोढा, मानदेवसूरि ने नाहर, और जयप्रभुसूरि ने छजलानी और घोड़ावत गौत्रों की स्थापना की।
उपरोक्त सारे कथन से इस बात का पता सहज ही लग जाता है कि संवत् १००० से लेकर संवत् १६०० के पहले तक श्रोसवाल जाति का सितारा बहुत तेजी पर था। इसके अन्दर जितने भी भाचार्य हुए उन्हों ने इस बात की हरचंद कोशिश को कि अन्य धर्मियों को जैनधर्म की दीक्षा देकर ओसवाल जाति के कलेवर को स्मृद्ध किया जाय । कहना न होगा कि इन आचार्यों की दिव्य प्रतिभा और अलौकिक तेज के भागे बड़े २ राजा, महाराजा और सम्राट तक नत-मस्तक हुए थे। इसका परिणाम यह हुआ कि ओसवाल जाति के अन्दर जो २ व्यक्ति सम्मिलित हुए वेप्रायः सभी उच्च घरानों के प्रतिभाशाली और हर तरह की जोखिम को उठाने वाले साहसी पुरुष थे । यही कारण है कि एक ओर तो आचार्य लोग इस जाति के क्लेवर को पुष्ट कर ही रहे थे कि दूसरी ओर इसके अन्दर प्रविष्ट होने वाले महापुरषों ने अपनी प्रतिभा के बल से क्या राजनैतिक क्या धार्मिक क्या व्यापारिक और क्या साहित्यिक इत्यादि सभी प्रकार की लाईनों में घुसकर अपने तथा अपनी जाति के नाम को अमर कर दिया।
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ओसवाल जाति का राजनैतिक और सैनिक महत्व
Oswals in the Political and military field.
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सवाल जाति की उत्पत्ति के विषय में हम गत पृष्ठों में काफी प्रकाश डाल चुके हैं। अब हम
इस जाति के राजनैतिक और सैनिक महत्त्व पर कुछ ऐतिहासिक विवेचन करना चाहते हैं। आज कल कुछ लोगों की ओर से इस जाति की राजनैतिक और सैनिक योग्यता पर संदेह प्रकट किया जा रहा है । उन लोगों का यह कहना है कि ओसवाल एक वणिक जाति है, उसका राजनीति एवम् वीरता से कोई सम्बन्ध नहीं। पर वीर राजस्थान का इतिहास के की चोट उनके इस वमन्य को भ्रमात्मक सिद्ध कर रहा है।
प्रथम तो ओसवाल जाति की उत्पत्ति प्रायः क्षत्रिय जाति से ही हुई है। इससे उनके संस्कारों ही में वीरता के तस्व न्यूनाधिक रूप से भरे हुए हैं। दूसरी बात यह है कि ओसवालों ने राजस्थान के राज्यों में बड़े २ उत्तरदायित्व के पदों पर काम किया है. इससे राजनीतिज्ञों में जिन गुणों व विशेषताओं का होना
आवश्यक होता है, वे भी इस जाति में पाये जाते हैं। हाँ, समय के प्रभाव से उनमें इन गुणों का जैसा विकास होना चाहिये वैसा वर्तमान में नहीं हो रहा है। ओसवाल ही क्यों, यही बात राजपूत और अन्य जातियों के लिए भी लागू हो सकती है । पर इससे यह मान लेना कि ओसवाल लोगों में राजनैतिक और सैनिक योग्यता का अभाव है, वास्तविकता पर असत्य का पड़दा डालना है । हमें दुःख है कि भारत सरकार ने इस जाति के लोगों के लिए सेना का द्वार बन्द कर रक्खा है । वह उनकी गिनती सैनिक जाति में नहीं करती । जिस जाति ने महान् से महान् वीर उत्पन्न किये; जिस जाति के सुयोग्य वीरों ने बड़े । युद्धों में योग्यता पूर्वक सेना का संचालन किया; जिस जाति ने मध्ययुग की भयंकर अशांति और गड़बड़ी के नाजुक समय में राजस्थान के कई प्रसिद्ध राज्यों की स्थिति को कायम रक्खा; जिस जाति के मुत्सद्दियों एवम् वीरों की राजस्थान के बड़े २ ऐतिहासिक नरपतियों ने राज्यों के अमर इतिहासकारों ने-मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है और जिन्हें राजा महाराजाओं के दिये हुए खास रुकों में तथा प्रामाणिक इतिहास ग्रन्थों में राजस्थान के रक्षक कहा गया है, हम नहीं समझते कि उनके वंशजों को सैनिक लोगों की श्रेणी से क्यों बाहर निकाला गया । यह सरासर गलती है और हम भारत सरकार के अधिकारियों का ध्यान इस ओर आकर्षित करना चाहते हैं । जब ब्राह्मणों तक को सेना में भरती किया जाता है तब ओसवाल जाति ही इससे क्यों वञ्चित रक्खी जाती है, इसका हमें बड़ा आश्चर्य है ।
जिन सज्जनों ने इतिहास के मौलिक साधनों का अवलोकन किया है तथा राजस्थान के राज्यों के
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
पुराने ऐतिहासिक कागज पत्रों को देखा है, उनसे यह बात छिपी हुई नहीं है कि राजस्थान के कई राज्यों की स्थापना में ओसवाल जाति के वीरों एवं मुत्सहियों ने बहुत बड़ा हाथ बटाया है। इतना ही नहीं, जब-जब ये राज्य विपत्ति के घोर बादलों से तथा निराशा के विषाक्त वायुमण्डल से आवृत्त हुए हैं, उस समय ओसवाल जाति के वीरों एवम् मुत्सहियों ने अपने प्राणों की आहुतियाँ देकर इनकी रक्षा की है। मध्य युग के कई नरेशों ने अपने खास रक्कों में उनकी अपर्व सेवाओं को मुक्तकंठ से स्वीकार किया है, और उन्होंने इन्हें राज्य का रक्षक मानने में तनिक भी संकोच नहीं किया है । अब हम नीचे की पंक्तियों में आधुनिक ऐतिहासिक अन्वेषणाओं के प्रकाश में यह दिखलाना चाहते हैं कि ओसवाल जाति के मुत्सहियों एवं वीरों ने जोधपुर, बीकानेर, उदयपुर, इन्दौर, किशनगढ़ आदि राज्यों के राजनैतिक और सैनिक क्षेत्रों में कैसे २ कमाल कर दिखलाये हैं।
जोधपुर
ओसवाल जाति का सब से प्रधान केन्द्र जोधपुर रहा है। इस जाति के लोगों ने जोधपुर राज्य के लिये जो महान कार्य किये हैं वे इतिहासवेत्ताओं से छिपे हुए नहीं हैं । जोधपुर नगर के बसाने वाले राव जोधाजी से हमारे पाठक भली प्रकार परिचित हैं । ईसवी सन् की पन्द्रहवीं सदी में जब राव जोधाजी का उदय हो रहा था, उस समय राव समरोजी और उनके पुत्र राव नरोजीभण्डारी ने उनको बड़ा सहयोग दिया था। ये दोनों वीर बड़े बहादुर और रण कुशल थे। मूलतः ये महाप्रतापी चौहान वंश के थे। जैनाचार्य ने इनके पितामह या प्रपितामह को जैनधर्म में दीक्षित किया था। जैनधर्म में दीक्षित होने के कारण ये लोग ओसवाल भण्डारी के नाम से मशहूर हुए । इन प्रसिद्ध वीरों के पूर्वजों के हाथ में बहुत दिनों तक नाडोल नामक सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान का राज्य रहा । समरोजी भण्डारी नाडोल के चौहान-वंश के राजाओं के वंशज थे। जब राव जोधाजी के पिता राव रिणमलजी चित्तौड़ में मारे गये और राव जोधाजी अपने ७०० सिपाहियों को लेकर मेवाड़ से चल पड़े उस समय उदयपुर के महाराणाजी ने जोधाजी का पीछा करने के लिये एक बड़ी सेना के साथ चूण्डाजी नामक एक सिसोदिया सरदार को भेजा । रास्ते में जोधाजी की सेना पर कई आक्रमण किये गये, इससे उनके कई वीर सैनिक काम आये । मारवाड़ पहुँचते २ जोधाजी के पास केवल सात सिपाही शेष रह गये । वे केवल इन्हीं सात सवारों को लेकर जीलवाड़े नामक स्थान पर पहुँचे । उस वक्त राव समराजी भण्डारी उस स्थान पर थे । उन्हें जोधाजी का पक्ष न्ययायुक्त जंचा। इसलिए उन्होंने राव जोधाजी का साथ देना अपना कर्त्तव्य समझा । उन्होंने राव जोधाजी से अरज की कि आप मारवाड़ की ओर पधारिये और मैं राणाजी की फौज को रोक रक्यूँगा । इतना ही नहीं, उन्होंने अपने पुत्र नराजी भण्डारी को ५० सवार देकर राव जोधाजी के साथ रवाना कर दिया । कहने की आवश्यकता नहीं कि राव जोधाजी और
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राजनैतिक और सैनिक महत्वं
भण्डारी मरा तो मारवाड़ को रवाना हो गये और पीछे से जब महाराणाजी की फौज आई तब शव समरोजी भण्डारी ने अपने तीन सौ वीर सैनिकों के साथ उसका मुकाबला किया। ये लोग बड़ी बहादुरी के साथ लड़े, लेकिन महाराणाजी की फौज बहुत बड़ी थी । इसलिये विजय की माला इनके गले में न पड़ सकी । राव समरा भण्डारी बड़ी बहादुरी के साथ युद्ध करते हुए अपने तीन सौ सैनिकों के साथ वीर गति को प्राप्त हुए । इस सम्बन्ध में मारवाड़ में एक छप्पय प्रसिद्ध है जिसे हम यहाँ पर उद्धत करते हैं ।
राव जोधो मेवाड़ लूटं बलियो खागांबल चढ़े राणा दिवाण पीठ लागो कल हड़कल ॥ बेलण रो तिणवार रोक उभो दल सारो । मरण काज भुज लाल राज कुशले पधारो । राव जोधारे कारणे समरे मांजी कीध चढ़ वेट दिवाण सुं नाडले नाडूलगढ़ ||
चवाण
इस तरह राव समरा भण्डारी के मारे जाने के बाद महाराणाजी की
फौजें आगे बढ़ीं। उधर राव जोधाजी ज्यों-त्यों कर मण्डर पहुँचे और वहाँ रहने का विचार करने लगे। परन्तु मेवाड़ी सेना के पीछे लगे रहने के कारण उन्हें अपना यह विचार स्थगित कर देना पड़ा। राणाजी की फौजें पीछा करती हुई मण्डोर पहुँच गईं और वहाँ उसने अपना कब्जा कर लिया । राव जोधाजी थली परगने के किसी एक गाँव में जाकर रहने लगे । इस समय उन्हें बड़ी विपत्ति में अपने दिन काटने पड़े। राव जोधाजी की इस महाविपत्ति के समय राव नराजी भण्डारी बराबर उनके साथ रहे । सेना संगठन के कार्य में राव नराजी ने बड़े उत्साह से कार्य किया । राव जोधाजी ने नरा भण्डारी तथा अपने अन्य वीर साथियों की सहायता से सेना इकट्ठी कर तथा उसका संगठन कर मण्डौर पर ई० सन् १४५३ में आक्रमण कर दिया। महाराणाजी की सेना और राव जोधाजी की सेना में तुमूल युद्ध हुआ। इस युद्ध में विजय की माला राव जोधाजी और उनके वीर सैनिकों के गले में पड़ी । मण्डोर पर जोधाजो की विजय ध्वजा उड़ने लगी और महाराणाजी की फौजें वापस लौट गईं । इस विजय में नराजी भण्डारी का बहुत बड़ा हाथ था । वे राव जोधाजी के खास सेनापतियों में थे । इसके बाद जब राव जोधाजी ने मेवाड़ पर चढ़ाई की, उस समय भी राव नराजी भण्डारी उनके साथ थे और वे बड़ी बहादुरी के साथ लड़े थे । मारवाड़ की ख्यातों में और भण्डारियों के इतिहास ग्रन्थों में नराजी भण्डारी की वीरता की प्रशंसा की गई है। राव जोधाजी ने भी इनकी सेवाओं की कद्र की और इन्हें दीवानगी तथा प्रधानगी के उच्च पदों के साथ ६००००) की जागीर भी प्रदान की। *
* भण्डारियों की ख्यात में लिखा है कि रोहट, बीसलपुर, मजल, पलासणी, धूधाड़, जाजीवाला और बनाड़ ये सात गाँव जागीर में दिये गये थे ।
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
उपरोक्त घटना ऐतिहासिक है और इससे यह पता लगता है कि आधुनिक जोधपुर के संस्थापक महावीर राव जोधाजी पर जब चारों ओर से विपत्ति के बादल मँडरा रहे थे और जब मारवाड़ राज्य का अस्तित्त्व खतरे में था उस वक्त जिन २ वीरों ने अपने प्राणों की परवाह न कर अत्यन्त प्रामाणिकता के साथ राव जोधाजी का साथ दिया था उनमें राव नराजी का नाम विशेष उल्लेखनीय है ।
इसके आगे चल कर भी भण्डारियों का सितारा खूब चमका । संवत् १५४४ में भण्डारी नाथाजी ( नारमलोत) को प्रधानगी का प्रतिष्ठित पद प्राप्त हुआ । इसके कुछ ही समय बाद भण्डारी उदोजी ( नाथावत ) को प्रधानगी और दीवानगी प्राप्त हुई ।
इनके अतिरिक्त भण्डारी पन्नोजी, भण्डारी रायचन्दजी, भण्डारी ईसरदासजी, भण्डारी भानाजी, सिंघवी शाहमलजी आदि सज्जनों ने भी जोधपुर राज्य के २ पदों पर काम किया और ये वहाँ के राजनैतिक गगन मण्डल में खूब चमके । हमारे कहने का अर्थ यह है कि राव जोधाजी को अपने राज्य विस्तार के कार्य मैं ओसवाल वीरों एवं मुत्सुद्दियों से बड़ी सहायता मिली। इसके बाद राव गङ्गाजी तथा राव मालदेवजी के समय में भी ओसवालों एवं कुछ पंचोलियों ने दीवानगी और प्रधानगी के काम किये। महाराजा उदयसिंहजी एवं महाराजा सूरसिंहजी के राज्यकाल में भी ओसवाल मुत्सद्दी बड़े २ जिम्मेदारी के पदों पर थे।
इसके आगे चलकर महाराजा गजसिंहजी के समय में ओसवाल जाति के मुत्सद्दी बड़े २ पदों पर रहे । संवत् १६७७ में महाराजा गजसिंहजी को मुग़ल सम्राट की ओर से जालौर का परगना मिला। उस समय उन्होंने सुप्रख्यात इतिहास लेखक मुणोत नेणसीजी के पिता मुणोत जयमलजी को वहाँ का शासक (Governor) बना कर भेजा। उस समय जालौर परगने की वार्षिक आय २८७७५८ थी । इन्होंने अपना कार्य बड़ी ही योग्यता के साथ किया। इस पर महाराजा ने प्रसन्न होकर इन्हें हवेली, बाग और बहुत सी ज़मीन पुरस्कार रूप में दी। संवत् १६७८ के भादवा मास में युवराज खुर्रम ने सांचौर का परगना महाराजा गजसिंहजी को दिया । वह भी जालौर में शामिल कर लिया गया और दोनों परगनों के शासक (Governor) जयमलजी नियुक्त हुए। उन्होंने वहाँ बड़ी कुशलता से शासन किया ।
जैसा कि हम ऊपर कह चुके हैं, कई ओसवाल मुत्सुद्दियों में शासन- कुशलता एवं वीरता का बड़ा ही मधुर सम्मेलन हुआ था । मुणोत जयमलजी भी इस श्रेणो के पुरुष थे। आप न केवल सफल शासक ही वरन् बड़े वीर तथा परोपकारी महानुभाव भी थे। इसके एक दो उदाहरण हम नीचे देते हैं।
जब महाराजा गजसिंहजी का सांचौर परगने पर अधिकार हुआ तब ५००० सिन्धियों ने सांचोर पर चढ़ाई कर दी। उस समय जयमलजी वहाँ के शासक थे । उन्होंने बड़ी बहादुरी से उनका
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राजनैतिक और सैनिक महत्व
मुकाबला किया। बड़ी घमासान लड़ाई हुई। सिंधी हारकर भाग छूटे और विजय श्री जयमलजी मुणोत के हाथ लगी । इस प्रकार उन्होंने और भी कुछ लड़ाइयाँ लड़ी और उनमें उन्हें सफलता प्राप्त हुई। आपके इन्हीं वीरोचित कार्यों एवं राज्य-प्रबन्ध से खुश होकर तत्कालीन जोधपुर नरेश ने आपको एक खास रुक्का इनायत किया था जो अब भी आपके वंशज हमारे मित्र श्रीयुत वृद्धराजजी मुणोत के पास मौजूद है।
___मुणोत जयमलजी न केवल राजनीतज्ञ और वीर ही थे, पर बड़े लोक सेवी भी थे । संवत् १६८७ में मारवाड़ में बड़ा भयंकर अकाल पड़ा था, उस समय आपने मारवाड़ के भूखे महाजन, सेवक और अन्य दुःखी लोगों को एक वर्ष तक मुफ्त अन्न दान देकर उच्च श्रेणी की सहृदयता और परोपकार वृत्ति का परिचय दिया था । अब हम ओसवाल जाति के महत्व को क्रियात्मक रूप से प्रदर्शित करने वाले एक दूसरे महानुभाव का परिचय देते हैं । यह महापुरुष मुणोत जयमलजी के सुपुत्र मुणोत नेणसीजी थे। मुणोत नेणसीजी
एक सुप्रसिद्ध अंग्रेज इतिहास वेत्ता का कथन है कि महान् पुरुषों के कार्यों का वर्णन ही इतिहास का प्रधान हेतु है। महान् पुरुषों की कार्य्यावली ही ऐतिहासिक घटनाएं होती हैं। मुणोत नेणसीजी ओसवाल जाति के एक ऐतिहासिक पुरुष थे। भारतीय इतिहास के गगन मण्डल में इनका नाम तेजी से चमक रहा है। शासन कुशलता, वीरता, साहित्य-प्रेम एवं विद्या-प्रेम के ये मूर्तिमंत अवतार थे। हम
ओसवाल जाति के राजनैतिक और सैनिक महत्व दिखाने के उद्देश्य से इनके जीवन पर थोड़ा सा प्रकाश डालना आवश्यक समझते हैं।
- मुणोत नेणसी का जन्म संवत् १६६७ की मार्गशीर्ष सुदी ४ को हुआ था। संवत् १७१४ में महाराजा जसवन्तसिंहजी ने इन्हें अपना दीवान बनाया। उस समय उनकी अवस्था ४७ वर्ष की थी। उन्होंने दीवानगी के काम को बड़ी उत्तमता के साथ संचालित किया।
जिस समय का यह जिक्र है उस समय भारतवर्ष में सम्राट औरङ्गजेब के अत्याचारों से तंग भाकर दक्षिण और पंजाब के हिन्दुओं में अद्भुत् जागृति की . लहर उठ रही थी। राजस्थान में राजनैतिक षड्यंत्रों का जाल बिछाया जा रहा था, राजाओं का पारस्परिक वैमनस्य राजस्थान के भविष्य को
अंधकाराच्छन्न कर रहा था । ऐसे कठिन समय में राज्य शासन का सूत्र सञ्चालित करना कितना कठिन होता है, उसको यहाँ बतलाने की आवश्यकता नहीं । महाराजा जसवंतसिंहजी को अक्सर जोधपुर से बाहर रहना पड़ता था। वे औरंगजेब के द्वारा कभी किसी प्रान्त के और कभी किसी प्रांत के शासक (Governor'; बनाये जाते थे। कई वक्त औरंगजेब की ओर से उन्हें युद्धों पर भी जाना पड़ता था। इस.
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सवाल जाति का इतिहास
लिये जोधपुर का शासन भार वे अपने परम विश्वसनीय प्रधान मुणोत नेणसी के सुपुर्द कर निश्चिंत रहते थे। महाराजा ने मुणोत नैणसी के राज्य को प्रायः सब अधिकार दे रक्खे थे । यहाँ तक कि उन्हें जागीर तक देने का अधिकार दे रक्खा था। हाँ, समय २ पर महाराजा साहब इनके नाम पर सूचनाएँ अवश्य भेज दिया करते थे जैसा कि महाराजा जसवंतसिंहजी के निम्नलिखित पत्र से प्रकट होता है ।
"सिध श्री महाराजधिराज महाराजाजी श्री जसवंतसिंहजी वचनानु मु० नेनसी दिये सुप्रसाद बांचिजो । अठारा समाचार भला छे । थांहरो देजो । लोक, महाजन, रेत (प्रजा) री दिलासा किजो । कोई 'किण ही सो जोर ज्यादती करण न पावे। कांठोकोरारो जापतो कीजो । कँवर रे डीलरा पान पाणीरा जतन करावजी " ।
"अरज दास थांहरी जोधपुर फिर आई । हकीकत मालुम हुई । थे रुगनाथ लखमी दासोत मुँ पटो दिये गाँव ३ सुभलो कीनो” ।
उक्त पत्र मारवाड़ी भाषा में है। इसमें महाराजा जसवंतसिंहजी ने अपने दीवान मुणोत नेणसी को लिखा है:
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"लोक, व्यापारी और प्रजा को तसल्ली देते रहना । कोई किसी से जोर ज्यादती न करने पावे । सरहद का प्रबन्ध रखना । राजकुमार के खाने पीने की ठीक व्यवस्था रखना । तुमने राठौड़ रूगनाथ लक्ष्मीदासोत को जो पटा दिया सो ठीक किया"
उल्लेखनीय कार्य
मुणोत नेणसीजी मे दीवान पद पर अधिकारारूद होते ही मारवाड़ में शान्ति स्थापन कार्य आरंभ किया । बहुत सी बगावतों को दबाकर उन्हों ने प्रजा में अमन और चैन पैदा किया। प्रजा के सुख दुःख की बातें वे बड़े गौर से सुनने लगे। उन्होंने महाराजा जसवंतसिंहजी से निवेदन कर प्रजा पर लगी हुई कई लागे की माफ करवाया । संवत् १७१८ के पौष मास में मेड़ता परगने के कोई दस गाँवों के जाट लोगलागें और बेगार का विरोध करने को आपकी सेवा में उपस्थित हुए । उन्होंने इन्हें आँसू भरी आँखों से अपने दुखों की कहानी कही । सहृदय दीवान मुणोत नेणसी ने उनकी लागे माफ कर दीं और तत्काल ही मेड़ते के हाकिम भण्डारी राजसी को इस संबन्ध का हुक्म भेज दिया। इस प्रकार के उनकी प्रजा प्रियता के इतिहास में और भी उदाहरण मिलते हैं। उन्होंने अपनी ख्यात में इन बातों का विस्तृत विवरण लिखा है ।
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राजनैतिक और सैनिक महत्व
मुणोत नेणसी और मर्दुमशुमारी
कुछ लोगों का कथन है कि मर्दुमशुमारी की पद्धति आधुनिक युग का आविष्कार है। पर दर असल यह बात नहीं है । मौर्य साम्राज्य में मर्दुमशुमारी की प्रथा मौजूद थी और इसका जिक्र कौटिल्य ने अपने सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्र में किया है । पर जान पड़ता है कि इसके बाद बीच में यह प्रथा विलुप्त हो गई थी। क्योंकि बीच में कहीं भी इस प्रथा का उल्लेख नहीं मिलता है।
मध्ययुग में मुणोत नेणसी के द्वारा इस प्रथा का आविष्कार देखकार बड़ा आश्चर्य होता है। आपने एक पंचवर्षीय रिपोर्ट लिखी थी। हमने इसकी हस्तलिपि आप के वंशज जोधपुर निवासी श्रीवृद्धराजजी मुणोत के पास देखी थी । इसमें उन्हों ने मारवाड़ के परगने, ग्राम, ग्रामों की आमदनी, भूमि की किस्म साखों का हाल, तालाब, कुए विभिन्न जातियों के वृत्तान्त आदि अनेक विषयों का बड़ा ही सुन्दर विवेचन किया है। हम अपने पाठकों की जानकारी के लिए मुथा नेनसी द्वारा कराई गई मर्दुमशुमारी की कुछ तफसील देते हैं।
संवत् १७२० के कार्तिक बदी १० को मेड़ता नगर की मर्दुमधुमारी की गई जिसका परिणाम इस प्रकार है। २१५८ महाजन-ओसवाल, महेश्वरी, अग्रवाल, खण्डेलवाल
१३७१ ५५१ १६१ ०५ ३५४ भोजग, खत्री, भाट, निरतकाली
२८२ १० २८ ४ १६९ ब्राह्मण
पोहकर्ण , राजगुरु, गुर्जरगौड़, पारीख, दाहिमा, सारस्वत
८२ १३ १२ १.० ५. ४ खण्डेलवाल, शिखवाल उपाध्याय, श्रीमाली, गुजराती, गोद, सनाढ्य
५५ कायस्थ-वीसा, दसामाथुर और भटनागर
१११ खत्री राजपूत
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ओसवाल जाति का इतिहास
३०० मुसलमान-पठान, तरकस बन्ध तोपची, देशवाली, तबीब
२१२५ पवनजात
माली, दर्जी, सुनार, नाई हिन्दू, सुके, गिरधरे, तेली, नीलगर, छीपे, कलाल . १८२ १४ ९१ ५६ ३४ ६ ६२ ० ५। ३१ सिकलीगर, ओडवेलदार, कहार, कसारे ठठेरे, लोहार, खाती, तमोली हिन्दू, तुर्क, मोची हिंदू १२ . ०
२७ ॥ ५५ ॥ १२ ८४ तुर्क, साबुगर, कुम्हार, जटिया, घोसी, गांछे, तीरगर, बाजदार, लखारे, मरावे, पिंजारे, ५३ २० ३४ ३० ३३ ८ ६ ३५ १ १ ५७ सिलावट हिन्दू, तुर्क, धोबी हिन्दू, तुर्क, सौदागर, नालबंध, जुलाहे, मुलतानी, कस्साब,
४ ३४ ४२ ६९ २१ ३ २९३ १०५ ४४ खेरादी, तबाब, कुञ्जदे, डाकोत, चितेरे, खटीक खालरंगों, बलाई, जटिया अघोड़ी रंगे,
२६
नगर नायिका, आचार्य सरगम २१
. " फकीर घरवारी
५८६०
संवत् १७१९ में जेतारण की मर्दुमशुमारी की गई जिसकी तफ़सील निम्नलिखित है। महाजन, ब्राह्मण, फुटगर जाति के कुल घर आबाद थे ।
७२० २६८ ८५० १८३८ संवत् १७१६ में सोजत की मर्दुमशुमारी की गई थी जिसकी तफसील इस प्रकार है।
महाजन, कायस्थ, काश्तकार, राजपूत, मुसलमान, ब्राह्मण, पवन मुतफर्रिक जाति,
७३८ ८ ३०५ १४२ २ ३६४ ६२५ कुछ १२५४ घर आबाद थे।
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संवत् १७२१ में सवाणा की मर्दुमशुमारी हुई जिसकी तफसील इस प्रकार है ।
महाजन, ब्राह्मण, सुनार, कुम्हार, भोजग, सुतार, तुर्क, पिंजारा छीपे, माई,
८१
२५
१०
२
४
४
४०
1
२
डेड, थोरी, जागरी, राजपूत, कुछ २८३ घर आबाद
थे 1
१६ २
1
९५
संवत् १७२१ में जोधपुर के हाट में दुकानों की गिनती लगाई तो उस समय कुल ८१५ दुकानें Eगी थीं फलोधी की मर्दुमशुमारी की तफ़सील इस प्रकार है ।
महाजन भोसवाल, माहेश्वरी, ब्राह्मण ( पुष्कर्णा ), फुटकर जाति
१२१ २११
१०४
कुल ६५७ घर आबाद थे ।
१ जोधपुर परगना
99
२ सोजत
३ जैतारण
संवत् १७२१ की भविन कृष्णपक्ष दशमी को जोधपुर राज्य के परगनों की कुल मदुमशुमारी की गई जिसमें प्रत्येक परगने में कुल कितने गाँव है उनमें से कितने आबाद है; कितने वीराम है और कितने वारण भाट आदि लोगों को दान में दे दिये गये हैं। इन सब की तफसील नीचे दी जाती है। नाम परगना
कुळ ग्राम
वीरान
"
"
४ फलौदी
५ मेड़ता
६ सिवाणा "
● पोकरण
१२१
""
"2
११६७
२४४
१५२
૬૭
३८४
१४४
८५
२२४४
आबाद
८०२३
१७९
१०५
४९
२९८॥
९४
४१
१५६८।।
* वे गाँव जो चारण भाटों को दान में दिये गये थे ।
४९
२२० ॥
३२
२९
१०
१०
राजनैतिक और सैनिक महत्व
२०
२८
३७९॥
सांसण
१४४
३३
१८
९
४५॥
३०
18
२९५॥
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मोसवाल जाति का इतिहास
उपरोक्त मर्दुमशुमारी के उक्त अंकों से पाठकों को यह ज्ञात हुआ होगा कि मध्य युग के अशान्तिमय जमाने में भी मुणोत नैनसी ने मर्दुमशुमारी करने की आवश्यकता को महसूस किया था। आपकी हस्तलिखित पंचवर्षीय रिपोर्ट से यह भी प्रतीत होता है कि उन्होंने मारवाड़ से सम्बंध रखने वाली सूक्ष्म से सूक्ष्म बातों का भी विवेचन किया है। वह रिपोर्ट क्या है; तत्कालीन मारवाड़ का जीता जागता चित्र है । जिस प्रकार आधुनिक सरकारें अपने २ राज्यों की छोटी से छोटी बातों का रिकॉर्ड रखती हैं, उसी प्रकार मुणोत नैनसीजी ने उस जमाने में भी रक्खा था। यह एक ऐसी बात है जो तत्कालीन एक ओसवाल राजनीतिज्ञ की उच्च श्रेणी की शासन-योग्यता पर अच्छा प्रकाश डालती है। इस प्रकार और भी कई प्रकार के कार्य मुणोत नैनसीजी ने किये थे जिनका वर्णन भागे चल कर मुणोतों के इतिहास में किया जायगा ।
दीवान मुणोत कर्मसीजी
मुणोत नैनसीजी के बाद उनके पुत्र करमसीजी भी बड़े प्रतापी और वीर हुए । जब संवत् १७१४ में महाराजा जसवंतसिंहजी सम्राट शाहजहाँ की ओर से शाहजादा औरंगजेब के खिलाफ सेना लेकर उज्जैन गये थे उस समय मुणोत करमसीजी उनके साथ थे। आप फतियाबाद के युद्ध में बड़ी बहादुरी के साथ लड़े
और घायल हुए । संवत् १७१८ में आप महाराजा जसवंतसिंहजी के साथ गुजरात की चढ़ाई पर भी गये थे। जब महाराजा को बादशाह की ओर से हाँसी और हिसार के परगने मिले तब अहमदाबाद मुकाम से महाराजा ने आपको वहाँ का शासक (Governor ) नियुक्त कर भेजा । इन परगनों की वार्षिक आय करीब १३००००० की थी, और ये गुजरात के सूबे के बदले में मिले थे। मुणोत करमसीजी संवत् १७३२ तक वहाँ के शासक रहे । इसके बाद नागोर के तत्कालीन नरेश रायसिंहजी ने इन्हें अपना दीवान बनाया और सारा राज्य कारोबार इनके सिपुर्द कर दिया ।
मुणोत करमसीजी के बाद मुणोत चन्द्रसेनजी भी अच्छे नामांकित हुए । ये किसी तरह दक्षिण में पहुँच गये और पेशवा के पास नौकर हो गये । यहाँ उसके ताबे में १०० घुड़सवार थे। नाना फड़नवीस इनसे बहुत खुश थे । उन्होंने इन्हें दिल्ली का वकील बनाकर भेजा था । धार और झांसी की किलेदारी पर भी आप मुकर्रर किये गये थे ।
इनके अतिरिक्त मेहता कृष्णदास, मेहता नरहरीदास, भण्डारी ताराचन्द, भण्डारी अभयराज, (रायमलोत) सुराणा ताराचन्द्र आदि ओसवाल सजनों ने भी महाराजा यशवंतसिंहजी के जमाने में राज्य की बड़ी २ सेवाएँ की थीं। इतना ही नहीं, फतेहाबाद के युद्ध में ये सब लोग बड़ी बहादुरी से युद्ध करते हुए मारे गये थे।
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राजनैतिक और सैनिक महत्व
महाराजा अजितसिंह और ओसवाल मुत्सद्दी
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महाराजा जसवंतसिंहजी के बाद महाराजा अजितसिंहजी जोधपुर के राज्य सिंहासन पर बिराजे । कहने की आवश्यकता नहीं कि जिस समय महाराजा अजितसिंहजी का उदय हो रहा था, उस समय भारत के राजनैतिक गगन मण्डल में विविध प्रकार के षड्यंत्रों की सृष्टि हो रही थी। बादशाह औरगजेब की अत्याचार पूर्ण नीति ने मुगल साम्राज्य की नींव खोखली कर दी थी। जब तक औरंगजेब जीवित रहा तब तक मुगल सम्राज्य ज्यों त्यों कर कायम रहा, पर ज्योंही उसने इस संसार से कूँच किया त्योंही उसकी नींव हिलने लगी । सम्राट् औरंगजेब के बाद जितने मुगल सम्राट् हुए वे सब कमजोर और राजनीति से शून्य थे विजीर और शक्तिशाली राजाओं ने उन लोगों को अपने हाथ की कंठपुतलियाँ बना रखा था। महाराजा अजितसिंहजी ने भी मुगाल सम्राटों की इस कमजोरी से खुब फायदा उठाया और वे बड़े शक्तिशाली बन गये। अगर हम यह कहें तो अत्युक्ति न होगी कि भारत की तत्कालीन राजनीति के मैदान में उन्होंने बड़े २ खेल खेले । उस समय उनके पास बड़े २ राजनीति धुरंधर मुत्सद्दी थे जिनमें भण्डारी खींवसी और भण्डारी रघुनाथसिंह का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इन दोनों महानुभावों ने न केवल जोधपुर राज्य की राजनीति ही में महत्वपूर्ण भाग लिया वरन् अखिल भारतवर्षीय राजनीति के क्षेत्र में भी बहुत बड़े मार्के के काम किये । फारसी और अंग्रेजी के इतिहास ग्रन्थों में इनके कार्यों का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया गया है। . भण्डारी खींवसी
भण्डारी खींवसीजी बड़े सफल राजनीतिज्ञ थे । तत्कालीन मुगल सम्राट पर उनका बड़ा प्रभाव था । मुगल साम्राज्य की सरकार के पास जब जब जोधपुर राज्य की हित रक्षा का प्रश्न उपस्थित होता था सब तब आप बादशाह की सेवा में हाजिर होकर बड़ी चतुराई के साथ जोधपुर राज्य सम्बन्धी प्रश्नों का फैसला करवा लेते थे । आपको महीनों नहीं वर्षों तक मुगल सम्राट के दरबार में रहना पड़ता था। . इतना ही नहीं उस वक्त के कमजोर मुगल सम्राटों को बनाने और बिगाड़ने का काम तक आपको करना पड़ता था । जब संवत् १७७६ में बादशाह फर्रुखशियर को उसके वजीर सैयद बन्धुओं ने मरवा डाला, उस वक्त महाराजा अजितसिंहजी ने राजा रत्नसिंहजी एवं भण्डारी खींवसीजी को दिल्ली के लिये रवाना किया। इन्होंने दिल्ली पहुंचकर नवाब अब्दुल्लाखों की सम्मति से शाहजादा मुहम्मदशाह को तख्त पर बिठा दिया। फारसी तवारिखें भा भण्डारी खींवसीजी की तत्कालीन राजनैतिक गतिविधियों का सुन्दर विवेचन करती हैं।
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औसवाल जाति का इतिहास
भण्डारी खींवसीजी धार्मिक वृत्ति के महापुरुष थे और इससे आपने अपने बढ़े हुए प्रभाव का उपयोग प्रायः प्रजाहित के कार्यों में किया। उन्होंने मुगल सम्राट् के द्वारा हिन्दुओं पर लगाये जानेवाले जजिया करको माफ करवाया। यह एक ऐसा कार्य या कि जिसके कारण चारों ओर उनकी बड़ी प्रशंसा हुई।
__ भण्डारी खींवसीजी जोधपुर के सर्वोच्च प्रधान के पद पर अधिष्ठित थे। ये बड़े सत्यप्रिय, निर्भीक और अपने स्वामी को सच्ची सलाह देनेवाले थे। महाराजा अजितसिंहजी के साथ एक समय मतभेद होने पर इन्होंने अपना पद त्याग दिया । पीछे संवत १७८१ में महाराजा अजितसिंहजी के पुत्र महाराजा अभयसिंहजी के गद्दी मशीन होने पर इन्हें फिर प्रधानगी का उच्च पद प्राप्त हुआ। संवत १७४२ में फिर किसी कारण वश आप प्रधान पद से जुदा हो गये, पर महाराजा अभयसिंहजी आपका इतना सम्मान करते थे कि आपने आपका प्रधानगी का तमाम लवाजमा ज्यों का त्यों कायम रखा । जब इसी साल जेठ बदी ६ को खींवसिीजी का देहान्त हुआ तब महाराजा अभयसिंहजी दिल्ली में थे । कहने की आवश्यकता नहीं कि खींवसी की मृत्यु का संवाद सुनकर वे बड़े दुःखित हुए। उनके शोक में महाराज साहब ने एक वक्त अपनी नौबत बंद रक्खी तथा आप स्वतः भण्डारी खींवसीजी के पुत्र अमरसिंहजी के डेरे पर मातम पुरसी के लिए पधारे । उन्होंने अमरसिंहजी को बड़ी सांत्वना दी और उन्हें अपने पिता खींवसीजी की जगह अधिष्ठित कर सिरोपाव, पालकी और हाथी पर बैठने का कुरुब प्रदान किया।
____ खींवसीजी ओसवाल जाति के महापुरुष थे। जोधपुर राज्य से उन्हें ऊँचे से ऊँचा सन्मान प्राप्त था । तत्कालीन मुगल सम्राट भी उनका बड़ा आदर करते थे। उनका इतिहास बहुत विस्तृत है, इसे हम आगे चलकर भण्डारियों के इतिहास में देंगे । इस वक्त सिर्फ ओसवाल जाति के राजनैतिक महत्व को दिखसामे के लिये हमने उनके एक दो महान् कार्यों का उल्लेख मात्र किया है। राय भण्डारी रघुनाथसिंह
महाराजा अजितसिंहजी के राज्य-काल में भण्डारी खींवसीजी की तरह ये भी एक महा शक्तिशाली पुरुष हो गये । ये दीवानगी के उच्चपद पर प्रतिष्ठित थे । इनमें शासन-कुशलता और रण-चातुर्य का अद्भुत् सम्मेलन हुआ था। इन्होंने गुजरात में महाराजा की ओर से कई युद्धों में बड़ी कुशलता से सेना का संचालन किया था । महाराजा अजीतसिंहजी ने गुजरात में की गई इनकी बड़ी २ करतबगारियों से प्रसन्न होकर, इन्हें कई खास रुक्के ( Certificates ) प्रदान किये थे । इन रुक्कों में उनके कार्यों की बड़ी प्रशंसा की गई है और गुजरात विजय का बहुत कुछ श्रेय उन्हें दिया गया है।
इसके अतिरिक्त जिस प्रकार खींवसीजी मे शाही दरबार में महाराज की ओर से बड़े २
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ओसवाल जाति का इतिहास
श्री भण्डारी खींवसीजी, जोधपुर.
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अर
म
रायरायन भण्डारी रघुनाथसिंहजी, जोधपुर.
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राजनैतिक और सैनिक महत्व
कार्य किये , उसी प्रकार भण्डारी रघुनाथसिंहली ने भी किये। उन्हें कई वक्त जोधपुर राज्य की हितरक्षा के लिये मुगल सम्राट की कोर्ट में हाजिर होना पड़ता था और वे अपने काम को बड़ी कुशलता से बना लाते थे।
महाराजा अजितसिंहजी का इनकी योग्यता पर बड़ा विश्वास था। कर्नल वाल्टर साहब का कथन है कि जब महाराजा अजितसिंहजी देहली में विराजमान थे सब भण्डारी रघुनाथसिंह ने अपने स्वामी के नाम से कुछ समय तक मारवाड़ का शासन किया था। यह बात नीचे लिखे हुए दोहे से भी प्रकट होती है।
“करोड़ा द्रव्य लुटायो, हौदा ऊपर हाथ ।
अजे दिली रो पातशा राजा तू रघुनाथ ॥" अर्थात् जिस समय महाराजा अजितसिंहजी दिल्ली पर शासन कर रहे थे उस समय मारवाड़ के भण्डारी रघुनाथसिंह राज्य के सब कार्यों को करते थे।
उपरोक्त बात से राय भण्डारी रघुनाथसिंहजी का राजनैतिक महत्व स्पष्टतया प्रकट होता है। महाराजा मजितसिंहजी ने आपको बड़े २ सम्मानों से विभूषित किया था। आपको भी महाराजा साहब ने पालकी, * हाथी आदि पर बैठने का सम्मान प्रदान कर आपकी सेवाओं की कद्र की थी। इसके अतिरिक भापको "राप" को सर्वोच्च उपाधि भी प्राप्त थी। राज्य के ऊँचे से ऊँचे सरदारों की तरह महाराजा साहब भापको ताजीम देते थे। एक समय महाराजा अजितसिंहजी ने अपने हाथी पर पीछे की बैठक देकर आपका बहुत सम्मान किया था।
कहने का भाशय यह है कि राय भण्डारी रघुनाथसिंहजी अपने समय में जोधपुर राज्य के राजनै. तिक गगन मण्डल में बहुत ही तेजस्विता के साथ चमके थे। इनकी कर्तबगारियों का उल्लेख फ़ारसी इतिहास लेखकों ने तथा तत्कालीन मारवादी ख्यातों के लेखकों ने बहुत ही उत्तमता के साथ किया है। सरकारी कागज़-पत्रों में भी इनके कामों के जगह २ उल्लेख मिलते हैं।
भण्डारी अनोपसिंहजी
भण्डारी अनोपसिंहजी राय भण्डारी रघुनाथसिंह के पुत्र थे। आप बड़े बहादुर तथा रणकुशल थे। आप संवत् १७६७ में महाराजा अजितसिंहजी द्वारा जोधपुर के हाकिम नियुक्त किये गये। कहने की आवश्यकता नहीं कि उस समय की हुकुमत आजकल की सी शांतिमय नहीं थी। आंतरिक इन्तजामी
* उस जमाने में राजपूताने में हाथी तथा पालकी का सम्मान सबसे ऊँचा सम्मान माना जाता था।
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
मामलों के साथ २ हाकिम को वाह्याक्रमणों से भी अपने नगर की रक्षा के साधन जुटाने पड़ते थे । दूसरे शब्दों में यों कहिये कि उस समय हाकिम पर सिविल और मिलिटरी (Civil and military) दोनों कामों का उत्तरदायित्व रहता था, भण्डारी अनोपसिंहजी ने अपने इस उत्तरदायत्व का बहुत ही उत्तमता से पालन किया ।
भण्डारी अनोपसिंहजी बड़े वीर और अच्छे सिपहसालार थे । जब संवत् १७७२ में मुग़ल सम्राट की ओर से भण्डारी अनोपसिंहजी को नागौर का मनसब मिला तब महाराजा ने आपको व मेड़ते हाकिम भण्डारी पोमसिंहजी को नागौर पर अमल करने के लिये भेजा। उस समय नागौर पर राठौड़ इन्द्रसिंहजी का शासन था । आप भी सजधजकर इन दोनों हाकिमों का मुकाबिला करने के लिये आगे बढ़े। घमासान युद्ध हुआ जिसके फल स्वरूप इन्द्रसिंहजी की फ़ौज भाग गई और भण्डारी अनोपसिंहजी की विजय हुई। इन्द्रसिंहजी को तब नागौर खाली कर बादशाह के पास देहली जाना पड़ा। नागौर पर संवत् १७७३ के श्रावण कृष्ण सप्तमी को जोधपुर की विजय ध्वजा उड़ाई गई ।
संवत् १७७६ में जब बादशाह फर्रुखशियर मारा गया तब महाराजा अजितसिंहजी ने इन्हें फौज देकर अहमदाबाद भेजा था। वहाँ पर भी आपने बड़ो बहादुरी दिखलाई थी। इस प्रकार भण्डारी अनोपसिंह मी ने छोटी-मोटो कई लदाइयों में भाग लिया। उन सब के उल्लेख करने की यहाँ पर
आवश्यकतानी।
भण्डारी रत्नसिंह
राजनैतिक और सैनिक दृष्टि से ओसवाल समाज में रत्नसिंह भण्डारी की गणना प्रथम श्रेणी के मुत्सदियों में की जा सकती है। आप बड़े वीर, राजनीतिज्ञ, व्यवहार-कुशल और कर्तव्यपरायण सेना. पति थे। मारवाड़ राज्य के लिये इन्होंने बड़े २ कार्य किये। मुग़ल सम्राट की ओर से संवत् १७९० में मारवाड़ के महाराजा अभयसिंहजी अजमेर और गुजरात के शासक (Governor) नियुक्त हुये थे। तीन वर्ष पश्चात् महाराजा अभयसिंहजी रत्नसिंहजी भण्डारी को अजमेर और गुजरात की गवर्नरीका कार्य सौंप कर देहली चले आये। तब संवत् १७९३ से लगाकर सं० १७९७ तक रतनसिंह भण्डारी ने अजमेर
और गुजरात की गवर्नरी का संचालन किया, गवर्नर का कार्य करते हुए इन चार वर्षों में उन्हें अनेक युद्ध करने पड़े। कहने की आवश्यकता नहीं कि उस समय देश में चारों ओर अशांति छाई हुई थी। घरेलू झगड़ों ने मुगल साम्राज्य को पतन के अभिमुख कर रखा था। मरहठों का जोर दिन पर दिन बढ़ता जा रहा था। ऐसी विकट परिस्थिति में अजमेर और गुजरात का गवर्नर बना रहना रतनसिंह जैसे चतुर और वीर योद्धा ही का काम था।
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राजनैतिक और सैनिक महत्व
भण्डारी पौमसिंह भी अच्छे नामांकित पुरुष हुए। सं० १७७. में जब नवाब सैयद हसनअली मारवाद पर चढ़ आया तब आपने जोधपुर के किले की बहुत ही अच्छी तरह किले बन्दी की थी। संवत् १७७६ में भण्डारी अनोपसिंहजो के साथ भण्डारी पौमसिंहजी भी अहमदाबाद गये थे और वहाँ पर आपने अपने रण-चातुर्य का अच्छा परिचय दिया ।
भण्डारी सूरतरामजी भी महाराजा अभयसिंहजीके समय में बड़े नामांकित पुरुष हो गये हैं। सं० १८०० में जयपुर नरेश जयसिंहजी की मृत्यु के बाद जोधपुर के महाराजा अभयसिंहजी ने भण्डारी सूरतरामजी आलनियावास के ठाकुर सूरजमलजी और रूपनगर के शिवसिंहजी को अजमेर पर अधिकार करने के लिए भेजा । इन्होंने युद्ध कर अजमेर पर मारवाड़ का झण्डा फहरा दिया।
इसी प्रकार महाराजा अजितसिंहजी और महाराजा अभयसिंहजी के राज्य काल में और भी कई ओसवाल महानुभाव बड़े २ जिम्मेदारी के पदों पर अधिष्ठित हुए और उन्होंने राज्य की बड़ी २ सेवाएँ की।
महाराजा अजितसिंहजी और महाराजा अभयसिंहनी के राज्य काल में होने वाले बड़े २ ओस. वाल मुत्सुदियों का वर्णन हम गत पृष्ठों में कर चुके हैं। महाराजा अभयसिंहजी के बाद महाराजा रामसिंहजी एवं महाराजा बखतसिंहजी जोधपुर के तख्त पर बिराजे । इनके समय में भी ओसवाल मुत्सुदियों ने बडे २ पदों पर काम किया पर इस लेख में हम केवल उन्हीं थोड़े से महानुभावों का परिचय दे रहे हैं जो राजस्थान के इतिहास के पृष्ठो में अपना नाम चिरस्मरगीय कर गये हैं। इस दृष्टि से उन दोनों नरपतियों के राज्यकाल के ओसवाल मुत्सहियों के कार्य काल पर प्रकाश न डाल कर हम महाराजा विजयसिंह जी के राज्य-काल में कदम रखते हैं। महाराजा विजयसिंहजी और ओसवाल मुत्सद्दी
शमशेर बहादुर शाहमलजी-महाराजा विजयसिंहजी के समय में कई बड़े-बड़े भोसवाल मुत्सुद्दी हुए। उनमें सब से पहले हम रावराजा शमशेर बहादुर शाहमलजी लोदा का उल्लेख करते हैं। सम्वत् १८४० में आप जोधपुर पधारे । यहाँ आपको फौज की मुसाहिबी (Commander-in-Chief) का प्रतिष्ठित पद मिला। आपने कई युद्धों में सम्मिलित होकर बड़े-बड़े बहादुरी के काम किये । सम्वत् १८४९ में आप गोड़वाड़ प्रांत में होने वाले एक युद्ध में सम्मिलित हुए। इसी साल जेठ सुदी १२ के दिन महाराजा विजयसिंहजी ने आपके कार्यों से प्रसन्न होकर आपको “रावराजा, शमशेर बहादुर" की
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श्रीसवात जाति का इतिहास
पुश्तैनी पदवी प्रदान की। आपके छोटे भ्राता को भी वंशपरम्परा के लिए राव की पदवी प्रदान की गई। इतना ही नहीं, आपको महाराजा विजयसिंहजी ने २९०००) प्रतिवर्ष के आय की जागीरी और पैरों में सोना पहनने का अधिकार प्रदान किया । आपको हाथी और सिरोपाव का उच्च सम्मान भी प्राप्त हुआ था । सिंघी जेठमलजी
महाराजा विजयसिंहजी के समय में सिंघी जेठमलजी (जोरावर मलोत ) भी नामांकित पुरुष हुए। सम्वत् १८११ में मेड़ते में मरहठों के साथ महाराजा जोधपुर का जो भीषण युद्ध हुआ था उसमें ये भी बड़ी बहादुरी के साथ लड़े थे। महाराजा विजयसिंहजी ने भी आपकी बहादुरी की बड़ी तारीफ की है। उक्त महाराजा सम्वत् १८११ के चैत्र बुदी ७ के रुक्के में सिंघी जेठमलजी को नीचे लिखे समाचार लिख कर उन पर अगाध विश्वास प्रकट करते हैं।
"गढ़ ऊपर तुरकियो मिल गयो ५ चैत्र खुदी : ने बारला हाको कियो निपट मज़बूती राखने मार हटाय दिया तूं चाकरी कठा तक फरमावा" ... इसी प्रकार आपने और भी कुछ छोटी-मोटी कई लड़ाइयाँ लड़ी। सम्वत् १८१७ में चांपावत सबलसिंहजी ने २७ सरदारों और ४०० घुड़सवारों सहित जोधपुर राज्य के बिलाड़ा नामक ग्राम पर आक्रमण किया। उस समय सिंघी जेठमलजी बिलाड़े के हाकिम थे। वे सिर्फ ४० घुड़सवारों को लेकर दुश्मन पर टूट पड़े। बड़ा भीषण युद्ध हुआ। बागी सबलसिंह और उसके साथ वाले २२ सरदार मारे गये। जेठमलजी बहुत ही वीरता के साथ युद्ध करते हुए काम आये। आपके लिए यह लोकोक्ति मशहूर है कि 'सिरकट जाने पर भी आप लड़ते रहे।' इसलिए आप जुझार कहलाये। बिलाड़े के तालाब पर आपकी छत्री बनी हुई है जहाँ पर लोग आपकी मूर्ति को जुझारजी के नाम से सम्बोधित कर पूजते हैं। प्रत्येक श्रावण सुदी ५ की उस छतरी पर बड़ा उत्सव होता है। सिंघी भीवराजजी
महाराजा विजयसिंहजी के शासनकाल में सिंघी भीवराजजी का नाम भी विशेष उल्लेखनीय है। सम्बत् १८२४ की फाल्गुन बुदी १० को महाराजा साहब ने आपको बक्षीगिरी (Commander-in-Chief) के प्रतिष्ठित पद पर अधिष्ठित किया। ये पदे वीर और रणकुशल सेनाध्यक्ष थे। आपने कई लड़ाइयाँ छड़ी। आपके वीरोचित कार्यों से प्रसन्न होकर महाराजा साहब ने आपको ६०००) की रेख के चार गाँव इनायत किये ।
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राजनैतिक और सैनिक महत्व
सम्वत् १८३४ में जब मरहठों की फौजें ढूंढाड़ * लूट रही थीं, तब वीरवर भीवराजजी १५००० सेना के साथ वहाँ पर भेजे गये । जयपुर और जोधपुर की फौजों ने मिलकर मरहठों को शिकस्त दी । इस युद्ध में सिंघी भींवराजजी ने बड़ी वीरता दिखलाई जिसकी प्रशंसा खुद तत्कालीन महाराजा जयपुर ने की थी । तत्कालीन जयपुर नरेश ने जोधपुर दरबार को जो पत्र लिखा था, उसमें निम्नलिखित वाक्य थे । " भीमराजजी और राठौड़ वीर हों और हमारी आम्बेर रहे
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अर्थात- भींवराजजी और राठोड़ वीरों की ही बदौलत इस समय आम्बेर की रक्षा हुई है। कहने का अर्थ यह है कि महाराजा विजयसिंहजी के शासन काल में भी ओसवाल मुस्सुदियों ने बड़े ९ कार्य किये जिनमें से कुछ के उदाहरण हमने ऊपर की पंक्तियों में दिये हैं ।
महाराजा मानसिंहजी और
सवाल
मुत्सुद्दियों की कारगुजारी — महाराजा विजयसिंहजी के बाद संवत् १८५० में महाराजा भीमसिंहजी मारवाड़ के राज्य सिंहासन पर बिराजे। इनके समय का शासन सूत्र भी प्रायः ओसवाल मुत्सुद्दियों के हाथ में था। पर आपके समय में कोई ऐसी घटना नहीं हुई जिसका इतिहास विशेष रूप से उल्लेख कर सके । इसलिये हम आपके राज्यकाल को छोड़कर महाराजा मानसिंहजी के काकाल की ओर अपने पाठकों का ध्यान आकर्षित करते हैं ।
जिस समय महाराजा मानसिंहजी ने जोधपुर के शासन सूत्र को अपने हाथ में लिया था उस समय सारे भारतवर्ष में अराजकता की ज्वाला सिलग रही थी । मुगल साम्राज्य अपनी अंतिम सांसे ले रहा था और मरहठा वीर छत्रपति शिवाजी के आदर्शों को छोड़ कर इधर उधर लूटमार में लगे हुए थे। राजस्थान के राजागण एकता के सूत्र में अपने आपको बांधने के बजाय एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे थे । भारतवर्ष की इन बिखरी हुई शक्तियों का फायदा उठाकर ब्रिटिशसत्ता अपने पैर चारों ओर फैला रही थी । महाराजा मानसिंहजी का राज्यकाल एक दुःखान्त नाटक है जिसमें हमें हिन्दुस्थान की सारी निर्बलताओं के दर्शन होते हैं जिनसे कि यह भारतवर्ष इस अवस्था को पहुँचा है ।
कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसे विकट समय में ओसवाल मुत्सद्दियों ने महाराजा मानसिंह सदा चिरस्मरणीय रहेंगी । इन सेवाओं के विषय में कुछ राजस्थान की राजनैतिक परिस्थिति पर भी कुछ प्रकाश
जी की जो अमूल्य सेवाएँ की हैं वे इतिहास में लिखने के पूर्व यह आवश्यक है कि तत्कालीन
डाला जाय ।
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हूँ उस प्रांत का नाम है जहाँ पर वर्त्तमान में जयपुर-राज्य स्थित है ।
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ओसवाल जाति का इतिहास
महाराजा भीमसिंहजी के बाद संवत् १८६३ में महाराजा मानसिंहजी गद्दी पर विराजे । भाप महाराजा भीमसिंहजी के भतीजे थे। जिस समय आप गद्दी पर विराजे उस समय महाराजा भीमसिंहजी की एक रानी गर्भवती थी । कुछ सरदारों ने मिलकर उसे तकेटी के मैदान में कारखा । वहीं पर उसके गर्भ से एक बालक उत्पन्न हुआ, जिसका नाम धोकलसिंह रखा गया। इसके बाद उन सरदारों ने उसे पोकरण के तरफ भेज दिया पर महाराजा मानसिंहजी ने इस बात को बनावटी मानकर उसका राज्याधिकार अस्वीकार कर दिया।
___ महाराजा मानसिंहनी ने गद्दी पर बैठते ही अपने शत्रुओं से बदला लेकर उन लोगों को जागीरें दी जिन्होंने विपत्ति के समय सहायता की थी। इसके बाद उन्होंने सिरोही पर फौज भेजी, क्योंकि वहाँ के राव ने संकट के समय में इनके कुटुम्ब को यहाँ रखने से इंकार किया था। कुछ ही समय में सिरोही पर इनका अधिकार हो गया । घाणेराव भी महाराज के अधिकार में आ गया।
वि० सं० १८६१ में धौंकलसिंहजी की तरफ से शेखावत राजपूतों ने डीडवाना पर आक्रमण किया, परन्तु जोधपुर की फौज ने उन्हें हराकर भगा दिया। इसी बीच में एक नई परिस्थिति उत्पन्न होगई। इतिहास के पाठक जानते हैं कि उदयपुर के राणा भीमसिंहजी की कन्या कृष्णाकुमारी का विवाह जोधपुर के महाराजा भीमसिंहजी के साथ होना निश्चित हुआ था। परन्तु उनके स्वर्गवासी हो जाने के पश्चात् राणाजी ने उसका विवाह जयपुर के महाराजा जगतसिंहजी के साथ करना चाहा । जब यह समाचार मानसिंहजी को मिला तब उन्होंने जयपुर महाराज जगतसिंहजी को लिखा कि वे इस सम्बन्ध को स्वीकार न करें । क्योंकि उस कन्या का वाग्दान मारवाड़ के घराने से हो चुका है पर जब जयपुर महाराज ने इस पर कुछ ध्यान नहीं दिया तब महाराजा मानसिंहजी ने संवत 1८६९ के माध में जयपुर पर चढ़ाई कर दी। जिस समय ये मेड़ता के पास पहुंचे उस समय इनको पता लगा कि उदयपुर से कृष्णाकुमारी का टीका जयपुर जा रहा है। यह समाचार पाते ही महाराज ने अपनी सेना का कुछ भाग उसे रोकने के लिये भेज दिया। इससे लाचार होकर टीकावालों को वापिस उदयपुर लौट जाना पड़ा।
इस बीच जोधपुर महाराज ने इन्दौर के महाराजा जसवंतराव होल्कर को भी अपनी सहायता के लिये बुला लिया था। जब राठोड़ों और मरहठों की सेनाएँ अजमेर में इकट्ठी होगई तब लाचार होकर जयपुर महाराज को पुष्कर नामक स्थान में सुलह करना पड़ी। जोधपुर के इन्द्रराजजी सिंघी और जयपुर के रतनलालजी (रामचन्द्रजी) के उद्योग से होलकर महाराज ने बीच में पड़कर जगतसिंह की बहिन का विवाह मानसिंहजी के साथ और मानसिंहजी की कन्या का विवाह जगतसिंहजी के साथ निश्चित करवा दिया । वि० सं० १८७३ के अश्विन मास में महाराजा जोधपुर लौट आये । पर कुछ ही दिनों के बाद लोगों
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राजनैतिक और सैनिक महत्व की सिखावट से यह मित्रता भंग हो गई । इस पर जयपुर महाराज ने धोकलसिंहजी की सहायता के बहाने से मारवाड़ पर हमला करने की तैयारी की । जब सब प्रबन्ध ठीक होगया तब जयपुर नरेश जगतसिंहजी ने एक बड़ी सेना लेकर मारवाड़ पर चढ़ाई कर दी। मार्ग में खंडेले नामक गांव में बीकानेर महाराज सूरजसिंह जी, धोंकलसिंहजी और मारवाड़ के अनेक सरदार भी इनसे आ मिले । पिण्डारी अमीरखाँ भी मय अपनी सेना के जयपुर की सेना में आ मिला।
जैसे ही यह समाचार महाराजा मानसिंहजी को मिला वैसे ही वे भी अपनी सेना सहित मेड़ता नामक स्थान में पहुँचे और वहाँ पर मोरचा बाँध कर बैठ गये। साथ ही इन्होंने मरहठा सरदार महाराज जसवंतराव होलकर को भी अपनी सहायतार्थ बुला भेजा । जिस समय होलकर और अंग्रेजों के बीच युद्ध छिड़ा था उस समय जोधपुर महाराज ने होल्कर के कुटुम्ब की रक्षा की थी। इस पूर्व-कृत उपकार का स्मरण कर होल्कर भी तत्काल इनकी सहायता के लिये रवाना हुए । परन्तु उनके अजमेर के पास पहुँचने पर जयपुर महाराज ने उन्हें एक बड़ी रकम देकर वापिस लौटा दिया।
___इसके बाद माँगोली की घाटी पर जयपुर और जोधपुर की सेना का मुकाबिला हुआ । युद्ध के समय बहुत से सरदार महाराजा की ओर से निकलकर धोंकलसिंहजी की तरफ जयपुर सेना में जा शामिल हुए, इससे जोधपुर की सेना कमज़ोर हो गई । अन्त में विजय के लक्षण न देख बहुत से सरदार महाराजा को वापित जोधपुर लौटा लाये । जयपुरवालों ने विजयी होकर मारोठ, मेड़ता, पर्वतसर, नागौर, पाली और सोजत आदि स्थानों पर अधिकार कर जोधपुर घेर लिया । सम्वत् १८६३ की चैत्र बदी ७ को जोधपुर शहर भी शत्रुओं के हाथ चला गया और केवल किले ही में महाराजा का अधिकार रह गया।
_ इसी समय मारवाड़ के राजनीतिक मंच पर दो महान् कार्य कुशल वीर और दूरदर्शी महानुभाव अवतीर्ण होते हैं । ये महानुभाव सिंधी इन्द्रराजजी और भण्डारी गंगारामजी थे। मारवाड़ की यह दुर्दशा उनसे न देखी गई। उन्होंने स्वदेश भक्ति की भावनाओं से प्रेरित होकर मारवाड़ को इन आपत्तियों से बचाने का निश्चय किया । वे उस वक्त जोधपुर के किले में कैद थे। महाराजा से प्रार्थना की कि अगर उन्हें किले से बाहर निकालने की आज्ञा दी जायगी तो वे शत्रु के दाँत खट्टे करने का प्रथल करेंगे। महाराजा ने इनकी प्रार्थना स्वीकार करली और इन्हें गुप्त मार्ग से किले के बाहर करवा किया। इसके बाद ये दोनों वीर भेड़ते की ओर गये और वहाँ पर सेना संगठित करने का प्रयवकरने लगे। उन्होंने एक लाख रुपये की रिश्वत देकर सुप्रख्यात पिण्डारी नेता अमीरखाँ को अपनी तरफ मिला लिया। इसी बीच बापूजी सिंधिया को भी निमंत्रित किया गया और वे इसके लिए खाना भी हो गये थे। मगर बीच में ही जयपुरवालों ने उन्हें रिश्वत देकर वापिस लौटा दिया।
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पोसवाल जाति का इतिहास
इसके बाद सिंघी इन्द्रराजजी भण्डारी, गंगारामजी और कुचामण के ठाकुर शिवनाथसिंहजी ने अमीरखाँ की सहायता से जयपुर पर कुँच बोल दिया । जब इसकी खबर जयपुर महाराज को लगी तब उन्होंने राय शिवलालजी के सेनापतित्व में एक विशाल सेना उनके मुकाबिले को भेजी । मार्ग में जयपुर और जोधपुर की सेनाओं में कई छोटी मोटी लड़ाइयाँ हुई पर कोई अंतिम फल प्रकट न हुआ। आखिर में टोंक के पास फागी नामक स्थान पर अमीरखाँ और सिंघी इन्द्रराजजी ने जयपुर की फौज को परास्त किया
और उसका सब सामान लूट लिया। इसके बाद जोधपुरी सेना जयपुर पहुंची और उसे खूब लूटा । जब यह खबर जयपुर नरेश महाराजा जगतसिंहजी को मिली तब वे जोधपुर का घेरा छोड़ कर जयपुर की तरफ लौट चले।
जयपुर की सेना पर विजय प्राप्त कर जब सिंघी इन्द्रराजजी अमीरखाँ के साथ जोधपुर पहुंचे तब महाराजा मानसिंहजी ने उन लोगों का बड़ा आदर किया। आपने इस समय सिंघी इन्द्रराजजी के पास एक खास रुक्का भेजा जिसको हम यहाँ ज्यों का त्यों उद्धृत करते हैं।
श्री माथजी" सिंघवी इंदराज कस्य सुप्रसाद बाँचजो तथा आज पाछली रातरा जेपुर वाला कूचकर गया और मोरचा बिखर गया और आपरे मते सारा कूच करे है इण बात सूं थाने बड़ो जस आयो ने थे बड़ो नामून पायो इण तरारो रासो हुवे ने थे बिखेरियो जणरी तारीफ कठाताई लिखां आज सूं थारो दियोड़ो राज है मारे राठोड़ा रो बंस रेसी ने ओ राज करसी उ थारे घर सूं एहसानमंद रहसी ने थारे घर सूं कोई तरा रो फरक राखसी तो इष्ट धरम सूं बेमुख होसी अब थे मारग में हलकारा री पूरी सावधानी राखजो संवत् १.८६४ रो भादवा सुद
उक्त रुक्का मारवाड़ी भाषा में है । इसका आशय यह है कि आज पिछली रात को जयपुर वाले कूचकर गये और उनका मोरचा बिखर गया । इस बात में तुम्हें बहुत यश आया और तुमने बड़ा नामून पाया। हम तुम्हारी तारीफ कहाँ तक करें । आज से यह तुम्हारा दिया हुआ राज्य है हमारा राठोडों का वंश जबतक रहेगा और जबतक वह राज्य करेगा तबतक वह तेरे घर का एहसानमंद रहेगा। तेरे घर से किसी तरह का फकं रखेगा तो इष्ट धर्म से विमुख होगा!
इतना ही नहीं जयपुर से वापस लौटने पर सिंघी इन्द्रराजजी को प्रधानगी और जागीरी दी। राज्य शासन का सारा कारोबार इन्हें सौंपा ।
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
स्वर्गीय श्री सिंघी भीवराजजी फौजबख्शी राज मारवाड़, जोधपुर ।
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स्वर्गीय श्री सिंबी अखेराजजी ( भीवराजजी के पुत्र ) फौजबख्शी, जोधपुर ।
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राजनैतिक और सैनिक महल - इसके बाद सिंघी इन्द्रराजजी ने १०००० जोधपुर की तथा १० हजार बाहरी फौज लेकर बीका नेर पर चढ़ाई की और उक्त शहर से ५ कोस पर डेरा डाला । तत्कालीन बीकानेर नरेश महाराजा सूरत सिंहजी ने आपसे समझौता कर फौज़ खर्च के लिये ४ लाख रुपये देने का वायदा किया । इसके बाद सिंघी इन्द्रराजजी अपनी फौज को लेकर जोधपुर चले आये।
___इसके बाद सिंघी इन्द्रराजजी ने अपने प्राण देकर भी महाराजा मानसिंहजी को अमीरखाँ के कुचक्र से बचाया और मारवाड़ की रक्षा की । यह घटना इस प्रकार है । जब सिंघी इन्द्रराजजी ने बीकानेर पर फौजी चढ़ाई की थी, तब पीछे से अमीरखाँ ने महाराजा मानसिंहजी से अपनी दी हुई सहायता के बदले में पर्वतसर, मारोठ, डीडवाणा और सांभर का परगने अपने नाम पर लिखवा लिये थे। सम्वत १८७२ की आसौज सुदी के दिन अमीरखों के कुछ पठान सैनिक जोधपुर के किले पर पहुंचे और वे सिंघीजी से अपनी चढ़ी हुई तनख्वाह और उक्त चारों परगनों का कब्जा माँगने लगे । कहा जाता है कि सिंघी इन्द्रराजजी ने मोरखाँ के आदमियों से महाराजा मानसिंहजी का दिया हुआ चार परगनों का अधिकार पत्र देखने के लिये मांगा ज्योंही उक्त पत्र उनके हाथ आया वे उसे निगल गये । इससे अमीरखाँ के लोग बड़े क्रोधित हुए और उन्होंने सिंघी इन्द्रराजजी को वहीं कन्ड कर डाला । जोधपुर राज्य की रक्षा के लिए इस प्रकार ओसवाल समाज के इस महा सेनानायक और प्रतिभा शाली मुत्सुद्दी का अन्त हुना!
___ जब यह समाचार महाराजा मानसिंहजी को पहुंचा, तब वे बड़े शोक विह्वल हुए ! उन्होंने इन्द्रराजजी के शव को किले के खास दरवाजे से, जहाँ से सिर्फ राजपुरुषों का शव निकलता है, निकलवाकर उनका राज्योचित सम्मान किया । इतना ही नहीं किले के पास ही उनका दाह संस्कार कराया गया जहाँ अब भी उनकी छत्री बनी हुई है।
सिंधी इन्द्रराजजी की सेवाओं के बदले में महाराजा मानसिंहजी ने उनके पुत्र फतहराजजी को २५ हजार की जागीरी, दीवानगी तथा महाराज कुमार के बराबरी का सम्मान प्रदान किया। इस सम्बन्ध में महाराजा मानसिंहजी ने जो खास रुक्का भेजा था उसकी नकल यह है।
श्री नाथजी सिंघवीं फतेराज कस्य सुप्रसाद बांचजो तथा इन्दराज रे निमित्त ११ जीणा ने पीयाला दिया ने सरकार रो खेरखुवा पणे राखणासुं मीरखां इन्द्रराज ने काम में लायाः ने परगना चार नहीं दिया जणा की कठा ताई तारीफ करां । उनने मारी नौकरियां बहुत बहुत दीवी। उणा रे मरणे सुं राजन बड़ा हरज हुओ। परंत अब दीवाणगिरीरो रु० २५०००) हजाररो पटो थान इनायत किया जावे है सो उणार एवज थे काम करजो और थारो कुरब इण .
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
महाराज कुँवर ज्यादा रेसी श्री थारी नौकरियाँ लायक थारे वास्ते का सलूक नहीं कियो ने मने श्रादी मिलेला चोथाई तो देने खावांला तू कोई तरांसुं और तरे समझसी नहीं थारे तो बाप मैं बैठा हाँ कसर पड़ी तो मारे पड़ी संवत् १८७२ रा आसोज सुदी १४
सही म्हारी
घर
में
यह पत्र जैसा कि हम ऊपर कह चुके हैं. महाराजा मानसिंहजी ने सिंघवी इन्द्रराजजी के पुत्र सिंघी फतेराजजी को इन्दराजजी की मृत्यु के बाद लिखा था । इसका आशय यह है ।
" सिंघी फतेराज से सुप्रसाद बंचना । इन्द्रराज के निर्मित्त ११ आदमियों को विष के प्याले दिये गये हैं। सरकार के खैरख्वाह होने के कारण इन्द्रराज ने अमीरखाँ को चार परगने नहीं दिये जिससे अमीरखाँ ने इन्द्रराज का प्राण ले लिया । इन्द्रराज की इस राजभक्ति के लिये हम कहाँ तक तारीफ करें । उसने हमारी बहुत २ सेवाएँ कीं। उसके मरने से राज्य की बड़ी हानि हुई है । परन्तु अब तुम्हें दीवानगी और उसके साथ २५००० ) का पट्टा इनायत किया जाता है। अब तुम उसके एवज में काम करना । इस घर में तुम्हारा कुरब (दर्जा) महाराज- कुमार से अधिकार रहेगा। अगर हमें आधी मिलेगी तो चौथाई तुझे देकर के खावेंगे । तू किसी तरह की दूसरी बात नहीं समझना । तेरे तो बाप हम बैठे हैं । इन्द्रराज के मरने से कसर पड़ी तो हमारे पड़ी। संवत् १८७२ का आसोज सुदी १४ ।
महाराजा मानसिंहजी द्वारा दिये हुए उपरोक्त प्रशंसा पत्रों से सिंधी इन्द्रराजजी की उन महाम् सेवाओं पर प्रकाश पड़ता है जो उन्होंने जोधपुर-राज्य की रक्षा के लिये समय २ पर की थीं। सिंघी इन्द्रराजजी का नाम मारवाड़ के इतिहास में सदा अमर रहेगा और उन वीरों में उनकी गौरव के साथ गणना की जायगी जिन्होंने स्वदेश रक्षा के लिये अपने प्राणों का बलिदान दिया है। महाराजा मानसिंहजी ने इस वीर की प्रशंसा में जो दोहे रचे थे, उनमें भी इन्होंने इस महापुरुष की भूरि २ प्रशंसा की है । वे दोहे मारवाड़ी भाषा में हैं जिन्हें हम पाठकों के लिये नीचे देते हैं।
गेह छुटो कर गेड़, सिंह जुटी फूटो समद ॥ १ ॥ अपनी भूप अरोड़, अड़िया तीनुं इन्दड़ा ॥ २ ॥ गेह सांकल गजराज, घरह्यो सादुलधीर ॥ ३ ॥
* उक्त ग्यारह जनों पर यह सन्देह किया गया था कि उन्होंने अमीरखों से मिलकर सिंघी इन्द्रराजजी की मरबाने का षड्यंत्र रचा था।
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ओसवाल जाति का इतिहास
VITA
स्वर्गीय श्री सिंघी इन्द्रराजजी दीवान राज मारवाड़, जोधपुर ।
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स्वर्गीय श्री सिंघी फतेरजजी (इन्द्रराजजी के पुत्र) दीवान, राज मारवाड़ जोधपुर ।
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राजनैतिक और सैनिक महत्व
प्रकटी बाजी बाज, अकल प्रमाणो इन्दड़ा ॥ ४ ॥ पड़तों घेरो जोधपुर, अड़तां दला अथंभ ॥ ५ ॥ आप डींगता इन्दड़ा, थे दीयो भुज थंभ ॥ ६ ॥ इन्दा वे असवारियां, उण चौहटे श्राम्बेर ॥ ७ ॥ घिण मंत्री जोधाणरा, जैपुर कीनी जेर ॥ ८ ॥ पोडियो किण पाशाक सूँ, जगां केड़ी जोय ॥ ६ ॥ गेह कटे हैं जीवतां, होड़ न मरता होय ॥ १० ॥ बैरी मारण मीरखा राज काज इन्दराज ॥ ११ ॥
में तो सरणे नाथ के, नाथ सुधारे काज ॥१२॥
हमने सिंघी इन्द्रराजजी के महान् जीवन पर थोड़ा सा प्रकाश डालने की चेष्टा की है। इससे पाठकों को यह भली प्रकार ज्ञात हो जायगा कि राजस्थान के राजनैतिक और सैनिक रंग मंच पर ओसवाल वीरो ने कितने बड़े २ खेल खेले हैं। इन्होंने अपनी वीरता से, अपनी दूरदर्शिता से और अपने भात्मत्याग से मारवाड़ राज्य को बड़े २ संकटो से बचाया है और मारवाद के नरेशों ने भी समय २ पर इनकी बहुमूल्य सेवाओं को मुक्तकंठ से स्वीकार किया है।
भण्डारी गंगारामजी
महारांजा मानसिंहजी के राज्यकाल में सिंघी इन्द्रराजजी की तरह भण्डारी गंगरामजी भी बड़े नामांकित पुरुष हुए। गंगारामजी लुणावत भण्डारी थे । संवत् १८६७ के मार्गशीर्ष वदी ७ को इन्हें दीवा - नगी का उच्चपद प्राप्त हुआ। इसके पहले भी इनके घराने में राज्य के दीवानगी जैसे सर्वोच्च ओहदे रहे थे । ये बड़े राजनीतिज्ञ, दूरदर्शी और वीर थे । महाराजा मानसिंहजी को जालौर से जोधपुर लाने में जिन २ महानुभावों का हाथ था उनमें ये प्रधान थे। जयपुर की बढ़ाई में जो महत्वपूर्ण कार्य्यं सिंघी इन्द्रराजजी ने किया ठीक वैसा ही इन्होंने ही किया । इन्होंने कई युद्धों में भाग लिया और तत्कालीन मारवाड़ को बड़े ९ संकटों से बचाया ।
सिंघी गुलराजजी, मेगराजजी, कुशलराजजी
इन तीनों सज्जनों ने एक समय में महाराजा मानसिंहजी की बड़ी २ सेवाएँ की । महाराजा मानसिंह को जालौर के घेरे से सुरक्षित रूप से जोधपुर लाकर उन्हें राज्यासन पर प्रतिष्ठित करने में इनका
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ओसवाल जाति का इतिहास
बहुत बड़ा हाथ था। यह बात महाराजा मानसिंहजी ने अपने एक खास रुक्के में स्वीकार की हैं। हम उस रुक्के की नकल यहाँ पर देते हैं।
श्री नाथजी
सिंघवी गुलराज, मेघराज कुशलराज सुखराज कस्य सुप्रसाद बांचजो तथा थे बाबोजी तथा भामोजीरा स्याम घरमी चाकर हो सो हमारे मांने जालौर रा किला हुँ शहर पधराया ने जोधपुर रो राज सारो माने करायो ओ बंदगी थारी कदे भूलसां नहीं मारी सदा निरन्तर मरजी रेसी थारी बख्शी गिरी ने सोजत सिवाणा री हाकिमी ने गांव बीजवों बराड़ ने सुरायतो पढे है जणा में कदेही तफावत पाड़ां में ने मारा बंसरो होसी थांसु ने थारा बंस हुँ तफावत करे तथा मैं थाने कैद ही कैद करां तो श्री जलंधरनाथ धरम करम विच्चे के ओ नवासरे राह तांबापत्र नँ इनायेत कियो है थे बड़ा महाराज तया भाभेजी रा स्याम धरमी हो जणी में अणी रुक्का में लिख्यो है जण में आखरी ही और तरे जणी तो ऐ बिचे लिखी या इष्टदेव लगायत एक बार नहीं सौ बार थे घसी जमाखातर राखजो संवत् १८६० ।' '
उपरोक्त पत्र से उक्त महानुभावों की महान् सेवाओं का स्पष्टतया पता लगता है। मेहता अखेचन्दजी
मेहता अखेचन्दजी के नाम का उल्लेख भी मारवाड़ राज्य के इतिहास में कई बार आया है। आपने भी एक समय महाराजा मानसिंहजी की बहुमूल्य सेवाएं की। जब संवत् १८५७ में तरकालीन : जोधपुर नरेश महाराजा भीमसिंहजी ने मानसिंहजी पर घेरा डालने के लिये जालौर पर अपनी फौजें भेजी और इन फौजों ने जालौर के उस सुप्रसिद्ध किले को जहाँ पर महाराजा मानसिंहजी स्थित थे घेर लिया। उस समय मेहता अखेराजजी ने महाराजा मानसिंह जी की वे सेवाएँ की जिनसे वे इतने दिनों तक अपने विरोधियों के सामने टिक सके। महाराज मानसिंहजी अपने किले में कई दिन तक घिरे रहे। इससे वहाँ पर अन्न और धन की बहुत कमी हो गई। ऐसे विकट समय में मेहता अखेचन्दजी ने एक गुप्त मार्ग द्वारा महाराजा मानसिंहजी की सेवा में रसद और धन पहुँचाना शुरू किया । इससे महाराजा मानसिंहजी को बड़ी भारी सहायता मिली और वे अधिक दिनों तक अपनी विरोधी फौजों का मुकाबिला कर सके।
___ जब संवत् १८६० की काती सुदी ४ को महाराजा भीमसिंहजी का स्वर्गवास हुआ और जब मानसिंहजी के सिवाय राज्य का कोई दूसरा अधिकारी न रहा तब उन्हीं सरदार तथा मुत्सुद्दियों ने जो गढ़
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भण्डारी गंगारामजी दीवान, जोधपुर.
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राजनैतिक और सैनिक महत्व
का घेरा देने में शामिल थे, महाराजा मानसिंहजी से जोधपुर चलकर राज्यासन पर विराजने की प्रार्थना की । तदनुसार मार्गशीर्ष बदी • को जब महाराजा मानसिंहजी किले पर दाखिल हुए तब मेहताअखेचन्दजी भी उनके साथ थे।
इसी साल माघ सुदी ५ के दिन जब महाराजा का राजतिलक हुआ तब उन्होंने मेहता अखेचन्द जी को मोतियों की कंठी, कड़ा, सिरपंच, मन्दील आदि का सिरोपाव तथा ३५००) की रेख का नीमली नामक गाँव उनके नाम पर पट्टे कर उनका सम्मान किया। साथ ही इसी वर्षमालाई नाम का एक और गाँव आपको जागीर में दिया गया।
__ जब जयपुर और बीकानेर की फौजों ने जोधपुर को घेर लिया और महाराजा मानसिंहजी का अधिः कार केवल किले मात्र में रह गया, उस समय मेहता अखेचन्दजी ने महाराजा की बड़ी आर्थिक सेवा की : घेरा उठ जाने के बाद महाराजा मानसिंहजी ने मेहता अखेचन्दजी को जो खास रुका दिया, उसमें लिखा है
"मुहता अस्वेचन्द कस्य सुप्रसाद बांचजो तथा थारी बंदगी भागे जालौर दोनों घेरा री तो छ ही ने अबार इण घेरा में ही बंदगी कीबी सो आच्छी रीत मालूम है । ने रुपया ४०००००) चार लाख आसरे सरकार में आया सो दिरीज जावसी तू जमा खातर राखे सदा शुभ रष्टि है जिणसू सिवाय रहसी संवत्
TREATEHTAR १८६४ रा आसोज वदी ९"
इसके पश्चात जब अमीरखाँ को २ लाख रुपये देने की आवश्यकता हुई तब महाराजा मानसिंहजी ने इन्हें उक्त रुपयों की व्यवस्था करने के लिये निम्न लिखित पंक्तियाँ लिखीं थीं।
__ "अबार दोय लाख भमीरखां ने फौज अटकीजी जो आवा सो अवार को काम थाने किये चाहिजेला आ बन्दमी आद अंत ताई भूलसा नहीं सं० १८६४ आसोज वदी १३”....
': इसी प्रकार अमीरखाँ को पुना रुपया चुकाने की आवश्नसा पड़ने पर महाराजा मानसिंहजी ने मेहता अखेरानजी को एक बार फिर लिखा था जिसकी नकल नीचे दी जाती है।..
... .. "हर हुनर कर दोय लाख रो समाधान करणों ये काम छाती चादने कीजे तो श्रीनाथजी अवार' ही सहाय करी इसो व्येत छे जू जालौर ढाबियाँ री जू आ जोधपुर ढाबियारी सिरारी बन्दगी छे...इत्यादि"। कहने का मतलब यह है कि मेहता अखेचन्दजी ने मारवाड़ राज्य की तन, मन, धन से सहायता पहुंचा कर उसकी बहुमूल्य सेवाएं की हैं । मारवाड़ के महाराजा आपकी महत्व के कामों में सलाह लिया करते थे। राजपुताने के सुप्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार कर्नल जैम्स टॉड ने आपके विषय में अपने मारवाड़ के इतिहास में निम्न आशय के वाक्य लिखे थे।
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ओसवाल जाति का इतिहास
"अखेचन्दजी का सामर्थ्यं बहुत बढ़ा हुआ था। दरबार को वे ही वे दीखते थे। रियासत में एक समय ये बहुत प्रबल थे
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आपकी इन सब सेवाओं से प्रसन्न होकर महाराजा मानसिंहजी ने आपको संवत् १८६६ में पालकी, सिरोपाव व एक खास रक्ता इनायत कर आपकी प्रतिष्ठा को खूब बढ़ाया था" ।
रावराजा रिघमलजी - आर रावराजा शाहमलजी के पुत्र थे। महाराजा मानसिंहजी के समय में आप जोधपुर राज्य के फौज बख्शी हुए । सम्वत् १८८९ में आप और मुणोत रामदासजी १५०० सवारों को लेकर अजमेर में ब्रिटिश सेना की सहायता करने गये थे । सं० १८९८ में इन्हें १६ हजार की जागीरी दी गई। इसके थोड़े ही दिनों बाद आप जोधपुर राज्य के मुसाहिब बनाये गये । महाराजा मानसिंहजी इनका बड़ा सम्मान करते थे । इन्होंने महाराजा से प्रार्थना कर ओसवाल समाज पर लगने वाले सरकारी कर को माफ़ करवाया था। आपने बहुत प्रयत्न करके पुष्करराज के कसाई खाने को बन्द करवाय जिसके लिये अब भी यह कहावत मशहूर है - "राव मिटायो रिधमल, पुष्कर रो प्रायश्चित ।”
सम्वत् १८९६ में इन्होंने जागीरदारों और जोधपुर दरबार के बीच कुछ शर्तें तय की जिनका व्यवहार अब तक हो रहा 1
महाराजा मानसिंहजी के पुत्र बाल्यकाल ही में गुजर गये थे और उनके दूसरी सन्तान न थी । अतएव राज्य गद्दी के लिये वारिस गोद लाने का विचार होने लगा । इस कार्य में रावराजा रिधमलजी ने बड़ी दिलचस्पी ली और महाराजा तख्तसिंहजी को गोद लाने में आपका खास हाथ था ।
महाराजा मानसिंहजी के समय में और भी कई ओसवाल मुत्सद्दियों ने बड़े २ काम किये उन सब का विस्तृत विवरण अगले अध्यायों में कौटुम्बिक इतिहास, ( Family History) में दिया जायगा । इसके आगे चलकर महाराजा तख्तसिंहजी और महाराजा जसवन्तसिंहजी के जमाने में भी कुछ भोसवाल सज्जनों ने दीवानगिरी और फौज की बक्शीगिरी आदि बड़े २ ओहदों पर बड़ी सफलता के साथ कार्य किया । इन महानुभावों में मेहता विजयसिंहजी और सींघी बछराजजी का नाम विशेष
उल्लेखनीय है ।
मेहता विजयसिंहजी राजनीतिज्ञ और वीर थे। आपने कई छोटी-बड़ी लडाइयों में हिस्सा लिया । सुप्रसिद्ध डूंगर सिंह, जवाहरसिंह को दबाने में आपका प्रधान हाथ था । इस सम्बन्ध में श्री दरबार ने और तत्कालीन ए० जी० जी० महोदय ने अपने पत्रों में आपकी बड़ी प्रशंसा की है।
सम्वत् १९१४ ( ईसवी सन् १८५७ ) के बलवे का हाल हमारे पाठक भली प्रकार जानते होंगे । इस समय भारत में चारों ओर विद्रोहाग्नि फैल रही थी । मारवाड़ में भी कई जगह यह आग जल रही
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राजनैतिक और सैनिक महत्व
थी। मारवाड़ के आऊवा नामक स्थान पर विद्रोह हुआ। इस पर मेहता विजयसिंहजी को उक्त स्थान पर चढ़ाई करने के लिए श्री दरवार का हुक्म हुआ। आपने आज्ञा पाते ही आऊवे पर फौजी चढ़ाई कर दी। आपकी सहायता के लिये ब्रिटिश सेना भी आ गई। कहने की आवश्यकता नहीं कि आपने वहां के विद्रोह को दबा दिया और पूर्ण शान्ति स्थापित कर दी। इसके बाद आपने आसोप, आलणियावास गूलर आदि स्थानों पर चढ़ाई कर वहाँ के ठाकुरों को वश में किया। इससे आपकी वीरता की चारों तर्फ बड़ी प्रशंसा होने लगी।
____आप सिर्फ जोधपुर दरबार ही के द्वारा सम्मानित नहीं हुए। राजस्थान के अन्य नरेश भी आपको बहुत मानते थे। सम्बत् १९२० में जयपुर दरबार ने आपको हाथी, सिरोपाव और पार की प्रदान कर आपका बड़ा सन्मान किया।
सम्बत् १९२१ में आपकी बहुमूल्य सेवाओं से प्रसन्न होकर श्री जोधपुर दरबार ने आपको नागोर प्रगने का राजोद नामक गाँव जागीर में प्रदान किया ।
राजस्थान के नृपतियों के अतिरिक्त तत्कालीन कई बड़े २ अंग्रेजों ने आपकी कार्य-कुशलता की बड़ी प्रशंसा की है। जोधपुर के तत्कालीन पोलिटिकल एजण्ट ने आपके लिये लिखा था-"ये एक ऐसे मनुष्य हैं, जिनका निर्भयता से विश्वास किया जा सकता है। मारवाड़ी अफसरों में इनके समान बहुत कम आदमी पाये जाते हैं”। इसके बाद ही ईसवी सन् १८६५ की ४ जून को तत्कालीन पोलिटिकल एजण्ट मि एफ. एफ• निकलसन ने लिखा था
'ये बड़े बुद्धिमान और आदर्श देशी सजन हैं। इन्हें मारवाड़ की पूरी जानकारी है।'
मतलब यह कि अपने समय में रायबहादुर मेहता विजयसिंहजी बड़े नामाङ्कित मुत्सद्दी होगये । इनका विस्तृत परिचय आगे चलकर आपके इतिहास में दिया जा रहा है ।
आगे चलकर महाराजा जसवन्तसिंहजी और महाराजा सरदारसिंहजी के जमाने में भी कुछ अच्छे मुत्सही हुए, जिनका विवेचन यथावसर किया जायगा।
इस लेख के पढ़ने से पाठकों को यह भलीभान्ति ज्ञात हुआ होगा कि जोधपुर राज्य के लिये ओसवाल सुत्सहियों ने कितने बड़े २ कार्य किये, राजनीति के मैदान में कितने जबर्दस्त खेल खेले तथा अपनी जन्मभूमि की रक्षा के लिये रण के मैदान में बहादुरी के कितने बड़े २ हाथ बतलाये । मारवाड़ का सच्चा इतिहास इनके महान कार्यों के लिपे सदा श्रद्धाञ्जली अर्पण करता रहेगा। मारवाड़ के इतिहास का कोई अध्याय-कोई पृष्ट-ऐसा नहीं है, जिनमें इनके महान् कार्यों की गौरव गाथा न हो।
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उदयपुर
मारवाड़ की रंगस्थली में भोसवाल वीरों और राजतीतिज्ञों ने अपने जो अद्भुत् कारनामें दिखकाये हैं और राज्य की रक्षा के लिये अपने प्राणों की बाजी लगाकर, स्वार्थ-त्याग के जिन अपूर्व उदाहरणों को इतिहास में अपनी अमर कीर्ति के रूप में अंकित कर रहे हैं उनका थोड़ा सा परिचय हम ऊपर दे चुके हैं। आगे हम यह बतलाना चाहते हैं कि ओसवाल नर पुंगव ने मारवाड़ की लीला-स्थली के अतिरिक्त और भी राजपूताने की भिन्न २ रियासतों में अपने महान व्यक्तित्व को किस प्रकार प्रदर्शित किया था । अगर हम कहना चाहें तो कह सकते हैं कि मारवाड़ के पश्चात् मेवाड़ ही एक ऐसा प्राँत है जहाँ पर ओसवाल जाति ने अपनी दिव्य सेवाओं का खूब प्रदर्शन किया। स्वाधीनता की लीला स्थली वीर प्रसवा मेवाड़ भूमि .के. इतिहास में ओसवाल जाति के वीरों का नाम भी स्थान २ पर अमर कीर्ति के साथ चमक रहा है। अपने देश और अपने स्वामी के पीछे अपने सर्वस्व को निछावर कर देने वाले त्याग मूर्ति भामाशाह, संघवी दयालदास, मेहता अगरचंद, मेहता सीताराम, इत्यादि महापुरुषों के नाम आज भी मेवाड़ के इतिहास में अपनी स्मृति को ताज़ा कर रहे हैं। अब नीचे बहुत ही संक्षिप्त में हम इन प्रतापी पुरुषों का परिचय पाठकों के सम्मुख रखने की कोशीश कर रहे हैं।
महाराणा हमीरसिंह और मेहता जालसी
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चित्तौड़ के प्रसिद्ध महाराणा हमीर ( प्रथम ) उस समय में अवतीर्ण हुए थे जब कि भारत के राजनैतिक गगन-मण्डल में काले बादल मंडरा रहे थे। चारों ओर अशान्ति का दौर दौरा हो रहा था । राजपूताने के बहुत से राज्य मुसलमानों के शासन में चले गये थे। ठीक उसी समय मेवाड़ भूमि भी खिलजी बादशाह अलाउद्दीन द्वारा फतह की जा चुकी थी। चित्तौड़ का प्रथम साका समाप्त हो गया था । इस साके में वीर प्रसवा मेवाड़ - मेवाड़ भूमि के कई नर रत्न अपने अद्भुत पराक्रम और अलौकिक शौर्य का परिचय देते हुए, अपने देश अपनी जाति एवम् अपने कुटुम्ब की रक्षा के लिये, अपने प्राणों की आहुति प्रदान कर चुके थे । केवल केलवाड़े के आस पास के प्रान्त को छोड़कर समूचा मेवाड़ अलाउद्दीन खिलजी की अधीनता में जा चुका था और वहाँ का शासन सोनगरा मालदेव कर रहा था। मेवाड़ निवासी चारों ओर बिखर रहे थे । संगठन का भयंकर अभाव हो रहा था । को केवल मेवाड़-उद्धार की चिन्ता सताया करती थी । मेवाड़ भूमि किस प्रकार स्वतन्त्र हो, किस प्रकार उसका उद्धार हो । अस्तु ।
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ऐसी भयंकर परिस्थिति में महाराणा हम्मीरसिंह
वे हमेशा इसी विचार में निमग्न रहा करते थे
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राजनैतिक और सैनिक महत्व
महाराणा हमीर स्वयं बड़े बीर एवम् पराक्रमी व्यकि थे। उनमें साहस था, वीरता थी और थी कार्य करने की अद्भुत क्षमता। उन्होंने सारे मेवाड़ में ऐलान करवा दिया था कि "जो व्यक्ति अपने सच्चे हृदय से मेवाड़-भूमि का उद्धार करना चाहें, उन्हें चाहिये कि मेवाड़ के ग्रामों को जन शून्य करके केलवाड़ा चले आयें । यदि किसी व्यक्ति ने महाराणा की आज्ञा का उलंघन किया तो शत्रु समक्षा जाकर यमपुर पहुंचा दिया जायगा।" इस वक्तव्य का मेवाड़ के वीर निवासियों पर बहुत प्रभाव पड़ा एवम् वे धीरे धीरे महाराणा के झंडे के नीचे आ खड़े हुए। महाराणा का उत्साह चमक उठा, उन्होंने शीघ्र ही सेना का संगठन करना प्रारम्भ किया। इसी समय चित्तौड़ के शासक मालदेव ने अपनी पुत्री का विवाह महाराणा के साथ करने की प्रार्थना की। कहना न होगा कि महाराणा ने प्रार्थना स्वीकार करकी एवम् उनका मालदेव की पुत्री के साथ विवाह होगया। कर्नल टाड साहब का कथन है कि "अपनी नव विवाहिता पलि के कहने से महाराणा ने दहेज में जालसी मेहता को माँग लिया। ये जालसी मेहता बड़े बुद्धिमान एवम् राजनीतिज्ञ पुरुष थे।" ये ओसवाल जाति के भणसाली गौत्रिय सज्जन थे।
जब वीरता एवम् पराक्रम के साथ राजनीति एवम् बुद्धिमानी का सहयोग हो जाता है तष विजयलक्ष्मी हाथ जोड़े हुए सामने खड़ी रहती है। यहाँ भी यही हुआ। .
___एक समय का प्रसंग है कि महाराणा हमीर के पुत्र लक्षसिंह को, जो आगे चल कर महाराणा लाखा के नाम से प्रसिद्ध हुए, चित्तौड़ के देवी-देवताओं की अप्रसन्नता को मिटाने के लिये पूजा करने चित्तौड़ जाना पड़ा। कहना न होगा कि इस अवसर पर चतुर जालसी मेहता भी साथ गये। चित्तौड़ जाकर मेहता जालसी ने धीरे धीरे वहाँ के सरदारों को मालदेव के खिलाफ उभारना प्रारम्भ किया । जब उसे विश्वास हो गया कि हमारे पक्ष में बहुत से सरदार हो गये हैं तब उसने महाराणा को खानगी तौर पर चित्तौड़ आने के लिये लिख भेजा। कहना न होगा कि ठीक भवसर पर महाराणा चित्तौड़ पहुँचे। युक्ति और योजनानुसार उन्हें चित्तौड़ का दरवाजा खुला मिला । फिर क्या था, बात की बात में तलवारें चमकने लगीं। घनघोर युद्ध प्रारम्भ हो गया। चारों ओर भयंकर मारकाट मच गई। अंत में विजय श्री महाराणा के हाथ लगी। चित्तौड़ के वारतविक अधिकारी का उस पर अधिकार हो गया।
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प्रसिद्ध इतिहास वेत्ता महा महोपाध्याय पं. गौरीशंकरनी ओझा अपने राजपूताने के इतिहास में लिखते हैं कि "चित्तौड़ का राज्य प्राप्त करने में हमीर को जाल (जालसी) मेहता से बड़ी सहायता मिली। जिसके उपलक्ष्य में उसने उसे अच्छी जागीर दी और प्रतिष्ठा षदाई ।"
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ओसवाल जाति का इतिहास
महाराणा कुम्भ और श्रोसवाल मुत्सुद्दी
महाराणा हमीर के पश्चात् महाराणा कुम्भ के समय में भी कई ओसवाल मुत्सुद्दी ऐसे हुए जिन्होंने मेवाड़ राज्य की बड़ी २ सेवाएं की। इनमें से बेला भण्डारी गुणवाज और रतनसिंह के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। रतनसिंह जी ने गोड़वाड़ के राणकपुर नामक स्थान पर सुप्रसिद्ध जैन मन्दिर बनवाया। जिसका उल्लेख धार्मिक प्रकरण में दिया जावेगा।
इसी प्रकार राणा साँगा के समय में सुप्रसिद्ध कर्माशाह के पिता तोलाशाह, उनके पश्चात् राणा रतनसिंह के समय में शत्रुजय के उद्धार कर्ता सुप्रसिद्ध कर्माशाह दीवान रहे। इनका गोत्र राजकोठारी था । इनका भी विशेष परिचय इस ग्रन्थ के धार्मिक प्रकरण में दिया जावेगा। महाराणा उदयसिंह और प्रोसवाल मुत्सुद्दी
.. स्वामिभक्त आशाशाह-राणा साँगा के द्वितीय पुत्र महाराणा रतनसिंह के पश्चात् मेवाड़ की गद्दी पर राणा विक्रमादित्य बैठे । मगर सरदारों के साथ इनकी अनबन रहने से बहुत से सरदारों ने मिलकर इन्हें गद्दी से उतार दिया। इनके पश्चात् इनका भाई दासी पुत्र बनबीर गद्दी पर बैठा, इसकी प्रकृति बहुत कुटिल थी। उस समय मेवाड़ के भावी राणा उदयसिंह बिल्कुल बालक थे। बनवीर ने इन्हें मारने का षड्यन्त्र रचा। जब कुमार उदयसिंह भोजन करके सो गये और उनकी पन्ना नामक धाय उनकी सेवा कर रही थी, उसी समय रात्रि में रणवास में घोर आर्तनाद का शब्द सुनाई पड़ा । जिसे सुनकर पन्ना धाय डर उठी । इतने ही में वारी नामक नाई ने आकर उससे कहा कि बनवीर ने राणा विक्रमादित्य को मार डाला । यह सुनते ही बालक उदयसिंह की अनिष्ट आशंका से धाय का हृदय काँप उठा। उसने तत्काल १५ वर्ष के बालक उदयसिंह को वहाँ से चतुराई पूर्वक निकाल दिया और उसके स्थान पर अपने लड़के को लिटा दिया। इतने ही में बनवीर वहाँ आ पहुँचा और उसने उदयसिंह के धोखे में धाय के पुत्र को करल कर दिया।
इसके पश्चात् पन्ना धाय उदयसिंह को लेकर रक्षा के लिये कई स्थानों पर गई, मगर उस विपत्ति के समय किसी ने राजकुमार को शरण देना स्वीकार न किया। तब वह कुम्भलमेरु के किलेदार ओसवाल जातीय आशाशाह देपरा के पास गई, पहले तो आशाशाह ने शरण देने से इन्कार कर दिया । मगर जब उसकी माता को बात मालूम हुई तब उसने इस कायरता के लिये अपने पुत्र को बहुत फटकारा, और क्रोध में आकर उसे मारने को झपटी तब आशाशाह ने उसके पैर पकड़ लिये, और उदयसिंह को बहुत
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राजनैतिक और सैनिक महत्व
सम्मान के साथ शरण दी, और उसे अपना भतीजा कह कर प्रसिद्ध किया। जब कुमार उदयसिंह होशियार हो गया तब वीरवर आशाशाह ने कई सरदारों की मदद से उसे उसका राज सिंहासन दिला दिया और इस महान् पुरुष ने इस प्रकार से मेवाड़ के नष्ट होते वंश को बचा लिया। मेहता चीली
यह घटना उस समय की है जब कि बनवीर ने अपने षड़यंत्रों से महाराणा के स्थान पर चित्तौड़ में अपना अधिकार स्थापित कर लिया था और महाराणा उदयसिंहजी को वित्तौड़ छोड़ने के लिये बाध्य होना पड़ा था। इसी समय चित्तौड़गढ़ के किलेदार जालसी मेहता के बंशज चीलजी थे । चीलजी मेहता बड़े बुद्धिमान् स्वामिभक और वीर प्रकृति के पुरुष थे। इन्हें बनवीर की अधीनता बहुत खटक रही थी । ये कोई सुयोग्य अवसर की प्रतिक्षा में थे कि जिससे फिर चित्तौड़ पर महाराणा का अधिकार हो जाय।
उधर महाराणा उदयसिंह अबली में जाकर एक स्थान को पसंद कर वहीं रहने लगे। यही स्थान आजकल उदयपुर के नाम से प्रसिद्ध है। महाराणा के साथ आने वाले सरदारों के उत्साह से इन्होंने सेना का संगठन करना प्रारम्भ किया। अपने कतिपय सरदारों के साथ कूच कर रास्ते में बनवीर के कई गाँवों को हस्तगत करते हुए महाराणा चित्तौड़ पहुंचे। मगर चिचौड़ के किले को विजय करना हंसी-खेल नहीं था साथ ही इनके पास तोपखाने का भी उचित प्रबन्ध नहीं था। ऐसी परिस्थिति में किले को तोड़ना कठिन ही नहीं वरन असंभव था। कहना न होगा कि इस समय कुम्भलगढ़ के किलेदार वीर आशाशाह ने चीलजी मेहता को अपनी स्वामि भक्ति के लिये कहा और कहा कि यही समय वास्तविक सेवा का है। अस्तु ।
यह हम ऊपः लिखही चुके हैं कि मेहता. चीलजी किसी सुयोग्य अवसर की प्रतिक्षा में थे। अतएव फिर क्या था। उन्होंने युक्ति रचकर बनवीर से कहा कि महाराज किले में खाद्य-द्रव्य बहुत कम रह गया है अतएव यदि अज्ञा करें तो रात के समय किले का दरवाज़ा खोलकर सामग्री मंगवाली जाय । बनवार को यह युक्ति सोलह आने जंच गई। यह देख मेहता चीलजी ने सारे समाचार गुप्त रूप से प्रसिद्ध स्वामिभक्त आशाशाह को लिख भेजे ।
__ योजनानुसार ठीक समय पर किले का दरवाज़ा खोल दिया गया। उधर महाराणा के साथी वीर राजपूत सरदार एवम् योद्धा तैयार थे ही। बस, फिर क्या था, बड़ी शीघ्रता से ये लोग हजार पाँच सौ भैसों एवम् बैलों पर सामान लाद कर किले के फाटक में घुस गये। दाजे पर अधिकार कर हमला बोल दिया। चारों ओर घमासाच युद्ध प्रारम्भ हो गया । बनवीर हक्का-बक्का हो गया। केवल भागने के सिरा
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ओसवाल जाति का इतिहास उसके पास और कोई मार्ग उसकी रक्षा का न था। भतएव वह अपने बाल-बच्चों को लेकर लाखोटा की बारी से भाग गया। इस प्रकार मेहता चीलजी की बुद्धिमानी एवम् चतुराई से चित्तौड़ पर फिर से शुद्ध शिशोदिया बंश का राज्य कायम हो गाया।
भारमलजी कावड़िया
भारमलजी ओसवाल जाति के कावड़िया गौत्रीय सजन थे। ये मेवाड़ उद्धारक भामाशाह के पिता थे। शुरू २ में ये अलवर से बुलाये जाकर रणथम्भोर के किलेदार नियुक्त हुए । राणा उदयसिंह के शासनकाल में ये उनके प्रधान पद पर प्रतिष्ठित हुए। किलेदार से क्रमशः प्रधान पद पर पहुँचमा इस बात को सूचित करता है कि ये बड़े बुद्धिमान, स्वामिभक्त और राजनीति कुशल थे।
सर्वस्व त्यागी भामाशाह
इतिहास प्रसिद्ध त्यागमूर्ति वीरवर भामाशाह का नाम न केवल मेवाड़ में प्रत्युत सारे भारतवर्ष में इतना प्रसिद्ध हो गया है कि उनके सम्बंध में कुछ भी लिखना सूर्य को दीपक दिखलाने के सदृश निरर्थक है। स्वामि-भक्ति और देश-भक्ति का जो आदर्श उदाहरण इस पुरुष पुंगव ने रखा था वह इतिहास के अन्दर बड़ा ही अद्भुत है । राजस्थान केशरी स्वाधीनता के दिव्य पुजारी प्रातः स्मरणीय महाराणा प्रताप के नाम को आज भारतवर्ष में कौन नहीं जानता । माता के इस दिव्य पुजारी ने, स्वाधीनता के सच्चे उपासक ने अपने देश की आजादी के लिये, अपने आत्म गौरव की रक्षा के लिये; अपने राज्य, अपनी दौलत और अपने एशो-आराम को मुट्ठीभर धूल की तरह विर्सजन कर दिया था । आजादी का यह मतवाला उपासक अपने देश की स्वाधीनता के लिये जंगल २ और रास्ते २ की खाक को छानता फिरता था। इन भयंकर विपत्तियों के अन्दर यह वीरात्मा हमेशा पहाड़ की तरह अटल रहा. मगर संयोग की बात है एक समय ऐसा आया जब कि भयंकर से भकर विपत्तियों में भी अटल रहने वाले इस वीर को भी एक छोटी सी घटना ने विचलित कर दिया, इसके हृदय को चूर २ कर डाला । बात यह हुई कि एक दिन जंगली भाटे की रोटियाँ इन लोगों के लिये बनाई गई। इन रोटियों में से प्रत्येक व्यक्ति के हिस्से में एक २ रोटी-आधी सुबह और आधी शाम के लिये-आई । राणाजी की छोटी लड़की अपने हिस्से की उस भाधी रोटी को खा रही थी कि इतने में एक जंगली दिलाव आया और उसके हाथ से रोटी छीन ले गया। जिससे वह लड़की एक दम चीत्कार कर बैठी और भूख के मारे करुण-क्रंदन करने लगी। इस आकस्मिक घटना से महाराणा का
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ओसवाल जाति का इतिहास
भण्डारी गंगारामजी दीवान, जोधपुर.
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ओसवाल जाति का इतिहास
महाराणा प्रताप और मेवाड़-उद्धारक भामाशाह.
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राजनैतिक और सैनिक महत्व वज्र तुल्य हृदय भी द्रवित हो उठा और जिसने विपत्ति के लहराते हुए दरिया में भी अपने भापको रक्षित रखा था उसने उपरोक्त घटना के सम्मुख प्रात्मसमर्पण कर दिया। महाराणा ने इसी समय मेवाड़ को छोड़ने का रढ़ संकल्प कर लिया और उसे छोड़ने की तैयारी करने लगे।
इस समय महाराणा के प्रधान के पद पर ओसवाल जाति के कावड़िया गौत्रीय वीरवर भामाशाह प्रतिष्ठित थे । जब भामाशाह ने अपने स्वामी के देश त्याग की बात सुनी और यह भी सुना कि धनाभाव के कारण ही वे देश त्याग कर रहे हैं तो उनसे न रहा गया और वे अपने जीवन भर के सारे संचित द्रव्य को लेकर महाराणा के चरणों में उपस्थित हुए। महाराणा के पैर पकड़ कर उन्होंने उनसे वह धन ग्रहण करने की ओर देश न छोड़ने की प्रार्थना की । जब महाराणा को उस धन के ग्रहण करने में कुछ हिचकिचाहट होने लगी तो उन्होंने अत्यन्त नम्रता के साथ महाराणा से कहा कि “अन्नदाता यह शरीर और यह धन यदि अपने स्वामी और अपने देश के लिये काम माय तो इससे बढ़कर इसका सदुपयोग दूसरा नहीं हो सकता । इसे आप अपना ही समझें और निःसंकोच हो ग्रहण करें। कर्नल जेम्स टॉड के कथनानुसार वह धन इतना था कि जिससे २५ हज़ार सैनिकों का १२ वर्ष तक निर्वाह. हो सकता था। कहना न होगा कि इस विशाल सहायता के पाते ही राणा प्रताप ने अपनी बिखरी हुई शकि को पटोर कर रणभेरी बजा दी और बहुत शीघ्र अपने खोये हुए राज्य के बहुत बड़े हिस्से को (मादलगद और चितौड़ को छोड़कर सारा मेवाड़) पुनः अपने अधिकार में कर लिया। इन लड़ाइयों में भामाशाह की वीरता के हाथ देखने का भी महाराणा को खूब अवसर मिला और उससे वे बड़े प्रसन्न हुए। इसी समय से महात्मा भामाशाह की गिनती मेवाड़ के उद्धार कर्ताओं में होने लगी।
इस घटना को आज प्रायः साढ़े तीन सौ वर्ष होने को भा गये मगर आज भी मेवाड़ में भामाशाह के वंशज उनके नाम पर सम्मान पा रहे हैं। केवल मेवाड़ में ही नहीं प्रत्युत सारे भारतवर्ष के इतिहास में इस महापुरुष का नाम बड़े गौरव के साथ अक्षित किया जाता है। मेवाड़ राजधानी उदयपुर में भामाशाह के वंशजों को पंच पंचायती और अन्य विशेष अवसरों पर सर्व प्रथम गौरव दिया जाता है। कुछ वर्ष पूर्व जाति के लोगों ने भामाशाह के वंशजों की इस परम्परागत प्रतिष्ठा को दूर करने की कोशिश की थी मगर जब यह बात तत्कालीन महाराणा शम्भूसिंहजी को मालूम हुई तो उनको भामाशाह के वंश गौरव की रक्षा के लिये एक फरमान निकालना पड़ा था जो इस प्रकार है।
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
· श्रीरामो जयति
श्रीगणेशजी प्रसादात् , श्री एकलिंगजी प्रसादात्
(भाले का निशान)
सही
स्वति श्री उदयपुर सुभे सूथानेक महाराजाधिराज महाराणाजी श्री सरूपसिंघजी श्रादेशात कावड़या जैचन्द कुनणों वीरचन्द कस्य अप्रम् थारा बढ़ावा सा भामो कावड़यो ई राज म्हें साम ध्रमासु काम चाकरी करी जी की मरजाद ठेठसू य्याह म्हाजना की जातम्ह बावनी त्या चौका को जीमण वा सोग पूजा होवे जीम्हे पहेली तलक थारे होतो हो सो अगला नगरसेठ बेणीदास करसो कर्यो अर वे दर्याफ्त तलक थारे नहीं करवा दीदो आबरू सालसी दीखी सो नगे कर सेठ पेमचन्द ने हुकम कीदो सो वी भी अरज करी अर न्यात म्हे हकसर मालूम हुई सो अ तलक माफक दसतुर के थे थारो कराय्या जाजो श्रागा सु थारे बंसको होवेगा जीके तलक हुवा जावेगा पंचाने बी हुकम कर दरियो है सो पेली तलक थारे होवेगा। प्रबानगी मेहता सेरसीघ संवत् १९१२ जेठ सुद १५ बुधे x
मतलब यह कि महाजनों की जाति में बावनी ( समस्त जाति का भोज ) तथा चौके का भोजन व सिंह पूजा में पहला तिकक जो कि हमेशा से भामाशाह के वंशजों को होता आया है उनी के वंशजों को होता रहे।
मेवाड़ के अप्राप्य ऐतिहासिक ग्रंथ “वीर विनोद” में पृष्ठ २५१ पर लिखा है कि भामाशाह बड़ी सुरअत का आदमी था । यह महाराणा प्रताप के शुरू समय से महाराणा अमरसिंह के राज्य के २॥ तथा ३ वर्ष तक प्रधान रहा। इसने कई बड़ी २ लड़ाइयों में हजारों आदमियों का खर्चा चलाया। यह नामी प्रधान संवत् १६५६ की माघ शुक्ला को ५१ वर्ष और सात माह की उमर में परलोक को सिधारा। इसका जन्म संवत् १६०४ अषाढ़ शुक्ला .. (हि० ९५४ तारीख ९ जमादियुल अव्वल ई० स० १५४७ तारीख २८ जून) सोमवार को हुआ था । इसने मरने के एक दिन पहले अपनी स्त्री को एक बही अपने हाथ की दी और कहा कि इसमें मेवाड़ के खजाने का कुल हाल लिखा हुआ है जिस वक्त तकलीफ हो उस समय पह वही महाराणा की नज़र करना । यह खैरख्वाह प्रधान इस बही के लिखे कुल खजाने से महाराणा अमर
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राजनैतिक और सैनिक महत्वं
सिंह का कई वर्षों तक खर्चा चलाता रहा। मरने पर उसके बेटे जीवाशाह को महाराणा अमरसिंह ने प्रधान का पद दे दिया । " इन्हीं भामाशाह के भाई ताराचन्द हुए जो हल्दीघाटी के युद्ध तथा और भी कई युद्धों में बड़ी वीरता के साथ लड़े। भामाशाह के पुत्र जीवाशाह और उनके पुत्र अक्षयराज महाराणा अमरसिंह और कर्णसिंह के प्रधान रहे ।
महाराणा राजसिंह और संघवी दयालदास
मेवाड़ के इतिहास में संघवी दयालदास का स्थान राजनैतिक और सैनिक दोनों ही दृष्टियों से अत्यन्त महत्वपूर्ण है । दयालशाह का समय, वह समय था, जब रखगर्भा भारत वसुन्धरा की छाती परं औरगंजेब के अमानुषिक अत्याचारों का तांडव नृत्य हो रहा था। उसकी धर्मान्धता से चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था । अबलाओं, मासूमों और बेकसों पर दिन-दहाड़े अत्याचार होते थे, धार्मिक मन्दिर जमींदोज़ किये जाते थे, मस्तक पर लगा हुआ तिलक जबान से चाट लिया जाता था और चोटी बलपूर्वक मस्तक से जुदा कर दी जाती थी । इस अत्याचार को और भी प्रबल करने के लिये उसने हिन्दुओं पर जज़िया कर लगाने का विचार किया, जिससे सारे देश का रहा सहा असंतोष और भी प्रज्वकित हो उठा। ऐसे संकट के समय में मेवाड़ के राणा राजसिंह ने औरंगजेब को एक पत्र लिखा, जिसमें ऐसा अमानुषिक का करने की सलाह दी । । इससे औरंगजेब का क्रोध और भी भड़क उठा और उसने अपनी विशाल सेना के साथ मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। उसकी सेना मे वि० सं० १७३६ के भाद्रपद शुक्ला ८ के दिन देहली से कूँच किया। उस समय महाराणा राजसिंह के प्रधान मंत्री संघवी दयालदास थे। इस युद्ध में महाराणा राजसिंह ने जिस रण कुशलता और चतुराई के साथ औरंगजेब की विशाल सेना को पराजय दी, वह इतिहास के पृष्ठों में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। यहाँ यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि इस सारी रण-कुशलता और चतुराई के अंदर मंत्री दयालदास कंधे बकंधे महाराणा राजसिंह के साथ में थे। महाराणा राजसिंह संघवी दयालदास की सेवाओं से बड़े प्रसन्न हुए और औरंगजेब के द्वारा सेवाद पर की गई चढ़ाई का बदला लेने के लिये संघवी दयालदास को बहुत सी सेना के साथ मालवे पर आक्रमण करने के लिये भेजा । वीर दयाल - दास ने किस बहादुरी और तेजस्विता के साथ उसका बदला लिया इसका वर्णन प्रकार किया है:
कर्नल जेम्स टॉड ने इस
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" राणाजी के दयालदास नामक एक अत्यन्त साहसी और कार्य्यं चतुर दीवान थे; मुगलों से बदला लेने की प्यास उनके हृदय में सर्वदा प्रज्वलित रहती थी उन्होंने शीघ्र चलनेवाली घुड़सवार सेना को साथ लेकर नर्मदा और बेतवा नदी तक फैले हुए मालवा राज्य को लूट लिया, उनकी प्रचण्ड भुजाओं के बल के सामने
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पोसवाल जाति का इतिहास
कोई भी खड़ा नहीं रह सकता था, सारंगपुर, देवास, सरोज, मांडू, उजैन और चन्देरी इन सबै नगरों को इन्होंने अपने बाहु-बल से जीत लिया, विजयी दयालदास ने इन नगरों को लूटकर वहाँ पर जितनी यवन सेना थी, उसमें से बहुतसों को मार डाला; इस प्रकार बहुत से नगर और गाँव इनके हाथ से उजाड़े गये। इनके भय से नगर-निवासी यवन इतने म्याकुल हो गये थे, कि किसी को भी अपने बन्धु बाँधव के प्रति प्रेम न रहा, अधिक क्या कहें, वे लोग अपनी प्यारी स्त्री तथा पुत्रों को भी छोड़ २ कर अपनी २ रक्षा के लिये भागने लगे, जिन सम्पूर्ण सामग्रियों के ले जाने का कोई उपाय उनको दृष्टि न आया अन्त में उनमें अग्नि लगाकर चले गये। अत्याचारी औरंगजेब हृदय में पत्थर को बाँधकर निराश्रय राजपूतों के ऊपर पशुओं के समान आचरण करता था, आज उन लोगों ने ऐसे सुअवसर को पाकर उस दुष्ट को उचित प्रतिफल देने में कुछ भी कसर नहीं की, संघवी दयालदास ने हिन्दू-धर्म से बैर करने वाले बादशाह के धर्म से भी पल्टा लिया। काजियों के हाथ पैरों को बांधकर उनकी दाढ़ी मूंछों को मुंडा दिया और उनके कुरानों को कुए में फेंक दिया। दयालदास का हृदय इतना कठोर हो गया था कि, उन्होंने अपनी सामर्थ्य के अनुसार किसी भी मुसलमान को क्षमा नहीं किया। तथा मुसलमानों के राज्य को एक बार मरुभूमि के समान कर दिया, इस प्रकार देशों को लूटने और पीड़ित करने से जो विपुल धन उन्होंने इकट्ठा किया, वह अपने स्वामी के धनागार में दे दिया और अपने देश की अनेक प्रकार से वृद्धि की थी।"
____ विजय के उत्साह से उत्साहित होकर तेजस्वी दयालदास ने राजकुमार जयसिंह के साथ मिलकर चित्तौड़ के अत्यन्त ही निकट बादशाह के पुत्र अजीम के साथ भयंकर युद्ध करना आरम्भ किया । इस भयंकर युद्ध में राठोड़ और खीची धीरों की सहायता से वीरवर दयालदास ने अजीम की सेना को परास्त कर दिया, पराजित अजीम प्राण बचाने के लिये रण थंभोर को भागा, परन्तु इस मगर में थाने के पहले ही उसकी बहुत हानि हो चुकी थी, कारण कि विजयी राजपूतों ने उसका पीछा करके उसकी बहुत सी सेना को मार डाला । जिस अजीम ने एक वर्ष पूर्व चित्तौड़ नगरी का स्वामी बन अकस्मात् उसको अपने हाथ में कर लिया था, आज उसको उसका उचित फल दिया गया" ।*
वीर दयालदास ने इन युद्धों के सिवा और भी कितने ही युद्ध किये। उनकी बहादुरी और राजनीति कुशलता से महाराणा राजसिंह बड़े प्रसन्न रहते थे। इन सिंघवी दयालदास के हस्ताक्षरों का राणा राजसिंह का एक आज्ञापन कर्नल टाड ने अंग्रेजी राजस्थान के परिशिष्ठ नं. ५ पृष्ट ६९७ में अंकित किया है, जिसका मतलब इस प्रकार है:
.टाड राजस्थान द्वितीय खण्ड अध्याय बारहवां पृष्ठ ३६७.३६८ ।
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राजनैतिक और सैनिक महत्व
"महाराणा श्री राजसिंह मेवाड़ के दस हजार गाँवों के सरदार, मन्त्री और पटेलों को भाज्ञा देता है, सब अपने २ पद के अनुसार पढ़ें ।
१ - प्राचीन काल से जैनियों के मन्दिरों और स्थानों को अधिकार मिला हुआ है, इस कारण कोई मनुष्य उनकी सीमा में जीव-बध न करे । यह उनका पुराना हक है ।
२- जो जीव नर हो या मादा, वध होने के अभिप्राय से इनके स्थान से गुजरता है वह अमर हो
जाता है।
२३ - राजद्रोही, लुटेरे और काराग्रह से भागे हुए महा अपराधी को भी जो जैनियों के उपासरे में शरण ग्रहण कर लेगा, उसको राज कर्मचारी नहीं पकड़ेंगे ।
४ - फसल में कूंची (मुट्ठी ), कराना की मुट्ठी, दान की हुई भूमि, धरती और अनेक नगरों में उनके बनाए हुए उपासरे कायम रहेंगे ।
५ – यह फरमान यति मान की प्रार्थना पर जारी किया गया है, जिसको १५ बीघे धान की भूमि के और २५ बीघे मालेटी के दान किये गये हैं। नीमच और निम्बाहेड़ा के प्रत्येक परगने में भी हरएक जती को इतनी ही पृथ्वी दी गई है। अर्थात् तीनों परगनों में धान के कुल ४५ बीघे और मालेटी के ७५ बीघे ।
इस फरमान को देखते ही पृथ्वी नाप दी जाय और दे दी जाय और कोई मनुष्य जतियों को दुःख नहीं दे, बल्कि उनके हकों की रक्षा करे । उस मनुष्य को धिक्कार है जो उनके हकों को उलंघन करता है। हिन्दू को गौ और मुसलमान को सुवर और मुदारी कसम 1 संवत् १७४९ महा सुवी ५ ई० सं० १६९३ । शाह दयाल मन्त्री ।
इन्हीं दयालशाहजी ने राजसमंद के पास वाली पहाड़ी पर एक किलेनुमा श्रीआदिनाथजी का भव्य मन्दिर बनवाया जिसका विवरण धार्मिक अध्याय में दिया जायगा ।
मेहता अगरचन्दजी
जिस समय महाराणा अरिसिंहजी और महाराणा हमीरसिंहजी मेवाड़ के राजनैतिक गगन में अवतीर्ण हुए थे, उस समय भारतवर्ष का राजनैतिक वातावरण धुआँधार हो रहा था। सारे देश के अन्तगंत जिसकी लाठी उसकी भैंस (Might is right) वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी । समस्त भारत की राष्ट्रीयता धूलधानी हो रही थी; सब से बड़े अफसोस की बात यह थी कि उस सारे उपद्रव मय वायुमण्डल के अन्दर उच्च नैतिकता का एक जर्रा भी बाकी न रहा था। जातियाँ सब कुछ खो देती हैं, उनकी
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्वतन्त्रता नष्ट हो जाती है; उनकी राष्ट्रीयता भंग हो सकती है; उनका आत्मसम्मान भी चला जाता है मगर यदि उनके अन्दर नैतिकता का कोई अंश शेष रह जाता है तो वह उस नैतिकता के बल से इन सब खोई हुई चीजों को एक जोरदार धक्के के साथ पुनः प्राप्त कर लेती हैं। मगर जो जाति अपनी नैतिकता को खो चुकती है उसके भविष्य के अन्दर प्रकाश की एक रेखा भी बाकी नहीं रह जाती; उसका सर्वस्व चला जाता है । भारतीय जातियों का भी ठीक यही हाल था। वे अपनी नैतिकता को खो बैठी थीं। सारे देश में कोई भी ऐसी बलवान शक्ति का अस्तित्व शेष न था, जो देश के वातावरण को एकाधिपत्य में रख सके। देश की शान्ति स्वप्नवत हो गई थी; राजा लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे थे औरंगजेब के मरते ही मुगल साम्राज्य के तख्त के पाये जीर्ण हो गये, जिसका लाभ उठा कर दक्षिण में मरहठा लोग शिवाजी के महान आदर्श को भूल कर अपनी २ स्वार्थं लिप्सा को चरितार्थ करने के लिये लूटमार मचा रहे थे; दूसरी ओर होलकर और सिंधिया अपने २ राज्य विस्तार की चिन्ता में यत्र-तत्र आक्रमण कर रहे थे । तीसरी भोर राजपूताने के राजा अपनी सारी संगठन शक्ति को खोकर प्रतिहिंसा की आग में बावले हो रहे थे; चौथी ओर पिण्डारी दल अपनी भयंकर लूटमार से जनता के अमन आमान को खतरे में डाले हुए था और इन सब से ऊपर इन सब लोगों की कमजोरी और पारस्परिक फूट व वैमनस्यता का फ़ायदा उठा कर बुद्विमान अंग्रेज़ अपनी राज्य-सत्ता का विस्तार करने में लगे हुए थे 1
हुए ।
ऐसी भीषण परिस्थिति के अन्तर्गत ई० सन् १७६२ में महाराणा अरिसिंहनी सिहांसनारूढ़ आपका मिजाज बहुत तेज होने के की वजह से आपके विरोधियों की संख्या शीघ्र बढ़ गई। सलू म्बर, बीजौलिया, आमेर तथा बदनोर को छोड़ कर प्रायः मेवाड़ के सारे सरदार इनके खिलाफ हो गये और इन सरदारों में महाराणा के खिलाफ सिंधिया को निमन्त्रित किया। एक बार तो अरिसिंहजी की सेना ने सिंधिया की सेना को परास्त कर दिया मगर दूसरी बार फिर सिंधिया ने आक्रमण किया और इस बार मेवाड़ की सेना पराजित हुई । अरिसिंहजी ने ६४ लाख रुपया सिंधिया को देने का इकरार करके अपना पिंड छुड़ाया। इस रकम में से ३३ लाख रुपय़ा तो किसी प्रकार महाराणा ने नकद दे दिया और शेष के लिये जावद, जीरण, नीमच आदि परगने सिंधिया के यहाँ पर गिरने रख दिये। इसी समय होकर मे भी निम्बाहेड़े का परगना ले लिया । इस प्रकार मेवाड़ का बहुत उपजाऊ और कीमती हिस्सा मेवाड़ से निकल गया । ऐसे विकट समय में मेहता अगरचन्दजी को महाराणा अरिसिंहजी ने अपना दीवान बनाया और एक बहुत बड़ी जागीर के द्वारा उनका सम्मान किया। मेहता अगरचन्दजी बड़े स्वामिभक्त और कर्त्तव्य परायण व्यक्ति थे। जिस प्रकार मिलिटरी लाइन में वे अपनी बहादुरी व सैनिक शक्ति की वजह से प्रसिद्ध हुए उसी प्रकार राजनीति और शासन कुशलता के अन्दर उन्होंने अपने गम्भीर मस्तिष्क
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राजनैतिक और सैनिक महत्व
से बड़े सुन्दर कारनामें कर दिखाये। इन्होंने सब से प्रथम मेवाद के सरदारों के बीच लगातार चार वर्षों से चली आई लड़ाई को शांत कर मेवाड़ में पुनः शान्ति स्थापित की।
इस प्रकार मेवाड़ के अन्तर्गत शान्ति स्थापित कर इस वीर योद्धा ने मेवाड़ के राज्य विस्तार की ओर अपना हाथ बढ़ाया। इन्होंने सबसे प्रथम महाराणाजी की आज्ञा लेकर मॉडलगढ़ पर आक्रमण कर दिया। उस समय मेवाड़ राज्य के इस किले पर मेवाड़ के कुछ बागी सरदारो ने अपना अधिकार कर रक्खा था तथा इस जिले के कुछ गाँवों को छोड़ कर शेष सारे जिले में इन बागी सरदारों का अधिकार हो गया था। ऐसी परिस्थिति में मेहता भगरचंदजी एक बड़ी सेना लेकर इन बागी सरदारों की शक्ति को तहस नहस करने के लिये मांडलगढ़ पहुंचे तथा वहाँ जाकर पीरता पूर्वक लड़ने के पश्चात् मांडलगढ़ पर अपना पूर्ण अधिकार स्थापित कर लिया। इस विजय से महाराणा साहब आपके उपर बड़े खुश हुए और आपका सत्कार करने के लिये आपके नाम पर एक खास सक्का इनायत किया जिसकी नकल नीचे दी जाती है।
_ "रुको मेहता भाई अगरा जोग अप्र परगणो मांडलगढ़ गेर अमली होर श्रीदरबार रो हुकम उठाय दीदो जणी थी थाहे माणा डील जू जाण ने मेलो है सो दरबार रो सुधरेनँ कीजे सुधारतां बीगड़ जावे तो भी अटकाव राखे मती थारा मनख कवीला सुदी वठे रीजे सो श्री पकलिंगजी को राज रहेगा जत्रे ऊ परगणो तो थारा बाप रो जाणागां ई मे फरक पाड़े जी ने श्री एकलिंगजी पूगसी उठारो निपट जापतो राख अठारी समाल आय कीजे थारे मी जगा बणावजे
और आसामियां भी बसाव खात्री कर दीजै जणी परमाणे नभेगा मारो बचन है दल हाथ राख किला रो निपट जापतो राखजे में भी राजता गाजता किला पर आवां तो किला पर आवा दीजे कोई तरे ओछ रखिहे तो श्री एकलिंगजी का घर में धांसू समझांगा संवत १८२२ का काती बुदी १२ बुधवार
इस रुवके के अन्दर उदयपुर के महाराणा ने मेहता अगरचंदजी को उनके मांडलगढ़ की फतह पर बधाई देकर के बड़े सत्कार सहित उन्हें मांडलगढ़ का शासक ( Governor ) नियुक्त किया। इसके . साथ ही महाराणा जी ने यह भी लिखा कि हम यह मांडलगढ़ का किला तुम्हारे बाप दादों की प्रापर्टी (सम्पत्ति) मानेंगे। तुम इस किले की बड़ी चतुराई से रक्षा करना और खुद वहाँ पर बस कर प्रजा को भी सुविधायें देकर के बसाना ।
इस प्रकार रुक्के प्रदान कर महाराणाजी ने मेहता अगरचंदजी के प्रति अपना अगाध विश्वास प्रगट किया। मेहता अगरचंदजी ने भी आपकी आज्ञा को शिरोधार्य कर मांडलगढ़ में निवास करना
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आरम्भ कर दिया। आपने धीरे २ शत्रुओं की शक्ति को चूर २ करके सारे जिले के अन्तर्गत शांन्ति स्थापित की। इसके कुछ दिनों पश्चात् आप खवास गुलाबजी को मांडलगढ़ का शासक (Governor ) नियुक्त कर उदयपुर दरवार में आ दाखिल हुए।
मेहता अगरचंदजी ने उदयपुर दरबार में पुनः काम करना आरम्भ कर दिया । यह हम ऊपर लिख चुके हैं कि आप बड़े कुशल राजनीतिज्ञ थे। इसी समय रतनसिंह ने राज्य प्राप्ति की लालसा से कई सरदारों को मिलाकर एक बड़े षड्यंत्र की रचना की और उसमें मरहठा सरदार सिंधिया को भी आमन्त्रित किया। मेहता भगरचन्दजी निकट भविष्य में आनेवाली इस भापत्ति को तुरंत ताड़ गये तथा रावत पहाड़सिंहजी एवं शाहपुरा नरेश राजाधिराज उम्मेदसिंहजी के साथ इस षड्यंत्र की सब शक्तियों को नष्ट करने के लिये आक्रमण की तयारी करने लगे। लेकिन रतनसिंह अपने पड्यंत्र को बहुत मजबूत बना सुका था और इनके युद्ध के लिये तयार होने के पहले पहले अपनी पूरी २ शक्ति संचित कर चुका था। उधर मरहठा सरदार सिंधिया भी इनकी मदद पर भा पहुंचा । फिर क्या था, अत्यन्त वीरता पूर्वक लड़ने पर भी महाराणा की फौज हार गई और रावत पहाड़सिंहजी तथा शाहपुराधीश राजाधिराज उम्मेदसिंहजी वीरतासे लड़ते २ काम आये । उसी समय मेहता भगरचन्दजी भी बड़ी धीरता से लड़ते हुए शत्रु दल द्वारा पकड़े गये । इस प्रकार इस वीरवर योद्धा के पकड़े जाने से विरोधी पक्ष को बड़ी प्रसन्नता हुई । उस समय भी मेहता अगरचन्दजी ने अपूर्व स्वामिभक्ति का परिचय दिया। विरोधी दल वालों ने आपको, इस शर्त पर कि आप रतनसिंह को महाराणा मान लें, छोड़ना स्वीकार किया परन्तु आपने निर्भीकता से इसके लिये इन्कार कर दिया। जब ये बातें महाराणा को मालूम हुई तो वे बड़े दुखी हुए और उन्होंने मेहता अगरचन्दजी को इस आशय का एक रुक्का लिखकर भेजा कि तू मेरा श्यामधर्मी नौकर है और उज्जैन के झगदे के बिगड़ने के कारण तुझे जिन २ कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है उनको जानकार मुझे बड़ी अमूझणी आ रही हैं। अब तू शत्रु के पंजे से जैसा वे कहलार्वे वैसा कह कर तुरंत चले आना। हमारा तुम पर पूरा विश्वास है । उस रुक्के की नकल इस प्रकार है
"स्वस्ती श्री भाई अगरा जोग अपरंची उजीण रो झगड़ो बिगड़ गयो जी री म्हारे पूरी अमूझणी है तथा यां जसा सपूत चाकर मारे है सो या अमूझणी भी श्रीएकलिंगजी मेटेगा परन्तु तू पकड़ाय गयो और गनीम था नकासुं जबान केवाय छोड़े जणी हेतु तू चारे नहीं या थाहें नहीं पावे म्हारे तो आंधा लकड़ी तू है थांथी ही राज करा हां अब वे केवावे जो कहेन जीब बचा हजूर हाजर होजे अणी करवा में थारा साम धरमी में फरक जाणा तो श्रीएकलिंगजी
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रा हजार हजार सौगन है तू माठचीराखी है तो थारो जीव हर मारो राज जावेगा जीरो म्हूँ थारो दावणगीर होऊँगा अठा सु सौसिंहजी हे मी लिख्यो है सो जूं बणे जूं छूट हजूर हाजिर हुजै अणी मैं औछ राखी है तौ थाहें माणा लाख सूस है सम्वत् १८२५ रौ वरस महा वुद १३"
इस रुक्के से पाठकों को यह स्पष्टतः ज्ञात होगा कि मेहता अगरचन्दजी के कार्यों में महाराणाजी का कितना विश्वास था और उनकी सुख दुख की दशा में वे कितनी हमदर्दी प्रदर्शित करते थे। मेहता अगरचंदजी भी इस पत्र को पाते ही शिवचंद्रजी की मदद से शत्रु के पंजे से छूट कर निकल आये और महाराणा की सेवा में उपस्थित हुए । महाराजा ने आपका बहुत सम्मान किया और उसी प्रधानगी के उच्च पद पर आपको अधिष्ठित किया। कहने का मतलब यह है कि महाराणा को आपकी सेवाओं से बड़ा संतोष रहा जिसकी भूरि २ प्रशंसा आपने अपने निन्निलिखित रुक्के में मुक्त कंठ से की है।
सिद्ध श्री भाई मैहता अगरा जोग अप्र मे तो थां सपूत चाकर थी नचीता हाँ राज थारा वापरौ छै थाहरी सेवा बंदगी म्हारा माथा पर छै निपट तू म्हारो साव धौ छै थारी चाकरी तो सपना मै भी भुला नहीं ई राज माहें आधी रोटी होसी जो भी बटका पेली थाने दे र खासां थारां वंश का सूं उरीण होवां पावां नहीं सीसोदिया हौसी जो तो थारा बंस काने आखां की पलकां पर ही राखसी फरक पाड़ेगा तौ जीणने श्रीएकलिंगजी पूगसी ई राज म्हें तौ म्हारा बैटा बच भी . थारा बैटा रो उर सौ वत्तो छै कतराक समाचार धाभाई रूपा रा साह मोतीराम बूल्यारा कागद सं जाणौगा सम्वत् १८२३ वरषै वैसाख वुदी १० गुरै
महाराणा अरिसिंहजी के पश्चात् संवत् १८२९ में उदयपुर के सिहांसन पर महाराणा हमीरसिंहजी विराजे । आप भी मेहता अगरचन्दजी की वीरता, कारकीर्दी एवं स्वामिभक्ति से बड़े प्रसन्न थे । महाराणा हमीरसिंहजी केवल ४ सालों तक राज्य कर संवत् १८३४ में स्वर्गवासी हुए । आपके जीवन काल में ऐसी कोई विशेष उल्लेखनीय घटना घटित न हुई ।
महाराणा हमीरसिंहजी के पश्चात् महाराणा भीमसिंहजी उदयपुर के राज्यासन पर आरूढ़ हुए। उसी समय की बात है कि रामपुरा के चन्द्रावतों को मेहता अगरचन्दजी ने अपने यहाँ पर शरण दी । इस घटना से चन्द्रावतों के विरोधी ग्वालियर के सिंधिया को बड़ा क्रोध आया और उसने लखाजी तथा अम्बाजी के सेनापतित्व में मेहता अगरचन्दजी को परास्त करने के लिए एक बहुत बड़ी सेना भेजी। इस सेना का मेवाड़ की सेना के साथ घमासान युद्ध हुआ और अंत में मेहता अगरचन्दजी की ही विजय हुई। इसी प्रकार की और कई घरेलू लड़ाइयों में मेहता अगरचन्दजी ने हमेशा अपने स्वामी महाराणा भीमसिंह का पक्ष लिया और आजीवन तक वे बड़ी वीरता से युद्ध करते रहे।
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मेहता अगरचंदजी बड़े वीर और रणकुशल व्यक्ति ही नहीं थे वरन् एक अच्छे शासक भी थे। उन्होंने मेवाड़ के इस अशान्ति काल में मांडलगढ़ का शासन बड़ी योग्यता से किया। आपने मांडलगढ़ निवासियों की सुविधा के लिये कई अच्छे २ काम किये तथा सैकड़ों बाहर के लोगों को लाकर बसाया । मापने वहाँ पर सागर और सागरी नामक दो बड़े २ जलाशय बनाये और किले की मरम्मत करवा कर उसे शत्रु के भय से सुरक्षित कर दिया। उदयपुर के तत्कालीन महाराणाजी ने भी आपकी बहुमूल्य सेवाओं से प्रसन्न होकर आपको वहाँ की तलेठी में जालेसवार नामक तालाब जागीरी में बख्शा ।
इसके बाद की घटना है कि शाहपुरा नरेश ने बलवा करके मेवाड़ राज्य के जहाजपुर जिले को अपने कब्जे में कर लिया। इस पर उदयपुर के महाराणाजी की आज्ञा लेकर मेहता अगरचन्दजी ने एक बहुत बड़ी सेना के साथ शाहपुरा के राजाधिराज पर आक्रमण कर दिया । इस चढ़ाई में शाहपुरा के महाराजाधिराज तथा मेहता अगरचन्दजी के बीच घमासान लड़ाई हुई। इस लड़ाई में भी मेहता अगरचन्दजी की विजय हुई और जहाजपुर का सारा परगना पुनः मेवाड़-राज्यान्तर्गत आगया।
. कहने का मतलब यह है कि मेहता अगरचन्दजी बड़े वीर, रणकुशल तथा स्वामिभक्त व्यक्ति थे । आपके जीवन को प्रत्येक घटना में इन बातों का पूरा २ समावेश था। आप बड़े राजनीतिज्ञ तथा दूरदर्शी भी थे। मापने अपने अन्तिम समय में अपने वंशजों के लिए उपदेशों का एक बहुमूल्य संग्रह लिखा जो आज भी भापके वंशजों के पास है और जिससे आपकी राजनीतिज्ञता और विद्वत्ता का गहरा परिचय मिलता है।
जहाजपुर की लड़ाई में घायल हो जाने से मेहता अगरचन्दजी का स्वर्गवास सम्वत् १८५७ की असाढ़ कृष्णा चतुर्दशी को हो गया। आपके स्वर्गवास से महाराणा भीमसिंहजी को बहुत दुःख हुआ। आपने इनके कामदार मौजीरामजी के पास मातमपुरसी के लिये एक कागज भेजा, जिस की नकल नीचे दी जा रही है:
. सिद्धश्री मोजीरामजी महता जोग अपच मेहताजी श्रीशिवशरणे हुआ श्रीजी म्हांथी घणी बुरी कीधी, म्हांके तो श्री दाजी राज श्री बाई आज देवलोक हुआ है वारे कांधे कवर पणो हो थारे तो यूँ हूँ सो कई फिकर करो मती मनख होसैं तो थारो जतन ही करसैं घणी कांई लिखू लिख्यो न जाय सारी बात हिम्मत थी काम कीजो नराई मत लावजो सावण बुदी ५ सोमवार
उपरोक्त सारे विवरण से मेहता अगरचन्दजी की राजनीति कुशलता, और महाराणा का उनपर भगाध विश्वास बहुत आसानी से प्रकट हो जाता है। ऐसे कठिन समय में इतनी बुद्धिमानी के साथ सारे
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राजनैतिक और सैनिक महत्व
राज्य की जिम्मेवारी को ग्रहण करके उसे अन्त तक निभा ले जाने के उदाहरण इतिहास में बहुत कम मिलते हैं। मोतीरामजी बालिया
महाराणा अरिसिंहजी के समय में ओसवाल जाति के बोल्या वंश के साहा मोतीरामजी भी प्रधान रहे । ये सुप्रसिद्ध रंगाजी के वंशज थे, जो कि महाराणा अमरसिंहजी ( बड़े) और कर्णसिंहजी के समय में प्रधान के पद पर रहे थे, इन्हीं रंगाजी ने बादशाह जहाँगीर और अमरसिंहजी के बीच समझौता करवाकर मेवाड़ से बादशाही थाना उठवाया था। महाराणा साहब ने इनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर हाथी पालकी का सम्मान और चार गाँव की जागीर ( मेवदा; काणोली, मानपुरा भी जामुणियो ) का पट्टा इन्हें बक्षा था। उदयपुर की सुप्रसिद्ध घूमटा वाली हवेली आपने ही बनवाई थी।
प्रधान मोतीरामजी भी इस वंश में बड़े सुप्रसिद्ध पुरुष हुए। आपको भी महाराणा साहब से कई रुक्के प्राप्त हुए। आपके भाई मौजीरामजी भी महाराणा साहब की भाशा से जावद, गोपाद, चित्तौड़, कुम्भलगद, मॉडलगढ़ इत्यादि कई स्थानों पर सेना लेकर दुश्मनों से लड़ने गये थे । भापके कार्यों से महाराणा साहब ने प्रसन्न होकर कई खास रुक्के बक्षे थे उनमें से एक की नकल नीचे दी जा रही है
श्री रामोजयति श्री गणेश प्रसादातु
श्री एकलिंग प्रसादातु भाले का निशान
सही स्वति श्री उदयपुर सुथांने महाराजधिराज महाराणा श्रीअरसिंहजी आदेशातु साह मोजाराम कस्य १ अप्रं गोड़वाड़ तोहे सावधरमी जाणे भलाई है........."एका एक नकस ऊपर खपजे.....(वगेरा) संमत १८२३ वर्षे चैत सुदी । मोमेर इसी पत्र के हासिये पर खास श्री हस्ताक्षरों से लिखा हुआ है।
तुं खात्र जमा बंदगी की यारी कोई सांची भूठी केगा तो तार काड्या बिना पोखम्बों दां तो म्हाने श्री एकलिंगजी री आण कदी मन में संदे लावे मत ने थने परगणो मोडबाड रो भलाग्यौ है सो सावधरमी व्वे जणा ने दिलासा दिजे न बंदगी में कसर राखे जाने सजा दीजे म्हारो हुकम है तु या जाणजे सो हूं तो तीरे उभो हूं खरची लागे जी रो कई विचार राखे मत....."थारी दाय आवे जीने तो दीजे ने दाय आवे जीरो उरो लीजे
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ओसवाल जाति का इतिहास
शाह मोतीरामजी के पश्चात् उनके पुत्र एकलिंगदासजी केवल १८ वर्ष की वय में प्रधान बनाये गये । मगर आपकी उम्र बहुत कम होने से प्रधान का काम आपके काका सहा मौजीरामजी देखते रहे । मगर जब इनका भी स्वर्गवास हो गया तो एकलिंगजी ने प्रधान के पद से इस्तिफा दे दिया। महाराणा साहब की आप पर भी बहुत कृपा रही । आपको कई वार फौजें लेकर भिन्न २ स्थानों पर युद्ध करने के लिये जाना पड़ा था । आप बहादुर एवम् वीर प्रकृति के पुरुष थे । : महाराणा भीमसिंह और प्रोसवाल मुत्सुद्दी
सोमचंद गाँधी-सन् १७६८ में उदयपुर के राज्य सिंहासन को महाराणा भीमसिंहजी (द्वितीय) सुशोभित कर रहे थे। इनके राजस्व काल में मेवाड़ की बहुत सी भूमि दूसरों के अधिकार में जाचुकी थी। बहुत से सरदार राज्य से बागी हो गये थे। खजाना एक दम खाली हो गया था। यहाँ तक कि राज्य प्रबन्ध का साधारण खर्च चलाना भी मुश्किल हो रहा था । ऐसी परिस्थिति में सोमजी गाँधी जनानी ड्योढ़ी पर काम कर रहे थे। ये सोमजी ओसवाल जाति के गांधी गौत्रीय सज्जन थे। ये बड़े बुद्धिमान, कुशाग्र बुद्धि एवम् समय सूचक व्यक्ति थे ।
यह हम ऊपर लिख चुके हैं कि मेवाड़ का खजाना खाली हो गया था । जब कभी महाराणा को द्रव्य की आवश्यकता होती तो उन्हें तत्कालीन चूंडावत सरदार रावत भीमसिंहजी वगैरह का मुंह ताकना पड़ता था। इन भीमसिंहजी ने सब प्रकार से महाराणा को अपने वश कर रखा था। एक समय का जिक्र है राजमाता ने इन्हीं चूंडावत सरदार से महाराणा के जन्म दिन की खुशी में उत्सव मनाने के लिये रुपयों की आवश्यकता बतलाई। मगर चूंडावत बड़े चालाक थे। उन्होंने रुपया देने में टालम टूल कर दी। इससे राजमाता बहुत अप्रसन्न हुई। ऐसे ही अवसर को उपयुक्त जान सोमजी गांधी ने रामप्यारी नामक एक स्त्री के द्वारा राजमाता से अर्ज करवाई कि यदि आप मुझे प्रधान बनादें तो मैं रुपयों का प्रवन्ध कर सकता हूँ। कहना न होगा कि राजमाता द्वारा सोमजी प्रधान बना दिये गये।
सोमजी बड़े कार्यकुशल और योग्य व्यक्ति थे। सब से प्रथम उन्होंने मेवाड़ की पतनावस्था के कारणों को सोचा । उन्होंने सोचा कि जब तक मेवाड़ी सरदारों के आपसी मनमुटाव व वैमनस्य को न मिटाया जायगा, तब तक मेवाड़ का इस प्रकार की शोचनीय दशा से उद्धार पाना कठिन है। अतएव उन्होंने अपने विचारों को कार्य रूप में परिणित करने के लिये शक्तावत्तों से मेल जोल बढ़ाया और इनकी सहायता से कुछ रुपये एकत्रित कर राजमाता के पास भेजे । जब यह बात रावत भीमसिंहजी ने सुनी
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राजनैतिक और सैनिक महत्व तो उन्हें बहुत बुरा लगा। वे अब हमेशा इसी चिन्ता में रहने लगे कि किस प्रकार सोमजी गांधी का कंटक मार्ग से दूर हो।
इधर प्रधान सोमजी गांधी ने राजमाता द्वारा कई बिगड़े सरदारों को खिल्लत व सरोपाव दिलवा कर उन्हें वश में करने की कोशिश की। साथ ही भिंडर के स्वामी शक्तावत मोहकमसिंहजी के पास जो करीब २० वर्षों से राज्य वंश के विरुद्ध हो रहे थे, महाराणा को भेजकर उन्हें सम्मान सहित उदयपुर बुलवाये। इसी प्रकार रामप्यारी को सलूम्बर भेजकर रावत भीमसिंहजी को जो शक्तावतों का जोर हो जाने के कारण उदयपुर छोड़ कर चले गये थे वापस उदयपुर निमंत्रित किया, क्योंकि उन्हें मेवाड़ राज्य से मरहठों को भगाना था उपरोक्त काम कर लेने के पश्चात् इन्होंने जयपुर और जोधपुर के महाराजाओं को भी मरहठों के विरुद्ध खड़ा किया । इस प्रकार कार्य्यं कर उन्होंने खिलाफ एक बहुत बड़ा वातावरण पैदा कर दिया ।
राजपूताने में मरहठों के
चूंडावत सरदार रावत भीमसिंहजी ने यद्यपि ऊपरी तौर पर सोमजी गांधी वगैरह से मेल कर लिया था मगर उनके दिल में हमेशा सोमजी से बदला लेने की प्रवृत्ति उत्तरोशर बढ़ती ही गई। उन्होंने इसी बीच और भी कुछ सरदारों को अपनी ओर मिला लिया । अन्त में एक दिन जब कि सोमजी महलों में थे तब कुराबड़ के रावत अर्जुनसिंह और चांवड़ के रावत सरदारसिंह दोनों व्यक्ति भी महलों में पहुँचे । वहां जाकर उन्होंने सलाह करने के बहाने से सोमजी को अपने पास बुलवाया और यह पूछते हुए कि "तुम्हें हमारी जागीरें जप्त करने का साहस किस प्रकार हुआ" इन दोनों सरदारों ने उनकी छाती में कटारें भोंक दीं। तत्काल रक्त का फवारा निकल पड़ा और दूरदर्शी, राजनीतिज्ञ और कार्य्यं कुशल सोमजी का वहीं अन्त हो गया। महाराणा साहब के कहने से इनका दाह संस्कार पिछोला की बड़ी पाल पर किया गया जहां आज भी उनके स्मारक स्वरूप एक छत्री बनी हुई है।
प्रधान सोमजी के पश्चात् महाराजाजी ने इनके छोटे भाई सतीदासजी तथा शिवदासजी को क्रमशः प्रधान एवम् सहायक बनाए। ये दोनों अपने भाई का बदला लेने के लिये कोशिश करने लगे । उन्होंने भिंडर के सरदार मोहकमसिंहजी की सहायता से सेना एकत्रित की और चित्तौड़ की ओर प्रस्थान किया । इस समाचार को सुनते ही उधर से भी कुरावड़ के रावत अर्जुनसिंहजी की अधीनता में चूण्डावत सरदारों की एक सेना मुकाबला करने के लिये रास्ते में आ मिली । अकोला नामक स्थान पर दोनों भोर की सेना में घमासान युद्ध हुआ । प्रधान सतीदासजी विजयी हुए। भाग गये और सतीदासजी ने अपने भाई के हत्यारे को मारडाला । करने वालों के साथ युद्ध कर अपने भाई का बदला चुका लिया ।
रावत अर्जुनसिंह रण-क्षेत्र छोड़कर इस प्रकार इन वीर बन्धुओंने धोखा
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
मेहता मालदासजी
__ मेहता मालदासजी भोसवाल समाज के शिशोदिया गौत्र के सजन थे। ये बड़े वीर और पराक्रमी थे। महाराणा भीमसिंहजी के समय में सारे राजपूताने में मराठों का बहुत प्राबल्य हो रहा था । इसी समय में सोमजी गाँधी महाराणा के प्रधान थे। उन्होंने मरहट्ठों को अपने देश से निकालने के लिये कई उपाय सोचे । अन्त में, जब सं० १९४४ में लालसोट नामक स्थान पर जयपुर और जोधपुर की सेना द्वारा मरहट्टे पराजित हो चुके, तब उक्त अवसर को ठीक समझ कर सोमजी ने मेहता मालदासजी को कोटा एवम् मेवाड़ की संयुक्त सेना का सेनापति बनाकर मरहट्ठों पर हमला करने के लिये भेजा।
वीर सेनापति मालदास बड़े उत्साह से दोनों सेनाओं का नेतृत्त्व ग्रहण कर उदयपुर से रवाना हुए। रास्ते में आने वाले ग्राम निम्बाहेड़ा, नकुम्प, जीरण आदि स्थानों पर अधिकार करते हुए आप जावद नामक स्थान पर पहुंचे, जहाँ कि सदाशिवराव नामक मरहट्ठा सेनापति मुकाबला करने के लिये पहले ही से तैयार बैठा था। कुछ दिनों तक दोनों ओर को सेना में मुकाबिला हुआ। अन्त में सदाशिवराव कुछ शर्तों के साथ शहर छोड़कर चला गया। इस प्रकार मेहताजी के प्रयत्न से उनके ही सेनापतित्व में मेवाड़ी सेना ने मरहट्ठी सेना पर विजय प्राप्त की।
कहना न होगा कि उपरोक्त समाचार विद्युत वेग से राजमाता देवी श्री अहल्याबाई के पास पहुँचा उन्होंने शीघ्र ही बुलाजी सिंधिया एवम् श्रीनाई नामक दो व्यक्तियों की अधीनता में अपने ५०.० सवार सदाशिवराव की सहायतार्थ भेजे। यह सेना कुछ समय तक मंदसोर में ठहर कर मेवाड़ की ओर बढ़ी। उधर महाराणा ने भी मुकाबला करने के लिये मेहता मानवास की अधीनता में सादड़ी के सुल्तानसिंह, देलवाड़े के कल्याणसिंह, कानोड़ के रावत जालिमसिंह, सनवाड़ के बाबा दौलतसिंह आदि राजपूत सरदारों तथा सादिक, पूँजू वगैरह सिंधियों को अपनी २ सेना सहित मरहट्ठों के मुकाबले के लिये रवाना किया।
वि० सं० १८४४ के माघ मास में दोनों ओर की सेना का हरकियाखाल नामक स्थान पर मुकाबला हुमा । दोनों ओर के वीर अपनी वीरता और बहादुरी का परिचय देने लगे। इस युद्ध में मेवाड के मन्त्री मेहता मालदासजी, बाबा दौलतसिंहजी के छोटे भ्राता कुशलसिंहजी आदि अनेक वीर राजपूत सरदार एवम् पूँजू आदि सिंधी लोग बीरता से लड़ अपने स्वामी के लिये, अपने अपूर्व वीरत्व का परिचय दे, वीर गति को प्राप्त हुए।
कर्नल टाड साहब ने मेहता मालदासजी के लिये एनान्स आफ मेवाड़ नामक ग्रन्थ में एक स्थान
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राजनैतिक और सैनिक महत्व पर लिखा है कि "मालदास मेहता प्रधान थे और उनके डिप्टी मौजीराम थे। ये दोनों बुद्धिमान और वीर थे।" "Maldas mehta was civil member with Maujiram as his Deputy, both men of talent and energy" इत्यादि । महता देवीचन्दजी
मेहता अगरचन्दजी के बाद उनके बड़े पुत्र देवीचन्दजी मेवाड़ राज्य के प्रधान मन्त्री ( Prime Minister ) के पद पर अधिष्ठित हुए। पर कुछ ही वर्षों बाद जब उन्होंने देखा कि मेघादाधिपति राज्य और प्रजाहित कार्यों में उनकी सलाह पर ध्यान नहीं देते हैं तो वे अपने प्रधान मन्त्री के पद से अलग हो गये। इतना ही नहीं उन्होंने प्रधान मन्त्री का पद स्वीकार न करने की भी सौगन्ध खा ली।
मेहता देवीचन्द जी के कार्य काल में किसी दवाब के कारण मेवाड़ के महाराणा भीमसिंह जी ने सुप्रसिद्ध झाला जालिमसिंहजी को मांडलगढ़ का किला प्रदान कर दिया और इस सम्बन्ध में महाराणा ने मेहता देवीचन्दजी को एक पत्र लिखा, जिसका भाव यह है "मांडलगढ़ का किला खालसा तथा जागीर के सब गाँवों समेत जालिमसिंह को दे दिया गया है. सो वे सब उसके सुपुर्द कर देना और तू हजूर में हाजिर होना। तेरी जागीर, गाँव कूआ, खेत भादि पर तू अपना अमल रखना। तेरे घरवार के सम्बन्ध में हम तब हुक्म देंगे जब तू जालिमसिंह के साथ हुजूर में हाजिर होगा। यह परवाना सम्बत १८५९ के भादवा सुदी ८ बुधवार के दिन श्री मुख की परवानगी से जाहिर हुआ है।
___ जब देवीचन्दजी ने यह परवाना देखा तो वे बड़े असमंजस में पड़ गये। जालिमसिंहजी के साथ यद्यपि उनका बड़ा ही मैत्री पूर्ण सम्बन्ध था, पर इससे भी अधिक मेवाड़ के हित पर उनका सारा ध्यान लगा हुआ था। इसलिये उन्होंने किसी बहाने से टालमटूल कर झाला को किला न सौंपा। इस पर फिर महाराणा भीमसिंहजी ने उक्त मेहताजी को जोरदार पत्र लिखा, वह इस प्रकार है:
स्वस्ती श्री मेहता देवीचन्दजी अपरंच परगणो मांडलगढ़ किला खालसा जागीर . सुदी जलिमसिंहजी झाला है बगशो जणी में अमल करवारो परवानी थारे नाम भी लिख दिया परन्तु थे अणा से अमल करायो नहीं और लड़वाने तयार हुअ सो म्हारा जीव को मलो भाव और श्याम खौर होवे त' लख्या मुंजव अणारो अमल कराय दीजो अब आगी काढ़ी है तो म्हारा हरामखोर होता संवत् १८५६ श्रासोज वुदी १४ मौमे
जब इस दूसरे पत्र पर भी देवीचन्दजी ने ध्यान नहीं दिया, तब महाराणा साहब ने एक तीसरा पत्र और लिखा। पर देवीचन्दजी जानते थे कि माँडलगढ़ का किला मेवाड़ में सैनिक रहि से बड़े महत्व
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ओसवाल जाति का इतिहास
की चीज़ है । अतएव उन्होंने तीसरे पत्र से भी किला सौंपना ठीक नहीं समझा । इस पर शाला जालिमसिंह ने जबर्दस्ती से किले पर अधिकार करने का निश्चय किया। उन्होंने मॉडलगढ़ से १८ मील की दूरी पर लुहण्डी स्थान पर एक नया किला बनाना शुरू किया और वे मॉडलगढ़ को हस्तगत करने की युक्ति सोचने लगे। इतना ही नहीं झालाजी ने मेवाड़ के तीन गाँवों पर अधिकार भी कर लिया। जब यह खबर देवीचन्दजी को लगी तो उन्होंने शाला पर फौजी चदाई करके उन्हें भगा दिया। कहने को आवश्यकता नहीं कि एक ओसवाल वीर तथा मुत्सद्दी की कारगुजारी ने एक जबर्दस्त शत्रु के पंजे से मेवाड़ राज्य की रक्षा की।
जब यह खबर महाराणा साहब के पास पहुंची तो वे मेहता देवीचन्दजी पर बड़े ही प्रसन्न हुए। उन्होंने मेहताजी को फिर से दीवानगी पर प्रतिष्ठित करने को कहा, पर मेहताजी अपनी पूर्व प्रतिज्ञा से टलना नहीं चाहते थे । इसलिये उन्होंने प्रधानमन्त्री का पद स्वीकार करने में अपनी असमर्थता दिखलाई। हां, इस पद के लिये उन्होंने मेहता रामसिंहजी का नाम सूचित किया। महाराणा साहब ने यह बात स्वीकार करली। मेहता रामसिंहजी को दीवान का उचपद प्रदान कर दिया गया। देवीचन्दजी सुप्रीमकौन्सिलर (प्रधान सलाहकार) का काम करने लगे।
इसी समय कई बाहरी झगड़ों के कारण देवीचन्दजी ने यह मुनासिब समझा कि मेवाड़ राज्य का ब्रिटिश सरकार के साथ मैत्री सम्बन्ध हो जाय तो अच्छा है । कहने की आवश्यकता नहीं कि मेवाड़ राज्य भौर ब्रिटिश सरकार के बीच एक सुलह नामा हो गया। इसके बाद जब कर्नल टाँड साहब उदयपुर आये, तब ने देवीचन्दजी से बहुत प्रसन्न हुए और महाराणा से कहकर उनकी जागीर उन्हें दिलवा दी । कहने का तात्पर्य यह है कि मेहता देवीचन्दजी बदे वीर, रणकुशल, और शासन कुशल व्यक्ति थे । मेहता रामसिंहजी
मेहता देवीचन्दजी के बाद उदयपुर के दीवान पद को मेहता रामसिंहजी ने सुशोभित किया। रामसिंहजी कार्य दक्ष, बुद्धिशाली और स्वामि भक्त थे । अपने कार्यों से इन्होंने मेवाद में अच्छी ख्याति प्राप्ति की । इन के गुणों पर रीझकर विक्रम संवत् १८७५ में महाराणा भीमसिंहजी ने उन्हें बदनोर जिले का भरना गाँव जागीर में प्रदान किया। उस समय मेवाड़ का शासन प्रवन्ध महाराणा और अंग्रेज
सरकार दोनों के हाथ में था महाराणा की भोर से कामदार और ब्रिटिश गवर्नमेण्ट की तरफ से चपरासी नियुक्त रहते थे। इस द्वैध शासन से तंग आकर मेवाड़ की प्रजा ने ब्रिटिश गवर्नमेंट से शिकायत की तब वि. सं. १८८१ में मेवाड़ के तत्कालीन पोलिटिका एजंट कसान कॉप ने शिवकाल घालूण्डिया की जगह मेहता रामसिंह को प्रधान पद पर नियुक्त किया।
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राजनैतिक और सैनिक महत्व
उक्त कप्तान तथा रामसिंहजी के सुप्रबन्ध से मेवाड़ राज्य की बिगड़ी हुई आर्थिक दशा कुछ सुधर गई और ब्रिटिश गवर्नमेंट के चढ़े हुए खिराज में से ४००००० रुपये तथा अन्य छोटे बड़े कर्ज अदा कर दिये गये । रामसिंहजी की कारगुजारी से प्रसन्न होकर महाराणा ने इन्हें विक्रम संवत् १८८३ में जयनगर, कंकरोल, दोलतपुरा और बलधरखा नामक चार गाँव जागीर में वक्षे। महाराणा जवानसिंहजी की गद्दीनशीनी के बाद फिजूल खर्ची की बजह से राज्य की आय घट गई और खिराज के ७००००० रुपये चढ़ गये । इसी समय महाराणा को किसी ने यह संदेह दिला दिया कि रामसिंहजी प्रतिवर्ष वचत के एक लाख रुपये हजम कर जाते हैं। इस पर महाराणा ने मेहता रामसिंहजी को अलग कर मेहता शेरसिंहजी को उनके स्थान पर नियुक्त किया । मगर जब उनसे भी खर्च पर नियंत्रण न हुआ तो वापस महाराणा ने रामसिंहजी को अपना प्रधान बनाया । इस बार उन्होंने पोलिटिकट एजंट से लिखा पढ़ी करके २ लाख रुपये जो ब्रिटिश सरकार की ओर से मेवाड़ के पहाड़ी प्रदेशों के प्रबन्ध के लिए महाराणा को मिले तथा एजंट के निर्देश के अनुसार खर्च हुए थे माफ करवा दिये और चढ़ा हुआ खिराज भी चुका दिया। इससे इनकी बड़ी नेकनामी हुई और महाराणा ने इन्हें सिरोपाव आदि देकर सम्मानित किया।
राजपूताने के तत्कालीन पोलिटिकल एजंट कप्तान कॉव का रामसिंहजी पर बड़ा विश्वास था । जब तक रहे तब तक रामसिंहजी अपने शत्रुओं के षड्यंत्र के बीच भी बराबर अपने पद पर बने रहे । कसान कॉव के जाने के बाद रामसिंहजी के शत्रुओं का दाव चल गया और उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। कप्तान कॉव रामसिंहजी की कार्य कुशलता से भली-भाँति परिचित था । इसलिये उसने कलकत्ते से रामसिंह जी के अच्छे कामों की याद दिलाते हुए महाराणा से उनकी मान मर्यादा के रक्षा करने की सिफारिश की ।
मेहता रामसिंहजी वड़े राजनीतिज्ञ और गहरे विचारों के व्यक्ति थे। रियासत के भीतरी कार्यों में उनका मस्तिष्क अच्छा चलाता था । महाराणा भीमसिंहजी के समय से महाराणा और सरदारों के बीच छदूँद और चाकरी के लिए झगड़ा चला आरहा था, उसे मिटाने के लिए वि० सं० १८८४ में मेवाड़ के तत्कालीन पोलिटिकल एजंट कप्तान कॉव ने मेहता रामसिंहजी सलाह से एक कौल नामा तय्यार किया। मगर उस समय उस पर दोनों पक्षों में से किसी के हस्ताक्षर न हो सके । तब रामसिंहजी ने वि० सं० १८९६ में मेजर राबिन्सन से कहकर नया कोलनामा करवाया। इन्हों रामसिहजी के उद्योग से वि० सं० १८१७ में भीलों की सेना संगठित किये जाने का कार्य औरम्भ हुआ। वि० सं १९०३ में महाराणा को यह संदेह हुआ एक षड्यन्त्र बागौर के महाराज शेरसिंहजी के पुत्र गाडूलसिंह की अध्यक्षता में उनको जहर दिलाने के लिये रचा जा रहा है जिसमें रामसिंह भी शामिल है। यह सुनते ही रामसिंहजी मेवाड़ छोड़ कर अजमेर चले
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
भाये। उदयपुर से चलें आने पर उनकी सारी जायदाद जप्त कर ली गई और इनके बाल बच्चों को भी वहाँ से निकाल दिया गया। . जब बीकानेर के तत्कालीन महाराजा सरदारसिंहजी को यह बात मालूम हुई तब उन्होंने रामसिंहजी से बीकानेर आने के लिये बहुत आग्रह किया। मगर रामसिंहजी ने महाराजा को धन्यवाद देते हुए लिखा कि महाराणाजी को मेरी सेवाओं का पूरा ध्यान है, वे मेरे शत्रुओं द्वारा झूठी खबर फैलाने से मुझ पर इस समय अप्रसन्न हैं, तो भी कभी न कभी उनकी अप्रमता दूर होगी और वे मुझे फिर से अवश्य बुलावेंगे। इससे रामसिंहजी की स्वामिभक्ति का गहरा परिचय मिलता है।
जब यह बात महाराणा सरूपसिंहजी को मालूम हुई तब उन्होने मेहता रामसिंहजी को पीछा बुलाया मगर उसके प्रथम ही मेहताजी का स्वर्गवास हो गया।
मेहता रामसिंहजी को महाराणाजी की तरफ से तथा पोलिटिकल एजंट कप्तान कॉव और राविन्सन की तरफ से कई रुक्के और परवाने मिले थे, जो हम इनकी फेमिली हिस्ट्री के साथ देने का प्रयत्न करेंगे। मेहता शेरसिंहजी
महता
मेहता शेरसिंहजी अगरचन्दजी के तीसरे पुत्र सीतारामजी के पुत्र थे। आप भी मेहता रामसिंहजी के समकालीन थे। जब मेहता रामसिंहजी पर महाराणा की नाराजी होती थी तब मेवाड़ के दीवान आप नियुक्त किये जाते थे और जब आप से महाराणा अप्रसन्न हो जाते थे तब महाराणा मेहता रामसिंहजी को अपना दीवान बना लिया करते थे। इस प्रकार करीब तीन चार बार बारी २ से आप दीवान बनाये गये। आप बड़े ईमानदार और सच्चे पुरुष थे। मगर ऐसा कहा जाता है कि प्रबन्ध कुशलता की आप में कुछ कमी थी, जिससे शासन कार्य में आप को विशेष सफलता न हुई। फिर भी आपने उदयपुर राज्य को बहुत सेवाएँ की । आपने कई लड़ाइयों में भी बड़ी वीरतापूर्वक भाग लिया। इन सब का वर्णन हम आगे चल कर इनके परिवार के इतिहास में करेंगे। सेठ जोरावरमलजी बापना .
उदयपुर के ओसवाल मुत्सुदियों में सेठ जोरावरमलजी बापना को नाम भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यद्यपि आप व्यापारी लाइन के पुरुष थे फिर भी राजकीय वातावरण पर आपका और आपके बड़े भ्राता भी वहादुरमलजी बापना का बहुत अच्छा प्रभाव था ।
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राजनैतिक और सैनिक महल
जिस समय अंगरेज लोग राजस्थान में राजपूत राजामों के साथ मैत्री स्थापित करने के प्रयत्न में लगे हुये थे उस समय सेठ बहादुरमलजी और जोरावरमलजी बापना का बीकानेर, जोधपुर, जैसलमेर, उदयपुर, इन्दौर इत्यादि रियासतों पर अच्छा प्रभाव था। इसलिए ब्रिटिश सरकार के साथ इन रजवाड़ों का मैत्री सम्बन्ध स्थापित करवाने में आपने बहुत मदद दी । खास कर इन्दौर राज्य के कई महत्वपूर्ण कार्यों में जोरावरमलजी का बहुत हाथ रहा । ब्रिटिश गवर्नमेण्ट और रियासतों के बीच जो अहदनामे हुए उनमें कई मुश्किल बातों को हल करने में आपने बड़ी सहायताएं की।
सन् १८१८ ई० में कर्नल टॉड राजपूताने के पोलिटिकल एजण्ट होकर उदयपुर गये । उस समय मेवाड़ की आर्थिक दशा बहुत खराब हो रही थी ऐसी विकट स्थिति में कर्नल टॉड ने महाराणा भीमसिंहजी को सलाह दी कि सेठ जोरावरमलजी ने इन्दौर की हालत सुधारने में रियासत को बहुत मदद की है इसलिए यहाँ पर भी उनको बुलाया जावे । इस पर महाराणा ने सेठ जोरावरमलजी को अपने यहाँ आमंत्रित किया और अत्यन्त सम्मान के साथ कहा कि आप अपनी कोठी को यहाँ स्थापित करें । महाराणा की आज्ञा को स्वीकार कर सेठ जोरावरमलजीने उदयपुर में अपनी कोठी स्थापित की, नये गाँव बसाये, किसानों को सहायताएँ दी और चोर लुटेरों को दण्ड दिलवाकर राज्य में शान्ति स्थापित की । इनकी इन बहुमूल्म सेवाओं से प्रसन्न होकर महाराणा ने उन्हें पालकी और छड़ी का सम्मान और “सेठ" की उपाधि बख्शी तथा बदनौर परगने का पारसौली ग्राम भी जागीर में दिया। पोलिटिकल एजेण्ट ने भी आपको प्रबन्ध कुशल देखकर अंग्रेजी राज्य के खजाने का प्रबन्ध भी आपके सिपुर्द कर दिया।
महाराणा स्वरूपसिंहजी के समय में रियासत पर बीस लाख रुपये का कर्ज हो गया था जिसमें अधिकांश सेठ जोरावरमलजी का था, महाराणा ने आपके कर्ज का निपटारा करना चाहा। उनकी यह इच्छा देख सन् १८४६ की २८ मार्च को सेठ जोरावरमलजी ने महाराणा को अपनी हवेली पर निमन्त्रित किया और जैसा महाराणा साहब ने चाहा उसी प्रकार कर्ज का फैसला कर लिया। इससे प्रसन्न होकर महाराणा साहब ने आपको कुण्डाल गाँव दिया तथा आपके पुत्र चान्दणमलजी को पालकी और पौत्र इन्द्रपाल जी को भूषण और सिरोपाव दिये। इन्हीं के अनुकरण पर दूसरे लेनदारों ने भी महाराणा की इच्छानुसार अपने कर्ज का फैसला कर लिया और इस प्रकार रियासत का भारी कर्ज सहज ही अदा हो गया इस बुद्धिमानी पूर्ण कार्य से आपकी बड़ी प्रशंसा हुई।
इस प्रकार अपनी बुद्धिमानी, राजनीतिज्ञता और ब्यापार दूरदर्शिता से सारे राजस्थान में लोकप्रियता और नेकनामी प्राप्त कर सन् १८५३ की २६ फरवरी को आप स्वर्गवासी हुए ।*
* इन्दौर के वर्तमान प्राइम मिनिस्टर रा० वा. सिरेमलजी बापना सी० आई० ई. आपके ही वंशज है।
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ओसवाल जाति का इतिहास
मेहता गोकुलचन्दजी और कोठारी केशरीसिंहजी
महाराणा सरूपसिंहजी ने मेहता शेरसिंहजी की जगह देवीचन्दजी के पौत्र मेहता गोकुलचन्दजी को अपना प्रधान बनाया। फिर उनके स्थान पर संवत् १९१६ में कोठारी केशरीसिंहजी को प्रधान बनाया। वि० सं० १९२० में मेवाड़ के पोलिटिकल एजंट ने मेवाड़ रीजेंसी कौंसिल को तोड़ कर उसके स्थान पर "अहलियान श्री दरबार राज्य मेवाड़" नाम की कचहरी स्थापित की और उसमें मेहता गोकुलचन्दजी और पंडित लक्ष्मणराव को नियुक्त किया। वि० सं० १९२६ में कोठारी केशरीसिंहजी ने प्रधान पद से इस्तीफा दे दिया तो उनके स्थान पर महाराणा ने मेहता गोकुलचन्दजी और पंडित लक्ष्मणराव को नियुक्त किया । इसी समय बड़ी रूपाहेली और लांबिया वालों के बीच कुछ जमीन के बाबद सगड़ा होकर लड़ाई हुई, जिसमें लाविया घालों के भाई आदि मारे गये। उसके बदले में रूपाहेली का 'तसवारिया' गाँव लांबिया वालों को दिलाना निश्चय हुआ; परन्तु रूपाहेली वालों ने महाराणा शम्भुसिंहजी की बात न मानी, जिसपर गोकुलचन्दजी की अध्यक्षता में तसवारिया पर सेना भेजी गई । वि० सं० १९३१ में महाराणा शम्भुसिंहजी ने मेहता गोकुलचन्दजी और सही वाले अर्जुनसिंहजी को महकमा खास के काम पर नियुक्त किया। मेहता गोकुलचन्दजी इस काम को कुछ समय तक कर माँडलगढ़ चले गये और वहीं पर आप स्वर्गवासी हुए।
कोठारी केशरीसिंहजी सब से प्रथम संवत् १९०२ में रावळी दुकान (State Bank) के हाकिम नियुक्त किये गये । तदनंतर संवत् १८७८ में आप महकमा दाण (चुंगी) के हाकिम हुए थे। महाराणा के इष्टदेव एकलिंगजी का मन्दिर-सम्बन्धी प्रबन्ध भी आपके सुपुर्द हुआ। आप महाराणाजी के सलाहकार भी रहे। आपकी इन सेवाओं से प्रसन्न होकर महाराणाजी ने आपको नेतावल नाम का गाँव जागीर में इनायत किया तथा स्वयं महाराणाजी ने आपकी हवेली पर पधार कर आपका सत्कार किया। तदनंतर आप महाराणा के द्वारा मेवाड़ के प्रवान बनाए गये और बोरांव तथा पैरों में पहिनने का सोने के लंगर भी आपको बक्षे गये। जिस समय महाराणा शम्भुसिंहजी की बाल्यावस्था में रीजेंसी कौंसिल स्थापित हुई थी उस समय आप भी उस कौंसिल के एक सदस्य थे तथा रेव्हेन्यू के काम का निरीक्षण करते थे।
कोठारी केशरीसिंहजी बड़े स्पष्टवक्ता एवं स्वामिभक्त महानुभाव थे। आपने रीजेंसी कौंसिल के अन्दर रह कर मेवाड़ के हित के लिये कई कार्य किये। आपने कई समय कौंसिल के कार्यकत्ताओं को जागीरें-यह कह कर कि जागीरें देने का अधिकार महाराणाजी को है-देने से रोक दिया। इसी प्रकार के कई कार्यों में मेवाड़ के सरदारों के घोर विरोध का सामना करते हुए आपने मेवाड़ का बहुत बड़ा हित
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राजनैतिक और सैनिक महत्व
किया । कोठारी केशरीसिंहजी पर इसके कारण बहुत से मेवाड़ के सरदार अप्रसन्न हो गये और वे उन्हें किसी भी प्रकार से निकालने का उपाय सोचने लगे । अन्त में तत्कालीन पोलिटिकल एजण्ट के पास कुछ सरदार पहुँचे और कोठारी केशरीसिंहजी पर २ लाख रुपये के गबन का अपराध लादकर मेवाड़ से उसे निकालने के लिये उकसाया। पोलिटिकल एजण्ट ने बिना जाँच किये ही इस कथन पर विश्वास कर लिया ओर उन्हें पदच्युत कर मेवाड़ राज्य से निकाल दिया । मगर महाराणा को कोठारी केसरीसिंहजी की स्वामिभक्ति पर पूरा विश्वास था, अतः उन्होंने इस झूठे दोष की पूरी जाँच की तथा निर्दोष सिद्ध होने पर कोठारी केसरीसिंहजी को बड़े आदर के साथ वापिस बुलाकर उदयपुर का दीवान बनाया ।
वि० संवत १९२५ में जब मेवाड़ में बड़ा भारी दुर्भिक्ष पड़ा तब आपने प्रजा हित के लिए राज्य के बड़े बड़े साहूकारों से मिलकर धान्य वगैरह की योग्य व्यवस्था करदी थी, कोठारी केसरीसिंहजी के इस कार्य से बहुत-सी प्रजा आप पर बड़ी प्रसन्न हो गई थी । तदनंतर वि० सं० १९२६ में आपने प्रधानगी के पद से इस्तीफा दे दिया ।
कोठारी केसरीसिंहजी बड़े स्पष्ट वक्ता, अनुभवी, स्वामिभक्त, प्रबन्ध-कुशल तथा वीर पुरुष थे । आप अपने इन गुणों के कारण ही अपने बहुत से शत्रुओं के बीच राज्यकार्य करते रहे तथा महाराणा और प्रजा के हितैषी बने रहे। महाराणाजी भी आपका विशेष सत्कार करते थे। साथ ही महत्व के कामों में आपकी सलाह ले लिया करते थे । यह हम ऊपर लिख चुके हैं कि आप बड़े प्रबन्ध-कुशल भी थे । एक समय महाराणा ने अपने निरीक्षण में अलग अलग विभागों की व्यवस्था की और किसानों से अन्न का हिस्सा लेना बन्दकर ठेके के तौर पर नगद रुपया लेना चाहा। महाराणा के इस सुधार कार्य को कार्यान्वित करने के लिए कोई योग्य आदमी न मिला । तब आपने अपने विश्वसनीय स्वामिभक्त कोठारी केसरीसिंहजी को इसके प्रबन्ध का कार्य्यं सौंपा जिसे आपने बड़ी योग्यता से संचालित किया । आपने उन सब विभागों का प्रबन्ध इतने सुचारु रूप से करके दिखला दिया कि आपका स्थापित किया हुआ प्रबन्ध आपकी मृत्यु के बहुत समय बाद तक बराबर चलता रहा । प्रसन्न हुए और आपका बहुत सत्कार किया । जब आप बीमार पड़े पधारे और आपको पूर्णरूप से सांत्वना दी । इस प्रकार आप वि०
आपकी सेवाओं से महाराणाजी बढ़े तब महाराणाजी स्वयं आपके घर पर सं० १९२८ में स्वर्गवासी हुए ।
कोठारी छगनलालजी
कोठारी केशरीसिंहजी के बड़े भाई कोठारी छगनलालजी भी बड़े ही प्रतिभाशाली तथा स्वामि भक्त महानुभाव थे । आपने संवत् १९०० में खजाने का काम किया और उसके बाद क्रमशः कोठार तथा
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फौज का कार्य किया। आप अपने कामों में बड़े ही कुशल थे। भापके कार्यों से प्रसन्न होकर तत्कालीन महाराणा ने आपको मुरजाई नामक गाँव जागीरी में बख्शा। आपके आधीन समय २ पर कई परगने तथा एकलिंगजी के भण्डार का काम भी रहा। अपने छोटे भाई केशरीसिंहजी की मृत्यु के पश्चात् भाप महकमे माल के आफिसर बनाये गये। उसी समय संवत् १९३० में महाराणा ने प्रसन्न होकर आपको पैरों में पहनने के लिये सोने के कड़े प्रदान किये तथा उसी समय भारत सरकार की ओर से दिल्ली दरबार में आपको 'राय' की सम्माननीय पदवी से सम्मानित किया गया । आपके कार्यों से प्रसन्न होकर तत्कालीन पोलिटिकल एजण्ट तथा कई महानुभावों ने आपको सार्टिफिकेट प्रदान किये जिनमें से उदाहरणार्थ एक की नकल यहाँ पर दी जाती है।
This is to certify that Kothari Chhaganlal has been in-charge of the Darbar Treasuary during my tenure of office and has performed his duties in a highly satisfactory manner. He is an intelligent and highly respectable Darbar official and a very good man of his inness and I commend him to the notic of my successor. Udaipur
S/d M. Miclon 27th November, 1869
Political Agent.
पन्नालालजीमेहता
मेहता अगरचन्दजी के खानदान में मेहता पन्नालालजी भी बड़े प्रतिष्ठित और प्रतिभा सम्पस व्यक्ति हुए। ये बड़े राजनीतिज्ञ और शासन-कुशल व्यक्ति थे। इनका राजनैतिक दिमाग बहुत मंजा हुआ था। सबसे पहले आप संवत् १९२६ में महाराणा शम्भूसिंहजी के द्वारा महकमा खास के सेक्रेटरी बनाये गये । यहाँ यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि यह महकमा खास प्रधान का पद तोड़कर बनाया गया था। मेहता पन्नालालजी के महकमा खास में नियुक्त होते ही महकमा खास का काम जो कि पहले पूरी हालत पर नहीं पहुंच पाया था, इनकी बुद्धिमानी से उत्तरोत्तर तरक्की करने लगा। इसी समय से स्टेट में इन्तिजामी हालत का प्रारम्भ समझना चाहिये । महाराणा साहब की दिली यह ख्वाहिश थी कि मेवाड़ में अनाज बाँट लेने का रिवाज़ बंद कर दिया जाय और इसके स्थान पर ठेकेबंदी होकर नकद रुपया लिया आय । आपने यह इच्छा कोठारी केशरीसिंहजी पर प्रकट की। कोठारी केशरीसिंहजी ने यह काम अपनी जिम्मेदारी पर लिया और करीब १० साल पीछे की आमदनी का औसत निकाल कर बड़ी बुद्धिमानी से
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कुल मेवाड़ में ठेका बाँध दिया । इस काम में मेहता पक्षालाजी ने कोठारी केशरीसिंहजी को बड़ी मदद दी। कोठारीजी के पश्चात महकमा माल के अफसर कोठारी छगनलालजी एवम् मेहता पत्रालालजी रहे ।
इसके पश्चात संवत् १९३० से १९३२ तक इनके जीवन में कई प्रकार की घटनाएं घटी जिनका वर्णन हम उनकी फेमिली हिस्ट्री के साथ करेंगे । संवत् १९३२ की भादवा सुदी चौथ को फिर से उन्हें महकमा खास का काम सौंपा गया। आपके महकमा खास में आने के बाद रियासत में कई नये काम हुए । संवत् १९३५ में आपने स्टेट में सेटलमेंट की पद्धति को जारी किया। जो उस समय राजपूताने की सब रियासतों में पहली थी। आपके हाथों से दूसरा महत्व पूर्ण कार्य विद्या के विषय में हुआ। आपके द्वारा यहाँ के विद्या-विभाग को बहुत प्रोत्साहन मिला । आप ही ने मेवाड़ के जिलों के अन्दर जहाँ, पहले स्कूल और हास्पिटल नहीं थे, खुलवाये । इसी प्रकार और भी प्रायः सभी विभागों में आपने अपनी बुद्धिमानी से बहुत सुधार किया। भारत गवर्नमेंट ने आपको पहले पहल राय की पदवी प्रदान की। उसके पश्चात् ही आपको सी० आई० ई० का सम्माननीय पद मिला। आपके कार्यों की प्रायः समी पोलिटिकल एजण्टस, ए० जी० जी० तथा वाइसराय जैसे महानुभवों ने मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की, तथा भापको कई सार्टीफिकेट प्रदान किये। इनमें से हम एक यहाँ दे रहे हैं शेष इनके पारवारिक इतिहास में देंगे।
"Rai Pannalal is an intelligent, energetic and hard working officer and has rendered great assistance to the Political Agent in the administration of the state during the minority. He is the only person capable of holding the high post, he now Occupies in the state."
यह रुका संवत् १८७६ में राजपूताने के तत्कालीन पोलिटिकल एजण्ट द्वारा दिया गया था। आप लिखते हैं कि राय पन्नालालजी बड़े ही तीक्ष्ण बुद्धिवाले तथा उत्साही पुरुष हैं। महाराणाजी की नाबा. लिगी के समय में आपने मेवाड़ के राज्य कार्यों में मुझे बड़ी सहायता दी। आप बड़े परिश्रमी एवं इस उच्च ओहदे के योग्य महानुभाव हैं। मेहता फतेलालजी
. भाप मेहता पन्नालालजी सी० आई .ईके पुत्र हैं। भाप बाल्यावस्था से ही बड़े विचक्षण बुद्धि और मेधावी हैं। आपके साहित्यिक और सामाजिक जीवन के विषय में आपके खान-दान के इतिहास के साथ प्रकाश डालेंगे । राजनैतिक जीवन के सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि आपका जीवन उदयपुर के राजकीय वातावरण में बहुत महत्वपूर्ण रहा है। यद्यपि आप अपने पिता की तरह प्राइम मिनिस्टरी
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ओसवाल जाति का इतिहास
के ओहदे पर नहीं रहे फिर भी उदयपुर के राजकीय वातावरण में आपका बहुत अच्छा प्रभाव रहा है। आप यहाँ की महद्राज सभा के मेम्बर हैं। दिल्ली के अंतर्गत् देशी रियासतों का प्रश्न हल करने के लिए बटलर कमेटी के सम्बन्ध में जो बैठक हुई थी उसमें चेम्बर आफ प्रिसेंस की तरफ से स्पेशल अर्गेनिझेशन का एक आफिस खुला था। उसमें राज्य की ओर से जो कागजात् भेजे गये, उन्हें महाराणा साहब की आज्ञानुसार आप ही ने तैय्यार किये तथा उन्हें लेकर आप ही देहली भेजे गये। इसी प्रकार और भी राजनैतिक बातों में स्टेट में आपका अच्छा प्रभाव है।
सिंघी बछराजाजी
आपका जन्म जोधपुर के सिंघी इन्द्रराजजी के भाई के खानदान में संवत् १९०५ में हुआ । महाराजा जसवंतसिंहजी (जोधपुर) के आप बड़े कृपा पात्र रहे । आपने संवत् १९४६ से संवत् १९५६ तक जोधपुर में बक्षीगिरी ( Commander-in-Chief ) का कार्य किया और वहाँ की स्टेट कौन्सिल के मेम्बर रहे। सिंघवी भीमराजोत खानदान में आपने अच्छा नाम और सन्मान पाया। मुत्सुहियों के अंतिम समय में इन्होंने कई स्थानों पर अपनी बहादुर प्रकृति का अच्छा परिचय दिया । संवत् १९५६ में आपको कई भीतरी कारणों की वजह से जोधपुर से उदयपुर आना पड़ा । यहाँ रियासत ने आपका बहुत सम्मान किया और १०००) एक हजार रुपया मासिक उनके हाथ खर्चे के लिये देकर उन्हें सम्मान पूर्वक यहाँ रखा । संवत् १९६८ में आप वापस जोधपुर बुलाए गये । उस समय महाराणा फतेसिंह जी ने बछराजजी की दावत स्वीकार की और रवाना होते समय दोनों पैरों में सोना बक्षा । जोधपुर में आपको अंतिम समय तक ६००) मासिक पेंशन मिलती रही।
मेहता भोपालसिंहजी जगन्नाथसिंहजी
मेहता भोपालसिंहजी भी उदयपुर के ओसवाल मुत्सुदियों में बड़े प्रतिभाशाली व्यक्ति हुए । आप केवल १८ वर्ष की अवस्था में राशमी जिले के हाकिम नियुक्त हुए । इसी समय मेवाड़ राज्य में सेटलमेंट का नया काम जारी किया गया जिसके खिलाफ राशमी जिले के किसानों और जाटों ने बहुत ज़ोरों का आन्दो. लन उठाया और उपद्रव करना प्रारंभ किया । इस समय आपने बहुत बुद्धिमानी से उन लोगों को समझाया तथा सेटलमेंट का कार्य शांति पूर्वक करवाने में बहुत मदद दी । वहाँ से बदल कर आप मांडल जिले में गये । वहाँ जाकर आपने वहाँ की आमदनी को बहुत बढ़ाया। इससे प्रसन्न होकर महाराणा फतेसिंहजी ने आपको बैठक बक्षी । संवत् १९४६ में आप रेव्हेन्यू सेटलमेंट आफिसर नियुक्त किये गये। उस कार्य को आपने बहुत
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राजनैतिक और सैनिक महत्व
योग्यता एवम बुद्धिमानी से संचालित किया तथा किसानों के साथ पुरी २ सहानुभूति रक्खी । संवत् १९५६ में अकाल पड़ने से किसानों पर बहुत बकाया रहने लगा, तब आपने उनकी आर्थिकदशा का ख़याक करके उनको लाखों रुपयों की छूट दिलवाई। संवत् १९६१ में आप महकमा खास के प्रधान नियुक्त हुए । इस काम को भी आपने बड़ी बुद्धमानी के साथ संचालित किया ।
आपके पुत्र मेहता जगन्नाथसिजी भी बड़े बुद्धिमान सज्जन हैं। आपके पिता मेहता भोपालसिहजी का स्वर्गवास हो जाने पर महाराणा साहब ने आपको अपनी पेशी का काम सिपुर्द किया। उसके पश्चात् संवत् १९७१ में आपको तथा पं० शुकदेवप्रसादजी को महकमा खास के प्रधान बनाए । जब संवत् १९७५ में पंडितजी जोधपुर चले गये तब आप ही अकेले महकमा खास का काम करते रहे। उसके पश्चात् संवत् १९७७ में लाला दामोदरलालजी पं० शुकदेवप्रसादजी के स्थान पर आये । संवत् १९७८ तक आप दोनों ही महकमा खास का काम करते रहे। वर्तमान में भाप मेम्बर कौंसिल और कोर्ट भाफ़ वार्डस के आफ़िसर है ।
कोठारी बलवन्तसिंहजी
आप कोठारी केसरीसिंहजी के दत्तक पुत्र हैं। संवत् १९३८ में आपको महाराणा साहब ने महकमा देवस्थान का हाकिम मुकर्रर किया । फिर संवत् १९४५ में आप महाराणा फतेसिंहजी द्वारा महद्वाज सभा के Here aनाये गये तथा सम्मानार्थ आपको सोने के लंगर भी इनायत किये गये। इसके पश्चात् इन्हें रावली दुकान (State Bank) का काम दिया गया। राय मेहता पन्नालालजी के इस्तीफ़ा देने पर महकमा are का काम आपके तथा सही वाले अर्जुनसिंहजी के सिपुर्द किया। जब इन दोनों ने संवत् १९६८ में अपने पद से इस्तीफ़ा पेश कर दिया तब यह काम मेहता भोपालसिंहजी और पंचोली हीरालालजी को मिला। इन दोनों का स्वर्गवास हो जाने पर यह काम फिर से संवत् १९६९ में आपही को मिला, जिसे आप तीन वर्ष तक करते रहे। इसी प्रकार महकमा देवस्थान तथा टकसाल का काम भी बहुत वर्षों तक आपके हाथ में रहा। इन सब काय्यों को आप अवैतनिक रूप से करते रहे। इस प्रकार राज्य के और भी बहुत से भिन्न २ महकमों में कुशलता और राजनीतिज्ञता से आप सेवा करते रहे। आपके पुत्र गिरधारीसिंहजी इस समय हाकिम देवस्थान हैं।
कोठारी मोतीसिंहजी
आप कोठारी राय छगनलालजी के यहां दसक आये । आपको पहले पहल महाराणा साहब ने अफ़सर खजाना टकसाल, और स्टाम्प मुकर्रर फरमाया और कंठी, सिरोपाव तथा दरवार में बैठक इनायत
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
कर आपको सम्मानित किया। कुछ समय तक आप महकमा देवस्थान और जिला गिरवा के हाकिम भी रहे।
आपके पुत्र न होने से आपके यहाँ कुं० दलपतसिंहजी दत्तक आये। आप सन् १९२४ में सिरोही स्टेट में मुलाजिम हुए । वहाँ करीब ७ वर्ष तक मैजिस्ट्रेट, वकील आबू, असिस्टेन्ट चीफ मिनिस्टर, एक्टिंग चीफ मिनिस्टर इत्यादि ऊँचे २ पदों पर काम करते रहे। सन् १९२७ में आपको शाहंशाह हिन्द की ओर से गवर्नमेंटी फौज में ( In His Majesty's Land forces ) लेफ्टिनेन्ट का काम इनायत हुआ। आपको कई अंग्रेज हाई ऑफिसर्स ने कई सार्टिफिकेट दिये हैं जिन्हें हम आपके पारिवारिक इतिहास के साथ देंगे।
मेहता तेजसिंहजी
आप स्वर्गीय मेहता रामसिंह जी के वंशज हैं आप कई वर्षों से उदयपुर के वर्तमान महाराणा साहब के प्राइवेट सेक्रेटरी का कार्य कर रहे हैं । आप बड़े योग्य, अनुभवी, विद्याप्रेमी एवं मिलनसार सजन हैं। प्रत्येक सत्कार्य में आपकी बड़ी सहानुभूति रहती है। आपके छोटे भाई डाक्टर मोहनसिंहजी मेहता एम० ए० एल० एल० बी० पी० एच० डी० बैरिस्टर एट लॉ उदयपुर राज्य के रेव्हेन्यू कमिश्नर हैं। आप बड़े विद्वान, देशभक्त, स्वार्थत्यागी और शिक्षा के बड़े ही प्रेमी हैं। भारतीय युवकों के हृदयों को सुशिक्षा से प्रकाशित कर उनमें उच्च चरित्र का संगठन करना तथा उन्हें इस योग्य बनाना कि वे भारत का समुज्वल भविष्य निर्माण कर सकें यह आपके जीवन का प्रधान लक्ष्य है। सरकारी अफसर होते हुए भी आपका जीवन सार्वजनिक है। आपने उदयपुर में एक विद्याभवन नामकी संस्था खोल रक्खी है। वह भारतवर्ष की इनी-गिनी भादर्श तस्याओं में से एक है।
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बीकानेर
जोधपुर तथा उदयपुर की तरह बीकानेर के राजनैतिक रंग मंच पर भी ओसवाल मुत्सुद्दियों ने बड़े मार्के के खेल खेले हैं । पाठक यह जानते हैं कि जोधपुर नगर के निर्माता राव जोधाजी के बड़े पुत्र राव atara ने नवीन राज्य स्थापित करने की महान् अभिलाषा से प्रेरित होकर मारवाड़ की तत्कालीन राजधानी मण्डौर से उत्तर की ओर प्रस्थान किया था । उस समय बच्छराजजी नामक एक ओसवाल मुत्सुद्दी इनके साथ थे । ये बच्छराजजी बड़े ही रण कुशल और राजनीति धुरंधर थे । मारवाड़ के राजा राव रणमलजी और राव जोधाजी के पास बड़ी सफलता के साथ ये प्रधानगी का काम कर चुके थे। इससे राव बीकाजी की महान् अभिलाषाओं की पूर्ति में बच्छराजजी के अनुभवों ने बड़ी सहायता दी थी। ईसवी सन् १४८८ में जब चारों ओर विजय प्राप्त कर राव बीकाजी ने राजधानी बीकानेर की नींव डाली थी उसमें उन्हें अपने बीर मंत्री बच्छराजजी से बड़ी सहायता मिली थी। राव बीकाजी ने भी उनकी बड़ी प्रतिष्ठा की और उन्हें वे अपने आत्मीय जन की तरह मानने लगे। इतना ही नहीं, बच्छराजजी के नाम से बच्छासार नामक एक गाँव भी बसाया गया । * जैसा कि हम ऊपर कह चुके हैं मंत्री वच्छराजजी बड़े राजनीतिश, दूरदर्शी और सफल सेनानायक थे । राव बीकाजी की सब लड़ाइयों में आपने अपनी वीरता के बड़े जौहर दिखलाये थे। इस पर रावजी ने प्रसन्न होकर आपको " पर भूमि पंचानन" की उच्च पदवी से विभूषित किया था ।
राव लूनकरनजी और सवाल मुत्सुद्दी
युद्धों में भाग लिया ।
राव बीकाजी के स्वर्गवासी होने के बाद इनके बड़े पुत्र राव लूनकरणजी संवत् १५५१ में बीकानेर के राज्य सिंहासन पर बिराजे । आपने बच्छराजजी के पुत्र करमसीजी को अपना प्रधान नियुक्त किया । करमसीजी अपने पिता की तरह बड़े वीर, धर्मात्मा और राजनीतिज्ञ थे । आपने कई आखिर में नारनौल के लोदी हाजीखाँ के साथ युद्ध कर आप वीरगति को प्राप्त हुए। राव लूनकरणजी की मृत्यु के पश्चात् राव जैतसीजी बीकानेर के सिंहासन पर अधिष्ठित हुए। आपने करमसीजी के छोटे भाई वरसिंहजी बच्छावत को अपना प्रधान बनाया । कहने का अर्थ यह है कि राव वीकाजी और उनके पुत्र तथा
* यह बात बच्छावतों के ख्यात में लिखी है।
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सवाल जाति का इतिहास
पौत्रों के समय में भी भोसवाल मुत्सुहियों का खूब दौर औरा रहा । महाराजा की अधीनता में वे शासन के प्रधान सूत्रधार रहे। जैतसिंहजी और ओसवाल मुत्सद्दी
राव लूनकरनजी के बाद राव जैतसिंहजी बीकानेर के नरेश हुए। आपके समय में वरसिंहजी और उनके पश्चात् उनके पुत्र नगराजजी प्रधान मंत्री के पद पर अधिष्ठित हुए । आप बड़े राजनीतिज्ञ और कुशल शासक थे। तत्कालीन दिल्ली सम्राट की सेवा में भी आपको रहना पड़ा था। वहाँ मापने अपनी चतुराई से सम्राट को बहुत खुश कर लिया और बीकानेर का उससे हित साधन करवाया।
इसी समय जोधपुर के प्रतापी महाराजा मालदेव ने जाङ्गलू (वर्तमान बीकानेर राज्य) देश पर मधिकार करने की इच्छा प्रदर्शित की। यह बात तत्कालीन बीकानेर नरेश जेतसिंहजी को मालूम होगई। इस पर महाराजा जैतसिंहजी ने नगराजजी को कहा कि मालदेव से विजय प्राप्त करना कठिन है । इसलिए उचित पह है कि उनके चढ़ आने के पहले ही सन्नाट शेरशाह की सहायता प्राप्ति का प्रबन्ध कर लिया जाय । कहना म होगा कि नगराजजी सम्राट शेरशाह की सेवा में पहुंचे और उन्होंने सम्राट को मालदेव के ऊपर चदाई करने के लिये उकसाया। लेकिन सम्राट् शेरशाह की सहायता पहुँचने के प्रथम ही मालदेव के साथ युद्ध करते जैतसिंहजी मारे गये और बीकानेर पर मालदेवजी का अधिकार हो गया । इसके कुछ समय बाद सम्राट शेरशाह एक बहुत बड़ी फौज के साथ मारवाड़ पर चढ़ आया । मारवाड़ के राव मालदेवजी ने बड़ी बहादुरी के साथ उसका मुकाबिला किया । बीर राठोड़ों की बहादुरी के सामने शेरशाह बादशाह किंकर्तव्य विमूढ हो गया । उसके सामने निराशा का अंधकार छागया, वह वापस लौटना ही चाहता था कि वीरमदेव नामक मेड़ता के एक-सरदार के षड्यंत्र और चालाकी से सारा पांसा उलट गया। सम्राट शेरशाह की विजय हो गई और इस तरह नगराज जी ने शेरशाह की मदद द्वारा मालदेव से बीकानेर का राज्य छीनकर जैतसीजी के पुत्र कल्याणसिंहजी को दिला दिया।
राव कल्याणसिंहजी और ओसवाल मुत्सुद्दी
राव कल्याणसिंहजी ने संवत् १६०३ से लेकर संवत् ११३० तक बीकानेर का राज्य किया। भापके समय में भी शासन की बागडोर प्रायः ओसवाल मुत्सुहियों के ही हाथ में रही । राव कल्याणमलजी ने भूतपूर्व मंत्री नगराजजी के पुत्र संग्रामसिंहजी को अपना प्रधान मंत्री नियुक्त किया । संग्रासिंहजी ने शत्रुजय आदि तीर्थों की यात्रा के लिये संघ निकाले । जब आप यात्रा करते हुए चित्तोड़गढ़ में भाये तब यहाँ के तत्कालीन
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राजनैतिक और सैनिक महत्व
महाराणा उदयसिंहजी मे आपका बड़ा सस्कार किया । वहाँ से रवाना होकर जगह २ सम्मान पाते हुए भाप सानंद बीकानेर पहुँच गये । आपके सयवहार से राव कल्याणासिंहजी बड़े प्रसन्न हुए। राव रायसिंहजी और मेहता करमचन्द
राव कल्याणसिंहजी के पश्चात् राव रापसिंहजी बीकानेर के राजसिंहासन पर विराजे । कहने की आवश्यकता नहीं कि आपके समय में भी ओसवाल मुत्सुदियों का प्राधान्य रहा। आपने मेहता संग्रामसिंहजी के पुत्र करमचन्दजी को अपना प्रधान नियुक्त किया। ये करमचन्दजी महान् राजनीतिज्ञ, शासन कुशल, धर्मात्मा और वीर थे। आपके उद्योग से सम्राट अकबर ने राव रायसिंहजी को राजा का खिताब प्रदान किया। इसी समय के लाभग नागपुर से मिर्जा इब्राहिम ससैन्य बीकानेर की सीमा पर आ पहुंचा। जब यह खबर बच्छावत करमचन्दजी को लगी तब वे भी अपनी फौजों के साथ उसके मुकाबिले के लिये चल पड़े। दोनों में युव हुआ और विजय की माला मेहता करमचन्दजी के गले में पड़ी । इसके कुछ समय बाव आफ्ने मुगल सम्राट अकबर की ओर से गुजरात पर चढ़ाई की और वहाँ के शासक मिर्जा महम्मद हुसेन को हराकर विजय प्राप्त की। मापने कुछ समय के लिये सोजत पर बीकानेर राज्य का झण्डा उड़वाया और जालौर के स्वामी को अपने अधिकार में किया। आपने सिंध देश के बहुत से हिस्से को बीकानेर राज्य में मिलाया और वहाँ की नदी में मच्छियों का मारना बन्द करवाया। आपने इस युद्ध में विलूचियों को हराकर विजय प्राप्त की। इस प्रकार अनेक स्थानों पर आपने अपने अपूर्व वीरव का परिचय दिया।
___ मेहता करमचन्दजी का दिल्ली के तत्कालीन प्रतापी सम्राट अकबर पर भी खूब प्रभाव था। मापने सम्राट अकबर को जैन धर्म के महान् सिद्धान्तों का परिचय करवाया, आप ही ने सुप्रसिद्ध जैनाचार्य श्री जिनचन्द्रसूरिजी से सम्राट अकबर की मुलाकात करवाई। सम्राट अकबर ने उक्त आचार्य से जैनधर्म के महान् अहिंसा सिद्धान्त को श्रवण किया। इतना ही नहीं उन्होंने जैनियों के खास पर्वो के उपलक्ष में हिंसा न करने के आदेश सारे साम्राज्य में भेजे ।
भोसवाल जाति के इतिहास में बच्छावत करमचन्दजी का नाम स्वाक्षरों में लिखने योग्य है।या राजनैतिक दृष्टि से, क्या सैनिक दृष्टि से, क्या धार्मिक और सामाजिक रष्टि से मेहता करमचन्दजी अपना विशेष स्थान रखते हैं। सं० १६३५ में जब भारतवर्ष में भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा था, उस समय मेहता करमचन्दजी मे हजारों भादमियों का पालन किया था। सैकड़ों कुटुम्बों को आपने साल २ भर तक अब पत्र प्रदान कर उनके दुखों को दूर किया था। इस प्रकार आपने जैन-धर्म के किये भी कई ऐसे महार
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ओसवाल जाति का इतिहास
कार्य किये जो उक्त धर्म के इतिहास में सदा चिरस्मरणीय रहेंगे। हम उन सब का वर्णन ओसवालों का धार्मिक महत्व नामक अध्याय में विस्तार पूर्वक करेंगे। करमचन्दजी की दूरदर्शिता
हम मेहता करमचन्दजी की परम राजनीतिज्ञता और दूरदर्शिता के विषय में पहले थोड़ा सा लिख चुके हैं । इस सम्बन्ध में उनके जीवन की एक घटना का और उल्लेख कर पाठकों के सामने उनकी दूरदर्शिता का जाज्वल्यमान उदाहरण उपस्थित करते हैं। ... सम्राट अकबर पर, जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, मेहता करमचन्दजी का बहुत काफी प्रभाव था। उक्त सम्राट कई वक्त उन्हें अपने दरबार में बुलाया करते थे। इस समय भी उन्होंने महाराजा राय. सिंहजी के द्वारा इन्हें अपने दरबार में बुलाया और आपका बड़ा सम्मान किया। बादशाह ने बड़ी प्रसन्नता के साथ आपको सोने के जेवर सहित एक बहुत मूल्यवान घोड़ा प्रदान किया । इतना ही नहीं, वे इनके प्रति तरह २ की कृपाएँ बताने लगे। इससे इन्होंने अपना शेष जीवन दिल्ली ही में बिताने को निश्चय किया। इसका एक कारण यह भी था कि बीकानेर नरेश रायसिंहजी आपसे किसी कारणवश नाराज हो गये थे। जान पड़ता है कि महाराज रायसिंहजी के व्यवहार विशेष से इनकी कोमल आत्मा को धक्का पहुँचा होगा
और निराशा के मानसिक वातावरण में गुजर कर वे देहली पहुँचे होंगे और सम्राट अकबर की कृपा के कारण उन्होंने अपना भावी जीवन देहली में ही व्यतीत करना निश्चय किया होगा। कुछ वर्षों के बाद महाराजा रायसिंहजी दिल्ली आये और उन्होंने जब मेहता कर्मचन्दजी की बीमारी का हाल सुना तब वे उनकी हवेली में पधारे और आँखों में आँसू भर कर उन्हें कई प्रकार से सांत्वना देने लगे। व्यवहारिक दृष्टि से करमचन्दजी ने भी महाराजा साहब को धन्यवाद दे दियां पर महाराजा साहब के चले जाने पर करमचन्दजी ने अपने पुत्रों को बुलाकर कहा कि महाराज के आँखों में आँसू आने का कारण मेरी तकलीफ नहीं है किन्तु इसका वास्तविक कारण यह है कि वे मुझे सज़ा नहीं दे सके। इसलिये तुम कभी बीकानेर मत जाना।
सूक्ष्मदर्शी राजनीतिज्ञ करमचंदजी की यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। सफल राजनीतिज्ञ मानवी प्रकृति का गंभीर ज्ञाता होता है और करमचंदजी ने महाराजा की मनोवृत्ति का अध्ययन कर उससे जो वास्तधिक सत्य निकाला, वह उनकी परम दूरदर्शितामयी राजनीतिज्ञता पर बड़ा ही दिव्य प्रकाश डालता है।
थोड़े ही दिनों में करमचंदजी का शरीर इस संसार में न रहा। इसके बाद ही संयोग-वश सजा रायसिंहजी बुरहानपुर में बीमार पड़ गये। उस समय उन्हें अपने बचने की कोई आशा न रही
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राजनैतिक और सैनिक महत्व
उन्होंने तब अपने पुत्रों को खुला कर कहा कि करमचन्द तो मर गया, अब तो तुम उसके बेटों को मारना । मुझे मारने के षड्यन्त्र में जो २ लोग शरीक थे उनसे बदला लेना। क्योंकि वे दलपत को राज्य दिलाना चाहते थे। इस पर सुरसिंहजी ने अर्ज की कि यदि मैं राजा हुआ तो उन लोगों को अवश्य दण्ड दूंगा। महाराज रायसिंहजी की इस मनोवृत्ति की सूक्ष्म परीक्षा कर परम नीतिज्ञ मेहता करमचंदजी ने पहले हो जो अपने पुत्रों को भविष्यवाणी कही थी वह सच उतरी और उसकी सच्चाई महाराजा रायसिंहजी की मृत्यु समय की उन बातों से स्पष्टतः प्रगट होती है, जो उन्होंने अपने वारिश सूरसिंहजी को मेहताजी के बेटे पोतों से बदला लेने के लिये कही थी।
यह तो हुई सिर्फ मनोवृत्ति के सूक्ष्म अध्ययन की बात । अब मेहता करमचंदजी का भविष्य कथन किस प्रकार सोलह आना सच्चा निकला इसका वृतान्त भी सुन लीजिये ।
रायसिंहजी के संवत १६६८ में स्वर्गवासी हो जाने पर बादशाह जहाँगीर ने दलपत को बीका. नेर का स्वामी बनाया । परन्तु जब वह इससे अप्रसन्न हो गया तो फिर संवत् १६७० में सूरसिंहजी को बीकानेर का राजा बनाया। जब सूरसिंहजी बादशाह से रुखसत लेकर देहली से बीकानेर के लिये रवाना होने को तब आपने मेहता करमचन्दजी के दोनों पुत्र भाग्यचन्द और लखमीचन्द्र को अपने पास बुलवा कर बहुत तसल्ली दी और उन्हें अपने साथ चलने के लिये बहुत समझाया बुझाया । ये दोनों बच्छावत बंधु सपरिवार बीकानेर जाने के लिये राजी हो गये। जब ये बीकानेर पहुँच गये तब राजा सूरसिंहजी ने इन दोनों की भंत्री पद पर नियुक्त किया। छः मास तक उन पर ऐसी कृपा दिखलाई कि वे सब पुरानी बातें भूल गये, यहां तक कि एक दफे खुद महाराजा साहव इनकी हवेली पर गये जहाँ पर उक्त दोनों बन्धुओं ने एक लाख रुपये का चबूतरा बनवा कर उस पर महाराजा साहव की पधरावनी की। जब इन अपरी शिष्टाचारों में मेहता करमचन्दजी के दोनों बेटे मोहांध हो गये तब महाराणा ने एक दिन कुछ हजार राजपूतों को उन्हें मारने के लिये भेजा। वे भी वहादुर थे। उन्होंने पहले उस समय की क्रूर प्रथा के अनुसार अपनी माता, स्त्रियों एवं बच्चों को मार कर राज्य की फौनों का मुकाबिला करने का निश्चय किया। वे अपने ५००वीरों सहित लड़ कर वीरगति को प्राप्त हए। ..
जब हम इस घटना की संगति करमचन्दजी की उहरोक्त भविष्यवाणी से लगाते हैं तब हमें उस के मानव-प्रकृति के अगाध अध्ययन पर सचमुच बड़ा विस्मय होता है। कहने का मतलब यह है कि करमचंद के सारे के सारे कुटुम्बीगण म र डाले गये। सिर्फ उनके कुटुम्ब की एक गर्भवती स्त्री ने अपने विश्वसनीय सेवक रघुनाथ की सहायता से करणी माता के मन्दिर में शरण लेकर अपनी जान बचाई । इस स्त्री के गर्भ
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पोसवाल माति का इतिहास
से आगे चल कर जो वंश बढ़ा और उनसे जो महाप्रतापी पुरुष हुए, उनका वर्णन उदयपुर के विभाग में दिपा गया है।
जिस प्रकार बच्छराजजी तथा उनके वंशजों ने बीकानेर राज्य की बड़ी-बड़ी सेवायें की, वैसे ही मोसवाल वंश के महाराव वेद वंश के मुत्सदियों ने भी उक्त राज्य की प्रशंसनीय सेवाएँ की । बीकानेर राज्य की उत्पति से लगाकर भागे कई वर्षों तक इस वंश ने जो महान् कार्य किये हैं, वे बीकानेर के इतिहास में चिरस्मरणीय रहेंगे।
वेदों की ख्यातों में लिखा है कि जिस समय राव जोधाजी के पुत्र मधीन राज्य स्थापन करने की अभिलाषा से जांगलू देश (वर्तमान बीकानेर राज्य ) में भाये थे उस समय राव लाखनसीजी वेद भी इनके साथ ये । बच्छराजजी की तरह मापने भी बीकानेर शहर बसाने में बड़े मार्के का हिस्सा लिया । कहा माता है कि पहले-पहल बीकानेर के २० मुहल्ले बसाये गये, जिनमें १४ मोहल्लों के बसाने में राव लाखनसिंह बी का सबसे प्रधान हाथ था।
राव लाखनसिंहजी के पाँच पुश्त पाद मेहता ठाकुरसिंहजी हुए । भाप बीकानेर के दीवान थे। आपने कई युद्धों में बड़ा ही वीरत्वपूर्ण भाग लिया था। जिस समय तत्कालीन बीकानेर नरेश रायसिंहजी मुगल सम्राट अकबर की ओर से दक्षिण विजय के लिये गये थे, उस समय मेहता ठाकुरसिंहजी भी आपके साथ थे। इस युद्ध में विजय प्राप्त करने से सम्राट अकबर राजा रायसिंहजी से बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें कई परगने इनायत किये । इसी समय राजा रायसिंहजी ने मेहताजी के वीरत्व और रण कौशल्य से खुश होकर उन्हें भटनेर (हनुमानगद ) नामक गाँव जागीर में देकर आपका सम्मान किया । आपके बाद भापके बेटे पोतों ने भी राज्य के कई औहदों पर काम किया। भापकी आठवीं पुश्त में मेहता मूलचन्द जी हुए। ये बड़े बहादुर और सिपहसालार थे। संवत् १९७० में बीकानेर महाराजा ने चुरु के सरदार पर फौजी चदाई की थी, उसमें भापभी महाराजा के साथ थे। वहाँ आपने बड़े वीरत्व का परिचय दिया। इस युद्ध में बरछी के घावों से आप घायल हुए । आपके रण कौशल्य से प्रसन्न होकर महाराजा ने आपको नोरंगदेसर नामक एक गांव गुजारे के लिये दिया । संवत् १९.५ में आपके स्वर्गवास हो जाने पर तत्कालीन बीकानेर नरेश महाराजा रत्नसिंहजी आपके मकान पर पधारे और श्रीमान ने अपने हाथों से सारी रस्में उन्होंने मदा की। कहने का मतलब यह है कि वेद परिवार के कुछ सजनों ने सैनिक और राजनैतिक क्षेत्र में बड़े मार्के के काम किये कि जिनके लिये स्वयं बीकानेर नरेशों ने भापका बड़ा भादर सत्कार किया।
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राजनैतिक और सैनिक महत्व
मेहता अवीरचन्दजी
इस खानदान में आप बड़े बहादुर और प्रतापी हुए। जिस समय आप कार्य्यक्षेत्र में अवतीर्ण हो रहे थे, वह समय बड़ा अशान्ति-मय था । राज्य में डकैतियों की बड़ी धूम थी । आपने शान्ति स्थापित करने के लिये बड़ा परिश्रम किया और बड़ी दिलेरी से काम किया। आपको कई बार डाकुओं का मुकाबला करना पडा । इससे आपको समय-समय पर अनेक घाव लगे। इसके पश्चात् बीकानेर दरबार ने आपको इस काम से हटाकर राज्य की ओर से वकील बनाकर दिल्ली भेजा । वहाँ भी आपने बड़ी बुद्धिमानी से काम किया । आपके कार्य्यं से दरबार साहब तथा रेसिडेण्ट दोनों ही खुश रहे। संवत् १८८४ में आपका उन घावों के कारण देहान्त हो गया जो आपको दिल्ली ही में डाकुओं का मुकाबला करते समय लगे थे ।
मेहता हिन्दूमलजी
इस खानदान में आप बड़े बुद्धिमान, प्रतिभा सम्पन्न और ख्यातिवान पुरुष हुए। पहले पहल सम्बत् १८८४ में आप बीकानेर की ओर से वकील की हैसियत से दिल्ली भेजे गये । वहाँ आपने बड़ी ही बुद्धिमानी और चतुराई से कार्य्य किया । इस पर तत्कालीन बीकानेर नरेश महाराजा स्नसिंहजी ने खुश होकर आपको अपना दीवान नियुक्त किया और सिक्केदारी की मुहर प्रदान की। अपने नरेश की आधीनता में आप राज्य के सारे कारोबार देखने लगे । सम्बत् १८८८ में आप तत्कालीन मुगल सम्राट् के पास दिल्ली गये और सम्राट को खुशकर अपने स्वामी महाराजा रत्नसिंहजी के लिये खिलअत और हिन्दू-शिरोमणि की उपाधि लाये । इससे महाराजा साहब पर आपका बड़ा प्रभाव पड़ा और उन्होंने आपको " महाराव "9 का खिताब 'इनायत किया ।
मेहता हिन्दूमलजी ने बीकानेर राज्य के हित-सम्बन्धी और भी कई मार्के के काम किये । बीकानेर रियासत की ओर से भारत सरकार को प्रति साल २२ हजार रुपया फौजी खर्च के लिए दिये जाने का इकरार था । मेहता हिन्दूमल ने वहुत प्रयत्न कर यह रकम माफ करवाई। इसके अतिरिक्त मेहता साहब के सुयोग्य प्रबन्ध के कारण सरकार ने बीकानेर में अपने पोलिटिकल एजण्ट रखने की भी आवश्यकता नहीं समझी । इसी प्रकार एक समय बीकानेर और भावलपुर राज्यों के बीच सरहद्द सम्बन्धी झगड़ा खड़ा हो गया। इस झगड़े को आपने बहुत बुद्धिमानी के साथ निपटाया जिससे बीकानेर रियासत का बड़ा हित साधन हुआ । इस फैसले में बीकानेर को बड़ी ही मौके की जमीन मिली। इस जमीन में बहुत से गाँव आबाद हो गये और इस रियासत को लाखों रुपये सालाना की आमद होने लगी ।
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ओसवाल आति का इतिहास
ईसवी सन् १८४६ की ३ मईको तत्कालीन वाइसराय लॉर्ड हार्डिज से भापकी मुलाकात हुई। पाइसराय महोदय आपसे मिलकर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने आपको खिल्लत बक्षी।
महाराव हिन्दूमल का प्रभाव राजस्थान के कई बड़े २ नरेशों पर था। सम्वत् १८९७ में जब महाराजा रत्नसिंहजी और उदयपुर के महाराणा सरदारसिंहजी लालीनाथजी के मन्दिर से वापिस आये और मेहताजी की हवेली में गोठ अरोगने के लिए पधारे तब दोनों दरवारों ने आपको मोतियों का कंठा पहना कर आपका सम्मान किया । इस वक्त महाराणा साहब ने महाराजा रखसिंहजी से कहा कि हमारी उदयपुर रियासत की भोलावन भी महारावजी को दे दी जावे। इस पर बीकानेर नरेश ने हिन्दूमलजी से कहा कि 'महाराणा साहब की बात तुमने सुनली होगी, इस पर उन्होंने जबाब दिया कि “ मैं जैसा बीकानेर की गही का सेवक हूँ वैसा ही उदयपुर की गद्दी का भी हूँ । मैं सेवा के लिये हर वक्त तैयार हूँ।"
महाराव हिन्दूमलजी बड़े प्रभावशाली पुरुष थे । उन्होंने बीकानेर राज्य की बड़ी २ सेवाएँ की । तत्कालीन बीकानेर नरेश ने बड़ी उदारता के साथ आपकी इन सेवाओं को अपने खास रुकों में स्वीकार किया है। हम एक रुक्के की नकल ज्यों की त्यों यहाँ पर उद्धृत करते हैं ।
"दसखत खास महाराव हिन्दूमल दीसी तथा म्हारो कूच सुणी ताकीदी मती करजा उठरो सारो काम रो बनौवसत कर थारो हात वसु काम कर श्रावजी ताकीदी कर काम बीगाड़े आये ना जे उठायो के सुसारो सिरे चाढ़े ताकीदी की दी तो तेने म्हारी आण के दूजा समाचार मोहतो मूलचन्द रा कागदांसु जाणसी श्री पुष्करजी व अजमेर आवजा अध बीच में मती आवजो मेनत कियाड़ी गुमाये ना थारी तो मोटी बंदगी चाकरी के पीढ़ी ताई की चाकरी के थारो म्हां ऊपर हाथ छे ऊपर हाथ माथै राख चाकरी ते बनायो ने इसी ही चाकरी कर देखाई पीढ़ी रा साम धरभी चाकर छो इसी थे चाकरी करी छे तेसु म्हें उसरावण कदे न हुसी इसी थे चाकरी करी छे अठे तो थारा बखाण हुए छे पण सुरग में देवता बखाण करसी इसी बंदगी घणीरी होई छे जेरी कठा ताई लिखां संवत् १८८६ मिती आसोज सुद १२ "
उक्त खास रुका पुरानी मारवाड़ी भाषा में है। इसका भाव यह है:-हमारे कुँच करने का समाचार सुनकर ताकीद मत करना । वहाँ के (बीकानेर-राज्य ) सारे काम का बन्दोवस्त कर तथा सारे काम को अपने हाथ में करके आना। ताकीद करके काम बिगाड़ कर मत आना। जिस काम को हाथ में लिया है उसे अच्छी तरह पूरा करना। अगर तेने जल्दी की तो तुझे हमारी सौगंध है। दूसरे समाचार मूलचंद के पत्र से जानना। श्री पुष्करजी और अजमेर में आना। अपनी की हुई मिहनत को व्यर्थ न
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राजनैतिक और सैनिक महत्व
जाने देना । तेरी सेवा बंदगी बड़ी है । यह सेवा पुश्तदर पुश्त की है। तेरा हम पर हाथ है, सिर पर हाथ रखना । तेने हमारी जो सेवाएं की हैं, उनसे हम उऋण न होंगें। तेरी सेवाओं की तारीफ केवल यहीं पर होगी ऐसी बात नहीं वरन् स्वर्ग में भी देवता उन सेवाओं की प्रशंसा करेंगे। तेने अपने मालिक की जो बंदगी की है, उसकी कहाँ तक तारीफ लिखें। मिती आसोज सुदी १२ संवत् १८९६ ।
उपरोक्त खास रुक्के से महाराव हिन्दूमलजी के उस अतुलनीय प्रभाव का पता लगता है जो उनका बीकानेर के राजनैतिक क्षेत्र में था । कहने का भाव यह है कि ओसवाल मुत्सुद्दियों ने राजस्थान की मध्ययुगीन राजनीति में महान् कार्य्यं किये हैं कि जिन्हें तत्कालीन नरेशों ने भी मुक्त कंठ से स्वीकार किया है ।
मेहता छोगमलजी
आप महाराव हिन्दूमलजी के छोटे भाई थे । आपका जन्म संवत् १८६९को माघ बुदी १० को हुआ । आप बड़े ही बुद्धिमान एवं अध्यवसायी महानुभाव थे । आप महाराजा सूरतसिंहजी के प्राइवेट सेक्रेटरी के पद पर अधिष्ठित थे । यह काम आपने बड़ी ही खूबी से किया । आपसे महाराजा साहब बहुत प्रसन्न रहते थे । इससे महाराजा साहब ने आपको रेसीडेंसी के वकील का उत्तरदायित्व पूर्णपद प्रदान किया ।
सम्बत् १९०९ में जब बीकानेर में सरहद्द बन्दी का काम हुआ, तब आपने इसे बड़े परिश्रम झगड़ों के बड़ी कुशलता के साथ फैसले करवा आपकी की हुई सरहद्द बन्दी से बीकानेर तत्कालीन महाराजा सरदारसिंहजी इतने
और बुद्धिमानी से किया। आपने सरहद्द सम्बन्धी बहुत से दिये । इसमें आपने बीकानेर राज्य की बड़ी हितरक्षा की। राज्य की बड़ी उन्नति हुई । आपके इस कार्य्यं से बीकानेर के खुश हुए कि उन्होंने आप को अपने गले से कंठा निकाल कर पहना दिया ।
सम्बत् १९१४ ( ई० सन् १८५७) में जब सारे भारतवर्ष में अग्रेजों के खिलाफ भयंकर विद्रोहाग्नि धक्क उठी, तब आप बीकानेर रियासत की ओर से अंग्रेजों की सहायता करने के लिये भेजे गये । उस समय आपने वहाँ बहुत सरगर्मी से काम किया। इस कार्य के उपलक्ष में तत्कालीन अंग्रेज अधिकारियों ने आप की प्रशंसा की ।
• सम्वत् १९२९ में बीकानेर नरेश महाराजा सरदारसिंहजी का स्वर्गवास हो गया । इस अवसर पर आपने महाराजा डूंगरसिंहजी को राजगद्दी पर अधिष्ठित करने में बहुत सहायता पहुँचाई | यह कहने में अत्युक्ति न होगी कि महाराज डूंगरसिंहजी को बीकानेर का स्वामी बनाने में सबसे प्रधान हाथ आप का था। स्वयं महाराज इंगरसिंहजी ने तत्कालीन ए० जी० जी० को जो पत्र लिखा था, उसमें
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
मेहताजी की इस कारगुजारी की बड़ी तारीफ की थी । सम्बत् १९३४ में देहली दरबार में महाराज साहब की आज्ञा से आप गये थे । वहाँ आपको भारत सरकारने खिलअत आदि सम्मान किया था ।
प्रदान कर आपका
सम्वत् १९३५ में बेरी और रामपुरा के झगड़ों को निपटाने के लिये आप जयपुर भेजे गये । वहाँ पर आपने अपने कागजातों से सबूत देकर उक्त मामले को बहुत ही अच्छी तरह तय करवा लिया । इस समय आपने जिस बुद्धि-कौशल्य का परिचय दिया, उसकी तारीफ जयपुर के तत्कालीन पोलिटिकल एजंट कर्नल बेन ने बहुत ही अच्छे शब्दों में की है। इतना ही नहीं उक्त कर्नल महोदय ने आपकी कार गुजारी की प्रशंसा में बीकानेर दरबार को भी पत्र लिखा था ।
मेहता छोगमलजी बड़े कुशल राजनीतिज्ञ और दूरदर्शी सज्जन थे । आप कई वर्षो तक बीकामेर की ओर से आबू पर बकील रहे। इसके अतिरिक्त आपने और भी कई बड़े २ ओहदों पर काम किया । आप खास मुसाहिब और कौन्सिल के मेम्बर भी रहे। आपको तनख्वाह के अतिरिक्त सारा खर्च भी रियासत से मिलता था ।
आप की महान कारगुजारियों से प्रसन्न होकर बीकानेर दरबार ने डूंगराना, सरूपदेसर आदि गाँव आपको जागीरी में प्रदान किये तथा आपके कायों की प्रशंसा में बहुत से खास रुक्के बक्षे । सम्वत् १९४८ की माघ बुदी १० को आपका स्वर्गवास होगया। आपकी मृत्यु के पश्चात् बीकानेर नरेश महाराज गंगासिंहजी मातमपुरसी के लिये आपके घर पर पधारे और इस तरह आपकी सेवाओं का आदर किया ।
जैसा कि हम ऊपर कह चुके हैं, मेहता छोगमलजी को उनकी बड़ी २ कारगुजारियों के लिये तत्कालीन बीकानेर नरेशों की ओर से कई खास रुक्के ( प्रशंसा पत्र ) दिये गये थे, जिनमें से एक दो की नकल हम नीचे देते हैं ।
१ - " रुक्को खास महता छोगमलजी केसरीसिंघ दीसी सुपरसाद बंचे तथा थारे घराणो सइ दीवे सूसामधरमी वा रियासत रा खैरखाही चित राख जे जिसी भुजब थे चित राख बंदगी करो हो तेसै में बोत खुस छां हो थाने रियासत रा कारवाही वास्ते में मोत मदकर लिया छे सुजीसो थारो भरोसो छे जिसी मुजब थे बरतो छो श्रा बंदगी पीढीया तक याद रह जिसी के सूं थे सब तरे हिम्मत राख हर तेरे जलदी कारवाही करेजा तेमें मांहारी मरजी जादे बधसी व थारी बंदगी जादे समझसा श्रठेरो श्रेवाल छतरसिंघ व हुकुमसींध लिखे तो मुजब जान सो थां जीसा दाना समझवार किताहीक छे सूं थाने रियासत री सरम छे सुकही सूं संकसो नहीं जादे काही जिला संवत् १६४२ असाढ़ सुदी
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राजनैतिक और सैनिक महत्व
श्रीरामजी ५-"रुको खास मेहता छोगमलजी केसरीसींघ राव छतरसींध दी सी सुप्रसाद बंचे अपरंच यांने गांवा जावणारो हुकुम दियो सु ओ हुकम म्हारी बंदगी में रहा ते सूं दार जियो सू थाने गोवा नहीं मेले छ म्हाने आज ई रियासत सूं उत्तर मिल्यो छे थारो खानदान पीढ़ियों सूं सामधरमी छे जिसी तरह थे बंदगी में चित राख बंदगी करी छो सूं थारो बंदगी म्हे वा म्हारो पूत पोतो न भूलसां थारा गोवाँ व इज्जत मुलाजे में म्हें वा म्हारो पूत पोतो थांसू बा थारा पूत पोतो तूं कोई तरे रा फरक नहीं डालसी ये बात मे म्हा वा थारे बीच में श्री लक्ष्मीनरायणजी व श्री करणीजी छे थे जमाखातर राखी जो और थारे वास्ते साहब बहादुर ने लिखियो छे घबराजो मती श्री जी सारा सरा आछी करसी संवत् १९४३ रा मिती कातीक
वुदी १२" महाराव हरिसिंहजी
भाप महाराव हिन्दूमलजी के प्रथम पुत्र थे । सम्बत् १८८३ की भासोग सुदी को मापका जन्म हुआ। अपने पूर्वजों की तरह आप भी बड़े बुद्धिमान, दूरदर्शी और प्रभावशाली मुत्सुद्दी थे। राज्य में आपका बड़ा प्रभाव था । संवत् १९२० में आप मुसाहिब माला बनाये गये तथा आपको मुहर का अधिकार भी प्राप्त हुआ। महाराजा डूंगरसिंहजी की गद्दीनशीनी में भापने अपने चाचा छोगमलजी के साथ बड़ी मदद की। इससे खुश होकर महाराजा डूंगरसिंहजी ने अमरसर और पालटा आप को जागीरी में प्रदान किये। इतना ही नहीं, आप 'महराव' की पदवी, पेरों में सोना, हाथी, साजीम आदि उच्च सम्मानों से विभूषित किये गये। आपने भी रियासत में कई मार्के के काम किये जिनकी प्रशंसा राज्य के खास रुक्कों में की गई है। उनमें से एक रुकका हम नीचे उद्धृत करते हैं । यह रुका महाराजा लालसिंहजी के खास दस्तखत से दिया गया था ।
"भाईजी श्री महारावजी हरसिंहजी सु म्हारो सुप्रसाद बंचसी अपरंच हमें ये कामरी थारी काई सलाह के काल तो सारा रा मन एक छां अाज मिनखां रा मन बिगड़ गया के मान मन फूल लाले गंगविशन स मिले छे म्हाने यां हु कारो किया छ सादानसींच रे बेटे रो सुमाईजी मारे तो अब थेई छो थांगत तूं म्हांगत छे थांसुं केई बात सूं उसरावण नहीं हुसु चुरु भादरा रा रुका मांगे के सो थारी सला बिना कोई ने रुक्का लिख देना नहीं आपणो काम खरच बागतां कोजी मिती मानन्द री।
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सवाल जाति का इतिहास
__उक्त रुक्के के आरंभिक हिस्से में कुछ खास घरू तौर की बातें हैं जो हमारे पाठकों के लिये अधिक दिलचस्पी की नहीं होंगी। पर इसके अंत में जो कुछ कहा गया है, वह मेहता हरिसिंहजी के प्रभाव को स्पष्ट करता है। वह इस प्रकार है। मेरे तो अब तुम्ही हो। जो कुछ तुम्हारी गति होगी वही मेरी भी होगी। तुम्हारी सब बातें हम स्मरण रखेंगे। चुरू और भादरा के रुक्के मांगते हैं, वे तुम्हारी बिना सलाह के नहीं देंगे।
इसी प्रकार इस कुटुम्ब में मेहता केशरीसिंहजी, मेहता अभयसिंहजी, मेहता छत्रसिंहजी, महाराव सवाईसिंहजी आदि आदि कई प्रभावशाली पुरुष हुए जिन्होंने अपने अपने समय में राज्य की अच्छी सेवाएँ की । इन सबका विस्तृत विवरण हम आगे इनके पारवारिक परिचय में देंगे। दीवान अमरचन्दर्जा सुराणा
महाराजा सूरतसिंहजी के राज्यकाल में जिन ओसवाल मुत्सुद्दियों ने अपने महान् कार्य के द्वारा राजस्थान के इतिहास में प्रसिद्धि पाई है उनमें अमरचन्दजी सुराणा का भासम बहुत ऊँचा है। सम्वत् १८५२ (ई. सन् १८०५) में बीकानेर राज्य की ओर से सुराणा अमरचन्दजी जापताखाँ पर आक्रमण करने के लिये भेजे गये। इन्होंने उसकी राजशनी भटनेर को घेर लिया। जापताखाँ भी पांच मास तक बड़ी बहादुरी से लड़ा और अंत में विजय से निराश होकर वह किले से भाग गया। इस वीरता के उप. कक्ष में महाराजा साहब ने अमरचन्दजी को दीवान के उच्च पद पर नियुक्त किया । . संवत् १८७२ में सुराणा अमरचन्दजी चुरू के ठाकुर शिवसिंहजी के मुकाबिले पर भेजे गये । आपने चुरू शहर को घेर लिया और उक्त शहर का आवागमन विलकुल बन्द कर दिया। इससे चुरू के ठाकुर की कठिनाई बहुत बढ़ गई और अधिक समय तक युद्ध करने में असमर्थ हो गये । उन्होंने (चुरू के ठाकुर ) विजय की आशा खोदी और अपने अपमान के बजाय मृत्यु को उचित समझा और आत्मघात कर लिया। बीकानेर के तत्कालीन महाराजा ने अमरचन्दजी की वीरता से प्रसन्न होकर उनको 'राव' की पदवी, एक खिलअत तथा सवारी के लिये एक हाथी प्रदान किया। राजलदेसर का वेद परिवार
बीकानेर राज्य में राजलदेसर नामक एक गाँव है। कहा जाता है कि बीकानेर बसने के पूर्व यहाँ पर एक स्वतंत्र राज्य था। जिस समय इस स्थान पर राजा रामसिंहजी राज्य कर रहे थे उस समय मोता हरिसिंहजी वेद नामक एक पोसवाल सज्जन उनके दीवान थे। उक्त वेद परिवार की ख्यात में
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ओसवाल जाति का राजनैतिक व सैनिक महत्व
लिखा है कि एक बार किसी शत्रु ने राजलदेसर पर चढ़ाई की तब मेहता हरिसिंहजी और राजा रायसिंहजी के पुत्र कुँवर जयमलजी बड़ी बहादुरी के साथ युद्ध करते हुए मारे गये और “जुझार" हुए । जुझार यह शब्द मारवाड़ी भाषा का है जिसका अर्थ सिर कट जाने के बाद भी कुछ समय तक युद्ध करते रहना है। जिस स्थान पर आपका सिर गिरा था वह स्थान आज भी जुझारजी के नाम से प्रसिद्ध है। आज भी वहाँ उनके वंश वाले किसी शुभ कार्य पर जाते हैं और इनकी कुलदेव स्वरूप पूजा करते हैं। जिस स्थान पर आपका शव गिरा था वह स्थान मथाथल के नाम से प्रसिद्ध है। इसी खानदान में सवाईसिंहजी नामक एक सजन राजलदेसर और बीदासर के बीच में जुझार हुए। जिस स्थान पर आप जुझार हुए वहाँ इनके स्मारक स्वरूप एक चबूतरा बना हुआ है। जो अभी भग्नावस्था में है।
चुरू का सुराणा खानदान-चुरू बीकानेर स्टेट में एक प्रसिद्ध स्थान है। यहाँ के सुप्रसिद्ध सुराणा परिवार में कई वीर पुरुष हो गये हैं, जिनमें जीवनदासजी का नाम विशेष प्रख्यात है। कहा जाता है कि ये भी किसी लड़ाई में जुझार हुए । आज भी राजस्थान की स्त्रियाँ इनकी वीरता के गौरव गीत गाती हैं। इन्हीं के वंश में वर्तमान में विद्याप्रेमी सेठ शुभकरणजी सुराणा विद्यमान हैं।
बीकानेर राज्य के ओसवाल मुस्सुहियो और वीरों का उपरोक्त वृतान्त पढ़ने से पाठकों को यह बात अवश्य ज्ञात हुई होगी कि जिस प्रकार जोधपुर, उदयपुर आदि रियासतों के विकास एवं राज्य विस्तार में भोसवाल मुत्सुद्दियों का महत्व पूर्ण हाथ रहा है, ठीक वैसा ही हाथ बीकानेर की राजनीति के संचालन में रहा है । यहाँ सैनिक तथा राजनैतिक रंगमंच पर ओसवाल वीरों ने बड़े खेल खेले हैं जिनके पराक्रमों का वर्णन राजस्थान के इतिहास को गौरवान्वित कर रहा है।
काश्मीर
राजपूताने और मध्यभारत के विविध राज्यों में ओसवाल मुत्सुद्दी और सेनापतियों में जो पहले एतिहासिक काम किये हैं। उनका उल्लेख हम यथा स्थान कर चुके हैं। हम देखते हैं कि काश्मीर तक पर ओसवाल जाति के एक मुत्सुद्दी ने अपनी राजनैतिक प्रतिभा का परिचय दिया था।
मेजर जनरल दीवान बिशनदासजी दूगड़ राय बहादुर सी. एस. आई. सी. आई. ई. जम्बू (काश्मीर) आपका परिवारिक इतिहास हम नीचे दूगड़ गोत्र में दे चुके हैं। आपने काश्मीर राज्य की बड़ी २ सेवाएं की। काश्मीर के भूत पूर्व महाराजा श्रीमान् प्रतापसिंहजी बहादुर ने आपके कायों की प्रशंसा करते हुए १८ सितम्बर १९२१ को आपको जो पत्र लिखा था, उसमें लिखा था कि
"The unification of the Rajput community is a matter of which you who have tried to establish it may feel justly proud. The part you played in furthering this movement shall be remembered with feelings of intense gratification not only by myself but the Rajputs in general and I have no
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पोसवाल जाति का इतिहास
doubt by our posterity as an historic event of great significance to the welfare of community.
This adds another link to the chain which binds you and your family to the ruling House of Kashmir and places it under an obligation which I and my successors will never be able to repay too hight,
अर्थात् राजपूत जाति की एकता के सम्बन्ध में आपने जो प्रयत्न किया है, उसके लिए वास्तव में हम अभिमान कर सकते हैं। आपने राजपूत जाति के इस एकता सम्बन्धी आन्दोलन को बढ़ाने में जो कार्य किया है वह न केवल मेरे वरन् सारी राजपूत जाति के द्वारा बहुत ही गहरी हार्थिक कृतज्ञता के साथ स्मरण रक्खा आयगा। मुझे इसमें तिलमात्र में भी सन्देह नहीं है कि हमारो सन्तानों के लिए मापका यह कार्य एक ऐतिहासिक घटना समझी जायगी। इस कार्य से काश्मीर राजघराने के साथ आपका सम्बन्ध बहुत ही रदतर हो गया है और भापने काश्मीर घराने को इतना कृतज्ञ किया है कि मैं और मेरी सन्ताने इसका किसी भी रूप में बदला नहीं चुका सकते। इसके आगे चल कर फिर इसी पत्र में महाराजा काश्मीर साहिब लिखते हैं कि
"The creatioa of the State added to the material prosperity of my House but the present success which owes itself to your devoted and strenewous advocacy of the cause is calculated to add still more to our well being"
अर्थात् इस राज्य की सम्पत्ति से हमारे राजघराने का वैभव बढ़ा है पर आपके सतत प्रयत्नों से वर्तमान में हमें जो सफलता हुई है वह हमारे हित को और भी अधिक बढ़ाती है।
इस प्रकार भूत पूर्व महाराज काश्मीर ने दीवान विशनदासजी को और भी अनेक प्रशंसा पत्र दिये जिनका उल्लेख हम स्थानाभाव के कारण नहीं कर सके।
इसके अतिरिक्त भारत सरकार ने भी आपकी सेवानों से प्रसन्न हो कर "गयवहादुर" "सी. माई.." तथा सी. एस. आई. के सम्माननीय पदों में विभूषित किया है। आप काश्मीर स्टेट के मिलिटरी सेक्रेटरी, रेवेन्यूमिनिस्टर तथा चीफमिनिस्टर के पद पर रहे हैं तथा इस समय जम्मू (काश्मीर स्टेट) में रिटायर्ड काइफ बिता रहे हैं। जोधपुर के शाह उदयकरणजी लोढ़ा और अमरकोट जिले पर मारवाड़ राज्य का
अधिकार ओसवाल जाति के जिन मुत्सहियों और सेनापतियों ने अपनी जाति के इतिहास को गौरवान्वित किया है, उनमें शाह अभयकरणजी लोढा का भी विशेष स्थान हैं। आपके सेनापतित्व में अमरकोट में उस पर अधिकार करने के लिये सेना भेजी गई थी। हमें जोधपुर के प्रसिद्ध इतिहास वेत्ता श्री जगदीशसिंहजी गहलोत की कृपा से तत्कालीन जोधपुर के पोलिटिकल एजन्ट केपटन ल्यूडला (Captain
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Ladlow) के पत्र नंबर १८३ ईसवी सन् १८४३ की नकल प्राप्त हुई है। जिससे शाह अभयकरण की आज्ञा से उमरकोट पर सेना भेज जाने और उमरकोट महाराजा जोधपुर का अधिकार होने की बात पर अच्छा प्रकाश गिरता है ।
No. 183 of 1843.
From
Captain Ludlow,
श्रीसवाल जाति का राजनैतिक व सैनिक महत्व
वह हम नीचे देते हैं, पर पहले जमाने में
Political Agent, Jodhpur.
To All Officers in command of British Posts and in the direction of Omerkote.
Date 2nd June 1843.
I have the honour to notify that a Detachment of Jodhpur Troops was despatched hence, under the orders of SHA UBHEE KURN on the 21st Ultimo towards Omerkote to re-occupy, under the authority of the Right Honourable the Governor General of India. and on the part of the Maharaja of Jodhpur, all the territories etc, formerly held by his ancestors in the District of Oomerkote, with the exception of Fort and Town, which for the present are to be occupied by British Troops, and over which together with the lands immediately connected with their British Jurisdiction is to be exercised.
I have had the honour to address to H. E. the Governor of Sind on this subject and to request that he would be pleased to issue such orders as he may consider called for by the occassion.
I have the honour to be Gent. Your most obedient servant,
Sd/ J. Ludlow, Political Agent.
ການ
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
यह पत्र उमरकोट की ओर के सब ब्रिटिश थानों के फौजी अफसरों के नाम लिखा गया था । इसका आशय यह है कि “हम यह प्रकट करते हैं कि “शाह उदयकरण" के सेनापतित्व में राईट ऑनरबल गवर्नर जनरल की अनुमति से जोधपुर राज्य की सेना उमरकोट के शहर और किले को छोड़कर सारे जिले पर फिर से अधिकार करने के लिये भेजी गई है, जिस पर कि ऊँची ब्रिटिश फौजों का ताबा है । यह जिला पहले जोधपुर महाराजा के पूर्वजों के अधिकार में था ।
मैंने सिंध के गवर्नर साहब को भी इस सम्बन्ध में लिखा है कि वे इस सम्बन्ध के हुक्म जारी करने की कृपा करें ।
इन्दोर
राजस्थान के राज्यों में ओसवाल वीरों तथा मुम्सुद्दियों ने जो महान् कार्य किये हैं, उनका उल्लेख हम गत पृष्ठों में कर चुके हैं। हम देखते हैं कि इन्दौर, काश्मीर प्रभृति कई दूरवर्ती रियासतों में भी भोसवाल मुत्सुद्दियों ने कई ऐसे मार्के के काम किये हैं जिनका उल्लेख उन रियासतों के पुराने कागज पत्रों तथा इतिहास में बड़े गौरव के साथ किया गया है। यहाँ हम इन्दौर राज्य के कुछ इतिहास प्रसिद्ध ओसवाल मुत्सुद्दियों का परिचय अपने पाठकों को देना चाहते हैं ।
गंगारामजी कोठारी
इतिहास के पाठक जानते हैं कि इन्दौर के भूतपूर्व नरेश तुकोजीराव ( प्रथम ) के समय में इन्दौर के होलकर वंश का प्रभाव सारे भारतवर्ष में फैला हुआ था। ये तुकोजीराव बड़े सफल सेनानायक, महान् राजनीतिज्ञ और महत्वाकाँक्षी नरेश थे। इन्होंने चारों तरफ अपनी तलवार के जौहर दिखलाये थे । इन्हीं महाप्रतापी तुकोजीराव के समय में गंगारामजी कोठारी नामक एक बहादुर और दिलेर ओसवाल नवयुवक इन्दौर में पहुँचे । ये गंगारामजी नागौर के निवासी थे और बाल्यावस्था से ही सैनिक विद्या की और इनकी विशेष रुचि थी। धीरे २ ये इन्दौर की फौज में दाखिल हो गये और करतबगारी से सेना - नायक के पद पर पहुँचे । महाराजा होलकर की ओर से इन्होंने कई लड़ाइयों में बहुत बड़ी वीरता का प्रदर्शन किया। इनकी वीरता और कारगुजारियों का वर्णन इन्दौर राज्य के हुजूर फड़नीसी के रिकार्डों में, सरजॉन मालकम साहब के मध्य हिन्दुस्तान के इतिहास में, टॉड साहब के राजस्थान के इतिहास में, तथा अन्य कई अंग्रेजी एवं मराठी के ग्रन्थों में मिलता है । तत्कालीन पार्लियामेन्टरी पेपर्स में भी आपके सैनिक कायों का उल्लेख किया गया है।
श्रीमान् महाराजा तुकोजीराव (तृतीय) ने मिस्टर बाउल्जर ( Boulger ) नामक एक अंग्रेज की अधीनता में कुछ लोगों को विलायत से इण्डिया ऑफिस ( India office ) में रक्खे हुए होलकर राज्य सम्बन्धी कागज पत्रों की व्यवस्थित रूप से नकल करने के लिये नियुक्त किया था । उन लोगों ने कोई तीन बरस काम कर होलकर राज्य सम्बन्धी लेखों तथा कागज पत्रों की नकलें की। ये कोई तीस या पैंतीस जिल्दों में पूरी हुई हैं। ये सब जिल्दें टाइप की हुई हैं और इन्दौर के फॉरेन आफ़िस में सुरक्षित हैं। इनमें तत्कालीन
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राजनैतिक और सैनिक महत्व
इतिहास-सम्बन्धी बहुत सी नवीन और बहुमूल्य सामग्री है। इन्हीं जिल्दों में कई स्थानों पर गंगारामजी कोठारी और उनके सेना संचालन का उल्लेख आया है।
____ उक्त पत्रों से मालूम होता है कि महाराजा यशवंतराव के समय में जो प्रभाव अमीरखा, गफूरखा प्रभृति व्यक्तियों का था वही प्रभाव इस समय गंगारामजी कोठारी का था। अन्तर केवल इतना ही था कि अमीरखाँ मौका पाते ही बहुत सी जमीन दबा बैग और उसने अपना स्वतंत्र राज्य कायम कर लिया। गंगारामजी कोठारी के खून में स्वामिभक्ति के परिमाणु होने से, उन्होंने ऐसा करना ठीक न समझा। उन्होंने जो कुछकिया वह सब अपने स्वामी इन्दौर नरेश के लिये किया पर तत्कालीन इतिहास ग्रन्थों में उनके पराक्रमों का जो वर्णन है, उनसे उनकी महानता पर बहुत ही अच्छा प्रकाश गिरता है। Abarrey macke मामक एक तत्कालीन इतिहास लेखक अपने "Chiefs of Central India" नामक ग्रन्थ के पृष्ठ ३० के फुटनोट में लिखते हैं।
__ "Gangaram Kothari, a Mahajan, was at this time Governor of Jaora. He was a man of considerable ability and Jaswantrao also employed him as Governor of Rampara and several other places.
अर्थात् गंगाराम कोठारी नामक महाजन इस वक्त जावरे के शासक थे। ये अत्यन्त प्रतिमा सम्पच महानुभाव थे । यशवंतराव होलकर ने इन्हें रामपुरा तथा बहुत से स्थानों का शासक ( Governor) नियुक्त किया ।
मि० बाउल्जर व्दारा संग्रहीत पार्लमेन्टरी पेपरों में २५ जनवरी सन् १८०६ में एक संवाद दिया गया है। वह इस प्रकार है । .
'In the neighbourhood of Malhargarh and Narsinghgarh was a force belonging to Gangaram Kothari acting immediately under the authority of Jaswantrao Holkar. This force lately has committed Considerable depredations on the territory of Daulatrao Scindiah.
अर्थात् मल्हारगढ़ और नरसिंहगढ़ के पास एक फौज़ पड़ी हुई थी जो गंगाराम कोठारी के सेना. पतित्व में थी। ये गंगाराम कोठारी यशवंतराव होलकर की आज्ञानुसार सेना संचालन का कार्य करते थे। इस फौज ने अभी-अभी दौलतराव सिंधिया के मुल्कों में बहुत लूट मार की।
मिस्टर बाउरूजर द्वारा संग्रहीत उक्त पार्लियामेन्टरी पेपरों के पृष्ठ २९८ में ईसवी सन् १८०९ की 16 वीं अक्टूबर का निम्नलिखित सम्बाद दिया गया है। वह इस प्रकार है। . . .
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ओसवाल जाति का इतिहास
'A pair of Cossids from Ujjain (Oujeni) state "Gangaram Kothari is at Jaora with two or four thousand men and four guns, the rest of his troops (ten thousand men and six guns) are in advance at Hatote. After the Dassera, this force will remove to Ratlam for the purpose of routing a body of Arabs who have been plundering that town.'
अर्थात् उज्जैन से आये हुए दो कासीदो । ( समाचार वाहक, ) ने सूचित किया कि गंगाराम कोठारी दो या चार हजार भादमियों और चार तोपों के साथ जावरा में डेरा डाले हुए हैं और उनकी बाकी की फौज़े ( १०००० आदमी और ६ तोपें ) हतोद नामक स्थान पर पहले ही पहुँच गई हैं। दशहरे के बाद यह फौज़ रतलाम की ओर आगे बढ़कर अरबों के उस झुण्ड को, जो रतलाम में लूटमार कर रहा है, खदेड़ने का काम करेगी ।
"
उपरोक्त अवतरणों से यह बात स्पष्टतः प्रगट होती है कि महाराजा यशवंतराव होलकर के समय में कोठारी गंगाराम एक बड़े बहादुर सिपहसालार थे और उनकी अधीनता में दस २, पन्द्रह २ हजार फौजें तक उस अशांति के युग में रहती थी । कुशल सेनानायक के अतिरिक्त आप उच्चश्रेणी के शासक भी थे। जिस समय की यह बात है वह समय हिन्दुस्तान के लिये भयंकर अशांति का था । चारों तरफ अराजकता और लूटमार मची हुई थी। ऐसे समय में कई बड़े २ जिलों का प्रबन्ध करना कोई हँसी खेल नहीं था । जावरा रामपुरा, भानपुरा, गरोठ आदि परगनों का आपने जिस योग्यता से प्रबन्ध किया था उससे आपका सफल शासक होना स्पष्टतः सूचित होता है ।
गंगारामजी काठारी ने अपने अधीनस्थ परगनों में शांति स्थापित करने का बड़ा प्रयास किया । रामपुरा भानपुरा के पास मेवाड़ का जिला आ गया है। वहाँ के राजपूत आसपास के पड़ोसी राज्यों में बहुत लूट मार किया करते थे । होलकर राज्य के जिले भी इनकी लूट मार से बड़े परेशान थे । गंगारामजी कोठारी से यह स्थिति नहीं देखी गई। उन्होने इन राजपूतों को दमन करने का निश्चय किया । तत्काल उन्होंने चढ़ाई कर दी और उक्त राजपूतों को बहुत सख्त सजाएँ दी। इतना ही नहीं, उन्होंने मेवाड़ का धांगड़ महू का किला भी फतह कर किया ।
झाबुआ आदि रियासतों पर भी इन्होंने चढ़ाइयाँ की थी और उनमें इन्हें सफलता हुई थी। झाबुआ से खिरात वसूल करने के लिये इन्हें ही जाना पड़ता था ।
हम पहले कह चुके हैं कि गंगारामजी कोठारी बड़े सफल सेना नायक थे । जब महाराजा होल. कर किसी बड़ी चढ़ाई पर जाते थे तब वे अपने इस बहादुर सेनापति को अपने साथ रखते थे। जब यक्ष
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राजनैतिक और सैनिक महत्व -वंतराव होलकर ने उदयपुर पर चढ़ाई की तब गंगारामजी भी उनके साथ थे । वहीं आपका परलोक वास हुआ ।
कोठारी गंगारामजी की इन कारगुजारियों का महाराजा होलकर ने बड़ा आदर दिया । आपको पालकी, छत्र, चँवर छड़ी आदि के सम्मान प्राप्त हुए थे । राजपूताने में भी आपकी बड़ी इज्जत थी । उदयपुर दरबार ने इन्हें अपने उमराओं में बैठक देकर इनका सम्मान किया था ।
तत्कालीन इन्दौर नरेश ने आपको परगना रामपुरे में जन्नौर और दुधलाय नामक दो गाँव इस्त• 'मुरारी जागीर में दिये थे । इनके लिये उन्हें सरकार को ९०१) टाँका के देना पड़ते थे ।
कोटारी शिवचन्दजी
कोठारी शिवचंदजी कोठारी गंगारामजी के बंधु एवं भवानीरामजी के पौत्र थे । आप बड़े वीर, सिपहसालार और सफल शासक थे। रामपुरा, भानपुरा, गरोठ आदि परगनों के आप शासक (Governor) बनाये गये थे। जिस समय की यह बात है उस समय चारों ओर बड़ी अशांति छाई हुई थी; अराजकता और लूट मार का दौर दौर था। आस-पास के लुटेरे मीनों और सोंधियों के उत्पात से उन परगनों में त्राहि मची हुई थी । कोठारी शिवचन्दजी ने इन लुटेरों पर चढ़ाइयाँ कर इन्हें समुचित दण्ड दिया और रामपुरा भानपुरा परगनों में शांति का साम्राज्य कायम किया । इनकी वीरता की कहानियाँ आज भी रामपुर भानपुर जिले के लोग बड़े उत्साह के साथ कहते हैं । महामति टॉड साहब ने भी अपने प्रवास वर्णन में इन कोठारी साहब के प्रभाव का वर्णन किया है और भी कई अंग्रेजों ने इनकी बहादुरी और कारगुजारियों की बड़ी प्रशंसा की है। कहा जाता है कि उस समय वीरवर शिवचन्दजी का नाम लुटेरे, चोर और बदमाशों को कम्पा देने का काम करता था उस भयंकर अशांति के युग में इन्होंने जैसा अमन और चैन पैदा कर दिया था उससे उनकी ख्याति दूर २ तक फैल गई थी ।
सन् १८५७ में जब अंग्रेज सरकार के खिलाफ हिन्दुस्थान में चारों ओर विद्रोह की आग भड़की और जब पिण्डारियों के दल के दल रामपुर भानपुर जिलों की ओर बढ़ रहे थे। तब कोठारी शिवचंदजी मे बड़ी हिकमत अमली से इन लोगों को दूसरी ओर निकाल कर अपने जिलों की रक्षा कर ली थी। इस प्रकार और भी कई मौकों पर इन्होंने बड़े २ काम किये और उन जिलों में अपना नाम चिरस्मरणीय कर लिया ।
जैसा कि हम पहले कह चुके हैं कोठारी शिवचन्दजी में राजनीतिज्ञता और वीरता का बड़ा ही मधुर सम्मेलन हुआ था । एक ओर जहाँ हम आप को हाथ में तलवार लेकर युद्ध करते हुए देखते हैं,
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दूसरी ओर अत्यन्त कठिन परिस्थिति में अपने जिलों का उत्तम से उत्तम प्रबन्ध करते हुए पाते हैं । उस भयंकर कोलाहल के समय में रामपुर भानपुर की प्रजा ने जिस सुख और शांति का अनुभव किया था वह बहुत कुछ आप ही की कारगुजारी का फल था । श्रीमंत महाराजा होलकर ने आपकी इन सेवाओं की बड़ी कद्र की और आपको खजूरी और सगोरिया आदि गाँव की जागीरी प्रदान की। इतना ही नहीं वरन् आपको पालकी, छत्री, छड़ी, चँवर आदि ऊच्च सम्मान प्रदान कर महाराजा ने आपका बहुत सस्कार किया था। राज्य के अत्यन्त सम्माननीय सरदारों में आपका आसन रक्खा गया। रामपुर भानपुर जिले के इस महान् प्रभावशाली व्यक्ति का संवत् १९१४ (सन् १८५७ ) में भाले की चोट से गरोठ मुकाम पर देहांत होगया । आपके स्मारक में गरोठ और भानपुर में आलीशान छत्रियाँ बनी हुई हैं जिनमें आपकी मूर्तियां प्रतिष्ठित हैं । ये छत्रियां कोठारी साहब की छत्रियों के नाम से प्रसिद्ध हैं ।
कोठारी सावंतरामजा
कोठारी शिवचन्दजी के स्वर्गवासी होने के बाद संवत् १९१५ में आप मारवाड़ से दत्तक लाये गये और अपने स्वर्गवासी पिताश्री के स्थान पर अधिष्ठित किये गये । आप बड़े उदार, प्रजाप्रेमी, गुणज्ञ और विविध कलाओं के बड़े पुरस्कर्ता थे । प्रजा हित को ही आप राज हित का प्रधान अंग समझते थे । गरीब किसानों के लिये आपके उदार अंतःकरण में बहुत बड़ा स्थान था । जब २ राज्य और किसानों का स्वार्थ टकराता था तब २ आप श्रीमंत होलकर नरेश के सामने बड़े जोरों के साथ किसानों के पक्ष का समर्थन करते थे । इससे सारे जिले के लोग आपको पिता की तरह भक्ति की दृष्टि से देखते थे । आप अपने समय में बहुत ही अधिक लोकप्रिय ये ।
विभिन्न कलाओं के आप अनन्य प्रेमी थे। कविगण, गायक आपकी कीर्त्ति आते थे और आप से खासा पुरस्कार पाते थे । अपनी २ कलाओं का प्रदर्शन करने के से लोग आप की सेवा में उपस्थिति होते थे और उन्हें आपसे काफी उत्तेजन मिलता था । भानपुरा में खासी गतिविधि रहती थी और यह कसवा लोगों के लिये एक आकर्षण का था। आप को स्वर्गीय महाराजा तुकोजीराव ( द्वितीय ) और महाराजा शिवाजीराव खूब रामपुरा भानपुरा के सरसूबा ( Governor ) थे ।
मृत्यु हुई ।
सुनकर दूर २ से लिये चारों ओर
आपके समय में
केन्द्र हो रहा मानते थे आप
संवत् १९५० के लगभग आप को किसी कारणवश इन्दौर जाना पड़ा। वहाँ कुछ समय बाद • आप भाला लेकर घोड़े को फिरा रहे थे कि एकाएक भाला आप के शरीर में घुस गया, जिससे आपकी
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राजनैतिक और सैनिक महत्व
आप कौंसिल के मेम्बर हो गये । संवत् १९५७ में इन्दौर में आपका स्वर्गवास हो गया। जिस समय आपके स्वर्गवास का समाचार भानपुरा पहुँचा उस समय चारों ओर भानपुर परगने में हाहाकार सा मच गया। इन पंक्तियों का लेखक उस समय भानपुर में था । उसने उस समय भानपुर में जो शोक की घोर घटा देखी वह उसे सदा स्मरण रहेगी। इसका कारण है । जो व्यक्ति सैकड़ों हजारों आदमियों के सुख दुखों में साथ देता है, लोग भी उसे अपने पिता की तरह प्रेम और भक्ति भाव से देखने लगते हैं। कोठारी सावन्तरामजी रामपुर भानपुर परगने के एक विशेष पुरुष थे। वे लोगों से प्रेम करते थे और लोग उनसे प्रेम करते थे । अब राजसी ठाठ के साथ उनकी सवारी निकलती थी तब सैंकड़ों लोग उनका अभिवादन करने में गौरव अनुभव करते थे । अगर तत्कालीन प्रचलित लोकोक्ति पर विश्वास किया जाय तो कहना होगा कि किसानों के हित रक्षा का समर्थन करने के कारण ही आपको भानपुर से इन्दौर जाना पड़ा था । कहने का अर्थ यह है कि ओसवाल समाज में इन्दौर के कोठारी गंगारामजी, कोठारी शिवचन्दजी और कोठारी सावंतरामजी अपना खास स्थान रखते हैं।
राय बहादुर सिरेमलजी बापना
गत पृष्ठों में हम ओसवाल समाज के ऐसे कई ऐतिहासिक महानुभावों का परिचय दे चुके हैं जिन्होंने अपने २ समय में राजनैतिक और सैनिक क्षेत्रों में अपनी अपूर्व प्रतिभा का परिचय देकर राजस्थान के इतिहास को गौरवान्वित किया है । हम देखते हैं कि आज भी इस समाज में कुछ ऐसे सज्जन मौजूद हैं जिन्होंने जपनी दूरदर्शितापूर्ण ( Far sighted statesmanship) राजनैतिक प्रतिभा के कारण भारत के शासकों (Administrators ) में उच्च स्थान प्राप्त कर लिया है। इनमें सब से प्रथम उदाहरण इन्दौर राज्य के सफल प्राइममिनिस्टर राय बहादुर सिरेमलजी बापना सी० आई० ई० का दिया जाने योग्य है । वर्त्तमान ओसवाल समाज में इस समय सब से अधिक उच्च पद पर आपही हैं।
जिस समय आपने इन्दौर राज्य के शासन की बागडोर सम्हाली थी वह समय इन्दौर राज्य के इतिहास में अत्यंत जटिलता मय और कठिन समस्याओं से परिपूर्ण था । ऐसे समय में आपने इन्दौर राज्य के शासन को जिस अपूर्व नीतिज्ञता के साथ संचालित किया, वह आपके सफल शासक होने का उवलंत प्रमाण है। जिन लोगों ने देशी राज्यों की आंतरिक परिस्थिति का सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन किया है। वे उनमें होने वाले राजनैतिक कुचक्रों और फिरकेवन्दियों से भली प्रकार परिचित होंगे। मैं इनका और भी प्राबल्य रहता है। ऐसी नाजुक परिस्थिति में इन सब षड्यंत्रों से ऊपर हृदय से प्रजा हित की ओर बढ़ते चले जाने ही में उच्च श्रेणी की राजनीतिज्ञता रहती है । महोदय एक विशाल हृदय के मुत्सद्दी हैं । उनका दृष्टि बिन्दु बहुत व्यापक और दूरदर्शितापूर्ण है ।
नाबालिगी शासन
रह कर विशुद्ध
श्रीमान बापना
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ओसवाल जाति का इतिहास
संकीण और कुचक्रमयी राजनीति में उनका विश्वास नहीं। यही कारण है कि ये क्षुद राजनीति से अपने भापको परे रख कर प्रजा कल्याण की विशाल भावनाओं से अपने आपको प्रेरित करते हैं। आपने शिक्षा, म्यापार और उद्योग-धंधों की प्रगति में बड़ी सहायता पहुँचाई। इन्दौर में वाटर-वर्स की महान् विशाल योजना का निर्माण कर इन्दौर की प्रजा के लिये आपने एक महान् काम किया। कहा जाता है कि इस वाटर वर्स के समान विशाल योजना संसार भर में केवल एक दो जगह ही निर्मित की गई हैं। यह एक ऐसा कार्य है जिसे इन्दौर की प्रजा के हृदय में बापना महोदय का नाम चिरस्मरणीय रहेगा। इसके अतिरिक्त शिक्षा संबंधी प्रगति में भी आपने काफी सहायता पहुँचाई है । हम आपका विस्तृत परिचय आपके पारवारिक इतिहास में दे रहे हैं। यहाँ पर हम सिर्फ इतना ही कहना चाहते हैं कि श्री० वापना महोदय भारतवर्ष की रियाततों के प्रधान मन्त्रियों में अपना विशेष स्थान रखते हैं और नाबालिगी शासन में आपको जितने व्यापक अधिकार दिये गये थे, उतने जहांतक हमारा ख़याल है, सर प्रभाशङ्कर पट्टनी सरीखे एक भाष सज्जन को छोड़ कर और किसी प्राइममिनिस्टर को नहीं रहे हैं। हमें हर्ष है कि आपने इन अधिकारों का बड़ा ही सदुपयोग किया और इन्दौर के प्रगतिशील शासन को विकसित कर उसे अत्यन्त सभ्य रियासतों
शासन के समकक्ष में ला रक्खा। मध्यभारत के भूतपूर्व ए. जी०जी० ने अपने एक व्याख्यान में श्री. वापना महोदय के शासन की बड़ी प्रशंसा की थी, तथा आखिर में कहा था कि प्रगतिशीलता के लिहाज से किसी भी रियासत के शासन से बापना महोदय का शासन दसरे नम्बर पर न रहेगा (Second to none)। भापकी शासन योग्यता की प्रशंसा कई प्रभावशाली अंग्रेजों ने तथा अन्य भारतीय राजनीतिज्ञों ने की है। राय बहादुर हीराचन्दजी कोठारी
वर्तमान समय में इन्दौर के कोठारी खानदान में रायबहादुर हीराचन्दजी कोठारी ने भी राज्य के कई बड़े २ पदों पर सफलता के साथ काम किया। ई० सन् १८८९ में आप इन्दौर राज्य की सर्विस में दाखिल हुए । आरम्भ में आप हाउस होल्ड डिपार्टमेंट ( Household Department) में केवल १२) मासिक पर एक मामूली ल हुए। फिर आप अपनी कारगुजारी से बढ़ते २ अमीन, नायब सूबा, सूबा, रेव्हेन्यू कमिश्नर, रेव्हेन्यू मिनिस्टर और एक्साइज मिनिस्टर हुए। नायव दीवानी और फायनांस मिनिस्टरी का भी काम आपने बड़ी सफलता के साथ किया। जब मि. नरसिंहराव छुट्टी पर गये थे तब आपने प्राइम मिनिस्टरी का काम भी किया था । भूतपूर्व ए० जी०जी मि० बोझांकेट तथा सर जानबुड आपके कार्य से बड़े प्रसन्न रहे । आपको इन्दौर रियासत के सम्बन्ध में बहुत जानकारी है। राज्य के किसानों तकसे आप परिचित हैं। रेव्हेन्यू के कार्य में रियासत में आप एक ही समझे जाते हैं। आपकी सरलता और मिलनसारिता प्रशंसनीय है।
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प्रोसकाल जाति के प्रधान, दीवान तथा
प्रधान सेनापतियों की सूची
हम इस सूची में भारत की कुछ देशी रियासतों के ओसवाल प्रधानों, दीवानों. एवं प्रधान सेनापतियों की सूची दे रहे हैं। इनमें से कई सज्जनों ने अपने महान कार्यों से राजस्थान के इतिहास के पृष्ठों को उज्वल किया है।
जोधपुर राज्य के प्रधान ( Presidents) १-भण्डारी नरानी ( समराजी के पुत्र ) सं० १५१५ से १६ तक २-भण्डारी नराजी ( समराजी के पुत्र ) सं० १९:६ से ३१ तक ३-भण्डारी नाथाजी (नराजी के पुत्र ) सं. १५४४ से ४५ तक ४-भण्डारी ऊदाजी ( नाथाजी के पुत्र) सं० १५४८ से ५-भण्डारी गोरोजी ( ऊदाजी के पुत्र ) राव गांगाजी के समय में ६-भण्डारी लूणाजी (गोराजी के पुत्र ) सं० १६५१ से ५४ तक ७-भण्डारी मानाजी ( डाबरजी के पुत्र ) सं०:१६५४ से ६५ तक ८-भण्डारी लूणाजी (गोरानी के पुत्र ) सं० १६६५ से ७० तक ९-भण्डारी विट्ठलदासजी सं० १७६६ १०-भण्डारी खींवसीजी ... ... ... सं. १७७० ११-भण्डारी भानाजी ( मानाजी के पुत्र ) सं० १६७१ से ७५ तक १२-भण्डारी पृथ्वीराजजी ... ... ... सं० १६७५ से ७६ तक १३ ---भण्डारी लूणाजी ( गोराजी के पुत्र ) सं० १६७६ से १६८१ तक
जोधपुर राज्य के दीवान 1-भण्डारी नराजी (समराजो के पुत्र) जोधपुर शहर के स्थापन में राव जोधाजी के साथ सहयोग
दिया। एवं संवत् १५१६ में “दीवान" का सम्मान पाया। २-मुहणोत महराजजी (अमरतीजी के पुत्र)-राव जोधाजी के समय में दीवानगी तथा प्रधामगी की ।
* प्रधानगी का ओहदा दीवान ( Primeministers) के ओहदे से ऊँचा समझा जाता था।
. इनके पश्चात् लगभग १५० वर्षों तक जोधपुर राज्य के स्वामी राव जोधाजी, राव सातलजी, राव गामामी, राव मालदेवजी, रावचन्द्रसेनजी, मोटाराजा उदयसिंहजी, सवाई राजा सूरसिंहजी एवं महाराजा गनसिंहजी के समयों में कई भोसवाल पुरुषों ने दीवानगी एवं प्रधानगी के ओहदों पर कार्य किये, लेकिन पूर्ण रेकार्ड प्राप्त न हो सकने से जितने नाम प्राप्त हुए उतने ही दिये जा रहे हैं।
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ओसवाल जाति का इतिहास
३-भण्जरी उदाजी (नाथाजी के पुत्र) दीवानगी और प्रधानगी साथ में "संवत् १५४८ में । ४-भण्डारी गोरोजी ( उदाजी के पुत्र)......"राव गाङ्गाजी के समय दीवानगी तथा प्रधानगी साथ में । ५-भण्डारी धनोजी (डावरजी के मुत्र) "राव चन्द्रसेनजी के समय में। ६-भण्डारी मनाजी (डावरजी के पुत्र).."मोटा राजा उदयसिंहजी के समय में । ७+-भण्डारी हमीरजी ८-भण्डारी रायचंदजी (जोधाजी के पुत्र), ९-कोचर मूथा बेलाजी (जांजरजी के पुत्र) "महाराजा सूरिसिंहजी के समय में । १०-भण्डारी ईसरदासजी
"-भण्डारी भानाजी ... ... सम्बत् १६७६ में १२-सिंघवी शहामलजी - ....""महाराजा गजसिंहजी के समय में १३-मुहणोत जयमलजी (नैनसीजी के पिता) ... ... संवत् १६८६ से १५-सिंघवी सुखमलजी ....." सम्वत् १६९० से सम्बत् १६९७ तक १५-भण्डारी रायमलजी (लूणाजी के पुत्र)- ... ... संवत् १६९४ से १६९७ की पौष वदी ५ तक १६-सिंघवी रायमलजी (शोभाचन्दजी के पुत्र)- ... .." सम्वत् १६९७ की पौष वदी ५ से. १७-भण्डारी ताराचन्दजी ( नारायणोत ) देश दीवानगी ... सम्वत् १७१४ से S मुहणोत नेणसीजी ( जयमलजी के पुत्र) देश दीवानगी ।
सम्वत् १७११ से १७२३ तक मुहणोत सुन्दरसी (नेणसीजी के छोटे भाई) तन दीवानगी १९-भंडारी विट्ठलदासजो (भगवानदासजी के पुत्र ) ... ... ... संवत् १७६२ से २०-सिंघवी बख्तारमलजी और तख्तमलजी (सुखमलजी के पुत्र ) ... ... संवत् १७६३ से २१-भण्डारी विट्ठलदासजी (भगवानदासके पुत्र)।०६५की सावण सुदी।३से १७६६की कार्तिक वदी तक भण्डारी माईदासजी (देवराजजी के पुत्र) तन दीवानगी
१७६६ की कार्तिक वदी से भण्डारी खींवसीजी (रासाजी के पुत्र) देश दीवानगी
संवत् १७६७ तक २३-राय रायन भण्डारी रघुनाथसिंहजी (रायचन्दजी के )...."देश दीवानगी, सम्बत् १७६० से २४-भण्डारी खींवसीजी (रासाजी के पुत्र) सम्बत् १७६० के आसोज से १७६९ के फागुन तक २५-भण्डारी माईदासजी (देवराजजी के पुत्र)- ... सम्बत् १७६९ २६-समदड़िया मूथा गोकुलदासजी
... सम्वत् १७६९ भण्डारी खींवसीजी (रासाजी के पुत्र) तन दीवानगी । १०७० के चैत्र से १७०१ की राव रायन भण्डारी रघुनाथसिंहजी-देश दीवानगी
फागुन वदी १२ तक
२८-समदड़िया मूथा गोकुलदासजी ... २९-राय रायन भण्डारी रघुनाथसिंहजी ...
...
... १२२
सम्वत् १७८१ से .. ... ... सम्बत् १७८२ से संवत् १७८५ तक
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जोधपुर राज्य के मोसवाल दीवान
३०-भण्डारी अमरसिंहजी (खींवसीजी के पुत्र) सम्बत् १७८५ की भाषाढ़ सुदी १४ से १७८८ तक ३१-सिंघवीं अमरचन्दजी (सायमलजी के पुत्र ) १७९३ आसोज सुदी १० से १७९४ चैत्र सुदी ७ तक ३२-भण्डारी अमरसिंहजी (खीवसीजी के पुत्र) सम्बत् १७९९ की कार्तिक सुदी १ से १८०१ के ज्येष्ठ तक ३३-भण्डारी गिरधरदासजी (रतनसिंहजी के भाई)-संवत १८.1 के ज्येष्ठ से १८०४ के भादवा तक ३४-भण्डारी मनरूपजी (पोमसीजी के पुत्र)....."सम्बत् १८०४ के भादवा से १८०६ के मगसर तक ३५–भण्डारी सूरतरामजी ( मनरूपजी के पुत्र) ... ... ... ... सम्वत् 1००६ ३६ -भण्डारी दौलतरामजी (थानसीजीके पुत्र) । संवत् १८०६ की सावण सुदी १० से १८०७ की ३७-भण्डारीसूरतरामजी (मनरूपजी के पुत्रः
आसोज सुदी १० तक। ३८-भण्डारी सवाईरामजी (रतनसिंहोत) १८०७ की आसोज सुदी १० से १८०८ की श्रावण वदी तक ३९-सिंघवी फतेचन्दजी (सरूपमलोत) १८०८ की श्रावण वदी २ से १८१८ की आसोज वदी १४ तक ४०-भण्डारी नरसिंहदासजी(मेसदासोत) संवत् १८१९ की जेठ सुदी ५ से १८२० की जेठ सुदी ५ तक ४१-मुहणोत सूरतरामजी (भगवतसिंहोत) १८२० की जेठ सुदी ५ से सं० १८२३ आसोज सुदी ९ तक ४२-सिंघवी फतेहचन्दजी* (सरूपमलजी के पुत्र) सम्वत् १८२३ की चैत्र सुदी ५ से १८३७ की
- आसोज सुदी १० तक ( जीवन पर्यन्त) ४३-खालसे (कामसिंघवी फतेचन्दजीके पुत्र ज्ञानमलजी देखते थे) १८३७से १८४७ मगसर सुदीर तक ४४-सिंघवी ज्ञानमलजी (फतेचन्दजी के पुत्र ) संवत् १८४७ की मगसर सुदी २ से माघ सुदी ५ तक ४५-भण्डारी भवानीदासजी (जीवनदासजी के) १८४७ माह सुदी ५ से १८५१ की वैशाख वदी १४ तक ४६-भण्डारी शिवचन्दजी (शोभाचन्दोत) १८५१ की वैशाख वदी १४से १८५४ को आसोज सुदी १४ तक ४७-खालसे (काम सिंघवी नवलराजजी देखते थे) १८५४ आसोज सुदी १ से १८५५ श्रावण वदी ४८-सिंघवी नवलराजजी (जोधराजजी के पुत्र) संवत् १८५५ की सावण वदी ६ से कार्तिक वदी ९ तक ४९-भण्डारी शिवचन्दजी (शोभाचन्दोत) १८५५ को कार्तिक सुदी१ से १८५६ की वैशाख सुदी तक ५०-मुहणोत सरदारमलजी (सवाईरामोत) १८५६ वैशाख सुदी ११ से १८५८ की आसोज सुदी ३ तक ५१-खालसे (काम सिंघवी जोधराजजी देखते थे) १८५८ आसोज सुदी ३ से १८५९ भादवा वदी २ तक ५२-भण्डारी गङ्गारामजी (जसराजजी के पुत्र) सम्वत् १८६० मगसर वदी ७ से जेष्ठ वदी १ तक ५३-मुहणोत ज्ञानमलजी ( सूरतरामजी के) १८६० जेठ वदी १ से १:१२ की आसोज सुदी ४ तक ५४-कोचर मेहता सूरजमलजी ( सोजतके )१८६२ आसोज बदी ४ से १८६४ की पासोज सुदी ८ तक ५५-सिंघवी इन्द्रराजजी (भीवराजोत) १८६४ की आसोज सुदी ८ से १८७२ की भासोज सुदी तक
• आपने अपने जीवन में २५ सालों तक "दीवान" पद का संचालन किया ।
+ जब किसी कारण वश “दीवानगी" का श्रोहदा दरबार भपने अधिकार में ले लेते थे, उस समय जबतक दूसरे ओहदेदार निर्वाचित नहीं किये जाते थे. वह मोहदा "खालसे" माना जाता था और उसके कार्य संचालन का भार वैसे ही किसी प्रभावशाली व्यक्ति के जिम्मे किया जाता था।
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ओसवाल जाति का इतिहास
५६ - *खालसे ( काम मेहता अखेचन्दजी देखते थे ) संवत् १८७२ कार्तिक सुदी १ से माघ सुदी ३ तक ५७ - सिंघवी फतेराजजी ( इन्दराजजी के पुत्र ) १८७२ माघ सुदी ३ से १८७३ भादवा सुदी १४ तक ५४ - सिंघवी फतेराजजी ( इन्द्रराजजी के ) संवत् १८७३ की कार्तिक सुदी १२ से वैसाख सुदी १४ तक ५९ – मेहता भखेचन्दजी ( खींवसीजी के पुत्र ) १८७३ की वैसाख सुदी ५ से १८७४ सावण सुदी ३ तक ६०—-मेहता लक्ष्मीचन्दजी ] (अखेचन्दजी के पुत्र) १८७४ सावण सुदी ३ से १८७६ वैसाख सुदी १४ तक ६१ - खालसे ( काम सोजत के मेहता सूरजमलजी करते थे) १८७६ वैसाख सुदी १४ से भाषाद वदी ९ तक ६१ - सिंघवी फतेराजजी ( इन्द्रराजजी के पुत्र) १८७६ की भाषाद वदी ९ से १८८१ की चैत्र सुदी ४ तक ६३ - खालसे ( काम सिंघवी फोजराजजी देखते थे) १८८१ की चैत सुदी ४ से १८८२ की पोप सुदी २ तक ६४ - सिंघवी इन्द्रमलजी ( जोरावरमलजी के पुत्र ) १८८२ की पोष सुदी २ से १८८५ कार्तिक वदी १ तक ६५ - सिंघवी फतेराजजी ( इन्द्रराजजी के पुत्र ) १८८५ की काती वदी १ से १८८६ सावग वदी ३० तक ३६ - खालसे ( काम सिंघवी गुलराजजी के पुत्र फोजराजजी देखते थे) १८८६ सावण वदी Ss से १८८७ तक ३७ - सिंघवी फतेराजजी ( इन्द्रराजजी के पुत्र ) संवत् १८८७ से १८८८ की चेत सुदी ९ तक १८ – सिंघवी, गंभीरमलजी ( फतेमलजी के पुत्र ) १८४८ को चेत खुदी ९ से १८८९ की चेत वदो १३ तक ६९ - मेहता जसरूपजी x ( नाथजी के कामदार ) सं० १८८९ चेत वदी १३ से १८९० काती सुदी ४ तक ७०-खालसे (भण्डारी लखमीचन्दजी काम देखते थे) १८९० काती सुदी ४ से १८९१ सावण वदी १४ तक ७१ – भण्डारी लखमीचन्दजी (कस्तूर चन्दजी के पुत्र) १८९१ सावण वदी १४ से १८९२ माघ वदी १० तक ७१ - सिंघवी फतेराजजी ( इन्द्रराजजी के पुत्र ) संवत् १८९२ की माघ वदी १० से वैसाख सुदी १३ तक ०३ - सिंघवी गंभीरमलजी + ( फते चन्दजी के पुत्र) १८९२ वैसाख सुदी १४ से १८९४ सावण वदी ४ तक ७४-भण्डारी लखमीचन्दजी ( कस्तूरचन्द जी के पुत्र ) संवत् १८९४ सावण वदी ४ से आसोज सुदी ४ तक ७५ - सिंघवी फतेराजजी ( इन्द्रराजजी के पुत्र ) संवत् १८९३ आसोज सुदी ७ से १८९५ चेत सुदी १ तक ७६ - सिंघवी गंभीरमलजी ( फतेचन्दजी के पुत्र ) १८९५ की चेत सुदी १ से १८९७ आसोज वदी १२ तक ७७ - सिंघवी इन्द्रमलजी ( जीतमलजी के पुत्र ) संवत् १८९७ की आसोज वदी १२ से वैसाख सुदी १२ तक ७८–भण्डारी लखमीचन्दजी (कस्तूरचन्दजी के पुत्र) १८९७ वैसाख सुदी १२ से १८९८ चेत वदी १४ तक ७९ - कोचर बुधमलजी (सोजत के मेहता सूरजमलजी के पुत्र) १८९० चेत वदी १४ से १८९९ की भा० सु० १२ ८० - सिंघवी सुखराजजी ( बनराजजी के पुत्र ) संवत् १८९९ की भादवा सुदी १२ से मगसर वदी ६ तक
....
*इस समय से जोधपुर के राजनैतिक वायु मण्डल में लगभग ३० सालों तक बहुत अधिक उथल-पथल एवं पार्टी बंदियों रही, मतएवं "दीवान" पद भी बहुत जल्द २ परिवर्तित होते रहे 1
+ " दीवान” पद पर इन्होंने ७ बार कार्य्यं किया ।
आप ५ वार दीवान हुए ।
X इनकी तरफ से इनके कामदार पंचोली कालूरामजी इस ओहदे का काम देखते थे । ÷ इन्होंने ४ बार " दीवान" पद पर काम किया ।
नोट --- ध्यान रखना चहिये कि जोधपुर राज्य का राजकीय सम्वत् श्रावण मास में परिवर्तित होता था ।
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जोधपुर राज्य के प्रोसवाख दविान
1-मेहता लखमीचन्दजी (अखेचन्दजी के पुत्र) १८९९ चेत सुदी से १९..की फागुन पदी तक .१-सिंघवी गंभीरमलजी (फतेमलजी के पुत्र) सम्बत् १९०० की फागुन वदी से जेठ मुदी ५ तक
१-मेहता लखमीचन्दजी ( अखेचन्दजी के पुत्र)सम्वत् १९०० की जेठ सुदी से १९०२ कार्तिक सुदी १ ८४-खालसे काम सिंघवी फौजराजजी, भण्डारी शिवचंदजी, मेहता गोपालदासजी तथा ३ अन्य जातीय
सज्जन देखते थे। सं० १९०२ के कार्तिक सुदी १ से माघ वदी ९ तक ८५-भण्डारी शिवचन्दजी ( लखमीचन्दजी के पुत्र) १९०२ माघ वदी ९ से १९०३ भासोज सुदी १ तक ८६-मेहता लखमीचन्दजी (अखेचन्दजी के पुत्र ) १९०३ आसोज सुदी १ से १९०७ आसोज वदी तक ८७-मेहता मुकुन्दचन्दजी (लखमीचन्दजी के पुत्र) १९०७ की भासोज सुदी ७ से कार्तिक वदी तक ८८-राव राजमलजी लोढ़ा-(रावरिधमलजी के) १९०. चेत वदी १० से १९०८ भादवा सुदी तक ८९-खालसे (काम मेहता मुकुन्दचन्दजी, सिंघवी फौजराजजी और मेहता विजयसिंहजी आदि ५ व्यक्तियों
की कमेटी के द्वारा होता था) सं० १९०८ भादवा सुदीसे पोष सुदी तक ९०-मेहता विजयसिंहजी (कृष्णगढ़ के मेहता करणमलजी के) १९०८ पोष सुदी से १९०९ मा० वदी। ९१-मेहता मुकुन्दचन्दजी (लक्ष्मीचन्दजी के पुत्र) १९०९ मगसर वदी १ से १९१० माह सही ९तक ९२-खालसे-(काम मेहता गोपाललालजी, मेहता हरजीवनजी गुजराती तथा मेहता पांकरलालजी
देखते थे ) ।सं० १९१० की माघ सुदी ९से वैसाख वदी तक ९३-खालसे (काम मेहता विजयसिंहजी, राव राजमलजी लोदा; और मेहता हत्जीवाजी गुजराती रेखते
थे) सं० १९१५ की कार्तिक वदी से पोष बदी तक ९४-मेहता विजयसिंहजी-संवत् १९१३ की पोष सुदी १० से संवत् १९१५ की पोष सुदी ९ तक ९५-मेहता गोपाललालजी और मेहता हरजीवनदासजी गुजरात वाले संवत् १९९५ की जेठ सुदी तक ९५-मेहता मुकुन्दचन्दजी ( लक्ष्मीचन्दजी के पुत्र) १९१६ की आषाढ वदी ८ से १९१९ सावन वदी तक ९७-+खालसे (काम मेहता हरजीवनदासजी गुजराती, सिंघवी रतनराजजी तथा दो अन्य जातीय सजन
देखते थे )सं. १९१९की सारण बदी से चैत्र सुदी तक ९४-मेहता मुकुन्दचन्दजी ( लखमीचन्दजी के) १९१९ चैत्र सुदी १ से १९२२ दूजा जेठ वदी ९ तक ९९- खालसे-वेद मेहता सेठ प्रतापमलजी अजमेर वाले (गम्भीरमलजी के पुत्र) मेहता मुकुन्दचन्दजी, मेहता गोपाललालजी तथा भण्डारी पचानदासजी ( बहादुरमलजी के भाई) काम करते थे।
सं० १९२३ कार्तिक वदी ३ से १९२४ भादवा सुदी ५ १००-मेहता विजयसिंहजी ( मेहता करणमलजी के पुत्रं ) १९२५ कार्तिक सुदी ५ से मगसर सुदी ५ तक
• इनके साथ ख्योढ़ीदार पेमकरणजी एवं बोशी प्रभूदानजी भी इस पद का कार्य देखते थे। + इनके साथ जोशी प्रभूलालजी भी दीवान पद का कार्य देखते । इनके साथ खीची उम्मेदकरणजी काम देखते थे। +इनके साथ पंचोली मीनालालजी और जोशी प्रभूदयालजी काम देखते थे।
आपके साथ जोशी शिवचन्दजी भी दीवान पद का कार्य संचालित करते थे।
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
१०१-खालसे - (काम मेहता विजयमलजी देखते थे) १९२५ जेठ वदी २ से १९१६ आसोन सुदी १०तक १०१-खालसे (काम मेहता हरजीवनदासजी गुजराती मेहता विजयसिंहजी,सिंघवी समरथराजजी, मेहता हरजीवनदासजी एवं दो अन्य जातीय सज्जनों के साथ राज्य व्यवस्था होती थी)
संवत् १९२९ की कार्तिक सुदी १४ तक १०३-०.ब० मेहता विजयसिंहजी-सं० १९२९ काती सुदी १४ से १९॥ की फागुन सुदी ९ तक १०४-मेहता हरजीवनदासजी गुजरातवाले–१९३१ की चेत सुदी १५ से १९१२ कातिक सुदी ५ तक १०५-रावराजा बहादुर लोढ़ा सिरदारमलजी-संवत् १९३३ की भादवा सुदी से माष सुदी १५ तक १०६-रा.ब. मेहता विजयसिंहजी~सं० १९३३ की माघ सुदी १५ से १९४९ भादवा सदी तक १०७-मेहता सरदारसिंहजी ( विजयसिंहजी के पुत्र) संवत् १९४९ की भादवा सुदी १५ से अपने मृत्यु
समय सं० १९५८ की आषाद सुदी ३ तक इस प्रकार "दीवान" के सम्माननीय पद पर सम्वत् १५१५ से सम्वत् १९५८ तक (१५० सालों में) करीब ८० ओसवाल मुत्सदियों ने लगभग ३०० वर्षों तक १०७ बार कार्य किया। इसी प्रकार राज्य के सभी बड़े २ मोहदों पर अत्यधिक संख्या में ओसवाल पुरुष कार्य करते रहे। विक्रमी संवत् की सत्रहवीं, अठारहवीं एवं उन्नीसवीं शताब्दि में जोधपुर के राजनैतिक क्षेत्र में ओसवाल जाति का बड़ा प्राधान्य रहा ।
जोधपुर राज्य के प्रोसवाल फौजबख्शी (Commander-in-Chiefs) -मुहणोत सूरतरामजी-संवत् १८०८ सावण वदी ३ से संवत् १८१३ सावण वदी १३ तक २-भंडारी दौलतरामजी (थानसिंहजी के पुत्र) संवत् १८१३ की सावण वदी १३ से १९ तक ३- सिंघवी भीवराजजी (लखमीचन्दजी के पुत्र) १८२४ की फागुन वदी से १८३० तक ४-सिंघवी हिन्दूमलजी (चन्द्रभाणजी के पुत्र) सं० १८३० की चैत बदी१२ से।८३२ भादवा सुदी तक ५-सिंघवी भीवराजजी-(लखमीचंदजी के पुत्र)१८३२ की भादवा सुदी १५ से १८४७ जेठ सुदी तक १-सिंघवी अखेराजजी (भीवराजजी के पुत्र) सं० १८४७की जेठ बदी से १८५१ सावण सुदी तक .-भंडारी शिवचन्दजी-संवत् १८५१ की सावण सुदी १ से १८५५ की सावण वदी १४ तक
-भंडारी भवानीरामजी (दौलतरामजी के पुत्र) १८५५ सावण बदी १४ से १८५६ चेत बदी तक ९-सिंघवी अखेराजजी (भीवराजोत) सं०१८५६ की चेत बदी ६ से १८५७ की प्रथम जेठ सुदी १२ तक २०-सिंघवी मेघरानजी-(अखेराजजी के पुत्र) १८५७ प्रथम जेठ सुदी १२ से १८७२ काती बदी तक ११-भंडारी चतुर्भुजजी-सुखरामजी के पुत्र) १८७१ काती बदी १४ से १८७४ दूजा सावण सुदी तक
आज कल की तरह उपरोक्त जमाना शान्ति का नहीं था। "फौजवक्शी" को हमेशा अपनी सेनाएँ यत्र तत्र युद्ध के लिये ले जाना पड़ती थी। इसी तरह रियासत के सेना विभाग में एवं प्रबन्ध विभाग में भोसवाल मुत्सुदी बड़े बड़े ओहदों पर प्रचुर प्रमाण में काम करते रहे। जिनकी नामावली स्थानाभाव के कारण हम यहाँ देने में असमर्थ हैं।
+सिंघवी भीवराजजी तथा उनके पुत्रों, पौत्रों एवं प्रपौत्रों ने लगभग १२५ सालों तक फोज बख्शी का काम किया।
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जोधपुर दरबार के श्रीसवाल जाति के प्रति उद्गार
१२ - भडारी अगरचन्दजी - ( शिवचन्दजी के पुत्र) १८७४ दूजा सावण सुदी ६ से १८७६ तूजा जेठ बदी १२ तक १३ - सिंघवी मेघराजजी - ( भखेराजोत ) १८७६ की दूजा जेठ बदी १२ से १८८२ की माघ सुदी १२ तक १४ - सिंघवी फौजराजजी -- (गुलराजजी के पुत्र) १८९३ की सावण सुदी १ से १९१२ की आषाढ़ बदी ३ तक १५ - सिंघवी देवराजजी - ( इनके पिता फौजराजजी के गुजरने पर फोजबख्शी देवराजजी के नाम पर हुई लेकिन इनकी ओर से इनके फूफा मुहणोत विजयसिंहजी तथा मेहता कालूरामजी बापना कार्य देखते थे) सं० १९१२ भाषाढ़ बदी ३ से १९१६ सावण बदी १ तक
१६ - खालसे - ( काम सिंघवी देवराजजीकी ओरसे उनके कामदार बापना कालूरामजीके पुत्र मेहता रामलाल
१७ - सिंघवी देवराजजी ( फौजराजजी के पुत्र) सं० १४ -- सिंघवी समरथराजजी - (सुखराजजी के पुत्र) १९ - सिंघवी करणराजजी -- ( सूरजराजजी के पुत्र ) २० - सिंघवी किशनराजजी - (करणराजजी के पुत्र) १९३४ आसोज सुदी ५ से २१ -- सिंघवी बच्छराजजी ( भींवराजजी के वंशज )
जी बापना देखते थे ।) सम्वत् १९१९ की सावण बदी १ से सम्वत् १९१९ की आसाद सुदी १४ तक १९१९ आषाढ़ सुदी ४ से १९२८ कावी बड़ी ६ तक १९२९ की मगसर सुदी ३ से १९३१ चेत बदी ६ तक १९३१ चेत बदी ६ से १९३४ आसोज सुदी ५ तक १९३५ भादवा बदी ३ तक १९४५ से सं० १९५६ तक
सं०
जोधपुर के वर्तमान महा. साहिब का कहाँ के वाल समाज के प्रति उद्गार
ओसवालों द्वारा संचालित सरदार हाई स्कूल की नई इमारत के उदघाटन के समय गत १३ सितम्बर १९३२ को जोधपुर के वर्तमान नरेश श्रीमान् महाराजा उम्मेदसिंहजो साहब ने बड़ा ही महत्वपूर्ण भाषण दिया था । उसमें आपने ओसवाल जाति के पूर्वजों द्वारा की गई महान राजनैतिक सेवाओं का बड़ा ही गौरवशाली वर्णन किया है। हम आपके उक्त भाषण का कुछ अंश नीचे उधृत करते हैं ।
=
I greatly appreciate the sentiments of loyalty and devotion expressed by you towards me and my house. The inestimable services rendered by your community to my ancestors are assured of a conspicuous and abiding place in the history of this great State. lt is a magnificent record of devoted service. Indeed I cannot pay too high a tribute to your unflinching loyalty and singleminded devotion to duty which have been, and I hope should be, very valuable assets to this State, both in the past, and in the future.
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
I have no doubt that you prize those splendid traditions. I confidently believe that you will always strive to preserve and enhance them. It behoves you and your successive generations to see that the high example of duty and loyalty enshrined in those traditions is not in any way bedimmed or blurred in fut.
अर्थात् आपने मेरे और मेरे घराने के प्रति जिस राजभक्ति के भाव प्रदर्शित किये हैं। उन्हें मैं बहुत प्रसंद करता हूँ । आपकी जाति ने मेरे पूर्वजों की जो अमूल्य सेवाएं की हैं वह इस राज्य के इतिहास में प्रधान और चिरस्थाई स्थान गृहण करेगी। वह भक्ति पूर्ण सेवाओं का एक गौरवशाली इतिहास है। वास्तव में आपकी सदा स्थिर रहने वाली राज भक्ति और एक मन से की हुई कर्तव्य निष्टा- जो कि भूतकाल में इस राज्य के लिए बहुमूल्य सम्पत्ति रही है—मुझे उम्मीद है कि भविष्य में भी रहेगी — उसके प्रति मैं अधिक से अधिक सम्मान प्रदान करता हूँ ।
मुझे संदेह नहीं है कि आप अपने महान गौरवशाली इतिहास का बहुत मान करते होंगे। मुझे पूरा विश्वास है कि आप हमेशा अपने गौरव पूर्ण इतिहास को सुस्थिर रखने का यत्न करेंगे। अगर आप और आपकी संतानें इस बात के लिये अवश्य थत्न करेंगी कि आपके इतिहास में कर्तव्य निष्ठा और राज्य भक्ति का जो प्रकाश है, उसमें भविष्य में किसी भी प्रकार कमी न आवे ।
उदयपुर (मेवाड़) के "ओसवाल" प्रधान, दीवान एवं फौज बख्शी
अब हम मारवाड़ की तरह मेवाड़ के कतिपय ओसवाल प्रधान, दीवान एवं सेनाध्यक्षों की सूची देते हैं । मारवाड़ की तरह मेवाड़ में भी अनेकों ओसवाल राजनीतिज्ञों और वीरों ने लगातार कई सौ वर्षों तक कठिन परिस्थितियों में राज्य की महान सेवाए की। हमें खेद है कि इन तमाम भोसवाल पुरुषों के हमें सिलसिलेवार पूरे नाम नहीं मिले हैं अतः हम बहुत थोड़ी नामावली यहाँ दे रहे हैं।
१ - कोठारी तोलाशाहजी - महाराणा सांगा के समय में प्रधानगी की ।
२ - * कोठारी कर्माशाहजी - राणा रतनसिंह के समय में प्रधानगी के पद पर काम किया ।
३ - निहालचन्दजी बोलिया - सम्वत् १६१० में चित्तौड़ में महाराणा उदयसिंहजी के समय प्रधान रहे । ४ - रंगाजी बोलिया – बड़े महाराणा अमरसिंहजी तथा महाराणा कर्णसिंहजी के समय में प्रधान रहे । ५ - सर्वस्य त्यागी, वीरवर भामाशाह कावड़िया - महाराणा प्रतापसिंहजी के राजस्व काल में आरंभ सेअंत तक एवं उनके पुत्र अमरसिंहजी के समय में संवत् १६५६ की माघ सुदी ११ तक ६ – कावड़िया जीवशाहजी ( भामाशाह के पुत्र) अपने पिता के बाद महाराणा अमरसिंहजी के समय में । - कावड़िया अक्षयराजजी ( जीवाशाह के पुत्र ) महाराणा कर्णसिंहजो के राज्यकाल में ।
* इन्होंने शत्रुंजय का उद्धार किया था। देखिये " धार्मिक विभाग "
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मेवाड़ के ओसवाल दीवान
४-सिंघवी दयालदासजी सीसोदिया-महाराणा राजसिंहजी के समय में ९-मेहता अगरचन्दजी वच्छावत-महाराणा अरिसिंहजी, हमीरसिंहजी तथा भीमसिंहजी के समय में १०-मोतीराजजी बोलिया-महाराणा, भरिसिंहजी के राज्यकाल में सं० १४१९ से २६ तक "-एकलिंगदासजी बोलिया (मोतीरामजीबोलिया के पुत्र) एकलिंगदासजी की वय छोटी होने से इनके
काका मोजीरामजी काम देखते थे १२-सोमजी गाँधी-महाराणा भीमसिंहजी के समय में १३-सतीदासजी गाँधी (सोमजी के भाई) महाराणा भीमसिंहजी के समय में १४-शिवदासजी गॉधी (सोमजी के भाई) महाराणा भीमसिंहजी.के समय में १५-मेहता देवीचन्दजी वग्छावत (अगरचन्दजी के पौत्र) महाराणा भीमसिंहजी के समय में १६-मेहता रामसिंहजी-महाराणा भीमसिंहजी के समय में कई बार दीवान तथा प्रधान रहे। १७-मेहता शेरसिंहजी वच्छावत ( मेहता अगरचन्दजी के पौत्र ) महाराणा भीमसिंहजी के समय भाप
और मेहता रामसिंहजी वारी २ से तीन चार बार दीवान और प्रधान रहे। १८-मेहता गोकुलचन्दजी वच्छावत ( मेहता देवीचन्दजी के पौत्र) महाराणा सरूपसिंहजी के समय में १९-कोठारी केसरीसिंहजी-महाराणा सरूपसिंहजी के समय में सं० १९१६ से २६ तक २०-मेहता गोकुलचन्दजी-महाराणा सरूपसिंहजी के समय में संवत् १९२१ से प्रधानगी की २१--मेहता पन्नालालजी वच्छावत सी० आई० ई-महाराणा शंभूसिंहजी के समय में २२-कोठारी बलवन्तसिंहजी-महाराणा फतेसिंहजी के समय में २३-कटारिया मेहता भोपालसिंहजी-महाराणा फतेसिंहनी के समय में २४-मेहता जगनाथसिंहजी (भोपालसिंहजी के पुत्र) महाराणा फतहसिंहजी के समय में
इसी प्रकार मेवाड़ के सेनाध्यक्षों में बोल्या रुद्रभाजी, सरदारसिंहजी, भारमलजी कावडिया. मेहता जालसी मेहता चीलजी मेहता नाथजी, मेहता मालदासजी आदि कई नामांकित वीर हुए। जिन्होने अपनी अपूर्व वीरता से मेवाड़ राज्य की अमूल्य सेवाएँ कीं। मेहता चीलजी ने मेवाड़ राज्य के स्थापन में महाराणा हम्मीर को बहुत इमदाद दी।
बीकानेर स्टेट के मोसवाल दीवान मारवाद एवं मेवाड़ की तरह बीकानेर राज्य के आरंभ काल से ही भोसवाल पुरुषों में रियासत की अमूल्य सेवाओं में सहयोग लिया। अब हम बीकानेर के प्रधानों तथा दीवानों की सूची दे रहे हैं। १-बच्छरानजी बच्छावत-संवत् १४८९ से रावबीकाजी के साथ बीकानेर राज्य स्थापन में बहुत
कार्य किया। • आपके साथ पंडित लक्ष्मणरावजी भी प्रधानगी का काम करते थे।
+ आपके साथ संवत् १९७५ तक पं० शुकदेव प्रसादजी एवं इनके बाद संवत् १९७८ तक पं. दामोदर लालजी भी राज्यकार्य सञ्चालनमे सहयोग देते रहे। इस समय आप "मैम्बर कौंसिल' एवं 'कोर्ट माफ वोर्ड आफीसर' है।
इसके पूर्व प्राप राव रिणमलजी एवं राव जोधाजी के समय में भी प्रधानगी का काम कर चुके थे। भाप राव बीकाजी के साथ नांगलू प्रदेश में पाये। आपके परिवार ने लगातार ६ पीदियों तक बीकानेर राज्य में प्रधानगी की।
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श्री सवाल जाति का इतिहास
२ - *वेद मेहता राव लाखनसी, बीकानेर राज्य के आरंभ काल में कार्य्यं किया ।
'३ - मेहता करमसी बच्छावत - (वच्छराजजी के पुत्र ) संवत् १५५१ से राव लूणकरणजी के समय में । ४ - मेहता वरसिंहजी बच्छावत ( करमसी के छोटे भाई ) राव जेतसिंहजी के समय में । ५ - मेहता नगराजजी बच्छावत ( वरसिंहजी के पुत्र ) राव जेतसिंहजी के समय में ।
६ - मेहता संग्रामसिंहजी बच्छावत ( नगराजजी के पुत्र ) राव कल्याणसिंहजी के समय में ७ मेहता करमचन्दजी बच्छावत (संग्रामसिंहजी के पुत्र ) राव रायसिंहजी के समय में ।
८ - वेद मेहता ठाकुरसीजी ( राव लाखनसी की ५ वीं पीढ़ी में ) राव रायसिंहजी के समय में । ९ - मेहता भागचन्दजी तथा लक्ष्मीचंदजी बच्छावत ( करमचन्दजी के पुत्र) राव सूरसिंहजी के समय में । १० - वेद मेहता महाराव हिन्दूमलजी - महाराजा रतनसिंहजी के समय में संवत् १८८५ में ।
११ - मेहता किशन सिंहजी -- १६३५ में एक साल तक ।
१२ - दीवान अमरचन्दजी सुराणा - महाराजा सूरतहिजी के समय में १८८३ से
१३ - राखेचा मानमलजी - संवत् १८५२-५३ में दीवान रहे ।
१४ – कोचर मेहता शहामलजी - महाराजा सरदारसिंहजी के समय में संवत् १८६७ में दीवान रहे ।
किशनगढ़ स्टेट के दीवान
अब हम किशनगढ़ स्टेट के भी कतिपय ओसवाल दीवानों की सूची दे रहे हैं ।
१ - मुहणोत रायचन्दजी - महाराज कृष्णसिंहजी के साथ कृष्णगढ़ राज्य के स्थापन में एवं १६५८ में किशनगढ़ शहर बसाने में बहुत अधिक सहयोग दिया। आपको महाराजा कृष्णसिंहजी ने अपना प्रथम दीवान बनाया। आप लगभग १७२० तक इस पद पर रहे ।
२ - मेहता कृष्णसिंहजी मुहणोत - - महाराजा मानसिंहजी के समय राज्य के मुख्य मन्त्री रहे । ३- मेहता आसकरणजी मुहणोत - महाराजा राजसिंहजी ने १७६५ में दीवान पद इनायत किया । ४ - मेहता चेनसिंहजी मुहणोत -- महाराजा प्रतापसिंहजी के समय में दीवान रहे। ५- मेहता रामचन्द्रजी मुहणोत महाराजा बहादुरसिंहजी ने संवत् १७८१ में दीवान बनाया । ६ – मेहता हठीसिंहजी मुहणोत - महाराजा बहादुरसिंहजी ने संवत् १८३१ में दीवान पद दिया । ७ - मुहणोत हिन्दू सिंहजी - महाराज बहादुरसिंहजी के समय में भाईदासजी के साथ दीवानगी की । ८- मेहता जोगीदासजी मुहणोत - महाराजा विरदसिंहजी तथा प्रतापसिंहजी के समय में दीवान रहे ।
* आप भी राव बीकाजी के साथ जोधपुर से आये थे। बीकानेर शहर को बसाने में बच्छराजजी तथा लाखनसीजी ने बहुत अधिक प्रयत्न किया ।
+ इन बंधुओं को महाराजा सूरसिंहजी ने मरवा डाला उस समय इनके परिवार में केवल १ गर्भवती स्त्री रहगई जिनके कुक्ष से भाणजी नामक पुत्र हुए। इनकी चौथी पीढ़ी में मेहता अगर चन्दजी हुए। जो मेवाड़ के राजनैतिक गगन में चमकते हुए नक्षत्र की तरह भासित हुए। जोधपुर और बीकानेर के बाद इस परिवार के कई पुरुष मेवाड़ राज्य में प्रधान और दीवान रहे। इस समय इस परिवार में मेहता पन्नालालजी बच्छावत सी. आई. ई. के पुत्र मेहता फतेलालजी हैं ।
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जयपुर, काश्मीर और सिरोही के ओसवाल दीवान
९-मेहता शिवदासजी मुहणोत-महाराज कल्याणसिंहजी के समय में १८४७ में दीवान रहे। १०-मेहता करणसिंहजी मुहणोत-१८७७ से १८९६ तक दीवान रहे। आपके द्वितीय पुत्र मेहता
विजयसिंहजी तथा पौत्र सरदारसिंहजी जोधप्नुर राज्य के ख्याति प्राप्त दीवान रहे। ११-मेहता मोखमसिंहजी (मेहता करणमलजी के ज्येष्ट पुत्र) संवत् १८९६ से १९०८ तक दीवान रहे ।
इसी प्रकार किशनगढ़ में मुहणोत परिवार के अलावा बोथरा परिवार में भी कुछ सज्जन दीवान रहे, लेकिन खेद है कि इन परिवारों के वर्तमान मालिकों के पास कई बार जाने पर भी हमें परिचय प्राप्त न हो सका, अतएव पूरी सूची नहीं दे सके । इसी प्रकार किशनगढ़ में मेहता उम्मेदसिंहजी, मेहता रघुनाथसिंहजी, मेहता माधवसिंहजी आदि सज्जनों ने भी स्टेट में फौज बख्शी के पदों पर कार्य किया।
जयपुर के ओसवाल दीवान -गोलेछा माणिकचन्दजी-प्रधानगी के पद पर कार्य किया। १-गोलेछा नथमलजी-संवत् १९३७ से १९५८ तक दीवान पद पर कार्य किया ।
काश्मीर के पोसवोल दीवान -मेजर जनरल दीवान विशनदासजी रायबहादुर सी० एस० . आई ० सी० आई० ई. जम्मू-भूत पूर्व दीवान काश्मीर, इस समय आप जम्बू में रिटायर्ड लाइफ बिता रहे हैं।
सिरोही-स्टेट के ओसवाल दीवान इस स्टेट में भी बहुत पुराने समय से ओसवाल समाज का सिंधी परिवार दीवान के पदों पर काम करता आ रहा है। उन सजनों के नाम नीचे उद्धत करते हैं। -सिंघी श्रीवंतजी
सिरोही के महाराजा सुलतानसिंहजी, अखेराजजी, वेरीसालजी २-सिंघ श्यामजी ३-सिंघी सुन्दरजी
दरजनसिंहजी, तथा मानसिंहजी के समय में दीवान ४-सिंधी अमरसिंहजी
के पदों पर काम किया। ५-सिंघी हेमराजजी
ये तीनों बन्धु ईडर के दीवान सिंघी लालजी के पुत्र थे। 1-सिंघी कानजी
इन्होंने सिरोही स्टेट के दीवन पद पर काम किया था इनमें •-सिंघी पोमाजी
कानजी ३ वार दीवान हुए। -सिंधी जोरजी-आप संवत् १९१६ में दीवान रहे । ९-बापना चिमनमलजी दबानी वाले-आपने भी स्टेट में दीवान के पद पर कार्य किया था। १.-सिंघी कस्तूरचन्दजी-आप संवत् १९१९,२५ तथा ३२ में तीन बार दीवान हए । ११-राय बहादुर सिंघी जवाहरचन्दजी-आप संवत् १९४८,५५ तथा ५९ में तीन बार दीवान हुए।
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मोसवाल जाति का इतिहास
इन्दौर स्टेट के ओसवाल दीवान -राय बहादुर सिरेमलजी बापना, बी० एस० सी० एल० एल० बी० एतमाद-वजीर-उद्दौला-आप
सन् १९२६ से इन्दौर स्टेट के प्राइम मिनिस्टर एवं प्रेसिडेंट कौंसिल के पद पर अधिष्ठित हैं।
वर्तमान में भारत के ओसवाल समाज में आपही एक महानुभाव इतने उच्च पदपर विभूषित है। २-रा• ब० हीराचन्दजी कोठारी-आप भी कुछ मास तक टेम्पररी रूप से प्रेसीडेंट कौंसिल तथा दीवान रहे थे।
रतलाम स्टेट के श्रोसवाल दीवान १-स्वर्गीय कोठारी जव्हारसिंहजी दूगड़ नामली-आपने कुछ वर्षों तकस्टेटके दीवान पदपर काम किया था।
सीतामऊ के ओसवाल दीवान १-मेहता नाथाजी-महाराजा रामसिंहजी के समय में १७३१ में । २-मेहता हीराचन्दजी-महाराजा केशोदासजी के समय में । ३-मेहता भिखारीदासजी-महाराजा केशोदासजी के समय में १७६९ में ।
बांसवाड़ा राज्य के अओसवाल दीवान यहाँ के कोठारी परिवार ने बहुत समय तक दीवान पद पर काम किया। तथा अभी २ साल पूर्व मसूदा निवासी श्री जालिमचन्दजी कोठारी दीवान पद पर काम करते थे।
___झाबुआ के ओसवाल दीवान -श्री उड्डा गुलाबचन्दजी एम० ए० जयपुर-भाप इस स्टेट के दीवान पद पर कार्य कर चुके हैं।
प्रतापगढ़ के ओसवाल दीवान 1--श्रीसुजानमलजी बांठिया प्रतापगढ़-आप कई वर्षों तक इस स्टेट के दीवान रह चुके हैं ।
झालावाड़ स्टेट के फौज़बख्शी -सुराणा गंगाप्रसादजी-आपको महाराज राणा पृथ्वीसिंहजी ने फौजवख्शी का पद इनायत किया था। २-सुराणा नरसिंहदासजी-(गंगाप्रसादजी के पुत्र) अपने पिताजी की जगह फौजवशी मुकरर हुए।
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धार्मिक क्षेत्र में ओसवाल जाति Oswals in the Field
of
Religion.
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श्रो सवार
सवाल जाति के राजनैतिक और सैनिक महत्व के ऊपर गत अध्याय में हम काफी प्रका टाल चुके हैं। उसके पढ़ने से किसी भी निष्पक्ष पाठक को यह पता बहुत आसानी के साथ लग जाता है कि राजपूताने के मध्ययुगीन इतिहास में राजपूत राजाओं के अस्तित्व की रक्षा के अन्त र्गत इस जाति के मुत्सुहियों का कितना गहरा हाथ रहा है। कई बार इतिहास के अन्दर हमको ऐसी परि स्थितियाँ देखने को मिलती हैं, जिनसे लाभ उठाकर अगर वे लोग चाहते तो किसी राज्य के स्वामी हो सकते. थे। नवीन राज्यों की स्थापना कर सकते थे। मगर इन लोगों की स्वामिभकि इतनी तीव्र थी कि जिसकी वजह से उन्होंने कभी भी अपने मालिक के साथ विश्वासघात नहीं किया। उन्होंने सैनिक लड़ाइयाँ लड़ीं अपने मालिकों के लिये; राजनैतिक दावपेंच खेले वे भी अपने मालिकों के लिये; जो कुछ किया उसका फायदा उन्होंने सब अपने मालिकों को दिया। इस प्रकार राजनीति और युद्धनीति के साथ २ इनकी स्वामिभक्ति का आदर्श भी ऊँचा रहा बहुत है 1
अब इस अध्याय में हम यह देखना चाहते हैं कि इस जाति के पुरुषों मे धार्मिक क्षेत्र के अन्तः गत क्या २ महत्वपूर्ण काम किये । उनकी धार्मिक सेवाओं के लिये इतिहास का क्या मत है।
यहाँ पर यह बात ध्यान में रखना अत्यन्त आवश्यक है कि हर एक युग और हरएक परिस्थिति में जनता के धार्मिक आदर्श भिन्न २ होते हैं। एक परिस्थिति में जनता जिस धार्मिक आदर्श के पीछे मतवाली रहती है, दूसरी परिस्थिति में वह उसी आदर्श से उदासीन हो किसी दूसरे आदर्श के पीछे अपना सर्वस्व लगा देती है । एक समय था जब लोग अनेकानेक मन्दिरों का निर्माण करवाने में, बढ़े २ संघों को निकालने में, आचायों के पाट महोत्सव कराने में धर्म के सर्वोच्च आदर्श की सफलता समझते थे आज के नवीन युग
में शिक्षित और बुद्धिवादी व्यक्तियों का धर्म के इस आदर्श से बड़ा मतभेद हो सकता है। हमारा
भी हो सकता है, मगर इस मतभेद का यह अर्थ नहीं है कि हम उन महान् व्यक्तियों की उत्तम भावनाओं
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की इज्जत न करें। उन्होंने अपने महाम् आदशों के पीछे जो त्याग किया उसकी तो हमें इज्जत करनाही होगी, चाहे उन आदर्शों से हमारा कितना ही मतभेद क्यों न हो।
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शधुंजय तीर्थ
रावजय तीर्थ और प्रोसवाल
शत्रुजय तीर्थ के माहाल्य के सम्बन्ध में कुछ भी लिखना सूर्य को दीपक दिखाना है । भारतवर्ष - प्रत्येक जैन गृहस्थ इस तीर्थ की महानता और माहात्म्य के सम्बन्ध में पूर्णतया परिचित है। खास करके श्वेताम्बर जैन समाज के अन्तर्गत तो इस तीर्थ की महिमा खूब ही मानी गई है। इस समाज के अन्तर्गत प्राचीन और अर्वाचीन काल में जितने भी संघ निकाले गये उनमें से अधिकांश से भी अधिक शर्बुजय और गिरनार के थे । इस तीर्थ के अन्दर इसके जीर्णोद्धार और इसकी जाहोजलाली के लिये ओसवाल श्रावकों में कितने महत्वपूर्ण काम किये, वे नीचे लिखे शिलालेखों से भली प्रकार प्रकट हो जायेंगे । शत्रआय तीर्थ और धर्मवरि समराशाह
... शत्रुजव तीर्थ वैसे तो बहुत प्राचीन है मगर समय के धक्कों से हमेशा मन्दिरों में टूट फूट और जीर्णता भाती ही रहती है, जिसका समय २ पर श्रद्धालु और समर्थ श्रावक पुनरुद्धार करवाते रहते हैं। मगर वि० सं० १३६९ में इस तीर्थ पर ऐसी भयङ्कर विपत्ति आई जैसी शायद न तो उसके पहले ही कभी भाई थीं और न उसके पश्चात ही।
___ वह समय अलाउद्दीन खिलजी का था-उसी अलाउद्दीन का जिसने महारानी पभिनी की रूप लालसा में पढ़कर चित्तौड़ का सर्वनाश कर दिया था। इस यवन-राजा की निर्दयता और धर्मान्धता के सम्बन्ध में इतिहास के पाठक भली प्रकार परिचित हैं। इसी अलाउद्दीन की फ़ौजों ने वि० सं० १३६९ में भानुजय तीर्थ पर हमला कर दिया। इन आक्रमणकारियों ने इस महान् तीर्थ को चौपट कर दिया। भनेकानेक भव्य मन्दिर और मूर्तियां न कर दी गई। यहाँ तक कि मूलनायक श्रीआदीश्वर भगवान की मूर्ति भी खण्डित कर दी गई।
___उस समय अणाहिलपुरपट्टण में ओसवाल जाति के श्रेष्ठि (वैद मुहता) गौत्रीय धर्मवीर देशल. शाह विद्यमान थे। ये बड़े धर्म भीरू और भावुक व्यक्ति थे। जब इन्होंने शत्रुक्षय तीर्थ के पाश का हाल सुना तो इन्हें बड़ा दुःख हुआ । इन्होंने अपने प्रतिभाशाली और धार्मिक पुत्र समराशाह से वह सब हाल कहा । सप समराशाह ने कहा कि जब तक मैं इस तीर्थराज का पुनरुद्धार न कर लूगा (3) भूमि पर सोऊंगा
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| श्रोसवाल जाति का इतिहास-=
श्री शत्रुञ्जय हिल पालीताना
(श्री बा० पूरणचन्द्रजी नाहर के सौजन्य से)
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धार्मिक क्षेत्र में प्रोसवाल जाति
(२) दिन में एक बार भोजन करूँगा (३) ब्रह्मच से रहूँगा (0) शारदम्यों का प्रयोग न करूँगा
और (५ ) छः विषय में प्रतिदिन केवल एक विषय का सेवन करूंगा। धर्म वीर समराशाह की इस भीष्म प्रतिज्ञा को सुनकर तत्कालीन आचार्य श्री सिदसूरिजी बड़े प्रसव हुए और उन्होंने समराशाह की सफलता की मनोकामना की। .
___ सबसे पहले समराशाह ने गुजरात के तत्कालीन अधिकारी अलपखान का पुनरुद्धार के लिए हुक्म और शाहीफर्मान प्राप्त किया। उसके पश्चात् सूर्ति निर्माण के लिए आरासण खान से संगमरमर की पुतली मँगवाई । उस समय अरासणखान का अधिकारी महिपालदेव था जो त्रिसङ्गमपुर में राज्य करता था। इस राजा के मंत्री का नाम पाताशाह था। जब समराशाह के भेजे हुए सेवक बहुमूल्य भेटों को लेकर महिपालदेव के सम्मुख पहुंचे तो वह बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने वे सब भेटे आदर पूर्वक वापस कर दी और स्वयं समराशाह के सेवकों को लेकर संगमरमर की खान पर गया, और स्फटिक मणि के सदृश निर्दोष, सुन्दर फलही निकलवाकर समराशाह के सेवकों को देदी। इस फलही से उस समय के उत्तम शिल्पशास्त्रियों ने मूर्ति बनाकर तैय्यार की। इधर जो देवमन्दिर देवकुलिकाएँ, और मण्डप इत्यादि क्षत विक्षत हो गये थे, वे भी सब तैयार करवाकर नवे बना लिये गए इसके अतिरिक्त देशलशाह ने रथ के आकार का एक नया मन्दिर और बनवाया।
सब काम हो जाने पर देशलशाह ने प्रतिष्ठा महोत्सव का मुहूर्त निकाला और सारे श्री संघ को दूर २ तक निमंत्रण भेजेगए । इस प्रकार बड़ी धूम धाम से लाखों रुपये खर्च करके धर्मवीर देशल. शाह और समराशाह ने जिन बिम्ब की प्रतिष्ठा करवाई। इस प्रतिष्ठा के समय में बहुत बड़ा उत्सव किया गया। शत्रञ्जय तीर्थ और धर्मवीर कर्माशाह
संवत् १५८७ में चित्तौड़ के सुप्रसिद्ध सेठ कर्माशाह ने इस महान् तीर्थ का पुनरुद्धार करके फिर से इसकी नई प्रतिष्ठा करवाई । उसका पूरा विवरण वहाँ के सबसे बड़े और मुख्य मंदिर के द्वार पर एक
• मण्डप के सम्मुख बलानक मण्डप का उद्धार श्रेष्ठि त्रिभुक्नसिंह ने करवाया, स्थिरदेव के पुत्र शाह लंदुक मे ४ देव कुलिकाएँ बनवाई जैत्र और कृष्ण नामक संघवियों ने जिन बिम्ब सहित भाठ दोहरियाँ करवाई पेथइशाह के बनाए हुए सिद्ध कोटाकोटि चैत्य का उद्धार हरिश्चन्द्र के पुत्र शाह केशव ने कराया इसी प्रकार और भी श्रावकों ने कई छोटे बड़े कार्य करवाये।
-मुनिज्ञान सुन्दरजी कृत समरसिंह चरित्र
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
शिला में खोदा हुआ है। इस शिलालेख में * सबसे पहले कर्माशाह के वंश का वर्णन किया गया है जिससे पता लगता है कि गवालियर के अन्दर आम राजा ने बप्प भट्टसूरि के उपदेश से जैन धर्म को ग्रहण किया। उसकी एक स्त्री वणिक कन्या थी । उसकी कुक्षि से जो पुत्र उत्पन्न हुए थे वे सब ओसवाल जाति में मिला लिये गये और उनका गौत्र राज कौष्टागार के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसी कुल में आगे चल कर सारणदेव नामक एक प्रसिद्ध पुरुष हुए। सारणदेव की ८ वीं पुश्त में तोलाशाह नामक एक व्यक्ति हुए। उनके लीलू नामक स्त्री से छः पुत्र हुए जिनमें सबसे छोटे कर्माशाह थे। आपके भी दो स्त्रियाँ थी। पहली स्त्री का नाम कपूरदे और दूसरी का कामलदे था। कर्माशाह का राज दरबार में बड़ा सम्मान था । यद्यपि वे एक व्यापारिक पुरुष थे फिर भी राजनैतिक वातावरण के उपर उनका बहुत अच्छा प्रभाव था। उस समय मेवाड़ की राज गद्दी पर राणा रत्नसिंहजी अधिष्ठित थे। " कर्माशाह ने अपने गुरु के पास से शत्रुञ्जय तीर्थ का महत्व सुनकर उसके पुनरुद्धार करने की इच्छा प्रगट की और चित्तौड़ से गुजरात आकर वहाँ के तत्कालीन सुलतान बहादुरशाह के पास से उसके उद्धार का फरमान प्राप्त किया। तत्पश्चात् आप वहाँ से शत्रुञ्जय को गये। उस समय सोरठ के सूबेदार मजादखाँन के कारभारी रविराज और नरसिंह नाम के दो व्यक्तियों ने कर्माशाह का बहुत आदर किया । उनकी सहानुभूति और सहायता से कर्माशाह ने बहुत द्रव्य खर्च करके सिद्धाचल का पुनरुद्धार किया और संवत् १५८७ के बैसाख पदी ६ को अनेक संघ और अनेक मुनि आचार्यों के साथ उसकी कल्याण कर प्रतिष्ठा की।
शत्रुञ्जय तीर्थ और शह तेजपाल
कर्माशाह के ६० वर्ष के पश्चात् खम्भात के रहनेवाले प्रसिद्ध ओसवाल धनिक शाह तेजपाल सोनी ने शधुंजय के इस महान मंदिर का विशेष रूप से पुनरुद्धार कर फिर से उसे तय्यार करवाया और तप गच्छ के प्रसिद्ध आचार्य हीरविजय सूरि के हाथों से उसकी प्रतिष्ठा करवाई। इसका एक शिला लेख । मुख्य मंदिर के पूर्व द्वार के रंग मण्डप में लगा हुआ है । इस शिलालेख में शुरू २ में तो तपागच्छ के आचार्यों की पहावली और उनके द्वारा किये खास २ कामों का वर्णन किया गया है। उसके पश्चात् उद्धारकर्ता का परिचय देते हुए लिखा है।
• पूरे शिलालेख के लिए देखिए मुनि जिन विजयजी कृत "जैन लेख संग्रह" भाग २ लेखाङ्क १ +देखिये मुनि विजयजीकृत जैन लेख संग्रह भाग २ लेख १२
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ओसवाल जाति का इतिहास
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و
शीतलनाथजी का मन्दिर शत्रुञ्जय (श्री बा० पुरणचन्द्रजी नाहर के सौजन्य से)
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पार्मिक क्षेत्र में श्रीसवाल नाति
भोसवंश के सुप्रसिद्ध भाभू सेठ के कुल में शिवराज सोनी नामक एक पुण्यशाली सेठ हुआ। उसके पश्चात क्रमशः सीधर, परवत, काला, बाघा और बछिया की पाँच पुश्ते और हुई । बच्छिया के सुहासिनी नामक स्त्री से तेजपाल नामक महाप्रतापी पुत्र हुआ। शाह तेजपाल हरिविजयसूरि और उनके शिष्य विजयसेनसूरि का परम भक्त था । इन आचार्य श्री के उपदेश से उसने जिन मन्दिरों के बनाने में
और संघ भक्ति के करने में विपुल द्रव्य खर्च किया । संवत् १६४६ में उसने अपने जन्मस्थान खम्मात में सुपार्श्वनाथ तीर्थङ्कर का भव्य चैत्य बनाया । संवत् १५४७ में आनन्दविमल सूरि के उपदेश से कर्माशाह ने शत्रुजय तीर्थ के इस मन्दिर का पुनरुद्धार किया था । मगर अत्यंत प्राचीन होने की वजह से थोड़े ही समय में यह मूल मन्दिर फिर से जर्जर की तरह दिखाई देने ला गया । यह देखकर शाह तेजपाल ने फिर से इस मंदिर का पुनरुद्धार प्रारंभ किया और संवत् १६४९ में यह मंदिर बिलकुल नया बना दिया गया
और इसका नन्दिवर्द्धन नाम स्थापित किया। साथ ही प्रसिद्ध आचार्य श्री हीरविजय सूरि के हाथों से इसकी प्रतिष्ठा करवाई जिसमें उसने विपुल द्रव्य खर्च किया। शत्रुञ्जय के ऊपर इस प्रतिष्ठा के समय अगणित मनुष्य एकत्र हुए थे। गुजरात, मेवाड़, मारवाद, दक्षिण और मालब आदि देशों के हजारों यात्री यात्रा के लिये आये हुए थे, जिनमें ७२ तो बड़े २ संघ थे। स्वयं हीरविजयजी के साथ में उस समय करीब एक हजार साधुओं का समुदाय था। कहना न होगा कि इन सब लोगों के लिये रसोई इत्यादि की व्यवस्था सोनी तेजपाल के तरफ से की गई थी।
शत्रुञ्जय तीर्थ और वर्द्धमानशाह
पर्वमानशाह ओसवाल जाति के कालण गौत्रीय पुरुष थे। ये कच्छ प्रान्त के अलसाणा नामक गाँव के रहने वाले थे। ये बड़े धनाड्य और व्यापार निपुण पुरुष थे। संयोगवश इस अलसाणा ग्राम के ठाकुर की कन्या का सम्बन्ध जामनगर के जाम साहब से हुआ, जब बिदाई होने लगी तब उस कन्या ने दहेज में, वर्द्धमानशाह और उनके सम्बन्धी रायसीशाह को जामनगर में बसने के लिये मांगा। तदनुसार ये दोनों ओसवाल जाति के बहुत से अन्य लोगों के साथ जामनगर में आ बसे।
जामनगर में रहकर ये दोनों लक्ष्मीपति अनेक देशों के साथ व्यापार करने को, और वहाँ की जनता में बड़े लोकप्रिय हो गये। वहां उन्होंने लाखों रुपये खर्च करके संवत् ११०६ में बड़े बड़े विशाल जैन मन्दिर निर्माण करवाये। उसके पश्चात् वर्द्धमानशाह ने शत्रुञ्जय तीर्थ की यात्रा की और वहां भी जैन मन्दिर बनवाये इनका जामनगर के राजदरबार में बहुत मान था और जाम साहब भी प्रत्येक महत्व पूर्ण कार्य में इनकी सलाह लेते रहते थे। इन वर्द्धमानशाह का एक लेख शत्रुक्षय पहाड़ पर विमलवसहि
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पासवान जाति का इतिहास टॉक पर, हाथी पोल के नजदीक वाले मन्दिर की उत्तर दिशावाली दीवाल पर लगा हुआ है। उसका भाव इस प्रकार है
"ओसवाल जाति में, लालण गौत्रान्तर्गत हरपाल नामक एक बड़ा सेठ हुभा। उसके हरीआ नामक पुत्र हुमा। हरीमा सिंह, सिंह के उदेखी, उदेसी के पर्वत, और पर्वत के बच्छ नामक पुत्र हुआ। बच्छ की भार्या वाच्छलदे की कुक्षि से अमर नामक पुत्र हुआ। अमर की लिंगदेवी नामक स्त्री से वर्द्धमान, चापसी और पद्मसिंह नामक तीन पुत्र हुए। इनमें वर्धमान और पासिंह बहुत प्रसिद्ध थे। ये दोनों भाई जामसाहब के मंत्री थे। जनता में आपका बहुत सत्कार था। वर्द्धमानशाह की स्त्री बन्ना देवी थी, जिसके वीर और विजयपाल नामक दो पुत्र थे। पनसिंह की स्त्री का नाम सुजाणदे था जिसके श्रीपाल, कुंवरपाल और रणमल्ल नामक सीन पुत्र थे। इन तीनों भाइयों ने संवत् १६७५ के बैशाख सुदी ३ बुधवार को शान्तिनाथ आदि तीर्थरों की २० प्रतिमाएं स्थापित की और उनकी प्रतिष्ठा करवाई।"
_"अपने निवासस्थान नवानगर ( जामनगर ) में भी उन्होंने बहुत विपुल द्रव्य खर्च करके कैलाश पर्वत के समान ऊँचा भव्य प्रासाद निर्माण करवाया और उसके भासपास ७२ देव कुलिका और ८ चतुर्मुख मन्दिर बनवाये । शाह पनसिंह ने शत्रुजय तीर्थ पर भी ऊँचे तोरण और शिखरों वाला एक बड़ा मन्दिर बनवाया और उसमें श्रेयांस आदि तीर्थकरों की प्रतिमाएं स्थापित की।"
इसी प्रकार संवत् १६०६ के फाल्गुन मास की शुक्ला द्वितीया को शाह पदमसिंह ने नवानगर से एक बड़ा संघ निकाला और आदलगच्छ के तत्कालीन आचार्य कल्याणसागरजी के साथ शत्रुम्जय की पात्रा की और अपने बनाए हुए मन्दिर में उक तीर्थकरों की प्रतिमाएं खूब ठाटबाट के साथ प्रतिष्ठित करवाई।"
उपरोक्त प्रशस्ति को वाचक विनवल्यमगि के शिष्य पण्डित श्रीदेवसागर ने बनाया। कहना न होगा कि ये देवसागर उत्तम श्रेणी के विद्वान थे । इन्होंने हेमचन्द्राचार्य के "अभिधान चिन्तामणि कोष पर “ग्युत्पत्ति रखाकर" नामक २०.०० श्लोकों की एक बड़ी टीका की रचना की है।
इन्हीं शाह यर्द्धमान और पासिंह के द्वारा बनाया हुआ जामनगर वाला श्रीशान्तिनाथ प्रभु का मन्दिर भी आज वहां पर उनके पूर्व वैभव की सूचना देता हुआ विद्यमान है। इस मन्दिर में भी एक लेख लगा हुआ है।
इन दोनों लेखों से मालूम होता है कि साह वर्द्धमान और पद्मसिंह दोनों भाई तत्कालीन जाम
• पूरा लेख देखिए मुनि जिनविजयजी कृत जैन लेख संग्रह २ भाग के लेखाक २१ में । + देखिए मुनि जिन विजयी कृत जैन लेख संग्रह लेखाक ४५५ ।
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कामद्रासदाराजसाडा
STABI GARIBE मातमिहावाका तानवतावामान
HEADQUITीमतगीडिताप्रामादिकारण कल्याणक्दावराति
नाशिवरासरताविराजमारकमायीकातविनाम तसतसाहवासारामदासणावमा कलाइरसरवानी लामीकाकारो पहिस्ताकालाविलासस्मात विवादिमागमतगौलागाउयतातिकटविदटावता
वादालादेशयवान्ममदालनामाशागतारमणमतान्य Halaगासाहपहिरवतातविरालोहानियानवीनता दितिमरीमोदिवास्यालल ततिसाहितनातीकाजामौशमना।
पतिविधताकनधिण्यासातयाविनाताग्रहास्तरावतिमानवेश Mझीवाद्यावाडिनऊलाक्तसमाधानाचारपटकमहामहोत नाका अधिक श्रीविङटोनासंधाचनसमाधमाशांशीधरापमा
सासरावमावियागवताहाहाकावादतमकारबादाम Fi संस्ातिप्राविधिएकागामाशाहारिमामातमतदायस
सिमिमहिमोघमाजसिंहामिदयवाहितासहससि दिवऽसिंहामहिक मयनासिंदक्षिाकाहारीमा माहेश्यसरिराया बीमिमांगमितता कमायाकालिवानी
कामHि) वादियोजक मरीज्ञामिछातसिकततिमा aaसमान रशीसाणाधिशम्माधर्मवाहमकदापनमा जयपाजिदिन निम्तरमपमनात उमाकफल्लतिसमतारवादनालामा धामतिपदा मनाइदमकल्याणसागरसहटातावरिया बापवतालकासकरुणाकालचमाता सतानाजदियाणहालाग्छ । लवतांशी निधाममिनिसहकालपममतादादितितपावसविना । सीमबालगोच कोवस्तारतमादिमाहानिधशानदारोदरपालना। मादेवाचदा सर्वानाचूनावमा छायमरासिटौलागणाधिकाको । कलावीपलाशीमातामरसिंहरावावकाफलीपावहमानचावल यत्रासदापमाघमाहिएतमातरमनदनाचनतापमसाबाराका गिलागलामोहिलगanापनदातारापमानया श्रीशीलकरणलारणालावराडमायावादापालाडिजायानारायन दिमानदाजाकामपाकलदासामहादयारामाहाकुग्णालमाक्तत्व। म यदीपाको राजालस्वाधरारा यावाघाऊरनाम्पासरकारसुतान्याममा ELEरवायासाहिशीचगानासिहालगनालारदास्यतगारामनाहानुशलमत्मक शरुमवतजानिडायरालीश्रीवलगायीकल्पापसागरगरानीमुपदेशनवनी वाघासादादिएपहायशीतितारपकाधिकरवानामावतियुगकारा। तसाठामहविवारचाकण्वासारतीया सणासारवासाला FROREDDी कारवासारवाधारयामावतया सागरामायतालम्पसागर
मायाजवर्दघाडीREPRITEगलावा
जामनगर के मन्दिर की प्रशस्ति (श्री बा० पूरणचन्द्रजी माहर के सौजन्य से)
विक्रम सम्बत् १६९७ (ईस्वी सन् १६४०)
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धार्मिक क्षेत्र में सवाल जाति
साहब के प्रधान थे । ये विपुल द्रव्य के स्वामी थे और इन्होंने धर्मप्रभावना और उसकी जहोजलाली के लिए लाखों रुपये खर्च किये ।
शत्रुञ्जयतीर्थ और थीहरुशाह भंसाली
जैसलमेर के सुप्रसिद्ध थीहरुशाह भंसाली का नाम उनकी धार्मिकता और उनकी उदारता की वजह से आज भी मारवाड़ के बच्चे २ की जिव्हा पर अंकित है। इस थीहरुशाह भंसाली ने शत्रुंजयतीर्थ पर चौबीसों तीर्थकरों के १४५२ गणधरों के चरण युगल एक साथ स्थापित किये । उसका लेख शत्रुम्जय पहाड़ पर खरतरवसही टोंक की पश्चिम दिशा में स्थित मन्दिर में उत्तर की ओर खुदा हुआ है। इसका मतलब इस प्रकार है ।
"आदिनाथ तीर्थकर से लेकर भगवान महावीर तक चौबीस तीर्थकरों के सब मिलाकर १४५१ गणधर हुए हैं। इन सब गणधरों के एक साथ इस स्थान पर चरणयुगल स्थापित किये गये हैं। जैसलमेर निवासी ओसवाल जातीय अँडसाली गौत्रीय सुश्रावक शाह श्रीमल (भार्या चापलदे) के पुत्र थीहरुशाह ने जिसमे कि लोद्रवा पट्टन के प्राचीन जैन मन्दिरों का जीर्णोद्वार किया था और चिन्तामणि पार्श्वनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा की थी, प्रतिष्ठा के समय प्रति मनुष्य एक १ सोनेकी मुहर लान में दी थी। इसके अतिरिक्त संघनायक के करने योग्य देव पूजा, गुरु उपासना, साधमीं वात्सल्य इत्यादि सभी प्रकार के धार्मिक कार्य्यं किये थे और शत्रुंजय की यात्रा के लिए एक बड़ा संव निकाल कर संघपति का तिलक प्राप्त किया था— उन्होंने पुण्डरीकादि १४:५२ गणधरों का अपूर्व पादुका स्थान अपने पुत्र हरराज और मेघराज सहित पुण्योदय के लिए बनाया और संवत् १६८२ की जेठ बदी १० शुक्रवार के दिन खरतरगच्छ के आचार्य जिनराजसूरि ने उसकी प्रतिष्ठा की ।
इस प्रकार उपरोक्त लेखों को ध्यान पूर्वक मनन करने से पता चलता है कि इस महातीर्थ के पुनरुद्धार, रक्षा और जाहोजलाली के काम में ओसवाल जाति के नर रत्नों का कितना गहरा हाथ रहा है । इन लोगों ने इस महातीर्थ के लिए समय २ पर लाखों रुपये खर्च किये ।
ऊपर हम खास २ बड़े २ दानवीरों के द्वारा किये हुए कार्यों का वर्णन कर चुके हैं। इनके सिवाय छोटे २ तो कई लेख शत्रुञ्जय तीर्थ पर ओसवालों के द्वारा किये हुए कामों के सम्बन्ध में पाये जाते हैं । ( १ ) यह लेख संवत् १७१० का है, जो बड़ी टोंक में आदीश्वर के मुख्य प्रासाद के दक्षिण द्वार के सम्मुख सहस्रकूट मंदिर के प्रवेश द्वार के पास खोदा हुआ है, जिससे पता लगता है कि संवत् १७१० के ज्येष्ठ खुदी १० गुरुवार को आगरा शहर निवासी ओसवाल जाति के कुहाड़ गौत्रीय शाह वर्द्धमान के पुत्र १३७
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
शाह मानसिंह, राबसिंह, कनकसेन, उग्रसेन, ऋषभदास इत्यादि ने अपने परिवार सहित अपने पिता के आदेशानुसार यह सहस्रकूट तीर्थं बनवाया और अपनी ही प्रतिष्ठा में प्रतिष्ठित किया । तपागच्छाचार्य श्री हरिविजयसूरि की परम्परा में श्री विनयविजयजी ने इसकी प्रतिष्ठा करवाई ।
( २ ) यह लेख संवत् १७९१ के बैसाख सुदी ८ का है जो विमलवंशीक में हाथी पोल की ओर जाते हुए दाहिनी ओर लगा हुआ है । ओसवाल जाति के भण्डारी दीपाजी के पुत्र खेतसिंहजी, उनके पुत्र उदयकरणजी, उनके पुत्र भण्डारी रत्नसिंहजी * महामंत्री ने- जिन्होंने कि गुजरात में " अमारी" . का ठिंढोरा पिटवाया - पार्श्वनाथ की प्रतिमा स्थापित की। जिसकी प्रतिष्ठा तपागच्छ के विजयदयासूरि ने की । (३) इसी प्रकार संवत् १७९४ की असाद सुदी १० रविवार को ओसवाल वंश के भण्डारी भानाजी के पुत्र भण्डारी नारायणजी, उनके पुत्र भण्डारी ताराचन्दजी, उनके पुत्र भण्डारी रूपचन्दजी उनके पुत्र भण्डारी शिवचंदजी, उनके पुत्र भण्डारी हरकचंदजी ने यह देवालय बनाया और पर्श्वनाथ की एक प्रतिमा अर्पण की तथा खरतर गच्छ के पंडित देवचन्द्रजी ने उसकी प्रतिष्ठा की । यह लेख शत्रुंजय पहाड़ के छीपावली ट्रैक के एक देवालय के बाहर दक्षिण दिशा की दीवाल पर कोरा हुआ है ।
(४) संवत् १८८५ की बैशाख सुदी ३ के दिन श्राविका गुलाब बहन के कहने पर बालूचर ( मुर्शिदाबाद ) निवासी दूगड़ गौत्रीय सा. बोहित्थजी के पौत्र बाबू किशनचंदजी और बाबू हर्षचंदजी ने पुण्डरीक देवालय से दक्षिण की ओर एक चन्द्रप्रभु स्वामी का छोटा देवालय बनाया जिसकी प्रतिष्ठा खरतर गच्छाचार्य श्रीजिनहर्षसूरि ने करवाई ।
(५) संवत् १८८६ की माघ सुदी ५ को राजनगर वासी ओसवाल जाति के सेठ वस्त्रसबंद खुशालचंद के पौत्र नगिनदास की पत्नी ने अपने पति की शुभ कामना से प्रेरित हो हेमाभाई की टुंक पर एक देवालय और चन्द्रप्रभु स्वामी की प्रतिमा अर्पण की जिसकी प्रतिष्ठा सागरगच्छ के शान्तिसागर सूरिजी ने करवाई ।
(६) संवत् १८८७ की बैशाख सुदी १३ को अजमेर निवासी ओसवाल जाति के लूणिया गौत्रीय साह तिलोकचंदजी के पुत्र हिम्मतरायजी तथा उनके पुत्र गजमलजी ने एक देवालय खरतश्वासी टुंक के बाहर उत्तर पूर्व में बनाया तथा कुन्यनाथ की एक प्रतिमा अर्पण की इसकी प्रतिष्ठा खरतरगच्छ के भट्टारक जिन इर्षसूरि के द्वारा की गई ।
* भण्डारी रत्नसिंह ईसवी सन् १७३३ से १७३७ तक गुजरात के सूवा रहे थे । ये महान् योद्धा और कुशल राजनीतिज्ञ थे । महाराजा अभयसिंह के ये अत्यन्त विश्वास और बाहोश प्रधान थे 1
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श्रोसवाल जाति का इतिहास 50
|Conनमा पार्श्वनाधायसर्दकव्यापकारिणामीतजितरागाय सर्वकाटामदात्मन विज्ञानते ननिवेदितायास तयगनाटाविरदादि वाबारात्रिदिवंटोनिमनप्रमाण लोविधावानादसतना पायेमाम मनिशसंपरमपिा परंपुरोडसलमेरुनामायदाद सर्ववमिवकमाया अलॉगनायाश्वासावकाताश्त वारवनवडायडऊल कमालावासमातेडवंडादादैडाकोतवंडादित नरपतयः एकलारमिपालामायामयापिलाकः प्रतितनिजटाकावीयतामाकपन्न र विश्वतोऊउकमिहयतना वातानवार तिकमादत्वास यातला प्रसिदमरराजनितीन विदिशाववरूपानासमाजमा विदाणाशलानवहानवववपादिशाएतसाशास्यातना याउनूतों श्रीप्रसादाबाधवरामिहान्याटियनन कास्मताचवायायधारातहागरामादाययात्रारत्नर्मिदस्यमही वस्यबनवजवाघटसिंहनामा(छ सिंहवन हगडानविदायतलादला दुपदरामार1 8/19मदनचाहिंबा उतवादागार क्षणावसादसमा प्रतदाता नामलराज क्षितिपालस्वयघाय नामानिदिवराजःस्तदंगाजानिय वित्र तिवारमाया पिराकमकातपरहिड श्रीकह सिकशरिणसानाचतारतस्यानिए
यापरत मालमणारादितिपालमरयाराहापियस्यातिविसाशितजचिदनकादिविविबलदमाश उप्रबंरिहसन्नपिल मगो विरा। मानिननननक्तिपरायाणा पाएततुऊनहलमाहागनापण सायनापीडयनिविण्जनानकदावितारातघासुमिवामितनंददायीनदीनबाब निस्तोव तीसजना नौपाल विउकिलायं श्रीलक्ष्मणोलनमा दिवएव १२याण फितानातिनवानय्याम्टायानात्यकापियानधनमालिन्येकदाण धाता गालीटीवश्चातारमोद कवाधारय सागरवालदगीायुक्तमानजेतदिदंशतशःमरी पतनसागरवंदपादानाधमासादादवालयधर्मशालामवा धानसहना स्य। दंबासाहकलानाहतमायेलाकवावनिशासतिसिंपाला पड़तचाचाडबालबताइवानाहानदतरराररथमतस्यावयागारसमजानाजनऊशलगुरूमा | १६ जनपदासारितिननाबाजिनचंदसरायाजातामहेयररिहग जिजादयामायागरमालदासनात्तारूहराऊत्सम्यासाधालाकायाशारावासातम ग्रमन्नामानिरासहसाबश्वसरिजनराज राजमारयादरनाकोतसदासर्वकलान्वितमानतीनजनानाधानालाकसाएकाशकागपतरानाजनराजमारनगर। रादेवातमवतीनदयपतिविधिविधानप्रतिशदद्यादेह माधुरंधरहन्वन्तरसपासघनुहारकामासादाजनकासाविवाद पारस्वानयापदारणा। नववादामितवयानादशताननराजारपयनगनाइवर बना हरामागुचाइसारामाशयचकमानपाविहारममलयारवादशवाय मममनातो खरतरसंघापान सर्वतमानिध्यादाटवदावदहिपकालायनहलालापताटावाचकालाकलागुपणानसाउदमाकाधवाश्शतात्री जनव हनानिधगधीवासमादेवात श्रीसंघागुरुततियाक्तिनलिनीतीलत्मरालापासलातवानधखरतरवासादडामणिदीपालबियामिनीवति मितिसंवत्सरेविकमात्।।23 अकातापिसवत १४ वयतनगर जनधारवनयवेदमाला वात्समाध्यतातिनामदीपति ग्दिराजोया दोडानियेनेदंनिरमाटिसौववितावनियः ससंघाहिातो तेन्योधनातरातेमहतिनावपातयेदासदा।।२४ श्रालदाणविहारोयामा नियातलिनालयाश्री वंदावईमा नश्वास्वविधा व सारतः॥पयावद्गगनगाशयवादाविराऊतातावदातामा नोटीपासाटोन दवाबगा२६वविहिताचेयक हिरानमा मना। धन्नाकनसनकाततधारणसामुदा७शोधितावा०जयसागरमलिना श्रा
श्री पार्श्वनाथ मंदिर प्रशस्ति जैसलमीर
(श्रो बा० पूरणचन्द्रजी नाहर के सौजन्य से)
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
मागमिति
-
-
नान निम्मत
بسرعه
तीमामलिस
Frwppa
नामस्मता १३
ववाविदयह
नाएंगतस४
सहवा कातियवसिद्धि नारसनवम्प तामामुछिटिम
जामापाम ववानिमित्त १२ रिकामूविहिस
दिकापामा जामामा २ दिसावीरस्म १० जमावंदथह रिकापरमसभाखापमान 11
दिसावंदर १३
नासीपलक्ष्मी नागमयसम्म मिरिगवीरम मागसिरसरिति
पिसिंह सहि कातियारिटिं नामा प्ररम्म
नाणदास नागमविहिका २ मानध्वरस्य १०
नीमात्तिनंदा नाणचरस्म दिसापुरमा नागजियूम्स । जामाविमलम ३
নাসুনিল ।
नामावूमन्स फागणवरिश
नागक्षमम्म दिवाविमला है नामुपासम्म ६ रिमामलिस
नामालियन |मारवामुपास नाणिमलिस
वलसाह वदिदि दिश्वप्रतिक नमणयह
तामासनवम्ा १४ मारवास दिलायतिनपा १२ quविहित दिसातकसस माखोसीयल
दिखावमा १३ नासन
दिखाऊंमुम्स नायंस १२. ववषधित
वर्णमाल नाएं क्या
नहदिदि पनुपापास४
मा खानमिस्म १० दिश्काससम्म
तवणसघमा ६ नापासम्म
जामामुबयम ८ गावामपऊ४
दिखामागतम मावोमबघश्यक RबावातुYA 4 मामासत्तस्स
जामासतिमा।। १३ दिका उस्तस्य
अमाना मारवासनिम्म १३ ១១
(दिलासतिस्स 18 चवत्र र वर्णमात्रि तहमति
साह मुहि नाघुस ३ वैवर्ण निनदण ४ तवएं सवार
|ne
|ववाधिमा ३ रिलारबामल्लिम १२
मारवमस्म ५ मास्वागत 4 दिसामुक्या
मारखा तिनंदपार मारवानित ५
वर्गवास जामासुमा म माखामा
ममुरवसह १२ यामध्यदिदि नुसुमख्या ११
दिरकासुमहम
दिसासुपासा।३ चवणंमा ४ जामाबीयस्य १३
नागवीसम्म १० IFAIRका विमन नापामा १५ वाविमल १२
वासोपवदिदि
वर्णनिय १३ नानामिनाहमा रिकानभिसा
ग्रावणशिक्ष ताइवावरिदि त्रासाठमरिदिं
मासायमुदिहिं। मिावस्येसह३ ववसतिस्म वागनमिस्म11५ चवणवी ६
वृतम्रता माखावदयह माननिनिस्मर जामा नमि
वासुपासम्म प्रामस्नेमियापाता HURT 1994118 ववागऊँघुस्सा
सतनलिरिडलेमीणावा
3वेणाबहनने
पासप्लानाफेवलितपः पउआनवासकारता शावणसुरिहि | ताइवासुदिदि मारिकासुदिहिस्सा
उसमेापालाहमा ससिफा९तससिटवणसुमहस्सर मतदानमीकालापासवामाना ॥ 4 मीविगालावरतविरवान सम्रा |
तुमनिवसनियरमवदेणाने लागत
मुनामुपालामाल वकणगशामालसतिमाखायासम्म।
पासोमवाविवरमगत नवस्तासनपीएवी हंक रामवारमा मुलिमुहमाया नविताउनीसःनि ।
पंवपरितीदिनाला man
वयसरमभिागो सीमालमिररिम्सालवहादलिहिवा सिदंर उ॥
मा खासतब ५
लबागमतकिरियामान
एमसिषण की नि
पासोमवा विपरमाणात साउठाउमानिःक्रमाला
प: उसासादास सप्तरपंवटपपत्रादमा
आबू तीथ कल्याणक पट्ट (श्री बा० पूरणचन्द्रजी नाहर के सौजन्य से)
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धार्मिक क्षेत्र में ओसवाल जाति
(७) संवत् १८९३ की माघ वदी ३ को खम्मनगर वासी ओसवाल जातीय सा हीराचन्द्र के पौत्र सा लक्ष्मीचन्द ने हेमाभाई टोंक पर एक देवालय बंधवाया और श्री अजितनाथ की प्रतिमा अर्पण की।
(6) संवत् १९०५ की माह सुदी ५ को नभीनपुर निवासी भोसवाल जाति लघुशाखा के नागड़ा गौत्रीय सा. हीरजो और बीरजी ने खरतरवासी टोंक पर एक देवालय बंधवाया और चन्द्रप्रभु तथा दूसरे तीर्थङ्करों की ३२ प्रतिमाएं स्थापित की । इसके अतिरिक्त पालीताणा के दक्षिण बाजू पर १२० गज लम्बी भौर ४० गज चौड़ी एक धर्मशाला और आंचलगच्छ के निमित्त एक उपाश्रय बनवाया। यह सब कार्य इन्होंने अञ्चलगच्छीय मुक्तिसागरसूरि के उपदेश से किया।
(९) अहमदाबाद निवासी ओसगल जाति के शिशोदिया गौत्रीय सेठ बखतचंद, उनके पुत्र हेमा भाई और उनके पुत्र अहमदाबाद के नगर सेठ प्रेमाभाई ने अपनी टोंक में श्री अजितनाथ का देवा. लय बनवाया।
(1.) संवत् १९०४ के चैत वदी १० को बीकानेर निवासी ओसवाल जाति के मुहता पंचाण और पुण्यकुवर के पुत्र वृद्धिचंदजी ने मुहता मोतीवसी की ढुक में एक देवालय बनाया जिसकी प्रतिष्ठा तपागच्छ के पं० देवेन्द्रकुशल ने की। ... (1) संवत् १९१० के चैत सुदी १५ को अजमेर निवासी ओसवाल जाति के मर्मया गौत्रीय सेठ बाधमलजी ने एक देवालय बनवाया तथा उसमें श्री आदिनाथ नेमिनाथ, सुव्रतनाथ, शान्तिनाथ, पार्थनाय इत्यादि तीर्थक्करों की प्रतिमाएं स्थापित की, इसकी प्रतिष्ठा खरतर गच्छ के श्री हेमचन्द्र ने करवाई।
इसी प्रकार और भी पच्चीसों लेख ऐसे ओसवाल श्रावकों के मिलते हैं जिन्होंने अपनी श्रद्धानुसार जैन तीर्थहरों की साली प्रतिमाएँ अर्पण की। स्थानाभाव से उन सब का यहाँ पर उल्लेख नहीं किया जा सकता।
• विशेष विवरण के लिए मुनि जिनविजयजी कृत जैन लेख संग्रह दोनों भाग देखिए ।
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श्री प्रावू महातीर्थ
अब हम पाठकों के सम्मुख जैनधर्म के सुप्रसिद्ध दानवीर पोरवाल जातीय मंत्री वस्तुपाल तेजपाल की ममरकीर्ति आर के मन्दिरों का संक्षित परिचय रखते हैं। कहना न होगा कि क्या धार्मिकता की रष्टि से, क्या कला के उच्च आदर्श की रष्टि से, और क्या स्थान की रमणीयता की दृष्टि से आबू के जैन मन्दिर न केवल जैन तीर्थों में, न केवल भारतवर्ष में, प्रत्युत सारे विश्व में अपना एक खास स्थान रखते हैं। स्थापत्य कला के उस आदर्श की दृष्टि से तो शायद सारे भारतवर्ष में एक ताजमहल को छोड़कर और कोई दूसरा स्थान नहीं जो इसका मुकाबिला कर सके। ऐसा कहा जाता है कि इन मन्दिरों के बनवाने में, इनकी कोरी करवाने में, तथा इनके प्रतिष्ठा महोत्सव में, इन दोनों भाइयों के हजारों नहीं, लाखों नहीं प्रत्युत करोड़ों रुपये खर्च हुए थे। उन लोगों के साहस, उनके कलेजे की विशालता और उनकी धार्मिकता का वर्णन इतिहास तक करने में असमर्थ है। अस्तु । ....अब हम कम से भावू के इन सब खास २ मंदिरों का संक्षिप्त वर्णन करने का नीचे प्रयत्न
करते हैं।
देलवाड़ा
भर्बुदा देवी से करीब एक माइल उत्तर पूर्व में यह देलवाड़ा मामक गाँव स्थित है। यहाँ के मन्दिरों में आदिनाथ और नेमिनाथ के दो जैन मंदिर अपनी कारीगरी और उसमता के लिये संसार भर में अनुपम हैं । ये दोनों मन्दिर संगमरमर के बने हुए हैं। इनमें दण्डनायक विमलशाह का बनाया हुआ विमलवसहि नामक आदिनाथ का मंदिर अधिक पुराना और कारीगरी की रष्टि से अधिक सुन्दर है। यह मंदिर वि० सं० २०८ में बन र तबार हुभा था। इसमें मुख्य मंदिर के सामने एक विशाल सभा मण्डप है और
• इन मंदिरों के परिचय की सामग्री ललितविजयजी कृत आबू जैन मंदिर के निर्माता नामक पुस्तक से ली है।
+ यद्यपि इन जैन मंदिरों के निर्माता वस्तुप.ल और तेजपाल पोरवाल जाति के पुरुष है मगर इन मंदिरों का . सम्बन्ध सारे श्री संघ के साथ होने की वजह से भोसवाल जाति के इतिहास में इनका परिचय देना अत्यंत आवश्यक समझा गया।
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
देलवाड़ा मन्दिर
(श्री बा० पूरणचन्द्रजी नाहर के सौजन्य से)
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धार्मिक क्षेत्र में सवाल जाति
चारों तरफ छोटे २ कई एक जिनालय हैं। इस मंदिर में मुख्य मूर्ति ऋषभदेव की है जिसकी दोनों तरफ एक २ खड़ी हुई मूर्त्ति है। और भी यहाँ पर पीतल तथा पाषाण की मूर्तियाँ हैं जो सब पीछे की बनी हुई हैं। मुख्य मंदिर के चारों ओर छोटे २ जिनालय बने हुए हैं जिनमें भिन्न २ समय पर भिन्न २ लोगों ने मूर्तियाँ स्थापित की थीं, ऐसा उन मूर्तियों पर अंकित किये हुए लेखों से प्रतीत होता है। मंदिर के सम्मुख हस्तिशाला बनी हुई है जिसमें दर्वाजे के सामने अश्वारूढ़ विमलशाह की पत्थर की मूर्ति है । हस्तिशाला में पत्थर के बने हुए दस हाथी हैं जिनमें से ६ विक्रम संवत् १२०५ की फाल्गुन सुदी १० के दिन नैठक, आनन्दक्, पृथ्वीपाल, धीरक्, लहरक् और मीमक नाम के पुरुषों ने बनवा कर यहाँ रक्खे थे। इनके लेखों में इन सब को महामात्य अर्थात् बड़ा मंत्री लिखा है। बाकी के हाथियों में से एक पंवार ठाकुर जगदेव ने और दूसरा महामात्य धनपाल ने विक्रम संवत् ११३७ की आषाढ़ सुदी ८ को बनाया था । शेष दो हाथियों के लेख के संवत् पढ़ने में नहीं आते ।
हस्तशाला के बाहर चौहान महाराव लूण्डा और लूम्बा के दो लेख हैं। एक लेख विक्रम संवत् १३७२ का व दूसरा १३०३ का है। इन लूम्बा और लूण्डा ने आबू का राज्य परमारों से छीन कर अपने कब्जे में कर लिया था ।
इस अनुपम मंदिर का कुछ हिस्सा मुसलमानों ने तोड डाला था जिसका जीर्णोद्वार लह और बीजद नामक दो साहुकारों ने चौहान राजा तेजसिंह के समय में करवाया है ।
यहाँ पर एक लेख बघेल ( सोलंकी ) राजा सारंगदेव के समय का वि० संवत् १३५० का एक दीवाल में लगा हुआ मिलता है ।
इस मंदिर की कारीगरी की प्रशंसा शब्दों के द्वारा किसी भी प्रकार नहीं हो सकती । स्तम्भ, तोरण, गुम्मज, छत, दरवाजे इत्यादि जहाँ भी कहीं देखा जाय, कारीगरी का कमाल पाया जाता है कर्नल टॉड मे लिखा है कि हिन्दुस्थान भर में कला की दृष्टि से यह मंदिर सर्वोत्तम और ताजमहल के सिवाय
कोई दूसरा मकान इसकी समानता नहीं कर सकता ।
लूणावसही नेमिनाथ का मन्दिर
हुआ है।
उपरोक्त आदिनाथ के मन्दिर के पास ही वह सुप्रसिद्ध लूणावसही नेमिनाथ का मन्दिर बना यह मन्दिर अणहिलपुर पट्टण के निवासी अश्वराज के पुत्र वस्तुपाल और उनके भाई तेजपाल निप्रभुसूरि ने अपनी तीर्थं कल्प नामक पुस्तक में लिखा है कि मुसलमानों ने विमहलशाह भीर तेजपाल के दोनों मंदिरों को तोड़ डाला। वि० सं० १३७८ में इनमें में पहले का उद्धार महणसिंह के पुत्र लल्ल ने और सिंह के पुत्र पैथार ने दूसरे मंदिर का पुनरुद्धार करवाया ।
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औसवाल जाति का इतिहास
का बनाया हुआ है। वे गुजरात के धौलका प्रदेश के सोलंकी राणा बीरधवल के मन्त्री थे। कहना न होगा कि जैन तीर्थ स्थानों के निमित्त उनके समान द्रव्य खर्च करने वाला दूसरा कोई भी पुरुष इतिहास के पृष्ठों पर नहीं है। यह मन्दिर मन्त्री वस्तुपाल के छोटे भाई तेजपाल ने अपने पुत्र लणसिंह तथा अपनी स्त्री अनुपमादेवी के कल्याण के निमित्त अटूट द्रव्य लगाकर वि० सं० १२८७ में बनवाया था। यही एक दूसरा मन्दिर है जो कारीगरी में उपरोक्त विमलशाह के मन्दिर की समता कर सकता है। ... भारतीय शिल्प सम्बन्धी विषयों के विशेषज्ञ फग्र्युसन साहब अपनी ' Pictures Illustrations of Ancient architecture in India' नामक पुस्तक में लिखते हैं कि "इस मन्दिर में जो कि संगमरमर का बना हुआ है अत्यन्त परिश्रम सहन करने वाली हिन्दुओं की टाँकी से फीते जैसी बारीकी के साथ ऐसी मनोहर आकृतियाँ बनाई गई हैं कि अत्यन्त कोशिश करने पर भी उनकी नकल कागज पर बनाने में मैं शक्तिवान नही होसका।"
यहाँ के गुम्मज की कारीगरी के विषय में कर्नल टॉड से लिखते हैं कि"इसका चित्र तयार करने में अत्यन्त कुशल चित्रकार की कलम को भी महान् परिश्रम करना
गुजरात के प्रसिद्ध ऐतिहासिक रासमाला के कर्ता फारवस साहब लिखते हैं किः
"इन मंदिरों की खुदाई के काम में स्वाभाविक निर्जीव पदार्थों के चित्र बनाये हैं। इतना ही नहीं, किन्तु सांसारिक जीवन के दृश्य व्यवहार तथा नौका शास्त्र सम्बन्धी विषय एवं रणखेत के युद्धों के चित्र भी खिंचे हुए हैं।" इन मन्दिरों की छतों में जैन धर्म की अनेक कथाओं के चित्र भी खुदे हुये हैं।"
यह मन्दिर भी विमल के मन्दिर के ही समान बनावट का है। इसमें मुख्य मन्दिर, उसके आगे गुम्मजदार सभा-मण्डप और उनके अगल बगल पर बेटे २ जिनालय तथा पीछे की ओर हस्तीशाला है । इस मन्दिर में मुख्य मूर्ति नेमिनाथ की है। और छोटे २ जिनालयों में अनेक मूर्तियाँ हैं। यहां पर दो बड़े २ शिन
. . कर्नल यड के विलायत पहुँचने के पीछे 'मिसेज विलियम हण्टर बेर' नाम की एक अंग्रेज महिला ने अपना तयार किया हुआ वस्तुपाल तेजपाल के मन्दिर के गुम्बज का चित्र टॅड साहब को दिया। उस चित्र को देख कर उनको इतना हर्ष हुआ कि उन्होंने अपनी ट्रेवलर्स इन वेस्टर्न इन्डिया नामक पुस्तक उसी अंग्रेज महिल को समर्पित कर दी और उससे कहा कि तुम बाबू नहीं गई प्रत्युत प्राबू को यहां ले आई हो। वही सुन्दर चित्र उन्होंने अपनी पुस्तक के प्रारम्भ में दिया है।
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ओसवाल जाति का इतिहास
प्रतिविमिटरमार नामसामरालकिलर ययमान कमभधापागारवारका कमलयालालबालाबासाथमानससहारा RAHESHA
R MATMASATHI विविहीर सरितदिन वजातवितातलीवरमविप्रहारसनालयामाया नारमिवानातिनयमावन मिशन यानिमल नहरमाराहरा मारवादस्वादिपमादादातास्वान्तावका कालनिसावाह राजालावामयसतरावजयानभावनामाशियोदेसवादनकपरका प्र.मंदिया यशाममायामामाधविनामपानावसमावस्यदंदावनी सवत २४ वर्षकातिकमदरासामील कापडायरानापानाहानायसाहसद बासाहसीरगन-भावमारतकासन्हाधसाक्षणकात्राकटवातंशदाऊक सोमवा लाइसाद
सादालबालिकामाग्रीधनतामणिरतानामिनासा महं सुगर सेल्टालासाइसा मासादनासुनवसावडरातवीधाराहिलाला लपवाकानलाटकापदलवाडाजी माडवाशावरमापदललवानामापाका रिटकारदलवातामाइगवटामारास्काशलवाड़ानाबारावटीकमारा एकामदनलवाडातापरमसाटमा पक्कारकाधमाहितामगिएका नमसा यार जिसमगसहिलाराजाजतनवजागलापक्ष्यायोशाला
यासनकालमsaeरतिरात्रीसमारराजाबासनातवालापारा माकन HTTON कासनालाघनात्रालाप्रातारा लामाहरातमा
देलवाड़ा प्रशरति विक्रम सम्वत १४९१ ( ईस्वी सन् १४३४)
(श्री बा• पूरणचन्द्रजी नाहर के सौजन्य से )
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धार्मिक क्षेत्र में नाल जाति
खेल हैं। जिनमें एक धौलका के राणा वीरधवल के पुरोहित तथा कीर्त्तिकौमुदी, सुरथोत्सव आदि काव्यों के रचयिता प्रसिद्ध कवि सोमेश्वर का रचा हुआ है। उसमें वस्तुपाल तेजपाल के वंश का वर्णन, भरजोराज से लगाकर वीरधवल तक की नामावली, आबू के परमार राजाओं का वृतान्त तथा मन्दिर और हस्ति• शाला का वर्णन है । यह ७४ श्लोकों का एक छोटा सा सुन्दर काव्य है । इसीके पास के दूसरे शिक्षालेख में, जो बहुधा गद्य में लिखा है, विशेष कर इस मन्दिर के वार्षिकोत्सव की जो व्यवस्था की गई थी, उस का वर्णन है। इसमें आबू पर के तथा उसके नीचे के अनेक गाँवों के नाम लिखे गये हैं, जहाँ के महाजनों मे प्रति वर्ष नियत दिनों पर यहाँ उत्सव करना स्वीकार किया था। इसी से सिरोही राज्य की उस समय की उन्नत दशा का बहुत कुछ परिचय मिलता है ।
इन लेखों के अतिरिक्त छोटे २ जिनालयों में से बहुधा प्रत्येक के द्वार पर भी सुम्दर लेख सुवे इस मन्दिर को बनवा कर तेजपाल ने अपना नाम अमर कर दिया, इतना ही नहीं किन्तु उसने जिनालय बने हुए हैं प्रत्येक छोटा जिनालय दोनों ओर बड़ी कारी
क्योंकि जो छोटे ५२ खुदवा दिये हैं । मुख्य मन्दिर के द्वार की
लेख
हुए हैं। अपने कुटुम्ब के अनेक स्त्री पुरुषों के नाम अमर कर दिये, उनके द्वार पर उसने अपने सम्बन्धियों के नाम के सुन्दर उनमें से किसी न किसी के स्मारक में बनवाया गया है। गरी से बने हुए दो ताक हैं जिनको लोग देराणी जेठाणी के आलिये कहते हैं और ऐसा सिद्ध करते हैं कि इनमें से एक वस्तुपाल की स्त्री ने तथा दूसरा तेजपाल की स्त्री ने अपने अपने खर्च से बनवाया था । महाराज शान्तिविजयजी की बनाई हुई 'जैन तीर्थं गाइड" नामक पुस्तक में भी ऐसा ही लिखा है लेकिन स्वीकार करने योग्य नहीं है। क्योंकि ये दोनों आले ( ताक ) वस्तुपाल ने अपनी दूसरी स्त्री सुहदादेवी के श्रेय के निमित्त बनवाये थे। सुहदादेवी पचन (पाटन) के रहने वाले मोद जाति के महाजन ठाकुर ( ठक्कुर) जाल्हणा के पुत्र ठाकुर आसा की पुत्री थी। इस प्रकार का वृतान्त उन ताकों पर खुदे हुए लेखों से पाया जाता है। इस समय गुजरात में पोरवाल और मोद जाति में परस्पर विवाह नहीं होता है । परन्तु इन लेखों से पाया जाता है कि उस समय उनमें परस्पर विवाह होता था ।
इस मन्दिर की हस्तीशाला में बड़ी कारीगरी से बनाई हुई संगमरमर की दस हथनियां एक पंक्ति में खड़ी हैं जिन पर चंडप, चण्डप्रसाद, सोमसिंह, अश्वराज, लूणिय, मस्कादेड वस्तुपाल, तेजपाल, जैसिंह और लावण्यसिंह ( लूणसिंह ) की बैठी हुई मूर्त्तियाँ थीं । परन्तु अब उनमें से एक भी नहीं रही। इन हथिनियों के पीछे की पूर्व की दीवार में १० ताक बने हुए हैं जिनमें इन्हीं दस पुरुषों की स्त्रियों सहित पत्थर की खड़ी हुई मूर्तियाँ बनी हैं जिन सब के हाथों में पुष्पों की मालाएँ हैं । वस्तुपाल के सिर पर पाषाण का छत्र भी है। प्रत्येक पुरुष और स्त्री का नाम मूर्ति के नीचे खुदा हुआ है। अपने
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मोसवाल जाति का इतिहास
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कुटुम्ब भर का इस प्रकार स्मारक चिहपनाने का काम यहां के किसी दूसरे पुरुष ने नहीं किया। यह मन्दिर शोभनदेव नाम के शिल्पी ने बनाया था। मुसलमानों ने इसको भी तोड़ डाला जिससे इसका जीर्णोद्धार पेथड (पीथड) नाम के संघपति ने करवाया था। जीर्णोद्धार का लेख एक स्तम्भ पर खुदा हुआ है परन्तु इसमें संवत् नहीं दिया है। वस्तुपाल के मन्दिर से थोडे अंतर पर भीमशाह का, जिस को लोग भैसाशाह कहते हैं, बनवाया हुए मन्दिर है जिसमें १०८ मन की पीतल की सर्वधातु की बनी हुई आदिनाथ की मूर्ति है जो वि० सं० १५२५ के ( ई० सर १६९ ) फाल्गुन सुदी • को गुर्जर श्रीमाल जाति के मंत्री मण्डल के पुत्र मंत्री सुन्दर तथा गदा ने वहां पर स्थापित की थी।
इन मंदिरों के सिवाय देलवाड़े में श्वेताम्बर जैनों के दो मंदिर और हैं। चौमुखजी का तिमंजिला मंदिर, शान्तिनाथजी का मंदिर तथा एक दिगंबर जैन मंदिर भी है । इन जैन मंदिरों से कुछ दूर गाँव के बाहर कितने ही टूटे हुए पुराने मंदिर और भी हैं। जिनमें से एक को लोग रसियावालम का मंदिर कहते है। इस टे हुए मंदिर में गणपति की मूर्ति के निकट एक हाथ में पात्र धरे हुए एक पुरुष की खड़ी हुई मूर्ति है जिसको लोग रसियावालम की और दूसरी बी की मूर्ति को कुंवारी कन्या की मूर्ति बतलाते हैं। कोई २ रसियावालम को ऋषि वाल्मीकि अनुमान करते हैं। यहाँ पर वि० सं० १४५१ (ई. सन् १३९५) का एक लेख भी खुदा हुआ है। अचलेश्वर के जैन मंदिर
अचलेश्वर में महाराव मानसिंहजी के शिव मंदिर से थोड़ी दूर पर शान्तिनाथ का जैन मंदिर स्थित है। इसको जैन लोग गुजरात के सोलंकी राजा कुमारपाल का बनवाचा हुला बतलाते हैं। इसमें तीन मूर्तियाँ है जिनमें से एक पर वि० सं० १०२ (१० १२४५) का लेख है। कुथुनाथ का जैन मंदिर
अचलेश्वर के मंदिर से थोड़ी दूर पर जाने से अचलगढ़ के पहाड़ के उपर चढ़ने का मार्ग है। यह चढ़ाई गणेशापोल के पते से शुरू होती है। मार्ग में लक्ष्मीनारायण का मंदिर तथा फिर कुंथुनाथ का जैन मंदिर आता है। इसमें कुंथुनाथ स्वामी की पीतल की मूर्ति है जो वि.सं. १५२७ में बनी थी। यहाँ पर एक पुरानी धर्मशाला तथा महाजनों के थोड़े से घर भी हैं। इसके ऊपर पाश्र्वनाथ, नेमिनाथ तथा आदिनाथ के जैन मंदिर स्थित है।
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जैसलमेर
शजय आदि तीर्थ स्थानों में ओसवाल सजनों ने जैन मन्दिरों की प्रतिष्ठा तथा पुनरुद्धार के जो कार्य किये हैं, उनके सम्बन्ध में हम गत पृष्टों में लिख चुके हैं। इसी प्रकार अन्य कई स्थानों में भी ओसवालों ने ऐसे २ सुन्दर और विशाल मंदिर बनवाये हैं या उनका पुनरुद्धार करवाया है, जिनकी बड़े २ पाश्चात्य शिल्पकारों ने बड़ी प्रशंसा की है और शिल्पकला की दृष्टि से उन्हें अपने ढंग का अपूर्व स्थापत्य (Architecture) माना है। इनमें से कुछ जैन मन्दिरों में प्राचीन जैन अन्यों का बड़ा ही सुन्दर संग्रह है, जिनकी ओर संसार के कई नामी पुरातत्ववेत्ताओं का ध्यान आकर्षित हुभा है। ओसवालों के बनाये हुए जैसलमेर के जैन मन्दिर, उनमें लगे हुए विविध शिलालेख तथा प्राचीन पुस्तक भण्डार भी पुरातत्ववेत्ताओं के लिये ऐतिहासिक रष्टि से बहुत ही मूल्यवान सामग्री उपस्थित करते हैं। तिस पर भी वहाँ का जैन भण्डार तो बड़ी ही अपूर्व चीज है। जैसलमेर किले के अन्दर जो जैन मन्दिर है उसी में यह महान् ग्रन्थागार है। इसके विषय में बहुत समय तक हम लोग बड़े अंधकार में रहे। इस ग्रंथागार में ताद पत्र (Palm leaves) पर लिखे हुए सैंकड़ों हस्तलिखित ग्रन्थ हैं, जिनकी विस्तृत सूची बनाने में भी कई वर्षों की आवश्यकता होगी।
सुपख्यात् पुरातत्वविद् डाक्टर बुल्हर की कृपा से यह महान् जैन ग्रंथागार पहले पहल प्रकाश में आया। डाक्टर बुल्हर महोदय के साथ सुप्रसिद्ध जैन विद्वान् डाक्टर हरमन जैकोबी भी जैसलमेर गये थे। जब आप लोगों ने यह ग्रन्थागार देखा तब आप को बड़ी ही प्रसन्नता हुई। उन्होंने ताड़पत्रों पर लिखे हुए सैकड़ों प्राचीन ग्रन्थों को देख कर भारतीय विद्वानों का ध्यान इस ओर भाकर्षित किया तथा इस सम्बन्ध में विशेष खोज करने के लिये उसे आग्रह किया । आपके बाद स्वर्गीय प्रोफेसर एस. भार. भण्डारकर महोदय जैसलमेर पहुँचे और आपने वहाँ के भिन्न २ ग्रन्थागारों को तथा विविध शिलालेखों को देख कर ईसवी सन् १९ ९ में इस सम्बन्ध में एक विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की। अभी थोड़े वर्षों के पहले बड़ौदा सेन्ट्रल लाइब्रेरी के संस्कृत विभाग के अध्यक्ष मि० चिमनलाल डायाभाई दलाल एम. ९० मे जैसलमेर जाकर वहाँ के पुराने जैन ग्रन्थागारों का तथा जैन मन्दिरों में लगे हुए विविध शिलालेखों का अवलोकन किया। आपने इन सब पर एक बड़ा ही विवेचनात्मक ग्रन्थ लिखा, पर इस ग्रन्थ के प्रकाशित होने के पहले ही आप स्वर्गवासी हो गये ! आपके बाद बड़ौदा सेन्ट्रल लायब्ररी के जैन पण्डित श्रीयुत
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
लालचन्द्र भगवानदास ने उक्त ग्रन्थ प्रकाशित किया। इसमें विभिन्न जैन ग्रन्थागारों और शिलालेखों का विवरण है। आपने बाईस शिलालेखों की नकले लीं, जिनमें एक शिलालेख लक्ष्मीकांतजी के हिन्दू मन्दिर में लगा हुआ है और शेष शिलालेख जैन मन्दिरों में लगे हुए हैं। सुप्रसिद्ध जैन विद्वान् बाबू पूरणचन्द्रजी नाहर भी सन् १९२५ में जैसलमेर पधारे थे। आप वहाँ पर लगभग दस दिन रहे और जैसकमेर के अतिरिक लोद्रवा, अमरसागर और देवीकोट आदि स्थानों को भी गये । आपने इन सब स्थानों के शिलालेखों, प्रशस्तियों, मूर्तियों और ग्रंथागारों का अवलोकन किया। भापको अमरसागर में एक नवीन शिक्षालेख मिला जिसे आपने अपनी टिप्पणी सहित पूना के जैन साहित्य संशोधक नामक त्रैमासिक में प्रकाशित किया। इतना ही नहीं आपने जैसलमेर, लोद्रवा, अमरसागर के जैन मन्दिरों, शिलालेखों तथा प्रशस्तियों का बहुत ही सुन्दर संग्रह भी प्रकाशित किया, जिसका नाम “ Jain Inscriptions Jaisalmer" है।* इस ग्रंथ में जैसलमेर के जैन मन्दिरों और शिलालेखों पर बहुत ही अच्छा प्रकाश डाला गया है। हम आप ही की खोजों के प्रकाश में जैसबमेर के मन्दिरों, शिलालेखों, मूर्ति पर खुदे हुए लेखों आदि का ऐतिहासिक विवेचन करते हैं।
श्री पार्श्वनाथजी का मन्दिर
जैसलमेर में यह मन्दिर सबसे प्राचीन है। बारहवीं शताब्दी के मध्य में जैसलमेर नगर की नींव डाली गई । इसके पहले भाटियों की राजधानी लोद्रवा में थी । उस नगर में भी जैनियों की बहुत बड़ी बस्ती थी । जब लोद्रवा का नाश हुआ तब राजपूतों के साथ जैन भोसवाल भी जैसलमेर आये और वे उस समय अपने साथ भगवान पार्श्वनाथ की पवित्र मूर्ति को ले आये । सं० १४५९ में खरतर - norita श्री जिनराजसूरि के उपदेश से श्री सागरचन्द्रसूरि ने एक जैन मन्दिर की नींव डाली और संवत् १४७३ में श्री जिमचन्द्रसूरिजी के समय में इसकी प्रतिष्ठा हुई। यह मन्दिर श्री पार्श्वनाथजी के मंदिर के नाम से मशहूर है। ओसवाल वंश के सेठ जयसिंह नरसिंह रांका ने इसकी प्रतिष्ठा कराई थी । साधु कीर्त्तिराजजी नामक एक जैन मुनि ने उक्त मंदिर में एक प्रशस्ति लगाई। श्री जयसागर गप्पी ने इस प्रशस्ति का संशोधन किया और धन्ना नाम के कारीगर ने इसे खोदा था । इस प्रशस्ति में उक्त मंदिर की प्रतिष्ठा तथा अन्य उत्सवों का उल्लेख है । यह अधिकाँश में गद्य में है। इसके अतिरिक्त इसमें उन सेठों की वंशावली है जिन्होंने इसकी प्रतिष्ठा करवाई थी। ये सेठ उकेश वंशीय रांका गौत्र के थे। इस प्रशस्ति में
* यह ग्रंथ बाबू पूरणचन्दजी नाहर एम० ए० बी० एल० ४८ इण्डियन मिररस्ट्रीट कलकत्ता से प्राप्त हो सकता है।
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
श्री दावा श्रीलम
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बो
ली सिम्मी कीलपा ना पादकला गेल्पः। ताः कल्प हदमिदधिपतिः पार्श्वना । जिनेंद्रः श्री महाग्य शतानि प्रमदास सदाका विद्याप्रतिप्रकामा विराम किशलया मंगल श्री फलाद्याः समवाद मत मान त्या श्री शनि नीकर व स तुम विकतात युति यसाताद शिक्षक पाकरणाः सा सर्व कलाकलाम में कुसूमः सेोमनवारिवादावर नाव निषेद ए दिली मन देवाः शिवतात शसादविताना मूल नाम श्याम ही ४ प्रकार व विलादतावनी एशियाले सहमिदंगे दि और खामिनलगोपायला देतु तितिमानं न श्रीजेसन मेमना मन गरें जी या जननायके ॥ मद्य दुनाबारे निमि मा दिजिजी ना करता इतिवचः तेना (मोललते ना दातारें कालम मानवता श्री मिनारा दिए.या दुःखाया (विला की वादिता श्री सत्रमा सवसनीय राजवंशः ॥ श्री यादव दीना । राउलजीत सिंह मूलराज सिंह श्री घट मिंद मूलबाड देवराना मात तो केसरीराजा के मीरा मी विदा महान चकारा मिटा ॥ श्रममा पनि विल काल तो हा श्री लदमे से सदन शाय करय हाच सकते लाथम या विमा मानिने ती सिंहासनपूर्व पाप्रादाय तर प्रतापः श्रीमदिति लातवितामा निसान ॥ ॥ ले श्री खर तर विभिश्री वर्धमाना जाता: मादी मालिकाच ट्रक दुबे (ईले जनपद विवादात (इततः (श्री जिनद्रमूरिन गीतिकार श्री नाटीकार श्री जव [दिवस विदिद्यादिश्करकार श्री नवकादिता की शितश्न पद श्री जिनदन विनिवंडस विश्रातिपतिविश्री जैन घरी सर्वश्री जिन में इस वीजिनल सविश्री जिन पद्म ( श्री निलति (श्रीजिनचंद्रसूरयः श्री निशा मर्न नाम श्रीले तीर जिलादेदाः प्रकाशित प्राज्ञसला जिनोद या कलावाद वा वाजिनो हंसा डिनोदय तारे जिनराजः कलार्डिननता सन्मान सहित गनयः स दाम ली श्रिता विमला नत्य ॥ ये महीत विचार मानव वा याना श्री (डिताःसायन यस्ता मोसून दोमुनिधायन्तीति विशाल श्रीमंघाति यी तोमार्ट नीन मात वन इते सोलायनाचल विकार निर्माविताः श्राह वारे विद्वारा॥२ पार कर लेश का ज्ञानवन की शविधिग्रामं पादपुर नपाट का दिनेगरे । निविदा विधितिष्ठति ॥४ जाने को पताकादिकामा तता विचार सारक पापमुनानामधिकृतिःकिय धिरविवि (संद ब क दाम दिती इम दिया हूँ हैं ( कि शमदम से दाम लियः महातमुपावहता विज्ञातते टापा श्रीश: ।165 तिश्री गुरु दर्शना ॥ ॥श्रीमान किशवगाव तालाश नरम काफलेय कामात नमन ॥ शत मिश्री के शीशोपडामा (सा०दे मराजःत ढंग: मा० नाक सदामः सा०दी तारयामासोदकर्मणा देवम हिया सा०] [पवा] सा०वा र सिंह नामान: टू (सा०धीचा नायक टाइम शिवराड्रमदीरा ला ला ला नाम का वारः श्रीवर्ग साधकाः तियानः।।१तील गिनी श्री विकली। साशिवाय तयोः पुत्रः (रा रच:पुत्री दी गई महिला यमिहलाद त योगा सादामदसामा सुतिनारंग बहाना मलालाला र्यालीलादि (बोस हड पालामा (क) पीले बाईला मादितदाता शिवराममा गालारथाः॥5 त्या दिपविवारे से उताका कार्यासनाविवशताशीविनि मामाचा । ३. जारेवत मिलिती संघ शितिर निः॥२६ मुद्याचा वन निवासावर निवारा: ॥ १४४ राज्ये श्रीजनल दशननवादः शन दः कारितः तनः संवत 1800 वर्ष ॐ ॐमपत्रिका निःसर्व दावा सः श्रावका नाम प्रतिमादः शिवाः कारित मित्र जिनसे इस (त्रि सल बना विज्ञान ३०० प्रतिधितानिप्रासादशेवर प्रतितः शतश्री में मदनामी मूलनायक श्वासासा० शिवा मदिरालो लाला मायादेः दिन पुसी (भिक वादसत्यं कर्तवराज ल श्री विर सिद्धिन सा के श्री माया विविधवाः विधापितः राग श्रीवेद सिंह नापित बार वाधवाः सुबोध खाले कारा दिदानसमानित म नृपतिराजताय सादा सकलत कार्य (सद्यताय का ना। जिन कालीज लोकात वा निः॥ सरस्था निवारादसा तो विराजतः सव दताना व यासादः सेलवे प्रासाद कार का प्रसाद विधिप्रतिष्ठित आहानी बिना नवता से सोना जनयातील डद्यानृतः गुरुमंत माल पहिलोगाराई टी मिना दिन तत्शसाद वितयं शिलाक तिल के वाद मुदानि॥४ प्रासादवितयं न द्याबलोकतिल मेडन जि विविन विभाष द्यावं दिवि जगज निः॥ सोलासाग्यनिधयो मम विद्यादाय का क विगा जे डा। श्री जटा सागर गुरव विजय तिवाचे का विवादित शिया व नानावतीत सामॐ त्रास विदितातिन वाचनीया विवः॥ ॥ श्रीः ॥ श्रीः ॥ ॥ लखिताचानुगत सर्व संस्था या कविचानिः । " जिनसे नग विश्व ते काही इदा।
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शिव देवेन प्रशसिक द का रिच ॥ शार किया६ वजे विशेषज्ञात या विता में रवयामास जिज्ञासा
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श्री सम्भवनाथ मन्दिर प्रशस्ति जैसलमेर
(श्री बा० पूरणचन्द्रजी नाहर के सौजन्य से )
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धार्मिक क्षेत्र में ओसवाल जाति इन सेठों के पूर्वजों की तीर्थ यात्राओं का साल सम्बत् सहित उल्लेख है। इसमें खरवर गच्छ के आचार्य निन कुशल सूरि से लगाकर जिनराज और जिनवर्द्धन सूरि तक की पहावली भी दी गई है।
श्री सम्भवनाथजी का मंदिर
यह भी एक ऐतिहासिक मंदिर है। सुप्रसिद्ध जैनाचार्य श्री जिनभद्रसूरि के उपदेश से संवत् १७९४ में ओसवाल वंश के चौपड़ा गौत्रीय शाह हेमराज ने इस मंदिर को बनवाना आरंभ किया । आप हो ने उसी वर्ष बड़ी धूमधाम के साथ इसकी प्रतिष्ठा करवाई। इस मंदिर की ३०० मूर्तियों की प्रतिष्ठा उक्त श्री जिनभद्रसूरिजी के हाथ से हुई थी और जैसलमेर के तत्कालीन नरेश महारावल बेरीसालजी स्वयं प्रतिष्ठा के शुभ अक्सर पर उपस्थित रहते थे।
इस मंदिर में पीले पाषाण में खुदा हुआ तपपट्टिका का एक विशाल शिला लेख रक्खा हुआ है। यह कुछ ऊपर की तरफ से टूटा हुआ है। इसकी लम्बाई र फुट १० इंच और चौड़ाई । फुट १०३ इंच है। इसमें पाएँ तरफ प्रथम १४ तीर्थहरों के व्यवन, जन्म, दीक्षा और, ज्ञान चार कल्याणक की तिथियाँ कार्तिक बदी से आश्विन सुदी तक महीने के हिसाब से खुदी हुई है। इसके बाद महीनेवार के हिसाब से तीर्थकरों के मोक्ष कल्याणक की तिथियाँ भी दी गई हैं । दाहिनी तरफ प्रथम छः सके कोडे. बने हुए हैं तथा इनके नियमादि खुदे हुए हैं। इसके नीचे वज्र मध्य और यव मध्य तपों के नकशे हैं। एक तरफ भी महावीर तप का कोठा भी खुदा है । इन सब के नीचे दो अंशों में लेख हैं।
इस मंदिर के एक दूसरे शिला लेख में जैसलमेर नगर और उसके यदुवंशी राजाओं की बड़ी तारीफ की गई है। इसमें उक्त राज्य वंश के महारावल जयसिंहजी तक की वंशावली भी दी गई है। इसके अतिरिक्त यहाँ के शिला लेखों में श्री जिनभद्ररि के चरित्र और गुणों की बहुत प्रशंसा की गई है। कहा गया है कि उनके उपदेश से उनके स्थान पर जगह २ मंदिर बनवाये गये; अनेक स्थानों में मूर्तियाँ स्थापित की गई और कई स्थानों में ज्ञान भण्डार प्रस्थापित किये गये। तत्कालीन जैसलमेर नरेश महारवल बेरीसिंहजी द्वारा उक्त आचार्य श्री जिमभद्रसूरि के पैर पूजे जाने का भी उल्लेख है।
____ श्री जिन सुखसूरिजी के मतानुसार इस मंदिर की मूर्तियों की संख्या ५५३ है । पर भी वृद्धिरत्नजी इस संख्या को १०१ बतलाते हैं।
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श्री सवाल जाति का इतिहास
श्री शांतिनाथजी और अष्टापदजी के मंदिर
ये दोनों मंदिर एक ही अहाते में है । ऊपर की भूमि में श्री शान्तिनाथजी का और निम्नतल में अष्टापदजी का मंदिर बना हुआ है। निम्नतल के मंदिर में सत्रहवें जैन तीर्थङ्कर श्री कुंथनाथजी की मूर्ति मूलनायक रूप से प्रतिष्ठित है। इन दोनों मन्दिरों की प्रशस्ति एक ही है और जैनी हिन्दी में लिखी हुई है । संवत् १५३६ में जैसलमेर के संखवालेचा और चौपड़ा गौत्र के दो धनाढ्य सेठों ने इन मंदिरों की प्रतिष्ठा करवाई । संखवालेचा गौत्रीय खेता और चौपड़ा गौत्रीय पांचा में वैवाहिक सम्बन्ध था। इन दोनों ने मिलकर दोनों मंदिर बनवाये थे । खेताजी ने सहकुटुम्ब शत्रुंजय, गिरनार, आबू आदि तीर्थों की यात्रा कई बार बड़े धूमधाम के साथ की। सम्वत् १५८१ में इनके पुत्र वीदा ने मंदिर में एक प्रशस्ति लगाई जिसमें इन सब बातों का उल्लेख है। मंदिर के बाहर दाहिनी तरफ पाषाण के बने हुए दो बड़े २ सुन्दर हाथी रखे हुए हैं। इन दोनों पर धातु की मूर्तियां हैं जिनमें एक पुरुष की और दूसरी स्त्री की है। खेताजी के पुत्र बीदा मे संवत् १५०० में अपने माता पिता की ये मूर्तियाँ प्रतिष्ठित की थीं। इनमें से केवल एक पर एक लेख खुदा हुआ है। इस समय जैसलमेर की गद्दी पर महारावल देवकरणजी थे। सम्बत् १५१६ में जब इस मंदिर की प्रतिष्ठा हुई उस समय खरतर गच्छ के श्री जिनसमयसूरिजी उपस्थित थे ।
श्री चन्द्रप्रभूस्वामी का मंदिर
संवत् १५०९ में ओसवाल वंशीय भणशाली गौत्रीय शाह बीदा ने इस मंदिर की प्रतिष्ठा कराई थी। इस मंदिर के द्वितल की एक कोठड़ी में बहुत सी धातुओं की पं तीर्थों और मूर्तियों का संग्रह है । श्री शीतलनाथजी का मंदिर
यह मंदिर ओसवाल वंशकै डागा गौत्रीय सेठों का बनवाया हुआ है। यहाँ की पट्टिका के लेख में संवद १४७९ में इन्हीं डाों द्वारा इसकी प्रतिष्ठा करवाई जाने का उल्लेख है। इस मंदिर में कोई प्रशस्ति नहीं है । श्री ऋषभदेवजी का मंदिर
इस मंदिर की मूर्तियों पर जो लेख हैं उनसे ज्ञात होता है कि यह मंदिर ओसवाल समाज के गणधर चौपड़ा गौत्र शाह धन्ना ने बनवाया था, और उसीने खरतरगच्छीय आचत्ययों के द्वारा इसकी प्रतिष्ठा करवाई थी । इस की मूर्ति संख्या लगभग ६०७ है ।
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श्रोसवाल जाति का इतिहासा
श्रीपानाथ मन्दिर प्रशस्ति जैसलमीर (श्री बा० पूरणचन्द्रजी नाहर के सौजन्य से)
लादसिमताफलदितरविनानियोनयासावायचारतावयाशःशकावताना नलिनाडायनिक मनालीराहसिद्धानमानमतिः प्रशासनावादावतिष्टाविमट ॐ ॥२ऊके शाशतिशयशाशरं काहाटा प्रशिकलदा राजालदेवयनरासदेवरा ताड़वका बाटातानिचटवियतनामयन देगडोलमा मध्यमताताविवाहातनाव ताजमघान्यःकि ललीम सिंह सातगादडोगपदवामा रादावावतपटमस्पताल मघघा(जसलामाहागाचरितामतनयानयादारानगाहाङशलपासनविशिष्टा सनवमयाब प्राशायरोडोदामनरामतीयकलादतायातनादरामक्सिदमागलामा शवसंत पवाले श्रीदवरावरकत सविसरता यावादावसघाचता५२जानातिनादयाला सरचितसतिथोत्सवालाटोदकपलवितकमनीयकीविलीनतम 07चालन रानमरि सजा पादशमकरंदमाशीरामजातसंपतिपदवी को राजसइस० गावाक श्रीशजयारतावरनावा तहमानमरायावावरूवातानमा माद बनानाहटमननादहा वारया
वातिन:litina राडोमदाराना नातावाम सुतावातामूलरजसवधानिस साजनामक ताश्री तिनराजा रिसदासरसादसिसवत मछरोधी जागारमारनाहयावादरमा साकीदारानतिभिमाका मातेकाहरगतामावारदनानिमीतकमादिमकालना किरसिंहहातातपासदततो मताहाराट जोसा जीवदयपत्री गताः नसावालानाधरमरा
तिविनास पानीमसिटमा वा हालसमागमाजयासहानराशदानामा वाले। नासाजय सिंदम्य रू पाविज्ञात्तिपासातोनारसिंदाज नसी जोहार राजवरातताल राता कान निविकलकालाडमधमपिउदिनक्लकमदः कलाइनच ताटाता शासन धर्मसामिवंशयवान जिनदतस्त्याची जिनऊशलमूहिबा जनपकासार जाजिनल सी रिश्रीनिवंद्र रिश्रीनानाट्य सरयाजातातपप्राजिनाउंसूरयबादेश महतत्वमाटरता शारागारसारारतश्रीनवदिशतिद्वारा श्रीजिनवहनतरयाजवतानपत्रातलमारानीलकर सरात रा विजाय निमpaalaपिदिनान जानिनवहनमातिप्रायक्ताच्या प्राष्ट्रिय मानव संदरसिटमामासमवायदारितवासानिध्यामानानतपतिकारित dि on मागग शातिर चेतायातमन्त्रधारहापाकलिनरतावा
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धार्मिक क्षेत्र में ओसवाल जाति
श्री महावीरस्वामी का मंदिर
इस मंदिर में लगे हुए शिलालेख से ज्ञात होता है कि ओसवंश के बरड़िया गौत्रीय शाह दीपा इस भव्य मंदिर की प्रतिष्ठा कराई थी। संवत् १४५३ में यह मंदिर बना था । जिनसुखसूरिजी लिखते हैं किइस मंदिर की मूर्तियों की संख्या २३२ है ।
उपरोक्त सब मंदिर किले के अंदर है । जिनमें से कुछ का उल्लेख हम नीचे करते हैं ।
श्री सुपार्श्वनाथजी का मंदिर
इसके अतिरिक्त शहर में भी कुछ मंदिर और देरासर हैं।
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ऊपर हमने जिन मंदिरों का उल्लेख किया है, वे सब श्वेताम्बर समाज के खरतरगच्छ सम्प्रदाय हैं। पर इस मंदिर की प्रतिष्ठा सपूगच्छीय श्रावकों की ओर से संवत् १८६९ में हुई। इसमें एक प्रशस्ति लगी हुई है। उसने ज्ञात होता है कि इसकी प्रतिष्ठा करानेवाले तपाक के प्रसिद्ध आचार्य हीरविजयसूरि की शाखा के मुनि नगविजयजी थे तथा उन्होंने ही उक्त प्रशस्ति भी किली थी। इस प्रशस्ति की रचना गद्य पद्य युक्त पाण्डित्य पूर्ण क्लिष्ट संस्कृत भाषा में है ।
श्री विमलनाथजी का मंदिर
इस मंदिर के मूलनायकजी की प्रतिमा के लेख से ज्ञात होता है कि संवत् १६६६ में उपगच्छा चा विजय सेन सूरिजी के हाथ से इसकी प्रतिष्ठा हुई थी ।
सेठ थीहरूशाहजी का देरासर
जो ख्याति मेवाड़ में भामाशाहजी की है, वहीं ख्याति जैसलमेर में र्थहरूशाह जी की है । आप भणसाली गौत्र के थे । आपका विशेष परिचय गत पृष्ठों में दिया जा चुका है। लोद्रवा के वर्तमान मंदिर का आप ही ने जीर्णोद्धार करवाया था । उक्त देरासर आपकी हवेली के पास है ।
इसके अतिरिक्त सेठ के शरीमलजी, सेठ चाँदमलजी, सेठ अक्षयसिंहजी, सेठ रामसिंहजी तथा सेठ धनराजजी के देरासर है। पर वे विशेष प्राचीन नहीं हैं ।
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ओसवाल जाति का इतिहास
देरासरों के अतिरिक्त जैसलमेर में कई उपासरे हैं जिनमें बेगड-गछ उपासरा, वृहत् खरता गच्छ उपासरा, तपगच्छ उपासरा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। लोद्रवा के जैन मंदिर
___ अभी तक हमने जैसलमेर के किले तथा शहर के जैन मंदिरों का उल्लेख किया है । अब हम लोदवा के जैन मंदिरों पर कुछ ऐतिहासिक प्रकाश डालना चाहते हैं। लोद्रवा एक प्राचीन ऐतिहासिक स्थान है। प्राचीनकाल में यह स्थान लोढ़ नामक राजपूतों की राजधानी थी। वर्तमान में इन्हें लोधा कहते हैं । संवत् ९०० के लगभग रावल देवराज भाटी ने इन लोढ़ा राजपतों से लोगवा छीनकर वहाँ पर अपनी राजधानी कायम की। उस समय यह नगर बड़ा समृद्धिशाली था। इसके बारह प्रवेश द्वार थे। प्राचीन काल से ही यहाँ पर श्री पार्श्वनाथजी का मंदिर था । रावल भोज देव के गही बैठने के पश्चात् उनके काका जैसल ने महम्मद गौरी से सहायता लेकर लोदवा पर चढ़ाई की । इस युद्ध में भोज देव मारे गये और लोद्रवा नगर भी नष्ट हो मया। पश्चात् राव जैसल ने लोद्रवा से राजधानी हटाकर संवत् १२१२ में जैसलमेर नाम का दुर्ग बनाया।
ओसवाल वंशीय सुप्रख्यात् दानवीर सेठ थीहरूशाहजी ने, श्री पार्श्वनाथजी के उक्त मंदिर का, जो लोद्रवा के विध्वंश के साथ नष्ट हो गया था, पुनरुद्धार करवाकर खस्तरगच्छ के श्री जिनराजपूरि से उसकी प्रतिष्ठा करवाई। यह मंदिर भी अत्यन्त भव्य और उचश्रेणी की कला का उत्तम नमूना है। इस मंदिर के कोने में चार छोटे २ मंदिर हैं। उनमें से उत्तरपूर्व के तरफ के मंदिर में एक शिलालेख रक्खा हुआ है। इसका कुछ अंश टूट गया है। इसकी लम्बाई चार फीट और चौड़ाई डेढ़ फीट से कुछ अधिक है। सुप्रख्यात् पुरातत्वविद बाबू पूरणचन्दजी नाहर एम० ए० बी० एल० का कथन है कि आज तक जितनेशिलालेख उनके रष्टिगोचर हुएहैं तथा जितने अन्यत्र प्रकाशित हुऐ हैं उनमें से किसी में भी अपनी पहावली का शिलालेख देखने में नहीं आया है। इसशिला लेख में श्री महावीरस्वामी से लेकर श्री देवर्द्धिगण क्षमा-श्रमण तक आचार्य गण और उनके शिष्यों के चरण सहित नाम खुदे हुए हैं । श्री महावीर स्वामी के निर्वाण के पश्चात् ९८० वर्ष म्यतीत होनेपर श्री देवदिगिणजी ने जैनागम को लेख बद्ध किया था। इनके विषय में श्रीकल्पसूत्रादि में जो कुछ संक्षिप्त परिचय मिलता है, उससे अधिक अद्यावधि कोई विशेष इतिहास ज्ञात नहीं हुआ है । इस शिलालेख में कुल चरणों की समष्टि १०९ है, परन्तु देवर्द्धिगण के नाम के बाद जो ., १० खुदा हुभा है, वह संकेत समझ में नहीं आया। इसके सिवाय शिलालेख के आदि में दक्षिण की तरफ
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धार्मिक क्षेत्र में श्रीसवाल जाति
नीचे के भाग में तीन कोष्ट में अष्ट माङ्गलिक खुदे हुए हैं, और मध्य में तीन कोष्टक में नंद्यावर्त्त और स्वस्तिक है । परन्तु इस लेख में कोई संवत् मिति अथवा प्रतिष्ठा करनेवाले आचार्य्यं या करानेवाले श्रावक अथवा खोदनेवाले का नाम अथवा प्रतिष्ठा स्थानादि का उल्लेख नहीं है। *
अमरसागर का मंदिर
यह स्थान जैसलमेर से पाँच मील की दूरी पर है। यहाँ तीन जैन मंदिर हैं । इनमें से दो सुप्रख्यात् बापना वंशीय सेठों के बनवाये हुए हैं। छोटा मंदिर श्री सवाईरामजी बापना ने संवत् १८९७ में और बड़ा मंदिर श्री सेठ हिम्मतरामजी बापना ने संवत् १९२८ में बनाया था । इन दोनों मंदिरों की प्रतिष्ठा खरतरगच्छाचाय्यं जिनमहेन्द्रसूरिजी के हाथ से हुई है। इनमें से बड़ा मंदिर बहुत ही सुन्दर और • विशाल है। इसके सन्मुख बड़ा ही सुरम्य उद्यान है। इस मंदिर में शिल्प कला का बड़ा ही सुन्दर काम हुआ है। यह देखकर सचमुच बढ़ा आश्चर्म्य होता है कि ऐसी विशाल मरुभूमि में मकराने के पत्थर पर भारतीय शिपका का कितना बढ़िया काम हुआ है ।
इनके अतिरिक्त जैसलमेर के पास देवी कोट, महासर आदि स्थानों में भी छोटे मोटे जैन मंदिर हैं। वहाँ का दादाजी का स्थान भी ऐतिहासिक है ।
जैसलमेर के जैन मंदिर और शिल्पकला
हमने गत पृष्ठों में जैसलमेर के विविध ऐतिहासिक जैन मंदिरों और शिलालेखों का विवेचन किया है । अब हम इन मंदिरों की शिल्पकला के सम्बन्ध में भी दो शब्द लिखना आवश्यक समझते हैं । कुछ शिल्पकला विशारदों ने इन मंदिरों की अपूर्व कारीगरी की बड़ी प्रशंसा की है। पुरातत्व विषयक सुप्रयात् त्रैमासिक पत्रिका की ५ वीं जिल्द के पृष्ट ८२-८३ में जैसलमेर के जैन मंदिरों और वहाँ के श्रीमान् लोगों की रमणीय अट्टालिकाओं की प्रशंसा में एक विद्वत्तापूर्ण लेख प्रकाशित हुआ है। जैसलमेर के स्टेट इञ्जीनी
र महोदय ने हाल ही में स्थापत्य शिल्प नामक प्रबंध प्रकाशित किया है। इसमें उन्होंने वहाँ की शिल्प
& Jain Inscriptions Jaisalmer ( By B. Puranchandra Ji Nahar M.A. B. L.) Page 177.
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
कला का सचिा परिचय दिया है। हम भी इस ग्रंथ में जैसलमेर के कुछ जैन मंदिरों के चित्र दे रहे हैं। इनसे पाठकों को वहाँ की शिल्पकला को उत्कृष्टता का थोड़ा परिचय अवश्य होगा। इसमें विशेषता तो इस बात की है कि जैसलमेर जैसे दुर्गम स्थान पर भारत के शिल्पकला विशारदों ने जो भव्य मंदिर बनवाये है, वे तत्कालीन जैन श्रीमानों की धर्म-परायणता और शिल्प-प्रेम के ज्वलंत उदाहरण हैं।
इन मंदिरों में पाषाण में जिस कौशल्य से शिल्पी मूर्तियाँ बनाई गई हैं; वह उस समय की कारीगरी पर बहुत ही अच्छा प्रकाश डालती हैं। आप शान्तिनाथजी के मंदिर को ले लीजिये। उक्त मंदिर के ऊपर का दृश्य क्या ही सुन्दर है। इसे देखकर शिल्प-विद्या-विशारद यह कहे बिना न रहेंगे कि इसमें शिल्पकला को सर्व प्रकार की श्रेष्ठता विद्यमान है। मंदिर के ऊपर खुदे हुए मूर्तियों के आकार बहुत ही बारीक अनुपात से बनाये गये हैं। यही कारण है कि ऊपर से नीचे तक के सम्पूर्ण दृश्य चिताकर्षक है। कहीं भी सौन्दर्य की कमी नहीं मालूम होती।
इसके अतिरिक्त इसमें यह भी एक विशेषता है कि बहुत सी मूत्तियों के रहने पर भी दृश्य भर कर अथवा सधन नहीं दिखाई पड़ते। इस मंदिर पर की गई अद्भुत् शिल्पकला के काम को देखकर जावा के सुप्रसिद्ध बोरोबोडू नामक स्थान के प्राचीन हिन्दू मंदिर नाम स्मरण हो आता है क्योंकि उक्त मंदिर के ऊपर का दृश्य और मूर्तियों के अनुपात भी प्रायः इसी प्रकार के हैं।
जैसलमेर के श्रीपार्श्वनाथजी के मंदिर की कारीगरी भी अपने ढंग को अपूर्व है। वहाँ की मूर्तियों में भारतीय कला की श्रेष्ठता सकती है। उनमें सौन्दर्य और गम्भीर्य्य दोनों का समावेश है। अमर सागर में भी वर्तमान शताब्दी की कारीगरी का उज्जवल उदाहरण दिखाई देता है। उक्त मंदिर के शिल्प-कौशल्य को देखने से उसके निर्माता के अगाध शिल्प प्रेमका परिचय मिलता है।
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श्री पारासन तीर्थ
आबू पर्वत से थोड़ी दूरीपर कुम्भारिया मामक एक छोटा सा गाँव बसाहुमा है। इसी का दूसरा नाम आरासन तीर्थ है। इस तीर्थ में जैनियों के ५ बहुत सुन्दर और प्राचीन मन्दिर बने हुए हैं। मंदिरों की कारीगरी और बंधाई बहुत ही ऊँचे दरजे की है। सभी मन्दिर सफेद भारस पत्थर के बने हुए हैं। इस स्थान का पुराना नाम आरासनकर है, जिसका अर्थ आरस की खदान होता है। जैनग्रन्थों को देखने से इस बात का पता तुरन्त लगजाता है कि पहिले इस स्थान पर भारस की बहुत बड़ी खदान थी। सारे गुजरात में मूर्ति निर्माण के लिये यहीं से पत्थर जाता था।
दानवीर समराशाह ने भी शत्रुजय तीर्थ का पुनरुद्धार करते समय यहीं से भारस की फखही मंगाई थी। विमलशाह, वस्तुपाल, तेजपाल, इत्यादि महान् पुरुषों मे भावू पर्वत के उपर जो अनुपम कारीगरी वाले आरस के मंदिर बनाये हैं, यह सब भारस भी पही का था। सौभाग्य-कान्य से पता चलता है कि तारङ्गा पर्वत पर ईडर के संघपति गोविंद सेठने वहाँ के महामन्दिर में अजितनाथ स्वामी की जो विशाल काय प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी उसकी फलही ही भी यहीं से लेजाई गई थी, मतलब यह कि अधिकांश जिन प्रतिमाएं इसी आरस खान के पत्थरों से बनाई जाती थीं।
__आर्कियालोजिकल सर्वे आफ वेस्टर्न इण्डिया सरकल की सन् १९०५।६ की रिपोर्ट में कुम्भारिया के जैन मन्दिरों के सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक लिखा हुआ है। उसका भाव इस प्रकार है।
___ "कुम्भारिया में जैनियों के बहुत सुन्दर मन्दिर बने हुए हैं, जिन की यात्रा करने के लिये प्रति वर्ष बहुत जैनी आते हैं। इन मन्दिरों के सम्बन्ध में जो दंत-कथा प्रचलित है वह इस प्रकार है कि विमल शाह ने ३६० जैन मन्दिर बँधाये थे और इस काम में अम्बिका माता ने उन्हें बहुत दौलत दी थी पीछे जब अम्बिका देवी ने उससे पूछा कि तुमने किसकी मदद से ये देवालय बंधाये तो उत्तर में उसने कहा कि 'मेरे गुरुदेव की कृपा से" देवी ने ३ बार इस प्रश्न को दोहराया, मगर विमलशाह ने तीनों बार वही उत्तर दिया। इस कृतघ्नता से क्रोधित होकर देवी ने उससे कहा कि अगर जीना होतो भाग जा। तब वह एक देवालय के तल घर में घुस गया और आबू पर्वत पर निकल गया। उसके पश्चात् माताजी ने ५ देवालयों को छोड़ कर बाकी सब देवालयों को जला डाला जिनके जले हुए पत्थर अभी भी वहाँ चारों ओर बिखरे हुए नज़र भाते हैं। फारवस साहब का कथन है कि यह घटना किसी ज्वालामुखी पर्वत के फटने से
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
हुई है। चाहे जो हो पर इन पत्थरों को देखने से यह पता तो आसानी से लग जाता है कि यहाँ पर पहिले बहुत अधिक देवालय बने हुए थे ।
कुंभारिया में खास कर के ६ मन्दिर हैं जिनमें पाँच जैनियों के और एक हिन्दुओं का है । इन मन्दिरों की समय समय पर मरम्मत होती रही है जिससे नया और जूना काम भेल-सेल हो गया है। इन मन्दिरों के स्तम्भ द्वार तथा छत में जो काम किया गया है, वह बड़ा ही सुन्दर और उत्तम है।
नेमिनाथ का मन्दिर
जैन मन्दिरों के समूह में सब से बड़ा और महत्वपूर्ण मन्दिर श्रीनेमिनाथ का है। इसमें बाहर के द्वार से लेकर रंगमण्डप तक एक चढ़ाव बना है। देवगृह में एक देवकुलिका, एक गूढ़ मण्डप और एक परशाल बनी है। देवकुलिका की दीवारें पुरानी हैं, पर उसका शिखर और गूढ़ मण्डप के बाहर का भाग नया बना हुआ है। इस मंन्दिर का शिखर तारंगाजी के जैन मन्दिर जैसा है। इसकी परसाल के एक स्तम्भ पर एक लेख है, जिससे पता चलता है कि ईसवी सन् १२५३ में भासपाल नामक किसी व्यक्ति ने इसे मँधाई थी। रंगमण्डप की दूसरी बाजू पर ऊपर के दरवाजे में तथा अन्त के २ थम्भो के बीच की कमानों पर मकराकृति के मुखों से शुरू करके एक सुन्दर तोरण कोरा गया है जोकि देलवाड़ा के विमलशाह वाले मन्दिर के तोरण के समान हैं । मन्दिर के दोनों ओर मिलाकर ८ देवकुलिकाएँ हैं। दाहिनी बाजू वाली देवकुलिका में आदिनाथ की और बाईं बाजूवाली देवकुलिका में पार्श्वनाथ की भव्य मूर्तियां विराजमान हैं। इस मन्दिर में कई शिलालेख हैं । एक शिलालेख इस
मन्दिर की नेमिनाथ स्वामी की खास प्रतिमा के आसन के नीचे खुदा हुआ है।
जिसका भाव इस प्रकार
। संवत् १६७५ के मात्र खुद्दी ४ को शनिवार के दिन ओसवाल जाति के बोहरा गौत्रीय राजपाल ने श्री नेमिनाथ के मन्दिर में नेमिनाथ का विम्ब स्थापित किया, उसकी प्रतिष्ठा हीरविजयसूरि के पट्टधर आचार्य श्री विजयसेनसूरि के शिष्य श्री विजयदेवसूरि ने पण्डित कुशल सागर गणि आदि साधुओं के साथ करवाई। इसी प्रकार एक शिलालेख श्रीमाल ज्ञाति के शाह रंगा का और एक पोरवाल जाति के श्रेष्ठि बहाड़ का भी खुदा हुआ है।
महावीर का मन्दिर
नेमिनाथ के देवालय के पूर्व की ओर यह मन्दिर बना हुआ है। बाहर की दो सीढ़ियों से एक. माच्छादित दरवाजे में प्रवेश किया जाता है, जो अभी नया बना है। यह मन्दिर भी बड़ा सुन्दर बना
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| श्रीसवाल जाति का इतिहास
दिवासि श्री पार्श्वनाथ स्मृति नेश्वरस्या प्रसादतः संउसमी दितानि श्री शांतिनाद स्यप दप्रसादा हिघ्घानिन श्यं वैद्यशांतिः॥१ संवत् १५८३ वर्षिमाग सिरमुदि ११ दिने श्रीजेसलमेरु महाऽर्ये राउल श्री चाविगदेव हे राउल श्रीदेवक पहेमदा राजाधिराज राउल श्रीजयतु सिंहविजविराज्येक मर श्रीला युव राज्ये श्री केशवं श्री मरखवाल गोत्रेसं० श्री बापुत्र सं0 कोचर या । जिन इ कोरंटई नगरिन संरखवाली गा मइ उत्तंगतो राजे नप्रासादकरा । आबूजी राल श्री संवि
यात्रा की थी। जिला पाडू उदारगुणा इंचाप वरनउ सर्वधन लोकनीदेई को रटइक नामनाली ||| सं०कोचरत्र सं0मलान सं० ग्लास०ही रास० ला सार्या सं०मालिक दे पुत्र [सं० श्रापमल्ल सं०देप मल्ला मै० आपमल्लता कमलादे पुत्रसं०पधासं० नीमासं० जेवा संघा तार्याशनादेव सं० प्रासराज सं० मुंबराजपुत्रिकास्पाणी । सं० आसराज श्री राजयम हाती श्री संघसहित यात्रा की आपण वित्त सफल की। सं० श्रासराज नार्याचा०सं०पांना गेला जिला श्री राजे जय गिरनार श्राती यात्रा की थी। श्रीशचंजयादितीर्घावतारपाटी करावी (सतोर लम्परिकर श्री मिनाना विबरीरादी श्री सत्वनोधन देहरइ मंडा था। समस्त कल्पा एका दि कनपनी पाटी सैलमदकरावी। सं०] सराज नार्य संता सं० पाता संत ०१५११ श्री जयर नारती श्री संघसहित यात्रा की इमव रस २ती यात्रा करतासं०१५२४ ते रमी यात्रा करी श्री यक परिपरी पालता श्री आदिनाथ प्रमुखतीर्थ करनी प्रजाक रताब दतप्करी बिलाषन वकार गुलीवज वसँघनीनक्रिकरी श्रीणावित सफल को बली चोपड़ा संपाचा पुत्र [सं० सिवराज संमहि राज सं० लोलासंघवीला (ए)चिका मं० गेली। सं०ला सं० सिट्रा सं०समरा सं०माला संगम हा सं० सह सं०ॐ प्रमुख परिवारसहित व० सं०लाब (ए) संखवाल स० या स राजपुत्रसंताबिक मिली श्रीजेसलमेरु नगरिंग ढक परिबिलामिक श्री अष्टापदम हाती प्रासादक राया। ०१५३६ वर्षे फागुन दिदिने राउत श्री देवक राज्य समस्त देखना संघमेलवी श्रीजिनचंद्र सरश्री जिनसमुद्रसूरिन्द्र लिप्रतिष्टा करावी श्री ॐ नाव श्री शांतिनाधमूलना याचवी सतीर्थ करनी अनेक प्रतिमान रावी। संत इसम समारू याडि माहिरू पानालासहि तसम कतलाकू लाह्या सोनाने प्रापरे श्री कल्पास होत नामोधा लिखायां । श्रीजिन समुद्रमरिक हा श्री शांति सागर सूरित्राचार्यनी सापना करावी। श्रीश्रष्टापती विकार जगति करावी (विबममाव्या। संताना यम सरसतिपुत्र संदीदा सं०त्रिकाधात्री सं०नो मानार्यास नायक दे सं० सं०वी दाना या संमरादे संविमला सं० विमलादे पुत्र [सं० महसमल्ल सं०करला संधर (निकाह सलह खू। सं०स० सहसमल्ल लायी सं० ॐ पुत्र तोला स०सवी काही संकरा कनकादे प्रत्रषी दात्रिकालाला स० वरना यावर निगदे त्रिकाया है। । इत्यादिपरिवार सहिता संवाद श्री जय गिरनारभूतीयाना की मी । समकित मो एक घतषी साकर नीला हिणिकी मी श्री जिन है स सू (रंगल नायकवर्षयं विम होळकरी अली घ२२ प्रत याही पोच मिनी जमलाकीधा पांच सोन याप्रमुख अनेक वस्तु जमलमा श्री कृल्प सिद्धांत की वारा या पांचदारलाषनव का रंगुली वारसा जो डी अल्लानालाहि लिकी धी । सं० सहसमल श्री श जयंती यात्राकरी जून इगदिरा पर वीरमगाम्पाटापार करिबॉक अल्ली लाह लिकरी घरे माया सं०वीदइ घररत इदसर से रघतला ह्या श्रष्टापदप्रासाद बिऊ भूमिऽऽ कारजगतिनाबारणा नीच की करावी | 933साए जाली १४ सदा देह राऊ परिकागु राम्रष्टापदक राया। का सभी या श्रीपार्थानी विकराव्या बिहाधिए सं०वेतासं० सरसतिनी मूर्तिक रावी । ०९५८१ वर्षे माग सिरव ६१० रविवारेमहाराजाधिराज राउली जयसिंह तथा ऊ मरश्री लू एकवचनात् श्री पार्श्वनाथ हा पद दिनालाई संवाद से राजावी उतनाव ड बंधाया। बारा उसाएक राव्या वा चाल करावी को हर एक कराव्या । गाइ सह सरजोडी घत गुरुणी वारषट् दरसल ब्राह्मणा दिक नादी था। श्री जेसल मे रुगढ़ नीद दिदि सइ घाघराबंधाव्यादेिवरानी सेरी नई घाघरा बेऊ श्री जय तसिंहराउन प्रदेस संवाद कराया। गजकरावीद सचवतारसहित लक्ष्मी नारायनी भावी जिनोद शाद तारो प्यवताररहित स्पा श्रीषो ऽऽऽ जिनेंद्रस्यासमियायपुरीष्ट ये सम्पधारिचा हा वितीर्घकरचतः सलक्ष्मी कः समाया तो जिनो दायि दिकनीकमा मं० सहसमल्ल सं०] करणासं० णाकरा विस्प ३॥ इत्येषा प्रात्रिः श्री वृद्धखरतरगळे श्री ति सपि हालंकार श्री जिनमा कर सूरिविजयि राज्ये श्री देव तिल कोपाध्यायेन लिखिता विरनंदन रमन सुख पुत्र सत्रधार तक नमुद का रिप्रशस्ति रेषा को री र्तं ॥ ॥ श्रीव
श्री शान्तिनाथ मंदिर प्रशस्ति जैसलमीर
( श्री बा० पुरणचन्द्रजी नाहर के सौजन्य से )
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चार्मिक क्षेत्र में ओसवाल जाति
हुआ है। इसके अन्दर महावीर देव की एक भव्य मूर्ति है। जिसके उपर ईस्वी सन् १९१८ का एक लेख पाया जाता है, पर जिस बैठक के ऊपर उस प्रतिमा को बैठाया गया है वह बैठक पुरानी है और उस पर ईस्वी सन् १०६१ का लेख पाया जाता है। इस देवालय में मूल नायक के स्थान पर महावीर देव की जो मूर्ति प्रतिष्ठित है उसकी पलथी पर सम्वत् १६७५ विक्रमीय का एक लेख है जिससे पता चलता है कि उपकेश वंश के (ओसवाल वंश के) साः नानिया नामक श्रावक ने अरासन नगर में श्री महावीर का बिम्ब स्थापित किया और उसकी प्रतिष्ठा श्री विजयदेवसूरि ने की। एक लेख इसी स्थान पर मूर्ति की बैठक के नीचे खोदा हुआ है, यह संवत् ११३८ के फाल्गुन सुदी ९ सोमवार का है। मगर खण्डित हो जाने की वजह से इसमें लिखने वाले के नाम का पता नहीं चलता।
उपरोक्त दोनों मन्दिरों की तरह पार्श्वनाथ का मन्दिर शांतिनाथ का मन्दिर तथा सम्भवनाथ का मन्दिर और है। इन देवालयों की कारीगरी और बनावट थोड़े फेर-फारों के साथ प्रायः उपरोक्त मन्दिरों की'सी है इसलिए इनके विषय में विशेष विवेचन की आवश्यकता नहीं। इनके ऊपर जो लेख पाये जाते हैं उनमें धार का लेख का सम्बत् ११३८ और एक का ११४६ है। चार गोस्खयों पर भी लेख खुदे हुए हैं जो ईस्वी सन् १०८के हैं।
राणकपुर राणकपुर या राणपुर गोड़वाड़ प्रान्त की पंचतीर्थियों में प्रमुखतीर्थ है। मारवाड़ देश में जितने प्राचीन जैन मन्दिर हैं उनमें रामपुर का मंदिर सब से कीमती और कारीगरी की दृष्टि से सब से अनुपम हैं। इसके सम्बन्ध में सर जेम्स फ>यन ने लिखा है कि "इसके सभी स्तम्भ एक दूसरे से भिन्न हैं और बहुत अच्छी तरह से संगठित किये हुए हैं।" इस प्रकार १४४४ विशाल प्रस्तर स्तम्भों पर यह मंदिर भवस्थित हैं। इनके ऊपर भिन्न २ ऊँचाई के अनेकों गुम्मच लगे हुए हैं जिनसे इसकी बनावट का मन के उपर बड़ा प्रभावशाली असर होता है, वास्तव में मन के ऊपर इतना अच्छा असर करनेवाला स्तम्भों का कोई दूसरा संगठन सारे भारत के किसी भी देवालय में नहीं है। यह मंदिर ४८००० वर्ग फीट जमीन पर पनाया हुआ है इस मंदिर के शिलालेखों से ज्ञात होता है कि इसे संवत् १४३४ में नादिया ग्राम निवासी भनासा और रतनासा नामक पोरवाद जाति के दो सेतों ने बनवाया था।
ऐसा कहा जाता है कि जब ओरंगजेब ने राजपूताने पर चढ़ाई की थी तब इस देवालय पर भी
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श्रोसवाल आति का इतिहास उसकी फौजें पहुंची थीं और मूर्तियों का तोड़ना प्रारम्भ कर दिया था। कुछ परिकर और तोरण टूटे हुए रूप में अभी भी वहाँ पाये जाते हैं। जिनको लोगों की किम्बदन्ति औरंगज़ेब के द्वारा तोड़े हुए बतलाती है। आगे चलकर यह किम्बदन्ति यह भी कहती है कि जिस रात्रि में उसने इनको तोड़ने का काम शुरू किया उसी रात को बादशाह और उसकी बेगम दोनों बीमार पड़े और बेगम को स्वम में ऋषभनाथ तीर्थङ्कर की मूर्ति को देखा, यह देखकर ओरंगज़ेब ने मूर्तियों का तोड़ना बंद कर दिया। इसी मंदिर में ३ छोटी ईदगाहें भी बनी हुई हैं। ऐसा कहते हैं कि जब उसने तोड़ फोड़ का काम आरम्भ किया तो साथ ही । ईदगाहें भी बनवा डाली। यह किम्बदन्ति सच है या झूठ, औरंगजेब इस मन्दिर में आया या नहीं यह बात निश्चय पूर्वक नहीं कही जा सकती पर यह बात तो निश्चित है कि मुसलमानों ने इस मंदिर को सुकसान पहुंचाया और तोरण गुम्मच वगैरा की तोड़ फोड़ की, तथा । ईदगाहें बनाकर बाद में उपद्रव रोक दिया।
. ऐसा कहा जाता है कि इस देवालय के निर्माण कर्ता धन्नासा और रसनासा का विचार इसको ७ मंजिला बन वानेका था, जिसमें से ४ मंजिल तो बनाये जा चुके थे और तीन मंजिलों के लिये काम अधूरा रह गया जो अभी तक नहीं बन सका। इसके लिये रवाशाह के वंशज अभी तक उस्तरे से हजामत नहीं बनवाते हैं।*
सादड़ी ग्राम से पूर्व ३ मील की दूरी पर निर्जन स्थान में यह मन्दिर अवस्थित है। यह मंदिर शास्त्रों में वर्णित नलिनी गुल्म विमान के आकार का बनाया गया है। इसमें १४४४ खम्बे और ८४ तलघर हैं। संवत् १४९६ में श्री सोमचन्द्रसूरिजी ने इस मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई। अभी कुछ समय पूर्व सेठ आनन्दजी कल्याणजी की पेढ़ी ने उक्त राणकपुर के मन्दिर की लागत आंकने के लिये एक होशियार इंजिनियर को बुलाया था उस इंजिनियर ने इस विशाल मन्दिर की लागत १५ करोड रुपया आंकी है। इससे पाठकों को ज्ञात हो जायगा कि गोडवाड प्रान्त में जैन समाज की यह एक मूल्यवान सम्पत्ति व कृति है। इस मन्दिर के आसपास नेमिनाथजी व पार्श्वनाथजी के दो मन्दिर हैं।
इस मन्दिर की व्यवस्था पहिले सेठ हेमामाई हठीसिंह रखते थे जब उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई तब वह पीड़ा सादड़ी के जैन संघ ने उठाया और इधर संवत् १९५३ से सेठ आनंदजी कल्याणजी की पेथी इसका प्रबन्ध करती है। इस पेदी का भाफिस सादड़ी में है, यात्रियों के लिये सब प्रकार की व्यवस्था करादेने में भ फिस के व्यक्ति पड़े प्रेम का व्यवहार करते हैं।
. * इस समय प्राग्वाट कुल श्रेष्ठ रलाशाह के वंशजों के ५२ घर घाणेराव में निवास करते है।
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
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श्रीमहातीरतोयीसीसानिमतानेशी स्वरतरगयीउटातनस श्रीशरखवालगांचा सातापासात पसरत श्रीवर्हमान सार भरयशिनातन दमाशी मजयदेवस शिमला
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(श्री बा० पूरणचन्द्रजी नाहर के सौजन्य से)।
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श्रीनाडलाई तीर्थ
मारवाड़ के गोड़वाड़ प्रान्त के देसूरी जिले में यह गांव अवस्थित है। ऐतिहासिक दृष्टि से इसका बड़ा महत्व है। गोड़वाड़ प्रान्त के प्रमुख जैन तीर्थों में से यह एक है। इस गाँव में " जैन मंदिर हैं। इसमें से ९ गाँव में तथा २ पास के पर्वत पर हैं। इन पर्वतों को लोग शत्रुक्षय और गिरनार के नाम से पहचानते हैं।
___ इस ग्राम में बहुत से जैन लेख मिले हैं, उन शिलालेखों में इस गाँव को नन्दकुलवती, नडहुलाई, नडडूल डानिगा आदि नामों से सम्बोधन किया गया है। ऐतहासिक राससंग्रह के दूसरे भाग में इसे वल्लभपुर नाम से भी पुकारा गया है।
इस ग्राम में भगवान आदिनाथ का एक प्राचीन मंदिर है। इस मंदिर में पत्थर पर खुदे हुए कई लेख हैं, एक लेख संवत् ११८६ की माघ सुदी ५ का है इसमें चहामान (चौहान) वंश के महाराजा. धिराज रायपाल के पुत्र रुद्रपाल तथा अश्वपाल तथा उनकी माता मानल देवी द्वारा मंदिर में चढ़ाई गई भेंट का उल्लेख है। इसके अलावा समस्त ग्रामीणों के सर पंच भण्डारी मागसीजी; लक्ष्मणसी आदि भोसवालों का उल्लेख है।
उक्त आदिनाथ मंदिर के रंग मंडप के बाएँ बाजू की दीवार पर एक और लेख खुदा हुआ है। उक्त लेख में मेवाड़ के राजाओं की वंशावली दी गई है। यह वंशावली विशेष विश्वसनीय होने के कारण कई इतिहास वेत्ताओं ने अपनी पुस्तकों तथा रिपोर्टों में इसका उल्लेख किया है । इसके बाद इस लेख में उकेश वंश (ओसवाल जाति ) के भण्डारी गौत्रीय सायर सेठ के वंश में शंकर आदि पुरुषों द्वारा श्रीआदिनाथ की प्रतिमा की स्थापना करने का उल्लेख है। यह लेख संवत् ११७४ का है इसी प्रकार संवत् १२०० की कार्तिक वदी • का दूसरा लेख है। इस लेख में जो कुछ लिखा है, उसका आशय यह है
- "महाराजाधिराज रायपालदेव के राज्य में उनके दीवान ठाकुर राजदेव के समक्ष नाडलाई के समस्त महाजनों ने (ओसवालों) मिलकर इस मंदिर के लिये घी, तेल, नमक, धान्य, कपास, लोहा, शक्कर, हींग, मंजीठ भादि चीज़ों को भेंट करने का निश्चय किया।
कहने का अर्थ यह है कि नाडलाई तीर्थ स्थान में भी भओसवाल दानवीरों के धार्मिक कार्यों के स्थान पर उल्लेख पाये जाते हैं।
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प्रोसवाल जाति का इतिहास
श्री नाडोल तीर्थ
मारवाड़ के गोड़वाद प्रान्त में यह एक प्रसिद्ध ऐतहासिक स्थान है। जैन लोग इसे अपने पंच तीर्थों में शुमार करते हैं। पुराने समय में यह चौहानों का पाट नगर था। इस गाँव में पद्मप्रभु स्वामी का, एक भव्य और सुन्दर मंदिर है। इस मंदिर के गूढ मण्डप के दोनों ओर भगवान नेमिनाथ और भगवान शान्तिनाथ की दो प्रतिमाएँ है। उनके ऊपर संवत् १२१५ की वैसाख सुदी १० का लेख है। इस लेख से यह मालूम होता है कि बीसाड़ा नामक स्थान के मंदिर में जसचन्द्र, जसदेव, जसधवल और जसपाल नामक श्रावकों ने इन मूर्तियों को बनवाई और पद्मचन्द्र गणि के हाथ से इनकी प्रतिष्ठा करवाई।
उक्त मन्दिर के भतिरिक्त वहाँ पर और कई प्राचीन जैन मन्दिर विद्यमान हैं। इन मन्दिरों के शिलालेखों में कई स्थानों पर ओसवाल जाति के बहुत से महानुभावों के नामों का उल्लेख मिलता है। भगवान नेमिनाथ का मन्दिर भी बड़ा प्राचीन तथा सुन्दर बना हुआ है। श्री वरकाणातीर्थ
पह तीर्थ स्थान राणी स्टेशन से २ मील की दूरी पर है। यहां पर भगवान पार्श्वनाथजी का एक बहुत बड़ा और प्राचीन मन्दिर विद्यमान है। इसके अतिरिक्त यहां पर दो धर्मशालाएँ तथा एक श्रीपार्श्वनाथ जैन विद्यालय भी है। श्री सोमेश्वर तर्थि
उक्त तीर्थ स्थान नाडलाई तीर्थस्थान से छः मील की दूरी पर विद्यमान है। यहाँ पर जैनियों के चार मन्दिर हैं जिसमें शांतिनाथजी का मन्दिर सुन्दर, भव्य और अत्यन्त प्राचीन है। इस मन्दिर के अनेक शिलालेखों में मोसवाल जाति के सज्जनों का उल्लेख पाया जाता है । यहां पर कुआ, बगीचा तथा एक विशाल धर्मशाला भी बनी हुई है। . इस तीर्थस्थान के दो मील की दूरी पर घाणेराव नामक गाँव विद्यमान है। इस गाँव में भाठ सुन्दर जिनालय तथा एक धर्मशाला बनी हुई है। श्री मुच्छाला महावीर तीर्थ
यह तीर्थ स्थान घाणेराव से २ मील की दूरी पर स्थित है। इसमें एक बहुत पुराना जैन मन्दिर विद्यमान है। यहां पर एक धर्मशाला भी बनी हुई है।
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धार्मिक क्षेत्र में ओसवाल जाति
जालोर (मारवाड़)
मारवाड़ के दक्षिण भाग में जालोर नाम का एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक नगर है। मारवाड़ की राजधानी जोधपुर से यह ८० माईल की दूरी पर सूदड़ी नामक नदी के किनारे बसा हुभा है। प्राचीन लेखों और ग्रन्थों में यह नगर जवालीपुर के नाम से प्रसिद्ध था। सुप्रसिद्ध श्वेताम्बर आचार्य श्री जिने. श्वरसूरि ने वि० संवत् १०८० में श्री हरिभद्राचार्य रचित अष्टक संग्रह नामक ग्रन्थ को विद्वत्तापूर्ण टीका यहीं पर की थी। और भी अनेक ग्रन्थों में इस नगर का नाम मिलता है। इस पर से यह स्पष्ट ज्ञात होता है, कि प्राचीन काल में यह नगर जैन संस्कृति से प्रकाशमान था। वहां के संवत् १२४२ के एक लेख से मालूम होता है कि उस देश के तत्कालीन अधिपति चहामान (चौहान) श्री समरसिंध देव की भोज्ञा से भण्डारी पांसू के पुत्र भण्डारी यशोवीर ने कुँवर विहार नामक मन्दिर का पुनरुद्धार किया। .
इसके अतिरिक्त जोधपुर नरेश महाराजा गजसिंहजी के मन्त्री जयमलजी ने यहां पर कुछ जैन मन्दिर और तपेगच्छ के उपाश्रम बनवाये। जालौर के किले पर जो जैन मन्दिर विद्यमान है उसका जीर्णोबार भी आप ने करवाया। उस मन्दिर में प्रतिमा पधरा कर भाप ही ने उसकी प्रतिष्ठा करवाई ।
राजा कुँवरपाल के समय का बना हुआ जैन मन्दिर गिर गया था। उसकी नींव मात्र शेष रह गई थी। उसी स्थान पर जयमलजी ने मन्दिर बनवाकर संवत् १६८१ के चैत्र बदी ५ को प्रतिष्ठा करवाई। इनके पश्चात् इनके पुत्र नैनसीजी ने इसी मन्दिर के सामने मण्डप बनवाकर उसमें अपने पूज्य पिता श्री जयमलजी की मूर्ति संगमरमर के बने हुए श्वेत रंग के हाथी के हौदे पर स्थापित की। यह मूर्ति मूलनायकजी की प्रतिमा के सन्मुख हाथ जोड़े हुए विराजमान है। इस मन्दिर का द्वार उत्तर की ओर मुखवाला है। यह किले की ऊपर की अंतिम पोल के नैऋत्य कोण में थोड़ी ही दूर पर अवस्थित है । वह मन्दिर महावीर स्वामी के नाम से मशहूर है । इस मन्दिर की मूलनायक की प्रतिमा के नीचे एक लेख खुदा हुआ है जिसमें शाह जैसा की भार्या जेवंतदे के पुत्र शाह जयमलजी और तत्पुत्र मुणोत मैनसी जी और सुन्दरदासजी का उल्लेख है।
महावीरजी के मन्दिर की तरह यहां पर एक चौमुखाजी का मन्दिर है। यह किले के ऊपर की अंतिम पोल के पास किलेदार की बैठक के स्थान से थोड़ी दूर पर नक्कारखाने के मार्ग पर बना हुआ है। मन्त्री जबमलजी ने इस मन्दिर में संवत् ११० के प्रथम चैत्र वदी ५ को श्री आदिनाथ स्वामीजी की प्रतिमा को पचराई, जिसका लेख इस प्रतिमाजी पर खुदा हुआ है। इसी किले में एक तीसरा जैन
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
मन्दिर और भी है और कहा जाता है कि इसका जीर्णोद्धार भी मुणोत जयमलजी ने करवाया था । जालोर कसवे के तपागड़ा मुहल्ले में एक जैन मन्दिर और तपेगच्छ का उपाश्रय अभी तक विद्यमान है । किले की तटी में एक जागोड़ी पार्श्वनाथजी का मन्दिर है । उसे आहोर निवासी मेहता भखेचन्दजी ने महाराजा मानसिंहजी के समय में बनवाया ।
सांचोर
सांचोर भी मारवाड़ का एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान है। पर बहुत पुराना बसा हुआ है। इस नगर की उत्पत्ति और विकास का वृत्तान्त मुणोत नैनसीजी ने अपनी ख्यात में बड़ी खोज के साथ लिखा है। यहां पर भी कई जैन मन्दिर और उपाश्रय हैं जो प्रायः ओसवालों के बनवाये हुए हैं। मुणोत जयमलजी ने भी इस स्थान पर संवत् १६८१ की प्रथम चैत्र वदी ५ को एक जैन मन्दिर बना कर उसकी प्रतिष्ठा करवाई ।
खडाला (मारवाड़) के जैन मंदिर
जोधपुर राज्य के गोड़वाड़ प्रात में खुड़ाला नामक एक ग्राम है- इस गाँव के जैनमंदिरों की मूर्तियों पर कई लेख हैं, इस मंदिर की धर्म नाथजी की प्रतिमा पर से प्रसिद्ध इतिहास वेता श्रीयुत भंडार कर साहब ने एक लेख का उतारा लिया था, वह लेख संवत् १२४३ की मार्गवदी ५ का था, पर यह लेख बहुत कुछ खंडित हो जाने से इसका विशेष स्पष्टी करण न हो सका। श्रीयुत भंडारकर महोदय ने अपने संग्रह में इसी ग्राम के एक दूसरे जैन लेख का उल्लेख किया है, यह लेख संवत् १३३३ की आश्विन सुदी १४ सोमवार का है। इस लेख में प्रथम भगवान महावीर की स्तुति की गई है और कहा गया है कि भगवान महावीर स्वयं श्रीमाल ( भीनमाल ) नगर में पधारे थे इसके बाद उक्त लेख में तस्कालीन राजनैतिक' परिस्थिति पर भी कुछ प्रकाश डाला गया है, उससे ज्ञात होता है कि संवत् १३३३ के लगभग श्रीमाल नगर मंत्री गजासिंह थे । इन्हीं महाराज चाचिकदेव
में महाराजा कुल श्री चाचिकदेव, राज करते थे, और उनके का एक बड़ा लेख, जोधपुर राज्य के यशवंतपुरा गाँव से १० मील की दूरी पर सुँधा नामक टेकरी पर के चामुंडा देवी के मंदिर में मिला है, इस प्रशस्ति लेख की रचना श्रीदेवसूर्य के प्रशिष्य और रामचन्द्र सूरि के शिष्य जयमंगला चार्य्यं ने की थी। सुप्रख्यात पुरातत्व विद् प्रोफेसर फिल्होर्न ने ईसवी सन् १९०७ के एपीप्रकिया इण्डिका में यह लेख प्रकाशित किया है ।
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पाली का नवलखा मन्दिर
मारवाड़ में पाली नाम का एक प्रसिद्ध और प्राचीन नगर है । वहाँ पर नवलखा मन्दिर नाम का बड़ा ही भव्य और १२ जिनालय वाला प्राचीन देवालय । इस मन्दिर की दो प्रतिमाओं पर दो लेख खुदे हुए हैं । पहिले लेख का भाव यह है - "संवत् १२०१ के ज्येष्ठ वदी ६ रविवार के दिन पल्लिका अर्थात पाली नगर के महावीर स्वामी के मन्दिर में महामान्य आनन्द के पुत्र महामान्य पृथ्वीपाल ने अपने आत्म-कल्याण के लिये दो तीर्थङ्करों की मूर्तियां बनवाई, उनमें से यह अनंतनाथ की प्रतिमा है" ।
दूसरी प्रतिमा पर भी इसी प्रकार का लेख खुदा हुआ है, पर उसके अंतिम वाक्य में "अनंत" बदले "बिमल" का उपयोग किया गया है। उससे ज्ञात होता है कि उक्त प्रतिमा भगवान विमलनाथ की है ।
इसी मन्दिर में रक्खी हुई एक प्रतिमा के सिंहासन पर निम्न लिखित आशय का लेख खुदा हुआ है। संवत् ११८८ की माघ सुदी ११ के दिन अजित नाम के एक गृहस्थ ने शांतिनाथ की मूर्ति बनायी और ब्राह्मी गच्छीय देवाचार्य ने उसकी प्रतिष्ठा की । उक्त मन्दिर में श्री आदिनाथ भगवान की मूर्ति के मीचे पद्मासन के ऊपर एक लेख खुदा हुआ है जिसका सार यह है " संवत् ११७८ की फाल्गुन सुदी ११ शनीवार को पाली के वीरनाथ के महान् मन्दिर में उद्धोदनाचार्य के शिष्य महेश्वराचार्य और उनके शिष्य देवाचार्य के साहार नामक श्रावक के दो पौत्र देवचन्द्र तथा हरिश्चन्द्र ने मिल कर देवचन्द्र की भार्थ्या वसुंधरी के पुण्यार्थ ऋषभदेव तीर्थङ्कर की प्रतिमा निर्माण करवाई। इसके अतिरिक्त इस मन्दिर के मुख्य गर्भागार की बेदिका पर विराजमान तीन प्रतिमाओं पर तीन लेख खुदे हुए हैं। ये लेख संवत् १६८६ की वेशाख सुदी ८ के हैं । पहिले और अंतिम लेख में जो कुछ लिखा गया है उसका सारांश यह है कि "जब महाराजाधिराज गजसिंहजी जोधपुर में राज्य करते थे और महाराज कुमार अमरसिंहजी युवराज पद भोग रहे थे, और जब उनका कृपा पात्र चौहान वंशीय जगन्नाथ पालीनगर की हुकूमत कर रहा था, उस समय उक्त नगर के निवासी श्रीमाली जाति के सा हूँ गर तथा भाखर नाम के दो भाइयों ने अपने द्रव्य से नोलखा नामक मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया और उसमें पार्श्वनाथ तथा सुपार्श्वनाथ की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित की।" पाली नगर में " लोढ़ा रो बास" एक मोहल्ला है, उसमें शांतिनाथ के मन्दिर की मूल नायकजी की प्रतिमा पर एक लेख खुदा हुआ है। उक्त लेख से यह ज्ञात होता है कि उक्त मूर्तियों की प्रतिष्ठा कराने बाले हूँ गर और भाखर दोनों भाई थे। ये भोसवाल जाति के थे, और उनका वंश श्री श्रीमाल तथा गौत्र
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प्रोसवाल जाति का इतिहास
चंडालिया था। इन्होंने हो, जैसा कि उपर कहा गया है, पाली के नौलखा मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया था ।
इन सब लेखों से यह स्पष्टतया प्रतीत होता है कि पाली का नवलखा मन्दिर अत्यन्त प्राचीन है। मूल में वह महावीरजी का मन्दिर कहगता था पर पीछे से नवलखा नामक कुटुम्ब ने उपका जीर्णोद्धार करवाया, इससे वह नवलखा प्रासाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अन्त में डूंगर, भाखर नामक ओसवाल बन्धुओं ने उसका पुनरुद्धार करवाकर उसमें मूल नायक के रूप में पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा पधराई। गोड़ी पार्श्वनाथ का मन्दिर
गोलो पाश्र्वनाथजी का मन्दिर बड़ा ही प्रसिद्ध मन्दिर है । यह मन्दिर तेरहवीं सदी का बना हुआ है। इसकी प्रतिष्ठा करने वाले विजयदेव सूरि नाम के जैनाचार्य थे । मेड़ता नगर निवासी भोस. बाल जाति के कुहाड़ा गौत्र वाले साह हरषा तथा उनकी भार्या जयवन्तदे के पुत्र जसवन्त ने उक्त मूर्ति निर्माण करवाई थी। बेलार के जैन मन्दिर
___ मारवाड़ राज्य के देपूरी शन्त के प्रसिद्ध नगर घाणेराव के पास वेलार नाम का एक गाँव है । वहाँ भगवान आदिनाथ का एक प्राचीन मन्दिर है। इस मन्दिर में ५ लेख मिले हैं जो महत्व के हैं। प्रथम लेख संवत् १२६५ के फाल्गुन वदा • का है, उस से मालूम होता है कि धांधलदेव के राज्य के समय में नाणकीय गच्छ के आचार्य शांतिपूरि ने वधिलदे के चैत्य में रामा और गोसा ने रंग मण्डप बनाया। रामा यह धर्कट वंश के ओसवाल श्रावक परिवार के पावं नामक पुरुष का पुत्र था । गोसा अथवा गोसाक यह आसदेव का पुत्र थाया का पुत्र था। मेड़ता के मन्दिर
मेड़ता मारवाड़ का अत्यन्त प्राचीन और प्रख्यात् नगर है। प्राचीन काल में यह नगर अत्यन्त समृद्धिशाली था। अकबर जहांगीर और शाहजहां बादशाहों के राज्य काल में यहां जैन कौम की बहुत
(१, वधिलदे यह वेलार का प्राचीन नाम है।
(२) यह ओसवाल जाति का एक गौत्र है। इस वक्त इस धरकट गौत्र का रूप बदल कर धाकड़ हो गया है। मारवाड़ में इस गौत्र के बहुत से घर है।
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धार्मिक क्षेत्र में श्रोसवाल नाति
बड़ी आबादी थी। यहां पर कई लक्षाधीश और कोव्याधीश जैन गृहस्थ थे। तपेगच्छ और खरतरगच्छ का यहां बड़ा प्राबल्य था। तपेगच्छ के सुप्रख्यात्. आचार्य हरिविजयसूरि, विजयसेन और विजयदेव तथा खरतरगच्छ के जिनचन्द्र, जिनसिंघ और जिनराज आदि भाचार्यों ने यहां पर कई चातुर्मास किये। इस मगर में हाल में १२ जैन मन्दिर हैं। इन मन्दिरों की कई प्रतिमाओं की वेदियों पर कई लेख खुदे हुए हैं। इन लेखों में से पहले तीन लेख वहां के नये मन्दिर की प्रतिमा के ऊपर खुदे हुए हैं। उनमें से एक लेख संवत् १५६९ का है। उससे मालूम होता है कि स्तम्भ तीर्थ (खम्भात) के भोसवाल जाति के शाह. जीरागजी ने अपने कुटुम्ब के साथ सुमतिनाथजी की प्रतिमा पधराई। इसकी प्रतिष्ठा तपेगच्छ के सुमति साधुसूरि के पट्टधर श्रीहेमविमलसूरि थे। इनके साथ महोपाध्याय अनन्त हंसगणि आदि का शिष्य परिवार था ।
- दूसरा लेख संवत् १५०७ की फाल्गुन बुदी ३ बुधवार का है। उससे मालूम होता है कि भोसवार जाति के बोहरा गौत्र के एक सजन ने अपने पिता के कल्याणार्थ शन्तिनाथ की प्रतिमा बनवाई भौर खरतरगच्छ के श्री जिनसागरसूरि से उसकी प्रतिष्ठा करवाई।
इस नगर में चौपड़ों का मन्दिर' नामक एक देवालय है जिसकी प्रतिमाओं पर कुछ लेख खुदे हुए हैं। एक लेख संवत् १६७. की ज्येष्ठ वदी पंचमी का है। उससे मालूम होता है कि उस समय हिन्दुस्थान पर मुगल सम्राट जहांगीर राज्य करता था और शाहज़ादा शाहजहां युवराज पद पर था। ओसवाल जाति के गणधर चौपड़ा गौत्र के सिंघवी आसकरग ने अपने बनाये हुए संगमरमर के पत्थर के सुन्दर बिहार में तथंकर शान्तिनाथजी की मूर्ति की स्थापना की और उसकी प्रतिष्ठा वृहद् खरतरगच्छ के भाचार्य जिनराजसूरि ने की। इस लेख में उक्त सिंघी आसकणजी के पूर्वजों तथा कुटुम्बियों का वंश वृक्ष भी दिया हुआ है। इन्हीं सिंघवी आसकरणजी ने आबू और शजय के लिये संघ निकाले थे जिनके कारण इन्हें संघपति का पद प्राप्त हुआ था। इन्होंने जिनसिंहसूरि की आचार्य पदवी के उपलक्ष्य में नन्दी महोत्सव किया था। * . इसी प्रकार इन्होंने और भी कई धार्मिक कार्य किये। इसी लेख में प्रतिष्ठाकर्ता आचार्य की वंशावली भी दी गई है जिसमें प्रथम जिनचन्द्रसूरि का नाम है। ये वे ही गिनचन्द्रसूरि हैं जिन्होंने सम्राट अकबर को प्रतिबोध दिया था और उक्त सम्राट ने उन्हें "युग प्रधान" की पदवी प्रदान की थी । उनके पीछे जिनसिंहसूरि का नाम दिया गया है। इन्होंने काश्मीर देश में प्रवाप किया था। इतना
. . धमाकल्याण गणि की खरतरगच्छ पट्टावली के अनुसार यह महात्सव संवत् १६७४ की फाल्गुन सुदी ७
को किया गया था।
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ओसवाल जाति का इतिहास ही नहीं, उन्होंने ठेठ गजनी तक जैन धर्म के महान् सिद्धान्त-जीव दया का प्रचार किया था। बादशाह महाँगीर ने उन्हें "युग प्रधान" की पदवी समर्पण की थी।
- इस नगर में छोड़ों का एक मन्दिर है जिसमें चिंतामणि पाश्वनाथ की प्रतिमा है। उस प्रतिमा पर संवत् ११६९ की माघ सुदी ५ मुबार व एक लेख खुदा हुआ है। उससे ज्ञात होता कि महाराजाधिराज सूर्यसिंहजी के राज्यकाल में ओसवाल जाति के लोदा गौत्रीय शाह रायमल के पुत्र सखा वे पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा तैयार करवाई तथा खरतरगच्छ आदि शाखा वाले जिनसिंहसूरि के शिष्य जिनचन्द्रसूरि ने उसकी प्रतिष्ठा की । इस प्रकार वहाँ के कई मन्दिरों की कई मूर्तियां पर अनेक देख है उन सब का स्थानाभाव के कारण हम वर्णन नहीं कर सकते । हम सिर्फ एक दो खास २ लेखों के सम्बन्ध में ही कुछ प्रकाश डालना चाहते हैं।
मेड़ते के नये मन्दिर की मूर्ति पर जो लेख है उसमें कुछ गड़बड़ हो गई है। भारम्भ की चार पंक्तियों के साथ अन्त की चार पंक्तियों का बराबर सम्बन्ध नहीं मिलता। अनुमान किया जाता है कि कि इसमें जुदे २ लेखों का सम्मिश्रण हो गया है। पर इसके पिछले भाग में जिनचन्द्रसूरि का वर्णन है जिसमें कहा गया बादशाह अकबर ने उक्त सूरिजी को “युग प्रधान" की पदवी प्रदान की थी। उनके करने से बादशाह ने प्रतिवर्ष भाषादमास के शुक्ल पक्ष के भाखिरी माठ दिनों में जीव हिंसा न करने का भादेश प्रसारित किया था। इतना ही नही स्तम्भन तीर्थ (खम्भात) के सागर में मछली मारने की भी सख्त मनाई कर दी थी। शजय तीर्थ का कर बंद कर दिया गया था। सव स्थानों में गौरक्षा करने की भाज्ञा प्रसारित की गई थी। फलौदी पार्श्वनाथ का जैन मन्दिर
मारवाद का सुप्रख्यात् तीर्थ फलौदी पाश्र्वनाथ का नाम सारे जैन जगत् में प्रख्यात् है। यहां पर बड़ा ही विशाल, भव्य और सुन्दर जैन मन्दिर है। यहां पर प्रति वर्ष मेला लगता है । तपेगच्छ की पट्टावली के अनुसार सुप्रसिद्ध आचार्य देवसूरिजी ने विक्रम संवत् १२७४ में इस मन्दिर की प्रतिष्ठा की थी। इस मन्दिर के द्वार के दोनों बाजुओं पर दो लेख खुदे हुए हैं। पहला लेख संवत् ११३॥ मार्गशीर्ष ५ का है, जिससे ज्ञात होता है कि पोरवाल जाति रोपिमुरसी और भं० दशाद ने मिल कर इस मन्दिर को जरी से भरा हुआ चन्दरवा चढ़ाया।
दूसरा लेख तीन श्लोकों में समाप्त हुआ है। उससे ज्ञात होता है कि श्रेष्ठी (सेठ) मुनिचय में फलौदी पाश्र्वनाथ के मन्दिर में एक मजुत् उत्तानपा बनवाया और इसने नरवर गाँव के मन्दिर में सुंदर
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कोसवाल जाति का इतिहास
सोनमः ॥ सता होउंगथंगोदय शरद रिसिखा ताबा माता शास मऊ माता या मुरतेयमतारामा यः उदीरनामा विजयपदयुतास विशावतंसाः सहाबकश्रावयेायुक्तः श्री भूमितीतयः समानं दधिक्रार माना औ मानेकामदः मरुत्रा घताहे विबुधार्थितो वियपाकश्रा
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ठक श्रेणिपुरंदरनुः ३ श्रीमाता मावि पाठक वैरिव म्रद्यति: इलन्तापावलिका
मनामा श्रीमतिम
झालो नाग मेयमतितका त्येतनिर्मलधायां निर्मातायं गृदं श्रीकरावादार श्रीयमेरुसर शोधन
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( श्री बा० पूरणचन्द्रजी नाहर के सौजन्य से )
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धार्मिक क्षेत्र में श्रोसवाल माति मण्डप तैयार करवाया और अजमेर के महावीर स्वामी के शिखर वाले चौबीस मन्दिर (छोटे मन्दिर ) बनवाये। जस्सोल का जैन मदिर
जोधपुर राज्य में जस्सोल नाम का एक ग्राम है। वहां शांतिनाथजी का एक प्राचीन मन्दिर है। इसमें दो लेख खुदे हुए हैं। उनमें पहला लेख सं० १२४६ को कार्तिक बदी २ का है, जिससे ज्ञात होता है कि श्री देवाचार्य (वारीदेवसूरि ) के गच्छ वाले खेट गाँव के महामन्दिर में श्रेष्ठी सहदेव के पुत्र सोनीगेय मे स्तम्भजुग अर्थात् दो अंभे बनवाये । उक्त लेख से पह प्रतीत होता है कि जस्सोल का पुराना नाम खेद (खेट-संस्कृत में ) था तथा उक्त मन्दिर मूल में महावीर स्वामी का था जो वर्तमान में शान्तिनाथजी के. मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है। झाड़ोली का जैन मंदिर
यह गाँव सिरोही से 1॥ माइल की दूरी पर और पीडवाड़ा स्टेशन से २ माइल पायव्य कोण में है। पहां पर एक प्राचीन जैन मन्दिर है जो आज कल शान्तिनाथ के नाम से प्रसिद्ध है। मन्दिर भन्य जैन मन्दिरों की तरह एक कम्पाउण्ड से घिरा हुआ है और उसके आस पास देव कुलिकाएँ तया परसाले हैं। आगे के भाग के देवगृह में एक बड़ी शिला जड़ी हुई है जिस पर एक लेख खुदा हुआ है। यह लेख संवत् १२५५ की आसोज वदी • बुधबार का है। इस लेख से पाया जाता है कि परमार राजा धारावर्ष की रानी भंगारदेवी ने उस मन्दिर को एक बाड़ी भेंट की थी। इस देवालय के अन्दर का भाग बदा ही सुन्दर और नयन-मनोहर है। इसके बाहर का द्वार उदयपुर राज्य के करेड़ों गाँव के पार्श्वनाथ के मन्दिर के समान तथा उसके स्तम्भ और उसके कमान भाई के विमल शाह बालय की तरह है।।
इसके आगे परसाल में एक दूसरा शिला लेख है जो संवत् १२३५ की फाल्गुन वदी चतुर्थी का है। इसमें श्री देवचन्द्रसूरि द्वारा की गई ऋषभदेव की प्रतिमा की प्रतिष्ठान उल्लेख है। इसी गाँव के बीच में एक सुन्दर पुरानी बावड़ी है जिसमें वि० संवत् १२॥२ का एक टूटा हुआ लेख है । इसमें उक्त परमार धारावर्ष की पटरानी गीगादेवी का नाम है। पासाका जैन मान्दर
इस मन्दिर के विषय में सुप्रख्यात् पुरातत्वविद् राय बहादुर महामहोपाध्याय पं. गौरीशङ्करजी मोठा लिखते
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
"सिरोही राज्य के वासा से २ मील की दूरी पर कालगरा नामक एक गांव था तथा वहाँ पर एक पार्श्वनाथ का मन्दिर भी था। परन्तु अब उस गांव और मन्दिर का कुछ भी अंश नहीं रहा । केवल कहीं-कहीं घरों के निशान मात्र पाये जाते हैं। वहां से विक्रमी सम्वत १३०० (ईस्वी सन् १२४६) का एक शिलालेख मिला है, जिससे पाया जाता है, कि उक्त सम्बत् में चन्द्रावती का राजा आल्हणसिंह था" । उक्त गांव तथा मन्दिर का पता भी उसी लेख से चलता है।" कायंद्रा का जैन मन्दिर
सिरोही राज्य के कीवरली के स्टेशन से करीब चार माइल की दूरी पर कायन्द्रा नामक गांव है। पह एक अत्यन्त प्राचीन स्थान है। शिलालेखों में इसे कासहृद नाम से सम्बोधित किया है। इस ग्राम के भीतर एक प्राचीन जैन मन्दिर है जिसका थोड़े वर्षों पहले जीर्णोद्धार हुआ था । उसमें मुख्य मन्दिर के चौतरफ के छोटे-छोटे जिनालयों में से एक के द्वार पर वि० सं० १०९१ (ई. सन् १०३४ ) का लेख है। यहां पर एक दूसरा भी जैन मन्दिर था जिसके पत्थर आदि यहां से लेजाकर रोहेड़ा के नवीन बने हुए जैन मन्दिर में लगा दिये हैं। यह मन्दिर भी ओसवालों का बनाया हुआ है। र वैराट के जैन मन्दिर
____ जयपुर राज्य में वैराट स्थान अत्यन्त प्राचीन है, जहाँ पर पाण्डवों ने अपने अज्ञातवास के दिन बिताये थे। यहाँ पर अशोक और उससे भी पहले के सिक्के पाये गये हैं। पुरातत्ववेत्ताओं ने अनुसंधान द्वारा यह निश्चित किया है कि यह नगर प्राचीन मत्स्यदेश की राजधानी था। ईसवी सन् ६३४ में जब प्रसिद्ध चीनी यात्री हुएनसांग यहां आया था तो उसे यहाँ आठ बौद्ध मठ (Bnddhist Monasteries) मिले थे। यहीं पर सम्राट अशोक ने बौद्ध साधुओं के लिए आदेश निकाला था। यह शिलालेख आज भी बंगाल की ऐशियाटिक सोसाइटी के दफ्तर में मौजूद है। ईस्वी सन् की ११ वीं शताब्दी में महम्मद गज़नवी ने वैराट पर आक्रमण किया जिसका वर्णन आइने अकबरी में किया गया है ।
इस नगर में रित्व की दृष्टि से जो वस्तुएँ देखने योग्य हैं उनमें पार्श्वनाथ का मन्दिर भौर भीम की डूंगरी विशेष उल्लेखनीय है। पार्श्वनाथ का मन्दिर हाल में दिगम्बर जैनियों के हाथ में है पर इस मन्दिर के लेखों से यह स्पष्टतयाप्रकट होता है कि यह मंदिर मूलतः श्वेताम्बर सम्प्रदाय वालों का था। इस देवालय के नजदीक के कम्पाउण्ड को एक भीत में वि० संवत् १६४४ (शक सं० १५०९, ई. सन् १५८७) का एक लेख खुदा हुआ है। उस समय भारत में सम्राट अकबर राज्य करते थे और जैनमुनि हीरविजयसूरि तत्कालीन प्रसिद्ध जैनाचार्य थे। सम्राट् भकवर ने वैराट में इन्द्रराज नामका एक अधिकारी नियुक्त किया
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पार्मिक क्षेत्र में ओसवाल जाति
था। वह जाति का श्रीमाली था। यह भी ज्ञात होता है कि सम्राट अकबर के वजीर टोडरमल मे पहले इसके ताबे में और भी गांव दिये थे।
इसी इन्द्रराज ने इस मन्दिर को बनवाया और इसका नाम महोदयप्रासाद या इन्द्रबिहार रक्खा । इस मन्दिर की एक शिला पर चालीस पंक्ति का एक लेख है जिसकी भाषा गद्यात्मक संस्कृत है। इस लेख में सम्राट अकबर की बड़ी प्रशंसा की गई है। इसमें हीरविजयसूरि और सम्राट की मुलाकात का तथा सम्राट के जीव रक्षा सम्बन्धी फरमानों का उल्लेख भी किया गया है।
इसके आगे चल कर वैगट नगर के तत्कालीन अधिकारी इन्द्रराज तथा उसके कुटुम्ब का व इसके द्वारा बनाये गये मन्दिर का उल्लेख किया गया है।
हीरविजयसूरि के जीवन सम्बन्धी लिखे हुए प्रत्येक ग्रन्थ में इन्द्रराज तथा उसके द्वारा किये गये प्रतिष्ठा महोत्सव का उल्लेख किया गया है।
पंडित देवविमल गणि रचित हरिसौभाग्य महाकाव्य के अवलोकन से ज्ञात होता है कि उक्त आचार्यचर्य अकबर बादशाह की मुलाकात लेने के बाद जब आगरा से वापस गुजरात जा रहे थे तब संवत् १६४३ में उन्होंने नागोर में चातुर्मास किया था। चातुर्मास समास होने पर वे बिहार करके पीपाड़ नामक गांव में आये। वहाँ वैराट नगर से इन्द्रराज के प्रधान पुरुष आपके स्वागत के लिए उपस्थित हुए। तथा आपसे. इन्द्रराज द्वारा बनाये गये वैराट नगर के जैन मन्दिर की प्रतिष्ठा करने की प्रार्थना की । इस पर खास सूरिजी महाराज ने तो वहाँ जाने से इंकार किया पर उन्होंने अपने प्रभावशाली शिष्य महोपाध्याय कल्याणविजयजी को वैराट जाने की आज्ञा दी। कहना न होगा कि उक्त कल्याणविजयजी अपने शिष्य परिवार सहित पीपाड़ से बिहार कर वैराट पधारे और उन्होंने इन्द्रराज के मन्दिर की प्रतिष्ठा की। यह प्रतिष्ठा महोत्सव बड़े धूमधाम के साथ हुआ। हाथी, घोड़ा आदि का बड़ा भारी लवाजमा इस उत्सव में मौजूद था। इस समय इन्द्रराज ने गरीबों को बहुत दान दिया और लगभग ४०.००) चालीस हजार रुपया इस महोत्सव में खर्च किया।
हरिविजयसूरि के पट्टधर आचार्य विजयसेन के परमभक्त खम्भात निवासी कवि ऋषभदास ने भी 'हरिविजयसूरी रास' नामक ग्रन्थ में इस प्रतिष्ठा महोत्सव का उल्लेख किया है।
___महोपाध्याय कल्याणविजयजी के शिष्य जयविजयजी ने संवत् १६५५ में 'कल्याणविजय राख' नामक ग्रन्थ रचा था। उसमें भी उन्होंने उक्त प्रतिष्ठा महोत्सव का सविस्तार वर्णन किया है।
उपरोक्त विवरण से यह स्पष्टतः प्रगट होता है कि वैराट् का उक्त मन्दिर दिगम्बर नहीं वरन् श्वेताम्बर है, तथा किसी प्रभाव विशेष से वह दिगम्बरियों के अधिकार में चला गया है।
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सोसवाल जाति का इतिहास
गाँधाणी का प्राचीन जैनमंदिर
- गाँधाणी ग्राम जोधपुर से उत्तर दिशा में ९ कोस पर, वहाँ के तालाब पर एक प्राचीन जैन मंदिर है, उक्त मंदिर में एक सर्व धातु की श्री आदिनाथ भगवान की मूर्ति है, जिसके पृष्ठभाग पर एक लेख खुदा हुआ है। उक्त लेख का संवत् ९३० आषाढ़ मास है। इसमें उद्योतनसूरि का उल्लेख भाया है, जिसमें कहा गया है कि उन्होंने उक्त संवत् में आचार्य पद को प्राप्त किया । पट्टावली में इन सूरिजी के स्वर्गवास का संवत् ९९४ मिलता है। इस लेख में किसी गच्छ विशेष का उल्लेख नहीं है, इससे यह पाया जाता है कि विकृम की दसवीं सदी में किसी प्रकार का गच्छ भेद नहीं था। ऐतिहा. सिक दृष्टि से उक्त लेख बड़े महत्व का है। चित्तौड़ की श्रृंगार चावड़ी
राजस्थान के सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थल चित्तौड़ के किले में अंगार चावड़ी नामक एक जैन मंदिर है। चित्तौड़ के किले में जो प्रसिद्ध स्थान है उनमें इसकी गणना है। महामति टॉड से लगाकर आज. तक जिन २ पुरातत्व वेत्ताओं ने इस किले का वर्णन किया है, उनमें इस मंदिर का भी उल्लेख है। आयलॉजिकल सर्वे ऑफ वेस्टर्न सर्कल के सुपरिन्टेन्डेन्ट मि० हेवर कॉउसेन्स अपनी ईसवी सन् १९०४ की प्रोग्रेस रिपोर्ट में इस मन्दिर के विषय में लिखते हैं।
"श्रृंगार चावड़ी नाम का एक पश्चिमाभिमुख जैन देवालय है। उसके फर्श के मध्य भाग में एक ऊँचा चौरस चौतरा बना हुआ है, और उसके चारों कोनों में चार खम्भे हैं। ये खम्भे ऊपर के गुम्मज को सम्भाले हुए हैं। इसके नीचे चौमुख प्रतिमा विराजमान है । महामति टॉड साहब को इसी मदिर में एक लेख मिला था जिसमें लिखा था कि राणा कुम्म के जैन खाँ ने इस मन्दिर को बनवाया था।"
यह जैन मंदिर ई० सन् १५० के लगभग का मालूम होता है ।
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ओसवाल जाति का इतिहास
गिरनार पर्वत
(श्री बा० पूरणचन्द्रजी नाहर के सौजन्य से)
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कोरटा तीर्थ
कोरटा का दूसरा नाम कोरंट नगर तथा कोरट है। यह कसबा जोधपुर रियासत के वाली परगने में राजपूताना मालवा रेलवे के एरनपुरा स्टेशन से १२ माइल पश्चिम में आबाद है। इस कसबे के चारों ओर प्राचीन मकानों के खंडहर पड़े हुए हैं। उन्हें देखने से अनुमान किया जा सकता है कि किसी समय यह नगर बड़ा शहर होगा। इस नगर से आधा मील की दूरी पर भगवान महावीर स्वामी का एक भव्य मन्दिर है, जिसके चारों ओर एक पक्का कोट बना हुआ है और इसके भीतरो दैलान में बड़ा मजबूत तलघर है। यह तलघर बहुत ही प्राचीन प्रतीत होता है।
इस अति प्राचीन मन्दिर का निर्माण तथा प्रतिष्ठा श्री रत्नप्रभाचार्य द्वारा हुई है, जैसा कि कल्पद्रुमकलिका टीका के स्वविरावली अधिकार में लिखा है,
" उपकेश वंश गच्छे श्रीरत्न प्रभु सूरिः येन उसियनगरे कोरंटनगरे च समकालं प्रतिष्ठा कृता रूप ब्दय कारणेन चमत्कारश्च दर्शितः"
__ अर्थात् उपकेश वंश गच्छीय श्रीरत्न प्रभाचार्य हुए जिन्होंने ओसियां और कोरंटक (ोरटा) नगर में एक ही लग्न से प्रतिष्ठा की, और दो रूप करके चमत्कार दिखलाया।
____धाराधिपति सुप्रख्यात महाराजा भोज की सभा के नो रत्नों में पंडित धनपाल नाम के एक सज्जन थे। वि० सं० २०८१ के आस पास उन्होंने 'सत्यपुरीय श्री महावीर उत्साह' नामक प्राकृत भाषा में एक अन्य बनाया था। उसकी तेरहवीं गाथा के प्रथम चरण में 'कोरिट-सिरिमाल-धार-आहुडनराणउ' आदि पद हैं जिनमें अन्य तीर्थों के साथ साथ कोरटा तीर्थ का भी उल्लेख है। इससे यह पाया जाता है कि ग्यारहवीं शताब्दी में इस तीर्थ स्थान का अस्तित्व था। तपेगच्छ के मुनि सोमसुन्दरसूरि के समकालीन कवि मेघ ने संवत् १४९९ में तीर्थमाला नामक एक ग्रन्थ रचा जिसमें "कोरट" नामक तीर्थ का उल्लेख है ! कवि शील विजयजी ने संवत् १४४६ में तीर्थ माला पर एक दूसरा ग्रन्थ बनाया जिसमें भी इस तीर्थ स्थान का विवेचन किया गया है ।
इससे यह जान पड़ता है कि ग्यारहवीं शताब्दी से लगाकर अठारहवीं शताब्दी तक यहाँ अनेक साधु, साध्वी, श्रावक तथा श्राविकाएँ यात्रा के लिए आते थे और यह स्थान उस समय में भी तीर्थ स्वरूप माना जाता था। कहने का अर्थ यह है कि यह तीर्थ प्राचीन है और इसका निर्माण, पुनरुद्धार आदि सब कार्य ओसवालों के द्वारा हुए हैं।
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श्री फाकाँपुरी तीर्थ
जैनियों के चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर आज से लगभग २४६० वर्ष पूर्व इस परम पवित्र पावापुरी नगरी में निर्वाण को प्राप्त हुए थे। इसलिये यह स्थान जैनियों का महा पवित्र तीर्थस्थान माना जाता है। यद्यपि इस तीर्थ स्थान को स्थापना ओसवालों की उत्पत्ति के पहले * हो चुकी थी। पर कोई एक हजार वर्ष के पूर्व से इस तीर्थ स्थान का सारा कारोबार श्वेताम्बर मूर्ति पूजक ओसवालों के हाथ में रहता आया है। वे ही इस पवित्र पावापुरी तीर्थ की रक्षा व देख रेख बरावर करते आ रहे हैं। इतना ही नहीं वहाँ पर जितने मंदिर और धर्मशालाएँ हैं उनमें एक भाध को छोड़कर प्रायः सब की प्रतिष्ठा व पुनरूद्वार ओसवालों ने ही करवाये हैं। अब हम श्री पावापुरीजी के विभिन्न जैन मंदिरों का कुछ ऐतहासिक विवेचन करना चाहते हैं जिससे पाठकों को हमारे उक्त कथन की सवाई प्रगट हो जाय। गांवमदिर
यह मंदिर पाँच भव्य शिखरों से सुशोभित है। विक्रम संवत् १६९८ की वैसाख सुदी पंचमी सोमवार को खरतरगच्छाचार्य श्री जिनराजसूरिजी की अध्यक्षता में बिहार के श्रीश्वेताम्बर श्री संघ ने इस मंदिर की प्रतिष्ठा कराई थी। उस समय कमल लाभोपाध्याय एवं पं० लब्धकीर्ति आदि कई विद्वान साधुओं की मण्डली उपस्थित थी कि जिनका उक्त मंदिर में लगी हुई प्रशस्ति में उल्लेख मिलता है। मंदिर की यह प्रशस्ति श्याम रंग की शिला पर बड़े ही सुन्दर अक्षरों में खुदी हुई है। इस प्रशस्ति की लम्बाई १३ फूट और चौड़ाई । फूट है। सुप्रख्यात पुरातत्व विद् बाबू पूरणचन्द नाहर एम० ए० बी० एल ने इस प्रशस्ति का पुनरुद्धार किया और अपने जैन लेख संग्रह भाग प्रथम के पृष्ठ ४६ में उसे प्रकाशित किया । इसके बाद भाप ही ने उक्त प्रशस्ति की शिला को बड़ी सावधानी के साथ वेदी से निकलवा कर मंदिर की दीवार पर स्थापित कर दी।
मूल मंदिर के मध्य भाग में मूलनायक श्री महावीरस्वामी की पाषाण मय मनोज्ञ मूर्ति विराजमान है, दाहिने तरफ श्री आदिनाथ की एवं बाई तरफ श्री शांतिनाथ की श्वेत पाषाण की मूर्तियाँ हैं। इसके अतिरिक्त वहाँ कई धातु की पंच तीथियाँ और छोटी २ मूर्तियाँ खखी हुई हैं। मूल वेदी के दाहिने
* जिस समय इस तीर्थस्थान की उत्पत्ति हुई उस समय जैनियों में आज की तरह कोई भेद नहीं थे।
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
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श्री पाँवापुरीजी का मन्दिर
(श्री बा० पूरणचन्द्रजी नाहर के सौजन्य से)
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धार्मिक क्षेत्र में श्रोसवाल जाति
तरफ की वेदी में संवत् १६४५ को वैशाख शुक्ला ३ गुरुवार का प्रतिष्ठित एक विशाल चरणयुग भी विराज. मान है । मूल गभारे के दक्षिण की दीवाल के एक आले में संवत् १७७२ को माह सुदी १३ सोमवार की प्रतिष्ठित श्री पुण्डरीक गणधर की चरण पादुका है तथा मूल वेदी के बाई तरफ की बेदी पर श्री वीर भगवान के ११ गणवरों की चरण पादुका खुदो हुई हैं। यह चरण पादुका मंदिर के साथ संवत् १६९२ से प्रतिष्टित है, और इसी वेदीपर संवत् १९१० की श्री महेन्द्रसूरि द्वारा प्रतिष्ठित श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण की पीले पाषाण की सुन्दर मूर्ति रक्खी हुई है। मूल मंदिर के बीच में वेदीपर एक अति भन्न चरण पादुका विराजमान है जिस पर १६९८ का लेख है।
मंदिर के चारों कोनों में चार शिखर के अधो भाग की चारों कोठरियों में कई चरण और मूर्तियाँ हैं। इन पर के जिन लेखों के सम्बत् पढ़े जाते हैं, उन सबों की प्रतिष्ठा का समय विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी से वर्तमान शताब्दी तक पाया जाता है । इन मूर्तियों के अतिरिक्त उक्त मंदिर में दिकपाल, (भैरव) शासन देवी आदि भी विराजमान हैं। प्राचीन मंदिर का सभा मण्डप संकुचित था। उसे अजीमगंज के सुप्रसिद्ध ओसवाल जमींदार बाबू निर्मल कुमारसिंहजी नौलखा ने विशाल बनवा दिया है।
जलमन्दिर
-- यह बड़ा ही भव्य मंदिर है। कई विद्वान यात्रियों ने अपने प्रवास वर्णन में इसके आस-पास के नयन मनोहर दृश्यों का बड़ा सुन्दर विवेचन किया है । वर्षाऋतु के प्रारंभ में जब जल से लबालब भरे हुए इस सरोवर में कमलों का विकास होता है उस समय वहाँ का दृश्य एक अनुपम शोभा को धारण करता है। यदि कोई भावुक अपनी शुद्ध भावना और आत्म चितवन के लिये इस जलमंदिर में जाकर अनंत के साथ तन्मय हो जाय, तो वह इस दुखमय संसार की अशांति को भूल जाता है। यह मंदिर एक सुन्दर सरोवर के बीच में बना हुआ है। उस सरोवर में सुन्दर कमल खिले हुए हैं और मत्स्यगण बड़ी निर्भयता से उसमें विचरण करते हैं।
इस मंदिर में यद्यपि कोई शिखर नहीं है पर उसका गुम्मज बहुत दूर २ तक दिखाई पड़ता है। मंदिर के भीतर कलकत्ता निवासी सेठ जीवनदासजी ओसवाल की बनाई हुई मकराणे की सुन्दर तीन वेदियाँ है। बीच की वेदी में श्री वीरप्रभु की प्राचीन छोटी चरण पादुका विराजमान है। इस चरण पट्ट पर कोई लेख दिखलाई नहीं पड़ता। ये चरण भी अति प्राचीन होने की वजह से घिस गये हैं। इस वेदी पर श्री महावीरस्वामी की एक धातु की मूर्ति रक्खी हुई है, जिसकी संवत् १२६० में आचार्य श्री अभयदेव
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ओसवाल जाति का इतिहास सूरि ने प्रतिष्ठा की थी । दाहिनी वेदी पर श्री महावीर स्वामी के प्रथम गणधर श्री गौतमस्वामी की, और बाई पर पंचम गणधर श्री सुधर्म स्वामी की चरण पादुकाएँ विराजमान हैं।
मंदिर के बाहर दोनों तरफ दो क्षेत्रपाल की मूर्तियाँ हैं। तथा नीचे की प्रथम प्रदक्षिणा में एक और ब्राह्मी, चन्दनादि सोलह सतियों का विशाल चरण पट और दूसरी ओर जैन मुनि श्री दीपविजयजी गणि की पादुका अवस्थित है । बाहर की प्रदक्षिणा में श्री जिनकुशलसूरिजी की पादुका है। मंदिर की उत्तर दिशा में सरोवर में उतरने के लिये सीढ़ियाँ बनी हुई हैं।
श्री समवसरणजी
श्री पावापुरी ग्राम के पूर्व की भोर सुन्दर आन उद्यान के पास एक छोटा सा स्तूप बना हुभा है। कहा जाता है कि इस स्थान में भगवान महावीर का प्रचीन समवशरण था। यह स्थान थोड़ी दूरी पर होने के कारण श्वेताम्बर श्रीसंघ ने सरोवर के तट पर ही समवशरणजी की रचना की है तथा वहीं मन्दिर बनवाये हैं । गोलाकार हाते के चारों ओर रेलिंग लगी हुई है और भूमि से प्राकारमय का भाव दर्शाते हुए बीच में एक अष्टकोण सुंदराकृति मंदिर बना हुआ है । सम्वत् १९५३ में विहार निवासी बाबू गोविन्दचन्दजी सुचंती ने श्वेताम्बर श्रीसंघ की ओर से इसकी प्रतिष्ठा करवाई थी। उक्त मंदिर के बीच में एक चतुष्कोन वेदी है जिस पर संवत् १६४५ की वैसाख शुक्लपक्ष ५ का प्रतिष्ठित श्री वीरप्रभु का चरण युगल है। इस समवशरणजी के मन्दिर के समीप पश्चिम दिशा में सुप्रसिद्ध पुरातत्व बाबू पूरणचन्द्रजी नाहर की स्वर्गीय मातेश्वरी श्रीमती गुलाब कुमारी की दुमंजली धर्मशाला है । इसके उत्तर की तरफ रायबहादुर बुधसिंहजी दुधोरिया की धर्मशाला है। बाई महताब कुंअर का मंदिर
यह मन्दिर श्री महावीर स्वामी का है। इसकी मूलवेदी पर श्री महावीर स्वामी की मूर्ति के के साथ और कई पाषाण व धातु की मूर्तियाँ है। कहा जाता है कि अजीमगंज निवासी श्रीमती महताब कुंअर बाई ने अपनी देख रेख में यह मन्दिर बनवाया और संवत् १९३२ में उसकी प्रतिष्ठा करवाई।
___ श्रीपावापुरीजी का तीर्थ बड़े ही रम्य स्थान में है। पहां पर जाते ही हृदय में अनुपम शान्ति का पवित्र अनुभव होने लगता है। भगवान महावीर को निर्वाण तिथि पर यहाँ एक धार्मिक मेला लगता है जिसमें दूर २ से सैकड़ों हजारों यात्री आते हैं। इस मेले के प्रसंग पर आस पास के गांवों के अतिरिक्त दूर २ से कुष्टादि रोगों से पीड़ित, चक्षु विहीन तथा अन्य व्याधियों से ग्रसित हजारों लोग आते
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
श्रीशान्निनाथ मन्दिर जैसलमेर के शिखर का दृश्य (श्री बा० पूरणचन्द्रजी नाहर के सौजन्य से)
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धार्मिक क्षेत्र में श्रीसवाल नाति
हैं। इन लोगों के ठहरने के लिये बाबू पूर्णचन्द्रजी नाहर की स्वर्गीया पत्नी श्रीमती कुन्दन कुमारी की स्मृति में एक दीनशाला बनवाई गई है, जिसका उद्घाटन कुछ वर्ष पूर्व आगरा के सुप्रसिद्ध देशभक्त श्रीयुत चांदमलजी वकील के कर कमलों द्वारा हुआ। आज कल इसी दीनशाला में पटना डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की तरफ से एक आयुर्वेद चिकित्सालय भी खोला गया है जहाँ से रोगियों को बिना मूल्य औषधि दी जाती है। पांवापुरी में भगवान् महावीर के निर्वाणोत्सव पर कार्त्तिक शुक्ल प्रतिपदा को बड़े धूम धाम से रथोत्सव मनाया जाता है।
चम्पापुरी
पाठक जानते हैं कि चम्पापुरी जैनियों का महा पवित्र और प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। जैन शास्त्रों
के अनुसार यहाँ पर इनके बारहवें तीर्थंकर श्री वासुपूज्य स्वामी के पंच कल्याणक हुए हैं। इसके अति-रिक और भी कई दृष्टि से यह स्थान महत्व पूर्ण है । राजगृह के सुप्रसिद्ध श्रेणिक राजा का बेटा कोणिक, जिसे अजातशत्रु व अशोकचन्द्र भी कहते हैं, राजगृह से अपनी राजधानी उठाकर वहाँ लाया था। जैन शास्त्रों में कथित सुभद्रासती भी इसी नगर की रहनेवाली थी । भगवान महावीर ने यहाँ तीन चौमासे किये थे । उनके मुख्य श्रावकों में से कामदेव नामक श्रावक यहाँ का निवासी था । जैनागम के प्रसिद्ध दश वैकालिक सूत्र भी श्री शथंग्भयसूरि महाराज ने इसी नगर में रचा था। जैनियों के बारहवें तीर्थकर श्री वासु पुज्य स्वामी का व्यवन, जन्म, दीक्षा, केवल-विज्ञान और मोक्ष आदि पाँच कल्याणक इसी नगर में हुए । इस कारण यह स्थान बड़ा पवित्र समझा जाता है ।
-इस महा पवित्र तीर्थ स्थान में भी धार्मिक ओसवालों ने कई मन्दिर तथा बिम्व बनवाये तथा कई चरणपादुकाओं की स्थापना कीं । इस सम्बन्ध के पत्थरों पर खुदे हुए कई लेख वहाँ पर मौजूद हैं। संवत् १६६८ में मुर्शिदाबाद के प्रसिद्ध जगत सेठ के पूर्वज साह हीरानंदजी ने १५ वे तीर्थङ्कर श्री धर्मनाथ स्वामी का बिम्ब स्थापित किया जिसकी प्रतिष्ठा श्री जिनचन्द्रसूरि ने को । संवत् १८२८ के बैसाख सुद ११ को तपेगच्छ के आचार्य श्री वीर विजयसूरि ने श्री वासु पूज्य स्वामी के बिम्ब की प्रतिष्ठां की । संवत् १८५६ की वैसाख मास की शुक्लपक्ष की तृतीया को तीर्थाधिराज चम्पापुरी में श्री वासुपूज्य स्वामी का जिन विम्ब श्री वेताम्बर संघ की ओर से गणचन्द्र कुलालंकार ने स्थापति किया जिसकी प्रतिज्ञा श्री सर्व सूरि महाराज ने की । संवत् १८५६ के वैसाख मास के शुक्लपक्ष की तीज को श्री अर्ज सनाथ स्वामी के बिम्ब की प्रतिष्ठा की गई । इसके प्रतिष्टाचार्य्य श्री जियचन्द्र सूरि थे । इसी दिन बीकानेर निवासी कोठारी अनूपचन्द के पुत्र जेठमल ने श्री चन्द्रप्रभू के जिन बिम्ब की खरतर गच्छचार्य्य श्री जिनचन्द्र सूरि के द्वारा प्रतिष्ठा करवाई ।
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मेसिवाल जाति का इतिहास
संवत् १८५६ की वैसाख सुदी ३ को खरतर गच्छाधिराज श्री जिनलाभसूरि पट्टलिकार ने समस्त श्री संघ के श्रेय के लिये श्री शांतिनाथ जिन बिम्ब की प्रतिष्ठा की। इसीदिन श्री जिनचन्द्ररि द्वारा वासुपूज्य स्वामी को बिम्ब-प्रतिष्ठा कराई गई। प्रतिष्ठा का प्रबन्ध कराने वाले ओसवाल समाज के गोलेछा गौत्र के कोई सज्जन थे। इस प्रकार इसी तारीख को भगवान विमलनाथ और जिनकुशलरि की पादुकाओं की प्रतिष्ठा की गई।
इस प्रकार और भी विभिन्न तीर्थकरों के बिम्ब और पादुका की प्रतिष्ठा कराये जाने के उल्लेख वहाँ के पत्थर पर खुदे हुए लेखों में पाये जाते हैं। इनमें प्रतिष्ठाचार्य जैन श्वेताम्बर आचार्य थे और प्रतिष्ठा के लिये धन व्यय करने वाले ओसवाल धनिक थे। इन लेखों में दूगड़ सरूपचन्द, करमचन्द, हुलासचन्द, प्रतापसिंह, राय लक्ष्मीपतसिंह वहादुर, राय धनपतसिंह बहादुर तथा कुछ ओसवाल महिलाओं के नाम हैं, जिन्होंने उक्त बिम्बों की प्रतिष्ठा करवाने में सब से अधिक भाग लिया था। बिम्बों के अतिरिक्त यहाँ की धातु की प्रतिमाओं पर भी कई लेख हैं। संवत् १५०९ के ज्येष्ठ सुदी में साहस नामक एक जैन ओसवाल श्रावक ने श्री नेमिनाथ स्वामी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाई । संवत् १५५१ में ओसवाल वंश के सिंघाड़िया गौत्र के शाह चम्पा, शाह पूजा, शाह काजा, शाह राजा, धन्ना आदि ने श्री आदिनाथ भगवान की मूर्ति की प्रतिष्ठा पूज्य श्री जिनहर्षसूरि द्वारा करवाई। इस प्रकार यहाँ की मूर्तियों पर और भी कई ओसवाल सज्जनों के नामों का उल्लेख मिलता है। यहाँ के कई मन्दिर भी ओसवाल सज्जनों के बनाये हुए तथा प्रतिष्ठित किये हुए हैं। कहने का अर्थ यह है कि चम्पापुरी के महा तीर्थ राज पर भी सवाल महानुभावों के जैन धर्म प्रेम के चिह्न स्थान २ पर दृष्टि गोचर होते हैं।
मगध देश में राजगृह (राजगिरी ) अत्यन्त प्राचीन नगर है। बीसवें तीर्थकर श्री मुनि वृत्त स्वामी का यह जन्म स्थान बतलाया जाता है। इतना ही नहीं, उक्त तीर्थकर ने यहीं दीक्षा ली थी और यहीं पर वे मोक्ष गामी हुए थे। बाइसवें तीर्थकर श्री नेमिनाथ के समय में यह जरासंध की राजधानी थी। चोबीसवें तीर्थकर श्री महावीर स्वामी के समय में भी यह नगर संस्कृति और समृद्धि के ऊँचे शिखर पर चढ़ा हुआ था। भगवान बुद्धदेव की भी यह लीला भूमि थी। प्रसेनजित, उनके पुत्र श्रेणिक तथा श्रेणिक पुत्र कोणिक यहाँ के राजा थे। भगवान महावीर स्वामी ने यहाँ पर चौदह चौमासे किये। जम्बू स्वामी, धन्नासेठ तथा शालिभद्रजी आदि बड़े २ विख्यात् पुरुष यहाँ के निवासी थे। यह स्थान बहुत ही रमणीक और नयन मनोहर है। यहाँ पर जो पहाद हैं उनके नीचे ब्रह्म कुण्ड, सूर्यकुण्ड
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सवाल जाति का इतिहास
श्रीचन्द्रप्रभु और ऋषभदेवजी का मन्दिर, जैसलमेर (श्री बा० पूरणचन्द्रजी नाहर के सौजन्य से
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पार्मिक क्षेत्र में प्रोसवाल जाति
मादि कई उष्ण कुण्ड है। इसके अतिरिक्त पहाँ विपुलगिरी, रत्नागिरी, उदयगिरी, स्वर्णगिरी और वैभारगिरी नामक कई पर्वतमालाएँ हैं। इन पर्वतों पर बहुत से जैन मन्दिर बने हुए हैं। बहुत सी मूर्तियां व चरण इधर उधर विराजमान हैं।
___यहाँ के पत्थर पर खुदे हुए विभिन्न लेखों के पढ़ने से ज्ञात होता है कि इस तीर्थ स्थान पर ओसवाल सज्जनों के बनाये हुए कई मन्दिर, प्रतिष्ठा करवाई हुई कई मूर्तियाँ, बिम्ब तथा चरण पादुका भी हैं। इन लेखों में बच्छराजजी, पहसजजी धर्मसिंहजी, बुलाकीदासजी, फतेचन्दजी, जगत सेठ के महल ताबचन्दजी आदि ओसवाल महानुमायों के नाम मिलते हैं । कुण्डलपुर
इस नगर का आधुनिक नाम बदगांव है। जैन शास्त्रों में इस नगर का कई जगह उल्लेख भाया है। भगवान महावीर स्वामी के प्रथम गणधर श्री गोतमस्वामी का यह जन्मस्थान है। नालंद का सुप्रख्यात बौद्ध विश्वविद्यालय इसी के निकट था। इसके चारों तरफ प्राचीन कीर्तियों के चिह विद्यमान हैं। सरकार के पुरातत्व विभाग की ओर से भी इसकी खुदाई हो रही है। आशा है यहां बहुत से महत्व के निशान मिलेंगे। यहां का सब से पुराना शिला लेख संवत् १४. का है। संवत् १६८६ के वैसाख सुदी १५ का एक दूसरा पाषाग पर खदा हुमा लेख है जिससे मालुम होता है कि चोपड़ा गौत्र के ठाकुर विमलदास के पौत्र ठाकुर गोवर्धनदास ने यहाँ गौतम स्वामी के चरणों को प्रतिष्ठित करवाया। इस प्रकार के यहाँ पर और भी लेख हैं। पटना ( पाटलिपुत्र )
हम ऊपर लिख चुके हैं कि राजगृह के राजा श्रेणिक ने चम्पानगरी को अपनी राजधानी बनायो था। कोणिक के पुत्र राजा उदई ने पाटलिपुत्र नामक नवीन नगर बसा कर उसे अपनी राजधानी बनाई। इसके पश्चात् यहां पर नवनन्द, सम्राट चन्द्रगुप्त, सम्राट अशोक आदि बड़े । साम्राज्याधिकारी नृपति हो गये। चाणक्य, उमास्वामी, भद्रबाहु, महागिरी, सहस्थि, वन स्वामी सरीखे महान् पुरुषों ने भी इसी नगर की शोभा को बढ़ाया था । आचार्य श्री स्थूलभद्र स्वामी और सेठ सुदर्शनजी का भी यही स्थान है। यहां का जैन मन्दिर बहुत जीर्ण हो गया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह मन्दिर बोसवालों का बनाया आ है।
यहां धातुओं की मूर्तियों पर कई लेख खुदे हुए है। इनमें पहला लेख संवत् १४८६ की बैसाख
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श्रीसबाल माति का इतिहास
सुदी ७ सोमवार का है । उसमें ओसवाल समाज के दूगड़ गौत्र के शाह उदयसिंह, मूला शाह, शहानगराज आदि नामों के उल्लेख हैं। दूसरा लेख संवत् १४९२ का है जिसमें ओसवाल समाज के कांकरिया गौत्र के शाह सोहड़ और उनकी भार्य्या हीरादेवी द्वारा श्री आदिनाथ बिम्व की प्रतिष्ठा करवाये जाने का उल्लेख है । तीसरा लेख संवत् १५०८ का है इस लेख में ओसवाल बंश के शाह खेता डूंगरसिंह द्वारा - श्री धर्मनाथ भगवान की बिम्ब प्रतिष्ठा करवाने का उल्लेख है। इस प्रकार यहां पर कई लेख हैं जिनमें ओसवाल सज्जनों के नामों का जगह २ पर उल्लेख किया गया 1
श्री सम्मेदशिखरजी
जैनियों का यह अत्यंत प्रख्यात तीर्थ स्थान है। क्योंकि इस महान् तीर्थराज पर उनके बीस तीर्थकर निर्वाण पद को प्राप्त हुए हैं। इस पवित्र पहाड़ के बीस टोंक में से उन्नीस टोंक पर छत्रियों में चरण पादुका विराजमान है और श्री पार्श्वनाथ स्वामी भी टोंक पर मन्दिर है। और धर्मशाला बने हुए हैं। यहां से चार कोस पर ऋजुबालुका नदी बहती है भगवान् को केवलज्ञान हुआ था । यहाँ पर चरण पादुका 1
तलैटी के मधुवन में मंदिर जिसके समीप में श्री वीर
इस नदी के तट पर की छतरी पर संवत् १९३० की वैसाख शुक्ल १० का एक लेख है जिससे ज्ञात होता है कि मुर्शिदाबाद निवासी प्रतापसिंहजी और उनकी भार्य्या महताव कुँवर तथा उनके पुत्र लक्ष्मीपतसिंह बहादुर और उनके छोटे भाई धनपतसिंह बहादुर ने उक्त छतरी का जीर्णोद्धार करवाया । इसी प्रकार यहां पर तथा टोंको पर बीसों लेख हैं जिनमें ओसबाल सज्जनों के पुनरुद्धार तथा प्रतिष्ठा आदि कायों के उल्लेख हैं । यहां पर ओसवाल समाज की तरफ से बड़ी २ धर्मशालाएँ बनी हुई हैं और तीर्थ स्थान का सारा प्रबन्ध ओसवालों के हाथ में है ।
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कलकत्ते का जैन मन्दिर यह जैन मंदिर नगर के उत्तर में मानिकतला स्ट्रीट में है। यहाँ पर सक्युलर रोड से आसानी से पहुंचा जा सकता है। वास्तव में यहाँ तीन मन्दिर हैं, जिनमें मुख्य मन्दिर जैनियों के दशवें तीर्थकर शीतलनाथजी का है। ये मन्दिर राय बद्रीदास बहादुर जौहरी द्वारा सन् . १८६७ ई० में बनवाये गये थे।
टेम्पल स्ट्रीट के द्वार से घुसते ही बड़ा सुन्दर दृश्य सामने आता है । स्वर्ग सदृश भूमि पर मनोहर मन्दिर बड़ा ही भव्य मालूम पड़ता है। भारत की जैन शिल्पकला का यह ज्वलंत उदाहरण है। मन्दिर के सामने संगमरमर की सीढ़ियाँ बनी हैं और इसके तीन ओर चित्ताकर्षक बरामदे बने हुए हैं। दीवारों पर रंग बिरंगे छोटे २ पत्थर के टुकड़े जड़े हुए हैं और दालान तथा छत इस खूबी से बनाये गये हैं कि उन पर से आँख हटाने को जी नहीं चाहता। शीशे और पत्थर का काम भी उतना ही नयनाभिराम है। छत के मध्य में एक बड़ा भारी फानूस टॅगा है। मंदिर के चारों तरफ सुन्दर बगीचा बना हुआ है। इसमें बदिया से बढ़िया फव्वारे, चबूतरे आदि बने हैं । बगीचे के उत्तर में शीशमहल है, जिसमें दीवाल, छत, फानूस, कुर्सियाँ इत्यादि सभी वस्तुएँ शीशे ही की हैं। इसके भीतर का भोजनागार सबसे अधिक देखने योग्य है। ये मन्दिर और बगीचा अवश्य ही किसी चतुर शिल्पी के कार्य हैं। अजएटा के जैन मन्दिर
भारत में ऐसा कौन इतहासज्ञ होगा कि जिसने अजण्टा की ऐतिहासिक गुफा का नाम न सुना हो। इस मन्दिर में अत्यन्त प्राचीन बौद्ध मंदिर तथा तत्सम्बन्धी अनेक ऐतिहासिक चित्र हैं। सैकड़ों वर्ष हो जाने पर आज भी उनकी सुन्दरता और रंग बराबर ज्यों के त्यों बने हुए हैं । इस गुफा में जैन मन्दिर भी थे, जो अभी भग्नावस्था में हैं। उनमें से एक का फोटो ईसवी सन् १८६६ में प्रकाशित “ Architecture ab Ahmadabad '' नामक ग्रन्थ में प्रकाशित हुआ है। यद्यपि इस मंदिर का शिखर नष्ट हो गया है पर जान पड़ता है कि वह बहुत बड़ा और मिश्र देश के सुप्रख्यात् पिरामिड के आकार का था। इस मन्दिर का मण्डप अति विशाल था। इसके खम्भों पर बड़ी ही सुन्दर कारीगरी का काम हो रहा है। यह मंदिर भाठवीं सदी का प्रतीत होता है।
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
स्वम्भात का पार्श्वनाथ का मन्दिर
खम्भात का प्राचीन नाम स्तम्भनपुर है । वहाँ पर पार्श्वनाथ का एक प्राचीन मन्दिर है । उस मंदिर की एक शिला पर एक लेख खुदा हुआ है, जिसे बड़ौदा की सेन्ट्रल लायब्ररी के संस्कृत-साहित्य-विभाग के निरीक्षक स्वर्गीय श्री चिम्मनलाल डायाभाई दलाल एम० ए० ने प्राप्त किया था । उक्त लेख का सारांश इस प्रकार है ।
संवत् १३६६ के साल में जब स्तम्भनपुर ( खम्भात ) में पृथ्वीतल को अपने पराक्रम से गुँजा देनेवाला अल्लाउद्दीन बादशाह का प्रतिनिधि अल्फखान राज्य करता था, उस समय जिन प्रबोधसूरि के शिष्य श्री जिनचन्द्रसूरि के उपदेश से उकेश ( ओसवाल ) वंशीय शाह जैसल नामक सुश्रावक ने पौषध शाला सहित अजितदेव तीर्थङ्कर का भव्य मंदिर बनवाया । शाह जैसल जैन धर्म का प्रभाविक श्रावक था । उसने बहुत 'से याचकों को विपुल दान देकर उनका दरिद्र नाश किया था। बड़े समारोह के साथ उसने शत्रुंजय, गिरनार आदि तीर्थों की संघ के साथ यात्रा की थी । उसने पट्टन में भगवान शाँतिनाथ का विधि-चैत्य और उसके साथ पौषधशाला बनवाई थी । उसके पिता का नाम शाह केशव था । उसने जैसलमेर में पार्श्वनाथ भगवान का सम्मेद शिखर नामक विधि-चैत्य बनवाया था ।
इसी खम्भात नगर में भगवान कुंथुनाथ का जैन मंदिर है । इसमें एक शिलालेख है, जिसमें कोई साल संवत् नहीं दिया गया । इस शिला लेख में १९ पद्य हैं। पहले पद्य में भगवान ऋषभदेव का स्तवन है। दूसरे और तीसरे में तेइसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति है। चौथे पद्य में सामान्य रूप से सब तोर्थङ्करों की प्रशंसा है। पांचवे और छटे पद्य में चौलुक्य वंश की उत्पत्ति का वर्णन है। सातवें और आठवें पद्य में उक्त वंश के अर्णेराज राजा की प्रशंसा है । और नोवें श्लोक में अर्णेराज की सुलक्षणा देवी नामक रानी का उल्लेख है । दसवें, ग्यारहवें तथा बारहवें पद्य में उनके पुत्र लवणप्रसाद का वर्णन है । तेरहवें श्लोक में उनकी स्त्री मदनदेवी का उल्लेख है। इसके बाद के चार पद्यों में उनके पराक्रमी पुत्र वीर का वर्णन है और अठारहवें श्लोक में उनकी रानी वैजलदेवी का नाम निर्देश किया गया है । उन्नीसवें काव्य में विसलदेव राजा के गुण वर्णित हैं ।
इसी खम्भात नगर में चिंतामणि पार्श्वनाथ का एक प्राचीन मंदिर है। उसमें एक जगह काले पत्थर पर एक लेख खुदा हुआ है जिसका सारांश सुप्रख्यात् पुरातत्वविद् मुनि जिनविजयजी ने इस प्रकार प्रगट किया है।
"प्रारंभ के चार श्लोकों में भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति की गई है। पांचवे श्लोक में संवत् 106
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ओसवाल जाति का इतिहास
अर्द्ध-पद्मासन मूर्ति
(श्रो बा० पूरणचन्द्रजी नाहर के सौजन्य से )
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धार्मिक क्षेत्र में श्रोसवाल-माति
११६५ की ज्येष्ठ बदी ७ सोमवार की मिती दी गई है। शायद यह मिती मंदिर के नीव डलवाने के समय की हो। छ: से १० श्लोक तक गुजरात के राज्यकर्त्ता चौलुक्य (चालुक्य ) वंश के आखिरी राजाओं की वंशावली दी गई है जो इतिहास में बघेल वंश के नाम से प्रसिद्ध है। इसके बाद अर्णेराज और उनके वंशजों का उल्लेख है।"
___ खम्भात नगर में इस प्रकार के और भी जैन मंदिर हैं और उनमें शिलालेख भी हैं। लेकिन उनका विशेष ऐतिहासिक महत्व न होने से यहां पर उन्हें हम देना ठीक नहीं समझते ।
क्षत्रिय कुंड
लछवाड़ ग्राम से : कोस दक्षिण पर एक छोटे से ग्राम में यह स्थान है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय वाले अपने चौबीसवें तीर्थकर श्री महावीर स्वामी का व्यवन, जन्म तथा दीक्षा ये तीन कल्याणक इसी स्थान पर मानते हैं। वहाँ के लोग इसे " जन्मस्थान" कह कर पुकारते हैं। पहाड़ की तलहटी में २ छोटे मंदिर हैं, उनमें श्री वीरप्रभू की श्यामवर्ण की पाषाण की मूर्तियाँ हैं। पहाड़ पर के मंदिर में भी श्याम पाषाण की मूर्तियाँ हैं। मंदिर के पास ही एक प्राचीन कुंड का चिन्ह वर्तमान है। इसकी पंचतीर्थी पर एक लेख संवत् १५५३ की महा सुदी ५ का खुदा हुआ है जिसमें बारलेचा गौत्र के किसी ओसवाल सज्जन द्वारा कुंथुनाथ का विम्ब स्थापित किये जाने का उल्लेख है।
अयोध्या के जैनमंदिर
यह अत्यंत प्राचीन नगरी है। जैन शास्त्रों में इसके महत्व का जहाँ तहाँ वर्णन किया गया है। जैनियों के प्रथम तीर्थङ्कर श्री ऋषभदेवजी के व्यवन, जन्म और दीक्षा ये तीन कल्याणक यहाँ हुए। दूसरे तीर्थङ्कर श्री अजितनाथजी, चतुर्थ तीर्थकर श्री अभिनंदनजी, पाँचवें तीर्थकर श्री सुमतिनाथजी तथा चौदहवें तीर्थकर श्री अनन्तनाथजी के च्यवन जन्म दीक्षा और केवल-ज्ञान ये चार कल्याणक इसी नगरी में हुए थे। श्री महावीर स्वामी के नवें गणधर श्री अचल भ्राता इसी अयोध्या नगरी के रहने वाले थे। रघुकुल तिलक श्री रामचन्द्रजी तथा लक्ष्मणजी इसी नगरी के राजा थे।
इस नगरी में श्री अजितनाथजी के मंदिर की पाषाण मूर्तियों पर कई लेख खुदे हुए हैं। उनमें बहुत से तो नवीन हैं, और कुछ पंद्रहवीं सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी के हैं। पंचतीर्थियों पर खुदा हुआ लेख संवत् १४९५ की मार्ग बदी ४ गुरुवार का है। इससे यह ज्ञात होता है कि ओसवालजाति के सुचिंती
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
(संचेती ) गौत्र के साहा भीकू के पुत्र साहा नान्हा ने अपने माता पिता के श्रेय के लिये श्री शांतिनाथ का विम्ब स्थापित किया और उपकेश गच्छ के ककूदाचार्य ने उसकी प्रतिष्ठा की। नवराई का जैनमंदिर
यह स्थान फैजाबाद से १० मील और सोहावल स्टेशन से अंदाज २ मील पर बसा हुआ है। यह प्राचीन तीर्थ · रत्नपुरी' कहलाता है। यहाँ पंद्रहवें तीर्थकर श्री धर्मनाथस्वामी का च्यवन, जन्म दीक्षा तथा केवल ज्ञान ये चार कल्याणक हुए हैं। यहाँ की पंचतीर्थयों और पाषण के चरणों व धातु तथा पाषण की मूर्तियों पर कुछ लेख खुदे हुए हैं। इनमें पुराने लेखों की संख्या बहुत कम है। एक लेख संवत् १५१२ की माघ सुदी ५ का है, जिसमें श्री सिद्धसूरि द्वारा श्री सुविधिनाथ के बिम्ब के प्रतिष्ठित किये जाने का उल्लेख है। दूसरा लेख १५६७ की वेशाख सुदी १० बुधवार का है जिसमें ओस. वाल जाति के हासा नामक एक सज्जन द्वारा श्री पार्श्वनाथ भगवान के बिम्ब के स्थापित किये जाने का उल्लेख है। तीसरा लेख सम्वत् १६१७ की जेठ सुदी ५ का है। इसमें ओसवाल जाति के साः अमरसी के पौत्र कहाना के द्वारा पद्मप्रभुनाथ का बिम्ब स्थापित किये जाने का वर्णन है और प्रतिष्ठाचार्य के स्थान मैं तपाच्छ के श्री विजयदानसूरि का नाम दिया है । चन्द्रावती का जैन मंदिर
यह तीर्थ बनारस से ७ कोस पर गंगा किनारे अवस्थित है। जैन ग्रन्थों में लिखा है कि आठवें तीर्थकर श्री चन्द्रप्रभू स्वामी का च्यवन, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान इसी नगरी में हुए। दुःख है कि इसमें जितने शिलालेख हैं वे सब नवीन हैं उन्नीसवीं सदी के पहले का कोई शिलालेख यहाँ नहीं मिलता।
मधुवन
यह स्थान बिहार में है तथा जैन शास्त्रों में स्थान-स्थान पर इसका उल्लेख आया है। यहाँ के जैन श्वेताम्बर मन्दिर की पंच तीर्थियों पर कई लेख खुदे हुए हैं। एक लेख संवत् १२१० की आषाढ़ सुदी ९ का है। यह लेख खंडित होने से पूरा नहीं पढ़ा गया। दूसरा लेख संवत् १२३५ की वैशाख सुदी ३ बुधवार का है । इसमें श्री पूर्ण भद्र सूरि के द्वारा श्रीपार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमाके प्रतिष्ठित किये जाने का उल्लेख है। तीसरा लेख संवत् १२४२ की वैशाख सुदी ४ का है, जिसमें श्री जिनदेव सूरि
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
श्री आबू मन्दिर की कोराईका दृश्य
(श्री बा० पूरणचन्द्रजी नाहर के सौजन्य से)
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धार्मिक क्षेत्र में श्रोसवाल जाति
का उल्लेख है। चौथा लेख संवत् १४९६ की जेठ सुदी १० बुधवार का है जिसमें श्रीमाल जाति के सेठ करमसी तथा उनकी भार्या मटकू के पुत्र द्वारा अपने कुल के श्रेय के लिए श्री कुथुनाथ का बिम्ब प्रतिष्ठित किये जाने का उल्लेख है। पाँचवा लेख संवत् १५५३ की वैशाख सुदी १ शुक्रवार का है इसमें ओसवाल वंशीय साः पनरवद और उनकी भार्थ्या मानू के पुत्र साः वदा के पुत्र कुंवरपाल, सोनपाल के द्वारा श्री वासु पूज्य बिम्ब प्रस्थापित किये जाने का उल्लेख है। प्रतिष्ठाचार्य खरतर गच्छ नायक श्री जिनसमुद्र सूरि थे। छठा लेख संवत् १५७० की माघ वदी १३ वुधवार का है। इसमें लिखा है कि ओसवाल वंशीय सुराणा गौत्र के साः केशव के पौत्र पृथ्वी मल ने महाराज करमसी धरमसी के सहयोग में श्री अजितनाथ भगवान के बिम्ब को बनवाकर माता पिता के पुण्य के अर्थ प्रतिष्ठित करवाया। इसके प्रतिष्ठा-चार्य श्री धर्मघोष गच्छ के भट्टारक श्री नंदवद्धन सूरि थे। यहाँ की चौबीसी पर भी कुछ लेख खुदे हैं, जिनमें पहिला लेख संवत् १२२० तथा दूसरा लेख संवत् १५०७ का है। श्री आदिनाथ की धातु प्रतिमा
यह प्राचीन मूर्ति भारत के वायव्य प्रांत से बाधू पूरणचन्द्रजी नाहर को प्राप्त हुई है। यह मूर्ति पद्मासन लमा कर बैठी हुई है और इसके आस पास की मूर्तियां कायोत्सर्ग के रूप में खड़ी हैं। सिंहासन के नीचे नवग्रहों के चित्र और वृषभ युगल हैं । इससे यह मूर्ति बड़ी सुन्दर और मनोज्ञ हो गई है। अभी तक|जो सब से अधिक प्राचीन जैन मूर्तियां मिली हैं उनमें से यह एक है। इस मूर्ति के पीछे जो लेख खुदा हुआ है वह इस प्रकार है।
‘पजक सुत अम्बदेवेन ॥ सं० १०७७ ॥' इससे यह मालूम होता है कि यह मूर्ति संवत् १०७७ के साल की है। आठवीं सदी की जैन मूर्ति
उदयपुर के पास के एक गांव से बाबू पूरणचन्द को एक जैन मूर्ति मिली थी। वह मूर्ति अभी तक उनके पास है। इस मूर्ति के ऊपर कर्नाटकी लिपि में एक लेख खुदा हुआ है। वह इस प्रकार है।
'श्री जिनवलभन सजन भजीय वय मडिसिदं प्रतीमः, श्री जिन बल्लभन सज्जन चेटिय भय मडिसिद प्रति में
इस मूर्ति के नीचे नवग्रहों के चित्र हैं और सिर पर तीन छत्र और शासन देव तथा देवी है।
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
सुप्रख्यात् पुरातत्वविद् रायबहादुर महामहोपाध्याय पं. गौरीशङ्करजी ओझा के मतानुसार यह मूर्ति आठवीं सदी की है। हस्तिकुण्डी के जैन मन्दिरों के लेख
- हस्तीकुण्डी मारवाड़ के गोड़वाड़ प्रांत में अत्यन्त प्राचीन स्थान है। यहां के एक जैन मन्दिर में बहुत ही प्राचीन शिलालेख है। उन्हें जोधपुर निवासी पण्डित रामकरणजी ने 'एपिग्राफिया इण्डिका' के दसवे भाग में प्रकाशित किये हैं।
ये शिलालेख पहले पहल केप्टन बर्क को मिले थे। इसके बाद वह बीजापुर की एक जैन धर्मशाला में भेज दिये गये। इसके बाद वह अजमेर के म्युजियम में लाये गये ।
प्रथम लेख में सब मिल कर ३२ पंक्तियां है। इसका कुछ भाग घिसा हुआ है और कुछ अक्षर मिट गये हैं। इसको लिपि नागरी है। प्रोफेसर किलहान ने प्रगट किया है कि यह लिपि विक्रम सम्वत् १०४० के विग्रह राज वाले लेख से मिलती जुलती है। भाषा पद्यात्मक संस्कृत है। एक ही शिलालेख में दो जुदे-जुदे लेख खुदे हुए हैं। पहला लेख १० पर्यों में समाप्त हुआ है और वह वि० सं० १०५३ का है और दूसरा लेख २१ पद्यों का है। वह संवत् ९९६ का है। पहले लेख में २१ पंक्तियां और दूसरे में १० पंक्तियां है। पहले लेख को रचना सूर्याचार्य नामक किसी जैन साधु ने की है। इसके प्रारम्भ के दो काव्यों में जिन देव की स्तुति की है। तीसरे काव्य में राजवंश का वर्णन है। पर दुर्भाग्य से उनका नाम घिस जाने से पढ़ा नहीं जाता। चौथे काव्य में राजा हरिवर्मा का और पाँचवें में विदग्धराज का वर्णन है। विदग्धराज, जैसा कि शिलालेख के दूसरे भागों में कहा गया है, राष्ट्रकूट वंश का था। छठे पद्य में वासुदेव नामक आचार्य के उपदेश से हस्ती कुण्डी में विदग्धराज द्वारा एक मंदिर बनवाये जाने का उल्लेख है। सातवें ग्लोक में अपने शरीर के वजन के बराबर उक्त राजा द्वारा स्वर्णदान किये जाने का उल्लेख है । आठवें पद्य में विदग्धराज राजा की गादी पर मंमट नामक राजा के बैठने का और फिर उसकी गद्दी पर धवलराज के बैठने का उल्लेख है। धवलराज के यश और शौर्यादि गुणों के वर्णन में दस काव्य लिखे गये हैं। दसवें श्लोक में लिखा है-" जब मुंजराज ने मेदपाट ( मेवाड़) के अघाट नामक स्थान पर चढ़ाई की और उसका नाश किया और जब उसने गुर्जर नरेश को भगा दिया तब धवलराज ने उनकी सैय को आश्रय दिया था। ये मुंजराज प्रोफेसर किलहॉर्न के मतानुसार मालव के प्रसिद्ध वाक्पति मुंजराज थे। क्योंकि वे वि० संवत १०३१ से १०५० तक विद्यमान थे। यद्यपि उक्त लेख में तत्कालीन मेवाड़ नरेश का नाम नहीं दिया गया है पर उस समय मेवाड़ में खुमाण नामक प्रसिद्ध राजा राज्य करता था।
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धार्मिक क्षेत्र में श्रीसवाल जाति
उक्त लेख में मेवाड़ के जिस अघाट स्थल का नाम आया है उसका वर्तमान नाम आहड़ नगर है जो उदयपुर की नई स्टेशन से बहुत थोड़ी दूरी पर है । ग्यारहवें काव्य में धवलराज द्वारा महेन्द्र नामक राजा को दुर्लभ राज के पराजय से बचाये जाने का उल्लेख है । प्रोफेसर किलहार्न इस दुर्लभराज को चौहान राजा विग्रह राज का भाई बतलाते हैं । बिजौलिया और किमसरी के लेखों में भी आपका वर्णन आया है । महेन्द्रराज उक्त प्रोफेसर किलहोर्न के मतानुसार नाडौल के चौहानों के लेख में वर्णित लक्ष्मण का पौत्र और विग्रहपाल का पुत्र था। बारहवें काव्य में कहा गया है कि जब मूलराज ने धरणीवराह पर चढ़ाई कर उसके राज्य का नाश किया था तब अनाश्रित धरणीवराह को धवल ने आश्रय देकर उसकी रक्षा की थी । उक्त लेख में वर्णित मूल राज निःसन्देह रूप से चौलुक्य वंश का मूलरःज ही है । पर यह धरणीवराह कौन था, इस बात का निश्चित रूप से अभी तक कोई पता नहीं लगा है । परमार वंश का या दंतकथानुसार नौकोटि - मारवाड़ का राजा होगा । तेरह से अट्ठारह तक के श्लोकों में धवल के गुणों की प्रशंसा की गई है। उन्नीसवे श्लोक में वृद्धावस्था के कारण धवल राज द्वारा उनके पुत्र बालप्रसाद को राज्य भार सौंपने का उल्लेख है। बीसवें और इक्कीसवें श्लोक भी प्रशंसा के रूप में लिखे गये हैं । बाइसवें श्लोक से सत्ताइसवें श्लोक तक इस राजा की राजधानी हस्तिकुण्डी का वर्णन और उसकी अलंकारिक भाषा में प्रशंसा की गई है।
शायद यह
अट्ठाइसवें श्लोक में लिखा है कि समृद्धिशाली और प्रसिद्ध हस्तिकुण्डी नगर में शांति भद्र नामक एक प्रभावशाली आचार्य रहते थे जिनका बड़े २ नृपति गौरव करते थे । २९ वें श्लोक में इन्हीं सूरिजी की प्रशंसा की गई है। तीसवें काव्य में शांति भद्र सूरि को वासुदेवसूरि द्वारा आचार्य्यं पदवी दिये जाने का उल्लेख है । ये वासुदेव उक्त छठे काव्य में वर्णित विग्रहराज के गुरु थे । ३१ वें तथा ३२ वें काव्य में शांतिभद्रसूरि की प्रशंसा की गई है । तोंसवें श्लोक में उक्त सूरि महोदय के उपदेश से गोठी संघ वालों द्वारा तीर्थंकर ऋषभदेव के मन्दिर का पुनरुद्धार किये जाने का उल्लेख है । इसके बाद दो श्लोकों में उक्त मन्दिर का अलंकारिक वर्णन है । छत्तीसवें और सेंतींसवें काव्य में कहा गया है कि उक्त मन्दिर पहले विदग्ध राजा ने बनवाया था। इसके जीर्ण हो जाने से इसका पुनरुद्धार किया गया । जब मन्दिर बन कर फिर तैयार हो गया तब संवत् १०५३ की माघ सुदी १३ को श्री शांति सूरिजी ने उसमें प्रथम तीर्थंकर की सुन्दर मूर्ति प्रतिष्ठित की।
अड़तीसर्वे पद्य में विदग्धराज द्वारा स्वर्णदान किये जाने का उल्लेख है । ३९ वें पद्य में उक्त मन्दिर के लिये जब तक चन्द्रमा और सूरज रहे तब तक उसके स्थिर रहने की प्रार्थना की गई है। आखिरी के ४० वें काव्य में प्रशस्ति-कर्त्ता सूर्य्याचार्य्यंजी की प्रशंसा की गई है ।
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प्रोसवात जाति का इतिहास
इसके बाद एक पंक्ति गद्य में लिखी हुई है कि जिसमें उक्त मन्दिर की प्रतिष्ठा का समय १०५३ को माघ सुदी १३ पुष्य नक्षत्र का बताया गया है। इसी दिन इस मन्दिर के शिखर के ऊपर ध्वजारोपण भी किया गया था।
इसके बाद दूसरा लेख शुरू होता है। इस लेख में कुल २१ पद्य हैं। यह लेख भी बहुत कुछ ऊपर के लेख से मिलता जुलता है। इस लेख के पहले श्लोक में जैन धर्म की प्रशंसा की गई है । दूसरे श्लोक में हरिवर्म राजा का, तीसरे में विदग्ध राजा का और चौथे में मम्मट राजा का वर्णन है। इसमें यह भी लिखा गया है कि बलभद्र आचार्य के उपदेश से विदग्ध राज ने हस्तीकुण्डी में एक मनोहर जैन मन्दिर बनवाया और उक्त मन्दिर के खर्च के लिये आवक जावक माल पर कुछ कर लगाये जाने का भी उल्लेख है। राजा का यह आदेश संवत् ९७३ के आषाढ़ मास का है। इसके बाद संवत् ९९६ की माघ बदी को मम्मट राज ने फिर उसका समर्थन किया था। इस लेख के आखिरी में यह प्रार्थना की गई है कि जब तक पृथ्वी पर पर्वत, सूर्य, भारतवर्ष, गंगा, सरस्वती, नक्षत्र, पाताल और सागर विद्यमान रहें तब तक यह शासन पत्र केशवसूरि की संतति में चलता रहे । बामनवाड़ी का जैन मान्दिर
सिरोही राज्य में पिंडवाड़े के स्टेशन से करीब चार माइल उत्तर पश्चिम में बामनवाड़जी का प्रसिद्ध और विशाल महावीर स्वामी का जैन मन्दिर है जहाँ पर दूर २ के लोग यात्रा के लिये आते हैं । यह मन्दिर कब बना, इसका पता नहीं लगता । परन्तु इसके चौतरफ के छोटे २ मन्दिरों में से एक पर संवत् १५१९ का लेख है। इस से यह मालूम होता है कि मुख्य मन्दिर उक्त संवत् से पूर्व का होना चाहिये । इस मन्दिर के पास एक शिवालय भी है, जिसमें परमार राजा धारावर्ष के समय का वि० सं० १२४९ का लेख है। यहाँ पर फाल्गुन सुदी ७ से १४ तक मेला होता है। पिंडवाड़ा का जैन मन्दिर
पिंडवाड़ा यह एक पुराना कसबा है। यहां पर एक प्राचीन महावीर स्वामी का जैन मन्दिर है। इसकी दीवाल में वि० सं० १४६५ का एक शिलालेख लगा हुआ है। उक्त लेख में इस गाँव का नाम पिंडरवाटक लिखा है। बसंतगढ़ का जैन मन्दिर
सिरोही राज्य में अजारी से करीब तीन माइल दक्षिण में बसंतगड़ है। इसको बसंतपुर भी
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प्रोसवाल जाति का इतिहास
( सामने का भाग) श्रीपार्श्वनाथ मन्दिर लोद्रवा जैसलमेर ( श्री बा० पूरणचन्द्रजी नाहर के सौजन्य से)
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धार्मिक क्षेत्र में ओसवाल जाति
कहते हैं । यह सिरोही राज्य के बहुत पुराने स्थानों में से यह एक है। अब तक इस राज्य के जितने शिकालेख मिले हैं उनमें सबसे पुराना वि०सं०६०२ का यहीं से मिला है। मेवाद के सुप्रसिद्ध महाराणा कुम्म ने यहाँ की पहाड़ियों पर एक गढ़ बनवाया था। जान पड़ता है कि इसी से बसंतपुर के स्थान में वसंतगद नाम स्थापित हुआ । यहाँ के एक टूटे जैन मन्दिर में वि० सं०४ के समय की मूर्तियां भी मिली हैं।
केशरियाजी तीर्थ-यह जैनियों का अत्यन्त प्रख्यात तीर्थ स्थान है। उदयपुर से लगभग १० मील की दूरी पर घुलैवा नामक गाँव में श्री ऋषभदेव स्वामी का एक बड़ा ही भव्य और विशाल मन्दिर बना हुआ है। उक्त मन्दिर में बड़ी ही प्रभावोत्पादक ऋषभदेवजी की मूर्ति है। यह मूर्ति बहुत प्राचीन है। इसके पहले यह प्रतिमा डूंगरपुर राज्य की प्राचीन राजधानी बड़ौद (षटपद्रक) नामक जैन मन्दिर में थी। जान पड़ता है कि किसी विशेष राजनैतिक परिस्थिति के कारण उक्त मूर्ति बदौद से यहाँ लाकर पधराई गई।
जैसा कि हम ऊपर कह चुके हैं कपमदेवजी की उक्त प्रतिमा बड़ी भव्य और तेजस्वी है। इसके साथ के विशाल परिकर में इन्द्रादि देवताओं को मूर्तियाँ बनी हुई हैं और दो बाजुओं पर दो नग्न काग्स (कार्योत्सर्ग स्थिति वाले पुरुष) खदे हुए हैं। मूर्ति के चरणों के नीचे छोटी २ नौ मूर्तियाँ हैं जिनको कोग नवग्रह या नवनाथ बतलाते हैं। उक नवग्रहों के नीचे कुछ सपने खुदे हुए हैं।
इस मन्दिर के मण्डप में तीर्थहरों की बाइस और देव कुलिकाओं की चौपन मूर्तियाँ विराजमान हैं। देव कुलिकाओं में वि० सं० १०५६ की बनी हुई विजयसागरसूरि की मूर्ति भी है और पश्चिम की देव कुलिकाओं में से एक में करीब ६ फीट ऊँचा ठोस पत्थर का मन्दिर बना हुआ है, जिसपर तीर की बहुतसी छोटी २ मूर्तियाँ बनी हुई हैं। इसको लोग गिरनारजी का विम्ब कहते हैं। उक. मूर्तियों में से १९ मूर्तियों पर लेख खुदे हुए हैं। ये लेख वि० सं० १६1 से लगाकर वि० सं० १८६३ तक के हैं और वे जैनों के इतिहास के लिए बड़े उपयोगी हैं।
... इस मन्दिर में केशर बहुत चढ़ती है। इसीसे तीर्थ का दूसरा नाम केशरियानाथ भी है। यात्री लोग यहाँ पर केशर की मानसा करते हैं। कोई २ जैन तो अपने बच्चों के बराबर केशार तौल कर मूर्तियों पर चढ़ा देते हैं। जैनियों के सिवाय भील आदि भी इस मूर्ति पर केशर चढ़ाते हैं। इस मूर्ति का रंग काला होने से भील लोग इसे कालाजी के नाम से पुकारते हैं। वे इन्हें अपना इष्टदेव समझते।। इस मन्दिर में कई बातें बड़ी विचित्र हैं। यहाँ पर ब्रह्मा और शिव की मूर्तियाँ भी विराजमान हैं और एक हवनकुण्ड भी बना हुआ है । जहाँ पर नवरात्रि के दिनों में दुर्गा का हवन होता है। पर जान पड़ता है कि ये सब बातें पीछे से उक्त मन्दिर में जोड़ दी गई हैं। इस मन्दिर की मूर्ति पर सोने, चांदी और जवाहरात की अंगी चढ़ाई जाती है जिनमें कुछ अंगियों की कीमत एक लाख से भी ऊपर की है। हाल में उदयपुर के भूतपूर्व महाराणा फतेसिंहजी ने कोई ढाई लाख की कीमत की अंगी चढ़ाई थी। इस मंदिर में प्रायः श्वेताम्बर विधि से पूजा होती है क्योंकि अंगी, केशर आदि का चढ़ना ये सब बातें श्वेताम्बर विधि ही में सम्मिलित हैं। गत तीन सौ वर्षों के विभिन्न प्रकार के लेखों से यह प्रतीत होता है कि इस मन्दिर में इसी विधि से पूजा होती आई है।
• संवत् १८६३ में विजयचंद गांधी ने इस मन्दिर के चारों तरफ एक पक्का कोट बनवाया । वि० सं० १८८६
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ओसवाल जाति का इतिहास
इस मन्दिर में कुछ शिलालेमा भी हैं जिनमें से पहला शिलालेख वि.सं०१४३३, दूसरा १५७२ और तीसरा १७५४ का है।* ... श्री कापरड़ा पार्श्वनाथ का मन्दिर-जोधपुर राज्य में कापरड़ा पाश्र्वनाथ का मन्दिर भी एक दर्शनीय वस्तु है। यह बड़ा ही सुन्दर और भव्य मन्दिर है। शिल्पकला का बढ़िया नमूना है। इसे जेतारण के ओसवाल जाति के भण्डारी भमराजी के पुत्र मानाजी ने बनवाया था। उक्त मन्दिर में सम्वत् १६७८ के वैशाख सुदी पूर्णिमा का एक लेख है जिससे मालूम होता है कि भण्डारी अमराजी और उनके पौत्र ताराचन्दजी ने पाश्र्वनाथ के उक्त चैत्य की जैनाचार्य श्री जिनचन्द्रसूरिजी से प्रतिष्ठा करवाई।
कुलपाक तीर्थ-यह तीर्थस्थान दक्षिण हैदराबाद से ४५ मील की दूरी पर बसा हुआ है। यहाँ एक बहुत बड़ा भव्य मन्दिर तथा माणिक्य स्वामी की प्रतिमा विराजमान है। यह मन्दिर तथा प्रतिमा अति ही प्राचीन बतलाई जाती है । यह स्थान बड़ा भव्य तथा रमणीय बना हुआ है। यहाँ पर कई शिलालेख भी प्राप्त हुए हैं जो आन भी एक कमरे में सुरक्षित रक्खे हुए हैं। कई शिलालेखों के बीच में कहीं २ कुछ अक्षर नष्ट हो गये हैं जिनके कारण बहुत सा अर्थ समझ में नहीं आता। यहाँ पर एक शिलालेख संवत् १३३३ के भादो वदी ४ का भी मिला है जो मारवाड़ी लिपि में लिखा हुआ है। ऐसा मालूम होता है कि किसी पात्री ने उसे खुदवा कर लगा दिया होगा। कुछ भी हो इस शिलालेख से तो यह अवश्य ही सिद्ध होता है कि यह मंदिर सं० १९३३ के पहिले का बना हुआ है। इसके पश्चात् के तो कई शिलालेखों में उक्त मन्दिर तथा प्रतिमा का उल्लेख भाया है। यहाँ की प्रतिमा बड़ी प्रतिभावान, भव्य तथा तेजस्वी प्रतीत होती है।
श्री मान्दक पार्श्वनाथ तीर्थ-यह तीर्थस्थान वर्धा से ६० मील की दूरी पर जी० आई. पी. रेलवे के भान्दक नामक स्टेशन के पास है। लगभग बीस वर्ष पूर्व चतुर्भुज भाई, हीरालालजी दूगर, तथा सिद्धकरणजी गोलेछा ने पार्श्वनाथ की विशाल सात फूट की पमासनमय मूर्ति खोज निकाली एवं परिश्रम पूर्वक हजारों रुपये एकत्रित कर एक बड़ा विशाल मंदिर बनवाया, तथा इसकी प्रतिष्ठा पंडित रामविजय जी और जयमुनिजी के द्वारा हुई। उपरोक्त सज्जनों के बाद खेठ छोटमलजी कोठारी ने इस तीर्थ के फण्ड को खूब बढ़ाया। इस स्थान पर एक भद्रावती जैन गुरुकुल भी स्थापित है जिसकी देख रेख व मन्दिर का निरीक्षण भाजकल नथमलजी कोठारी करते हैं। इस तीर्थ में एक देरासर नागपुर के प्रसिद्ध जोहरी पानमलजी एवं महेन्द्रकुमारसिंहजी चोरड़िया ने बनवाया है। .... सुजानगढ़ का जैन मन्दिर-सुजानगढ़ का यह प्रसिद्ध जैन मन्दिर यहाँ के सुविख्यात सिंधी परिवार द्वारा बनाया गया है। यह मन्दिर बड़ा ही भव्य, रमणीय तथा दर्शनीय है। यहाँ की कोराई व कारीगरी को देखकर दर्शक मुग्ध हो जाते हैं। इस मंदिर के बनवाने में लाखों रुपये व्यय हुए होंगे।
में उदयपुर के सुप्रख्यात वापना वंशीय सेठ बहादुरमलजी एवं सेठ जोरावरमलजी ने मन्दिर के प्रथम द्वार पर नकारखाना बनवाकर वर्तमान ध्वजा दण्ड चढ़ाया।
इस लेख के पूर्वाश के लिखने में रा० ब० महामहोपाध्याय पं. गौरीशंकरजी भोझा कृत उदयपुर राज्य का इतिहास नामक ग्रंथ से बहुतसी सहायता मिली है।
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प्रोसकाल जाति की कुछ खास खास संस्थाएँ
____ श्री संघ सभा और सरदार हॉईस्कूल जोधपुर-वर्तमान संस्कृति एवं सभ्यता के युग में उन्नति की तीव्र भावना से प्रेरित होकर जोधपुर शहर के गण्यमान्य मोसवाल पुरुषों ने ता. " जुलाई सम् १८९६ के दिन "श्री संघ सभा" की स्थापना की एवं २० हजार रुपयों का चंदा एकत्रित किया। इस कार्य में जोधपुर दरबार महाराजा सुमेरसिंहजी बहादुर ने ९ हजार प्रदान कर अपनी राजभक्त प्रजा का सम्मान किया। इस श्रीसंघ सभा के सभापति स्व. मेहता सरदरचंदजी दीवान सभापति और उपसभापति भण्डारी मानचन्दजी चुने गये, एवं अन्य १७ मुत्सुद्दियों की एक व्यवस्थापक कमेटी बनाई गई। इस सभा ने ता. २९ अगस्त सन् १८९६ के दिन दरवार की आज्ञा से महाराजा सर प्रतापसिंह जी द्वारा “सरदार हॉईस्कूल" का उद्घाटन करवाया। यह हॉईस्कूल अपनी दिन दूनी और रात चौगुनी उन्नति करता गया और इस समय जोधपुर की शिक्षा संस्थाओं में अपना खास स्थान रखता है। इस हॉईस्कूल की उन्नति में शाह नौरतनमलजी भांडावत, मेहता बहादुरमलजी गधैया, शाह गणेशमलजी सराफ आदि सज्जनों के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इस सयय हॉईस्कूल की निजकी एक भव्य बिडिग है।
श्री श्रआत्मानन्द जैन हॉस्कूिल अम्बाला-इस संस्था की स्थापना लगभग ३० वर्ष पूर्व आचार्य विजयवल्लभसूरिजी के उपदेश से हुई। सन् १९२६ में यह हॉईस्कूल बन गया । यह हॉईस्कूल पंजाब प्रान्त के प्रसिद्ध हॉईस्कूलों में माना जाता है। इस संस्था की शानदार नयी विल्डिग हाल ही में तैयार हुई है। "आत्मानन्द जैनगंज” नामक बाजार के किराये की आय, गवर्नमेंट की एड व अन्य सहायता से हॉईस्कूल का व्यय चलता है। संस्था का कार्यवाहन अम्बाले के १६ गण्य मान्य सज्जनों की एक कमेटी के जिम्मे है।
श्री ओसवाल हॉईस्कूल अजमेर-इस संस्था की स्थापना अजमेर में छोटी सी संस्कृत पाठशाला के रूप में संवत् १९५६ में हुई। तदनन्तर संवत् १९७५ में यह संस्था मिडिल स्कूल के रूप में परिणत हुई। इस संस्था की आरंभिक उन्नति का प्रधान श्रेय श्री धनराजजी कांसटिया को है। कहना न होगा कि अजमेर की जनता के उत्साह प्रदर्शन से तथा कार्यकर्ताओं की कार्य चातुरी से यह संस्था शीघ्रगामी गति से उन्नति की ओर अग्रसर होती गई, तथा संवत् १९८६ से यह मिडिल स्कूल से हायस्कूल हो गया । यह हायस्कूल इस समय राजपूताना एज्युकेशन बोर्ड से रिकमाइज हो गया है । यह बहुत सुचारु रूप से संचालित किया जा रहा है। इसमें हायस्कूल की अन्य क्लासों के साथ २ कामर्स क्लास की शिक्षा भी दी जाती है। इसके अतिरिक्त विद्यार्थियों के शारीरिक स्वास्थ्य की ओर भी काफी ध्यान रक्खा जाता है। इस हायस्कूल के प्रेसिडेन्ट सेठ हीराचन्दजी संचेती और मंत्री श्री धनराजजी लूणिया है।
सेठ नन्दलाल भण्डारी हाइस्कूल-इस हायस्कूल को इन्दौर के प्रसिद्ध मिल भोनर श्री कन्हैया लालजी भण्डारी ने अपने पिताजी के स्मारक में "नंदलाल भण्डारी विद्यालय" के नाम से खोला है। भापकी उथ व्यवस्थापिका शक्ति एवं योग्य निरीक्षण के कारण विद्यालय दिनों दिन तरकी करता गया और
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मोसवाल जाति का इतिहास इधर ३ वर्ष पूर्व से हाईस्कूल हो गया है। वर्तमान में यह हाईस्कूल बहुत संगठित रूप से कार्य कर रहा है एवं इन्दौर की एज्यूकेशन संस्थाओं में अपना खास स्थान रखता है।
श्री महाबीर हॉस्कूिल देहली-इसका संचालन देहली के जैन समाज द्वारा होता है। यह संस्था भो बहुत उन्नति के साथ अपना कार्य कर रही है।
श्री आत्मानन्द जैन गुरुकुल गुजरानवाला-इस गुरुकुल की स्थापना जैनाचार्य श्री विजय बम रिजी ने अपने गुरू मात्मारामजी महाराज के स्मारक में माघ सुदी ५ संवत् १९८२ में गुजरानवाला में की। इस गुरुकुल में इस समय विभिन्न प्रांतों के ३७ छात्र पढ़ते हैं। दसवीं क्लास (विनीत परीक्षा ) तक पढ़ाई होती है। संस्था का सालियाना व्यय १५ हजार का है। पंजाब प्रांत के गणमान्य एवं शिक्षित ट्रस्टियों के जिम्मे संस्था की व्यवस्था का भार है। इस समय गुरुकुल के पास लाख रुपयों का स्थाई फंड है तथा २० हजार की जमीन है। यहाँ से साहित्य मंदिर की परीक्षा पास करनेवाले विद्यार्थी को “विद्या भूषण" की पदवी दी जाती है। संस्था के सभापति सेठ माणिकचंदजी हैं।
___ श्री जैनेन्द्र गुरुकुल पंचकूला-गिरिराज हिमालय के अंचल में शिमला के रम्य मार्ग पर कालका के समीप अत्यंत शांतिमय, प्राकृतिक एवं मनोहारी स्थान में यह गुरुकुल स्थापित है। इस के चारों ओर ५ जल श्रोत्र महर्निशि प्रवाहित होते रहने के कारण संस्था का नाम “पंचकूला", उदघोषित किया। इसके स्थापन कर्ता स्वामी धनीरामजी एवं उनके शिष्य पंडित कृष्णचन्द्रजी हैं। स्वामी धनीरामजी नूतन उन्नत विचारों के जैन साधु हैं, एवं गुरुकुल की उन्नति में अपना सारा समय प्रदान कर रहे हैं। संस्था का १५ हजार रुपया सालियाना का व्यय है जो आसपास के जैन समाज की सहायता से चलता है। इस समय संस्था के पास ६० हजार की बिल्डिंग एवं १५ हजार स्थाई कोष में हैं। यहाँ ५६ छात्र अध्ययन करते हैं, और छठी तक पढ़ाई होती है । इसके वर्तमान प्रेसिडेन्ट लाला रूपलालजी जैन फरीदकोट निवासी हैं।
श्री पार्श्वनाथ जैन विद्यालय वरकाणा (मारवाड़)-गोरवाद तथा जालोर प्रान्त के पिछड़े हुए जैन समाज को जागृत करने के उद्देश से भाचार्य श्री विजयवल्लभसरिजी एवं उनके शिष्य पन्यास ललित विजयजी महाराज ने मिलकर श्री पाश्र्वनाथ जैन विद्यालय की स्थापना बरकाणा एवं उम्मेदपुर में की। संवत् १९८३ की माघ सुदी ५ से पन्यासजी महाराज ने कुछ विद्यार्थियों को स्वयं ही शिक्षा देना प्रारंभ किया। विद्यालय की स्थापना करवाने में श्रावक सिंघी जसराजजी घाणेराव वालों ने गोडवाद प्रांत की जनता से सम्पत्ति एकत्रित करने में बहुत परिश्रम उठाया। स्कूली एवं धर्मिक शिक्षा के साथ २ छात्रों के शारीरिक एवं मानसिक विकास को बनाने का भी यहाँ समुचित प्रयत्न किया जाता है। लगभग १०० गोडवाद प्रांत के छात्र पहाँ निवास करते हैं । गोडवाड़ की धार्मिक जनता ने विद्यालय को लाखों रुपये सहापतार्थ दिये हैं। कुछ गण्य मान्य व्यकियों की कमेटी के जिम्मे संस्था की व्यवस्था का भार है।
श्री पार्श्वनाथ उम्मेद जैन बालाश्रम उम्मेदपुर-गोडवाद प्रान्त की जैन जनता के लिये वरकाणा, विद्यालय के पाचात् माघसुदी ३ संवत् १९८७ के दिन पन्यासजी महाराज ने उम्मेदपुर में बालाश्रम की स्थापना की। इस बाकाश्रम में इस समय १७.छात्र निवास करते हैं। VII पदाई होती है। यहाँ छात्रों
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सार्वजनिक संस्थाएं
के व्यवहारिक, नैतिक एवं धार्मिक जीवन को उपबनाने का पूर्ण प्रवन किया जाता है। संस्था को व्यवस्थित रूप से संचालित करने के लिये पन्यासबी. ललित विजयजी महाराज अपना पूर्ण समय दे रहे हैं। बालाश्रम की सुंदर व्यवस्था एवं भव्य इमारतें दर्शनीय हैं।
श्री नेमिनाथ ब्रह्मचर्याश्रम चांदवड (नाशिक)-इस गुरुकुल की स्थापना संवत् १९८३ में महावीर जैन पाठशाला के रूप में हुई थी। श्रीमान् सुमति मुनिजो के उपदेश से इस संस्था को उत्कृष्ट रूप दिया गया। चांदवड़ के समीप बम्बई भावरा रोड पर प्राचीन डिस्पेंसरी की भव्य बिल्डिग हस्तगत करने में इस संस्था के सेक्रेटरी श्री केशवलाम्बी श्रावड़ ने बहुत परिश्रम उठाया। इस संस्था का प्रबंध खानदेश तथा महाराष्ट्र प्रान्त के गण्यमान्य सबों की एक कमेटी के जिम्मे है। सेठ मेघजी भाई सोज. पाल बम्बई निवासी आश्रम में एक मंदिर भी बनवा रहे हैं। श्री राजमलजी ललवाणी, सुगन्धचन्द्रजी लणावत, व इन्द्रचन्दजी लुणिया मादि संजनों में संस्था में मच्छी सहायता पहुंचाई है। इस संस्था के ब्रह्मचारियों ने विभिन्न प्रकार को शारीरिक कसरत एवं योगासनों में उत्कृष्ट जानकारी रखने के कारण बहुत प्रशंसा प्राप्त की है। संस्था में सातवीं काल तक पढ़ाई होती है।
श्री फतेचन्द जैन विद्यालय चिंचव ( पूना)-संवत् १९८४ में पेमराजजी महाराज के उपदेश से इस संस्था की स्थापना हुई। पूना, चिंचपद तमाकोनावला के ५ गृहस्थों के एक ट्रस्ट के जिम्मे संस्था का प्रबंध भार है। संस्था से २०० छात्र अभी शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं। वहाँ महाजनी, धार्मिक प्रवेशिका व अंग्रेज IV तक पढ़ाई होती है। इस समय मन्त्र पढ़ते है, तथा ३० छात्रों के रहने का प्रबंध विद्यालय के जिम्मे है। इस संस्था के अध्यक्ष चिंचवड़ के सेठ रामचन्द्र पनमचन्द्र लूकड़ हैं।
___ कुमारसिंह हॉल कलकत्ता-यह संस्था भारतवर्ष की उन प्राइवेट संस्थाओं में से एक है जो अपने ढंग का एक खास आदर्श उपस्थित करती हैं। इसके अन्तर्गत प्राचीन वस्तुओं का, शिलालेखों का, मूर्तियों का, सिकों का-तथा इसी प्रकार अन्य कई प्राचीन ऐतिहासिक सामग्रियों का अत्यंत ही अनूठा एवं मनोमुग्ध कारी संग्रह है। बात यह है कि वो तो भारतवर्ष के अन्तर्गत प्राचीन ऐतिहासिक संग्रहालयों का अभाव नहीं है, लेकिन यह एक प्राइवेट संस्था है और एक ही शक्ति के द्वारा बहुतसी प्राचीन सामग्रियों से सजाई गई है। भारत हृदय सम्राट महात्मा गांधी, देशरत पं० जवाहरलालजी नेहरू आदि पूज्य महानुभावों ने भी इसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। इस प्राचीन संग्रहालय के संग्रहकर्ता प्रसिद जैन पुरातत्ववेत्ता श्री पूरणचन्दजी नाहर एम० ए० बी० एल हैं। आपकी सुरुचि पूर्ण ऐतिहासिक संग्रह शक्ति ने आपके नाम को अमर कर दिया है।
सुराणा पुस्तकालय चुरू-चुरू के सुराणा परिवार की यह प्राइवेट कायमेरी है जो बड़ी ही विशाल एवं जैन प्राचीन शास्त्रों से परिपूर्ण भरी है ।
आत्म नन्द जैन सभा अम्बाला यह सभा संवत् १९१२ में धार्मिक एवं शिक्षा की उन्नति के उद्देश्य को लेकर स्थापित हुई। इस संस्था की उन्नति में अम्बाला के सुप्रख्यात एडवोकेट लाला गोपीचंदजी बी० ए० ने बहुत योग दिया। वर्तमान में सम्मान में इस संस्था द्वारा श्री आत्मानंद जैन हॉपस्कूल, प्रायमरी स्कूल, कन्या पाठशाला, रीडिंग रूम, ट्रेक्ट सोसापटी, ग्रंथ भण्डार, जैन स्कूल आदि र संस्थाएँ
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बोसवाल जाति का इतिहास
सुचारू रूप से संचालित की जा रही है। इस संस्था की स्थाई सम्पत्ति में "आत्मानन्द जैन गंज" मुख्य है जिसकी किराये की आय से संस्था का व्यय पळता है। अम्बाला शिक्षित सज्जनों की एक कमेटी के जिम्मे इस संस्था का सारा प्रबन्ध भार है।
श्री नाथूलाल गोधावत जैन पाश्रम सादड़ी-इस संस्था को स्व• सेठ नाथूलालजी गोधावत ने सवालाख रुपये के भादर्श दान द्वारा छोटी सादड़ी में स्थापित किया। वर्तमान में भी आपके पौत्र सेठ छगवलालजी गोधावत उक्त संस्था को सुचारू रूप से संचालित कर रहे हैं।
__श्री जैन गुरुकुल ब्यावर-यह संस्था ओसवाल जाति के कई विद्या प्रेमी सज्जनों द्वारा संवत् १९८५ में ग्यावर में स्थापित की गई है। इसके अन्तर्गत प्राचीन एवं अर्वाचीन पद्धतियों का सम्मिश्रण करके विद्यार्थियों (ब्रह्मचारियों) को धार्मिक, व्यवहारिक, मानसिक व शारीरिक शिक्षा बड़े ही उचित ढंग से दी जाती है। यह गुरुकुल, ब्यावर से करीब डेढ़ मील की दूरी पर बड़े ही अच्छे स्थान पर बना हुआ है। वह पहले बगढ़ी में जैन बोर्डिंग के नाम से प्रख्यात् था। इस संस्था का प्रबन्ध संठ मिश्रीलालजी वेद आदि ५ ट्रस्टियों द्वारा होता है। इसकी वार्षिक आय करीब तेरह हजार की है और व्यय दस हजार केल्या होता है। यहाँ से “कुसुम" नामक मासिक समाचार पत्र भी निकलता है। इसके ऑनरेरी प्रबन्धक श्री धीरजमलजी तुरकिया योग्य व्यवस्थापक सजन है। इस संस्था को सजम मिलकर १० हजार रुपये प्रतिवर्ष स्थायी सहायता देते हैं।
श्री अमर जैन होस्टल लाहौर-इस संस्था का स्थापन श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा पंजाब ने सन् १९१६ में किया। पंजाब के कॉलेज शिक्षा प्राप्त करनेवाले जैन छात्रों के लिए शुद्ध भोजन एवं निवास का प्रबन्ध करने के उद्देश्य से यह संस्था खोली गई। संस्था की भव्य विल्डिगें लगभग २ लाख रुपयों की है। पंजाब के गण्यमान्य शिक्षित सज्जनों की एक कमेटी के जिम्मे इस संस्था की व्यवस्था का भार है।
श्री खानदेश ओसवाल शिक्षण संस्था, भुसावल ( एज्युकेशन सोसायटी)--इस संस्था का उद्देश्य पोसवाल जाति के उच्च शिक्षा प्राक्ष करनेवाले युवकों को आर्थिक सहायता देना है। इस संस्था का स्थापन सानदेश के नामी श्रीमंत खेठ राजमलजी खलवाणी २० हजार रुपये देकर किया था, एवं आप ही उसके सभापति हैं। इस सोसायटी के सेक्रेटरी श्रीयुत पूनमचन्दजी नाहटा का संस्था की अभ्युदय में बहुत बड़ा सहयोग रहा है। संस्था के पास लाभग ५२ हजार का फंड है, तथा अभी तक २० हजार रुपया विद्यार्थियों को यह संस्था वितरित कर चुकी है।
श्री सेठिया परमार्थिक संस्थाएँ बीकानेर-इन संस्थानों को स्थापन बीकानेर के प्रसिद्ध धार्मिक सेठ मेरोंदानजी ने किया, एवं आपके परिवार के सजजों ने कलकत्ते के मकानात, दुकानें एवं कई हज़ार रुपया संस्था के स्थाई प्रबन्ध के लिये दिया, जिनके किराये तथा व्याज की भाय लगभग २१ हज़ार सालियाना संस्था को होती है। इतना ही नहीं स्वयं सेठ मेरोंदानजी एवं उनके सुपुत्र कुंवर जेठमलजी सेठिया इन संस्थाओं का संचालन करते हैं। इस संस्था के भाधीन जैनस्कूल, श्राविक पाठशाला, जैन संस्कृत प्राकृत विद्यालय, जैन बोर्डिङ्ग हाउस, शाल भण्डार, जैन विद्यालय, भाविकाश्रम एवं प्रिंटिंग-प्रेस भादि संस्थाएं
शालित की जा रही है।
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सार्वजनिक संस्थाए
श्री जैन ओसवाल परस्पर सहायक कोष मध्यप्रदेश एण्ड बरार-यह संस्था ओसवाल जैन कुटुम्बों को उनकी मृत्यु के अनंतर या ५५ वर्ष पाचात् सहायता पहुंचाने के उद्देश से सन् १९३२ में स्थापित हुई। संस्था का आफिस सिवनी छपरा (सी० पी०) में है। इसके प्रेसिडेंट सेठ माणिकचन्दजी मालू हैं।
श्री जैन सुनति मित्र मंडल, रावलपिंडी-इस संस्था की स्थापना २१ साल पूर्व स्वामी धनीरामजी महाराज ने की। संस्था के पास इस समय ३५ हजार रुपयों का फंड है, और रावलपिंडी के २५ सभ्यों की कमेटी के जिम्मे समिति का प्रबंध भार है। समिति के अंडर में शाम भंडार, ट्रेक्टमाम, कन्या पाठशाला, एजूकेशन बोर्ड बादि संस्थाएं चलती हैं। सुदूर पंजाब प्रांत में यह संस्था हिन्दी भाषा का आदर्श प्रचार कार्य कर रही है। इसके प्रेसिडेंट लाला उत्तमचन्दनी जैन हैं।
श्री स्थानकवासी जैन बोडिम पना-यह संस्था भी कालेज में उप शिक्षा प्राप्त करनेवाले छात्रों के लिए भोजन एवं निवास की सुव्यवस्था के दोष से स्थापित हुई है। इसका प्रबन्ध महाराष्ट्र प्रान्त के गण्य मान्य सम्बनों की एकमेटी के जिम्मे है।
श्री सोहनलाल के अनावाखर, अमृतका-इस संस्था की स्थापना युवाचार्य कानीरामजी महाराज ने की। स्थापना के समय संस्था हजार की सहायता के वचन मिले थे। इस संस्था के पास इस समय "हबार सपनों है। इसके प्रधान मर्म संचालक लाला मस्तरामजी जैन M.A.L L.B., काला हररावजी BA. एवं माला मुचीलालजी है।
श्री केशव विजय जैम सावनेरी, जाऔर इस बायोस की वेन्यू ममग काल स्पयों है। लायरी के पास १० हज्जर का है। स्थाबाद पत्र पर हस्तांकित एवं अन्य प्रन्यों का प्रचार है। संस्था के सेक्रेटरी श्रीयुत भेरूमलनी नया योग्य एवं उत्साही सज्जन हैं।
उपरोक्त संस्थाओं के अतिरिक्त ओसवाल समाज की ऐसी कई संस्थाएँ हैं जिनका स्थानाभाव के कारण परिचय न देकर हम नाम ही दे रहे हैं। अ. भारतवर्षीय जैन स्थानकवासी भोसवालसमा मूलचन्द जवाहरमल औषधालय, वाी अखिल भारतवर्षीय मन्दिरमार्गीय श्वेताम्बर जैन सभा गिरधारीलाल अन्नराज विद्यालय, ब्यावर एस० एस० जैन सभा पंजाब, लाहौर
श्री आत्मानन्द जैन विद्यालय, सादड़ी अ. भा. तेरापन्थी सभा, कलकत्ता
भोसवाल बोडिंग हाउस, जलगांव नाशिक जिला ओसवाल सभा, नाशिक
भद्रावती जैन गुरुकुल, भांदक तीर्थ जैन गुरुकुल पाथरडी ( अहमदनगर )
शांति जैन मिडिल स्कूल एण्ड काम. इन्स्टीट्यूट व्यावर ओसवाल जैन बोडिंग हाउस, नाशिक
सिंघी हरिसिंह निहालचन्द संस्था बौलपुर (बंगाल) जैनोदय पुस्तक प्रकाशक समिति, रतलाम शंभूमल गंगाराम जैन विद्यालय, जेतारन जैन स्त्री औषधालय, जीरा (पंजाब)
नथमल दातव्य औषधालय, सरदारशहर जैनोदय पुस्तक प्रकाशक समिति, रतलाम घेवरचन्द पुस्तकालय, सुजानगढ़ ओसवाल औषधालय, अजमेर
फूलचन्द जैन कन्या पाठशाला, जोधपुर
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ओसवाल जाति का इतिहास
श्री भात्मानन्द जैन सभा, भागरा
बवे. जैन पाठशाला, जयपुर स्थानकवासी शान वईक सभा, सादड़ी
"वै. जैन पाठशाला, भोपाल जैन श्वे. तेरापन्थी पुस्तकालय, चुरू
जैन स्कूल, घाणेराव मोसवाल विद्यालय, सुजानगढ़
जैन श्वेताम्बर वईमान पाठशाला, नागौर अमर जैन यूनियन, सियाल कोट
महावीर जैन वाचनालय, सोजत महावीर जैन लायब्रेरी, सियालकोट
जैन महावीर मण्डल, हिंगनघाट नैन कन्या पाठशाला, सियालकोट
जैन कन्याशाला, सादड़ी जैन श्वे. तीर्थ कोटी, अम्बाला
स्था जैन कन्याशाला, सादड़ी मानन्दजी कल्याणजी की पेढ़ी, सादड़ी . ओसवाल स्कूल, बीकानेर दयाचन्द धर्मचन्दजी की पेढ़ी, सादड़ी
बोसवाल हितकारिणी सभा, सरदारशहर शांति वर्धमान पेढ़ी, सोजत
मोसवाल हितकारिणी सभा, सुजानगढ़ कुन्दन कन्या पाठशाला, ब्यावर
महावीर जैन युवक मण्डल, बाली। गणपति औषधालय, ब्यावर
स्था जैन सायप्रेरी, अजमेर जैन सेवा समिति औषधालय, न्यावर
महाराष्ट्र जैन युवक संघ, नाशिक जैन कन्या पाठशाला, अखवर
शांति जैन पुस्तकालय, जबलपुर भारमानन्द जैन लायब्रेरी, जण्डियाला (पंजाब) जैन ओसवाल वाचनालय, भोपाल पांजरापोल, होशियारपुर
जैन प्रचारक सभा, जुगरावां (पंजाब) प्राचीन जैन ग्रंथ भण्डार, होशियारपुर ... श्री सोहनलाल जैन कन्या.पाठशाला, अमृतसर आत्मवल्लभ जैन सेन्ट्रल लायब्रेरी, सादड़ी श्री आत्माराम जैन लायब्रेरी, अमृतसर आत्मानंद जैन मिडिल स्कूल जंडियाला, (पंजाब) उदयचंद जैन लायब्रेरी, कसूर (पंजाब) गुलाबकुँवर जैन कन्या पाठशाला, अजमेर
आत्मानन्द जैन लायब्रेरी, जीरा (पंजाब) श्रमणोपासक जैन पाठशाला, अजमेर
बारमाराम जैन पाठशाला, होशियारपुर आसवाल नवयुवक मण्डल, धामक... हित हेम लपोरी, घाणेराव महावीर मण्डल, अहमदनगर
... श्री महावीर वाचनालय, इन्दौर पईमान जैन पाठशाला, शिवनी-छपारा ..
ओसवाल हितकारिणी सभा, लाडनू जैन कन्या पाठशाला, फरीदकोट (पंजाब)
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ओसवाल जाति और उसके आचार्य Oswals & their Acharyas
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ओसवाल जाति का इतिहास
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(श्री बा० पूरणचन्द्रजी नाहर के सौजन्य से)
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जिन
'आचार्यों ने ओसवाल जाति के सामाजिक, धार्मिक, कौटुम्बिक और राजनैतिक जीवन पर प्रभाव डाला, उनका थोड़ा सा परिचय देना भी आवश्यक प्रतीत होता है। इनमें से कई आचार्य स्वयं ओसवाल जाति के थे और उन्होंने जैन संस्कृति के विकास में बहुमूल्य सहायता पहुँचाई थी। इसके विपरीत कई आचार्य्यं यद्यपि दूसरी जातियों के थे पर भ्रमका इस जाति के साथ इतना निकट सम्बन्ध था कि उसके जीवन के विविध पहलुवों पर इन आचायों ने बहुत ही गम्भीर संस्कार डाले थे । हम पहिले कह चुके हैं कि ओसवाल जाति की उत्पत्ति आठवीं तथा नवमी सदी के बीच (८०० से ९०० तक) किसी समय में हुई है; अतएव हम उसी समय से अब तक के खास २ ऐसे आचायों की जीवनी पर और उनके कार्यों पर प्रकाश डालना आवश्यक समझते हैं, जिन्होंने इस जाति के जीवन को बनाने में सबसे अधिक परिश्रम किया था ।
श्री भट्ट सू
प्रतिबोध देकर उन्हें भगवान महावीर के गवालियर की प्रशस्ति के अनुसार इन्होंने
इस सम्बन्ध में सबसे पहिले श्री बध्यमट्टिसूरि का नाम उल्लेखनीय है । आप का जन्म विक्रम संवत् ८०० की भादवा सुदी ३ को हुआ था, अर्थात् जिस समय ओसवाल जाति की उत्पत्ति हुई थी उसी समय इस महान् आचार्य्यं का उदय हुआ था । ये महान् विद्वान् तथा प्रतापी आचार्य थे। दीर्घ तपश्चर्या के द्वारा इन्होंने अपनी आत्मिक शक्तियों का उच्च विकास किया था। इन्होंने कन्नोज के राजा आम को पवित्र झण्डे के नीचे बैठाया था। ये आम राजा बड़े प्रतापी थे । अनेक देशों पर अपनी विजय पताका फहराई थी, इन्होंने कन्नोज १८ मन सोने की भगवान महावीर की प्रतिमा बनवाकर अपने आचार्य बप्पभट्ट के द्वारा उसकी प्रतिष्ठा करवाई थी । इन्होंने गोपगिरी ( गवालियर ) में भी २३ हाथ ऊँची महावीर की प्रतिमा स्थापित की थी। इन महान् आचार्य महोदय मे गौंड ( बङ्गाल ) देश की राजधानी लक्षणावती के राजा धर्म को महान् उपदेश देकर उसके तथा आम राजा के बीच के बैर-भाव को दूर किया और उनके आपस में मैत्री का मधुर सम्बन्ध स्थापित किया। इतना ही नहीं, श्रीबप्पभट्टसूरि ने बर्द्धन कुंजर नामक एक विख्यात् बौद्ध पण्डित को जीत कर सारे देश में अपने प्रभाव की छाप डाली। इससे उक्त गौड़ाधिपति धर्मराज ने आपको
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ओसवाल जाति का इतिहास
"वादि कुअर केशरी" की उपाधि से विभूषित किया। इसके बाद आचार्य महोदय ने शैवमत के वाक्पति नामक योगी को जैन बनाया । आम राजा पर इन आचार्य महोदय का अप्रिहत धार्मिक प्रभाव पड़ा था। इससे संवत् ८२५ में इन्होंने कनोज, मथुरा, मनहिल्लपुर पट्टण, सतारक मगर, मोढेरा आदि नगरों में जिनालय बनवाये, उसने शचुंजय तथा गिरनार की तीर्थ यात्रा की। उस समय गिरनार तीर्थ के अधिकार के सम्बन्ध में दिगम्बर तथा श्वेतांबर समुदाय में झगड़ा पड़ गया था। श्री बप्पमसूरि के प्रभाव से उक तीर्थ स्थान श्वेताम्बर तीर्थ माना गया। श्री बपभट्टसूरि के शिष्य नबसूरि तथा गोविंदसूरि के उपदेश से, भाम राजा के पौत्र भोज राजा ने आम राजा से भी अधिक जैन धर्म की प्रभावना की। इस भोजदेव का दूसरा नाम मिहिर तथा आदि बरहा था। वह संवत् ९०० से लगाकर ९३८ तक गद्दी पर रहा । किसी २ इतिहास वेत्ता
के मतानुसार संवत् ९५० तक उसने राज्य किया । * * शिलाचार्य
आप निवृत्ति गच्छ के मानदेवसूरि के शिष्य थे । संवत् ९२५ में आपने दस हजार प्राकृत श्लोकों में “महापुरुषचयं” नामक एक गद्यात्मक ग्रन्थ रचा, जिसमें ५४ महापुरुषों का चरित्र है। उसकी छाया लेकर सुप्रख्यात् जैनाचार्य हेमचन्द्रसूरि ने 'त्रिशष्ठिशलाका पुरुष चरित्र' संस्कृत में रचा। इन्हीं आचार्य देव ने ( शिलाचार्य या शिलांगाचार्य) संवत् ९३३ में आचारांग सूत्र और सूयगडांग सूत्र पर संस्कृत में वृत्ति रची। उन्होंने इन दो सूत्रों के सहित ग्यारह अंगों पर भी टीका रची। .. हाल में उनकी रची हुई भाचारांग सूत्र तथा सूयगदांग सूत्र नामक दो अंगों की टीकाएँ उपलब्ध हैं। उन टीकाओं के अवलोकन से यह प्रतीत होता है कि इनके पहले भीगंधहस्तिसूरिनी ने इन सूत्रों की टीका की थी। शीलाचार्य को इन टीकाओं के करने में श्री बाहरी गणी से बडी सहायता मिली थी। इस बात को वे अपनी टीकाओं में स्वीकार करते हैं।
• आम राजा तथा भोजदेव के लिये श्रीमान् मोझाजी कृत राजपूताने के इतिहास के प्रथम खए के पृष्ठ १६१ तथा १६२ देखिये। उक्त पैरेग्राफ में लक्षणावती नामक नगर का वर्णन आया है, उसका आधुनिक नाम लखनऊ है। गौड़ाधिपति धमराज बंगाल के इतिहास में धर्मपाल के नाम से प्रसिद्ध है। वह पाल वंश का प्रतिष्ठाता था और संवत् ७६५ से ८३४ संवत् तक उसने राज्य किया।
नजैन साहित्य नो इतिहास पृष्ठ १८१..
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ओसवाल जाति और प्राचार्य
सिद्धऋषिसूरि
आप महान जैनाचार्य थे। आपने 'उपमिती भव प्रपंच कथा' नाम का एक विशाल महारूपक अन्य रचा कि जो न केवल जैन साहित्य का सबसे पहला रूपक ग्रन्थ था वरन् समस्त भारतीय साहित्य के रूपक ग्रन्थों में वह शिरोमणि गिना जाता है। उसका साहित्यक मूल्य महान् है। सुप्रख्यात ० याकोबी अपनी 'उपमिती भव प्रपंच कथा' की अंग्रेजी प्रस्तावना में लिखते हैं
I did find something still more important. The great literary value of the U. Katha and the fact that it is the first allegorical work in Indian Literature.
. अर्थात् मुझे और भी अधिक महत्व की वस्तु मालूम हुई है। उपमिति भव प्रपंच कथा का साहित्यक मूल्य महान् है और यह भारतीय साहित्य का प्रथम रूपक ग्रन्थ है ।
यह ग्रंथ संवत् ११२ की ज्येष्ट सुदी पंचमी को समाप्त हुआ था। उपरोक्त सिद्धऋषिसूरि के सम्बन्ध में विभिड ग्रंथों में कुछ ऐतिहासिक विवरण हैं। उससे यह प्रगट होता है कि लाटदेश अर्थात् गुजरात में सूाचार्य नामक एक जैन आचार्य हुए। उनके शिष्य के शिष्य दुर्गस्वामी थे। वे मूल में बड़े धनवान, कीर्तिशाली तथा ब्रह्म गौत्र विभूषण ब्राह्मण थे। पीछे से उन्होंने जैन साधु की दीक्षा ली थी। इनका मारवाद के भीनमाल नगर में स्वर्गवास हुआ। श्री सिद्धऋषि इन्हीं दुर्गस्वामी के शिष्य थे।
-दुर्गस्वामी सिद्धऋषि के गुरु थे और सिद्ध ऋषि ने उनकी अनुकरणीय धर्मवृत्ति की बड़ी प्रशंसा की है। इन दोनों गुरु शिष्यों को गर्गस्वामी ने दीक्षित किया था। ये गर्गस्वामी संवत् ९६२ में विद्यमान थे। उन्होंने 'पासक केवली' तथा 'करम विपाक' नामक ग्रन्थों की रचना की थी।
___आचार्य सिद्धऋषि ने अपने ग्रन्थ में श्री हरिभद्रसूरि की बड़ी स्तुति की है। आपने कहा है कि मैं "इस प्रकार के हरिभद्रसूरि के चरण की रज के समान हूँ"। इसके आगे चल कर फिर आपने कहा है कि "मुझे धर्म में प्रवेश कराने वाले धर्मबोधक आचार्य हरिभद्रसूरि हैं। श्री हरिभद्रसूरि ने अपनी. भचिन्त्य शक्ति द्वारा मुझ में से कुर्वासना-मय विष को दूर करने की कृपा की और सुवासना रूप अमृत मेरे काम के लिये ढूंढ निकाला । ऐसे हरिभद्रसूरि को मेरा नमस्कार है"।
• संवत्सर शत नव के द्विषष्टि सहिते ऽतिलंघिते चास्याः ज्येष्टे सित पंचम्यां पुनर्वसौ गुरु दिने समाप्तिर भूत् +इन्हें श्री प्रभावकचरित्र में सूराचार्य कहा है। . .,
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ओसवाल जाति का इतिहास
उपरोक्त वाक्यों से यह प्रतीत होता है कि यद्यपि हरिभद्रसूरि सिद्ध ऋषि के साक्षात गुरु नहीं थे पर उनके परोक्ष धर्मोपदेशक थे । श्री सिद्ध ऋषि ने इस महान् ग्रन्थ की रचना मारवाड़ के भीनमाल नगर के एक जैन देरासर में की थी और श्री दुर्गस्वामी की गणा नाम की शिष्या ने इस ग्रन्थ की प्रथम प्रति लिखी थी।
यह ग्रंथ संस्कृत भाषा का एक अमूल्य रत्न है। आंतरिक वृत्तियों का सूक्ष्म इतिहास जैसा इस प्रन्थ में मिलता है वैसा दूसरे किसी ग्रन्थ में नहीं मिलता । एक विद्वान् का कथन है कि भारतीय धर्म और नीति के लेखकों में सिद्धऋषि का आसन सर्वोपरि है।
___ आचार्य सिद्धऋषि ने और भी कई महत्पूर्ण ग्रन्थ लिखे थे। चन्द्रकेवली* नामक प्राकृत भाषा के ग्रन्थ का आपने संस्कृत में अनुवाद(१) किया था। वि० सं० ९७४ में उन्होंने धर्मनाथ गणी कृत प्राकृत उपदेशमाला की संस्कृत टीका लिखी, जो अतीव महत्त्वपूर्ण और उपयोगी है। श्री सिद्धसेन दिवाकर कृत न्यायावतार ग्रन्थ पर भी आपने एक बहुत ही उत्तम वृत्ति लिखी है। तत्वार्थाधिगम नामक सूत्र पर भी सिद्ध ऋषि की एक वृत्ति है पर ये सिखऋषि उक्त सिद्धऋषि से जुदे मालूम पड़ते हैं।
श्री प्रभावक चरित्र में श्री सिद्ध ऋषि, उनकी गुरु परंपरा तथा हरिभद्रसूरि के साथ का उनका सम्बन्ध आदि बातों पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। कहने का अर्थ यह है कि श्री सिद्ध ऋषि आचार्य जैन साहित्य के प्रकाशमान रत्न थे और उनकी उपमिती भवप्रपंच कथा मानवीय हृदयों को जीवन के उच्चातिउच्च क्षेत्र में लेजाकर शान्ति के अलौकिक वायु मण्डल से परिवेष्ठित कर देती है। आचार्य जम्मूनाथ
आप बड़े विद्वान् जैन ग्रन्थकार थे । विद्वत्समाज में आपका बड़ा गौरव था। सवत् १००५ में मापने मणिपति चरित्र नामक ग्रन्थ की रचना की । इसके बाद आपने जिनशतक काव्य बनाया, जिसपर संवत् १०२५ में सांब मुनिने इसपर विस्तृत टीका लिखी। मुनी जम्मूनाथ ने दूत काव्य नामक एक अन्य काव्य-अन्य भी रचा था। मुनी प्रद्युम्नसूरि
चन्द्रगच्छ में प्रभुन्नसूरि नामक एक जैन साधु हो गये। आप वैदिक शास्त्र के बड़े पारगामी • इस ग्रंथ की मूल प्रति श्री कांति विजयजी के बढ़ौदे के भण्डार में मौजूद है। (१) वस्वकेषु मिते वर्षे श्री सिद्धर्षिरिदं महत् ।
प्राक् प्राकृत चरित्रादु धि चरित्रं संस्कृतं व्यधात् ॥
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ओसवाल जाति और प्राचार्य
विद्वान थे, उन्होंने अल्ल (२) की राजसभा में दिगम्बरियों को परास्त किया था। इसके अलावा उन्होंने सपादलक्ष, त्रिभुवनगिरि आदि राजाओं को जैन धर्म में दीक्षित किया था। ये बड़े जबर्दस्त तर्कवादी थे। आपके शिष्य समुदाय के माणिकचन्द्रसूरि ने अपने पाश्वनाथ चरित्र की प्रशस्ति में आपके गुणों का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है। मुनी न्यायवनसिंह
भाप प्रमुन्नसूरि के शिष्य थे। सुप्रख्यात आचार्य अभयसेनसूरि सिद्धसेन दिवाकर कृत सन्मति तर्क नामक ग्रंथ पर आपने तत्त्ववोध विधायनी टीका रची, जो "वाद महार्णव' नाम से प्रख्यात है।
इस पर से आपकी अगाध विद्वत्ता का पता चलता है। यह अनेकान्त दृष्टि का दार्शनिक ग्रंथ है और उसमें अनेकांत रष्टि का स्वरूप और उसकी न्याति तथा उपयोगिता पर बहुत ही अच्छा प्रकाश डाला गया है। इसमें सैकड़ों दार्शनिक ग्रंथों का दुहन करके जैन धर्म के गूदातिगू द दार्शनिक सिद्धान्तों को बहुत ही उत्तमता के साथ समझाया गया है।
महाकवि धनपाल
सुप्रख्यात विद्याप्रेमी महाराजा भोज मालवाधिपति की सभा में जो नवरत्र थे, उनके महाकवि धनपाल.का भासन अपना विशेष स्थान रखता था। बाल्यावस्था से ही महाराजा भोज और धनपाल में बड़ी मैत्री का सम्बन्ध था। महाराज ने इनकी अगाध विद्वत्ता से प्रसन्न होकर इन्हें "सरस्वती" की उच्च उपाधि से विभूषित किया था। महाकवि धनपाल पहिले वैदिक धर्मावलम्बी थे पर पीछे से अपने बन्धु सोभनमुनि के संसर्ग से उन्होंने जैनधर्म स्वीकार किया । इतना ही नहीं, उन्होंने महेन्द्रसूरि नामक जैन साधु के पास से स्याद्वाद् सिद्धान्त का अध्ययन कर जैन दर्शन में गम्भीर पारदर्शिता प्राप्त की थी। महाकवि धनपाल के इस धर्म परिवर्तन से महाराजा भोज को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने धनपाल से इस संबंध में शास्त्रार्थ किया। पर इसमें महाकवि धनपाल ने जैन धर्म के महत्वको महाराजा भोज पर अंकित किया।
महाकवि धनपाल बड़े प्रतिभाशाली कवि और ग्रंथकार थे । आपकी लिखी हुई "तिलक मारी" बड़ा ही उच्च श्रेणी का ग्रंथ है। इसमें जैन सिद्धान्तों का गम्भीर तथा सुन्दर विवेचन है।
इस ग्रन्थ के अवलोकन से महाकवि धनपाल के उदार हृदय का पता लगता है, आपने स्वमत तथा
(२) अल्लू से शायद मेवाड़ के भालू रावल का बोध होता है। संवत् १००८ के शिला लेखों से शात होता है कि वह मेवाड़ के बाहर (भाघाट) प्रान्त में राज करता था
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ओसवाल जाति का इतिहास
पर मत के महाकवियों की और उनकी कृतियों की बड़ी प्रशंसा की है । इन्द्रभूति, गणवर, वाल्मीकि, वेद. व्यास, गुण्याढ्य, ( बृहत्कथाकार ) प्रवरसेन पाद लिस कृत तरंगवती, जीवदेवसूरि, कालिदास, बाण, भारवी, हरिभद्रसूरि, भवभूति, वाक्पति राज, बपभष्ट, राजशेखा कवि, महेन्द्रसूरि, रुद्रकवि आदि अनेक महाकवियों की बड़ी प्रशंसा की है। महाकवि धनपाल का तिलक मंजरी ग्रंथ संस्कृत साहित्य का एक अमूल्य रन है। यह ग्रंथ बड़ा ही लोक प्रिय है। इसकी समग्र कथा सरल और सुप्रसिद्ध पदों में लिखी गई है। प्रसाद गुण से वह अलंकृत है। हेमचन्द्राचार्य सरीखे प्रकाण्ड विद्वानों ने इस ग्रन्थ को उच्चकोटि का ग्रंथ माना है। उन्होंने अपने काम्यानुशासन में उसका बहुत कुछ अनुकरण करने की चेष्टा की है। यह कथा नवरस और काव्य से परिपूर्ण है। प्रभावक चरित्रकार का कथन है, कि उक्त कथा को जैनाचार्य शांतसूरिजी ने संशोधित किया था। संवत् ११३० की लिखी हुई इसको । प्रति इस समय भी जैसलमेर के भण्डार में विद्यमान है। इसके अतिरिक्त महाकवि धनपाल ने प्राकृत भाषा में श्रावकविधि, ऋषभ पंचाशिका, “सत्यपुरीय श्रीमहावीर उत्साह" नामक ग्रन्थ रचे, जिनमें अंतिम ग्रंथ स्तुति काव्य पर है, और उसमें कुछ महत्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी है।
आचार्य शन्तिसूरिजी
आप प्रभावशाली तथा विद्वान थे। आपने ७०० श्रीमाली कुटुम्बों को जैन बनाया था । आप बड़गच्छ के थे। महाराजा भोज ने आपको अपनी राजधानी धार में निमंत्रित किया था। वहाँ विद्वानों की सभा में आपने अपनी अलौकिक प्रतिभा का परिचय दिया, इससे महाराजा भोज ने आपको “वादि ताल" की उपाधि से विभूषित किया । आपने जैनियों के सुप्रसिद्ध उत्तराध्ययन "सूत्र पर बड़ी ही सुन्दर टीका की। उसमें प्राकृत भाषा का बाहुल्य होने से उसका नाम" "पाईय टीका" रक्खा गया। संवत् १०९६ में आपका स्वर्गवास हुआ।
आचाय्य वर्द्धमानसूरि
संवत् १०५५ में आपने हरिभद्र कृत उपदेश पद की टीका की। इसके अतिरिक्ति मापने उपदेश माला वृहद् वृत्ति नामक ग्रन्थ लिखा। विक्रम संवत् ९४५ का कटिग्राम में एक प्रतिमा लेख प्राप्त हुआ है, जिसमें आपके नाम का उल्लेख है । संवत् १०४८ में आपका स्वर्गवास हुभा ।
१०.
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सवाल जाति का इतिहास
( पश्चात् भाग ) श्रीपार्श्वनाथ मंदिर लोद्रवा जैसलमेर ) ( श्री बा० पूरणचन्द्रजी नाहर के सौजन्य से
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.. ओसवाल जाति और आचार्य
आचार्य अभयदेवसरिजी
आप बड़े प्रभावशाली जैन आचार्य थे। सुप्रसिद्ध गुर्जराधिपति राजा सिद्धराज जयसिंह ने आप को "मल्लधारी" की उपाधि से विभूषित किया था। सौगष्ट्र के राजा वंगार ने भी आपका बड़ा सम्मान किया था। आपने एक हजार से अधिक ब्राह्मणों को जैन धर्म में परिवर्तित किया। आपके उपदेश से भुवनपाल राजा ने जैन मन्दिर में पूजा करने वालों पर लगने वाला कर माफ़ किया था। शांकभरी (सांभर ) के राजा पृथ्वीराज ने आपके उपदेश से रणथंभोर नगर में जैन मन्दिर बनवा कर उस पर स्वर्ण कलश चढ़वाया । आपके प्रतिबोध से सिद्धगज ने अपने राज में पयूषण पर्व पर हिंसा करने की मनाही कर दी थी। विक्रम संवत् ११४१ की माघ सुदी ५ को अंतरीक्ष पार्श्वनाथ की मूर्ति को आपने प्रतिष्ठा को। उक्त अंतरीक्ष पार्श्वनाथ का तीर्थ आज दिन भी प्रसिद्ध है। श्री भावविजय गणीजीने अपने अंतरीक्ष महात्म्य में आपकी इस प्रतिष्ठा का सविस्तृत उल्लेख किया है। . आपने अपने जीवन के अन्तिम काल में अनशनवृत धारण किया और इसीसे आप अजमेर नगर में स्वर्गधाम पधारे। आपका अग्निसंस्कार बड़े धूमधाम के साथ हुआ। रणथंभोर के जैन मन्दिर के एक शिलालेख में लिखा है कि "अजमेर के तत्कालीन राजा जयसिंहराज अपने मन्त्रियों सहित आपकी रथी के साथ श्मशान तक गये थे"। इतना ही नहीं प्रति घर एक एक आदमी को छोड़ कर अजमेर नगर को सारी की सारी जनता आपके अनि संस्कार के समय उपस्थित थी।
आचार्य जिनदत्तसरिजी.
__आप आचार्य जिनवल्लभपूरिजी के पट्टधर शिष्य थे। आपने हजारों राजपूतों को प्रतिबोध देकर उन्हें जैन श्रावक अर्थात् ओसवाल बनाया था। आप बड़े प्रभावशाली और विद्वान् आचार्य थे और आज यद्यपि आपका शरीर इस संसार में नहीं है पर आज भी आप सारे जैन संसार में दादा नाम से विख्यात् हैं । संवत् ११७९ में आपको सूरिपद प्राप्त हुआ। संवत् १२१1 में अजमेर में आपका स्वर्गवास हुआ, जहाँ आपका स्मारक अभी तक विद्यमान है जो दादा वाड़ी के नाम से विख्यात है। आपने अनेक ग्रन्थों की रचना की, जिनमें निम्नलिखित ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। (१) गणधर सार्थशतक प्राकृत गाथा (२) संदेह दोलावली ( ३ ) गणधर सप्तती (४) सव धिष्ठायि स्तोत्र (५) सुगुरु पारतंत्र्य (६) विघ्न विनाशो स्तोत्र (७) अवस्था अझक (८) चैत्य वंदन कुलक, आदि आदि। .
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भोसवाल जाति का इतिहास आचार्य नेमीचन्द्रसूरिजी
भापका दूसरा नाम देवेन्द्रर्माण था। भाप बड़गच्छ के आनदवसूरि के शिष्य थे। विक्रम संवत् १२९ में आपने उत्तराययन सूत्र पर टीका की। आपने पर वचन सारोद्धार आख्यान मगिकोप तथा वीर चरित्र आदि ग्रन्थ रचे हैं। आपको सैद्धान्तिक शिरोमणि की उपाधि भी प्राप्त थी।
आचार्य जिन वल्लभसूरि __जैन धर्म के आप महान् प्रतिभाशाली, कीर्तिमान और प्रख्यात् आचार्य थे। भाप खरतरगच्छ के जन्मदाता कहे जाते हैं। चित्रकूट में आपने अपने उपदेश से सैकड़ों आदमियों को जैन धर्म से दीक्षित किया और २ विधि चैत्य की प्रतिष्ठा की। इसके बाद आप ने बागड़ प्रान्त के लोगों को जैन धर्म का प्रतिबोध दिया और वहाँ भगवान महावीर की धर्भध्वजा उड़ाई। इसके बाद आप धारा नगरी पवारे, जहाँ के राजा नरवर ने आपका बड़ा आदरातिथ्य किया। इसके बाद आपने नागोर में नेमिजिनालय की और मरवरपुर में विधि-चैत्य की प्रतिष्ठा की।
अभयदेव सूरि के आदेश से देवभद्राचार्य ने आपको सूरि का पद प्रदान किया। इससे वे अभयदेव सूरि के पट्ट-धर शिष्य हो गये । इसके ६ मास वाद संवत् ११६७ में आपका स्वर्गवास हुभा । भापने कई ग्रंथ रचे, जिनमें से कुछ के नाम इस प्रकार हैं। (1) पिंड विशुद्धि प्रकरण ( २ ) गणधर सार्थशतक (३) आगमिक वस्तु विचारसार ( ४ ) पौषध विधि प्रकरण (५) संघ पट्टक प्रतिक्रमण समाचारी (६) धर्म शिक्षा ( 0 ) धर्मोपदेशमय द्वादश कूलकरूप प्रकरण (८) प्रश्नोत्तर शतक (९) भंगार शतक (1० ) स्वप्माष्टक विचार (1) चित्रकाव्य (१२) अदित शान्ति स्तव (1) भावारि वारण स्तोत्र ( 11 ) जिनकल्याणक स्रोत्र (१५) जिन चरित्रमय जिन प्रोत्र (१६) महावीर चरित्रमय वीरस्तव आदि आदि ।
कहा जाता है कि संवत् ११६४ में जिन वल्लभसूरिजी ने अपनी कृतियों में से भष्टसप्तति का संघ पट्टक और धर्म शिक्षा आदि को चित्रकूट, नरवर, नागोर, मरुपुर आदि के स्वप्रतिष्ठित विधि चैत्वों में प्रशस्ति रूप से खुदवाये। कक सूरिजी
भाप उकेशगन्छ के देवगुप्त सरि के शिष्य थे । मापने श्री हेमचन्द्राचार्य तथा कुमारपाल राजा
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ओसवाल आति और प्राचार्य
की प्रेरणा से क्रियाहीन चैत्यवासियों को हराकर गच्छ से बाहर किये। ये महान् विद्वान् और प्रभावशाली थे। उन्होंने पंच प्रमाणिका, तथा जिन-चैत्य-वंदन विधि आदि बहुत से ग्रन्थ रचे । संवत् १५४ में आपका देहान्त हुआ। देवभद्रसूरिजी
आप संवत् ।।६८ में विद्यमान थे। भाग्ने अनेक ग्रंथ रचे जिनमें पार्श्वनाथ चरित्र, संवेग रंगशाला, वीरचरित्र तथा कथा रत्न कोष आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। जिस वक्त मापने भदौच में श्री पार्श्वनाथ चरित्र रचा था उस समय वहाँ मुनि सुव्रतस्वामी का स्वर्ग गुम्मज वाला जैम मन्दिर विद्यमान था ।
श्री हेमचन्द्राचार्यजी
जैन साहित्याकाश में श्री हेमचन्द्राचाय्य का नाम शरद पौर्णिमा के पूर्ण चन्द्र की तरह आलो. कित हो रहा है। संसार के अत्यन्त प्रकाशमान विद्वानों, कवियों और तस्वज्ञों में हेमचन्द्राचार्य का मासन बहुत ऊँचा है। श्री हेमचन्द्राचार्य की विद्वत्ता अलौकिक और अगाध थी। उनकी प्रतिभा सर्वतोमुखी थी। उन्होंने विविध विषयों पर महान् ग्रन्थ रचे जो आज भी संस्कृत साहित्य के लिये बड़े गौरव की वस्तु हैं।
इन महाप्रतिभाशाली आचार्यदेव का जन्म संवत् १४५ की कार्तिक पौर्णिमा के दिन हुआ। "होनहार बिरवान के होत चीकने पात" वाली कहावत इनपर पूर्ण रूप से लागू होने लगी। थोड़ी ही अवस्था में आपने देवचन्द्र सूरि से जैनधर्म की दीक्षा ली। आप पूर्व जन्म के सुसंस्कार से कहिये तथा आपकी तीन स्मरण शक्ति वा धारणा शक्ति से कहिये, आपने जैन शास्त्रों का गंभीर ज्ञान प्राप्त कर लिया । उत्कट आत्म संयम, इन्द्रिय दमन, वैराग्य वृत्ति से आजन्म तक आपने नैष्टिक ब्रह्मचर्य व्रत सेवन किया । पहिले आपका नाम सोमचन्द्र था, पर संवत् ११६२ में आप के गुरू ने मारवाद के नागोर नगर में आपको आचार्य पद से विभूषित किया और आप का नाम सोमचन्द्र से बदल कर हेमचन्द्र रक्सा । धीरे २ भाप की विद्वत्ता का प्रकाश बढ़ती हुई चन्द्रकला की तरह चमकने लगा। आप विविध ग्रामों में घूमते हुए गुज. रात की तत्कालीन राजधानी अगहिलपुरपाटण में पधारे। उस समय वहाँ महाराज सिद्धराज जयसिंह राज्य करते थे। ये बड़े पराक्रमी, प्रजाप्रिय और विद्वानों का बड़ा सत्कार करनेवाले थे। हेमचन्द्राचार्य की कीर्ति शीघ्र ही सारे नगर से फैल गई। राजा ने आप को अपनी सभा में निमन्त्रित किया । आचार्य्यवर के भलौकिक व्यक्तित्व से सारी सभा में संस्कृति का प्रकाश चमकने लगा। श्री हेमचन्द्राचार्य के अगाध.
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ओसवाल जाति का इतिहास पांडित्य और अनुकरणीय दरदर्शिता से सिद्धराज नरेश और उनका मन्त्रिमण्डल बहुत ही प्रभावित हुआ। आपने जैनधर्म के सिद्धान्तों को इतनी खूबी के साथ राजा और उनकी विद्वन्मण्डली के सम्मुख रक्खा, कि सब लोग आप को अकाव्य दलीलों पर वाह २ करने लगे। पहिले कहा जा चुका है कि महाराज सिद्धराज जयसिहदेव विद्या के अनन्य प्रेमी व विद्वानों के भक्त थे तथा इसके कुछ ही समय पहिले जयसिंहदेव ने सुप्रख्यात् विद्याप्रेमी मालवाधिपति राजा भोज पर विजय प्राप्त की थी। मालवे की राजधानी धारा नगरी की समग्र समृद्धि तथा भोज राजा का विशाल पुस्तक भंडार पाटण में लाया गया था। विजयलक्ष्मी से सुशो. मित होकर जब महाराजा पाटन में आये, तब अनेक पंडित उन्हें आशीर्वाद देने के लिये उनके महल में उपस्थित हुए । कहने की आवश्यकता नहीं कि हेमचन्द्रसूर भी राजा को आशीर्वाद देने पधारे। इस समय आपने महाराजा भोज के ग्रन्थ भण्डार का निरीक्षण किया। भण्डार के रक्षकों ने उस समय भण्डार से. एक ग्रन्थ निकाल कर राजा की सेवा में भेंट किया, उस पर राजा ने आचार्य देव से पूछा कि "यह क्या ग्रन्थ है।" तब आचार्यदेव ने जवाब दिया, “यह भोज व्यारण नाम का शब्द शास्त्र है" इसके बाद भोज को प्रशंसा करते हुए आचार्य देव ने महाराजा जयसिंह से कहा कि "मालव नरेश भोज विद्वच्चक्र शिरोमणि थे।" उन्होंने शब्द शास्त्र, अलंकारशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, तर्कशास्त्र, चिकित्सा शास्त्र, राजनीतिशास्त्र, तरुशास्त्र, वास्तुलक्षण, अंकगणित शकुन विद्या, अध्यात्म शास्त्र, स्वप्नशास्त्र, सामुद्रिकशास्त्र, आदि अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया था । यह सब सुन कर सिद्धराज जयसिंहदेव बोले, "क्या हमारे यहाँ इस प्रकार का सर्व शास्त्र, निष्णात पंडित नहीं हैं ?" इस समय सब उपस्थित विद्वानों की दृष्टि आचार्य हेमचन्द्र पर पड़ी। राजा ने हेमचन्द्र से विनय की कि आप 'शब्द व्युत्पत्ति' शास्त्र पर कोई ग्रन्थ रख कर हमारे मनोरथ को सफल करें। आपके सिवाय इस कार्य को पूरा करने वाला कोई दूसरा विद्वान् नहीं है। मेरा देश और मैं धन्य हूँ, कि जिसमें आप सरीखे अलौकिक विद्वान निवास करते हैं।
श्री हेमचन्द्राचार्य ने राजा की अभिलाषानुसार "सिद्ध हेम व्य करण” नामक महान् ग्रन्थ रचा। राजा को उक्त अन्य बहुत पसन्द आया, और उन्होंने अपने देश में उसके अध्ययन और अध्यापन का प्रारम्भ किया । इतना ही नहीं उन्होंने अपने मित्र राजाओं को भी लिख कर अङ्ग, बङ्ग, कलिंग लाट और कर्नाटक आदि देशों में भी उसका प्रचार करवाया और उसकी २० प्रतियाँ काश्मीर भेजी । उसकी कुछ प्रतियां अपने राजकोष में भी रक्खीं। जा लोग इस व्याकरण का अध्ययन करते थे, उन्हें राज्य की ओर से कॉफी उचेजन मिलता था। काकल नामक अष्ट व्याकरण का एक विद्वान कायस्थ इस व्याकरण को पढ़ाने के लिये रक्खा गया । ज्ञान पंचमी आदि दिनों में इसकी पूजा अर्चना होने लगी । (श्री प्रभावक चरित्र लोक ९५-११५) इतना ही नहीं यह ग्रन्थ स्वयं राजा की सवारी करने के हाथी पर रख कर बड़े समारोह
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ओसवाल जाति पार आचार्य
के साथ राज दरबार में लाया गया । जब हाथी पर इस ग्रन्थ की सवारी निकल रही थी तब दो सुन्दरियाँ इस पर चंवर डुला रही थी। इसके बाद राजसभा में विद्वानों द्वारा इसका पठन करवाया गया। यह व्याकरण भारतवर्ष के विद्वानों में अत्यधिक विश्वसनीय और माननीय समझा जाता है। पाणिनी और शाकटायन को छोड़कर इस व्याकरण के बर बर किसी भी अन्य संस्कृत व्याकरण का आदर नहीं है।
श्री हेमचन्द्राचार्य ने लोक कल्याण में अपने जीवन को समर्पित कर दिया था । वे महा. प्रभावशाली पुरुष थे । उन्होंने कोई ॥ लाख मनुष्यों को जैनधर्म का अनुयायी बनाया। उन्हीं के उपदेश से कुमारपाल ने जैनधर्म की बड़ी ही प्रशंसनीय प्रभावना की। जिस प्रकार आचार्य श्री ने सिन्द्वराज के आग्रह से सिद्ध हेम व्याकरण रचा उसी प्रकार आपने कुमारपाल के लिए योगशास्त्र, वीतराग स्तोत्र, त्रिशष्टि तलाका पुरुष चरित्र नामक ग्रन्थ रचे । इनके अतिरिक्त द्वयाश्रय, छंदोनुशासन, अलंकार, नाम संग्रह, आदि महत्वपूर्ण ग्रन्थ भी निर्मित किये । श्री हेमचन्द्राचार्य के जीवन को जगत में शाश्वत प्रकाशित रखने वाला उनका अगाध ज्ञान और उनके अलौकिक ग्रन्थ हैं। उन जैसे सकलशारों में पारंगत विद्वान जगत के इतिहास में बहुत ही कम मिलेंगे। अपने अपरिमित ज्ञानही के कारण वे कलिकाल सर्वज्ञ कहलाये । सुप्रख्यात् पाश्चात्य विद्वान पिटर्सन ने उन्हें ज्ञान का सागर ( Ocean of knowledge ) कहा है। कहा जाता है कि उन्होंने ३॥ करोड़ श्लोकों की रचना की।
यद्यपि अभी तक आचार्य हेमचन्द्र का इतना साहित्य उपलब्ध नहीं है, पर जो कुछ भी उपलध है वह इतना विशाल है कि जिसे देखकर आचार्य श्री की अगाध विद्वत्ता का पता मिलता है। हेमचन्द्राचार्य की साहित्य सेवा
श्री हेमचन्द्राचार्य की साहित्य सेवा का थोड़ा सा परिचय हम ऊपर दे चुके हैं। भाचार्य श्री के व्याकरण के सम्बन्ध में यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त है कि उक्त व्याकरण अति प्रामाणिक सुबोध, सरल और विश्वसनीय है। पूर्व समय के आपिशली, यास्क, शाकटायन, गार्ग्य, वेद मित्रशाकल, चन्द्रगोयी, शेषभट्टारक, पतंजली, पाणिनि, देवनंदी,. जयादित्य, विश्रांत, विद्याधर, विश्रान्तन्यासकार जैन शाकटायन, दुर्गासिंह, श्रुतपाल, क्षीर स्वामी, भोज, नारायण कंठी, मिल, शिक्षाकार, उत्पल, न्यासकार, पारायण कार, आदि अनेक प्रसिद्ध पूर्वगामी व्याकरणों का उल्लेख आपके व्याकरण में मिलता है। भापने अपने व्याकरण में इन सब वैयाकरणों के मतों का बड़े ही विवेक के साथ उपयोग किया है और कहीं २ उनकी समालोचना भी की है । इससे आपका व्याकरण भारतीय साहित्य के इतिहास में एक अलौलिक वस्तु हो गया है।
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औसवाल जाति का इतिहास
____श्री हेमचन्द्राचार्य ने कई काव्य ग्रन्थ भी लिखे हैं। आपका द्वाश्रय महाकाव्य अति महत्व का ऐतिहासिक ग्रन्थ है। उसमें विशेष कर चालुक्य वंश तथा सिद्धराज जयसिंह का दिग्विजय वर्णन है । आपका दूसरा काव्य कुमारपाल चरित्र है, वह भी काव्य चमत्कृति का एक नमूना है। आपका योग शास्त्र भी अपने विषय का अपूर्व ग्रन्थ है। इस विषय को आपने बड़ी ही सरलता के साथ समझाया है और विविध योग क्रियाओं का अनुभवपूर्ण वर्णन किया है। इसी प्रकार दर्शन शास्त्रों पर भी आपने बहुत कुछ लिखा है। आपका काव्यानुशासन ग्रन्थ साहित्यशास्त्र का एक अमूल्य रत्न है । इसी प्रकार आपका छंदानुशासन प्रन्थ काव्य-शास्त्र में अपना उच्च स्थान रखता है। आपने ४ कोष प्रन्थ भी लिखे हैं जो भारतीय साहित्य के बहुमूल्य रत्न हैं। इस प्रकार सैकड़ों ग्रन्थ लिख कर आपने साहित्य संसार में अमर कीर्ति पाई है।
सुप्रख्यात् विद्वान आचार्य आनन्दशंकर ध्रुव का कथन है कि "ईसवी सन् १०८९ से लगाकर 11७३ तक का समय कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य के तेज से दैदीप्यमान हो रहा था।" इन प्रतिभाशाली आचार्य देव का स्वर्गवास सं० १२२९ में हुआ। रामचन्द्रसूरि
आप श्री हेमचन्द्राचार्य के पट्टधर शिष्य थे। सिद्धराज जयसिंह ने आपको "कवि कटारमल" नामक उपाधि प्रदान की थी। आपने अपने रघुविलास, कौमुदी, आदि ग्रंथों में अपने आपको अचुम्बित काव्यतंद, विषीर्ण काम निर्माग तन्द्र, आदि विशेषणों से युक्त किया है। आपमें समस्या पूर्ति करने की अद्भुत् शक्ति थी। शब्द शास्त्र, काव्य शास्त्र तथा न्यायशास्त्र के आप बड़े पण्डित थे। यह बात आपने अपने नाव्य दर्पग विवृत्ति नामक ग्रंथ में भी प्रगट की है। महाकवि श्रीपाल कृत, "सहस्त्र लिंग सरोवर" की प्रशस्ति में काव्य दृष्टि से आपने कई दोष निकाल कर सिद्धराज को बतलाये थे। जिसका उल्लेख प्रबन्ध चिंतामणि नामक ग्रन्थ में किया गया है। जयसिंह कृत कुमारपाल चरित्र में लिखा है कि जव १२२१ में श्री हेमचन्द्राचार्य का स्वर्गवास हुआ और कुमारपाल को महाशोक हुआ तब रामचन्द्रसूरि ने अपने शांतिमय उपदेशामृत से उक्त राजा को बड़ी सान्त्वना दी थी।
रामचन्द्र सूरि ने स्वोपज्ञ वृत्ति सहित द्रव्यालंकार और विवृित्ति सहित नाव्य दर्पण नामक अन्थों की रचना की। पहला ग्रन्थ जैन दर्शन से सम्बन्ध रखता है और उसमें जीव-द्रव्य, पद्गल द्रव्य, धर्म, अधर्म, आकाश, आदि का बहुत ही सूक्ष्म विवेचन किया है। दूसरा ग्रन्थ नाट्य शास्त्र सम्बन्धी है, इसमें नाटक, नाटिका, प्रकरण, प्रकरणी, न्यायोप, समवकार, भाण, प्रहसन डिम, भक, भादि १२ रूपक का
• प्रभावक चरित्र श्लोक १२६ से १३७ तछ ।
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मोमबाल जाति और श्राचार्य
स्वरूप दिखलाया गया है और उसके निरूपण में लगभग ५५ नाटकादि निबन्धों के बाहरण दिवे गये हैं।
प्रबन्ध चिंतामणि नामक ग्रन्थ में रामचन्द्रसूरि को प्रबन्धशतकर्ता के नाम से सम्बोधित किया गया है। इससे कितने ही विद्वानों ने यह अनुमान किया है कि उन्होंने सब मिला कर सौ ग्रन्थों की रचना की होगी । पर फिल हाल उनके इतने ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं। फिलहाल उनके जो जो ग्रन्थ उपलब्ध हैं, वे निम्न लिखित हैं। सत्य हरिश्चन्द्र नाटक, कौमुदी मित्रानंद, निर्भय भीम व्यायोग, राघवाभ्युदय, यादवाभ्युदय, यदुविलास, रघुविलास, नवबिलास नाटक, मल्लिका मकरन्द प्रकरण, रोहिणी मृगांक प्रकरण, बनमाला नाटिका, कुमार विहारशतक, सुधाकलश, हैम हहृद वृत्ति न्यास, युगादिदेव द्वात्रिंशिका, प्रसाद द्वात्रिंशिका आदिदेवस्तव, मुनिसुवतस्तव, नेमिस्तव, सोलाजिनस्तव, तथा जिन शास्त्र । इन तमाम ग्रन्थों की रचना मौलिक है और उसमें लेखक के महान् व्यक्तित्व की छाप जगह २ पर प्रकट होती है। महेन्द्रसूरि
रामचन्द्र सूरि के अतिरिक्त हेमचन्द्राचार्य के गुणचन्द्र, महेन्द्रसूरि, बर्द्धमानसूरि, सोमप्रभसूरि आदि कई शिष्य थे । गुणचन्द्रसूरि ने,रामचन्द्रसूरि के साथ मिल कर कुछ ग्रंथों की रचना की थी। महेन्द्रसूरि ने संवत् १२४१ में श्री हेमचन्द्राचार्य कृत कैरवा कर कोमुदी नामक ग्रन्थ की टीका की। श्री वर्द्धमान गणि ने कुमार विहार प्रशस्ति काव्य नामक ग्रन्थ को रचना की। उक्त तीनों मुनी राजों का प्रतिबंधक म्याख्यान राजा कुमारपाल ने सुनाया। हेमचन्द्र के एक दूसरे शिष्य देवचन्द्र ने एक 'चन्द्र लेखा विजय' नामक ग्रन्थ रचा। कहने का अर्थ यह है कि श्री हेम वन्द्राचार्य के बाद भी उनके शिष्यों का गुजरात के तत्कालीन नरेशों पर अच्छा प्रभाव था।
यह कहने में तनिक भी अतिशयोक्ति न होगी कि हेमचन्द्राचार्या अपने युग से प्रवर्तक थे । जैन साहित्य के इतिहास में वह युग "हेमयुग" के नाम से प्रसिद्ध है। जैन शासन और साहित्य के लिये यह युग वैभव, प्रताप तथा विजय से दैदीप्यमान युग था। उसका प्रभाव सारे गुजरात पर पड़ा और आज भी उस युग को लोग हेम-मय, स्वर्णमय युग कहकर स्मरण करते हैं। मल्लवादी प्राचार्य
भाप भी जैन साहित्य के अच्छे विद्वान थे। आपने धर्मातर टिप्पणक नामक प्राकृत भाषा का एक अन्य ताद पन पर लिखा, जिसकी मूल कापी अब भी पाटन के भण्डार में मौजूद है।
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ओसवाल जाति का इतिहास
रत्नप्रभूसार
आप महान भाचार्य श्री वादिदेवसूरिजी के शिष्य थे। संवत् १२३३ में आप विद्यमान थे। आपने प्राकृत भाषा में नेमिनाथ चरित्र नामक ग्रन्थ रचा। संवत् १२३८ में आपने भड़ोंच नगर में श्री धर्मदासकृत उपदेशमाला पर टीका की । इसके अतिरिक्त आपने श्री वादीदेवसूरि रचित "५याद्वाद रत्नाकर" की अत्यन्त गहन रत्नाकर अवसारिका नामक टीका की। इसके अलावा आपका इस समय कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हो रहा है। महेश्वरसूरि
आप भी वादिदेव सूरि के शिष्य थे। आपने पाक्षिक सप्तति नामक ग्रन्थ पर सुख प्रबोधिनी नामक टीका रची, जिसमें आपको वज्रसेन गणि से भी बहुत मदद मिली थी।
भासड
आप जैन साहित्य के महान् कवि और श्रावक थे । आप श्रीमाल वंश के कटुक राजा के पुत्र थे । उक्त राजा की जैन दर्शन में पूर्ण श्रद्धा थी। आपने जैन सिद्धान्त का बहुत गम्भीर अध्ययन किया था। आप "कवि सभा शृंगार' नामक उपाधि से विभूषित थे। इसके अतिरिक आपने कालिदास, मेघदूत पर और अनेक जैन स्तोत्रों पर टीकाएं रची । आपने उपदेश कंदली नामक एक पंथ भी बनाया । भापका “बाल सरस्वती" नामक प्रख्याति पाये हुये विद्वान पुत्र का तरुणावस्था में देहान्त हो गया था। इससे आप पर शोक का बहुत जोरों का प्रादुर्भाव हुआ। ऐसे समय में श्री अभयदेव सूरि ने भापको धर्मोपदेश देकर सात्वना दी। उन्हीं उपदेशों को ग्रंथित करके आपने विवेक मंजरी नामक ग्रंथ प्रकाशित किया।
बालचन्द्रसूरि
आप संस्कृत साहित्य के महान् कवि थे। आपने बसन्त विलास नामक एक बड़ा ही मधुर कान्य रचा । इस काव्य का रचना काल संवत् १२०७ से ८७ के मध्य तक अनुमान किया जाता है । इसके पहिले आपने आदि जिनेश्वर नामक स्तोत्र भी रचा था।
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ओसवालं जाति और प्राचार्य
अमरचन्द्रसूरि
___ आप संस्कृत साहित्य के बड़े ही नामांकित बिहान् थे। भाप के ग्रंथों की कीर्ति न देवक जैन समाज में वरन् ब्राह्मण समाज में भी फैली हुई थी। ब्राह्मणों में उनके बालभारत और कवि कल्पलता ग्रंथ विशेष प्रख्यात् हैं। भाप ने कवि कल्प लता पर कवि शिक्षा" नाम की टीका भी रची। इसके अतिरिक्त आपने छंदो स्तनावली, काय करूप लता परिवल, अलंकार प्रबोध, स्याद्वाद समुच्चय, पद्मानंद काव्य आदि अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथ रचे। आप के पद्मानंद काव्य में २४ तीथङ्करों का चरित्र अंकित किया गया है । इसी से उसका दूसरा नाम जिनचरित्र भी है।
अमरचन्द्रसूरि बड़े मेधावी और प्रतिभावान कवि थे। वस्तुपाल जैसे महान् पुरुष उनके पैरों में सिर झुकाते थे। राजा विसलदेव भी उन्हें बहुत मानते थे। जयसिंहसूरि
___ आप वीरसूरि के शिष्य और भडोच के मुनि सुखत स्वामी के मन्दिर के आचार्य थे। एक समय मंत्री तेजपाल यात्रा करते हुए उक्त मन्दिर में पहुंचे। तब उक सूरिजी ने एक काग्य के द्वारा आप की स्तुति की और उक्त मंत्री महोदय से सोने का ध्वजा दंड चढ़ाने का आग्रह किया। मंत्री तेजपाल मे सूरिजी के इस आग्रह को स्वीकार किया और उन्होंने मन्दिर पर सोने का ध्वजा डंड चढ़ा दिया। इस पर सूरिजी ने वस्तुपाछ तेजपाल नामक दोनों भाइयों की प्रशंसा में एक सुंदर प्रशस्ति काव्य रचा, और उसे उक्त मन्दिर की भीत में खुदवा दिया। इस काव्य में मूलराज से वीरधवल राजा तक की वंशावली तक का ऐतिहासिक वर्णन दिया गया है। इसके सिवाय आपने हम्मीरमद मर्दन काग्य नामक एक नाटक ग्रंथ रचा। यह एक ऐतिहासिक नाटक है और इसमें वस्तुपाल तेजपाल द्वारा मुसलमानों के आक्रमणों को विफल किये जाने का मधुर वर्णन है। इस नाटक की ताइपत्र पर लिखी हुई सनत् १२८६ की एक प्रति मिली है।
उदयप्रभुसूरि
भाप वस्तुपाल के गुरू तथा विजयसेनसूरि के शिष्य थे । आप को वस्तुपाल ने सूरिपद से अलंकृत किया था। मापने सुकृति कल्लोलिनी नामक प्रशस्ति काव्य की रचना की, जिस में वस्तुपाल तेजपाल के धार्मिक कार्यों और यश का गुणानुवाद किया गया है। संवत् १२७८ में जब वस्तुपाल ने शत्रुजय की
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
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यात्रा की थी उस समय यह काव्य रचा गया था। वस्तुपाल ने अपने बनाये इन्द्र मण्डप के एक पत्थर पर इस काव्य को खुदवाया था। इसमें काव्यस्व के &चे गुणों के साथ २ बहुत महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ज्ञान भी भरा हुआ था। इसमें बस्तुगल की वंशावली के साथ २ चालुक्य वंश के राजाओं का वर्णन भी दिया गया है। इसके अतिरिक्त उक्त सूरिजी ने और भी बड़े २ ग्रंथ रचे हैं। आपने धर्म शर्मा अभ्युदय
और संघाधिपति चरित्र नामक महाकाव्य रचे। आरंभ सिद्धि नामक आपने ज्योतिष शास्त्र का भी एकग्रंथ बनाया। इसके अतिरिक्त संस्कृत नेमिनाथ चरित्र भी आप की कृति का फल है ।
प्रभाचन्द्रसूरि
आप विक्रम संवत् १५३४ में विद्यमान थे। आपने प्रभाविक चरित्र नाम का एक अत्युत्तमः ऐतिहासिक ग्रंथ लिखा है।
बजसेनसूरि.
आप तपैगच्छ की नागरिष शाखा के श्री हेमतिलक सूरि के शिष्य थे। आपने महेश्वर सूरिजी को मुनिचन्द्र सूरिजी कृत, "आवश्यक सप्तती" की टीका रचाने में बड़ी मदद की थी। भापने सीहड़ नामक एक जैन मंत्री के द्वारा बादशाह अलाउद्दीन से मुलाकात की थी और उस पर प्रभाव डाल कर जैन शासन के अधिकार के लिए आपने बहुत से फरमान लिये थे।
जिनप्रभुरि .
आप खरतरगच्छ के स्थापक श्री जिनसिंहसूरिजी के शिष्य थे । आपने संवत् १९६५ में अयोध्या में भयहर स्तोत्र और नंदी शेण कृत "अजित शांति स्तव" पर टीका रची। इसके अतिरिक्त आप ने सूरिमंत्र प्रदेश विवरण, तीर्थ कल्प, पंच परमेष्टिस्तव, सिद्धान्तागमस्तव, द्वया श्रेय महाकाव्य आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की। उनका यह नियम था कि जब तक वे एक नवीन स्तोत्र नहीं बना लेते थे तब तक आहार पागी नहीं करते थे। उनकी कवित्व शक्ति तथा विद्वता अद्भुत थी। यह बात उनके ग्रंथों के अवलोकन से स्पष्टतया प्रकट होती है। इसके अतिरिक्त आप ने श्री मल्लिसेणसूरिजी को श्री हेम. चन्द्राचार्य कृत, "अन्य योग व्यवच्छेदिका" नामक ग्रंथ पर टीका रथमे में बड़ी मदद की थी।
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ओसवाल जाति और आचार्य
देवसुन्दरसूरि
आप बड़े योगाभ्यासी और मंत्र तंत्रों के ज्ञाता थे । निमित्त शास्त्र के भी भाप पारगामी विद्वान थे। कुछ राजाओं पर भी आपका प्रभाव था । संवत् १४२० में आप को सूरिपद प्राप्त हुआ । आप के चार शिष्य थे ।
सोमसुन्दरसूरि
भाप उपरोक्त देवसुन्दरसूरि के शिष्य थे। आप के कोई ढाईसौ शिष्य थे । कहा जाता है कि एक समय किसी द्वेषी मनुष्य ने आप का वध करने के लिये कुछ आदमियों को लालच देकर के भेजा । जब वे लोग आप को मारने के उद्देश्य से आप के पास पहुँचे तब भाप की परम शांतिमय मुद्रा को देख कर बहुत विस्मित हुए और मन में विचार करने लगे कि अहिंसा और शांति के परमाणु बरसाने वाले इस परम योगिराज को मार कर हम किस भव में छूटेंगे। यह विचार कर वे आचार्य श्री के पैरों पढ़ कर क्षमाप्रार्थना करने लगे। श्री सोमसुन्दरजी महाराज बहुत प्रभावशाली साधु थे। आप संवत् १४५० में विद्यमान थे ।
मुनिसुन्दरसूरि
आप श्री सोमसुदरसूरि के पाट पर विराजम न हुए। आप महान् विद्वान् थे । संवत् १४७८ आपको आचार्य का पदवी मिली। उपदेश रत्नाकर, अध्यात्म कल्पवुन आदि कई ग्रंथ आप की अगाध विद्वता के परिचायक हैं । आप सरस्वती की उपाधि से भी विभूषित थे । गुजरात का सुलतान मुजफ्फरखान आपको बहुत मानता था । उसने भी आप को कई सम्मानपूर्वक उपाधियाँ प्रदान की थी । आप के लिये यह कहा जाता है कि आप नित्य प्रति १००० श्लोक कंठस्थ कर लेते थे । आपके उपदेश से कई राजाओं ने अहिंसा धर्म को स्वीकार किया था। बड़नगर के देवराजशाह नामक श्रावक ने कोई ३२०००) खर्च करके आप को सूरिपद प्राप्त होने के उपलक्ष में महोत्सव किया था ।
रत्नशेखरसूरि
आप मुनि सुन्दरसूरि के शिष्य थे । आप भी महान् विद्वान और प्रतिभाशाली साधु थे । आप ने श्राद्धप्रतिक्रमण वृत्ति, श्राद्धविधि सूत्र वृत्ति लघुक्षेत्र समास तथा भाचार प्रदीप आदि कई ग्रंथ रचे थे।
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बोसवाल जाति का इतिहास
भापकी विद्वता देख कर खम्मात के तत्कालीन राजा ने आप को 'बाल सरस्वती' की उपाधि प्रदान की थी। भापके समय में वि० संवत् १५.८ में स्थान म्वासी मत की उत्पत्ति हुई जिसका वर्णन हम भगले किसी अध्याय में करेंगे। "हेमविमलसरि
भाप भी बड़े विद्वान जैनी साधु थे। आपके समय में जैन साधुओं का आधार शिथिल हो गया था। पर आप के उपदेश से बहुत से साधुओं ने शुद्ध मुनि व्रत को फिर से स्वीकार किया।
भानन्दविमलसूरि
आप श्री हेम विमसूरि शिष्य थे। आप ने स्थान २ पर उपदेश देकर शुद्ध जैन धर्म अगर किया। भाप ने तूणीसिंह नामक एक महान् धनवान को जैन धर्म में. दीक्षित किया । सोमप्रभु सूरिजी ने जल की तंति के कारण जैसलमेर आदि स्थानों में साधुओं का विहार करना बन्द कर दिया था। मापने उसे फिर शुरू करवा दिया। माप के बाद महोपाध्याय श्री विद्यासागरगगी आदि जैन मुनि हुए जिनके समय में कोई विशेष घटमा न हुई। हरिविजयसूरि
मध्ययुग के जैनाचार्यों में श्री हीरविजयसूरि का आसन अत्यन्त ऊँचा है। माप असाधारण प्रतिभाशाली, अपूर्व विद्वान और अपने समय के अद्वितीय कवि थे। अपने समय में भाप की कीर्ति सारे भारतवर्ष में फैल रही थी। भाप अकि वेज और अगाध पाण्डित्य का प्रभाव न केवल जैनों पर परन् मुगल सम्राट तयार पड़ा था। मापकी तेजस्विता से तत्कालीन मुगल सम्राट चकाचौंध हो गये थे।
इस अलौकिक महापुरुष का जन्म पालणपुर के कुरा नामक ओसवाल के यहाँ पर संवत् १५ में हुआ था। आपकी माता का नाम नाथीबाई था। जब भाप तेरह वर्ष के थे तब आप के माता पिता का देहान्त हो गया था। * एक समय आप पट्टन में अपनी बहन के यहाँ गये हुए थे कि तपगच्छ के मुनि विजयदानसूरि के उपदेश से आपने संसार त्यागने का निश्चय किया। इस पर आपकी बहन ने भाप
• जगद्गुरू काव्य में लिखा है कि इनके माता पिता इनके दीक्षा लेने तक विद्यमान थे। दीघा के समय माप सकटुम्ब पाटण में थे। आपने अपने माता पिता की आशा से दीचा ली।
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प्रोसवाल जाति और प्राचार्य
को बहुत समझाया और आप से संसार में रहते हुए धर्म पालन का अनुरोध किया। पर आप अपने निश्चय से तिल भर भी न डिगे और आपने संवत् १५९६ में उक्त सूरिजी के पास से दीक्षा ली। मुनि हरिहर्षजी से आपने समग्र साहित्य का अध्ययन किया। इसके बाद आप गुरू की आज्ञा लेकर धर्मसागर नामक एक मुनि के साथ दक्षिग के देवगिरी नामक एक स्थान में नैयायिक प्र.ह्मण के पास न्याय ज्ञान का अध्ययन करने के लिये गये। वहाँ पर आपने तर्क परिभाषा, मितभाषिणी, शषवर, मणिकण्ठ, प्रशस्तपद भाष्य, वर्द्धमान, वर्द्धमानेन्दु, किरणावली आदि अनेक ग्रंथों का गंभीरता से अध्ययन किया । अध्ययन करने के बाद आपने अपने पंडितजी को अच्छा पारितोषिक दिलवाया । इसके बाद आपने ग्यारण. ज्योतिष. सामुद्रिक और रघुवंशी श्रादि काव्यों में पारदर्शिता प्राप्त की। माप के सारे अध्ययन का खर्च जैन संघ तथा सेठ देवसी और उनकी पत्नी देती थी। जब आप विद्याध्ययन कर सं० १६०० में अपने गुरू के पास मलाई ( नारदपुर) नामक स्थान पर पहुंचे तब आपको उन्होंने पंडित की पदवी प्रदान की। इसके एक वर्ष बाद संवत् १६०८ में आप के गुरू ने आप को उपाध्याय नामक पद मे विभूषित झिया। इसके दो वर्ष बाद अर्थत् संवत् १६१० में भाप भाचार्य की उच्च उपाधि से विभूषित किए गये। इस समय दूधाराज के जैन मंत्री चांगा सिंघी मे बढ़ा भारी उत्सव किया। पह
गंगा राणपुर के सुप्रसिद्ध मन्दिर बनवाने वाले सिंघवी धरनाक का वंशज था। इस समय सिरोही के तत्कालीन नरेश ने अपने राज्य में हिंसा बन्द करदी।
___ इसके बाद दोनों आचार्य देव पाटण गये और वहाँ के सूबेदार शेरनों के सचिव समर्थ भंद. साली ने आपके सन्मान में गच्छानुज्ञा महोत्सव किया। यहाँ से आप सूरत और वहाँ से वरदी नामक गाँव में गये। इस प्राम में संवत् १६२। में श्री विजयदानसूरि का स्वर्गवास हो गया । इससे होर विजयसुरि तपेगच्छ नायक हो गये। संवत् ११२८ में पाप विहार करते हुए अहमदाबाद पधारे और वहाँ मापने विजयसेन मुनि को आचार्य पद प्रदान किया। यहीं लूंका गच्छ के मेगळी कवि ने मूर्शिनिषेधक गच्छ स्याग कर अपने तीन साधुओं सहित हीर विजयसूरि का शिष्यस्व ग्रहण किया और उन्होंने अपना नाम उद्योतविजय रक्खा। इस बात का उत्सव सम्राट अकबर के राजमान्य स्थानसिंह नामक भोसवाल सज्जन ने किया। ये स्थानसिंह इस समय सम्राट अकबर के साथ भागरे से गुजरात भाये थे।
___धीरे २ हीरविजयसूरि के अलौकिक तेज की बात सारे देश में फैल गई । उनकी कीर्ति की गाथा तत्कालीन सम्राट अकबर के कानों तक पहुंची। कहने की आवश्यकता नहीं कि सम्राट अकबर ने इस महा अलौकिक पुरुष के दर्शन करने का निश्चय किया। सम्राट ने अपने गुजरात के सूबे साहिब खान को फरमान भेजा कि वे बड़ी नम्रता और भदव के साथ श्री हीरविजयसूरिजी से यह प्रार्थना करें कि
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श्रीसवाल जाति का इतिहास :
वे सम्राट के निकट पधारे कर उन्हें दर्शन दें। इस पर गुजरात के सूबे साहिबखान ने अहमदाबाद के खास - खास श्रावकों को बुलवाया और उनसे सम्राट अकबर के फरमान की बात कही । इस पर उक्त श्रावक- गण आचार्य्यजी के पास उपस्थित हुए और बड़े विनीतभाव से सम्राट के निवेदन की बात उनसे निवेदन की
आचाय हीरविजयसूरि बड़े दूरदर्शी थे । उन्होंने सम्राट् अकबर जैसे महाम् पुरुष को उपदेश देने में जैन धर्म का गौरव समझा और वे सम्राट् से मिलने के लिये रवाना हो गये ।
आचार्य्यवर बिहार करते हुए मही नदी उतर कर अहमदाबाद पहुँचे। सिताबखान ने आपको अत्यन्त आदर के साथ बुलाया और अकबर के फर्मान का आपके सन्मुख जिक्र किया। उसमे यह भी कहा द्रव्य, रथ, हाथी, अश्व, पालकी आदि सब आपके लिये तैयार हैं। जो आप आज्ञा करें वह मैं करने के लिये प्रस्तुत हूँ। इस पर आचार्य देव ने जवाब दिया कि जैन साधु का आदर्श संसार की तमाम वस्तुओं से मोह हटा कर बीतराग होकर आत्मकल्याण करना है। उन्हें सांसारिक वैभव से कोई सरोकार नहीं। इस बात का उक्त सूबेदार पर बहुत असर पड़ा। इसके बाद सूरीश्वर श्री हीरविजयजी अकबर के पास जाने के लिए फतहपुर सीकरी को रवाना हो गये। क्योंकि इस समय अकबर का मुकाम यहीं पर था । इस बिहार में आपके साथ बादशाह के कुछ दून भी थे। बीसलपुर, महिसाणा, पाटन, बरड़ी, सिहपुर - आदि कई स्थानों में बिहार करते हुए आप सरोतरा नामक गाँव में आये । वहाँ भीलों के मुखिया सहदार अर्जुन ने आपले उपदेश ग्रहण किया और उसने अपने सब भील साथियों में अहिंसा धर्म का प्रचार किया। इस स्थान में पर्युषण करने के बाद आप आबू पर वहाँ के सुप्रसिद्ध मन्दिर के दर्शन करने के लिये पधारे। वहाँ से आप शिवपुरी (सिरोही) आये । आइने अकबरी के प्रथम भाग में लिखा है कि वहां के राजा सुरभाग ने आपका बड़े धूमधाम के साथ स्वागत किया। जगद्गुरु काव्य भी इस बात की पुष्टि करता है । वहाँ से आप सादड़ी पधारे और राणकपुर की यात्रा कर मेड़ता चले आये। मेड़ता पर उस समय मुसलमानों का अधिकार था। वहाँ के सादिल सुलतान ने आपका बड़ा आदरातिथ्य किया । इसके बाद आप फलौदी पार्श्वनाथ के दर्शन करने के लिये गये । इस स्थान पर आपको विमलहर्ष उपाध्याय नामक सज्जन मिले जिन्हें आपके पास सम्राट अकबर ने भेजा था ।
विमलहप ने लौट कर बादशाह अकबर से सूरिजी के प्रयाण का समाचार निवेदन किया । इस पर बादशाह की भाशा से स्थान सिंह आदि सज्जनों ने बड़े समारोह के साथ सूरिजी का स्वागत किया और ठाठ वाठ के साथ उन्हें फतेहपुर सीकरी ले गये । आचार्य श्री संवत् १६३९ के जेठ वदी १३ को
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औसवाल जाति और प्राचार्य
फतहपुरसीकरी में जगनमल कछुआ के महल में ठहराये गये । जगनमल कछुआ तत्कालीन जयपुर नरेश भारमल के छोटे भाई थे।
____ इस अलौकिक महापुरुष के तेज से सम्राट अकबर बहुत ही प्रभावान्वित हुए। आचार्य्यवर ने अपने आस्मिक प्रकाश से सम्राट अकबर के हृदय को प्रकाशित कर दिया। शत्रुजय के आदिनाथ मंदिर पर लगी हुई संवत् १६५० की प्रशस्ति में लिखा है कि आचार्यवर के संसर्ग से सम्राट का अंतःकरण निर्मल हो गया और उन्होंने लोक प्रीति संपादित करने के लिये बहुत से प्रजा के कर माफ कर दिये और बहुत से पक्षियों तथा कैदियों को बन्दीखाने से मुक्त मिया। इन्होंने सरस्वती के गृह के समान एक महान् पुस्तकालय का उद्घाटन कया । इस प्रकार अकबर ने और भी कई परोपकारी कार्य किये।
___ सम्राट अकबर के. दरबार में बड़े २ उस्कृष्ट विद्वान् रहते थे। शेख अबुलफजल सरीखे अपूर्व विद्वान् उनके दरबार की शोभा को बढ़ाते थे। कहना न होगा कि अबुलफजल और सूरिजी के बीच में बड़ी ही मधुर. धार्मिक, चर्चा हुई और अबुलफजल आपके अगाध ज्ञान से बड़े प्रभावित हुए। इसके बाद अकबर ने अपने शाही दरबार में सूरिजी को निमन्त्रित किया। जब सूरिजी दरबार में पहुंचे तब सम्राट ने अपने दरबारियों सहित खड़े होकर उनका आदरातिथ्य किया। जब सम्राट अकबर को यह मालम हुआ कि सूरीश्वर गंधार से ठेठ सीकरी तक पैदल आये हैं, और जैन मुनि अपने भाचार के लिये पैदल ही. विहार करते हैं, तथा शुद्धाहार और बिहार द्वारा अपनी आत्मा को पवित्र रखते हैं और तपस्या के द्वारा रागद्वेष को जीत कर सकल विश्व के सभी जीवों के प्रति विशुद्ध प्रेम की वर्षा करते हैं, तब उनके आश्चर्या का पार न रहा। इसके बाद आचार्य देव ने उक्त दरबार में संसार और लक्ष्मी की अस्थिरता, देव गुरु धर्म का स्वरूप, मुनिजनों के अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिगृह आदि पाँच व्रतों का बहुत ही प्रभावशाली ढंग से विवेचन किया। अकबर और उसके विद्वान् दरबारी लोग सूरिजी के व्याख्यान से. अत्यन्त ही विस्मित हुए । तदनंतर अकबर ने उन्हें अपने जन्मग्रह का फल बतलाने के लिये कहा पर सूरिजी ने झट से जबाब दिया कि मोक्ष पंथ के अनुयायी इन बातों की ओर ध्यान भी नहीं देते। - इसके बाद श्री हीरविजयसूरिजी नाव द्वारा यमुना पार कर आगरे के पास के शौरीपुर के तय - स्थान में गये और वहाँ दो प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कर आगरे चले आये। आगरे में आपने श्री चिंतामणि पाश्र्वनाथ की प्रतिष्ठा की। तदनन्तर शेख अबुलफजल के निमन्त्रण पर आप फतहपुर सीकरी के लिये. प्रस्थान कर गये।
____ फतहपुरसीकरी पहुंचने पर सम्राट अकबर ने आपका बड़ा भारी स्वागत किया। सम्राट् मे आपसे हाथी, घोड़े आदि की भेंट स्वीकार करने की प्रार्थना की। पर आपने सम्राट को साफ शब्दों में.
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मोसवाल जाति का इतिहास उत्तर दिया कि जैन मुनि निस्पृह होते हैं। वे संसार के बड़े से बड़े वैभव की तनिक भी परवाह नहीं करते। इस पर फिर सम्राट ने निवेदन किया कि आप कुछ भेंट तो स्वीकार कीजिये। तब आचार्य देव ने कहा कि आप कैदियों को बन्धन मुक्त कीजिये और पीजरे के पक्षियों को छोड़ दीजिये। इसके अतिरिक्त पर्युषण के आठ दिनों में अपने साम्राज्य में हिंसा बन्द कर दीजिये। कहने की आवश्यकता नहीं कि सम्राट ने कैदियों को मुक्त किया, पीजरे से पक्षी छोड़े गये और कई तालाबों में, सरोवरों में मच्छी न मारने के आदेश किये गये। इसी समय अर्थात् संवत् १६४० में आचार्यावर श्री हीरविजयसूरि जगद्गुरु की उच्च उपाधि से विभूषित किये गये।
___ इसके बाद थानसिंह ने भाप के द्वारा कई जैन बिम्बों की प्रतिष्ठा करवाई। इसी समय आप ने अपने शिष्य शांतिचन्द्र को उपाध्याय का पद प्रदान किया। जौहरो दुर्जनमल ओसवाल ने आचार्य श्री से कई जैन बिम्बों की प्रतिष्ठा करवाई। इस प्रकार बहुत से धार्मिक कार्यों के कारण संवत् १६४० में आप को फतहपुर सीकरी ही में चातुर्मास करना पड़ा। इस चातुर्मास के बाद आप बावन गज ऋषभनाथजी की यात्रा के लिये पधारे। संवत् १६४२ में आप ने आगरा में चातुर्मास किया। इसके बाद गुजरात से विजयसेनसूरि भादि मुनि संघ का आप को निमंत्रण मिला। आप सम्राट के पास अपने शिष्य शांतिचन्द्र उपाध्याय को छोड़ कर गुजरात के लिए रवाना हुए। शांतिचन्द्रजी ने भी बादशाह पर बहुत अच्छा धार्मिक प्रभाव डाला और कई मद्य माँस के भक्षकों के बुरे खान पान को भी छुड़वाया।
आचार्य श्री हीरविजयसूरि बिहार करते हुए नागौर पहुंचे। यहाँ पर संमत् १६४३ में आप मे चातुर्मास किया। वहाँ के तत्कालीन राजा जगमाल के वणिक मन्त्री मेहाजल ने आप की बड़ी सेवा की। इस समय अनेक देशों से अनेक धार्मिक संघ आचार्य श्री के दर्शनों के लिये आये। जयपुर राज्य के वैराट नगर से वहाँ के अधिकारी इन्द्रराज का आप को निमन्त्रण मिला जहाँ आप ने अपने शिष्य उपाध्याय कल्याणविजयजी को प्रतिष्ठा करवाने के लिये भेजा। इसके बाद आप आबू यात्रा के लिये गये। वहाँ तत्कालीन सिरोही नरेश ने सिरोही में चातुर्मास करने का आप से बड़ा आग्रह किया। उक्त राजा ने यह भी प्रार्थना की कि अगर आचार्य श्री मेरे राज्य में चातुर्मास करेंगे तो मैं प्रजा के बहुत से टैक्स माफ कर प्रजा के कष्टों का निवारण करूँगा और सारे राज्य में जीव हिंसा न करने का आदेश निकालूंगा। इस पर संवत् १६४४ में हीरविजयसूरि मे वहाँ पर चौमासा किया। श्री वृषभदास कृत 'हीरविजयसूरिदास, मामक ग्रन्थ से पता लगता है कि उक्त राजा ने अपने वचन का बराबर पालन किया।
हीरविजयसूरि बिहार करते २ गुजरात के पाटन नगर में पहुंचे और संवत् १६४५ में भाप ने वहाँ पर चातुर्मास किया। जैसा कि हम ऊपर कह चुके हैं कि हीरविजयसरि अपने शिष्य शांतिचन्द
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श्रोसवाल आति और श्राचार्य
उपाध्याय को बादशाह के पास छोड़ आये थे। वहाँ आप बादशाह को 'कृपा रस कोष' नामक काव्य सुनाते थे। शान्तिचन्द्रजी को आचार्य देव से मिलने की इच्छा हुई और उन्होंने भानुचन्द्रविषुद्ध नामक एक सजन को बादशाह के पास रख कर बादशाह से आचार्य श्री के पास जाने की अनुमति मांगी। बादशाह ने सूरि के पास भेंट के रूप में स्वमुद्रांकित एक फर्मान भेजा जिसमें गुजरात में हिन्दुओं पर लगने वाले जजिया नामक कर की माफी का आदेश था। इसके अतिरिक्त पर्युषण आदि बहुत से बड़े दिनों में हिंसा न करने का भी उसमें आदेश था। हीरविजयसूरि के आग्रह से साल भर में कई पवित्र दिनों के उपलक्ष में बादशाह ने जीव हिंसा को बिलकुल बन्द कर दिया था। सुप्रख्यात इतिहास वेत्ता बदौनी लिखता है:
"In these days (991-1583 A. D.) new orders were given, The killing of animals on certain days was forbidden, as on sundays because this day is sacred to the sun during the first 18 days of the month of Farwardin, the whole month of abein (the month in which His majesty was born ) und several other days to please the Hindoos. This order was extended over the whole realm and capital punishment was inflicted on every one who acted against the command."
कहने का अर्थ यह है कि आचार्य हीरविजयसूरि ने सम्राट अकबर पर अपने अलौकिक आत्मतेज का इतना दिव्य प्रकाश डाला था कि सम्राट अकबर ने मुसलमान होते हुए भी जीव हिंसा-निषेध के लिये कई आदेश प्रसारित किये थे *।
श्री हीरविजयसूरि पाटन में चार्तुमास कर पालीताना के लिये रवाना हुए और आप यथा समय वहाँ पर पहुंचे। वहाँ पाटन, अहमदाबाद, खम्भात, मालवा, लाहौर, मारवाड़, सूरत, बीजापुर आदि अनेक स्थानों से लगभग दोसों संव आये जिनमें लाखों यात्री थे। संवत् १६५० की चैत्र सुदी पूर्णिमा को वहाँ बदा भारी उत्सव हुआ। सेठ मूलाशाह, सेठ तेजपाल और सेठ रामजी तथा सेठ जस्सु ठक्कर आदि धनिकों द्वारा बनाये गये उच्चत जैन मन्दिरों को आपने बड़े समारोह के साथ प्रतिष्ठा की। वहाँ से आप ऊना नामक स्थान में पधारे और वहाँ पर चातुर्मास किया। यहाँ तत्कालीन गुजरात का सूबा आजमखाँ, आचार्य देव की सेवा में उपस्थित हुआ और उसने आपको १००० स्वर्ण मुद्राएँ (सोने की मुहरें) भेंट की। इन
• इस सम्बन्ध की अधिक जानकारी के लिये हम मुप्रख्यात मुनि विद्याविजयनी कृत 'सूरीश्वर अने सम्प्राट्' मामक ग्रंथ पढ़ने के लिए अपने पाठकों से अनुरोध करते है। इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद भी से गया है जिसका नाम सुरीश्वर और समान है।
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
स्वर्ण मुद्राओं को आचार्य श्री ने अस्वीकार कर दिया। इसी समय जामनगर के तत्कालीन जाम साहब के साथ उनके मन्त्री अब्जी भंसाली ऊना पहुंचे और उन्होंने आचार्य देव की अंग पूजा ढाई सेर स्वर्ण मुद्रा से की। इसी समय आचार्य देव ने ऊना के अधिकारी खानमहम्मद से हिंसा छुड़ाई। संवत् १६५२ के वैसाख मास में आपने उना में एक मन्दिर की प्रतिष्ठा की और इसी साल के भादवा सुदी " गुरुवार के दिन आपका स्वर्गवास हो गया।
आचार्य वर हीरविजयसूरि का संक्षिप्त परिचय हम ऊपर दे चुके हैं। जैन इतिहास के पृष्ठ आपके महान् कार्यों का उल्लेख बड़े अभिमान और गौरव के साथ करेंगे। आपने भगवान महावीर स्वामी के अहिंसा सिद्धान्त की सारे हिन्दुस्थान में दुन्दुभी बजाई। तत्कालीन मुगल सम्राट अकबर तथा भारत के कई राजा महाराजा और दिग्गज विद्वान आपके अलौकिक तेज के आगे सिर झुकाते थे । आप एक अलौकिक विभूति थे और उस समय आपने अपने आत्मिक प्रकाश से सारे भारतवर्ष को भालोकित किया था। अबुलफजल आदि कई मुसलमान लेखकों ने भी आपकी अपने ग्रन्थों में बड़ी प्रशंसा की है। जिनचन्द्रसूरि
आप भी जैन श्वेताम्बर सम्प्रदाय के एक बड़े प्रख्यात आचार्य हो गये हैं। आप जैन शास्त्रों के बड़े प्रकाण्ड पंडित थे। एक समय सम्राट अकबर ने मेहता करमचन्द से पूछा कि इस समय जैन शास्त्र का सबसे बड़ा पण्डित कौन है। तब करमचन्दजी ने आचार्य जिनचन्द्रसूरि का नाम बतलाया था । इस समय उक्त सूरिजी गुजरात के खम्भात नगर में थे। उन्हें सम्राट की ओर से निमंत्रित किया गया। इस पर आप बादशाह की मुलाकात के लिये रवाना हो गये। अहमदाबाद, सिरोही होते हुए आप जालोर पहुंचे और वहाँ पर आप ने चातुर्मास किया। वहाँ से मगसर मास में बिहार कर मेड़ता, नागौर, बीकानेर, राजलदेसर, मालसर, रिणपुर, सरसा आदि स्थानों में होते हुए फाल्गुन सुदी १२ को आप लाहौर पहुंचे। उस समय सम्राट अकबर लाहौर में थे और उन्होंने आचार्य श्री का बड़ा सन्मान किया । सम्राट के आग्रह से आप ने लाहौर में चातुर्मास किया। इस वक्त जयसोम, रत्ननिधान, गुणविनय और समयसुन्दर आदि जैन मुनि आप के साथ थे।
कहने की आवश्यकता नहीं कि जिनचन्द्ररि ने बादशाह अकबर पर बड़ा ही अच्छा प्रभाव गला। सूरिजी ने सम्राट से कहा कि द्वारिका में जैन और जैनेतर मंदिरों को नौरंगखाँ ने नष्ट कर दिया है, आप उनकी रक्षा कीजिये। इस पर सम्राट अकबर ने जवाब दिया कि "शत्रुजय आदि सब जैनतीर्थ मैं मंत्री करमचन्द के सुपुर्द कर दूंगा तथा मैं तत्संबंधी फर्मान अपनी निजी मुद्रा से गुजरात के हाकिम
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ओसवाल जाति और प्राचार्य
मरंगौखाँ के पास भेज देता हूँ। आप निश्चिन्त रहिये, अब शर्बुजय की भली प्रकार रक्षा हो जायगी।"
जब सम्राट अकबर काश्मीर जाने की तयारी करने लगे तब आप ने करमचन्द मंत्री द्वारा जिनचन्द्रसूरिजी को अपने पास बुलवाया और उन से "धर्मलाम" लिया। इसी समय उक्त सूरिजी को प्रसन्न करने के लिये सम्राट ने अपने सारे साम्राज्य में सात दिन तक जीव हिंसा न करने के फरमान जारी किये। इन फरमानों की नकलें हिन्दी की सुप्रसिद्ध मासिक पत्रिका सरस्वती के १९१२ के जून मास के अंक में प्रकाशित हुई हैं। उक्त फरमान देशी राज्यों में भी भेजे गये जहाँ पर उनका भली प्रकार अमल दरामद हुआ।
___ कहने का अर्थ यह है कि जिनचन्द्रसूरि ने भी अपनी प्रखर प्रतिभा का प्रकाश सम्राट अकबर पर डाला था। सम्राट अकबर ने आप को "युग प्रधान" की पदवी से विभूषित किया और उनके शिष्य मानसिंह को जाचार्य पद प्रदान किया। इसी समय फिर मंत्री करमचन्द की विनती से सम्राट ने कुछ दिनों तक जीव हिंसा न करने की सारे साम्राज्य में घोषणा की। इसके अतिरिक्त सम्राट ने खम्भात के समुद्र में एक वर्ष तक हिंसा न करने का फरमान भेजा।
___संवत् १६६९ में सम्राट जहाँगीर ने यह हुक्म दिया कि सब धर्मों के साधुओं को देश निकाला दे दिया जाय। इससे जैन मुनि मण्डल में बड़ा भय छा गया। यह बात सुन कर जिनचन्द्रसूरिजी पाटन से आगरा आये और उन्होंने बादशाह को समझा कर उक्त हुकुम रद्द करवा दिया।
मनि शान्तिचन्द्र
आप हरिविजयसूरि के शिष्य थे। आपने सम्राट अकबर की प्रशंसा में कृपा रस कोष नाम का काव्य रचा। आपका भी बादशाह अकबर पर अच्छा प्रभाव था। आपने उनके द्वारा जीव दया, जजिया कर की माफी आदि अनेक सस्कृत्य करवाये। यह बात शान्तिचन्द्रजी के शिष्य लालचन्द्रजी की प्रशस्ति में स्पष्टतः लिखी हुई है।
मुनि शान्तिचन्द्रजी बढ़े विद्वान और शास्त्रार्थ कुशल थे। संवत् ११३५ में इंडरगद के महाराज श्री नारायण की सभा में आपने वहाँ के दिगम्बर भट्टारक वादिभूषण से शास्त्रार्थ कर उन्हें परास्त किया था। बांगद देश के धारशील नगर में वहाँ के राजा के सामने आपने गुणचन्द्र नामक दिगम्बरा. चार्य को शास्त्रार्थ में पराजय किया था। आप शतावधानी भी थे। इससे सम्राट और राजा महाराजाओं पर आप का बड़ा प्रभाव था।
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मोसवाल जाति का इतिहास
मुनि भानुचन्द्र
भापका भी सम्राट अकबर पर बड़ा प्रभाव था। भाप उन्हें हर रविवार को 'सूयं सहस-नाम' सुनाते थे। सुप्रख्यात इतिहास वेत्ता बदौनी लिखता है कि ब्राह्मणों की तरह सम्राट अकबर प्रातः काल में पूर्व दिशा की तरफ मुख करके खड़ा रह कर सूर्य की आराधना करता था और वह संस्कृत ही में सूर्यसहस-नाम भी सुना करता था। मुनिसिद्धचन्द्र
___ आप मुनि भानुचन्द्रजी के शिष्य थे। आपसे भी सम्राट अकबर बड़े प्रसव थे । शत्रुजय तीर्थ में नये मन्दिर बनवाने की बादशाह की ओर से जो निषेधाज्ञा थी उसे आपने मंसूख करवाया । सिदिचन्द्रजी फारसी भाषा के भी बढ़े विद्वान थे। सम्राट ने भाप को 'खुश फहेम' को पदवी प्रदान की थी। एक समय अकबर ने बड़े स्नेह से आपका हाथ पकड़ कर कहा कि मैं आपको ५००० घोड़े का मन्सब और जागीर देता हूँ, इसे आप स्वीकार कर साधुवेष का परित्याग कीजिये। पर यह बात सिद्धि चन्द्रजी ने स्वीकार न की। इससे बादशाह और भी अधिक प्रभावित हुए । इस वृतान्त को स्वयं सिरिचन्द्रजी ने अपनी कादम्बरी की टीका में लिखा है। विजयसेन
___आप भी बड़े प्रभावशाली जैन मुनि थे। विजय प्रशस्ति नामक ग्रन्थ में लिखा है कि आपने सूरत में चिंतामणि मिश्र आदि पंडितों की सभा के समक्ष भूषण नामक दिगम्बराचार्य को शास्त्रार्थ में निरुत्तर किया था। अहमदाबाद के तत्कालीन सूबे खानखाने को अपने उपदेशामृत से बहुत प्रसध किया था। आप बड़े विद्वान थे और आप की विद्वता का एक प्रमाण यह है कि आपने योग शाम के प्रथम श्लोक के कोई ७०० अर्थ किये थे। विजय प्रशरित काव्य में लिखा है कि श्री विजयसेमजी ने कावी, गंधार, अहमदाबाद, खम्भात, पाटन आदि स्थानों में लगभग चार लाख जिन बिम्बों की प्रतिष्ठा की। इस के अतिरिक्त आप के उपदेश से तारंगा, शंखेश्वर, सिद्धाचल, पंचासर, राणपुर, आरासण और बीजापुर मादि स्थानों के मंदिरों के पुनरुद्धार किये गये। विजयदेवसूरि
आप उपरोक्त विजयसेनसूरि के पट्टधर शिष्य थे। संवत् ११७४ में सम्राट जहाँगीर ने मॉडवगढ़ स्थान में आपकी तपश्चर्या से मुग्ध हो कर आपको 'जहाँ गिरी महातपा' नामक उपाधि से विभूषित किया। आप बड़े तेजस्वी और तपस्वी थे।
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भोसबालबाति और भामाश्य
भानन्दघनजी
जैन साहित्य के इतिहास में आनन्दधनजी का नाम प्रखर सूर्य की सरह प्रकाशमान हो रहा है। आप अध्यात्म शास्त्र के पारगामी और अनुभवी विद्वान थे। आत्मा के गूद से गूढ प्रदेशों में आप रमण करते थे। श्वेताम्बर जैन समाज के अत्यन्त प्रभावशाली साधुओं में से आप थे। आप के बनाये हुए पद अध्यात्म शास्त्र के गूद रहस्यों को प्रकट करते हैं। भव्य जनों के लिये मोक्ष का मार्ग आपने रेखांकित किया है। आपके दो ग्रंथ बहुत मशहूर हैं जिन के नाम भानन्दघनचौबीसी और भानन्दघन पहोसरी है। ये ग्रन्थ मिश्र हिन्दी गुजराती में हैं। ये मार्मिक शास्त्रदृष्टि और अनुभव योग से भरे हैं। इनमें अध्यात्मिक रूपक, अन्तर्योति का आविर्भाव, प्रेरणामय भावना और भक्ति का उल्लास आदि अध्यात्मिक विषयों का बहुत ही मार्मिकता से विवेचन किया है। यशोविजयी . ...
भाप हेमचन्द्राचार्य के बाद बड़े ही प्रतिभावान और कीर्तिवान भाचार्य हो गये हैं। भाप बड़े नैयायिक, तर्क शिरोमणि, महान् शास्त्रज्ञ, जबरदस्त साहित्यक भ्रष्टा, प्रतिभावान समन्वयकार, प्रचण्ड सुधारक तथा बड़े दूरदर्शी आचार्य थे। श्री हेमचन्द्राचार्य के पीछे आप जैसा सर्व शास्त्र पारंगत, सूक्ष्म स्टा और बुद्धिनिधान आचार्य जैन श्वेताम्बर समाज में दूसरा न हुआ। आपका संक्षिप्त जीवन आप के समकालीन साधु कांतिविजयजी ने 'सुजश वेली' नामक गुजराती काव्य कृति में दिया है जिसकी खास २ बातें हम नीचे देते हैं।
आप तपेगच्छ के साधु थे। आप सुप्रख्यात आचार्य हीरविजयसूरि के शिष्य तर्क विद्या विशारद उपाध्याय कल्याणविजयजी के शिष्य सकल शब्दानुशासन निष्णांत लाभषिजयजी के शिष्य नप. विजयजी के शिष्य थे। आपका जन्म संवत् १६८० के लगभग हुआ। आपने अपने गुरू नयविजयजी के पास ग्यारह वर्ष तक अध्ययन किया । आपने काशी आगरा आदि शहरों में भी विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन किया। आपने न्याय, योग, अध्यात्म, दर्शन, धर्मनीति, धर्मसिद्धान्त, कथाचरित्र भादि अनेक विषयों पर कई ग्रन्थ लिखे । आपके ग्रंथों में अध्यात्म सार, देव धर्म परीक्षा, अध्यात्मो. पनिन्द, अध्यात्मिक मत-खण्डन सटीक, यतिलक्षण समुषय, नयरहस्य, नय प्रदीप, नयोपदेश, जैन तर्क परिभाष और दस शान बिंदु, द्वात्रिंशत द्वात्रिंशिका सटीक, ज्ञानसार, अस्पृशद गतिवाद, गरु वरण विनिश्चय, सामाचारी प्रकरण, भाराधक विराधक चतुर्भगी प्रकरण, प्रतिमाशतक,
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बोसवाल बात का इतिहास
पातंजल योग के चौथे मोक्ष पद पर वृत्ति, योग विंशिका, हरिभद्रसूरि कृत शार वार्ता समुच्चय पर स्यादवाद कल्पलता नामक टीका, हरिभद्रसूरि कृत शोडशक पर योगदीपिका नामक धृत्ति, उपदेश रहस्य सवृत्ति, न्यायालोक, महावीर स्तवन सटीक, उपरनाय न्याय खण्डन पद्य प्रकरण, भाषा रहस्व सटीक, तस्वार्थवृत्ति प्रथमाध्याय विवरण, वैराग्य कल्पलता, धर्मपरीक्षा सवृत्ति, चतुविशति जिन, धर्म परीक्षा सवृति, परम ज्योति पंच विंशतिका, प्रतिमा स्थापन न्याय, प्रतिमा शतक पर स्वापज्ञ, मार्ग परिशुद्धि भनेकांत मत व्यवस्था, समंतभद्र कृत व्याप्त परीक्षा पर टीका, स्याद्वाद् मंजूसा, आकर, मंगलवाद, विधि. पाद, पादमाला, त्रिसूम्यालोक, प्रन्यालोक, प्रमारहस्य, स्याद्वाद् रहस्य, वाद रहस्य, ज्ञानार्णव, कूप दृष्टांत विशदी करण, अलंकार चूडामणि की टीका, छंद चूडामणि की टीका, काव्य प्रकाश की टीका, अध्यात्म बिंदु, तत्वालोक विवरण, वेदांत निर्णय, वैराग्य रति, सिद्धान्त तर्क परिष्कार, सिद्धांत मंजरी टीका मादि के नाम उल्लेखनीय हैं।
उपरोक सूची के देखने से पाठकों को आचार्य श्री यशोविजयजी की अगाध विद्वत्ता का अनुमान हो जायगा। भापकी विद्वत्ता की छाप न केवल जैन समाज ही पर वरन् अन्य समाजों पर भी बहुत कुछ अंकित थी। काशी विद्वानों ने आपको 'न्याय विशारद' के पद से विभूषित किया था। उस समय आपकी कीर्ति सारे साक्षर भारत में फैली हुई थी। इस समय में भी काशी में श्री यशोविजय जैन विद्यालय भापके स्मारक रूप में बना हुआ है।
समयसुन्दरजी
आप साकसचन्दजी गणी के शिष्य थे और १६८६ में विद्यमान थे। इन्होंने “राजा तो ददत सौख्य" इस वाक्य के ८ लाख जुदा २ अर्थ करके ८० हजार श्लोकों का एक प्रामाणिक ग्रंथ रचा था। इसके अलावा इन्होंने गाथा सहरी विषयवाद शतक, तथा दश वैकालिक सूत्रम् आदि टीकाएँ रची थीं।
विजय सेन सूरि
__ आप हीरविजयसूरि के पट्ट शिष्य थे और बहुत प्रभावशाली मुनि थे। भापके शिष्य वेखहर्ख और परमानन्द ने नहाँमीर वादशाह को जैन धर्म का महत्व बतलाकर धार्मिक लाभ के लिये कई परवाने हासिल किये थे। इसी प्रकार धर्म की और भी तरकी इनके हाथों से हुई।
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ओसवाल जाति और नाबाद
पद्मसुन्दरगणी
आप तपगच्छ की नागपुरीय शाखा के पन भेस के शिष्य थे। इन्होंने रायमल्लाभ्युदय महा काव्य, धातु पाठ पार्श्वनाथ काव्य, जम्बू स्वामी कथानक वगैरा अन्यों की रचना की थी। इन्होंने अकवर के दरबार में धर्म विवाद में एक महा पंडित को पराजित किया था, जिससे प्रसन्न होकर बादशाह ने हार, एक गाय व सुखासन वगैरा वस्तुएँ आपको भेंट दी थीं। ये १९६० में विद्यमान थे। जिनसिंहरि
__आप आचार्य जिनराजसूरिजी के शिष्य थे। इनका जन्म १०५ में, दीक्षा १६२६ में, सूरिषद १९७० में तथा स्वर्गवास संवत् १६०४ में हुआ। इनको संवत् १६४९ में देहली के बादशाह की ओर से बहुत सम्मान मिला । जोधपुर दरबार महाराजा सूरसिंहजी और उनके प्रधान कर्मचन्द्रजी इन्हें बहुत चाहते थे।
जिनराजसूरि
__ आप खरतरगच्छ में हुए हैं और बहुत प्रतिभाशाली माने जाते थे। इन्होंने शत्रुजयतीर्थ में ५०१ प्रतिमाएं स्थापित की। इसके अलावा आपने नैषधीय चरित्र पर "जिनराजी" नामक टीका रची संवत् १६९९ में पाटन में आपका स्वर्गवास हुआ ।
आनन्दघनजी महाराज
ये प्रख्यात अध्यात्म ज्ञानी महाराज लगभग संवत् १६७५ में विद्यमान थे। वैराग्य सरा अध्यात्म विषय पर इन्होंने गटन पदों की रचना की थी। कल्याणसागरसूरि
.माप अचलगच्छ के आचार्य धर्ममूर्ति सूरि के शिष्य थे। इन्होंने संवत् 2011 में जामनगर के प्रमुख धनाढ्य वर्धमानशाह द्वारा बनवाये हुए जिनालय में जिन विंव प्रतिष्ठित किये थे । उक जिनालय के शिलालेख से ज्ञात होता है कि यह जिनालय सूरिनी के उपदेश से ही बनाया गया था।
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पोसवाल जाति का इतिहास
विनय विजय उपाध्याय
ये श्री यशोविजय के समकालीन और उनके बड़े विश्वास पात्र थे। अपने समय के ये बड़े प्रतिभाशाली और नामाङ्कित विद्वान थे। हीरविजयसूरि के शिष्य कीर्तिविजयसूरि इनके गुरु थे। इन्होंने कल्पसूत्र पर ६५४० श्लोक की कल्प सुबोधिका मामक टीका रची। इसी प्रकार नयकर्णिका और लोक प्रकाश नामक २० हजार श्लोक की एक विशाल पद्यबद्ध ग्रन्थ की रचना की। इसी प्रकार आपने और भी कई बहुमूल्य ग्रन्थों की रचना की। • श्री मेघविजय उपाध्याय
ये भी श्री हीरविजयसूरि की परम्परा में यशोविजय के समकालीन थे । म्याय, व्याकरण, साहित्य, ज्योतिष और अध्यात्म विषय के ये प्रकाण्ड पण्डित थे । इन्होंने संवत् १७२७ में देवानन्दाभ्युदय नामक काव्य सादड़ी में रचकर तैयार किया। इसका प्रत्येक श्लोक महाकवि माघ रचित माध काव्य के प्रति श्लोक का अन्तिम चरण लेकर प्रारम्भ किया गया है और बाद की तीन २ लाइनें उन्होंने अपनी ओर से सजाई हैं। इस ग्रंथ में सात सर्ग हैं । इसी प्रकार मेघदूत समस्या नामक एक १३० श्लोक का काम भी इन्होंने बनाया है इसमें भी मेघदूत काम्य के प्रत्येक श्लोक का अन्तिम चरण कायम रखकर इन्होंने उसे पूरा किया है। इसी प्रकार श्री विजय प्रभसूरि के जीवनचरित्र को प्रकाशित करने वाला एक दिग्विजय महाकाव्य भी रचा है जिसमें आचार्य श्री के पूर्वाचार्य का संक्षिप्त वर्णन और तपागच्छ की पट्टावलि दी है। इसी प्रकार इन्होंने अपने शान्ति-नाथ चरित्र में भी अपनी काव्य प्रतिभा का पूरा चमत्कार बतलाया है। इसमें महाकवि हर्ष रचित नैषधीय महाकाव्य के श्लोक का एक २ चरण लेकर उसे अपने तीन चरणों के साथ सुशोभित किया है। मगर इनकी काव्य प्रतिभा का सबसे अधिक चमत्कार इनके "सह संधान" नामक ग्रन्थ में दिखलाई देता है । यह काव्य नवसर्गों में विभक्त है। उसमें प्रत्येक श्लोक ऋषभदेव, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर ये पाँच तीर्थङ्कर तथा रामचन्द्र और कृष्ण वासुदेव इन सात महा पुरुषों के सम्बन्ध में है। इसमें का प्रत्येक श्लोक इन सातों महापुरुषों के सम्बन्ध में एक ही प्रकार के शब्दों से भिन्न २ घटनाओं का उल्लेख करता है। इस काव्य पर इन्होंने स्वयं ही टीका भी रची है।
इसी प्रकार आपकी पंच तीर्थ स्तुति, पंचाख्यान (पंचतंत्र ) लघुत्रिष्ठ चरित्र नामक कथा (त्रिषिष्ठ शलाका पुरुष ) चन्द्रप्रभा हेमकोमुदी नामक व्याकरण, उदयदीपिका, वर्ष प्रबोध, मेव महोदय, रमलशास्त्र इत्यादि ज्योतिष ग्रन्थ और मातृ का प्रसाद, सत्वगीता, ब्रह्मबोध नामक आध्यात्मिक ग्रंथों की रचना की। प्राकृत भाषा में आपने युक्ति प्रबोध नामक १३०० श्लोक के एक विशाल नाटक की रचना की। मतलब यह कि आपकी प्रतिमा सर्वतो मुखी थी।
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श्री जैन मूर्ति पूजक प्राचार्य
श्री आचार्य विजयानन्द सूरिजी (प्रसिद्ध नाम श्री मात्मारामजी महाराज)-आप उन्नीसवीं सदी के अत्यन्त प्रख्यात् जैनाचार्य थे। आप उन महामानों की श्रेणी में हैं, जिन्होंने जैनागम की कठिन समस्याओं पर प्रकाश डालकर अपने योग बल के प्रभाव से भारत भूमि में आत्मज्ञान की पीयूषधारा को प्रवाहित किया है। भाप वेद वेदांग और दर्शनादि भागों में पूर्ण पारंगत थे। आपने अनेकों प्रन्यों की रचनाएँ की। पंजाब देश में आपने अत्यधिक विवरण एवं उपकार किया। भापके स्मारक में पंजाब प्रान्त में अनेकों मंदिर, भवन, सभाएँ, पाठमालाएँ एवं पुस्तकालय स्थापित हैं। सिद्धाचल तथा होशियारपुर में भापकी भव्य प्रतिमा स्थापित हैं। विक्रमी संवत् १८९३ की चैत सुदी को आपका जन्म हुभा। पास काल में पिताजी के स्वर्गवासी हो जाने से १४ साल की भायु में भाप जीरा चले आये। यहाँ भाने पर बीस वर्ष की आयु तक भाषने स्थानक मत के तमाम स्तोत्रों को कंठस्थ कर लिया। इसके पश्चात् मापने व्याकरण और साहित्य का अध्ययन कर पाय, सांस्य, वेदान्त और दर्शन ग्रंथ पदे। धीरे २ भापके मन में मूर्ति पूजा के विचार रद होते गये, और मापने संवत् १९३२ में अपने ५ साथियों सहित मुनिराज बुद्धिविजयजी से मंदिर सम्प्रदाय की दीक्षा ग्रहण की। तब आपका नाम “मानन्द विजय" रूखा गया। लेकिन भाप मारमाराम" के नाम से ही प्रसिद्ध रहे। गुजरात से भाप पंजाब पधारे। पंजाब प्रान्स में आपके प्रखर भाषणों ने नवजीवन फूंका। संवत् १९१३ में आपके पालीवाना चातुर्मास में भारत के विभिन्न प्रान्तों की ३५ हजार जैन जनता ने भापको "सूरिधर" और "बाग" की पदवी से विभूषित किया । केवल भारत में ही नहीं, विदेशों में भी भापकी प्रखर बुद्धि की गूंज हो गई थी। कई बार मापके पास विदेशों से भी निमंत्रण आये। मापने जीवन के अंतिम ३ वर्ष पंजाब प्रान्त में भ्रमण करते हुए व्यतीत किये। भाप संवत् १९५३ की ज्येष्ठ सुदी अष्ठमी की रात्रि में अपनी कीर्ति कौमुदी को इस असार संसार में छोड़ कर स्वर्गवासी हुए । आपके गुरु भाई प्रवर्तक कान्तिविजयजी महाराज वृद्ध एवं विद्वान महात्मा हैं। आपकी वय ८२ साल की है तथा आप पाटण गुजरात में विराजते हैं। आचार्य विजयवल्लभसूरिजी आपको बड़ी पूज्य रष्टि से देखते हैं। आपकी सेवा में मुनि पुण्य विजयजी रहते हैं।
श्री श्राचार्य विजय नेमिसरिजी-आपका जन्म माहुवा (मधुमती मगरी) में संवत् १९२९ की काती सुदी । को सेठ लक्ष्मीचन्द माई के गृह में हुआ। संवत् १९४५ की जेठ सुदी • को मापने गुरु वृद्धिचन्दजी महाराज से दीक्षा गृहण की। संवत् १९६० की कार्तिक वदी • को भापको "गणीपद" एवं मगसर सुदी ३ को पापको “पन्यास पद" प्राप्त हुआ। इसी प्रकार संवत् १९६४ को जेठसुदी दिव भावनगर में आप "आचार्य" पद से विभूषित किये गये । आपने जैसलमेर, गिरनार, आबू, सिदमेव भादि के संघ निकलवाये, कापरड़ा आदि कई जैन तीर्थों के जीर्णोद्धार में आपका बहुत भाग रहा है। भापये कई तीर्थों एवं मदिरों की प्रतिष्ठाएँ करवाई । आप न्याय, यामण एवं धर्मज्ञान के प्रखर शाता है। आपने अहमदाबाद में “जैन सहायक फंड" की स्थापना करवाई। बाप ही के पुनीत प्रवास से भ० भा० घेताम्वर मूर्तिपूजक साधु सम्मेलन का अधिवेशन अहमदाबाद में सफल हुना। माप धर्मशाखा, न्याय व व्याकरण के उपकोटि के विद्वान क्या तेजस्वी और प्रभावशाली साई है। मापने भनेको प्रन्थ की रचनाएँ कीं। माप
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ओसवाल जाति का इतिहास
उच्च वक्ता हैं। आपकी युक्तियाँ अकाव्य रहती हैं। ज्योतिष, वैद्यक आदि विषयों के भी आप ज्ञाता है। भापके पाटवी शिष्य आचार्य उदयसूरिजी एवं आचार्य विजयदर्शनसूरिजो धर्मशास्त्र, म्याकरण, दर्शन न्याय के प्रखर विद्वान है। आप महानुभावों ने भी अनेकों प्रन्थों की रचनाएँ की है। आचार्य उदयसूरिजी के शिष्य आचार्यविजयनंदन सूरिजी भी प्रखर विद्वान है। आपने भी अनेकों प्रन्थों की रचनाएँ की हैं।
श्री आचार्य विजयशन्ति सूरिश्वरजी-अपने प्रखर तेज, योगाभ्यास एवं अपूर्व शांति के कारण आप वर्तमान समय में न केवल भारत के जैन समाज में प्रत्युत ईसाई, वैष्णव आदि अन्य धर्मावलम्बियों में परम पूजनीय आचार्य माने जाते हैं। आपका जन्म भणादर गांव में संवत् १९४५ की माघ सुदी ५ को हुआ। मापने मुनि धर्मविजयजी तथा तीर्थविजयजी से शिक्षा ग्रहण कर संवत् १९६१ की माघ सुदी २ को मुनि तीर्थविजयजी से दीक्षा ग्रहण की। सोलह वर्षों तक मालवा आदि प्रान्तों में भ्रमण कर संवत् १९७७ में आप भाबू पधारे। संवत् १९९० की वैशाख वदी" पर बामनवाइजी में पोरवाल सम्मेलन के समय १५ हजार जैन जनता ने आपको "जीवदया प्रतिपाल योग लब्धि सम्पन्न राजराजेश्वर" पदवी अर्पण कर अपनी भक्ति प्रगट की। यह पद अत्यंत कठिनता पूर्वक जनता के सत्यागृह करने पर आपने स्वीकार किया। इसके कुछ ही समय बाद “वीर-वाटिका" में आपको जैत जनता ने “जगत गुरु" पदसे अलंकृत किया। इसी साल मगसर महीने में आप "भाचायं सूरि सम्राट" बनाये गये। हालाँ कि उपरोक्त सब पदविएँ आपके तेज व प्रताप के सम्मुख नगण्य हैं, लेकिन श्रद्धालु जनता के पास इससे बढ़कर और कोई वस्तु नहीं थी, जो आपके सम्मान स्वरूप अर्पित की जाती। आपने लाखों मनुष्यों को अहिंसा का उपदेश देकर मांस व शराब का त्याग करवाया। भालू में पशुओं के लिए “शान्ति पशु औषधालय" की स्थापना कराई। यह औषधालय लीबड़ी नरेश तथा मिसेज ओगिल्वी की संरक्षता में चलता रहा है। अभी कुछ ही दिन पूर्व आपको उदयपुर में नेपाल राजवंशीय डेपुटेशन ने अपनी गवर्नमेंट की ओर से “नेपाल राज गुरु" की पदवी से अलंकृत किया। कई उच्च अंग्रेज व भारत के अनेकों राजा महाराजा भापके अनन्य भक्त हैं। आपके प्रभाव से लगभग सौ राजाओं और जागीरदारों ने अपने राज्य में पशु बलिदान की कर प्रथा बन्द की है। आप अधिकतर आब पर विराजते हैं।
श्री प्राचार्य विजयवल्लभसूरिजी-आपका शुभ जन्म विक्रमी संवत् १९२७ की कार्तिक सुदी २ को वीशा श्रीमाली जाति में बड़ोदा निवासी शाह दीपचंद भाई के गृह में हुआ, एवं आपका जन्म नाम छगनलाल रक्खा गया । बाल्यकाल से भाप बड़ी प्रखर बुद्धि के थे। आपने संवत् १९४३ में श्रीमान भास्मारामजी महाराज से राधनपुर में दीक्षा ग्रहण की और श्री हर्षविजयजी के आप शिष्य बनाये गये, तथा आपका नाम मुनि श्री विजयवल्लभजी रक्खा गया। आपने संस्कृत, प्राकृत, मागधी का ज्ञान प्राप्त कर न्याय ज्योतिष, दर्शन और आगम शास्त्रों का अध्ययन किया। आपकी प्रखर बुद्धि एवं गंभीर विचारशक्ति पर आत्मारामजी जैसे प्रकांड विद्वान भी मोहित थे। अनेकों स्थानों में आपने शालार्थ करके विजय प्राप्त की है। सम्वत् १९८१ में लाहौर में भारत के जैन संघ ने भापको मगसर सुदी५के दिन “आचार्य" पद से सुशोभित किया। आपने अपने प्रभावशाली उपदेशों से कई गुरुकुल एवं जैन शिक्षा संस्थाएँ, लायबेरियाँ, ज्ञान भण्डार वगैरा स्थापित करवाये, जिनमें श्री मात्मानंद जैन गुरुकुल गुजरानवाला, श्री आत्मानन्द जैन
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मूर्ति पूजक श्राचार्म हाईस्कूल अम्बाला, भी पार्श्वनाथ जैन विद्यालय वरकाणा और उम्मेदपुर, श्री भारमानंद विद्यालय सादड़ी, श्री पालनपुर जैन बोडिंग, आरमवल्लभ केलवणी फण्ड पालनपुर, महावीर जैन विद्यालय बम्बई भादि २ मुख्य हैं। इतना ही नहीं आपने अनेकों संघ निकलवाये, प्रतिष्ठाएँ, अंजनशलाकार्य कराई। आप बड़े शान्त, तेजस्वी एवं प्रतिभा सम्पन्न आचार्य हैं। इस समय भाप जैन कॉलेज और युनिवर्सिटी खोलने का सतत उद्योग कर रहे हैं। आपके उपदेश से पाटन में ज्ञान मन्दिर तयार हो रहा है। आपके शिष्य पन्यास ललितविजयजी शान्त एवं विद्वान जैन मुनि हैं।
श्री आचार्य विजयदान सूरिश्वरजी-आपका जन्म विक्रमी संवत् १९१४ की कार्तिक सुदी १४ के दिन झीजुवाड़ा नामक स्थान में रस्सा श्रीमाली जातीय जुठाभाई नामक गृहस्थ के गृह में हुआ, और भापका नाम दीपचन्द भाई रक्खा गया। संवत् १९४५ की मगसर सुदी ५ के दिन गोधा मुकाम पर भात्मारामजी महाराज के शिष्य वीरविजयजी महाराज से आपने दीक्षा ग्रहण की, एवं आपका नाम दानविजयजी रक्खा गया। आपके जैनागम तथा जैन सिद्धान्त की अपूर्व जानकारी की महिमा सुनकर बड़ोदा नरेश ने सम्मान पूर्वक भापको अपने नगर में भामंत्रित किया। संवत् १९६२ की मगसर सुदी १ तथा पौर्णिमा के दिन भापको क्रमशः गणीपद तथा पन्यास पद प्राप्त हुभा, और संवत् १९८१ की मगसर सुदी ५के दिन श्रीमान् विजय कमलसूरिजी ने भापको छाणी गाँव में आचार्य पद प्रदान किया, और तब से भाप “विजयदान सूरिश्वर महाराज" के नाम से विख्यात हैं। नेत्रों के तेज की न्यूनता होने पर भी भाप अनेकों अन्यों के पठन पठनादि कार्यों में हमेशा संलग्न रहते हैं। आपके शिष्य सिद्धान्त महोदधि महा महोपाध्याय प्रेमविजयजी एवं व्याख्यान वाचस्पति पन्यास रामविजयजी महाराज भी उस विद्वान हैं। रामविजयजी महाराज प्रखर वक्ता हैं। भापकी विषय प्रतिपादन शक्ति उच्चकोटि की है। . श्री आचार्य विजयधर्मसूरिजी-आप अन्तराष्ट्रीय कीर्ति के आचार्य थे। आपका जन्म संवत् १९२४ में बीसा श्रीमाली जाति के श्रीमंत सेठ रामचन्द भाई के यहाँ हुआ था। उस समय आपका नाम मूलचन्द भाई रक्खा गया था। बाल्यकाल में भाप पढ़ने लिखने से बड़े घबराते थे। अतः आपके पिताजी ने भापको अपने साथ दुकान पर बैठाना शुरू किया। यहाँ आप सहा और जुगार में लीन हो गये। जब इन विषयों से आपका मन फिरा तो आपने सम्बत् १९१३ की वैशाख वदी५को मुनि वृद्धिचन्दजी महाराज से दीक्षा ग्रहण की, और आपका नाम धर्मविजयजी रक्खा गया। धीरे २ आपने अपने गुरू से भनेकों शास्त्रों का अध्ययन किया । मापने संस्कृत का उच्च ज्ञान देने के हेतु बनारस में “पशो विजय जैन पाठशाला" और "हेमचन्द्राचार्य जैन पुस्तकालय" को स्थापना की । आपने बिहार, बनारस, इलाहाबाद, कलकत्ता, तथा बंगाल, गुजरात, गोडवाड़ आदि अनेकों प्रान्तों में चातुर्मास कर अपने निष्पक्षपात तथा प्रखर व्याख्यानों द्वारा जैन धर्म की बड़ी प्रभावना की। आपके कलकत्ता के चातुर्मास में जैन व अजैन श्रीमत, भनेकों रईस एवं विद्वानों ने भापके उपदेशों से जैन धर्म अंगीकार किया था। इलाहाबाद के कुंभोत्सव के समय जगनाथपुरी के श्रीमत् शंकराचार्य के सभापतित्व में आपके उदार भावों से परिपरित प्रखर भाषण ने जनता में एक अपूर्व हलचल पैदा की थी। संवत् १९६३ में मापने गुरुधारी दीक्षा ग्रहण की। संवत् १९९४ की सावण वदी के दिन बनारस में काशी नरेश के सभापतित्व में अनेकों बंगाली तथा गुजराती
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
एवं स्थानीय विद्वान तथा श्रीमंतों की उपस्थिति में आप " शास्त्र विशारद" तथा जैनाचार्य की पदवी से विभूषित किये गये । इस पदवी का समर्थन भारत के अतिरिक्त विदेशीय विद्वान डाक्टर हरमन जेकोबी, प्रोफेसर जहनस हर्टल डॉबलेन मे मुक्त कंठ से किया था। आपका कई विदेशी विद्वानों से स्नेह है। आपके शिष्य आचार्य श्री इन्द्रविजयजी, न्यायतीर्थं मंगल विजयजी, श्रीमुनि विद्याविजयजी, न्यायतीर्थं न्यायविजयजी, न्याय तीर्थं हेमांशुविजयजी आदि हैं। आप सब प्रखर विद्वान एवं अनेकों ग्रन्थों के रचयिता हैं । श्री आचार्य विजयकेशर सूरिश्वरजी - आपका जन्म सम्वत् १९३३ की षोष सुदी १५ को माधवजी भाई के गृह में पालीताना तीर्थ में हुआ । आपका नाम उस समय केशवमी था। आपको सम्वत् १९५० की मगसर सुदी १० के दिन बड़ौदा में आचार्य विजय कमलसूरिश्वरजी ने धूमधाम के साथ दीक्षा दी, तथा आपका नाम केशर विजयजी रक्खा गया। गुरुजी के पास से आपने अनेकों शास्त्रों का अध्ययन किया । आपने अमेको तीर्थों के संघ निकलवाये । सम्वत् १९६३ की कार्तिक बढ़ी ६ को आप 'गणी' पद एवं सम्वत् १९६४ की मगसर सुदी १० के दिन पन्यास पदवी से विभूषित किये गये । आपने हुनरशाला, योगाश्रम एवं पाठशालाएं स्थापित करवाई । सम्वत् १९८३ की काती बदी ६ को आप आचार्य पद से विभूषित किये गये, तथा सम्वत् १९८५ की श्रावण वदी ५ को आप स्वर्गवासी हुए ।
वाल गृहस्थ के गृह में संवत् १९२५ की पोष सुदी ३ के के दिन आपने बरदीचन्दजी महाराज से दीक्षा गृहण की।
मुनिवर्य्य श्री कर्पूर विजयजी - आपका जन्म भावनगर निवासी अमीचन्द भाई नामक भोसदिन हुआ । सम्वत् १९४७ की वैशाख सुदी ६ आपने मेट्रिक तक अध्ययन किया । आपने जैन समाज में धार्मिक ज्ञान के प्रसार में विशेष भाग लिया । आप बड़े गम्भीर, गुणज्ञ तथा त्यागी साधु हैं । श्री श्राचार्य जिन कृपाचन्द्र सूरीश्वरजी - आपका जन्म चांमू (जोधपुर) निवासी मेधरथजी बापना के गृह में संवत् १९१३ में हुआ । संवत् १९३६ में अमृतमुनिजी ने भावको यति सम्प्रदाय में दीक्षा दी। आपने खेरवाड़े के जिन मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई। आपने मालवा, मारवाड़, गुजरात, काठियावाड़, बम्बई में कई चातुर्मास कर जनता को सदुपदेश दिया । आप सम्वत् १९७२ में बम्बई में "आचार्य” पद से विभूषित किये गये। आपने कई पाठशालाएं, कन्याशाळाएं एवं लायब्रेरियाँ खुलवाई । धर्मशास्त्र एवं व्याकरण के अच्छे ज्ञाता हैं, तथा खरतर गच्छ के आचार्य हैं।
आप न्याय,
श्री चार्म्य सागरानन्द सूरिजी -- भपका जन्म कपडभन्ज निवासी प्रसिद्ध धार्मिक श्रीमंत सेठ मगनलाल गाँधी के गृह में सम्वत् १९३१ में हुआ । आपके बड़े भ्राता मणिलाल गाँधी के साथ आपने धार्मिक शिक्षा प्राप्त की । प्रथम आप के भ्राता ने दीक्षा ग्रहण की एवं उनका मणिविजय नाम रक्खा गया । आपके दीक्षागृहण करने के विरोध में आपके असुर ने कोर्ट से रोक की । लेकिन आपने परवाह न कर सं० १९४७ में अवेर सागरजी से दीक्षा गृहण की, और आपका नाम आनन्दसागर जी रक्खा गया । "गणीपद” प्राप्त हुआ। आपके विद्वत्तापूर्ण एवं सारगर्भित आफ्ने एक लाख रुपयों की लागत से सूरत में सेठ देवचन्द
सम्वत् १९६० में आपको " पम्पास " एवं भाषणों ने जैन जनता को प्रभावित किया । लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फन्ट कायम कराया । बम्बई में जैन जनता को संगठित करने के समय भाष
"सागरानन्द" के नाम से मशहूर हुए।
सम्वत् १९७४ में आपको आचार्य बिजयकमलसूरिजी मे
みや
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स्थानकवासी
या पद प्रदान किया। आपका स्थापित किया हुआ सूरत का 'श्री जैन आनन्द पुस्तकालय' बम्बई प्रान्त में प्रथम नम्बर का पुस्तकालय है। इसी तरह आगम ग्रन्थों के उद्धार के लिए आपने सूरत, रतलाम, कलकत्ता, अजीमगअ, उदयपुर आदि स्थानों में लगभग १५ संस्थाएं स्थापित कीं । इन्हीं गुणों के कारण आप " आगमोद्धारक" के पद से विभूषित किये गये। इस समय आप सूर्य्यपुरी में निवास करते हैं। आपने बाल दीक्षा के लिए बड़ोदा सरकार से बहुत वादविवाद चलाया था ।
श्री जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी प्राचार्य
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उस समय
इस सम्प्रदाय के प्रधान प्रचारक श्री कोंकाशाह भी एक मशहूर साहूकार थे । शताब्दी के अन्तर्गत अहमदाबाद नगर के एक प्रतिष्ठित तथा धनिक सज्जन थे। प्रारम्भ तीक्ष्ण बुद्धि वाले, बुद्धिमान तथा धर्म प्रेमी महानुभाव थे । आपके अक्षर बड़े ही सुन्दर थे । छापेखानों आदि का आविष्कार म हो पाया था । अतः जैन धर्म के कई शास्त्रों को आपने स्वयं अपने हाथ से लिखा जिससे आपको जैन शास्त्रों के अध्ययन का शौक क्रमशः लग गया और कालान्तर से आप एक बड़े विज्ञान तथा जैन तत्वों के पंडित होगये । तदनन्तर आपने अपनी सम्पति का सदुपयोग कर जैन शास्त्रों को लिखवाना आरम्भ करा दिया। इस प्रकार जैन साहित्य को संग्रहित करने के विशाल कार्य द्वारा आपको जैन धर्म के तत्वों का विशेष ज्ञान होगया और उसी समय से आपने जैन जनता को जैन तत्वों का उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया। धीरे २ आपका नाम जैन समाज में फैल गया और दूर २ से सैकड़ों हजारों व्यक्तियों के झुण्ड के झुण्ड आपके व्याख्यान को सुनने के लिये आने लगे और आपके प्रभावशाली व्याख्यान को सुन कर हजारों की संख्या में आपके अनुयायी होगये । सर्व प्रथम आपने संवत् १५३१ में ४५ साधुओं को दीक्षा ग्रहण करने की आज्ञा दी। इसके पश्चात् इस सम्प्रदाय का प्रचार बड़ी तेजी इस धर्म को अंगीकार किया और बहुत से गृहस्थों
से होने लगा और थोड़े ही समय में हजारों भावकों ने
मे सांसारिक सुखों को छोड़ छोड़कर इस सम्प्रदाय में दीक्षा ग्रहण की।
आप सोलहवीं से ही आप
लोकाशाहजी के पश्चात् ऋषि श्री भाणजी, श्री भीदाजी, श्री यूनाजी, भी भीमाजी, श्री गजमक
मी, श्री सखाजी, श्री रूप ऋषिजी, श्री जीवाजी नामक आचार्य धर्म प्रचारक श्री लोकाशाहजी के पाट पर क्रमशः विराजे । आप सब आचायों ने जैन सिद्धान्तों का सर्वत्र प्रचार किया और लाखों की संख्या में अपने अनुयायिओं को बनाया। इसी समय तत्कालीन भाचायों में मतभेद होजाने के कारण इस सम्प्रदाय की तीन शाखाएं होगई – (१) गुजराती लोकागच्छ (२) नागोरी डोंकागच्छ तथा (३) उत्तरार्ध लोकागच्छ । कागच्छ के आचार्य श्री जीवाजी ऋषि के तीन मुख्य शिष्य थे श्री कुँवरजी, श्री नरसिंहजी तथा श्री श्रीमलजी । इनमें से श्री कुँवरजी, और उनके पश्चात् श्री श्रीमलजी उक्त पाट पर बैठे। आपके पश्चात् श्री रत्नसिंहजी, श्री केशवजी, श्री शिवजी, श्री संघराजजी, श्री सुखमलजी, श्री भागचन्दजी, श्री बालचन्दजी, श्री माणकचन्दजी, श्री मूलचन्दजी, श्री जगतसिंहजी तथा श्री रतनचन्द
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भोसवाल जाति का इतिहास
जी उक्त पाट पर बिराजे। श्री रतनचन्दजी के शिष्य श्री भूपचन्दजी वर्तमान में इस पाट पर विराजमान हैं।*
इसी तरह गुजराती लोकागच्छ के भाचार्य जीवाजी के दूसरे शिष्य श्री वरसिंहजी के पश्चात् आपके पाट पर श्री छोटेसिंहजी, श्री यशवंतसिंहज़ी, श्री रूपसिंहजी, श्री दामोदरजी, श्री केशवजी, श्री तेजसिंहजी, श्री कहानजी श्री तुलसीदासजी, श्री जगरूपजी, श्री जगजीवनजी, श्री मेघराजजी, श्री शोभाचन्दजी, श्री हर्षचन्दजी, श्री जयचन्दजी, तथा श्री कल्याणचन्दजी नामक आचार्य विराजे। श्री कल्याणचन्दजी के शिष्य श्री खूबचन्दजी वर्तमान में इस पाट पर विराजमान हैं।
गुजरात लोकागच्छ में से श्री कुंवरजी पक्ष आचार्य श्री नृपचन्दजी की गही जामनगर में, वरसिंहजी के शिष्यों में प्रसिद्ध भाचाय्य श्री केशवजी पक्ष के शिष्य आचार्य श्री खूबचन्दजी की गद्दी बड़ौदा में तथा धनराजजी पक्ष के श्री विजयराजजी की गद्दी जैतारण (मारवाड़) में विद्यमान हैं।
___ धर्म सुधारक श्री धर्मसिंहजी-आप नयानगर निवासी दस्सा श्रीमाली वैश्य श्री जिनदासजी के पुत्र थे। आपकी माता का नाम शिवा था। भाप बढ़े तीक्ष्ण बुद्धिवाले तथा धार्मिक सज्जन थे। छोटी उमर से ही आप जैनाचार्यों के व्याख्यान बड़े ध्यान से सुनते थे। आपने १५ वर्ष की आयु में आचार्य श्री रत्नसिंहजी के शिष्य श्री देवजी से नयानगर में ही यति वर्ग की दीक्षा प्रहण की। तदनन्तर आपने जैन शास्त्रों तथा सूत्रों का अध्ययन कर उनका अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया और अपने श्रावकों को जैन तत्वों का उपदेश देने लगे। आप बड़े त्यागी, साहसी, निडर तथा साधु के संयम आदि नियमों को पूर्णरीति से पालते थे। आपने उस समय के साधुओं की भाचार शिथिलता से उन्हें सावधान किया तथा पुनः लोकाशाहजी के सिद्धान्तों का प्रचार कर जैन जगत में नवीन स्फूर्ति पैदा करदी। आपके व्याख्यानों का लोगों पर अच्छा प्रभाव पड़ा। आपके अनुयायी दरयापुरी के नाम से प्रसिद्ध हैं । आपने कई प्रन्थ लिखे थे। भाप संवत् १७२८ में स्वर्गवासी हुए।
धर्म सुधारक श्री ऋषि लवजी-आप सूरत निवासी एक धनाड्य श्री माली वैश्य श्री वीरजी बोहरा के पुत्र थे। आपने संवत् १९९२ में खम्भात में जैन धर्म के साधु की दीक्षा ग्रहण की। आप जैन शास्त्रों के व सूत्रों के ज्ञाता तथा साधु के आचार विचार के नियमों को अक्षरशः पालन करने वाले आचार्य थे। आपका त्याग व आपकी क्षमता बहुत बड़ी चढ़ी थी। आपने जैन धर्म के सिद्धान्तों का प्रचार करने में सैकड़ों आपत्तियों का बड़े धीरज के साथ सामना किया था । आपके पश्चात् क्रमशः भाचार्य श्री सोमजी तथा कहानजी का नामोल्लेख हम उपर कर चुके हैं। वर्तमान में आपके सम्प्रदाय के शिष्य श्री अमोलख ऋषिजी महाराज विद्यमान हैं। आपका परिचय आगे दिया जायगा।
___ धर्म सुधारक श्री धर्मदासजी-आप अहमदाबाद जिले के सरखेच नामक गांव के निवासी जीवण कालिदासजी भावसार के पुत्र थे। आपने संवत् १७६ में अहमदाबाद के बाहर बादशाह की बाड़ी में दीक्षा ली थी। प्रारम्भ से ही आपकी एकलपात्री साधुपर श्रद्धा थी। आप धर्म सुधारक श्री धर्मसिंह
* उक्त आचार्यों के विशेष परिचय के लिये वाड़ीलाल मोतीलाल शाह लिखित "ऐतिहासिक नोंध" नामक पुस्तक को पदिये।
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स्थानकवासी प्राचार्य
जी तथा लवजी ऋषि के सम्प्रदायों से पूर्ण संतुष्ट न हुए और अपना एक अलग सम्प्रदाय स्थापित किया। मापने स्थानकवासी सम्प्रदाय के विषम त मादिको उचित नीति व ढंग से लिखा जिनमें से प्रायः बहुत से आज तक पूर्ववत् ही पाले जाते हैं। भाप कुल ९९ भिव्य हुए जिनसे आगे जाकर मारवाड़, मेवाड़, पंजाब, लींबढ़ी, बोटाद, सायला, धागो, पुगकच्छ, मॉडक भादि संघ बने। इनके अतिरिक्त आपके शिष्य श्री रघुनाथजी के शिष्य श्री मिक्खनजी ने वर्चमान भारत प्रसिद्ध श्री तेरापन्थी धर्म की भी स्थापना की जिसका पूर्ण इतिहास अन्यत्र दिया जा रहा है। श्री धर्मदासजी के प्रधान शिष्य मूलचंदजी जो गुजरात में ही रहे, के श्री गुलाबचन्दजी, पाणी, बनाजी, इन्दरजी, बनारसीजी तथा इच्छाजी नामक शिष्यों से निम्न लिखित संघ स्थापित हुए।
श्री पचाणजी शिष्य श्रीरसनजी तथा श्रीरंगरसीजी स्वामी गोंडल गये तब से आपका गोंडल संघ स्थापित हआ। आपके अनुयाची गॉडल संघाड़ा नाम से प्रसिद्ध हैं। श्री बनाजी के शिष्य श्री कहानजी स्वामी बरवाले गये बसे भापके संच का माम बरवाळ संघ पड़ा। श्री इन्दरजी के शिष्य श्रीकृष्णस्वामी ने कच्छ में माठ कोठी समुदाय का प्रचार किया मतः मापके संघ वाले कच्छ आठ कोठी समुदाय वाले प्रसिद्ध हैं। श्री बनारसीजी के सिप भी जवसिंहजी तथा श्री उदयसिंहजी स्वामी चुढ़ा गये सब से आपका समुदाय चुग समुदाय के नाम से प्रसिद। इसी प्रकार श्री हाजी स्वामी ने संवत् १८१५ में कीम्बदी में कीम्बदी समुदाय की गही स्थापित की। तब से भापका समुदाय कीम्बड़ी समुदाय के नाम से मशहूर है। आपके शिष्य श्री रामजी ऋषि कीम्बड़ी से उदयपुर भाये और आपने उदयपुर में उदयपुर समुदाय स्थापित किया।
आचार्य श्री अजरामरजी-श्री मूलचन्दजीके ज्येष्ठ शिष्य श्री गुलाबचन्दजी के क्रमशः श्रीबालजी, श्री हीराजी स्वामी तथा श्री कहानजी नामक शिष्य हुए। इन कहानजी के शिष्य श्री अजराअमरजी हुए। भापका जन्म संवत् १००९ में हुमा था। आप जामनगर जिले के पडाणा नामक गाँव के बीसा ओसवाल सजन थे। आप बड़े विद्वान तथा जैन सूत्रों के ज्ञाता थे। आपने संवत् १८१९ में जैन धर्म में दीक्षा ग्रहण की और संवत् १८४५ में भाचार्य पदवी से विभूषित किये गये। मापने लीम्बड़ी समुदाय को खूब प्रसिद्ध किया। आपका स्वर्गवास सम्बत् १८७० में हुआ। आपके पश्चात् आपके शिष्य देवराजजी ने सम्बत् १८४७ में कच्छ में विहार किया तथा वहाँ पर छः कोठी के समुदाय का प्रचार किया। आप विद्वान थे। मतः आपके इस समुदाय का बहुत प्रचार हुआ। भाप सम्वत् 16.९ में स्वर्गवासी हुए। भापके पश्चात् श्री भाणस्वामी गहो पर विराजे। आपने सम्बत् १८५५ में दीक्षा , की तथा सम्वत् १८८३ में निर्वाण पद को पास हुए। फिर देवजी स्वामी गद्दी पर विराजे । मापने सं. १८६० में दीक्षा ग्रहण की व सम्वत् १८८९ में गद्दी पर विराजे। श्री दीपचन्दजी बड़े विद्वान और शांतस्वभावी हो गये हैं। आपने सम्बत् १९०१ में लीम्बड़ी सम्प्रदाय में दीक्षा ली तथा संवत् १९३७ में आचार्य पद पाया। आप भी जैन धर्म की सेवा कर स्वर्गवासी हो गये।
। आचार्य श्री अमरसिंहजी-श्रीलोकाशाहजी द्वारा जिन सज्जनों को साधु होने की आज्ञा दी गई थी उन व्यक्तियों में से श्रीभानुलणाजी की १५वीं पीढ़ी में भी अमरसिंहजी पंजाबी हुए भाप अमृतसर निवासी
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श्रीसबाल जाति का इतिहास
भोसवाल जाति के तांतेड़ गौत्रीय श्री बुद्धसिंहजी के पुत्र थे। आपका जन्म सम्वत् १८६२ में हुआ था । आप बड़े कान्तिवान और तेज पुत्र थे । आपने सम्वत् १८९८ में देहली में श्री रामलालजी के पास पांच महामतों की दोक्षा ली थी तथा सम्बत् १९१३ में आप आचार्य पदवी से विभूषित किये गये। आपने १२ साधु एवं १३ साध्वियों को दीक्षित किया। आप बड़े विद्वान तथा जैन धर्म के ज्ञाता थे। आपने पंजाब की जैन समाज में एक नवीन धार्मिक संगठन कर तथा उन्हें अपने अमूल्य व्याख्यानादि सुना कर उनमें एक नवीन स्फूर्ति पैदा कर दी थी । आप सम्बत् १९३६ में अमृतसर में ही निर्वाण पद को प्राप्त आपके पश्चात् अलवर के ओसवाल जातीय कोढ़ा गौत्र के सज्जन श्री रामबगसजी उक्त गद्दी पर हुए। बिराजे 'आपका जन्म सं० १८८३ में हुआ था । आपने सम्वत् १९०८ में जयपुर में दीक्षा की और ११ तक आवार्य्यं रह कर सम्वत् १९२९ में स्वर्गवासी हुए। आपके पश्चात् लुधियाना जिले के बहलोलपुर निवासी मुसद्दीलालजी खत्री के पुत्र श्री मोतीरामजी उत गद्दी पर विराजे । आपका जन्म सम्वत् aico में हुआ था । सम्वत १९१० में आपने पाँच महाव्रत धारण किये थे। आप को सम्वत १९३९ में सुर्य पदवी मिली थी। आप सम्वत १९५८ में स्वर्गवासी हुए ।
के प्रधान शिष्य हैं।
पूज्य जवाहरलालजी - आप सुप्रख्यात आचार्य्यं श्री श्रीलालजी महाराज जैन साधुओं में आप अत्यंत प्रभावशाली, प्रतिमा सम्पन्न एवं विद्वान आचार्य हैं। देश की सामयिक, आवश्यकता की ओर आपका पूर्ण ध्यान है । जहाँ आप आपने अपूर्व उपदेशों के द्वारा हजारों लाखों लोगों के हृदयों को धर्म की दिव्य भावनाओं से परिप्लुत करते हैं वहाँ आप देश भक्ति और समाज सुधार के मार्ग से भी जनता को प्रगति शील बनाते हैं। आपके व्याख्यान बड़े ही स्फूर्तिदायक होते हैं और उनमें जीवन के भाव कूट २ कर भरे रहते हैं। पतितोद्धारक के लिए भी आप अपने व्याख्यानों में बड़ी जोरदार
अपील करते हैं और जनता के हृदय को हिला देते हैं । विश्व बन्धुत्व का आदर्श रखते हुए इस दीनहीन भारत के लिए आपके हृदय में बड़ी लगन है और इसके धार्मिक, सामाजिक उत्थान के लिए आप अपने ढंग से प्रयत्न करते हैं। आपके उपदेशों से न केवल जैन जनता ही लाभ उठाती है वरन् सभी लोग आपके अपूर्व व्याख्यानामृत को पानकर बहुत शांति काम करते हैं । पूज्य श्री मन्नालालजी - आपका जन्म संवत् १९२१ में हुआ । आपके पिता का नाम श्री अमरचन्दजी पूर्व माताजी का नाम श्रीमती नादीबाई था । आप ओसवाल जाति के सज्जन थे । आपने अपने पिताजी के साथ संवत् १९३८ में श्री रतनचन्दजी ऋषि से दीक्षा ग्रहण की। आप आरम्भ से ही द्वेष रहित, प्रखर बुद्धिवाले एवं बड़े सुशील थे । आप संवत् १९७५ में आचार्य पद पर भारूद किये गये तथा उसी समय आपको शास्त्र विशारद की उपाधि भी दी गई। आप शास्त्रों के बड़े विद्वान, अच्छे वक्ता एवं सच्चरित्र सज्जन थे । आपका त्याग भी प्रशंसनीय था। *
श्री अमोलक ऋषि जी +-1
--आप मेड़ते निवासी श्री केवलचन्दजी कांसटिया के पुत्र थे। आपने
* आपके विशेष परिचय के लिए आदर्श मुनि नामक ग्रंथ देखिये ।
+ आपके विस्तृत परिचय के लिए आप ही द्वारा लिखित जैन तत्व प्रकाश में श्री कल्याणमलजी चोरड़िया लिखित आपकी जीवनी देखिये ।
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स्थानकवासी श्राचार्य्य
संवत् १७४४ में १० वर्ष की आयु में श्री मुनि चैनऋषिजी से दीक्षा की । यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि आपके पिता एवं पितामह भी जैन धर्म में दीक्षित हो गये थे । श्री इसका बड़ा प्रभाव पड़ा था। आपने जैन धर्म में दीक्षित होने के पश्चात् अपने अनेक जैन शास्त्रों का अध्ययन कर कई ग्रंथों की रचना की । आप बड़े विद्वान एवं तत्वों के अच्छे ज्ञाता हैं । आपकी लिखी हुई कई पुस्तकें एवं बड़े-बड़े ग्रन्थ जैसे:- जैन तत्व प्रकाश आदि २ ।
अमोलक ऋषिजी पर ज्ञान को बढ़ाया तथा
वक्ता एवं जैन शास्त्रों
प्रकाशित हो चुके हैं
श्री सोहनलालजी - पंजाब के आचार्य श्री मोतीरामजी के पश्चात् आप ही उक्त गद्दी पर बिराजे । आप सियालकोट जिले के सम्बदयाळ गाँव वासी ओसवाल जातीय मथुरादासजी गधैया के पुत्र हैं। आपकी माताजी का नाम श्री लक्ष्मी देवी था। आपका जन्म संवत् १९०६ में हुआ । आपने अमृतसर नगर में संवत् १९३६ में दीक्षा ग्रहण की थी। आपके गुरु श्री धर्मचन्दजी आपके साहस, परिश्रम, ज्ञान तथा तर्क से बड़े प्रसन्न थे । आप संवत् १९५१ में युवाचार्य्यं तथा सम्वत् १९५८ में आचार्य पदवी से विभूषित किये गये हैं । आप बड़े तेजस्वी, गम्भीर एवं बाल ब्रह्मचारी हैं। युवावस्था में आपकी आवाज बड़ी बुलंद थी। आपको जैन शास्त्रों में जो ज्योतिष का वर्णन आया है, उसका बहुत अच्छा ज्ञान है । आप इस समय ८३ वर्ष के हैं। आप ४० वर्षों से निरंतर एकांतर वास कर रहे हैं तथा इस समय स्वाध्याय एवं पठन पाठन में अपना सारा समय व्यतीत करते हैं। जैन शास्त्रों के ज्योतिष में आपका बहुत विश्वास है। आपके सम्प्रदाय में इस समय कुल ७३ सुनि एवं ६० आर्य्याजी विद्यमान हैं। पूज्य श्री सोहनलालजी वृद्धावस्था होने के कारण भ्रमृतसर में ही स्थायी रूप से निवासकरते हैं। संवत् १९६९ में आपने अपने शिष्य श्री काशीरामजी को युवाचार्य्यं के पद से विभूषित किया । युवाचार्य श्री काशीरामजी का जन्म संवत् १९५० में पसरूर ( पंजाब ) में हुआ है। आप दूगड़ गौत्रीय ओसवाल सज्जन हैं। आप बड़े साहसी तथा योग्य साधु हैं। पंजाब की स्थानकवासी जैन जनता को आप से बहुत बड़ी आशा है ।
शतावधानी पं० मुनि श्री रत्नचन्द्रजी - आपका जन्म संवत् १९३६ में कच्छ मुन्द्रा के भारोरा नामक गाँव निवासी वीरपाल भाई ओसवाल के यहाँ हुआ । आप की माता का नाम श्री लक्ष्मीबाई है । आपका नाम उस समय रायसी भाई था । आप बड़े तीक्ष्ण बुद्धिवाले, कार्यं शील एवं धार्मिक सज्जन थे । आपने अपनी नवपत्नी के स्वर्गवास के वियोग में १८ वर्ष की आयु में दीक्षा ग्रहण करली । वर्त्तमान में आप जैनों के अग्रगण्य विद्वानों में गिने जाते हैं तथा आप अवधान निपुण होने के अतिरिक्त संस्कृत, प्राकृत एवं गुजराती भाषाओं के लेखक, कवि तथा अच्छे वक्ता है। आपने अनेक प्रन्थों की रचना की है। *
आपके विशेष परिचय के लिए 'अवधान प्रयोग' नामक पुस्तिका में 'अवधान कर्त्ता का जीवन परिचय नामक शीर्षक में देखिये ।
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तेरापन्थी संपदाय तेरापन्थी संप्रदाय की स्थापना-इस पंथ के प्रर्वतक स्वामी भिक्खनजी महाराज थे। ऐसा कहा जाता है कि आप पहले स्थानकवासी संप्रदाय के अनुयायी थे, मगर जब आपने उस संप्रदाय के आचार्यों के क्रिया-कर्म में कुछ फर्क देखा तब आपने नवीन विचारों के अनुसार कुछ अपने अलग अनुयायी बनाए । एक बार आपके ३ अनुयायी आपके सिद्धान्तानुसार एक पड़त दुकान में पोषध कर रहे थे, ठीक उसी समय जोधपुर के तत्कालीन दीवान सिंघवी फतेचंदजी उधर निकले। श्रावकों को स्थानक में पोषध न करने का कारण पूछने पर उन्हें मालूम हुआ कि कुछ धार्मिक सिद्धान्तों का मत भेद हो जाने के कारण वे लोग अपने सिद्धान्तानुसार यहां पोषध कर रहे हैं। इसी समय स्वामी भिक्खनजी महाराज अपने । साधु अनुयायियों को साथ लेकर उक्त स्थान पर पधारे । उस समय उन्होंने अपने नवीन सिद्धान्त दीवानजी के सामने रखे, जिससे दीवान साहब बहुत प्रसन हुए। इसी समय पास में खड़े हुए एक सेवक ने तेरह साधु और तेरह ही भावकों को देखकर निम्न लिखित पद कह सुनाया, तभी से इस संप्रदाय का नाम तेरा पंथी संप्रदाय हुआ।
"भाप आपको गिल्लोकरे, ते आप आप को मंत।
देखो रे शहर के लोगां-"तेरापंथी तन्त ॥" जब उपरोक्त वात स्वामी जी को विदित हुई तो उन्होंने भी इस नामको सफल करने के उद्देश्य से अपने संप्रदाय के अनुयायियों के लिए पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति का मन बचन से पालन करने का सिद्धान्त बनाया। जो कोई साधु और श्रावक इसका पालन करे वह तेरापंथी साधु और तेरापंथी श्रावक कहलावे । इस प्रकार इन तेरह सिद्धान्तों से तेरापंथी मत की स्थापना हुई। आगे चलकर इस संप्रदाय में कई साधु एवम् साध्वियों दीक्षित हुई। वर्तमान समय तक इसमें आचार्य पाटधर हुए । भागे हम इन्हीं माठों प्राचार्यों था संक्षिप्त जीवन चरित्र लिख रहे हैं।
संप्रदाय के स्थापक श्री स्वामी मिक्खनजी महाराज-आपका जन्म संवत १७८३ के आषाढ़ शुक्ला १३ को मारवाड़ राज्यांतर्गत कंटालिया नामक प्राम में हुआ था। आपके पिता शाह बल्लूजी सखलेचा बीसा भोसवाल जाति के सज्जन थे। भापकी माता का नाम श्रीमती दीपाबाई था। स्वामीजी को बचपन से ही साधु सेवाओं से बड़ा प्रेम था। अतएव भाप साधुओं के पास जाया भाया करते थे। प्रारम्भ में आपने गच्छ वासी संप्रदाय के व्याख्यान सुने, पश्चात् पोतिय' 'ध संप्रदाय ने आपका ध्यान आकर्षित किया। जब यहाँ भी आपको सच्ची शांति का अनुभव न हुआ तब आपने बाईस संप्रदाय की एक शाखा के आचार्य श्री रघुनाथजी महाराज के पास जाना प्रारंभ किया। आपके उपदेशों से प्रभावित होकर स्वामी भिक्खनजी का मन जैन धर्म के साधु बनने के लिये उतावला हो उठा। भाग्यवशात इन्हीं दिनों आपकी धर्म पत्नी का भी स्वर्गवास हो गया । आपके पिताजी का स्वर्गवास पहले ही हो चुका था। अतएव माताजी की आज्ञा लेकर मापने साधु होना निश्चित किया। कहना न होगा कि अपने जीवन सर्वस्व एक मात्र माधार पुत्र को साधु होने की आज्ञा प्रदान करना माता के लिये कितना कष्ट साध्य है. मगर फिर भी तेजस्वी माता ने जगत के
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तेरापंथी आचार्य
कल्याण के लिये अपने पुत्र को जैनधर्म के बाईस संप्रदाय में दीक्षित होने की सम्मति प्रदान कर दी। इस भाज्ञानुसार संवत् १८०० में भाप महाराजा रघुनाथजी द्वारा जैन साधु दीक्षित किये गये। इसके पश्चात् माठ बरस तक लगातार गुरु की सेवा में रहते हुए भापको अनुभव हुमा कि जिस मार्ग का अवलम्बन कर गुरुदेव कालयापन कर रहे हैं यह ठीक नहीं। अतएव इसी समय से मापने अपने नवीन सिद्धान्तों द्वारा एक अलग संप्रदाय की नींव डाली। यह समय सम्बत् ....की आषाद सुदी १५ का था। आपका स्वर्गवास सम्वत् १८६० की भाद्रपद शुक्ला ११ को ७ वर्ष की अवस्था में मारवाद राज्य के सिरियारी नामक ग्राम में हुआ। आपने अपने समय में १९ साधु और ५६ साध्वियों को अपने धर्म में दीक्षित किया था। इस समय आपके कई ग्रहस्थ लोग भी अनुयायी हो गये थे। भाप इस संप्रदाय के एक विशेष आचार्षे थे।
श्री स्वामी मारीमखत्री स्वामी मिक्खनजी के स्वर्गारोहण हो जाने के पश्चात् भाप पाटधारी आचार्य हुए। मेवाड़ राज्य केलवा नामक स्थान पर आपका दीक्षा संस्कार हुआ। आपके पिताजी का नाम श्रीकृष्णामलजी होदा था । सिरिवारी नामक ग्राम में आपका पाट महोत्सव हुभा। आपने अपने समय में ३८ साधु और ४४ सानियों को दीक्षित किया। मापकी प्राकृति गम्भीर और शान्त थी। आपका स्वर्गवास संवत् १८७४ की माघ कृष्णा को मेवाड़ के राजनगर नामक ग्राम में .५ वर्ष की आयु में हुआ।
श्री स्वामी रायचन्दजी-तीसरे भाचार्य स्वामी रायचन्दजी हुए। आपका जन्म रावलिया (मेवाद) में हुआ। आपके पिता चर्तुभुजजी बम्ब थे। रावलिया ही में आपका दीक्षा संस्कार हुभा, एवम् राजनगर में भापका पाट महोत्सव हुआ। आपने अपने समय में ७७ साधु और १६८ साध्वियों को दीक्षित किया था। आपके जन्म स्थान ही में सम्वत् १९०८ की माघ कृष्णा १४ को ६२ वर्ष की आयु में मापका स्वर्गवास हुभा।
श्री स्वामी जतिमलजी-चौथे आचार्य स्वामी जीतमलजी का जन्म सम्वत् रोहत (मारवाड़) नामक स्थान में हुआ। आपके पिताजी का नाम श्री आईदानजी गोलेछा था । आपका दीक्षा संस्कार जयपुर में तथा पाट महोत्सव बीदासर में हुभा। आप अच्छे विद्वान तथा प्रतिभाशाली भाचार्य थे। भापने 'शुभ विध्वंसनम्' भादि बहुत से ग्रंथों की रचना की। आपने अपने जीवन में १०५ साधु और २२४ सावियाँ बनाई। आपका स्वर्गवास सम्बत् ११३८ के भादवा कृष्ण १२ को जयपुर में ८ वर्ष की आयु में हो गया है।
स्वामी मघराजजी-आप इस संप्रदाय के पाँचवे आचार्य थे। आपका जन्म चैत्र शुक्ला सम्वत् १८९७ में बीदासर (बीकानेर) में हुआ । भापके पिता श्री पूरनमलजी बैंगानी थे। आपकी दीक्षा लाइन में हुई थी एवम् जयपुर में आप आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। आपने अपने समय में ३६ साधु और ८३ साध्वियों को दीक्षित किया। आपका स्वर्गवास सम्बत् १९४९ की चैत्र कृष्णा ५ को ५३ वर्ष की भायु में सरदारशहर में हुआ।
श्री स्वामी मानिकलालजी-स्वामी मानिकलालजी महाराज का जन्म श्री हुकुमचन्दजी खारद (श्रीमाल) के यहाँ जयपुर में सम्वत् १९१२ की भाद्रपद कृष्णा . को हुआ। लाडनू में भाप दीक्षित हुए, एवम् सरदारशहर में भाप भाचार्य बनाए गये। मापने साधु और २३ साध्वियों को
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मासवाल बाति का इतिहास
दीक्षित किया। भापका स्वर्गवास सम्बत् १९५४ की कार्तिक कृष्णा ३ को सुजानगढ़ में १३ वर्ष की अवस्था में हो गया है।
श्री स्वामी गचन्दजी-स्वामी बालचन्दजी महाराज का जन्म उज्जैन में कनीरामजी पिपाया के यहाँ संवत् १९०९ की भाषाद शुक्ला को हुआ। इन्दौर में बाप दीक्षित हुए, एवम् लाडन् में आपको भाचार्य पद प्राप्त हुआ । आपने अपने समय में १६ साधु और १२६ साध्वियों को दीक्षित किया । ५० वर्ष की आयु में लाडनू नामक स्थान में संवत् १९९९ की भाद्रपद शुक्ला १२ को भापका स्वर्गवास हो गया।
वर्तमान आचार्य श्री कालूरामजी-आपका जन्म सम्वत् १९३३ की फाल्गुन शुक्ला २ को छापर में हुआ। सम्बत् १९४७ में आचार्य मघराजजी द्वारा आप बीदासर में दीक्षित किये गये । सम्वत् १९६६ के भाद्रपद में भाप आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। आपने अभी तक १२८ साधु और १९९ साध्वियों को अपने धर्म में दीक्षित किये हैं। इस समय सब मिलाकर 11 साधु और २९४ सावियाँ भापकै अधिकार में हैं। आप प्रारम्भ से ही बड़े प्रतिभासम्पन्न और उग्र तपस्वी रहे हैं। ब्रह्मचर्य का अपूर्व तेज आपके मुंह पर दैदीप्यमान हो रहा है। आपकी प्रकृति बड़ी सौम्य, गम्भीर और शीतल है। भाप जैन शाखों, दर्शनों और जैन सूत्रों के अच्छे जानकार है । संस्कृत साहित्य के भी आप अच्छे विद्वान हैं। इस सम्प्रदाय के संस्कृत साहित्य में बापने बहुत तरकी की है। इस समय इस सम्प्रदाय के बहुत से साधु संस्कृत के भौर जैन सूत्रों के अच्छे विद्वान हैं। आपकी सङ्गठन और व्यवस्थापिका शक्ति बढ़ी ही अद्भुत है। आपने अपने सम्प्रदाय का सङ्गठन बहुत ही मजबूत और सुन्दर ढंग से कर रक्खा है। और २ सम्प्रदायों के साधुओं में जो आपसी झगड़े खड़े हो जाते हैं वे इस सम्प्रदाय में कतई नहीं होते। यह सब श्रेय आपकी संगठन शक्ति को है। सम्प्रदाय के सब साधु और साध्धियाँ एक स्वर से आपकी आज्ञा का पालन करते हैं। कहा जाता है कि इस समय सारे भारतवर्ष में इस सम्प्रदाय के करीव २लाख अनुयायी हैं। आपने सङ्गठन को सुचारू रूप से चलाने के लिये इस सम्प्रदाय में हर साल माघ शुक्ला को मर्यादा महोत्सव नाम से एक उत्सव चलाया है, जिसमें प्रायः सभी साधु सम्मिलित होते हैं। साथ ही श्रावक वर्ग भो भाप लोगों के दर्शनार्थ उपस्थित होते है। इस अवसर पर इस प्रकार एक सम्मेलन सा हो जाता है एवम् मापसे विचार विनिमय का अच्छा मौका मिलता है। इसका श्रेय भी आपकी व्यवस्थापिका शक्ति को है।
इस सम्प्रदाय के साधु और साध्वियों की तपस्या भी बड़ी कठोर होती है। राजलदेसर की महासती श्री मुखॉजी ने २७० दिन तक केवल भाछ के सहारे तपस्या की थी। इसी प्रकार और भी कई साधुओं ने लगातार छ: १ सात माह तक की उग्र तपस्या की है।
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ओसवाल जाति के प्रसिद्ध घराने
Leading Families Of Oswals
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गैलडा गौत्र
जगत सेठ का इतिहास अब हम पाठकों के आगे ऐसे खानदान का परिचय उपस्थित करते हैं जो सारी पोसवाल जाति . के इतिहास में सितारे की तरह नहीं प्रत्युत सूर्य के प्रकाश की तरह अगमगा रहा है। जगत सेठ म
खानदान उन खानदानों में सबसे पहला है जिन्होंने अपनी अपूर्व प्रतिभा और साहस के बल पर सारी जाति का मुख उज्ज्वल किया है। राजनैतिक, व्यापारिक और धार्मिक सभी क्षेत्रों में इस खानदान) दिग्गज पुरुषों ने ऐसे विचित्र खेल खेले हैं जो किसी भी जाति के इतिहास को महानता की श्रेणी में लेजा कर रख देने के लिये पर्याप्त है।
___ जगत सेठ के पूर्वज भोसवाल जाति के गैलड़ा * गौत्रीय सज्जन थे। इस खानदान के पूर्वजों का मूल निवास स्थान नागोर (मारवाड़) का था। पहले इस खानदान की आर्थिक स्थिति बहुत गिरी दुई
और अत्यंत शोचनीय थी। यहाँ तक कि हनके पूर्वज सेठ हीरानन्दजी को आर्थिक कठिनाई के मारे देश छोड़ कर बाहर जाने की जरूरत पड़ी। यह किम्बदन्ति मशहूर है कि वे अपने जीवन में हमेशा एक व यति की सेवा किया करते थे। इन जैन यति की इन पर बड़ी कृपा थी। जब ये देश छोड़ने के लिये तैयार हुए तब मूहुर्त निकलवाने के लिये उन यतीजी के पास गये और उनसे प्रार्थना की कि महाराज कोई ऐसा मुहूर्त निकालिये जिससे मेरे सब मनोरथ सिद्ध हो जाय। तब यती ने देख सुन कर उन योग्य मुहूर्त बतला दिया। उसके अनुसार दूसरे रोज प्रातःकाल वे यात्रा के लिये रवाना हुए मगर थोड़ी ही दूर जाने पर उन्होंने देखा कि एक भयंकर काला नाग उनके सामने से हो कर जा रहा है। इस अपशकुन से बरकर वे वापिस लौट गये और यति के पास आकर सारा समाचार कह सुनाया तब यति ने नाराज होकर कहा कि सेठजी, आपने बड़ी गलती की जो इतने प्रभावशाली शकुन को छोड़ कर वापिस चले आये। मगर उस शकुन से चले जाते तो अवश्य कहीं न कहीं के छत्रपति होते, मगर खैर अब भी तुम इसी वक्त बले जाओ। छत्रपति नहीं तो पत्रपति (भरब पति) तो अवश्य हो जाओगे । काना न होगा कि सेठ हीरामन्दनी उसी समय अपनी भभीष्ट सिद्धि के लिये विदेश को चल पड़े।
•दंत कथाभों से मालूम होता है कि संवत् १५५२ में गैलड़ा गौत्र की उत्पत्ति खीची गहलोत राजपूत शाखा से हुई। ऐसा कहा जाता है कि इस वंश के गिरधरसिंह नामक व्यक्ति को श्री जिनहंससूरिजी ने जैन धर्म का प्रबोध देकर जैनी बनाया। गिरधरसिंह के पुत्र गेलाजी हुए। इनके ही नामसे भागे की संतान गेलड़ा गौत्र के नाम से मशहूर हुई।
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सवाल जाति का इतिहास
वहाँ से चल कर आप बिहार होते हुए बंगाल को आये । आपके छः पुत्र और एक पुत्री हुई। इनमें से आपके चौथे पुत्र सेठ माणिकचन्दजी से हमारे जगत सेठ के खामदान का प्रारम्भ होता है । नागौर से निस्सहाय निकले हुए हीरानन्द का यह पुत्र बंगाल और देहली राजतंत्र में एक तेजस्वी नक्षत्र की भांति प्रकाशमान रहा। बड़े २ नवाब, दीवान, सरदार और अंग्रेज कम्पनी के भागेवान उसकी सलाह और कृपा के लिये हमेशा लालायित रहते थे। ये दो हजार सेना हर समय अपनी रक्षा और सम्मान के लिए निजी खर्च से अपने पास रखते थे । अठारहवीं सदी के बंगाल के इतिहास में जगत सेठ की जोड़ी का कोई भी दूसरा पुरुष दिखलाई नहीं देता । गरीब पिता का यह कुबेर तुल्य पुत्र अप्रत्यक्ष रूप से बङ्गाल, बिहार और उड़ीसा का भाग्यविधाता बना हुआ था ।
नवाब मुर्शिदकुलीखाँ और सेठ माणिकचन्द
उस समय बङ्गाल की राजधानी ढाका के अन्तर्गत थी । जिस समय सेठ माणिकचन्दजी ने अपनी कोठीको ढाके के अन्तर्गत स्थापित किया उस समय भारत के सारे राजनैतिक जगत में भूकम्प की एक प्रचण्ड लहर पैदा हो रही थी । मुगल साम्राज्य के अन्तिम प्रभावशाली बादशाह औरङ्गजेब का प्रताप धीरे धीरे २ क्षीण होता जा रहा था और स्थान २ के सरदार अपनी २ ताकत के अनुसार विद्रोहानि को प्रज्वलित कर रहे थे । उस समय बङ्गाल का नवाब अजीमुश्शान था जिसकी राजधानी ढाका में थी। उसके दीवान की जगह पर औरंगजेब ने मुर्शिदकुलीखाँ को भेजा था । इस मुर्शिदकुलीखाँ और सेठ माणिकचन्द के बीच में भाइयों से भी अधिक प्रेम था। ये दोनों बड़े कर्मवीर और साहसी थे । सेठ माणिकचन्द का दिमाग और मुर्शिदकुलीखाँ के साहस मे मिलकर एक बड़ी शक्ति प्राप्त करली थी ।
afragorea की प्रबल इच्छा थी कि वह बङ्गाल की नवाबी को प्राप्त करे । सेठ माणिकचन्दजी ने उसकी इस इच्छा को सफल करने में बहुत सहायता दी। उन्होंने उससे कहा कि यदि तुम अपनी उन्नति चाहते हो तो ढाके की इस पाप भूमि को छोड़ दो और अपने नाम से मुर्शिदाबाद नामक एक नवीन शहर की स्थापना करो। फिर देखो कि माणिकचन्द की शक्ति क्या खेल करके दिखाती है। यह मुर्शिदाबाद एक रोज बंगाल की राजधानी बनेगा; गंगा के तट पर एक टकसाल स्थापित होगी; अंग्रेज, फ्रेंच और डच लोग तुम्हारे पैरों के पास खड़े होकर कॉर्निस करेंगे और दिल्ली का बादशाह तो रुपये का भूखा है । जहाँ इस समय महसूल के एक करोड़ तीस लाख रुपया भेजा जा रहा है वहाँ हम लोग उसको दो करोड़ भेजेंगे और बतलायँगे कि मुर्शिदकुलीखाँ के ही प्रताप से बङ्गाल की स्मृद्धि दिन पर दिन बढ़ती जा रही है।
इस प्रकार माणिकचन्द सेठ ने नवाब मुर्शिदकुलीखाँ को उत्साहित करके अपने अतुल वैभव
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जगत् सैठ का इतिहास
और गंगा के समान धन के प्रवाह की ताकत से देखते ही देखते भागीरथी के किनारे मुर्शिदाबाद नामक विशाल नगर की स्थापना की। कुछ ही समय में उनकी योजना सफल हो गई और बङ्गाल की राजधानी ढाके से उठ कर मुर्शिदाबाद को आगई। अजीमुश्शान केवल नाम मात्र का नबाब रह गया। मुर्शिदकुलीखाँ और माणिकचन्द को बहाल, बिहार और उड़ीसा की प्रजाने विना अभिषेक के अपने सर्वोपरि सत्ताधिकारी स्वीकृत किये। इनकी सत्ता में किसानों पर होने वाले जागीरदारों के अत्याचार बहुत कम हुए। पैसे की वजह से गरीब प्रजा पर जो अत्याचार होते थे माणिकचन्द सेठ ने स्वयं उनको दूर किये। बङ्गाल की प्रजा में एक बार फिर सुख और शान्ति की लहर दौड़ गई। आगरा और दिल्ली में जिस समय पुर जोश से राज्य क्रान्ति मचरही थी उस समय मुर्शिदकुलोखाँ और जगत सेठ की क्षमता और प्रताप से बङ्गाल उस क्रांति की चिनगारियों से बचा हुआ था। अंग्रेज व्यापारी उस समय अपनी कुटिल-नीति का उपयोग कर कर्नाटक, मद्रास और सूरत में अपनी कोठियाँ स्थापित कर भूमि पर कब्जा कर रहे थे। मगर मुर्शिदकुलीखाँ के तेज और बाहुबल की बजह से वे भी अपने कदम बंगाल में न रोप सके।
मगर यह शान्तिपूर्ण अवस्था अधिक समय तक जीवित न रह सकी। भारतवर्ष के राजनैतिक बातावरण में एक बड़ा प्रबल झोका आया और दिल्ली का तख्त अकस्मात् फरुखसियर के हाथ में चला गया। गद्दी के सच्चे वारिस जहाँदरशाह का खून हो गया। बादशाह फरुखसियर का मुगल सल्तनत के इतिहास में क्या स्थान है यह इतिहास के पाठकों से छिपा नहीं है। इस बादशाह ने मुगल साम्राज्य के वैभव की गिरती हुई इमारत को और एक जोर की लात मारी और उसको रसातल की ओर लेजाने में बड़ी मदद दी।
बादशाह फर्रुखसियर एक राजपूत कन्या से विवाह करना चाहता था मगर दैवयोग से उसी समय वह बीमार हो गया। किसी भी वैध और हकीम के इलाज ने उसकी इस बीमारी पर कोई असर न किया। इसी समय दैवयोग से अंग्रेज़ कम्पनी का डाक्टर हेमिल्टन बादशाह से मिला और उसने उसको तन्दुरुस्त कर दिया। उसने अपने इस परिश्रम के बदले में बंगाल के अन्तर्गत नदी के किनारे कुछ गाँव इनाम में माँगे। मूर्ख फर्रुखसियर इतना बेभान हो रहा था कि वह कोरे कागज के ऊपर सही करने को तयार हो गया और गंगा किनारे के करीब चालीस परगने अंग्रेजों को सुपुर्द करने का फर्मान नवाब मुर्शिदकुलीखाँ को लिख दिया। अब यह फर्मान मुर्शिदकुलीखां के और जगतसेठ के सन्मुख पहुंचा तो उन्हें अंग्रेज ब्यापारियों की चालाकी, बादशाह की मूर्खता और बंगाल के अंधकारमय भविष्य के दर्शन एक साथ होने लगे। उसने बादशाह के उस फर्मान को साहसपूर्वक वापिस कर दिया और बादशाह को
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ओसवाल जाति का इतिहास
लिख दिया कि बंगाल का दीवान बंगाल की भूमि का एक कण-मात्र भी विदेशी व्यापारियों को सौंपने में असहमत है। उसने बंगाल के जमीदारों को भी सूचना कर दी कि बादशाह का फर्मान आने पर भी अंग्रेज ब्यापारियों को कोई जमीन का एक इंच टुकड़ा भी न दे।
यहां यह बात स्मरण रखना चाहिये कि इस फर्मान से यद्यपि जगतसेठ का अन्तःकरण से विरोध था मगर उस क्षण २ में डगमगाती हुई राजनैतिक परिस्थिति में वे अंग्रेजों से खुली शत्रुता मोल लेने के पक्षपाती न थे। इसलिये जब अंग्रेज ब्यापारी उनके पास गये और उनसे शाहंशाह के फर्मान को मान्य रखने का आग्रह किया तो उन्होंने मिठास के साथ उनके आँसू पोंछ दिये और इस विषय में बनती कोशिश प्रयत्न करने का आश्वासन दिया।
यह बात जब बादशाह फर्रुखसियर के पास पहुंची तब वह क्रोध से उन्मत्त हो गया और उसने तत्काल दूसरा फर्मान छोड़ा जिसमें मुर्शिदकुलीखों को दीवान पद से अलग करके उसके स्थान पर सेठ माणिकचंदनी को दीवान बनाने की स्पष्ट घोषणा थी और उसके साथ ही सेठ माणिकचंद और उनके वंशजों को जगतसेठ की पदवी से विभूषित करने की इच्छा भी प्रदर्शित की गई थी।
माणिकचंद सेठ को जब यह फर्मान प्राप्त हुआ तो उनके आश्चर्य का पार न रहा। जिस समय में हिन्दुओं के जीवन, धन, माल और इजत नष्ट करने में ही मुसलमान अमलदार इसलाम के आदेश का सच्चा पालन समझते थे उस विकट समय में दिल्ली का शाहंशाह एक जैन धर्मावलम्बी को बंगाल का दीवान अथवा सूबा बना रहे थे यह एक अद्भुत घटना थी। जब यह फर्मान मुर्शिदकुलीखां के पास पहुँचा तो उसे इस सारे षड्यन्त्र में माणिकचंद सेठ का हाथ कार्य करता हुआ दिखाई दिया। वह सोचने लगा कि जो माणिकचंद मुर्शिदाबाद को बसाने में उसका सबसे मुख्य प्रेरक था, बंगाल की जमाबंदी को व्यवस्थित करने में तथा प्रजा की शांति के लिये मुर्शिदकुलीखां के साथ बैठकर सब व्यवस्था में अग्रगण्य रहता था वही माणिकचंद आज पाप के प्रलोभन में पड़ गया। मगर जब सेठ माणिकचंद मुर्शिदकुलीखां से मिले और उन्होंने उनको सलाम किया तब मुर्शिदकुलीखां ने ताना मारते हुए कहा कि आज तो आप मुझे सलाम कर रहे हो पर कल ही मेरे जैसे सैकड़ों अधिकारी आपके चरणों में सिर नवायँगे । कल ही
आप बंगाल के शासक बनोगे ऐसा बादशाह फर्रुखसियर का फर्मान है। माणकचंद ने अत्यन्त शांति के साथ कहा, "कल न था, आज नहीं हूँ और आने वाले कल में मैं फर्रुखसियर के फर्मान से बंगाल का शासक बनूंगा ऐसा कौन कहता है। मुर्शिदकुलीखां और माणकचंद के बीच में भेद कहाँ है । जब-जब मैंने मुर्शिदकुलीखां को सलाम किया है तब-तब मुझे यही मालूम हुभा है कि मैं अपने भाप को सलाम कर रहा हूँ फिर मेरे लिए बंगाल की सूबेगिरी में आकर्षण ही क्या है। इस सारी मुगल सल्तनत में ऐसी चीज ही क्या है जो
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जगत् सेठ का इतिहास
सोना, मोहर और रुपये से न खरीदी जा सके। गंगा के किनारे पर जहां तक मेरा महिमापुर बसा हुआ है. और महिमापुर के अन्दर मेरी टकसाल चालू है वहां तक मेरे वैभव, मेरी सत्ता और व्यापार के सन्मुख कौन उँगली ऊँची उठा सकता है। फरुखसियर स्वयं एक दिन याचक की तरह रुपये की भीख मांगता हुआ इसी सेठ के आँगन में उपस्थित हुआ था। आज वह बादशाह बना हुआ है पर मेरा विश्वास है कि हमारे धन से ही यह राजमुकुट खरीदा गया है तथा जिस दिन हम लोग रुपया देना बन्द कर देंगे उसी दिन वह मुकुट उनके सिर से गिर पड़ेगा। राजकाज में नीति और अनीति के विचार भले ही न हों पर हमारा व्यापार और व्यवहार तो इसी पर अवलम्बित है ।" सेठ माणिकचंद ने फिर कहा "सारे काण्ड का मुख्य उद्देश्य यही है कि अंग्रेजों की लड़ाकू कौम से जहाँ तक बने वहां तक दुश्मनी बाँधना ठीक नहीं और इसीलिये मैंने इन सब बातों का खुल्लमखुल्ला विरोध नहीं किया। मैं बादशाह को लिख देता हूँ कि मैं आपके हुक्म को सिर चढ़ाता हूँ और मुझे मिली हुई बंगाल की सूबेगिरी को पुनः मुर्शिदकुलीखांके सिपुर्द करता हूँ। क्योंकि मैं उनको अपने से अधिक योग्य मानता हूँ। मुझे विश्वास है कि बादशाह मेरे इस कथन को सहर्ष स्वीकार करेंगे।"
मुर्शिदकुलीखां ने पूछा कि अंग्रेज व्यापारियों को जो परगने सौंपने का फरमान बादशाह की भोर से भेजा गया है उसका क्या होगा? जगतसेठ ने कहा कि इस विषय में जरा बुद्धिमानी से काम लेना होगा। अंग्रेज लोग व्यापारी हैं; कूटनीतिज्ञ हैं; लड़ाकू हैं वे जब चाहे तब बादशाह की आँखों पर पट्टी बांध सकते हैं। साथ ही समय पड़ने पर अपने मित्रों को सहायता भी कर सकते हैं। इसलिए उनके साथ किसी भी प्रकार का उछृङ्खल व्यवहार करने का परिणाम अच्छा न होगा। इन परगनों की मालिकी तो नहीं दी जा सकती मगर यह व्यवस्था करना होगी कि इस भाग में अंग्रेज व्यापारी बिना कस्टम टैक्स के व्यापार कर सकें।
उपर के सारे अवतरण से इस बात का पता चल जाता है कि बंगाल के तत्कालीन राजनैतिक वातावरण में जगतसेठ का कितना जबरदस्त प्रभाव था। समस्त बंगाल, बिहार और उड़ीसे का महसूल . सेठ माणिकचंद के यहां इकट्ठा होता था और इन तीनों प्रदेशों में जगतसेठ की टकसाल के बने हुए रुपये ही उपयोग में आते थे। तत्कालीन मुसलमान लेखकों ने लिखा है कि जगतसेठ के यहां इतना सोना-चांदी था कि अगर वह चाहता तो गंगाजी का प्रवाह रोकने के लिये सोने और चांदी का पुल बना सकता था । बंगाल के अन्दराजमा हुई महसूल की रकम दिल्ली के खजाने में भरने के लिये जगतसेठ के हाथ की एक हुण्डी पर्याप्त थी। "मुतखरींन" नामक ग्रन्थ का लेखक लिखता है कि उस जमाने में सारे हिन्दुस्थान में जगत सेठ की बराबरी का कोई दूसरा व्यापारी या सेठ न था। कितनी ही दफे जगतसेठ के भण्डार लूटे
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
गये, एक बार तो मरहठों ने उसकी कोठी को निर्दयतापूर्वक खूस की फिर भी उसकी स्मृद्धि अचल और अखण्ड बनी रही।
सेठ माणकचंद के दो स्त्रियाँ थीं। पहली माणिकदेवी और दूसरी सोहागदेवी । मगर दोनों से ही उनको कोई सन्तान न हुई । माणिकदेवी उम्र में बड़ी थी । वह परमभद्र, धार्मिक और श्रद्धा-सम्पच महिला थी । इन्होंने सेठ माणकचंद के सम्मुख एक भव्य और अत्यन्त सुन्दर जैन मंदिर बनवाने की इच्छा प्रगट की । सेठ माणकचंद को पैसे की कमी तो थी ही नहीं, उसी समय बंगाल के 'कुशल से कुशल शिल्पियों को निमन्त्रित करके मंदिर की योजना तैयार की गई। भागीरथी के तीर पर बहुमूल्य कसौटी पत्थर का सारा मंदिर बनवाया गया। ऐसा कहा जाता है कि इस कसौटी पत्थर के संग्रह करने में उनको इतना मूल्य खर्च करना पड़ा कि जितने में शायद सोने और चांदी का मन्दिर तयार हो सकता था ।
गंगा के विशाल प्रवाह में वह मन्दिर यद्यपि बहगया है फिर भी उसका भग्नावशेष जो फिर से जोड़ जड़ कर ठीक कर लिया गया है आज भी जगत सेठ की अमर कीर्ति को घोषित कर रहा है। बादशाह फर्रुखसियर के पश्चात दिल्ली के रङ्गमंच पर बादशाह महम्मदशाह अवतीर्ण 'हुआ । उसने माणिकचन्द सेठ को जगत सेठ के नाम से दूसरी बार सम्बोधित कर सम्मानित किया । इतिहास लेखक इस बात को मानते हैं कि मुगल दरबार ने सबसे पहले जगत सेठ को ही इस तरह की बादशाही पदवी से सम्मानित किया। इसके अतिरिक्त उनको नवाब की गादी पर बाईं ओर बैठने का हक भी मिला । उस जमाने के रिवाज के अनुसार मोती के कुण्डल, हाथी, और पालकी भी सल्तनत की ओर से उन्हें बक्षी गई । बङ्गाल के नवाबों को सम्राट की ओर से इस बात की खास सूचना रहती थी कि जगतसेठ की अनुमति के बिना राज्यशासन का कोई भी महत्वपूर्ण काम न होना चाहिए। इस प्रकार गौरव मय जीवन बिताते हुऐ सेठ माणिकचन्द का स्वर्गवास हुआ और उनके स्थान पर उनके भाणेज सेठ फतेचन्द उनकी गाड़ी पर भाये ।
इधर बंगाल की नवाबी के अधिकार पर मुर्शिदकुलीखाँ के पश्चात् उनके जमाई शुजाउद्दीन और शुजाउद्दीन के पश्चात् उनका पुत्र सरफखाँ बैठे ।
सरफखां और जगतसेठ फतेचन्द
मुर्शिदकुलीखाँ ने जिस शान्ति और सुब्यवस्था की जड़ बङ्गाल में जमाई तथा उसके दामाद शुजाउद्दीन ने अपनी योग्यता और साहस के बल पर जिसे नष्ट होने से बच्चा लिया। सरफखों ने बङ्गाल के रङ्ग मंच पर आते ही अपनी बेवकूफी, उतावलेपन और विषयान्धता की प्रवृतियों से उस सुव्यवस्था की जड़ पर कुल्हाड़ा चलाना प्रारम्भ किया । दिल्ली की डूबती हुई बादशाहत ने भी बंगाल की शांति और सुम्पवस्था
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जगत् सेठ का इतिहास
को नष्ट करने में बहुत बड़ी सहायता दी। इतिहास लेखक सरफखां की रकृखल प्रवृत्तियों का वर्णन करते हुए बतलाते हैं कि जगत सेठ के साथ वैर बांधकर सरफरखां ने बंगाल के सुख और शांति को नए करने में कितनी मदद को । यही वह समय था जब सुप्रसिर कातिक नादिरशाह की लूटमार से भारतवर्ष के अन्दर त्राहि २ मची हुई थी। इस बात की बड़ी जबरदस्त सम्भावना की जाती थी कि बंगाल का सरसब्ज मुल्क उसके कातिल हाथों से नहीं बचाया जा सकता। नवाब सरफलां उसका मुकाबिला करने में असमर्थ था। बंगाल के दूसरे ज़मीदार और शासक छोटे . अनेक टुकड़ों में विभक हो रहे थे और उनकी शक्तियां इतनी तहस नहस हो रही थी कि वे किसी भी प्रकार उस काली घड़ी से देश को बचाने में असमर्थ थे। सारे प्रान्त में आतंक आया हुआ था और शाम को आनंदपूर्वक सोने वाले लोग सोते समय ईश्वर से इस बात की प्रार्थना करते थे कि किसी तरह उनका सवेरा सुखपूर्वक उदय हो । ऐसे आतंक के समय में सारे प्रान्त की निगाह जगत सेठ की ओर लगी हुई थी। जगत सेठ का सुप्रसिद्ध मकान, जो आज गंगा के गर्भ में विलीन होगया है, उस समय प्रांत के तमाम जमीदारों और जिम्मेदार आदमियों का मंत्रणागृह बना हुआ था। बईमाम के महाराज तिलोकचन्द, ढाका के नवाब राजवल्लभ, राय भालमचन्द तथा हाजी महमद भी इस मंत्रणा में शामिल रहते थे। ऐसा कहा जाता है कि इस भयंकर समस्या का निपटारा भी जगससे कुशल मस्तिष्क ने आसानी के साथ कर दिया। कहा जाता है कि जगतसेठ की टकसाल में एक लाल सोने के सिक्के नादिरशाह के नाम के ढलवा कर उसको भेंट में भेजे गये जिससे वह बड़ा प्रसन हुभा और उसने बंगाल लूटने का विचार बन्द कर दिया। इस प्रकार जगत सेठ की राजनीति कुशलता से इस महान् विपत्ति का अंत हुआ।
हम ऊपर कह आये हैं कि सरफराज की विषयांधता ने उस प्रांत में एक बड़ा भसंतोष मचा रक्खा था। दैवयोग से उसकी इस प्रवृत्ति के कारण एक ऐसी घटना घटी कि जिसने जगत सेठ की रवि में उसको बुरी तरह से गिरा दिया और संभवतः इसी कारण उसे नवाबी से भी हाथ धोना पड़ा । बात यह हुई कि जगतसेठ के महिमापुर के एक मुहल्ले में एक बड़ी सुन्दर कन्या रहती थी जिसका सम्बन्ध शायद जगतसेठ के पुत्र से होने वाला था। सरफखां की विषय लोलुप डहि उस पर पड़ी और विषयो. न्मत्त होकर उसने उसके सतीत्व को नष्ट करना चाहा। जगतसेठ को यह बात मालूम पड़ी और उन्होंने ठीक मौके पर पहुँच कर उस दुष्ट से उस निर्बोध बालिका की रक्षा की और उसी समय उन्होंने उसको पद भ्रष्ट करने का निश्चय कर लिया। उन्होंने बंगाल के लोकमत को जो कि सरफखां के प्रति पहले ही विद्रोही हो रहा था प्रज्ज्वलित कर दिया जिसके परिणाम स्वरूप बहुत ही शीघ्र सरफखां का पतन हुमा भौर उसके स्थान पर नवाव अलीवर्दीखा नबाव की पदवी पर अधिषित हुभा ।
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भालेवाल जाति का इतिहास
here afraitri और जगतसेठ
जगतसेठ का हाथ पकड़ कर अलीवर्दीखां बंगाल की मसनद पर आया । इतिहास बतलाता है कि उसके (अलीवर्दीर्खा) धार्मिक जीवन के प्रभाव से सुर्शिदाबाद का राजमहल पवित्र तपोवन के सहश्य हो गया था और बंगाल के वातावरण में शांति और पवित्रता की एक हलकीसी लहर फिर से दौड़ गई थी । मगर बंगाल का प्रचण्ड दुर्भाग्य, जो कि सर्वनाश का विकट अट्टहास कर रहा था, अलीवर्दीखों के रोके म रुका। अलीवर्दीयां को अपने शासनकाल में राज्य व्यवस्था पर शांतिपूर्वक विचार करने के लिये एक क्षण का समय भी न मिला। उसके राज्यकाळ का एक २ क्षण बाहरी आतताइयों से बंगाल की रक्षा करने में ही खर्च हुआ। बंगाल की गद्दी पर उसके पैर रखते ही मरहठों की फौज ने बंगाल को लूटने के इरादे से आक्रमण करना शुरू किये। एक तरफ से बालाजी और दूसरी तरफ से राघोजी बंगाल को तबाह करने के इरादे से आकर उपस्थित हो गये । बंगाल के इतिहास में " बरगी का तूफान" एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटना समझी जाती है। बादशाह औरंगजेब पहाड़ी चूहा कह कर जिन मरहठों का अपमान करता था समय पाकर उन्हीं मरहठों ने दिल्ली की बादशाहत को जड़ से हिला दिया । इन्हीं मरहठों मे बंगाल, बिहार और उड़ीसा को भी अपना शिकार बना लिया ।
जब नवाब अलीवर्दीखां को इस आक्रमण की बात मालूम हुई तो उसने जगत्-सेठ को गोदा गाड़ी नामक सुरक्षित स्थान पर चले जाने की सलाह दी और मुर्शिदाबाद की रक्षा का भार अपने पर लिया । उसने मीर हबीब नामक एक विश्वसनीय सेनाध्यक्ष को जगतसेठ की कोठी और मुर्शिदाबाद की रक्षा का भार सौंप कर स्वयं मराठों की फौज पर आक्रमण कर दिया । मगर ठीक अवसर आने पर मीरहबीब बदल गया और उसने मरहठों को जगत् सेठ की कोठी लूटने का अवसर दे दिया । इसी समय जगत् सेठ की कोठी की इतिहास प्रसिद्ध लूट हुई, जिसमें मरहठों ने सारी कोठी को तहस नहस कर दिया और करीब दो करोड़ की सामग्री को लूट लेगये । अलीवर्दीखां के हृदय पर इस घटना का बहुत ही बुरा असर पड़ा और उसने मन ही मन मराठों से इस घटना का बदला लेने का संकल्प किया ।
इस घटना को एक वर्ष भी न बीता होगा कि इतने ही में बालाजी और भास्कर पंडित इन दो मरहठे सरदारों ने फिर से बंगाल पर चढ़ाई करदी। इनमें से बालाजी को तो दस लाख रुपया देकर किसी प्रकार वहाँ से बिदा किया गया और भास्कर पण्डित को समझाने का भार जगतसेठ पर आ पड़ा । मानकरा के मैदान में जहाँ भास्कर पण्डित की सेना पड़ी हुई थी, जगत् सेठ उससे समझौता करने को, गये । वहाँ उन्होंने समझौते की बात चीत की। इस बात चीत का निर्णय दूसरे दिन नबाब अली,
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जगत् सेठ का इतिहास
वदीखां के सम्मुख होना निश्चित हुना। दूसरे दिन जगत्सेठ नवाब अलीपींखां को लेकर भास्कर पण्डित के पास गये, बात चीत का सिलसिला आरम्भ हुआ, ऐसा कहा जाता है कि उसी समय भवसर पाकर नवाब अलीबर्दी ने अचानक मियान में से तलवार निकाल कर बिजली-वेग से भास्कर पण्डित का सिर उतार लिया। यह कार्य इतनी शीघ्रता से हुभा कि बाहर के लोगों की कौन कहे, मगर पास बैठे हुए जगत् सेठ तक को एक क्षण पश्चात् सब घटना समझ में आई, वे किंकर्तव्यमूद हो गये, वे अकस्मात् बोले "भळीवर्दीखा यह भयङ्कर विश्वासघात" ? अलीवर्दीखां ने मीची गर्दन करके उत्तर दिया "मुर्शिदाबाद की लूट का बदला" । जगत् सेठ ने अत्यन्त दुःखित होकर कहा "बंगाल के सर्वनाश का प्रारम्भ !" दोनों म्यक्ति अत्यन्त दुःखी होकर चुपचाप घर चले आये।
इस घटना के पश्चात् जगतसेठ का दिल राजनैतिक चालों और दाव पेंचों से बहुत अधिक फट गया। उन्होंने इस सम्बन्ध में मौन रहना ही उचित समझा। कुछ ही समय पश्चात् उनका और नवाब भलीवर्दीखों का स्वर्गवास हो गया और इनके पश्चात् ही बङ्गाल की पतन लीला जोर शोर से प्रारम्भ हो गई। नवाब सिराजुद्दौला और जगत् सेठ महताबचन्द
भलीवर्दीखां के पश्चात् उसका दौहित्र सिराजुद्दौला बहाल की मयाबी मसनद पर भाया और इधर जगत् सेठ फ़तेहचन्द के पश्चात् उनके पौत्र महताबचन्द जगत् सेठ की गद्दी पर आये। उस समय दिल्ली की डूबती हुई शाहनशाहत की कब्र पर अहमदशाह और आदिलशाह जुगनूं की तरह चमक रहे थे। इस अहमदशाह ने भी महताबचन्द को जगत् सेठ की पदवी से और उनके भाई सरूपचन्द को "महाराजा" की पदवी से सम्मानित किया। इसके अतिरिक बङ्गाल के सुप्रसिद्ध जैनतीर्थ “पारसनाथ टेकरी" का सम्पूर्ण स्वामित्व भी शाही फरमान के द्वारा इन दोनों भाइयों को दिया। जगत् सेठ महताबचन्द ने उत्तरी भारत ही की तरह दक्षिणी भारत में भी बहुत बड़ी व्यापारिक प्रतिष्ठा प्राप्त की।
मबाब सिराजुद्दौला के सम्बन्ध में इतिहासकारों के अन्तर्गत बहुत गहरा मतभेद पाया जाता है। कुछ इतिहासकार उसे अत्यन्त कुशल और राजनीतिज्ञ व्यक्ति होने का सम्मान प्रदान करते हैं। कोई कहते हैं कि सिराजुद्दौला अंग्रेज़ों का विरोधी था इससे अगरेजों ने उसे एक भयङ्कर मनुष्य की तरह चित्रित किया है। कुछ लोगों का यह विश्वास है कि जगत सेठ और इसके जमीदारों के स्वार्थ सिराजुद्दौला के द्वारा सिद्ध न होने से इन लोगों ने उसे बदनाम करने की कोशिश की। इसके विपरीत कई इतिहासकारों ने उसे अत्यन्त क्रूर, मराधम, विषयान्ध और पाशविकवृत्ति वाला भी चित्रित किया है। कुछ भी हो, मगर इस बात के लिए बहुत से इतिहासकार प्रायः एकमत हैं कि यह
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
उतावले स्वभाव का, स्वच्छन्दी और विलास प्रिय पुरुष था। एक ओर उसकी मौसियों के पुत्र, उसके अधिकारी और अलीवर्दीखां के दूसरे रिश्तेदार उसे हटाकर किसी दूसरे को नवाब बनाने की चिन्ता में ये दूसरी ओर जगत् सेठ, जमीदार और व्यापारियों के दिल भिन्न भिन्न कारणों की वजह से वेचैन हो रहे थे। इसी बीच में सिराजुद्दौला ने एक दिन, दिनदहाड़े मुर्शिदाबाद के बाजार में हुसैनकुलीखां नामक एक सरदार का खून करवा डाला। जानकीराम नामक अपने एक प्रतिनिधि का खुले आम अपमान किया, मोहनलाल नामक एक गृहस्थ की बहन को-जो कि उस समय सारे बंगाल में सबसे अधिक सुन्दरी मानी जाती थी-अपने अन्तःपुर में दाखिल कर लिया और मोहनलाल को रुपयों के जोर से ठण्डा कर दिया। इतिहास प्रसिद्ध रानी भवानी की विधवा पुत्री तारा को शय्यासहचरी बनाने के लिए भयङ्कर जाल रचा, जिसके परिणाम स्वरूप उस निर्दोष बालिका को जीते जी चिता में भस्म होजाना पड़ा। इन सब घटनाओं से सारे बंगाल की प्रजा में वह बहुत अप्रिय हो गया था, और इधर अंग्रेज-कम्पनी के साथ भी उसकी शत्रुता दिन-प्रतिदिन बढ़ती जारही थी।
इसी समय में बंगाल के राजनैतिक वातावरण में दो प्रभावशाली पुरुष और दृष्टिगोचर होते हैं। एक उमाचरण जो इतिहास के पृष्ठों पर अमीचन्द के नाम से प्रसिद्ध है। जो वास्तव में पंजाब का रहने बाल था और व्यापार के लिए कलकते में आकर बस गया था। कितने ही व्यक्ति इसी अमीचन्द को जगत् सेठ मानकर, जगत सेठ फतेचन्द और महताबचन्द के निर्मल जीवन पर देश के प्रति विश्वासघात करने की कला कालिमा लगाने का प्रयत्न करते हैं, और कितने ही अमीचन्द के मित्र "माणिकचन्द" को जगत् सेठ मानकर जैन जाति के सेठ माणिकचन्द के सम्बन्ध में निराधार अपवाद फैलाते हैं । यह माणिकचन्द जगत् सेठ माणिकचन्द नहीं प्रत्युत अलीनगर का एक फौजदार था जो पीछे से अंग्रेजों के पक्ष में जा मिला था। यह माणिकचन्द प्राचीन ग्रन्थों में "महाराज" माणिकचन्द के नाम से प्रसिद्ध था।
उमाचरण अथवा अमीचन्द के सम्बन्ध में जो प्रमाणभूत बातें मिलती हैं उनसे पता चलता है कि यह कोई मामूली पा राह चलता व्यापारी न था। फ्रेंच मुसाफिर ओम लिखता है कि "उसका विशाल मकान एक राजमहल की तरह था जिसमें सैंकड़ों कमरे थे, उसके पुष्पोद्यान में कई प्रकार के फूलों के वृक्ष खिले हुए थे, उसके मकान के मास-पास दिन-रात हथियारबन्द प्रहरी पहरा देते रहते थे, प्रारम्भ में अंग्रेजों ने भी उसे एक महाराज की ही तरह माना था, मगर बाद में यह अंग्रेजों के आश्रित हो गया।"
___ यह अमीचन्द जगत् सेठ महताबचन्द से भी इस उद्देश्य से मिला था कि वह सिराजुद्दौला को भंग्रेजों के पक्ष में करदे । कहा जाता है इसी बात की खबर सिराजुदौला को मिल जाने से, उसने जगत् सेठ को अंग्रेजों का पक्षपाती समक्ष एक बार कैद कर दिया। मगर मीरजाफर के ज़बर्दस्त विरोध करने
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जगत् सेठ का इतिहास पर उसने उनको फिर छोड़ दिया। इन सब घटनाओं का परिणाम धीरे-धीरे बढ़ते-बढ़ते पलासी के युद्ध में परिणित हुआ, जिसमें मीरजाफर के घोर विश्वासघात से सिराजुद्दौला की भयङ्कर पराजय हुई और उसके जीवन का नाटक अत्यन्त दुःखान्त रूप से समास हुमा। मीरजाफर और जगत् सेठ
पलासी के इतिहास प्रसिद्ध युद्ध के पश्चात् नये नबाब का चुनाव करने के निमित्त जगत् सेठ के मकान पर लगातार तीन दिन तक मंत्रणा चलती रही। लोगों का खयाल था कि जगत् सेठ अवश्य मीरजाफर को नबाब चुनने के लिए अपना मत देंगे क्योंकि उसने उन्हें सिराजुद्दौला की कैद से छुड़ाया था। मगर लोगों का खयाल ग़लत निकला । जगत् सेठ ने स्पष्ट कह दिया कि जिस राजनीति के साथ असंख्य लोगों के हिताहित का सम्बन्ध है उसमें व्यक्तिगत सम्बन्ध को महत्व नहीं दिया जा सकता। वे अपनी सटस्थवृत्ति से रत्ती भर भी टस से मस न हुए। इस अवसर पर राजशाही की महारानी भवानी की तरफ से-जोकि सारे प्रान्त में भद्ध बङ्गेश्वरी की तरह पूजनीय मानी जाती थी-जो सन्देश भाया था वह भाज भी इतिहास के पृष्ठों पर कुन्दन की तरह चमक रहा है
. *बङ्गाल का भाग्य विदेशी व्यापारियों के हाथ में देने की जो सलाह दे, उसे इस पत्र के साथ भेजी हुई सिन्दूर, चुंदड़ी और बंगड़ी (चूड़ी) मेरी तरफ से भेंट में देना।"
____ अस्तु, मंत्रणा के ये तीन दिन तीन वर्षों के समान बीते और अन्त में कई अन्तरङ्ग प्रभावों में कारण मीरजाफर ही वङ्गाल का नवाब चुना गया।
__ मीरजाफर के बङ्गाल की मसनदपर आते ही बङ्गाल का भरा पूरा खजाना खाली होना प्रारम्भ हुआ। ऐसा कहा जाता है करोब छ करोड़ रुपये का चूरा हो गया। जिसमें से अधिकांश विदेशी ब्यापारियों की जेब में चला गया। अभागे अमीचन्द को सम्भवतः कुछ भी न मिला और वह भन्स समय में पागल होकर मरा।
- इसके कुछ समय पश्चात् ही मीरजाफर ने अंग्रेज व्यापारियों को टकसाल खोलने का भी हुक्म देविया जिसका भाव इस प्रकार था।
- "कलकत्ते में एक टकसाल खोलने की और उसमें सोने चांदी के सिक्के ढालने की परवानगी आज से अंग्रेज कम्पनी को दी जाती है। अंग्रेज कम्पनी मुर्शिदाबाद की टकसाल के बराबर वजन के सिक्के कलकत्ते की छाप से ढाल सकेगी। बंगाल, बिहार और उड़ीसे में उनका चलन होगा, खजाने में भी उनका भरना हो सकेगा। इन सिकों के लिए जो कोई बट्टा व कसर लेगा वह सजा का पात्र होगा"। . . ' करना न होगा कि इस मार्डर का सारा भीषण असर जगत सेठ की कोठी पर पड़ा । उसी दिन
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मौसवाल जाति का इतिहास
से जगत सेठ का वैभव सूर्य अस्ताचलगामी होने लग गया। इन्हीं दिनों एक बार हाल्वेल नामक एक मुख्य अंग्रेज कर्मचारी ने जगतसेठ से कुछ रकम मांगी। जिसको देने से जगतसेठ ने इन्कार कर दिया, इस पर भयंकर रूप से क्रुन्छ होकर उसने जगलसेठ के सर्वनाश की प्रतिज्ञा की। उसने तारीख ८ मई सन् १७६० को वारन हेस्टिंग्ज को एक पत्र लिखा जिसमें जगतसेठ के लिये निम्नाक्ति शब्द थे:
A time may come when they stand in need of the com. pany's protection, in which case they may be assured, they shall be
left to satan to be buffeted.
अर्थात्-ऐसा भी समय आवेगा जब जगतसेठ को कम्पनी का आभय लेना पड़ेगा। इस समय उसे शैतान के हाथ में पड़कर भारी पीया भोगना पड़ेगी।
चारों ओर ऐसी भयंकर परिस्थितियों को देखकर जगतसेठ का मन बहुत उचट गया और चित्त को शान्त करने के लिए अपनी दो हजार सेना सहित, वे सम्मेदशिखर की यात्रा को निकल गये। मीरकासिम और जगतसेठ ... मीरजाफ़र का प्रताप भी बहुत कम समय तक टिका, उसकी बेवकूफी ने उसे बहुत ही शीघ्र शासन के अयोग्य सिद्ध कर दिया और शीघ्र ही उसके स्थान पर उसका दामाद मीरकासिम बङ्गाल की मसनद पर आया। मीरकासिम बड़ा साहसी, बुद्धिमान और राजनीतिज्ञ व्यक्ति था। मगर उसकी किस्मत और उसकी परिस्थिति उसके बिलकुल खिलाफ थी। उसकी प्रकृति इतनी शकाल थी कि अपने अत्यन्त विश्वासपात्र व्यक्ति को भी वह हमेशा सन्देह की दृष्टि से देखता था। उसने जगत्सेठ महताबचंद और महाराजा सरूपचंद को भी इसी शहाय प्रकृति की वजह से मुंगेर में बुलाकर नजरबन्द कर दिया, और जब वह "उधूपानाला" के इतिहास प्रसिद्ध युद्ध में बुरी तरह से हार गया तब केवल इसी प्रतिहिंसा के मारे कि कहीं जगत्सेठ अंग्रेजों से मिलकर अपना काम न जमा लें उसने जगतसेठ और महाराजा सरूप. चंद को गंगा के गर्भ में डूब जाने का आदेश किया। उसी दिन ये दोनों प्रतापी पुरुष राजकारणों की बलिवेदी पर गंगा के गर्भ में समा गये और इस प्रकार इस खानदान के एक अत्यन्त प्रतापी पुरुष का ऐसा दुःखान्त हुआ। जगतसेठ खुशालचंद
जिस दुःखान्त नाटक का प्रारम्भ जगवसेठ महताबचंद के समय में हुमा और जिसकी करुणापूर्ण मृत्यु के साथ इसका अन्त हुआ उसका उपसंहार जगतसेठ खुशालचंद के समय में पूरी तौर से हुआ । महताबचंद के साथ ही जगतसेठ के खानदान की आत्मा प्रयाण कर गई। केवल उसका तेजोहीन अस्थि
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० जगत सेठ गुलाबचंदजी गेलड़ा, महिमा गंज' (मुर्शिदाबाद)
जगत सेठ फतेचंदजी गेलड़ा, महिमागंज (मुर्शिदाबाद)
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अगत् सेठ का इतिहास
पंजर शेष बचा रहा। उनके पुत्र जगतसेठ खुशालचंद को भी बादशाह शाहमालम मे जगतसेठ की पदवी प्रदान की थी तथा कार्डलाइव ने भी उनको कम्पनी का बैंकर बनाया था। मगर एक तो खुशालचंद की उन कम होने से और दूसरे द्रव्य की कमी भाजाने से वे जैसी चाहिये वैसी व्यवस्था नहीं कर सकते थे । इन सब कठिनाइयों को दूर करने के लिये उन्होंने कार्यलाइव को एक निवेदन पत्र लिखा था जिसका उत्तर काइव मे जिस कठोरता के साथ दिया उसका भाव नीचे दिया जाता है।
__ "तुम्हारे पिता के साथ मैं कितनी मेहरवानी रखता था और उनको कितनी सहायता पहुंचाता था यह तुम भली प्रकार जानते हो। तुम्हारे और तुम्हारे परिवार के साथ मैं वैसा ही आंतरिक सम्बन्ध रखता हूँ, पर खेद की बात है कि तुम अपनी प्रतिष्ठा और जबाबदारी का कुछ भी खयाल नहीं रखते । हमारे बीच में यह समझौता हो चुका है कि तिजोरी की तीन चाबिए मिन २ स्थानों पर रहेंगी। पर उसके बदले तुम सब पैसे अपने पास ही रख लेते हो। इजारे भी तुम बहुत कम दरों में दे देते हो; राज्य का कर्जा पहले वसूल करने के बदले तुम अपने व्यकिगत कर्जे को जमीदारों से पहले वसूल करते हो। तुम्हारे इस व्यवहार का किसी भी रीति से समर्थन नहीं हो सकता । आज भी तुम पहले ही के समान पैसे वाले हो, अधिक लोभ की वजह से तुम्हें भसंतोष रहता होगा पर तुम अपनी जबाबदारियों से नीचे पढ़ते जा रहे हो और तुम्हारे पर से हमारा विश्वास दिन २ उम्ता जा रहा है।"*
इसके कुछ समय पश्चात् क्लाइव ने जगतसेठ से कहलाया कि यदि प्रतिवर्ष तीन लाख रुपये कर तम स्वतंत्र होना चाहते हो तो हम प्रतिवर्ष इतना रुपया देने के लिये तैयार है। मगर मशाल चन्द ने उत्तर दिया कि यदि मैं अपने खरच को अधिक से अधिक घटाऊँ तो भी तीन लाख रुपये में मेरा पूरा नहीं पड़ सकता।
इसके पश्चात् वारेन हेस्टिंग्ज के जमाने में जगतसेठ की स्थिति और भी बिगड़ी और उन्होंने हेस्टिंग्ज को भी एक पत्र लिखा। उस समय हेस्टिंग्ज राजधानी से बहुत दूर था । उसने कलकत्ता वापिस लौटकर इस विषय का संतोषजनक जवाब देने का आश्वासन दिया मगर दुर्भाग्य से उसके कलकत्ता वापिस लौटने के पहिले ही खुशालचन्दजी का स्वर्गवास हो गया।
__जगतसेठ खुशालचन्द बड़े धार्मिक पुरुष थे। तीर्थराज सम्मैदशिखर पर इन्होंने कितने ही जैन मन्दिर भी बनवाये। वहाँ के शिला लेखों में कई स्थानों पर खुशालचन्द का नामोल्लेख मिलता है। ऐसा कहा जाता है कि जिस जगतसेठ ने लगभग १०८ तालाव बनवाये थे वे ये खुशालचन्द ही थे। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने मकान के पास खुशाल बाग नाम का एक बगीचा निर्माण किया था । खशालचन्दजी के कोई संतान न होने से उनके भतीजे हरकचंदजी उनके यहाँ पर दसक आये । इनके समय में इस खानदान की दशा और भी अधिक बिगड़ गई। इन्हीं के समय में इस खानदान का धर्म भी जैन से बदल कर वैष्णव हो गया। ऐसा कहा जाता है कि हरकचंदजी के कोई संतान न होने से एक वैष्णव सन्यासी ने इन्हें संतान का लालच देकर वैष्णव धर्म में दीक्षित किया। इन्होंने अपने मकान के पास एक वैष्णव मंदिर का निर्माण भी करवाया।
* Hunter's statistical account of Murshidabad page 263.
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बोसवाल जाति का इतिहास
हरकचंदजी के पश्चात उनके पुत्र इन्द्रचन्द्रजी हुए और उनके पश्चात् उनके पुत्र गोविन्दचय जी जगतसेठ की गादी पर आये। ये इतने उड़ाऊ थे कि इन्होंने अपने घर के गहने और कपड़ों तक को बेच डाला। अंत में जब आजीविका का सवाल उपस्थित हुआ तब उन्होंने अंग्रेज सरकार की शरण ली। बहुत मिहनत के पश्चात् सरकार ने इनको १२००) मासिक जीवन भर देने का निश्चय किया। इनके यहाँ सेठ गुलाबचन्दजी दत्तक आये जिनके पुत्र फतेचन्दजी इस समय विद्यमान हैं।
. इस प्रकार जिस स्थान पर एक दिन वैभव और अधिकार का प्रखर सूर्य अपनी हजारों गौरवमय किरणों से देदीप्यमान हो रहा था, परिवर्तन के प्रवलचक्र में पढ़ कर वहाँ साधारण दीपक का प्रकाश भी कठिनता से दृष्टिगोचर होता है। इतना होने पर भी जगतसेठ के नाम के साथ जिस अतीत गौरव और भव्यता की कड़िये बंधी हुई है, करालकाल उनको नष्ट नहीं कर सका । व्यक्ति शुद्र है पर उसका गौरव, उसकी कीर्ति और उसका बल महान् है, चिराराध्य है, अजर अमर है।
सेठ पूनमचन्द ताराचन्द गेलड़ा, मद्रास - इस खानदान के पूर्व पुरुष नागौर में निवास करते थे। ऐसा कहा जाता है कि करीब तीन-चार सौ वर्ष पूर्व यह खानदान नागोर से उठकर कुचेरा चला गया। आप लोग ओसवाल गेलड़ा गौत्र के स्थानकवासो सजन हैं। इस खानदान में श्रीयुत् कालूरामजी हुए । आपके चार पुत्र हुए जिनका नाम क्रम से मुल्तानमलजी, शम्भूमलजी, अमरचन्दजी और छगनमलजी था । इनमें से श्रीयुत् अमरचन्दजी सर्व प्रथम करीब १२५ वर्ष पहले पैदल रास्ते कुचेरा से चलकर जालना होते हुए मद्रास आये। आप बड़े कर्मवीर और साहसी पुरुष थे। आपने यहाँ पर आकर पहले पहल कुछ समय तक सर्विस की। मगर कुछ समय पश्चात् यहां के अंग्रेज अफसरों के उत्साहित करने पर आपने रेजीमेण्टल बैंकर्स का काम प्रारम्भ किया। इसमें आपको खूब सफलता मिली। संवत् १९५२ में आपका स्वर्गवास हो गया। आपके तीन पुत्र हुए जिनके नाम क्रम से पूनमचन्दजी, हीराचन्दजी और रामबक्षजी था। पूनमचन्दजी का जन्म संवत् १९२१ में हुआ। आप अपने पिता के बड़े योग्य पुत्र थे। आपने अपनी सहृदयता और मिलनसारी से बहुत नामवरी और यश प्राप्त किया। जब तक आप जीवित रहे तब तक सब भाई और कुटुम्ब शामिल ही काम करते रहे। आपका स्वर्गवास १२ वर्ष की उम्र में संवत् १९६३ में हो गया। आपके तीन पुत्र हुए जिनके नाम क्रम से श्रीताराचन्दजी, किशनलालजी और इन्द्र. चन्द्रजी था। इनमें से इन्द्रचन्द्रजी अमोलकचन्दजी के यहाँ दत्तक चले गये ।
__श्रीयुत् ताराचन्दजी का जन्म संवत् १९४० का है आप बड़े योग्य, सज्जन और धर्मप्रेमी पुरुष हैं। आपके तीन पुत्र हैं। श्रीयुत भागचन्दजी, नेमीचन्दजी और खुशालचन्दजी। श्री भागचन्दजी बढे शिक्षित और स्वदेश-प्रेमी सजन हैं। आपके श्री अबीरचन्दजी नामक एक पुत्र हैं।
___ ब्यावर गुरुकुल, मद्रास महावीर औषधालय, ब्यावर जैनपाठशाला, जैनज्ञान पाठशाला उदयपुर, हुक्मीचन्द मण्डल रतलाम इत्यादि संस्थाओं में आप काफी सहायता पहुंचाते रहते हैं। मतलब यह कि ओसवाल समाज में यह खानदान बहुत अग्रगण्य है।
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बच्छावत
बारहवीं शताब्दी की बात है कि जिस समय सिरोही और जालोर के देवदा वंश का
सगर नामक एक वीर और प्रतापशाली व्यक्ति देलवाड़ा* नामक स्थान पर शासन करता था। इसके पराक्रम की चारों ओर धूम मची हुई थी। इसी समय चित्तौड़ाधिपति महाराणा रतनसी पर मालवे के अधिपति महमूद ने चढ़ाई की। इस विपत्ति के समय में महाराणा ने सगर के गुणों से परिचित हो कर उन्हें अपनी सहायतार्थ युद्ध का निमन्त्रण दिया । सगर अपनी चतुरङ्गिणी सेना लेकर राणा की सहायतार्थ आ पहुँचे । सगर की वीरता के भागे बादशाह को हार खानी पड़ी। वह पराजित होकर भाग खड़ा हुआ। सगर ने उसका पीछा किया फलस्वरूप मालवे पर सगर का अधिकार हो गया।
___कुछ समय पश्चात् गुजरात के मालिक बहिलीम जातभहमद बादशाह ने राना सगर से कहला भेजा कि तुम मुझे सलामी दो और हमारी नौकरी मंजूर करो, नहीं तो मालवा प्रांत तुम से छीन लिया जायगा।
उपरोक्त बात स्वीकार न करने पर सगर और गुजरात के स्वामी दोनों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। अंत में सगर अपना अपूर्व वीरत्व प्रदर्शित करते हुए विजयी हुए। बादशाह हारकर भाग गया। इस प्रकार गुजरात पर भी सगर का अधिकार हो गया। कुछ समय के पश्चात् फिर गौरी बादशाह ने राणा रतनसी पर आक्रमण किया। (सम्वत् १३०३ ) इस बार भी महाराणा ने सगर को याद किया। सगर आज्ञा पाते ही राणाजी को सहायतार्थ आ पहुँचे। इस बार सगर ने राणाजी तथा बादशाह को समझा
*देलवाड़ा नाम के दो स्थान है-पहला गुजरात में और दूसरा मेवाड़ में। हमारा खयाल है कि सम्भवतः यह स्थान मेवाड़ वाला ही हो । इसके दो-तीन प्रमाण है । पहला यह कि उदयपुर के मुख्य द्वार का जिसे आजकल देवारी कहते है, वास्तविक नाम देवा बारी है। यहाँ पर आज भी देवड़ा वंशीय राजपूत लोगों की चौकी है। संभव है इसी स्थान पर या आस पास के स्थानों पर देवड़ा वंशियों का राज्य रहा हो कि जिससे इसका नाम देवलवाड़ा पड़ा हो । दूसरा यहाँ बहुत से जैन मन्दिर हैं, इसलिए इसका नाम देवलवाड़ा या देवल पट्टम पड़ा हो, और देवड़ा वंशियों का गज्य रहा हो कि जिस वंश के राना सगर महाराणा की सहायतार्थ युद्ध में गये हों। तीसरा यह भी प्रसिद्ध है कि महाराणा उदयसिंहजी का विवाह देवड़ा वंशीय राजपूतों के यहाँ हुआ था, जिनसे कुछ जमीन लेकर वहाँ एक तालाब बनवाया जो वर्तमान समय में उदयसागर नाम से प्रसिद्ध है। उपरोक्त प्रमाणों से यही सिद्ध होता है कि देवड़ा राजपूतों का स्थान यही देलबाड़ा है।
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ओसवाल जाति का इतिहास
कर परस्पर मेल करवा दिया तथा वादशाह से दंड लेकर गुजरात तथा मालवा उसे वापस कर दिया गया। इस प्रकार सगर ने अपने जीवन काल में कई वीरत्वपूर्ण कार्य कर दिखाये। सगर के तीन पुत्र हुए। जिनके नाम क्रमशः बोहित्थ, गंगादास और जयसिंह थे।
सगर के पश्चात उनके पुत्र बोहित्थ देवलवादा में रहने लगे। आप भी अपने पिता ही के समान शूरवीर, बुद्धिमान एवम् पराक्रमी पुरुष थे। भाप ११०० महावीरों के साथ चित्रकूट नगर (चित्तौड़) में राणा रतनसी के शत्रु के साथ होने वाले युद्ध में. अपूर्व वीरता प्रदर्शित करते हुए काम आये। इनकी मी का नाम बहरंगदे था, जिससे श्रीकरण, जैसो, जयमल, नान्हा, भीमसिंह, पनसिंह, सोमजी और पुष्पपाल नामक आठ पुत्र तथा पना नामकी एक कन्या हुई थी। इनमें से बड़े पुत्र श्रीकर्ण के समधर, वीरदास, हरिदास, उद्धरण नामक चार पुत्र हुए थे। - श्रीकर्ण बड़े शूरवीर थे। इन्होंने अपनी भुजाओं के बल पर मच्छेन्द्रगढ़ को फतह किया था। कहा जाता है कि इसी समय से ये राणा कहलाने लगे। एक समय का प्रसंग है कि बादशाह का खजाना कहीं जा रहा था, उसे राना श्रीकर्ण ने लूट लिया। जब यह समाचार बादशाह के पास पहुंचे तो वह बड़ा क्रोधित हुआ और उसने अपनी सेना मच्छेन्द्रगढ़ पर चढ़ाई करने के लिये भेजी। श्रीकर्ण तथा बादशाह दोनों की सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ। अन्त में अपनी अपूर्व वीरता प्रदर्शित करते हुए श्रीकर्ण इस युद्ध में काम आये। बादशाह का मच्छेन्द्रगढ़ पर अधिकार हो गया। श्रीकर्ण की भाऱ्या रतना दे अपने पति को काम आया जान अपने पुत्र समधर आदि को साथ ले अपने पिहर खेड़ी नगर चली गई। वहां जाकर उसने अपने पुत्रों को खूब विद्याध्ययन करवाया, उन्हें उचित सैनिक शिक्षा दी तथा सब कलाओं में निपुण बना दिया ।
संवत् १३२३ के आषाढ़ मास के पुण्य नक्षत्र में गुरुवार के दिन खरतरगच्छाचार्य श्रीजिनेश्वरसूरि महाराज खेड़ी नगर पधारे। नगर में प्रवेश करते समय मुनिराज को शुभ शकुन हुआ। यह जानकर सूरिजी ने अपने साथियों से कहा कि “इस नगर में अवश्य जैनधर्म का उद्योत होगा।" चौमासा अति समीप था, अतएव महाराज ने वहीं चौमासा व्यतीत करने का निश्चय किया और वहीं रहने लगे। बोहित्थरा गौत्र की स्थापना
एक दिन रात्रि में पद्मावती जिन शासनदेवी ने महाराज से कहा कि कल प्रातःकाल बोहित्थ के *अनुमान है कि यह स्थान वर्तमान अलवर स्टेट के अन्तरगत माचेड़ी नामक स्थान हो। +भनुमान है कि यह स्थान गुजरात प्रांत के अन्दर इर के पास खेड़ाब्रह्मा नामक स्थान हो।
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बच्छावत
पौत्र चारों राजकुमार व्याख्यान के समय आवेंगे और जिनधर्म का प्रतिशेध प्राप्त करेंगे। निदान ऐसा ही हुभा। प्रातःकाल चारों ही भाई गुरु के व्याख्यान में पधारे। उस समय गुरु महाराज दया-धर्म का उपदेश कर रहे थे। उपदेश को सुनकर चारों के दिलपर बड़ा गहरा प्रभाव हुआ। उन्होंने उसी समय श्रावक के बारह गुणों का व्रत धारण किया। आचार्यश्री ने उनको महाजन वंश में सम्मिलित कर लिया एवम् बोहित्य के वंशज होने से बोहित्थरा गौत्र की स्थापना की जिसका अपभ्रंश नाम अब बोथरा है। .
श्रावक हो जाने के पश्चात् चारों भाइयों ने धार्मिक कार्यों में रुपया लगाना प्रारंभ किया। इन्होंने आचार्य श्री को साथ लेकर सिद्धारलजी का एक बड़ा संघ निकाला मार्ग में उन्होंने अपने साधर्मी भाइयों को एक मुहर और सुपारियों से भरा हुआ एक थाल लहान में दिया। इससे लोग इन्हें फोफलिया कहने लगे। इसी समय से बोहित्थरा गोत्र से फोफलिया शाखा प्रकट हुई । इस यात्रा में चारों भाइयों ने दिल खोल कर खर्च किया। जब लौट कर वापस घर आये तब लोगों ने मिल कर समधर को संघपत्ति का पद दिया। समधर की रानी का नाम जयंती था।
समधर के तेजपाल नामक एक पुत्र हुआ। समधर स्वयं विद्वान् था अतः उसने अपने पुत्र को खूब विद्याध्ययन करवा कर विद्वान बना दिया। जिस समय तेजपाल २५ वर्ष के थे तब समधर का स्वर्गवास हो गया। कुछ समय पश्चात् तेजपाल ने गुजरात के तत्कालीन राजा से गुजरात को ठेके पर लिया। अपनी बुद्धिमानी, अपने प्रभाव एवम् अपनी योग्यता से तेजपाल ने बहुत प्रसिद्धि प्राप्त की। इन्होंने संवत् १३७७ के ज्येष्ठ मास में पाटन नगर में तीन लाख रुपया लगाकर जैनाच यं श्री जिनकुशल सूरि का पाट महोत्सव करवाया तथा उक्त महाराज को लेकर शत्रुजय तीर्थ का संघ निकाला। इसके पश्चात् और भी बहुत सा रुपया उन्होंने धार्मिक कार्यों में खर्च किया। इस अवसर पर सब संघ ने मिल कर माला पहिना कर तेजपाल को भी संघाधिपति का पद प्रदान किया। तेजपाल ने भी सोने की मुहर, एक थाली और ५ सेर का एक लड्डू अपने साधर्मी भाइयों को लहाण स्वरूप बँटवाये। एक समय सम्मदेशिखरजी की यात्रा करते समय इन्हें रास्ते में म्लेच्छों ने रोका था उस समय ये म्लेच्छों को परास्त कर आगे बढ़े और यात्रा की। इस प्रकार कई शुभ कार्यों को करते हुए ये स्वर्गवासी हुए। इनकी स्त्री बीनादेवी से इन्हें बील्हा नामक एक पुत्र हुए। यही तेजपाल के उत्तराधिकारी हुए। ये बड़े धार्मिक पुरुष थे। इन्होंने भी शझुंजय तीर्थ का एक संघ निकाल कर एक मोहर एक थाल तथा एक लड्डु लहान स्वरूप बटवाया। इनके तीन पुत्र हुए, जिनके नाम कडूवा, धारण और नन्दा था। इनमें से कड़वा अपने पिता के उत्तराधिकारी हुए।
__कडूवा नाम तो वास्तव में कड़वा है मगर वे ठीक इसके विपरीत अमृत के समान थे। एक समय का प्रसंग है कि ये अपने पूर्वजों की भूमि मेवाड़ देश के चित्तौड़ नामक स्थान में आये। वहां पर
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श्री सवाल जाति का इतिहास
इनका चित्तौड़ के तत्कालीन महाराणाजी ने बहुत सम्मान किया । तथा उनसे वहीं रहने का आग्रह किया । कुछ समय व्यतीत होने के पश्चात् मांडवगढ़ ( मालवा ) का सुलतान किसी कारण वश अपनी सेना लेकर चित्तौड़ पर चढ़ आया । यह जानकर राणाजी ने कडुवाजी से कहा कि पहले भी आपके पूर्वजों ने हमारी बहुत सी उत्तम २ सेवाएँ की हैं, अतएव इस बार भी आप हमें हमारे कार्य में सहायता दीजिये । कडूवाजी ने महाराणा की बात स्वीकार की । अन्त में इन्होंने ( कडूवाजी ) अपनी बुद्धिमानी एवम् चातुर्य से बादशाह को समझा बुझा कर उसकी सेना को वापस लौटा दिया। जिससे सब लोग इनसे प्रसन्न हुए । महाराणाजी ने प्रसन्न होकर बहुत से घोड़े आदि प्रदान कर इन्हें अपना प्रधान मन्त्री बनाया। इनके मंत्रित्व काल में इन्होंने अपने गौत्री भाइयों का कर छुड़वाया । अपने सद्वर्ताव से इन्होंने वहां उत्तम यश उपार्जन किया, पश्चात् राणाजी से आज्ञा लेकर ये वापस गुजरात प्रांत के अनहिल पट्टण नामक स्थान में आये। वहां के राजा ने भी इनका बड़ा सम्मान किया और इनके गुणों से प्रसन्न हो कर पाटन इनके अधिकार में करदी |
कडूवाजी ने बहुत सा रुपया धार्मिक कार्यों में खर्च किया। गुजरात देश में जीव हिंसा को बन्द करवाया । संवत् १४३२ के फाल्गुन माह में खरतरगच्छाचार्य श्री जिन जसूरि महाराज का पाट महोत्सव करवाया। इसमें करीब १५ लाख रुपया खर्च हुआ। इसके अतिरिक्त इन्होंने भी अपने पूर्वजों की तरह श्री शत्रुंजय तीर्थ का संघ निकाला तथा वही मोहर, थाल और पाँच सेर का लड्डू लहान में बांटा। इस प्रकार अतुल सम्पत्ति खर्च करते हुए आप स्वर्गवासी हुए ।
कड़वाजी के पुत्र का नाम मेराजी था, आपकी धर्मपत्नी का नाम हर्षनदेवी था। मेराजी ने जैन तीर्थों के करों को माफ करवाया। इनके मांडणजी नामक पुत्र हुए, जिनकी भार्य्या का नाम महिमादेवी था। मांडणजी अपने परिवार सहित गुजरात की भूमि को छोड़ कर काठियावाड़ के बीरमपुर नामक ग्राम में चले गये। वहां इनके उदाजी नामक एक पुत्र हुए। उदाजी की भार्य्या का नाम उछृंगदेवी था । इनके दो पुत्र हुए, जिनके नाम क्रम से नरपाल और नागदेव था। इनमें से नागदेव के अपनी पत्नी नारङ्गदे से दो पुत्र रत्न पैदा हुए। जिनका नाम क्रमशः जैसलजी और वीरमजी था । जैसलजी की भार्य्या का नाम जसमादेवी था ।
सलजी के तीन पुत्र हुए। जिनके नाम क्रमशः बछराजजी, देवराजजी और हंसराजजी था । इनमें से ज्येष्ठ पुत्र बछराजजी अपने भाइयों को साथ लेकर मंडोवर नगर में राव श्रीरणमलजी के पास जा रहे । रामजी ने बछराजजी की बुद्धि के अद्भुत चमत्कार को देखकर उन्हें अपना मन्त्री नियुक्त किया ।
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बच्छावत
कुछ समय पश्चात् चित्तौड़ के राणा कुम्भाजी और राव रणमलजी के पुत्र जोधाजी में किसी कारण वश अनबन पैदा हो गयी । इसी अवसर के लगभग राव रणमलजी और मन्त्री बछराजजी राणा कुम्भाजी से मिलने के लिए चित्तौड़ गये । प्रारंभ में तो राणाजी ने आपका अच्छा सम्मान किया, परन्तु कहा जाता है कि पीछे उन्होंने धोखे से राव रणमलजी को मरवा डाला । इस अवसर पर मन्त्री बछराजजी अपनी चतुराई से निकल कर वापस मंडोवर आगये ।
राव रणमलजी के स्वर्गवासी होजाने पर उनके पुत्र जोधाजी पाट नशीन हुए । उन्होंने भी बछराजजी को सम्मान देकर पहले की तरह उन्हें अपना मन्त्री बनाया। जोधाजी ने अपनी वीरता से राणा के देश को उजाड़ कर दिया और अंत में राणाजी को भी अपने वश में कर लिया। राव जोधाजी के दो रानियां थीं। पहली का नाम नवरंगदे था जो कि जंगल देश के सांखलों की पुत्री थी और दूसरी का नाम जसमादे था जोकि हाड़ा वंश की थी। नवरंगदे की रत्नगर्भा कोख से बीकाजी और बींदाजी नामक दो पुत्र रत्न पैदा हुए तथा जसमादे से नींबाजी, सुजाजी, और सातलजी नामक तीन पुत्र पैदा हुए । बीकाजी छोटी अवस्था ही में बड़े चंचल और बुद्धिमान थे। उनके पराक्रम, तेज और बुद्धि को देखकर हाड़ी रानी को कुछ द्वेष पैदा हुआ। उसने मनमें विचार किया कि बीका की विद्यमानता में मेरे पुत्र को राज्य मिलना बड़ा कठिन है । यह सोचकर उसने कई युक्तियों से राव जोधाजी को अपने वश में
कर उनके कान भर दिये । राव जोधाजी भी सब बातों को समझ गये ।
एक दिन दरबार में जबकि सब भाई बेटे बैठे हुए थे कुँवर बीकाजी भी अपने चाचा कांधलजी के पास बैठे थे । ऐसे ही अवसर को उपयुक्त जान राव जोधाजी ने कहा कि जो अपनी भुजा के बलपर पृथ्वी
पाकर उसका भोग करनेवाले
को लेकर उसका भोग करता है वही सुपुत्र कहलाता है। पिता के राज्य को पुत्र की संसार में कीर्ति नहीं होती । यह बात कुंवर बीकाजी को चुभ गई।
वे उसी समय अपने काका
जी, रूपाजी, मांडणजी, मण्डलाजी, नाथूजी, भाई जोगायतजी, बींदाजी, सांखला नापाजी, पड़िहार बेलाजी, बेदलाला लाखनजी, कोठारी चौथमलजी, पुरोहित विक्रमसी, साहुकार राठी साबाजी, मंत्री बछराजजी आदि कतिपय स्नेही जनों को साथ लेकर जोधपुर से रवाना हो गये ।
जोधपुर से रवाना होकर ये लोग शाम को मंडोवर पहुँचे। वहां गोरे भेरूजी का दर्शन कर बीकाजी ने प्रार्थना की कि महाराज आपका दर्शन अब आपके हुक्म से होगा, हम तो अब बाहर जा रहे हैं। इस प्रकार के भावों की प्रार्थना कर वे रातभर मंडोवर ही में रहे। ज्योंही प्रातःकाल वे उठे त्योंही उन्हें भैरवजी की मूर्ति बहेली में मिली। इसे शुभ शकुन समझ बीकाजी शीघ्र ही वहां से रवाना हो गये। वहां से वे काऊनी नामक स्थान पर गये।
उस
भैरवजी की मूर्ति को लेकर वहां के भूमियों को वश
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ओसवाल जाति का इतिहास
में कर उन्होंने वहां अपनी दुहाई फेर दी। वहीं तालाब के किनारे उत्तम जगह को देखकर गोरेजी की मूर्ति को स्थापित किया तथा वहीं रहने लगे। आगे चलकर इसी स्थान का नाम कोड़मदेसर प्रसिद्ध हुआ। यह स्थान अभी भी वहां वर्तमान है और बीकानेर के राजकुमारों का मुंडन संस्कार यहीं होता है। यहां पर राजमहल भी बने हुए हैं। संवत् १५४१ में राव बीकाजी ने रातीघाटी नामक पहाड़ पर एक किला बनवाकर नगर बसाया जो वर्तमान में बीकानेर के नाम से प्रसिद्ध है। मंत्री बछराजजी ने भी बीकानेर के पास अपने नाम से बच्छासर नामक एक गांव बसाया। बच्छावत गौत्र की स्थापना
कुछ समय व्यतीत हो जाने के पश्चात् बछराजजी ने शत्रुञ्जय और गिरनार की तीर्थयात्रा करने के हेतु एक बड़ा संघ निकाला। मार्ग में सब साधर्मी भाइयों को वरपति एक मुहर एक थाल और एक लड्डू की लहान बांटी तथा संघपति की पदवी को प्राप्त की। इसके बाद आप श्री जिनकुशल सूरि महाराज के साथ देवराज नगर ( जो वर्तमान में मुल्तान के पास है ) में यात्रा करने के लिये गए । आपके वंशज इसी समय से आपके नाम से बच्छावत कहलाने लगे। राव बीकाजी ने आपकी कार्यक्षमता से प्रसन्न होकर आपको 'परभूमि पंचानन' के खिताब से मुशोभित किया ।
___एक समय की बात है जब कि बछराजजी राव बीकाजी के कोठारी थे उसी समय एक दिन भोजन में खीर बनी थी। उस दिन ब्राह्मण खीर में शक्कर डालना भूल गया। इससे रावजी ने एक डावडी (नौकरानी) को बछराजजी के पास भेज कर शक्कर मँगवाई। बछराजजी ने भूल से शक्कर के बदले नमक भेज दिया। नमक डालने से खीर खारी हो गई जिससे रावजी उसे न खा सके। इससे नाराज़ होकर उन्होंने कोठारी बछराजजी को बुलवाया तथा नमक भेजने के लिये भला बुरा कहा। इस पर बछराजजी ने अपनी भूल को छिपा कर बड़ी बुद्धिमानी से उत्तर दिया कि महाराज हमेशा जो डावड़ी सामान लेने के लिए आती है कल वह नहीं आई थी। उसके स्थान पर दूसरी डावड़ी को देखकर मैंने जानबूझ कर नमक भेजा था। इसका कारण यह था कि संभव है वह शक्कर में कुछ मिला कर आपको देदे। नमक भेजने से मैंने यह सोचा था कि जिसमें आप नमक डालेंगे वह वस्तु खारी हो जायगी और आप न खा सकेंगे, जिससे यदि उसमें कोई वस्तु भी मिला दी जायगी तो अमंगल नहीं होगा। यदि आप हमेशा आने वाली डावड़ी को भेजते तो मैं नमक न भेजता।" बछराजजी का यह उत्तर सुनकर राव बीकाजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने बछराज जी को और भी तरकी की तथा उन्हें और भी ज्यादा विश्वासपात्र समझने लगे।
राव बीकाजी के रंगादेवी भामक स्त्री थी। जिसकी कोख से लूनकरनजी, नरसीजी, राजसीजी,
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बच्छावित
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घरसीजी, और वसीलजी वगैरह पुत्र उत्पन्न हुए। आगे चलकर इनमें से लूनकरनजी बड़े पुत्र होने के कारण बीकानेर की गद्दी पर बैठे।
__मंत्री बछराजजी के करमसीजी, बरसिंहजी, रतनसिंहजी और नाहरसिंहजी नामक चार पुत्र हुए। बछराजजी के छोटे भाई देवराजजी के दस्सुजी, तेजाजी और मूंणजी नामक तीन पुत्र हुए। इनमें से दस्सुजी के वंशज दस्साणी कहलाये।
राव बीकाजी के स्वर्गवासी हो जाने के पश्चात् उनके पाट पर राव लूनकरनजी बैठे। मापने बच्छावत करमसीजी को अपना मन्त्री बनाया । करमसीजी ने अपने नाम से करमसीसर नामक एक गांव बसाया । आपने राव लनकरनजी की शादी चित्तौड़ के महाराणा की पुत्री से करवाने का प्रयत्न किया। इसके अतिरिक्त आपने बहुत से स्थानों के लोगों को बुलवाकर उनका एक संघ निकाला तथा बहुतसा रुपया खर्च कर श्री जिनहंससूरि महाराज का पाट महोत्सव किया। संवत् १५७० में बीकानेर नगर में आपने श्री नेमी. नाथ स्वामी का एक बड़ा मन्दिर बनवाया जोकि इस समय में भी विद्यमान है। इसके अतिरिक्त आपने शत्रुजय, गिरनार और भावू नामक तीर्थों की यात्रा के लिए एक बड़ा संघ निकाला तथा अपने पूर्वजों की तरह मार्ग में अपने साधर्मों भाइयों को एक मुहर, एक थाल और एक मोदक लहाण में बांटा। आप मारमोल ( मन्दिगोकल-जैसलमीर ) के लोदी हाजोखां के साथ युद्ध कर उसी युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए।
राव लूनकरनजी के पश्चात् उनके पुत्र राव जेतसीजी बीकानेर की गद्दी पर बैठे। आपकी धर्मपत्नी का नाम काश्मीरदेवी था। आपने बच्छावत करमसी के छोटे भाई बच्छावत बरसिंहजी को अपना मंत्री बनाया। बरसिंहजी के मेघराजजी, नगराजजी, अमरसीजी, भोजराजजी, डूंगरसीजी और हरराजजी नामक छः पुत्र हुए। इनमें से डूंगरसीजी के वंशज डूंगराणी कहलाये। बरसिंहजी के द्वितीय पुत्र मगराजजी के संग्रामसिंहजी नामक पुत्र हुए। संग्रामसिंहजी के पुत्र का नाम कर्मचन्दजी था।
___बरसिंहजी भी शजय आदि तीर्थों की यात्रा करने के लिए गये । जहां ये चांपानेर के बादशाह मुजफ्फर के पास भी गये । बादशाह ने इनका अच्छा स्वागत किया तथा छः माह तक उन्हें वहीं रक्खा । और वहाँ का आपको किलेदार बनाया। आपने गिरनार आबू आदि तीर्थों का संघ निकाला तथा रास्ते के पात्राकरों को छुड़वाया । आपने एक धर्मशाला भी बनवाई । . बरसिंहजी के पश्चात् इनके दूसरे पुत्र नगराजजी मंत्री हुए। इसी समय जोधपुर के राजा मालदेव ने जांगलू देश को अपने अधिकार में करने की इच्छा की। यह जानकर राव जैतसीजी ने नगराजजी को कहा कि मालदेव से विजय प्राप्त करना कठिन है। जब तक मालदेव यहां चढ़ न आवे तब
- कुछ लोग संग्रामसिंहजी को अमरसीजी का पुत्र होना बतलाते है।
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
सक सब प्रबन्ध कर लेना ठीक है। तब मन्त्री नगराजजी ने शेरशाह बादशाह के पास जाकर उससे सहा. यता मांगी। सहायता मिलने के पहले ही मालदेव ने जांगलू पर चढ़ाई कर दी। इस युद्ध में जैतसीजी काम आये और मालदेव का जांगलू पर अधिकार हो गया, पर नगराजजी ने शेरशाह की सहायता से मालदेव को परास्त कर जांगलू का राज्य वापस जैतसीजी के पुत्र राव कल्याणसिंहजी को दिलवाया और उन्हें मारस्वत नगर से लाकर राज्य गद्दी पर बिठाया। नगराजजी ने धार्मिक कार्यों में भी बहुत रुपया खर्च किया। मापने भी यात्राओं का संघ निकाला । • आपकी पत्नी का नाम नवलदेवी था। आपने अपने नाम से नागासर नामक एक गांव बसाया था जो वर्तमान में भी विद्यमान है। - राव जैतसीजी के युद्ध में काम आजाने के पश्चात् उनके पुत्र राव कल्याणसिंहजी बीकानेर की गद्दी पर बिराजै। उन्होंने मन्त्री नगराज जी के पुत्र संग्रामसिंहजी को अपना मन्त्री बनाया । आप बड़े वीर पराक्रमी और बुद्धिमान थे। आपने भी श्रीजिनमाणिक्यसूरिजी को साथ लेकर शर्बुजय आदि तीर्थों की यात्राओं का एक संघ निकाला था। जिसमें प्रत्येक साधर्मी भाई को एक रुपया, एक थाल और एक सडडू लहान में बांटा था । मार्ग में आप चित्तौड़पति उदयसिंहजी की सेवा में उपस्थित हुए थे उस समय महाराणा ने आपका बहुत सम्मान किया था। बच्छावत करमचन्दजी
आप बीकानेर के प्रधान मेहता संग्रामसिंहजी के पुत्र थे। आप बड़े प्रतिभाशाली, बुद्धिमान एवं परम राजनीतिज्ञ थे। आप अपने समय के महापुरुष और प्रसिद्ध मुत्सद्दी थे। भापकी अपूर्व प्रतिमा
और कार्य कुशलता से प्रसन्न होकर बीकानेर के तत्कालीन महाराजा कल्याणसिंहजी ने आपको अपना प्रधान मन्त्री नियुक्त किया था। जिस समय की यह बात है, उस समय सम्राट अकबर भारत के राज्य सिंहासन पर विराजमान थे। कहना न होगा कि कर्मचन्दजी ने न केवल बीकानेर के राजनैतिक क्षेत्र में, न केवल राजस्थान के राजनैतिक मैदान में वरन् ठेठ शाही दरबार में अपने महान् व्यक्तिस्व और अपूर्व राजनैतिक योग्यता की छाप डाली थी। सम्राट अकबर पर आपका बड़ा प्रभाव था और वह कभी कभी भारतीय राजनीति के गूढ़तम प्रश्नों कि सुलझाने में और अपनी शासन नीति के निर्माण में, आपकी सलाह लिया करते थे । फारसी के तत्कालीन ग्रन्थों में तथा जयसोम कृत "कर्मचन्द्र प्रबन्ध" में मन्त्री कर्मचन्दजी के महान जीवन के विविध पहलुओं पर और उनके तत्कालीन प्रभाव पर बहुत ही अच्छा प्रकाश डाला गया है। . . . एक इतिहासज्ञ का कथन है कि कभी कभी छोटी छोटी घटनाएँ भी महान् ऐतिहासिक घटनाओं को जन्म देती हैं। मन्त्री कर्मचन्दजी का एक मामूली-सी घटमा ने सम्राट पर प्रभाव डाल दिया।
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बच्छावत
बात यह हुई कि बीकानेर के तत्कालीन राब कल्याणसिंहजी ने एक समय मन्त्री कर्मचन्दजी के सामने यह इच्छा प्रकट की कि मैं किसी तरह जोधपुर के गोखड़े पर बैठ जाऊँ। इस इच्छा की पूर्ति के लिये कर्मचन्दजी सम्राट अकबर की सेवा में भेजे गये। जिस समय आप दिल्ली पहुंचे, उस समय सम्राट अकबर शतरंज खेल रहे थे। उनकी शतरंज की चाल रुकी हुई थी। जो चाल वे चलते थे, उसी में हारते थे। कहा जाता है कि कर्मचन्दजी ने बादशाह को शतरण की ऐसी चाल बताई कि जिससे वे विजयी हो गये। इस पर बादशाह बहुत खुश हुआ। बादशाह की इस प्रसन्नता का कर्मचंदजी ने अपने स्वामी के लिए फायदा उठा लिया। उन्होंने बादशाह से अपने स्वामी के लिये जोधपुर के गोखड़े पर कुछ समय के लिये बैठने का परवाना ले लिया।
इस सेवा से प्रसन्न होकर रावजी ने आपकी मांगी हुई नीचे लिखी बातों को स्वीकार कर स्वयं अपनी ओर से ४ गांव का मुहरदार पट्टा प्रदान किया ।
(1) चार माह चौमासे में कुम्हार, तेली, तम्बोली वगैरह भगता पालें। (1) वैश्यों से माल का कर न लिया जाय। . (३) भेड़ के ब्यापार में माल का जो चौथाई कर लिया जा रहा है, वह न लिया जाय ।
राव कल्याणसिंहजी के पश्चात् राव रायसिंहजी बीकानेर के स्वामी हुए। आपने भी अपने मंत्री के पद पर कर्मचन्दजी को ही रक्खा। कहना न होगा कि कर्मचन्दजी ने अपने नरेश की बड़ी-बड़ी सेवाएं की, इनके उद्योग से सम्राट अम्बर की ओर से रायसिंहजी को राजा का खिताब मिला । कर्मचन्दजी ने मुगल सम्राट् की भी बहुत सेवाएँ की थीं। आपने कुंवर रामसिंहजी के साथ दिल्ली पर आक्रमण करनेवाले मिर्जा इबाहिम से युद्ध कर उसे हराया। सम्राट की मदद के लिये गुजरात पर चढ़ाई की तथा मिर्जा महमद हुसैन को हरा कर उस पर विजय प्राप्त की। इन सेवाओं से प्रसन्न होकर सम्राट अकबर ने मंत्री कर्मचन्दजी की स्त्रियों को सोने के नुपूर पहनने का अधिकार दिया और आपका बड़ा सत्कार किया। (उस समय ओसवाल जाति में हिरन गौत्रीय स्त्रियों के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों को पैरों में सोना पहनने का अधिकार न था।)
मंत्री कर्मचन्दजी ने सोजत को बीकानेर राज्य के आधीन किया, जालोर के अधिकारी को परास्त किया तथा तुरमखां नामक व्यक्ति को मुहरें देकर उसके द्वारा कैद किये कुछ महाजनों को मुक्त करवाया, सिंध देश को बीकानेर में मिलाया तथा वहाँ की नदियों में मच्छी मारना बंद करवाया। हरफ़ा नामक स्थान में विलचियों को परास्त किया। इस प्रकार आपने कई समय अपनी वीरता एवम् प्रतिमा का परिचय दिया था।
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आपकी प्रतिभा. सर्वतोमुखी थी। आपने न केवल राजनैतिक क्षेत्र में ही वरन् सामाजिक एवम् धार्मिक क्षेत्र में भी बहुत कार्य किये थे। आपने सम्राट अकबर को जैनधर्म के तत्वों को समझाने के लिए जैनाचर्य श्रीजिनचन्द्रसूरिजी को खम्भात से बुला कर सम्राट् से उनका परिचय कराया और उनका महत्वपूर्ण व्याख्यान करवाया। अकबर पर उनका अच्छा प्रभाव पड़ा तथा अकबर ने उनके भादेशानुसार अहिंसा के तत्व को समझ कर कई पर्व के पवित्र दिनों में हिंसा न करने के आदेश सारे साम्राज्य में भेजे ।
-काश्मीर के युद्ध में सम्राट अकबर अपनी धर्म जिज्ञासा के लिये महाराज के शिष्य मानसिंहजी को साथ ले गया था । अकबर का जैनधर्म पर बहुत प्रेम हो गया था। कर्मचन्दजी की दान वीरता भी बहुत बदी-बड़ी थी मापने एक समय श्रीजिनचन्द्रसरि महाराज के आगमन की बधाई सुनाने वाले याचकों के बहुच ब्रम्प प्रदान किया था इसका वर्णन करते हुए मल्ल नामक कवि ने इस प्रकार लिखा है:
नव हाथी दीने नरेश, मद सों मतवाले । नवे गाँव बगसीस, लोक आवे हित हाले ॥ परा की सौ पांच सुतो, जग सगलो जाणे ।
सवा करोड़ को दान, मल्ल कवि सत्य बखाने ॥ कोई रावत राणा न करि सके, संग्राम नंदन तें किया ।
श्री युगप्रधान के नाम सुंज, कर्मचंद इतना दिया ॥ इसके अतिरिक्त जब सम्राट् ने कर्मचन्दजी के कहने से जिनसिंहसूरि को आचार्य की पदवी मंदान को तब इसके महोत्सव में कर्मचन्दजी ने सवा करोड़ रुपये खर्च किये थे।
(प्राचीन जैन लेख संग्रह पृष्ठ ३५) मंत्री कर्मचन्दजी ने सामाजिक क्षेत्र में भी बहुत काम किया था। आपने पुराने कायदों का संशोधन किया तथा जाति को उन्नति के लिये कई नये कानून बनाए । वर्तमान समय में जो ४ टके की लाहण बांटी जाती है वह उन्हीं के द्वारा प्रचारित की गई थी। संवत् १६३५ के दुर्भिक्ष में आपने हजारों लोगों का प्रतिपालन किया तथा अपने साधर्मी भाइयों को १२ माह तक अन्न-वस्त्रादि प्रदान किया था तथा वर्षा होने पर सबको मार्ग म्यय एवम् खेती भादि करने के लिये कुछ द्रव्य देकर अपने २ स्थान पर पहुचा दिया था। तुर्रमखां को सिरोही की लूट में भिन्न र धातुओं की जो एक हजार प्रतिमाएँ मिली थीं, उससे उन्हें छीनकर मापने श्रीचिंतामणि स्वामी के मंदिर के तलघर में रखवा दी जो अब तक मौजूद हैं।
कर्मचन्दजी के बनवाये हुए एक विशाल उपाश्रय में एक बार महाराज जिनचन्द्रसूरि ने अपना
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श्री कर्मचन्दजी बच्छावत प्रधान, बीकानेर.
श्री मेहता अगरचन्दजी प्रधान, उदयपुर.
श्री मेहता देवीचन्दजी प्रधान, उदयपुर.
श्री मेहता शेरसिंहजी प्रधान, उदयपुर.
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चातुर्मास किया था। यह उपाश्रय भाज भी बीकानेर के रांगणीके चौक में विद्यमान है। इसमें देखने योग्य एक प्राचीन पुस्तकालय है जिसमें कर्मचन्दजी का चित्र भी लगा हुआ है।
मंत्री कर्मचन्दजी के दो पुत्र थे-भाग्यचन्द्रजी और लखमीचन्दजी। राजा रायसिंहजी के भी दो पुत्र थे-भूपतसिंहजी तथा दलपतिसिंहजी । ऐसा कहा जाता है कि राजा रायसिंहजी निम्न लिखित कारणों से कर्मचन्दजी पर नाराज हो गये थे, अतएव कर्मचन्दजी अपने पुत्र परिवार को लेकर मेड़ता चले गये थे।
(१) रायसिंहजी के छोटे पुत्र दलपतिसिंहजी को राजा बनाने की चेष्टा करना। (२) कर्नल पावलेट ने बीकानेर-गजेटियर में लिखा है कि, "जिस समय बादशाह कर्मचन्दजी
से शतरज खेलते थे उस समय कर्मचन्दजी तो बैठे रहते थे लेकिन बीकानेर नरेश
खड़े रहते थे।" यह भी उनकी नाराजी का एक कारण था।
कर्मचन्दजी मेड़ता जाकर अपना धार्मिक जीवन बिताने लगे। इसी समय बादशाह ने बीकानेर नरेश द्वार। इनें बुलवाया था। इसके बाद कर्मचन्दजी बादशाह से अजमेर मिलने गये और वे देहली जाकर रहने लगे। वहां बादशाह ने आपका यथोचित सत्कार कियो तथा एक सोने के जेवर सहित शिक्षित घोड़ा प्रदान किया। बादशाह के पुत्र जहांगीर के मूल नक्षत्र में पैदा होने पर बादशाह ने सब धर्मों में गृहों की शान्ति करवाई। उसी सिलसिले में जैन धर्म की रीत्यानुसार शान्ति करवाने का भार कर्मचन्दजी पर छोड़ा था जिसे उन्होंने पूरा किया।
कर्मचन्दजी जब देहली में बीमार पड़ गये उस समय राजा रायसिंहजी उन्हें सांत्वना देने के लिये पधारे थे। वहां जाकर उन्होंने बहुत खेद प्रगट किया और आंखो में आंसू भरलाये। रायसिंहजी के चले जाने पर कर्मचन्दजी ने अपने पुत्रों को कहा कि महाराज की आँखों में आंसू आने का कारण मेरी बीमारी नहीं है किन्तु इसका वास्तविक कारण यह है कि वे मुझे सजा नहीं दे सके । इसलिये तुम बीकानेर कभी मत जाना।
कर्मचन्दजी की मृत्यु होजाने के पश्चात् राजा रायसिंहजी ने बुरहानपुर में अपनी रुग्णावस्था में अपने पुत्रों से कहा कि "कर्मचन्द तो मरगया अब तुम उनके पुत्रों को मारना । मुझे मारने के षड़यंत्र में जो २ लोग शामिल थे उन्हें भी दण्ड देना। सूरसिंहजी ने इस बात को स्वीकार किया। .
रायसिंहजी की मृत्यु के पश्चात् बादशाह जहांगीर ने दलपत को बीकानेर का स्वामी बनाया। परंतु पीछे संवत् १६७० में बादशाह उनसे नाराज होगये और उन्होंने सूरसिंहजी को बीकानेर का स्वामी घोषित किया। सूरसिंहजी बादशाह से दिल्ली मिलने गये और आते समय कर्मचन्दजी के पुत्रों को तसल्ली देकर सपरिवार अपने साथ लिवा लाये। आपने कर्मचन्दजी के इन दोनों पुत्रों को मंत्री पद पर
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नियुक्त किया । करीब छः मास तक उनपर ऐसी कृपा बतलाई कि मानो वे पुरानी सभी बातों को भूलाये हो । एक समय स्वयं राजा साहब इनकी हवेली पर भी पधारे जहाँ पर इन दोनों ने एक लाख रुपये का चौतरा बनवा कर उनको बिठाया। इस प्रकार छः मास के बाद एक समय राजाजी ने बहुत से वीर राजपूतों को इन दोनों के मारने के लिये भेजा । ये दोनों भी बड़े वीर थे । आपने अपने परिवार के सभी व्यक्तियों को मार कर अपने ५०० वीरों सहित लड़कर शत्रुओं का सामना किया और अंत में वीर गति को प्राप्त हुए । इसी अवसर पर रघुनाथ नामक एक सेवक इनके कुटुम्ब की एक गर्भवती स्त्री को लेकर करणी माता के मंदिर में शरण चला गया । उस समय के करणीमाता के मन्दिर के नियमानुसार ये लोग बच गये तथा आगे चलकर इन्हीं के पुत्र भाण हुए जिनसे आगे का वंश चला। उस सेवक के वंशज भाज भी वच्छावतों के सेवक हैं उसके वंश में हाल ही में गंगाराम और गिरधारी हुए हैं जिन्हें राज्य से सम्मान प्र था। इनका पुत्र पृथ्वीराज अब भी मौजूद है । भाण के पुत्र 'जीवराजजी हुए । उनके पुत्र लालचंदजी और उनके प्रपोन पृथ्वीराजजी हुए । आप लोग पहले बीकानेर से अजमेर और फिर घासा ग्राम (मेवाड़) में आरहे । घासा ग्राम में भाकर पहले पहल ये देवारी दरवाजे के मोसल मुकर्रर हुए और फिर जनानी ड्योढ़ी पर मोसल हुए ! पश्चात दरबार के खास रसोड़े के आफिसर बने । इस प्रकार धीरे २ इनकी राणा जी तक पहुँच हो गई । इनके २ पुत्र हुए- अगरचन्दजी और हंसराजजी ।
मेहता अगरचंदजा
मेहता अगरचंदजी और उनके भाई हंसराजजी दोनों ही राज्य में ऊँचे पदों पर रहे। महाराणा अरिसिंहजी ने अगरचन्दजी को मांडलगढ़ की किलेदारी पर तथा उक्त जिले की हुकुमत पर नियुक्त किया । तभी से मांडलगढ़ के किले की किलेदारी इस वंश के हाथ में चली आरही है। ये पहले महाराणा के सलाहकार और फिर दीवान बनाये गये । महाराणा अरिसिंहजी द्वितीय की माधवराव सिंधिया के साथ होनेवाली उज्जैन की लड़ाई में मेहता अगरचन्दजी भी लड़े थे। जब माधवराव सिंधिया ने दूसरी बार घेरा डाला उस समय के युद्ध में भी महाराणा ने इनको अपने साथ रक्खा। महापुरुषों के साथ होनेवाली टोपल मगरी और गंगार की लड़ाइयों में भी ये महाराजा के साथ रहकर लड़े थे । महाराणा हमीरसिंहजी ( दूसरे ) के समय में मेवाड़ की विकट बड़वे अमरचन्दजी के बड़े सहायक रहें । जब शक्तावतों और नोट- भोकाजी भाण को भामाशाह की पुत्री का लड़का होना लिखते है । भोजराज का पुत्र होना लिखा है।
स्थिति सम्हालने में आप पूँढावतों के झगड़ों के पश्चात् आंबाजी
मगर मेहताओं की तवारीख में भाग को
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इंगलिया की आज्ञानुसार उनके नायक गणेशपंत ने शक्तावतों का पक्ष करना छोड़ दिया तथा प्रधान सतीदास और सोमचन्द गांधी के पुत्र जयचन्द उनके द्वारा कैद किये गये उस समय महाराणा भीमसिंहजी में फिर अगरचन्दजी मेहता को अपना प्रधान बनाया । जब सेंधिया के सैनिक लकवादादा और आंबाजी इंगलिया के प्रतिनिधि गणेशपंत के बीच मेवाड़ में लड़ाइयाँ हुई और गणेशपंत वे भागकर हमीरगढ़ में शरण ली तो लकवा उसका पीछा करता हुआ वहाँ पर भी आपहुँचा । लकवा की सहायता के लिये महाराणा ने कई सरदारों को भेजा जिनके साथ अगरचन्दजी भी थे ।
संवत् १८१८ से लगाकर संवत् १८५६ तक ये अपने स्वामी के खैरख्वाह रहे। ये कभी भी अपने मालिक के नुकसान में शरीक न हुए। ये अपने चारों पुत्रों को हमेशा यह उपदेश करते थे कि "मैं रवाही के कारण छोटे दरजे से बड़े दरजे पर पहुँचा हूँ । इसलिये तुम लोगों को भी चाहिये कि चाहे जैसी भयंकर तकलीफें क्यों न उठानी पड़े, हमेशा अपने मालिक के खैरख्वाह बने रहना । इसी में हमारी मेक नामी और इज्जत है।" अगर चन्दजी ने बड़ी २ तकलीफें उठाकर मांडलगढ़के किले को गनीमों के हाथ से बचाया । आप समय २ पर उस परगने के राजपूत और मीणा लोगों की बड़ीर जमायतें लेकर महाराणा की खिदमत में हाजिर होते रहे। ये स्वामी भक्त मुसाहिव प्रधान का अलग किये जाने पर अर्थात् दोनों अवस्थाओं में, अपने मालिक के पूरे खैरख्वाह बने रहे । महाराणा ने भी इनके खानदान की इज्जत बढ़ाने तथा बक्शीश 'में किसी बात की कमी न की आपकी सेवाओं से प्रसन्न होकर महाराणा साहब ने आपको कई रुक्के बक्षे जो हम ओसवालों के राजनैतिक महत्व नामक अध्याय में दे चुके हैं। अपका स्वर्गवास संवत् १८५७ में मांडलगढ़ में हुआ ।
ओहदा मिलने व इससे
मेहता देवीचन्दजी
अगरचन्दजी के पीछे उनके ज्येष्ठ पुत्र देवीचन्दजी मंत्री बने और जहाजपुर का किला इनके अधिकार में रखा गया । इस किले का प्रबंध इनके हाथों में रहने से मेवाड़ को बहुत लाभ हुआ । कारण इस खैरख्वाह वंश के वंशज देवीचन्दजी ने बड़ी बुद्धिमानी से इसकी रक्षा कर शत्रुओं का पूर्णदमन किया और इस सरहद्दी किले को सुरक्षित रक्खा । उन दिनों भवाजी इंगलिया के भाई बालेराव मे शक्तावतों तथा सतीदास प्रधान से मिलकर महाराणा के भूतपूर्व मंत्री देवीचन्दजी को चुँडावतों का तरफदार समझ कर कैद कर लिया। परंतु महाराणा ने उन्हें थोड़े ही दिनों में छुड़वा लिया । झाला जालिम सिंह ने बालेराव आदि को महाराणा की कैद से छुड़वाने के लिये मेवाड़ पर चढ़ाई की जिसके खर्च के लिये उसने जहाजपुर का परगना अधिकार में कर लिया। इसके अतिरिक्त वह माँडलगढ़ का किका
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भी अपने अधिकार में करना चाहता था। महाराणा भीमसिंहजी ने उसके दबाव में आकर माँडलगढ़ की किला उसे लिख तो दिया लेकिन तुरंत एक आदमी के हाथ में ढाल और तलवार देकर उसे माँडलगढ़ में देवीचन्दजी के पास भेज दिया। देवीचन्दजी ने इस बात से यह अनुमान किया कि महाराणा ने मुझे जालिम सिंह से लड़ने का आदेश किया है। 1 इस पर उन्होंने किले का प्रबंध करवाया और वे अपने सामन्तों सहित लड़ने को तयार होगये । इससे जालिमसिंह की मनोकामनाएँ पूरी न होसकीं। जिस समय कर्नल टॉड ने उदयपुर की राज्यव्यवस्था ठीक की उस समय संवत् १८७५ के भाद्रपद शुक्ला पंचमी को पुनः मेहता देवीचन्दजी को प्रधान का खिलअत दिया गया । यद्यपि ये प्रधान बनने से इन्कार करते रहे तिसपर भी महाराणा ने इनकी विद्यमानता में दूसरे को प्रधान बनाना उचित न समझ इन्हें ही इस पद पर रक्खा । इस समय प्रधान तो येही थे लेकिन कुल काम इनके भतीजे शेरसिंहजी देखते थे ! आपकी दो शादियाँ हुई थी, जिनमें से दूसरी शादी मेहता रामसिंहजी की बहन से हुई थी। इनके साले मेहता रामसिंहजी बड़े होशियार और महाराणा के सलाहकारों में से थे। उस समय कुँअर अमरसिंहजी के साह शिवलालजी विश्वसनीय नौकर होने के कारण अपना ढंग अलग ही जमाने लगे उस समय इस अफरा तफ़री को देखकर मेहता देवीचन्दजी ने यह प्रधान का पद अपने साले रामसिंहजी को दिलवा दिया ।
मेहता शेरसिंहजी
महाराणा जवानसिंहजी के
मेहता रामसिंह के स्थान
अगरचन्दजी के तीसरे पुत्र सीतारामजी के बेटे शेरसिंहजी हुए । समय अंग्रेज़ी सरकार के खिराज के ७ लाख रुपये चढ़ गये जिससे महाराणा ने पर शेरसिंहजी को प्रधान बनाया । मगर कप्तान काफ साहब के द्वारा रामसिंहजी की सिफारिश आने से एक ही वर्ष के पश्चात् उन्हें अलगकर रामसिंहजी को पुनः प्रधान बनाया। वि० सं० १८८८ ( ई० सन् १८३ ) ) में शेरसिंहजी को फिर दुबारा प्रधान बनाया । महाराणा सरदारसिंहजी ने गद्दी पर बैठते ही मेहता शेरसिंहजी को कैद कर मेहता रामसिंहजी को प्रधान बनाया। शेरसिंहजी पर यह दोषारोपण किया गया था कि महाराणा जवानसिंहजी के पीछे वे महाराणा सरदारसिंहजी के छोटे भाई शेरसिंहजी के पुत्र शार्दूलसिंहजी को गही पर बैठाना चाहते थे । यद्यपि शेरसिंहजी अपने पूर्वजों की तरह राज्य के खैरख्वाह थे पर कैद की हालत में शेरसिंहजी पर सख्ती होने लगी तब पोलिटिकल एजण्ट ने महाराणा से उनकी सिफारिश की । किन्तु उनके विरोधियों ने महाराणा को फिर भड़काया कि अंग्रेज़ी सरकार की हिमायत से वह आपको डराना चाहता है। अंत में दस लाख रुपये देने का वायदा कर शेरसिंहजी कैद से मुक्त हुए। परन्तु उनके शत्रु उनको मरवा डालने के उद्योग में लगे जिससे अपने प्राणों का भय जानकर वे मारवाद की ओर अपने परिवार
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सहित चले गये। मेहता शेरसिंहजी के भाई मोतीरामजी जो पहले जहाजपुर के हाकिम और मेहता शेरसिंहजी के प्रधानख में शामिल थे, शेरसिंहजी के साथ ही रसोड़े में कैद किये गये थे, कुछ दिनों बाद कर्ण विलास महल के कई मंजिल उपर से गिरजाने के कारण उनका प्राणांत हो गया। यह वह जमाना था जब मेवाड़ में धींगाधींगी मच रही थी और रियासत के कुल सरदार महाराणा के खिलाफ हो रहे थे।
जब महाराणा सरूपसिंहजी का राज्य की आमद और खर्च उचित प्रबन्ध करने का विचार हुआ और मंत्री रामसिंहजी पर अविश्वास हुआ तब उन्होंने मेहता शेरसिंहजी को मारवाड़ से बुलवा कर फिर से अपना प्रधान बनाया। इसके कुछ समय पश्चात् ही मेहता रामसिंहजी का एक इकरार नामा आया। इस इकरारनामे के आने के बाद ही अंग्रेजी सरकार की खिराज के रुपये बाकी रह जाने के कारण मेहता शेरसिंहजी की भी शिकायतें हुई। लेकिन महाराणा के दिल पर इनका कुछ भी असर न पड़ा। इसका कारण यह था कि वे पहले भी अजमेर के जलसे, और तीर्थों की सफर में होनेवाले लाखों रुपये के खर्च का हिसाब जो मेहता शेरसिंहजी के पास था देख चुके थे। वह मेहताजी की इमानदारी का काफी सबूत था। दूसरी बात यह थी कि शेरसिंहजी बहुत मुलायम दिल एवम् मित्रता के बड़े पर थे। यही कारण था कि इनके खिलाफ बहुत लोग न थे। तीसरी बात यह थी कि ये खैरख्वाह अगरचन्दजी के वंशज थे।
महाराणा ने अपने सरदारों की टून्द चाकरी का मामला तय कराने के लिए मेवाड पोलिटिकल एजण्ट कर्नल राबिन्सन से सं० १९०१ में एक नया कौल-नामा तैयार करवाया, जिसपर शेरसिंहजी सहित कई उमरावों के हस्ताक्षर थे ।। शेरसिंहजी ने प्रधान बनकर महाराणा की इच्छानुसार व्यवस्था की और कर्जदारों का फैसला भी योग्य रीति से करवाया।
लावे (सरदारगढ़) का दुर्ग महाराणा भीमसिंहजी के समय में शकावतों ने डोंडियों से छीन कर अपने अधिकार में करालिया था। महाराणा सरूपसिंहजी के समय वहाँ के शकावत रावत चतरसिंह के काका सालमसिंह ने राठोड़ मानसिंह को मार डाला सब उक्त महाराणा ने उनका - कुंडेई गाँव जस कर लिया और चतरसिंह को आज्ञा दी कि वह उसे गिरफ्तार कर ले । चतरसिंह ने महाराणा के हुक्म की तामील न कर सालमसिंह को पनाह दी। इस पर महाराणा ने वि० सं० १९०४ (ई. सन् १४४७) में शेरसिंहजी के दूसरे पुत्र जालिमसिंहजी * को ससैन्य लावे पर अधिकार करने के लिये भेजा । उन्होंने
जालिमसिंहजी मेहता अगरचन्दजी के दूसरे पुत्र उदयरामजी के गोद रहे, परन्तु उनके भी कोई पुत्र न था इसलिये उन्होंने मेहता पन्नालालजी के तीसरे भाई तख्तसिंहजी को गोद लिया। तख्तसिंहजी गिरवा व कपासन के प्रान्तों पर हाकिम रहे तथा महकमा देवस्थान का भी प्रबन्य कई वर्षों तक इनके सुपुंद रहा। महाराणा सज्जनसिंहजी ने इन्हें इज. लासे खास और महद्राज सभा का सदस्य बनाया। ये सरल प्रकृति के कार्य कुशल व्यक्ति थे।
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सवाल जाति का इतिहास
गढ़ पर हमला किया परन्तु अपने ५०, ६० आदमियों के मारे जाने पर भी गढ़ को कुछ भी नुकसान नहीं पहुँचा सके। तब महाराणा प्रधान शेरसिंहजी को वहां पर भेजा। उन्होंने वहाँ जाकर लावे पर अधिकार कर लिया और चतुरसिंह को महाराणा के सामने हाजिर किया । महाराणा ने इनकी इस सेवा से प्रसन्न होकर इन्हें कीमती खिलअत, सीख के समय बीड़ा तथा ताजीम की इज्जत प्रदान करना चाहा । शेरसिंहजी ने खिलअत और बीड़ा तो स्वीकार कर लिया परन्तु ताजीम लेने से इन्कार किया ।
जब महाराणा सरूपसिंहजी ने सरूपशाही रुपया बनवाने का विचार किया उस समय शेरसिंहजी ने कर्नल रविन्सन से लिखा पढ़ी कर इसकी परवानगी मँगा ली थी । जिससे सरूपशाही रुपया बनने लगा ।
वि० सं० १९०७ में ( ई० सन् १८५० ), वितख आदि पालों की भील जाति तथा वि० सं० १९१२ ( ई० सन् १८५५ ) में पश्चिमी प्रान्त के कालीवास आदि स्थानों भील जाति को सजा देने के लिये शेरसिंहजी के ज्येष्ठ पुत्र सवाईसिंहजी भेजे गये, जिन्होंने इन्हें सख्त सजा देकर सीधा किया ।
वि० सं० १९०८ में लुहारी के मीनों ने सरकारी डाक लूट ली जिसकी गवर्नमेंट की तरफ से शिकायत होने पर महाराणा की आज्ञा से शेरसिंहजी के पौत्र ( सवाईसिंहजी के पुत्र ) अजितसिंहजी को, जो उस समय जहाजपुर के हाकिम थे, भेजा । जालंधरी के सरदार अमरसिंह शक्तावत के साथ इन्होंने इस मीना जाति का दमन किया और बड़ी बहादुरी के साथ लड़कर छोटी बड़ी लुहारी पर अपना अधिकार कर लिया । मीने भागकर मनोहर गढ़ तथा देवका खेड़ा में जा छिपे किन्तु इन्होंने वहाँ भी उनका पीछा किया । इतने में मीनों के कई सहायक जयपुर, टोंक और बूँदी इलाकों से आ पहुँचे । दोनों में घमासान युद्ध हुआ, जिसमें अजितसिंहजी के बहुत से सैनिक खेत रहे, तथा बहुत से घायल हुए। इस पर महाराणा की भाज्ञा से शेरसिंहजी ने आकर मीनों का दमन किया। वि० सं० १९१३ में (१८५६ ) महाराणा ने मेहता शेरसिंहजी के स्थान पर उनके भतीजे योकुलचन्द्रजी को प्रधानं नियुक्त किया । सिपाही विद्रोह के समय नीमच की सरकारी सेना ने भी बागी होकर छावनी जला दी और खजाना लूट लिया । डाक्टर मरे आदि कई अंग्रेज़ वहाँ से भागकर मेवाड़ के केपूदा गाँव में पहुँचे। वहाँ भी बागियों ने उनका पीछा किया। कप्तान शावसं मे यह खबर पाते ही महाराणा की सेना सहित नीमच की तरफ प्रस्थान किया । महाराणा ने अपने कई सरदारों को भी उक्त कप्तान के साथ कर दिया । इतना ही नहीं किन्तु ऐसे नाजुक समय में कार्य कुशल मंत्री का साथ रहना उचित समझ कर महाराणा ने शेरसिंहजी को प्रधान की हैसियत से उक्त पोलिटिकल एजण्ट के साथ कर दिये और विद्रोह के शान्त होने तक शेरसिंहजी भी बराबर सहायता करते रहे । निम्बाहेड़े के मुसलमान अफसर के बागियों से मिलजाने की खबर सुनकर कप्तान शावर्स ने
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प्रोसवाल जाति का इतिहास
महताजीसाहब श्रीप्रतापसिंह जी सरकावर्गकी तस्वीरसंबाणी
श्री मेहता प्रतापसिंहजी बच्छावत, उदयपुर.
श्री मेहता लक्ष्मीलालजी बच्छावत, उदयपुर.
श्री मेहता गोकुलचन्दजी प्रधान, उदयपुर.
श्री मेहता मोतीरामजी बच्छावत, उदयपुर.
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मेवादी सेना के साथ वहाँ पर चढ़ाई की। इसमें मेहता शेरसिंहजी अपने पुत्र सवाई सिंहजी सहित शामिल थे। जब निम्बाहेड़े पर कप्तान शार्वस ने अधिकार कर लिया तव शेरसिंहजी सरदारों की जमियत सहित वहाँ के प्रबन्ध के लिये नियत किये गये।
महाराणा मे शेरसिंहजी को अलग तो कर ही दिया था अब उनसे भारी दण्ड भी लेना चाहा । इसकी सूचना पाने पर राजपूताने का एग्जट गवर्नर जनरल जार्ज लारेन्स वि.सं. ९.(ई. सन् १८६०) की । दिसम्बर को उदयपुर पहुंचा और शेरसिंहजी के घर जाकर उसने उनको तसल्ली दी । महाराणा ने जब पोलिटिकल एजण्ट के सम्मुख शेरसिंहजी की चर्चा की तब। पोलीटिकल एजण्ट ने उनके दण्ड लेने का विरोध किया। इसी प्रकार मेजर टेलर ने भी इस बात का विरोध किया जिससे महाराणा और पोलिटिकल एजण्ट के बीच मन मुटाव हो गया जो उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया । महाराणा ने शेरसिंहजी की जागीर भी जब्त करली परन्तु फिर महाराणा शम्भुसिंहजी के समय में पोलिटिकल मॉफिसर की सलाह से उन्हें वह वापिस लौटा दी गई।
.. महाराणा सरूपसिंहजी के पीछे महाराणा शंभुसिंह के नाबालिग होने के कारण राज्य प्रबन्ध के लिये मेवाड़ के पोलिटिकल एजण्ट मेजर टेलर की अध्यक्षता में रीजेंसी बैंसिल स्थापित हुई जिसके और सिंहजी भी एक सदस्य थे । महाराणा सरूपसिंहजी के समय शेरसिंहजी से जो तीन लाख रुपये दणके लिए गये थे वे रुपये इस कौंसिल द्वारा, शेरसिंहजी की इच्छा के विरुद्ध, उनके पुत्र सवाईसिंहजी को वापिस दिये गये। इसके कुछ ही वर्ष बाद शेरसिंहजी के जिम्मे चित्तौर जिले की सरकारी रकम बाकी रह जाने की शिकायत हुई । वे सरकारी तोजी जमा नहीं करा सके और जब ज़्यादा तकाजा हुआ तो सलूम्बर के रावत की हवेली में जा बैठे। यहीं पर इनकी मृत्यु हुई । राज्य की रकम वसूल करने के लिए उनकी जागीर राज्य के अधिकार में करली गई । शेरसिंहजी के ज्येष्ठ पुत्र सवाईसिंहजी उनकी विद्यमानता में ही मर गये थे अतएव अजितसिंहजी इनकी गोद गये पर ये भी निःसंतान रहे तब माँडलगढ़ के चतरसिंहजी उनके गोद गये जो कई वर्षों तक मॉडलगढ़, राशमी, कपासन और कुम्भालगढ़ आदि जिलों के हाकिम रहे। उनके पुत्र संग्रामसिंहजी इस समय महद्वाज सभा के असिस्टेंट सेक्रेटरी हैं। आपने बी. ए. की परीक्षा पास की है। आप बड़े मिलनसार और योग्य व्यक्ति हैं। मेहता गोकुलचन्दजी
हम यह प्रथम लिख ही चुके हैं कि मेहतो गोकुलचन्दजी महाराणा सरूपसिंहजी द्वारा प्रधान बनाये गये थे। फिर वि० सं० १९१६ (ई० सन् १८५९) में महाराणा ने उनके स्थान पर कोठारी केसरीसिंहजी को नियत किया । महाराणा शम्भूसिंहजी के समय वि० सं० १९२० (ई. सन् १८६३)
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मोसवाल जाति का इतिहास
में मेवाड़ के पोलिटिकल एजण्ट ने सरकारी आशा के अनुसार रीजेंसी कौसिल को तोड़ कर उस स्थान में "अहलियान श्री दरबार राज्य मेवाद” नामक कचहरी स्थापित की तथा उसमें मेहता गोकुलचन्दजी और पण्डित लक्ष्मणरावनी को नियत किया । वि० सं० १९२२ में महाराणा शम्भूसिंहजी को राज्याधिकार मिण और इसके एक वर्ष बाद ही उक कचहरी तोड़ दी गई, तथा उसके स्थान पर खास कचहरी स्थापित की। उस समय मेहता गोकुलचन्दजी मांडलगढ़ चले गये । वि० सं० १९२६ (ई. सन् १८६९ ) में कोठारी केशरीसिंहजी ने प्रधान पद से इस्तीफा दे दिया तो महाराणा ने वह कार्य फिर मेहता गोकुलचन्दजी तथा पण्डित लक्ष्मणराव को सौंपा। बड़ी रूपाहेली और लावा वालों के बीच कुछ जमीन के बाबत सगड़ा होकर छड़ाई हुई जिसमें लांबा वालों के भाई आदि मारे गये। इसके बदले में रूपाहेली का तसवारिया गांव कोना बालों को दिलाने की इच्छा से रूपाहेली वालों को लिखा गया; पर रूपाहेली बालों के न मानने पर गोकुचन्दजी की अध्यक्षता में मेवाड़ की सेना ने रूपाहेली पर आक्रमण कर दिया। वि० सं० १९३॥ (ई. सन् १८७४ ) में मेहता पक्षालालजी के कैद किये जाने पर महकमा खास के काम पर मेहता गोकुलचन्दजी तथा सही वाला अर्जुनसिंहजी की नियुक्ति हुई। इस कार्य को मेहता गोकुलचन्दजी कुछ
समय तक करते रहे। वहीं पर संवत् १९३५ में आपका स्वर्गवास हुभा। • मेहता पचालालजी
___ मेहता पन्नालालजी, मेहता भगरचन्दजी के छोटे भाई हंसराजजी के वंश में बच्छावत मुरलीधरजी के पुत्र थे। आप बड़े राजनीतिज्ञ, समझदार तथा योग्य व्यक्ति थे। आप भी अपने पूर्वजों की तरह बड़े यशस्वी रहे। आप वि० सं० १९२६ (ई. सन् १८६९ ) में महाराणा शम्भुसिंहजी द्वारा महकमा खास के सेक्रेटरी बनाये गये। इसके पूर्व खास कचहरी में भाप असिस्टेण्ट सेक्रेटरी का काम कर चुके थे। महकमा खास के स्थापित होने के थोड़े समय पश्चात् से ही प्रधान का पद तोड़ कर सब काम महकमा खास के सुपुर्द किया।
पालालजी ने महकमा खास में अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए इसकी व्यवस्था भन्छी तरह से की तथा आपकी वजह से प्रति दिन इसकी उन्नति होने लगी। महाराणा की इच्छानुसार मालगुजारी में भनाजबांटने के काम को बंद कर ठेकेबंदी द्वारा नगद रुपये लिये जाने के लिये इन्होंने कोठारी केशरीसिंहनी की सलाह से दस साल पीछे की आमदनी का औसत निकाल कर बड़ी बुद्धिमानी से सारे मेवाड़ में ठेका बाँध दिया। कोठारी केसरीसिंहजी के पश्चात् माल महक्मा के ऑफिसर कोठारी छगनलालजी तथा मेहता पत्रालालजी रहे।
महाराणा ने पोलिटिकल एजेन्ट की सलाह से उदयपुर में कांटा कापम कर मेवाड़ की बेतरतीब
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वं पुराने ढंग से बाहिर जानेवाली अफीम को रोक दिया, जिससे सारी अफीम उदयपुर होकर भामदाबाद जाने लगी। इस काम में पन्नालालजी ने बहुत हाथ बटाया। इससे राज्य की मामदनी भी खूब बड़ी । भापकी इन सेवाओं से प्रसन्न होकर भापको पहिले की जागीर के अतिरिक्त तीन गाँव अच्छी आमदनी के
और प्रदान किये और 'शम्भुनिवास' में इन्हें सोने का लंगर पहनने का सत्कार प्रदान किया। इनकी इस प्रकार बढ़ती हुई हालत को देखकर इनके बहुत से विरोधियों ने महाराणा को इनके खिलाफ सिखाया और इन बड़े २ ऑफिसरों से यात्रा के रुपये माँगने को कहा। इसी सिलसिले में इनसे १२००००) एक शाख बीस हजार रुपयों का रुक्का भी लिखवा लिया था। परंतु पीछे से महाराणा ने १००००) चालीस हजार रुपयों के अलावा सब छोड़ दिये। ..
मेहता पालाजो ने अपनी परिश्रम शीलता, प्रबंध कुशलता एवम् योग्यता से महाराणा साहब को समय र पर हानि कामों को बतलाते हुए राज्य की नीव बहुत मजबूत करदी । ऐसा करने में कोगों के स्वार्थों पर आघात पहुंचा और उन्होंने फिर इनके विरुद्ध शिकायतें शुरू करदी। उन्होंने महाराणा को न्यावस्था में यह कह कर बहकाया कि ये तो रिश्वत खाते हैं और भाप पर जादू कर रक्खा है। इन बातों में भाकर महाराणा ने इन्हें वि० सं० १९३१ भाद्रपद वदी १५ को कर्णविलास में कैद किया। तहकीकात करने पर ये उक्त दोनों बातों से निर्दोष ठहरे लेकिन इनके इतने शत्रु हो गये थे जो प्राण लेने तक को तयार थे। ऐसी परिस्थिति में पोलिटिकल एजंट की सलाह से आप कुछ समय के लिये अजमेर जाकर रहने लगे।
मेहता पन्नालालजी के कैद हो जाने पर महकमा खास का काम राय सोहनलाल कायस्थ के सुपुर्द हुआ। परन्तु उनसे काम न होता देख वह काम मेहता गोकुलचन्दजी और सही वाले भर्जुनसिंहजी को दिया। मेहता पत्रालालजी के अजमेर चले जाने के पश्चात् से महकमा खास का काम ठीक तरह से म पलता देख कर महाराणा सजनसिंहजी के समय पोलिटिकल एजंट कर्नल हर्बट ने वि० सं० १९३२ में उन्हें अजमेर से खुलवा कर फिर महकमा खास का काम सुपुर्द किया। .
मापने महकमा खास के भार को सम्हालकर कई नवीन काम किये। भापने संवत् १९३५ में पहले पहल स्टेट में सेटलमेंट जारी किया तथा इससे अप्रसन्न जाट-बलाइयों को बड़ी बुद्धिमानो एवम् होशियारी से इसके सानि-लाभ समझा बुझाकर शांत किया । साथ ही सेटलमेंट को पूर्ववत् ही जारी रखा । भापने शिक्षा विभाग में भी सुधार किया। यहाँ के हायस्कूल युनिवर्सिटी से सम्बन्धित किये गये और महाराणा की मृत्यु पर बाँटे जाने वाले १०) प्रति ब्राह्मण की पद्धति को कम कर ) प्रति ब्राह्मण कर बहुत बड़ी रकम स्कूल, भस्पताल आदि अच्छे कामों में खर्च करने के लिए बचाली। जिलों में स्कूल और
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पोसवाल जाति का इतिहास
हास्पिटश खोके । इनके सर्च के लिये यहाँ के किसानों पर पाव आने से लेकर एक आना प्रति रुसवा हिसाब से कुल आमदनी पर न बैठाया। इस प्रकार के आपने कई काम किये ।।
यद्यपि मेहता गोकुलचन्दजी के बाद प्रधान का पद किसी को नहीं मिला परन्तु पक्षालजी को महाराबा की भोर से प्रधान के समान ही इजत प्रदान की गई थीं। भारत गवर्नमेंट ने आपको 'राय' की पदवी दी। वि.सं. १९५७ में भाप नवीन स्थापित महदाज सभा के सदस्य बनाये गये। इसी समय आपको भारत सरकार की घोर से C.IE.की पदवी प्रदान की गई । भापके कार्यों से क्या पोलिटिकल एजंट, क्या वाइसराय, क्या ए० जी० जी० सभी प्रसन्न रहा करते थे। तथा समय समय पर उक्त उच्च पदाधिकारियों ने कई सर्टिफिकेट आपको दिये हैं। इन में से हम कुछ यहाँ पर पाठकों की जानकारी के लिये देते हैं।
पोलिटिकल एजंट ने १० दिसम्बर सन् १९८७ के टाइम्स ऑफ इन्डिया में इस प्रकार लिया है:
"Rai Pannalal is an intelligent, energetic and hard working officer and has rendered great assistance to the Political Agent in the administration of the State during the minority. He is the only person capable of holding the high post, he now occupies in the State." 1-एक और सम्माननीय उचे अफसर आपके विषय में लिखते हैं:
"He has fully justified the high opinion thus expressed of him: he is undoubtedly very able. He is thoroughly acquainted with the people of the Country: aud they in return have considerable confidence in him.' इसी प्रकार कर्नल हचिसन अटक की होटल से सन् १८७३ की ता. २२ मई को लिखते हैं:
"I must send you a line before I leave India to tell you that in my opinion, you discharged the wonderous and important duties, entrustd to you by His Highness the Maharana, faithfully and well. I trust you wlil continue the merit and the confidence of His Highness and that you will remember that your acts are watched by both friends and enemies; any fail. ing, therefore, will pain the one and give the other the opportunity which they will not be slow to use against you. I also hope that you will endeavour to bring the measures introduced during my incumbencey the
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० मेहता सुरलीधरजी बच्छावत, उदयपुर.
स्व० राय पन्नालालजी मेहता सी. आई. ई., उदयपुर.
मेहता फतेलालजी, उदयपुर.
कुं० देवीचंदजी मेहता, उदयपुर.
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perfection and let them not become merely nominal. Remember that the great aim of life is to succeed, not to commence a good work and leave it unfinished."
With best wishes and kind regards.
इसी प्रकार मि० जी० एच० ट्रेव्हर ए० जी० जी० राजपूताना ने लिखा है:
"Rai Pannalal Mehta C. I. E. has been the chief official of the Odeypore Darbar for, I believe, about twenty five years and, has been highly praised for 'his abilities by successive Residents. He now retires from the office having been held in High Estimation by the Government and the regret of many friends in Mewar.
My best wishes attends. I trust he will find pease and repose after his long distinguished career.
बच्छाव
अब महाराणा सज्जनसिंहजी का स्वर्गवास हुआ तबतक उन्होंने किसी को भी अपना उत्तरा धिकारी बनाने की इच्छा प्रगट नहीं की। मेवाड़ में ऐसा नियम चला आता है कि गढ़ी काकी न रहे। मह समय जरा कठिनाई का था लेकिन पन्नालालजी की कार्य दक्षता के कारण महाराणा फतेसिंहजी उसी रोज राजगद्दी पर विराज गये। इस बात की प्रशंसा गवर्नर जनरल ने भी की थी।
श्रीयुत पखालालजी ने अपने पिताजी की यादगार में नाथ द्वारा में एक सदाव्रत खोला। जिससे गरीब लोगो को सीधा ( पेव्या) दिया जाता है। आपने बादी के नाम से उदयपुर में एक मशहूर बगीचा बनाया; एक बावड़ी और धर्मशाला भी बनवाई। वहाँ के शिला लेख से प्रतीत होता है कि आपने उदयपुर नगर की बाड़ी नाथ द्वारा के मन्दिर को भेंट की है। धार्मिक काव्यों पर भी पूरा लक्ष्य था । आपने चारों धामों की यात्रा की थी । आप पूरे बोधसिंहजी के विवाहों पर महाराणा साहब स्वयं ही समय आपके पुत्र तथा भतीजे को पैरों में पहनने को स्वर्ण देकर सम्मानित किया था ।
आपका पितृभक्त थे जनाने सहित
।
ऐसे बहुत कम अवसर आते हैं कि एक व्यक्ति अपने ही समय में चार पुस्तों को देख सके । मगर यह सीमाम्ब भी आपको प्राप्त था। आपके समय में आपके प्रपौत्र भी मौजूद थे। जिस समय आपके प्रपीत्र हुए उस समय आप सोने की निसरनी पर चढ़े और उस निसरनी के टुकड़े कर वितरण करवा दिये थे। इसी समय उदयपुर की समग्र ओसवाल जाति में भी पीढ़िये मोड्ने बटवाये थे ।
२३.
आपके पुत्र फतेलालजी तथा भतीजे आपकी हवेली पर पधारे थे और दोनों
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प्रोसवाल जाति का इतिहास
हंसराजी के दूसरे पुत्र मेरूदासजी और तीसरे पुत्र भवानीदासजी हुए । आप लोग चित्तौड़गढ़ के पाटवण पोल नामक स्थान पर मोसल नियुक्त हुए । वहाँ आप लोग आजन्म तक वह काम करते रहे । इस वंश में भाणजी हुए उनके पुत्र शंकरदासमी के वंशज इस समय उदयपर में विद्यमान हैं। जिनमें से मेहता भोपालसिंहजी को राज से जागीर दी गई है। मेहता फतेलालजी .. .
मेहता फतेलालजी अपने योग्य पिता के योग्य पुत्र हैं। आपके जीवन के अंतर्गत कई ऐसी विशेषताएं हैं जो प्रत्येक नवयुवक के लिये उत्साह वर्द्धक हैं। आप बाल्यकाल से ही बड़े प्रतिभा सम्पन्न रहे हैं। आपका जन्म संवत् १९२४ की फाल्गुन शुक्ला चतुर्थी को हुआ था। केवल १२ वर्ष की उम्र में आपकी अंग्रेजी योग्यता को देखकर मेवाड़ के तत्कालीन सेटलमेंट अफसर मि० ए० विंगेट साहब मुग्ध हो गये थे और उन्होंने भापको एक अच्छा सर्टिफिकेट दिया था। आपका प्राथमिक शिक्षण बनारस के पं. जगनाथजी झाड़खण्डी के संरक्षण में हुआ था। केवल १३ वर्ष की उम्र में महाराणा साहब ने आपको पैरों में सोना वख्शा।
____आपका साहित्यिक जीवन भी बड़ा उज्वल रहा है। केवल तेरह वर्ष की आयु में आपने उदयपुर में बुद्धि प्रकाशिनी सभा की स्थापना की । जब भारतेंदु बाबू हरिश्चन्द्र उदयपुर पधारे थे, उस समय आप ने उनके स्मारक में हरिश्चन्द्र आर्य विद्यालय की स्थापना की जो अभी तक अच्छी तरह चल रहा है। आपने हिंदी और अंग्रेजी में कुछ पुस्तकें भी लिखी हैं जिनमें सज्जन जीवन चरित्र और Hand Book of Mewar उल्लेखनीय हैं। Hand Book of Mewar के विषय में बहुत से अंग्रेज और देशी विद्वानों ने यहाँ तक कि ज्यूक ऑफ केनॉट, लार्ड डफरन, कार्ड लेन्स डाउन, भारतवर्ष के सेनापनि लाई रास, बम्बई के गवर्नर लाई रे भादि सजनों ने सर्टिफिकिट प्रदान किये हैं। विलायत के कई समाचार पत्रों में इसकी आलोचना की छपी है । श्रीमान ज्यूक ऑफ केनॉट जब उदयपुर पधारे तब आपकी सेवाओं से वे बड़े प्रसबहुए और उसके लिये उन्होंने आपको एक रत्नजटित लॉकेट उपहार में दिया।
सन् १८९४ के दिसम्बर मास में आप जब बनारस गये सब काशी नागरी प्रचारिणी के एक विशेष अधिवेशन में आप सभापति बनाये मये। इस सम्मान को आपने बड़ी योग्यता से मिलाया।
जव उदयपुर में वॉल्टर हास्पीटल का बुनियादी पत्थर रखने के लिये कार्ड अलि और लेखी स्फरिन भाये तब आपने महाराणा की तरफ से वाइसराय महोदय को अंग्रेजी में भाषण दिया । यहाँ पर यह बतलाना जरूरी है कि यह पहला ही समय था जब मेवाड़ के एक नागरिक ने ऐसे बड़े मौके पर अंग्रेजी
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ओसवाल जाति का इतिहास
मेहता तख़्तसिंहजो बच्छावत, उदयपुर,
मेहता नवलसिंहजी बच्छावत, उदयपुर.
मेहता उदयलालजी बच्छावत, उदयपुर.
मेहता जोधसिंहजी बच्छावत, उदयपुर.
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बच्छावत
मैं भाषण दिया हो। इसके बाद भी आपने कई अवसरों पर अत्यन्त सफलता के साथ महाराणा साहब की तरफ से भाषण दिये ।
आपके साहित्यक जीवन का एक नमूना आपकी वृहद् लायब्ररी व आपकी चित्र शाला है। इस पुस्तकालय में आपने कई हस्तलिखित प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों का तथा कई मवीन और प्राचीन अंग्रेजी, हिन्दी और उर्दू की ऐतिहासिक, धार्मिक, राजनैतिक इत्यादि सभी विषय की पुस्तकों का संग्रह किया है। जिसके लिये आपको बहुत धन और श्रम खर्च करना पड़ा। इसी प्रकार आपकी चित्रशाला में मेवाड़ के महाराणा सांगा से लेकर अब तक के करीब २ सभी महाराणाओं के तथा आपके पूर्वजों में करमचन्दजी बच्छावत से लेकर अभी तक के बहुत से चित्र आइल पेंट किये हुए ढंग रहे हैं।
साहित्यिक जीवन की तरह आपका धार्मिक जीवन भी बड़ा अच्छा रहा है । आप श्री वल्लभ सम्प्रदाय के अनुयायी हैं । मगर फिर भी आप को किसी दूसरे धर्म से रागद्वेष नही है । योगाभ्यास के विषय में भी आपकी अच्छी जानकारी है । आप के योगाभ्यास को देख कर आयलॉजिकल डिपार्टमेंट के डायरेक्टर जनरल बहुत मुग्ध हुए। थे ।
आपका राजनैतिक जीवन भी उदयपुर के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण है । उदयपुर के राजकीय वातावरण में आपकी बड़ी इज्जत और प्रतिष्ठा है । सब से पहले आप गिरवा जिले के हाकिम बनाये गये । उसके पश्चात् आप क्रमशः महकमा देवस्थान और महकमा माल के अफसर रहे। फिर महद्वाज सभा के मेम्बर हुए; जो अभी तक हैं। दिल्ली के अन्दर देशी रियासतों का प्रश्न हल करने के लिये बटलर कमेटी के सम्बन्ध में चेम्बर ऑफ प्रिन्सेस की ओर से जो स्पेशल ऑर्गेनिज्ञेशन् हुआ था, उसमें मेवाड़ राज्य की तरफ से जो कागजात भेजे गये थे, उनको महाराणा की आज्ञानुसार आप ही ने तयार किये थे । इन कागओं को लेकर आपही रियासत की तरफ से देहली गये थे । महाराणा साहब ने आपको दोनों पैरों में सोना, कई खिलअतें व पोशाकें, दो सुनहली मूठ की तलवारें, एक सोने की छड़ी, पगड़ी में बाँधने को मांझे की इज्जत बैठक की प्रतिष्ठा, बलेणा घोड़ा इत्यादि कई सम्मानों से सम्मानित किया । आपका विवाह संवत् १९३७ में शाहपुरा में हुआ । इस विवाह से आपको दो पुत्र हुए जिन के नाव कुँवर देवीलालजी और कुँवर उदयलालजी हैं। देवालालजी ने बी० ए० पास किया है ! आप महकमा देवस्थान के हाकिम रहे । उदयलालजी ने एफ० ए० पास किया और उसके पश्चात मेवाड़ के भिन्न २ जिलों के हाकिम रहे । देवीलालजी के कन्हैयालालजी और गोकुलदासजी दो पुत्र हैं । कन्हैयालालजी बी० ए० पास करके वैरिस्टरी पास करने विलायत गये हैं । कुँवर गोकुलदासजी एफ० ए० में पढ़ रहे हैं। आप दोनों भाइयों को भी दरवार ने बैठक की इज्जत वख्शी है ।
ऊपर मेहता फतेलालजी का परिचय बहुत ही संक्षिप्त में लिखा गया है । आपका साहित्य प्रेम इतना बढ़ा हुआ है कि उसका पूरा वर्णन किया जाय तो एक बड़ी पुस्तक तयार हो सकती है। देशी और विलायती भाषा के कई पत्रों में कई अवसरों पर आपके जीवन पर भाषा की पुस्तक में भी आपके जीवन पर टिप्पणी निकली हुई है। हास लिखने को आपके पास गये तो आपने पुराने कागज पत्रों के हो गये। इतनी बड़ी खोजपूर्ण सामग्री सिवाय बाबू पूरणचन्द्रजी नाहर के हमें और कहीं भी देखने
नोट निकले हैं। जब हम लोग
एक रूसी और इटली आपके कुटुम्ब का इतिदफ्तर खोल दिये, जिन्हें देख कर हम
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ओसवाल जाति का इतिहास
को नहीं मिली। इस प्रकार आपका जीवन क्या साहित्यिक, क्या धार्मिक और क्या राजनैतिक सभी दृष्टियों से बड़ा महत्व पूर्ण रहा है।
सेठ हीरालालजी पन्नालालजी वच्छावत, कुन्नूर (नीलगिरी)
इस परिवार का निवास फलोदी (मारवाड़) है। भाप जैन मंदिर मार्गीय आन्नाय के मानने वाले हैं। इस परिवार के सेठ धीरजमलजी और उनके पुत्र दुलीचन्दजी फलोदी में ही रहते रहे । दुलीचंदजी के पुत्र सेठ खींवराजजी मारवाड़ से व्यापार के निमित्त संवत् १९६५ में एक लोटा डोर लेकर कमाने के लिए बाहर निकल पड़े, और साहस तथा परिश्रम पूर्वक हज़ारों मील का रास्ता तय करके आप मैसूर प्रान्त की
ओर आये, और वहाँ व्यापार में अच्छी सम्पत्ति उपार्जित की। वैद्यक का भी आप अच्छा ज्ञान रखते थे। संवत् १८७५ में आप स्वर्गवासी हुए।
सेठ खींवराजी बच्छावत के पुत्र मुलतानचन्दजी का जन्म संवत् १८६७ में हुआ। आप रीयाँवाले सेठ चन्दनमल धनरूपमल की इन्दौर तथा उज्जैन दुकानों पर मुनीमात करते थे। शरीर विज्ञान और वैद्यक का आपको ऊँचा ज्ञान था। संवत् १९६५ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके चुनीलालजी मोती. लालजी, तेजकरणजी, चौथमलजी, हीरालालजी और सुगनचन्दजी नामक ६ पुत्र हुए। इन बन्धुओं में से मोतीलालजी ने उज्जैन में, चौथमलजी ने खामगाँव में तथा सुगनचंदजी ने अमरावती में दुकानें खोली और तेजकरणजी रीयाँवालों की दुकानों पर मुनीमात करते रहे ।
सेठ मोतीलालजी बच्छावत के छोगमलजी, माणिकलालजी और दीपचंदजी नामक पुत्र हुए, इनमें छोगमलजी, चुनीलालजी के नाम पर दत्तक गये । इस समय आप बन्धुओं के यहाँ मोतीलाल माणकलाल के नाम से उज्जैन में व्यापार होता है। छोगमलजी के पुत्र फूलचन्दजी लालचन्दजी, राजमलजी हैं, इनमें राजमलजी कोयम्बटूर में कपड़े का व्यापार करते हैं।
सेठ चौथमलजी वच्छावत खामगाँव के माहेश्वरी, अग्रवाल और ओसवाल समाज में वज़नदार पुरुष हुए, आपके छोटे भ्राता हीरालालखी के पनालालजी तथा चाँदमलजी नामक २ पुत्र हुए, इनमें पन्नाकालजी, चौथमलजी के नाम पर दत्तक गये। पचालालजी का जन्म संवत् १९४७ में हुआ।
सेठ चौथमलजी के गुजर जाने बाद सेठ पनालालजी ने खामगाँव से दुकान उठाकर सेठ कैशोरामजी पोहार कलकत्ते वालों के यहाँ ६ सालों तक श्यूगर विभाग में नौकरी की। पश्चात् सन् १९११ में फलोदी निवासी सेठ मिश्रीमलजी वेद, जेठमलजी झाबक तथा आपने मिलकर मेमर्स लालचन्द शंकरलाल एण्ड कंपनी के नाम से कुन्नूर (उटकमंड) में बेकिंग कार-बार खोला, और इस फर्म ने अपने मालिकों की होशियारी तथा व्यापार चतुराई के बल पर अच्छी उन्नति प्राप्त की, इस समय नीलगिरी प्रति के व्यापारियों में यह नामाक्षित फर्म मानी जाती है। इस फर्म का विजिनेस अंग्रेज़ी ढंग के बेटिग सिस्टम से होता है। कुलर तथा ऊटकमंड के बड़े २ प्लांटर्स, एंजिनियर्स एवं अंग्रेज़ आफीसरों से इस फर्म का लेन-देन रहता है। सेठ पन्नालालजी बच्छावत व्यापार चतुर और हियाववाले व्यक्ति हैं, आपने अपने छोटे भाता चाँदमलजी के पुत्र बालचंदजी को दत्तक लिया है। आपकी वय २७ साल की है। श्रीबालचन्दजो शिक्षित तथा योग्य व्यक्ति हैं, आप कुबर म्यूनिसिपेलिटी के मेम्बर हैं। आपके पुत्र निहालचंदजी होनहार बालक हैं।
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बोथरा
हम ऊपर बच्छावतों के इतिहास के बोथरा गौत्र की उत्पत्ति का विवरण प्रकाशित कर चुके हैं। इसी बोधरा गौत्र में से बच्छावत गौत्र की उत्पत्ति हुई है। यहाँ हम पाठकों की जानकारी के लिए बोथरा गौत्र पर ऐतिहासिक प्रकाश डालने वाली कुछ सामग्री पाने उनके कुछ शिलालेख प्रकाशित करते है। - पहला शिलालेख नागौर के दफ्तरियों के मोहल्ले में श्री आदिनाथजी के मन्दिर में लगा है।
दूसर शिलालेख बीकानेर के आसानियों के मोहल्ले में बांठियों के उपासरे के पास पंच तार्थियों पर श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथजी के मन्दिर में है। जिसकी नकल निन्न प्रकार है।
(1) संवत् १५३४ वर्षे आषाढ़ सुदि २ दिने उपकेशवंशे बोथरा गौने शा. जेसा पु० थाहा सुश्रावरेण भा० सुहागदे पुत्र देल्हा मानी वाकि युतेन माता लखी पुण्यार्थ श्री श्रेयांस विम्ब करिते प्रतिष्ठित श्री खरतरगच्छे श्री जिनचन्द्रसूरि पट्टे श्री जिनचन्द्रसूरि भिः
(२) संवत् १५३६ वर्षे फा० सु० ३ दिने उकेश....."रा गौत्रे सा दूल्हा पुण्यार्थ पुत्र सा० अभयराज तद् मातृ ली....."पुतेन श्री नेमीनाथ बिम्बं का०प्र० श्री स्वरतरदच्छ श्री जिनभद्रसूरि पढे श्री जिनचन्द्र सूरिभिः- ॥श्री॥
उपरोक्त लेखों से पाठकों को उस समय के आचारय और बोथरा वंश के पुरुषों के नाम का पता चल जाता है। इसी प्रकार और भी कई शिलालेख इस वंश के मिलते हैं जो स्थानाभाव से यहाँ नहीं दिये गये। अब हम इस वंश के वर्तमान समय के प्रसिद्ध परिवारों का परिचय दे रहे हैं।
श्रीलालचंद अमानमल बोथरा गोगोलाव करीब २५० वर्ष पूर्व इस परिवार के पुरुष बीकानेर भाये। वहां वे ५० वर्ष तक रहे । पश्चात् फिर वहां से भग्गू में, जिसे बढ़ागांव भी कहते हैं, आये। इसके ०५ वर्ष वाद याने भाज से करीव १२५ वर्ष पूर्व गोगोलाघ नामक स्थान में आकर बसे, तबसे आप लोग वहीं रह रहे हैं। इस वंश वालों ने भग्णू में एक कुवा बनवाया था, जो आज भी बोथरा कुआ कहलाता है । खेमराजजी
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ओसवाल आति का इतिहास
भमा में रहे, इनके पुत्र भीमराजजी वहाँ से गोगोलाव आये । भीमराजजी के पुत्र मोतीचन्दजी के चार पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः सेठ लालचन्दजी, गुलाबचन्दजी, पीरचन्दजी, और पनराजजी थे। वर्तमान परिचय लालचन्दजी के परिवार का है।
सेठ लालचन्दजी का जन्म संवत १८८१ का था। जब आप २५ वर्ष के थे, उस समय म्या. पार के लिये बंगाल प्रान्त के चीलमारी नामक स्थान पर गये। वहाँ जाकर टोडरमलजी वागचा नसरा के साझे में लालचन्द टोडरमल के नाम से साधारण फर्म स्थापित की। यह फर्म ६ वर्ष तक कपड़े का व्यापार करती रही। पश्चात् भाप दोनों ही भागीदार अलग अलग हो गये। सेठ लालचन्दजी ने अलग होते ही अपने पुत्र अमानमलजी के नाम से संवत् १९२१ में लालचन्द अमानमल के नाम से अपनी स्वतन्त्र फर्म खोली। इस बार इस फर्म में बहुत लाभ रहा। अतएव उत्साहित होकर संवत् १९४८ में चीलमारी ही में एक प्रांच और मेघराज दुलीचन्द के नाम से स्थापित की और उस पर कपड़े का व्यापार प्रारम्भ किया। इसके पश्चात् संवत् १९५३ में आपने अपने व्यापार को विशेष उत्तेजन प्रदान किया, एवम् कलकत्ते में लालचन्द अमानमल के नाम से अपनी एक फर्म और खोली। इस फर्म पर चलानी का काम प्रारम्भ किया गया। लिखने का मतलब यह कि भापने व्यापार में बहुत सफलता प्राप्त की । हजारों लाखों रुपयों की सम्पत्ति उपार्जित की। यही नहीं बल्कि उसका सदुपयोग भी अच्छा किया । भापने संवत् १९३६ में श्री सम्मेद शिखरजी का एक संघ निकाला था। भापका स्वर्गवास संवत् १९५४ में हो गया। आपके सेठ अमानमलजी और मेघराजजी नामक दो पुत्र हुए।
सेठ अमानमलजी और मेघराजजी दोनों भाई भी अपने पिताजी की भाँति योग्य और होशिपार रहे। आप लोगों के समय में भी फर्म की बहुत उन्नति हुई। आप लोगों ने संवत् १९५७ में माणक्याचर मामक स्थान पर उपरोक्त नाम से अपनी फर्म की एक शाखा खोल कर जूट कपड़ा एवम् ध्याज का काम प्रारम्भ किया। इसी प्रकार संवत् १९६१ में भी सुनामगंज में इसी नाम से फर्म खोक कर उपरोक न्यापार प्रारम्भ किया। इसी प्रकार संवत् १९०१ में राम इमरतगंज (मैमनसिंह) में संवत् १९८० में वक्षीगंज (रंगपुर) में, संवत् १९८१ में कालीबाजार ( रंगपुर) में अपनी फर्म की प्राचे खोली
और इन सब पर जूट व्याज और गिरवी का काम प्रारम्भ किया। जो इस समय भी हो रहा है । सेठ भमानमलजी का स्वर्गवास संवत् १९८४ में हो गया। सेठ मेघराजजी इस समय विद्यमान है।
सेठ अमानमराजी वदे मल व्यापारी और प्रतिभाशाली म्यक्ति थे। जोधपुर स्टेट एवम् वहाँ की प्रजा में भापका बहुत सम्मान था। एक बार का प्रसंग है कि गोगोलाब के जाटों का मामला जोधपुर कोर्ट तक हो आया मगर उसका कोई संतोषजनक फैसला नहीं हुआ। इस मामले को मापने पंचायत के
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ओसवात्न जाति का इतिहास
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श्री अमरचंदजी बोथरा (लालचंद अमानमल) गोगोलाव.
स्वीय सेठ मुलतानमलजी बोथरा, नागोर.
मेहता गोपालसिंहजी बोथरा, उदयपुर,
श्री लक्ष्मीलालजी बोथरा, ऊटकमंड (नीलगिरी)
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बोयरा
द्वारा बड़ी बुद्धिमानी भौर होशियारी से निपटा दिया। एक बार बंगाल सरकार ने भी भापके कार्यों की प्रशंसा में प्रमाण पत्र दिया था। आपके स्मारक स्वरूप इस कुटुम्ब ने पावापुरी, चम्पापुरी एवम् चांवा नामक तीर्थ स्थानों पर कोठड़ियाँ बनवाई है। सेठ भमानमलजी के दुलिचन्दजी, छोगमलजी, भैरोंदानजी, मुकुनमलजी, रिखबचन्दजी और हीराचन्दजी नामक छ, पुत्र हैं। सेठ मेघराजजी के सुगनमजी, रूपचन्दजी और अमरचन्दजी नामक तीन पुत्र हैं। भाप सब लोग सज्जन और व्यापार कार्यकर्ता है। भाप लोगों की भोर से गोगोलाव में सार्वजनिक कार्यों की भोर अच्छी सहायता प्रदान की जाती रहती है। इस कुटुम्ब के व्यापार का हेड भाफिस चीलमारी में है । इसके अतिरिक्त कलकत्ता, चीलमारी बाँच, माणक्याचर, सुनामगंज, बक्षीगंज, दांताभांगा, काली बाजार, उलीपुर, रामइमरतगंज इत्यादि स्थानों पर मित मित्र नामों से फर्मे खुली हुई हैं। इन सब पर बैंकिग जूट, कपड़ा, म्याज, गिरवी और जमींदारी का काम होता है। कलकत्ता का सार का पता Gogolawbasi है।
सेठ रावतमल मुलतानमल बोथरा नागोर बोथरा सवाई रामजी के पूर्वज बदलू ( मारवाद) में रहते थे, वहाँ से यह कुटुम्ब पलाय (नागौर के समीप) भाया और वहाँ से बोधरा सवाईरामजी के पुत्र रावतमलजी तथा मुलतानमलजी संवत् १९६१ में नागोर आये।
बोथरा सवाई रामजी के रावतमलजी, मुलतानमलजी, जवाहरमलजी, परतापमलजी तथा मोती. पन्दजी नामक ५ पुत्र हुए। इन बन्धुओं में से ५०६० साल पहिले सेठ जवाहरमलजी पीलमारी (बंगाल ) और रावतमलजी रंगपुर (बङ्गाल ) गये, तथा वहाँ पाट का व्यापार शुरू किया । धीरे २ संवत् १९९६ में भापकी कलकत्ता तथा बंगाल में कई स्थानों पर दुकानें खुली। इन बन्धुओं के स्वर्गवासी होने पर बोथरा सुगनमलजी ने इस कुटुम्ब के व्यापार को अच्छी तरह संभाला। सेठ रावतमळजी का स्वर्ग १९६४ में, मुलतानमरूजी का १९८६ की कार्तिक सुदी । को, जवाहरमरूजी का १९०१ में, मोतीचन्दजी का १९५९ में तथा परतापमलजी का १९५२ में हुभा। सेठ मुलतानमकी नागौर में धर्मभ्यान में तमा परोपकार में जीवन बिताते रहे, आप यहाँ के इज्जतदार व प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। बोथरा रावतमलजी ने रंगपुर में व्यापार के साथ २ सरकारी भाफिसरों में इज्जत व नाम पाया, आप भोसवाल भाइयों पर विशेष प्रेम रखते थे।
वर्तमान में इस परिवार में रावतमलजी के पुत्र गोपालमजी तथा सुगनमलजी, मुलतानमलजी के पुत्र मुकुन्दमलजी, उदयचन्दजी, चन्दनमलजी और लक्ष्मीचन्दजी, बोथरा जवाहरमलजी के पुत्र अमोलख
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লীনা জারি কা হাটহাত
चन्दजी, मोतीचन्दजी के पौत्र (विजयमलजी के दनक पुत्र) हस्तीमलजी और परतापपरूजी के पुत्र ममराजजी हैं। विजयमलजी का 1९०५ में केवल १९ साल को वयमें शरीरान्त हुआ इनके नाम पर हस्तीमलजी को दत्तक लिया है। यह कुटुम्ब सम्मिलित रूप में कार्य करता है।
बोपरा गोपालमलजी का जन्म १९४४ की फागुन सुदी १ को सुगनमलजी का १९५० में मुकुन्दमजी का १९३९ की भादवा वदी १० उदय चन्दजी का १९५४ माघ वदी ९ चन्दनमलजी का १९५८ लक्ष्मीचन्दजी का १९६१, अमोलकचन्दजी . का १९५२ पौष वदी ७, और मगराजजी का १९५२ में हुआ । यह परिवार नागोर के ओसवाल समाज में मुख्य धनिक कुटुम्ब है। भापकी यहाँ कई बड़ी । हवेलियाँ बनी हुई हैं, बंगाल प्रान्त में आपकी दुकानें तथा स्थाई सम्पत्ति है। भाप लोग हरेक धार्मिक व अच्छे कामों में सहायताएँ पहुँचाते रहते हैं। नागौर की श्वेताबम्र जैन पाठशाला में इस परिवार की विशेष सहायता रहती है श्री चन्दनमलजी शिक्षित व्यक्ति हैं। ..
गोपालमलजी के पुत्र जसवन्तमलजी मुकुन्दमलजी के पुत्र बस्तीमलजी, लाभचन्दजी व धनराजजी हैं। इसी तरह इस परिवार के लड़कों में केवलचन्दजी हीराचन्दजी हुलाशचन्दजी और रेखचंद हैं ।
सेठ लक्ष्मणराजजी बोथरा-बाड़मेर इस परिवार के मालिकों का मूल निवास स्थान बीकानेर का है। इस परिवार में देदाजी हुए। भापके सेठ नरसिंहजी, जोराजी तथा शिवदानजी नामक पुत्र हुए। सेठ देदाजी और नरसिंहजी फौज की आगमन के समय मोदी खाने का काम करते थे। सेठ नरसिंहजी के सरदारमलजी, मदूमलजी तथा पसकमाजी नामक पुत्र हुए । जोराजी के रूपाजी नामक पुत्र हुए।
सेठ सरदारमलजी के परसुरामजी तथा सागरमलजी नामक पुत्र हुए। इन दोनों भाइयों ने अपना व्यापार अलग २ कर लिया। परसरामजी के पुत्र जुहारमलजी अपना स्वतन्त्र कारबार करते हैं। सेठ सागरमलत्री के लक्ष्मणराजजी, जेकचन्दजी तथा हीरालालजी नामक पुत्र हुए। इनमें हीरालालजी बोधाजी के नाम पर दत्तक गये।
सेठ लक्ष्मणराजजी ने सन् १९१७ से २३ तक जोधपुर में वकालत की । वर्तमान में भाप बाड़मेर में प्रेक्टिस कर रहे हैं। यहाँ पर आप प्रतिष्ठित सज्जन माने जाते है।
सेठ मदूलाल ब्रजलाल बोथरा बाड़मेर इस परिवार के लोगों का मूल निवास स्थान बीकानेर था। कालांतर से पह कुटुम्ब बाड़मेर में
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आकर बस गया। इस परिवार में सेठ मदूमलजी हुए। आपकी आरंभिक स्थिति साधारण थी। आप ने अपनी योग्यता से पैसा कमाया और समाज में अपनी प्रतिष्ठा भी स्थापित की। आपका संवत् १९६७ में अंतकाल हुआ। आपके सेठ ब्रजलालजी नामक पुत्र हुए।
सेठ ब्रजलालजी का जन्म संवत् १९५६ में हुआ। आप बाड़मेर के व्यापारिक समाज में मातवर व्यक्ति हैं। आपकी यहाँ पर तीन चार दुकाने हैं और मालानी के जागीरदारों के साथ आपका लेन देन का सम्बन्ध है । आपके पुत्र भगवानदासजी व्यापारिक कामों में भाग लेते रहते हैं।
इस परिवार की तरफ से बाड़मेर में एक धर्मशाला भी बनी हुई है।
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मेहता गोपालसिंहजी का खानदान, उदयपुर
मेहता भगवंतसिंहजी के पिता किशनगढ़ नामक स्थान पर निवास करते थे। वहीं से आप
यहाँ उदयपुर आये । यहाँ आकर आपने सरकार में सर्विस की। आपके कार्यों से प्रसन्न होकर महाराणा साहब ने आपको मगरा जिले में 'ढाकहडा' नामक एक ग्राम जागीर स्वरूप बक्षा । आप यहाँ पर न्याय के कारखाने ( सिविल कोर्ट ) के हाकिम रहे। आपके वलवन्तसिंहजी नामक एक पुत्र हुए । आप भी प्रतिभाशाली व्यक्ति थे । आप मगरा जिला और खेरवाड़ा आदि स्थानों पर हाकिम रहे। आपके मेहता मनोहरसिंहजी नामक एक पुत्र हुए। आपका जन्म संवत १९१९ में हुआ । बचपन से ही आप बड़े बुद्धिमान और प्रतिभाशाली व्यक्ति थे । एक बार का प्रसंग है जब कि आप स्कूल में विद्याध्ययन करते थे, महाराणा सज्जनसिंहजी स्कूल का निरीक्षण करने के लिये पधारे । आपका ध्यान तुरंत मेहता साहब की ओर आकृष्ट हो गया। और आपने उसी दिन से मेहताजी को सेटलमेंट आफिसर के पास काम सीखने के लिये भेज दिया । जब आप केवल १६ वर्ष के थे आपको राजनगर की हुकुमत बक्षी गई थी। तब से आप बराबर राजनगर, सादड़ी, जहाजपुर, चित्तौड़ और गिरबा में हाकिमी के साथ साथ आपको वहाँ के खजाने का भी काम मिला। इसके पश्चात् आप स्पेशल ब्यूटी में बेगूं भेजे गये । वहाँ जाकर आपने बागी रिआया को शांत किया। इसी प्रकार बसीसी में भी आपने जाकर शांति स्थापित की । आप इतने लोकप्रिय होगये थे कि जब शाहपुरा-स्टेट के काछोला नामक परगने में प्रजा बागी होगई थी उस समय शाहपुरा दरबार मे ए० जी० जी के मार्फत आपको वहाँ शांति स्थापनार्थ मांगा था, वहाँ भी आपने शांति स्थापित की ।
हाकिम के पद पर रहे । गिरवा में
मेहता मनोहरसिंहजी के कोई पुत्र न होने से पहले तो किशनगढ़ के मेहता चन्द्रसिंहजी के पुत्र सोहनसिंहजी दत्तक लिये गये, मगर आपका स्वर्गवास चार पाँच वर्षों ही में, जब कि आप बी० ए० में पढ़
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भोसबाड जाति का इतिहास रहे थे, हो गया। अतएव आपने फिर संवत् १९७५ में जयपुर के मेहता मंगलचन्दजी बाउण्डरी सुपार. टेण्डेण्ट के सबसे बड़े पुत्र मेहता गोपालसिंहजी को सोहनसिंहजी के नाम पर दत्तक लिया। मेहता मोहन सिंहजी का स्वर्गवास सन् १९२३ में जब कि आप बेगूं के प्रजा आन्दोलन को दबाने के लिये भेजे गये थे । वहीं हार्ट फेल के कारण हो गया। उदयपुर में यह कायदा है कि जो भी मुत्सुही जागीरदार अपने यहाँ किसी को दत्तक रखे तो पहले उन्हें दरबार में महाराणा को नजरामा कर भाशा प्राप्त करना पड़ती है, ऐसा नहीं करने से वह जागीर के स्वत्वों से वंचित रहता है। पहले तो यहाँ भी यही हुमा । इसका कारण यह था कि आपकी माताजी के और आपके बीच में झगड़ा चल गया था। करीब साल के पश्चात् महा. राणा फतेसिंहजी के स्वर्गवास हो जाने पर वर्तमान महाराणा साहब श्री भोपालसिंहजी के खाविंदी फरमाकर आपका अंगपत्र मंजूर कर लिया और आपकी प्रायवेट सम्पत्ति पर से कुड़की हटाली।
वर्तमान में इस परिवार में गोपालसिंहजी ही प्रधान हैं। आपका विद्याभ्यास एफ. ए० तक ही हुआ। प्रारम्भ में आप महाराज कुँवार की ओर से पानरवा ( भोमर ) ठिकाने के मैनेजर नियुक्त हुए। इस बाद आप सादड़ी नामक स्थान पर मैनेजर बनाए गए। इसके पश्चात् भोमर परगने के सबसे बड़े ठिकाने जपास के रावजी के मेयोकालेज में गार्जियन बनाए गये। यहाँ आपने जुडिशियल लाइन की शिक्षा भी प्राप्त करली। जब जवास रावजी को अधिकार मिल गया, तब आप वहाँ के एडवाइज़र नियुक हुए। इस समय भी आप उसी काम पर हैं। आप बुद्धिमान, और समाजसुधारक विचारों के सज्जन हैं। आपने अपने पिताजी का मोसर न करके लोगों के विरोध की कुछ भी पर्वाह न करते हुए-रनडे स्मारक में ७०००) उदयपुरी लगा कर स्थानीय विद्याभवन में एक हाल बनवाया है। आपने अपनी दूसरी शादी के समय में किसी प्रकार के पुराने रिवाजों का पालन व जल्से आदि नहीं किये। यहाँ तक कि जिस दिन शादी करने जा रहे थे उस दिन भी आपको देखकर कोई नहीं कह सकता था कि आप शादी करने जा रहे हैं। लिखने का मतलब यह है कि आप सुधार-प्रिय सज्जन हैं।
__ आपके प्रथम विवाह से दो पुत्र हैं जिनका नाम क्रमशः कुंवर जसवन्तसिंहजी और दलपतसिंहजी है।
साह मेघराजजी खजांची का परिवार बीकानेर इस परिवार का इतिहास सवाईरामजी से शुरू होता है। भाप बीकानेर स्टेट में मुकीमात का काम याने स्टेट में तमाखू वगैरह सप्लाय करने का काम करते थे । अतएव इस परिवार वाले मुकीम रोथरा कहलाये ! सेठ सवाईरामजी बड़े प्रतिभा सम्पन और कारगुजार व्यक्ति थे । आपका स्टेट में
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बोथरा
अच्छा सम्मान था। आपको तत्कालीन बीकानेर नरेश ने प्रसन्न होकर एक गाँव जागीर में रक्षा था । आप के जैतमालजी नामक एक पुत्र हुए। आपभी मुकीमात का काम करते रहे। कुछ समय पश्चात् आप को दरबार ने खजाने का काम सौंपा। तब से खजाने का काम भाप ही के वंशाजों के हाथ में हैं । खजाने ही का काम करने के कारण आपके परिवारवाले खजांची कहलाते हैं।
सेठ जैतमालजी के तीन पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः भोमजी, चतुर्भुजजी और शेरजी था। वर्तमान परिचय सेठ भोमजी के परिवार का है। शेष भाइयों के परिवार के लोग अलग २ रूप से अपना काम काज करते हैं। सेठ भोमजी के छोगजी और मानमलजी नामक दो पुत्र हुए। दूसरे पुत्र मानमल जी दत्तक चले गये। छोगजी के बागजी नामक एक पुत्र हुए। आप दोनों ही पिता-पुत्र अपने पूर्वजों के खजाने के काम को करते रहे। बागजी के संतान न होने से मेघराजजी दत्तक लिये गये।
सेठ मेघराजजी का जन्म संवत् १९१५ में हुआ। जब आप केवल १० वर्ष के थे तब से ही खजाने के काम का संचालन कर रहे हैं। इस समय आपकी आयु ७६ वर्ष की है। इतने वृद्ध होने पर वर्तमान महाराजा साहब बीकानेर आपको अलग नहीं करते हैं। आपके कार्यों से दरबार बड़े प्रसन्न हैं। आपको दरबार की ओर से साह की सम्मान सूचक पदवी प्राप्त है। साथ ही गाँव की जागीर के अलावा आपको अलाउस तथा घोड़े की सवारी का खर्च मिलता है। आप समझदार और प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। आपके चार पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः पूनमचंदजी, अभयराजजी, मुन्नीलालजी और धनराजजी हैं। इन में से पूनमचंदजी और मुन्नीलालजी का स्वर्गवास हो गया है। आप दोनों ही क्रमशः अपने पिताजी के साथ खजाने का तथा कलकचे की फर्म का संचालन करते रहे हैं। यह फर्म संवत् १९६४ में कलकत्ते में स्थापित हुई थी। इसका नाम मेसर्स मुनीलाल धनराज है। पता ११३ क्रास स्ट्रीट है। यहाँ कपड़े का व्यापार होता है। इस समय इसका संचालन अभयराजजी कर रहे हैं और धनराजजी स्टेट बैंक के ट्रेझरर हैं।
बा० पूनमचन्दजी के माणकचंदजी तथा धनराजजी के शिखरचन्दजी नामक एक २ पुत्र हैं । माणकचन्दजी अपने दादाजी के साथ खजाने का काम करते हैं।
इस परिवार की बीकानेर में अच्छी प्रतिष्ठा है। इस समय चूरू परगने का 'बूटिया' नामक एक गाँव इस परिवार की जागीर में है।
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ कोनमल नथमल बोथरा, लूनकरणसर (बीकानेर) - इस परिवार के पुरुष करीब ४०० वर्ष पूर्व मारवाड़ से चलकर लूनकरणसर नामक स्थान पर आकर बसे। इसी परिवार में सेठ मोतीचन्दजी हुए। मोतीचन्दजी के पुत्र आसकरनजी भी वहीं देश में रहकर व्यापार करते रहे। सेठ आसकरनजी के हरकचन्दजी और कोड़ामलजी नामक दो पुत्र हुए।
- सेठ हरकचन्दजी और कोदामलजी दोनों ही भाई सम्वत् १९३३ के साल बंगाल में गये । वहाँ जाकर वे प्रथम नौकरी करते रहे। इसके पश्चात् सम्बत् १९४५ में आप लोगों ने कालिमपोंग में अपनी एक फर्म मेसर्स हरकचन्द कोडामल के नाम से स्थापित की और इस पर किराने का व्यापार प्रारम्भ किया। बाप दोनों ही भाई व्यापार-कुशल और मेधावी सजन थे। आपकी व्यापार-कुशलता से फर्म की बहुत तरको हुई। आप लोगों का व्यापार भूटानी, तिब्बती, नेपाली और साहब लोगों से होता है। आप दोनों भाइयों का स्वर्गवास हो गया। हरकचन्दजी के कोई पुत्र न हुआ। कोड़ामलजी के तीन पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः जेठमलजी, ठाकरसीदासजी और नथमलजी हैं। इनमें से तीसरे पुत्र नथमलजी अपने चाचा सेठ हरकचन्दजी के नाम पर दत्तक रहे। ... वर्तमान में आप तीनों ही भाई फर्म का संचालन कर रहे हैं। आप तीनों ही बड़े योग्य और व्यापार कुशल हैं। आप लोगों ने भी फर्म की अच्छी उन्नति की। आपके समय में ही इस फर्म की एक शाखा कलकत्ता नगर में भी खुली। इस फर्म पर कोड़ामल नथमल के नाम से कपड़े का इम्पोर्ट तथा बिक्री का काम होता है। कालिमपोंग में आजकल कोड़ामल जेठमल के नाम से कस्तूरी, ऊनी कपड़ा, ऊन और गल्ले का व्यापार होता है। .
- इस समय सेठ जेठमलजी के दो पुत्र हैं जिनके नाम गुमानमलजी और सोहनलालजी हैं। ठाकरसीदासजी के पुत्रों का नाम नारायणचन्द्रजी और पूनमचन्दजी हैं। सेठ नथमलजी के पुत्रों के नाम मालचन्दजी, दुलिचन्दजी, धर्मचन्दजी और सम्पतरामजी हैं। अभी ये सब लोग बालक हैं। - इस परिवार के सज्जन श्री. जैन तेरापंथी श्वेताम्बर धर्मावलम्बीय सज्जन हैं। आप लोगों ने अपने पिताजी, माताजी, दादाजी और दादीजी के नाम पर लनकरनसर में शहर सारणी की थी, जिसमें आपने बहुत रुपया खर्च किया। लूनकरनसर में इस परिवार की अच्छी प्रतिष्ठा है। वहाँ तथा सरदार शहर में आपकी सुन्दर हवेलियां बनी हुई हैं।
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ प्रतापमलजी बोथरा, राजलदेसर.
बाबू सम्पतमलजी बोथरा, राजलदेसर.
हवेली (रुक्मानंद सागरमल बोथरा) चूरू.
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बोथरा
सेठ फतेचन्द, चौथमल, करमचन्द बोथरा, राजलदेसर ( बीकानेर )
करीब १५० वर्ष पूर्व इस परिवार के पुरुष राजलदेसर में १० मील की दूरी वाले ग्राम छोटड़िया से आये । राजलदेसर में सर्व प्रथम आने वाले व्यक्ति गिरधारीमलजी के पुत्र सेठ फतेचन्दजी थे । संवत् १८६७ में आप व्यापार के निमित्त बंगाल प्रांत के रंगपुर नामक स्थान पर गये । वहाँ जाकर आपने फतेचन्द पनेचन्द के नाम से एक फर्म स्थापित की। जिस समय आपने फर्म स्थापित की उस समय आज कल जैसा सुगम मार्ग नहीं था, अतएव बड़े कठिन परिश्रम से आप करीब ६ माह में राजलदेसर से बंगाल में पहुँचे थे । वहाँ जाकर आपने अपनी एक फर्म स्थापित की । आप व्यापार-चतुर पुरुष थे । आपने व्यापार में अच्छी सफलता प्राप्त की । आप के चार पुत्र हुए, जिनके नाम क्रमशः बालचन्दजी, पनेचन्दजी, चौथमलजी, और हीरालालजी हैं । आप चारों ही भाई पहले तो शामलात में व्यापार करते रहे, मगर फिर अलग अलग हो गये। बालचन्दजी का व्यापार इसी फर्म की सिराजगंज वाली ब्रांच पर रहा। शेष भाइयों का व्यापार रंगपुर ही में रहा ।
सेठ बालचन्दजी के हजारीमलजी, पृथ्वीराजजी और भैरोंदानजी नामक तीन पुत्र हुए । अपि लोगों का स्वर्गवास हो गया। हजारीमलजी के दो पुत्र हुए जिनके नाम अमोलकचन्दजी और हरकचन्दजी थे । पृथ्वीराजजी के पुत्र मालचन्दजी हुए जो सेठ भैरोंदानजी के यहाँ दत्तक रहे । अमोलकचन्दजी के चार पुत्र दीपचन्दजी, चम्पालालजी, रायचन्दजी और शोभाचन्दजी इस समय विद्यमान हैं। हरकचन्दजी के इस समय हुलासमलजी और आसकरनजी नामक दो पुत्र हैं। इसी प्रकार मालचन्दजी के भी सात पुत्र हैं, जिनके नाम क्रमशः हुलासमलजी, धरमचन्दजी, छगनमलजी, जवरीमलजी, इन्द्रचन्दजी, नेमीचन्दजी और भूरामलजी हैं।
सेठ पनेचन्दजी के पुत्र कालूरामजी का स्वर्गवास हो गया। आपके चन्दूलालजी नामक पुत्र राजलदेसर ही में रहते हैं । आपके भीखमचन्दजी और मोहनलालजी नामक दो पुत्र हैं ।
सेठ चौथमलजी इस परिवार में प्रतिष्ठित व्यक्ति हुए । आपने व्यापार में अच्छी सफलता प्राप्त की । आपके प्रतापमलजी नामक पुत्र हुए। आप मिलनसार हैं। आपके धार्मिक विचार तेरापंथी जैन श्वेताम्बर संम्प्रदाय के हैं । प्रायः आपने सभी हरी छोड़ रखी है । आजकल आप व्यापार के निमित्त कलकत्ता बहुत कम आते जाते हैं । आपके सम्पतमलजी नामक एक पुत्र हैं । आप ही अपने व्यापार का संचालन करते हैं । आपके भँवरीलालजी और कन्हैयालालजी नामक दो पुत्र हैं। सेठ प्रतापमलजी की दो पुत्रियों ने जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सम्प्रदाय में दीक्षा ले रखी है। आपका व्यापार इस समय कलकत्ता में सम्पतमल भँवरीलाल के नाम से १५ नारयल लोहिया लेन में जूट और हुंडी चिट्ठी का होता है ।
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बोसवाल जाति का इतिहास
इसी फर्म की एक ब्राँच यहाँ मूङ्गापट्टी में और है जहाँ प्रतापमल बोथरा के नाम से बर्तनों का व्यापार होता है। इसी प्रकार रंगपुर-माहीगा-में फतेचन्द प्रतापमल और नवाबगंज में सम्पतमल बोथरा के नाम से बर्तन, जूट, और जमींदारी का व्यापार होता है। मेमनसिंह में आपके मकानात बने हैं।
सेठ हीरालालजी भी पहले तो अपने भाई के साथ व्यापार करते रहे, मगर फिर नहीं बनी, अतः अलग-अलग हो गये। आपके कर्मचन्दजी और मगराजजी नामक दो पुत्र हुए। आप लोग भी फर्म का संचालन करते रहे। सेठ कर्मचन्दजी के मिर्जामलजी और सोहनलालजी नामक दो पुत्र हुए। सेठ मिर्जामलजी सम्वत् १९९० के साल अलग हो गये और गायबंधा में जूट का व्यापार करते हैं। आपके चन्दनमलजी और जयचन्दलालजी नामक दो पुत्र हैं । सेठ मघराजजी के पुत्र हंसराजजी आजकल पाटकी दलाली का काम करते हैं । इस परिवार के लोग तेरापंथी श्वेताम्बर जैन धर्मानुयायी हैं।
सेठ रुक्मानन्द सागरमल, चूरू (बीकानेर)
इस खानदान के पूर्वजों का मूल निवासस्थान जालोर ( मारवाड़ ) का है। आप लोग भी जैन श्वेताम्बर सम्प्रदाय के तेरापंथी आम्नाय को मानने वाले सजन हैं। इस परिवार वाले जालोर से मंडोवर कोदमदेसर, बीकानेर आदि स्थानों में होते हुए रिणी में आकर बसे । इस परिवार में यहाँ पर पनराजजी हुए। सेठ पनराजजी के सुलतानचन्दजी नामक दो पुत्र हुए । आप दोनों भाई संवत् १८८० में चूर चले गये और वहीं अपनी हवेलियाँ वगैरह बनवाई। - सेठ सुलतानचन्दजी के गणेशदासजी और गणेशदासजी के मिलापचन्दजी नामक पुत्र हुए। आप लोग भोपाल नामक स्थान पर सराफी का कारवार करते रहे। आप सब लोगों का स्वर्गवास हो गया है। सेठ मिलापचन्दजी के सेठ रुक्मानन्दजी एवं सागरमलजी नामक दो पुत्र हुए। .
सेठ रुक्मानन्दजी का जन्म संवत् १९३२ में और सागरमलजी का संवत् १९३५ में हुआ। आप ही दोनों भाइयों ने अपने हाथों से हजारों रुपये कमाये हैं । प्रारम्भ में आपकी स्थिति साधारण थी। भाप दोनों भाई क्रमशः संवत् १९४९ तथा संवत् १९५१ में कलकत्ता व्यापार निमित्त गये। यहाँ पर आपने पहले पहल गुमास्तागिरी और फिर कपड़े की दलाली का काम किया। इन कार्यों में आप लोगों को काफी सफलता मिली और सं० १९६५ में आपने कलकत्ता में 'रुक्मानन्द सागरमल' के नाम से कपड़े की दुकान स्थापित की । संवत् १९७० में इस फर्म पर 'मेसर्स सदासुख गंभीरचन्द' के साझे में जापान और इंग्लैण्ड से कपड़े का दायरेक्ट इम्पोर्ट करना प्रारम्भ किया। तदन्तर संवत् १९८२ से आप लोगों ने
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श्रोसवाल जाति की इतिहास
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सेठ रुक्मानंदजी बोथरा (रुक्मानंद सागरमल) कलकत्ता
सेठ सागरमलजी बोथरा (रुक्मानंद सागरमल) कलकत्ता
कुं० जयचंदलालजी बोथरा (रुक्मानंद सागरमल) कलकत्ता
चंदजी बोथरा (रुक्मानंद सागरमल) कलकत्ता
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ ताराचन्दजी गेलड़ा (पूनमचंद ताराचंद) मदास.
सेठ जेठमलजी बोथरा (चुन्नीलाल प्रेमचंद) सरदारशहर.
सेठ आसकरणजी बोथरा (चुन्नीलाल प्रेमचंदं) सरदारशहर.
सेठ बुधमलजी बोथरा (चुन्नीलाल प्रेमचंद) सरदारशहर.
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बोथरा
अपने नाम से इम्पोर्ट करना शुरू कर दिया। कपड़े के इस इम्पोर्ट व्यवसाय में आपको बहुत सफलता प्राप्त हुई । स्वदेशी वस्त्रान्दोलन के समय से आप लोगों ने कपड़े का इम्पोर्ट बिजिनेस बन्द कर दिया है। इस समय आपकी फर्म पर सराफी जूट और जमीदारी का काम होता है।
सेठ रुक्मानन्दजी के जयचंदलालजी नामक एक पुत्र हैं। आपका जन्म संवत् १९४९ में हुआ। आप इस समय फर्म के व्यापार कार्य में भाग लेते हैं। आपके बालचन्दजी, शुभकरणजी, बच्छराजजी और कन्हैयालालजी नामक चार पुत्र हैं।
___ सेठ सागरमलजी के हुलासचन्दजी, मदनचन्दजी, पूनमचन्दजी एवं इन्द्रचन्द्रजी नामक चार पुत्र हुए हैं । बाबू हुलासचन्दजी बड़े उत्साही तथा फर्म के काम में सहयोग लेते हैं। आपके हेमराजजी एवं ताराचन्दजी नामक दो पुत्र हैं। *
इस परिवार की ओर से चूरु ( बीकानेर-स्टेट) में मुसाफिरों के आराम के लिये स्टेशन के पास एक नोहरा बनवाया गया है जिसमें करीब बीस हजार रुपया लगा होगा। आप लोग इस प्रकार के अन्य कायों में भी भाग लेसे रहते हैं। आपका व्यापार इस समय कलकत्ता में 'रुक्मानन्द सागरमल' के नाम: से २०० हरिसन रोड में ब्याज, जूट और वैकिंग का होता है । भापके तार का पता 'Bitrag' और टेलीफोन नं0 4165 B. B. है। इसके अतिरिक्त 'जयचंदलाल हुलासचंद' के नाम से दीनाजपुर (पुलहाट) में एक चाँवल का मिल है और डाववाली मंडी (हिसार) में मे० बालचन्दजी बोथरा के नाम से किराने व आदत का काम काज होता है। कलकत्ता में आप लोगों के तीन मकानात हैं जिनसे किराये की आमदनी होती है तथा देश में भी आपकी सुन्दर हवेलियाँ बनी हुई हैं।
सेठ चुन्नीलाल प्रेमचन्द बोथरा सरदारशहर इस परिवार वालों का मूल निवास राजपुरा (बीकानेर) का है। करीब ४५ वर्ष पूर्व इस परिवार के सेठ उमचंदजो बहुत साधारण स्थिति में यहाँ आये । आपके सेठ चुनीलालजी और सेठ प्रेमचन्दजी नामक दो पुत्र हुए। . सेठ चुनीलालजी का जन्म संवत् १९०९ में हुआ। आपका विवाह मलानिया निवासी सेठ प्रेमचंदजी सेठी की सुपुत्री तुलसी बाई के साथ हुआ जिनका स्वर्गवास संवत् १९४७ में हो गया। सेठ पुत्रीलालजी बड़े प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे। आपने पहले पहल कलकत्ता जाकर सदाराम पूरनचाद भैरोंदान भंसाली के यहाँ नौकरी की । पश्चात् संवत् १९६० में आपने अपने हाथों से अपनी निज की
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
एक फर्म स्थापित की तथा इसे बहुत उन्नति पर पहुँचाया । साथ ही भैरोंदानजी वाली फर्म पर जब आप उसमें मुनीमत का काम करते थे सारी उन्नति आप ही के द्वारा हुई । आपका स्वर्गवास संवत् १९८३ में हो गया । आपके तीन पुत्र हुए। जिनके नाम क्रमशः वा जसकरनजी, जेठमलजी और बुधमलजी हैं । आप तीनों ही भाई समझदार एवम् सज्जन व्यक्ति हैं । आप लोगों का व्यापार सामलात में 'कलकत्ता में १९ सेनागोग स्ट्रीट में जूट तथा आढ़त का होता है। तार का पता "Free holder" है ।
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सेठ प्रेमचंदजी भी पहले अपने भाई के साथ व्यापार करते रहे मगर आपके स्वर्गवास होजाने पर आपके पुत्र फर्म से अलग हो गये एवम् अपना स्वतंत्र व्यापार करने लगे । आपके पुत्रों का नाम सेठ भैरोंदानजी एवम् सेठ हीरालालजी हैं । आप भी मिनलसार व्यक्ति हैं। सेठ भैरोंदानजी के गुलाबचन्दजी झूमरमलजी, विरदीचन्दजी और कन्हैयालालजी नामक चार पुत्र हैं । आप लोगों का व्यापार बिहारीगंज (भागलपुर) बरेड़ा ( पूर्णियाँ ) में जूट का होता है ।
यह परिवार जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सम्प्रदाय का मानने वाला है ।
श्री नथमलजी बोथरा इन्दौर
श्रीयुत नथमलजी का संवत् १९४२ में जन्म हुआ। आप इन्दौर के सुप्रसिद्ध स्व० कोठारी गुलाबचंदजी के भानेज हैं। उक्त कोठारीजी ने ही बाल्यावस्था से आपका लालन पालन किया और उन्होंने स्थावर, जङ्गम जायदाद का आपको स्वामी बनाया ।
श्रीयुत गुलाबचंदजी कोठारी का आप पर बड़ा प्रेम था और आप ही ने आपको हिन्दी, मराठी और अंग्रेजी की शिक्षा दिलवाई। उक्त कोठारी साहब उस समय इन्दौर राज्य के खजांची थे । आपने अपने भाणेज श्री बोथराजी को अपने पास रख कर उन्हें आफीस के काम में होशियार कर दिया । कार्य्य का अनुभव प्राप्त करने के कुछ वर्ष बाद श्रीयुत बोथराजी इन्दौर राज्य के डेप्यूटी खजांची नियुक्त हुए । इस कार्य को आपने बड़े ही उत्तमता के साथ किया जिसकी प्रशंसा उच्च अफसरों ने की। कई वर्ष तक इस पद पर काम करने के बाद आप इंदौर राज्य के डेप्यूटी अकाउन्टेन्ट जनरल हुए। वहाँ भी आपने अपनी अच्छी कार्य्यं कुशलता दिखलाई। इसके बाद लगभग ईसवी सन् १९२७ में आप २५०) मासिक वेतन पर मिलिटिरी सेक्रेटरी हुए । इन्दौर राज्य के फौजी विभाग को आपने इतनी उत्तमता के साथ संगठित किया कि जिसकी प्रशंसा तत्कालीन कमान्डर-इन-चीफ तथा अन्य उच्च अफसरों ने की । आपने फौजी विभाग में नवीन जीवन सा डाल दिया। ईसवी सन् १९३३ में आपने अपने पद से अवसर ग्रहण किया ।
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बोथरा
. बोधरा आपको इस समय इन्दौर राज्य से पूरी पेंशन मिलती है। इस समय आप कोयले के व्यवसाय (Coal Business ) में लगे हुए हैं।
सेठ कालूराम अमरचंद बोथरा, नवापारा ( राजिम )
इस कुटुम्ब का खास निवास समराऊ ( जिला जोधपुर ) में है। संवत् १९३४ में बोथरा अमरचंदजी देश से ऊँटों के द्वारा राजनाँद गाँव होते हुए ३॥ मास में राजिम आये तथा यहाँ उन्होंने रघुनाथदास बालचन्द चौपड़ा लोहावट वालों की दुकान पर मुनीमात की । संवत् १९३८ में आपने अपना घरू काम-काज शुरू किया। तथा व्यापार में सम्पत्ति उपार्जित कर अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाई । आप रायपुर डिस्ट्रिक्ट कौंसिल और लोकल बोर्ड के ३० सालों तक मेम्बर रहे। नागपुर के चीफ़कमिश्नर ने १९१६ में आपको एक सार्टिफिकेट दिया । रायपुर प्रांत के आप गण्यमान्य व्यक्ति थे। आपके पुत्र भीकचन्दजी, हस्तीमलजी तथा ताराचन्दजी का जन्म क्रमशः १९५०,५३ तथा ६२ में हुआ।
बोथरा अमरचन्दजी राजिम के प्रतिष्ठित व्यापारी हैं। आप बन्धुओं ने, अपनी बहिन के स्वर्गवासी होने के बाद उनकी रकम ओशियाँ जैन बोडिंग को दी। समराऊ गाँव तथा स्टेशन के मध्य में एक । कुआ बनवाया, इसी तरह धार्मिक कामों में सहयोग लिया। आपके यहाँ उपरोक्त नाम से माल गुजारी तथा म्यापार होता है।
बोथरा अमरचन्दजी के छोटे भ्राता अलसीदासजी के पुत्र जीवनदासजी बोथरा उत्साही युवक हैं। भाप राष्ट्रीय कार्य करने के उपलक्ष में १९३० तथा ३२ में छह-छह मास के लिये २ बार जेल यात्रा कर
सेठ मोतीचन्द मनोहरमल बोथरा, इगतपुरी ( नाशिक ) __इस परिवार के पूर्वजों का मूल निवासस्थान तापू (ओशियाँ के समीप-मारवाद) का है। भाप छोग श्री जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी आम्नाय को माननेवाले हैं। इस परिवार में सेठ थानमलजी हुए। आपके साहबचन्दजी तथा साहबचन्दजी के आसकरणजी, मोतीचन्दजी और मनोहरमलजी नामक पुत्र हुए। इनमें से सेठ मोतीचन्दजी और मनोहरमलजी संवत् १९३४ में न्यापार निमित्त इगतपुरी भाये। भाप दोनों भाइयों ने अपनी व्यापार चातुरी से एक फर्म स्थापित की और उसकी बहुत उमति की। सेर
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
आसकरणजी का स्वर्गवास सं० १९८५ में, सेठ मोतीचन्दजी का संवत् १९७५ में तथा सेठ मनोहरमजी का संवत् १९५९ में हुआ।
सेठ आसकरणजी के दौलतरामजी तथा दौलतरामजी के बस्तीमलजी नामक पुत्र हुए। सेठ दौलतरामजी का संवत् १९६३ में स्वर्गवास हो गया है। सेठ मोतीचन्दजो के लादूरामजी एवं मूलचन्दजी मामक दो पुत्र हुए। इनमें से लादूरामजी अपने काका मनोहरमलजी के यहाँ पर गोद गये ।
सेठ लादूरामजी का जन्म संवत् १९४५ में हुआ। आप समझदार और प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। आपकी नाशिक व खानदेश की ओसवाल समाज में अच्छी प्रतिष्ठा है। आपके चम्पालालजी तथा वंशीलालजी नामक दो पुत्र हैं । चम्पालालजी दुकान के काम को संभालते हैं। सेठ मूलचन्दजी का जन्म संवत् १९५४ में हुआ। आप भी प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। सेठ बस्तीमलजी के गणेशमलजी नामक पुत्र हैं। आप लोगों का मेसर्स मोतीचंद मनोहरमल के नाम से लेन-देन का काम काज होता है।
लाला शिम्बूमलजी जैन-बोथरा का खानदान, फरीदकोट
यह खानदान करीव २०० वर्ष पहले से ईसेखां के कोट (फरीदकोट) से फरीदकोट में आकर निवास करने लगा। इस खानदान में लाला मयमलजी हुए । आप फरीदकोट स्टेट के खजांची रहे । आपके छाला शिब्बूमलजी और नंदूमलजी नामक दो पुत्र हुए।
.. लाला शिब्बूमलजी बड़े लोकप्रिय सजन थे । आप यहाँ की स्टेट के ट्रेझरर भी रहे हैं। आप पर यहाँ के तत्कालीन महाराजा विक्रमसिंहजी की बड़ी कृपा रहा करती थी। आपके स्वर्गवासी होजाने के समय संवत् १९६१ में आपका शव किले के दरवाजे के अंदर लाया गया, और उस समय आपके मृतदेह का वहाँ के महाराजा ने खुद आकर फोटो लिवाया । आपके लिये, ऑइनाए ब्रॉड बंश फरीदकोट स्टेट हिस्ट्री पृष्ट ६९७ में लिखा है कि "कदीमों की कदर आफजाई में यहाँ तक बदिले इल्तफात फरमाया कि अगर उनमें से कोई आलिमे जावदानी को चल बसा तो उनके जनाजे की वो इजत की जिसकी तमन्ना जिर्दे हजार जान से करें"। लाला शिब्बूमलजी के लाला देवीदासजी नामक पुत्र हुए। आप भी फरीदकोट स्टेट के तोशे खाने का काम संवत् १९७० तक करते रहे । आपका संवत् १९८९ में स्वर्गवास हुआ। इस समय आपके पुत्र लाला बालगोपालजी, कृष्णगोपालजी, विष्णुगोपालजी उर्फ प्यारेलालजी विद्यमान हैं। लाला कृष्णगोपालजी फरीदकोट स्टेट में मुलाजिम हैं । आप होशियार तथा मिलनसार सज्जन हैं।
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ओसवाल जाति का इतिहास
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रा० ब० सेठ लखमीचंदजी बोथरा, कटंगी.
स्व० सेठ अमरचन्दजो बोथरा, नवापाड़ा, राजिम.
लाला रूपलालजी जैन बोथरा, फरीदकोट.
बा० किशोरीलालजी जैन, B.A. LL. B., फरीदकोट,
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बोथरा
लाला रूपलालजी जैन, फरीदकोट __इस खामदान के पूर्वज लम्बे समय से फरीदकोट में ही निवास करते हैं। आप लोग श्री जैन स्वेताम्बर समाज के स्थानकवासी आम्नाय को मानने वाले हैं। इस परिवार में लाला मोतीरामजी हुए। लाला मोतीरामजी के लाला सोभागमलजी नामक पुत्र हुए । आप लोग फरीदकोट में ही व्यापार करते रहे। सोभागमलजी के लाला रूपलालजी नामक पुत्र हुए।
लाला रूपलालजी का जन्म संवत् १९३९ में हुआ। आपने सन् १९०० में फरीदकोट में अंग्रेजी का इम्तहान दिया और फिर नौकरी करने लगे। आप वर्तमान में फरीदकोट नरेश के रीडर (पशकार) है । इसके अतिरिक आप स्थानीय जैन सभा के प्रेसिडेन्ड, श्री जैनेन्द्र गुरुकुल पंचकूला की मेनेजिंग कमेटी के प्रेसिडेण्ट, स्थानीय जैन कन्या पाठशाला के मैनेजर, एस० एस० जैन सभा पंजाब के मेम्बर तथा अमृतसर टेंपरंस सोसाइटी के व्हाइस प्रेसिडेण्ट हैं। आपका स्वभाव बड़ाही सरल है।
हाला रूपलालजीके देवराजजी और हंसराजजी नामक दो पुत्र हैं । लाला देवराजजी इस वर्ष बी.ए. एवं ईसराबजी इस समय मेट्रिक की परीक्षा में बैठे हैं । लाला स्पलालजी बार व्रतधारी श्रावक है, एवं चतुर्थ व्रत का पापको नियम है।
. बोथरा परिवार फरीदकोट बोथरा खानदान के व्यक्तियों में बोथरा गुजरातीमलजी संवत् १८४५.४६ में रियासत की ओर से अंग्रेजी सेना को मुद्दकी की पहली लड़ाई के समय हाथियों पर रसद पहुँचाते थे। उस समय फरीदकोट स्टेट ने वृटिश सेना को इमदाद पहुँचाई थी। इस सम्बन्ध में ऑइनाएबाड वंश हिस्सा नं. ३ केपृष्ट ५४० फरीदकोट स्टेट हिस्ट्री में लिखा है कि "इंडेंट के मुताविक तमाम जिसें फिलफोर हाथियों और ऊँटों पर लदवा कर गुजरातीमल साहुकार के मार्फत मौका जरूरत पर पहुंचा दी गई। इसी तरह इस त्यात के पृष्ट १४४ में लिखा है कि “अगरचे खजांची भावड़ा*कौम में से इंसखाव करके खजाना और तोसाखाना के तहत पील बनाये हुए थे। इससे मालूम होता है कि यहाँ के बोथरा जैन समाज ने लम्बे समय तक स्टेट के खजाने का काम किया था। इनमें मुख्य लाला मूलामजी, लाला शिब्बूमलजी, लाला देवीदासजी, लाला गोपीरामजी बोथरा, आदि हैं। इसी प्रकार लाला भीकामलजी गधैयाजी स्टेट खजाने का काम करते रहे।
• पंजाब प्रान्त में मोसवाल आदि जैन मतावलम्बियों को "भावड़ा" के नाम से बोलते है।
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सिवाल जाति का इतिहास
लाला गोकुलमलजी व रघुनायदासजी फरीदकोट महाराजा बलवीरसिंहजी के प्राइवेट खजांची रहे थे । आप दोनों मौजूद हैं। चौधरी हरभजमलजी स्थानीय म्यु० के वाइसप्रेसिडेंट थे। लाला मुंशीरामजी, चौधरी हैं। इसी तरह लाला परमानंदजी, पालामलजी व उत्तमचन्दजी का स्टेट खजाने से ताल्लुक रहा है।
बाबू किशोरीलालजी जैन, बोथरा-फरीदकोट (पंजाब)
लाला जातीमलजी साहुकारे का काम करते थे। इनके हरभजमलजी वसंतामलजी, सोनामलजी व चांदनरायजी नामक ४ पुत्र हुए। लाला हरभजमलजी फरीदकोट म्यु० के वाइस प्रेसिडेंट तथा शहर के चौधरी थे। उमर भर आप सरकारी कामों में सहयोग देते रहे। १९१४ के युद्ध में रिक्रट भरती कराने में आपने इमदाद दी । १९४२ में आप गुजरे । आपके भाई धन्धा करते रहे ।
.. लाला सोनामलजी के पुत्र लाला किशोरीमल जी जैन बी० ए० से सन् १९२७ में एल० एल० बी० की डिगरी हासिल की। आप गुरुकुल पंच कूला में ॥ साल तक अधिष्ठाता रहे। तथा १९२३ से ६ सालों तक आफताव जैन के सहायक सम्पादक तथा सम्पादक रहे ।
सेठ नथमल जीवराज बोथरा, मद्रास इस परिवार के पूर्व पुरुष पहले पहल खेजडले में रहते थे। वहाँ से आप लोग सरियारी और फिर भाउभा ठाकुर के प्रयत्न से चकपटिया ( सोजत ) में लाये गये । वहाँ पर आप लोगों को नगर सेठ की पदबी देकर उक्त ठाकुर साहब ने सम्मानित किया। आप श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सम्प्रदाय को मानने वाले हैं।
इस खानदान में सेठ भाकाजी हुए। आपके मुकनाजी और मुकनाजी के नथमलजी नामक पुत्र हुए। आप लोग यहाँ के ठिकाने के कामदारी का काम करते रहे। सेठ नथमलजी के पुत्र जीवराजजी
सेठ जीवराजजी का जन्म संवत् १९२६ में हुआ था । आप संवत् १९५८ में मद्रास भाये और यहाँ भाकर पट्टालमसूला गैन्सरोड में अपनी फर्म स्थापित की। आप संवत् १९६६ में मारवाद में स्वर्गवासी हुए। आपके केशरीमलजो, बख्तावरमलजी तथा पन्नालालजी नामक तीन पुत्र हैं। आप तीनों भाइयों का जन्म क्रमशः संवत् १९४४, १९४४ और १९५६ का है । आप तीनों इस समय सम्मिलित रूप से ही म्यापार करते हैं। आप लोगों ने अपनी फर्म की लीक उति की है।
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बोमर
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आप की फर्म पर मेसर्स
सेठ बख्तावरमलजी के घीसूलालजी नामक एक पुत्र है। जीवराज केशरीमल नाम पड़ता है।
रायबहादुर सेठ लखमीचंदजी बोथरा, कटंगी (सी. पी.) इस दूकान का स्थापन संवत् १८९५ में सेठ गोकुलचन्दजी बोथरा ने अपने निवास स्थान माताजी की देशनोक (बीकानेर-स्टेट) से आकर कटंगी में किया। भाप कपड़े का कामकाज करते हुए संवत् १९४२ की पोष सुदी ११ को स्वर्गवासी हुए । आपके पुत्र लखमीचन्दजी हैं।
बोथरा लखमीचन्दजी बालाघाट डिस्ट्रिक्ट के प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं । आप बालाघाट डिस्ट्रिक्ट बोर्ड तथा लोकल बोर्ड के ४० साल तक मेम्बर रहे, ४० सालों तक कटंगी सेनीटेशन कमेटी के प्रेसिडेण्ट रहे। सन् १९०३ से आप कटंगी-च के सैकण्ड क्लास ऑनरेरी मजिस्ट्रेट हैं। आप के मकान पर ही कोर्ट भरती है, क्या बापके सिवाय कटंगी में दूसरे मजिस्ट्रेट नहीं है। आपने यहाँ एक जैन मन्दिर बनवाया है। सन् १९०० में आप से प्रसन्न होकर भारत सरकार ने आपको रायबहादुर का सम्मान बक्षा है मापके यहाँ काश्तकारी तथा मालगुजारी का काम होता है। आपके एक पुत्र है जिनका नाम श्रीयुत देवीचंदजी हैं।
सेठ नथमल जुगराज, बोथरा दुर्ग (सी. पी.) इस दुकान के मालिक तींवरी (मारवाड़) के निवासी हैं। लगभग १८ साल पहिले सेठ नथमलजी बोथरा ने इस दुकान का स्थापन किया, तथा व्यापार को आपके ही हाथों उमति प्राप्त हुई। आपने परिश्रम करके दुर्ग में मारवाड़ी हिन्दी स्कूल बनवाया और अपनी ओर से भी काफी इमदाद पहुंचाई आप समझदार पुरुष थे । संवत् १९९० के ज्येष्ठ मास में आपका शरीरावसान हुआ।
वर्तमान समय में इस दूकान के मालिक सेठ नथमलजी के पुत्र जुगराजजी तथा हणुतमलजी हैं। आपके यहाँ कपड़ा, चांदी, सोना और साहूकारी व्यवहार होता है।
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दस्ताणी
इस परिवार के पूर्वजों का मूल निवास स्थान मंडोवर का था । वहाँ से आप लोग कोडमदेसर आकर बसे । उस समय इस परिवार में सेठ नागरपालजी के पुत्र नागदेवजी थे। आपको राव बीकाजी कोडमदेसर से बीकानेर के गये। सेठ बागदेवजी के बच्छराजजी, पासूजी, जूजोजी, कल्याणजी, रतनसीली, हूंगरसीजी, चौबसीजी, दासुसाजी, और अजबोजी नामक नौ पुत्र हुए। इनमें से यह परिवार दासुसाजी के वंशज होने से दस्साणी के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
बीकानेर का दस्सारणी परिवार
सेठ दासुजी के खेतसीजी, चांदमलजी, पदमसीजी, और मांडणशी नामक चार पुत्र हुए। यह परिवार पदमसीजी से सम्बन्ध रखता है। पदमसीजी के नेणदासजी और भगरसेनश्री नामक दो पुत्रहुए । नेणदासची के बाद क्रमशः तिलोकचन्दजी, सांवन्तरामजी व हंसराजजी हुए। हंसराजजी के सूरज म व जेठमलजी नामक दो पुत्र हुए। सेठ सूरजमलजी के संतोषचन्दजी, रायसिंहजी, फूंदराजजी, ज्ञानमलजी और सवाईसिंहजी नामक पाँच पुत्र हुए।
सेठ ज्ञानमलजी का परिवार
आपके जीवनदासजी तथा अवीरचन्दजी नामक दो पुत्र हुए। आप दोनों भाइयों का जन्म क्रमशः सं० १८६१ व १८६४ का था । आप लोग व्यापार कुशल व्यक्ति थे । आप लोग व्यापार निमित्त बिदनूर, बेवूल आदि स्थानों को गये । वहाँ पर आपने पहले पहल सर्विस की और फिर अपनी स्वतन्त्र फर्मे मेसर्स जीवनदास लखमीचन्द तथा अवीरचन्द बीजराज के नाम से स्थापित की। इन फर्मों के व्यव साथ में आप लोगों के हाथों से खूब वृद्धि हुई । सेठ जीवनदासजी संवत् १९४० के श्रावण में तथा सेठ अवीरचन्दजी संवत् १९४० के कार्तिक में स्वर्गवासी हुए। सेठ जीवनदासजी के पचालाळजी, लखमीचन्दजी एवं सुन्नीलालजी नामक तीन पुत्र हुए। इनमें से आपके प्रथम दो पुत्रों का स्वर्गवास संवत् १९५२ तथा १९७२ में होगया । सेठ लखमीचन्दजी के फतेचन्दजी नामक पुत्र हुए ।
वर्त्तमान में इस परिवार में सेठ मुखीलालजी प्रधान व्यक्ति हैं। आप व्यापार कुशल एवं मिलनसार सज्जन हैं। आपके नथमलजी नामक पुत्र हैं जो अवीरचन्दजी के परिवार में दत्तक गये हैं। सेठ फतेचन्दजी के अभयराजजी तथा सोभाचन्दजी नामक दो पुत्र हैं।
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दस्साणी
सेठ अबीर चन्दजी के बीजराजजी तथा चांदमलजी नामक दो पुत्र हुए । आप लोग भी व्यापार कुशल सज्जन थे । आपका स्वर्गवास क्रमशः संवत् १९५३ व १९७५ में हुआ। सेठ चांदमलजी के दीपचन्दजी नामक एक पुत्र हुए। आप बाल्यावस्था में ही स्वर्गवासी हुए। आपकी धर्मपत्नी श्री इन्द्रकुँवर
ने जैन स्थानकवासी सम्प्रदाय में सं० १९६७ में दीक्षा ग्रहण की।
सेठ चांदमलजी के कोई पुत्र न होने से आपने अपने भाई सुनीलालजी के पुत्र नथमलजी को दत्तक लिया । आप नवयुवक विचारों के पढ़े लिखे सज्जन हैं । आप बड़े सरल स्वभाव वाले तथा मिलनसार हैं। आपके भँवरलालजी नामक एक पुत्र है।
आपकी फर्म पर आठनूर ( बदनूर - वेतूल) में वींजराज चांदमल के नाम से जमींदारी, हुंडी चिट्ठी, बेकिंग, सोना चांदी का तथा कलकत्ते में चांदमल नथमल के नाम से ५९ सूता पट्टी में विकागती धोती का व्यापार होता है।
दराजजी का परिवार
सेठ फूंदराजजी के शुभकरनजी, ( कोड़ामलजी ) जोरावरमलजी और मदनचन्दजी नामक तीन पुत्र हुये । सेठ मदनचन्दजी के हीरालाळजी, माणकचन्दजी, हरकचन्दजी, सुगमचन्दजी, मूलचन्दजी, केवलचन्दजी तथा सर्वसुखजी नामक सात पुत्र हुए। सेठ केवलचन्दजी का परिवार गरोठ ( इन्दौर स्टेट ) मैं तथा अन्य सभी भाइयों का परिवार बीकानेर में ही निवास करता है ।
सेठ कोड़ामलजी का परिवार रायपुर ( सी० पी० ) में है । सेठ जोरावरमलजी ने मदनचन्दजी के दूसरे पुत्र माणकचन्दजी को दत्तक लिया । आपके नथमलजी, वागमलजी और मेघराजजी नामक पुत्र हैं। इनमें बागमलजी का स्वर्गवास होगया है । आपके पुत्र दुलीचन्दजी नथमलजी के यहाँ गोद गये
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मेघराजजी के जोगीलालजी तथा डूंगरमलजी नामक पुत्र हैं।
सेठ हरकचन्दजी के मुनीलालजी व भेरोंदानजी नामक दो पुत्र हुए। इनमें से प्रथम दचक चले गये । आपके रतनलालजी नामक पुत्र हैं। भेरोंदानजी के जेठमलजी, पूनमचन्दजी, भँवराजी एवं सम्पतलालजी नामक पुत्र हैं। सेठ सुगनचन्दजी के परिवार में इस समय कोई नहीं है। सेठ मूलचन्दजी के बुलाखीचन्दजी नामक पुत्र हैं । आप धार्मिक प्रकृति के पुरुष हैं। आप अपने कल्कले के व्यवसाय को वयोवृद्ध होने के कारण समेट कर बीकानेर में शांति लाभ कर रहे हैं। आपके सोहनलाल जी नामक एक पुत्र हुए जिनका स्वर्गवास हो गया है।
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मुहणोत
मुहणोत गोत्र की उत्पत्ति - मुहणोत की उत्पत्ति राठौड़ वंश से हुई है। मुहणोतों की ख्यातों में लिखा है जोधपुर के राव रायपालजी के तेरह पुत्र थे। इनमें बड़े पुत्र कन्हपालजी तो राज्याधिकारी हुए और चतुर्थ पत्र मोहनजी मुहणोत या मोहनोतकुल के आदि पुरुष हुए। भाटों की ख्यातों में लिखा है कि एक समय मोहनजी शिकार खेलने गये थे । आपकी गोली से एक गर्भवती हिरनी मर गई। इसी बीच में उसके गर्भ से बच्चा हुआ और वह अपनी मरी हुई माता का स्तन पीने लगा। यह करुणापूर्ण दृश्य देख कर मोहनजी का कोमल हृदय पसीज गया । उन्हें अपने इस हिंसाकाण्ड से बड़ी घृणा हुई। उनके सामने उक्त हरिनी और उसके बच्चे का करुणा पूर्ण दृश्य नाचने लगा । वे बड़े गम्भीर विचार में पड़ गये और खेड़ ग्राम की एक बावड़ी के पास बैठ गये । इतने ही में जैनाचार्य्यं यति शिवसेनजी ऋषिश्वर उधर से निकले और आपने मोहनजी से जल छानकर पिलाने को कहा। इस पर मोहनजी आनन्द से गद् गद् हो गये । उन्होंने ऋषिश्वर को जल पिला कर अपने आपको धन्य समझा। इसके बाद मोहनजी ने बड़ी दीनता के साथ उक्त पतिजी से निवेदन किया कि अगर आपकी मुझ पर कुछ भी दया है तो इस हिरनी को जीवदान दीजिये । इस पर ऋषिश्वर ने उक्त हरिनी पर अपने हाथ की लकड़ी फेरी जिससे वह जीवित हो उठी। यह देखकर मोहनजी बड़े ही प्रसन्न हुए उनकी आत्मा को बड़ी शांति मिली। उन्होंने ऋषिश्वर शिवसेन जी को अपना गुरु स्वीकार कर सम्वत् १३५१ की कार्तिक खुदी १३ को खेड़ नगर में जैनधर्म का अवंलम्बन लिया ।
उपरोक्त घटना-वर्णन में कुछ अतिशयोक्ति हो सकती है, पर यह निश्चय है कि किसी करुणोत्पादक घटना से प्रभावित होकर मुहनोतवंश के जनक मोहनजी ने यति श्री शिवसेन ऋषिश्वर से जैन धर्म स्वीकार किया और तब से ओसवाल जाति में उनकी गणना होने लगी ।
सपटसेनजी
आप मोहनजी के पुत्र थे । आपका दूसरा नाम सुभटसेनजी भी था । भाटों की ख्यात में लिखा है कि आप जोधपुर नरेश राव कन्हपालजी के समय में प्रधानगी के पद पर रहे। सम्बत् १३७१ में आप मौजूद थे । आपके पीछे आपकी पत्नी श्रीमती जीवादेवी सती हुई । आपके दो पुत्र थे – (१) महेश
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मुहणोत
जी और ( २ ) भोजराजजी। महेशजी के देवीचन्द्र और कालचन्द नामक दो पुत्र थे । देवीचन्द्रमी के बाद क्रम से शार्दूलसिंहजी और देवीदासजी हुए, जिनके समय में कोई महत्वपूर्ण घटना नहीं हुई।
खेतसिंहजी
___ आप संवत् १४५४ में राव चुन्डाजी के राज्यकाल में मारवाद की पुरानी राजधानी मण्डोवर आये । ख्यातों में लिखा है कि आपने मारपद राज्य की स्थापना तथा विस्तार में राव तुण्डाजी का बहुत साथ दिया था। मेहराजजी
आप राव जोधाजी के समय में मण्डोवर से जोधपुर आकर बसे । ख्यातों में लिखा है कि आप जोधाजी के समय में प्रधान के पद पर रहे। सम्वत् १५२६ में आपने किले के पास हवेली बनवाई। आपके बाद श्रीचन्द्रजी, भोजराजजी, कालुजी, बस्तोजो, मोहनजी (द्वितीय) सामन्तजी, नगाजी, और सूजाजी हुए जिनका विशेष वृतान्त नहीं मिलता है। अचलाजी
आप सूजाजी के पुत्र थे। जब राव चन्द्रसेनजी ने विपतिग्रस्त होकर जोधपुर छोड़ दिया था और सम्बत् १६२७ में मारवाड़ के सीवाणे के जंगल में रहे थे, तब अचलाजी भी आपके साथ थे। इसके बाद सम्बत १६३१ में जब चन्द्रसेनजी मेवाड़ परगने के मुरादा * गाँव में जाकर रहे थे, तब भी अचलाजी आप के साथ थे। वहाँ से रावजी सिरोही इलाके के कोरंटे ग्राम में डेढ़ वर्ष तक रहे। वहाँ भी अचला जी आपकी सेवा में बराबर रहे। इसके पश्चात् रावचन्द्रसेनजी हूँगरपुर के राजा के पास गये । वहाँ उन्होंने आपको गलियाकोट नामक ग्राम दिया जहाँ रावजी लगभग ३ वर्ष तक रहे। यहाँ भी राजभक्त अचलाजी ने आपके साथ विपति के दिन बिताए। इसके पश्चात् रावजी के पास मारवाद के सरदारों का सन्देश आया कि मारवाद का राज्य खाली है। आप तुरन्त पधारिये। तब रावजी मारवाद के सोजत नगर की ओर गये। कहना न होगा कि अचलाजी भी आपके साथ आये। इसी समय फिर बादशाह अकबर ने चन्द्रसेन पर फौज भेजी। सम्वत् १६३५ के श्रावणब्द 11 को सोजत परगने के सवराद गाँव
* यह ग्राम इस वक्त मारवाद के बाली परगने में है। यह गाँव गव चन्द्रसेनजी की राणी को उदयपुर राणाली की भोर से दायजे में मिला था। .....
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श्रोसवात जाति का इतिहास
में उक्त फौज से रावजी का युद्ध हुआ। वहाँ अन्य वीरों के साथ अचलाजी भी वीरगति को प्राप्त हुए। इनके स्मारक में उक्त ग्राम में एक छत्री बनवाई गई जो अब तक विद्यमान है।
जयमलजी
. मुहणोत वंश में आप बड़े प्रतापशाली पुरुष हुए। आपका जन्म सम्बत् ११३८ की माषसुदी ९ बुधवार को हुना। आपका पहला विवाह वैद मुहता लालचन्द्रजी की पुत्री स्वरूपादे से हुआ, जिनसे नैणसीजी, सुन्दरसीजी, और आसकर्णजी हुए। दूसरा विवाह सिंहवी बिदसिंहजी की पुत्री सुहागदे से हुभा, जिनसे नृसिंहदासजी हुए।
___ जयमलजी बड़े वीर और दूरदर्शी मुत्सद्दी थे। महाराजा सूरसिंहजी ने आपको बड़नगर (गुज. रात ) का सूबा बना कर भेजा था। इसके बाद जब सम्बत् १६०२ में फलौदी पर महाराजा सूरसिंहजी का अधिकार हुआ तब मुहणोत जयमलजी वहाँ के शासक बनाकर भेजे गये। महाराजा सूरसिंह जी के बाद महाराजा गजसिंहजी जोधपुर के सिंहासन पर बिराजे । सम्बत् १६७७ के बैसाख मास में गनसिंहजी को जालोर का परगना मिला। उस समय जयमलजी वहाँ के भी शासक बनाये गये। महा. राजा गजसिंहजीने आपको हवेली, बाग, नौहरा और दो खेत इनायत किये । जब सम्वत् १९७६ में शाहजादा कुर्रम ने महाराजा गजसिंहजी को सांचोर का परगना प्रदान किया, तब जयमलजी अन्य परगनों के साथ साथ सांचोर के शासक भी नियुक्त किये गये ।
सम्वत् १६४४ में जयमलजी ने बाड़मेर कायम कर सूराचन्द्र, पोहकरण, राऊदड़ा और मेवासा के बागी सरदारों से पेशकशी कर उन्हें दण्डित किया।
विक्रम सम्बत १६८९ में महाराजा गजसिंहजी के बड़े कुँवर अमरसिंहजी को नागोर मिला । इस वक्त जबमलजी नागोर के शासक बनाये गये।
जयमलजी की वीरता-हम ऊपर कह चुके हैं कि मुहणोत जयमलजी बड़े वीर पुरुष थे । सम्बत १६01 में जब महाराजा गजसिंहजी को सांचोर का परगना जागीर में मिला तब कोई ५००० कान्छी सांचोर पर चढ़ आये। उस समय जयमलजी वहाँ के हाकिम थे। इन्होंने काच्छियों के साथ वीरतापूर्वक युद्ध किया और उन्हें मार भगाया। इसी प्रकार आपने जालोर में बिहारियों से लड़ कर वहां के गद पर अधिकार कर लिया था। सम्बत १९८६ में आपको दीवानगी का प्रतिष्ठित पद प्राप्त हुआ।
जयमलजी के धार्मिक कार्य-जयमलजी मूर्तिपूजक जैनश्वेताम्बर पंथ के थे । मापने ई
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* मुहणोत स्थानों में मैनमन्दिर और उपाश्रय बनवाये। उन सब का हाल उपलब्ध नहीं है। पर जिन जिन का पता लगा है उन पर थोड़ा सा प्रकाश डालना आवश्यक प्रतीत होता है।
(1) जालोर मारवाड़ का एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान है। जयमलजी यहां के शासक रह चुके थे। इस किले पर जो जैन मन्दिर हैं, उनका जीर्णोद्धार जयमलजी ने करवाया और उनमें प्रतिमाएं प्रतिष्ठित करवाई। इसके सिवा आपने उक्त नगर में तपागच्छ का उपाश्रय भी बनवाया ।
___ इसके अतिरिक्त यहीं आपने चौमुखजी के मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई थी, जिसका सविस्तार वर्णन हम जालौर के मन्दिरों के प्रकरण में कर चुके हैं ।
इनके अतिरिक्त सम्बत् १६८३ में आपने शत्रुजयजी में एक जैन मन्दिर बनवाया । आपने मेड़ता, सीवाणा, फलौदी आदि मगरों में भी जैन मन्दिर और उपाश्राय बनवाये ।
सम्बत् १६८३ में आपने शर्बुजय, आबू और गिरनारजी की यात्राएँ की और बड़े-बड़े संघ निकलवाये । सम्वत् १६४६ में जयमलजी ने जोधपुर में चौमुखजी का मन्दिर बनवाया।
___ सम्वत् १६८७ में आपने हजारों भूखों और अनाथों को अन्न और वस दान दिया। एक वर्षसक बराबर वान देते रहे । आपकी दानवीरता दूर दूर तक प्रसिद्ध थी।
ठाकुर मुहणोत नैणसी-जिन महापुरुषों ने राजस्थान के राजनैतिक, सैनिक और साहित्यिक इतिहास को गौरवान्वित किया है, उनमें मुहणोत नेणसी का भासन बहुत ऊँचा है। आपकी कीर्ति
राजस्थान तक ही परिमित नहीं है, पर वह सारे भारतवर्ष के साहित्य संसार में फैली हुई है। आप कलम और तलवार के धनी थे । अर्थात् भाप वीर और विद्वान् दोनों ही थे। आपका सारा जीवन राज्य काय्यं, देश सेवा, विद्यानुराग, और परोपकार वृति में लगा। आपने राजस्थान का एक अमूल्य इतिहास ग्रंथ लिखा, जिससे आज के बड़े २ दिग्गज इतिहासवेत्ता प्रकाश ग्रहण करते हैं। आपने मारवाड़ के प्रामों की खानाशुमारी की और प्रत्येक गांव की जन संख्या, कुंओं, जमीन और आय आदि का पूरा हाल अपने ग्रंथ में दिया। आपने महाराजा जसवन्तसिंहजी के समय में दीवान पद पर रह कर कई मार्के के बड़े । काम किये। अब हम आपकी महान् जीवनी पर थोड़ा सा प्रकाश डालना चाहते हैं।
____ आप, जैसा कि हम ऊपर कह चुके हैं, जयमलजी के पुत्र थे और आपका जन्म जयमलजी की प्रथम पत्नी सरूपदे से हुआ था। आपका पहला विवाह भंडारी नारायणदासजी की पुत्री से और दूसरा विवाह मेहता भीमराजजी की कन्या से हुआ। दूसरी पत्नी से कर्मसीजी,बेरीसीजी और समरसीजी हुए।
नेणसी जी के सैनिक कार्य-नेणसीजी बड़े बहादुर सैनिक थे। भापको अपने जीवन में कई
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श्रोतवाल जाति का इतिहास
रूदाइयाँ लड़मी पड़ी। सम्वत् १६८८ में मगरे के मेवों (मीनों) ने बड़ा उत्पात मचाया था। लूटमार से इन्होंने प्रजा को बड़ा तंग कर रखा था। महाराजा गजसिंहजी की आज्ञा से आपने उन पर सैनिक चदाई की और मेवों का (मीनों) दमन कर वहाँ शान्ति स्थापित की।
वि० सं० १७०० में महेचा महेसदास बागी होकर राइधरे के गाँवों में बिगाद करता रहा, जिस पर महाराज जसवन्तसिंह ने नैणसी को राइधरे भेजा। उसने राइधरे को विजय कर वहाँ के कोट (शहरपनाह ) और मकानों को गिरवा दिया तथा महेचा महेसदास को वहाँ से निकाल कर राधड़ा अपनी फौज के मुखिया रावल जगमल भारमलोत (भारमल के पुत्र) को दिया। सं० १७०२ में रावत नराण (नारायण ) सोजत की ओर के गाँवों को लूटता था, जिससे महाराज ने मुहणोत नैणसी तथा उसके छोटे भाई सुन्दरदास को उस पर भेजा। उन्होंने कूकड़ा, कोट, कराणा, माँकड आदि गाँवों को नष्ट कर दिया । वि० सं० १७॥ में महाराज जसवन्तसिंह (प्रथम ) ने मियाँ फरासत की जगह नैणसी को अपना दीवान बनाया। महाराज जसवन्तसिंह और औरंगजेब के बीच अनबन होने के कारण वि० सं० १७१५ में जैसलमेर के रावल सबलसिंह ने फलोदी और पोकरण जिलों के 10 गाँव लुटे, जिस पर महाराज ने अहमदाबाद जाते हुए, मार्ग से ही मुहणोत नैणसी को जैसलमेर पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी। इस पर वह जोधपुर आया और वहाँ से सैन्य सहित चढ़कर उसने पोकरण में डेरा किया। इस पर सबलसिंह का पुत्र अमरसिंह, जो पोकरण जिले के गाँवों में था, भागकर जैसलमेर से तीन कोस की दूरी के गाँव बासणपी में जा ठहरा। परन्तु जब रावल किला छोड़ कर लड़ने को न आए, तब नैणसी आसणी कोट को लूटकर लौट गये।
नैणसी की मृत्यु-संवत् १७२३ में महाराज जसवन्तसिंह औरंगाबाद में थे उस समय मुहणोत मैणसी तथा उसका भाई सुन्दरदास दोनों उनके साथ थे। किसी कारण वशात् महाराज उनसे अप्रसन्न होरहे थे, जिससे पौष सुदी ९ के दिन उन दोनों को कैद कर दिया। महाराज के अप्रसन्न होने का ठीक कारण ज्ञात नहीं हुमा । परन्तु जमश्रुति से पाया जाता है कि नैणसी ने अपने रिश्तेदारों को बड़े बड़े पदों पर नियत कर दिया था और ये लोग अपने स्वार्थ के लिये प्रजा पर अत्याचार किया करते थे। इसी बात जामने पर महाराज उससे अप्रसन्न हो रहे थे।
. वि० सं० १७२५ में महाराज ने एक लाख रुपया दंड लगाकर इन दोनों भाइयों को छोड़ दिया; परन्तु इन्होंने एक पैसा तक देना स्वीकार न किया । इस विषय के नीचे लिखे हुए दोहे राजपूताने में अब तक प्रसिद्ध हैं
१ मगरा--पहाड़ी प्रदेश, सोजत और जैतारण परगने में अर्बली पहास की श्रेणी को कहते हैं ।
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स्व. मुहणोत नेणसी दीवान राज्य मारवाड़, जोधपुर.
स्व० सुहणोत सुन्दरसी दावान, जोधपुर.
श्री वृद्धराजजी मुहणोत, जोधपुर.
स्व० सेठ लछमणदासजी मुहणोत रीयाँवाले, कुचामण
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लाख लखाराँ नीपजे, बड़ पपिल री साख ।
नाटयो मूँतो नैणसी, वाँबो देण तलाक ॥ १ ॥ लेसो पीपल लाख, लाख लखाराँ लावसो । ताँबो देण तलाक, नटिया सुन्दर नयासी ॥ २ ॥
मैणसी और सुन्दरदास के दण्ड के रुपये देना अस्वीकार करने पर वि० सं० १७२६ माघ वदी १ को फिर क़ैद कर दिए गए और उन पर रुपयों के लिये सख़्तियाँ होने लगी । फिर कैद की हालत में ही इन दोनों को महाराज ने औरंगाबाद से मारवाद को भेज दिया। दोनों वीर प्रकृति के पुरुष होने के कारण इन्होंने महाराज के छोटे आदमियों की सक्तियाँ सहन करने की अपेक्षा वीरता से मारना उचित समझा। वि० सं० १७२७ की भाद्रपद बदी १३ को इन्होंने अपने पेट में कटार मारकर मार्ग में ही शरीरांत कर दिया । इस प्रकार महा पुरुष नैणसी की जीवन लीला का अंत हुआ और महाराज की बहुत कुछ बदनामी हुई । नैणसीजी की साहित्य सेवा-जैसा कि हम ऊपर लिख चुके हैं मुहणोत नैणसी बड़े विद्वान्, साहित्य सेवी और इतिहास- प्रेमी थे । वीर कथाओं से आपका बड़ा अनुराग था । राजस्थान के इति हास पर आपने एक बड़ा ही प्रमाणिक और महत्पूर्ण ग्रन्थ लिखा जो 'मुहणोत नैणसी की स्मात' के नाम से प्रसिद्ध है । इस प्रन्थ-रक्ष में राजपूताना, गुजरात, काठियावाड़, कच्छ, बघेलखण्ड बुड और मध्य भारत आदि के इतिहास से सम्बन्ध रखनेवाली बड़ी ही बहुमूल्य सामग्री भरी हुई है । राजपूताने के इतिहास के किये तो यह ग्रन्थ अमूल्य है ।
इस ग्रंथ रन की सामग्री इकट्ठा करने में नैणसीजी ने बड़ा परिश्रम किया । जहाँ २ से आपको सामग्री मिली वहाँ से आपने संग्रह की। इससे यह ग्रंथ इतिहास वेत्ताओं के लिये बड़ा ही उपयोगी और मूल्यवान हो गया । वि० सं० १३०० के बाद से नैणसी के समय तक के राजपूतों के इतिहास के लिये तो मुसलमानों को लिखी हुई फ़ारसी तवारीखों से भी नैणसी की ख्यात कहीं २ विशेष महत्व की है। राजपूताना के इतिहास में कई जगह जहाँ प्राचीन शोध से प्राप्त सामग्री इतिहास की पूर्ति नहीं कर सकती, वहाँ नैणसी की ख्यात ही कुछ-कुछ सहायता देती है। यह इतिहास का एक अपूर्व संग्रह है। स्वर्गीय मुंशी देवीप्रसादजी तो नैणसी को "राजपूताने का अब्बुलफ़जल" कहा करते थे, जो अयुक्त नहीं हैं। ख्यात की भाषा लगभग २७५ वर्ष पूर्व की मारवाड़ी है, जिसका इस समय ठीक २ समझना भी सुलभ नहीं है । नैणसी में जगह जगह राजाओं के इतिहास के साथ २ कितने ही लोगों के वर्णन के गीत, दोहे, छप्पय आदि
• राय बहादुर भोकाजी के लेख से ।
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मुहणोत
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श्रो सवाल जाति का इतिहास
भी उद्धृत किये हैं, जो डिंगल भाषा में हैं । उनका समझना तो कहीं-कहीं और भी कठिन है । मुहणोत सुन्दरसीजी
उनमें से कुछ तो ३०० वर्ष से भी अधिक पुराने हैं ।
आप जयमलजी के तीसरे पुत्र और नैणसीजी के भाई थे। शनिवार को आपका जन्म हुआ। महाराजा यशवन्तसिंहजी ने सं० (Private Secretary ) का पद प्रदान किया. । सम्वत् १७२३ तक आप इस पद पर रहे । सम्बत् १७१३ में सिंघलबाग पर महाराजा जसवन्तसिंहजी ने फौज भेजी । उक्त सिंधळबाग अपनी फौज सहित लड़ने को तैयार बैठा था । महाराजा की फौज में ६९१५ पैदल थे, जिनके दो विभाग किये गये। पहले विभाग का सेनानायकत्व राठौड़ लखधीर विट्ठलदासोत को दिया गया। दूसरे विभाग का जिसमें ३३७२ सैनिक थे, सञ्चालन भार मुणोत सुन्दरसी पर रखा गया। सिंधलों और महाराजा की फौजों में लड़ाई हुई, जिसमें महाराजा की फौजों की विजय हुई। संवत् १७२० में महाराजा जसवन्तसिंहजी की सेवाने बादशाह औरङ्गजेब की ओर से प्रातःस्मरणीय छत्रपति शिवाजी पर चढ़ाई की। कुँडा के गढ़ पर बड़ाई हुई। इस युद्ध में सेना के आगे रह कर मुहणोत सुन्दरसी बड़ी बहादुरी से लड़े थे । वे इस युद्ध में जमी हुए। पर इसमें गढ़ पर से महाराजा की फौज पर इतने भयङ्कर गोछे बरसे कि उनकी फौज को पीछे हटना पड़ा ।
सम्वत् १७१४ में पांचोंटा और कंबला के सरदारों ने महाराजा के खिलाफ विद्रोह किया, जिसे सुन्दरसीजी ने दबाया ।
सम्वत् १७१६ में महाराजा जसवन्तसिंहजी गुजरात के सूबे पर थे। वहाँ से उन्होंने महाराज कुमार श्री पृथ्वीसिंहजी को बादशाह के हुसुर में भेजे। उनके साथ सुन्दरसीजी और राठौड़ भीमसिंहजी गोपालदासोत को भेजे ।
सम्बत् १६६८ की चैत्र सुदी ८ १७११ में आपको “तन दीवानगी"
महाराजा जसवन्तसिंहजी की कई पासवानें औराङ्गाबाद थीं । उन्हें लेने के लिये महाराजा ने पूजे के मुकाम से सम्वत् १७२० की अषाढ वदी ५ को सुदरसीजी को भेजा और उनके साथ २१०० सवार दिये । मार्ग में शिवाजी के ५०० सवार इनके साथवाली बैलों की जोड़ियाँ पकड़ ले गये । सुंदरसीजी ने उनका पीछा किया । लड़ाई हुई और सुंदरसीजी ने बैलों की जोड़ियाँ छुड़ाली ।
सम्वत् १७२३ की पौष सुदी ९ को महाराजा यशवन्तसिंहजी ने किसी कारणवश नाराज होकर सुंदरसीजी से "तन दीवानगी" का पद लेलिया । सम्वत् १९२७ में आप अपने भाई नैणसीजी के साथ पेट में कटारी खाकर वीरगति को प्राप्त हुए, जिसका उल्लेख नैणसीजी के वृतान्त में दिया गया है।
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मुहमोत
दीवान कर्मसीजी
आप सुप्रख्यात् दीवान नैणसीजी के प्रथम पुत्र थे। सम्बत् १६९० के वैसाख सुदी २ को भापका जन्म हुआ। आपका शुभ विवाह कोयरी जगनाथसिंहजी की पुत्री से हुआ, जिनसे आपको प्रतापसिंहजी और संग्रामसिंहजी नामक दो पुत्र हुए।
सम्बत् १७१४ की भाद्रपद सुदी १० को तत्कालीन मुगल बादशाह शाहजहाँ दिल्ली में बीमार होगया। इससे वह मार्गशीर्ष बदी ५ को आगरे चला आया। बादशाह की बीमारी का समाचार पाकर युवराज दाराशिकोह को छोड़ कर दूसरे सब शाहजादे बादशाहत लेने के लिए अपने अपने सूओं से रवाना हुए। जब यह बात बादशाह को मालूम हुई तब उसने औरङ्गजेब और मुराद को (जो दक्षिण के सूबे पर थे) रोकने के लिए महाराजा यशवन्तसिंहजी को २२ बादशाही उमरावों के साथ रवाना किए । सम्बत् १७११ की माधवदी १ को आप लोग उज्जैन पहुंचे। जब महाराजा को उज्जैन में यह सूचना मिली कि शाहजादा मुरादबख्श उज्जैन आ रहे हैं तो आप लोग भी मुकाबले के लिए खाचरोद मुकाम पर पहुंचे। वहाँ से मुराद पीछा फिर गया और वह औरङ्गजेब के शामिल होगया। इस पर महाराजा ने खाचरोद से कुच कर उज्जैन से पाँच कोस के अन्तर पर चोरनराणा (वर्तमाम में इसे फतियाबाद कहते हैं ) गाँव में मुकाम किया। औरङ्गजेब भी अपनी फौज सहित वहाँ आ पहुँचा। बादशाह के २२ उमरावों में से १५ औरङ्गजेब के साथ मिल गये। इससे महाराजा यशवन्तसिंह की स्थिति बड़ी कमजोर हो गई। फिर भी महाराजा ने औरङ्गजेब से युद्ध किया। इस युद्ध में करमसीजी भी बड़ी बहादुरी से लड़कर घायल हुए थे। भापके अरिरिक्त इस युद्ध में महाराजा के १४२ सरदार, ७०१ राजपूत और ३०१ घोड़े मारे गये। बहुत से आदमी घायल भी हुए। इस युद्ध में महाराजा की हार हुई । वे कुछ घायल भी हुए। उन्हें लौट कर जोधपुर आना पड़ा।
संवत् १७१८ में कर्मसीजी महाराजा के साथ गुजरात में थे। जब महाराजा को पादशाही से हाँसी हिसार के परगने मिले तो अहमदाबाद के मुकाम से उन्होंने इनको संवत् १७१४ के मार्गशीर्ष वदी ८ को वहाँ के शासक नियत कर भेजे। ये परगने ( तेरह लाख की आमदनी के) गुजरात के सूबे की एवज में मिले थे। कर्मसीजी हाँसी-हिसार में संवत् १७२३ तक रहे । संवत् १७२७ में इनके पिता
कर्मसीजी के अतिरिक्त इस लड़ाई में और भी कई श्रोसवाल मारे गये तथा घायल हुए जिनमें मुहता कृष्णदास, मुहता नरहरिदास सुराणा ताराचन्द, भण्डारी ताराचंद नारणोत (दीबान) भण्डारी भभयराज रायमलोत के नाम उल्लेखनीय है।
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पोसवाल माति का इतिहास
मणसीजी और काका सुन्दरदासजी की मृत्यु घटना से श्री महाराजा ने इन्हें तथा इनके माता वैरसीजी, समरसीजी, और सुन्दरदासजी के पुत्र तेजमालजी, मोहनदासजी को छोड़ दिए थे, परन्तु उस समय महाराजा के पास इनके शत्रुओं का ज़ोर बहुत होने से इनको यही आशंका बनी रही कि कहीं फिर हम लोगों को भय का सामना करना न पड़े। इसी से कर्मसीजी नागौर के राजा रायसिंहजी * की सेवा में चले गए। इनको इसी संवत् में राजाजी ने 'दीवानगी' और 'जागीर' इनायत की ।
संवत् १०११ के अषाद वदी १२ को शोलापुर (दक्षिण) में राव रायसिंहजी केवळ चार घड़ी बीमार रह कर देवलोक हो गए। सरदार मुत्सुद्दी आदि ने जो इनके साथ थे, वहाँ के वैच से उनकी इस अकस्मात मृत्यु का कारण पूछा, तो उसने, अपनी साधारण भाषा में कहा कि “कर्मानो दोष है" अर्थात् कर्म की गति ऐसी ही थी। परन्तु उन सरदार आदि ने यह समास लिया कि इस कर्मा अर्थात् कर्मसी ( मोहनोत ) ने कुछ ऐसा षड़यंत्र किया कि जिससे इनकी मृत्यु हुई है। उस समय सिंहवी चूहदमलजी दीवान थे, और उनको कर्मसीजी का नागोर में ( राजाजी के समीप ) रहना बहुत अखरता था इन्होंने भी कर्मसीजी के खिलाफ बहुत जहर उगला । समय अनुकूल देख कर कर्मसीजी को तो वहीं ( शोलापुर में) भीत में चुनवा कर मरवा दिये और इनके परिवार वालों को भी मरवा देने के लिए नागौर के कुंवर इन्द्रसिंहजी से विनती की। इस पर नागोर में नीचे लिखे इनके कुटुम्बी मरवाये गये ।
(१) सुन्दरदासजी के पुत्र मोहनदासजी और तेजमालजी । (1) करमसीजी के ज्येष्ठ पुत्र प्रतापसिंहजी । (1) मोहनदासजी के साले हरिदासजी। (३) मोहनदासजी के पुत्र गोकुलदासजी, जो केवल २४ वर्ष की वय के थे, और दो छोटे बचें। (1) कला का पुत्र नारायणदास, जो करमसीबी के साथ में था, वहीं मारा गया।
इस प्रकार निर्दोष हत्याएं कर राज्य को कलंकित किया गया। किन्तु ईश्वर की लीला अपरम्पार है। इस कहावत के अनुसार कि "जिनको रक्खे साँईया, मार सके नहिं कोय । उस जगदीश्वर को इस कुटुम्ब की जड़ फिर भी हरी रखना स्वीकार थी। करमसीजी के द्वितीय पुत्र संग्रामसिंहजी और नैणसीजी के द्वितीय पुत्र समरसीजी के द्वितीय पुत्र सामन्तसिंहजी को 'फूला' नामक धाय और एक दूसरी 'डावड़ी' ( नौकरानी) लेकर नागोर से छिपे तौर से निकल कर कृष्णगद चली आई जहाँ कि समरसीजी
• नागोर का राज्य उस समय जोधपुर राज्य से स्वतंत्र था।
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मुहणोत
और बैरसीजी ( नैणसीजी के द्वितीय और तृतीय पुत्र ) मालवे की ओर से आकर रहे थे। सिंहवी विट्ठलदासजी ने कुँवरजी से निवेदन कर अपने दौहित्र टोडरमल ( सुन्दरदासजी के पौत्र और तेजमालजी के पुत्र ) at स्त्रियों और बाल बच्चों सहित मारने से बचाया ।
मुहणोत संग्रामसिंहजी
आप करमसीजी के पुत्र और दीवान नैणसी के पौत्र थे । की पुत्री से हुआ जिससे आपको भगवतसिंहजी और सिहोजी नामक पुत्र हुए।
कर्मसीजी के दीवाल में चुनाये जाने का तथा उनके कुटुम्बियों के मारे जाने का हाल हम पहले लिख चुके हैं। ऐसे कठिन समय में नागोर से फूला नामक एक विश्वसनीय धाय वालक संग्रामसिंहजी को लेकर कृष्णगढ़ चली आई। तब से आप वहीं रहने लगे । कृष्णगढ़ महाराजा ने इन पर बड़ी कृपा रखी और इन्हें कुए, खेत आदि प्रदान किये ।
कुछ वर्ष व्यतीत होने पर भण्डारी खींवसीजी (प्रधान) और भण्डारी रघुनाथजी ( दीवान ) मे तत्कालीन जोधपुर नरेश महाराजा अजितसिंहजी से निवेदन किया कि संग्रामसिंहजी और वैरीसिंहजी के पुत्र सामन्तसिंहजी जोधपुर बुला लिये जावें । महाराजा ने यह बात स्वीकार करली । आप लोग जोधपुर बुला लिये गये। इतना ही नहीं संग्रामसिंहजी को सात परगनों की हुकूमत दी गई। आपने बड़े २ सैनिक पदों पर भी कार्य किया ।
आपका विवाह मुहता कालरामजी
सम्वत १७३६ में जब बाहरी शत्रुओं के घेरे के कारण राज्य परिवार ने जोधपुर किला खाली कर दिया, तब माजी साहबा वाघेलीजी तथा दूसरे जनाना सरदारों ने मुहणोतों की हवेली में निवास करने की इच्छा प्रकट की । तदनुसार कुछ दिनों तक राज्य कुटुम्ब की महिलाएँ मुहणोंतों की हवेली में रहीं ।
सम्वत् १७७२ में महाराजा अभयसिंहजी ने संग्रामसिंहजी को मेड़ता में बाग बनवाने के लिये १६० बीघा जमीन इनायत की, जो अभी तक उनके वंशजों के अधिकार में है ।
यह बाग सुहणोतों के
बाग के नाम से मशहूर है ।
भगवतसिंहजी
आप संग्रामसिंहजी के पुत्र थे । आपका विवाह मुहता श्रीचन्द्रजी की पुत्री से हुआ। आपके तीन पुत्र थे, जिनका नाम सूरतरामजी, साहिबरामजी और अणदरामजी था। इनमें साहिबरामजी के
* यह हवेली किले के पास ही है।
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
मौलाद नहीं हुई और अणदरामजी की कुछ पीदियों तक बंश चल कर कुछ समय बाद उसका अन्त हो गया।
रावजी सुरतरामजी
__ भाप भगवतसिंहजी के पुत्र थे। मुहणोत खानदान में आप भी बड़े प्रतापी और बहादुर हुए। महाराजा बखतसिंहजी के राज्य काल में सम्वत् १८०८ में आप फौज बख्शी के उच्च सैनिक पद पर नियुक्त किये गये। आपने यह कार्य बड़ी ही उत्तमता के साथ किया। महाराजा ने आपकी सेवाओं से प्रसन्न होकर आपको ३००० रेख के लुनावास और पालुं नामक दो गाँव जागीर में दिये। आपने कई युद्धों में प्रधान सेनापति की हैसियत से सेना संगलन किया था। दरबार आपकी बहादुरी और कार्य कुशलता से बहुत प्रसन्न हुए और आपको दीवानगी तथा १५०००) प्रतिसाल की रेख के गाँव और पालकी तथा बहुमूल्य शिरोपाव देकर आपकी प्रतिष्ठा की।
सम्वत् १८२२ में दक्षिणी खानू मारवाड़ पर चढ़ आया। महाराजा के हुक्म से सुरतरामजी इसके मुकाबले के लिये गये। युद्ध हुआ और इसमें सुरतराम को सफलता मिली। उन्होंने शत्रुओं की सामग्री छीनली। खानू तो अजमेर की ओर तथा उसके सहायक चंपावत सरदार सांभर भाग गये। इस युद्ध को जीत कर वापस आते समय आपने पीह नामक ग्राम में मुकाम किया। वहाँ से पर्वतसर जिले के बसी नामक गाँव में जाकर घेरा डारा। वहाँ के सरदार मोहनसिंहजी ने सामना किया। पर वे हार गये। सुरतरामजी मोहनसिंह से दण्ड वसूल कर जोधपुर लौट आये, जहाँ महाराजा ने आपकी बड़ी इजत की। वे आपके साहस पूर्ण कार्यों से बड़े प्रसन्न हुए।
इसी अर्से में उदयपुर के महाराणा राजसिंहजी का देहान्त हो गया और उनके स्थान पर महाराणा बरसीजी राज्य सिंहासन पर बैठे । ये बड़ी निर्वल प्रकृति के थे। सरदारों ने इनके खिलाफ़ विद्रोह का झण्डा उठाया। महाराणाजी घबराये और उन्होंने जोधपुर के महाराजा बिजयसिंहजी से सहायता मांगी और इसके बदले में गोडवाड़ का परगना देने का वचन दिया। इस पर महाराजा विजयसिंहजी ने महाराणाजी की सहायता के लिये सेना भेजी। राणाजी की मनोकामना सिद्ध हुई और उन्होंने गोडवाड़ का परगना महाराजा विजयसिंहजी को लिख दिया । महाराजा ने सेना भेजकर गोडवाड़ पर अधिकार कर लिया। इस गोडवाद के देसूरी नामक कस्बे में जोधपुर दरबार पधारे और महाराणा भरसीजी वहीं आकर महाराजा से मिले। यहाँ यह बात ध्यान में रखना चाहिये कि गोडवाद के मामले को तय करने में सब से प्रधान हाथ मुहणोत सूरतरामजी का था। इस समय महाराणा अरसीजी मे महाराजा विजयसिंहजी
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मुहणोत
को जो खरीते भेजे उनकी असली नकलै हमारे पास हैं। उनसे मेवाड़ की तत्कालीन निर्वल अवस्था पर बड़ा ही सुन्दर प्रकाश गिरता है ।
सम्वत् १८३० की फाल्गुन सुदी ३ को महाराजा ने सुरतरामजी को मुसाहिबी, 'राव' की पदवी और लगभग ३००००) रुपयों की लागत का बहुमूल्य सिरोपाव प्रदान किया। इसके अतिरिक्त आपको आपके कामों की प्रशंसा में कई खास रुक्के प्रदान किये । सम्वत् १८३१ के द्वितीय वैशाख सुदी ८ को कर्णमूल नामक रोग हुआ. और उससे दो दिन के बाद आपका स्वर्गवास हो गया । आपकी दाह क्रिया नैणसीजी के बाग में हुई । आपके साथ दो सतियाँ हुई। आपकी बैकुण्ठी तेरह खण्डी बनी थी। आपकी स्मशान यात्रा में सब प्रसिद्ध २ सरदार जागीरदार और लगभग ५००० मनुष्य थे ।
राव सूरतरामजी को
संवत् १८३१ के ज्येष्ट वदी १४ को राव सूरतरामजी के मकान पर स्वयं जोधपुर नरेश महाराजा विजयसिंहजी पधारे और आपके पुत्र सवाईरामजी और ज्ञानमलजी को बड़ी तसल्ली दी और बहुत शोक प्रकट किया ।
मुहणोत खानदान में राव सूरतरामजी बड़े प्रभावशाली, बीर और कार्य्यकुशल मुत्सद्दी हुए । आपने प्रधान सेनापति, दीवान, प्रधान आदि बड़े २ पदों पर बड़ी सफलता के साथ काम किया। जोधपुर महाराजा ने आपको बड़े २ सम्मान प्रदान किये थे । अन्य बड़े २ महाराजा भी आपका बड़ा आदर करते थे । सत्कालीन बून्दी मरेश ने आपको उठकर ताज़ीम देने का, तथा बांह पसार कर मिलने किया था। कोटा नरेश ने भी आपको इसी प्रकार का उच्च सम्मान प्रदान किया था। खड़े होकर आपकी नजर लेते थे। जैसलमेर, कृष्णगढ़, इंदौर और गवालियर के "ठाकुरां दीवान श्रीसूरतरामजी” लिखा करते थे ।
का कुरब प्रदान बीकानेर दरबार नरेश आपको
मुहणोत ठाकुर सवाईरामजी — मुहणोत सूरतरामजी की मृत्यु के बाद उनके बड़े पुत्र मुहणोत सवाईरामजी विक्रम सम्वत् १८३१ में जोधपुर के मुसाहिव आला ( Prime minister ) बनाये गये । आपके समय में २०००० रेख की जागीर बराबर चलती रही । सम्वत् १८४९ में बीकानेर मरेश श्री गजराजसिंहजी और उनके कुँवर के बीच झगड़ा हो गया। इस समय जोधपुर दरबार मे एक बढ़ी सेना देकर सवाईरामजी को बीकानेर भेजा। आपने वहां पहुँच कर पिता पुत्र के बीच मेल करवा दिया ।
दीवान मुहणोत ज्ञानमलजी - मुहणोत वंश में आप बड़े प्रतापी, राज्य कार्य कुशल और वीर मुसदी हो गये । आपका जन्म सम्बत १८१६ के चैत्र वदी १२ शुक्रवार को हुआ ।
जोधपुर नरेश महाराजा विजयसिंहजी ने केकड़ी नरेश राजा भमरसिंहजी को कृष्णगढ़ के पास
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सवाल जाति का इतिहास
का रूपनगर नामक गांव इनायत कर दिया। इस नगर पर अधिकार करने के लिये जोधपुर महाराजा ने जोधपुर से सींघी अक्षयदासजी, भण्डारी गंगारामजी और मुहणोत ज्ञानमलजी को सेना लेकर भेजे । सात मास तक बराबर युद्ध होता रहा। अन्त में रूपनगर पर महाराजा जोधपुर का अधिकार हुआ और किशनगढ़ के महाराजा प्रतापसिंहजी ने हार मानकर तीन लाख रुपया देना स्वीकार किया और जोधपुर आकर वहां के दरबार से मुजरा किया। सम्वत् १८४७ में माधवजी सिन्धिया मारवाड़ पर चद भाया । इसके मुकाबिले के लिये मुहणोत ज्ञानमलजी, सिंघवी भीमराजजी, कोचर मुहता सूर्य्यमलजी, छोड़ा साहसमलजी और भण्डारी गंगारामजी आदि भेजे गये, मेड़ते मुकाम पर सम्बत १८४७ की भाव बदी १ को भारी लड़ाई हुई। जोधपुरी सेना ने इस युद्ध में इतनी वीरता का प्रदर्शन किया कि जिसकी प्रशंसा सिन्धिया के सेनापतियों ने अपने पत्रों में और अंग्रेजी और मराठी लेखकों ने अपने ग्रन्थों में की है। दैव राठौड़ों के अनुकूल नहीं था। इससे उनके हाथों से सैनिक दृष्टि से कई भूलें हो गई । इसके अतिरिक्त मराठी फौजें सुप्रख्यात् फ्रेन्च सेनापति डी० बोइने के कुशल सञ्चालन में थीं। वे नवीन अस्त्र शस्त्रों से सुसजित थीं। इससे उनकी बिजय हुई। पर इस समय जोधपुरी फौजों ने जिस अतुलनीय पराक्रम का परिचय दिया, उसे देख कर महादजी का फ्रेन्च सेनापति डी० बोयने भी आश्चर्यचकित होगया । उसने देखा कि जोधपुरी सेना के अधिकांश मनुष्य धराशायी हो गये हैं और उसके मुठ्ठी भर वीर केसरिया पहन कर मराठी सेना पर टूट पड़ते हैं और अपनी जानकी कुछ भी पर्वाह न कर शत्रु सेना में हाहाकार मचा देते हैं। मराठी और अंग्रेजी के लेखकों ने जोधपुरी सेना की अपूर्व वीरता की बड़ी प्रशंसा की है। मराठी सेना के एक अफसर ने अपने एक खानगी पत्र में लिखा था "यह वर्णन करने की मेरी लेखनी में शक्ति नहीं है कि केसरिया पोशाक वालों ने अपनी जान हथेली में रख कर क्या क्या बहा दुरी दिखलाई। मैंने देखा कि उस समय लैन टूट चुकी थी । पन्द्रह या बीस मनुष्य हजारों मनुष्यों पर टूट पड़े थे। उस असंख्य मराठी सेना के सामने इन्होंने जान झोंक कर युद्ध किया और इतनी अपूर्व वीरता का परिचय दिया कि इतिहास में जिसके उदाहरण मिलना मुश्किल हैं। आखिर ये वीर तोपों से उड़ा दिये गये। इस युद्ध में सूर्य्यमलजी आदि कुछ ओसवाल सेनानायक भी मारे गये । पर इसमें मराठों की विजय हुई। जोधपुर नरेश ने क्षति पूर्ति के लिये साठ लाख रुपया देने का वादा कर अपना पिंण्ड छुड़ाया। इन रुपयों में से कुछ तो नक्द, कुछ पर्गने और कुछ मनुष्यों को ओल में दिये गये । भोल में दिये जाने वाले लोगों में मुहणोत ज्ञानमलजी भी थे ।
सम्वत् १८६० में जब महाराजा भीमसिंहजी का देहान्त हुआ, तब आपने महाराजा मानसिंहजी के जोधपुर आने तक, किले का बड़ी योग्यता से प्रबन्ध किया। महाराजा मानसिंह को राज्यगद्दी दिलवाने
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मुहणोत
में जिन-जिन पुरुषों का हाथ था, उनमें मुहणोत ज्ञानमलजी भी एक प्रधान पुरुष थे। इसके लिये महाराजा मानसिंहजी ने आपको कई खास रुमके दिये जो अब भी आपके वंशज श्रीयुत वृद्धराजजी और श्री सरदारमलजी मुहणोत के पास हैं । खास रुक्कों के अतिरिक्त आपको मुसाहिब आला का पद और अच्छी जागीर भी दी गई।
सम्वत् १८६१ में जयपुर राज्य के शेखावतों से डिडवाना लूटा और उसपर अपना अधिकार कर लिया। महाराजा ने ज्ञानमलजी को उनके मुकाबले पर सेना देकर भेजा । आपने शेखावतों को वहाँ से निकाल कर न केवल डिडवाना ही पर वरन् उनके शाहपुरा गांव पर भी अधिकार कर लिया। आपके इस विरोचित कार्य के लिये श्री दरबार ने एक खास रुक्के में आपकी बड़ी प्रशंसा की है।
सम्वत् १८६२ में मारवाड़ पर चढ़ाई करने के लिये किशनगढ़ राज्य के तिहोद नामक गांव में मुकाम किया । इस चढ़ाई को रोकने किये ज्ञानमलजी से कहा गया। आपने बड़ी बुद्धिमानी से इस का को किया । सम्वत् १८६३ में जब जयपुर की फौजों ने जोधपुर पर मेरा डाला तब ज्ञानमलजी मे अन्य कुछ मुत्सदियों के साथ राज्य रक्षा के लिये बड़े-बड़े प्रयत्न किये, जिनकी जोधपुर नरेश ने अपने खास
रुक्कों में बड़ी प्रशंसा की है।
सम्वत् १८६१ में आपने आपकी सेवाओं की तत्कालीन प्रतापमखजी नामक पुत्र थे । सम्बत् १९०८ में मारवाड़ के आपको पाली परगने में उन
नवलमलजी और प्रतापमलजी - आप ज्ञानमलजी के इकलौते पुत्र थे। आपका जन्म सं० १८२६ में हुआ। प भी अपने पिताजी की तरह वीर और कुशल सेना नायक थे । सिरोही को विजय किया और उस पर मारवाड़ का झण्डा उड़ाया। tataye नरेश ने अपने दो ख़ास रुक्कों में बड़ी प्रशंसा की है। आपके महाराजा मानसिंहजी के समय में आपने बड़े-बड़े भोहदों पर काम किया। जागीरदारों के आपसी झगड़ों को कुशलता पूर्वक निपटाने के उपलक्ष्य में नामक गांव जागीर में मिला । सम्वत् १९२० में आपने महाराजा तख्तसिंहजी की आज्ञा से तखतपुरा नामक गाँव बसाया । ब्रिटिश सरकार के साथ जोधपुर राज्य की सन्धि करवाने में आपका प्रधान हाथ था। प्रतापमलजी के जोरावरमलजी और गणेशराजजी नामक दो पुत्र हुए। जोरावरमलजी ने जालोर और सोजत की हुकुमतों का काम किया। आपने और भी अनेक पदों पर काम किया। सीमा सम्बन्धी कई झगड़ों का योग्यता पूर्वक फैसला किया। आपके छोटे भाई गणराजजी ने मारवाड़ राज्य के खजांची का काम किया। आपने कई परगनों की सायरों पर काम किया ।
जोरावरमलजी के पुत्र धूहड़मलजी हुए । दरबार मे पोषाक प्रदान कर आपका सम्मान किया था । सम्बत् १९४३ में राय मेहता पत्रालाजी के निमन्त्रण से आप उदयपुर गये और
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आसवाल जाति का इतिहास
कुम्भलगढ़ के हाकिम बनाये गये । गणराजजी के भीमराजजी, वृद्धराजजी और बुधराजजी नामक तीन पुत्र हुए। श्री बुद्धराजजी बड़े योग्य और देश भक्त सज्जन हैं। आपने बड़ौदे के कला भवन में कपड़े चुनने का काम सीखा और वहाँ की परीक्षा पास की। इसके बाद आपने मारवाड़ की वकालत परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। अब आप चीफकोर्ट में वकालत करते हैं। आपको राज्य में अपने कुटुम्ब के प्राचीन प्रथा के अनुसार मान सम्मान प्राप्त है।
भूहड़मलजी के गम्भीरमलजी और गम्भीरमलजा के सरदारमलजी नामक पुत्र हुए। सरदारमजी को इतिहास का प्रेम है। आपके पास जोधपुर राज्य के इतिहास की अच्छी सामग्री है।
'मुहणोत परिवार, किशनगढ़
हम ऊपर जोधपुर के मुणत परिवार में इस वंश के पूर्व पुरुषों का इतिहास लिख चुके हैं। मोजजी की १८ वीं पुस्त में मेहता अर्जुनजी हुए। इनके पुत्र रोहीदासजी किशनगढ़ चले गये। इनके परिवार के लोग आज भी किशनगढ़ में निवास करते हैं। मेहता रोहीदासजी के रायचन्द्रजी नामक पुत्र हुए । रायचन्द्रजी - जोधपुर के राजा शूरसिंहजी के छोटे भाई का नाम कृष्णसिंहजी था। आपको राज्य से दूदोड़ आदि १३ गाँवों की जागीर का पट्टा मिला था । संवत् १६५४ में आपकी नबाब मुराद(जो अजमेर का तत्कालीन सूबेदार था) के द्वारा बादशाह अकबर के दरबार में पहुँच हुई। बादशाह ने आपके व्यवहारों से प्रसन्न होकर संवत् १६५५ में हिन्डोन आदि सात परगने प्रदान किये। इसके तीन साल बाद आपने अपने नाम से एक नया नगर बसाकर उसका नाम कृष्णगढ़ रखा। जो वर्तमान में एक स्टेट है।
रायचन्द्रजी तथा आपके महाराज की बहुत अच्छी
- जब महाराजा कृष्णसिंहजी ने जोधपुर से प्रमाण किया था उस समय भाई शंकर मणिजी दोनों साथ थे। कृष्णगढ़ बसाने तक आप दोनों भाइयों ने सेवाएँ कीं । जिनसे प्रसन्न होकर महाराज ने रामचन्द्रजी को अपना मुख्य मंत्री नियुक्त किया । आप दोनों भाईयों के रहने के लिये बड़ी २ दो हवेलियाँ बनवादीं। आज वे बड़ी पोल और छोटी पोल के नाम से प्रसिद्ध हैं।
तथा
रायचन्द्रजी ने संवत् १७०२ में एक जैन मन्दिर श्री चिन्तामणी पार्श्वनाथजी बनवाकर उसकी प्रतिष्ठा करवाई। यह मंदिर अभी भी किशनगढ़ में मौजूद है।
30%
महाराजा कृष्णसिंहजी के बाद उनके उत्तराधिकारी महाराजा मानसिंहनी हुए। आपने भी
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मुहान
रायचन्दजी का बड़ा सम्मान किया। संवत् १७१६ में महाराजा भापके घर पधारे तथा वहीं भोजन किया। संवत् १७१७ में उक्त महाराजा साहब ने आपको पालदी नामक एक गाँव की जागीर प्रदान की। संवत् १७२३ में आपका स्वर्गवास हो गया।
वृदभानजी-आप महाराजा मानसिंहजी के तन दीवान थे इस कारण आपको हमेशा उनके साथ ही रहकर सेवा करनी पड़ती थी। संवत् १७६५ में आपका स्वर्गवास हो गया।
कृष्णदासजी-आप महाराजा मानसिंहजी कृष्णगढ़ नरेश के राज्य में मुख्य मंत्री रहे । महाराजा साहब सो विशेष कर बादशाह औरंगजेब के पास उसकी सेवा में रहते थे, इस कारण राज्य के सब काम काज आपही के हाथ में थे। संवत् १७५० में महाराज ने आपके कामों से प्रसन्न होकर भापको 'बुहास' नामक जागीर का पट्टा प्रदान किया। वह भापकी विद्यमानता तक बना रहा । संवत् १७५६ में जब भबदुल्लाखाँ भपनी फौज लेकर कृष्णागढ़ में बादशाही थाना जमाने के लिए आया, उस समय मापने उससे युद्ध कर पराजित किया। आपका संवत् १७६३ में स्वर्गवास हो गया।
आसकरणजी-आप महाराज राजसिंहजी के समय में कृष्णगढ़ में संवत् १७६५ में दोवान नियत किये गये। आपने संवत् १८१९ में कृष्णगद के दक्षिण की तरफ एक भास्तिक माता का मन्दिर बनवाया था जो वर्तमान में भी वहाँ मौजूद है। आपके २ पुत्र हुए बड़े देवीचन्दजी तथा छोटे रामचन्द्रजी वर्तमान वंश रामचन्द्रजी का है।
' रामचन्द्रजी-आपने संवत् १७८१ के वर्ष से कृष्णगढ़ के महाराज श्री बहादुरसिंहजी के समय में दीवानगी का काम किया। आपके तीन पुत्र हुए। जिनके नाम क्रमशः हठीसिंहजी, सूर्म्यसिंहजी, और बाघसिंहजीं था।
हठीसिंहजी-आपको कृष्णगढ़ महाराजा बहादुरसिंहजी साहब ने १०३१ में दीवानगी का काम प्रदान किया था। इसके साथ ही ताज़ीम तथा हाथी और सिरोपाव प्रदान किया। जिसमें तलवार और कटार देने की विशेष कृपा थी। बाघसिंहजी इसी समय में फौज पक्षी का काम करते थे।
सूर्यसिंहजी-आप भी उपरोक्त महाराजा साहब के समय में जागीर पक्षी का काम करते रहे। आपके ६ पुत्र हुए। जिनके नाम क्रमशः पृथ्वीसिंहजी, हिन्दूसिंहजी, हमीरसिंहजी उम्मेदसिंहजी, नवलसिंहजी और श्यामसिंहजी थे ।
इन बन्धुओं में हिन्दूसिंहजी, हमीरसिंहजी तथा नवलसिंहजी के कोई संतान नहीं रही तथा उम्मेदसिंहजी और श्यामसिंहजी का परिवार उदयपुर गया, जिनका परिचय नीचे दिया गया है। सबसे बड़े भाई पृथ्वीसिंहजी का परिवार किशनगद में निवास करता रहा, इनके पुत्र भीमसिंहजी हुए। .
मुहणोत हठीसिंहजी नामाहित व्यक्ति हो गये हैं, भाजकल आपके नाम से किशगगढ़ का
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प्रोसवाल जाति का इतिहास मुहणोत परिवार "हटीसिंहोत” कहलाता है मुणोत हटीसिंहजी के जोगीदासजी शिवदासजी तथा शम्भूदासजी नामक ३ पुत्र हुए। जोगीदासजी ने कृष्णगढ़ महाराजा विरदसिंहजी तथा प्रतापसिंहजी के समय में राज्य की दीवानगी काम किया। तथा किशनगढ़ दरवार प्रतापसिंहजी का जोधपुर महाराजा विजयसिंहजी के साथ मित्रता कराने में आपने एवं आपके चचेरे भाई हमीरसिंहजी ने बहुत श्रम किया, इस कार्य में कृत कार्य होने से जोधपुर दरबार ने संवत् १८४९ की द्वितीय वैसाख वदी १० को ताजीम मोती, कड़ा और सोने की जनेऊ प्रदान की। इसी तरह किशनगढ़ दरवार ने भी ताजीम जीकारा और दरबार में सिरे बैठक हाथी सिरोपाव और जागीरी प्रदान की। हिन्दूसिंहजी ने महाराजा बहादुरसिंहजी के राज्य काल में माई. दासजी के साथ दीवानगी की ।
शिवदासजी - आप भी १८८७ में महाराजा कल्याणसिंहजी के समय दीवान रहे। जयपुर दरवार ने आपको जागीरी के गाँव दिये जो अब तक आपके परिवार के तावे में हैं।
. मेहता शंभूदासजी के महेशदासजी तथा शिवदासजी के गंगादासजी और भवानीदासजी नामक पुत्र हुए। महेशदासजी के पुत्र छगनसिंहजी कृष्णगढ़ महाराजा मदनसिंहजी की भगिनी और अवलर परेश की महाराणी के कामदार थे। आपको अलवर तथा किशनगढ़ दरवारों ने सोना तथा ताजीम इनापत की थी। आपके पुत्र नारायणदासजी बी० ए० भागरे में डिप्टीकलेक्टरी का अध्ययन कर रहे हैं। आपकी वय २७ साल की है। मेहत गंगादासजी, महाराजा मोहकमसिंहज़ी के समय में राज्य के मुख्य कोषाध्यक्ष रहे। इनके पुत्र गोविंदसिंहजी कई स्थानों के हाकिम रहे और इससमय गोविंददासजी के पत्रक पुत्र सवाईसिंहजी किशनगढ़ स्टेट में हाकिम है। भवानीदासजी के पश्चात् क्रमशः भगवानदासजी, रामसिंहजी तथा सोहनसिंहजी हुए । इनके पुत्र सवाईसिंहजी, मेहता गोविंदसिंह, के नाम पर दत्तक गये हैं।
मेहता पृथ्वीसिंहजी किशनगढ़ स्टेट में हाकिम रहे इनके भीमसिंहजी हुए। एवं भीमसिंहजी के पुत्र सोभागसिंहजी, भजीतसिंहजी, जसवन्तसिंहजी और अनोपसिंहजी नामक ४ पुत्र हुए। इनमें सोभागसिंहजी के पुत्र जेतसिंहजी और साल्मसिंहजी तथा पौत्र मदनसिंहजी और फूलसिंहजी हुए मदनसिंहजी उदयपुर तथा किशगढ़ स्टेट में हाकिमी करते रहे। अभी मदनसिंहजी के पुत्र बुधसिंहजी और फूलसिंहजी के पुत्र रणजीतसिंहजी मौजूद हैं।
__मेहता सूर्यसिंहजी के छोटे भाई वापसिंहजी महाराजा बहादुरसिंहजी के समय फौजवख्शी रहे। इनके प्रतापसिंहजीव धीरजमलजी पुत्र हुए। मेहता प्रतापसिंहजी, महाराजा श्री प्रतापसिंहजी के रूपापात्र थे। धीरजमलजी सरवाड़ के हाकिम रहे । मेहता धीरजसिंहजी के बाद क्रमशः गोवर्द्धनदासजी,
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
रा० ब० स्वर्गीय मेहता विजयसिंहजी दीवान, जोधपुर
स्वर्गीय श्री मेहता सरदारसिंहजी दीवान, जोधपुर
श्री मेहता कृष्णसिंहजी, जोधपुर
श्री मुणोत सुकन राजजी जोधपुर।
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भरणोत मरसिंहदासजी कृष्णसिंहजी, फोजसिंहजी हुए । नरसिंहजी कारखाने जात का काम करते रहे फोजसिंहजी उदयपुर तथा किशनगढ़ स्टेट के हाकिम रहे। अभी फोजसिंहजी के पुत्र उदयसिंहजी विद्यमान हैं।
राय बहादुर मेहता विजयसिंहजी का खानदान जोधपुर इस प्रतिष्ठित कुटुम्ब का विस्तृत परिचय ऊपर किशनगढ़ के इतिहास में दे चुके हैं। इसी परिवार के मेहता आसकरणजी के पुत्र मुहणोत देवीचन्दजी रूपनगर महाराजा के दीवान थे। इनके पुत्र चैनसिंहजी, महाराजा प्रतापसिंहजी किशनगढ़ के दीवान रहे। इनके पुत्र करणसिंहजी संवत् १८६१ से. तक किशनगढ़ राज्य के मन्त्री और १८९६ तक दीवान रहे । अपने समय में इन्होने मरहठा, सिंधिया और अजमेर के इस्तमुरारदारों से कई युद्ध किये। संवत् १८९६ में भापका शरीरान्त हुआ। .
मेहता करणसिंहजी के मोखमसिंहजी, विजयसिंहजी तथा छतरसिंहजी नामक ३ पुत्र हुए। मेहता मोखमसिंहजी संवत् १८९६ से १९०८ तक किशनगढ़ स्टेट के दीवान रहे।
मेहता विजयसिंहजी-आपका जन्म संवत् १८६३ की पौष वदी ५ को हुआ। बाल्यावस्था से ही आप बड़े होनहार प्रतीत होते थे। संवत् १८८० में भीमनाथजी महाराज ने जोधपुर नरेश से इनका परिचय कराया। महाराजा ने इन्हें होनहार जान भपने पास बुला लिया, तब से मेहता विजयसिंहजी जोधपुर रहने लगे।
संवत् १८४८ में बगड़ी ठाकुर जैतसिंहजी व शिवनाथसिंहजी दरबार के विरोधी हो गवे, उनको दबाने के लिए फौज के साथ विजयसिंहजी भेजे गये, वहाँ इन्होंने अच्छी बहादुरी दिखाई, इसलिये लौटने पर दरबार ने इन्हें जेतारण परगणे का आरसलाई गाँव इनायत किया।
संवत् १९०३ में मेहता विजयसिंहजी ने कणवाई (डीडवाना) के डाकुओं को तथा धनकोली (डीडवाणा ) के विद्रोही ठाकुर को बड़ी बहादुरी से दबाया इसी साल मापने खाटू ( नागोर) पर चढ़ाई कर जोधसिंह की जगह भीमसिंह को गही पर बिठाया। कुछ ही दिनों बाद इसी साल शेखावाटी प्रोत के २ बड़े जोरावर लुटेरे दूंगरसिंह और जवाहरसिंह नागरे के किले से भाग गये और मसीराबाद छावनी का खजाना लूट कर मारवाड़ प्रांत में आगये जब ए० जी० जी० ने महाराजा को उन्हें पकड़ने के लिये पत्र भेजा तब महाराजा जोधपुर ने मेहता विजयसिंहजी, सिंधवीकुशलराजजी और किलेदार अमाइसिंहजी को फौज देकर डाकुओं के पकड़ने के लिये भेजा। थोड़े समय बाद ए. जी. जी ने अपने नायब ई० एच० मोक्मेसन और कप्तान हाई केसल को मारवाद की सेना के साथ भेजा इस फौज के साथ मारवाद के और भी
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
कई ठाकुर और सरदार थे। इस हमले में मेहता विजयसिंहजी ने कप्तान हार्डकैसल के साथ रह कर उर्फ डाकू को पकड़ने में सफलता प्राप्त की। इसकी खुशी में दरबार ने उनको एक खास रुक्का दिया और कसान ने भी एक पत्र द्वारा आपके चतुराई, दृढ़ता और साहस की प्रशंसा की ।
संवत् १९०४ में उक्त डाकुओं के हिमायती सीकर रावराजा के पुत्रों को दबाने के लिये आप एजंट के लेफ्टिनेण्ट के साथ गये, उसमें भी उक्त एजंट ने इनके साहस की बहुत प्रशंसा की । संवत १९०५ में दरबार मे प्रसन्न होकर इन्हें एक मोतियों की कंठी प्रदान की। इसी साल इनको दरबार ने एजंटी का वकील बनाया। इनके लिये जोधपुर का पोलिटिकिल एजंट लिखता है कि "ये एक ऐसे मनुष्य है जिनका निर्भय विश्वास किया जा सकता है इनके समान मारवाड़ी अफसरों में बहुत कम आदमी पाये जाते हैं।" उन्हीं दिनों इन्हें दरबार ने दीवानगी के काम पर कई सज्जनों के साथ में नियुक्त किया और एक सहस्र रुपये मासिक वेतन कर दिया । इनकी स्वामिभक्ति, सत्यता, वीरता आदि से दरबार इतने प्रसन्न हुए कि संवत् १९०८ में इन्हें दीवानगी प्रदान की। संवत् १९१३ की पौषसुदी ११ को दरवार ने आपको ३ गाँव प्रदान किये । संवत् १९१४ में मेहताजी ने अन्य मुत्सुद्दियों के साथ आउवे पर चढ़ाई की। इनकी सहायता के लिये बृटिश सेना भी आई थी। संवत् १९१६ में आसोप आलणियावास, गूलर और बाजुवास के बागी ठाकुरों पर चढ़ाई कर उन्हें दबाया । संवत् १९२० में जयपुर दरबार ने उन्हें हाथी सिरोपाव और पालकी का सिरोपाच दिया । संवत् १९२१ की माघसुदी ११ के दिन दरबार ने प्रसन्न होकर राजोद (नागोर ) नामक गाँव जागीर में दिया ।
मेहता विजयसिंहजी दरबार के ही कृपापात्र नही थे प्रत्युत पोलिटिकल एजंट और अन्य अंग्रेज सन् १८६५ की ४ जून
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सराहते रहे हैं बुद्धिमान और
आदर्श देशी सज्जन
आफीसर भी समय २ पर कई सार्टिफिकेट देकर उनकी योग्यता को को पोलिटिकल एजंट एफ० एफ० निक्सन लिखते हैं, कि "यह एक हैं, इन्हें मारवाद की पूरी जानकारी है, इत्यादि" ।
१० सितम्बर १८७१ को भूतपूर्व ऑफिशिटिंग पोलिटिकल "मैं मेहता विजयसिंहजी को बहुत भरसे से जानता हूँ"
एजंट जे० सी० "ये एक योग्य
हैं, मे उन थोड़े पुरुषों में से एक हैं जो राज्य के कार्य्य करने की योग्यता रखते हैं" ।
शुक लिखते हैं कि तथा फुर्तीले पुरुष
संवत् १९९८ में द्वितीय महाराजकुमार जोरावरसिंहजी ने खाटू, भागूंता तथा हरसोलाव के ठाकुरों की सलाह से नागोर पर कब्जा कर लिया। इसके लिये युबराज को समझाने के लिये फौज देकर मेहताजी भेजे गये । मेहताजी मे नागोर के किले पर घेरा डाला, इसी अरसे में स्वयं दरबार और पोलिडिकल एजेंट भी बहुत सी सेना लेकर पहुँच गये, और एजंट सहित कई मुसाहिवों मे कुमार को समझाया
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मुहणीत इस प्रकार जोरावरसिंह को मुंडवें में महाराज के पास हाजिर किया । फिरखाटू पर चढ़ाई करके वहां के ठाकुर को भगा दिया। इससे प्रसन्न हो दरवार ने इनको खास रुक्का दिया । संवत् १९९९ से ३१ तक दीवानगी का कार्य फिर मेहताजी के पास रहा।
__ संवत् १९२९ की माघसुदी १५ को जब महाराजा तख्तसिंहजी स्वर्गवासी हुए और उनके स्थान पर महाराजा यशवन्तसिंहजी गद्दी पर बैठे उन्होंने भी मेहताजी की दीवान पदवी कायम रक्खी और उन्हें सुवर्ण का पाद भूषण और ताजीम दी। संवत् १९३३ की माघ सुदी १५ को दरवार ने मेहताजी को दीवानगी का अधिकार सौंपा जिसे आप आजन्म करते रहे। संवत् १९३४ की चैत वदी को गवर्नमेंट ने प्रसन्न होकर आपको रायबहादुर का सम्मान दिया।
संवत् १९४६ में परगने जोधपुर के बीरडाबास और बिरामी नामक गाँव जो संवत् १९३२ में खालसे हो गये थे पुनः इन्हें जागीरी में मिले। इस प्रकार प्रतिष्ठा पूर्वक जीवन बिताते हुए भाप संवत् १९४९ की भादवा वदी १२ को स्वर्गवासी हुए। आप अपनी आमदनी का दशांश धर्म कायों में लगाते थे। दरिद्र तथा बाल विधवाओं को गुप्त सहायता पहुंचाया करते थे। .. आप विशिष्टाद्वैत वैष्णव सम्प्रदाय के अनुयायी थे। आपने फतेसागर के उत्तरी तट पर श्री रामानुज कोट का मन्दिर बनवाचा और वहां कूप तथा कूपिका बनवाई इसके अलावा आपने फतहसागर को गहरा तथा मजबूत करवाकर उसका सम्बन्ध कागड़ी के पहाड़ों से तथा गुलाब सागर में भानेवाले बरसाती पानी से करा दिया। १९४६ में रामानुज कोट में आपने दिव्य देश नामक मन्दिर बनवाया। इस मन्दिर की सुव्यवस्था के लिये स्थायी प्रबन्ध है जो एक कमेटी द्वारा संचालित होता है।
मेहता सरदारसिंहजी-आपका जन्म संवत् १८७५ की कातीवदी १४ को हुभा । संवत् १९१९ में आपको दरबार ने जालोर की हाकिमी और मोतियों की कंठी तथा कड़ा भेंट किया। संवत् १९२० के फाल्गुन सुदी ४ को आप नागोर के हाकिम बनाये गये ।संवत् १९२८ में जब स्वयं महाराजा तथा पोलिटिकल एजंट फौज लेकर नागौर पर चढ़े थे, उस समय उन्होंने उस परगने की हुकूमत आपको दी थी रायबहादुर मेहता विजयसिंहजी के स्वर्गवासी होजाने पर उनके स्थान पर संवत् १९४९ की भादवासुदी १३ को भाप दीवान बनाये गये इस प्रतिष्ठित पद पर आप जीवन भर काम करते रहे। आपका स्वर्गवास आषादसुदी " संवत् १९५८ को हुआ । जोधपुर स्टेट के ओसवाल समाज में सबसे अंतिम दीवान भाप ही रहे।
सन् १८७८ में जब श्री सिंह सभा की स्थापना हुई उस समय जोधपुर के भोसवाल समाज की ओर से आपको उस सभा के प्रथम सभापति का सम्मान प्राप्त हुआ था आपने उसके लिए २४००) की सहायता भी भेंट की थी।
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मोसवाल जाति का इतिहास
मेहता कृष्णासिंहजी-आपका जन्म संवत् १९३४ में हुआ, आप प्रतापगढ़ के मेहता अर्जुनसिंह जी के पुत्र हैं। संवत् १९४५ में रायबहादुर मेहता विजयसिंहजी ने आपको दत्तक लिया। संवत् १९४६ में भापको दरबार से कान के मोती भेंट मिले । संवत् १९४७ में आपको कड़ा, दुपट्टा, मंदील, दुशाला और वीनसाब प्रास हुआ। सन् १९२१ में आप होममेम्बर जोधपुर के परसनल भसिस्टेंट हुए। उसके बाद आप स्टेट ट्रेसरी के आफिसर रहे। जब ट्रेलरी इम्पीरियल बैंक में रहने लगी तब सन् १९२८ में आप ऑनरेरी मजिस्ट्रेट हुए । रा०प० मेहता विजयसिंहजी को जो बिरामी और बीड़ावास नामक गाँव जागीरी में मिले थे उनका भाप इस समय भी उपभोग करते हैं। जोधपुर के मुत्सुरी समाज में भाप एक वजनदार तथा प्रतिष्ठित सज्जन माने जाते हैं। आप भी वैष्णव धर्मानुयायी हैं। आपके पुत्र मेहता गोविन्दसिंहजी तथा गोपालसिंहजी पदते हैं।
मेहता लछमनसिंहजी मुहणोत का परिवार, उदयपुर
हम ऊपर जोधपुर और किशनगढ़ के मुहणोत परिवार का काफ़ी परिचय दे चुके हैं। जिसे पड़कर पाठकों को भली-भाँति विदित हो गया होगा कि इस परिवार वाले सजनों ने दोनों ही रियासतों में किस-किस प्रकार के कार्य सम्पन्न कर भपनी प्रतिष्ठा एवम् सम्मान को बढ़ाया और इतिहास में अपना नाम अमर किया। अब हम इसी वंश की किशनगढ़ शाखा से निकले हुए मेहता सूर्यसिंहजी के चौथे पुत्र उम्मेदसिंहजी और छोटे पुत्र श्यामसिंहजी के परिवार का परिचय देते हैं। आप लोग किशनगद से चलकर उदयपुर में निवास करने लग गये थे। - मेहता उम्मेदसिंहजी महाराणा भीमसिंहजी के राज्यकाल में याने संवत् १८६३ में उदयपुर माये । यहाँ भाकर आप प्रथम कस्टम के काम पर नियुक्त हुए। उस समय आपको सात रुपया रोज़ाना वेतन मिलता था। इससे गुज़ारा न होने के कारण आप महाराणा की ओर से मरहट्ठा-शाही में चले गये। कुछ समय पश्चात् किशनगद के तत्कालीन महाराजा मेहता उम्मेदसिंहजी को वापस किशनगढ़ ले गये । लेकिन थोड़े ही समय पश्चात् महाराणा साहव ने इन्हें खास रुका मेजकर वापस उदयपुर बुलवाया। भतएव आप संवत् १८८० में वापस उदयपुर आये । इस समय महाराणा ने आपको तनख्वाह के सिवाय दो कुंए जागीर में प्रदान किये। इसी समय से महाराणा साहब ने आपके पुत्र रघुनाथसिंहजी को भी अपनी सेवा में बुलवा लिया।
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जब महाराणा जवानसिंहजी गद्दी पर विराजे तो भाप भी मेहताजी पर बहुत प्रसन्न रहे। इसी समय भाप जहाजपुर में हाकिम बना कर भेजे गये। इसके साह पश्चात् आप वापस उदयपुर बुलवा लिये गए एवम् न्याय के महकमें का काम आपके सिपुर्द किया गया। इसके बाद भाप डोली के ( माफ़ी के) काम पर नियुक्त हुए । इसी समय आपको सिरोड़ी नामक गांव जागीर में बक्षा गया । इसके पश्चात आप वापस महकमा न्याय में नियुक्त हुए। आपको दरबार में बैठक और जीकारा आदि बझे हुए थे। आपका स्वर्गवास संवत् १९०१ में हो गया। आपके तीन पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः रघुनाथसिंहजी, दौलतसिंहजी और मोतीसिंहजी थे। इनमें से मोतीसिंहजी मेहता श्यामसिंहजी के पुत्र रामसिंहजी के नाम पर दत्तक चले गये ।
मेहता रघुनाथसिंहजी पर महाराणा स्वरूपसिंहजी की बड़ी कृपा रही। आपकी सेवाओं से प्रसन्न होकर महाराणा साहिब ने आपको गांव प्रदान किया। आप जहाजपुर के पांच परगना-मगरा, खेरवाड़ा आदि जिलों में हाकिम रहे। आपने महाराणा शंभुसिंहजी के समय में अहलियान दरवार (मिनिस्टरशिप) का काम किया। संवत् १९२५ के चैत्र मास में आपने महाराणा साहब की पधरावनी की। इस अव. सर पर महाराणा साहब ने प्रसन्न होकर आपको पैरों में पहनने के लिए सोने की कदा जोड़ी प्रदान कर. सम्मानित किया। दरबार मे आपके पुत्र माधोसिंहजी को कंठी तथा भापके छोटे भाई दौलतसिंहजी और मोतीसिंहजी तथा भतीजे अर्जुनसिंहजी को कंठी और पौंचे बक्षकर सम्मानित किया । मेहता रघुनाथसिंहजी ने सरहद्दी जिलों में रहकर सरहद के झगड़ों का निपटारा किया, जिलों की तहसील की आपनें वृद्धि की और हर तरह दरवार को प्रसन्न रखा । महाराणा साहब ने भी प्रसन्न होकर समय २ पर कई पट्टे, परवाने, खास रुक्के, जीकरा, भादि बक्ष कर आपका सम्मान बढ़ाया। आपका स्वर्गवास संवत् १९२८ में हो गया। आपके नाम पर बावनी की गई थी उसमें महाराणा साहब ने १५००) प्रदान किये थे।
___ मेहता माधोसिंहजी भी अपने पिताजी की ही भांति मगरा, खेरवाड़ा, कुम्हलगद, खमनोर, सायरा आदि स्थानों पर हाकिम रहे। संवत् १९३१ में आप फौजबक्षी नियुक्त हुए। आपके कामों से प्रसन्न होकर दोनों ही महाराणाओं ने आपको जीकारा, बैठक, मांझा, तथा पैरों में सोना बक्षा । इसी समय . आपको पालकाखेड़ा नामक ग्राम जागीर स्वरूप मिला। जिस प्रकार उदयपुर के महाराणा साहब की आप पर बहुत कृपा रही, उसी प्रकार किशनगढ़ नरेश श्री पृथ्वीसिंहजी और शार्दूलसिंहजी की भी आप पर बड़ी कृपा रही । आप लोग भी आप की हवेली पर पधारे थे । आपका स्वर्गवास संवत् १९४६ में हो गया। भापके कोई पुत्र न होने से किशनगद से मेहता पृथ्वीसिंहजी के पौत्र मेहता बलवन्तसिंहजी को आपने इत्तक किया।
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ओसवाल जाति का इतिहास
मेहता बलवन्तसिंहजी पर महाराणा फतेसिंहजी की बड़ी कृपा रही। आपके पिताजी का स्वर्गवास हो जाने पर आपको पुश्तैनी फौजबक्षीगिरी का काम मिला । आपको भी बैठक और जीकारा बक्षा हुआ था। आपका स्वर्गवास बहुत शीघ्र ही हो गया। आपके एकमात्र पुत्र लछमनसिंहजो हैं।
मेहता लछमनसिंहजी उस समय नाबालिग थे जब कि आपके पिताजी का स्वर्गवास हुभा था। अतएव आपकी पुश्तैनी बक्षीगिरी का काम आपके नामसे मेहता दौलतसिंहजी देखते थे। बालिग होने पर संवत् १९६३ में आपको रंग भवन की खिदमत दी गई। संवत् १९७२ में आपको बक्षी-गिरी फिर से दी गई। संवत् १९७९ में आप ट्रेझररी आफ़िसर नियुक्त हुए। महाराणा भोपालसिंहजी की भी आप पर बड़ी कृपा है। दरबार जागीर के अलावा आपके लिए खास तौर पर तनख्वाह भी मुकर्रर फरमाई तथा नाव की बैठक भी बक्षी। आपके केसरीसिंहजी नामक एक पुत्र हैं।
कुँवर केसरीसिंहजी की पढ़ाई एल. एल. बी., तक हुई। आपको वर्तमान महाराणा साहब ने स्वरूपसाही रुपयों तथा पाटों को गलवाकर उनके स्थान पर नये चित्तौड़ी रुपये ढलवाने के लिए कलकत्ता मिंट में भेजा । सन् १९३२ में आप वहाँ से पौने दो करोड़ रुपये ढलवाकर उदयपुर लाये। इस काम को आपने बड़ी होशियारी से किया। इससे प्रसन्न होकर महाराणा साहब ने आपको ७५०) रुपये इनाम स्वरूप प्रदान किये तथा आपके लिये स्थायी वेतन का भी प्रबन्ध कर दिया। आपके खुमानसिंहजी मामक एक पुत्र हैं। . मेहता श्यामसिंहजी के पुत्र रामसिंहजी के कोई पुत्र न होने से मेहता उम्मेदसिंहजी के तीसरे पुत्र कुँवर मोतीसिंहजी दत्तक लिये गये। आप बुद्धिमान और होशियार व्यक्ति थे। आप संवत् १९२० में फौजी के सेनापति रहे। आपने अपने समय में कई कार्य किये। इसके अतिरिक्त आपने हुरड़ा जिले में अपने नाम से मोतीपुरा नामक एक ग्राम बसाया। पहाड़ी जिले में, नवा शहर जिसे माजकल देवरिया भी कहते हैं, आप ही ने आवाद किया। आप सहाड़ी, हुरडा, मांडलगढ़ इत्यादि जिलों में हाकिम रहे। आपके कामों से प्रसन्न होकर तत्कालीन महाराणा शम्भुसिंहजी ने बोरड़ी का खेड़ा उर्फ मोतीपुरो नामक ग्राम आपको जागीर में बक्षा। आपको दरबार में बैठक का सम्मान भी प्राप्त था। भापका स्वर्गवास हो गया। आपके दो पुत्र हुए, जिनके नाम मेहता सोहनसिंहजी और मोहनसिंहजी हैं। सोहनसिंहजी किशनगढ़ में रामसिंहजी मेहता के यहाँ दत्तक गये।
मेहता मोहनसिंहजी अपने जीवन में बड़े उद्योगी व्यक्ति रहे। आपने कई स्थानों में काम किया। आप हैदराबाद, जोधपुर, भावनगर, अलवर, इन्दौर आदि कई स्थानों पर काम करते रहे।
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मुहणोत
करीब तीन साल से आप दरबार की ओर से उदयपुर बुलवाये गये । वर्तमान समय में आप यहाँ भोवर सियर के पद पर काम कर रहे हैं।
मेहता सुकनराजजी मुहणोत, जोधपुर
मुहणोत हरीसिंहजी के पुत्र दीपचन्दजी संवत् १८४८ में जोधपुर में हाकिम थे । दीपचन्दजी के जीवराजजी, धनराजजी, शिवराजजी और उदयराजजी नामक ४ पुत्र हुए। इनमें से मुहणोत धनराजजी दौलतपुरा, जालोर, सांचोर तथा भीनमाल के हाकिम रहे । संवत् १९०२ में जोधपुर दरबार ने इन्हें युवराज श्री जसवन्तसिंहजी के अध्यापक बनाकर अहमदनगर भेजा । संवत् १९१६ में आप जालोर के कोतवाल और फिर बाईसाहिबा के इजाफे के गाँवों के प्रबन्धक बनाये नये । ये महाराजा श्री तखतसिंहजी की महाराणी राणावतजी के कामदार थे । इनके विजयराजजी, रूपराजजी तथा फोजराजजी नामक ३ पुत्र हुए।
मुहणोत रूपराजजी जयपुर के महाराजा सवाई रामसिंहजी के यहाँ संवत् १९३२ से ४१ तक रसोड़ा तथा ऐन कोठार के दारोगा रहे । पश्चात् जागीर दारों के इंतजामी सीगे में जोधपुर में मुलाजिम हुए और ठिकाना कुड़की तथा पांचोता के पट्टों का काम करते रहे। इनके छोटे भाई फोजराजी बाई साहिबा के इजाफ़े के गाँवों का काम करते रहे ।
संवत् १९५४ में इनका शरीरान्त हुआ ।
मुहणोत रूपराजजी के सोहनराजजी तथा सुकनराजजी नामक दो पुत्र हुए। मुणोत सुकनराजजी का जन्म संवत् १९४१ की पौष वदी ८ को हुआ । आप बड़े योग्य और मिलनसार सज्जन हैं। ओसवाल समाज के हितसम्बन्धी काय्यों में आप बड़ा भाग लेते हैं । आप श्री सिंह सभा की मैंनेजिंग कमेटी के सदस्य तथा फूलचन्द कन्यापाठशाला के सेक्रेटरी हैं। आप राजपूताना इन्शोरेन्स कंपनी के डायरेक्टर हैं आपकी समाज में अच्छी प्रतिष्ठा है । सन् १९०२ से आप पी० डब्ल्लू● डी० और ऑइस फेक्टरी में सर्विस करते रहे । इधर १३ सालों से आप जोधपुर स्टेट इलेक्ट्रिक कारखाने में स्टोर कीपर हैं। आपकी स्टेट में ३१ सालों की सर्विस है । आपके भ्राता सोमराजजी कस्टम इन्स्पेक्टर थे ।
इसी प्रकार इस परिवार में विजयराजजी के पुत्र कुशलराजजी ने १५ सालों तक पुलिस विभाग में सर्विस की । इनके पुत्र विशनराजजी जनानी ड्योढ़ी पर नौकर हैं, मुणोत फोजराजजी के पुत्र गुमानराजजी सायर इंस्पेक्टर हैं। इसी प्रकार मुणोत जीवराजजी के पश्चात् क्रमशः पृथ्वीराजजी और चन्दराजजी हुए । इस समय चन्दराजजी के पुत्र हंसराजजी जालोर में वकालत करते हैं । मुणोत उदमराजजी के प्रपौत्र सूरजराजजी पी० डब्ल्यू० डी० वाटर वर्कस में हैं।
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ओसवाल जाति का इतिहास
रीयांवाले सेठों का खानदान अजमेर
राजा धूहड़जी के पश्चात् क्रमशः रायपालजी, मोहणजी, महेशजी, छेवटजी, पहेलजी, कोजाजी, जयमलजी और ढोलाजी हुए। ढोलाजी की सन्तानें ढोलावत मुणोत कहलाई । इनके पश्चात् होलाजी, तेजसिंहजी, सिंहमलजी और जीवनदासजी हुए।
नगर सेठ जीवनदासजी — मुहणोत जीवनदासजी कई पीढ़ियों से रीयां ( पीपाड़ के पास ) में निवास करते थे । सेठ जीवनदासजी अथवा इनके पिताजी रीयां से दक्षिण प्रांत में गये और वहां पेशबाभों के खजांची मुकर्रर हुए तथा पूने में इन्होंने दुकान स्थापित कर काफी सम्पत्ति और स्थाई जायदाद उपार्जित की। आपके समय से ही यह खानदान प्रसिद्धि में आया। कहते हैं कि एक बार जोधपुर महाराजा मानसिंहजी से किसी अंग्रेज ने पूछा कि मारवाड़ में कितने घर हैं, तो दरबार ने कहा कि "ढाई घर हैं, एक घर रीयां के सेठों का, दूसरा बीड़लाड़े के दीवानों का और आधे में सारा मारवाड़ है ।"
कहने का तात्पर्य यह है कि उस समय यह परिवार ऐसी समृद्धि पूर्ण अवस्था में था । जोधपुर दरबार महाराजा विजयसिंहजी ने संवत् १८२९ में सेठ जीवनदासजी को नगर सेठ की उपाधि तथा १ मास सक क़ैद में रखने का अधिकार बख्शा था । रीयां में इनकी उत्तम छत्री बनी हुई है। मारवाड़ में यह किम्वदन्ती प्रसिद्ध है, कि एक बार जोधपुर दरबार को द्रव्य की विशेष आवश्यकता हुई और दरबार सांडनी पर सवार होकर रीयां गये, उस समय यहां के सेठों ने एक ही सिक्के के रुपयों के ऊँटो की रीयां से जोधपुर तक कतार लगवा दीं। इससे रीयां गांव, सेठों की रीयां के नाम से विख्यात हुआ । इस प्रकार की कई बातें सेठ जीवनदासजी के सम्बन्ध में प्रचलित हैं । जोधपुर राज्य की ख्याति के अलावा पेशवा राज्य में भी इनका काफी दबदबा था । उस समय ये करोड़पति श्रीमंत माने जाते थे । ना तथा पेशवाई हद्द में इनकी कई दुकानें थीं, इसके अलावा अजमेर में भी उन्होंने अपनी एक ब्रांच खोली थी । इनके गोवर्द्धनदासजी रघुनाथदासजी तथा हरजीमलजी नामक तीन पुत्र हुए। मुहणोत गोवर्द्धनदासजी के खींवराजजी तथा हरचन्ददासजी, रघुनाथदासजी के शिवदासजी और हरजीमलजी के लक्ष्मनदासजी नामक पुत्र हुए। इनकी दुकानें दक्षिण तथा राजपूताने के अनेकों स्थानों में थीं। शिवदासजी के पुत्र रामदासजी हुए ।
मुहणोत रामदासजी तथा लक्षमणदासजी - आप पर जोधपुर महाराजा मानसिंहजी की बड़ी कृपा थी । दरबार ने इन दोनों सज्जनों को समय-समय पर पालकी, सिरोपाव, कड़ा कंठी, कीनखाव, मोती वगैरा इनायत किये थे। महाराज मानसिंहजी और उदयपुर दरवार से इन्हें कई परवाने मिले थे । संवत् १८९९ में मुणोत लछमणदासजी का देहान्त हुआ । इस समय इनका परिवार कुचामण में बसता है। जिसमें पन्नालालजी, तेजमलजी, सुजानमलजी वगैरा इस समय विद्यमान हैं।
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প্রবাল
सेठ हमीरमलजी-मुहणोत रामदासजी अजमेर में और लछमणदासजी कुचामण में निवास करने कगे। रामदासजी के पुत्र हमीरमलजी हुए। इनकी सिंधिया दरबार में बैठक थी। संवत् १९११ में जोधपुर दरवार ने इन्हें पुनः सेठ की पदवी और पालकी, सिरोपाव, दरबार में बैठने का सम्मान तथा म्यापार के लिए आधे महसूल की माफ़ी का आर्डर और उनके घरू व्यवहार के माल पर पूरी चुङ्गी माफ रहने का हुकुम प्रदान किया। जब सेठ हमीरमलजी अपने पंजाब के खजानों की देख-भाल करने गये, तब फायनेंस कमिश्नर पंजाब और कमिभर जालंधर डिविजन ने तहसीलदारों के मामपर सेठ हमीरमलजी की पेशवाई के लिए स्टेशन पर हाजिर रहने के हुक्म जारी किये थे। सेठ हमीरमलजी के धीरजमलजी, चंदनमलजी और चांद. मलजी नामक तीन पुत्र हुए, इन तीनों भ्राताओं का कारवार संवत् १९३४-३५ में अलग-अलग होगवा । धीरजमलजी के कनकमलजी तथा धनरूपमझजी नामक दो पुत्र हुए, इनमें से धनरूपमलजी, चंदनमलजी के नाम पर दत्तक चले गये। इस समय कमकमलजी के पुत्र सागर में तथा धनरूपमलजी लश्कर में व्यापार करते हैं।
राय साहिब सेठ चांदमलजी-सेठ चांदमलजी का जन्म संवत् १९०५ में हुआ । संवत् १९२१ में जोधपुर ने पुनः इनको “सेठ" की पदवी दी। इनके समय में कोहाट, कुर्रम, मलाकान, पेशावर, जालंधर; हुशियारपुर, भागसू, सागर और मुरार, सांभर, पचपदरा, डीडवाना के वृटिश खजाने इनकी फर्म के अधिकार में थे और बम्बई, जबलपुर, नरसिंहपुर, मिरजापुर, धर्मशाला, पेशावर, गवालियर, जोधपुर, सागर, अजमेर, भेलसा, इन्दौर, झांसी, मेमिन और आज़मगढ़ में दुकानें और यू० पी०, सी० पी० में जमीदारी थी ।
रायसाहब सेठ चांदमलजी लोकप्रिय पुरुष थे । संवत् १९२५ तथा ३४ के राजपूताने के घोर दुष्कालों के समय मापने गरीव प्रजा की बहुत सहायता की थी। आप जबान के बड़े पक्के जीवदया और परोपकार के कामों में उदारतापूर्वक सम्पत्ति खर्च करनेवाले म्यक्ति थे। आप स्थानकवासी जैन कान्फ्रेंस के जन्मदाता और जनरल सेक्रेटरी थे तथा उसके मोरवी के प्रथम अधिवेशन का प्रमुख स्थान आपने सुशोभित किया था। इसी तरह उसके अजमेर वाले चौथे अधिवेशन के समय में भी भापने हजारों रुपये व्यय किये थे। सन् १८६८ में आप म्युनिसिपल कमिश्नर और १८७८ में ऑनरेरी मजिस्ट्रेट दर्जा दोयम बनाये गये । सन् १८७७ के देहली दरबार में आप निमंत्रित किये गये, उस समय लार्ड लिटन ने आपको राय साहिब का खिताब, स्वर्णपदक तथा सार्टिफिकेट दिया था। सन् १८७८-७९ में जब काबुल का युद्ध आरम्भ हुभा सब आपने गवर्नमेंट को 1 करोड़ रुपये खजाने से दिये थे इससे प्रसन्न होकर पंजाब गवर्नर ने सेठजी के एजंट को सिलअत और दुपट्टा इनायत कियाथा। इस प्रकार प्रतिष्ठापूर्ण जीवन बिताकर १९७१ में भापका देहावसान हुमा। भापके देहावसान के समय एक बड़ी रकम घरमादा खाते निकाली गई थी। आपके घनश्याम
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श्रोसवाल जाति का इतिहास.
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दासजी, रा० ब० छगनमलजी, मानमलजी और प्यारेलालजी नामक ४ पुत्र हुए। इन माताओं में से सेठ घनश्यामदासजी का कारबार संवत् १९७३ के श्रावण मास में अलग हो गया। सेठ धनश्यामदासजी को छोड़कर और भाताओं के कोई सन्तान नहीं हुई। . . . - सेठ घनश्यामदासजी-आपका जन्म संवत् १९१ में हुआ। आपका शरीरावसान संवत् १९७५ की फागुन वदी ९ को हुआ। आपके नौरतनमलजी तथा रिखबदासजी नामक २ पुत्र हुए।
राम बहादुर सेठ छगनमलजी का जन्म संवत १९४३ में हुआ । स्था० कान्फ्रेंस की ऑफिस जब अजमेर में थी, तब आप उसके सेक्रेटरी थे। आप अजमेर के म्युनिसिपल कमिश्नर और ऑनरेरी मजिस्ट्रेट शिप के सम्मान से सम्मानित हुए थे। भारत सरकार ने आपके गुणों से प्रसन्न होकर आपको रायबहादुरका खिताब इनायत किया। ७ वर्ष तक भाप श्वे. जैन कान्फ्रेंस के ऑनरेरी सेक्रेटरी रहे । आपने अपने व्यय से एक हुरशाला चलाई थी।आपका देहावसान संवत् १९७४ की चैत सुदी ४ (ता. २६ मार्चसन् १९२०) को केवल ३१ साल की वय में हो गया।
सेठ मगनमलजी का जन्म १९४५ में हुआ। आपकी धार्मिक कार्यों में विशेष रुचि थी आप बड़ी शांतवृत्ति के पुरुष थे भापका अंतकाल १९८२ की मगसर सुदी ८ को हुआ। सेठ प्यारेलालजी का जन्म १९५१ को माघ सुदी २ को हुआ । आप इस समय विद्यमान हैं। आप दोनों भ्राताओं ने सार्वजनिक व लोकप्रिय कार्यों में बहुत-सा सहयोग लिया। पुष्कर गौशाला, अहिंसा प्रचारक, बंगलोर गौशाला, घाटकोपर जीवदया मंडल आदि संस्थाओं को आपने बहुतसी सहायतायें दी हैं । आपके विचार सात्विक हैं। आपके बड़े भ्राता मगनमलजी, अजमेर के म्युनिसिपल कमिश्नर और आनरेरी मजिस्ट्रेट थे । आप स्था० कान्फ्रेन्स के जनरल सेक्रेटरी और सुखदेव सहाय जैन प्रेस के ऑनरेरी सेक्रेटरी थे।
सेठ नौरतनमलजी रीयां वाले का जन्म संवत् १९५८ की आसोज सुदी । को हुआ। आपका कारबार कई स्थानों पर फैला हुआ है, धार्मिक और सामाजिक कार्यों में आप खूब भाग लेते हैं।
सेठ रिखबदासजी का जन्म संवत् १९६४ के श्रावण पौर्णिमा को हुआ था। ४-५ सालों तक इन्होंने गुरुकुल कांगड़ी में शिक्षा पाई थी, इनका विवाह कोटे में बड़ी धूमधाम से हुआ था। इनका संवत् १९८४ की आसोज वदी ७ को अचानक पति पत्नी का एक साथ अंतकाल हो गया। इस समय आपकी कोई संतान नहीं है।
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ नौरतनमलजी रीया वाले, अजमेर.
मिश्रीमल मुका
श्री मिश्रीलालजी मुणोत, व्यावर.
मेहता सोहनसिंहजी मुणोत, किशनगढ़.
मेहता मोहनसिंहजी मुणोत, उदयपुर,
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मुहणोत सेठ लछमणदासजी मुहणोत रीयांवालों का परिवार, कुचामण
इस परिवार का मूल निवास स्थान रीया है। रीयों के नगरसेठ जीवनदासजी अपने समय के मामी गरामी श्रीमंत थे। आपका विस्तृत परिचव उपर दिया जा चुका है। सेठ जीवनदासजी के गोवईनदासजी, रघुनाथदासजी तथा हरजीमलजी नामक तीन पुत्र हुए। संवत् १८९५ में सेठ हरजीमलजी के पुन मुहणोत लछमणदासजी रीयाँ से देवगढ़, किशनगढ़ आदि स्थानों में होते हुए कुचामण भाये और वहीं आपने अपना निवास बनाया।
___ मुहणोत रघुनाथवासनी के पौत्र रामदासजी तथा लछमणदासजी पर जोधपुर दरबार महाराणा मानसिंहजी बड़ी कृपा रखते थे। राज्य के साथ इनका लेनदेन उस समय बड़े परिमाण में होता था इनकी मातवरी से खुश होकर दरवार ने इन्हें कई खास रुक्के भी इनायत किये थे। जोधपुर दरबार ने पालकी, सिरोपाव, कड़ाकंठी, मोती, दुपट्टा, कीनसाव वगैरा समय-समय पर प्रदान कर इस परिवार की इजत की थी। साथ ही इन भ्राताओं के लिये मारवाद में बहुत-सी लागें भी बंद कर दी थीं।
इसी प्रकार रामदासजी तथा लछमणदासगी को भी उदयपुर सरकार से म्वापार करने के लिये गाये महसूल की माफी के पत्र मिले थे । इस परिवार ने मेवाड़ प्रान्त में भी अपनी दुकानें स्थापित की थी। संवत् १८७७ की काती वदी १३ को रामदासजी तथा लछमणदासजी का कारवार अलग-अलग हुमा । इस प्रकार प्रतिष्ठामय जीवन बिताते हुए सेठ लछमनदासजी का संवत् १८९९ की जेठ सुदी ४ को स्वर्गवास हुआ। सेठ लछमणदासजी के पुत्र फ्तेमाजी संवत् १९०९ की भासोज सुदी १० को गुजरे ।
सेठ फतेमलजी के नाम पर नीमाली से सेठ धनरूपमलजी मुहणोत दत्तक लाये गये, इनके समय में अजमेर, जयपुर तथा सांभर में दुहने रहीं। संवत् १९५३ को माघ सुदी १० को इनका शरीरान्त हुआ। इनके सूरजमलजी, पचालालजी तथा तेजमलजी नामक तीन पुत्र हए. इनमें सेठ सरजमलजी संक्त १९३३ में गुजरे। सेठ पालालजी ने ५ साल पहिले हिंगणघाट में तथा २ साल पहिले बबई में दुकानें की । सेठ सूरजमलजी के पुत्र कल्याणमलजी, पनालालजी के पुत्र उम्मेदमलजी तथा तेजमलजी के पुत्र कल्यागमलजी, सरदारमलजी और इन्द्रमल हैं। इस कुटुम्ब के लिये कुचामण में कई लागे बन्द हैं तथा यह परिवार यहाँ “सेठ" के नाम से म्यवहत होता है। भापके वहाँ केनदेन तथा बोहरगत का व्यवसाय होता है।
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मोसमात नाति का इतिहास
सेठ लक्ष्मीचंदजी मुहणोत उज्जैन इस परिवार का इतिहास रीयां के सेठों से शुरू होता है। उसी खानदान के सेठ गुमानजी के पुत्र प्रतापमझजी करीब १०० वर्ष पूर्व भेलसा नामक स्थान पर व्यापार के निमित्त गये। वहाँ भाप साधारण लेनदेन का व्यापार करते रहे। भापके क्रमशः सेठ नवलमलजी और किशनचंदजी नामक दो पुत्र हुए। आप दोनों ही भेलसा से जबलपुर गये और वहाँ राजा गोकुलदासजी के यहाँ काम करने
गे। पाचात् भपनी होशियारी से नवकमळजी जबलपुर की बंगाल बैंक शाखा के खजांची हो गये। मापने अच्छी सम्पत्ति उपार्जित की। आपके पुत्र न होने से भापके भाई किशनमलजी के दो पुत्रों में से एक लक्ष्मीचंदजी को वचक लिया तथा दूसरे पुत्र फूलचंदजी अपने पिताजी के पास ही रहे ।
बापू कसमीचंदजी बड़े योग्य, होशियार और समझदार व्यक्ति हैं। पहले तो मापने राजा, गोदासजी के यहाँ काम किया पाचात् भाप उज्जैन के विनोद मिल में एकाउन्टेन्ट हो गये। आज कल भाप बीमा की एजंसी का काम करते हैं। आप यहाँ के आनरेरी मजिस्ट्रेट तथा चेम्बर माफ कामर्स के सेक्रेटरी है। भापके समीरचंदजी नामक एक दचक पुत्र हैं। मापने अपने पिताजी के स्मारक स्वरूप अपने भवन का नाम 'हम निवास' रखा है।
मुहणोत हस्तीमलजी, जोधपुर
मुहणोत सोभागमलजी जालौर में निवास करते थे तथा वहाँ के कोतवाल थे। उनका अंतका गभग संवत् १९५५ में हुभा । इनके पूर्वजों का राजकुमार पाल के समय का बनाया हुभा मन्दिर बालोर केहि में विद्यमान है।
___ मुहणोत सौभागमलजी के पुत्र हुए । मिश्रीमलजी तथा हस्तीमलजी। मिश्रीमलजी का संवत् १९५७ में अन्तकाल हो गया। मुहणोत हस्तीमलजी का जन्म संवत् १९३४ में हुभा । भापणे जालौर में हिन्दी तथा उर्दू का ज्ञान प्राप्त किया और संवत् १९५५-५६ से जोधपुर चीफ कोर्ट की पकालत शुरू की। इस समय माप जोधपुर में फर्स्ट क्लास वकील माने जाते हैं।
मुहणोत हस्तीमलजी के मांगीलालजी, मोहनलालजी तथा रणरूपमल्जी नामक तीन पुत्र है। मांगीलालजी का भादवा सुदी • संवत् १९६१ में जन्म हुमा। आपने सन् १९३१ में इलाहाबाद पुनिवर्सिटी से बी. ए. एस. एल. बी. पास किया, क्या वर्तमान में आप बालोतरा (जोधपुर-स्टेट ) में
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मुहणोत
वकीली करते हैं। इन्होंने सन् १९२७ में एक साल तक महकमा बन्दोवस्त में माफीयात माफीसर की काम किया था। आपके छोटे भाई पढ़ते हैं।
सेठ मिश्रीमलजी मुहणोत, ज्यावर यह परिवार सं० १९०१ तक तीन पीढ़ियों से जोधपुर में उदयचन्द बरदीचन्द के नाम से व्यापार करता रहा। वहाँ से इसी साल उम्मेदराजजी मेघराजजी दोनों माता पाली चले गये, तथा वहाँ दलाली करने लगे। इनके पुत्र कुन्दनमलजी तथा जसवन्तरायजी हुए। कुन्दनमलजी का जन्म संवत् १९०१ में हुआ। आप १९२८ में पाली से ज्यावर चले आये। पाली में आपका कपड़े का व्यापार था तथा अभी भी वहाँ इस परिवार के मकान हैं। कुन्दनमलजी का शरीरावसान् १९५३ की अषाद सुदी १ को और जसवन्तरायजी का वैशाख वदी १४ संवत् १९४० में हुआ ।
मुहणोत कुन्दनमलजी के जवानमलजी मिश्रीमलजी तथा केसरीमलजी नामक ३ पुत्र हुए, इनमें मिश्रीमलजी, जसवन्तराजजी के नाम पर दत्तक गये। मुहणोत मिश्रीमलजी का जन्म संवत् १९५० की मगसर सुदी ३ को हुआ। आपने बहुत सट्टा किया, १९५२ में कपड़े की दुकान की, पर संवत् १९०६ तक आपको विशेष लाम न हुआ। १९७६ में पन्नालालजी कांकरिया की भागीदारी में 1 लाख रुपया सह में कमाया। इस समय भी आपके यहाँ प्रधानतया सट्टे का ही काम होता है।
मुहणोत मिश्रीमलजी की धार्मिक व परोपकारी कामों की ओर अच्छी निगाह है। आप च्यावर के ओसवाल समाज में अच्छी प्रतिष्ठा रखते हैं। आपके बदे पुत्र गुलाबचम्दजी २१ साल के हैं। शेष मूलचन्दजी, लखमीचन्द तथा केवलचन्द हैं।
सेठ छोगमल हजारीमल मुहणोत इटारसी
यह परिवार मागोर (जोधपुर स्टेट ) का निवासी है। वहाँ से सेठ छोगमलजी मुहणोत संवत् १९४६ में इटारसी आये, तथा अनाज किराना और सराफी कारबार चालू किया। संवत् १९५५ में आपका शरीरान्त हुभा । आपके पुत्र सेठ हजारीमलजी मुहणोत का जन्म संवत् १९१७ में हुभा । सेठ हजारीमजी मुहणोत ने इस दुकान के व्यापार में तथा खानदान की इजत आवरू में तरकी की। आपके नाम पर सेट
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बोलबाल जाति का इतिहास
हेमराजजी मुहणोत नागोर से दत्तक लाये गये। आपके दत्तक आने पर पञ्चों ने फैसला कर सेठ हजारीमलजी मुहणोत की कन्या मैना बाई तथा आपके हिस्से से १० हजार रुपया मन्दिर बनवाने के अर्थ निकाले । फलतः सेठ हेमराजजी मुहणोत ने संवत् १९७८ में एक इवे. जैन मन्दिर का निर्माण कराया। आपने भी दुकान के व्यापार तथा प्रतिष्ठा को अच्छी उन्नति प्रदान की। संवत् १९८७ में आपने नोपतजी की ओली का
उपना तथा साध्वीजी रतनश्रीजी का चतुर्मास कराया। इस समय आपके यहाँ इटारसी में छोगमक हजारीमल मुहणोत के नाम से सराफी तथा बेकिंग कारबार होता है।
सेठ रतनचन्द छगनमल मुहणोत, अमरावती
लगभग संवत् १९२० में सेठों की रीयां नामक स्थान से व्यापार के निमित्त सेठ हुकमीचन्दजी मुहणोत के पुत्र मानमलजी, गुलाबचन्दजी, तखतमलजी और बस्तावरमलजी ने दक्षिण प्रांत के केलसी (रत्नागिरी) नामक स्थान में जाकर दूकान की। थोड़े समय बाद सेठ मानमलजी और गुलाबचन्दजी दोनों भाइयों ने लछमनदासजी मुहणोत की भागीदारी में अमरावती में दूकान की । सेठ लछमनदासजी मुहणोत संवत् १९३३ में रीयों से अमरावती आये ।
सेठ मानमलजी के नवलमलजी तथा धनराजजी नामक दो पुत्र हुए, इनमें धनराजजी को मुलाबचन्दजी के नाम पर दत्तक दिया। मुहणोत नवलमलजी ने संवत् १९५१ में बम्बई तथा गुलेजगुड़ में दूकाने की। इनके रतनचन्दजी, चांदमलजी तथा सूरजमलजी नामक तीन पुत्र हुए, जिनमें रतनचन्दजी, तखतमलजी के नाम पर दत्तक गये। मुहणोत धनराजजी के पुत्र पनराजजी और मगनमलजी तथा रतनचन्दजी के पुत्र छगनमलजी और फतेचन्दजी हुए। इन भ्राताओं में सेठ मगनमलजी और फतेचन्दजी का व्यापार सम्मिलित है। मुहमोत भीकमचन्दजी ने रीयां में एक धर्मशाला और कबूतरखाना बनवाया है। भाप लछमनदासजी के नाम पर इसक आये हैं। इस समय सेठ मगनमलजी तथा फतेचन्दजी का व्यापार अमरावती में रतनचन्द छगनमल के नाम से, गुलेजगुड़ में धनराज मगनमल के नाम से, अंजाका (रत्नागिरी ) में मानमल गुलाबचन्द के नाम से तथा केलसी (रत्नागिरी) में नवळमल चांदमल के नाम से होता है।
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मुहणोत
सेठ हणुतमल श्रमरचन्द मुहणोत रालेगाँव ( बरार )
यह परिवार हरसोर ( पीथावला - अजमेर के पास ) नामक स्थान से लगभग १०० साल पूर्व हिंगनघाट आया। सेठ हणुतमलजी मुहणोत ने हिंगनघाट आकर व्यवसाय शुरू किया, यहाँ से आपने गाँव (हिंगनघाट से १२ कोस पर) नामक गाँव में कृषि का काम बढ़ाया और लगभग ६० साल पूर्व से आप रालेगाँव में हो निवास करने लग गये। आपने मुहणोत अमरचन्दजी को पीपाद से दत्तक किया । सेठ रतनचन्दजी मुहणोत ने बहुत सम्पत्ति उपार्जित की। आपका संवत् १९०० में स्वर्गवास हुआ । आपके पुत्र रतनचन्दजी का जन्म संवत् १९४० में हुआ । सेठ रतनचन्दजी मुहणोत ने कारवार को भर ज्यादा बढ़ाया। आपके यहाँ मालगुजारी, कृषि और साहुकारी लेन-देन का व्यापार होता है । प्रांत के प्रधान लक्षाधीश ओसवाल सज्जनों में आपकी गणना है ।
बरार
सेठ रतनचन्दजी मुहणोत स्थानकवासी आम्नाय पालते हैं। आपके कोई पुत्र नहीं है। आप को धार्मिक जानकारी अच्छी है ।
सेठ केसरचन्द गुलाबचन्द सुहणोत, अहमदनगर
यह कुटम्ब बुजकुला (मेवाड़) का निवासी है। बापूलालजी मुहणोत मेवाड़ से व्यापार के निमित्त अहमदनगर जिले के अन्तर्गत नेवाला ग्राम में आये। इनके पुत्र केशरीचन्दजी का जन्म १९२२ में और गुलाबचन्दजी का १९३२ में हुआ । केशरीचन्दजी ने इस दूकान के धन्धे को ज़्यादा बढ़ाया तथा अपनी एक ब्रांच अहमदनगर में खोली । गुलाबचन्दजी का संवत् १९७५ में शरीरावसान हुआ ।
सेठ केशरीचन्दजी के पुत्र मोतीलालजी का जन्म १९५० में, चन्दनमलजी का जन्म १९६० में नेमीचन्दजी का १९६४ में तथा चांदमलजी का १९६७ में हुआ । इन बन्धुओं में से दो बड़े बन्धु मेवाला की दूकान का तथा छोटे भाई अहमदनगर की दूकान का काम देखते हैं। सेठ गुलाबचन्दजी के पुत्र माणिकचन्दजी का जन्म संवत् १९५८ में हुआ ।
वर्तमान में इस दूकार पर नेवाला में खेती तथा साहुकारी और भहमदनगर में गला, कपास और तेल का व्यापार होता है। मोतीलालजी के कनकमलजी, धनराजजी, पन्नालालजी, प्रेमराजजी तथा सूरजमलली नामक पाँच पुत्र हैं, जिनमें धनराजजी, माणिकचन्दजी के नाम पर दत्तक गये हैं ।
मेमीचन्दजी के पुत्र शांतिलालजी हैं ।
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सिंपकी
ओसवाल जाति के इतिहास में सिंघवी वंश बढ़ा प्रतापी और कीर्तिमान हुआ। सिंघवी वंश के मरपुङ्गवों के गौरवशाली कार्यों से राजस्थान का इतिहास प्रकाशमान हो रहा है। इन्होंने अपने युग में राजस्थान की महान् सेवाएँ की और उन्हें अनेक दुर्भय आपत्तियों से बचाया । राजनीतिज्ञता, रणकुशलता और स्वामिभक्ति के उच्च आदर्श को रखते हुए इन्होंने एक समय में मारवाद राज्य का उद्धार किया । अब हम इस गौरवशाली वंश के इतिहास पर थोड़ा सा ऐतिहासिक प्रकाश डालना चाहते हैं । सिंघवी गौत्र की स्थापना
जिस प्रकार ओसवाल जाति के भन्य गौत्रों का इतिहास अनेक चमत्कारिक दन्त कथाओं से आवृत है, ठीक वही बात सिंघवी गौत्र की उत्पत्ति के इतिहास पर भी लागू होती है। सिंघवियों की त्यातों में, इस गौत्र की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा है, उसका आशय यह है-"मनवाणा बोहरा जाति में देवजी नामक एक प्रतापवान पुरुष हुए । उनके पुत्र को सांप ने काटा और एक जैनमुनि ने उसे जीवित कर दिया। इस समय से इनका इष्टदेव पुण्डरिक नागदेव हुआ। लाभग २३ पीढ़ी तक तो वे नन· वाणा बोहरा ही रहे। इसके बाद सम्वत् २॥ में उक्त बोहरा वंशीय आसानन्दजी के पुत्र विजयानन्दजी ने सुप्रख्यात् जैनाचार्य श्री जिनवल्लभसूरि के उपदेश से जैन धर्म को स्वीकार किया। इन विजयानन्दजी के कुछ पीदियों के बाद श्रीधरजी हुए। इनके पुत्र सोनपालजी ने सम्वत् १४४४ में शत्रुक्षय का बड़ा भारी संघ निकाला, जिससे ये सिंघवी कहलाये।"
यह तो हुई सिंधियों की उत्पत्ति की बात। इसके भागे चल कर सोनपासनी के सिंहाजी, भगाजी, रागोजो, जसाजी, सदाजी तथा जोगाजी नामक छः पुत्र हुए।
इनमें से सिंहाजी जसाजी तथा रागोजी का परिवार जोधपुर में तथा बागोजी, सदाजी, और जोगाजी का परिवार गुजरात में है। उपरोक्त : भाइयों में से बड़े माता सिंहाजी के चापसीजी, पारसजी, गोपीनाथजी, मोंडणजी तथा पछाणजी नामक ५ पुत्र हुए, इन पाँचों भाइयों से सिंघवियों की मीचे लिखी सा निकली(1) चापसीजी-इनसे भीवराजोत, धनराजोत, गादमलोत, महादसोत शाखाएँ निकली इनके घर
जोधपुर, चंडावळ तथा खेरवामें हैं।
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(२) पछाणजी -- इनसे बागमलोत हुए जिनके घर पर्वतसर में हैं।
(३) पारसजी इनसे सुखमलोत, रायमलोत, रिदमकोत, परतापममेत, जोरावरमलोत, हिन्दूमलोत,
मूलचंदोत, धनरूपमलोत तथा हरचंदोत हुए। इनके परिवार जोधपुर, सोजत, नागोर, मेड़ता, पीपाड़, रेणा, लाडनूं, डीडवाना, पाली, सिरियारी, चाणोद, कालू, आदि स्थानों में है । गोपीनाथजी - इनसे भागमलोत हुए । यह परिवार गुजरात में है । मोडणजी - इनका परिवार कुवेरा में है ।
( ४ ) (५)
सिंघवी भींवराजोत
सिंघवी
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ऊपर हम सिंघवियों की पाँचों खांपों का संक्षिप्त विवेचन कर चुके हैं। वैसे तो जोधपुर के इतिहास में इन पांचों ही शास्त्राओं के महापुरुषों ने बड़े २ महत्वपूर्ण काव्यं करके दिखलाये हैं और अपनी बाम को हथेली पर रखकर राज्य की रक्षा और उन्नति में सहयोग दिया है फिर भी जोधपुर के राजनैतिक इतिहास में भींवराजोत झाला का नाम सबसे अधिक प्रखर प्रताप के चमकता हुआ दिखलाई देता है । इतिहास खुले तौर से इस बात की साक्षी दे रहा है कि महाराज मानसिंहजी के समय में जबकि जोधपुर का राजसिंहासन भयंकर संकट ग्रस्त हो गया था और उसका अस्तित्व तक खतरे में जा गिरा था उस समय जिन वीरों ने अपनी भुजाओं के बल पर उस गिरते हुए वैभव को रोका था उसमें भींवराजोत शाखा के सिंघवी इन्द्रराज सबसे प्रधान थे । जोधपुर के इतिहास में सिंघवी इन्द्रराज का नाम एक तेजपूर्ण नक्षत्र के तुल्य चमक रहा है। स्वयं महाराजा मानसिंहजी ने स्पष्ट शब्दों में सिंघवी इन्द्रराज को लिखा था कि "आजसू थारो दियोड़ो राज है | म्हारे राठोडों रो वंश रेसी ने श्री राज करसी उत्रो थारा घर सुं एहसान मन्द रेसी” *# इसी प्रकार इनके भाई गुलराजजी इनके पुत्र फतेराजजी आदि व्यक्तियों मे भी जोधपुर के राज नैतिक इतिहास में अपना विशेष स्थान प्राप्त किया था । नीचे हम इसी गौरवशाली वंश का संक्षिप्त परिचय देने का प्रयत्न करते हैं ।
सिंघवी भीवराजजी
इस शाखा का प्रारम्भ सिंघवी भीवराजजी से होता है। सिंघवी भींवराजजी अपने समय के बड़े प्रसिद्ध मुत्सद्दी थे । जोधपुर पर आने वाली कई राजनैतिक विपत्तियों का मुकाबिला आपने बड़ी बहापूरे रुक्के की नकल ओसवालों के राजनैतिक महत्व नामक अध्याय में पृष्ठ ६० पर देखिए ।
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मोसवाल जाति का इतिहास
दुरी और साहस से किया था। संवत् १८२१ के आश्विन मास में उज्जैन के सिन्धिया ने मारवाद पर आक्रमण करने के इरादे से कूच किवा। जब यह समाचार जोधपुर में सिंववी भीवराजजी को मिला तो उन्होंने तत्काल मन्दसोर आकर सिन्धिया को तीन लाख रुपये देकर युक्ति पूर्वक वापिस लौटा दिया। इसी प्रकार जब दक्षिण के सरदार खान ने मारवाड़ पर चढ़ाई की, उस समय भी सिंघवी भीमराजजी ने उसका सामना करने के लिए मुहणोत सूरतरामजी तथा दूसरे कई सरदारों के साथ सेना लेकर मारोठ पर डेरा किया। इस लड़ाई में खानू बहुत बुरी तरह पराजित होकर अजमेर भाग गया और उसका सामान सिंघवी भीवराजजी ने लूट लिया। इसके पश्चात् आपने वसी मामक स्थान पर घेरो डाला और वहाँ के ठाकुर मोहनसिंह से १०००० जुर्माना लेकर उसे फौज में शामिल कर लिया।
संवत् १८२४ में उदयपुर के राणा अरिसिंहजी और उनके भतीजे रतनसिंहजी में किसी कारण वागड़ा हो गया। उस समय राणा अरिसिंहजी ने महाराजा जोधपुर के पास अपना वकील भेज कर सहायता की याचना की। इस पर महाराज ने सिंघवी इन्द्रराजजी और सिंघवी फतेराजजी ( रायमलोत) को सेना देकर उदयपुर भेजा जब रतनसिंहजी को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने इन्हें खर्च देकर वापिस कर दिये । संवत् १८२० में महाराणा अरिसिंहजी ने जोधपुर दरवार को गोड़वाद प्रान्त दे दिया, उस समय सिंघवी भीवराजजी तथा मुहणोत सूरतरामजी ने ही बाली जाकर उस आर्डर पर अमल किया । संवत् १८२९ में जयपुर के महाराजा रामसिंहजी स्वर्गवासी हो गये उस समय सिंघवीजी ने परवतसर
हाकिम मनरूपजो को साम्भर पर अधिकार करने के लिये लिखा और पीछे से फौज लेकर आने का माश्वासन दिया।
संवत् १८२४ की फागुन वदी १० को महाराजा विजयसिंहजी ने सिंघवी भीवराजजी को वस्थीगिरी इनायत की जो संवत् १८३० तक चलती रही। उसके पश्चात् संवत् १८३२ में दरवार ने भआपको पुलाकर पुनः बक्षीगिरी का खिताब इनायत किया। भापकी सेवाओं से प्रसन्न होकर महाराजा ने छ हजार की आमदनी के चार गाँव आपको जागीर में दिये । आपके भ्राता इतिहास प्रसिद्ध सिंघवी धनराजजी भी अजमेर फतेह करते समय काम आये ।
संवत् १८३४ में जब अम्बाजी इंगालिया की फौज ढूंढाड़ (जयपुर स्टेट) को लूट रही थी तब सिंघवी भीवराजजी पन्द्रह हजार फौज लेकर जयपुर की मदद को चढ़ दौड़े। आपकी सहायता के बल से जयपुर की फौज ने मरहट्ठों की फौज को मार भगाया । उस समय जयपुर दरबार ने जोधपुर दरवार को पन्न लिखते हुए लिखा था कि “ भीवराजजी और राठौड़ वीरहों और हमारी आम्बेर रहे।''
जब बादशाह फौज लेकर रेवाड़ी आया तब जयपुर महाराज प्रतापसिंहजी १ हजार, नजबकुली
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श्रोसवाल जाति का इतिहास'
स्व० सिंघवी जोधराजजी दीवान, जोधपुर,
स्व० सिंघवी मोतीचन्दजी ( गजराज श्रनराज ) साजत.
स्व० सिंघवी प्रयागराजजी ( भींवराजोत ) जोधपुर.
सिंघवी बलवन्तराजजी (र्भ वराजोत ) जोधपुर.
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सिंघवी
स्वां १० हजार और भींवराजजी १२ हजार फौज लेकर उससे मिलने गये और एक लाख रुपयों की हुण्डी
"तखत का पाया" कहकर सम्मानित
लिखकर उसको रवाना किया। बादशाह ने प्रसन्न होकर इनको किया और सिरोराव, तलवार, तथा मकना हाथी इनायत किये। सिरोपाव बख्शे ।
जयपुर दरवार ने भी इन्हें घोड़ा और
राजनीति ही की तरह सिंघवी भींवराजजी का धार्मिक जीवन भी बहुत उत्कृष्ट रहा। सोजत आपका बनाया हुआ भींवसागर नामक कुंभा अभी भी विद्यमान है। इसके अतिरिक्त आपने श्री नरसिंहजी और रघुनाथजी के भव्य मन्दिर भी बनवाये । आपका स्वर्गवास संवत् १८४८ में हुआ । आपके छः पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः अभयराजजी, अखेराजजी, इन्द्रराजजी, बनराजजी गुलराजजी तथा जीवराजजी था। इनमें से अभयराजजी और जीवराजजी का वंश आगे नहीं चला ।
सिंघवी अखैराजजी
सिंघवी अखैराजजी को संवत् १८४७ में बक्शीगिरी का पद मिला । जब किशनगढ़वालों ने आम्बाजी इंगलिया को बहका कर सात हज़ार फ़ौज के साथ मारवाड़ पर चढ़ाई की उस समय सिंघवी भीवराजजी ने भण्डारी गंगारामजी और सिंघवी अखैराजजी को उनका सामना करने को भेजा। इस लड़ाई में मराठों के पैर उखड़ गये, इसपर सिंघवीजी ने बीकानेर से खर्च के लिये तीन लाख रुपये लेकर किशनगढ़ पर चढ़ाई कर दी। संवत् १८५२ में देसूरी के पास लड़ाई करके उन्होंने गोडवाड़ तथा जालौर इत्यादि स्थानों से तहसील वसूल की। संवत् १८५५ में आपने जालौर का घेरा दिया इसी साल आप जालौर में कैद कर लिए गये और फिर मुक्त होकर संवत् १८५६ की चैत वदी ६ को पुनः बहशीगिरी के पद पर नियुक्त हुए। इस प्रकार आपके जीवन का एक-एक क्षण राजनैतिक घटनाओं और युद्धों में गुंथा हुआ रहा, आपकी बहादुरी और साहस के सबूत कदम-कदम पर मिलते रहे । आपका बनाया हुआ अखैतलाब इस समय भी विद्यमान है । आपका स्वर्गवास संवत् १८५७ में हुआ । आपके कोई सन्तान न होने से आपने अपने भतीजे मेघराजजी को दसक लिया ।
संवत् १८५७ में अखैराजजी के स्वर्गवासी हो जाने पर सिंघवी मेघराजजी को बक्शीगिरी का पद प्राप्त हुआ । संवत् १८८३ तक वे उस पद पर काम करते रहे । संवत् १९०२ में इनका स्वर्गवास हुआ । इनके पश्चात् इनकी संतानों में क्रमशः शिवराजजी, प्रयागराजजी और उगमराजजी हुए। उगमराजजी के पुत्र बलवन्तराजजी अभी विद्यमान हैं। अपने पूर्वजों की महान सेवाओं के उपलक्ष में इन्हें स्टेट से पेंशन मिलती है। इनके जसवंतराज और दलपतराज नामक दो पुत्र हैं। सिंघवी शिवराजजी संवत्
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बोसवाल जाति का इतिहास
१९९९ में जोधपुर के हाकिम बनाये गये। इनको दरबार से पैरों में सोना, हाथी और सिरोपाच बरक्षा पा था। इनके पुत्र प्रयागराजजी को भी पैरों में सोना बस्या हुआ है। सिंघवी इन्द्रराजजी
सिंघवी इन्द्रराजजी उन महापुरुषों में से थे, जो अपने अद्भुत और आश्चर्यजनक कार्यों से सारे खानदान के नाम को चमका देते हैं, और इतिहास के अमर पृठों पर बलात् अपना अधिकार कर लेते हैं।
शुरू-शुरू में सिंघवी इन्द्रराजजी पचभदरा और फलौदी के हाकिम रहे। संवत् १८५९ में अब कई सरदारों ने मिलकर दीवान जोधराजजी का सिर काट लिया, तब महाराजा भीमसिंहजी ने इन्द्रराजजी को फौज देकर उन सरदारों से बदला लेने को भेजा । उन्होंने जाकर उन सब सरदारों को दण्ड दिया और उनसे हजारों रुपये वसूल किये। संवत् १८६० की कार्तिक सुदी ४ को जब महाराज भीमसिंहजी का स्वर्गवास हो गया और राज्य का अधिकारी महाराजा मानसिंहजी के सिवाय दूसरा कोई न रहा उस समय जोधपुर से पाय भाई शम्भूदान जी, मुणोत ज्ञानमलजी तथा भण्डारी शिवचंदजी ने सिंघवी इन्द्रराजजी और उनके मामा भण्डारी गंगारामजी को लिखा कि "महाराजा भीमसिंहजी परम धाम पधार गये हैं और ठाकुर सवाईसिंहजी पोकरन है उनके आने पर तुम्हें लिखेंगे तुम अभी घेरा बनाए रखना," पर सव परिस्थितियों पर विचार करके इन्होंने महाराज मानसिंहजी को जोधपुर जाना उचित समझा भौर इसी अभिप्राय से अमरचंदजी छलवानी को मानसिंहजो के पास गढ़ में भेजा और स्वयं भी जाकर निछरावल की ओर घेरा उठा दिया । संवत् १८६० की मगसर वदी ७ को आपने जोधपुरवालों को लिखा कि राज्य के अधिकारी मानसिंहजी ही हैं। ये बड़े महाराज की तरह सब पर दया रखेंगे। मैं इनका रुका सबके नाम पर भेजता हूँ । जब महाराजा मानसिंहजी जोधपुर के गढ़ में दाखिल हो गये तब उन्होंने प्रसन्न होकर भण्डारी गंगारामजी को दीवानगी
और सिंघवी इन्द्रराजजी को मुसाहिबी इनायव की। इसके सिवाय मेघराजजी को बख्शीगिरी और कुशलराजजी को सोजत की हाकिमी दी। इसी समय महाराजा ने सिंघवी इन्द्रराजजी को एक अत्यन्त महत्वपूर्ण रुका इनायत किया जो इस ग्रन्थ के राजनैतिक महत्व नामक अध्याय में हम प्रकाशित कर चुके हैं।
संवत् १८६३ में किसी कारणवश महाराजा मानसिंहजी सिंघवी इन्द्रराजजी और भण्डारी गंगारामजी से नाराज हो गये और इन दोनों को इनके भाई बेटों सहित कैद कर दिया ।
संवत् १८६३ के फाल्गुन में जोधपुर के कई सरदार धौंकलसिंहजी को * गही दिलाने के उद्देश्य
• जब महाराणा भीमसिंहजी स्वर्गवासी हुए तन उनकी रानी गर्भवती थी, महाराज की मृत्यु के बाद उनके पुषमा जिसका नाम भौंकलसिंह रक्खा गया था।
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सिंघवी
.से जयपुर और बीकानेर की एक लाख फौज को चढ़ा लाये । इस विशाल सेना ने जोधपुर पर घेरा डालकर सरदार धकलसिंह की दुहाई फेर दी, मानसिंहजी का अधिकार केवल गढ़ ही में रह गया। जोधपुर के इतिहास में यह समय ऐसा विकट था कि यदि पूरी सावधानी के साथ इसका प्रतिकार न किया जाता तो मारवाड़ के इतिहास के पृष्ठ ही आज दूसरी तरह से लिखे जाते । अस्तु, ऐसी भयंकर विपत्ति के समय में महाराज ने सिंघवी इन्द्रराजजी और भण्डारी गंगारामजी को कैद से बुलाकर इस विपत्ति से मारवाड़ की रक्षा करने को कहा । इस स्थान पर इन दोनों मुत्सुहियों की उच्च स्वामिभक्ति का आदर्श देखने को मिलता है। जितने कष्ट इन लोगों को मिले थे उन्हें देखते हुए यदि ये लोग ऐसे समय पर उदासीनता भी बतलाते तो इतिहासकार इन्हें बुरा नहीं कहते, मगर इन दोनों खानदानी पुरुषों में सब बातों को भूलकर, उस विपत्ति के समय में भी सच्चे हृदय से सेवा की। शुरू २ में तो इन्होंने धौंकळसिंह के तरफदार पोकरन ठाकुर सवाईसिंहजी से समझौते की बातचीत की, मगर जब उसमें कामयाबी न हुई तो उन्होंने मीरखाँ पिण्डारी को चार-पाँच लाख रुपये देने का वादा कर अपनी ओर मिला लिया और अपनी तथा उसकी फौज के साथ ढाढ़ को लूटते हुए जयपुर की ओर कूच किया। रास्ते में इन्होंने जयपुर के बख्शी शिवलाल को लुट किया तथा इस घटना की खबर बारहट सांइदान के साथ महाराजा मानसिंहजी को भेजी, बारहट मे निम्नांकित दोहा महाराजा के पास भेजा था:
फागेजुव पाई फते, लूट लियो शिवलाल ।
वे कागद में श्राणिया, मान विजाही मान ॥
कहना न होगा कि जयपुर पहुँचकर सिंघवी इन्द्रराजजी और मीरखां ने अपनी छूट शुरू कर दी । यह खबर जब जयपुर की फौज को जोधपुर में लगी तो उसने घबरा कर संवत् १८६४ की भादवा सुदी ३ को जोधपुर का घेरा उठा दिया और अपने-अपने राज्यों की ओर प्रस्थान कर दिया ।
जब जयपुर की विजय की खबर महाराज मानसिंहजी को मालूम हुई तो वे बड़े खुश हुए, और उन्होंने एक बड़ा महत्वपूर्ण रुक्का सिंघवी इन्द्रराजजी को बहशा जो इस ग्रन्थ के राजनैतिक महत्व नामक अध्याय में दिया गया है । इसी समय इन्द्रराजजी को प्रधानगी का पद बख्शा गया ।
संवत् १८६५ में सिंघवी इन्द्रराजजी और मुहणोत सूरजमलजी ने १० हजार जोधपुर की तथा १० हजार बाहरी फौज लेकर बीकानेर पर आक्रमण किया । उस समय बीकानेर नरेश सूरतसिंहजी ने चार लाख रुपये देने का वादा किया तथा पाँच गाँव देवनाथजी को जागीर में दिये। जिस समय सिंघी इन्द्रराजजी फौज के साथ बीकानेर गये थे उस समय पीछे से महाराजा मानसिंहजी ने मीरखां को उसकी फौज के खर्च के लिये पर्वतसर, मारोठ, डीडवाणा और साम्भर नावां का परगना लिख दिया था ।
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ओसवाल जाति का इतिहास
जब बीकानेर से विजय प्राप्त करके उक्त फौज वापस लौटी तब महाराज मानसिंहजी ने खुश होकर कहा कि जैसी बात बीकानेर में रही ऐसी ही जयपुर में रह जाय तो बड़ा अच्छा है। इस पर इन्द्रराजजी के पुत्र फतेराजजी ने मुहणोत सूरजमलजी और आउवे के ठाकुर के साथ जयपुर पर चढ़ाई की और अपना लूटा हुआ सामान वापस ले आये।
संवत् १८७२ की आसौज सुदी ८ के दिन जब सिंघवी इन्द्रराजजी और महाराज देवनाथजी खावकों के महल में बैठे हुए थे, उसी समय मीरखां के सिपाही आये और उन्होंने सिंघवी इन्द्रराजजी से महाराज मानसिंहजी द्वारा दिये हुए चार परगने और निश्चित् रकम माँगी । इस सम्बन्ध में सिंघवी इन्द्रराजजी और उनके बीच बहुत कहा सुनी हो गई, फलस्वरूप उन सिपाहियों ने सिघवी इन्द्रराजजी को करल कर डाला। इस घटना से महाराज मानसिंहजी को बहुत भारी रंज हुआ। उन्होंने उनके शव को वही इज्जत बक्षी जो राजघराने के पुरुषों के शवों को दी जाती है। अर्थात् उनकी रथी को सींपोल निकाला और "रोसालई" पर उनका दाहसंस्कार हुआ। वहाँ पर अभी भी उनकी छतरी बनी हुई है। इनकी मृत्यु के रंज पर महाराज ने इनके पुत्र फ़तहराजजी को एक खास रुक्का इनायत किया जो "राजनैतिक महत्व" नामक अध्याय में दिया जा चुका है।
सिंघवी फतेराजजी-सिंघवी इंद्रराजजी के दो पुत्र थे, सिंघवी फतेराजजी और सिंघवी उम्मैदराजजी । सिंघवी इन्द्रराजजी के मारे जाने पर दीवानगी का पद और पञ्चीस हजार की जागीरी का पट्टा सिंघवी फ़तेराजजी को मिला। संवत् १८७२ से १८९५ तक भाप सात बार दीवान हुए। जब संवत् १८७३ में मुत्सुहियों के पड़यंत्र से गुलराजजी का चूक (करल ) हुआ तब सिंघवी फतेराजजी अपने कटम्ब सहित कुचामन चले गये. पर वहाँ के ठाकर शिवनाथसिंहजी के कहने से वे संवत १८७५ में फिर जोधपुर आये, वहाँ महाराज मानसिंहजी ने उनका बड़ा सस्कार किया। संवत् १८७६ के आषाढ़ में भापको फिर दीवानगी बख्शी और साथ ही कड़े, कंठी, पालकी और सिरोपाव की इज़त भी बख्शी तथा सुरायता गांव जागीर में दिया । संवत् १८८1 में एक षड्यन्त्र के कारण इनको महाराजा ने फिर नज़रबन्द कर दिया और दस लाख रुपये जुर्माना किये। मगर जब इस षड्यंत्र का भण्डाफोड़ हुआ तो महाराज मानसिंहजी ने संवत् १८८५ में इन्हें फिर दीवान बनाया। इसके पश्चात् फिर संवत् १४८७, १८९२ और १८९४ में ये पुनः २ दीवान बनाये गये।
सिंघवी इन्द्रराजजी के छोटे पुत्र सिंघवी उम्मैदराजजी अपने पिता की आकस्मिक मृत्यु के समय केवल चार साल के थे। ये अपने जीवन में हुकुमत का काम करते रहे। संवत् १९२९ में इनका देहान्त
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हुआ। इनके तीन पुत्र हुए। हरकराजजी, देवराजजी और मुकुन्ददासपी। इनमें से देवराजजी सिंघवी फौजराजजी के नाम पर दत्तक गये ।
सिंघवी फतेराजजी के दो पुत्र हुए, उदयराजजी और प्रेमराजजी। उदयराजजी भिन्न-भिन्न स्थानों की हुकूमत करते रहे। इन्हें अपने पूर्वजों की सेवाओं के उपलक्ष्य में तनख्वाह मिलती रही । संवत् १९२५ में इनका देहान्त हुआ। सिंघी प्रेमराजजी कोठार के आफिसर (हाउस होल्ड आफिसर ) रहे। इसके बाद आपने महाराजा तखतसिंहजी को राज्याधिकार दिलाने का उद्योग किया, जिसके उपलक्ष्य में संवत् १९०० की कार्तिक बदी सप्तमी को महाराजा साहब ने आपको एक खास रुक्का बस्था । भाप उक्त महाराजा के राजकुमारों के गार्जियन भी रहे।
सिंघवी प्रेमराजजी के हुकुमराजजी, चन्दनराजजी और सोहनराजजी नामक तीन पुत्र हुए। हुकुमराजजी जोधपुर स्टेट के ट्रेलरी आफिसर तथा नागौर, साम्भर इत्यादि भिन्न-भिन्न स्थानों पर गिराही सुपरिण्टेण्डेण्ट रहे। संवत् १९६५ में आपका स्वर्गवास हुभा। आपके छोटे भाई चन्दनराजजी १९७० में गुजरे । सोहनराजजी इस समय विद्यमान है, इन्हें स्टेट से पेन्शन मिलती हैं। इनके पुत्र लक्ष्मणराजजी महक्मा खास में क्लर्क है। हुकुमराजजी के पुत्र दुलहराजजी तथा उगमराजजी हुए। इनमें उममराजजी सिंघवी प्रयागराजजी के नाम पर दत्तक गये, तथा दुलहाजनी रूपराजजी के नाम पर दत्तक गये।
सिंघवी उदयराजजी के पुत्र पृथ्वीराजजी हुकुमत इत्यादि का काम करते हुए संवत् १९४८ में स्वर्गवासी हुए। आपके पनराजजी और विशनराजजी नामक दो पुत्र हुए। पनराजजी के पुत्र सिंघवी रंगलालजी तथा खेमराजजी अभी विद्यमान हैं। इन्हें रिपासत से पेंशन मिलती है। रंगराजजी के पुत्र विजयराजजी तथा खेमराजजी के पुत्र अजितराजजी हैं।
सिंघवी फतेराजजी के छोटे भाई उम्मैदराबजी के पुत्र हरकराजजी जेतारण के हाकिम रहे । देवराजजी संवत १९११ से १९२८ तक फौजबशी रहे। मुकुन्दराजजी जयपुर के वकील बनाए गये। आपने रिया. सत के सरहद्दी झगड़ों को निपटाने में बड़ा कार्य किया। इसके पश्चात् आप वाकयान कमेटी और म्युनिसिपल कमेटी के मेम्बर हुए। संवत् १९५७ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके मदनराजजी, मोहनराजजी तथा मनोहरलालजी नामक तीन पुत्र हुए। इनमें से मोहनराजजी देवराजजी के नाम पर दत्तक गये। मदनराजजी संवत् १९५७ से ८५ तक म्यूनिसिपल कमेटी के मेम्बर रहे। आपके चौकड़ी छोटी (बीलादा) नामक गांव जागीर में है। कई रियासतों से आपको पालकी और सिरोपाव मिला है। सिंघवी मोहनराजजी महाराज सुमेरसिंह के युवराजकाल में जनानी बोदी पर काम करते थे । संवत् १९७५ में इनका
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
देहान्त हुआ। इनके पुत्र तखतराजजी मे संवत् १९३३ में इण्टर मीजिएट की परीक्षा दी। इनको अपने पूर्वजों की सेवाओं के उपलक्ष्य में रियासत से तनख्वाह मिलती है। सिंघवी बनरावजी
... सिंघवी बनराजजी सिंघवी भीवराजजी के चौथे पुत्र थे। ये भी बड़े साहसी और बहादुर थे। जब महाराज भीमसिंहजी महाराज विजयसिंहजी के परलोकवासी होने के समाचार सुनकर जैसलमेर से लौटे उस समय मानसिंहजी की पार्टी वाले लोदा शाहमलजी आदि सरदारों ने आसपास के ग्रामों में विद्रोह मचाना शुरू किया । इनको दबाने के लिए महाराज भीमसिंहजी ने सिंघवी वनराजजी को फौल लेकर भेजा। उस समय ये मेड़ते के हाकिम थे। जालोर के पास माण्डोली नामक गाँव के समीप, मानसिंहजी के पक्षपाती सिंघवी शम्भमलजी ओर सिंघवी बनराजजी की फौज का मुकाबला हुआ। घोर युद्ध के पश्चात् बनराजजी की फौज विजयी हुई। मगर सिंघवी शम्भूमलजी ने तत्काल फिर फौज को इकट्ठा कर, फिर लड़ाई की। इस लड़ाई में बनराजजी के माला लगा था। संवत् १८५९ में महाराज भीमसिंहजी ने फिर फौज देकर आपको जालौर परघेरा डालने के लिए भेजा । पीछे से भण्डारी गंगारामजी और सिंघवी इन्द्रराजजी भी इस धेरे में सम्मिलित हुए । संवत् १८६० की सावण सुदी ६ को भयङ्कर कड़ाई हुई, इसमें जालौर तो फतह हो गया मगर बनराजजी गोली लगने से मारे गये। जालौर के दरवाजे के पास उनका दाहसंस्कार हुआ जहाँ उनकी छतरी बनी हुई है। इनकी मृत्यु के समाचार से महाराजा को बढ़ा दुःख हुआ, वे उनकी मातमपुर्सी के लिए उनकी हवेली गये और उनके पुत्र कुशलराजजी को जालौर की हुकूमत और सुरायता गांव पट्टे दिया। सिंघवी बनराजजी के पुत्र मेघराजजी, कुशलराजजी एवं सुखराजजी हुए। इनमें से मेघराजजी सिंघवी अखैराजजी के नाम पर दत्तक गये।
सिंघवी कुशलराजजी को दरवार की ओर से कड़े, मोती की कंठी और पालकी तथा सिरोपाव का सम्मान मिला। संवत् १८९० में सिंघवी कुशलराजजी और रायपुर ठाकुर ने फौज लेकर बगड़ी और
बसू के बागी आदमियों को परास्त किया, इसके नवाजिश में आपको कोसाणां गांव जागीर में दिया । संवत् १९१६ में इन्होंने गूलर ठिकाने पर दरबार का अधिकार कराया। संवत् १९१४ में गदर के टाइम पर लापने ब्रिटिश सेना को बहुत सहायता दी। इसके लिए सी. एम. वाल्टर और एडमण्ड हार्ड कार्ट आदि अंग्रेज अफसरों ने उन्हें कई अच्छे । सार्टिफिकेट दिये । संवत् १९२० में इनका स्वर्गवास हुआ। इनकी मातमपुर्सी के लिए दरबार इनकी हवेली पधारे ।
सिंघवी सुखराजजी बनराजजी के छोटे पुत्र थे। ये सोजत, जोधपुर इत्यादि स्थानों के हाकिम
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सिंघवी
बनाये गये । सं० १८९८ में इन्हें दीवानगी का पद इनायत हुला। इन्हें पालकी और सिरोपाव का सम्मान मिला था। संवत् १९०३ में इनका स्वर्गवास हुभा। इनके समर्थराजजी, सांवतराजजी, मगमराजजी और छगनराजजी चार पुत्र हुए।
सिंघवी कुशलराजजी के पुत्र सिंघवी रतनराजजी परवतसर और मारोठ के हाकिम रहे इनका स्वर्गवास संवत् १९२० की काती वदी ४ को हुआ। इनके पुत्र सिंघवी जसराजजी मेडते के हाकिम थे इनके पैरों में सोना था। इनके यहाँ भभूतराजजी दत्तक भाये है। सोजत परगने का शेखावास गाँव इनकी जागीर में है।
___ सिंघवी सुखराजजी के पुत्र सिंघवी समरथराजजी संवत् १८९४ से १९१५ तक हाकिम रहे, बीच में ये जोधपुर के वकील की हैसिपत से एजण्ट के पास भी रहे थे । . संवत् १९२९ में ये फौजबख्शी हुए। इन्होंने संवत् १९३. में जयपुर में अपने पिता की छतरी की प्रतिष्ठा की। इनके सूरजराजजी और मुरूहराजजी नामक दो पुत्र हुए। सोजत जिले का पला गांव इनकी जागीर में था वह भव भी इनके वंशजों के पास है। महाराज तखतसिंहजी ने मापने पैरों में सोना, तालीम और हाथी बस्सा था। इनके पुत्र सूरजरामजी का देहान्त इनकी मौजूदगी में हो गया।
___ सिंघवी करणराजजी सिंघवी सूरजराजजी के पुत्र थे । संवत् १९११ में इनें बसीगिरी इनायत हुई और संवत् १९३४ में इनका स्वर्गवास हो गया। इनको भी महाराज जसवन्तसिंहजी ने सोना, साजीम और सिरोपाव बख्शा था। इनके गुजरने पर इनके दत्तक पुत्र किशनराजजी को भी वही इज़त मिली। किशनराजजी को संवत् १९३४ में बख्शीगिरी मिली। बाद में संवत् १९४९ से आप परवतसर और नागौर के हाकिम रहे। नागौर से इनके पुत्र हंसराजजी और परवतसर में इनके भतीजे दौलतराजजी हुकुमत का काम करते थे और आप दोनों स्थानों पर निगरानी रखते थे। आपका स्वर्गवास संवत् १९७३ में हुआ। आपके पुत्र सिंघवी हंसराजजी हुए बो सिंघवी अमृतराजजी के नाम पर दत्तक गये।
___ सिंघवी सुखराजजी के दूसरे पुत्र मगनराजजी के नाम पर समरथराजजी के छोटे लड़के सुलहराजजी दत्तक लिये गये। इनका स्वर्गवास संवत् १९६५ की जाती सुदी ४ को हुआ। इनके पुत्र रूपराजजी कोलिया और सांचोर के हाकिम थे। इन्हें भी पालको और सिरोपाव हुआ। संवत् १९८७ में इनका स्वर्गवास हुआ, इनके पुत्र दूलहराजजी अमी विद्यमान हैं।
सिंघवी सुखराजी के तीसरे पुत्र सांवतराजजी का स्वर्गवास संवत् १९२६ में हुभा । इनके सिंघवी बछराजजी और अमृतवानी दो पुत्र हुए।
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मासवाल जाति का इतिहास
सिंघवी बछराजजी-सिंघवी बछराजजी का जन्म संवत् १०५ में हुआ। आप मुत्सुद्दियों के इस पतनकाल में भी जोधपुर के अन्तर्गत एक तेजपूर्ण नक्षत्र की तरह चमके, आप बड़े बहादुर, साहसी
और दिलेर तबियत के मुत्सुदी थे। आप जोधपुर में, फौजबख्शी और स्टेट कौंसिल के मेम्बर रहे । आपका परिचय इस ग्रन्थ के राजनैतिक महत्व नामक अध्याय में पृष्ठ ९६ पर दिया गया है। आपका स्वर्गवास संवत् १९७४ की माष बदी ।। को हुआ। . .
सिंघवी हंसराजजी-सिंघवी बछराजजी के पुत्र सिंवधी हंसराजजी का जम्म संवत् १९४७ में हुआ। शुरू में आप मारोठ और सोजत में हाकिम रहे। फिर जोधपुर के सिटी मजिस्ट्रेट बनाए गये । उसके पश्चात् आप संवत् १९८२ में साम्भर के और संवत् १९८६ में जोधपुर के हाकिम बनाए गये । इस समय आप इसी पद पर काम कर रहे हैं। आपको भी स्टेट से हाथी और सिरोपाव बख्शा हुआ है। आप जोधपुर के मुत्सुहियों में अच्छे प्रभावशाली व्यक्ति हैं आपके पुत्र मैट्रिक में हैं। ४. सिंघवी सुखराजजी के छोटे पुत्र समाजजी थे। इनके पुत्र गणेशराजजी १९६२ में गुजरे । गणेशराजजी के पुत्र दौलतराजजी हुए। सिंघवी गुलराजी
ये सिंघवी भीवराजजी के पांच पुत्र थे। महाराजा भीमसिंहजी के समय में ये हुकमत का काम करते रहे। महाराजा मानसिंहजी ने गद्दी नशीन होने पर इन्हें फौजबन्दी का सिरोपाव बंधाया । इसी साल चैत महिने में जब होलकर ने मारवाड़ पर चढाई की, तब ये और भण्डारी धीरजमलजी फौज लेकर भेजे गये। इन्होंने तथा शाह कल्याणमलजी लोढा ने होलकर को समझा बुझाकर वापिस कर दिया । संवत् १८७२ में इन्द्रराजजी के मारे जाने पर इन्हें बख्शीगिरी इनायत हुई। जब कई सरदार और मुत्सुहियों ने मिलकर महाराज मानसिंहजी के नाबालिग युवराज छत्रसिंह को गद्दी दिलाई उस समय गुलराजजी वड़े प्रभावशाली व्यक्ति थे। महाराजा मानसिंहजी के हित की दृष्टि से ये गद्दी दिलाने के पक्ष में न थे। इसका परिणाम यह हुआ कि कई वज़नदार सरदार इनके विरुद्ध हो गये और संवत १८७३ की वैशाख सुदी ३ को इन्हें किले में चूक (कस्ल ) करवा दिया गया। इनके पुत्र फौजराजजी उस समय बालक थे।
गुलराजजी के पुत्र फौजराजजी को संवत् १८८१ में खास रुक्का मेज कर दरवार ने जोधपुर बुलाया । यहाँ आने पर दरवार ने इन्हे खालसे की दीवानगी का काम सौंग । उसके पश्चात सम्बत् १८८२ से लेकर १९१२ तक ये फ़ौजवख्शी का काम करते रहे। जब १९१२ में इनका स्वर्गवास होगया तब
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
स्व० श्री सिंघी सुखराजजी (भींवराजोत) जोधपुर
स्व० श्री सिंघीं बच्छराजजी फोजबख्शी राज मारवाड़ जोधपुर
श्री सिंघी हंसराजजी ( भींवराजोत ) हाकिम, जोधपुर
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सिंघवी स्वागिरी इन्हीं के नाम पर रही और इनके कामदार मेहसा कालूरामजी काम देखते रहे। फिर सम्वत् १९१९ में इनके पुत्र देवराजजी फौजबख्शी बनाए गये। इसके पहले आप शिव के हाकिम थे। भापको भी पैरों में सोना, हाथी और सिरोपाव का सम्मान मिला था । आपका स्वर्गवास सम्वत् १९६० में हुभा। आपके नाम पर सिंघवी मोहनराजजी दत्तक आये। परबतसर परगने कारघुनाथपुरा गाँव भापके पड़े में था। मोहनराजजी का स्वर्गवास सम्बत् १९७५ में हुआ। इनके पुत्र तखतराजजी अभी विद्यमान है। अपने पूर्वजों की सेवाओं के उपलक्ष्य में आपको रियासत से १००) मासिक मिलता है।
सिंघवी रायमलोत परिवार, जोधपुर हम अपरावतला चुके हैं कि सिंधी शोभाचन्दजी के सुखमलजी, रायमलजी, रिदमजी और प्रतापमलजी नामक चार पुत्र हुए। इनमें दूसरे पुत्र रायमलजी से रायमलोत नामक सांप निकली। इसी रावमलनेत शाखा का संक्षिस परिचय दिया जाता है।
- सिंघी रायमलजी-भाप बड़े प्रतापशाली पुरुष हुए। सम्वत् 10 में आपको राम की महान सेवाओं के उपलक्ष्य में २०,०००) की रेख के १६ गांव जागीर में मिले। सम्बत् १६४१ में आपने बालेर में बिहारी मुसलमानों से युद्ध किया और उन्हें परास्त कर जालोर को जोधपुर राज्य के भाधीन किया। सिंघी रायमलजी महाराजा गजसिंहजी के समय में जोधपुर की दिवानगी के प्रतिष्ठित पद पर थे। आपके पुत्र सिंघवी जीतमलजी हुए ।
सिंघवी जतिमलजी-आप बड़े वीर प्रकृति के पुरुष थे। सम्वत् १६८१ में आप जोधपुर राज्य प्रधान सेनापति बनाये गये और उसके दूसरे ही साल एक युद्ध में वीरता पूर्वक लड़ते हुए काम आये । आपके एक पुत्र थे, जिनका नाम आनन्दमरूजी था। भानन्दमलजी के दो पुत्र थे, जिनका नाम हररूपमलजी, और सरूपमलजी था।
__सिंघवी सरूपमनजी सम्वत् १७४१ में जब महाराजा बखतसिंहमी नागौर के राज्यसिंहासन पर बैठे और उन्होंने राजाधिराज की उपाधि धारण की, उस समय सिंघवी सरूपमलजी वहाँ के दीवान बनाये गये थे। आपके फतहमलजी, सांवतमलजी तथा बुधमलजी नामक तीन पुत्र हुए।
सिंघवी फतहचन्दजी-भाप भी अपने पिताजी के पश्चात् सम्वत् १७९३ से १८०७ तक नागौर के दिवान रहे। भापको तत्कालीन नागौर नरेश ने खुश होकर पालकी, सिरोपाव, कड़ा, मोतियों की की आदि प्रदान कर भापका सम्मान किया। आपके छोटे भाई सांवतरामजी भी नागौर के दिवान रहे थे।
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मोतमाल जाति का इतिहास
सम्वत् १८०६ में जब महाराजा मानसिंहजी ने मेड़ते पर अपना अधिकार कर लिया। उस समय सिंघवी फतहचन्दजी ने रागद सरदारों पर 'पेक्ष कही" लगाई। भाप संवत् १८०७ में मेड़ता के पास लड़ते हुए ज़ख्मी हुए। जब संवत् १४०८ में आपाद सुदी १ को महाराजाधिराज बख्तसिंहजी जोधपुर के स्वामी हुए, उस समब सिंघवी फतेचन्दजी ने राजतिलक किया और महाराजा साहब ने प्रसन्न होकर उन्हें दीवानगिरी का दुपट्टा, सिरोपाव, पालकी आदि सम्मान प्रदान किये। इतना ही नहीं इस समय राज्य की ओर से आपको कई गांव जागीरी में मिले। जिनकी वार्षिक बाप हजारों रुपयों की थी। संवत् 1610 तक आप इस पद पर रहे। सवत् 161 में फतहचन्दजी ने महाराज रामसिंहजी से जालौर, सोजत, और मेड़ता ले लिये और उन पर जोधपुर राज्य का अधिकार स्थापित कर दिया। इसी वर्ष भाप पुनः महाराज विजयसिंहजी के द्वारा मेढ़ते की लड़ाई में भेजे गये। इस लड़ाई में विजय प्राप्त कर आपने अपनी वीरता का परिचय दिया। संवत् १८१४ में आपने मेड़तियों को पूर्णरीति से परास्तकर उनसे जेतारण, सोजत भौर मेड़ता भावि परगने जीते और उन्हें जोधपुर राज्य में मिला लिये। संवत् १४२३ की आसोज सुदी ५ को सिंघवी फतहचन्दजी पुनः इस राज्य के दीवान बनाये गये, इन्होंने अपनी वीरता एवं युद्ध कौशल से मेड़तियों को परास्त कर मारवाड़ से भगा दिया। संवत् १८२१ में फतहचन्दजी के पुत्र ज्ञानमलजी को जोधपुर की हुकूमत दी गई। संवत १४२३ की चैत्र सुकी ५ को दरवार ने सिंघवी फतेचन्दजी को जीवन पर्यंत के लिये दीवान का पद दिया तथा मोतियों का कंठा, सिरोपाव, कड़ा, पालको तथा १४०००) वार्षिक की जागीरी प्रदान कर इनकी सेवाओं का सत्कार किया। फतहपाली संवत् १८३७ की आसोज सुदी १० को स्वर्गवासी हुए।
सिंघवी ज्ञानमलजी-फतेहचन्दजी के स्वर्गवासी हो जाने के बाद भी संवत् १८४७ तक आपके पुत्र ज्ञानमलजी इस राज्य के दीवान का काम करते रहे। ज्ञानमलजी तक इस घराने को हजारों रुपये प्रतिवर्ष आय की जागीर थी, जिसकी सनदे आज तक विद्यमान है । ज्ञानमलजी के पुत्र बख्तावरमलजी को चैत्र सुदी " संवत् १८६६ में खानसमाई का पद मिला, जिसके साथ-साथ एक सिरोपाव भी दिया गया। भापके पुत्र कानमलजी हुए। मेड़ता परगने का गोल नामक गांव भापको जागीर में दिवा नया था। मापने जेतारण और नॉवों की हुकूमत भी की।
सिंघवी ऋद्धमलजी-सिंघवी कानमलजी के सरदारमलजी तथा सिमासमी नामक दो पुत्र थे। सरदारमलजी के पुत्र पृथ्वीराजनी तथा ऋदमब्जी थे। श्रीमानकी मेडिकल डिपार्टमेंट में कुक थे। आपको अपने उत्तम कार्यों के लिये कई प्रमाण-पत्र लिके है। भाषा ईस्वी सन् १९३४
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
स्व० श्री सूरजमलजी सिंघी कस्टम सुपरिन्टेन्डेन्ट
राज मारवाड़, जोधपुर
स्व० श्री किस्तूरमलजी सिंघी हाकिम, जोधपुर
श्री रंगरूपमलजी सिंघी असिस्टेंट कस्टम सुपरिण्टेण्डेण्ट जोधपुर
श्री स्व. किशोरमलजी सिंघी (रायमलोत) जोधपुर
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सिंघवी .
देहान्त हुमा। सरदार हाईस्कूल में आपके नाम से “ऋषि-प्याऊ” बनाई है। इस समय आपके पुत्र जगरूपमलजी मेडिकल डिपार्टमेंट में एवं रंगरूपमलजी जोधपुर रेल्वे विभाग में सर्विस करते हैं।
पृथ्वीराजनी के पुत्र सजनराबजी एवं सुकनराजजी हुए। सजनराजजी का स्वर्गवास हो गया है। उनके पुत्र हनुतराजजी हैं। सुकमसखजी मेडिकल विभाग में तथा हनुतराजजी रेलवे विभाग में काम करते हैं।
सिंघवी सावन्तमलजी का परिवार
सिंघवी सावंतमलजी जोधपुर के तम दीवान रहे थे। इनके तीन पुत्र हुए-सगतमलजी, जीवनमलजी और बहादुरमलजी। जीवनमलजी के कार्यों से प्रसन्न होकर इन्हें जोधपुर दरबार ने सं० १८४४ की वैशाख वदी २ को एक हवेली प्रदान की थी। बहादुरमलजी महाराजा मानसिंह के समय में कोतवाल तथा जोधपुर के हाकिम थे। जीवनमलजी के जीतमलजी और शम्भूमलजी नामक २ पुत्र हुए। जीतमलजी महाराज मानसिंहजी के समय में थांवले के हाकिम थे। उनके पुत्र सूरजमलजी का जन्म संवत् १८७९ की मगर सुदी २ को हुना।
____सिंघवी सूरजमलजी-आप कई स्थानों पर हाकिम रहे। इसके अतिरिक्त आप कस्टम डिपार्टमेंट के आर्गेनाइजर हुए। इसके पूर्व आप एक्साइज सुपरिन्टेन्डेन्ट भी रहे थे । आपकी मृत्यु पर संवत १९५२ में मारवाद गजट ने बड़ा शोक प्रकट किया था। कई अंग्रेज अफसरों से आपको अच्छे २ सर्टीफिकेट मिले थे। सिंघवी सूरजमलजी के सोभागमलजी, सुमेरमलजी, रघुनाथमलजी, कस्तूरमलजी, दूलहमलजी तथा मूलचंदजी नामक ६ पुत्र हुए। सोभागमलजी सीवाणा और दौलतपुरे के हाकिम थे ।
सिंघवी कस्तूरमलजी-सिंघवी कस्तूरमलजी का जन्म संवत १९६४ की आसोज वदी १४ को हुआ। संवत् १९३९ से ६ सालों तक आप सायर दारोगा जोधपुर रहे। इसके बाद आप सन् १८४९ से ३४ साल तक विभिन्न स्थानों में हाकिम रहे । आपके समय में स्टेट की आमदनी में विशेष उन्नति हुई। ता. 6 मार्च सन् १९२३ को आपका अंतकाल हुमा। आपके अच्छे कार्यों से प्रसन्न होकर महाराजा सरपासिंहजी बहादुर जोधपुर, सर सुखदेवप्रसादजी मारवाद, रेजिडेन्ट कर्नलविडहम इत्यादि कई सजनों ने सार्टीफिकेट दिये हैं। आप बड़े प्रबन्ध-कुशल सब्जन थे। आपके पुत्र किशोरमलजी एवं कानमलजी हुए। सिंघवी किशोरमलजी ने अपने वैक्किग व्यापार को अच्छी तरक्की दी। आपका अंतकाल ता० ३० जून सन् १९१० को १० साल की अल्पवय में हो गया। इस समय आपके पुत्र सिंघवी माणिकमलजी हैं। भाप
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
होनहार नवयुवक हैं। इस समय आप एफ० ए० में अध्ययन कर रहे हैं। भाप अपने बैंकिंग व्यापार का संचालन करते हैं। सिंघवी कानमलजी भीबैंकिंग का कारोबार करते हैं।
सिंघवी कस्तूरमलजी के बड़े भ्राता सिंघवी सोभागमलजी के पुत्र सिंघवी रंगरूपमलजी एवं सिंघवी जसवंतमलजी हैं । सिंघवी रंगरूपमलजी इस समय असिस्टेन्ट कस्टम सुपरिन्डेन्ट हैं। आपकी सर्विस ४२ साल की है। कई अच्छे २ आफिसरों से आपको सार्टीफिकेट मिले हैं । इनके पुत्र सिंघवी दशरथमलजी लखनऊ में एलएल० बी० की शिक्षा पा रहे हैं।
सिंघवी सूरजमलजी जब कस्टम सुपरिन्टेंडेन्ट थे तब उनके पुत्र सुमेरमलजी असिस्टेंट सुपरिन्टेडेन्ट थे। जब सूरजमलजी गुजर गये तब सुमेरमलजी कस्टम सुपरिन्टेन्डेन्ट हुए।
___सिंघवी बहादुरमलजी ( सावंतमलजी के पुत्र) के पश्चात् बनेमलजी, इन्द्रचंदजी तथा सुमेरमलजी हुए। वर्तमान में सिंघवी सुमेरमलजी के पुत्र केवलमलजी ऑडिट ऑफिस में तथा पारसमलजी नागौर में सर्विस करते हैं।
श्री जी० रघुनाथमल बैंकर्स हैदराबाद (दक्षिण) इस खानदान का मूल निवास स्थान सोजत ( जोधपुर-स्टेट ) है। आप ओसवाल श्वेताम्बर समाज के सिंघवी गौत्रीय सज्जन हैं। जोधपुर के सुप्रसिद्ध सिंघवी रायमलजी के वंश में होने से आपका खानदान "रायमलोत सिंघवी" के नाम से प्रसिद्ध है। इस खानदान में सिंघवी बच्छराजजी बहुत प्रतापी हुए। इनके लड़के कनीरामजी और पोते सदारामजी हुए। आप दोनों सजनों के पास मारवाड़ में हुकूमतें रही। श्रीयुत सदारामजी ने दो विवाह किये । प्रथम विवाह आलमचंदजी कंटालियावालों के यहाँ तथा द्वितीय सरूपचन्दजी कोठारी विराठियाँ वालों के यहाँ हुआ। आपके प्रथम विवाह से श्री कालूरामजी तथा द्वितीय से रूपचन्दजी, पूनमचन्दजी, जवाहरमलजी तथा जवानमलजी नामक पुत्र हुए। इनमें से श्रीयुत पूनमचंदजी के पुत्र श्रीयुत गणेशमलजी हुए। आपका जन्म सम्वत् १९३० में हुआ था
___ श्रीयुत पूनमचन्दजी सोजत से हैदराबाद गये और वहाँ जाकर आपने सबसे पहले नौकरी की। आपने थोड़े ही समय के पश्चात् 'पूनमचन्द गणेशमल' के नाम से दुकान खोली तथा इसके कुछ ही समय बाद गणेशमलजी को ढाई वर्ष की निपट नाबालिग अवस्था में छोड़कर आप स्वर्गवासी हुए। श्रीयुत गणेशमजी की नाबालिगी में आपकी मातेश्वरीजी मे बहुत होशियारी के साथ दुकान के काम को सम्हाला और व्यवसाय को पूर्ववत तरकी पर रखा। मगर दुर्देव से भापका मी संवत् १९५३ में स्वर्गवास हो गया।
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
स्व॰ सेऽ गणेशमलजी सिंघवी (रायमलोत), हैदराबाद.
श्री रघुनाथमलजी सिंघवी (रायमलोत), हैदराबाद.
श्री मोतीलालजी कोठारी (जोरावरमल मोतीलाल ) सिकन्दराबाद.
( आपका परिचय कोठारी गोत्र में देखिये )
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सिंघवी
अपनी मातेश्वरी का स्वर्गवास हो जाने के पश्चात् श्रीयुत गणेशमलजी ने दुकान के काम को संभाला। आप बड़े उदार हृदय, दयालु तथा लोकप्रिय पुरुष थे । आपने अपने हाथों से “जीवरक्षाज्ञान-प्रचारक मण्डल, स्थापित कर उसके ऑनरेरी सेक्रेटरी का काम बड़ी योग्यता से किया। तदनन्तर आपने "Society for prevention of cruelty to the animals' नामक संस्था स्थापित कर उसे गवर्नमेंट के सुपुर्द कर दिया तथा आप उसके ऑनरेरी सेक्रेटरी का काम सुचारु रूप से संपादित करते रहे। स्वयं निजाम सरकार ने इस संस्था को बहुत बड़ी सहायताएँ प्रदान कर उत्साहित किया जिससे यहसंस्था आज भी चल रही है। आपने अछूतों के लिये भी 'आदि हिन्दू सोशल सर्विस लीग' में भाग लेकर बहुत काम किया। जब आप सोजत गये उस समय भंगियों को पानी की सख्त तकलीफ में देखकर आपने उन लोगों के लिए सोजत के बाहर एक कुआ खुदवाया और उसे उन लोगों के सुपुर्द कर दिया यह कुँआ आज तक विद्यमान है। इसके साथ ही साथ आपने सोजत में एक व्याऊ भी स्थापित की जो आज तक चल रही है। मापको गुप्त दान से भी विशेष प्रेम था । आपसे कई विधवाएँ, अनाथ और गरीब विद्यार्थी गुप्त रूप से सहायता पाते थे। इसके अतिरिक्त आपका हृदय अपने भाइयों एवं परिवार के लोगों की तरफ बहुत उदार था। आप हैदराबाद के जिस मुहल्ले में रहते थे उसके "मीर मोहल्ला" भी थे। मतलब यह कि आपका हृदय सभी दृष्टियों से अत्यन्त उच्च और उदार था। यही कारण था कि हैदराबाद और सोजत की जनताक्या हिन्दू और क्या मुसलमान-सभी आपको हृदय से चाहती थी। जिस समय संवत् १९८८ की फाल्गुन सुदी ४ को आपका स्वर्गवास हुआ, उस समय हैदराबाद की करीब २००० जनता आपके शव के दर्शन के लिये उपस्थित हुई थी। उसी समय आपके शव का फिल्म भी लिया गया था। हैदराबाद की जनता ने आपकी शोक-स्मृति में पुलिस कमिश्नर के सभापतित्व में एक विशाल सभा भी की थी।
आपके श्रीयुत रघुनाथमलजी नामक एक पुत्र हैं । आपका जन्म संवत् १९४५ में हुआ था। आपने अपने पूज्य पिताजी साहब के संरक्षण में उनके सभी गुणों को प्राप्त किया। आप बड़े योग्य मनस्वी तथा होनहार सजन हैं । आपका हृदय जैसा उदार है वैसी ही आपकी व्यापारिक दूरदर्शिता भी बढ़ी चढ़ी है । आपने हैदराबाद के अन्तर्गत इंगलिश पद्धति से एक बैक स्थापित किया है। भारतवर्ष में शायद यह पहला या दूसरा ही बैक है कि जिसके सोल प्रोप्राइटर एक मारवाड़ी सज्जन हैं। इस बैङ्क के अन्दर इंगलिश-पद्धति के सब तरह के अकाउण्टस्, जैसे दूसरे बड़े बैकों में होते हैं, खुले हुए हैं। हैदराबाद-स्टेट में इस बैंक की बहुत बड़ी प्रतिष्ठा है। तमाम बड़े २ आदमियों, जागीरदारों तथा रॉयल फेमिली के अकाउण्ट भी यहाँ पर रहते हैं। प्रति वर्ष दीपमालिका के अवसर पर स्वयं निजाम महोदय इस पर पधार कर इस बैंक को सम्मानित करते हैं।
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
व्यापारिक दूरदर्शिता की ही तरह आपकी धार्मिक और परोपकारक वृत्ति भी बहुत बढ़ी हुई है। आपने हैदराबाद तथा सोमत की दादाबाड़ियों में बहुतसी बातों की सुविधाएँ करवाई। आपकी ओर से बहुतसे विद्यार्थियों को गुप्त रूप से छात्रवृत्ति दी जाती है। आप शिवपुरी बोर्डिङ्ग हाउस को भी गुप्त रूप से बहुत सहायता प्रदान करते रहते हैं। हैदराबाद के मारवाड़ी सार्वजनिक जीवन में आप बहुत बड़ी दिलचस्पी रखते हैं। आपकी पुरानी फर्म पर "मेसर्स पूनमचन्द गणेशमल" के नाम से गल्ले का व्यापार होता है। • आपकी हैदराबाद में बहुत बड़ी २ इमारतें हैं जिनसे काफी आमदनी होती है । आपका हैदराबाद का पता मेसर्स जी० रघुनाथमल बैंकर्स रेसिडेन्सी बाजार हैदराबाद है ।
सिंघवी कस्तूरमलजी का परिवार, मेड़ता
यह परिवार भी राममकोत सिंघवियों की एक शाखा से निकला हुआ है । यद्यपि इस परिवार बों का सिलसिलेवार इतिहास उपलब्ध नहीं होता है फिर भी पुराने कागज-पत्रों से यह बात मालूम होती है कि पहले इस परिवार के लोग राज्य और समाज में बड़े प्रतिष्ठित माने जाते थे । कुछ कागजातों से ऐसा भी मालूम होता है कि किसी समय में इस परिवार वालों के लिये मारवाड़ - राज्य से अधकरी महसूल की माफी के आर्डर मिले थे। इस परिवार में बहादरमलजी, नाहरमलजी, कल्याणमलजी और कस्तूरमलजी हुए। श्री कस्तूरमलजी छबड़े (टोंक) में लोड़ों के यहाँ हेड़ मुनीमी का काम करते रहे । आप मेड़ता और छबड़ा में बड़ी प्रतिष्ठा की निगाह से देखे जाते थे । आपके कोई पुत्र न होने से आपके यहाँ कालू से सिंघवी गोवर्द्धनमलजी के पुत्र सिंघवी मिश्रीमलजी दत्तक लिये गये। वर्तमान में आपही इस परिवार में बड़े व्यक्ति हैं। माप मिक्सर, सजन और योग्य पुरुष । आपके श्री आनन्दमलजी और कन्हैयाकाजी नामक दो पुत्र हुए थे, मगर खेद है कि आप दोनों का कम उम्र में ही स्वर्गवास होगया ।
शिवराजजी सिंघवी कोलार गोल्डफील्ड
इस परिवार के मालिकों का मूलनिवास स्थान अनन्तपुर काल ( मारवाड़ ) है । आप ओसवाल समाज के सिंघवी गौत्रीव जैन श्वेताम्बर समाज के मन्दिर आम्नाय को मानने वाले सृजन हैं। इस परिवार में श्री बुधमलजी हुए जिनके चार पुत्र हुए। इनमें से सबसे छोटे पुत्र अनोपचन्दजी के दो पुत्र हुए जिनके नाम श्री गम्भीरमलजी तथा श्री सुखराजजी था । श्री सुखराजजी सिंघवी के श्री सिवराजजी नामक पुत्र हुए।
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श्री शिवराजजी का जन्म संवत् १९१० का है। सबसे पहिले माप कालू से संवत् १९५९ में बंगलोर आये और वहाँ आकर आपने अपनी एक फर्म स्थापित की। इसके दो वर्ष बाद कोलार गोल फील्ड में आपने अपनी बैंकिंग व लेन देन की एक फर्म स्थापित की जो इस समय तक बड़ी सफलता के साथ चल रही है। आपने अपने भतीजे समरयमलजी सिंघवी के पुत्र अमोलकचन्दजी को अपने नाम पर दसक लिया है। श्री अमोलकचन्दजी का जन्म संवत् १९७० का है। बाप भी इस समय फर्म के व्यवसाय में सहयोग देते हैं। श्री शिवराजजी बने सजन पुरुष है। आपने अपने व्यापार को अपने ही हाथों से बदाया। भाप धार्मिक और परोपकारी कामों में बहुत सहायता देते रहते हैं।
सेठ सुखराजजी जेठमलजी सिंघवी (रायमलोत), दारवा (वरार)
सिपी खुशालचन्दजी के पुत्र ताराचन्दजी जोधपुर स्टेट में सम्धि करते थे। आपको जागीर में गाँव और जमीन मिली थी। भाप जोधपुर से पीपादबले भाये। इनके पुत्र अमीचन्दजी तथा प्रेमचन्दजी और अमीचन्दजी के पुत्र कस्तूरचन्दजी, पीरबाजी, मखानीसंतावरमलजी हुए थे।
सिंघवी पीरचन्दजी के पुत्र सुखराजजी और जुहारमलजी हुए और वस्तावरमलजी के कालचंदजी, हीरालालजी और चंपालालजी हुए। इन बंधुओं में सिंघवी छहारमलजी संवत् १८९०-९५में पीपाद से व्यापार के निमित्त दारवा (वरार ) गये, और आपने वहाँ अपना कारोबार स्थापित किया । सिंघवी जुहारमलजी के नाम पर चम्पालालजी, एवं सुखराजजी के नाम पर जेठमाणी (हीरामलजी के पुत्र) पीपाड़ से दारवा दत्तक आये।
सिंघवी हीरालालजी, सिंघवी हिन्दूमलजी के नाम पर सारथल (सामावाद स्टेट) में दत्तक गये थे। हिन्दूमलजी और हीरालालजी सारथल ठिकाने के कामदार रहे । होराबाजी का शरीरान्त १९४० में हुआ। इनके पुत्र जेठमलजी दारवा में दत्तक गये। इस समय जेठमलजी के यहाँ कृषि तथा
मापार कार्य होता हैं। आपके पुत्र दुलीचन्दजी तथा सुगनचन्दजी है। - इसी तरह इस परिवार में पेमचन्दजी के पुत्र गुलाबचन्दजी इन्द्रराजजी तथा अभयराजजी हुए गुलाबचन्दजी के पुत्र केसरीमलजी थे तथा केसरीचन्दजी के फूलचन्दजी तथा मुकुन्दचन्दजी नामक पुत्र हुए। इनमें मुकुन्दचन्दजी विद्यमान है।
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प्रतिवाल जाति का इतिहास
सिंघवी जोरावरमलोत सिंघवी सोनपालजी का परिचय ऊपर दिया जा चुका है। इनके ६ पुत्र हुए जिनमें बड़े सिंघाजी थे। सिंघाजी के चापसीजी, पारसजी गोपीनाथजी आदि ५ पुत्र हुए। इनमें पारसजी के राणोजी हंसराजजी हरचन्दजी दुरजानजी तथा सुन्दरदासजी नामक पुत्र हुए। इन भ्राताओं में सुन्दरदास जी के ७ पुत्र हुए जिनमें छठे मूलचन्दजी थे। मूलचन्दजी के परिवार वाले मूलचंदोत सिंघवो कहलाये । सिंघवी मूलचंदजी के अनोपचंदजी खुशालचंदजी वर्द्धमानजी तथा जेठमलजी नामक ४ पुन हुए। इनमें जेठमलजी के पुत्र हिन्दूमलजी जोरावरमलजी धनरूपमलजी तथा मानमलजी हुए । जोरावरमलजी का परिवार जोरावरमलोत सिंघवी कहलाया। मूलचंदोत, जेठमलोत और जोरावरमलोत सिंघवी एक ही परिवार की शाखाएँ हैं।
सिंघवी मूलचन्दजी-ये सिंघवी सुन्दरदासजी के पुत्र थे। आप संवत् १७७२ में गुजरात के तोपखाने के अफसर होकर लड़ाई में गये और वहीं कातिक सुदी 1 को काम आये। आपकी छतरी अभी तक अहमदाबाद में मौजूद है।
सिंघवी जेठमलजी-सिंघवी मूलचन्दजी के अनोपचन्दजी, कुशलचन्दजी, विरदभानजी और जेठमलजी नामक ४ पुत्र हुए। इनमें अनोपचन्दजी दौलतपुर के हाकिम थे। महाराजा अभयसिंहजो के ये कृपा पात्र थे । संवत् 1611 में इन्होंने मेड़ते की लड़ाई में मदद की, फिर इन्होंने नहेड़ा तथा कागेपर का मोरचा तोड़ा, इस प्रकार अनेकों लड़ाइयों में आप सम्मिलित हुए। संवत् १८११ की चैत वदी ८ को महाराजा विजयसिंहजी ने एक रुक्का दिया उसमें लिखा था कि “तथा गढ़ ऊपर तुरकियो मिल गयो सूं चैतवद ने बारला हाको कियो. निपट मजबूती राखने मार हटाय दिया, तूं चाकरी री तारीफ़ कठा तक फरमावां” इत्यादि इस तरह के कई रुक्के मिले। इन्होंने दक्षिणियों से जालोर का किला वापिस लिया । विलाड़ा तथा भावी के आप हाकिम बनाये गये ।
चांपावत सबलसिंहजी महाराजा विजयसिंहजी से बाग़ी* हो गये थे। उन्हें दबाने के लिये संवत् १८१७ में २७ सरदारों और ४०० घोड़ों के साथ सिंघवी जेठमलजो विलाड़े पर चढ़ आये। सावण सुदी ५ को जेठमलजी शत्रु पर टूट पड़े। विरोधियों की तादाद ज्यादा थी फिर भी सवलसिंहजी और उनके २२ सरदार मारे गये, और जेठमलजी का सिर भी काट डाला गया। कहा जाता है कि फिर भी इनका धड़ लड़ता रहा। इस प्रकार ये वीर झुसार हुए। इनके झुमार होने के स्थान याने बिलाड़े के तालाब पर
* सरदार लोग महाराजा विजयसिंहजी से नाराज इसलिये होगये थे कि दरबार ने शराब की भट्टी तथा मास बेचना बंद करवा दिया था।
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
स्व० सिंघी फतेमलजी दावान
राज मारवाड़, जोधपुर ।
स्व. सिंघी जेठमलजी दीवान राज मारवाड़, जोधपुर ।
स्व. सिंघी जसवंतमलजी ( जोरावरमलोत ) जोधपुर ।
रव. सिंघी सुकनमलजी (जोरावर
मलोत) जोधपुर।
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इनकी छतरी बनी हुई है, जहाँ झुझारजी की पूजन होती है और प्रत्येक श्रावण सुदी ५ को वहां उत्सव होता है। जेठमलजी के हिन्दमलजी, जोरावरमलजी, धनरूपमलजी और मानमलजी नामक ७ पुत्र हुए। इनमें सिंघवी हिन्दूमलजी, सिंघवी अनोपचन्दजी के नाम पर दत्तक आये । इन्होंने बख्शीगिरी की।
सिंघवी जोरावरमलजी--इनके पिता की मृत्यु पर दरबार ने एक दिलासा का पत्र दिया कि "......."तू किणी यातV उदास हुयजे मती......""जेठमल दरबार रे अरथ आयो चाकरी रो ऊंडो सीरछे ।"
संवत् १८१९ में सिंघवी जोरावरमलजी ने पाली नगरी आवाद की । इसी से उस समय "पाली जोरा की" इस नाम से सम्बोधित की जाती थी। संवत् १८१९ में जीतमलजी के हाथ से बचे हुए ५ बागी सरदारों को दबाने के लिए पे सोजत के हाकिम बनाकर भेजे गये। वहाँ इन्होंने पाँचों को पकड़ लिया। १८२१ में इनको १३०५) की रेख के दो गाँव इनायत हुए। सम्वत् १८२४ में इन्होंने पटायत जगतसिंह को सर किया। १८२८ में देसूरी के सोलंकी वीरमदे आदि जागीरदारों को दवाकर इन्होंने अपने चचेरे भाई खूबचन्दजी, मानमलजी, शिवचंदजी, बनेचन्दजी और हिन्दूमलजी की मदद से गोडवाड़ का परगना जमाया। १८२९ में घाणेराव चाणोद के मेड़तियों को भाधीन किया। इसी साल इन्हें गाँव मोकमपुर इनायत हुआ। दरबार की ओर से इन्हें १८४७ में बैठने का कुरुव और १८४८ में कड़ा पालकी, और सिरोपाव इनायत हुआ। इसी वर्ष फागुन सुदी ११ को आप स्वर्गवासी हुए । आपकी सन्ताने जोरावरमलोत कहलाती हैं।
सिंघवी ख़बचन्दजी-सिंघवी जोरावरमलजी के बड़े भाई विरदभानजी के शिवचन्दजी. बनेचंदजी तथा खुवचन्दजी नामक ३ पुत्र हुए। सिंघवी खूबचन्दजी ने बीकानेर के २०० सिपाहियों को बड़ी वीरता और कुशलता के साथ केवल १० घोड़ो से भगा दिया । इसका वर्णन कर्नल टॉड साहब ने अपने इतिहास में किया है। इसके बाद इन्होंने उमरकोट के दंगे को शांत किया तथा उसपर मारवाड़ का झण्डा फहराया। उस स्थान के हाकिम इनके भानेज लोड़ा शाहमलजी बनाये गये।
सिंघवी खूबचन्दजी बड़े मानी थे। ये मारवाड़ दरबार के सिवाय और किसी को प्रणाम नहीं करते थे। जब माधोजी सिन्धिया ने जयपुर पर चढ़ाई की और जयपुर के महाराजा प्रतापसिंहजी ने जोधपुर मे मदद मांगी; उसमें खूबचन्दजी इसीलिए नहीं गये कि जयपुर दरबार को सिर नवाना पड़ेगा। इसी एंट के कारण पोकरन ठाकुर सवाईसिंहजी ने विजयसिंहजी के पददायत गुलाबरायजी को इनके खिलाफ बहकाया और संवत १८४८ की श्रावण वदी अमावश्या को इनको षड्यन्त्र से मरवा दिया। इसी तरह
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भोसवाल जाति का इतिहास
इनके बड़े भाई बनेचन्दजी और बड़े पुत्र हरकचन्दजी भी मरवा दिए गये। बाद भेद खुलने पर पासवानजी बहुत पछताई।
___ सिंघवी जीतमलजी और उनके बन्धु-सिंघवी जोरावरमरूजी के फतेमलजी, सूरजमलजी, केसरीमलजी, जीतमलजी, शम्भूमलजी और अणंदमलजी नामक ६ पुत्र हुए। जब कुंवर भीमसिंहजी ने अपने पिता महाराज विजयसिंहजी के जीतेजी ही जोधपुर पर अपना आधिपत्य जमाया, उस समय मारवाड़ के अधिकांश सरदार उमराव, कुँवर भीवसिंहजी की मदद पर थे। जब भीवसिंहजी अपने भाइयों और भतीजों को मरवाने की कोशिश कर रहे थे, उस समय पासवानजी ने कुँवर शेरसिंहजी और महाराज कुमार मानसिंह जी को जालोर लेजाने के लिए सिंववी जीतमलजी और उनके बन्धुओं से कहा । इसपर जीतमल. जी, फतेमलजी, शिम्भूमलजी और सूरजमलजी कुँवरों को लेकर जालोर दुर्ग चले गये। इसके दो दिन बाद ही भीवसिंहजी ने पासवाननी को मरवा डाला और सिंघवी जीतमलजी की हवेली लुटवा दी। महाराज विजयसिंहजी के विजयी हो जाने पर शेरसिंहजी जालौर से वापस चले आये और मानसिंहजी वहीं रहने लगे। फिर जब महाराजा विजयसिंहजी भी स्वर्गवासी हो गये और भीवसिंहजी ने जोधपुर पर अपना अधिकार जमा लिया, उस समय मानसिंहजी का अधिकार केवल जालोर और उसके समीपवर्ती परगनों पर ही रह गया था। इस समय इनके दीवान सिंघवी जीतमलजी बनाये गये थे। ऐसी स्थिति में भीमसिंहजी ने जालोर के चारों ओर घेरा डलवा दिया जिससे मानसिंहजी बड़ी कठिनाई में पड़ गये। मानसिंहजी की इस विकट स्थिति में सिंघवी शम्भूमलजी इधर उधर से लूट खसोट कर रसद आदि सामान जालोरगद को पहुँचाते रहे। इतना ही नहीं, इधर-उधर से सेना इकट्ठी करने और भीवसिंहजी की फौजों को खदेड़ने का काम भी ये ही सिंघवी बन्धु करते थे। ऐसी विपत्ति के समय में मदद पहुंचानेवाले सिंघवी बंधुओं को मानसिंहजी ने अनेक रुक्के आदि देकर इनकी स्वामि भक्ति की बड़ी प्रशंसा की थी, इन रुक्कों में से कुछ हम नीचे उद्धत करते हैं।
श्री रामजी सिंघवी जीतमल सँ म्हारो जुहार बांचंने यूँ मारेघेणी बात छे फौजरा खरच वरच री ने काम काजरी मोकली थारा जीवने अदाछे पिण करा कऊँ अठे खजानो होवे तो थने फोड़ा पड़न देवां नहीं जोधपुर तूं ही यूँ लेने आयो छे ने सारो ही कामकाज था निबियो है ने ह मेही सारो कामकाज थारे भरोसे छे थारी चाकरी थाने भरदेसां ने था 1 कदे उसरावण हुसां नहीं श्री जालंधरनाथ सारी बात बाछी करसी । फतमल अणंदमल मारी मरजी माफक बंदगी करे के। सम्वत १८५० राजेठ वदी३
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इसी प्रकार दूसरा परवाना इसी आशय का दिया कि -
श्रीरामजी
सिंघवी
सिंघवी जीतमल सूँ माहारो जुहार बांचजो तथा मां दीसा यूँ किणी बात रो विसवास मती राखजे थां सूँ मैं कोई बात छानी राखसां के मरजी सिवाय जाब करसां तो परमेश्वर सूँ बेमुख हुसां जोधपुर सूँ उजला मांय सूँ यूँ लेने आया नहीं तो काका बाबा में हुई सूँ मां ही होती हूँ थां सूँ कीणी वातरो अंतर असल हुसी तो ना राखसी मांसू थारा इंसा अवसान है यूँ आदी रोटी खावण नुं देवे तोही धांसूँ और तरें न जाणू सूँ अठे तो सारी बात मौजूद है काले ही थोड़ीसी बेमरजादिक बात हुवण में आयगई सूँ रात की इसी उदासी लाग रही है सूँ परमेश्वर जाणे छे एकर सूँ श्रठे श्रायने मिल जावे तो ठीक है संवत् १८५४ जेठ बद २ वार बुध
सिंघवी शिंभूमलजी ये अपने अन्य बन्धुओं के साथ विखे विपत्ति के समय महाराजा मानसिंहजी की सेवा में तन मन धन से लगे थे। महाराजा मानसिंहजी इम पर बहुत विश्वास करते थे तथा उनसे इनका घरेलू पत्र व्यवहार होता था । मानसिंहजी ने एक बार इनके लिये कहा है “जोरावर सुत पाँच शंभू तामे घणो सपूत ।” जब जालोर घेरे में अवधन की कमी हुई उस समय शम्भूमलजी खुफ़िया तौर से जालोर के किले में रसद व समाचार भेजते रहे थे। संवत् १८५८ में शम्भूमलजी के भाई जीतमलजी ने हिन्दू मलजी पुत्र बख्तावरमलजी को जालोरगढ़ में रखा। साथ ही उन्होंने महाराजा भीमसिंहजी की ओर से घेरा देनेवाले सरदार मुत्सुहियों को समझाने की कोशिश की ।
के
जब संवत् १८६० में मानसिंहजी जोधपुरकी गद्दी पर बैठे तब जीतमलजी को पाछी और नागोर की हाकिमी और फतेहमलजी को घाणेराव देसूरी और सोजत का हाकिम बनाया। इसी तरह संवत् १८६३ में जब जोधपुर पर बड़ी भारी फौज चढ़ आई थी उस समय भी इन बन्धुओं ने दरबार की अच्छी सेवा बजाई थी जिसके लिये दरबार ने इन्हें रुक्के आदि देकर
सम्मानित किया था ।
सिंघवी गम्भीरमली और इन्द्रमलजी - सिंघवी फतेहमलजी के पुत्र गम्भीरमलजी और जीतमलजी के पुत्र इन्द्रमलजी और नींवमलजी हुए। संवत् १८८८ में सिंघवी गम्भीरमलजी को और १८८२ में इन्द्रमलजी को जोधपुर राज्य के दीवान का सम्माननीय पद दिया गया । इस समय भी इन बन्धुओं ने दरबार की काफी सेवाएं कीं। संवत् १८९२, १८९५ और १९०० में सिंघवी गम्भीरमलजी पुनः २ दीवान बनाये गये जो संवत् १९०३ तक रहे। संवत् १८९७ में इन्द्रमलजी को भी पुनः दीवान का सम्मान प्राप्त हुआ इन बन्धुओं को महाराजा मानसिंहजी ने ताजीम कुरब कायदा और जागीर देकर सम्मानित किया।
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बीसवाल जाति का इतिहास
लगभग १० हजार की आय की जागीर आपके पास रही, जिनमें जालौर परगने का साँ) नामक १ ग्राम अब भी इस परिवार के एक सजन के अधिकार में है। सिंघवी गंभीरमलजी ने गुलाब सागर पर भी रघुनाथजी का मन्दिर व महामन्दिर में एक रामद्वारा बनाया।
गम्भीरमलजी के पुत्र हमीरमलजी तथा पौत्र सिरेमलजी हुए। सिरेमलजी के अधिकार में भागासणी व साथू नामक ग्राम थे। इन्होंने राज्य का कोई मोहदा स्वीकार नहीं किया। इनके बहादुरमलजी व सुकनमलजी नामक २ पुत्र हुए। सिंघवी सुकनमलजी वीर प्रकृति के पुरुष थे। आप संवत् १९७० में अपनी जागिरो के गाँव सां) के अधिकारों की रक्षा के लिये राजपूत भोमियों से लड़ते हुए काम आये। इनके साथ ही इनके कामदार मेड़तिया लखसिंहजी भी अपनी स्वामिभक्ति का परिचय देते हुए काम आये। इस समय सुकनमलजी के पुत्र मानमलजी सवाईमलजी तथा अचलमलजी मौजूद हैं। मानमलजी अपनी जागीरी के गाँव सांथू की देखरेख व महकमे खास में सर्विस करते हैं। आपके छोटे भ्राता
पढ़ते हैं।
सिंघवी हिन्दूमलजी के पुत्र बख्तावरमलजी हवाला सुपरेन्टेण्डेण्ट थे। इस समय उनके प्रपौत्र किसनमलजी जेतारण में रहते हैं।
दीवान सिंघवी इन्द्रमलजी के बाद क्रमशः दूलहमलजी तथा जगरूपमलजी हुए। इस समय जगरूपमलजी के पुत्र सिवदानमलजी तथा शिवसोभागमलजी महकमें खास में सर्विस करते हैं।
सिंघवी नींवमलजी उमरकोट के हाकिम थे । इनके समरथमलजी तथा दूलहमलजी नामक दो पुत्र हुए, जिनमें दूलहमलजी, सिंघवी इन्द्रमलजी के नाम पर दत्तक गये। सिंघवी समरथमलजी हाकिम रहे। सिंघवी समरथमलजी के जसवन्तमलजी कानमलजी तथा केवलमलजी नामक ३ पुत्र हुए। इनमें केवलमलजी मौजूद हैं। जसवन्तमजी संवत् १९४४ से १९०० तक हाकिम रहे। इनके पुत्र गणेशमानी भी हाकिम थे। गणेशमलजी के पुत्र शिवनाथमलजी तथा कल्याणमलजी हैं।
___ सिंघवी कानमलजो के नथमलजी, बुधमलजी और वीसनमलजी नामक पुत्र विद्यमान हैं। सिंघवी नथमलजी समझदार व्यक्ति हैं । आपके पुत्र रणजीतमलजी एवं सरदारमलजी राज्य कर्मचारी हैं तथा गजमलजी बो० कॉम में अध्ययन कर रहे हैं। बुधमलजी के पुत्र गुलाबमलजी, मोतीमलजी, मदनमकजी तथा चाँदमलजी राज्य कर्मचारी हैं। श्रीयुत चाँदमलजी बी० ए० जोधपुर के सिंघवी परिकारों में प्रथम प्रेज्युएट हैं। आप प्राइवेट सेक्रेटरी आफिस में सर्विस करते हैं।
इसी तरह सिंघवी शंभूमलजी के परिवार में इस समय माधोमलजी तथा सरदास्मलजी के कुटुंग में बदमजी तथा रणरूपमळली हैं।
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सिंघवी
श्री
सुखराज रूपराज सिंघवी ( धनराजोस) जालना
यह परिवार जोधपुर के सिंघवी भींवराजजी के छोटे भाई धनराजजी का है। सिंघवी लखमीचन्दजी के सावंतसिंहजी, जीवराजजी, भींवराजजी तथा धमराजजी नामक ४ पुत्र हुए इनमें भीवराजजी के परिवार का विस्तृत परिचय ऊपर दिया जा चुका है।
सिंघवी धनराजजी - संवत् १८४४ ( सन् १७८७) में जोधपुर महाराजा विजयसिंहजी ने मरहठों के हमले से अजमेर को मुक्त किया, तथा यहाँ के शासक सिंघवी धनराजजी को बनाकर भेजा, लेकिन चार साल बाद ही मरहठों ने फिर मारवाड़ पर चढ़ाई की और मेड़ता तथा पाटन की लड़ाइयों में उनकी विजय हुई | उस समय मरहठा सेनापति ने फिर अजमेर पर धावा किया। वीरवर सिंघवी धनराजजी अपने मुट्ठी भर बीरों के साथ किले की रक्षा करते रहे और मरहठों को केवल किले पर घेरा डाले रह कर ही संतोष करना पड़ा।
पाटन की पराजय के बाद महाराजा बिजयसिंहजी मे धनराजजी को आज्ञा दी कि 'किसा, शत्रुओं के सिपुर्द करके जोधपुर लौट आओ, लेकिन इस प्रकार किला छोड़ कर सिंघवी धनराजजी ने आना उचित नहीं समझा, अतएव स्वामी की भाशा पालन करने के लिए इन्होंने हीरे की कमी खाकी, उनके अन्तिम शब्द ये थे कि " जाकर महाराज से कहो कि उनकी आज्ञा पालन का मेरे लिए केवल यही एक मार्ग था । मेरे मृत शरीर के ऊपर से ही मरहठे अजमेर में प्रवेश कर सकते हैं" अस्तु ।
सिंघवी जोधराजजी - सिंघवी धनराजजी के हंसराजजी, जोधराजजी तथा सावन्त राजजी नामक ३ पुत्र हुए। इनमें सिंघवी जोधराजजी के जिम्मे संवत् १८५८ की आसोज सुदी ३ को जोधपुर महाराजा ने दीवानगी का ओहदा किया, लेकिन कई कारणों से वहाँ के कई सरदार आपके खिलाफ हो गये, अतपुद उन्होंने संगठित रूप से आपकी हवेली पर चढ़ाई करके भादवा वदी १ संवत् १८५९ को आपका सिर काढ डाला, इससे महाराजा भींवसिंहजी को बड़ा दुःख हुआ और इसका बदला लेने के लिये इनके चचेरे भ्राता सिंघवी इन्द्रराजजी को भेजा । इन्द्रराजजी ने ठाकुरों को दण्ड दिया, तथा उनसे हजारों रुपये वसूल किये । सिंघवी नवलराजजी - सिंघवी जोधराजजी के नवराजजी चिनैराजजी तथा शिवराजजी नामक ३ पुत्र हुए। इनमें सिंघवी नवलरामजी ने भी जोधपुर में दीवानगी के ओहदे पर कार्य किया, आपका बहुत छोटी अवस्था में स्वर्गवास हो गया था । सिंघवी विजेराजजी पर किसी कारणवश जोधपुर दरबार की नाराजी हो गई अतः इस खानदान के लोग चण्डावळ, बगड़ी, खेरवा, पाली आदि स्थानों में जावसे । के सिंघवी विजैराजजी के पुत्र अंतरावजी तथा अमृतराजजी थे इनमें जेतराजजी के खानदान लोग इस समय परभणी में रहते हैं। सिंघवी अमृतराजजी के पुत्र जसराजजी जाना गये तथा संवद
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
१९७४ में स्वर्गवासी हुए। इस समय आपके पुत्र सुखराजजी विद्यमान हैं सिंघवी सुखराजजी का जन्म संवत् १९२९ में हुआ, आपके पुत्र रूपराजजी हैं। इनके यहाँ रुई, गल्ला व आढ़त का कार्य्य होता है । सिंघवी नेतराजजी के चिमनीरामजी तथा जसराजजी नामक पुत्र थे इनमें जसराज जी, सिंघवी अमृतराजजी के नाम पर दत्तक गये । चिमनीरामजी के पुत्र सोहनराजजी हुए ।
सिंघवी गजराजजी अन्नराजजी सोजत
संघपति सोनपालजी के चौथे पुत्र सिंहाजी थे। उनके बाद क्रमशः चापसोजी, हेमराजजी और गणपतजी हुए। सिंघवी गणपतजी के गाड़मलजी तथा मेसदासजी नामक दो पुत्र थे । सिंघवी मेसदासजी तक यह खानदान सिरोही में रहा । वहाँ से सिंघवी मेसदासजी जब सोजत आये तब अपने साथ सरगरां, बांभी, नाई, सुतार आदि कई जातियों को लाये। इन जातियों के लिये आज भी स्टेट से बेगार माफ़ है। सिंघवी मेसदासजी के लूणाजी, लालाजी तथा पीथाजी नामक तीन पुत्र हुए। इनमें से पीथाजी के प्रपौत्र सिंघवी भीमराजजी और उनके पुत्रों ने जोधपुर राज्य में बहुत महत्वपूर्ण कार्य्यं किये ।
सिंघवी लूणाजी के पश्चात् क्रमशः खेतसीजी, सामीदासजी, दयालदासजी दुरगदासजी और संतोषचन्दजी हुए। सिंघवी संतोषचन्दजी के मोतीचन्दजी तथा माणकचन्दजी नामक २ पुत्र हुए।
सिंघवी मोतीचंदजी बहुत बहादुर तबियत के व्यक्ति थे । छोटी उमर में ही इनकी दिलेरी देख जोधपुर दरबार भीमसिंहजी ने इन्हें एक बड़ी फ़ौज देकर जालोर घेरे में भेजा। साथ ही जागीर और तवा भी बख्शा, जालोर घेरे में इन्होंने बहादुरी के साथ लड़ाई की। इसके अलावा सिंघवी मोतीचंदजी के नाम पर कई हुकूमतें भी रहीं। सिंघवी मोतीचन्दजी ( मोतीरामजी ) के बाद क्रमशः सायबरामजी और कालूरामजी हुए।
सिंघवी कालूरामजी व्यापार के निमित्त सोलापुर ( दक्षिण ) गये और वहाँ सन् १९२१ में दुकान खोली । इनके जीवराजजी माधोराजजी और हरकराजजी नामक ३ पुत्र हुए। संवत् १९३० के लगभग जीवराजजी ने गुलबर्गा में (निजाम स्टेट) कपड़े का कारबार शुरू किया । संवत् १९५७ में कालूराम जी का, संवत् १९५८ में जीवराजजी का, संवत् १९६८ में माधोराजजी का तथा संवत् १९७५ में हरखराज जी का अंतकाल हुआ। इस समय कालूरामजी के तीनों पुत्रों की गुलबर्गा में अलग २ दुकानें हैं।
वर्तमान में जीवराजजी के पुत्र गजराजजी तथा हरखराजजी के पुत्र अनराजजी तथा सम्पतराज जी विद्यमान हैं। माधौराजनी के पुत्र किशनराजजी का संवत् १९८३ में स्वर्गवास हो गया है।
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सिंघवी अनराजजी का शिक्षण केम्ब्रिज सीनियर तक हुमा। अंग्रेजी का भापको अच्छा अभ्यास है। आपने १२ साल पहले सोजत में श्री महाबीर वाचनालय की स्थापना की । मापने सर प्रताप हाई स्कूल जोधपुर में शिक्षक तथा जैन श्वेताम्बर विद्यालय में प्रधानाध्यापकी का काम किया। १९३३ में आप मारवाड़ी विद्यालय बम्बई के मंत्री रहे थे। आप शिक्षा प्रेमी तथा उन्नत विचारों के सज्जन हैं। इस कुटुम्ब का इस समय बम्बई बम्बादेवी में अनराज सम्पतराज के नाम से आदत का तथा गुलबर्गा में कालूराम जीवराज, आदि भिन्न २ नामों से कपड़े का व्यापार होता है।
. . सिंघवी दीपराजजी, सोजत ऊपर के परिचय में बतलाया गया है कि सिंघवो मोतीरामजी के छोटे भ्राता सिंघवी माणकचंदजी थे। इसके बाद क्रमशः छोगमलजी और कस्तू रमलजी हुए। सिंघवी कस्तूरमलजी के फूलचंदजी, हमीर मलजी तथा गंभीरमलजी नामक ३ पुत्र हुए। इन बंधुओं में से सिंघवी फूलचन्दजी ने मारवाड़ स्टेट में सापर दरोगाई का काम बड़ी मुस्तेदी से किया । आपकी होशियारी से प्रसन्न होकर सिरोही दरबार ने अपनी स्टेट में सायरात का प्रबन्ध करने के लिये जोधपुर स्टेट से आपको मांगा। सिरोही में कस्टम का इन्होंने अच्छा इंतजाम किया । इसके लिये सिरोही दरबार ने इन्हें सार्टिफिकेट प्रदान किया । संवत् १९५५ की फाल्गुन सुदी ११ को नागोर में इनका शरीरान्त हुआ।
___ फूलचंदजी के कार्यों से प्रसन्न होकर इनके छोटे भाई हमीरमलजी को भी सिरोही स्टेट ने अपने पहाँ स्थान दिया। आपके पुत्र सिंघवी दीपराजजी इस समय सिरोही स्टेट के आबू रोड नामक स्थान पर नायब तहसीलदार हैं। आपके पुत्र देवराजजी तथा जसवंतराजजी हैं। सिंघवी देवराजजी, Mutual
Rajputana & Co. Limited Beawar के मेनेजिंग एजंट हैं और इंटर में पढ़ते है। इनके पुत्र रत्नसिंह हैं।
सिंघवी सुकनमलजी (गादमलोत ) जोधपुर सिंघवी सोनपालजी के पौत्र चापसीजी से भीवराजोत, धनराजोत, गदमलोत आदि शाखाए निकली। गढ़मलोत परिवार के कई व्यक्तियों ने राज्य के काम और हुकूमतें की। इनके अच्छे कामों के एवज में जोधपुर दरबारने इन्हें डीडवाना तथा परबतसर परगने में जागीर प्रदान की, जो अभी तक सिंघवी सकनमलजी के परिवार के ताबे में है।
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बोलबाल बाति का इतिहास
सिंघवी गुलराजजी रूपरानजी एवं रूपराजजी के हरसमसजी तथा जीवनमलजी नामक पुत्र हुए। हरसमलजी के पुत्र सिंघवी गणेशमलजी संवत् १९०६ में गुजरे, इसी तरह जीवनमलजी के पुत्र मेरूमलजी १९॥ में गुजरे। . सिंघवी गणेशामजी के पुत्र सुकनमाजी का जन्म संवत् १९५९ की काती वदी 1 को हुला है। भाप राज मारवाद में पोतदार है और इस समय हुकूमत बाड़मेर में काम करते हैं। सिंघवी भेरूमलजी के पुत्र मुकनमलजी और मोहनलालजी जोधपुर में व्यापार करते हैं।
सिंघवी समरथमलजी का खानदान सिरोही संवत् १६५३ में इस परिवार के पुरुषों ने भाग्वा (जालोर) में महाबीर स्वामी का एक मन्दिर बनवाया तथा गिरनार और शQजय के संघ निकाल कर रूपा का कलश और थाली लाण में वाटी । इसलिये यह परिवार सिंघवी कहलाया । बहुत समय बाद रतनसिंहजी के पुत्र नारायणसिंहजी कोमता ( भीनमाल) से सिरोही भाये। इनके बाद क्रमशः खेतसीजी पचाजी और रूपाजी हुए । रूपाजी कपड़े का म्यापार करते थे। इनके पुत्र कपूरचंदनी, धनाजी, केटींगजी, लूणाजी, कछुवाजी, मलकचंदजी हुए। सिंहवी धनाजी भी कपड़े का व्यापार करते रहे । इनके समरथमलजी तथा रतनचंदजी नामक दो पुत्र हुए।
सिंघवी समरथमलजी ने सिरोही में अच्छा सम्मान पाया । इनका जन्म संवत् १९१२ की माघ वदी ८ को हुआ। स्वर्गवासी होने से पहिले १५साल तक ये जेबखास के आफीसर रहे इसके साथ साथ 1. सालों तक रेवेन्यू कमिश्नर का कार्य भी इनके जिम्मे रहा । आपका प्रभाव दीवान से भी अधिक था। सन् १८९१ की ५मार्च को सिरोही दरवार महाराव केशरीसिंहजी ने इनको लिखाः-"राज साहबान जगतसिंह जी का रियासत के साथ वनाजा था उसे निपटाने तथा मटाना, मगरीवाड़े के सरहद्दी तनाजे का निपटाने में तथा हजूर साहब जोधपुर गये तब उनकी पेशवाई वगैरा के इन्तजाम में बहुत होशियारी से काम किया।
संवत १९४६-१७ की सिरोही स्टेट की एडमिनिस्ट्रेशन रिपोर्ट में एडमिनिस्ट्रेटर ने इनके लिये लिखा है कि-राज के मुल्की मामजात को तय करने में इन्होन बहुत मदद दी इसके लिये मैं इनका बहुत प्रभारी हूं।
इसी तरह रेजिडेंट वेस्टनं राजपूताना व सिरोही स्टेट के दीवानों ने भी सरहदी तनाजों को इदिमता पूर्वक निपटाने के सम्बन्ध में आपको भनेको सार्टिफिकेट देकर आपकी अक्लमन्दी, कारगुजारी, वफापारी और तनदेही की तारीफ की।
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सिंघवी
सिंघवी समरथमलजी की चतुरता से प्रसन्न होकर सन् १९०१ मै दरवार इनकी हवेली पर पधारे और एक परवाना दिया कि-"ये रियासतरा शुभचिन्तक परम में रया जणी सु याने सोना रो कुरुब इनामत करवा में आयो है सो थारी हयाती तक पात्या आवसी।".
.. संवत् १९४३ को चेत वदी ३ को दरवार ने इन्हें कुए के लिये जमीन बरुशी इस प्रकार प्रतिष्ठा पूर्ण जीवन बिताते हुए संवत् ११३ की तुदीको इनका स्वर्गवास हुमा । इनके पुत्र माणकचंदजी तथा चंदनमाजी विद्यमान है। सिंघवी माणकदमी का जन्म संवत् १९३३ में हुमा । अपने पिताजी के गुजरने पर ८ सालों तक भाप मेलास भाकिसर रहे भापके पुत्र सरदारमलजी तथा चंदनमलजी है। ..
...... सिंघवी सुखमलोत परिवार, जोधपुर ।
सिंघवी सोनपालजी तथा उनके पुत्र सिंहाजी और पौत्र पारसजी का परिचय पर सिंघवी गौरी उत्पत्ति में दिया जा चुका है। पारसजी के पुत्र पदमाजीं और के पुत्र परमानन्दजी हुये।
सिंघवी शोभानन्दजी-इनको सम्बत् १९४७ में महाराजा उदपसिंहजी के समय में पीवाणी का सम्मान मिला। १६९८ में जब मारवाड़ का परगने वार का काम बाँटा गया तब उसमें जोधपुर परगने पर सिंघवी शोभाचन्दजी मुकर्रर किये गये। इन्होंने अपने भाइयों के साथ सिदियों के मुहल्ले में श्री जागोड़ी पाश्र्वनाथजी का मन्दिर बनवाया। ये सम्बत् १६७० में मांडल (मेवाद) के झगड़े में महा. राजा सूरसिंहजी की बख्शीगिरी में उनके साथ गवे । तथा वहाँ मारे गये। आपके सुखमलजी, राबमलजी, रिदमलजी तथा परतापमलनी नामक १ पुत्र हुए।
सिंघवी सुखमलजी-जब सम्बत् १६०८ में जोधपुर पर शाहजादा खुर्रम चढ़कर भाया और कहर में बड़ी गड़बड़ी मची। उस समय दरबार ने राठौड़ लाना जीवावर बौर सुखमलजी को जोधपुर की रक्षा के लिए रखा और भण्डारी लूणाजी को फ़ौज के सामने मेगा । सम्बत् १९९० में महाराजा गजसिजी ने इन्हें दीवानगी का सम्मान बख्शा। इस ओहदे पर आपने सम्बत् १६९७ की पौष बदी ५ तक बढ़ी योग्यता से कार्य किया, आपको दरबार ने बैठने का कुरुष और हाँसक की माफी दी इन्होंने सम्बत् १६९९ में मेड़ता के फलोदी-पार्श्वनाथजी के मन्दिर की मरम्मत कराई। तथा कोट, बाग़ और कुँआ ठीक करवाया। इनके पुत्र सिंघवी पृथ्वीमस्त्री हुए।
सिंघवी पृथ्वीमलजी को अपने पिताजी के सब कुरव प्राप्त थे, महाराजा जसवंतसिंहजी के समय,
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
इन्होंने बड़े-बड़े ओहदों पर काम किया, पृथ्वीमलजी के विजेमलजी तथा दीपकजी नामक २ पुत्र हुए। विजेमलजी के बख्तावरमलजी या वज्रतमकजी, वसत्तमलजी, जोधमलजी, तथा जीवणमलजी नामक ४ पुत्र हुए, और दीपचन्दजी के मनरूपमलजी, इन्द्रभाणजी, चन्द्रभाणजी, उदयभाणजी तथा राजभाणजी नामक ५ पुत्र हुए ।
सिंघवी बख्तावरमलजी और तखतमलजी - विजेमलजी के ४ पुत्रों में से प्रथम २ पुत्र विश्लेष प्रतापी हुए, जब महाराजा अजितसिंहजी के जमाने में मारवाड़ पर मुसलमानों का अधिकार हो गया । तो इन चारों भाइयों ने मुसलमानों के राज्य में रहना पसन्द नहीं किया और आप जोधपुर छोड़कर बीकानेर चले गये। बीकानेर महाराज श्री अनूपसिंहजी से गढ़ सगर में इनकी भेंट हुई, महाराज ने खास रुक्का देकर इन भाइयों को खातरी दिलाई। एक रुक्के में लिखा था कि
“सिंघनी नखतमख तखतम बीकानेर के सो इज्जत कायदो भली-भाँति राखजो सीरोपान दीजोः सम्बत् १७५२ रा मिनी मादना बदी १२ मुकाम गढ़सगर ।"
अब जोधपुर से मुसलमानों का कब्जा हटा, और महाराज भजितसिंहजी गद्दी पर बैठे, इस समय उनको योग्य दीवान की आवश्यकता हुई अतः सिंघवी बखतावरमळजी, तखतमकजी, जोधमळजी और जीवणमलजी को जोधपुर बुलाया और सम्वत् १७६३ में सिंघवी बस्तावरमलजी तथा तखत्तमलजी को दीवान के ओहदे का सम्मान दिया ।
सिंवची जोधमलजी ने भी कई बड़े-बड़े मोहदों पर काम किया जब सम्बत् १७८० में महाराजा श्रीसिंहजी के पास गुजरात के सूबे का अधिकार हुआ, उस समय अहमदाबाद के सब से बड़े परगने पेटलाद में सिंघवी जोधमलजी को सुबेदार बनाकर भेजा। आपने उस जिले की तीन साल की आय के ११०५०००) एकत्रित किए।
सिंघवी हिन्दूमलजी - सिंघवी चन्द्रभानजी के पुत्र हिन्दूमकजी थे। आपने सम्वत् १८३० से ३२ तक मारवाड़ राज्य की फौजबक्शी (कमॉंडर-इन-चीफ) का काम किया आपके पुत्र उम्मेदमलजी परबतसर फलोदी के हाकिम रहे। आप बहुत अच्छे फौजी आफिसर थे । सम्बत् १८६६ में आपने सिरोही की कढ़ाई में बहुत बहादुरी दिखाई और सिरोही फतहकर वहाँ पर जोधपुर दरबार का शासन कायम किया । इससे महाराजा मानसिंहजी ने आपको प्रसन्न होकर प्रशंसा का रुका जिनमें से रेहतड़ी नामक एक गाँव अब भी इनके परिवार के ताने में है। मैं ही इनका शरीरान्त हुआ ।
तथा ३ गाँव जागीर में दिये । राज्य की सेवा करते हुए युद्ध
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सिंघवी
सिंघवी धीरजमलजी - आप दीवान सिंघवी तसतमरूजी के पुत्र थे। इनको बैठने का पुरुष, हाँसल की माफी और सैर की चौहट नामक सम्मान प्राप्त हुए। जेतारण में आपको कुछ जागीर मिली जो अभी तक आपके वंशवालों के अधिकार में है। इन्होंने वहाँ धीरजमल की बावड़ी नामक एक बावड़ी तैयार करवाई। इनके पास खातासनी गाँव पट्टे था । पर इनको खास रुक्के दिये थे। इनके सेमी तथा सिस्मेकचन्दजी नामक पुत्र हुए।
उदयपुर दरबार मे भी समय २
सिंघवी तेजमलजी तिलोकचन्दबी- तेजमलजी साँचोर माय परबतसर के हाकिम तथा बोधपुर किले पर मुसरफ रहे। आपके खारी (जोधपुर) और हूँगरवास (मेड़ता ) नामक गाँव जागीरी में रहे । सिंघवी तिलोकचन्दजी भी १९४० में पाली तथा १९५२ में फलोदी की हुकूमत करते रहे। सिंघवी तिलोकमलजी के सुमेरमलजी, हरस्रमलजी तथा गिरिधारीमलजी नामक ३ पुत्र हुये। इनमें से सिंघवी सुमेरमलजी महाराज मानसिंहजी के दफ्तर दरोगा और हाकिम रहे। सिंघवी सुमेरमलजी के पुत्र गम्भीरममी और उनके पुत्र मथमलजी हुए। नथमलजी के पुत्र मेरूमलजी दौलतपुरे में हाकिम रहे। इनके पुत्र रघुनाथमलजी जोधपुर स्टेट में सर्विस करते हैं। आपके पुत्र अचम्मलजी और मोतीमलजी हैं। इसी प्रकार इस खानदान में सिंघवी बखतमलजी के परिवार में छोटमरूजी, और गोविंदमी है, सिंघवी राजजी के परिवार में बहादुरमलजी वगैरा हैं और सिंघवी उम्मेदमलजी के कुटुम्ब में कस्थानमलची तथा जसवन्तमलजी हैं ।
सिंघवी कल्याणमलजी ( सुखमलोत) मेड़ता
सिंघवी सुखमलजी तथा उनके पौत्र बस्तावर मटजी जोधपुर के दीवान रहे, उस समय इस परिवार मे अनेकों बहादुरी के कार्य किये, उनके पश्चात् सिंघी सवाईरामजी तक इस परिवार के पास कोई इतिहास उपलब्ध नहीं है।
सिंघवी सामजीदासजी के बाद क्रमशः भगोतीदासजी, मधाचंदजी और सवाईरामजी हुए। सवाईरामजी को जोधपुर दरबार महाराजा बिजयसिंहजी मे संवत् १८२३ की आसोज सुदी ८. के. दिन बणज व्यापार करने के लिये सायर के आधे महसूल की माफी के हुक्म दिये । सवाईरामजी के हुकुमचन्दजी, आलमचन्दजी, तथा अमरचन्दजी नामक तीन पुत्र हुए। इनमें आलमचन्दजी के सूरजमलनी और करणचंदजी नामक दो पुत्र थे। सिंघी करणमलजी के पुत्र हजारीमलजी, चांदमलजी तथा चंदनमलजी हुए। इनके समय में संवत् १८९९ की मगसर सुदी ७ को पुनः इस परिवार को आधे महसूल की
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प्रोतबाल जाति का इतिहास
मात्री के हुकुम मिले। इससे शाम होत कि संवत् १८०० से १९०० तक इस परिवार का व्यापार उन्नति पथ पर था तथा मेड़ते के अच्छे समृदिशाली कुटुम्बों में इस परिवार की गणना थी। ..
सिंघवी चांदमलजी के पुत्र धनरूपमलजी और चंदनमलजी के रिखबदासजी थे। रिखबदासजी, भजमेर वाले भगतिया कुटुम्ब के यहाँ मुनीम रहे तथा संवत् १९५९ में गुजरे। इनके मनसुखदासजी तथा कल्याणमलजी नामक दो पुत्र हुए। सिंघवी मनसुखदासजी, जोधपुर में लोड़ों के यहाँ खवाजी थे, इस समय इनके पुत्र शिखरचंदजी उम्मेदपुर में अध्यापक है। सिंघवी कल्याणमलजी का जन्म १९५१ में हुमा, भापके यहाँ इस समय लेन-देन का म्यवसाय होता है।
सिंघवी हीराचन्दजी अनोपचन्दजी ( रायमलोत ) नागोर .... सिंघवी रावमलोत खानदान में सिंघवी साहमलजी हुए, इनको जोधपुर दरबार महाराजा भीमसिंहजी ने चेनार में २ कुचे और । बावड़ी की आमद बतौर जागीरी के इनायत की। इनके पुत्र शिवदासजी आगरा फौज की ओल में दिये गये और वहीं काम आये । आगरे में काम आने की वजह से जोधपुर दरवार ने इनको ९ खेत बागीरी में दिये, जो अभी तक इनके परिवार के पास है। सिंघवी साहमलजी के प्रपौत्र सिंघवी शिवदानमलजी नागोर के कोतवाल थे।
_ सिंघवी साहमलजी के बाद क्रमशः श्रीचन्दजी, पेमराजजी, कपूरचंदजी, साहवचंदजी, पुनमचंदजी तथा मेहताबचन्दजी हुए । सिंघवी मेहताबचन्दजी के हीराचन्दजी अनोपचन्दनी केसरीचंदजी तथा कानचंदजी मामक " पुत्र हुए। हीराचन्दजी ५ सालों तक नागोर म्यु० के मैम्बर रहे। आप बहोरगत का व्यापार जाते हैं। सिंघवी अनोपचन्दनी वकालत करते हैं । तिषपी केंतरीचन्दजी बी० ए०, जोधपुर की तरफ से ९.जी. जी.यहाँ वकील थे। आप फलोदी, मेड़ता पाली और बाली के हाकिम भी रहे थे। इस समय भआपकी विधवा पत्नी को आपके नाम की पेंशन मिलती है। सिंघवी अनोपचन्दजीपुत्र सजनचन्दनी बी.ए.एल.एल.बी. जोधपुर में वकालत करते हैं।
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सिंपकी-मलदोटा मुर्शिदाबाद का सिंपकी परिवार
मुर्शिदाबाद के ओसवाल परिवारों में यहाँ का सिंघवी परिवार बहुत अग्रगण्य और प्रसिद्ध है। बल्कि यह कहना भी अत्युक्ति न होगी कि भारतवर्ष के चुने हुए ओसवाल परिवारों में यह भी एक है। पाटकों की जानकारी के लिये सब हम इस परिवार का संक्षिस विवरण नीचे लिख रहे हैं
ऐसी किम्बदन्ति है कि संवत् ७०९ में रामसीण नामक नगर में श्री प्रयोतनसूरि महाराज ने पाहदेव को जैन धर्म का उपदेश देकर भावक बनाया । चाहददेव के पुत्र बालतदेव से बलदोटा गौत्र की स्थापना हुई। इन्होंने अपने नाम से बलदोटा नामक एक गाँव भावाद किया। इनके पुत्र भीमदेव के
निशि और भरिसिंह के पुत्र जयसिंह और विमलसिंह हुए। मसिंह के पुत्र राणालगता इनके पुत्र भव्हा, इनके महिधर और महीधर के उदयचन्द नामक पुत्र हुए। - उदयचंद के तीन पुत्र हुए। श्रीखेताजी, नरसिंहजी और महीपरजी । इनमें से प्रथम पुत्र खेताजी ने संवत् १२५१ के साल ५१ मोहता ऊपर प्रधाना किया। दूसरे पुत्र नरसिंहजी बलदौटा ने इसी साक चित्तौड़गढ़ पर एक जैन मन्दिर बनवाया। इसकी प्रतिष्ठा श्री मानसिंहसूरि द्वारा करवाई गई। तीसरे पुत्र महीधरजी के पुत्रों में से चापड़देव एक थे। चापड़देव के पश्चात् इनके वंश में क्रमशः सरस कुँवर, भीमसिंह, जगसिंह, विनवसिंह बालदेव, विशालदेव, संसारदेव, देवराज और आसकरण हुए। भासकरण के पाँच पुत्रों में से भीलोजी एक थे। इनके बाद क्रमशः करमा, बरसिंह, नरा, देवसिंह और अरिसिंह हुए।
अरिसिंह के कोई पुत्र न था। अतएव इन्होंने प्रतिज्ञा की कि यदि मेरे पुत्र हो जाय तो पात्रा. का एक संघ निकालू और उसमें एक लाख बत्तीस हजार रुपया सर्व काँ। इससे इनके बईमान नामक एक पुत्र हुना। प्रतिज्ञानुसार यात्रा की। साथ ही बावनी भी की। इसमें एक पिरोजी (मुहर ) एक भाल तथा एक लह लहान स्वरूप बॉटा । बलदौटा सिंघवी देवसिह के पुत्र काला और गोरा दोनों दुधड़ से चल कर किशनगद आये। सहा गोराजी के पुत्र दीताजी और दीवाजी पाजी हुए। - साहा रूपानी ने शगुंजय का एक बहुत बड़ा संघ संवत् १५०९ की बैशाख सुदी ३ को निकाला । जब यह संघमात्रामा हुवा दान चौकी के पास पहुंचा तो जीजॉन के बादमियों ने इसे रोका। यह
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औसवाल जाति का इतिहास
देखकर संघ के गण्यमान्य व्यक्ति हाजीलॉन के पास गये। वहाँ हाजीखान ने रूपाजी बलदोटा को पहचान लिया। इसका कारण यह था कि एक बार इन्होंने अजमेर में हाजीखांन को एक बहुत बड़ी विपत्ति से बचाया था। हाजीखाँन ने इन्हें देखते ही पूछा "कहाँ जा रहे हो।" इसके प्रत्युत्तर में रूपाजी ने कहा संघ सहित तीर्थ यात्रा को जारहा हूँ। हाजीखाँ ने बदले का ठीक उपयुक्त समय समझ कर उनसे कहा यह तीर्थयात्रा मैं अपनी तरफ से करवाऊँगा। इसमें जितने भी रुपये मोहरें खर्च होंगी, सब मैं खर्च करूंगा। बहुत कुछ इनकार करने पर भी रूपाजो को हाजीखाँन की बात मानना पड़ी । हाजीखों संघ के साथ में हो लिया। बड़ी धूमधाम से श्री शत्रुजय तीर्थ की यात्रा की। एक स्वामी वात्सल्य किया गया। साथ ही एक मुहर तथा एक २ लड्डु लहान स्वरूप बाँटा गया। इस संघ में ९९०००) खर्च हुए। इसी समय जाति के लोगों ने आपको संघवी की पदवी प्रदान की। . सहा रूपाजी के पश्चात् क्रमशः भदाजी, इसरजी, कुवरोंजी, विरघोजी, लूभाजी, हरिजी, मेध. राजजी, उत्तमाजी, जीवराजजी, लूणांनी, बेनोजी, किसनोजी, कालू जी, हेमराजजी, राजसिंहजी, कपरचन्दनी (दत्तक), बोरडियाजी और दयालदासजी हुए। दयालदासजी के दो पुत्र हुए। बछराजजी और . सवाईसिंहजी।
___ इस परिवार के पुरुष बाबू सवाईसिंहजी बाबू रायसिंहजी (हरिसिंहजी) और वा० हिम्मतसिंहजी नामक अपने दो पुत्रों को लेकर सम्वत् १०४९ के माव सुदी ५ को अजीमगंज मुर्शिदाबाद में आकर बसे । भआपने अपना व्यापार आसाम प्रांत के अंतर्गत ग्वालपाड़ा नामक स्थान में प्रारंभ किया। आपका स्वर्गबास संवत् १८८३ में हो गया। ... काबू रायसिंहजी-आपका जन्म संवत् १८२९ के चैत्र माह में हुआ। अपने पिताजी की मृत्यु के पश्चात् आपने अपने कारोबार का संचालन किया। आपकी पुत्री श्रीमती गुलाबकुँवरी का विवाह बंगाल के प्रसिद जंगतश्ठ इन्द्रचन्दजी के साथ हुआ। आपका दूसरा नाम हरिसिंहजी भी था। आपके इसी नाम से कलकत्ते की मशहूर फर्म मेसर्स हरिसिंह निहालचन्द की स्थापना हुई। आपका स्वर्गवास सम्बत् १९.. में हुआ । भापके हुलासचन्दजी नामक पुत्र हुए।
___ बाबू हुलासचन्दजी-आपका जन्म संवत् १८५४ के करीब हुना। मेसर्स हरिसिंह निहालचंद नामक फर्म को आप ही मे स्थापित किया। आप बड़े बुद्धिमान, दूरदशी, व्यापारकुशल और धार्मिक प्रकृति के पुरुष थे। श्रावकारतों का आप पूर्ण रूप से पालन करते थे। दिल्ली के तत्कालीन अंतिम मुगल सम्राट् बहादुरशाह के दरबार में भी आपने कुछ समय तक कार किया था। आपके कार्य से प्रसन्न हो कर बादशाह ने आपको जिस तया राय की पदवी प्रदाय की थी। इस खिल्लास के साथ में बादशाह
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ओसवान जाति का इतिहास
स्व. बाबू डालचंदजी सिंघी, मुर्शिदाबाद.
बाबू बहादुरसिंहजी सिंघी, कलकत्ता.
कुँवर वीरेन्द्रसिंहजी सिंघी, कलकत्ता.
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सिंघवी
आपको एक पन्ने की अंगूठी भी प्रदान की थी। इस अंगूठी पर आपका खिताब सहित नाम एबम् संवत्
हुआ है। वह अंगूठी अभी भी आपके वंशजों के पास विद्यमान है। आपने पैदल रास्तों से सब तीर्थस्थानों की यात्रा को और इसके स्मारक स्वरूप आपने एक डायरी भी लिखी जो हाल में मौजूद है । आपका स्वर्गवास संवत् १९४७ में हुआ। आपके कोई पुत्र न होने की वजह से आपके नाम पर सरदारशहर से चौरड़िया गौत्र के बाबू निहालचन्दनी दत्तक साये।
आपका स्वर्गवास संवत् १९५८
बाबू निहालचन्दजी - आपका जन्म संवत् १९०१ में हुआ 1 आप संवत् १९०५ में अजीमगंज में दत्तक आये । आपका विवाह मुर्शिदाबाद के सेठ मगनीरामजी टांक की पुत्री से संवत् १९१३ में हुआ । आप फारसी भाषा के विद्वान और शायर थे । संस्कृत का भी आपको अच्छा ज्ञान था । प्रायः अस्वस्थ रहने के कारण आपका समय अधिकतर धर्मध्यान ही में बीता । में हुआ। आपके बाबू चन्दजी नामक पुत्र हुए । बाबू डालचन्दजी आपका जन्म संवत् १९१७ में हुआ तथा आपका विवाह संवत् १९३५ में सुर्भिदाबाद निवासी बा० जयचन्दजी वेद की पुत्री से हुआ। आप क्रेम समाज में बहुत प्रतिज्ञ सम्पन पुरुष हो गये हैं । प्राचीन जैन मन्दिरों के जीर्णोद्धार में, तथा जैन सिद्धान्तों के प्रचार में आपने बहुत धम माय किया । आप बड़े स्पष्ट वक्ता और अपने सिद्धान्तों पर भटक रहने वाले सज्जन थे । जिस समय कलकत्ता में जूट बेलर्स असोसिएशन की स्थापना हुई, उस समय सर्व प्रथम आपही उसके सभापति बनाये गये । चित्तरंजन सेवासदन कलकत्ता में भी आपने बहुत सहायता पहुँचाई । आपके द्वारा आपके रिश्तेदारों को भी बहुत सहायताएँ मिलती थीं । मृत्यु के समय आप कई लाख रुपये अपने रिश्तेदारों को वितरण कर गये । आप बड़े वूरदर्शी और व्यापार कुशल पुरुष थे । मेसर्स हरिसिंह निहाक चन्द नामक फर्म को आपने बहुत उन्नति पर पहुँचाया । धार्मिक विषयों के भी आप अच्छे जानकार थे। आपका स्वर्गवास संवत् १९८४ में होगया । आपके एक पुत्र हैं जिनका नाम बाबू बहादुरसिंहजी हैं। बाबू बहादुरसिंहजी - आपका जन्म संवत् १९४२ के असाढ़ बदी १ को हुआ । आपका विवाह संवत् १९५४ में मुर्शिदाबाद के सुप्रसिद्ध राय लखमीपतसिंह बहादुर की पौत्री से हुआ । मगर हाली
१९०७ के भाद्रपद में आपकी धर्मपत्नी का स्वर्गवास होगया। आपने हिन्दी, अंग्रेजी, बंगला आदि भाषाओं में उच्च श्रेणी की शिक्षा प्राप्त की है। आपका स्वभाव बड़ा सरक और मिलनसार है। आपको पुरानी कारीगरी का बेहद शौक है। पुरानी कारीगरी की कई ऐतिहासिक वस्तुओं का आपने अपने यहाँ बहुमूल्य संग्रह कर रखा है । महाराज छत्रपति शिवाजी जिन राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, सीता, महादेव भादि मूर्तियों की पूजा करते थे, तथा जो बहुमूल्य पन्धे की बनी हुई हैं। उनका आपने अपने यहाँ
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प्रोतबाट जाप्त का इतिहास संग्रह कर रखा है। अरेवियन और परसियन हस्त लिखित पुस्तकों का भी आपके यहाँ बहुमूल्य संग्रह है। ये ग्रन्थ पहले देहली के बादशाहों के पास थे। इनमें से कई एक पर तो उनके हस्ताक्षर भी हो रहे हैं। इसके अतिरिक्त प्राचीन हिन्दू, कुशान और गुप्त काल के राजाओं के तथा मुसलमान काल के भी बहुत से सिक्कों का आपके यहाँ संग्रह है।
___आपको प्राचीन ऐतिहासिक पुरातत्व ही की तरह सार्वजनिक जीवन में भी बहुत दिलचस्पी है। सन् १९८६ में बम्बई में होने वाली जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेन्स के विशेष अधिवेशन के आप सभापति रहे। पंजाब के गुजरान वाला गुरुकुल के छटवें वार्षिक अधिवेशन के भी आप सभापति रहे । यहाँ आपका बहुत महत्वपूर्ण भाषण भी हुआ था । .
इसके अतिरिक्त आपने एक और महत्वपूर्ण कार्य किया। कवि सम्राट रवीन्द्रनाथ के शांति निकेतन बोलपुर में आपने सिंघवी जैन विद्यापीठ की स्थापना की। इस विद्यापीठ में जैन धर्म के सुप्रसिद विद्वान और पुरातत्वज्ञ श्री जिनविजयजी आचार्य का काम कर रहे हैं। जिससे इस विद्यापीठ में सोने के साथ सुगन्ध की कहावत चरितार्थ हो रही है। इस विद्यापीठ में जैन आगम ग्रंथ, जैन प्रकरण ग्रंथ, जैन कथा साहित्य, देशी भाषा साहित्य, लिपि विज्ञान, ऐतिहासिक संशोधन पद्धति, स्थापत्य विज्ञान, भाषा विज्ञान, धर्म विज्ञान, प्रकीर्ण जैन वाङ्मय इत्यादि जैन संस्कृति से सम्बन्ध रखने वाले सभी विषयों की शिक्षा देने का प्रबंध किया जा रहा है।
- इसी विद्यापीठ के साथ एक विशाल ग्रंथ भण्डार और जैन ग्रन्थों का संग्रह भी बनाया जा रहा है। तथा सिंघवी जैन ग्रन्थमाला के नाम से एक ग्रंथमाला भी निकलती है। जिसमें कई बहुमूल्य ग्रंथ प्रकाशित हो रहे हैं। इसके अतिरिक्त और भी प्रायः सभी सार्वजनिक कार्यों में आप बड़े उत्साह के साथ भाग लेते रहते हैं।
__आपके तीन पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः बा. राजेन्द्रसिंहजी, बा० नरेन्द्रसिंहजी और बार वीरेन्द्रसिंहजी हैं।
बाबू राजेन्द्रसिंहजी-आपका जन्म संवत् १९६१ में हुआ । मापका अध्ययन बी० ५.क्लास तक हुमा। आप बड़े योग्य, बुद्धिमान और मिलनसार सज्जन है। आप के इस समय दो पुत्र हैं, जिनके नाम बा० राजकुमारसिंहजी और बाबू देवकुमारसिंहजी है।
बाबू नेरन्द्रसिंहजी-आपका जन्म संवत् १९६७ में हुआ। आप कलकत्ता विश्व विद्यालय की बी० एस० सी० की परीक्षा में सन् 1 में सर्व प्रथम स्थान में उत्तीर्ण हुए । इस समय आप एम. एस. सी. पास कर खॉ में पढ़ रहे है।
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ओसवाल जाति का इतिहास
बाबू राजेन्द्रसिंहजी सिंघी, कलकत्ता,
बाबू नरेन्द्रसिंहजी सिंघी, कलकत्ता.
बाबू राजकुमारसिंह सिंघी S/O बाबू राजेन्द्रसिंहजी, कलकत्ता, बाबू देवकुमार सिंह सिंघी S/O बाबू राजेन्द्रसिंहजी, कलकत्ता.
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बाबू वीरेन्द्रसिंहजी - आपका जन्म संवत् १९७१ में हुआ। आप इस समय बी० एस० सी० मैं विद्याध्यन कर रहे हैं ।
इस समय इस परिवार की जर्मीदारी चौबीस परगना, पूर्णियां, मालदह, मुर्शिदाबाद इत्यादि जिलों में फैली हुई है। इसके अतिरिक्त मेसर्स हरिसिंह निहालचन्द के नाम से कलकत्ता, सिराजगंज, अजीमगंज, फारबीसगंज, सिरसाबाड़ी, भड़ंगामारी इत्यादि स्थानों पर आपका जूट का व्यापार होता है। आपका हेड आफिस कलकत्ता है ।
सिंघवी
सिंपवी-डीडू
सिंघवी खेमचन्दजी का खानदान, सिरोही
कहा जाता है कि उज्जैन जिले के ढोढर नामक स्थान में परमार वंशीय राजा सोम राज करते थे। उनकी बीसवीं पुरत में माधवजी नामक व्यक्ति हुए, जिन्होंने जैनाचार्य श्री जिनप्रसवसूरिजी से संतान प्राप्ति की इच्छा से जैन धर्म अङ्गीकार किया । उस समय से इनका गौत्र डीडू और इनकी कुल देवी चक्रेश्वरी मानी गई । माधवजी की पांचवी पुश्त में समधरजी हुए इनके पुत्र नानकजी ने शत्रुंजय का संघ निकाला तब से ये सिंघवी कहलाये । * इस खानदान में आगे चलकर सिंघवी श्रीवन्तजी हुए जिन्होंने सिरोही स्टेट में दीवानगी की। राजपूताने की सभी रियासतों पर आपका बड़ा व्यापक प्रभाव था । श्रीवतजी के पुत्रों में रेखाजी और सोमजी का परिवार चला ।
सिंघवी रेखाजी का परिवार रेखाजी के पौत्र सिंघवी लखमीचन्दजी हुए। इनके तीन पुत्र हुए, जिनके नाम खूबचन्दजी, हुकुमाजी और हीरानन्दजी थे। सिंघवी हीरानन्दजी के चार पुत्र हुए । जिनके नाम अदजी, चैनजी, जोरजी और गुलाबचन्दजी था। इनमें इस समय अदजी के परिवार में सिंघवी अनराजजी, सिंघवी मिलापचन्दजी और सिंघवी टेकचन्दजी हैं। सिंघवी अनराजजी के पुत्र मूलचन्दजी सिरोही में वकील हैं, सिंघवी मिलापचन्दजी जोधपुर ऑडिट ऑफिस में सेक्शन हेड हैं और सिंघवी टेकचन्दजी बी० ए० फेनिक्स मिल बम्बई में सेक्रेटरी हैं। सिंघवी चैनजी के वंश में उनके पौत्र सिंघवी समस्थमलजी इस समय सिरोही हिज हाइनेस के असिस्टेण्ट प्रायह्वेट सेक्रेटरी हैं ।
सिंघवियों से ये सिंघवी बिलकुल
* यहाँ पर यह बात खयाल में रखना चाहिए कि जोधपुर के नाग पूजक 1 उनकी उत्पत्ति ननवाणा बोहरों से हैं और इनकी परमार राजपूत से।
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मोसवाल जाति का इतिहास
इनके पुत्र श्री देवीचन्दजी जो इनके भाई खेमचन्दजी के नाम पर दत्तक गये हैं इस समय एफ० ५० में पढ़ते हैं। सिंघवी बोरजी सिरोही स्टेट में नामाङ्कित व्यक्कि हुए, आपने सम्हही अगदों को निपटाने में बड़ा परिश्रम किया। आप संवत् १९१६ में सिरोही स्टेट के दीवान हुए। इनके खानदान में इस समय नैनमलजी, बाबूमलजी और केसरीमलजी विद्यमान हैं ।
सिंघवी सोमजी का परिवार-सिंघवी सोमजी के पुत्र अनोपचन्दजी, सुन्दरसी, और विजयराज जी हुए। इनमें से सिंघवी सुन्दरसीजी ने सिरोही राज्य की दीवानगी की। इनके चौथे पुत्र सिंघवी अमरसिंहजी के चार पुत्र हुए जिनमें सिंघवी दौलतसिंहजी का वंश भागे घला। श्री विजयराजजी के दो पुत्र हुए, जिनके नाम नेमचन्दजी और केसरीमझी था। सिंघवी दौलतसिंहजी के खींवजी, लालजी, माळजी व फतेचन्दजी नामक चार पुत्र हुए। इस सारे परिवार को सिरोही दरबार में प्रसन्न होकर निम्नलिखित परवाना दिया। ....
श्री सारणेश्वरजी महारावजी श्री परतापसिंहजी व कुंवरजी भी तखतसिंहजी वचनायता
सिंघवी दौलतसिंह वीरचन्द फतेचन्द माला लाला अमरसिंह सुप्रसाद बाँचजो अपंच थारे परदादा श्रीवंतजी श्यामजी व दादा सुन्दरजी अमरसिहजी वगैरा ने रियासत रा काम में बड़ी मदद व इमानदारी से काम बड़ा महाराजाजी श्री सुलतानासिंहजी व अखेराजजी वेरीसालजी दरजनसिंहजी मानसिंहजी रीवार काम दीवाण गौरी रो कियो व जोधपुर जैपुर री फौज श्रावती उण में मदद की फौज पाछी वाली व मुलक आवाद राखियो जिण सुं में थांपर प्रसन्न वे खुशनुदी रो परवाणो करदियो है और आगाने थे इण माफक चालसो जिगरी माने उमेद है सो थे मी थारां दादा परदादा माफक चालजो।
सम्वत् १८२५ रा चैत सुद १२ वार सूरजसिंघवी लालजी ने इंडर के राज्य में दीवानगी की। इनके तीन पुत्र थे-हेमराजजी, कानजी तथा पोमाजी। इन तीनों ने सिरोही राज्य में दीवानगी की । कानजी तो तीन बार दीवान हुए। पोमाजी ने सिरोही राज्य की बहुत सेवाएँ की। जब मीना भीलों के हमले के कारण व जोधपुर राज्य की लूटों के कारण मुल्क वीरान हो रहा था उस समय पोमाजी ने पोलिटिकल एजण्ट तथा सरदारों से मिलकर शांति स्थापित करने में बड़ी योग्यता से परिश्रम किया। पोमाजी के परिवार में इस समय सिंघवी बुखीलालजी और सोहनमलजी है।
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। ओसवाल जाति का इतिहास
स्व. सिंघी जवाहरचंदजी दीवान, सिरोही.
स्व. सिंघी कस्तूरचंदजी दीवान, सिरोही.
सिंघी खेमचंदजी एम. ए., सिरोही.
सिंघी हिम्मतमलजी बी. ए., सिरोही.
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सिंघवी
सिंघवी दोलतसिंहजी के तीसरे पुत्र मालजी के परिवार में सिंघवी कस्तूरचन्दजी ने संवत् १९३९, १९२५, और १९३२ में सिरोही स्टेट की दीवानगी का काम किया। इन्हीं मालजी के दूसरे पुत्र माणक. चन्दजी के परिवार में राय बहादुर जवाहरचन्दजी बड़े नामादित हुए। आप संवत् १९४८,५५ और ५९ में क्रमशः तीनवार सिरोही स्टेट के दीवान रहे। संवत् १९५६ के भकाल में आपने गरीबों की बहुत सेवाएँ की, इसके उपलक्ष्य में गवर्नमेण्ट की ओर से भापको “राय बहादुर" का सम्माननीय खिताब प्रास हुआ। आपका स्वर्गवास संवत् १९६० में हुमा । आपके छः पुत्र हुए जिनमें सिंघवी नरसिंहमलजी और हजारीमलजी विद्यमान है। शेष चार पुत्रों के वंशज भी इस समय विद्यमान है।
सिंघवी दौलतसिंहजी के चौथे पुत्र फतेचन्दजी के परिवार में सिंघवी पूनमचन्दजी हुए, आप १७ वर्षों तक सिरोही स्टेट में रेवेन्यू कमिश्नर रहे। गवर्नमेण्ट की ओर से भापको राय साहब का सम्मानीष खिताब प्राव हुआ । आपका स्वर्गवास संवत् १९४२ में हुआ। इनके समरथमलजी, भभूतमरूजी
और दुनिचन्दजी नामक तीन पुत्र हैं। श्री भभूतमलजी (बी० पी० सिंघई ) बड़े उत्साही, धार्मिक, विक्षित और साहित्य प्रेमी सज्जन हैं। सार्वजनिक कार्यों में आप बड़ी दिलचस्पी से भाग लेते हैं। मापके छोटे भाई दुलिचन्दजी एप्रिकल्चर कॉलेज पूना में पड़ते हैं। . .
___सिंघवी सामजी के तीसरे पुत्र सिंघी विजयराजजी के नेमचन्दजी और केसरीमलजी नामक दो पुत्र हुए। इनमें नेमचन्दजी का परिवार पाली और घाण में निवास करता है । केसरीमलजी के परिवार में क्रमशः प्रेमचन्दजी, किशनजी, जेठाजी और हिन्दूमलजी हुए। इनमें सिंघवी जेठाजी बड़े धनाढ्य व्यक्ति थे। सिंघवी हिन्दूमलजी के पुत्र रूपचन्दजी, हँसराजजी और ताराचन्दजीथे । सिंघवी रूपचन्दजी पोस्टल विभाग के डेड लेटर आफिस राजपूताना में मैंनेजर रहे । सिंघवी हंसराजजी २५ सालों तक पोस्ट मास्टर रहे। सिंघवी रूपचन्दजी के मूलचन्दजी, खेमचन्दजी और हिम्मतमलजी नामक तीन पुत्र हुए। इनमें सिंघवी खेमचन्दजी हंसराजजी के नाम पर और हिम्मतमलजी ताराचन्दजी के नाम पर दत्तक गये।
सिंघवी खेमचन्दजी का जन्म १९४१ में हुआ और सन् १९०८ में आपने एम० ए० की डिग्री हासिल की। सिरोही स्टेट में आप सब से पहले एम० ए० हैं। प्रारम्भ में आप सिरोही सेटलमेण्ट आफिसर मिकीन के परसनल असिस्टेण्ट रहे व उसके पश्चात् असिस्टेण्ट सेटलमेण्ट ऑफिसर होकर रेवेन्यू कमिइनर हुए। आपको महाराव केसरीसिंहजी व कई अंग्रेज असफरों ने अच्छे २ सार्टीफिकेट दिये। वाइससबके आर्डर से तत्कालीन ए० जी० जी० आग्मी डिपार्टमेन्ट ने आपके कार्यों की गजट ऑफ इण्डिया में बहुत प्रशंसा की सन्१९२४ से १९२९ तक आप जोधपुर स्टेट में लेण्ड और रेहेन्यू सुपरिटेण्डेण्ट रहे । इस समय भाप माबू वेलबादा जैन टैम्पल और बामनवादजी जैन टैम्पल की मैनेजिंग कमेटी के प्रेसिडेण्ट हैं। आपके छोटे
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ओसवाल जाति का इतिहास
भाई सिंघवी हिम्मतमजी का जन्म १९४४ में हुआ । सन् १९९३ में आपने एल० एल० बी० की डिग्री प्राप्त की। शुरू २ में आप मारवाड़ के इन्सपेक्टर ऑफ स्कूल्स रहे और इस समय आप जोधपुर महकमा खास में ऑफिस सुपरिटेण्डेण्ट के पद पर काम करते हैं। आपके पुत्र राजमलजी, पुखराजजी और चन्दजी हैं।
यह सिंघवी परिवार सिरोही स्टेट में अग्रगण्य और शिक्षित माना जाता है ।
सिंघवी कुशलराजजी, मेड़ता
महाराजा तखतसिंहजी के राज्यकाल में इस स्वामदान को नागौर के ताऊसर नामक गाँव में ३०० बीघा जमीन मिली जो संवत् १९०४ तक इस कुटुम्ब के अधिकार में रही। सिंघवी छज्जूमलजी और उनके पुत्र गादमलजी तथा पौत्र फौजमळजी नागोर में निवास करते रहे। सिंघवी फौजमलजी के चंदनमलजी समीरमलजी तथा चेवरचन्दजी नामक ३ पुत्र हुए। इनमें सिंघवी चन्दनमलजी संवत् १९१९ में मागोर के हाकिम थे, आप नागौर से मेड़ता आये । भापके फतेराजजी तथा जसराजजी नामक २ पुत्र हुए, इनमें जसराजजी, सिंघवी समीरमरूजी के नाम पर दत्तक गये । फतेराजजी का स्वर्गवास संवत् १९६५ में तथा जसराजजी का संवत् १९६० में हुआ। सिंघवी फतेराजजी के धनराजजी तथा कुशलराजजी नामक २ पुत्र हुए। धनराजजी गूलर ठिकाने में काम करते थे, तथा जबलपुर में रीयाँवाले सेठों की दुकान पर मुनीमात करते थे, इनका शरीरावसान संवत् १९८५ में हुआ, इनके पुत्र गणेशराजजी आरायज नवीस हैं । सिंघवी कुशलराजजी का जन्म संवत् १९३८ की आसोज सुड़ी में हुआ, आप जोधपुर राज्य और ठिकानों की सर्विस के बाद संवत् १९६५ से मेड़ते में वकालात करते हैं, तथा यहाँ के मोअजिज सजन माने जाते हैं। आपके पुत्र मथराजजी तथा मदनराजजी हैं। नमराजजी की वय १९ साल की है, और आप एफ० ए० में पढ़ते हैं ।
सेठ छोगमल वरदीचन्द संघी, गुड़ीवाड़ा (मद्रास )
इस परिवार का मूल निवास आहोर है। वहाँ से व्यापार के निमित्त संवत् १९४४ के पहिले संघी ऊमाजी के बड़े पुत्र जसरानजी, मछली पट्टम आये, पीछे से जसराजजीं के छोटे भ्राता छोगमलजी तथा वादीचन्दजी भी वहाँ आ गये । आप लोग १९७० तक मछली पट्टम में कपड़े का धंधा करते रहे, पश्चात् वहाँ
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सिंधी दीपराजजा, सोजत.
सिंघी ताराचंदजो कोठारी, श्राहोर.
सेठ श्रीचंदजी सिंघी (चुन्नीलाल श्रीचंद) लोनार.
सेठ शिवराजजी सिंधी, कोलारगोरुड फ़ील्ड.
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सिंघवी
से दुबान गुडीपाड़ा ( मद्रास ) ले आये। गुहीवादा आने के बाद इस दुकान पर तांतेड़ ताराचन्दजी के पुत्र मंछालालजी का भाग सम्मिलित हुभा, आप सिरोही पाढीप नामक ग्राम के निवासी हैं। गुड़ीवाड़ा आने के बाद इस दुकान ने अच्छी तरक्की व इजत पाई। सेठ मंछालालजी तांतेड़ ने गुढीवाड़ा में जैन मंदिर के बनवाने में और अमीजरा पार्श्वनाथजी की प्रतिमा के उद्धार और प्रतिष्ठा में आस पास के जैन संघ की सहायता से बहुत परिश्रम उठाया । मंछालालजी विचारवान व्यक्ति हैं।
__सेठ छोगमलजी तथा वरदीचंदजी मौजूद हैं। छोगमलजी के पुत्र जेठमलजी, तथा वरदीचन्दजी के बभूतमलजी वस्तीमलजी, जीवराजजी तथा शांतिलालजी हैं। आप लोगों के यहाँ कपड़े तथा म्याज का काम होता है। इस दुकान के भागीदार सेठ प्रागचंद कपूरजी तथा भूरमल केसरजी हैं ।
सेठ मानकचन्द गुलजारीमल सिंघवी देहली यह खानदान जैन स्थानकवासो मानाय का माननेवाला है, और लगभग १०० सालों से देहली में निवास कर रहा है। इस खानदान में लाल वस्तावस्मलजी सिंघवी हुए, भापके लाला शादीरामजी, लाजा मानिकचन्दजी, लाला मानिकचन्दजी, लाला गुलाबसिंहजी, लाला मुनीलालजी और लाला छुट्टनमालजी ५ पुत्र हुए। इनमें इस खानदान में अच्छे प्रतिष्ठित पुरुष हुए। आपका नामक जन्म संवत् १९०३ में तथा स्वर्गवास संवत् १९७३ में हुआ। आपके पुत्र लाला गुलजारीमलजी का जन्म संवत् १९४१ में तथा स्वर्गवास संवत् १९८३ में हुआ। लाला गुलजारीमलजी भी बड़े योग्य पुरुष थे। आपके मनोहरलालजी तथा मदनलालजी नामक २ पुत्र हुए, इनमें मनोहरलालजी का जन्म संवत् १९७१ में हुआ। आप दोनों माता सज्जन व्यक्ति हैं, तथा व्यापार का संचालन करते हैं।
सेठ चुनीलाल श्रीचन्द सिंघवी, लोनार (बरार) इस परिवार का मूल निवास बोरावड़ (मारवाद) है। वहाँ से लगभग ३० साल पहिले सेठ कालरामजी सिरोया सिंघवी ब्यापार के लिए लोनार आये और यहाँ आकर इन्होंने व्यापार आरम्भ किया, संवत् १९३५ में इनका स्वर्गवास हुआ। इनके रतनचन्दजी तथा चुन्नीलालजी नामक दो पुत्र हुए। सेठ चुनीलालजी सिंघवी का जन्म सं० १९०५ में हुआ था, आपके हाथों से दुकान को तरक्की मिली। संवत् १९४६ में इनका शरीरावसान हुआ ।
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औसवाल जाति का इतिहास
___ सेठ चुन्नीलालजी सिंघवी के बाद उनके पुत्र श्रीचन्दजी सिंघवी ने इस दुकान को सम्पत्ति को विशेष बदाया। आपका जन्म संवत् १९३५ में हुआ। आपके यहाँ रुई के व्यापार का काम भौर लेनदेन का व्यापार होता है, तथा इस समय आप लोनार के प्रमुख सम्पत्तिशाली समझे जाते हैं। भापके पुत्र सुगनचन्द व मदनलाल हैं।
सिंपकी पाताकत
सिंघवी ताराचन्दजी कोठारी, आहोर ( मारवाड़)
पातावत सिंघवी खानदान का निवास भी बनवाणा बोहरा जाति से बतलाया जाता है। कहा जाता है कि डीसा से १२ कोस ढीलड़ी गाँव में टेलडिया बोहरा आसधवलजी रहते थे। इनको जैनाचार्य श्रीचन्द्र प्रभू सूरिजी ने जैन धर्म अंगीकार कराया। आसधवलजी की पीढ़ी में कुंवरपालजी ने संघ निकाला, अतएव इनका कुटुम्ब सिंघवी कहलाया । इनकी कई पीढ़ियों बाद पाताजी हुए, जिनकी संतानें पातावत सिंघवी कहलाई । ये भी नागपूजक सिंघवी हैं
पाताजी की कई पीढ़ियों में सिंघवी दीपराजजी हुए थे और इनके पुत्र कल्याणजी भी आहोर ठिकाने में काम करते रहे, ठिकाने का काम करने से ये कोठारी कहालाये। कल्याणजी के डूंगरमलजी तथा लखमीचन्दजी नामक २ पुत्र हुए। लखमीचन्दजी संवत् १८७० में ठाकुर अनाड़सिंह जी के साथ कोटा की
ओर गये । इस समय लखमीचन्दजी का कुटुम्ब सारथल ( कोटा के पास ) रहता है। लखीमचन्दजी के बड़े भाई दूंगरमलजी, ठाकुर भनाइसिंहजी के बड़े पुत्र शक्तिसिंहजी के यहाँ कार्य करने लगे। डूंगरमलजी के पुत्र हरखचन्दजी १९५० में गुजरे इनके पुत्र अखेचन्दजी, रतनचन्दजी तथा ताराचन्दजी हुए। इनमें सिंघवी ताराचन्दजी विद्यमान हैं। सिंघवी ताराचान्दजी का जन्म संवत् १९३५ में हुभा। आपने बहुत समय तक आहोर ठिकाने का काम किया। भाप समझदार तथा प्रतिष्ठित सज्जन हैं। कोठारी अखेचन्दजी ने ठाकुर रावतसिंहजी की नाबालगी के समय ठिकाने का कार्य सम्भाला था, अभी इनके नाम पर ताराचंदजी के पुत्र नेनचन्दजी दसक हैं।
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मण्डारी मारवाड़ के इतिहास के भण्डारियों के गौरवान्वित कार्यों से. प्रकाशमान हो रहे हैं । भण्डारियों की कास्यांवली का विवरण राजस्थान के इतिहास में एक अभिमान की वस्तु है। मारवाद के इतिहास में भण्डारियों का एक विशेष युग रहा है और उन्होंने अपने समय में न केवल मारवाद की राजनीति ही को सञ्चालित किया परन् उन्होंने वकालीन मुगलसाम्राज्य की नीति पर भी अपना विशेष प्रभाव गला है। दुःख है कि इस गौरवशाली वंश का क्रमबद्ध इतिहास उपलब्ध नहीं है। मारवाड़ की विभिः स्यातों, अंग्रेजी, संस्कृत गौर फारसी के प्रामाणिक इतिहास ग्रन्थों में भण्डारियों के इतिहास की सामग्री बिखरी हुई है, उसी के माधार से उनके इतिहास पर कुछ प्रमश गला जा रहा है। ... भयडारी वंश की उत्पत्ति-इस वंश की उत्पत्ति नाडौल के चौहान राजवंश से हुई है। विक्रम सात् की ग्यारहवीं सदी में नाडौक में राव लाखणसी नामक एक प्रतापशाही राजा हुआ। यह शाकमदी (साम्मर) के चौहानवंशी राजा वावपतिराज का पुत्र था। इसका शुद्ध नाम लक्ष्मण था। अचलेश्वर के मन्दिर में लगे हुए सम्बत् १३०७ के लेख से मालूम होता है कि लाखणसी ने अपने बाहुबल से नाडोल के इलाके पर नवीन राज स्थापित किया। इसके समय के विक्रम सम्बत् १०२४ और १०३९ के दो शिलालेख कर्नल टॉड साहब को मिले थे। कर्नल टॉड लिखते हैं:
___ "चौहानों की एक बड़ी शाखा नाडोल में आई, जिसका पहिला राजा राव लाखण था। उसने सम्बत् १०३९ में अगहिलवाड़े के राव से यह परगना छीन लिया। गजनी के बादशाह सुबुकगीन व उसके पुत्र सुलतान महम्मद ने राव लाखण पर चढ़ाई करके नाडोल को लूटा और वहां के मन्दिर तोड़ डाले। लेकिन चौहानों ने फिर वहाँ पर अपना दखल जमा लिया। यहाँ से कई शाखाएँ निकली, जिन सबका मन्त देहली के बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजी के वक में हुआ। राव लाखण अनहिलवादे तक का दाण (सायर का महसूल) लेता था और मेवाड़ का राजा भी उसे खिराज देता था" * राय
राव राखण द्वारा मेवा के राजा से खिराज लिये जाने की पुष्टि निम्न लिखित पुराने दोहे से भी होती है।
समय दस से उँचालिश वार एकता पाटणा पोला पेप दाण चौहाण उगालीमेवाड़ पणि दराड मरी तिसबार राब लाखण थपी, जो प्रारम्मा सो करि
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
बहादुर महामहोपाध्याय पं० गोरीशंकरजी ओझा अपने सिरोही के इतिहास के पृष्ठ १६९ में लिखते हैं:"राव लाखणी बड़ा बहादुर हुआ वर्तमान जोधपुर राज्य का कितना ही हिस्सा इसने अपने आधीन कर लिया था । "
भण्डारियों की हात में रात्र लाखणजी के बारहवें पुत्र रावं दुदाजी से भण्डारियों की उत्पत्ति बतलाई है। उसमें लिखा है कि: “ नाडोल के राव लाखणसी के चौबीस रानियाँ थीं, पर उनमें से किसी के सन्तान नहीं हुई। प्रसंगवश जैनाचाय्यं श्री यशोभद्रसूरि नाडौल पहुँचे। राव छाखणसी ने आपका बड़ा सरकार किया। राव-लाखणजी ने निःसन्तान होने के कारण आपके आगे दुःख प्रकट किया और आचार्यवर्य को इस सम्बन्ध में शुभाशीष देने के लिये निवेदन किया। इस पर आचार्य श्री ने उत्तर दिया कि तुम्हारी प्रत्येक रानी के एक एक पुत्र होगा। तुम अपने चौबीस पुत्रों में से एक पुत्र को हमारे हवाले करना । राव लाखणसी ने यह बात स्वीकार करली। सौभाग्य से रावजी की प्रत्येक रानी को एक एक पुत्र हुआ। इनमें बारहवें पुत्र का नाम दूदाराव था । इन्हें आचार्य श्री ने जैनी बनाया। राज्य के खजाने का काम दूदारावजी के सिपुर्द था, इससे ये भण्डारी कहलाये । यह घटना सम्बत १०३९ की है।
पहले तो यह कि भण्डारियों और
उपरोक्त वर्णन में अतिशयोक्ति हो सकती है, पर यह निश्चय है कि भण्डारियों की उत्पत्ति नाडोल के चौहानों से हुई। इसके लिए कई प्रबल प्रमाण हैं। चौहानों की कुलदेवी आसापुरीजी है। आसापुरी माता का मन्दिर बच्चों का झडला उतारा जाता है ।
नाडौल में है, जहाँ भण्डारियों के
अब हम भण्डारियों के उपलब्ध इतिहास के सम्बन्ध में जो कुछ ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त हुई है, उसी के आधार पर नीचे कुछ प्रकाश डालते हैं ।
समराजी - भण्डारियों के वंशवृक्ष में सबसे पहला नाम राव समराजी भण्डारी का है। आपने और आपके पुत्र राव नरोजी ने जोधपुर के संस्थापक राव जोधाजी को उनकी अत्यन्त संकटावस्था में किस प्रकार सहायता की और किस प्रकार राव समराजी राव जोधाजी की रक्षा के लिए मेवाड़ की सेना से लड़कर काम आये और उनके पुत्र नरोजी ने अन्त तक अनेक विपत्तियों को सहकर किस प्रकार संकटग्रस्त राव जोधाजी का साथ दिया इसका वर्णन हम "भोसवालों के राजनैतिक महत्व" नामक अध्याय में दे चुके हैं। इससे अधिक आपके सम्बन्ध में कोई ऐतिहासिक तथ्य खोजने पर भी नहीं मिला है। इसलिए यहां हम भण्डारियों की जुदी जुदी खांपों ( शाखाओं) का परिचय देते हैं।
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दीपावत भण्डारी
मराज भण्डारी के राजसीजी, जसाजी, सिहोजी, खरतोजी, तिलोजी, निम्बोजी और नाथोजी नामक सात पुत्र थे। इनमें भण्डारी नराजी के दूसरे पुत्र जसाजी के जयमलजी नामक पुत्र हुए । भण्डारी जयमलजी के पुत्र राजसिंहजी और पौत्र दीपाजी हुए। इन्हीं दीपाजी की सन्तान दीपावत भण्डारी के नाम से मशहूर हुई । भण्डारी दीपाजी के भोजराजनी, खेतसीजी, रामचन्दजी, रायचन्दजी तथा रासाजी नामक पाँच पुत्र हुए ।
दीपाजी के सम्बन्ध में बहुत खोज करने पर भी हमें विशेष वृतान्त ज्ञात नहीं हुआ । उनका इतिहास प्रायः अन्धकारक है। राज्य की ओर से अरठिया नामक गाँव में भण्डारी दीपाजी को जोधपुर दरबार की ओर से पाँच खेत जागीर में मिले थे, वे ही खेत पीछे जाकर उनके पौत्र भोजराजजी को सम्वत् १७७० के प्रथम अपाद खुदी १४ को महाराजा अजितसिंहजी ने बक्षे। इसके लिए जो परवाना दिया गया था उसमें लिखा था --- x x x " तथा गांव अरठिया बड़ा में भण्डारी दीपाजी रा खेत हे सो भण्डारी मेघराज ( मोजराजोत ) ने हुजुर सु इनायत हुआ छे सो ए सदाबन्द पाया जावसी ।"* उक्त लेख से यह भवन पाया जाता है कि भण्डारी दीपाजी ने जोधपुर राज्य की कुछ न कुछ सेवाएँ अवश्य की होंगी और उनके लिए उन्हें कुछ जागीरी मिली थी । अब हम दीपाजी के बेटे पोतों का परिचय देते हैं ।
भण्डारी भोजराजजी आप दीपाजी के सबसे बड़े पुत्र थे । आपके पुत्र मेघराजजी हुए । दीपाजी के खानदान में पाटवी होने से महाराजा अजितसिंहजी ने दीपाजी की जागीरी के खेत इन्हें इनायत किये । भण्डारी मेघराजजी भण्डारी रघुनाथसिंहजी की दीवानगी के समय सम्वत् १७७६ में जैतारण के हाकिम रहे । भण्डारी मेघराजजी के आईदानजी, गोवर्द्धनदासजी, कन्हीरामजी तथा देवीचन्दजी नामक चार पुत्र हुए। इनमें गोवर्द्धनदासजी विशेष प्रतापी हुए । जोधपुर की ख्यात में आपके वीरोचित कार्यों के प्रशंसनीय उल्लेख हैं । आप भण्डारी रघुनाथसिंहजी के समकालीन थे, यह बात भण्डारी रघुनाथजी के द्वारा आपके नामपर भेजे हुए एक पत्र से प्रकट होती है । भण्डारी गोवर्द्धनदासजी के दुर्गदासजी, मोहकमदासजी तथा मुकुन्ददासजी नामक तीन पुत्र हुए। इन बन्धुओं में दुर्गादास - ली के पुत्र भगवानदासजी तथा गुलाबचन्दजी थे । भण्डारी गुलाबचन्दजी का परिवार इस समय उज्जैन में रहता है । भण्डारी भगवानदासजी के मानमलजी, जीतमलजी तथा बख्तावरमलजी नामक तीन पुत्र हुए। इनमें भण्डारी मानमलजी सम्वत् १८५० में जैतारण के हाकिम रहे। आपने सम्वत् १८६५ में बोकड़िया * यह मूल परवाना जैतारण में भण्डारी अभयराजजी के पास है । इस परिवार में इस वक्त भण्डारी बालचन्दनी, सुकनचन्दजी भादि हैं।
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मेडारी
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पोल्यान जाति का इतिहास
बड़गांव पर फौजी चदाई की और वहाँ अपवा अधिकार किया। इसके लिए महाराजा मानसिंहजी में भापको जो पन दिया था उसमें लिखा था-"xxxश्री जीरा माया प्रताप स बड़ागांव कायम हा सो खुशी हुई निवाजस होसी। अन थाणो बढ़ागांव में मजबूत राख कूच आगे करजो। उठी रो बन्दोबस्त वसली आश्री रीत करजो । समाचार इन्द्रराज सूरजमलरा कागजसु जाजो सम्बत १८६५ राजेठ सुदी १४।'
जिस समय मानमब्जी जैतारण हाकिम थे उस समय सारे मारवाद में भशान्ति के बादल घिर रहे थे। चारों भोर की भापत्तियां उसपर भा.रही थीं। उस समय में हाकिमी का काम भी भाज जैसा सरल नहीं था। उन्हें राज्य-रक्षा के लिए फौजी नाकेबन्दियां करनी पड़ती थीं। सम्बत् १८६४ की भादवा सुदी ३ को जैपुरवाली फौज की नाकाबन्दी करने के लिए सिंघवी इन्द्रराजजी ने इनें लिखा था:"xxx घांटारा जाबता कराय दीजो सो फौज चढ़ सके नहीं। फिर देवगढ़ तथा सोलाकया सु ने मेरासुप को बन्दोबस्त कर घाटे नहीं चढ़े सो करजो।" इसी तरह भादवा सुदी ३ को भापके नाम जोधपुर से जो रुका आया उसमें लिखा था-"अयपुरवाला घाटे हुए उदयपुर जाय सके नहीं। इसो घाटारो बन्दोबस्त करणो।"
- भण्डारी मानमलजी का सम्बत् १४४ की पौर सुदी १२ को जैतारण में देशान्त हुभा आपकी द्वितीय धर्मपत्नी आपके साथ सती हुई। भापके पुत्र प्रतापमलजी मेड़ता और दौलतपुरा के हाकिम रहे। मापने जयपुरी फौज पर गिगोली की घाटी पर हमला किया था। सम्वत् १८७६ की पौष सुदी ३ को हरिद्वार में आपका स्वर्गवास हुभा। आपके साथ भी आपकी धर्मपत्नी सती हुई जिनकी छत्री बनी हुई है। इनके पश्चात् भण्डारी मानमलजी के कोई सन्तान नहीं रही। अतएव उन्होंने अपने तीसरे भाई बख्तावर मरूजी के मामले पुत्र कस्तूरमरूजी को दत्तक किया। कस्तूरमकजी के पुत्र भण्डारी रखमरूजी ने दौलतपुरे में हुक्मत की। भापके पुत्र भण्डाती देवराजजी इस समय उदयपुर में विद्यमान है और भाप देवस्थान महकमें में काम करते हैं। भापके पुत्र उदयराजजी और तेजराजजी हैं, जिनमें उदयराजजी उदयपुर राज्य में पुलिस सब इन्सपेक्टर है।
भण्डारी मानमलजी के छोटे भाई जीतमलजी थे। इनके पश्चात् क्रमशः सुलतानमन्जी, अमृतमलजी, धनरूपमलजी और रंगराजजी हुए। इस समय इनके परिवार में कोई नहीं है।
भण्डारी मानमलजी के सबसे छोटे भाई बस्तावरमलजी के बदनमलजी, कस्तूरमलजी, चंदनमलजी मामक तीन पुत्र हुए। भण्डारी बदनमलजी कोलिया, जैतारण तथा देसूरी के हाकिम रहे। भापको दरबार से सिरोपाव मिला था। भण्डारी चन्दनमलजी सम्वत् १८९०-९१ में नागौर तया मेड़ते के हाकिम रहे। सम्वत् १९०१ की भावण सुदी १४ को हनका शरीरान्त हुआ। इसके साथ इनकी धर्मपत्नी सती हुई
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भंडारी
जिनकी तिमारी जैतारण में बनी है। इनके पुत्र राजमला हुए। आप पर्वतसर और मारौठ के हाकिम हे। सम्बत् १९२८ में इनका स्वर्गवास हुआ। आपके दानमकजी, जीवनमलजी तथा सांवतरामजी नामक तीन पुत्र हुए। इस समय दानमलजी के पुत्र पृथ्वीराजजी और सुकनराजजी मौजूद हैं। भारी सांवतरामजी के अभयराजजी और बच्छाजजी नामक दो पुत्र विवमान , इनमें अभवराजजी जीवनमलजो के नामपर दत्तक गये हैं। बच्छराजजी जैतारण में वकालत और अभयराजजी जीनिंग फैक्टरी का काम करते हैं।
रासाजी का परिवार __ दीपानी के सबसे छोटे पुत्र का नाम रासाजी था। आप बड़े वीर थे। आपने छोटी मोटी कई पदालों में हिस्सा लिया था। सम्बत १७३९ के भादवा बदी ९ को गुजरात का मुसलमान शासक सैम्बर मुहम्मद राणपुर में बढ़ कर भाया । इस समय जोधपुर नरेश महाराजा अजितसिंहनी सिरोही राज्य के कद्री नामक गाँव में थे। महाराजा की ओर से उनके मुकाबले के लिये जो सेना गई थी उस के प्रधान सेनापति भण्डारी दीपाजी के चौथे पुत्र भण्ारी रामचंद्रजी थे। रायचंद्रजी के बड़े भाई रासाजी भी फौज के एक अफसर थे। आप दोनों भाई बड़ी वीरता से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
भण्डारी खींवसीजी
जिन महान् पुरुषों ने मारवाड़ के इतिहास को उज्जवल किया है उनमें भण्डारी खींवसीजी का भासन बहुत ऊँचा है। जिस समय इस महान् राजनीतिज्ञ का उदय हो रहा था, वह समय भारत के इतिहास में भयंकर अशान्ति का था। सम्राट औरंगजेब मर चुका था और उसके वंशओं के निर्बल हाथ भारत की शासन नीति को सञ्चालित करने में असमर्थ सिब हो रहे थे। "जिसकी लाठी उसकी मैंस" की कहावत चरितार्थ हो रही थी और चारों ओर नयी नयी शक्तियों का उदय हो रहा था । जबर्दस्त बादमी अपने मजबूत हाथों से बादशाहों को बनाते और बिगाड़ते थे। ऐसे नाजुक समय में तत्कालीन भारतीय साम्राज्य नीति को डगमगाने वाले महाराजा अजितसिंहजी की प्रधानगी के पद को भण्डारी खींवसीजी सोमायमान कर रहे थे।
भण्डारी खींवसीजी का उदय क्रमशः हुआ। पहले सम्बत् १७६५ में वे हाकिम के साधारण पद पर नियुक्त हुए। इसके बाद सम्बत 11 में आप दीवान के उच्च पद पर प्रतिष्ठित किये गये तथा
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
इसी समय आप राय की पदवी तथा हाथी पालकी कड़े मोती के सम्मान से विभूषित किये गये। इसके बाद आप प्रधान के सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित किये गये। कहने का अर्थ यह है कि आप अपनी प्रतिभा अपनी योग्यता - और कार्य्यं कुशलता से मारवाड़ राज्य के सर्वोच्च पद पर अधिष्ठित किये गये । इन सर्वोच्च पदों पर रहते हुए आपने मारवाड़ राज्य की जो महान् सेवाएं की हैं, उनका थोड़ा सा उल्लेख यहां किया जाता है ।
सम्बत् १७६७ में बादशाह बहादुरशाह दक्षिण से अजमेर आया । इस समय एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य के लिये महाराजा ने भण्डारी खींवसीजी को भेजा । वे बादशाह से शाहजाद अजीम के मार्फत मिले बादशाह भण्डारीजी से बड़ा प्रसन्न हुआ और वह उन्हें अपने साथ लाहौर ले गया। कहने की आवश्यकता नहीं उन्होंने महाराजा के मिशन को सफल किया ।
सम्वत १७७१ में भण्डारी खींवसीजी के प्रयत्न से महाराजा को फिर से गुजरात का सूबा मिला। इसके लिये तुलराम नामक एक बादशाही अधिकारी के साथ बादशाही फर्मान भी महाराजा के पास भेज दिया गया। इसके बाद महाराजा ने भण्डारी विजयराज को अहमदाबाद भेजे, जहाँ जाकर उन्होंने अपना अधिकार कर लिया । पश्चात् अषाढ मास में कुँवर अभयसिंहजी और भण्डारी खींवसीजी बादशाही दरबार से लौटकर जोधपुर आये और उन्होंने महाराजा से मुजरा किया और गुजरात की सुभायतें प्राप्त करने के सारे समाचार कहे। इस पर महाराजा अजितसिंहजी बड़े प्रसन्न हुए । सम्बत् १७०२ में भण्डारी खींवसीजी प्रधानगी के सर्वोच्च पद पर फिर से प्रतिष्ठित किये गये । इसके एकाध वर्ष बाद गुजरात की सुभाषत महाराजा से वापस ले ली गई । इस पर महाराजा मे भण्डारी खीवसीजी को दिल्ली में लिखा कि हम तो द्वारका की यात्रा के लिये जा रहे हैं, तुम जैसे बने वैसे गुजरात का सूबा वापस प्राप्त करना। खींवसीजी ने इसके लिये जोरों से प्रयत्न करना शुरू किया और आपको सफलता होगई। गजरात का सूबा फिर से महाराजा के नाम पर लिख दिया गया । यह कार्य कर खींवसीजी जोधपुर आये, जहाँ महाराज ने आपका बड़ा आदरातिथ्य किया ।
सम्बत् १७७५ को फाल्गुन सुदी १० को सुप्रसिद्ध नवाब अब्दुल्लाखां और असनअलीखां * मे अजितसिंहजी से बादशाह फरूखशियर को तख्त से हटाने के काम में सहयोग देने के लिये कहा। इस सलाह मशविरे में कोटा के तत्कालीन राजा दुर्जनसिंहजी तथा रूपनगर के राजा राजसिंहजी भी शामिल पाकर इन्होंने बड़ी ताकत प्राप्त करली थी। बादशाह फर्रुखशियर को इन्ह से ही तख्त पर
ये दोनों भाई सैयद बन्धुओं के नाम से मशहूर थे । समय इतिहास में ये बादशाह को बनाने वाले तथा बिगाड़ने वाले कहे गये हैं । बैठाया और बाद में इन्होंने ही उसे तख्त से उतार कर कत्ल करवा दिया। १२४
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भंडारी
बाशाह फर्रुखशियर
किये गये । फिर ये सब लोग शामिल होकर बादशाह के हुजूर में लाल किले गये । असमय में इन्हें आते हुए देखकर जनानखाने में चला गया । सुप्रख्यात इतिहास वेत्ता विलियम इहींन अपने Later Moghuls नामक ग्रन्थ के प्रथम भाग के पृष्ठ ३०२ में इस वृतान्त को इस प्रकार लिखता है: - " फर्रुखशियर अपने जनानखाने में चला गया वहाँ बेगमों और रखेलियों ने उसे घेर लिया। तुर्की युवतियों को महलों की रक्षा का भार दिया गया। सारी रात महलों में करुणा क्रन्दन होता रहा । कुतुल उलमुल्क ने जाफरखां को महलों से निकाल दिया और दीवानखाने के पहरे पर अपने सैनिक रखे । इसी समय फर्रुखशियर ने अजितसिंहजी को अपनी ओर मिलाने का विफल प्रयत्न किया । एक खोजे ने पहरेदारों की आंखों से बचकर फर्रुखशियर का पत्र अजितसिंहजी के जेब में डाल दिया उसमें लिखा था - " राजमहल के पूर्वीय भाग पर सख्त पहरा नहीं है । अगर तुम अपने कुछ आदमी वहाँ भेज दो तो मैं निकल जाऊँ। इस पर अजितसिंहजी ने जवाब दिया कि 'अब वक्त चला गया है। मैं क्या कर सकता हूँ। कुछ इतिहासकारों का यह भी मत है कि अजितसिंहजी ने यह पत्र फर्रुख शियर के पास भेज दिया मारवाड़ की ख्यात में इस घटना को इस तरह लिखा है- "फरू खशियर ने जनानखाने से महाराजा भजितसिंहजी के पास एक पत्र भेजा जिसमें जिला था - "तुम लोगों के दिल में मेरे लिये झूठा बहम पैदा कर दिया गया है। मेरी बादशाहत में जो कुछ आप करोगे वही होगा । मैं आप खोगों से कोई फर्क नहीं समक्षूंगा। मेरे आपके बीच में कुरान है । यह पत्र पढ़ कर महाराजा अजितसिंह जी खींवसीजी को लेकर एकान्त में चले गये और उन्होंने वह पत्र भण्डारी खींवसी को दिया । पत्र पढ़ कर खींवसीजी का हृदय करुणा से पसीज गया । उन्होंने बादशाह की जान बचाने के लिये महाराजा से अनुरोध किया और कहा कि इस मुसीबत में अगर हमने बादशाह की सहायता की सो वह बड़ा कृतज्ञ होगा और साम्राज्य नीति पर अपना जबर्दस्त वर्चस्व हो जायगा इस पर महाराजा अजितसिंहजी ने कहा कि फरू खशियर पहले भी मुझ से तीन दफा धोखा कर चुका है। उस वक्त सैय्यद बन्धुओं ने मुझे मदद दी । इसलिये सैयदों ही का साथ देने का मेरा विचार है।' यह सलाह मशविरा हो ही रहा था कि सैयदों के आदमी जनानखाने में गये और उन्होंने फर्रुखशियर को पकड़ा। सारे रनवास में भयङ्कर चीत्कार मच गई ! बेगमों ने बादशाह को पकड़ लिया । पर ये बेचारी ramाएँ कर ही क्या सकती थीं । सैय के आदमी बादशाह को पकड़ लाये और उसे कैद कर लिया। इसके थोड़े दिनों बाद अत्यन्त करता के साथ यह अभागा बादशाह मार डाला गया ! !
खींवसीजी द्वारा नये बादशाह का चुनाव हमने ऊपर दिखलाया है कि खींवसीजी भण्डारी का दिल्ली की साम्राज्य नीति पर भी बड़ा प्रभाव था । वे एक महान् राजनीतिज्ञ और मुस्स्सद्दी समझे जाते थे ।
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बासवान जाति का इतिहास
सम्वत् 10 मासोग मास में भण्डारी सीवसीजी और सैपदों के वजीर राजा रखचन्द शाहजादों में से मवे बादशाह को चुनने के लिए पिछी भेजे गये । २२ व सुन्दर नवयुवक साहजादे महम्मदशाह ने इनकी रष्टि को विशेष रूप से अपनी गोर आकर्षित किया। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन्होंने महम्मदशाह को पसंद कर लिया पर महम्मदशाह की माता मंजूर नहीं हुई । उसने समझा कि पादशाह बनने से जो गति पहिले दो तीन बादशाहों की हुई वही महम्मदशाह की भी होगी । इस पर सीवतीजी ने महम्मदशाह की माता को बहुत समझाया और उसे हर तरह की तसल्ली दी। इतना ही नहीं उन्होंने इष्टदेव की सौगन्ध खाकर महम्मदशाह जीवन रक्षा की सारी जिम्मेदारी अपने सिर पर ली। इस पर महम्मदशाह की माता राजी हो गई। कहने की आवश्यकता नहीं कि सीवसीजी महम्मदशाह को ले आये और जब वह दिल्ली के तख्त पर बैठा तब उसका एक हाथ महाराजा अजितसिंहजी के हाथ में और दूसरा हाथ नवाब अब्दुल्लाखों के हाथ में था। सुप्रसिद्ध इतिहासवेता विलियम इहिन ने भी भण्डारियों द्वारा बादशाह के चुने जाने की बात का उस्लेख किया है। इस समय महाराजा अजितसिंहजी का बादशाह पर जो अपूर्व प्रभाव पड़ा उसका भनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
इसके बाद खींवसीजी ने प्रयत्न कर अपने स्वामी जोधपुर परेश केलिए बादशाह से राजराजेश्वर की पदवी प्राप्त की। इसी समय महाराजा ने भण्डारी सीवसीजी को दिछी लिखा कि "हिन्दुस्थान की हिन्दू प्रजा पर जिजीया कर लगता है। किसी तरह यक्ष कर उसे माफ करवाना। भण्डारी खींवसीजी ने महाराजा की या इन्छा बादशाह पर प्रकट की। उन्होंने बादशाह को जिजिया के भयर खतरे बत लाये। बादशाह को भण्डारी खींवसीजी की युति जंच गई और उन्होंने जिजिया कर माफ कर दिया। इस प्रकार भण्डारी खींवसीजी ने अपनी कुशल गीति से सारे भारतवर्ष में हिन्दू प्रजा का असीम कल्याण
इन दिनों मारी सीकसी को बादशाह के पास कुछ अधिक दिनों तक रहने का काम पड़ा। बादसाह इनकी राजनीतिज्ञता और कार्यकुशलता से बड़ा प्रभावित हुआ। बादशाह महम्मदशाह की ओर से जोधपुर बरेत की तरफ का सिरोपाव मण्डारी खींवसीजी को हुमा । यह बात जयपुर नरेश जयसिंहजी को कमी न लगी। इसके बाद जब भण्डारी खींवसीजी ने सीख ली तब फिर उन्हें तथा उनके साथ काले १९ उमरावों की बारमाह की ओर से कोमती पोशाकें मिली । इसके बाद खींवसीमी ने जोधपुर भाकर महाराजा अजितसिंहजी से मुजरा किया । महाराजा ने आपका बड़ा सत्कार किया और कहा कि मुत्सदी से तो ऐसा हो जिसने मेरी ऐवजी माम बारमाह से करवा लिया।
Later Moghuls Vol. 1 Page 388.
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संवत् 100९ में महाराजा ने भण्डारी विसीमीको इसरिये दिली भेजा कि वह पादबाह को समझा बुझा र नवाव हसनभलीखों को कैद से छुड़वा देवे। यह इसनमकीला सैयद पन्धुणों में से था जिसने फरूखशियर को बादशाह बनाया था और बाद में उसे मरवा भी दिया था। महाराजा अजित. सिंहबी इसे भपना मित्र मानते थे। भण्डारी वसीजी दिल्ली पहुंचे। वहाँ पहले पहरू जयपुर मरेक जयसिंहजी से मापकी मुलाकात हुई। जवसिंहजी ने मापसे कहा कि हसनअलीसा का छूटना सब रटियों से हानिकारक है। फिर भण्डारी बीवसीजी नाहरकों से मिले और उन्होंने उसके हाथ महाराजा का संदेश बादशाह के पास पहुंचाया। नाहरकों ने बारमाह से कर उकटी बात कह दी कि जबतक इसनभाणीखाँ जिन्दा हैं सबतक महाराजा अजितसिंहजी दिल्ली नहीं आवेंगे। इस पर इसनमलीला मरवा दिया गया इसके बाद भण्डारी बीवसींजी और माहरला साम्भर भावे जहाँ महाराजा का मुकाम था। महाराज खींवसीजी पर बहुत नाराज हुए और कहा कि हमने तो तुम्हें इसनमकीलों को बचाने के लिये भेजा था, सुमने उक्या उसे मरवा दिया। इस पर खींवसीजी महा कि मैंने ले भाप का सन्देश नाहरणों द्वारा बादशाह के पास भेजा था पर नाहर बादशाह से उल्टी बात कही । इसपर महाराजा नाहरलॉोमरवाने का हुक्म दिया। यह बात भण्डारीबसीबीडीजी बहाना बना कर जोधपुर चले गये और महाराजा के आदमियों ने नाहरका के डेरे पर हमला कर उसे मारना ।
___ जब यह खबर बादशाह महम्मदशाह के पास पहुंची तो वह बड़ा क्रोधित हुा । उसने गुजरात मसूबा महाराजा से छीन कर हैदरअलीखों को भऔर अजमेर का सूबा मुजफ्फरनलीखाँ को दे दिया। पर महाराजा मजितसिंहजी का बड़ा दबदबा था, अतएव मुजफ्फरभलीलों की हिम्मत अजमेर पाने की न हुई। इसलिबे बादशाह ने हैदरअलीखों को अजमेर पर जाने की आज्ञा दी और तदनुसार यह अजमेर पर चढ़ मावा इसके बाद भण्डारी खींवसी और भण्डारी खुनाय के प्रयनों से मापस में सम्धि हो गई। कुछ समय पश्चात् भण्डारी खींवसीजी विद्रोही सरदारों को मनाने के लिये मेड़ते भेजे गये ।वहीं सम्बत् १.४१ केजी वदी ६ को भण्डारी नींवसीजी का स्वर्गवास हुमा।।
जब भण्डारी खींवसीजी का देहान्त हुना तब तत्कालीन जोधपुर नरेश महाराजा पतसिंहजी * दिल्ली में थे। आप भण्डारी खींवसीजी की मृत्युका समाचार सुनकर बडे दुरसित हुए । भाप दिल्ली में भण्डारी बीवसीजी के छोटे पुत्र भण्डारी अमरसीजी के डेरे पर मातमपुरसी के लिये पधारे और
• सम्बत् १७८० की भषाद सुदी १३ को महाराजा अमितसिंहजी का स्वर्गवास हो गया था। मापके बाद महाराजा बख्तसिंहबी जोधपुर के राजसिंहासन पर बैठे।
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भासवान नाति का इतिहास
उन्हें बड़ी तसल्ली दी। इतना ही नहीं खींवसीजी के शोक में एक दिन तक नौक्त बन्द रखी गई। बादशाह ने भी बढ़ा दुःख प्रकट किया।
- भण्डारी अमरसिंह भण्डारी खींवसीजी के स्वर्गवास होने के बाद महाराजा बख्तसिंहजी मे उनके पुत्र भण्डारी अमरसिंहजी को दीवानगी का सिरोपाव, बैठने का कुरुब, पालकी, हाथी, सरपंच, मोतियों की कण्ठी और जड़ाऊ कड़ा आदि देकर उन्हें सम्मानित किया। इसी समय महाराजा ने दूसरे दीपावत भण्वारियों को भी विविध पदों से विभूषित किया।
। सम्बत् १७८६ के कार्तिक मास में महाराजा जोधपुर गढ़ में दाखिल हुए, उस समय भण्डारी अमरसिंह देहली में थे। इन्होंने वहाँ से १५ लाख रुपया निकलवा कर भेजे, जिससे महाराजा ने अहमदाबाद दूर करने की तैयारी की। अहमदाबाद फतह होने के बाद भण्डारी अमरसिंह सम्वत १७४. से १५४९ तक गुजरात के नडियाद प्रान्त के शासक रहे। - सं० १७९२ में सूरत का सूवा दस हजार फौज लेकर अहमदाबाद पर चढ़ आया । अमरसिंहजी
और रखसिंहजी ने उसका मुकाबला किया। सूबा सरायतखाँ इस युद्ध में मारा गया और उसकी फौज भाग गई इस लड़ाई में रखसिंहजी के चार घाव लगे।
सम्बत् १०९२ में भण्डारी अमरसिंहजी जब दिल्ली गये तब बादशाह ने आपकी बड़ी खातिर की और भापको सिरोपाव प्रदान किया । सम्बत् १७९३ में महाराजा ने आपको रायाराव की सम्मान्नीय उपाधि से विभूषित किया। सम्वत् १८.1 तक आप दीवान के उच्च पद पर अधिष्ठित रहे। सम्वत् १८०२ में अमरसिंहजी का मारोठ में स्वर्गवास हुआ। इस समय महाराज नागोर में विराजते थे। उन्हें अमरसिंहजी की मृत्यु से बड़ा दुःख हुआ। उनके शोक में एक वक्त के लिये नौबत का बजना बन्द रखा गया इतना ही नहीं आप अमरसिंहजी के भतीजे चौलतरामजी और चचेरे भाई मनरूपजी डेरे पर मातमपुर्सी के लिये भी पधारे।
थानसिंहजी-आप भण्डारी अमरसिंहजी के भाई थे । मापने भी जोधपुर राज्य में विभिन्न पदों पर काम किया। आपने महाराजा अजितसिंहजी के हुक्म से सांभर में नाहरखाँ के ऊपर हमला कर उसे तलवार के घाट उतारा था। आप अपनी हवेली में एक राजपूत सरदार के द्वारा मारे गये। आपके दौखतरामजी और हिम्मतरामजी नामक दो पुत्र थे।
पोमसिंहजी-आप भण्डारी खींवसीजी के बड़े भ्राता थे। सम्बत् १७६५.६६ में आप जालोर के हाकिम बनाये गये । सम्बत् १७६६ में भण्डारी पोमसिंह ने देवगाँव पर फौजी पढ़ाई की और १५०००) रुपये पेशकशी के लेकर वापस लौट आये। जब मराठों ने मारवाद पर चढ़ाई की और उन्होंने जालोर के
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भंडारी
किले पर घेरा डाला तब पीमसी अपनी सेना लेकर किले पर पहुँचे और उस पर अपना अधिकार कर लिया । सम्वत् १७६९ में आप मेड़ते के हाकिम हुए। सम्वत् १०७२ की जेठ सुदी १३ को मण्डारी पोमसी और भण्डारी अनोपसिंहजी सेना लेकर नागीर पहुँचे । नागोराधिपति इन्द्रसिंहजी से तीन प्रहर तक इनकी भारी लड़ाई हुई। आखिर इन्द्रसिंह हार गये और नागोर पर इन भण्डारी बन्धुओं ने अधिकार कर लिया। जब यह खबर दरबार के पास अहमदाबाद पहुँची तो उन्होंने पोमसीजी को सोने के मूठ की तलवार भेजी और उन्हें नागौर का हाकिम बनाया और उनके नाम की मेड़ता की हुकूमत भण्डारी खेतसीजी के पोते गिरधरदासजी को दी ।
भण्डारी मनरूपजी आप मण्डारी पोमसीजी के ज्येष्ठ पुत्र थे । सम्वत् १७८२ में आप मेड़ते के हाकिम नियुक्त हुए। सम्वत् १७८२ में जब मराठों मे ५०,००० फौज से मेड़ते पर हमला किया, उस समय भण्डारी मनरूाजी और भण्डारी विजयराजजी ने मेड़ता, मारोठ और पर्वतसर की फ़ौज़ों को लेकर मेड़वा के माफकोट नामक किले की किलेबन्दी कर मराठों की फ़ौजों से मुकाबला किया। बड़ा घमासान युद्ध हुआ । आखिर दरबार ने कई लाख रुपये देकर सन्धि करती ।
जब भण्डारी अमरसिंहजी दीवान हुए तब भण्डारी मनरूपणी को एक सूबे का शासक बनाया और उन्हें पालकी, सिरोपाव, कड़ा, मोती और सरपंच भेंट किये। सम्वत् १८०४ के भाद्रपद मास में आप दीवानगी के पद पर प्रतिष्ठित किये गये और इसी समय आपको दरबार से बैठने का कुरुब मौर हाथी सिरोपाव इनायत हुआ । आप इस पद पर सम्वत् १८०६ के मार्गशीर्ष मास तक रहे । सम्बत् १८०५ की अषाढ़ सुदी १५ को महाराजा अभयसिंहनी का स्वर्गवास हो गया और महाराजा रामसिंहजी जोधपुर के राज्यसिंहासन पर बैठे । इस समय महाराजा रामसिंहजी ने मनरूपजी के बड़े पुत्र सूरतरामजी को दीवानगी का उच्चपद प्रदान किया और आपने मनरूपजी तथा पुरोहित जगुजी को अजमेर भेजा । इसके बाद महाराजाधिराज बख़्तसिंहजी और रामसिंहजी में बड़ा वैमनस्य हो गया । दोनों के बीच लड़ाइयाँ हुई । यद्यपि इस परिस्थिति में मनरूपनी ने बड़ी कुशलता से कार्य किया, पर बहुतसिंहजी यह बात भली प्रकार जान गये कि मनरूप भण्डारी हर तरह से रामसिंहजी की ! सहायता कर रहे हैं। अतएव उन्होंने इन्हें मरवाने का निश्चय किया ।
जब भण्डारी मनरूपजी सम्वत् १८०७ की कार्तिक सुद २ को महाराज रामसिंहजी के मुजरे से लौट कर पालकी से उतर रहे थे, उस समय बख़्तसिंहजी के भेजे हुए पातावत ने उन पर तलवार से हमला किया। मनरूपजी बुरी तरह घायल हुए और उनके १३ टाँके लगे । जब यह समाचार महाराजा रामसिंहजी को मिला तो वे बड़े दुःखित हुए और वे तुरन्त मनरूपजी के डेरेपर कुशल समाचार
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भोसवाल जाति का इतिहास
पूछने के लिये गये और उन्होंने इनके पुण्य के लिये ४०००) धर्मार्थ में बाँटे । पीछे सम्वत् १८०७ की कार्तिक खुद १४ को मनरूपी दीपाबड़ी नामक गांव में स्वर्गवासी हुए ।
भण्डारी सूरत रामजी - आप भण्डारी मनरूपजी के ज्येष्ठ पुत्र थे । सम्वत् १७९९ के कार्तिक मास में दरबार ने इन्हें फ़ौज़ देकर अजमेर की ओर भेजा। आपने अजमेर, राजगढ़, भीनाय, रामसर आदि स्थानों पर अधिकार किया। इन स्थानों पर जयसिंहजी के जो हाकिम थे, वे भाग गये। उनके स्थान पर जोधपुर के हाकिम रखे गये। इसके बाद सम्बत् १८०४ में भण्डारी सूरतरामजी जोधपुर के हाकिम बनाये गये । महाराजा रामसिंहजी सम्वत् १८०६ की श्रावण सुदी १० को जोधपुर के राज्यसिंहासन पर बिराजे और उसी दिन आपने भण्डारी सूरतरामजी को दीवानगी के पद पर नियुक्त किया। उक्त पद के कार्य संचालन में भण्डारी थानसिंहजी के पुत्र ( खींवसीजी के पौत्र ) भण्डारी दौलतरामजी भी सम्मिलित ये । इस पद पर आप लोग सम्वत् १८०७ की आसोज सुदी १० तक रहे। इसी साल के कार्तिक मास में सूरतरामजी और दौलतरामजी आदि को क़ैद हुई और सवा लाख रुपये की कवुलियत करवा कर ये छोड़े गये । जब १८०७ में राजाधिराज बख़्तसिंहजी ने जोधपुर पर अधिकार किया उस समय भण्डारी दौलतरामजी उनके ख़ास मुसाहिबों में से थे ।
मनरूपजी के दूसरे पुत्र मलुकचन्दजी के खींवसीजी की हवेली में मारे जाने का हाल हम पहले दे चुके हैं। मनरूपजी के वंश में इस वक्त भण्डारी मकतूलचन्दजी हैं, जो इस वक्त जोधपुर में वकालात करते हैं । भण्डारी दौलतरामजी - आप भण्डारी थानसिंहजी के पुत्र थे । जब महाराजाधिराज बख़्तसिंहजी सम्वत् १७९० में अहमदाबाद से जोधपुर लौटे तब दरबार ने आपको अपने हाथी के हौदे पर बैठाया और रुपयों की उछाल करवाई । सम्वत् १७९९ में आप जोधपुर के हाकिम हुए । सम्वत् १८०४ के भादवा में मनरूपजी के दीवान होने पर आपको सूबेदारी, बैठने का कुरूब और पालकी, सिरोपाव इनायत हुआ । सम्वत् १८०७ की वैशाख बदी ९ के दिन एक लड़ाई में भण्डारी दौलतरामजी के हाथ पर तीर लगा और उनका घोड़ा मारा गया । सम्वत् १८१२ की ज्येष्ठ सुदी १५ को भण्डारी दौलतरामजी तथा उनके छोटे भ्राता हिम्मतरामजी, भण्डारी अमरसिंहजी के पुत्र भण्डारी जोध सिंहजी और भण्डारी सूरतरामजी को क़ैद से मुक्त किया गया । सम्बत् १८१७ की वैशाख सुदी १२ को भण्डारी. दौलतरामजी का स्वर्गवास हुआ। उनकी धर्मपत्नी उनके साथ सती हुई ।
भण्डारी भवानीरामजी - आप भण्डारी दौलतरामजी के पुत्र थे । सम्वत् १८१३ की श्रावण बदी १२ को आप जोधपुर राज्य के फौजबख्शी ( प्रधान सेनापति ) के उच्चपद पर अधिष्ठित किये गये । आपने कई वीरोचित कार्य्यं किये ।
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मंडारी
भण्डारी थानसिंहजी के वंश में इस समय भण्डारी किशोरमलजी, भण्डारी जीवनमलजी, भण्डारी लाभमलजी, भण्डारी मोतीचन्दजी आदि सज्जन हैं। भण्डारी किशोरमलजी कलकते में व्यापार करते हैं। भण्डारी जीवनमलजी कई वर्ष तक रीयां ठिकाने के कामदार रहे और इस वक्त शायद वकालात करते हैं। भण्डारी लाभचंदजी महाराजा फतहसिंहजी के पोस कामदार हैं। भण्डारी मोतीचन्दजी सोजत में पुलिस सर्कल इन्सपेक्टर हैं। इस महकमे में आप अच्छे लोकप्रिय रहे । भण्डारी जीवनमलजी के पुत्र नवरत्नमलजी ने गतसाल बी० ए० पास किया है। ये होनहार युवक मालूम होते हैं ।
भण्डारी अमरसिंहजी का वंश भण्डारी अमरसिंहजी के जोधसिंहजी और सावंतसिंहजी नामक दो पुत्र हुए। जोधसिंहजी मेड़ता अजमेर आदि कई स्थानों के हाकिम रहे। आप बड़े पहलवान थे । आपने एक नामी पहलवान को पछाड़ा था । आपका मेड़ते में स्वर्गवास हुआ, जहाँ अभी आपके स्मारक चौतरा बना हुआ है। इनके छोटे भ्राता सावन्तसिंहजी भी हाकिम रहे। जोधसिंहजी के पाँच पुत्र हुए, जिनमें कस्यानदास और अचलदासजी का परिवार मौजूद है।
मण्डारी हरिदासजी - आप कश्याणदासजी के पौत्र थे । आप नामाक्ति हुए । आप साम्भर और नावां के हाकिम रहे और सम्बत् १९४३ से १९६० तक जोधपुर के खजांची रहे । आपका स्वर्गवास ६८ वर्ष की आयु में सम्वत् १९६० की माघ सुदी २ को हुआ। आपके दो पुत्र भण्डारी किशनदासजी और भण्डारी विशनदासजी अभी विद्यमान हैं। भंडारी हरिदासजी के गुजरने के बाद किशनदासजी ने सम्वत् १९६० से सम्वत् १९७८ तक खजांची (पोतदारी) का काम किया। भंडारी विशनदासजी ने भी खजाने में सर्विस की । आप सुधारक विचारों के सज्जन हैं। कला से आपको प्रेम है । भंडारी किशनदासजी के दो पुत्र हुए जिनमें माणकराजजी सम्वत् १९७५ में स्वर्गवासी हुए। दूसरे पुत्र मदनराजजी घरू कारोबार करते हैं। माणिकराजजी के पुत्र मोहनराजजी ट्रिब्युट में सर्विस करते हैं। भंडारी विशनदासजी के पुत्र इन्द्रसिंहजी पुलिस विभाग में सर्विस करते हैं और अमरसिंहजी पढ़ते हैं।
भण्डारी करणीदानजी -- आप अचलदासजी के पुत्र थे आप मेड़ते के हाकिम रहे। सम्वत् १९२६ की अषाद वदी ७ को आपका देहावसान हुआ । आपके महादानजी, सतीदानजी, आईदानजी, जगजोतदानजी आदि आठ पुत्र हुए। इनमें जगजोतदानजी इस समय विद्यमान हैं। दीपावत भंडारियों में आप सबसे बुजुर्ग सज्जन हैं। आपको अपने पूर्वजों के पर्वानों पर जोधपुर दरबार से गतसाल ४०० ) का पुरस्कार मिला है। भंडारी खानदान के कई रुक्के आपके पास हैं। आपके पुत्र भगवतीदानजी कलकते में जवाहरात का काम करते हैं और फतहदानजी के पुत्र अम्बादानजी जवाहरात की दलाली करते हैं ।
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ओसवाल जाति का इतिहास
जेठमल लाडमल भंडारी, मद्रास भंडारी जेठमली सीबसीबी के परिवार में हैं । भापका कुटुम्ब सांचोर में रहता है। भणी जेठमजी का स्वर्गवास संवत् १९०४ में हुआ । आपके प्रतापमलजी, लाडमलजी तथा हीरालाजी नामक । पुत्र हुए इनमें प्रतापमक जी तथा हीरालालजी सांचोर में ही निवास करते हैं।
भंगरी लाइमलजी का जन्म संवत् १९६५ में हुभा । आपने एफ० ए० तक शिक्षा पाई । आपका विवाह जोधपुर में गणेशमलजी सराफ के यहाँ हुआ है। इस समय आप उनके पुत्र सरदारमलनी सराकरे साथ सरदारमल लाडमल के माम से मदास में कारबार करते हैं।
भण्डारी रायचन्दजी का परिवार भंडारी रायचन्दनी, भंडारी दीपाजी के चतुर्थ पुत्र थे। जाप बढ़े वीर और रणकुशल थे। आप जोधपुर राज्य की सेना के प्रधान सेनापति थे और आपने कई छोटी बड़ी लड़ाइयों में भाग लिया था। सम्वत् १७३९ की भादवा वदी ९ को राणापुर में गुजरात के शासक महम्मद के साथ जोधपुरी सेना का युद्ध हुमा था, उसमें भंडारी रायचन्दजी ही वीरता के साथ युद्ध करते हुए काम आये ।
भण्डारी रघुनाथसिंहजी-जिन महान् राजनीतिज्ञों एवं वीरों ने रानस्थान के इतिहास के पृष्ठों को उज्ज्वल किया है, उनमें भंडारी रघुनाथसिंहजी का आसन बहुत उँचा है। ये अपने समय के महापुरुष थे और मारवाड़ की राजनीति के मैदान में इन्होंने बड़े-बड़े खेल खेले। आज भी मारवाद की जनता बड़े गौरव के साथ इनका नाम लेती है । “भजे दिलीरो पातलाह और राजा तू रघुनाथ" की बहावत मारवाद के बच्चे बच्चे के मुंह पर है। यह बात निःसन्देह रूप से कही जा सकती है कि मारवाड़ में जितना प्रकाश इनकी कीर्ति का फैला उतना दो एक मुसदियों ही का फैला होगा। खींवसीजी ही की तरह इनका प्रभाव भी केवल राजस्थान की सीमा तक ही परिमित नहीं था, वरन उत्तर में ठेठ दिल्ली और दक्षिण पश्चिम में गुजरात तक की राजनीति पर इनका बड़ा प्रभाव था। महाराजा अजितसिंहजी के जमाने में मुत्सदियों में दो सबसे अधिक प्रकाशमान तारे थे-एक खोवसीजी और दूसरे रघुनाथसिंहजी । दुःख की बात है कि इनका पूरा इतिहास उपलब्ध नहीं है।
सम्बत् १०१६ में भंडारी रघुनाथजी दीवानगी की प्रतिष्ठित पद पर अधिष्ठित किये गये। इस दीवानगी के काम को मापने बड़ी ही उत्तमता के साथ किया और इसके उपलक्ष्य में महाराजा अजितसिंहजी ने सम्वत् 2010 में भापको सपरावां की सर्वोच उपाधि से विभूषित किया। इसी समय महाराजा ने आपको हाथी, पालकी, सिरोपाव, मोतियों की कंठी आदि देकर सम्मानित किया।
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भण्डार
सम्वत् १७७१ में बादशाह फर्रुखसियर किसी कारणवच महाराजा भजितसिंहजी से नाराज हो गया और उसने अपने सेनापति सैयद हुसेनअली बख़शी को बड़ी सेना देकर मारवाद पर भेजा । इस समय महाराजा ने अपने राज्य के हित की दृष्टि से बादशाही फौज से लड़ना ठीक नहीं समझा। उन्होंने सैयद हुसेनअली से सन्धि करली । इतना ही नहीं उन्होंने बादशाही दरबार में अपने अनुकूल परिस्थिति पैदा करने के लिए महाराजकुमार अभयसिंहजी और भंडारी रघुनाथसिंहजी को भेजा । बादशाह ने आप लोगों का बड़ा आदर किया । भंडारी रघुनाथसिंहजी ने बादशाह को बड़ी ही कुशलता के साथ समझाया और महाराजा अजितसिंहजी के लिए उसके मनमें सद्भाव उत्पन्न कर दिये ।
को इतना खुश कर दिया कि उसने महाराजा का गुजरात की सूबेदारी पर नियुक्त किया । सम्वत् अभयसिंहनी के साथ जोधपुर लौटे तब वहां उनका मे उनकी इन महान् सेवाओं की बड़ी प्रशंसा की ।
भंडारी रघुनाथसिंहजी ने बादशाह मम्सब छः हजारी जात छः हजार सवारों का कर उन्हें १७७२ में जब भंडारी रघुनाथसिंहजी महाराजा कुमार राज्य की ओर से बड़ा आदरातिथ्य किया गया । दरबार
सम्वत् १७७० के चैत्र में भंडारी खींवसीजी क़ैद से मुक्त हुए और दरबार ने आसोप के डेरे में उन्हें प्रधानगी का सर्वोच्च पद प्रदान किया गया । इस समय भंडारी रघुनाथ भंडारी खीवसीजी के साथ प्रधानगी का काम करने लगे। कुछ वर्षों तक आप लोगों ने साथ-साथ काम किया। महाराजा आपके कार्मों से बड़े प्रसन्न हुए और आप दोनों बन्धुओं को हाथी, पालकी, सिरोपाव, जड़ाऊ कड़ा, मोतियों की कंठी, तलवार और कटारी देकर सम्मानित किया ।
सम्वत् १७७९ में महाराजा अजितसिंहजी ने फिर महाराजकुमार अभयसिंहजी के साथ भंडारी रघुनाथसिंहजी को बादशाह के हुजूर में दिल्ली भेना । इस समय आप कई मास तक दिल्ली रहे। आपकी बादशाह से बड़ी घनिष्टता हो गई । बादशाह आपकी सलाह को बहुत मान देने लगा। इसके बाद जब आप दिल्ली में थे तब संवत् १७८१ की अषाढ़ सुदी १३ को महाराजा अजितसिंहजी उनके पुत्र बख्तसिंहजी द्वारा मार डाले गये ।
सरदारों की नाराजी - भंडारी रघुनाथ और भंडारी खींवसी का अपूर्व प्रताप मारवाड़ के लगे और किसी न किसी प्रकार उन्हें
सरदारों से देखा न गया। वे उनसे बड़ा विद्वेष करने अपने गौरव से गिराने का यत्न करने लगे । बहुत से सरदारों ने विद्रोह कर दिया । मथुरा सुकाम पर कुछ सरदारों ने तत्कालीन महाराज से कहा कि सब सरदार भंडारियों से नाराज है और जब तक भंडारी कैद न किये जायेंगे वे सन्तुष्ट न होंगे। महाराजा ने अपनी इच्छा के विरुद्ध सरदारों की बात स्वीकार करली। उन्होंने भंडारियों को कैद करने का हुक्म दे दिया। इस समय भंडारी खींवसी के पुत्र
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सवाल जाति का इतिहास
भंडारी थानसिंह और पोमसिंह भंडारी के पुत्र मलूकचंद को देवड़ा रींवा नामक डाला । यहाँ यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि महाराजा की आज्ञा उन्हें कैद करने की थी । भंडारी खींवसी और भंडारी रघुनाथ भी कैद कर लिये गये । के सब नामी भंडारी जेल में डाल दिये गये । कई भंडारी पीछे महाराजा को भंडारी रघुनाथ को छोड़ने के लिये मज़बूर किया। सौंपा गया ।
राजपूत सरदार ने मार मरवाने की न थी, सिर्फ
इस समय प्रायः सब रुपये देकर छूटे । राजनैतिक परिस्थिति ने फिर भंडारी रघुनाथ को राज्य कार्य्यं
इसके बाद सम्वत १७८५ में फिर अन्य भंडारियों के साथ राय रघुनाथसिंहजी को भी कैद हुई। पर थोड़े ही दिनों के बाद जयपुर नरेश ने जोधपुर पर चढ़ाई की । जयसिंहजी के पास बड़ी भारी फौज थी और जोधपुर राज्य का अस्तित्व तक खतरे में पड़ गया था। ऐसी कठिन परिस्थिति में निरुपाय होकर दरबार ने फिर भंडारी रघुनाथ को कैद से मुक्त किया और उन्हें बुलाकर कहा कि हालत बड़ी माजुक है। जयसिंहजी फौज लेकर चढ़ आये हैं और घर का भेद फूटा हुआ है। तुम बड़े फाड़ खोड़ करने वाले आदमी हो । अब ऐसा उपाय करो जिससे जयसिंहजी वापस लौट जावें । अगर तुम यह काम कर सको तो तुम्हारी बड़ी भारी बंदगी समझी जायगी। इस पर भंडारी रघुनाथसिंहजी ने अर्ज की कि खाविंदो की कृपा से सब ठीक हो जायगा । इसके बाद भंडारी रघुनाथजी जयसिंहजी के पास गये । यहाँ यह कह देना आवश्यक है कि जयसिंहजी पर भंडारी रघुनाथजी का बड़ा भारी प्रभाव था । वे इन्हें राजस्थान के बड़े मुत्सुद्दी मानते थे । ज्योंही भंडारीजी जयसिंहजी के पास पहुँचे त्योंही महाराजा जय सिंहजी ने खड़े होकर आप का स्वागत किया और पीछे मारवाड़ी भाषा में कहा - " भंडारी आवो माको आवणो हुवो जब थाँको छुटको हुवो ।”
इसके बाद भंडारी रघुनाथजी मे जयसिंहजी को फौज खर्च के लिये दस लाख रुपये देने का वायदा कर उन्हें वापस लौटा दिया। रुपयों की जमानत के लिये खुद भंडारी रघुनाथ, भंडारी मनरूप, भंडारी अमरदास, भंडारी रत्नसिंह और भंडारी मेघराज आदि मुत्सुद्दियों को भल में दे दिये गये। हम पहले कह चुके हैं कि भंडारी रघुनाथजी का जयपुर नरेश महाराजा जयसिंहजी पर बड़ा प्रभाव था । ये शीघ्र ही छूट कर जोधपुर आगये और उन्होंने महाराजा से मुजरा किया।
इस प्रकार जोधपुर राज्य की कई महत्वपूर्ण सेवाएं करने के बाद भंडारी रघुनाथ सम्बत १७९८ में मेड़ता मुकाम पर स्वर्गवासी हुए ।
भण्डारी अनोपसिंहजी— भाप भंडारी रघुनाथसिंहजी के पुत्र थे । आप बड़े बहादुर और १३४
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भण्डारी रण कुशल थे। आप जोधपुर के हाकिम थे। आपने नागोर पर चढ़ाई कर वहाँ किस प्रकार अपना अधिकार किया इसका वर्णन हम "ओसवालों के राजनैतिक महत्व" नामक अध्याय में कर चुके हैं।
सम्बत २०१७ में महाराजा अजितसिंहजी ने आपको फौज देकर अहमदाबाद भेजा । वहाँ जाकर आपने उक्त नगर पर अधिकार कर लिया। फिर भंडारी रत्नसिंहजी को वहाँ का शासन भार सौंप कर भाप लौट आये।
सम्बत १७०२ के माघ मास में जब महाराजा अभयसिंहजी दिल्ली पधारे तब मारवाड़ का शासन भार राजाधिरान बख्तसिंहजी पर रखा गया और भंडारी अनोपसिंहनी उनके सहायक बनाये गये ।
सम्बत १७८५ में आनन्दसिंह रायसिंह ने जालौर के गाँवों पर हमला किया, तब उनके मुका. बिले में भंडारी अनोपसिंह ससैन्य भेजे गये। आपके पहुंचते ही दोनों बागी सरदार भाग खड़े हुए । दरवार के हुक्म से आपने पोकरण पर चढ़ाई कर उस पर अधिकार कर लिया।
भण्डारी केसरीसिंहजी भाप भंडारी अनोपसिंहजी के ज्येष्ठ पुत्र थे। जान पड़ता है कि भंडारी भनोपसिंहजी के और भी पुत्र थे, जिनमें माणिकचंद्रजी का नाम हमने पुष्कर के पते की यही में देखा । पर उनके अन्य पुत्रों का हाल उपलब्ध नहीं है।
भंडारी केसरीसिंहनी का समय दीपावत भंडारियों की अवनति का था। इस समय अर्थात् सम्बत १७४० के लगभग भंडारी खींवसीजी के वंशज और केसरीसिंहजी कैद किये हुये थे। भंडारियों की ख्यात में केसरीसिंहजी के कैद होने और उन्हें सरदारों के सिपूर्द होने मात्र का उल्लेख है। जान पड़ता है कि इनके समय में राज्य द्वारा भंडारी रघुनाथजी की हवेली और जायदाद जप्त करली गई और ये बड़ी मुसोबत की हालत में जैतारण चले गये। इनके दो पुत्र थे, जिनमें पहले पुत्र अखेचन्दजी जैतारण रहे और दूसरे मेड़ते तथा बीलाड़े रहे। भंडारी केसरीसिंहजी का सम्बत १८५५ के लगभग जैतारण में देहान्त हुआ। उनकी पत्नी उनके साथ सती हुई जिसका चौंतरा बना हुआ है । भंडारी अखेचन्दजी के फौजराजजी और जवाहरमलजी नामक दो पुत्र हुए। फोजराजजी के मुलतानमलजी और गम्भीरमलजी नामक दो पुत्र थे। मुलतानमलजी बड़ी वीर प्रकृति के थे। सम्बत १९१४ के विद्रोह में आप अंग्रेजी सेना में भर्ती हुए और थोड़े ही दिनों में अंग्रेजी भारतीय फौज में अफसर हो गये । आपको अंग्रेजी सेनापतियों से अच्छे अच्छे प्रशंसापत्र मिले थे। मुलतानमलजी और गम्भीरमलजी निःसन्तान गुजरे ।
जवाहरमलजी के शिवनाथचंदजी नामक पुत्र हुए। आप न्यापार करने के लिए केतुली (मालवा) गये थे। वहाँ सम्बत १९२५ में पच्चीस वर्ष की अवस्था में आपका देहान्त हुआ। आपके पुत्र भण्डारी जसराजजी हुए।
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बोसवाब जाति का इतिहास
भण्डारी जसराजजी-आपका जन्म सम्वत १९१६ में हुआ। अपने पिताजी की मृत्यु के समय इनकी अवस्था केवल ९ वर्ष की थी। दस वर्ष की अवस्था में आप कच्ची सड़क से ऊँट की सवारी पर जैतारण ( मारवाड़) से भानपुर ( इन्दौर रान्य ) में आये और अपने नाना जीतमलजी कोठारी के निरीक्षण में दूकान का काम करने लगे। थोड़े ही दिनों में आपने व्यापार में अच्छी पारदर्शिता प्राप्त करली । सम्वत १९४८ में आप वहाँ की सुप्रसिद्ध श्रीकिशन शिवनारायण नामक फर्म पर अपने नाना के स्थान पर मुनीम हो गये । उक्त फर्म के मालिक इन्दौर के सुप्रसिद्ध जागीरदार श्रीमान् सांवतरामजी कोठारी थे । भण्डारीजी ने उक्त फर्म का कार्य सुचारू रूप से सञ्चालित किया। इसके बाद सम्बत १९५७ में आपने जसराज सुखसम्पतराज नामक स्वतन्त्र फर्म खोली। भानपुर में इस फर्म की अच्छी प्रतिष्ठा थी । भण्डारी जसराजजी भानपुर परगने में अच्छे लोकप्रिय और प्रतिष्ठित साहूकार समझे जाते थे। आपका देहान्त सम्वत १९४१ में हुआ । आपके सुखसम्पतराज, चन्द्रराज, मोतीलाल और प्रेमराज नामक चार पुत्र हुए।
भण्डारी बन्धु-जसराजजी के बड़े पुत्र सुखसम्पतिराजजी का जन्म सम्वत १९५० की अगहन सुदी १४ को हुभा। ईसवी सन् १९१३ में भाप श्री.वेङ्कटेश्वर समाचार और सन् १९१४ में सद्धर्म प्रचारक के संयुक्त सम्पादक हुए। ईसवी सन् १९१५ में इन्होंने पाटलिपुत्र के संयुक्त सम्पादक का कार्य किया। इस समय इस पत्र के प्रधान सम्पादक सुप्रख्यात इतिहास वेत्ता श्रीमान् के. पी. आयसवाल बैरिस्टर थे। इसके दूसरे ही साल ये इन्दौर राज्य के "मल्लारि मार्तण्ड” नामक साप्ताहिक पत्र के हिन्दी सम्पादक हुए । ईसवी सन १९२३ में इन्होंने अजमेर से "नवीन भारत” नामक साताहिक पत्र को सञ्चालित किया। ईसवी सन् १९२६ से आपने इन्दौर दरवार की सहायता से "किसान" नामक मासिक पत्र निकाला जो चार वर्ष तक चलता रहा। इस पत्र की स्वर्गीय लाला लाजपतराय ने अपने ( People ) नामक सुप्रख्यात पत्र में बड़ी प्रशंसा की और भारतवर्ष के घर-घर में इसके प्रचार की आवश्यकता बतलाई और भी कई देशमान्य नेताओं ने, कृषि विद्या विशारदों ने तथा हिन्दी के प्रायः सब समाचारय पत्रों ने "किसान" की बड़ी सराहना की।
कई प्रसिद्ध पत्रों के सम्पादन करने के अतिरिक्त भण्डारी सुखसम्पतिरायजी ने हिन्दी में लगभग बावीस ग्रन्थ लिखे। इनमें "भारतदर्शन" पर स्वर्गीय लाला लाजपतरायजी ने और "तिलक दर्शन" पर माननीय पण्डित मदन मोहन मालवीयजी ने भूमिका लिखी। इनका राजनीति विज्ञान हिंदी साहित्य सम्मेलन की उत्तमा परीक्षा में राजनीति विषय की पाठ्य पुस्तक मुकर्रर की गई है। "भारत के देशी राज्य" नामक ग्रन्थ पर इन्हें इन्दौर दरबार से १५०००) का वृहत पुरस्कार मिला। राजपूताना सेन्ट्रल इण्डिया के एज्युकेशन बोर्ड ने इस ग्रन्थ को एफ.ए.के लिये रेपिड रीडिंग ग्रन्थ के बतौर स्वीकार किया था।
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ओसवान जाति का इतिहास
श्री सुखसम्पत्तिरायजी भण्डारी एम. आर. ए. एस., इन्दौर.
श्री चन्द्रराजजी भण्डारी 'विशारद', भानपुरा ( इन्दौर)
श्री मोतीलालजी भण्डारी एच. एल. एम. एस., इन्दौर.
श्री प्रेमराजजी भण्डारी बी. ए. सपत्न
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भंडारी
इन्होंने लगभग बीस हजार पृष्टों का एक विशाल अंग्रेजी हिन्दी कोष लिखा है। डॉक्टर गंगानाथ झा, सर पी० सी० रॉप, डाक्टर राधाकुमुद मुकर्जी, डॉक्टर वुलमर आदि कई अन्तर्राष्ट्रीय कीर्ति के विद्वानों ने इस ग्रन्थ को भारतीय साहित्य का अटल स्मारक कहा है। इसके अतिरिक्त बॉम्बे कॉनिकल, पायोनियर, ट्रिब्यून आदि प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिकों ने इसे भारतीय साहित्य का सबसे बड़ा प्रयत्न कहा है। "प्रताप" "भारत" "स्वतन्त्र” 'भारतमित्र' 'भभ्युदय' आदि बीसों पत्रों ने इस प्रन्थ के महत्व और उपयोगिता पर सम्बे-लम्बे सम्पादकीय लेख लिखे हैं । इस कोष के काम को श्रीमान् वाइसराय महोदय ने “महान् प्रयत्न कहा है और उसके लिये हर प्रकार की सहायता का ऑफर दिया है।
ईसवी सन् १९२०-२१ के राजनैतिक आन्दोलन में भी इन्होंने भाग लिया था। इसी साल पे ऑल इण्डिया कांग्रेस कमेटी के सदस्य चुने गये। यहाँ यह बात ध्यान में रखना चाहिये कि देशी राज्यों में सबसे पहले ईसवी सन १९२० में इन्दौर में इन्होंने कांग्रेस कमेटीको स्थापना की और इसका सत्तर इनके मकान हो पर रहा। इन्दौर में प्रजा परिषद होने के लिये इन्होंने "मल्लारि मार्तण्ड विजय" में जो भान्दोलन उठाया और वहाँ धूमधाम से परिषद हुई। नागपुर कांग्रेस के समय देशी राज्यों की प्रमा के उत्थान के लिये राजपूताना मध्य भारत सभा की स्थापना हुई जिसके सभापति श्रीयुत राजा गोविंदलालजी पीती, प्रधान मन्त्री श्रीयुत कुंवर चांदकरणजी शारदा तथा संयुक्त मन्त्री श्रीसुखसम्पतिरापजी चुने गये। इस समय आपका विशेष समय साहित्य सेवा ही में जा रहा है।
- जसराजजी के दूसरे पुत्र श्री चन्द्रराजजी का जन्म सम्बत १९५९ के कार्तिक सुद को हुभा। सम्बत १९०६ में इन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन की विशारद परीक्षा पास की। इसके बाद ये साहित्य सेवा में लगे। इन्होंने करीब १५ महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं जिनमें भगवान् महाबीर और समाज विज्ञान का बड़ा आदर हुआ यह ग्रन्थ हिन्दी साहित्य सम्मेलन की उत्तमा परीक्षा के पाठ्य क्रम में नियत है और इस पर इन्दौर की होलकर हिन्दी कमेटी ने स्वर्ण पदक प्रदान किया है भगवान महावीर की पं० लालन और लाला हरदयाल सरीखे प्रतिष्ठित विद्वानों ने बड़ी प्रशंसा की। समाज विज्ञान को डा गंगानाथमा इत्यादि हिन्दी के कई प्रख्यात विद्वानों ने अपने विषय का अपूर्व अन्य कहा और हिन्दी के प्रायः सब समाचार पत्रों ने इसकी बड़ी ही अच्छी समालोचना की । कुछ पत्रों में तो इस ग्रन्थ के महत्व पर स्वतन्त्र लेख प्रकाशित हुए। 'विशाल भारत' 'माधुरी' 'सुधा' 'चाँद' और “वीणा" नामक मासिक पत्रों में इनके कई विचारपूर्ण लेख प्रकाशित होते रहते हैं। इन्होंने अपने कुछ मित्रों के सहयोग से भारतीय व्यापारियों का इतिहास नामक महाविशाल अन्य प्रकाशित किया, जो तीन बड़ी-बड़ी जिल्दों में है हाल में इन्होंने "संसार की भावी संस्कृति" नामक ग्रन्थ लिखा है जो शीघ्र ही प्रकाशित होगा।
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मोसवाल जाति का इतिहास
जसराजजी के तीसरे पुत्र का नाम श्री मोतीलालजी भंडारी है। मैट्रिक तक शिक्षा पास कर इन्होंने वैद्यक और होमियोपैथी का अध्ययन किया। इन्होंने पटना के होमियोपैथिक कॉलेज से डिग्री प्राप्त की और इस वक ये इन्दौर में सफलता पूर्वक होमियोपैथी की प्रेक्टिस करते हैं।
असराजजी के चौथे पुत्र का नाम प्रेमराजजी भण्डारी है। इन्होंने इसी साल बी० ए० पास किया । ये नवीन विचारों के और समाज सुधारक हैं। इन्होंने पर्दा की हानिमक प्रथा को अपने घर से उठा दिया । इनकी धर्मपत्नी श्रीमती सी• नजरकला सुशिक्षित महिला है।
भंडारी सुखसम्पतिरायजी के पूर्व प्रसन्नकुमार, वसंतकुमार, चन्द्रराजजी के प्रभात कुमार, और विजय कुमार तथा भंडारी मोतीलाऊजी के पुत्र नरेन्द्रकुमार हैं। प्रेमराजजी की कन्या का नाम भारदा देवी है। भंडारी सुखसम्पतीरापजी की बड़ी कन्या स्नेहलता कुमारी की वय १४ साल की है। ये विद्याविनोदिनी की प्रथमा परीक्षा पास कर चुकी है। गृह कार्य व सीनेपिरोने की कला में दक्ष है तथा सुधारक विचारों की बालिका है।
भण्डारी खेतसीजी का परिवार
भण्डारी खतसीजी-आप भंडारी दीपाजी के द्वितीय पुत्र थे। आपने जोधपुर राज्य की प्रशंसनीय सेवाएं की। जब महाराजा जसवन्तसिंहजी का सम्बत् १७३५ में पेशावर मुकाम पर स्वर्गवास हो गया, तब वहां से महाराजा की फौज को वापस लानेवाले व्यक्तियों में भारी भगवानदासजी, भंडारी सेतसीजी और भंडारी कालचन्दजी मादि थे। भापके उदयकरणजी, विजयराजजी, ठाकुरदासजी और लक्ष्मीचन्दजी नामक चार पुत्र हुए।
भण्डारी विजयराजजी-जिन मोसवाल मुस्सदियों ने जोधपुर राज्य के इतिहास को गौरवान्वित किया है उनमें भण्डारी विजयरामजी अपना विशेष स्थान रखते हैं। पहले पहल सम्बत् १७६७ में आप मेड़ते के हाकिम बनाये गये। जब सम्बत् १७६८ में शाहजादा फरुखसियर ने ८०००० फौज लेकर दिल्ली पर चदाई की उस समय जोधपुर दरवार की ओर से भण्डारी विजयराजजी तत्कालीन मुगल बादशाह की सहायता के लिये ससैन्ध भेजे गये। उस समय महाराजा अजितसिंहजी ने आपको यह संकेत कर दिया था कि दो दलों में जिस दल की विजय हो उसी भोर तुम मिल जाना। भंगरी विजयराजजी ने महाराजा की इस सूचना का भली प्रकार पालन किया। शाहजादा फर्रुखसियर ने विजयी होकर जब दिल्ली के सस्तकी ओर प्रयाण किया तो भंडारी विजयराजजी उसकी भोर मिल गये।
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भयहारी
सम्बत् १७०१ में भंडारी सीबसीजी मे आपको मारोठ, परबतसर, केकड़ी आदि परगमों पर अधिकार करने के लिये भेजे ।
सम्वत् १७६९ में आपने जोधपुर राज्य की ओर से डीडवाणा मुकाम पर मुगलसेना से सामना किया और उसमें विजय प्राप्त की । सम्बत १७०१ के मिगसर मास में आप गुजरात के सूबे पर अमल करने के लिये भेजे गये और उसमें आपको सफलता मिली । सम्बत १७७१ में महाराजा ने बादशाही मुसाहिब नाहरवां को मरवा दिया। इससे बादशाह बढ़ा क्रोधित हुआ और उसने हुसेनभलीखां के नेतृत्व में एक बड़ी सेना भेजी। सवाई जयसिंहजी भी अपने बहुत से उमरावों के साथ शाही सेना में मिल गये । भंडारी विजयसिंहजी शाही सेना से मुकाबला करने के लिए प्रस्तुत हो गये । अन्त में सन्धि हो गई और शाही सेना वापस लौट गई ।
सम्बत १७४५ में जोधपुर महाराणा को बादशाह से अहमदाबाद का सूवा मिला, लेकिन वहाँ के गाव मे इनसे कहा कि "सूवा कागजों से नहीं, तलवारों से मिलता है" इस समय महाराजा बहुतसी सेना लेकर अहमदाबाद पर चढ़ दौबे, उस समय लड़ाई में एक मोर्चे का मुखिया भंडारी विजेराजजी को तथा २ मोचों का मुखिया इनके भतीजे भंडारी गिरधरदासजी तथा भंडारी रखसिंहजी को बनाया । संवत १०८० की आसोज सुदी १० को भारी लड़ाई हुई और इसमें दरबार की विजय हुई और इन्होंने शत्रु कीबन्दूकें तथा हाथी छीन लिये। संवत् १७८१ में भंडारी विजबराजजी को मारोठ तथा परवतसर का हाकिम बनाया और सिरोपाव प्रदान किया ।
संवत् १७८७ के अषाढ़ मास में मराठे १० हजार फौज लेकर चौथ लेने के लिए मारवाद पर चढ़ आये, तब मारोठ की फौज लेकर भंडारी विजेराजजी ने उनका सामना किया। इसी प्रकार संवत १७८९ के फाल्गुन में मराठों ने ७० हजार फौज से पुनः चढ़ाई की, उस समय भंडारी विजयराजजी तथा रत्नसिंहजी मे मारोठ और परवतसर की सेना से तथा मनरूपजी ने और मूल्मजीवराज ने सोजत की सेना से मुकाबिला किया। थोड़ी लड़ाई के बाद चौथ के २ लाख रुपये लेकर मराठे वापस हो गये । संवत् १७८७ के माथ मास में बाजीराव फौज लेकर अहमदाबाद पर चढ़ आये। उस समय मंडारी विजेराज उनके सामने भेजे गये। सम्वत् १७९२ में भंडारी विजेराजजी सरसा भाटमेर की ओर फौज लेकर गये। इस प्रकार आपने अनेकों फौजों तथा लड़ाइयों में योग दिया। आपके बड़े भ्राता उदयकरणजी के गिरधरदासजी, रतन - सिंहजी तथा भीमसिंहजी नामक ३ पुत्र हुए ।
भंडारी गिरधरदासजी आप १७८२ में मेड़ते के हाकिम थे । आप गुजरात और मारवाद की कई लड़ाइयों में अपने छोटे बन्धु भंडारी रतनसिंहजी और काका विजेराजनी के साथ युद्धों में भाग केले
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
रहे। संवत् १७८९ में आपको जोधपुर की सूवेदारी इनायत हुई। जब रायरायां भंडारी खींवसीजी के पुत्र भंडारी अमरसिंहजी दीवान हुए तब गिरधरदासजी को सिरोपाव, बैठने का कुरूब, पालको, मोतियों की कंठी और सरपंच मिला था। सम्बत् १८०1 में माप दीवान के पद से सुशोभित किये गये। इस पद पर आप १८०१ तक रहे।
भंडारी रत्नसिंहजी-भंडारी खींवसीजी और भंडारी रघुनाथजी की तरह भंडारी रत्नसिंहजी भी महान प्रतापी हुए। ये बड़े मुत्सहो, शासन कुशल और वीर थे। सम्बत् १७८० में आपने जोधपुर की ओर से गुजरात पर सैनिक चढ़ाई की और उसमें आपको बड़ी सफलता मिली। इसके बाद गुजरात के सूबे पर महाराजा अभयसिंहजी का अधिकार हो गया और भंडारी रत्नसिंहजी वहाँ के नायब सूबा बनाये गये । वहाँ कुछ वर्षों तक आपने इस प्रतिष्ठित पद पर बड़ी ही सफलता के साथ काम किया। इस वक एक प्रकार से आप गुजरात के कर्ता-धर्ता थे। गुजरात के इतिहास में भी आपके गौरव का प्रशंसनीय उल्लेख है। सम्बत् १७.२ में सूरत के सूबा सरबखां ने १० हजार फौज से अहमदाबाद पर आक्रमण किया । भंडारी रत्नसिंहजी ने बड़ी ही वीरता के साथ इससे लोहा लेकर इसे पूर्ण रूप से पराजित किया। इतना ही नहीं रत्नसिंहजी ने ४० मील तक इसका पीछा किया। इस लड़ाई में सरबखां मारा गया और रलसिंहजी के चार घाव लगे।
इसके बाद सम्वत् १०९० में आप अजमेर के गवर्नर बनाये गये। चार वर्ष तक आप इस पद पर रहे। इस समय आपको कितने ही युद्ध करने पड़े। सम्वत् १८०३ में आपने बीकानेर पर चढ़ाई की जहाँ बड़ी वीरता से युद्ध करते हुए आप काम आये। जब आपकी मृत्यु का समाचार महाराजा अभयसिंहजी ने पुष्कर में सुना तब आपको हार्दिक दुःख हुआ और आपके शोक में एक वक्त नौबत बन्द रक्खी गई।
भंडारी रत्नसिंहजी के सवाईरामजी तथा जोरावरमलजी मामक दो पुत्र थे। इनमें जोरावरमलजी भंडारी विजयराजजी के नाम पर दत्तक गये। भंडारी सवाईरामजी के बाद क्रमशः तखतमलजी, सुखमलजी, चांदमलजी, नथमलजी और अभयराजजी हुए। इस समय भंडारी अभयराजजी के पुत्र भंडारी सम्पतराजजी विद्यमान हैं। आपने अजमेर के रायबहादुर सेठ नेमीचन्दजी की ओर से भरतपुर, करौली आदि कई रियासतों में खजांची काम किया। इस समय आप कोटे के सेठ दीवानबहादुर केसरीसिंहजी की ओर से आबू में खजांची का काम करते हैं। आपका कई बड़े-बड़े पोलिटिकल ऑफिसरों से बड़ा भच्छा सम्बन्ध रहता है और उनकी ओर से आपको कई अच्छे २ प्रशंसा-पत्र मिले हैं। मेड़ते में आपके पूर्वजों की बनाई हुई हवेली है।।
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मडारी
भंडारी जोरावरमलजी-आप भंडारी रत्नसिएजी के द्वितीय पुत्र थे। सम्बत् १७९५ में जोधपुर मौर जयपुर में जो युद्ध हुआ था उस समय आप बोपुर दरकार की ओर से कई बड़े-बड़े मुत्सदियों के साथ पोल में दिये गये थे। तब से भाप वहीं बस गये। संवत् २९ की बैत बदी को तत्कालीन जोधपुर नरेश विजयसिंहजी ने जयपुर नरेश महाराजा पृथ्वीसबजी को चिट्ठी लिखकर भापको बुलाया। पर महाराजा पृथ्वीसिंहजी ने भापको भेजना स्वीकार नहीं किया। • आप अपपुर द्वारा बक्शी गई हवेली ही में निवास करते थे ।
संम्वत् १८५० के लगभग इनको २ हजार रूपया प्रतिवर्ष खजाने से मिलता रहा । २१००) की जागीरी का गाँव भीमापुरा इनके पास रहा। इनके गमेशामजी शिवदासजी, भवानीदासजी तथा धीरजमलजी नामक ५ पुत्र हुए। इनको संवत्. १९१० की अषाद सुदी १५ दिन २ हजार की जागीरो के बजाय ५००)की रेखमा गाँव मोजा राधाकिशन मिला। तब से बह जागीर इन बंधुओं के परिवार में.बहीबातीहै। .
. . .. . मंडारी गणेशदासजी के बाद ममः हरकचन्दबी बर्डनसिंहनी तथा रणजीतसिंहजी हुए। रणजीतसिंहजी ने मेट्रिक तक शिक्षा पाई है। भंडारो शिवदासजी के परिवार में सपनामलजी सभा भवानी दासजी के परिवार में पूनमचन्दजी गुलाबचंदजी ताराचंदनी और फतेचंदजी है। इनकी रंगून में पूनमचंद ताराचंद के नाम से फर्म है। भंडारी धीरजमलजी के पुत्र रिधकरणजी हुए । इनके पुत्र भंडारी बुधमकजी की वय १८ साल की है, आपने अपने पुत्रों को शिक्षित करने की भोर उत्तम लक्ष दिया है। आपने १९१. में उमारिया में दुकान की, भाप वहाँ के प्रतिष्ठित सजन समझे जाते हैं। वहाँ के भाप सरपंच (ऑनरेरी मजिस्ट्रेट) रहे थे । आपके बड़े पुत्र धनरूपमलजी भण्डारी खापुर (बंगाल) में धनरूपमल भंडारी एन्ड संस के माम से बैंकिंग व मोटर का विजिनेस करते हैं। दूसरे पुत्र भंडारी दौलसमलजी ने लखनऊ से १९५० में एल. एल. बी० तथा १९५१ में एम० ए० पास किया है और इधर १९३० से भाप चौक कोर्ट जयपुर में प्रेक्टिस करते हैं। आपके छोटे भाई प्रेमचन्दजी ए. ए. इनक में पढ़ते हैं भंगरी धनरुपमलजी के ज्ञानचंद गुमानचंद आदि ५ पुत्र है। यह परिवार जयपुर में निवास करता है। क्या यहाँ के मोसबाड समाज में प्रतिष्ठित माना जाताहै।
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बोलबाल बाद का इतिहास
लुणावत भंडारी हम ऊपर बतला चुके है कि नाडोल के चौहान अधिपति राव लाखनसी की १८ वी पीढ़ी में समराजी हुए, और इनके पुत्र भंडारी नराजी संवत् १९९३ में राव जोधाजी के साथ मारवाड़ (मांडोर में) आये। इन भंगरी नराजी तक उनका परिवार जैनी चौहान राजपूत रहा । संवत् १५१२ में भंडारी नराजी का विवाह मुहणोंतो के वहाँ हुआ, तब से ये जैन ओसवाल हुए। कहा जाता है कि भंडारी नराजी की राजपूत पत्नी से राजसीजी, जसाजी, सीहोजी और खरतोजी नामक ४ पुत्र हुए, और मुहणोत पत्नी से तोलोजी नीयोजी और मायोजी नामक ३ पुत्र हुए।
भंडारी ऊदाजी-भंडारी नराजी के सबसे छोटे पुत्र नाथोजी के चौथे पुत्र भंडारी उदोजी थे। भंडारी उदाजी को संवत् १५४८ में जोधपुर के तत्कालीन महाराजा ने प्रधानगी का और दीवानगी का सम्मान बल्ला । आपके पुत्र भंडारी नागोजी और पौत्र गोरोजी हुए।
भंडारी गोरोजी-आपने जोधपुर महाराजा राव गांगोजी के समय में प्रधानगी का काम किया। इनके लूणाजी, साडूलजी, सुलतानजी और जेवंतजी नामक " पुत्र हुए। इन बंधुओं में लूणाजी की संतानें खूलावत भंडारी कहलाई।
मंडारी लूणाजी-बाप लूणावतों में बहुत प्रतापी पुरुष हुए। आपकी बहादुरी तथा मोतबरी से तत्कालीन जोधपुर दरबार बहुत प्रसन्न थे आप को महाराजा उदयसिंहजी; सूरसिंहजी तथा गजसिंहजी मे ३ बार प्रधानगी का सम्मान दिया । संवत् ११५१ से १ तक आप १५ सालों तक प्रधान रहे । संवत् ११७६ में जब आपको प्रधानगी का सम्मान दिवा, उस समय दरवार सूरसिंहजी ने दक्षिण में रवाना होते समय आपको ८० हजार की जागीर के गाँव इनायत किये। जब संवत् १९८० में महाराजा गजसिंहजी को मेड़ता पुनः मास हुना तब भंडारी लूणाजी ने मेड़ते जाकर वहाँ दरवार का अधिकार स्थापित किया । इस प्रकार बनेको काव्य आपके हाथों से हुए। संवत् १० कार्तिक में आप स्वर्गवासी हुए।
भंडारी रायमलजी-आप भंडारी लूणाजी के पुत्र थे। पिताजी के स्वर्गवासी हो जाने पर उनकी भागीरी गाँव आपको इनायत हुए। संवत् १९९४ में आपको जोधपुर दरबार ने दीवानगी का ओहदा बल्या, तथा इस पद पर आपने १६९७ की पौष वदी ५ तक कार्य किया।
भंडारी मगवानदासजी-आप भंडारी रायमलजी के पुत्र थे। महाराजा जसवंतसिंहजी के साथ भाप पेशावर में विद्यमान थे। संवत् १७३६ की सावण वदी को जो फौज जोधपुर से देहली गई उसमें माप गये थे।
भंडारी बिटुलदासपी-भार भंडारी भगवानदासजी के पुत्र थे। भाप महाराजा अजितसिंह के
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साथ जालोर में रहे। जब संवत् १७६३ में महाराबा भक्तिसिंहजी के हाथ में जोधपुर के शासन की बागडोर भाई तब उन्होंने भंडारी बिन्दासजी को दीवाना बनाया और उन्हें १९९५) की जागीरी " गाँव इनायत किये।
___ सम्बत् १७६५ की फाल्गुन मुदी ..दिन मामा मजितसिंहजी भंगरी विद्यमासजी के घर आरोगने ( भोजन के लिये)पधारे उस समय रस्तारो विदामाजी ॥ हजार रूपये बजा किये। दरवार ने प्रसन्न होकर इन्हें हावी सिसेपार मेंट किया। इसी बात सापन सुदीको भाप को फिर से दीवानगी का पद मिला। सम्बन 1.0 मापदबदी भापको प्रधानगी का सम्मान, खासा सिरोपाव और जदाऊ कटारी मेंट मिली। भापके माता मंदारी नारायणदासजी सम्बत १५ में मेड़ते के हाकिम थे। इसी परिवार में मारी गईस जी हुए।
मंडारी माईदासजी-आप मंगरी देवरावजी के पुत्र थे। सम्बत १५-१६ में अब भंडारी जीवसीबी देश दीवान थे उस समय उनके तन दवाव भंगरी माईलसाजी बनाये गये। सम्पत् .. मैं भापको द हुई और योदे ही समय में बाप मुख हो गये। इसी समयमा वाम गाँव भाप जागीरी में दिया गया। सम्बत १०६१ के कागुन में भंडारी मासामी, समदग्विा मूगा-गोडम्यास जी के साथ दीवान बनाये गये।
- भंगरी विहल्यासजी के पश्चात् इस परिवार का सिसिलेवार जीनामा नहीं पास होता। संभव है भंडारी विट्ठलदासजी के पुत्र वा पौत्र भंडारी जसराजजी हो, । इन्ही जसराजजी भंडारी. पुत्र भंगरी गंगाराजी हुए, जो उनीसची सतादि के मध्य में जोधपुर के राजनैतिक गगन में तेजपुस्त नक्षत्र की तरह प्रकाशमान हुए। भंडारी गंगारामबी
भाप जोधपुर के इतिहास में अपने समय में परे प्रतापी पुस । जोधपुर महायला विजयसिंहजी ने फोज देकर आपको किशनगढ़ तथा उमरकोट की बाहों में भेजा। सम्बत १४४ में महाराजा विजयसिंहजी ने आपके वीरोचित कार्यों से प्रसन्न होकर भापको बार की जागीरी देकर सम्मानित किया। जब संवत् १८४९ में महाराजा विजेसिंहजी र स्वर्गवास दुना और उनकी गद्दी पर महाराजा भीपसिंहजी बैठे उस समय भंगरी गंगारामजी और उनके भाणेज सिंघवी इन्द्रराजजी उनके सेना नायक थे। इन्होंने पदी बढ़ी को लेकर जामेर पर घेरा गला औ महाराजा मानसिंहजी अपनी थोड़ी सी सेना के साथ किले में विर कर अपनी रक्षा कर रहे थे। लगातार कई वर्षों तक दोनों पाब्यों
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'भोसनाक आति का इतिहास
में मोर्चा बंदियों और कड़ाइयाँ होती रहीं । अब संवत् १८६० की काती सुदी ४ को जोधपुर में महाराजा भीमसिंहजी का स्वर्गवास हो गया और राज्य का अधिकारी कोई न रहा, ऐसे समय में जोधपुर स्थित प्रधान ओहदेदारों ने भंडारी गंगारामजी तथा सिंघवी इन्द्रराजजी को घेरा बनाये रहने का आदेश किया। लेकिन इन वीरों मे तमाम परिस्थिति को सोचकर और राज्य का हकदार एक मात्र महाराजा मानसिंहजी को ही मानकर मोरचाबंदी तथा घेरा उठा दिया और स्वयं गढ़ में जाकर मानसिंहजी की मिछरावलकी, तथा जोधपुर चलकर राज्यासन पर विराजने के लिये भरज की । इसी तरह जोधपुर के अधिकारियों तथा सरदारों को भी महाराजा मानसिंहजी को ही राज्यासन पर बैठाये जाने की सूचना भेजी और उन्होंने उन्हे विश्वास दिलाया कि मानसिंहजी तुम्हारे पर किसी प्रकार की सख्ती नहीं करेंगे। इस प्रकार आप लोगों ने मानसिंहजी को सम्बत १८६० के मगसर मास में राज्यासन पर अधिष्ठित कराया । इनकी इन बहुमूल्य सेवाओं से प्रसन्न होकर दरबार मानसिंहजी ने इन्हें दीवानगी का सम्मान, सिरोपाव, कुरुब और बणाड़ नामक गाँव तथा ख़ास रुका इनायत किया, जिसमें महाराजा ने अपने राज्यासीन होने के कार्य्यं में भंडारी गंगारामजी ने जो बहुमूल्य सेवाएं की थी उनका कृतज्ञता पूर्वक उल्लेख किया ।
सम्बत १८६३ के फाल्गुन मास में जोधपुर के इतिहास में एक नवीन घटना घटी। महाराजा मानसिंहजी को राज्यासन पर बैठे थोदा ही समय हुआ था, और वे अपने सरदार मुस्सुद्दियों के बीच का मनोमालिन्य दूर भी नहीं कर पाये थे, कि इसी बीच इन्होंने अपने दीवान भंडारी गंगारामजी और फौज के प्रधान सिंघवी इन्द्रराजजी को उनके पुत्रों सहित गिरफ्तार कर किया । इस प्रकार के अनेक कारणों से राज्य में बड़ी गढ़बड़ी मची हुई थी। इसका परिणाम यह हुआ कि मारवाड़ के सरदारों ने सिंहजी को राज्य का स्वामी मान कर उपद्रव उठाया। वे जयपुर और बीकानेर की लगभग १ लाख फोज को जोधपुर पर चढ़ा लागे । जब इस विशाल सेना ने जोधपुर पर घेरा डाला, और राज्य के बचने की किसी तरह उम्मीद न रही, तब ऐसे कठिन समय में महाराजा मानसिंहजी उक्त आपत्ति से अपनी रक्षा करने की चिन्ता में पड़े। ऐसी स्थिति में उन्हें सिवाय भण्डारी गंगारामजी और सिंघवी इन्द्रराजजी के दूसरा अपना कोई सहायक न दिखा। फलतः महाराजा मानसिंहजी ने उनके पुत्रों को क़ैद में रखकर इन दोनों वीरों को बुलाया तथा इस आपत्ति से अपने राज्य की रक्षा करने की अभिलाषा दर्शायी । इस पर इन दोनों मुत्सद्दियों मे दरबार को सब प्रकार से परिस्थिति ठीक कर देने का विश्वास दिलाया तथा उसी समय वे इस प्रयत्न में लग गये। इस जगह इस बात का उल्लेख करना आवश्यकीय होगा कि भंडारी गंगारामजी को अपने एवज़ में अपने पुत्र को गिरफ़्तार रखने की महाराज मानसिंहजी की नीति पर
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बड़ा खेद हुआ। लेकिन उस समय उनके सामने प्रधान लक्ष्य राज्य की रक्षा करना था, अतः वे कैद से रिहा होते ही समझौते के प्रयत्न में लग गये, जिसका विवरण पहले दिया जा चुका है।
इसके थोड़े ही दिनों बाद भण्डारी गंगारामजी ने अपने अन्य सहयोगियों के साथ भारी फौज लेकर बीकानेर पर चढ़ाई की। वहाँ के महाराजा सूरतसिंहजी ने इन्हें साद तीन लाख रुपये देने का पायदा किया, तब ये वहाँ से वापस लौट भाये। इसी तरह मापने नवाब मीरखा तथा लोदा शाह कल्याणमलजी के साथ पोकरण पर चढ़ाई की। वहाँ के ठाकुर से एक लाख रुपयों की आपने कबूलियत लिखवाई।
भंडारी गंगारामजी तथा सिंघवी इन्द्रराजजी का प्रेम-ये दोनों मुसुदी मामा तथा भानेज थे। भण्डारी गंगारामजी मेधावी, दूरदर्शी और बहादुर प्रकृति के नरवीर थे। इनके विषय में यह कहना अत्युकि न होगी कि भण्डारी गंगारामजी का मस्तिष्क और सिंघवी इन्द्रराजजी का साहस इनके काम्यों ब्रो सफल करने में सार्थक हुआ। इनके विषय में इस प्रकार का पच प्रचलित है कि
इंद को फंद गंग जाणे, ने गंग को गोविंद जाणे। जयपुर, बीकानेर भादि की विजय के पश्चात् सिंघवी इन्द्रराजजी रियासत के दीवान बनाये गये। उनके सम्मान और अधिकार में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई। ऐसे समय में उनको भण्डारी गंगारामजी की शुदाई बहुत ही ज़्यादा अखरी। कहा जाता है कि भण्डारी गंगारामजी को तत्कालीन राजनीति पर बड़ा । असंतोष हुआ। अपने बदले में अपने पुत्र को कैद में रखे जाने का उन्हें बड़ा सदमा हुआ, और वे अपना अन्तिम समय हरिद्वार में बिताने के लिए रवाना हो गये। इस प्रकार महाराजा विजैसिंहजी, महाराजा भीवसिंहजी तथा महाराजा मानसिंहजी इन तीन नरेशों के राजस्व काल में रियासत की तन मन से सहायता करते हुए इस वीर पुङ्गव ने अपने जीवन के अन्तिम दिन हरिद्वार में ही विताये तथा धार्मिक जीवन बिताते हुए वहीं आपका स्वर्गवास हुआ।
__ भंडारी भवानीरामजी-आप भण्डारी गङ्गारामजी के पुत्र थे। संवत् १८६३ में भापको अपने पिताजो के साथ कैद हुई तथा जोधपुर के रक्षार्थ उनके छोड़े जाने पर आपको उनके एवज में कैद रखा। जयपुर विजय के बाद आप छोड़े गये तथा उस समय भण्डारो गंगारामजी को जोधपुर परगने का बाद नामक गांव जागीर में दिया गया। यह गांव इनके अधिकार में संवत् १४.९ तक रहा। पीछे उनको परबतसर परगने का बेसरोली गाँव जागीरी में मिला, जो इनके पास संवत् १८८५ तक रहा। ये भी जोधपुर राज्य की सेवाएँ करते रहे।
(१) सिंघवी इन्द्रराजजी। (२) भण्डारी गङ्गारामजी । (३) भगवान्, श्वर ।
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श्रीवास जाति का इतिहास
भण्डारी भवानीरामजी के पश्चात् उनके परिवार के व्यक्तियों का सिलसिलेवार कुर्सी नामा नहीं प्राप्त होता, पुष्कर में भण्डारियों के पण्डे की बही में देखने से हमें भण्डारी भवानीरामजी के पुत्र भण्डारी आसारामजी के होने का पता चलता है। अस्तु । अनुमान किया जाता है कि सोजत के भण्डारी पृथ्वीराजजी भण्डारी गंगारामजी के भतीजे थे।
मंडारी पृथ्वीराजजी - भण्डारी अभेमलजी के तीसरे पुत्र भण्डारी पृथ्वीराजजी थे । इन्होंने भी जोधपुर राज्य के लिये कई बहादुरी के काय्यं किये। इनका निवास सोजत में था । संवत् १८६४ में इनको सोजत का सरवादारा नामक गांव जागीर में मिला। जब जोधपुर पर जयपुर और बीकानेर की फौज़ों में संवत् १८६४ में चढ़ाई की। उस समय मीरखां को faureर सिंघवी डम्मराजनी, कुचामन ठाकुर शिवनाथसिंहजी तथा भण्डारी पृथ्वीराजजी ने जयपुर पर चढ़ाई की थी। जब जयपुर विजय के समाचार जोधपुर पहुंचे थे, उस समय महाराजा मानसिंहजी ने भण्डारी पृथ्वीराजजी के नाम एक रुक्का भेजा था कि :
भंडारी पृथ्वाराज दिसे सुप्रसाद बांचजो, तथा श्रीजीरा इकबाल सुं बंदगी तू आधी पोहतो. जस बंदर्गारो आायोः हाल सुदी जेपुर वाला श्रठा सुं कूंच मोरचा उठाय कियोः अबे थारी मारग में हलकारांरी साबधानी राख श्राछी रीत समाधानरी तजवीज करेः
संवत् १८६४ रा भादवा सुदी १४ संवत् १८६५ के फाल्गुन में भण्डारी पृथ्वीराजजी फलोदी खाली कराने के लिये भेजे गये । उमरकोट के युद्ध में सिंघवी गुलराजजी के साथ आप भी भेजे गये थे । संवत् १८७९ में आपको खरवाण ( भाद्राजण ) नामक गाँव जागीरी में मिला । कहा जाता है कि एक समय मीरखां ने सोजत को लूटने के इरादे से हमला कर दिया । कारण कि उस समय सोजत भींवराजोत आदि सिंघवियों का निवास स्थान था । ऐसे समय मीरखां के पगड़ीबंद भाई भण्डारी पृथ्वीराजजी ने मीरखां से कहा कि "खुशी की बात है कि भाज तुम सोजत लूटने भाये हो। पहिले अपने दलबल समेत चलकर अपने भाई का घर लुटको तथा फिर सारी सोजत का माल लूटना" मीरखां ने अपने पगड़ी बन्द भाई का घर लुटमा उचित न समझा तथा वहाँ से फूँच किया। इस प्रकार सोजत लुटी जाने से बच्ची । सोजत से भागे जाकर उसने सिरिमारी पर धावा मारा, जहाँ मुत्सुहियों की बहुत-सी छिपी हुई सम्पत्ति उसके हाथ लगी । संवत् १८८० की जेठ सुदी ९ के दिन भण्डारी पृथ्वीराजजी जालोर के समीप युद्ध करते हुए मारे गये । इनकी धर्मपत्नी इनके साथ सती हुई। जालोर के हरजी नामक स्थान में और सोजत में इनकी छतरी बनी हुई है। इनके पुत्र फौजमजी हुए ।
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मेडारी
भंडारी फौजमाजी आप संवत् १८७७ में जालौर के हाकिम हुए। पिताजी के गुजरने पर उनके नाम की जागीरी के गांव खारिया, नींवरा तथा चावण्डिया इनके नाम पर हुए। संवत् १८८३ में इनका स्वर्गवास हुआ । इनके पुत्र सुखहराजजी के पास अपने पितामह के नामकी जागीरी के दो गांव रहे । इनको कड़ा, मोती, दुशाला आदि जोधपुर दरवार से इनायत हुआ इनका स्वर्गवास संवत् १८९० के लगभग छोटी वय में ही हो गया । भण्डारी सलहराजजी के पुत्र जसराजजी ने कोई कार्य नहीं किया तथा मौज से अपने पूर्वजों की सम्पति उड़ाई। इनके पुत्र अमृतराजजी ५० सालों तक जोधपुर स्टेट में थानेदार रहे। संवत् १९४८ में इनका शरीरान्त हुआ। आपके रूपराजजी, सोहनराजजी तथा चैनराजजी नामक तीन पुत्र हुए। इनमें बड़े दो भाई निसंतान गुजरे। इस समय भंडारी चैनराजजी की अवस्था ४८ साक की है तथा ये मेसर्स जी. रघुनाथमल बैंकर्स हैदराबाद (दक्षिण) की दुकान पर रहते हैं। इनके भी कोई पुत्र नहीं है ।
भण्डारी सम्पतराजजी करणराजजी, सोजत
ऊपर भण्डारी लूणाजी का परिचय दे चुके हैं। इनके परिवार में भंडारी धनराजजी हुए जिनकी संतानें धनराजोत भंडारी कहलाती हैं ।
भंडारी धनराजजी महाराजा सूरसिंहजी के समय में राज्य के उच्च पद पर कार्य्यं करते थे। ये सोखता में आकर रहने लगे। इनकी सातवी पीढ़ी में दयालदासजी के पुत्र विट्ठलदासजी प्रतिष्ठित व्यक्ति हुए । भंडारी विट्ठलदासजी ने तोपखाने के प्रमुख नियुक्त होकर गोड़वाद प्रान्त के घाणेराव नामक नगर को फतह किया और मारवाड़ राज्य में मिलाया । मेड़ते के पास गांगोली की घाटी की लड़ाई में भी इन्होंने बहादुरी के काम किये । इससे प्रसन्न होकर दरवार ने संवत् १९५२ की वैसाख वदी १ को इन्हें वाली और सोजत में वेरे तथा खेत इनायत किये, ये वेरे ओर खेत अभी भी इनकी संतानों के कबजे में हैं। जिस समय जोधपुर निवासी सेठ राजारामजी गढ़िया ने श्री शत्रुंजयजी का संघ निकाला था, उसमें राज की तरफ से इंतजाम के लिये भण्डारी विट्ठलदासजी भेजे गये थे । उस समय शत्रुंजय तीर्थ पर इन्होंने कोशिश कर एक पेड़ी कायम करवाई जो दूसरे नाम से इस समय मौजूद है । सम्बत् १८८२ में आप गुजरे ।
भण्डारी विट्ठलदासजी के गोविन्ददासजी और गिरधरदासजी नामक २ पुत्र हुए। गोविन्ददासजी तोफखाने के अफसर थे, आपके अमीदासजी और देवीदासजी नामक २ पुत्र हुए। भण्डारी गिरधरदासजी पचपदा के हाकिम थे। भण्डारी देवीदासजी का छोटी उम्र में ही अन्तकाल हो गया था। इनके बड़े भ्राता भण्डारी
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मोतवाल जाति का इतिहास अमीदासजी ६ साल की उम्र से ही अपे थे। अंधे होते हुए भी आपकी पहिचान शक्ति तीन थी। कई प्रकार के सिक्कों की परीक्षा माप कर लेते थे मापके और आपके पुत्रों के नाम हुकूमतें रहीं। आपका अंत काल संवत् R९ में हुमा । भण्डारी अमीदासजी के शंकरदासजी मिश्रीदासजी हरिदासजी और गणेशदासजी मामक । पुत्र हुए, इनमें से शंकरदासजी, भण्डारी देवीदासजी के नाम पर दत्तक दिये गये । भन्डारी शंकरदासजी बाली के हाकिम थे। इनके समय तक इस परिवार के पास तोपखाने की आफिसरी का काम रहा। आपकी याददाश्त तेज थी। इनका अंतकाल संवत् १९८३ में हुआ आपके छोटे भाइयों ने राज श्री मौकरियाँ की। मापके पुत्र भण्डारी जोरावरमलजी का अन्तकाल संवत् १९९० में हुमा । इनके पुत्र सम्पत. सजली का जन्म संवत् १९४५ में हुआ। . .
. भण्डारी सम्पतराजजी आरम्भ में सितही स्टेट के फोरस्ट में असिस्टेण्ट इन्स्पेक्टर थे। बाद आपने जोधपुर में वकीली परीक्षा पास कर सोजत में प्रैक्टिस शुरू की तथा इस धन्धे में हजारों रुपये आपने पैदा किये । आपने अपने पिताजी के नाम से जैनशंकर बाग नामक बगीचा बनाया। भापके हंसराजजी और धनपतराजजी नामक २ पुत्र हैं। भण्डारी हंसराजजी ने इन्दौर में बी० ए० तक * का अध्ययन किया है तथा इस समय एल एल बी का अध्ययन कर रहे हैं।
__ मंडारी करणराजजी-इसी परिवार में भण्डारी करणराजजी है। आपने बहुत छोटी उमर में ही सोजत कोर्ट के वकीलों में अच्छी तरक्की की। सोजत के ओसवाल समाज में जो सालों से धड़े बन्दियाँ थीं, उसे कोशिश करके करणराजजी ने एक करवा दिया । इस सफलता के उपलक्ष्य में ज्युडिशियल सुपरिष्टेण्डेण्ट सोजत ने इन्हें सार्टिक्रिकेट दिया।
परवरी १९५० में सोजत के वस्तार में बहुत बीमार एकत्रित हो गवे, तब भण्डारी करणराजजी मे उदारता पूर्वक वर्तन मादि के द्वारा उनकी सहायता की। इसके उपलक्ष्य में प्रिन्सीपल मेडिकल मॉरिसर ने खुद भी धन्यवाद दिया तथा जोधपुर दरवार को लिखा, जिससे वाइस प्रेसीडेण्ट कौंसिल मे १४-३-३. के दिन सार्टिफिकेट मेज कर करणराजजी का उत्साह बढ़ाया । आप बड़े मिलनसार तथा उत्साही सजन है । इस समय जाप सोजत कोर्ट में वकील का कार्य करते हैं।
श्री दुलीचन्दजी भंडारी, सादड़ी (गोडवाड़) यह खूणावत भण्डारी परिवार सादड़ी (गोडवाइ) निवासी श्वे० जैन मन्दिरमार्गीय आन्नाथ का मानने वाला है। भण्डारी फूलचन्दजी ने सादड़ी में 1० भठाई राणकपुरजी का मेला मादि कई कार्य का ध्यान में नाम पाया। १९५० में पाप गुजरे। भापके पुत्र जसराजजी तथा सरदारमलजी भाप
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ओसवाल जाति का इतिहास
श्री सम्पतराजजी भण्डारी वकील, सोजत.
सेठ संतोषचंदजी भण्डारी, कानपुर.
श्री रूपराजजी भण्डारी वकील, जालोर.
श्री प्रेमराजजी भण्डारी ( मूथा ) अहमदनगर.
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मंडारी
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सामने ही गुजर गये । भण्डारी जसराजजी के पुत्र
पुत्र 'तेजमलजी हुए । इनमें चन्दनमलजी का स्वर्गवास हो गया है।
भण्डारी दुलीचन्दजी का जन्म संवत् १९३८ में हुआ। आप गोड़वाड़ के श्रखवाल समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। सादड़ी की पंचायती में आप आगेवान व्यक्ति हैं। भण्डारी तेजमलजी तथा चंदनमलजी के पुत्र केसरीमलजी और पुखराजजी संवत् १९०८ में कोयम्बटूर गये, और वहाँ भागीदारी में जरी का व्यापार शुरू किया। इधर ६ सालों से आप लोग तेजपाल पुखराज अण्डारी के नाम से कोयम्बटूर में अपना घरू काम करते हैं । दुलीचन्दजी के पुत्र घीसूलालजी हैं।
चन्दजी तथा चन्दनमलजी और सरदारमलजी के
सेठ गुलाबचन्द मुकनमल भंडारी, चांदूर बाजार
लूणावत भण्डारी तेजमलजी लगभग १०० साल पहिले जोधपुर से चांदूर बाजार ( सी० पी० ) आये तथा यहाँ व्यापार शुरू किया। इनके पुत्र तत्रतमलजी का परिवार कलकले में, बख्तावरमलजी का हैदराबाद में तथा गुलाबचन्दजी का यहाँ चान्दूर में है । भण्डारी गुलाबचम्बजी १५ साल की लम्बी उमर पाकर संवत् १९८० में गुजरे। आप यहाँ के ओसवाल समाज में अच्छे इज्जतदार व्यक्ति थे। इनके सोनमलजी, कुंदनमलजी, जवाहरमलजी, मुकनमलजी, लखमीचन्दजी तथा पूरनमलजी नामक ६ पुत्र हुए। इनमें मुकनमलजी मौजूद हैं। आप सेठ रामलाल मूलचन्द के यहाँ मुनीमात करते हैं। आपके पुत्र मेघराजजी व केसरीमलजी हैं। इनमें केसरीमलजी, जवाहरमलजी के नाम पर दत्तक गये हैं। सोनमलजी के पुत्र बस्तीमलजी तथा चाँदमरुजी बदनूर में सेठ प्रतापमल लखमीचन्द गोठी के यहाँ सर्विस करते हैं तथा पूरनमलजी के पुत्र छोगामलजी मुगलचावड़ी में रहते हैं।
भंडारी अनोपसिंहोत, मेसदासोत, परतापमलोत और कुशलचंदोत
हम ऊपर लिख चुके हैं कि भण्डारी नराजी की पांचवी पीढ़ी में भण्डारी गोराजी हुए। इनके लूणाजी सादूलजी, सुलतानजी और जेवंतजी नामक ४ पुत्र हुए। इनमें लूणाजी की संतानें लूणावत भण्डारी कहलाई। जिनका परिचय ऊपर दिया जा चुका है । लगानी के छोटे भ्राता सादूलजी के बड़े पुत्र भीवराजजी थे। इनके पुत्र हुए जिनमें चौथे पुत्र कल्याणदासजी थे ।
भण्डारी कश्याणदासजी के अनोपसीजी, मेसदासजी, सिरदारमलजी, परतापचंदजी तथा कुशलचंदजी हुए। इन बंधुओं ने भी मारवाद राज्य की बहुत सी सेवाएँ कीं। इनकी संतानें क्रमशः अनोपसिंहोस, मेसदास्रोत, परतापमकोत और कुशलचंदोत कहलाई, जिनका परिचय नीचे दिया जा रहा है।
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पोसवाल जाति का इतिहास
- भंडारी उमरावचन्दजी माणकचन्दजी (अनोपसिंहोत ) जोधपुर
यह हम पहले लिख ही चुके हैं कि भण्डारी कल्याणदासजी के सब पुत्रों से अलग २ शाखाएँ निकली। यह शाखा भी उनके प्रथम पुत्र जनोपसिंहजी से निकली है। अनोपसिंहजी बड़े वीर पुरुष थे। आपको पैरों में सोना प्राप्त था। आपके पुत्र सरूपचन्दजी मेड़ता के पास होने वाली लड़ाई में काम आये। इनके पुत्र हरकचन्दजी हुकुमत तथा कोतवाली में सर्विस करते रहे। हरकचन्दजी के पश्चात् आपके पुत्र करमचन्दजी और करमचन्दजी के पुत्र धरमचन्दजी हुए आप राणी देवडीजी के कामदार रहे । आपका स्वर्गवास हो गया है । आपके रूपचन्दजी, लालचन्दजी, मानचन्दजी और माणिकचन्दजी नामक चार पुत्र हुए। इनसे से माणकचन्दजी का स्वर्गवास हो गया है।
भंडारी रूपचन्दजी-आप करीब ४० वर्ष तक महकमा हवाले में इन्स्पेक्टर रहे। इस समय आप रिटायर हैं। आपके उमरावचन्दजी, सरदारचन्दजी और सुमेरचन्दजी नामक तीन पुत्र हैं। बड़े पुत्र उमरावचन्दजी ने अपनी कार्य तत्परता से अच्छी उन्नति की । आप मेड़ता, जोधपुर, फलोदी, बाढमेर तथा बिलादेके हाकिम रहे। इसके पश्चात् आप सिटी कोतवाल और मालानी डिस्ट्रीक्ट केज्युडिशियल सुपरें। टेण्डेण्ट बनाए गए । इस पद पर आप वर्तमान में भी कार्य करते हैं। आपको कई प्रशंसा पत्र भी मिले हैं। आपके भाई सरदारचन्दजी बी० ए० हैं। आप प्रारम्भ में रेल्वे में नौकर हुए । पश्चात् पुलिस इंस्पेक्टर बने । फिर कई स्थानों पर हाकिम रहे और आजकल जालौर में हाकिम हैं। आपके भाई सुमेरचच्दजी बी० ए० एल० एल० वी० आजकल जोधपुर में प्रेक्टिस करते हैं।
भंडारी लालचन्दजी-आप करीब ३० तक हवाले में नौकरी करते रहे । आजकल आप रिटायर हैं। आपके भाई मामचन्दनी हवाले में इन्स्पेक्टर रहे। आप दोनों भाइयों के कोई संतान नहीं है।
भंडारी माणकचन्दजी-करीब ३२ साल से जोधपुर में वकालत कर रहे हैं। आप यहाँ के प्रतिष्ठित और फर्स्टक्लास वकील माने जाते हैं। आपके चार पुत्र हैं। बड़े मुकुनचन्दजी सोजत में हवाला दारोगा है शेष प्रतापचन्दजी, किशोरचन्दजी और भोपालचन्दजी अभी पढ़ रहे हैं।
भंडारी बादरमलजी किशनमलजी (परतापमलोत) जोधपुर
भण्डारी कल्याणदासजी के चीथे पुन परतापमलजी हुए, इनके वंशज प्रतापमलोत भण्डारी कहलाते हैं। इस परिवार में भण्डारी रूपलालजी, सम्वत् १८९२ में फतेपोल के चौकी नवीस थे। संवत् १८९३ में इनको गॉव नीबाड़ी कला जागीरी में मिली जो १९.० में जत हो गई, ये हस्तरेखा के बड़े जानकार थे।
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महाडी
भंडारी महाबु रमलजी - आप भण्डारी प्रतापमलजी की पांचवीं पीढ़ी में हुए, भपका जन्म १८७३ में हुआ महाराजा तस्वतसिंहजी के समय में इनका बड़ा प्रभाव और जोर था, इनके सम्बन्ध में उस समय कहावत थी कि......" बारे नाचे बादरियो - मां, नाचे नाजरियो” । ये सम्वत् १८९६ से १९४२ तक जोधपुर स्टेट में हाकिम सायर, खासा खजाना, हुजूर दफ्तर, अन्न कोठार के दारोगा और साल्ट विभाग के सुपरिटेण्डेण्ट पद पर रहे। संवत् १९३२ में साल्ट सुपरिंटेन्डेण्ट पद पर सर्विस करते समय ३ हजार की रेख का हरडाणी नामक गाँव आपको जागीरी में मिला। आपको महाराजा तखतसिंह ने प्रसन्नता के कई रुक्के दिये थे । आप कट्टर तेरापंथी आम्नाय के मानने वाले महानुभाव थे । आपको १८८३ में नागोर का गाँव सिलारिया जागीरी में मिला । आपका संवत् १९४२ में स्वर्गबास हुआ ।
नाम से
भंडारी किशनमलजी - आप भण्डारी बादरमलजी के पुत्र थे । आप खजाने वाले भण्डारीजी के मशहूर थे । आप पहले हाकिम, एन कोठार, और बागर आफ़िसर रहे । पश्चात् संवत् १९४२ से १५ सालों तक खासा खजाना के आफ़िसर रहे । आप से जोधपुर दरबार तथा महाराज प्रतापसिंहजी बहुत खुश रहे। इनकी जमाखर्च की जानकारी प्रशंसनीय थी। कविता करने का आपको बड़ा प्रेम था, आपने बहुत रुपया खर्च कर मारवाड़ की पुरानी तवारीख का संग्रह किया तथा गद्य और पद्य में मारवाड़ के ताजिमी सरदारों की तवारीख लिखी । आपको पालकी और सिरोपाव प्राप्त हुआ था। आपका स्वर्गवास संवत् १९६२ में हुआ | आपके पुत्र माधोमलजी का छत से गिर जाने से अन्तकाल हो गया । आपके नाम पर आपके छोटे भ्राता मानमलजी दत्तक लिये गये, इनका भी स्वर्गवास हो गया अतएव इनके नाम पर भण्डारी जोरावरमलजी के पुत्र जबरमलजी दत्तक लिये गये। इस समय भण्डारी जवरमलजी विद्यमान हैं। इनके नाम पर अपने पूर्वजों के गाँव सिलारिया की जागीरी बहाल रही । भण्डारी जवरमलजी ने इस वर्ष बी० ए० एक एल० बी की डिगरी हासिल की। आपको जोधपुर दरबार से "कैफियत और जी कारा" प्राप्त है ।
भण्डारी अखेराजजी प्रयागराजजी ( मेसदासोत ) जोधपुर
मेसदासोत भंडारी भी भंडारियों की एक शाखा है जिसकी उत्पत्ति कल्याणदासजी के दूसरे पुत्र तथा भंडारी कुशलचंदजी के बड़े भ्राता मेसदासजी से हुई है। जब महाराजा अभयसिंहजी ने इनके बड़े भ्राता भण्डारी अनोपसिंहजी को चूक करवाया उस समय ये अपने भाइयों के पुत्रों को लेकर देहली चले गये थे । वहाँ बादशाह ने इन्हें खानसामाई का काम दिया। कुछ समय पश्चात् नागोर के राजा रामसिंहजी ने इन्हें अपने पास बुलवा लिया एवम् संवत् १७७२ में अपना दीवान नियुक्त किया। जब संवत् १८०८ में
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पासवान जाति का इतिहास
महाराजा बखतसिंहजी नागोर से जोधपुर के महाराजा होकर आये तब भाप भी साथ थे । यहाँ भाप महाराजा के तन दीवान रहे। आपका संवत् १८१६ में स्वर्गवास हो गया। आपके नरसिंहदासजी, मनोहरदासजी, और माधोसिंहजी नामक तीन पुत्र हुए।
भंडारी नरसिंहदासजी-बड़े पीर पुरुष थे। भापको संवत् १८०८ में डीडवाना की कड़ाई में जाना पड़ा। वहाँ जाकर आपने सफलता पूर्वक डीडवाना पर अधिकार कर लिया। इसके बाद भाप जसवंतपुरा के हाकिम रहे। इस समय भी यहाँ बहुत सी लड़ाइयाँ हुई। इन्हीं में से एक लड़ाई में इनके छोटे भ्राता मनोहरदासजी काम आये। भागर के पास अभी भी इनकी छत्री बनी हुई है। नरसिंह दासजी के कामों से प्रसन्न होकर महाराजा साहब ने आपको नागोर परगने का सिंगरावत तथा डीडवाने परगने का श्रमरपुरा नामक गाँव जागीर में बख्शा। मापसंवत् १८१९ में जोधपुर के दीवान रहे । भापने डीडवाने में कालीजी का मन्दिर तथा कुंआ बनवाया। आपके गोकुलदासजी एवम् शिवदासजी नामक दो पुत्र हुए। नरसिंहदासजी के दूसरे भाई माधौसिंहजी अजमेर के सूबे रहे। संवत १८२५ में ये महाराजा की ओर से उदयपुर के तत्कालीन महाराणा अरसीजी की सहायतार्थ और २ मुसुदियों के साथ सेना लेकर गये थे। इसी सहायता के उपलक्ष्य में महाराणा ने गौड़वाड़ का परगना महाराजा जोधपुर को दिया था। संवत् १०३९ में ये मेड़ता के पास मराठों के साथ होनेवाले युद्ध में सुधार हुए। मालकोट के पास इनकी छत्री बनी हुई है।
भण्डारी गोकुलदासजी नागोर, मेड़ता और डीडवाना के हाकिम रहे। आपके कोई संतान व हुई। भण्डारी शिवदासजी बहुत समय तक डीडवाना, सांभर और पचपदरा के हाकिम रहे। नमक पांच दरीबे आपके आधीन थे। आपका स्वर्गवास हो गया । आपके अचलदासजी तथा इसरदासजी नामक दो पुत्र थे। अचलदासजी अपने पिताजी के पश्चात् नमक दरीबों के हाकिम रहे। इसके पश्चात् ये सांभर, नागोर, मेड़ता, पाखी और फलोदी की हुश्मत पर भी रहे। भापका स्वर्गवास संवत् १९२८ में हुमा। आपके गणेशदासजी, सामदासजी और सांवतराजजी नामक तीन पुत्र हुए । अचलदासजी के भाई भण्डारी इसरदासजी भी सांभर पचपदरा, डीडवाना इत्यादि स्थानों पर नमक के दरीबा के हाकिम रहे। आपका स्वर्गवास संवत् १९२९ में हुआ। भापके रामदासजी तथा सिरेराजजी नामक दो पुत्र हुए।
मंडारी अचलदासजी का परिवार-भण्डारी गणेशदासजी जोधपुर से उदयपुर चले गये एवम् वहाँ भीलवाड़ा के गिरोही आफीसर रहे। इसके बाद आप कई स्थानों पर हाकिम रहे । संवत् १९५९ में जोधपुर में इनका स्वर्गवास हुआ। इनके जसवंतरायजी और फौजराजी नामक दो पुत्र हुए। भण्डारी गणेशदास मी के दोनों भाइयों का निःसंतान ही स्वर्गवास हो गया उनमें से सावतरामजी फलोदी के हाकिम रहे थे।
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भण्डारी गणेशदासजी के पुत्र जसवंतराजजी स्टेट सर्विस में रहे। इसी प्रकार इनके भाई फौजराजजी भी कस्टम दरोगा रहे । आप दोनों का स्वर्गवास होगया है। जसवंतरावजी के फतेचंदजी नामक एक पुत्र हुए। ये हवाले में काम करते रहे। इनके पुत्र हंसराजजी का स्वर्गवास निःसंतानावस्था ही में हो गया।
भंडारी ईसरदासजी का परिवार भण्डारी ईसरदासजी के बड़े पुत्र रामदासजी थे । ये मेवाड़ के परगनों के हाकिम थे। इनके दौलतरामजी, मुकुन्दरामजी और अभयराजजी नामक तीन पुत्र हुए। आप लोग उदयपुर स्टेट में सर्विस करते रहे। भण्डारी मुकुन्दरामजो वहाँ के कुंभलगढ़, राजनगर, खमनोर, उरड़ा, बागोर आदि जिलों के हाकिम रहे। आप तीनों भाइयों का स्वर्गवास हो गया है। तीसरे भाई अभयराजजी के पुत्र चन्दनमलजी इस समय उदयपुर में सर्विस करते हैं।
. रामदासजी के भाई सिरेराजजी भी उदयपुर में हाकिम रहे। इनका स्वर्गवास केसरियाजी में हुआ। मापके अखेराजजी, छगनराजजी और प्रयागराजजी नामक तीन पुत्र हुए । भण्डारी अखेराजजी जोधपुर स्टेट के जालोर नामक स्थान में सायर दरोगा रहे। इस समय मापके कोई संतान नहीं है। आप बड़े सजन एवं इतिहास प्रेमी महानुभाव हैं। आपके छोटे भ्राता छगनलालजी पहले पुलिस में रहे। पश्चात् आप क्रमशः पर्वतसर, जोधपुर जसवंतपुरा, और बादमेर के हाकिम रहे। इसके बाद आप ज्यूडिशियक सुपरिंटेंडेन्ट भी रहे । भापका निःसंतनावस्था ही में स्वर्गवास हो गया है। आपके छोटे भ्राता भण्डारी प्रयागराजजी जोधपुर-चीफ कोर्ट में वकालात कर रहे हैं । आप जोधपुर के प्रसिद्ध सार्वजनिक कार्यकर्ता है। आपके उगमराजजी और कृष्णराजजी नामक दो पुत्र हैं।
भण्डारी हणवंतचंदजी फौजचंदजी का परिवार, जोधपुर
यह परिवार कुशलचन्दोत परिवार की एक शास्त्रा है। कुशलचन्दजी के सात पुत्रों में से बड़े माणकचंदजी थे। इनके रतनचंदजी और रूपचंदनी नामक दो पुत्र हुए। भण्डारी रतनचंदजी का जन्म संवत् १७९६ के लगभग हुआ था। ये बड़े बहादुर और रण कुशल थे। संवत् १८५० में महाराजा भीमसिंहजी की ओर से डीडवाने पर चढ़ाई कर उस पर अधिकार करने के उपलक्ष्य में इन्हें एक खास रुक्का एवम् दौलतपुरे में २०० बीघा जमीन मय कुंए के जागीर में मिली थी। इनका स्वर्गवास संवत् १८६१ में हुआ। भापके लालचंदजी, हीराचंदजी और श्रीचंदजी नामक तीन पुत्र हुए।
भंडारी लालचंदजी-आपवीर प्रकृति के पुरुष थे । महाराजा मानसिंहजी के राजस्वकाल में भापको जालोर से लेकर आबू तक के डाकुओं को सर करने का कार्य मिला। इसे मापने बड़ी उत्तमता से किया।
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श्रीसवाल जति का इतिहास
यहाँ तक कि डाकू लोग आपके नाम से कांपने लगे। आपने पाली, जालोर, भीनमाल आदि परगनों की हुकूमत की । सम्वत् १९०९ में आपका हणेन्द्र ( आबू ) नामक स्थान पर स्वर्गवास हो गया। आपके छोटे भाई निःसन्तान स्वर्गवासी हुए ।
भंडारी श्रीचंदजी - आप राजनीतिज्ञ और कार्य्यं कुशल व्यक्ति थे। महाराजा मानसिंहजी ने पहले आपको नागोर की हुकूमत पर भेजा। इसके पश्चात् आपने क्रमशः आबू वकीली, दीवानी और फौजदारी अदालत की जजी, फौज मुसाहबी आदि कई बड़े पदों पर सफलता पूर्वक कार्य किया । आपके काव्यों से प्रसन्न होकर महाराजा साहब मे आपको हज़ार रुपये सालाना की जागीर के गांव, तथ खास रुक्के इनायत किये। इसके अतिरिक्त आपको पालकी, छड़ो और मोहर की इज़त भी प्राप्त थी । आप मूर्ति पूजक सज्जन थे । आपने जोधपुर से तीन चार मील की दूरी पर अपनी कुलदेवी आसापुरी का, तथा मंडोवर में हनुमानजी का मन्दिर बनवाया था। आपका स्वर्गवास संवत् १९१५ में हो गया। आपके बख्तावरमलजी, सुमेरचन्दजी, हणवंतचंदजी और बलवंतचंदजी नामक चार पुत्र हुए 1
भण्डारी बख्तावरमलजी ने अदालत दीवानी का काम किया। आप साधु प्रकृति के सज्जन थे । आपको पालकी, सिरोपाव का सम्मान प्राप्त हुआ था । आपका स्वर्गवास संवत् १९५३ में हो गया । आपके दौलतचंदजी मंगलचंदजी और बिरदीचंदजी नामक तीन पुत्र थे। पहले दौलतचंदजी मारवाड़ के कई जिलों में सायर दरोगा रहे। दूसरे मंगलचंदजी सोजत, परबतसर आदि परगनों पर हाकिम रहे । आप दोनों का स्वर्गवास हो गया ।
भण्डारी सुमेरचंदजी गदर के समय में दरबार की ओर से आऊवे ठिकाने पर फौज लेकर गये थे। ये कई स्थानों के हाकिम रहे। आपके पुत्र सरूपचंदजी नावा और पाली के हाकिम रहे। आपका स्वर्गवास हो गया है । आपके पुत्र गौरीचंदजी इस समय घरू व्यापार करते हैं। इनके पुत्र शमशेरचंदजी बी० ए० पास हैं ।
मंडारी हणवंत चंदजी - आपका जन्म संवत् १८९२ में हुआ । महाराजा तख़्तसिंहजी की आज्ञानुसार आपकी फारसी की पढ़ाई महाराज कुमार जसवंतसिंहजी के साथ हुई। सर्व प्रथम संवत् १९११ में आप पाली की हुकूमत पर भेजे गये। गदर के समय में आपने कई युरोपियनों की जानें बचाई। इसके बाद आपने क्रमशः अदालत दीवानी, नागौर और मारोठ की हुकूमत वकाळात रेसीडेंसी, कालात आबू, भदालत अपील आदि स्थानों पर कार्य किया । आप बड़े प्रतिभाशीक व्यक्ति थे । आप मेम्बर कौंसिल भी रहे। उस समय आपको ४००) मासिक वेतन मिलता था। आपको महाराजा साहब ने पालखी, सिरोपाव, छड़ी और मोहर प्रदान कर सम्मानित किया था। आप निर्भयचित और सर्व व्यक्ति
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
स्व० हणुंवतचन्दजी भंडारी, जोधपुर.
स्व० रिधेचन्दजी भंडारी, जोधपुर.
स्व० रा० सा० फौजचन्दजी भंडारी, जोधपुर.
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भण्डारी
थे। रियासतो सम्बन्धी पुरानी जानकारी भी आपको अच्छी थी। भाप करीव ३ वर्ष तक ओसवाल माति की संघ सभा के प्रेसीडेण्ट रहे। आपने अपने जीवन में अपने पुत्रों के पौत्रों तक को गोद खिलाया था। भापका स्वर्गवास संवत् १९०१ में हो गया। आपके फौजचंदजी, जोधचंदजी, केवलचंदजी, करन चंदजी और गंगारामजी नामक पाँच पुत्र थे।
भण्डारी फौजचन्दजी-आपका जन्म संवत् १९१२ का था। भाप जब २१ साल के थे तब भाप पचपदरा के हाकिम बनाये गये। इसके बाद आपने क्रमशः अदालत अपील जज, भासू वकील, सिविल जज आदि कई ऊँचे २ पदों पर कार्य किया । वृद्धावस्था हो जाने के कारण आपने स्टेट सर्विस से अवसर ग्रहण कर लिया था। दरबार साहब ने आपको भी पालकी, सिरोपाव तथा मोहर बक्श कर सम्मानित किया था। आपका स्थानीय ओसवाल समाज में अच्छा प्रभाव था। भाप ओसवाल संघ सभा के प्रेसीडेण्ट थे। सरदार स्कूल के खुलवाने में आपने बहुत परिश्रम किया । आप कई वर्ष तक उसकी मैनेजिंग कमेटी के प्रेसीडेण्ट रहे। आपका स्वर्गवास हो जाने के पश्चात् आपके स्मारक स्वरूप सरदार हाईस्कूल के सेंटर हाल में आपका चित्र लगाया गया है। आपके खेमचंदजी और बजरंगचंदजी नामक दो पुत्र हैं। खेमचंदजी को दरबार की ओर से पालकी, सिरोपाव, तथा मोहर का सम्मान पास है। आपके पुत्र गोवईनचंदजी जोधपुर के नायब हाकिम हैं।
भण्डारी केवलचंदजी अपनी २३ वर्ष की उम्र में बतौर हाकिम के पचपदरा भेजे गये। इसके बाद आप नावा के हाकिम रहे। करीब १६ वर्ष तक आपने अपने पिताजी के स्थान पर अपील अदालत का काम किया। आप म्युनिसिपॉलेटी के मेम्बर भी रहे। आपका जाति में अच्छा सम्मान है। आपके भाई करमचंदजी इस समय जवाहरातखाने की कमेटी के मेम्बर हैं।
मंडारी बलवंतचंदजी.-आप पहले पहल एरिनपुर के वकील बनाकर भेजे गये । इसके बाद आप हाकिम मोराठ हो गये। संवत् १९४५ में आप रेसिडेन्सी वकील बनाए गये। महाराजा जसवंतसिंहजी आपकी हाजिर जबाबी से खुश थे। आपका स्वर्गवास हो गया है। आपके सालमचंदजी, जसरूपजी, और रघुवीरचंदजी नामक तीन पुत्र हुए । भण्डारी सालमचंदजी ने मारोठ, परबतसर, डीडवाना, जालोर आदि २ परगनों की हुकुमतें कीं। आपका स्वर्गवास संवत् १९८५ में हो गया।
भण्डारी लक्ष्मीचंदजी और केशरीचन्दजी का परिवार (कुशलचन्दोत).
भण्डारी कुशलचन्दजी के तीसरे पुत्र भण्डारी साहबचन्दजी के पौत्र ( भण्डारी कस्तूरचन्दजी के पुत्र) भण्डारी लक्ष्मीचन्दजी और केशरीचन्दजी हुए। भण्डारी लक्ष्मीचन्दजी ने जोधपुर दरबार में अच्छा
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
सम्मान पाया ! महाराजा मानसिंहजी ने आपको पहले फौजबख्शी तथा पीछे दीवानगी के महत्व पूर्ण पद पर प्रतिष्ठित किया। आपकी सेवाओं के उपलक्ष्य में आपको दो हजार रुपयों की जागीरी भी प्राप्त हुई । संवत् १८९८ तक आप दीवानगी के पद पर रहे, वहाँ से रिटायर होकर आपने अपना शेष जीवन काशी में बिताया। वहीं आपका देहान्स हुआ । आपके भण्डारी शिवचन्दजी, कानचन्दजी और धरमचन्दजी नामक तीन पुत्र हुए। भण्डारी शिवचन्दजी महाराजा मानसिंहजी के समय में कई महकमों के अफसर रहे । मानसिंहजी के पश्चात् महाराजा तखतसिंहजी ने संवत् १९०२ में आपको दीवानगी का पद और पाँच हजार की जागीर बख्शी । संवत् १९०५ में आपका स्वर्गवास हो गया। इनके दीपचन्दजी और मोकमचन्दजी नामक दो पुत्र हुए । भण्डारी दीपचन्दजी ने महाराज जसवन्तसिंहजी के समय में कई स्थानों पर हुकूमतें कीं । आप स्टेट की ओर से ए० जी० जी० के आफिस में वकील भी रहे थे। संवत् १९३२ में दरबार ने आपको पैरों में सोना और २५००) की आय का एक गाँव भी जागीर में सरदारों के विद्रोह के समय आप महाराजा जसवन्तसिंहजी के साथ थे। से अच्छे सर्टिफिकेट प्राप्त हुए थे। आपका स्वर्गवास संवत् १९५० में हुआ । आपके भण्डारी जीतचन्दजी कल्याणचन्दजी, शिवदान चन्दजी और बल्लभचन्दजी नामक चार पुत्र हुए। भण्डारी शिवदानचन्दजी का जन्म संवत् १९४५ में हुआ । आप पहले प्रोबेशनरी हाकिम और उसके पश्चात् महकमा खास के कान्फ़ेडेन्शि यल महकमें में रहे । उसके पश्चात् आप कई स्थानों पर हाकिम रहे । सन् १९३१ में आप रिटायर कर दिये गये । आपके छोटे भाई वल्लभचन्दजी पाली, सांचोर आदि स्थानों पर हाकिम रहे। सन् १६३० में इनका स्वर्गवास हो गया । शिवदानचन्दजी के पुत्र श्यामचन्दजी और वल्लभचन्दजी के पुत्र सोनचन्दजी इस समय विद्याध्ययन कर रहे हैं ।
बख्शा था । संवत् १९३५ में
आपको कई अंग्रेज अफसरों
भण्डारी केशरीचन्दजी का परिवार - दीवान भण्डारी लक्ष्मीचन्दजी के छोटे भाई केशरीचन्दजी के मालमचन्दजी, मिलापचन्दजी नामक पुत्र हुए । मालमचन्दजी जोधपुर स्टेट में हाकिम रहे। इनके परिवार में इस समय इनके पौत्र भण्डारी जगदेवचन्दजी, शिवदेवचन्दजी तथा प्रपौत्र धमरूपचन्दजी विद्यमान हैं। भण्डारी मिलापचन्दजी तामील व षट्दर्शन के महकमे में काम करते थे । आपके पुत्र भण्डारी रिधैचन्दजी का जन्म संवत् १८८६ में हुआ। आप स्टेट की ओर से संवत् १९१३ में एरनपुरा के और १९१४ में उदयपुर वकील बनाकर भेजे गये । आपके कामों की तत्कालीन पोलीटिकल एजण्टों ने बहुत प्रशंसा की । इसके पश्चात् आप मारोठ और पचपदरा के हाकिम नियुक्त हुए। संवत् १९६२ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके दो पुत्र हुए । भण्डारी रघुनाथचन्दजी और भण्डारी अम्बाचन्दजी -भण्डारी रघुनाथचन्दजी १९५५ के फागुन में उदयपुर रेसिडेन्सी के वकील बनाकर भेजे गये। संवत् १९५७ में आपके शरीर का अन्त हुआ ।
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भण्डारी
भण्डारी अम्बाचन्दजी का जन्म संवत् १९४३ में हुआ । आप सन् १९०६ में पचपदरा के हाकिम बनाये गये । इसके पश्चात् आप शेरगढ़, सांचोर, बाली, जेतारण आदि स्थानों पर हाकिम रहे । सन् १९३० में घाणोराव के नाबालिगी ठिकाने के जुडिसिपल ऑफिसर और गार्जियन मुकर्रर हुए । सन् १९३२ में आप आफिशिएटेड जूडिशियल सुपरिटेण्डेण्ट, और जोधपुर के सिटी कोतवाल बनाए गये। इस समय आप साम्भर में जुडिशियल सुपरिटेण्डेण्ट का काम कर रहे हैं । आपके पुत्र नारायणचन्दजी और
प्रभुचन्दजी पढ़ते हैं ।
भण्डारी हेमचन्दजी -भण्डारी केशरीसिंहजी के सबसे छोटे पुत्र हेमचन्दजी थे । स्टेट की ओर से आप १९१३–१४ में उदयपुर में और सन् १९२७ से ३२ तक ए०जी० जी के आफिस में वकील रहे । आपके नाम पर भण्डारी कानचन्दजी के पुत्र मानचन्दजी दत्तक आये । भण्डारी मानचन्दजी रियासत में भिन्न भिन्न स्थानों पर काम करते रहे। आपका स्वर्गवास संवत् १९८२ में हुआ । आपके नाम पर आपके छोटे भाई बलदेवचन्दजी दत्तक आये । भण्डारी बलदेवचंदजी उदयपुर के वकील और राजपूत हितकारिणी सभा के सेक्रेटरी रहे । आपका स्वर्गवास सं० १९७९ में हुआ। आपके नाम पर भण्डारी रंगराजचंदजी दत्तक
आये । आपका जन्म १९४९ में हुआ। आप सन् १९२१ में तथा १९२३ से राजपूत हितकारिणी सभा के सेक्रेटरी हैं। नामक दो पुत्र हैं ।
मारवाद सोकस बोर्ड के अ० सेक्रेटरी हुए आपके रामनाथचन्दजी और जगनाथचन्दकी
भंडारी मनमोहनचन्दजी मगरूपचन्दजी ( कुशलचन्दोत ) जोधपुर
भण्डारी कुशलचन्दजी के पाँचवे पुत्र खूबचन्दजी थे । इनके पुत्र नेनचन्दजी व्ययसाय करते थे। इनके भागचंदजी, दईचंदजी और उम्मेदचंदजी नामक ३ पुत्र हुए। इनमें दईचंदजी सम्बत् १९४४ में तथा शेष दो भाई १९४३ में स्वर्गवासी हुए । भंडारी भागचन्दजी के पुत्र सबलचंदजी और मनोहरचंदजी जोधपुर स्टेट में हाकिम रहे। भण्डारी दईचन्दजी के पुत्र बादलचंदजी थे। इनका संवत् १९३७ में स्वर्गवास हुआ। आपके मेघचन्दजी, रणजीतचंदजी, शुभचंदजी, बुधचन्दजी और परमचंदजी नामक ५ पुत्र हुए । इनमें सबलचंदजी के नाम पर रणजीतचंदजी और किशनचंदजी के नाम पर परमचन्दजी बुक गये । इन भाइयों में शुभचंदजी सायर थानेदार, बुधचन्दजी हवाला इन्स्पेक्टर और पदमबन्दजी पोलिस इन्सपेक्टर थे ।
इस समय इस परिवार में भण्डारी शुभचन्दजी के पुत्र मनमोहनचन्दजी, भण्डारी बुधचन्दजी के पुत्र उगमचंदजी, भण्डारी पदमचन्दजी के पुत्र मगरूपचन्दजी और रणजीतमलजी के पुत्र दिल मोहनचन्दजी
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प्रोसवाल जाति का इतिहास
तथा बदनमलजी हैं। भण्डारी मनमोहनचन्द जी का जन्म १९४३ में हुआ आप २० सालों से जोधपुर रेलवे में सर्विस करते हैं और इस समय बाड़मेर के स्टेशन मास्टर हैं। इनके पुत्र सुजानचन्दजी देहली में डेरी फॉमिंग का काम सीखते हैं। भण्डारी उगमचन्दजी २० सालों तक रेलवे में असिस्टेंट केशियर रहे। भण्डारी मगरूपचन्दजी का जन्म १९५७ में हुआ, इन्होंने १९७८ में एल० एल० वी की डिगरी हासिल की। १९८२ भाप हाकिम हुए । तथा सोजत विलाड़ा जोधपुर रहते हुए इस समय मेड़ते में है। भण्डारी दिलमोहनचन्दजी इस समय पोलिस अकाउंटेंट हैं, तथा बदनचन्दजी बी० ए० जोधपुर म्युनिसिपल इंस्पेक्टर ऑफ सेनिटेशन हैं।
सेठ नंदलालजी भण्डारी का परिवार इन्दौर इस परिवार के पूर्वजों का मूल निवास स्थान नाडोल (मारवाड़ ) का है। सब से प्रथम चौहान वंशीय राजपूत यहीं से जैन बनकर ओसवाल भण्डारी के नाम से प्रसिद्ध हुए थे। आपके पूर्व पुरुष करीब २६० वर्ष पूर्व ब्यापार के निमित्त सीतामऊ गये, जहाँ पर यह खान दान करोब ६० वर्ष तक रहे । इसके पश्चात् भाप लोग सीतामऊ से होलकर राज्यान्तर्गत रामपुरा नामक नगर में आकर बसे, जहाँ पर आज भी आपकी हवेलियाँ पनी हुई है। इस परिवार में सेठ चरणजी बड़े नामादित हुए। सेठ चरणजी भण्डारी रामपुरा के प्रमुख व्यापारियों में से थे। उस समय आपका व्यापार खूब चमका हुआ था। परोपकार की तरफ भी भापकी काफी रष्टि थी। आपने जनता की सुविधा के लिये एक धर्मशाला तथा श्मशान में एक विश्राम गृह भी बनाया था जो आज भी अच्छी स्थिति में विद्यमान है। आपने केदारेश्वर में एक चौतरा भी बनवाया था। इस प्रकार के कई सार्वजनिक कार्यों में आपने हाथ पटाया । आपके पश्चात् सेठ पन्नालालजी तक के बंशजों की स्थिति साधारण रही । सेठ पचालालजी ७५ वर्ष पूर्व रामपुरा से इन्दौर जा बसे । माप लोगों का परिवार तभी से इन्दौर में ही निवास कर रहा है। - सेठ पनालालजी ने इन्दौर में जाकर अफीम और कपड़े का व्यापार करना आरम्भ किया। इसमें आपको अच्छी सफलता प्राप्त हुई। आपके नंदलालजी नामक एक पुत्र हुए।
सेठ मंदलालजी हार्थो से इस फर्म की बहुत ही उमति हुई। आपने अपने जीवन में काफी सम्पत्ति, सम्मान तथा प्रतिष्ठा को प्राप्त किया। आप धीरे १ इन्दौर के धनिक ब्यापारियों में गिने जाने कगे। इतना ही नहीं इन्दौर दरबार में भी आपका समुचित सम्मान था। आप कई वर्षों तक इन्दौर-म्युनिसिपैलिटी के कार्पोरेटर तथा ऑनरेरी मजिस्ट्रेट के सम्मान से मी सम्मानित किये गये थे। सारे मध्यभारत के मोसवाल समाज में आपकी बहुत प्रतिष्ठा थी।
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० सेठ नन्दलालजी भंडारी, इन्दौर.
सेठ कन्हैयालालजी भंडारी, इन्दौर.
श्रीयुत मोतीलालजी भंडारी, इन्दौर.
श्रीयुत सुगनमलजी भंडारी, इन्दौर.
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मंडारी
रामपुरा की जनता भी आपका बहुत आदर करती थी। भाप बड़े सजन, मिलनसार, दानी तथा परोपकारी सजन थे। आपके धार्मिक विचार भी बड़े चढ़े बदे थे। आपके तीन पुत्र हुए जिनके नाम श्री कन्हैयालालजी, सुगनमलजी एवं मोतीलालजी है। इस प्रकार यशस्वी जीवन बिताते हुए अपने पुत्रों के लिए धन-जन सम्पन्न घर को छोड़ कर भाप परलोक सिधारे । श्री० कन्हैयालालजी भण्डारी
श्री कन्हैयालालजी भण्डारी उन व्यक्तियों में से एक है जिन्होंने अपनी बुद्धिमानी, व्यापारकुशलता और तीव्र व्यवस्थापिका-शक्ति से अपने व्यवसाय को तरक्की पर पहुंचाया। जिन लोगों को आपके संसर्ग में रहने का अवसर प्राप्त हुभा है वे आपकी जबरदस्त व्यवस्थापिका-शक्ति से भली-भाँति परिचित हैं। इन्दौर का भण्डारी मिल भापकी इस शक्ति का बड़ा ही ज्वलन्त उदाहरण है। बह मिल जिस समय स्थापित हुभा था उस समय सभी दूर की व्यापारिक स्थिति बढ़ी डावाडोल हो रही भो और लोगों को विल्कुल आशा न थी कि यह इतनी सफलता से भागे जाकर चल निकलेगा। मगर भण्डारी कन्हैयालालजी की कार्य-शीलता तथा व्यापारिक विवेक ने इस मिक को इतनी उन्नति पर पहुँचाया कि आज व्यवस्था और सफलता की दृष्टि से यह मिस इन्दौर की सर्वप्रधान मिलों में से एक गिना जाता है और भण्डारी कन्हैयालालजी सारे भारतवर्ष के भोसवाल समाज में पहले या दूसरे नम्बर के इण्डस्ट्रियालिस्ट (Industrialist) माने जाते हैं।
श्री कन्हैयालालजी का जन्म सम्बत् १९४५ में हुमा । भाप प्रारम्भ से ही व्यापारिक लाइन में बड़े प्रतिभाशाली रहे । आपने सन् १९१९ में 'स्टेट मिक्स लिमिटेड इन्दौर' को २० वर्ष के लिये ठेके पर लिया। आपने इस मिल की कम-से-कम खर्चे में अच्छी-से-अच्छी व्यवस्था की। साथ ही इस मिक के कपड़े को दूर २ के प्रान्तों में खपाने के लिये कानपुर व अमृतसर में कपड़े की दुकानें भी स्थापित को। मापने करीब छः लाख रुपये की नई मशीनरी खरीद कर इसमें राई वगैरह का काम भी शुरू कर एक नया जीवन का दिया । इस समय भी आप इस मिल की व्यवस्था कर रहे हैं।
सन् १९२२ में आपने अपने पिताजी के नाम से इन्दौर में ही तीस लाख की (जी से "नन्दलाल भण्डारी मिल्स लिमिटेड” नामक एक ओर मिल खोला। जिस समय यह मिस खोला गया था उस समय की भारत की व्यापारिक स्थिति पर हम लोग प्रथम ही लिख चुके हैं। मगर मिल लाइन में तथा मशीनरी के सम्बन्ध में आपको विशेष योग्यता, व्यवस्थापिका-शक्ति और बुद्धिमानी के परिणाम स्वरूप इसमें आपको बहुत सफलता प्राप्त हुई । फलतः वर्तमान में यह मिल बहुत ही सफलता पूर्वक
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बोलवाल आति का इतिहास चल रहा है। इस मिल के खुलने के वर्ष वाद अर्थात् सन् १६२८ में आपने मूलजी हरिदास मिल्स कल्याण को ७२५०००) में खरीदकर उसकी सारी मधीनरी इस मिल में सम्मिलित कर दी जिससे इस मिल में एक नया जीवन वा गया और तेजी के साथ इस मिल में बहुत अधिक मात्रा में माल निकलने लगा। इस समय यह मिल रात और दिन चौबीसों घंटा चलता रहता है।
इसी प्रकार आपने सन् १९२८ में इन्दौर में, एक बहुत बड़े स्केल पर पीतल का कारखाना भी स्थापित किया। यह कारखाना सन् १९३१ से बिजली द्वारा चलाया जाने लगा। वर्तमान में इस पीतल के कारखाने से दूर २ के प्रान्तों में पीतल आदि के बर्तन भेजे जाते हैं । इसी कारखाने में मशीनरी के बहुत से पुरजे भी ढाले जाते हैं। श्री कन्हैयालालजी की सार्वजनिक सेवा
श्री कन्हैयालालजी एक बड़े योग्य व्यापारी तथा कुशल व्यवस्थापक होने के साथ ही साथ बड़े सुधरे हुए नवीन विचारों के शिक्षित सज्जन हैं। आपने मिलों में काम करने वाले व्यक्तियों तथा साधारण जनता की सुविधा के लिये अनेक उपयोगी संस्थाएं खोल कर अपनी उदारता का परिचय दिया है। पाठकों की जानकारी के लिये आपकी ओर के बनाई गई कुछ संस्थाओं का हम नीचे उल्लेख करते हैं।
सन् १९२२ में आपने अपने पिताजी के नाम से एक विद्यालय स्थापित किया । इस विद्यालय के लिये आपने २५०००) की लागत का एक मकान बनवा कर इसके सुपुर्द किया। सन् १९३० से आपने खजूरी बाजार में ६००००) की लागत से मकान तैयार करवा कर उसमें नन्दलाल भण्डारी हाईस्कूल की स्थापना की जो आज भी बहुत सफलता पूर्वक चल रहा है। यहाँ पर प्रति वर्ष सैकड़ों विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करते हैं। इस हायस्कूल को चलाने में आपकी ओर से करीब १८०००) प्रति वर्ष खर्च किया जाता है।
- इसी प्रकार मिल में काम करने वालों की सुविधा के लिये आपकी ओर से एक दवाखाना, शुद्धपानी का एक कुंआ, भोजन करने का हाल आदि २ कई मकान बनाये गये हैं जिनसे प्रतिदिन सैकड़ों सीपुरुष लाभ उठाते हैं।
इसके अतिरिक्त स्नेहलतागंज इन्दौर के अन्तर्गत आपकी ओर से एक विशाल प्रसूतिगृह इसी वर्ष स्थापित किया गया है जिसके भवन २२५००) में मोल लिये गये हैं। इस प्रसूतिगृह के अन्तर्गत मजदूर
और सर्व साधारण जनता के लिये सब प्रकार की सुविधाओं की व्यवस्था रक्खी गई है। मई सन् १९३४ से पह प्रसूतिगृह सर्व साधारण की सेवा करने के लिये खुल गया है। इसमें सभी प्रकार के अनुभवी
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भण्डारी
और पान्य डाक्टर रक्खे गये हैं। यह गृह बहुत विशाल है था अत्यन्त सुव्यवस्थित ढंग से चलाया जा रहा है। इसका वार्षिक खर्च १४०००) के करीब पड़ता है जो सब आप ही की तरफ से दिया जाता है।
इसी प्रकार आपकी जन्मभूमि रामपुरा में भी श्री नन्दलाल भण्डारी बोरिंग हाउस नामक बोर्डिग मी आप ही के द्वारा खोला गया जिसमें बहुत से विद्यार्थी रहते तथा विद्याध्ययन करते हैं। इस बोडिंग की व्यवस्था के लिये आपकी ओर से 10) प्रति मास वर्तमान में दिया जा रहा है। आप उक बोडिंग हाउस के लिये रामपुरा नगर के बड़े बाजार में एक बहुत बड़ा २५०००) की लागत का स्वतन्त्र मकान भी बना रहे हैं जिसका काम बहुत तेजी के साथ चल रहा है। इसके अतिरिक्त महाराजा तुकोजी. राव हॉस्पिटल में अपने पूज्य पिताजी के नाम पर नन्दलाल भण्डारी फेमिली वार, रामपुरा में श्मशानविभान्तिगृह, ओसवाल भवन रामपुरा में एक भखादा आदि २ कई सार्वजनिक भवन व संस्थाएं भापकी भोर से चल रही हैं। कहने का मतलब यह है कि आपने क्या न्यापार, क्या परोपकार, क्या जाति सेवा तमासा समाज सुधार सब में अपनी प्रतिभा का पूर्ण परिचय दिया है। आपकी भोर से कई गरीब विद्यार्थियों को स्कॉलरशिप भादि भी दी जाती है। प्रायः सभी सार्वजनिक और परोपकार के कानों में हजारों रुपये भापकी ओर से सहायतार्य दिये जाते हैं।
आपका जाति प्रेम भी अत्यन्त सराहनीय है। ओसवाल जाति के नवयुवकों के प्रति भाप हृदय में बहुत गहरा स्थान है । सैकड़ों ओसवाल नवयुवक आपकी वजह से जीविका उपार्जित कर रहे हैं। जाति सुधार के सम्बन्ध में भी आपके विचार बड़े मजे हुए हैं। भाप सामाजिक सुधारों को व्यवहारिक रूप देने के बहुत ज़बरदस्त हामी हैं। विवाह, शादी, ओसर मोसर इत्यादि सामाजिक कुरीतियों की वेदी पर जो हजारों सालों रुपया खर्च होता है उसको तोड़ कर आपने उस पैसे को विद्या प्रचार, समाज सुधार इत्यादि उपयोगी कार्यों के अन्दर खुले दिल से खर्च किया है। आप कई समाज संस्थाओं के प्रेसिडेण्ट तथा पदाधिकारी रहे हैं। आपके द्वारा स्थापित की हुई सार्वजनिक संस्थाएं ओसवाल जाति के अन्दर काफी और से प्रकाशमान हैं।
आपका ओसवाल जाति के अंतर्गत भी काफी सम्मान है। भाप सन् १९॥ के नासिक जिला भोसवाल सम्मेलन के सभापति भी चुने गये थे। इस पद को आपने बड़ी योग्यता से सम्पादित किया ।
श्री कन्हैयालालजी भण्डारी इन्दौर नगर के एक अच्छे प्रतिष्ठित सज्जन हैं। भापका यहाँ की जनता में और इन्दौर दरबार में भी काफी सम्मान है। इन्दौर राज्य के शिक्षित प्रमुख धनिक नागरिकों में आपका स्थान ऊँचा है। आपको सन् १९२८ में होलकर सरकार की ओर से इन्दौर म्युनिसिपल कमेटी में नामजद किया गया जिसके तीन वर्ष तक आप कार्पोरेटर रहे। इन तीन वर्षों में आपने अपने
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काम को बड़ी योग्यता से सम्हाला । आप इन तीन वर्षों में म्युनिसीपैलिटी को भार से इन्दौर म्युनिसिपल इम्प्रन्हमेंट ट्रस्ट बोर्ड के ट्रस्टी भी चुने गये थे। आप सरकार की भोर से सम् १९२८ में तीसरे दर्जे के भानरेरी मजिस्ट्रेट बनाये गये। आपने इस पद पर लगातार चार वर्षों तक काम किया। आपकी कायंकुशलता और योग्यता से प्रसन्न होकर होलकर गवर्नमेंट ने आपको सन् १९३२ से द्वितीय दर्जे के आनरेरी मजिस्ट्रेट के सम्माननीय पद से विभूषित किया। आज भी आप इस पद पर हैं और बड़ी योग्यता से सब कार्य सञ्चालित करते हैं। आप सन् १९३३ में “इन्दौर स्टेट मिनरल सरहे" के मेम्बर बनाये गये तथा आज तक उसके मेम्बर हैं।
इसके अतिरिक्त भाप कोआपरेटिव्ह सोसाइटी के प्रेसिडेण्ट, राऊ गुरुकुल की गव्हनिंग बॉडी के मेम्बर, तथा इसी प्रकार की कई सभाओं के व संस्थाओं के आप सभापति वगैरह हैं। तात्पर्य यह है कि आप बहुत बड़े बुद्धिमान, व्यापार कुशल, सुधारक और भोसवाल समाज के चमकते हुए व्यक्ति हैं।
आपके छोटे भ्राता श्री मोतीलालजी एवं सुगनमलजी भी आपके साथ व्यापार, मिल की व्यवस्था तथा अन्य कार्यों में सहायता देते हैं। आप दोनों भ्राता भी बड़े मिलनसार सजन हैं।
यह परिवार रामपुरा तथा इन्दौर ही नहीं वरन् सारे मध्यभारत की ओसवाल समाज में अग्रगण्य तथा ओसवाल समाज में दिखता हुआ परिवार है।
सेठ बालमुकुन्द चन्दनमल (भंडारी) मूथा, सतारा
इस प्रतिष्ठित परिवार का मूल निवास स्थान पीपाड़ है। जोधपुर स्टेट में ऊँचे ओहदों पर कार्य करने से इस कुटुम्ब को मूथा पदवी का सम्मान मिला। पीपाड़ से मूथा गुमानचन्दजी के दूसरे पुत्र मोखमदासजी लगभग १०० साल पूर्व अहमदनगर होते हुए सतारा आए, तथा आपने कपड़े का व्यव. साय भारम्भ किया।
सेठ हजारीमलजी मूथा-आप मूथा मोखमदासजी के पुत्र थे। आपका जन्म सम्वत् १८७४ में हुआ। आपने कपड़ा, सूत और व्याज के व्यवसाय में अच्छी सम्पत्ति कमाई । धार्मिक कामों में भी आपकी रुचि थी। सम्बत् १९४७ की प्रथम भादवा वदी १२ को आपका स्वर्गवास हुआ । आपके बालमुकुन्दजी और चन्दनमलजी नामक दो पुत्र हुए।
सेठ बालमुकुन्दजी मूथा-आपका जन्म संवत् १९१४ की फाल्गुन वदी में हुआ। मैन शास्त्रों में आपकी समझ ऊँची थी। केवल ३० साल की अल्पायु में आपकी धर्मपत्नी का स्वर्गवास हुआ। ऐसी स्थिति में भी आपने द्वितीय विवाह करना अस्वीकार कर अपने हद मनोबल और उच्च आदर्श का परिचय दिया। आप
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० सेठ बालमुकुन्दजी मूथा, सतारा.
सेठ चन्दनमलजी मूथा, सतारा.
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रायसाहब सेठ मोतीलालजी मूथा, सतारा.
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भंडारी
सतारा म्युनिसिपैलेटी के मेम्बर और महाराष्ट्र प्रान्तीय जैन सास के सभापति निर्वाचित हुए थे । भारत के स्थानकवासी जैन समाज ने अखिल भारतीय स्था० जैन कान्फ्रेंस के अजमेर वाले तीसरे अधिवेशन का सभापति चुनकर आपको सम्मानित किया था । कहने का तत्पर्य यह कि भाप महाराष्ट्र प्रान्त की जनता में तथा भारत के जैन जगत में प्रतिभावान पुरुष थे। छत्रपति शिवाजी के वंशज सतारा महाराज एवं अन्य बड़े २ रईस जागीरदारों से आप मनी लेण्डिा विजिनेस करते थे । संवत् १९७६ की जेठ वदी ११ को आप स्वर्गवासी हुए । आपके सम्मान स्वरूप सतारा के बाजार बंद रखे गये थे।
सेठ चन्दनमलजी मूथा-आपका जन्म त् १९२१ की सावण सुदी ५ को हुआ । आप फर्म का काम बड़ी तत्परता से संचालित करते हैं। आप सतारा के व्यापारिक समाज में प्रतिष्ठा सम्पन्न व्यक्ति माने जाते हैं। सन् १९१४ के दुष्काल में सस्ता अनाज वितरित करके आपने गरीब जनता की इमदाद की थी। पूना के स्थानक वासी वोडिंग के स्थापन में आपने 10 हज़ार रुपयों की सहायता दी थी। धार्मिक कामों की ओर आपका अच्छा लक्ष्य है। इस समय आपके कोई पुत्र नहीं हैं। .
राय साहिब सेठ मोतीलालजी मूथा-आपका जन्म संवत् १९४७ के दूसरे भादा बदी ३ को हुआ। महाराष्ट्र प्रान्त के प्रधान धनिक व्यापारियों में आपकी फर्म की गणना तो थी ही, पर उस सम्मान की सेठ मोतीलालजी मूथा के सार्वजनिक कामों में सहयोग लेने से अत्यधिक वृद्धि हुई । सन् १९१४ में सेठ मोतीलालजी मूथा म्युनिसिपल कोंसिलर चुने गये और लगातार ३ चुनाव तक मेम्बर रहे । सन् १९१० से १९२३ तक आप सतारा एडवर्ड पांजरापोल के प्रसिडेंट और चैयरमैन चुने गये। इस समय १५ सालों से सतारा तालुका लोकल बोर्ड के वाइस प्रेसिडेंट रहे एवं वर्तमान में प्रेसिडेट हैं । ६ सालों से आप डिस्ट्रिक्ट लोकल बोर्ड के मेम्बर हैं। इसी तरह जेल कमेटीडिस्पेंसरी आदि संस्थाओं में भी आप सहयोग देते हैं।
राय साहेब सेठ मोतीलालजी मूथा अपने पिताजी की तरह ही धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में ग्यातिवान व्यक्ति हैं। भाप की गणना सतारा जिले के प्रधान व्यक्तियों में है। जैन जगता में आप आदरपीय ब्यक्ति हैं। आप महाराष्ट्र ओसवाल कान्फ्रेंस के अहमदनगर वाले अधिवेशन के सभापति रहे थे। १२ सालों से स्था० कान्फ्रेंस का अधिवेशन बन्द हो गया था, उसे कई सज्जनों के साथ परिश्रम करके आपने पुनः मलकापुर में कराया। उक्त अधिवेशन में आप स्वयंसेवक दल के सेनापति थे। इस अधिवेशन के समय से . आप स्था. जैन कान्फ्रेंस के रेसिडेंटल जनरल सेक्रेटरी हैं। आपके गुणों एवं कार्यों से प्रसन्न होकर भारत सरकार ने सन् १९३१ में आपको रायसाहिब की पदवी से सम्मानित किया है। आप कई सालों से सतारा बेंच के ऑनरेरी मजिस्ट्रेट रहे । हर एक सार्वजनिक व धार्मिक कामों में आप उदारता पूर्वक
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सवाल जाति का इतिहास
पुरमें चन्दनमल मोतीलाल मुथा के नाम से कपड़े का व्यापार करती है। के नाम से इस फर्म पर बैंकिंग एवं मनीलॅडिक व्यापार होता है। पुत्र संकारमलजी की उम्र ५ साल की है।
सहायताएं देते हैं । आपकी फर्म बम्बई में बालमुकुन्द चन्दनमक मूथा के नाम से आदत का और सोकासतारा में मोखमदास हजारमक रायसाहेब सेठ मोतीलालजी के
भण्डारी रूपराजजी, (निम्बावत) जालोर
भण्डारी नराजी के छठे पुत्र निम्बाजी हुए। इनके वंश में आगे चल कर नथमलजी हुए । इनके पुत्र ईसरदासजी और करमसीजी संवत् १७७४ में जालोर आये । भण्डारी करमसीजी के पुत्र सरदारमलजी ( सर्वांणजी) और जोगीदासजी हुए । भण्डारी जोगीदासजी थिरात ( पालनपुर ) के पास युद्ध करते हुए झुंझार हुए। इनके पुत्र दुरगदासजी के साथ इनकी धर्मपत्नी १७०६ की चेत वदी ९ के दिन सती हुई, तब से इस परिवार में चेत वदी ९ की पूजा होती है। दुरगादासजी के पुत्र मानमलजी की पक्षी भी उनके साथ सती हुई ।
भण्डारी सरदारमलजी के पौत्र प्रेमचन्दजी संवत् १८६४ में भीनमाल की लड़ाई में झुंझार हुए। यहाँ तालाब पर उनका चौतरा बना है। झुंझार होने से इनके पुत्रों को संवत् १९४० तक ३००) सालियाना मिलते रहे । भण्डारी प्रेमचन्दजी के किशनचन्दजी, मयाचन्दजी और जालमचन्दजी नामक तीन पुत्र हुए । उनमें किशन चंदजी के परिवार में इस समय चम्पालालजी विजयराजजी और सजनराजजी हैं। भण्डारी आलम • चन्दजी के पुत्र ज्ञानमलजी और भभूतमलजी हुए। ये दोनों भ्राता जालोर किले और कोनवाली में मुलाजिम थे। ज्ञानमलजी के पौत्र छगनराजजी हैं। इनके पुत्र सम्पतराजजी ने मेट्रिक तक शिक्षा पाई है। भण्डारी भभूतमलजी संवत् १९५७ में स्वर्गवासी हुए।
भण्डारी भभूतमलजी के पुत्र दोळतमलजी, मुकुन्दचन्दजी तथा रूपचन्दजी विद्यमान हैं । दोकत मलजी मे बहुत समय तक जोधपुर में सर्विस की । भण्डारी रूपराजजी का जन्म संवत् १९५४ में हुआ । आपने सन् १९१९ में वकालात पास की तथा तब से ये जालोर में प्रेक्टिस करते हैं। आप यहाँ के प्रतिडित म्बति हैं । आपने राईलाल तालाब में दुरुस्ती कराई, बड़ी पोल के दरवाजे में वारिश में मवेशियों के लिये राह ठीक कराई तथा सरदार हाई स्कूल में कमरा बनवाया । दौलतमलजी के पुत्र निहालचन्दजी जोधपुर में सर्विस करते हैं। निहालचन्दजी ने मेट्रिक तक शिक्षा पाई है और किशोरचन्दजी पढ़ते हैं ।
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मंडारी
भीनमाल का भण्डारी खानदान (निम्बावत) भण्डारी दुरगादासजी के पुत्र भण्डारी जेठमजी, मानमब्जी और सरदारमलजी का परिचय हम अपर दे चुके हैं। भण्डारी सरदारमलजी १८८३ में भीनमाल के हाकिम हुए और ४ साल बाद तीनों भाई सांचोर, जालोर, तथा भीनमाल के हाकिम हुए तथा बहुत वर्षों तक इस पद पर काम करते रहे। इन भाइयों को १८९० में दरबारने सिरोपाव मोतियों की कण्ठी, कहा, दुशाला, खासा घोड़ा आदि के सन्मान बख्शे । मानमलजी ने सिरोही इलाके के बागी देवड़ा को परास्त कर गिरफ्तार किया । मानमलजी के पुत्र सुल्तानमहजी जालोर के कोतवाल थे। इन्होंने २२ परमों से रेख रकम वसूल करने का काम किया । सं० १९१० में आप नागोर की तरफ के परगनों के बागी भादमियों को दबाने के लिये गये । इस तरह कई मोहदों पर इस परिवार के व्यक्तियों में काम किया । इस दम्ब में इस समय भण्डारी सम्हराजजी, जसवन्तराजजी, नयमजी तथा दाममलजी विद्यमान हैं । सबहराजजी के पुत्र मनोहरमलनी किशोरमलजी तथा नथमकजी के पुत्र हस्तीमलजी सुकनमलजी जोधपुर तथा सिरोही कस्टम विभाग में सर्विस करते हैं। दानमब्जी के पुत्र मुनीलालजी सांवतमलजी तथा पृथ्वीराजमी है। सांवतमब्जी मिलनसार और सज्जन युवक हैं।
सेठ लालचन्द प्रेमराज (भंडारी) मूथा, अहमदनगर . .
लगभग ७५ साल पहिले भण्डारी मूथा पूनमचन्दजी पीपाड़ से अहमदनगर आये। भापने यहाँ नौकरी की। आपके पुत्र धनराजजी ने पूनमचन्द धनराज के नाम से कारबार शुरू किया। तथा म्यवसाय जमाकर सम्वत् १९५३ में आप स्वर्गवासी हुए । भापके पुत्र लालचन्दजी और मालमचन्दजी हुए। मण्डारी लालचन्दजी के हाथों से इस फर्म के म्यापार को मच्ची उन्नति मिली । आप कान्फ्रेंस और जाति के कामों में आगेवान रहते थे और जाति के सरपंच थे भापका अंत सं० १९६४ में हुआ । आपके पाठ वर्ष बाद थालचन्दजी और आपके पुत्र प्रेमराजजी अलग २ हो गये। भण्डारी मूथा प्रेमराजजी सार्वजनिक कामों में अच्छा सहयोग लेते हैं। आपके यहाँ लालचन्द प्रेमराज के नाम से कपड़े का व्यापार होता है। भाप स्थानकवासी भाम्राय के मानने वाले हैं।
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वेद मेहता
वेद मेहता गौत्र की उत्पत्ति
कहा जाता है कि जब अट्ठारह जाति के राजपूत लोग आचार्य श्री रत्नप्रभुसूरिजी के उपदेशों से प्रभावित होकर ओसबाळ हुए, उस समय उनमें राजा उपलदेव भी एक थे । ये पंवार जाति के राजपूत राजा थे। इन्हीं उपलदेव की संतान आचार्य श्री के द्वारा श्रेष्ठी गौत्र में दीक्षित हुई। इनकी कई पुश्तों के पश्चात् इसी वंश में संवत् १२०० के करीब दुल्हा नामक एक प्रसिद्ध व्यक्ति हुए । इनके पितामह वैध का काम करते थे । ऐसी किम्वदन्ती है कि एक बार चित्तौड़ के तत्कालीन महाराणा की रानी की आँखे खराब हो गई । उस समय बहुत से व्यक्ति इलाज करने के लिये आये, मगर सब निषफल हुए । इसी समय दुल्हाजी भी मुनि श्री जिनदत्तसूरिजी के द्वारा प्राप्त दवाई को लेकर राज महल में गये और अपनी दबाई से महारानी के चक्षु ठीक कर दिये । यह देख महाराणा बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने दुल्हा को वेद की पदवी प्रदान की । इसी समय से इनका श्रेष्ठी गौत्र बदल कर वेद गौत्र हुआ । इसके पश्चात् इस परिवार के लोगों का राज्य में विशेष काम काज रहा । इसीसे इन्हें मेहता पदवी मिली। तभी से ये वेद मेहता कहलाते चले आ रहे हैं 18
वेद मेहता परिवार बीकानेर
कहना न होगा कि इस परिवार का इतिहास बड़ा गौरवमय और कीर्ति शाली रहा है । इस परिवार के महापुरुषों ने क्या राजनीति क्या समाजनीति और क्या युद्धनीति, सभी क्षेत्रों में ऐसे २ आश्चर्य जनक कार्य कर दिखाये हैं, जिससे किसी भी जाति का इतिहास उज्वल हो सकता है। इन सब बातों का परिचय पाठकों को समय २ और स्थान २ पर मिलने वाले परिचयों से प्राप्त हो जायगा ।
संवत् १४५० के करीब की बात है मंडोवर नगर में राठोड़ वंशीय राव चूंडाजी राज्य करते थे । उस समय इस परिवार के पुरुष मेहता खींवसीजी राव चूंडाजी के दीवान थे । करीब २ इसी समय का जिक्र है कि राव चंडाजी को मेवाड़ के तत्कालीन महाराणा कुम्भाजी ने आक्रमण करके मण्डोवर से बेदखली कर दिया था । इसी समय मेहता खींवसीजी मे बड़ी बहादुरी और बुद्धिमानी से युद्ध कर अपनी कारगुजारी एवम् होशियारी के द्वारा फिर से मंडोवर नगर पर अपने स्वामी का अधिकार करवाया था ।
● ऐसा भी कहा जाता है कि उपलदेव के पुत्र वेदाजी से वेद गौत्र की उत्पत्ति हुई ।
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संवत् १५१५ में जब कि राव जोधाजी ने अपने नाम से जोधपुर शहर बसाया था, उस समय भी इस खानदान वाले सज्जनों ने रियासत में दीवानगी जैसी ऊंची २ जगहों पर काम कर अपनी कागुजारी का परिचय दिया था। इसके पश्चात् एक समय का प्रसंग है कि किसी कारणवश राव जोधाजी के बड़े राजकुमार बीकाजी अपने उत्तराधिकार के सारे स्वत्वों को छोड़ कर कतिपय स्नेही जनों को साथ ले, जोधपुर को छोड़कर एक नवीन राज्य की स्थापना करने के उद्देश से चल पड़े। इन स्नेही व्यक्तियों में कई लोगों के साथ इस परिवार के लाला लाखणसी ( लालसीजी, लालोजी) भी थे । लाखनसीजी के साथ आपके दो भाई लोणाजी और जैतसीजी भी साथ आये थे, जिनका परिवार इस समय क्रमशः फलौदी और मारवाड़ के अन्य स्थानों में निवास कर रहा है।
वेदलाला लाखनसी—आप दीवान खींवसीजी की पांचवीं पुश्त में हुए। आपने राव बीकाजी को नवीन राज्य स्थापित करने में जो बहुमूल्य मदद पहुँचाई उसका जिक्र बीकानेर के इतिहास में भलीभांति किया गया है। जिस समय बीकानेर बसाया गया उस समय भी आपने इसके बसाने में पूरी २ कोशिश की थी। प्रथम २७ मोहल्लों में से १४ मोहल्ले आपके द्वारा बसाए गये । शेष बच्छराजजी मेहता के द्वारा बसे । उस समय बीकानेर राज्य में आप या मेहता बच्छराजजी दोनों ही व्यक्ति ऐसे थे जो राजा और प्रजा दोनों में बड़े सम्मानित समझे जाते थे। आप दोनों ही के द्वारा अपने २ बसाए ए मुहल्लों में कई नियम प्रचारित किये गये थे, जिनमें से कुछ आज भी सुचारुरूप से चल रहे हैं। मेहता लाखनसीजी के श्रीवन्तजी और श्रीवन्तजी के अमराजी एवम् सूरजमलजी नामक दो पुत्र हुए। अमराजी के पुत्र जीवनदासजी ने बीकानेर स्टेट में जीवनदेसर नामक एक गाँव आबाद किया । जीवनदासजी के पुत्र का नाम मेहता ठाकुरसीजी था ।
मेहता ठाकुरसाजी - आप राजा राबसिंहजी के राजस्वका में रियासत बीकानेर के दीवान रहे । आपके समय में बहुत सी लड़ाइयाँ हुई। जिस समय राजा रायसिंहजी ने दक्षिण विजय किया उस समय मेहता ठाकुरसीजी उनके साथ थे। इस युद्ध में विजय प्राप्त करने के कारण बादशाह अकबर राजा रायसिंहजी से बड़े प्रसन्न हुए । उन्होंने इन्हें ५२ परगने का एक पट्टी इनायत किया । इसी समय आपने मेहताजी की चाकरी पर खाविदी फरमा कर एक तरधार और भटनेर नामक एक गाँव जागीर स्वरूप प्रदान किया, जिसे आजकल हनुमानगढ़ कहते हैं। साथ ही इस परगने का काम भी आपके सुपुर्द हुआ। आपके सांवलदासजी एवम् राजसीजी नामक दो पुत्र हुए। आप लोगों ने भी राज्य में ऊँचे पदों पर कार्य्यं किया । आपके समय में ८, ९ गाँव की जागीर आपके अधिकार में थी ।
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मोख्वाज बाति का इतिहास
मेहता सावलदासजी के पाचात् क्रमशः आसकरणजी, रामचन्द्रजी, दौलतरामजी, माणकचंदजी और घमंडसोजी हुए।
मेहता घमंडसीजी-आप महाराजा सूरतसिंहजी के राजस्व-काल में हुए। आप बड़े कारखाने एवम् श्रीजी के निज के खर्च के बन्दोबस्त के काम पर नियुक्त किये गये। इस काव्यं को आपने बड़ी होशियारी और बुद्धिमानो के साथ किया । आपके दो पुत्र हुए जिनके नाम मेहता मूलचन्दजी और मेहता भवीरचन्दजी था।
मेहता मूलचन्दजी-आप मेहता घमंडसीजी के बड़े पुत्र थे। अपने पिताजी के स्वर्गवासी हो जाने पर आप उनके रिक्त स्थान पर नियुक्त हुए। सम्बत् १८७० में आप चूरू के सरदार के साथ होने वाले युद्ध में महाराजा के साथ गये थे। इस युद्ध में आपने अपनी बहादुरी एवम् वीरत्व का खासा परिचय दिया था। यहीं आप बरछी के द्वारा घायल हुए थे। आपके कार्यों से प्रसन्न होकर तत्कालीन महाराजा साहब ने आपको बड़े कारखाने का काम भी सौंपा। इसी समय नौरङ्गदेसर नामक एक गाँव भी आपके गुजरान के लिये बक्षा गया । आपके स्वर्गवासी हो जाने पर तत्कालीन महाराजा रतनसिंहजी सम्वत् १९०५ में आपके मकान पर पधारे और मातम पुरसी की। आपके चार पुत्र थे, जिनके नाम क्रमशः मेहता भमो. एकचन्दजी, मेहता हिन्दूमळजी, मेहता छोगमलजी और मेहता अनारसिंहजी थे।
मेहता अबीरचन्दजी-आप मेहता घमंडसोजी के दूसरे पुत्र थे। आप राज्य में होने वाली डकैतियों की देखभाल के काम पर नियुक्त हुए थे। यह काम उस समय बहुत ज्यादा खतरनाक था । आजकल की भांति व्यवस्था न होने पर भी आपने यह कार्य बहुत बुद्धिमानी एवम् होशियारी तथा वीरता से सम्पादित किया । इस काम को करते समय आपको कई बार डाकुओं का सामना करना पड़ा और उनसे युद्ध करना पड़े। इन युद्धों में आपको कई घाव भी लगे। कुछ समय के पश्चात् महाराजा ने आपको इस काम से हटाकर रियासत बीकानेर की भोर से देहली में वकील के स्थान पर भेजे। इस उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य को भी आपने बड़ी होशियारी और बुद्धिमानी से संचालित किया । आपके कार्यों से महाराणा एवम् रेसिडेण्ट दोनों ही सजन बड़े प्रसन्न रहे। संवत् १८८४ में देहली ही में डाकुओं के साथ होनेवाली लड़ाइयों में जो घाव लगे थे, उनके खुल जाने से आपका स्वर्गवास हो गया।
- मेहता हिन्दूमलजी-आप मेहता मूलचन्द्रजी के द्वितीय पुत्र थे। इस परिवार में माप बड़े बुद्धिमान प्रतिभा सम्पन्न और मेधावी व्यक्ति हुए। भाप सम्वत् १८८४ में रियासत की ओर से देहली वकालत पर भेजे गये। इसके पश्चात् आपके बुद्धिमत्ता पूर्ण कार्यों से प्रसन्न हो कर महाराजा साहब ने आपको अपना दीवान बनाया। धीरे २ आपको सिक्केदारी की मुहर भी प्रदान करदी गई पाने राज्य का सारा
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कार्य मापके सुपुर्द हो गया। संवत् १८४८ में मेला हिन्दूमलजी बादशाह पास देहली गये। वहां बादशाह को अपने कार्यों से खुश कर अपने स्वामी महाराजा रतनसिंहजी के लिये भाप नरेन्द्र शिरोमणि का सम्मानीय खिताब लाये। इससे खुश होकर महाराजा ने आपमे 'महाराव' का खिताब प्रदान किया। तथा घर पधार कर मोतियों का हार इनायत किया।
जिस समय वहाँ के रेसिडेण्ट मि० सदरलैण्ड थे, उस समय काबुल और जोधपुर के हमले में महाराव हिन्दूमलजी ने कासीद व रसद भेजने का बहुत अच्छा इन्तजाम किया था। भारत सरकार भी आपका बहुत विश्वास करती थी । यहाँ तक कि जयपुर के तत्कालीन एजेण्ट जब स्वर्गवासी हो गये तब वहाँ का शासन भी आपकी राय से किया गया था। रियासत बीकानेर की बोर से सालाना २२ हजार रुपया भारत सरकार को फौज खर्च के लिये देना पड़ते थे। आपने सरकार से कह सुन कर इस कर को माफ कर. पाया। आपके उचित प्रबन्ध के कारण सरकार ने बीकानेर में एजेण्ट रखना भी उचित नहीं समझा।
... एक बार हनुमानगढ़ और भावलपुर की सरहद का मामला बढ़ गया यहाँ तक कि बाकी तमाळा हो गया, उस समय आपने बड़ी बुद्धिमानी, खूबी एवम् मेहनत से इस मामले को निपट दिया और जमीन का बटवारा कर दिया। मौके की जमीन होने से इसमें बहुत से गाँव भावाद हो गये। ऐसा करने से राज्य की आमदनी में बहुत वृद्धि हो गई।
मि० कर्मिघम आपके कार्यों से बड़े खुश रहा करते थे। एक बार वे आपको शिमला के गये। यहाँ तत्कालीन पाइसराव मिहाडिज से भापकी मुलाकात करवाई। इस बार शिमला दरबार में भारत सरकार ने आपको सिष्ठत प्रदान की। इस समय के पत्र का सारांश नीचे दिया जा रहा है:
__ "सन् १८१६ की ३ री मई कोराईट मारेबल गवरनर जबरलाई हालिंज शिमला दरकार के वक्त मेहता महाराव हिन्दूमल दीवान बीकानेर से मिले और खिसा पक्षी । श्रीमान् में उनके धीहरे और सचरित्र के मुताविक इज्जत के साथ बर्ताव किया।
संवत् १८९० में जब कि महाराजा रतनसिंहजी और स्वयपुर के तत्कालीन महाराणा सरदारसिंहजी श्री लक्ष्मीनाथजी के मन्दिर से दर्शन कर वापस आये तब गोठ भरोगने आपकी हवेली पर पधारे । इस समय दोनों दरवार ने एक २ कण्ठा महाराव हिन्दूमलजी को, मेहता मूलचन्दजी को और मेहता छोगमलजी को पहना कर सम्मामित किया। इसी भवसर पर महाराणा ने महाराजा से कहा कि हमारी उदयपुर रियासत की भी भोलावण महारावजी को दीजावे। यह सुन कर महाराजा साहब ने महाराव हिन्दू मलजी से कहा 'हिन्दू मल सुणे हे। इसके उत्तर में महारावजी ने हाथ जोड़ कर निवेदन किया
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
कि "ताबेदार जैसो बीकानेर की गद्दी को चाकर हे वैसो ही उदयपुर की गही को भी चाकर है। सावन्द आ बात काई रमाइजे है।
, महाराव हिन्दूमलजी का स्वर्गवास संवत् १९०४ में ४२ वर्ष की अवस्था में हो गया। आपके स्वर्गवास पर महाराजा साहब ने एक खास रुका भेज कर आपकी मृत्यु पर अफ़सोस जाहिर किया। साथ ही आपके पुत्रों के प्रति सद्भावना प्रदर्शित की । आपके स्वर्गवास के एक साल के पश्चात् आपके पिता मेहता मूलचन्दजी का भी स्वर्गवास हो गया। महारावजी के स्वर्गवास के पश्चात् उनके क्रियाकर्म एवम् माह्मण भोजन का सारा खर्च महाराजा साहब ने अपने पास से किया। भापके तीन पुत्र थे। जिनके नाम क्रमशः महाराव हरिसिंहजी, राव गुमानसिंहजी और राव जसवन्तसिंहजी थे। महाराबजी को सं० १९०२ में नेठराणा नामक एक गाँव जागीर में मिला था। आपको समय २ पर यों तो बहुत से सम्मान मिले ही थे मगर ताजीम का सम्मान विशेष रूप से था।
___ सन् १९२८ में महाराजा गंगासिंहजी बहादुर ने महाराव हिन्दूमलजी के सरहही मामले में विशेष दिलचस्पी लेने एवम उसका निपटारा करने के उपलक्ष्य में उनके नाम को चिरस्थाई करने के हेतुसे हिन्दूमल कोट नामक एक कोट स्थापित किया । मेहता छोगमलजी
भाप महाराव हिन्दूमलजी के छोटे भाई थे। आपका जन्म संवत् १८६९ में हुआ था। भाप बड़े बुद्धिमान और अध्यवसायी व्यक्ति थे। आप महाराजा सूरतसिंह जी के समय में कई वरसों तक हाजिर बस्ती रहे। महाराजा सूरतसिंहजी के पश्चात् महाराजा रतनसिंहनी बीकानेर की गद्दी पर बैठे। भापकी भी आप पर बड़ी कृपा रही। मेहता जी ने इसी समय कमल सदरलैंड, सर हेनरी लारेंस, सर जार्ज मरेंस आदि कई अंग्रेज रेसिडेण्टों की मातहती में रेसिडेंसी वकालात का काम किया। इन लोगों ने आपके कार्यों से प्रसव होकर कई सार्टिफिकेट प्रदान किये थे।
संवत् १९०९ में जब कि सरहद्द बंदी का काम हुआ उस समय आपने इस काम को बड़ी मिहनत और खूबी के साथ करवाया। साथ ही सरहद पर होने वाले बहुत से झगड़ों का निपटारा कर. वाया। इससे कई भावाद शुवा गाँव रियासत बीकानेर में मिला लिये गये। इस काम में भापके बड़े भाता महारावजी का भी परा र हाथ था। भापके इस कार्य से प्रसव होकर महाराजा सरदारसिंहजी ने अपने गले में से कंठा निकाल कर आपको इनायत किया।
संवत् १९१४ में जब कि गदर हुमा था उस समय आप बीकानेर की ओर से गदर में सरकार
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वेद मेहता
अंग्रेज को मदद देने के लिये भेजे गये थे। वहाँ मापने बड़ा अच्छा काम किया। संवत् १९२९ में महाराजा सरदारसिंहजी का स्वर्गवास हो गया। इस अवसर पर राज्य गद्दी की मालिकी के सम्बन्ध में पदा विवाद हो गया। इस अवसर पर भी आपने महाराजा रंगरसिंहजी को हर तरह की कोशिश करके गद्दी पर बिठाने में सहायता पहुंचाई। इस सहायता के उपलक्ष्य में महाराजा साहब ने आपके लिये एक खरीता जनरल जे. सी.बुक एजन्ट टू दी गवरनर जनरक बाबूमाम भेजा था।
संवत १९३२ में जब कि तत्कालीन मिंस ऑफ वेल्स भारत में आये थे उस समय तथा संवत् १९३४ में देहली दरबार के समय भाप महाराजा को आशा से वेहली गये थे। यहाँ आपको खिल्लत बक्षकर आपका सम्मान बढ़ाया था। .. .
___ संवत् १९३५ में बेरी और रामपुरे भगदों को निपटाने के लिये आप जयपुर भेजे गये । वहाँ आपने अपने कागजों से सबूत देकर मामले को तय करवा दिया। इसकी तारीफ में कर्नल बेनन महोदय मे बोकि उस समय अपपुर के पोलिटिकल एजण्ट थे, आपके कार्यों से खुश होकर एक बहुत अच्छा सरिफिकेट प्रदान किया था, तथा दरवार को भी आपके कार्यों से पाकिक किया था।
मेहताजी संवत् १८४८ से संवत् १९17 तक कई बार वकीली की जगह पर भेजे गये । संवत् १९२६ से संवत् १९४० तक आप आबू वकील रहे। इसके अतिरिक भी आपने कई बोगदे मोहदों पर काम किया । आप मुसाहिब और मेम्बर कौंसिल रहे। आपको तनख्वाह के अतिरिक सारा खर्च राज्य की ओर से मिलता था। यही नहीं बल्कि शादी और गमी के समय भी रियासत ही सार सर्व रंगाती थी। संवत् १९०२ में महाराजा रतनसिंहजी ने दूंगराणा तथा संवत् १९३९ में महाराजा रंगरसिंहजी मे सरूपदेसर नामक एक २ गांव जागीर में प्रदान किये । संवत् १९४८ में आपका स्वर्गवास हो गया। इस समय महाराजा मंगासिंहजी मातम-पुरसी के लिये आपके घर पर पधारे और आपका सम्मान बढ़ाया। आपके केसरीसिंहजी और वितसिंहजी मामक दो पुत्र थे। इनमें से मेहता केसरीसिंहजी अपने चाचा मेहता अनारसिंहजी के यहाँ तक रहे। ... मेहता अनारसिंहजी ने राज्य में कोई काम नहीं किया। उनका ध्यान म्यापार की ओर रहा। जवाहरात का ब्यापार करने के लिये वे जयपुर गये वहीं संवत् १९०२ में भापका स्वर्गवास हो गया। ..
महाराव हरिसिंहजी-भाप महाराव हिन्दूमलजी के प्रथम पुत्र थे। 'भापका जन्म संवत् १८४३ में हुआ था। आप अपने समय के मुत्सुद्दियों में होशियार व्यक्ति माने जाते थे। राज्य में आपका बहुत प्रभाव था। संवत् १९१४ में जब कि भारतवर्ष के रणांगण में चारों ओर गदर मचा हुभा था, तब भाप भी महाराज्य की भोर से ब्रिटिश सरकार को मदद पहुंचाने के उद्देश्य से भेजे गये थे। वहाँ और र
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भोसवाल जाति का इतिहास
लोगों के साथ आपने भी पूर्ण रूप से उसकी सहायता की। इससे प्रसन्न होकर सरकार ने टीवे. परगने महाराजा साहब को दिये। इसके पथात् संवत् १९२० में आप मुसाहव आला बनाये गये । इसी अवसर पर आपको मोहर का अधिकार भी वक्षा गम। संवत् १९२९ में गद्दी नशीनी के अवसर पर आपने भी अपने चाचा मेहता छोगमलजी के साथ पूरी २ मदद की। इससे प्रसन्न होकर महाराजा डूंगरसिंहजी ने आपको अमरसर और पलाणा नामक दो गांव जागीर में प्रदान किये। जिस समय आप भावू वकीक रहे थे उस समय आपको हाथी, खिल्लत और चंवर का सम्मान प्रदान किया था । आपको पुस्तैनी सारे अधिकारों का उपयोग करने का अधिकार भी मिला था। महाराव की पदवी भाप लोगों को पुश्तैनी रूप से मिली हुई है। आपका संवत् १९३९ में स्वर्गवास हो गया। आपके तीन पुत्र थे, जिनके नाम क्रमशः मेहता किशनसिंहजी, महाराव सवाईसिंहजी और मेहता वल्लभसिंहजी थे।
राव गुमानसिंहजी-आप महाराव हरिसिंहजी के छोटे भाई थे। आपका जन्म संवत् १८४४ का था। आपको संवत् १९१० में मुसाहिबी का सम्माननीय ओहदा दिया गया। संवत् १९१४ में भाप भी गदर के इन्तिजाम के लिये भेजे गये। आपके कार्यों से प्रसन्न होकर दरबार ने भिन्न-भिन्न समय में वापको कदा, मोतियों को कंठी एवम् सिरोपाव प्रदान किये। एक बार महाराजा साहब आपकी हवेली पर गोठ अरोगने पधारे। इस अवसर पर भापको हमेशा के लिये पैरों में सोना पहनने का अधिकार पक्षा। आपका संवत् १९२५ में स्वर्गवास हो गया। आपके जवानसिंहजी और दलपतसिंहजी नामक दो पुत्र थे।
राव जसवंतसिंहजी-आप भी महाराव हरिसिंहजी के छोटे भाई थे। संवत् १४९८ में आपका जन्म हुआ। आप बीकानेर-स्टेट की कौंसिल के मेम्बर रहे। संवत् १९१४ में गदर के समय तथा संवत् १९२९ में महाराजा को गद्दी पर विठलाते समय मापने बहुत परिश्रम और बुद्धिमत्ता पूर्ण कार्य किये। संवत् १९३० में आप भावू वकील रहे। संवत् १९३१ में महाराजा डूंगरसिंहजी आपकी हवेली पर गोठ अरोगने पधारे। इस अवसर पर आपके द्वारा की गई सेवाओं के उपलक्ष्य में आपको बरसनसर नामक एक गांव जागीर में प्रदान किया गया। साथ ही राव की उपाधि और ताजिम प्रदान कर आपका सम्मान बढ़ाया । आपको हाथी और खिल्लत का भी सम्मान प्राप्त हुआ। आप भी इस परिवार में नामांकित भक्ति हुए । आपका स्वर्गवास संवत् १९४० हो गया। आपके छत्रसिंहजी और अभयसिंहजी नामक र पुत्र थे।
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बेद मेहता
महाराव हरिसिंहजी का परिवार - मेहता किशनसिंहजी-आपका जन्म संवत् १९१२ में हुमा। आप महाराव हरिसिंहजी के प्रथम पुत्र थे। आपका स्वर्गवास संवत् १९३६ में केवल २४ वर्ष की आयु में ही हो गया। इसके एक साल पूर्व आप रियासत के दीवान बनाये गये थे। आपके तीन पुत्र मेहता शेरसिंहजी, मेहसा लछमनसिंहजी और मेहता पन्नेसिंहजी थे।
मेहता शेरसिंहजी ने राज्य में कई स्थानों पर कार्य किया । आपके कार्यों से प्रसन्न होकर महा. राजा साहब ने भापको राव की उपाधि प्रदान कर भापका सम्मान बढ़ाया। भापका स्वर्गवास संवत् १९८६ में हो गया। इस समय आपके रघुरावसिंहजी, कल्याणसिंहजी और भानन्दसिंहजी नामक तीन पुत्र हैं। श्री० आनन्दसिंहजी स्टेट बैंक में काम करते हैं। आपके किशोरसिंहजी नामक एक पुत्र हैं। मेहता लछमनसिंहजी और मेहता पनेसिंहजी का स्वर्गवास हो गया। लछमनसिंहजी के गुलाबसिंहजी नामक एक पुत्र हैं।
महाराव सवाईसिंहजी-आप महाराव हरिसिंहबी के दूसरे पुत्र थे। आपका जन्म संवत् १९१४ का था। प्रारम्भ में आप राजगद की हवलदारी पर मेजे गये। इसके बाद माप वर्तमान महाराजा गंगासिंहजी के मिनिस्टर और वेटिंग रहे। इसके पश्चात् बाप क्रममा बढ़ते ही गये और अंत में मेम्बर कौसिक नियुक्त हुए। आपने महाराजा डूंगरसिंहजी के समय में फौजदारी दीवानी वगैरह की कुल मुल्की का काम किया था। इन्ही सब कार्यों से प्रसन्न हो कर महाराजा साहब ने आपको पन्ने का कंठा और पैरों में सोने की सांट पक्षी। इसके अतिरिक्त आपको अपनी पुश्तैनी ताज़ीम वगैरह पहलेही से थी। लापका सम्बत् १९०९ में स्वर्गवास हो गया। आपके रामसिंहजी और गोविंदसिंहजी मामक दो पुत्र थे। इनमें रामसिंहजी मेहता भवानसिंहजी के यहाँ दत्तक चले गये । दूसरे गोविन्दसिंहजी का स्वर्गवास सम्वत् १९६९ में ही हो चुका था । मेहता गोन्विदसिंहजी के खुमानसिंहजी और मोहनसिंहजी नामक दो पुत्र हैं। महाराव खुमानसिंहजी को अपने पुश्तैनी सब सम्मान प्राप्त है। भाप शिक्षित और मिलनसार व्यक्ति हैं। आपके सुमेरसिंहजी नामक एक पुत्र हैं। कोहनसिंहजी अपने चाचा मेहता वालमसिंहजी के यहाँ दत्तक चले गये । वालमसिंहजी स्टेट में हफिम रहे थे । आपका स्वर्गवास हो गया है । मोहनसिंहजीके एक पुत्र सोहनसिंहनी है।
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पोसवाल जाति का इतिहास
राव गुमानसिंहजी का परिवार राव जवानसिंहजी-आप राव गुमानसिंहजी के प्रथम पुत्र थे। आपका जन्म सम्वत् १९३२ का था। आप पहले हाकिम नियुक्त हुए। पश्चात् अफसर दिवानी रहे। सम्वत् १९३९ तक फिर आप अफसर फौजदारी रहे। इसके पश्चात् भाप अफसर खरीव महकमा रहे। आपका स्वर्गवास सम्वत् १९४८ में हो गया । आपके कोई पुत्र म होनेसे आपने रामसिंहजी को दत्तक लिया। आपका भी स्वर्गवास हो गया । आपके मेहता धनपतसिंहजी और मेहता दौलतसिंहजी नामक २ पुत्र हुए। इनमें से दौलतसिंहजी का स्वर्गवास हो गया। मेहता धनपतसिंहजी इस समय नायब तहसीलदार हैं । आपके तेजसिंह, अमरसिंह और जोरावरसिंह नामक तीन पुत्र हैं।
राव जसवन्तसिंहजी का परिवार राव छत्रसिंहजी-आप जसवन्तसिंहजी के प्रथम पुत्र थे । आपका जन्म सम्वत् १९.४ का था। आप पहले पहल अफसर फौजदारी नियुक्त हुए । सम्बत् १९३९ में आप हनुमानगढ़ के हाकिम हुए । इसके एक साल के पश्चात् ही भाप मेम्बर कौंसिल नियुक्त हुए। इसी प्रकार सुजानगढ़, रिणी आदि कई स्थानों पर आप नाजिम रहे । आपका स्वर्गवास सम्बत् १९६९ में हो गया। आपके भाई मेहता अभयसिंहजी का जन्म सम्वत् १९१० में हुआ था। आप नौहर और हनुमानगढ़ नामक स्थान पर हाकिम रहे। जयपुर और जोधपुर के आप वकील रहे। इसके पश्चात् आप बीकानेर के हाकिम बनाए गए। आप चीफ कोर्ट के थर्ड जज भी रहे । आपका स्वर्गवास सम्बत् १९८२ में हो गया। आप दोनों ही भाइयों के कोई पुत्र न था अतएव आपके यहाँ मेहता गोपालसिंहनी गोद आये। आपको राव का खिताब तथा ताजिम बक्षी हुई है। इस समय आप आबू में वकील हैं। आपके इस समय गोधनसिंह, नारायणसिंह, सम्पतसिह, रूपसिंह, नरपतसिंह और सूरतसिंह नामक छः पुत्र हैं।
मेहता छोगमलजी का परिवार मेहता केसरीसिंहजी-आप मेहता छोगमजी के प्रथम पुत्र थे। आपका जन्म संवत् १९०९ में हुआ । आप पहले तो अपने पिताजी के साथ काम करते रहे । पश्चात् आप स्वयं आबू वकील हो गये । इस समय आपको सब सर्च के अतिरिक्त एक हजार रुपया मासिक वेतन मिलता था। बकालत के काम को आपने बड़ी सफलता और होशियारी से सब किया। आपको इस विषय में कई बड़े २ अंग्रेज
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० सेठ ताराचंदजी वैद, रतनगढ़.
सेठ रिखबचंदजी वैद, रतनगढ़.
सेठ दौलतरामजी वैद, रतनगढ़.
सेठ सीचियालालजी वेद, रतनगढ़.
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बेद मेहता
भाफिसरों से सर्टिफिकेट प्राप्त हुए थे। आपका स्वर्गवास संवत् १९७८ में हो गया। भापके पाँच पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः फतहसिंहजी, बहादुरसिंहजी, उमरावसिंहजी, अनोपसिंहजी और अर्जुनसिंहनी हैं।
इनमें से मेहता फतेहसिंहजी का स्वर्गवास हो गया। आपके तीन पुत्र हुए जिनका नाम क्रमशः गोपालसिंहजी, मुकुमसिंहजी और ज्ञानसिंहजी हैं । इनमें से गोपालसिंहजी दत्तक गये हैं। मेहता बहादुरसिंहजी राज्य में जोधपुर वकालात का काम करते रहे । आपका स्वर्गवास हो गया। मेहता उमराव सिंहजी का ध्यान व्यापार को ओर रहा। भाप मिलनसार सज्जन हैं। मेहता अनूपसिंहजी के ५ पुत्र हैं जिनका नाम क्रमशः भगवतसिंहजी, मोहब्बतसिंहजी, जुगलसिंहजी, मोतीसिंहजी और प्रतापसिंहजी हैं। मेहता अर्जुनसिंजी के मेघसिंह नामक एक पुत्र हैं।
मेहता विशनसिंहजी-आप मेहता छोगमजी के पुत्र थे। आपका जन्म संवत् १९१८ का था। आप संवत् १९३८ में महकमा माल के काम पर नियुक्त हुए। संवत् १९३६ में दिवाली के अवसर पर कपड़े में भाग लग जाने से आपका स्वर्गवास हो गया । आपके पुत्र मेहता पुसिंहजी इस समय विद्यमान है। आप पहले जयपुर वकील और फिर आबू वकील रहे । अब पाप हाकिम देवस्थान है।
इस परिवार में छोटे से छोटे बच्चे तक को पैरों में सोना बना हुआ है। इस समय इस परिवारवालों की जागीर में सात गाँव हैं।
वेद परिवार, रतनगढ़ इस परिवार का इतिहास बड़ा गौरव मय रहा है। बीकानेर के वेद सजन इसी घेद गौत्र के हैं। इस परिवार के पुर्व पुरुष गोपाल पुरा नामक स्थान पर वास करते थे । वहाँ से थानसिंहजी लालसर मामक स्थान पर आकर रहने लगे। थानसिंहजी के ५ पुत्रों में से हिम्मतसिंहजी नामक पुत्र रतनगढ़ से तीन मील की दूरी पर पापली नामक स्थान में आकर रहे । आपके ६ पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः जेठमलजी मयाचंदजी, पृथ्वीराजजी, मोकमसिंहजी, मदनसिंहजी, और हरिसिंहजी था। मयाचन्दजी के चार पुत्रों में बाघमलजी, भगवानदासजी, और गजराजजी निःसंतान स्वर्गवासी हो गये। चौथे पुत्र भीमसिंहजी के पाँच पुत्र मानसिंहजी, गंगारामजी, केसरीसिंहजी गुमानसिंहजी और सरदारमलजी थे। सेठ भीमसिंहजी का स्वर्गवास हो जाने पर इनकी धर्मपत्नी अपने पुत्रों को लेकर रतनगढ़ चली आई। इनमें से गुमानसिंहजी और सरदारमलजी निःसंतान स्वर्गवासी हो गये । शेष तीनों में से यह परिवार मानसिंहजी से सम्बन्ध रखता है।
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बांसवाल जाति का इतिहास
मानसिंहजी के पुत्र थे जिनका नाम हरनाथसिंहजी, धनराजजी, नवलसिंहजी, उज्छीरामजी रतनचन्दजी और चैनरूपजी था। इनमें से हरनाथसिंहजी के दो पुत्र हुए। इनका नाम माणकचन्दजी और बींजराजजी था। सेठबींजराजनी अपने चाचा सेठ नवलसिंहजी के नाम पर दत्तक गये।
सेठ माणकचन्दजी और सेठ बींजराजजी दोनों भाइयों ने मिलकर पहले पहल कलकत्ता में मेसर्स माणकचंद हुकुमचंद के नाम से फर्म स्थापित की। इनके पूर्व आप लोग राजलदेसर की प्रसिद्ध फर्म मेसर्स खड़गसिंह लच्छीराम वेद के यहाँ साझीदारी में काम करते थे। सेठ माणकचन्दजी का परिवार
सेठ माणकचन्दजी इस परिवार में प्रतिष्ठित व्यक्ति हुए। आपके दो पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः सेठ ताराचन्दजी (सोमजी ) और सेठ कालूरामजी था। सेठ माणकचन्दजी का स्वर्गवास संवत् १९१९ में हो गया।
सेठ ताराचन्दजी-आपका जन्म संवत् १८९८ का था आप अपने पिताजी के समय में व्या पार करने लग गये थे । संवत् १९२४ में आपकी फर्म मेसर्स खड़गसिंह लच्छीराम से अलग हुई। संवत् १९३४ में आपने हुकमचन्दजी के साथ से भी अपना साझा अलग कर लिया। इस समय से आपकी फर्म का माम मेसर्स माणकचन्दजी ताराचन्द पड़ने लगा । इस पर प्रारंभ से ही भादत और कमीशन का काम होता चला आ रहा है। सेठ ताराचन्दजी इस परिवार में बड़े योग्य, व्यापार-चतुर और कुशल-व्यवसायी व्यक्ति हुए। आपने अपनी फर्म पर डायरेक्ट कपड़े का इम्पोर्ट करना प्रारम्भ किया तथा लाखों रुपयों की सम्पति उपार्जित की। आपके पास उस समय २० हजार गांठ कपड़े की हर साल आया करती थी। आपका स्वर्गवास संवत् १९१७ में हो गया। मापके दो पुत्र सेठ जयचन्दलालजी और मेघराजजी थे।
सेठ कालूरामजी-आप बड़े धर्म प्रेमी सज्जन थे। आपको जैनधर्म के सूत्रों की अच्छी जानकारी थी। आपके इस समय मोहनलालजी नामक एक पुत्र हैं। आपके कोई संतान न होने से अपने भतीजे पूनमचन्दजी के पुत्र सोभागमरूजी को दत्तक लिया। संवत् १९६२ तक आप दोनों भाइयों का कारोवार शामलात में होता रहा। इसके पश्चात् अलग रूप से व्यवसाय हो रहा है।
सेठ जयचन्दलालजी-आपका जन्म संवत् १९१६ में हुआ। तथा स्वर्गवास संवत् १९६२ में *आपके पिताजी के सामने ही हो गया था । आपके चार तुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः सेह पूनमचन्दजी, रिखबचन्दजी. दौलतरामजी, और सिचियालालजी हैं। आप सब लोग मिलनसार सजन हैं। भाप लोगों का व्यापार कलकत्ता में १६ कैनिंग स्ट्रीट में बैकिंग और कपड़े का होता है।
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ओसवाल जाति का इतिहास
: स्व० सेठ हुकमचंदजी वैद, रतनगढ़.
सेठ जसकरणजी वैद, रतनगढ़.
कुँ. मोतीलालजी S/o जसकरणजी वैद, रतनगढ़.
कुँ० मोहनलालजी S/o स्व० सेठमालचंदजी वैद, रतनगढ़.
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वेद मेहता
सेठ मेघराजजी-आप भी प्रतिमा सम्पन्न व्यक्ति थे। आपका स्वर्गवास हो गया। इस समय भापके पुत्र बा. सूरजमलजी विद्यमान है। आप बड़े मिलनसार, शिक्षित और सजन पुरुष हैं। आपका म्यापार मेसर्स ताराचन्द मेघराज के नाम से नं. ४ नारायणप्रसाद लेन में होता है। आपके रतनचन्दजी मामक एक पुत्र हैं। सेठ बींजराजजी का परिवार
यह हम उपर लिख ही चुके हैं कि सेठ बीजराजजी पहले अपने भाई के साथ रहे । पश्चात् संवत् १९३४ में अलग हुए । अलग होने पर आपने मेसर्स बींजराज हुकुमचन्द के नाम से कारोबार प्रारंभ किया। इसमें आपको अच्छी सफलता मिली। आपके हुकमचंदजी नामक एक पुत्र हुए।
सेठ हुकुमचन्दजी-आपका जन्म संवत् १९०७ में हुआ। मापने अपनी व्यापार चातुरी, बुद्धिमानी और होशियारी से फर्म की बहुत तरक्की की। साथ ही भापने फर्म से लाखों रुपया पैदा किया। आपका स्वर्गवास संवत् १९६८ में हो गया। भापके तीन पुत्र हुए। जिनके नाम क्रमशः सेठ जसकरनजी सेठ मालचन्दजी, और सेठ दीपचन्दजी था। इनमें से वितीय और तृतीय पुत्र का स्वर्गवास होगया। मालचन्दजी के सोहनलालजी नामक एक पुत्र हैं। भाप नवयुवक और मिलनसार हैं। आपके भी भीखमचन्द नामक एक पुत्र है।
सेठ जसकरनजी-भापका जन्म संवत् १९३३ का है। आप बड़े विद्या प्रेमी सजन है। आपको जैन धर्म की अच्छी जानकारी है। आपका जीवन बड़ा सादा और मिलनसार है। आप हमेशा सार्वजनिक और सामाजिक कार्यों में अपने समय को म्यय करते रहते हैं। भापने रतनगढ़ में एक वणिक पाठशाला स्थापित कर रखी है। इसमें करीब १७५ विद्यार्थी विद्याध्ययन करते हैं। इसके अतिरिक्त आपने यहाँ एक बाल वाचनालय भी स्थापित कर रखा है। भापके इस समय पांच पुत्र हैं। जिनके नाम वा. हूंगरमलजी, मोतीलालजी, गुलाबचन्दजी, मोहनलालजी और लामचंदजी हैं। आप सब भाई मिलनसार और म्यापार चतुर हैं। सोहनलालजी बी० ए० में पढ़ रहे हैं। . .
बाबू दूंगरमलजी के भूरामलजी और नेमचन्दजी, बाबू मोतीलाजी के सुमेरमलजी, दुलिचन्दजी और मेमचन्दजी, बाबू सोहनलालजी के जतनमलजी भौर लाभचंदजी के तेजकरनजी नामक पुत्र हैं।
कलकत्ता, नाटोर, खानसामा (रंगपुर) माथा माँगा (च विहार ), दरवानी ( रंगपुर ) इत्यादि स्थानों पर आपका जूट, जमींदारी और हुँगी चिट्ठी का व्यापार होता है। यह फर्म तमाखू का काम भी करती
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पोसवाल जाति का इतिहास हैं। कलकत्ता फर्म पर एक्सपोर्ट इम्पोर्ट व्यापार किया जाता है। वहाँ वार कर "Zophyr" है। भाकिस का पता ३० काटन स्ट्रीट है।
यह परिवार रतनगद ही में नहीं प्रत्युत सारी बीकानेर स्टेट में प्रतिष्ठित माना जाता है। इस परिवार के लोग श्री जैन श्वेताम्बर तेरा पंथी संप्रदाय के मानने वाले हैं।
वेद परिवार, चूरू कहा जाता है कि इस परिवार के पूर्व पुरुष जब कि बोकाजी ने बीकानेर बसाया था, उनके साथ थे। यहाँ से वे फतेहपुर के नवाब के यहाँ चले गये। जब वहाँ नवाब से अनबन हो गई तब फतेहपुर को छोड़ कर गोपालपुरा नामक स्थान पर आकर बस गये। उस समय गोपालपुरा पर इनका और वहाँ के ठाकुर का आधा २ कब्जा था। महसूल की रकम माप दोनों ही व्यक्तियों की ओर से इकट्ठी की जाती थी। ऐसा भी कहा जाता है कि आप दोनों ही की भोर से एक २ आदमी बीकानेर दरबार की चाकरी में रहता था। इन्ही के वंशमें मेहता तेजसिंहजी हुए। ये बड़े पराक्रमी पुरुष थे। इन्होंने अपने नीवन में बहुत सी लड़ाइयाँ लड़ी और उनमें सफलता प्राप्त की। इनकी बहादुरी के लिये थली प्रांत में निम्म कहावत प्रचलित है।
"तपियो मुहतो तेजसिंह और मारिया सत्तरखान" मेहता तेजसिंहजी के पश्चात् कीरतमलजी हुए। आपने राज्य में काम करना बन्द कर दिया और महाजनी का काम प्रारम्भ किया। इनके तीन पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः लखमीचन्दजी, जोधराजजी और उदयचन्दजी था। आप तीनों ही भाइयों ने संवत् १९१४ में कलकत्ते में उदयचन्द पन्नालाल के नाम से अपनी फर्म स्थापित की। इसमें माप लोगों को अच्छी सफलता मिली। सेठ पन्नालालजी जोधराजजी के पुत्र थे । आपलोग गोपालपुरा से रामगढ़ मा गये। उदयचन्दजी के पुत्र हजारीमलजी हुए।
आप रामगढ़ रहे और पनालालजी चुरू चले गये। जिस समय भाप सुरू गबे उस समय दरबार ने आपको जगात के महसूल की माफी का परवाना इनायत किया।
उदयचन्दजी के पुत्र हजारीमलजी इस समय विद्यमान हैं। आपके दुलिचन्दजी नामक एक पुत्र है। पन्नालालजी के सागरमलजी और जवरीमलजी नामक दो पुत्र हुए। आप दोनों भाई अलग हो गये एवम् स्वतन्त्ररूप से व्यापार करते हैं।
सेठ सागरमलजी के धनराजजी और हनुतमलजी नामक दो पुत्र है। आजकल माप दोनों भाई
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ओसवाल जाति का इतिहास
श्री शोभाचंदजी वैद, रतनगढ़,
श्री सूरजमलजी वैद, रतनगढ़.:
श्री रूपचंदजी वैद, रतनगढ़.
दौलतरामजी वैद के दोनों पुत्र, रतनगढ़,
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वेद मेहता भी अलग १ हो गये हैं और डायरेक्ट कपड़े का इम्पोर्ट करते हैं। आप लोगों की फर्मे क्रमशः कैनिंग स्ट्रीट और सूतापट्टी में है। सेठ सागरमलजी चूरू ही में शान्तिलाम करते है।
सेठ जवरीमलजी भी मिलनसार व्यक्ति हैं। बीकानेर स्टेट में आपका अच्छा सम्मान है। आपके गणेशमलजी, रावतमलजी, मोहनलालजी और रामचन्दजी नामक चार पुत्र हैं। सब लोग व्यापार में भाग लेते हैं। इस फर्म का कलकत्ता आफिस ६२ कासस्ट्रीट में उदयचन्द पन्नालाल के नाम से है। इस फर्म पर डायरेक्ट कपड़े का इम्पोर्ट होता है।
___ इस परिवार की चूरू और कलकत्ता में बड़ी २ हवेलियाँ बनी हुई हैं। भाप लोग श्वेताम्बर जैन तेरापंथी सम्प्रदाय के मानने वाले हैं।
वेद परिवार राजलदेसर इस परिवार का प्राचीन इतिहास बड़ा गौरव पूर्ण एवम् कीर्तिशाली रहा है। जिसका जिक हम इसी प्रन्थ में बीकानेर के प्रसिद्ध महाराव वेद परिवार के साथ कर चुके हैं। करीब ५००, ६०० सौ वर्ष पूर्व की बात है जब कि बीकानेर नहीं वसा था-स परिवार के प्रथम पुरुष दस्सूजी जोधपुर और कर यहाँ राजलदेसर से तीन मील की दूरी पर भाये। यहाँ जाकर मापने अपने नाम से वस्स्सर नामक एक गाँव बसाया जो आज भी विद्यमान है। यह गाँव चारणों को दान स्वरूप देविका गला। इसी दस्सूसर में आपने यहाँ के निवासियों के आराम के लिये एक कुवा बनवाया था जिस पर आज भी उनका शिला-लेख लगा हुआ है। यहाँ से आप राजलदेसर आ गये और वहीं रहने लगे।
आपकी कुछ पीढ़ियों के पश्चात् इस खानदान में मेहता हरिसिंहजी बड़े नामांकित व्यक्तिहुए । आप तत्कालीन राजलदेसर के राजा रायसिंहजी के दीवान थे। कहा जाता है कि आपके समय में एक बार किसी शत्रु ने राजलदेसर पर चढ़ाई की थी। इस युद्ध में आप राजा रायसिंहजी के पुत्र कुँवर जयमलजी के साथ जूसार हुए थे। याने अपना सिर कट जाने के पश्चात् भी आप दोनों ही सजन तलवार हाथ में लेकर कुछ मिनिट तक शत्रु सेना का मुकाबला करते रहे थे। जिस स्थान पर आपका सिर गिरा था वह स्थान आज भी "जूझारजी" के नाम से प्रसिद्ध है तथा वहाँ इस वंश वाले अपने यहाँ होने वाले किसी भी शुभ कार्य पर कुरुदेव स्वरूप पूजा करते हैं, जिस स्थान पर आपका शव गिरा वह स्थान आज भी मुथाथल के माम से पुकारा जाता है । इसके अतिरिक्त इस खानदान में मेहता सवाईसिंहजी भी जूंझार हुए। जिस स्थान पर आप जूंझार हुए वह स्थान आजम्ल बीदासर और राजलदेसर के बीच में है और वहाँ आज भी निशान स्वरूप एक गिराहुआ चबूतरा बना हुआ है।
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प्रोसबाट जाति का इतिहास
आपके कुछ वर्षों के पश्चात् जोधपुर राजवंश के कुमार बीकाजी ने अपने शौर्य एवम् पराक्रम से बीकानेर राज्य की नींव डाली तथा . बीकानेर शहर बसाया। कहना न होगा कि इस समय राजलदेसर भो बीकानेर स्टेट में आ गया। जब यह बीकानेर में आगया तब भी इस वंश वाले सज्जम स्टेट की ओर से कामदार वगैरह २ स्थानों पर काम करते रहे। इन्हीं में मेहता मनोहरदासजी बड़े प्रसिद्ध व्यक्ति हुए । आप हो के नाम से आपके वंशज आज भी मनोहरदासोत वेद कहलाते हैं। आपके पश्चात् क्रमशः दीपचन्दजी, अचलदासजी एवम् साँवतसिंहजी हुए।
सेठ सांवतसिंहजी के दो पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः उम्मेदमलजी एवम् दानसिंहजी था । उम्मेदमलजी वहीं राजलदेसर तथा आसपास के ग्रामों में अपना लेनदेन का व्यवसाय करते रहे। तथा दानसिंहजी वहाँ से चल कर मुर्शिदाबाद नामक स्थान पर आकर बस गये। तब से आपके वंशज यहीं निवास कर रहे हैं।
सेठ उम्मेदमलजी के तीन पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः सेठ लच्छीरामजी, सेठ जैसराजजी एवम् खेठ मेघराजजी था। सेठ लच्छीरामजी वहों राजलदेसर निवासी सेठ खड़गसिंहजी के यहाँ दत्तक चले गये तथा मेघराजजी के परिवार वाले अलग हो गये। अतएव दोनों भाइयों का इतिहास नोचे अलग दिया जा रहा है। वर्तमान इतिहास सेठ जैसराजजी के परिवार का है।
सेठ जेसराजजी का परिवार
सेठ जेसराजजी-आपका जन्म संवत् १८८४ में हुआ। आपने अपने चाचा दानसिंहजी के साथ रह कर मुर्शिदाबाद में प्रारम्भिक विद्याध्ययन किया। आपको विद्या से बड़ा प्रेम था। आपने उर्दू, संस्कृत
और अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान प्राक्ष किया था। पढ़ाई खतम करते ही आपने अपने नाम से कलकत्ता में कपदे का व्यापार प्रारम्भ किया। इन्हीं दिनों आपके भ्राता सेठ लच्छीरामजी भी कलकत्ता भाये । संवत् १९०५ में माप तीनों भाइयों के साले में मेसर्स खड़गसिंह लच्छीराम के नाम से चलानी का काम करने के लिये फर्म स्थापित की । भाप तीनों ही भाई बड़े प्रतिभा सम्पन्न एवम् व्यापार चतुर पुरुष थे। भाप लोगों ने अपनी व्यापार चातुरी से फर्म की बहुत उन्नति की। यही नहीं बल्कि आपने गया, नाटोर, अडंगाबाद चापाई, नवाबगंज आदि स्थानों पर अपनी शाखाएँ स्थापित की। सेठ जैसराजजी का स्वर्गवास संवत् १९१७ में गया। आपके जयचन्दलालजी नामक पुत्र हुए।
सेठ जयचन्दलालजा-आपका जन्म संवत् १९१२ में हुआ । छोटो वय से ही आप दुकान का काम करने लग गये थे। संवत् १९३९ तक इस फर्म पर खड़गसिंह लच्छीराम के नाम से व्यापार होता रहा ।
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० सेठ जयचन्दलालजी वैद, राजलदेसर.
सेठ बींजराजजी वैद, राजलदेसर.
सेठ सिंचियालालजी वैद, राजलदेसर.
सेठ हीरालालजी वैद, राजलदेसर.
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इसके पश्चात् आपने अपना व्यवसाय अलग कर अपनी फर्म का नाम मेसर्स जैसराज चन्दलाल रखा । इसके पश्चात् माटोर, राजशाही, दिनाजपुर, और कामागढी नामक स्थानों पर भी आपने अपनी शाखाएं खोली। __ कलकत्ता फर्म पर भी संवत् १९६५ में आपने जूट की पक्की गांठों के वेलिंग का काम प्रारंभ किया। इस पर आपका मार्का “जयचन्द एम. अप" हुआ । संवत् १९६७ में आपने जयपुरहाट एवं जमालगंज (बोगड़ा) नामक स्थानों पर भी मेसर्स हीरालाल चांदमल के नाम से जूट एवं धान चावल का व्यवसाय करने के लिये दो शाखाएं खोली।
उपरोक्त प्रायः सभी स्थानों पर आपके बहुत मकान एवं गोदाम वगैरह बने हुए हैं। सोनातोला (बोगड़ा) के पास लाट काबुलपुर के पांच गांव की जमींदारी भी आपकी है । यह सब आप ही के द्वारा खरीदी गई । आप बड़े व्यापार कुशल एवं मेघावो व्यक्ति थे । आपने राजलदेसर से २ मील की दूरी पर राजाणा नामक स्थान पर एक धर्मशाला सथा कुण्ड बनवाया है। राजलदेसर एवं सारे आसपास के ग्रामों के पोसवाल समाज में आपका बहुत बड़ा प्रभाव एवं सम्मान था। बीकानेर दरबार भी आपका अच्छा सत्कार करते थे। आपको आपके दोनों चाचा सेठ लच्छीरामजी एवं सेठ मेघराजजी के साथ संवत् १९२३ की भसाड सदीको दरबार की ओर से साहकारीका पट्टा इनायत किया गया था. इसके अतिरिक्त संवत् १९५६ में बीकानेर दरबार ने आपको आपके कार्यों से प्रसन्न होकर छड़ी चपरास का सम्मान बक्षा | आपका स्वर्गवास संवत् १९६९ में हो गया । आपके दाह संस्कार के स्थान पर आपके स्मारक स्वरूप एक ग्राउण्ड घेर कर सुन्दर छतरी भी बनवाई गई । जिस पर एक मार्बल का शिलालेख स्थापित किया गया । वर्तमान में इस फर्म के संचालक आपके सातों पुत्र हैं। जिनके नाम क्रमशः सेठ बोजराजजी सेठ सींचियालालजी, हीरालालजी, चांदमलजी, नगराजजी, इन्द्रराजमलजी तथा चम्पालालजी हैं। आप लोगों का परिवार श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सम्प्रदाय का अनुयायी है।
इस फर्म का अंग्रेजी फर्मों के साथ विशेष सम्बन्ध है। इस फर्म में संवत् १९७६ से कपड़े का व्यापार प्रारंभ किया तथा संवत् १९८३ से यह फर्म मेसर्स Kettle weel bullen and Co. Ltd. के पीस गुड्स डि. की सोल बेनियन हुई। इसके पश्चात् संवत् १९४६ से मेसर्स बाबरिया कॉटन मिल्स कं. लि., दी डनवार मिल्स लि., और दी न्यू रिंग मिल्स कं. लि. नामक तीनों कॉटन मिलों की सोल बेनियन हुई । इस फर्म के वर्तमान संचालकों का परिचय इस प्रकार है।
बा० बींजराजजी-आपका जन्म संवत् १९३६ में हुआ । आप बड़े योग्य तथा इस फर्म के प्रधान संचालक है। आपका राजलदेसर के नागरिकों में अच्छा सम्मान है। भाप वहां की म्युनिसीपालिटी
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श्रोसपाल जाति का इतिहास के प्रारम्भ से ही व्हाइस चेअरमैन हैं। बीकानेर हाई कोर्ट के आप जूरी भी हैं। आपको सन् १९२१ की सेन्सस के समय मदद करने के उपलक्ष में बंगाल सरकार ने एक सर्टिफिकिट प्रदान कर सम्मानित किया था । आप कलकत्ता श्री जैन श्वेताम्बर तेरा पंथी सभा के कई साल तक उप सभापति तथा जैन श्वेताम्बर ते. स्कूल के सभापति का आसन ग्रहण कर चुके हैं । आपकेछः पुत्र हुए जिन केनाम क्रमशः मालचन्दजी, लखमीचंदजी भमोलकचन्दजी, श्रीचन्दजी, फतेहचन्दजी और पूनमचन्दजी हैं । इनमें से लखमीचन्दजी जिन्होंने I. A. की परीक्षा की तयारी की थी परन्तु परीक्षा के पूर्व ही स्वर्गवासी हुए । आपके किशनलालजी नामक एक पुत्र है। बाबू अमोलकचन्दजी ने सपत्नीक श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सम्प्रदाय में संवत् १९४८ के ज्येष्ठ शुक्ला
को दीक्षा ग्रहण करली । आपके शेष चार पुत्रों में से तीन व्यापार में सहयोग लेते हैं और एक पढ़ते हैं। . बा. सिंचियालालजी-आपका जन्म संवत् १९४३ का है। आप धार्मिक विचारों के पुरुष है। आपके चार पुत्र हुए थे जो छोटी वय में ही स्वर्गवासी हो गये। तथा संवत् १९७६ में जब कि भापकी अवस्था केवल ३२ वर्ष की थी, आपकी धर्मपत्नी का भी स्वर्गवास हो गया। इसके बाद मापने विवाह नहीं किया । आपने आपके छोटे भाई सेठ चांदमलजी के पुत्र बा. बच्छराजजी को दत्तक लिया है। भाप I. A. तक विद्याध्ययन कर फर्म के काम में सहयोग लेते हैं।
बा. हीरालालजी-आपका जन्म संवत् १९१६ में हुआ। आप दयालु तथा मिलनसार प्रकृति पुरुष हैं। आपके एक पुत्र हैं जिनका नाम पन्नालालजी है । आप भी व्यापार में भाग लेते हैं।
बा. चान्दमलजी-आपका जन्म संवत् १९४७ का है। आप कुशल व्यापारी हैं। जैन धर्म की आपको विशेष जानकारी है। आप बड़े सरल एवं योग्य सज्जन हैं । आपके पांच पुत्र हैं जिनके नाम बच्छराजजी जो सींचियालालजी के यहां पर दत्तक गये हैं, खेमकरणजी, लंकापतसिंहजी, शेषकरणजी और अनोपचन्दजी हैं। बा. खेमकरणजी व्यापार में सहयोग लेते हैं । शेष पढ़ते हैं।
बा० नगराजजी-आपका जन्म संवत् १९४८ का है । आप भी इस फर्म के संचालन में भाग लेते हैं। भापके चार पुत्र हैं जिनके माम बा• कन्हैयालालजी, नेमचन्दजी तथा नन्दलालजी हैं। बा. कपालल्जी और मेमचन्दजी न्यापार में भाग लेते हैं । बा० कन्हैयालालजी के २ पुत्र हैं जिनमें बड़े का नाम भंवरलालजी हैं।
बा० हंसराजजी-आपका जन्म संवत् १९५१ में हुआ। तथा आपका स्वर्गवास संवत् १९७२ की महा सुदी में हो गया । आपके तीन पुत्र है जिनके नाम क्रमशः बा. माणकचन्दजी जो मेट्रिक में पढ़ते हैं, रतनलालजी और गोपीलालजी हैं। आप लोग भी पढ़ते हैं।
बा० इन्द्राजमलजी-आपका जन्म संवत् १९५१ का।आप भी व्यापार में भाग लेते हैं।
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ चांदमलजी वैद, राजलदेसर,
सेठ नगराजजी वैद, राजलदेसर.
स्व० सेठ हंसराजजी वैद, राजलदेसर.
सेठ इन्दराजमलजी वैद, राजलदेसर,
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ओसवाल जाति का इतिहास
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बाबू चम्पालालजी वैद (वैद परिवार) राजलदेसर.
जयचन्द भवन, राजलदेसर,
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बेद-मेहता
भापके तीन पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः पा० ऋधकरणजी, सागरमलजी, एवं मांगीलालजी हैं । ऋधकरणजी व्यापार में भाग लेते हैं तथा शेष पढ़ते हैं।
बा० चम्पालालजी-भापका जन्म संवत् १९९१ में हुआ। आप बड़े योग्य, व्यापार कुशल तथा मिलनसार सजन हैं। आप ही इस फर्म के कार-मार को बड़ी योग्यता से संचालित कर रहे हैं । आप ही के द्वारा इस फर्म का बहुत सी अंग्रेजी फमों के साथ कारवार होता है । आपका बहुत से बड़े २ अंग्रेजों से परिचय है। आप ही के द्वारा इस के साथ अंग्रेजों का सम्बन्ध स्थापित हुआ है। आपकी बड़े गवर्नमेंट अफसरों, गवर्नरों तथा उच्चपराधिकारियों से पर्सनल मैत्री है।
इस परिवार की भोर से श्री जैन श्वेताम्बर तेरा पंथी सभा तथा स्कूल और वि० स० विद्यालय और औषधालय आदि संस्थानों को भी काफी सहायता प्रदान की गई है। हाल ही में राजलदेसर गांव में वेद परिवार प्रधगुना कुआ नामक एक जीर्ण शीर्ण कुए का आप लोगों ने जीर्णोद्धार करवाया जिसमें आपने हजारों रुपये लगाये।
यह परिवार इस समय सारा समिलित रूप से रहता तथा सम्मिलित रूप से ही व्यवसाय करता है। ऐसे बड़े परिवार वालों का बड़े स्नेह से सम्मिलित रूप से रहना प्रशंसनीय है। इस परिवार की राजलदेसर में बहुत सुन्दर हवेलियां बनी हुई है। इसी प्रकार काडनू नामक स्थान में भी भपकी एक पहुत बड़ी हवेली बनी हुई है। सेठ मेघराजजी का परिवार
इस परिवार का पूर्व परिचय हम ऊपर लिख ही चुके हैं। सेठ मेघराजजी सेठ उम्मेदमलजी के तीसरे पुत्र थे । भाप भी बड़े प्रतिभा सम्पन्न पुरुष थे । आपने हजारों लाखों रुपयों की सम्पत्ति उपार्जित की। आपका स्वर्गवास हो गया । आपके तीन पुत्र हुए। इनके नाम क्रमशः सेठ छोगमलमी, सेठ उमचन्दजी और सेठ तनसुखरायजी थे । आप तीनों ही भाता अलग २ हो गये । इस समय आप तीनों का परिवार अलग २ रूप से व्यापार कर रहा है। जिनका संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है। - सेठ छोगमलजी-आपने अपने भाईयों से भलग होकर फर्म की भन्छी उन्नति की । भापने बडंगाबाद (मुर्शिदाबाद ) में अपनी फर्म स्थापित की जो आज करीब १०० वर्षों से चल रही है। इस समय यहां जा, दुधनदारी और जमींदारी का काम हो रहा है। इसके पश्चात् ही आपने कलकत्ता १५ नारमल महिपा केन में अपनी फर्म खोली । इस पर इस समय जूट, कमीशन एजेन्सी और बैंकिंग का व्यापार हो रहा है। भापका स्वर्गवास संवत् १९७३ में हो गया। भापके इस समय सेठ मन्नालालजी एवं कालूराम
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श्री सवाल जाति का इतिहास
जी नामक दो पुत्र हैं। आप लोग भी फर्म के कार्य का उत्तमता से संचालन कर रहे हैं । मन्नालालजी के भँवरलालजी एवं पूनमचन्दजी और कालूरामजी के चन्दनमलजी और जैवरीमलजी नामक पुत्र हैं । चन्दनमलजी उत्साही युवक हैं। आप भी फर्म का संचालन करते हैं।'
सेठ उमचन्दजी- आपने भी अपनी फर्म की अच्छी उन्नति की । तथा मेघराज ऊमचन्द के नाम से व्यापार करना प्रारम्भ किया। आपका स्वर्गवास हो गया। आपके सात पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः मालचन्दजी, शोभाचन्दजी, हीरालालजी, संतोष चन्दजी, चम्पालालजी, सोहनलालजी और श्रीचन्दजी हैं । आप सब लोग मिलनसार व्यक्ति हैं। आप लोगों का व्यापार शामलात ही में हो रहा है । आपकी फर्म कलकत्ता में २६।१ आर्मिनियन स्ट्रीट में है यहां जूट का काम होता है। इसका तार का पता Sohanmor है। इसके अतिरिक्त भिन्न २ नामों से राजशाही, जमालगंज, और चरकांई ( बोगड़ा ) नामक स्थानों पर जूट तथा, जमींदारी और गल्ले का व्यापार होता है।
सेठ तनसुखरायजी- - आपका जन्म संवत् १९३२ में हुआ । आप बचपन से ही बड़े चंचल और प्रतिभा वाले थे । आपने पहले तो अपने भाई छोगमलजी के साथ व्यापार किया । मगर फिर किसी कारण से आप अलग गये । अलग होते ही आपने अपनी बुद्धिमानी एवं होशियारी का परिचय दिया और फर्म को बहुत उन्नति की । आपका स्वर्गवास हो गया । आपके भूरामलजी नामक एक पुत्र थे । आपने भी योग्यतापूर्वक फर्म का संचालन किया । मगर कम वय में ही आपका स्वर्गवास हो गया। इस समय आपके तीन पुत्र हैं। जिनके नाम क्रमशः बाबू संतोषचन्दजी, धर्मचन्दजी और इन्द्रचन्दजी हैं । बाबू संतोषचन्दजी बड़े मिलनसार, शिक्षित और सज्जन प्रकृति के पुरुष हैं । आपके भाई अभी विद्याध्ययन कर रहे हैं। आपकी फर्म इस समय कलकत्ता में मेघराज तनसुखगास के नाम से १९ सैनागो स्ट्रीट में है । जहाँ बैंकिंग जूट एवं कमीशन का काम होता है। इसके अतिरिक्त चंपाई ( नबाबगंज) में भी आपकी एक फर्म है । वहाँ जूट का व्यापार होता है । यहाँ आपकी बहुत सी स्थायी सम्पति भी बनी हुई है ।
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इस परिवार के लोग भी तेरापंथी सम्प्रदाय के मानने वाले हैं । आप लोगों की ओर से राजलदेसर स्टेशन पर एक धर्मशाला बनी हुई है। जिसमें यात्रियों के ठहरने की अच्छी व्यवस्था है । सेठ रामजी का परिवार :
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हम यह ऊपर लिख ही चुके हैं कि सेठ लच्छीरामजी सेठ उम्मेदमलजी के पुत्र थे। ये राजलदेसर के प्रसिद्ध सेठ खड़गसेनजी के वहाँ दत्तक आये । ये बड़े प्रतिभा सम्पन्न एवं व्यापार कुशल व्यक्ति थे । आपने उस समय में अपनी फर्म कलकत्ता में स्थापित की थी जय कि मारवादियों की इमी गिनी फर्मे
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० सेठ तनसुखदासजी वैद (वैद-परिवार ) राजलदेसर.
बाबू धनराजजी वैद ( वैद-परिवार ) राजलदेसर.
रव० सेठ भूरामलजी वैद (वैद-परिवार ) राजलदेसर.
कुँवर मोहनलालजी S/o धनराजजी वैद, राजलदेसर.
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वेद मेहता
ते में चल रही थीं । आपकी फर्म पर चलानी का काम बहुत बड़े परिमाण में होता था। कुछ समय पमात् सब भाई अलग हो गये। सेठ लच्छीरामजी के आसकरनजी नामक एक पुत्र हुए। मेठ भासकरनजी ने भी अपनी फर्म की बहुत उन्नति की । आपने गया जिले में बहुत बड़ी जमींदारी खरीद को तथा वहाँ अपनी एक फर्म स्थापित की । आपका धार्मिकता की ओर भी बहुत ध्यान रहा । आपने अपने पिताजी हो की भांति हजारों लाखों रुपयों की सम्पत्ति उपार्जित की । आपका बीकानेर दरबार अच्छा सम्मान करते थे । भापको राज्य की ओर से छड़ी चपरास का सम्मान प्रदान किया हुआ था। जिस प्रकार आपको सम्मान प्राप्त था; उसी प्रकार आपके पिताजी को भी था। दरबार की ओर से आपके पिता सेठ बच्छीरामजी को उनके भ्राता सहित साहुकारी का पट्टा इनायत हुआ था । साथ ही एक पट्टा और संवत् १९२३ आसाद सुदी ७ को मिला था। जिसमें इनके सम्मान को बढ़ाने वाली बहुतसी बातें थीं। स्थानाभाव से वह यहां उधृत नहीं किया जा सका । सेठ आसकरनजी का स्वर्गवास हो गया । आपके ६ पुत्र हुए, जिनके नाम क्रमशः सेठ मोतीलालजी, भीमराजजी धनराजजी, बुधमलजी, गिरधारीमलजी, और सिंचयालाबजी हैं। इनमें से प्रथम दो का स्वर्गवास हो गया उनके पुत्र अपना स्वतन्त्र काम करते हैं।
सेठ धनराजजी का जन्म संवत् १९४३का है। आप बड़े उत्साही, मिलनसार और सजन पति । भापका व्यापार कलकत्ता में मेसर्स लच्छीराम प्रेमराज के नाम से ५६ आर्मेनियन स्ट्रीट में सूट और किंग का होता है। साथ ही आपकी बहुत सी स्थायी सम्पत्ति भी बनी हुई है। आपके मोहनलालजी और बच्छावनी मामक दो पुत्र हैं।
चौथे पुत्र धमलजी बंगाल के चगड़ा बाना (कुचबिहार ) नामक स्थान पर रहते हैं और वहीं ग्यापार करते हैं। पांचवे गिरधारीमलजी राजलदेसर ही रहते हैं तथा बैंकिंग का व्यापार करते हैं । छटवें पुत्र सिंचयालालजी अभी नाबालिग है। मापकी फर्म कलकत्ता में सदगसिंह लच्छीराम के नाम से ४ दहीहट्टा में हैं। जहां कमीशन का काम होता है। तवा गवा पाली फर्म पर कपड़ा, ब्याज और जमींवारी का काम होता है । आपके यहाँ मुनीम लोग फर्म का संचालन कर रहे हैं।
सेठ प्रासकरन मुन्तानमल वेद, लाडनू कुछ वर्ष पूर्व इस परिवार की फर्म मेसर्स अमरचन्द आसकरन मुस्तानमल के नाम से थी। मगर संवत् १९९१ में यह नाम बदल कर आसकरन मुस्तानमल कर दिया गया । इसका आकिस ४२ अर्मेनियन स्ट्रीट कलकत्ता में है। तार का पता Mulchouth है । यहाँ जूट का व्यापार तथा भादस का
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ओसवाल जाति का इतिहास
काम किया जाता है । इस फर्म के मालिक वर्तमान में सेठ भासकरनजी के पुत्र मुल्तानमलजी, तनसुखलाल जी, जोधराजजी और चौथमलजो हैं । सेठ मुख्तानमलजी का स्वर्गवास हो गया । आप लोगों की ओर से लाडनू में एक पाठशाला चल रही है। भाप लोग जैन श्वेताम्वर तेरापंथी संप्रदाय के अनुयायी हैं।
मेहता सौभागमलजी वेद का खानदान, अजमेर इस प्राचीन परिवार के पूर्वजों का मूल निवास स्थान मेदता (मारवाद) का है। वहाँ से भाप लोग किशनगद, बीकानेर तथा कुचामण होते हुए अजमेर में आकर बसे और तभी से यह खानदान अजमेर में निवास करता है। " . . इस परिवार में मेहता खेतसीजी मेड़ते में बड़े नामांकित साहूकार हो गये हैं। भापके पुत्र
हमलजी के विरपालजी तया बखतावरमलजी नामक दो पुत्र हुए । मेहता थिरपालजी के पुत्र चन्द्रभानजी के हिम्मतराजी, दौलतरामजी, सूरतरामजी तथा मोतीरामजी नामक चार पुत्र हुए। आप चारों भाई सब से प्रथम करीव १२५ वर्ष पूर्व भजमेर आए। फिर मेहता सूरतरामजी का परिवार तो उदयपुर जा बसा, जिनका परिचय मेहता मनोहरमलजी वेद के शीर्षक में दिया गया है। शेष तीनों भाई अजमेर में ही बस गये। आप लोग बड़े ही व्यापार कुशल तथा धार्मिक सजन थे। आपने हजारों लाखों रुपये कमा कर अनेक हवेलियाँ बनवाई; सिद्धाचल और मेड़ते में सदाव्रत खोले तथा कई धार्मिक कार्य किये । मेहता दौलतरामजी के गम्भीस्मलजी नामक एक पुत्र हुए।
मेहता गम्भीरमलजी-आप यहाँ के एक प्रसिद बैकर हो गये हैं। आपके लिए “गम्भीरमल मेहता का तोल, और हुंडी सब की लेवे|मोल" नामक कहावत प्रचलित थी। आपने ८००००) की लागत से पुष्कर का घाट, बनाया। इसके अलावा पुष्कर के नाना के मन्दिर का बाहरी हिस्सा, गौघाट पर महादेव का मन्दिर, खोवरिया भेरू की घाटी और अजमेर में डिग्गी का तालाब आदि स्थान बनवाये इसी प्रकार और भी धार्मिक कार्यों में सहायता दी । आपके इन कार्यों से प्रसन्न होकर लार्ड विलियम वैटिंग ने आपको एक प्रशंसा पत्र लिखा था। आपके प्रतापमलजी एवं इन्द्रमलजी नामक दो पुत्र हुए।
मेहता प्रतापमलजी-आपभी बड़े नामांकित व्यक्ति हो गये हैं । आप बड़े रईस,व्यापार कुशल तथा बुद्धिमान सज्जन थे। आपका व्यापार बहुत बढ़ा-चढ़ा था। कलकत्ता, हैदराबाद, पूना, जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, इन्दौर, टोंक, उज्जैन आदि स्थानों पर आपकी फ़ौ थीं। राजपूताने की रियासतों में भी आपका बहुत सम्मान था। जोधपुर-राज्य की ओर से आप ऑनरेरी दीवान के पदपर संवत् १९२३ की कार्तिक
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अोसाज जाति का इतिहास
स्वर्गीय बुधकरणजी मेहता, अजमेर.
श्री गुलाबचन्दजी डड्ढा एम. ए., जयपुर (परिचय पृष्ट २६८ में)
श्री देवकरणजी मेहता, अजमेर.
श्री रूपकरणजो मेहता बी. ए., अजमेर
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वेद- मेहता
बदी ३ को नियुक्त किये गये थे । इसके अतिरिक्त जोधपुर दरबार ने आपको हाथी सिरोपाव प्रदान किया था । आपकी कलकत्ता, हैदराबाद, पूना, उदयपुर, जयपुर, जोधपुर, इन्दौर, टोंक, उज्जैन वगैरा स्थानों में दुकानें थीं । आपका शाही ठाटबाट था । आपने अपने भाइयों के साथ सम्वत् १९०५ में गोड़ी पार्श्वनाथजी का मन्दिर व धर्मशाला बनवाई । आप सम्वत् १९२६ में स्वर्गवासी हुए। आपके नाम पर आपके छोटे भ्राता इन्द्रमलजी के पुत्र कानमलजी दत्तक लिये गये । आप भी अल्पायु में ही स्वर्गवासी हुए। आपके नाम पर मेहता सोभागमलजी बीकानेर से दत्तक लिये गये ।
मेहता सोभागमलजी – आपका जन्म सम्वत् १९२६ में हुआ । ८ साल की वय में आप बीकानेर से दत्तक आये । उस समय बीकानेर दरबार की ओर से आपको सोना और बाज़िम बख्शा गया था । इसके अतिरिक्त जोधपुर दरबार की ओर से आपको तीन बार पालकी सिरोपाव प्राप्त हुए। इतना ही नहीं बल्कि जोधपुर नरेश सरदारसिंहजी के विवाह के समय महाराजा सर प्रतापसिंहजी ने आपको विवाह में सम्मिलित होने के लिये पत्र व तार द्वारा निमंत्रित किया था। अजमेर में आपकी बहुत-सी स्थायी सम्पत्ति है । आपके पास प्राचीन तस्वीरें, जेवर, हथियार, चीनी का सामान और शाही जमाने की लिखित पुस्तकों का संग्रह है, जिन्हें देखने के लिये कई पुरातत्व वेत्ता व गण्य मान्य अंग्रेज़ आपकी हवेली पर आते रहते हैं । आपकी तस्वीरें बिलायत के एक्सीवीजन में भी गई थीं । गोड़ी पार्श्वनाथजी के मंदिर की व्यवस्था आपके जिम्मे है । आपके जीतमलजी, हमीरमलजी और समरथमलजी नामक तीन पुत्र हैं । जीतमलजी ने बी० ए० तक अध्ययन किया है ।
इस परिवार में मेहता चन्द्रभानजी के चौने पुत्र मोतीरामजी की संतानों में इस समय मेहता रघुनाथमलजी तथा जेठमलजी अजमेर में, वख्तावरमलजी ब्यावर में तथा भगोतीलालजी और गणेशमलजी जोधपुर में निवास करते हैं । मेहता बख्तावरमलजी पहले झालावाड़ स्टेट में कस्टम सुपरिण्टेण्डेण्ट थे । आपको कई अंग्रेज़ों से अच्छे सार्टिफिकेट मिले हैं वहाँ से रिटायर होकर वर्तमान में आप रतनचन्द संचेती फैक्टरी ब्यावर के मेनेजर हैं । आपके पुत्र अभयमलजी आगरे में व्यापार करते हैं ।
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वेद मेहता बुधकरणजी का खानदान, अजमेर
इस परिवार का इतिहास वेद मेहता खेतसीजी के पौत्र मेहता वखतमलजी से प्रारम्भ होता है । मेहता वखतमलजी से पहले का विस्तृत परिचय हम इसके ऊपर दे चुके हैं ।
मेहता लालचन्दजी — मेहता वखतमलजी के लालचन्दजी तथा उम्मेदचन्दजी नामक दो पुत्र - हुए । मेहता लालचन्दजी व्यापारकुशल व्यक्ति थे । आप सम्बत् १८३० में गवालियर गये । वहाँ जाकर आपने झाँसी, फरुखाबाद, मिर्जापुर, भोपाल, जयपुर आदि स्थानों में सराफी दुकानें स्थापित कीं । आपका देहान्त सं० १८५१ में सतवास ( गवालियर) में हुआ, जहाँ पर आपकी छतरी बनी हुई है । सं० १९२२ तक आपके परिवार की ओर से उक्त स्थान पर सदावृत बंटता रहा। आपके छोटे भाई मेहता उम्मेदचन्दजी बड़े धार्मिक पुरुष थे । आपका जोधपुर दरबार से एवं मेड़ते के आसपास के बड़े २ जागीरदारों से लेन देन का सम्बन्ध था | जोधपुर दरबार ने १८५३-६० और ६३ में खास रुक्क े देकर सम्मानित किया था । आप सं० १८६९
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ओसवाल जाति का इतिहास
में मेड़ते में स्वर्गवासी हुए । आपके पुत्र श्रीचन्दजी तथा उदयचन्दजी किशनगढ़ में निसंतान स्वर्गवासी हुए अतः श्रीचन्दजी के नाम पर मेहता सिद्धकरणजी दत्तक आये। किशनगढ़ में आपका सदावृत जारी था। मेहता लालचन्दजी के पुत्र लूनकरणजी ने व्यापार की बड़ी तरक्की की। आपने रतलाम, जावरा, आस्टा, उदयपुर, अजमेर, चंदेरी, भिंड, अटेर टोंक, कोटा आदि स्थानों में दुकानें खोली । आप अपने पुत्र रिधकरणजी तथा सिद्धकरणजी सहित संवत् १८८५ के करीब किशनगढ़ से अजमेर आये । और "लूनकरण रिद्धकरण" के नाम से अपना कारबार चलाया। आपने दूर २ स्थानों पर करीब २५-३० दुकानें खोली जिन पर सराफी तथा जमींदारी का धंधा होता था। आपका देहान्त अजमेर में सम्वत् १८८९ में हुआ । जहाँ लूँग्या के खेतरों में आपकी बड़ी बारादरी बनी है।
मेहता रिधकरणनी-आप धर्मनिष्ठ व्यक्ति थे। आपने श्री शर्बुजय, गिरनार का एक संघ निकाला था। आपका किशनगढ़, जावरा आदि रियासतों से लेन देन का सम्बन्ध था। इन रियासतों ने १८९३ और १९०३ में आपको खास रुके भी दिये थे। किशनगढ़ के मोखम विलास नामक महल में आपकी तिबारी बनी हुई है। सं० १८९५ में जोधपुर नरेशश की ओर से आपको बैठने का कुरुब प्रदान किया गया था।
आपके सहस्त्रकरणजी, तेजकरणजी, सूरजकरणजी, जेतकरणजी तथा जोधकरणजी नामक पांच पुत्र हुए। मेहता सिद्ध करणजी ने १८९० से उम्मेदचन्द श्रीचन्द के नाम से अलग व्यापार करना शुरू कर दिया। मापकी मृत्यु के पश्चात् आपके नाम पर आपके भतीजे सहस्त्रकरणजी गौद आये । मेहता सहस्त्रकरणजी बड़े भाग्यशाली पुरुष थे। भापको सं० १८९५ में जोधपुर राज्य से हाथी पालकी और कंठी का कुरुब प्राप्त हुआ था। अजमेर के अंग्रेज़ आफिसरों में आपका बड़ा सम्मान था। आपके मुनीम जोशी रघुनाथदासजी तक अजमेर के आनरेरी मजिस्ट्रेट थे । आपने अपने भाइयों के साथ अजमेर में गोड़ी पार्श्वनाथजी का मन्दिर बनवाया । आनासागर पर सम्बत् १९०५ में बाग और घाट बनवाया । आप पाँचों भाइयों का कम उम्र में ही स्वर्गवास हो गया था। आप पाँचों भाइयो के बीच मेहता तेजकरणजी के पुत्र बुधकरणजी ही थे।
मेहता बुधकरणजी-आप लालचन्दजी और उम्मेदमलजी दोनों भ्राताओं के उत्तराधिकारी हुए । आपने बहुत पहले एफ० ए० की परीक्षा पास की थी। आप बड़े गम्भीर और बुद्धिमान थे। समाज में आपकी अच्छी प्रतिष्ठा थी। भाप संस्कृत और जैन शास्त्रों के अच्छे ज्ञाता तथा कानून की उत्तम जानकारी रखने वाले पुरुष थे। आपके देवकरणजी तथा रूपकरजी नामक दो पुत्र हुए।
मेहता देवकरणजी तथा रूपकरणजी-आपका जन्म क्रमशः १९२५ के भाद्रपद में तथा १९५४ के भावण में हुआ। आप दोनों सजन अजमेर की ओसवाल समाज में वजनदार तथा समझदार पुरुष हैं। आप लोग बड़े विद्या-प्रेमी भी हैं । मेहता देवकरणजी भोसवाल हाई स्कूल के व्हाइस प्रेसिडेण्ट तथा रूपकरणजी बी. ए. उसके मंत्री हैं। रूपकरणजी के पुत्र अभयकरणजी सज्जन व्यक्ति हैं।
यह खानदान अजमेर में एक प्राचीन तथा प्रतिष्टित खानदान माना जाता है । आपके पास कई पुरानी वस्तुओं, हस्तलिखित पुस्तकों तथा चित्रों का अच्छा संग्रह है। आपके गृह देरासर में कई पीढ़ियों से सम्वत् १५२७ की श्री पार्श्वनाथ की मूर्ति एवं सम्वत् १६७७ की एक चन्द्रप्रभु स्वामी की मूर्ति है।
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सेठ रामासहजी मेहता, उदयपुर.
सेठ मनोहरलालजी मेहता, उदयपुर,
कुँवर डूंगरमलजो S/ जसकरणजी वैद, रतनगढ़.
कॅ० साहनलालजी S/o जसकरणजावेद, रतनगढ़.
कुँ० लाभचंदजा 30 जसकरणजा पैद, रतनगढ़
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वेद मेहता मेहता मनोहरलालजी वेद का खानदान, उदयपुर इस प्राचीन खानदान के प्रारम्भिक परिचय को हम इसके पूर्व में प्रकाशित कर चुके हैं। इसका इतिहास मेहता थिरपालजी के पौत्र तथा चन्द्रभानजी के तृतीय पुत्र सूरतरामजी से प्रारम्भ होता है। यह हम प्रथम ही लिख आये हैं कि आप अपने भाइयों के साथ अजमेर आये और यहाँ से आप उदयपुर चले गये। उसी समय से आपका परिवार उदयपुर में निवास कर रहा है।
मेहता सूरतरामजी के रायभानजी तथा बदनमलजी नामक दो पुत्र हुए। आप लोगों का व्यव. साय उस समय खूब चमका हुभा था। मेहता बदनमलजी संवत् १८९८ के लगभग उदयपुर भाये । आपने आकर अपने व्यवसाय को और भी चमकाया तथा बम्बई, रंगून, हाङ्गकांग, कलकत्ता आदि सुदूर के नगरों में भी अपनी फमैं स्थापित की। उस समय आप राजपूताने के प्रसिद्ध धनिकों में गिने जाते थे। आपकी धार्मिक भावना भी बढ़ी चढ़ी थी। आपकी धर्मपत्नी श्रीमती चाँदबाई ने उदयपुर में एक धर्मशाला तथा एक मन्दिर भी बनवाया जो आज भी आपके नाम से विख्यात है। आपने मेवाड़ के कई जैन मन्दिरों के जीर्णोद्धार भी करवाये । मेहता बदनमलजी के निःसंतान स्वर्गवासी हो जाने पर आपके यहाँ भापके भतीजे मेहता कनकमलजी दसक आये।
मेहता कनकमलजी का राज दरवार में खूब सम्मान था। आपको उदयपुर के महाराणा सरूप. सिंहजी ने संवत् १९१४ में सरूपसागर नामक तालाब के पास की २९ बीघा जमीन की एक बाड़ी बक्षी थी। जिसका परवाना आज भी आपके वंशजों के पास मौजूद है । इसके अतिरिक्त भापको राज्य की ओर से बैठक, नाव की बैठक, दरबार में कुर्सी की बैठक, सवारी में घोड़े को आगे रखने की इजत, बलेणा घोड़ा भादि २ कई सम्मान प्राप्त थे। आपने सबसे पहले उदयपुर महाराणाजी को बग्घी नजर की थी। आपके जवानमलजी तथा उदयमलजी नामक दो पुत्र हुए। इन दोनों का मापकी विद्यमानता में ही स्वर्गवास हो गया। असः आप अपने यहाँ बीकानेर से पन्नालालजी को दत्तक लाये । मेहता पचालालजी के मनोहरलालजी तथा सुगनमलजी नामक दो पुत्र हुए।
मेहता मनोहरलालजी का जन्म संवत् १९४८ की भादवा बदी अमावस्या मे हुमा। आपने पी० ए० की परीक्षा पास कर एक वर्ष तक कॉ में अध्ययन किया। भाप नरसिंहगढ़ में सिटी मजिस्ट्रेट, सिविलजज तथा कस्टम्स और एक्साइज ऑफीसर रहे। इसके साथ ही आप वहाँ की म्युनिसीपैलिटी के महाइस प्रेसिडेण्ट तथा वहाँ की सुप्रसिद्ध फर्म मगनीराम गणेशीलाल के रिसीव्हर भी रहे। भापकी सेवाओं से प्रसन्न होकर रीजेंसी कौंसिल के प्रेसीडेण्ट कनक लुभाई, नरसिंहगढ़ तथा भोपाल के
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
तत्कालीन पोलिटिकल एजण्ट खानबहादुर इनायत हुसैन, व्हाइस प्रेसिडेण्ट तथा दीवान आदि सजनों ने आपको कई प्रशंसापत्र दिये।
___ जिस समय आप नरसिंहगढ़ में थे उस समय आपको गवालियर महाराज ने कस्टम सुपरिण्टे. ण्डेण्ट की जगह के लिये बुलाया था । मगर उदयपुर के महाराणाजी ने आपको उदयपुर बुलाकर 1 दिसम्बर सन् १९२३ में असिस्टेण्ट एक्साइज कमिश्नर के पद पर नियुक्त किया। इसके पश्चात् भाप सन् १९२५ में असिस्टेण्ट कस्टम सुपरिन्टेंडेण्ट बनाये गये । तदनंतर आप कस्टम सुपरिटेन्डेण्ट और फिर सन् १९२५ में एक्साइज कमिश्नर बनाये गये । आप माज कल छोटी सादड़ी के हाकिम हैं इसी प्रकार आप अका. उटंट जनरल, तीन साल तक म्यु. मेम्बर और ऑनरेरी मजिस्ट्रेट भी रहे । आपके कार्यों से रियासत भौर दोनों बहुत प्रसन्न रहे।
मेहता सुगनलालजी का संवत् १९५० की फागुन वदी ९ को जन्म हुआ। आपबी० ए० एल०एल बी० पास हैं। वर्तमान में आप रासमी में डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट हैं। आपके दिलीपसिंहजी तथा रणजीतसिंहजी नामक दो पुत्र हैं।
मेहता रामसिंहजी वेद का घराना, उदयपुर इस परिवार के पूर्वजों का मूल निवास स्थान मेड़ता (मारवाड़) का है । आप श्री जैन श्वेताम्बर मंदिर आम्नाय को मानने वाले सज्जन हैं। मेड़ता से इस परिवार के पूर्व पुरुष मेहता आलमचन्दजी उदयपुर भाकर बस गये थे। तभी से यह खानदान यहीं पर निवास करता है। इनके पुत्र उम्मैदमलजी के रिखबदासजी तथा राजमलजी नाम के दो पुत्र हुए।
मेहता राजमलजी के अम्बालालजी और रामसिंहजी नामक दो पुत्र हुए। मेहता अम्बालालजी एक अच्छे मशहूर व्यक्ति हो गये हैं। आप मेवाड़ के नामी वकीलों में गिने जाते थे। मेहता रामसिंहजी का जन्म संवत् १९३५ में हुआ। आप इस समय मेवाड़ राज्य के महकमा खास में हेड क्लर्क हैं। मापने नैन श्वेताम्बर मूर्ति पूजक बोर्डिङ्ग हाउस को स्थापित करने में बड़ी कोशिश की । इसी प्रकार भापने एक चाँदी का हाथी भी बनवाया जो समय र पर भगवान की रथयात्रा के काम में आता है।
आपके हिम्मतसिंहजी तथा खुमानसिंहजी नामक दो पुत्र हैं। हिम्मतसिंहजी एग्रीकलचर की तालीम पाकर इस समय असिस्टेंट सेटलमेंट आफीसर के पद पर काम कर रहे हैं। खुमानसिंहजी इस समय पढ़ रहे हैं।
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प्रोसवाल जाति का इतिहास
श्री गेंदमलजी वेद ( माणकचन्द गेंदमल ), मदास,
श्री गुलाबचन्दजी वेद ( माणकचद गेंदमल ), मदास.
श्री धनराजजी वेद ( माणकचन्द गेंदमल), मदास.
कॅ० देवीचन्दजी S/O गुलाबचन्दजी वेद, मद्रास.
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वेद मेहता सेठ माणिकचंद गेंदमल वेद, मद्रास इस परिवार का मूल निवास स्थान फलौदी मारवाद का है। आप श्री श्वेताम्बर जैन सम्प्र. बाय के मंदिर माम्नाय को मानने वाले सज्जन हैं । इस परिवार में सेठ मोतीलालजी हुए । आपके मेघराजजी नामक एक पुत्र हुए । आप ही ने सबसे पहले करीब साठ वर्ष पूर्व मद्रास आकर पुरस्वाकम् में बैंकिंग की फर्म स्थापित की । आपके मणकचंदजी, शिवरामजी तथा जोगराजबी नामक तीन पुत्र हुए।
__सेठ माणकचंदजी बड़े ही व्यापार-कुशल और समझदार सज्जन थे। आपके द्वारा फर्म के व्यापार में बड़ी सरकी हुई । आपका संवत् १९८० में स्वर्गवास होगया। आपने अपने भाई के पुत्रों के साथ भी समानता का व्यवहार किया। मापके धनरामजी नामक एक पुत्र हुए। आपका सं० १९७० में जन्म । हुना। आप वर्तमान में बैंकिंग का स्वतन्त्र व्यापार करते हैं। ... सेठ शिवराजजी भी बड़े व्यापार में होशियार थे। मगर भापका स्वर्गवास संवत् १९६२ में कम उम्र में ही हो गया । आपके गेंदमलजी नामक एक पुत्र हुए। भापका सं० १९५७ में जन्म हुआ आप बड़े ही साहसी और व्यापारी व्यक्ति हैं। व्यापार में हजारों लाखों की जोखिम में पड़जाना आपका रोजाना का काम है। इस समय आप सोने और गिधी का अलग व्यापार करते हैं। मद्रास में सोने के व्यापारियों में आपका प्रथम नम्बर है।
सेठ जोगराजजी छोटी उम्र में ही स्वर्गवासी हुए। आपके गुलाबचन्दजी मामक पुत्र हुए। भापका जन्म संवत् १९६५ में हुआ। आप भी स्वतन्त्ररूप से बैंकिंग का व्यापार करते हैं। आपके देवीचन्दजी नामक एक पुत्र है।
इस खानदान को दान-धर्म और सार्वजनिक कार्यों की तरफ रुचि रही है। सम्बत् १९८५ में . इस कुटुम्ब के सजनों ने ओशियाँ के मन्दिर पर सोने का कलश चढ़ाया तथा मद्रास की वादावादी की छत्री के आसपास एक बराण्डा और हॉल तय्यार करवाया। इस कार्य में मापके करीव ५०००) लगे होंगे। फलौदी में भापने अपनी कुलदेवी के मन्दिर का जीर्णोद्धार भी करवाया । वहाँ भाप लोगों की ओर से एक छत्री भी बनवाई गई है।
- सेठ रावतमल सूरजमल वेद, मेहता मद्रास
इस परिवार का मूल निवास स्थान नागौर (मारवाड़) का है। आप लोग श्री जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी आम्नाय को मानने वाले सजन हैं। इस परिवार में सेठ तुलसीरामजी हुए। आपके रावत
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
मलजी, जेठमलजी तथा अमानमलजी नामक तीन पुत्र हुए। करीब साठ पैंसठ वर्ष पूर्व सेठ रावतमलजी नागौर से पैदल रास्ते द्वारा मद्रास भावे और सेंट थामस माउण्ट में अपनी दुकान स्थापित की । आप बड़े धार्मिक और साहसी व्यक्ति थे । आपके हाथों से फर्म की तरक्की हुई। आप संवत् १९७७ में अस्सी वर्ष की आयु में गुजरे । आपके सूरजमलजी नामक एक पुत्र हुए। सेठ: सूरजमलजी का जन्म संवत् १९३४ में हुआ। आप भी व्यापार में बड़े होशियार थे । आपने अपनी फर्म की खूब वृद्धि की । आप संवत् १९७१ में स्वर्गवासी हुए। आपके निःसंतान गुजरने पर • आपके नाम पर सेठ अमानमलजी के तीसरे पुत्र सेठ शम्भूमलजी गोद आये ।
सेठ शम्भूमहजी का जन्म सम्वत् १९४९ में हुआ। आप शांत प्रकृति के धार्मिक पुरुष हैं। आपकी ओर से गरीबों को सदाबत दिया जाता है। आपके मांगीलालजी नामक एक पुत्र है ।
सेठ गुलाबचन्दजी वेद, जौहरी जयपुर
उदयपुर स्टेट के खंडेला नामक स्थान से खेठ चुनीलालजी वेद जयपुर आये । आपके पुत्र गुलाबचन्दजी कलकत्ता गये । आप विलायत से पद्मा मंगाकर भारत में बेचते तथा यहाँ से विलायत के लिए जवाहरात भेजते थे । इस व्यापार में आपने अच्छी इज्जत और सम्पत्ति उपार्जित की । तदनंतर आपने कलकत्ते में दो विशाल कोठियाँ खरीदीं। संवत् १९५८ में आप स्वर्गवासी हुए। वेद गुलाबचन्दजी के मिलाप चन्दजी तथा पूनमचन्दजी नामक २ पुत्र हुए। जौहरी पूनमचन्दजी ने जयपुर में दो बगीचे बाजार में दुकानें तथा हवेलियाँ खरीद कर अपने कुटुम्ब की स्थाई सम्पत्ति को बढ़ाया। जयपुर महाराजा माधौसिंहजी की इन पर कृपा थी । इन्हें राज्य की ओर से लवाजमा और राज दरबार में जाने के लिये चोबदारों का सम्मान प्राप्त था। मिलापचन्दजी का स्वर्गवास संवत् १९५८ में तथा पूनमचन्दजी का संवत् १९८० में हुआ ।
जौहरी पूनमचन्दजी के पुत्र चम्पालालजी का जन्म सम्वत् १९६२ में हुआ । आपके यहाँ जन्महरात का व्यापार और स्थाई सम्पत्ति के किराये का कार्य्य होता है । कलकरो में आपकी फर्म पर बैंकिंग तथा किराये का काम होता है। यह परिवार जयपुर की जौहरी समाज में प्रतिष्ठित माना जाता है ।
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वेद मेहता
वेद मेहता रामराजजी, मेड़ता
वेद मेहता रामराजजी के पूर्वज मेहता दीपचन्दजी महाराजा बखतसिंहजी की हाजिरी में नागौर में रहते थे । जब महाराजा बखतसिंहजी और उनके भतीजे रामसिंहजी के बीच सोजत के पास लूंडावास नामक स्थान में झगड़ा हुआ, उस लड़ाई में महाराजा वस्त्रतसिंहजा की ओर से लड़ते हुए मेहता दीपचन्दजी काम आये थे । अतएव उनके पुत्र भागचन्दजी को सम्वत् १८०८ में मेड़ते परगने का चोठिवास नामक ५०० ) की रेख का गाँव जागीरी में मिला ।
सम्बत् १८११ में महाराजा विजयसिंहजी का मेड़ते के पास युद्ध हुआ, उसमें मेहता भागचंदजी . दरबार की ओर से लड़ते हुए काम आये । जब सम्बत् १८४७ में मराठों की फौज ने मारवाद पर हमला किया, उस समय भागचन्दजी के पौत्र सवाईसिंहजी जोधपुर दरबार की ओर से युद्ध में हाजिर थे। इसी तरह इस परिवार के व्यक्ति महाराजा मानसिंहजी की भी सेवाएं करते रहे ।
मेहता सवाईसिंहजी के बाद क्रमशः हिन्दूसिंहजी, शिवराजजी तथा सुखराजजी हुए। सुखराजजी के धनराजजी, अनराजजी और दीपराजजी नामक ३ पुत्र थे। इनमें दीपराजंजी के पुत्र रामराजजी मौजूद हैं। आप धनराजजी के नाम पर दसक आये हैं। आपके पुत्र मोहनराजजी तथा सोहनराजजी हैं ।
वेद मेहता हेमराजजी चौधरी, मेड़ता
इस परिवार के पूर्वज मेहता साईंदासजी के पुत्र किशनदासजी और मोहकमदासजी को बादशाह आलमगीर के जमाने में कई परवाने मिले। उनसे मालूम होता है कि इनको शाही जमाने से चौधरी का पद मिला । ओसवाल समाज में घड़े बन्दी होने से बहुत से लोग जब मोहकमसिंहजी के पुत्र विजयचन्दजी को चौधरी नहीं मानने लगे, तब सम्बत् १८३६ की पौष सुदी ५ को जोधपुर दरबार मे एक परवाना देकर इन्हें चौधरायत का पुनः अधिकार दिया। चौधरी विजयचन्दजी के बाद क्रमशः मूलचन्दजी, रूपचन्दजी, नगराजजी और धनराजजी हुए। ये सब सज्जन व्यापार के साथ चौधरायत का कार्य भी करते रहे । धनराजजी का स्वर्गवास सम्वत् १९४७ में हुआ । इस समय इनके पुत्र हेमराजजी चौधरी विद्यमान हैं। आप भी मेड़वा की ओसवाल न्यात के चौधरी हैं ।
सेठ गुलाब चन्द मुलतानचन्द वेद मेहता, चांदोरी
इस परिवार का मूल निवासस्थान पी (पुष्कर के समीप ) है । आप श्वेताम्बर जैन समाज के स्थानकवासी आम्नाय को मानने वाले समान हैं । इस परिवार में सेठ भींवराजजी हुए। आप ८० साक
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पोसवाल जाति का तिहास
पहले मारवाड़ से अंकाई ( नाशिक ) और फिर वहां से चांदोरी गये। यहाँ पर आपने अपनी एक दुकान स्थापित की। आपके हरकचंदजी तथा नारायणदासजी नामक दो पुत्र हुए । मापने बहुत साधारण हालत से अपनी प्रशंसनीय उन्नति की। आप दोनों भाई अपनी मौजूदगी ही में अलग २ होगये थे। सेठ हरकचंदजी के प्रेमराजजी तथा नारायणदासजी के रतनचंदजी व मुलतानचन्दजी नामक दो पुत्र हुए।
सेठ प्रेमराजजी के पुत्र खुशालचन्दजी वर्तमान में विद्यमान हैं और खुशालचन्द प्रेमराज के नाम से व्यापार करते हैं। सेठ रतनचन्दजी संवत् १९७० में गुजरे । आपके भीकचन्दजी तथा गुलाबचन्दजी नामक दो पुत्र हुए। इनमें से गुलाबचंदजी सेठ मुलतानचंदजी के नाम पर दत्तक गये सेठ मुलतानचंदजी सम्बत् १९४० में स्वर्गवासी हुए । वर्तमान में सेठ भीकचंदजी. तथा गुलाबचन्दजी विद्यमान हैं । आप लोगों का जन्म क्रमशः सम्बत् १९५६ और १९४८ में हुभा। आप दोनों धार्मिक तथा प्रतिष्ठित व्यक्ति है। . सेठ गुलाबचन्दजी के मिश्रीमलजी, दीपचन्दजी तथा माणकचन्दजी नामक तीन पुत्र हैं। दीपचन्दनी भीकचन्दजी के नाम पर दत्तक गये हैं। सेठ भीकचन्दजी भीकचन्द रतनचन्द' के नाम से तथा गुलाबचन्दजी 'गुलाबचन्द मुलतानचन्द' के नाम से व्यापार करते हैं।
सेठ पृथ्वीराज रतनलाल वेद मेहता, आकोला ___ इस परिवार के पूर्वजों का मूल निवासस्थान जोधपुर (मारवाद) का है। वहाँ से यह कुटुम्ब गोविन्दगढ़ ( भजमेर जिला) में भाकर बसा। तभी से यह परिवार वहीं पर निवास करता है। इस परिवार वाले श्री जैन श्वेताम्बर मन्दिर आम्नाय को मानने वाले सज्जन हैं। इस परिवार में सेठ पृथ्वीराजजी हुए। भापका जन्म सम्बत १९२१ में हुमा। सबसे प्रथम बाप ही ने आकोला जाकर सोना चांदी व भादत का काम प्रारंभ किया। इस समब भाप विद्यमान हैं और अकोला की ओसवाल समाज में प्रतिष्ठित माने जाते है। आपके नाम पर रासा से रतनलालजी दत्तक आये हैं।
वेद मेहता जीवनमल बहादुरमल का परिवार, छिंदवाड़ा
सम्बत् १९२८ में वेद मेहता जीवनमलजी और उनके पुत्र बहादुरमलजी नागोर से कामठी गये आर वहाँ से आप दोनों पिता पुत्र छिंदवाड़ा भाये । यहाँ आकर आप लोगों ने कुछ मास तक सेठ रतनचन्द केशरीचन्द छल्लानी के यहाँ सर्विस की और पीछे कपड़ा सोना चांदी आदि का घरू रोजगार शुरू किया। सेठ जीवनमकजी का सम्बत् १९९१ में स्वर्गवास हुआ। आपके . पुत्र हुए जिनमें बहादुरमलजी तथा
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
सेठ मिश्रीलालजी वेद, फलौदी.
सेठ पूनमचंदजी वेद, रतनगढ़.
सेठ पांचूलालजी वेद, फलौदी.
श्री सूरजमलजी नाहठा, इन्दौर ( पेज नं ५०४ )
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वेद मेहता
समीरमलजी का परिवार चला तथा शेष ठाकुरमलजी और जेठमलजी निसंतान गुजरे। सेठ बहादुरमलजी का सम्बत १९८७ में स्वर्गवास हुआ। आपके नथमलजी, बुधमलजी, गुलाबचन्दजी, चांदमलजी, केशरीचन्दजी, मोतीलालजी और माणकचन्दजी नामक • पुत्र हुए, इनमें बुधमलजी, गुलाबचन्दजी, केशरीचन्दजी और मोतीलालजी विद्यमान हैं तथा शेष ३ भ्राता स्वर्गवासी होगये । आप सब भाइयों का व्यापार संवत् १९८७ से अलग अलग होगया है। ...
वेद मेहता बुधमलजी ने मेट्रिक तक अध्ययन किया है, आपने कपदे व सराफी के व्यापार में अच्छी उन्नति की। आपके छोटे भाई गुलाबचन्दजी ने सन् १९१९ में बी०ए०, बी० कॉम की परीक्षा पास की । कुछ समय तक हाई स्कूल में सर्विस करने के बाद अब आप कपड़े का व्यापार करते हैं । आपको नागपुर कवि सम्मेलन में तुकबंदी के लिये पुरस्कार मिला था। सन् १९१९ से २४ तक आप मारवादी सेवा संघ के सभापति रहे । सी० पी० बरार की ओसवाल सभा के स्थापकों में भी आपका नाम है । लेख तथा पुस्तिकाएं लिखने की ओर भी आपकी रुचि है।
मेहता समीरमलजी विद्यमान है । आपके पुत्र इन्द्रचन्दजी, ताराचन्दजी,चेनकरणजी, प्रेमकरणजी, पूनमचन्दजी और सूरजमलजी हैं। इनके यहाँ इन्द्रचन्दजी ताराचन्द तथा प्रेमकरण चैनकरण के नाम से कपड़ा, होयजरी और किराने का काम होता है। इन्द्रचन्दजी तथा ताराचन्दजी. नवीन विचारों के युवक हैं।
लाला कल्याणदास कपूरचन्द वेद मेहता, आगरा यह परिवार लगभग १५० साल पूर्व आगरा में आया। इस कुटुम्ब में लाला बसन्तरायजी हुए, आपके पुत्र कल्याणदासजी ने लगभग १०० साल पहिले आगरे में उपरोक्त नाम से फर्म स्थापित की, उस समय से अब तक यह परिवार सम्मिलित रूप से व्यवसाय कर रहा है । लाला कल्याणदासजी के कपूरचन्दजी, कुन्दनमलजी और गदोमलजी नामक पुत्र हुए।
__ लाला कपूरचन्दजी इस परिवार में नामी व्यक्ति हुए, आपने बहुत सी रियासतों से जवाहरात तथा गोटे का व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित किया । आपके पुत्र मोतीलालजी ने व्यवसाय की अच्छी उन्नति की। सम्बत् १९७९ में आप स्वर्गवासी हुए । भापने अपने भतीजे पदमचन्दजी को दचक लिया, आप योग्य व्यक्ति हैं।
लाला कुन्दनमलजी धर्मात्मा व्यक्ति थे, सम्बत् १९८० में आप स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र लाला चुनीलालजी का 1 साल की आयु में सम्बत् १९६७ में स्वर्गवास हुआ।बेद चरित्र के व्यक्ति
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
थे। आपके लखमीचन्दजी, फूलचन्दजी, बाबूलालजी और पदमचन्दजी नामक ४ पुत्र हुए, इनमें से पदमचन्दजी, लाला मोतीलालजी के नाम पर दत्तक गये । लाला बाबूलालजी विद्यमान हैं। आपके ५ पुत्र तथा पदमचन्दजी के १ पुत्र है । आपके यहाँ आरम्भ से ही बैंकिग, गोटा तथा जवाहरात का व्यापार होता है ।
सेठ दीपचन्द पाँचूलाल वेद, फलोदी
वेद मुकुन्दसिंहजी के पुत्र रासोजी सम्वत् १६८१ में फलोदी आये, इनकी ८वीं पीढ़ी में सेट पूनमचन्दजी हुए । आपके रेखचन्दजी, जुहारमलजी और दीपचन्दजी नामक ३ पुत्र हुए। इनमें सेठ जुहारमलजी ने सम्बत् १९४३ में धमतरी में रेखचन्द जुहारमल के नाम से दुकान की, तथा सब भाइयों ने मिलकर व्यापार की तरक्की की । रेखचन्दजी के पुत्र लाभचन्दजी विद्यमान हैं । वेद जुहारमलजी के पुत्र सुगनचन्दजी तथा पौत्र राजमलजी चम्पालालजी और पाँचूलालजी हुए । इनमें पाँचूलालजी, दीपचन्दजी के नाम पर दसक गये । सम्बत् १९८८ में दीपचन्दजी का स्वर्गवास हुआ । इनकी धर्मपत्नी श्री धूलीबाई ने अपने स्वर्गवासी होने के समय एक संघ निकालने की थी इच्छा प्रगट की अतएव इनके पुत्र पांचूलालजी ने संवत् १९८९ की माघसुदी ९ को फलोदी से जेसलमेर के लिये एक संघ निकाला । इस संघ में १८०० यात्री २१ साधू और ६८ साध्वियां थीं। इसमें सवारी के लिये ५३४ गाड़ियाँ तथा १४७ ऊँट थे । इस इस संघ में लगभग ५० हजार रुपये व्यय हुए ।
सेठ सुगनचन्द रतनचन्द वेद, बरोरा
इस परिवार के सेठ पोमचन्दजी वेद सम्बत् १९३५ के पूर्व अपने निवास बीकानेर से हिंगनघाट आये, तथा यहाँ से नागपुर आकर सेठ अमरचन्द गेंदचन्द गोलेछा के यहाँ मुनीम रहे। इनके पुत्र सुगनचन्दजी वेद सम्बत् १९४४ में बरोरा गये तथा वहाँ सेठ अमरचन्द सिंधकरण गोलेछा की भागीदारी में कारबार शुरू किया । सम्बत् १९७९ तक सम्मिलित कारवार रहा, इस व्यापार को सुगनचन्दजी वेद के हाथों से अच्छी उन्नति मिली । पश्चात् उपरोक्त नाम से आपने अपनी स्वतन्त्र दुकान की । बरोरा तथा भादंकजी के तीर्थों के कार्यों में भी आप सहयोग लिया करते थे । ११ को आपका स्वर्गवास हुआ ।
सम्बत् १९८९ की काती सुदी
इस समय सुगनचन्दजी वेद के पुत्र रतनचन्दनी, सागरमलजी तथा फूलचन्दनी मेसर्स सुगनचन्द रतनचन्द के नाम से गल्ला तथा कमीशन का काम करते हैं । आप मन्दिर मार्गीय आमनाय के मानने वाले हैं ।
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ओसवाल जाति का इतिहास
।।श्रीपारसजिनप्रएम्॥ Usilमरदेव जयतितरामा मनोनीटासिय कृतनम्मन्नतस्कृतिः॥प्रशस्तिमयजसद प्रतिपादिमट्कृत मनाजितराजिरा जिचरणोजन नि मताने तपाः रफरऽसिनमानसाध्याय तिसोरणाविनातिवासर्वसमृदिर निरनिदातान्तिवनादिशाकटादानपरिब ननिसदसाहसुरता निमारामादिमनवानान भादिननी परियायआदिमतीनामापनस्वामिनस्तुमा निमंगलाचरण स्वसिमाविकमादिसराञ्चानसम्मुताएर हातबादनकृतवारजएसप्रवाधानमासान्तममासमाधणासघवा
पत्तश्याद पानिमायुरुवासरेबहाराजाधिराजमदारादतना-मामा-मा-आमावेरीशालजीविजयराज्यनामजालभस्वास्तबलावाचाफागोलायसंघवासनजाभायमानचंदजातसवपरत चिद जाना दिमतरामजजिम्मनगीनयमनकी सागरमलजीउमेदमनजीततमरिबारमुलकंदमानमतकसानलकपलदाससागादासनगवानदासन्तानचदाचतामदासत्नुलाकर मना लालनमालालप्तपारवारजनात्ममरकल्माएाचनासम्मकादपिनायचमाजातरुनगरसत्काल मरसागरसमापवतनासमान्चिनाआरामस्यानम्मापजत्वासन मन्दिल बनकरापितलाउमात्रादिनाबिमामिनरहनखरतरगए नायनप्रतिष्ठितंतरमननिमपसविपदपक जसवितारहत्वखरतरगणा धिवरेचनाबधसघसारना श्रीजिन मक्ति नरिए विधि मर नामको सवेनगेननलनेत्रीमूलनायकावनस्तापिनयन नेक विवीनामजनाशलाका चारतापुन नियमित्रासादेस्वप्रतिक्षिता
पासनापति बन जायकान्वेन स्थापितंपुन विशवहिरनान प्रति हात तमदिर के पासबाजूजीयालेनादादासाहेवको मरिरजिल माहेमोजिनकवान(रजा रहा राजकीमनिविच मादे विराजमानतया प्रीजिनंदन मरिचपत्रकातयामा मिनकुवानरिचरणपाइकानघामाजिनदरबमरिचरपाका न्यायाजिनामा
मरिचरणमाऽ काम्बमुरवस्थापितमानापूसवाइरामजीकेघरकाश्ठेपानीरनलीमसुचिसोनागालचीदमलसोनागमनका माजीवगैरेाया प्रीन्दे सचिरंसिरदारमलतमाएकी मोजोजगेरेमाया गोपएघणे दिसावरायी संघमाया सोनीबवलप्रमुपकरी संघकीवहीन क्तिकरितापांच । सीनिवार-म्हारराजाकेदाधनेदीक्षादिनीतीदिन १५ सुधाबीमामासागर रसायकोगनमोउच सुनित्यनंदिनविप्रजापलावना इन्नादरबार साहिब मादिरजानेपानातीदाका फेरवा पग मे से नो अगसी मो फेरास्घ समेतमीजज्ञालमेरमायान्नमपरवदा ना बापूजजाम्दाराजक
रोवलयका सजिएकहजारांसपायोको मालइसबाबतसारोकोटकी नीनाध्यासजी घोरेनवागवागणीने तमाशीवरसवालानमा माय सादातर नीकांचनाराकहरुमायानधासाल नोडातमापक यांनवगेरेमलगअलगदीनानपाधायजामासादबवजागलिपपलेर
लिमुरवसाठी ऐयाणि दिरुमीया दूसरोककवानप्रत्येक पत्कचानातावरणमा कारकापधरावगीका ना घोड़ा सरपाबवगैरमोक्ती तिजारा की जान सदावर्गानागदासबनसिरपावदीनस्विकाने जिणेदीवरुपामाह) कारकापधरावगीकी नीघोड़ा सिपावगैरेमोकनीतिज मानातधापरणकूपतायाकोसतकाराजी तरेकीनी मीसिरी तोमानिदिनाकीतरांक जिति सानेकाक मातधाधानवर सरपावदानाशाजनतइसरिसारवायापाषायाममाचजीगणित शिष्यवाप्त रूपचरजीतलनिवान नेपदे सानाध्यप्रसस्तार चताका गरसिजावटदारामकेदाणसम्मान दिरजीचा गाजीपपरिवारनो सोने की कवाया। नाकमा जीडीयतया नदीलतमपटामीनवगेयमारणावहानायीमदिरके मुनगलादे मालपासे दिपणनीतरफपरतापचंदजीकाकारताना तरकातरकररतापचरजाकीलारजासोकाममारतीतजमादरक सामने लगा की तरफपचभमुखाचोनरोकरापजिए उपरपरतापचंदजाकामरता नधापरतायचदनीकी तारजायांसदपरिवारसदाकारतायास्यापितकानीमाएपमितानिगसरसुदरवारवधदासगनमलजेरनदीपाबाफलकामना
मटकमवनदाहको नासिक जनचंदातासमजा अपगणताउवदचंद कमरोगनपघसमपातसुधारसहासिवापानलमा जबजसम्पासहिनसत्यरूसीषले दिन दाबपुरमागतयातनपानादियएगाकरजोपरागत्यागान्निदमीन पावलापासमर सनिरमलनीयतधोनीयालमाशिव निजगुणची रागाव रसुषप्रनिनवानना सहजसमा नालिष्योजातहेकचानसीसजाननासानामा
श्रीश्रीश्री
अमरसागर-बाफणा हिम्मतरामजी के मंदिर की प्रशस्ति जैसलमेर ( श्री बा ? पूरणचन्द्रजी नाहर के सौजन्य से)
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बापना
बापनावंश की उत्पत्ति
जैन सम्प्रदाय शिक्षा नामक ग्रन्थ में बापनावंश की उत्पत्ति का विवेचन करते हुए लिखा है कि "धारा नगरी का राजा पृथ्वीवर पँवार राजपूत था । उनकी सोलहवीं पीढ़ो में जोवन और सच्चू नामक दो पुत्र हुए। ये दोनों भाई किसी कारणवश धारा नगरी से निकल गये और उन्होंने जांगलू पर विजय प्राप्तकर वही अपना राज्य स्थापित किया । विक्रम सम्वत् ११७७ में तत्कालीन जैनाचार्य्य श्री जिनदत्तसूरिजी ने इन दोनों भाइयों को जैन धर्म का प्रतिबोध देकर महाजन वंश और बहुफ़णा गोत्र की स्थापना की ।" उपरोक्त कथन को ऐतिहासिक महत्व किन अंशों में प्राप्त है यह यद्यपि निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता, तथापि इसमें सन्देह नहीं कि उक्त प्रान्त में बापना वंश वाले बड़े प्रतापी और प्रसिद्ध रहे हैं। नीचे हम इसी वंश का उपलब्ध क्रमबद्ध इतिहास देने का प्रयत्न करते हैं -
जैसलमेर का बापना (पटवा ) खानदान
ओसवाल जाति के जिन गौरवशाली वंशों ने राजस्थान के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया है, जिन्होंने राजनैतिक, व्यापारिक और धार्मिक जगत में अपने गौरव और प्रताप का अपूर्व प्रकाश डाला है, उनमें जैसलमेर के वापनावंश का आसन बहुत ऊँचा है। इस वंश में कुछ विभूतिया ऐसी हो गई हैं, जिनके द्वारा निर्माण की हुई निर्मल स्मृतियां आज भी उनके गौरव का गान कर रही हैं।
बापना परिवार का व्यापारिक विकास
इस खानदान का प्राचीन इतिहास यद्यपि इस समय उपलब्ध नहीं है, फिर भी बापना -हिम्मतः रामजी द्वारा बनाए हुए अमरसागर की प्रशस्ति में बापना देवराजजी से लेकर आगे की पुकतों का सिलसिले वार वर्णन पाया जाता है। उससे मालूम होता है कि सेठ देवराजजी बापना के पुत्र सेड गुमानचन्दजी बापना हुए। सेठ गुमानचन्दजी के पाँच पुत्र थे ( १ ) सेठ बहादुरमलनी ( २ ) सेठ सवाईरामजी (३) सेठ मगनीरामजी ( ४ ) सेठ जोरावरमलजी और (५) सेठ प्रतापचन्दजी । इनमें से सेठ बहादुरमलजी मे कोटा शहर में, सेठ सवाईरामजीने झालरापाटन में, सेठ मगनीरामजी ने रतलाम में, सेठ जोरावरमलजी ने
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
उदयपुर में और सेठ प्रतापचन्दजी ने जैसलमेर और इन्दौर में अपनी अपनी कोठियाँ स्थापित की। उस समय इस परिवार वालों के हाथ में बहुत सी रियासतों का सरकारी खजाना भी था। इसके अतिरिक्त राजस्थान के पचासों व्यापारिक केन्द्रों में इनकी कुल मिलाकर करीब चार सौ दुकानें थीं। इनमें से एक दुकान सुदूरवर्ती चायना देश में भी खोली गई थी। इनमें से कई केन्द्रों में आपने कई बहुमूल्य इमारतें भी बनवाई । जो अब भी पटवों की हवेलियों के नाम से स्थान २ पर प्रसिद्ध हैं। बापना परिवार के धार्मिक कार्य
___ कहना न होगा कि बापना परिवार ने राजनैतिक और व्यापारिक क्षेत्र में अपनी महान् प्रतिभा का प्रदर्शन किया। उसी प्रकार बल्कि उससे भी किसी अंश में एक पैर आगे उन्होंने धार्मिक क्षेत्र में अपनी महान् कीर्ति स्थापित की। जैसलमेर का सुप्रसिद्ध अमर सागर नामक बाग जो क्या प्राकृतिक सौन्दर्य की दृष्टि से, क्या स्थापत्यकला की दृष्टि से, सभी दृष्टियों से अत्यन्त सुन्दर है, इसी बापनावंश के महान् पुरुषों के द्वारा बनाया गया है। इस बाग में दो मन्दिर हैं, जिनमें से एक छोटा सम्बत् १८९७ में सेठ सवाईरामजी ने और दूसरा बड़ा सम्बत् १९२८ में सेठ प्रतापचन्दजी के पुत्र सेठ हिम्मतरामजी ने बनाया। इनमें से बड़ा मन्दिर बहुत ही सुन्दर, दुमंजिला और विशाल बना हुआ है। मन्दिर के सामने ही सुरम्य उद्यान है। इस मन्दिर में संगमरमर की कोराई और शिल्प-कार्य का सौन्दर्य बहुत ही अच्छा प्रस्फुटित हुआ है। सुदूर मरुभूमि में ऐसा विशाल मूल्यवान भारतीय शिल्पकला का नमूना अवश्य ही दर्शनीय है।
इस अमरसागर में एक विशाल प्रशस्ति * लगी हुई है। इस प्रशस्ति से मालूम होता है कि संवत् १८९१ में इन पांचों भाइयों ने मिलकर आबू, तारङ्गा, गिनमार और शत्रुजय की यात्रा के लिए, एक बड़ा भारी संघ निकाला था । इस संघ को निकालने में आप सब भाइयों ने करीब २३ लाख रुपया खर्च किया। इस संघ की रक्षा के लिए उदयपुर, कोटा, बून्दी, जैसलमेर, टोंक, इन्दौर तथा अंग्रेजी सरकार में सेनाएं भेजीं, जिनमें ४०.. पैदल १५०० सवार और चार तोपें थीं। इस संघ के उपलक्ष्य में ओसवाल जाति ने आपको संघाधि पति की पदवी और जैसलमेर के महारावल ने संघवी-सेठ की पदवी और लौद्रवा नामक-ग्राम जागीर में बख्शा, तथा हाथी की बैठक का सम्मान भी दिया।
*इस प्रशस्ति का तथा अमर सागर के मन्दिरों का चित्र इसी ग्रन्थ में "धार्मिक महत्व" नामक अध्याव में दिया गया है।
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० सेठ बहादुरमलजी बापना, कोटा ।
स्व० सेठ मगनीरामजी बापना, कोटा ।
फोल
स्व० सेट भभूतसिंहजी बापना, रतलाम ।
स्व० सेठ दानमलजी बापना, कोटा ।
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बापना
इस विशाल संघ ने मार्ग में स्थान २ पर कई क्षेत्रों में बहुत सा धन लगाया, लथा कई स्थानों पर रथयात्रा के महोत्सव करवाये। बड़े बड़े तीर्थों पर मुकुट, कुण्डल, हार, कंठी, भुजबन्द इत्यादि आभूषण
और नगदी रुपये चदाये। कई स्थानों पर बड़े बड़े भोज किये और लहाणे बांटो । कई पुराने मन्दिरों के जीर्णोद्धार करवाये । उसके पश्चात् जब बापिस भाये तब जैसलमेर के रावलजी जनाने समेत भापकी हवेली पर पधारे । वहां पर आपने रुपयों का-चौंतरा किया। और सिरपेच, मोतियों की कण्ठी, कडे, दुकाले, हाथी, घोड़ा और पालकी रावलजी के नजर किये। प्रशस्ति में यह भी उल्लेख है कि भापकी हवेलियों पर उदयपुर के महाराणाजी, कोटा के महारावजी तथा बीकानेर, किशनगद, बून्दी और इन्दौर के महाराजा भी पधारे थे।
इसके अतिरिक्त इस प्रशस्ति से यह भी मालम होता है कि इस परिवार ने भी धूलेवाजी के मन्दिर पर नौवतखाना किया और गहना चढ़ाया, जिसमें करीब एक लाख रुपया लगा । ममीजी के मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया, उदयपुर ओर कोटा में मन्दिर, छत्री और धर्मशाला बनवाई । तथा जैसल. मेर में अमरसागर का सुरम्य उद्यान बनवाया।
उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट मालूम होता है कि धार्मिक, व्यापारिक और राजनैतिक क्षेत्रों में इस परिवार के महान व्यक्तियों ने कितनी महान् कार्यशीलता दिखलाई ।
सेठ बहादुरमलजी और मगनीरामजी का परिवार ..हम ऊपर लिख आये हैं कि सेठ गुमानमलजी बापना के पाँच पुत्रों में सबसे बड़े सेठ बहादुरमलजी थे । इन्होंने अपने व्यापार की प्रधान कोठी कोटा में स्थापित की थी। सेठ बहादुरमलजी बड़े बुद्धिमान और दूरदर्शी व्यक्ति थे। इन्होंने शुरू शुरू में कुनाड़ी ठिकाना, बूंदी राज्य और कोटा में छोटे स्केल पर व्यापार प्रारम्भ कर क्रमशः लाखों रुपये की सम्पत्ति उपार्जित की, और धीरे धीरे आपने तथा भापके भाइयों ने सारे भारत में करीब चारसौ दुकानें स्थापित की, जिनका उल्लेख हम ऊपर कर आये हैं। सेठ बहादुरमल जी का कोटा रियासत के राजकीय वातावरण में बहुत अच्छा प्रभाव था। रियासत से आपकी काफी घनिष्टता होगई थी और लेनदेन का व्यापार भी चालू हो गया था। कई बार तो रियासत की तरफ आपके
* उस समय में राजस्थानी रियासतों में चौंतरे का बहुत रिवाज था । मेंट करने वाले की जितनी हैसियत होती उसके अनुसार रुपयों का चौतरा बनवा कर वह महाराजा को इस पर विठाता और फिर ये रुपये नजर कर देता था ।
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
दस दस लाख रुपया बाकी रहते थे। इसके सिवाय बून्दी और टोंक से भी आपका व्यवहार बहुत बढ़ा जिसके परिणाम स्वरूप बून्दी से आपको रायथल और टोंक से खुर्रा गांव जागीर में मिला ।
सेठ बहादुरमलजी के समय में अंग्रेज गवर्नमेण्ट और देशी रियासतों के बीच अहदनामे होने में बड़ी झंझटें हो रही थीं । कहना न होगा कि इन समस्याओं को सुलझाने में सेठ बहादुरमलजी और इनके छोटे भाई जोरावरमलजी ने बड़ी सहायता पहुँचाई । इनके इस कार्य्यं से प्रसन्न होकर गवर्ननेण्ट ने सेठ बहादुरमलजी को देवली एजेन्सी का खजानची मुकर्रर किया की छड़ी, अडानी, छत्ते, मियाना, पालकी, ताम जाम, हाथी, तथा कई पट्टे परवाने भी मिले ।
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तथा कोटा रियासत से भी आपको चांदी घोड़ा मय सोने के साज के और जागीरी
सेठ बहादुरमलजी की धार्मिक प्रवृत्ति भी बहुत बढ़ो चढ़ी थी। ऊपर बापना परिवार के जिन धार्मिक कार्यो का उल्लेख किया गया है, उनमें तो सेठ बहादुरमलजी सम्मिलित थे ही, उनके अलावा भी इन्होंने व्यक्तिगत रूप से कई कार्य किये, और अन्त में शत्रुंजय का एक बड़ा संघ निकालने का भी विचार किया, मगर उस विचार के पूर्ण होने के पूर्व ही वि० सं० १८८२ में आपका स्वर्गवास होगया ।
सेठ दानमलजी - सेठ बहादुरमलजी के कोई पुत्र न होने से आप अपने भ्राता सेठ मगनीरामजी
के पुत्र सेठ दानमलजी को अपना उत्तराधिकारी बना गये और उनको अपने धर्म संकल्प अर्थात् शत्रुंजय यात्रा का संघ निकालने का आदेश कर गये । सेठ दानमलजी भी बड़े धर्मनिष्ठ और प्रतापी पुरुष हुए। आपने सेठ बहादुरमलजी के कार्य को बड़ी योग्यता से संचालित किया । इन्हीं के समय में संवत् १९०९ में पाँचों भाइयों का यह सम्मिलित परिवार अलग २ हुआ, जिसके अनुसार कोटे का कारवार सेठ दानमलजी के, झालावाड़ का सेठ सवाईरामजी के, रतलाम का सेठ मगनीरामजी के, उदयपुर का सेठ जोरावरमलजी के और इन्दौर का सेठ परतापचंदजी के जिम्मे हुआ । इस प्रकार कारोबार विभक्त हो जाने पर सेठ दानमलजी स्वतन्त्र रूप से कोटे में अपना व्यापार करने लगे । आपने भी कोटा रियासत में कई प्रकार के सम्मान और जागीरी प्राप्त की। जिसके परवाने अभी भी आपके वंशजों के पास विद्यमान हैं ।
सेठ दानमलजी की धर्म पर भी अधिक रुचि थी। उधर आपको अपने पिता की आज्ञा पालन करने का भी पूरा ख्याल था । इसीसे आपने शत्रुञ्जय यात्रा का संघ निकालने का निश्चय करके अपने चारों काकाओं को उदयपुर, झालरापाटन, इन्दौर और रतलाम से बुलवाये और संघ निकालने की पूरी तैयारी की। संघ के कर्ता धर्ता आप ही थे अतएव संघपति की माला आपको ही पहिनाई गई । इस संघ की हिफाजत के लिए अंग्रेज सरकार, उदयपुर, इन्दौर, टोंक, बूँदी, जैसलमेर और कोटा ने अपने अपने खर्चे से फौजें भेजी। इसमें सबसे ज्यादा फौज कोटा राज्य की थी १००० पैदल की पल्टन
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स्व० सेठ पूनमचंदजी बापना, कोटा.
स्व० सेठ दीपचंदजी बापना, रतलाम,
स्व० सेठ हमीरमलजी बापना, रतलाम.
स्व० कुँवर राजमलजी बापना, कोरा.
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बापना
और सौ सवार, ९ वाले, चार सोपे और नगारा निशान) कोटा की इस विशाल सेना के आमदोरफ्त में करीब एक लाख रुपये के खर्च हुआ, जो सेठ दानमलजी के भाग्रह करने पर भी कोटा नरेश ने नहीं लिया। इस संघ में खरतर गच्छ के जैनाचार्य श्री जिन महेन्द्रसरिजी के साथ और भी साधु साध्विएँ व यती थे जिनकी संख्या कुल मिलाकर नीच १५०० थी। इसके अतिरिक कई अन्य गच्छ के भाचार्य भी थे। इस संघने आबू , गिरनार, सारंगा, मी गोडवाह की पंच तीर्थी गई एक यात्रा की। रास्ते में कई स्थानों पर जीर्णोद्धार कराये, कई स्थानों में दादा वादियाँ बनवाई और बड़े बड़े स्वामी बत्सक भी किये। इस संघ में कममा १५ बाबा रुपया खर्च हुना। इस महान कार्य के लिए श्री संघ ने तथा. जैसलमेर दरबार में सेठ दानमसाजी को संघवी की पदवी प्रदान की। इसके अलावा आपने दो जैन मन्दिर-एक बूंदी रियासत में और दूसरा कोटा राज्यान्तर्गत ठिकाना कुनाड़ी में बनवाये। कोय शहर में एक दानवाची बनवाई जिसका दृश्य देखने दो योग्य है। इसमें श्री पाश्र्वनाथजी की मूर्ति स्थापित की है। इस प्रकार भाप धर्मकार्य करते हुये सम्वत् १९२५ में स्वर्गवासी हो गये। आपके कोई पुत्र न होने के कारण बापने अपने प्राता रतलाम बाले सेठ भभूतसिंहजी के तृतीय पुत्र हमीरमलजी को गोद लिया।
सेठ हमीरमलजी का स्तान्त लिखने के पूर्व हम यहाँ संक्षेप में स्वशाम वाले वापनाभों का स्वान्त वित देना यावश्यक समझते हैं।
सेठ हमीरमलजी के दोनों भाई सेठ पुनमचन्दजी और दीपचन्दजी रतलाम में ही रहे और वहीं पर अपना कारोबार करते रहे । आप रियासत जावरा भऔर अंग्रेज सरकार की नीमच छावनी के खजानची भी थे । इस तरह से मापने भी लाखों रुपये उपार्जन किये। धर्म में भी आपका अत्यन्त प्रेम था। दीपचन्दजो वे रतलाम में अपनी हवेली के सामने एक बगीचा बनवाकर उसमें एक विशाल जैन मन्दिर बनवाया। लेकिन इसकी प्रतिष्ठा भापके हाथ से न हो सकी। सेठ पूनमचंदजी के कोई पुत्र न था। सेठ दीपचन्दजी के दो पुत्र थे, सेठ चाँदमलजी और सेठ सोभागमलजी। सेठ सोमागमलजी को सेठ पूनमचन्दजी के यहाँ दत्तक लाये, मगर आपका भी युवावस्था में ही स्वर्गवास हो गया। तत्पश्चात् सेठ चाँदमलजी ने ही सब कारोबार करना आरम्भ किया। आपने भी अपने पूर्वजों की नीति अनुसार ब्यापार द्वारा लाखों रुपये पैदा किये और अपने पिता के संकल्प यानी जैन मन्दिर की प्रतिष्ठा को पूरा किया। इस प्रतिष्ठा के उत्सव में आपने करीब २ लाख रुपये व्यय किए । इसके अतिरिक आपने और भी कई धर्म कार्य में बहुतसा रुपया खर्च किया । आपके कोई पुत्र न होने से सेठ आपने परीसिंहजी को ही अपना मालिक बनाकर रतलाम और कोटे को एक कर दिया। अस्त
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कोटे में सेठ हमीरमलजी बड़ी चतुरता से अपना कार्य करते रहे। भापकी धर्मपत्नी का स्वर्गवास ३५ वर्ष की युवावस्था में ही हो गया। उस समय आपके एक पुत्र सेठ राजमलजी थे । पनी का देहान्त हो जाने के पश्चात् आपने अपने कुटुम्बियों के भाग्रह करने पर भी दूसरा ब्याह न कर अन्तिम समय तक ब्रह्मचर्य का पालन किया । दुर्भाग्य से आपके पुत्र रामाजी का देहान्त आपकी मौजूदगी ही में केवल ३५ वर्ष की अल्पायु में हो गया। उस समय राजमकजी के पुत्र सेठ केशरीसिंहजी की उम्र बहुत ही कम थी।
तत्पश्चात् सेठ हमीरमलजी अपने पौत्र सेठ केशरीसिंहजी को धार्मिक और व्यापारिक शिक्षा देते हुए कार्य को सुचारू रूप से चलाते रहे । इनके काल में भी ब्रिटिश गवर्नमेंट तथा देसी राज्यों से बड़ा घरोपा रहा। आपका स्वर्गवास सम्बत् १९५९ में हुआ। दीवान बहादुर सेठ केशरीसिंहजी
आपके पश्चात् आपके पौत्र दीवान बहादुर सेठ केशरीसिंहजी ने इस खानदान के व्यापार का सूत्र अपने हाथ में लिया । आप भी बड़े व्यापार कुशल और धार्मिक वृत्ति के पुरुष है। आपके कुल तीन विवाह हुए, जिसमें आपकी द्वितीय धर्म-पत्नी से आपको कुंवर बुद्धसिंहजी नामक एक पुत्र और एकांकन्या हैं। कुंवर बुद्धसिंहजी बड़े होनहार और कुशाग्र बुद्धि के हैं । भापकी तोनों धर्म-पनियाँ धार्मिक वृत्ति की महिलायें थीं। इन्होंने वृत उद्यापन इत्यादि धार्मिक कार्यों में विपुल द्रव्य खर्च किया। सेठ साहब ने भी करीब चार पाँच दफे सिद्धाचल आदि तीर्थों की यात्रा की जिसमें हजारों रुपये खर्च किये ।
दीवान बहादुर केशरीसिंहजी की ब्रिटिश गवर्नमेंट तथा देशी रियासतों में बहुत इज्जत है। सन् १९१२ के देहली दरबार में गवर्नमेण्ट की तरफ से आपको भी निमन्त्रण मिला था, उस समय आपने राजपूताना ब्लॉक में साठ हजार की लागत का अपना निजी कैम्प स्थापित किया था। आपके कार्यों से प्रसन्न होकर ब्रिटिश गवर्नमेण्ट ने आपको सन् १९१२ में रायसाहब, १९१६ में रायबहादुर और १९२५ में दीवान बहादुर की सम्माननीय उपाधियों से विभूषित किया। इसके अतिरिक्त देवली और नीमच के सिवाय आबू , मेवाड़ एजन्सी और मानपुर के खजाने भी आपके सुपुर्द किये। आपको कोटा, बून्दी, जोरपुर, रतलाम, टोंक इत्यादि रियासतों से पैरों में सोना, जागीर व ताजीम मिली हुई है। भापकी मौजूदा सेठानीजी को भी जोधपुर व बून्दी से पैरों में सोना और ताजीम बख्शी हुई है। केवल इतना ही नहीं प्रत्युत आपके पुत्र, पुत्री, भानेज, श्वसुर, फूफा और दो मुनीमों को भी टोंक रिपासत ने सोना बख्शा है। जब आप टोंक जाते हैं तो वहाँ के एक उचाधिकारी आपकी भगवानी के लिये बहुत दूर तक सामने
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श्री स्व० सौभागमलजी बापना, रतलाम.
दीवानबहादुर सेठ केशरीसिंहजी बापना, कोटा.
DOOR
Absord
श्री० स्व० चांदमलजी बापना, रतलाम.
ना
कुँवर बुधसिंहजी s/o केशरीसिंहजी, कोटा.
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बोपनी
ACT
भाते हैं। रतलाम दरबार से भी भापको बड़ी घनिहता है। वहाँ से भी आपको सोना और ताजीम के अतिरिक्त राज्यभूषण की सम्माननीय उपाधि प्राप्त है। इस रियासत के खजांची भी आप ही हैं। इन स्थानों पर आपकी बड़ी २ हवेलियाँ बनी हुई है। आपको समय समय पर गवर्नमेंट से कई सर्टिफिकेट भी प्राप्त हुए हैं जिनमें से एक दो की कॉपी हम नीचे दे रहे हैं।
Diwan Babadur Seth Kesri Singh has been connected with this Agency in his Capacity as Rajputana Agency Treasurer for over 5 years. During this period the work has been performed quite smoothly and to the great satisfaction of all concerned. He is one of the premier Soth of Rajputana and belongs to a very old and highly respectable family, distinguished for its loyal and meritorious services to Governments, the reputation of which the Seth continues to maint ain admirably, I am very sorry to bid good bye to him.
Camp Ajmer The 9th March 1927.
Sd. - S. B. Patterson Agent, Governor General in Rajputana.
a
Rai Babadur Seth Kesri Singh who is a well known Banker of Rajputana belongs to an old respectable family, members of which have rendered loyal service to Government. As Rajputana Agency Treasurer the Seth has been in touch with this Agency during the past three years and the work has been carried on to my entire satisfaction.
Dated, Camp Ajmer;
10th March 1925.
Sd./- R. G. Holland, Agent to the Governor General
Rajputana.
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सेठ जोरावरमलजी का परिवार
सेठ जोरावरमलजी ऐसे समय में अवतीर्ण हुए थे, जब कि भारतवर्ष की राजनैतिक स्थिति बे तरह डाँवाडोल हो रही थी । एक ओर औरंगजेब की मृत्यु हो जाने से दिल्ली का सिंहासन क्रमशः क्षीणबल होता चला जा रहा था। दूसरी ओर मुसलमानी शासन की इस कमजोरी से लाभ उठा कर महाराष्ट्रीय लोग भारत के भिन्न २ प्रांतो में लूट मार और खून खराबी मचा रहे थे, और तीसरी ओर अंग्रेज शक्ति धीरे २ अपना विकास करती जा रही थी । जिस समय अंग्रेज होग राजस्थान में राजपूत राजाओं के साथ मैत्री स्थापित कर उनके पारस्परिक वैमनस्य को कम करने का प्रयत्न कर रहे थे, उस समय सेठ जोरावरमलजी का बीकानेर, मारवाड़, जैसलमेर, उदयपुर, इन्दौर इत्यादि रियासतो में अच्छा प्रभाव था । इसलिये ब्रिटिश सरकार के साथ इन रजवाड़ों का मेल कराने में इन्होंने बहुत सहायता की। खास कर इन्दौर राज्य के कई महत्वपूर्ण कार्यों में सेठ जोरावरमलजी का बहुत हाथ रहा। सन् १८१८ में ब्रिटिश गवर्नमेण्ट के बीच अहदनामे करवाये । ब्रिटिश गवर्नमेंट और रियासतों के बीच जो अहदनामें हुए, उनमें कई मुश्किल बातों को हल करने में आपने अपने प्रभाव से बहुत सहायताऐं कीं । आपकी इन सेवाओं से प्रसन्न होकर ब्रिटिश गवर्नमेंट तथा होलकर गवर्समेंट मे आपको परवाने देकर सम्मानित किया । ईसवी सन् १८१८ में कर्मल टॉड मेवाड़ के पोलिटिकल एजंट होकर उदयपुर गये । मेवाड़ की आर्थिक दशा बहुत बिगड़ गई थी । ऐसी विकट स्थिति में कर्नल टॉड ने महाराणा भीमसिंहजी को सलाह दी कि सेठ जोरावरमलजी ने इन्दौर की हालत सुधारने में रियासत को बहुत मदद दी है, इसलिये यहाँ पर भी उनको बुलवाया जाये। इस पर महाराणा ने सेठ जोरावरमलजी को इन्दौर से अपने वहाँ निमंत्रित किया, और उन्हें वहाँ बहुत सम्मान पूर्वक रखकर उनसे कहा कि "आप यहाँ पर अपनी कोठी स्थापित करें, और राज्य के कामों में जो खर्च हो वह दें, और उसकी आमदनी को अपने यहाँ जमा करें । महाराणा की इस आज्ञा को मानकर सेठ जोरावरमलजी ने उदयपुर में अपनी कोठी स्थापित की । नये गाँव बसाये, किसानों को सहायताएं और लुटेरों को दंड दिलवाकर राज्य में शांति स्थापित करवाई। इनकी इन बहुमूल्य सेवाओं से प्रसन्न होकर २६ मई सन् १८२७ को महाराणा ने उन्हें पालकी और छड़ी का सम्मान और " सेठ" की सम्माननीय उपाधि प्रदान की तथा बदनोर परगने का पारसोली गाँव वंश परंपरा के लिये जागीरी में दिया । पोलिटिकल एजंट ने भी आपको अत्यन्त प्रबंध कुशल देख कर अंग्रेजी राज्य के खजाने का प्रबंध भी आपके सुपुर्द कर दिया ।
उस समय
महाराणा सरूपसिंहजी के समय में राज्य पर १०००००० बीस लाख रुपयों का कर्ज हो गया था, जिसमें अधिकांश सेठ जोरावरमलजी बाचना का था। महाराणा मे आपके कर्ज का निपटारा करना
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PRESS
अमरसागर-सेठ हिम्मतरामजी बापना का मन्दिर जैसलमेर (श्री बा० पूरणचन्द्रजी नाहर के सौजन्य से)
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यापमा
पाहा। उनकी यह इच्छा देखकर सन् १४.५ की २८ वी मार्च को सेठ जोरावस्मरूजी ने महाराणा को अपनी हवेली पर निमंत्रित किया, और जिस प्रकार महाराणा ने चाहा, उसी प्रकार मापने कर्ज का फैसला कर लिया। इस पर प्रसन्न होकर महाराणा मे भापको कुण्डल गाँव, आपके पुत्र चांदणमलजी को पालकी
और आपके पौत्र गंभीरमलजी और इन्द्रमलजी को भूषण और सिरोपाव दिये। इन्हीं के अनुकरण . पर दूसरे लेनदारों ने भी महाराणा की इच्छानुसार अपने ब्जे का फैसला कर दिया। इस प्रकार रियासत का भारी कर्ज सहज ही में भदा हो गया और इसका बुद्धिमानी पूर्ण फैसला कर देश में सेठ जोरावरमलजी की बहुत प्रशंसा हुई।
इस प्रकार अपनी बुद्धिमानी, राजनीतिज्ञता और व्यापार-दूरदर्शिता से सारे राजस्थान में लोक प्रियता और नेकनामी प्रास कर सन् १८५३ की २६ फरवरी को इन्दौर में सेठ जोरावरमलजी का स्वर्गवास हो गया। वहाँ के तत्कालीन महासमा ने बड़े समारोह के साथ छत्रीबाग में भापकी दाह क्रिया
उपरोक भवरणों से यह बात सहज ही मालूम हो जाती है कि सम्पत्तिशाली होने के साथ ही साब सेठ जोरावरमलजी बहुत गहरे अप्रसोची, राजनीतिज्ञ और प्रबन्ध कुशल सजन थे। यही कारण है कि उदयपुर, जोधपुर, इन्दौर, कोटा, बूंदी, टोंक और जैसलमेर में आपका अत्यंत सम्मान रहा। गंभीर से गंभीर मामलों में भी अंग्रेज सरकार तथा उपरोक्त राणा, महाराजा मापसे सलाह किया करते थे।
केवल राजनैतिक मामलों में ही सेठ जोरावरमलजी ने कीर्ति प्राप्त की हो, सो बात नहीं है। भार्मिक और परोपकार इत्ति की और भी आपका बहुत बड़ा लक्ष्य था । सन् १८३२ की २ दिसम्बर को आपने सुप्रसिद्ध ऋषभदेवजी के मंदिर पर ध्वना दं चढ़ाया और वहाँ पर नक्कारखाने की स्थापना की।
___ उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट मालूम हो जाता है कि सेठ जोरावरमलजी जितने राजनैतिक और व्यापारिक जगत में अग्रगण्य थे, उतने ही वे धार्मिकता और दानवीरता में भी प्रसिद्ध थे । आपके दो पुत्र हुए-पहिले सुलतानमलजी और दूसरे चांदणमलजी। सिपाही-विद्रोह के समय सेठ च.दणमलजी ने जगह र अंग्रेज सरकार के पास खजाना पहुँचा कर उसकी अच्छी सेवा की, जिससे सरकार उनसे प्रसन्न हुई। ... सेठ सुलतानमलजी के दो पुत्र हुए जिनका नाम क्रमशः सेठ गंभीरमलजी और सेठ इन्धमलनी थे। सेठ गंभीरमलजी के सरदारमलजी नामक पुत्र हुए। आपके कोई पुत्र न होने से आपके नाम पर सेठ समीरमलजी दत्तक लिये गये। इसी प्रकार सेठ इनमलजी के भी कोई पुत्र न हुआ । भतएव आपके नाम पर भी सेठ कुन्दनमलजी दत्तक लिये गये। हमके भी जब कोई संतान नहीं हुई तब भापके यहाँ सेठ संग्रामसिंहजी को दत्तक लिया गया।
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ओसवाल जाति का इतिहास
. सेठ चांदणमलजी के दो पुत्र हुए-सेठ जुहारमलजी और सेठ छोगमलजी। सेठ छोगमलजी के चार पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः श्री छगनमलजी, श्री सिरेमलजी, श्री देवीलालजी और श्री संग्रामसिंहजी है। श्री छगनमलजी के धनरूपमलजी और सांवतमलजी नामक दो पुत्र है। श्रीमान रायबहादुर सिरेमलजी बापना सी० आई० ई०
आप उन प्रसिद्ध पुरुषों में से हैं, जिन्होंने अपनी अखण्ड प्रतिभा, बुद्धिमत्ता, योग्यता और चतुराई से क्रमशः उन्नति करते हुए इन्दौर स्टेट के समान महत्वपूर्ण रियासत की प्राइम मिनिस्टरी को प्राप्त किया और उसका इतनी योग्यता से संचालन कर रहे हैं कि जिससे राज्य की प्रजा, महाराज और गवर्नमेण्ट तीनों ही भत्यन्त सन्तुष्ट हैं। ... आपका जन्म सन् १८८२ की २४ अप्रैल को हुआ। सन् १९०२ में आपने बी. ए. और बी. एस. सी. की परीक्षाओं में एक साथ सफलता प्राप्त की। इनमें आप विज्ञान विषय में सारी युनिवर्सिटी में सर्व प्रथम आये, जिस पर प्रयाग विश्वविद्यालय ने आपको इलियट छात्रवृत्ति और जुवीली पदक प्रदान किया। सन् १६०४ में एल० एल० बी० की परीक्षा में आप सर्व प्रथम उत्तीर्ण हुए। उसके पश्चात आपने भजमेर में वकालात आरम्भ की। तत्पश्चात आप इन्दौर राज्य की सेवा में प्रविष्ट हुए। सन् १९०७ में आप महिदपुर में डिस्ट्रिक्ट जज नियुक्त हुए, और दूसरे ही साल आप श्रीमंत एक्स महाराजा तुकोजीराव के कानूनी अध्यापक बनाये गये। सन् १९१० में आप महाराजा के साथ पूरोप भी गये । उसके पश्चात् महाराजा के राज्याधिकार प्राप्त कर लेने पर आप द्वितीय प्राइवेट सेक्रेटरी के पद पर नियुक्त हुए । इसके पश्चात् भाप सन् १९४५ में होम मिनिस्टर बने और १९२१ तक इस पद पर रहे। इसी साल जब बापने इस सर्विस का बाग पत्र दिवा, तब राज्य ने आपको खास तौर पर पेंशन दी । इसके बाद आप पटियाला के एक मिनिस्टर हुए। वहाँ आप बहुत लोकप्रिय रहे । सन् १९२३ में महाराजा होलकर ने आपको पुनः इन्दौर बुलाया और डेप्यूटी प्राइम मिनिस्टर के पद पर नियुक्त किया। सन् १९२६ फरवरी मास में आप एक्स महाराजा तुकेजीराव के द्वारा प्राइम मिनिस्टर के पद पर मियुक्त किये गये और उनके सिंहासन त्याग करने के बाद भी सरकार हिन्द ने आपको उसी पद पर कायम रूप से नियुक्त किया। उसके पश्चात महाराजा श्री यशवंतराव बहादुर ने अधिकार प्राप्ति के पश्चात भी आप को इसी पद पर रक्खा । भापको सन् १९१४ में गवर्नमेण्ट ने "राय बहादुर" की पदवी से विभूषित किया। सन् १९२० में महाराजा तुकोजीराव बहादुर ने एतमाद-वीर-उद्दौला के पद का सम्मान दिया। सन् १९३० में महाराज यशवन्तराव बहादुर ने वजीर-उद्दौला के पद से विभूषित किया। महाराजा यशवन्त.
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ओसवाल जाति का इतिहास
जी भी जोरावर मलजी
श्रीमान् सेठ जोरावरमलजी बापना, (स्वर्गीय )
श्रीमान् एतमाद- वज़ीर-उद्दौला रायबहादुर सिरेमलजी बापना सी. आई. ई., बी. एस. सी. एल. एल. बी. प्राइम मिनिस्टर, इंदौर स्टेट.
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श्रोसकाल जाति का इतिहास
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Con
श्री० कु. प्रतापसिंहजी बापना एम, ए. एल-एल.बी.
इन्दौर
श्रो० कुँ० कल्याणमलजी बापना, इन्दौर
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बापना
राव होळकर की चावालिगी के समय में आपने अत्यन्त सफलता पूर्वक शासन किया, इससे प्रसन्न होकर गवर्नमेण्ट ने सन् १९३१ की जनवरी में आपको सी० आई० ई० की सम्मानीय पदवी प्रदान की । बापना साहब के शासन की विशेषताएँ
श्री बापना साहब के शासन की तारीफ करते हुए ता० १३ मार्च सन् १९९९ के दिन मध्य भारत के भूतपूर्व ए० जी० जी० सर रेजिनॉइड ग्लेम्सी महोदय ने मानिकबाग पैलेस में एक व्याख्यान में निम्नलिखित उद्गार कहे थे :
"But I can say you have in Indore an efficient administrative machine, second to none amongst the states, I have seen. You have a Prime Minister and a cabinet genuinely devoted to the good of the states and you have also a number of conscientions officers. I rank the Holkar administration very high amongst the States of India."
अर्थात् - " मैं कह सकता हूँ कि आपकी इन्दौर का जितने राज्य मैंने देखे हैं, उनमें इस राज्य की गणना प्रथम श्रेणी में और आपकी केबिनेट ने राज्य की भलाई के लिए अपने आपको अर्पण कई अच्छे २ विवेकी आफिसर भी हैं। मैं भारतवर्ष के देशी राज्यों में बहुत ही उच्च श्रेणी में करता हूँ ।"
श्रीमान बापना साहब का शासन कई विशेषताओं से परिपूर्ण रहा है । आपके समय में शिक्षा की अच्छी उन्नति हुई । जहाँ पहले प्रति वर्ष शिक्षा विभाग में ५ लाख रुपये खर्च होते थे, वहाँ आज सात आठ लाख रुपये खर्च होते हैं । आपके समय में एम० ए० और एल० एल० बी० की नवीन क्लासें खोली गईं । रामपुरा और खरगोन में दो हॉय स्कूल खोले गये जो बहुत अच्छी तरह चल रहे हैं। इसके अतिरिक्त आपके समय में एक ऐसी घटना हुई जिसका इन्दौर राज्य के आधुनिक इतिहास में बड़ा महत्व है । वह यह कि इन्दौर की छावनी जो कि ब्रिटिश अधिकार में थी, इन्दौर राज्य में वापिस आ गई इतना ही नहीं श्रीमान वायसराय महोदय के पास इन्दौर राज्य अधिकार इन्दौर राज्य को छोड़कर और किसी स्टेट को नहीं
और साथ हीमानपुर भी स्टेट में आया। का एक प्रतिनिधि भी रहने लगा । यह मिला है।
शासन यन्त्र बहुत ही सांगोपांग है । हो सकती है। आपके प्राइम मिनिस्टर कर रखा है। साथ ही आपके यहाँ होल्कर राज्य के शासन की गणना
इन्दौर शहर में ड्रेनेज सिस्टिम न होने से शहर के बीच में बहने वाली नदी में शहर के कुछ
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भोलबाल जाति का इतिहास
हिस्से की गटरे' गिरती हैं, जिससे नदी का पानी बहुत गंदा हो जाता है और शहर की तन्दुरुस्ती में बहुत नुकसान होता है। भव ड्रेनेज सिस्टिम के हो जाने से नदी का पानी बहुत साफ रहेगा ।
वापना साहब और वॉटर सप्लाय वर्कस - पाठक जानते हैं कि गर्मी के दिनों में इन्दौर में पानी की कमी से बहुत बड़ा कष्ट हो जाया करता है। इस कष्ट से लोगों को जो असुविधाएँ होती हैं, उन पर यहाँ प्रकाश डालने की आवश्यकता नहीं । जनता की इस असुबिधा को सदा के लिए मिटाने के हेतु स्टेट की ओर से बापना साहिब ने बड़े २ दिग्गज इंजीनियरों की सलाह से गंभीर नदी को रोककर एक बड़ा विशाल जलाशय जिसकी लम्बाई १२ मील और चौड़ाई २ मील होगी, बनवाया है, इस जलाशय का नाम यशवंत सागर रक्खा गया है। इसके द्वारा इन्दौर में जलपूर्ति की व्यवस्था की जावेगी। इस आयोजन के सफलता पूर्वक बन जाने पर यह न केवल इन्दौर की डेढ़ लाख जनता को ही पानी दे सकेगा, चरन् दो लाख जनता हो जाने पर भी यह सफलतापूर्वक सबको पानी सप्लाय करसकेगा। इस जलाशय से सब पानी बिजली के द्वारा लाया जायगा । इस विशाल कार्य में सारा खर्च करीब ७१|| लाख रुपया होगा। यह एक ऐसा कार्य है, जिसने इन्दौर के इतिहास में बापना साहब का नाम अमर कर दिया है। कहा जाता है कि इसकी पाल में " साइफन स्पिल वे” जो होगा वह दुनियाँ में सबसे बड़ा है।
भारतीय रियासतों के प्रधान सचिवों में श्रीमान बापना साहब का बहुत ऊँचा आसन 1 कई प्रसिद्ध राजनीविश आपके बुद्धि कौशल, आपके विशाल राजनैतिक ज्ञान और उलझनों को सुलझाने वाली आपकी सूक्ष्म दृष्टि की बड़ी प्रशंसा करते हैं। कई बड़े २ ब्रिटिश अधिकारी भी आपकी योग्यता के कायक हैं। इसी से गत राउण्डटेबिल कान्फ्रेन्स के लिये आप महाराजा की जगह चुने गये थे। वहां पर आपने बड़ी योग्यता के साथ कार्य किया ।
यह कहने में तनिक भी अत्युक्ति न होगी कि बापना साहब सौजन्म की साक्षात् मूर्ति हैं । दया, सहानुभूति, उदारता आदि समुज्ज्वल गुण उनमें कूट २ कर भरे हुए हैं। हमने प्रत्यक्ष देखा है कि किसी दुखी को देख कर उनका अंतःकरण द्रवीभूत हो जाता है। खुद तकलीफ उठाकर भी वे ऐसे मनुष्य की सहायता करने में तत्पर होजाते हैं । आज पचासों विद्यार्थी आपके गुप्तदान से विद्याकाम कर रहे हैं। कई विधवाएँ आपके आश्रय पर रहती हैं। आपकी दानधारा धारा गंगा की तरह सब को एकसा फायदा पहुँचाती है। आपको जाति पाँति का पक्षपात नहीं है। जो दीन दुखी और दरिद्री हैं या जो सहायता के अधिकारी हैं आपके यहाँ से विमुख नहीं आते ।
श्रीमान बापना साहब एक महान कुल में जन्मे हैं। जैसा उनका घराना है वैसी ही उनके हृदय की विशालता है। संकीर्णता तथा जातीय विद्वेश के क्षुद्रभाव आप तक फटकने तक नहीं पाते । सब
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बापना
'बातियों के लिये भाप के हृदय में बराबर स्थान हैं। आपकी सहानुभूति, आपका प्रेम किसी जाति तक परिमित नहीं है । भापकी यह बात आपके जीवन क्रम में हमें प्रति दिन दिखलाई पड़ती है। - श्रीयुत बापना साहब एक अच्छे राजनीतिज्ञ हैं। भापकी राजनीति शुद्ध और साविक है। कूटनीति से (Diplomacy) भाप दूर रहते हैं। राज्य में होने वाले षड्यन्त्रों और राजनैतिक छल प्रपंचों से आपको बड़ी घृणा है । भाप इतने चतुर अवश्य है कि दूसरे के षड्यन्त्रों से अपने आप को तथा अपने शासन को बाल बाल बचा लेते हैं। आप कभी अपनी आत्मा को षड्यन्त्रों में फंसा कर गंदी नहीं करते। राजनीति में जो गंदगी रहती है, उससे ये अपने आप को बचाने की पूरी पूरी कोशिश करते हैं । पार्टी बन्दी से इन्हें बड़ो नफरत है । ये बातें आपकी स्वाभाविक प्रकृति के खिलाफ है। इसका नैतिक प्रभाव राज्य के वातावरण पर बहुत अच्छा पड़ता।
. संसार में जितने बदेर राजनीतिज्ञ हुए हैं उनके स्वभाव में, गंभीरता और प्रकृति में शांति
है। जिन लोगों को पापना साहब के सानिध्य में आने का सौभाग्य प्राप्त हुभावे आपकी गंभीरता मौर शान्त समाव से भली भांति परिचित होंगे। कठिन से कठिन भवसरों पर भी माप उत्तेजित होना जानते ही नहीं। हमने देखा है कि जब आप प्रातःकाल वलीबाग में घूमने आते हैं, तब कमी २ कुछ लोग उन्हें इतना तंग करते हैं कि साधारण मनुष्य वैसी अवस्था में उत्तेजित हुए बिना नहीं रह सकता । पर सनकी शांति रत्ती भर भी चल पिचल नहीं होती। इसके कई उदाहरण हमारे सामने हैं।
इन्हीं सब मानसिक विशेषताओं का प्रताप है कि आप क्रमशः विकास करते । इन्दौर राज्य के समा महत्वपूर्ण राज्य के प्रधान सचिव के पद पर पहुँच गये तथा वर्तमान में आप बड़ी योग्यता और सफलता के साथ संचालन कर रहे हैं। मापने इन्हीं विशेषताओं से न केवल भारतीय राजनीति में वरन् अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में भी अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया है। आज सारे ओसवाल समाज को आपका बहुत बड़ा गर्व है। आपका विवाह सम्बन्ध सम्बत् १९५५ में उदयपुर के सुप्रसिद्ध मेहता भूपालसिंहजी को कन्या से हुआ। मेहता भूपालसिंहजी उदयपुर राज्य के दीवान थे तथा भापके पुत्र मेहता जगनाथसिंहजी भी उदयपुर के दीवान रहे।
श्रीमान वापना साहब के इस समय दो पुत्र और दो पुत्रियां हैं। बड़े पुत्र का नाम श्री कल्याणमलजी है । आप बी० ए० एल० एल० बी० हैं । इस समय आप इन्दौर राज्य के डिप्टी एक्साइज़ कमिपनर हैं। आपके इस समय तीन पुत्र और एक पुत्री हैं। दो बड़े पुत्रों के नाम क्रमशः कुँवर बावन्तसिंहजी भौर कुँवर अमरसिंहजी हैं। श्रीमान बापना साहब के छोटे पुत्र श्री प्रतापसिंहजी है। भाप एम० ए० एल० एल. बी हैं।
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ओसवाल जाति का इतिहास
बापना परतापचन्दजी का खानदान
सेठ गुमानचन्दजी के पाँचवे पुत्र सेठ परतापचन्दजी बापना थे। आपके परिवार वाले इस समय रामपुरा और सन्धारा में रहते हैं। आपके परिचय और रुक्के परवानों के लिए हम आपके वंशजों के पास रामपुरा गये थे मगर दैवयोग से उस समय उनका मिलना न हो सका । इसलिए इस शाखा का पूरा इतिहास हमें प्राप्त न हो सका ।
बाना परतापचन्दजी के पुत्र बापना हिम्मतरामजी बड़े वैभवशाली और प्रतापी पुरुष हुए। जैसलमेर रियासत में आपका बड़ा प्रभाव था । आपके द्वारा किये हुए धार्मिक कार्य्यं आज भी आपकी अमर कीर्तिको घोषित कर रहे हैं। आपके द्वारा बनाए हुए अमर सागर वाले मन्दिर का परिचय हम ऊपर दे चुके हैं। आपको जैसलमेर रियासत से जरुवां नामक गांव जागीर में मिला था। जैसलमेर दरबार की आपने अपने यहाँ पधरावणी की थी । सेठ हिम्मतरामजी के जीवनमलजी, भलबदासजी, चिंतामणदासजी, और भगवानदासजी नामक चार पुत्र हुए। सेठ चिंतामणदासजी के पुत्र कन्हैयालालजी और धनपतलालजी इस समय सन्धार में निवास करते हैं ।
बापना हिम्मतरामजी के अतिरिक्त सेठ परतापचन्दजी के जेठमलजी, नथमलजी सागरमलजी और उम्मेदमलजी नामक चार पुत्र हुए। इनमें से सेठ नथमलजी के पुत्र सेठ केशरीमलजी हुए । आप रामपुरा में निवास करते थे । आपके लूणकरणजी और खेमकरणजी नामक दो पुत्र हुए। इनमें से खेमकरणजी इस समय विद्यमान हैं । रामपुरे में आपकी हवेली बनी हुई है। सेठ सागरमलजी के बोधमलजी और संगीदासजी नामक दो पुत्र हुए ।
राय साहब कृष्णलालजी बापना, बी० ए० - जोधपुर
इस खानदान के पूर्वज लगभग १५० | २०० वर्ष पूर्व बढ़लू से जोधपुर आकर आबाद हुए । इस परिवार में मेहता कालूरामजी बापना बड़े प्रतापी व्यक्ति हुए ।
मेहता कालूरामजी बापना — आप जोधपुर की जनता में प्रतिष्ठित व्यक्ति थे । जोधपुर शहर की जनता आपको काका साहब के नाम से व्यवहृत करती थी। जब जोधपुर के फौज बख्शी (कमांडर इन चीफ) सिंघवी फोजराजजी का सम्बत १९१२ की आषाढ़ बदी ३ को स्वर्गवास होगया, और समका पद उनके पुत्र सिंघवी देवराजजी के नाम पर हुआ, उस समय सिंघवीजी की ओर से मेहता विजयमलजी मुहणोत तथा
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बापना
१९१९ की सावण वदी १ तक उपरोक्त कार्य्यं सम्हालते रहे । संवत् आपके रामलालजी, मुकुन्दलालजी और लक्ष्मणजी नामक ३ पुत्र हुए । मेहता रामलालजी चापना - आप जोधपुर महाराजा मानसिंहजी और महाराजा तखतसिंहजी के
मेहता कालूरामजी बापना संवत् १९२९ में आप स्वर्गवासी हुए।
समय में जालोर, सांचोर आदि परगनों के हाकिम रहे।
आप भी मुत्सद्दी समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति थे । मेहता मुकुन्दलालजी बापना - आप पारसी के विद्वान् और कारिंदा पुरुष थे । आप महाराजा किशोरसिंहजी के नायब पद पर कार्य्यं करते थे । महाराजा प्रतापसिंहजी आप पर अच्छा स्नेह रखते थे । मारवाद के सरहद्दी झगड़ों को निपटाने में कर्नल बॉबली साहब के साथ आपने सहयोग दिया था । मेहता लक्ष्मणजी बापना — आपभी अपने समय में जोधपुर के प्रतिष्ठित पुरुष थे । जब संवत् १९२९ में सिंघवी देवराजजी के नाम का फौज बख्शी का पद खालसे हो गया । उक्त पद की देख रेख करते थे। संवत् १९४० में आपका स्वर्गबास हुआ ।
उस समय आप #
राय साहेब कापनी कृष्णलालजी बी० ए० -आप मेहता लक्ष्मणलालजी बापना के पुत्र हैं । आपका जन्म संवत् १९३३ में हुआ । आप जोधपुर राज्य में हाकिम, राज एडवोकेट, और इन्सपेक्टर जनरल पोलीस आदि कई सम्माननीय पदों पर काम कर चुके हैं। आपके सार्वजनिक कामों की एक लम्बी सूची है । सन् १९१४ में जोधपुर से "ओसवाल” नामक जो मासिक पत्र निकलता था, उसके उत्पादक भाप ही थे। जोधपुर की मारवाड़ हितकारिणी सभा के स्थापन में भी आपने प्रधान हाथ बटवाया था । राजपूताने की प्रजा परिषद् और अजमेर के आदर्श नगर के स्थापन में भी आपने प्रधान सहयोग दिया है। आपही के परिश्रम और उद्योग से अजमेर में ओसवाल सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन हुआ था । सामाजिक विषय पर आपने कई पुस्तिकाएँ और लेख लिखे हैं । आप वेदान्त मत के अनु पायी और स्वतन्त्र विचारों के पुरुष हैं । अभी आप अजमेर में ही निवास करते हैं । आपके खून में नवयुवकों जैसा उत्साह और जोश है । आपका सम्पर्क कई अंग्रेज आफिसरों से रहा है और समय २ पर उनकी ओर से आपको कई प्रशंसा पत्र प्राप्त हुए हैं । औद्योगिक विषय में आपकी बड़ी अभिरुचि है 1 आपकी कास्टिक सोड़ा बनाने की स्कीम को गवर्नमेण्ट ने पसन्द किया है। इसी तरह बेर के झाड़ पर लाख लगाने की आपकी आय. जना को भी गवर्नमेण्ट कॉलेज पूसा ने स्वीकार किया है । आपने जोधपुर के भोसवाल विधवा विवाह सहायक फण्ड को ३ हजार रुपये प्रदान किये । आपके जीवन का प्रधान लक्ष नवीन विचारों का प्रकाश करना और नवीन संस्कारों की लहर पैदा करना है । सन १९१७ में गवर्नमेण्ट ने
जोधपुर के रेकार्ड में इस पद पर इनके बड़े भ्राता मेहता रामलालजी ने काम किया था, आता है। लेखक :
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ऐसा उम्लेख पाया
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आसवाल जाति का इतिहास
आपको राय साहब की पदवी से सम्मानित किया है। भापके विष्णुलालजी, अमृतलालजी और कवर लालजी नामक ३ पुत्र हैं।
विष्णुलालजी बापमा जयपुर स्टेट के स्टेशनरी डिपार्टमेण्ट के इंचार्ज हैं। इनके श्यामसुन्दरलालजी, जगदीशलालजी, दामोदरलालजी और त्रिभुवनलालजी नामक पुत्र हैं। अमृतलालजी बापना बम्बई से एम. बी बी. एस. की परीक्षा पास करते ही जोधपुर राज्य में असिस्टेंट सर्जन हुए । इसके बाद आपने बांसवादे में चीफ मेडिकल ऑफिसर के पद पर कार्य किया। इस समय भाप किशनगढ़ स्टेट में चीफ मेडिकल ऑफिसर तथा सुपरिन्टेन्डेन्ट जेल के पद पर हैं। आप मिलनसार और लोकप्रिय सजन हैं। भापके पुत्र चांदबिहारीलालजी और वृजबिहारीलाल हैं। , कँवरलालजी बापना बी० ए० ने सन् १९२५ में एल० एल० बी० की डिगरी हासिल की। बाद आप अजमेर में वकालत करने लगे। इसके बाद आप जयपुर में मुंसिफी तथा जजी के पद पर कार्य करते रहे और इस समय सन १९२७ से जयपुर में पब्लिक प्रासिक्यूटर हैं। आप अनाथालय, आर्य समाज, विधवा विवाह सहायक सभा, वाय स्काउट समिति आदि संस्थाओं में भाग लेते रहते हैं। आप शेखावाटी बोडिंग के सुपरिटेन्डेण्ट भी रहे थे। आपके सामाजिक विचार प्रगति शील हैं। आपके पुत्र श्यामबिहारीलाल हैं।
बापना हुकमीचन्दजी का खानदान, सिरोही इस परिवार के पूर्वज बापना कलाजी सिरोही के पास दबानी में रहते थे। वहाँ के तत्का. हीन जागीरदार से आपकी अनबन हो गई, अतल आप अपने पुत्र हीराजी, अजयोजी, फत्ताजी, चतराजी और सूराजी को लेकर सिरोही चले आये। तबसे आपका परिवार सिरोही में निवास करता है, तथा ढबानी वालों के नाम से मशहूर हैं।
बापना चिमनमलजी-बापना हीराजी के भूताजी, ऊमाजी, हेमराजजी और खूबाजी नामक चार पुत्र हुए। इनमें हेमराजजी के पुत्र चिमनमलजी, सिरोही स्टेट में दीवान रहे। इसके सम्मान स्वरूप उन्हें हाउस टैक्स माफ हुआ। वर्तमान में इस परिवार में उमाजी के पौत्र कुन्दनमलजी और मिश्रीमलजी, चिमनमलजी के पुत्र ताराचन्दजी और खूबाजी के पुत्र लखमीचन्दजी विद्यमान हैं।, बापना कुन्दनमलजी जोधपुर ऑडिट आफिस में सर्विस करते हैं।
बापना जालिमचन्दजी-बाप अजवाजी के पश्चात क्रमशः जोरजी, जेताजी और मूलचन्दजी हुए। बापमा मूलचन्दजी के जुहारमलजी, लालचन्दजी, जालिमचन्दजी, नेनमलजी और चन्दनमलजी नामक
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बाचना
५ पुत्र हुए, इनमें जालिमचन्दजी विद्यमान हैं । आप जोधपुर के फर्स्ट क्लास वकील हैं, तथा वहाँ के शिक्षित समाज में प्रतिष्ठित माने जाते हैं।
बापना चेनकरणजी - बापना सूराजी के पुत्र फूलचन्दजी और बनेचन्दजी हुए । फूलचन्दजी ने सूराजी फूलचन्द के नाम से दुकान स्थापित की। इनके पुत्र चेनकरणजी सम्वत् १९१७ में सवा साल तक सिरोही स्टेट के दीवान रहे और इसी वर्ष ४० साल की वय में आप स्वर्गवासी हुए । चैनकरणजी के पुत्र बापना मिलापचन्दजी जेबखास महकमे में सर्विस करते थे ।
बापना चन्द्रमानजी (नेनमलजी ) -- आप बापना मिलापचन्दजी के पुत्र थे । अपने पिताजी के गुजरने पर संवत् १९५४ में आप जेबखास महकमें में नौकर हुए। इसके बाद तहसीलदार, दीवान के सरिश्तेदार और अकाउण्टन्ट आफीसर रहे। ये तहरीरी काम में बड़े होशियार थे । संवत् १९७४ की काली वदी १० को आप स्वर्गवासी हुए। सर्विस के साथ २ आप अपनी सूराजी फूलचन्द नामक फर्म का संचालन भी करते थे । यह फर्म कस्टम तथा परगनों के इजारे का काम और जागीरदारों को रकमें देने का व्यापार करती थी । आपके हुकमीचन्दजी तथा अमरचन्दजी नामक दो पुत्र विद्यमान हैं। बापना हुकमीचन्दजी का जन्म संवत् १९६० में हुआ। आप इस समय सिरोही में वकालत करते हैं और साथ ही अपनी " सूराजी फूलचन्द" नामक फर्म का बैकिंग बिजिनेस सम्हालते हैं। सन् १९२६ से आप सेंट्रल इण्डिया और मेवाड़ के कई हिस्सों के लिए एच० सी० दबानीवाला के नाम से पेट्रोल के एजण्ट हैं । बापना हुकमीचन्दजी प्रतिष्ठित और सभ्य युवक हैं। आपके छोटे भ्राता अमरचन्दजी ने पूना कॉलेज से १९३३ में एल० एल० बी० पास किया है, तथा इस समय बंगलोर में प्रेक्टिस करते हैं ।
इसी तरह इस परिवार में बापना पनेचन्दजी के पौत्र रतनचन्दजी सिरोही के शहर कोतवाल रहे । इस समय इनके पुत्र चुनीलालजी तहसीलदार हैं। बापना फत्ताजी के वंश में बापना मुल्तानमलजी और जवेरजी हैं ।
नगर सेठ प्रेमचन्द धरमचन्द बापना, उदयपुर
इस परिवार का निवास उदयपुर ही है। आप स्थानक वासी आम्नाय के मानने वाले सज्जन है। इस परिवार में सेठ प्रेमचन्दजी बड़े विख्यात और नामी पुरुष हुए ।
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नगरसेठ प्रेमचन्दजी बापना- आपको संवत् १९०८ में तत्कालीन महाराणा श्री स्वरूपसिंहजी मे “ नगरसेट" का सम्माननीय खिताब दिया । जब आपके नगरसेठाई का तिलक किया गया था. सब
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सवाल जाति का इतिहास
अक्षत के स्थान में मोती चेपे गये थे। इतना बड़ा सम्मान रियासत में केवल दीवान को ही मिलता है । साथही आपको हाथी और लवाजमा भी बख्शा गया । संवत् १९१७ में आप श्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र चम्पालालजी बापना भी प्रतिष्ठित महानुभाव थे । आपका संवत् १९४७ में स्वर्गवास हुआ। आपके बाद फर्म के कारवार को आपके उयेष्ठ पुत्र सेठ कन्हैयालालजी ने सम्हाला । आप संवत् १९६१ में स्वर्गवासी हुए । नगरसेठ नन्दलालजी बापना - वर्तमान में नगरसेठ कन्हैयालालजी के पुत्र नगरसेठ नन्दलालजी बापना विद्यमान हैं । आपका जन्म संवत् १९३० के अषाढ़ मास में हुआ। उदयपुर की पंचायत में आपका पहला स्थान है। महाराणा की ओर से आपको पूर्ववत् सम्मान प्राप्त हैं। आपके पुत्र कुँवर गणेशीलालजी बी० ए० एल० एल० बी० मेवाड़ में हाकिम हैं, तथा छोटे पुत्र कुँवर मनोहरलालजी तथा बसंती- कालभी भी उच्चशिक्षा प्राप्त सज्जन हैं। इस समय आपके यहाँ जमीदारी गहनावट और जागीरदारों से लेनदेन का काम होता है ।
सेठ छोगमल प्रतापचन्द बापना, हरदा
इस परिवार के पूर्वज सेठ अचलदासजी बापना लगभग १०० साल पूर्व अपने निवास स्थान मेड़ता से व्यवसाय के निमित्त हरदा आये । आप बड़े कार्य चतुर और बुद्धिमान पुरुष थे। आपने जंगल में दो-तीन गाँव आबाद किये और वहाँ लोगों को बसाया ।
सेठ शोभाचन्दजी बापना - आप अचलदासजी बापना के पुत्र थे । आपने अपने खानदान की जमीदारी सम्पत्ति को बढ़ाने की ओर काफी लक्ष दिया और १५-१६ गाँवों में अपनी मालगुजारी तथा लेनदेन का कारवार बढ़ाया । आप धार्मिक प्रवृत्ति के महानुभाव थे । संवत् १९५२ में आपने हरदा में एक जैन मन्दिर बनवाना आरम्भ किया था । आप हरदा की जनता में प्रतिष्ठित व्यक्ति थे । सर्व साधारण के लाभार्थं आपने यहाँ एक भारी कुआँ खुदवाया था । संवत् १९६२ में आप स्वर्गवासी हुए ।
सेठ छोगमलजी बापना — आप सेठ शोभाचन्दजी बापना के पुत्र थे। आपका जन्म संवत् १९१८ में हुआ । आपने अपने पिताजी द्वारा बनवाये हुए जैन मन्दिर की संवत् १९६७ में प्रतिष्ठा कराई। पिताजी के बाद आपने मालगुजारी के गाँवों में भी उन्नति की, हरदा की जनता में आप सम्माननीय व्यक्ति माने जाते थे । संवत् १९७३ की काती बदी ३ को आपका स्वर्गवास हुआ। आपके पुत्र प्रतापचन्दजी तथा माणकचन्दजी विद्यमान हैं ।
बापना प्रतापचन्दजी का जन्म संवत् १९५१ की भादवा सुदी ४ को हुआ । आप सन् १९१५ से
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ओसवाल जाति का इतिहास
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स्वगीय महता कालूरामजी बापना, जोधपुर
अपने पुत्र मेहता रामलालजी, मेहता मुकुन्दलालजी तथा मेहता लक्ष्मणला उजी सहित ).
राय साहिब कृष्णलालजी बापना, जोधपुर
(अपने पुत्र विष्णुलालजी, श्यामसुन्दरलालजी, कंवरलालजी और पौत्रों सहित).
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बापना
हरदा के ऑनरेरी मजिस्ट्रेट हैं। हरदा की जनता व.भासीसरों में भाप सम्माननीय व्यक्ति हैं। आपके छोटे भाता माणकचन्दजी का जन्म संवत् १९५० की बैशाख सुदी • को हुआ। इस परिवार के पास इस समय २३ गाँवों की जमीदारी है। हरदा तथा आसपास के नामांकित कुटुम्बों में इस परिवार की गणना है। स्थानीय जैन मन्दिर की व्यवस्था भी आप लोगो के जिम्मे है। माणिकचन्दजी के पुत्र पूर्णचन्द्रजी पापना • साल के हैं।
सेठ हीरालाल रिखबचन्द बापना, कोलारगोन्डफील्ड
इस परिवार के पूर्वजों का मूल निवास स्थान महत्पुर (होलकर स्टे) का है। आप श्री जैन श्वेताम्बर मन्दिर भाम्नाय को मानने वाले सबन है। इस परिवार में जीवराजजी हुए। आप बड़े धार्मिक पुरुष थे। भापके राजमजी एवं हीरालालजी. नामक दो पुत्र हुए। इनमें से सेठ राजमलजी ने संवत् १९४५.४६ के लाभग पूज्य श्री मोहनलालजी महाराज के सदुदेश से दीक्षा ग्रहण की थी। भाप बड़े स्वागी तथा धर्मप्रेमी सज्जन थे।
सेठ हीरालालजी का जन्म संवत् १९१९ में हुआ। भाप बड़े योग्य, समझदार तथा धर्म-प्रेमी पुरुष थे। आपका पंच पंचायती में काफी सम्मान था। आपने संवत् १९४७ में बंगलोर में अपनी फर्म स्थापित की थी जिसकी आपके हाथों से बहुत उति हुई। आपके रिखबचंदजी एवं हरकचंदजी नामक दो पुत्र हुए।
सेठ रिखबचंदजी का जन्म सं० १९४० में हुआ। आप भी बड़े समझदार धार्मिक तथा व्यापार कुशल सजन हैं। आपने संवत् १९५७ में कोलार गोल्ड फील्ड में अपनी एक स्वतन्त्र फर्म स्थापित की जिसपर बैंकिंग तथा शेअर्स का व्यापार होता है। आपके चार पुत्र हैं जिनके नाम जयचंदजी, पारसमलजी, शांतिलालजी तथा नेमीचंदजी हैं । सेठ हरकचन्दजी का जन्म संवत् १९६० का है। आप इस समय कोलार गोल्ड फील्ड में ही जनरल मर्चेडाईज़ की अलग दुकान करते हैं।
इस परिवार की ओर से वर्तमान में कोलार गोल्ड फील्ड में एक मंदिर बनवाया जा रहा है। कोलार गोल्ड फील्ड की ओसवाल समाज में यह परिवार प्रतिष्ठित समझा जाता है ।
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प्रोसवाल जाति का इतिहास
सेठ तेजमल हीराचन्द बापना, सादड़ी इस खानदान के पूर्वज वापना फत्ताजी के पुत्र गंगारामजी ने संवत् १८५० के लगभग अपनी दुकानें रतलाम और इन्दौर में खोली । इनपर अफीम का व्यापार होता था । इस व्यापार में आपने अच्छी सम्पत्ति कमाई थी । आपका स्वर्गवास सम्वत् १४८५ में हुभा । उस समय आपके पुत्र बापना भलमचंदजी नाबालिग थे, अतएव सब दुकाने उठा दी गई। मालमचंदजी के हंसराजजी, पूनमचन्दजी, हुकमीचन्दजी, निहालचन्दजी, हजारीमलजी तथा तेजमलजी नामक ९ पुत्र हुए । इनमें हंसराजजी के पुत्र बालचन्दजी, बालचंद बख्तावरमल के नाम से मुजफ्फरपुर में व्यापार करते हैं। हुकमीचन्दजी के पुत्र सागरमलजी कलकत्ते में व्यापार करते हैं, इनके पुत्र फूलचन्दजी सादड़ी के पहिले ओसवाल मेट्रिक्यूलेट हैं।
बापना आलमचन्दजी के सबसे छोटे पुत्र तेजमलजी ने संवत् १९५० में भयंदर (बम्बई) में दुकान खोली । आप विद्यमान है। भापके हीराचंदजी, चुक्षीलालजी तथा फूटरमलजी नामक तीन पुत्र है। पापना हीराचन्दजी का जन्म १९४९ में हुआ। आपने १९६४ में कोयम्बटूर में 'हीराचंद चुनीलाल के नाम से जरी काठी का व्यापार शुरू किया। संवत् १९८० में बापमा हीराचंदजी ने सादड़ी में सर्व प्रथम "वईमान तप की ओली" की । इसमें भापने लगभग ५० हजार रुपये लगाये । सादड़ी की तमाम धार्मिक संस्थानों में आपका सहयोग रहता है। भाप “धर्मचंद दयाचंद" फर्म, और श्री आत्मानन्द जैन विद्यालय कमेटी के मेम्बर हैं । इसी प्रकार न्यात का नोहरा और पांजरापोल के सेक्रेटरी हैं। भापके छोटे भाई चुचीलालजी व्यापार में सहयोग लेते हैं और फूटरमलजी, वापना हिम्मतमलजी के यहाँ दत्तक गये हैं।
सेठ लालचंद जेठमल बापना, अमलनेर - इस परिवार का मूल निवास स्थान खिचंद (मारवाड़) है। भाप स्थानकवासी भाम्नाय के माननेवाले हैं। इस परिवार के पूर्वज सेठ मगनीरामजी के हीरचंदजी, सुजानमलजी, गंदमलजी, भगरचंदजी तथा माणकचंदजी नामक ५ पुत्र हुए । इन बन्धुओं में से सेठ सुजानमलजी, चांदमलजी अगरचन्दजी तथा माणकचन्दजी संवत् १९३५ में व्यापार के लिये मद्रास गये, तथा वहां गिरवी का व्यापार शुरु किया। सेठ चांदमलजी छोटी वय में ही स्वर्गवासी हो गये। संवत् १९५७ तक इन बन्धुओं का कारवार मद्रास में रहा।
सेठ सुजानमलजी विद्यमान हैं। आपकी वय ७१ साल की है। आपके पुत्र कालचन्दजी, जेठमलजी तथा जसराजजी हैं। इनमें लालचन्दजी, चांदमलजी के नाम पर दत्तक गये हैं। भापका जन्म
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बापना
संवत् १९६० में हुआ है। इन तीनों बन्धुओं ने सम्बत् १९८३ से अमलनेर में कपड़ा, गिरवी और अनाज का कारवार शुरू किया । आप लोग यहां के व्यापारिक समाज में अच्छी प्रतिडा रखते हैं, तथा बड़े मिलनसार और सरल स्वभाव के व्यक्ति हैं ।
सेठ चुनीलाल हीरालाल बापना, भिनासर
इस परिवार वालों का मूल निवास स्थान जैसलमेर था। वहां से वे लोग कोटा होते हुए माळासर (बीकानेर) नामक स्थान पर आकर बसे । यहाँ आनेवाले सेठ ज्ञान मलजी थे। आपके पुत्र दुर्जनदासजी मालासर में ही खेती बाड़ी का काम करते थे। आपके गंगारामजी, छोगमरुजी, लच्छीरामजी, जेतरूपजी मौर कलमोचन्दजी नामक पाँच पुत्र थे। आप सब लोग मालासर को छोड़कर भीनासर नामक स्थान में आकर बस गये। इनमें से सेठ गंगारामजी बंगारू प्रान्त में आये। आपने कलकत्ता और गढ़गाँव (आसाम) में अपनी कर्मे स्थापित की। कुछ समय पश्चात् उपरोक फर्मे बन्द कर श्रीमंगल में छोगमक मूलचन्द के नाम से फर्म खोकी । आपका स्वर्गवास हो गया। आपके धनराजजी, बुढीकाळजी और बस्तावरमकजी नामक तीन पुत्र हैं। आप तीनों भाइयों का परिवार इस समय स्वतन्त्र व्यापार करता है।
सेठ धनराजजी आजकल धमराज जुहारमल के नाम से कपड़े का व्यापार करते हैं। आपके जुहारमलजी, सुगनमलजी, दीपचन्दजी, मगनमलजी और छगनमलजी नामक पुत्र हैं। जुहारमलजी अलग अपना व्यवसाय करते हैं । फर्म का संचालन सुगनमलजी करते हैं।
सेठ चुन्नीलालजी व्यापार कुशल व्यक्ति हैं । आपने कलकत्ता, शाईस्तागंज और होबीगंज नामक स्थानों पर अपनी फर्मों खोलीं। इनपर कपड़े, गल्ले, आवृत और दुकानदारी का काम हो रहा है । शाईस्तागंज में इस परिवार की दो और फर्मे हैं। सेठ चुनीलालजी के हमीरमलजी, हीरालालजी, सोहनलालजी और हस्तीमलजी नामक पुत्र हैं । हमीरमलजी अपना स्वतन्त्र व्यापार करते हैं। शेष तीनों भाई शामिक
रहते हैं । आप लोग बाईस समादाय को मानने वाले हैं।.
सेठ छगनमल साहबराम बापना, धूलिया
इस परिवार का मूल निवास स्थान हरसोलाव (मारवाड़) का है। इस परिवार में सेठ सवाईरामजी हुए। आपके पुत्र जेठमलजी करीब ७५ वर्ष पूर्व देश से व्यापार के निमित्त फागणा ( भूलिया के समीप )
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ओसवाल जाति का इतिहास
आये और वहाँ पर अपनी साधारण दुखन स्थापित की। आपका संवत् १९३० में स्वर्गवास हो गया। आपके साहबरामजी, धीरजमलजी. वल्वावरमलजी तथा बनेचन्दजी नामक चार पुत्र हुए। आप सब भाइयों के हाथों से फर्म की विशेष उन्नति हुई।
सेठ साहबरामजी ने फर्म के व्यापार को विशेष उन्नति पर पहुँचाया। आपका गवर्नमेंट में भी काफी सम्मान था। आप संवत् १९७५ में स्वर्गवासी हुए। आपके स्वर्गवासी होने के बाद आपके सब भाई अलग २ व्यापार करने लगे। सेठ साहबरामजी के छगनमलजी, मूलचंदजी एवं मानकचंदजी नामक सीन पुत्र विद्यमान हैं। .. सेठ छगनमलजी का जन्म संवत् १९४६ में हुआ। आपने संवत १९७७ में भूलिया में अपनी स्वतन्त्र फर्म छगनमल साहबराम के नाम से अलग स्थापित की। आप बड़े योग्य, व्यापार कुशल तथा समझदार सज्जन है। भापके धार्मिक विचार उदार हैं। आप श्री धूलिया पांजरापोल के तथा प्राणीऔषधालय के पांच सालों तक सभापति रहे हैं। आपकी फर्म पर रुई तथा आदत का व्यवसाय होता है। आपके उत्तमचन्दजी, सींचियाकालनी, मिश्रीलालजी तथा सुवालालजी नामक चार पुत्र हैं। इनमें से उत्तमचन्दजी व्यापार में भाग लेते हैं। सेठ माणकचन्दजी के मोहनलालजी आदि पाँच पुत्र हैं।
सेठ कुन्दनजी कालुराम बापना, मंदसौर यह परिवार लगभग २०० वर्ष पूर्व पाली से हर भाषा और डेबसौ वर्षों से मन्दसोर में निवास कर रहा है। संवत् १९०१.४ में सेठ कुन्दनजी वापना के इस दुकान का स्थापन किया। आपके बाद कालरामजी ने कार्य सम्मान । वर्तमान में सेठ कालूरामजी के पौत्र सेठ ओंकारलालजी वापना इस फर्म के संचालक है। आप शिक्षित एवं उन्नत विचारों के सजन हैं। आपकी बम्बई में ओंकरलाल मिश्रीलाल के नाम से भादत की दुकान है। आपके पुत्र मिश्रीलालजी हैं। यह परिवार मन्दसोर में अच्छा प्रतिष्ठित है। भापके यहाँ हुंडी, चिट्ठी, सराफी और रुई का व्यापार होता है।
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कोठारी-चोपड़ा कोठारी ( चोपड़ा ) गौत्र की उत्पत्ति
इस गौत्र की उत्पत्ति मण्डोवर के पबिहार राजपूतों से है । ऐसी किम्वदन्ती है कि संवत् ११५६ में मण्डोवर के तत्कालीन पदिहार राजा नाहदराव ने तत्कालीन जैनाचार्य श्री जिन वल्लभसूरि की बहुत सेवा भक्ति की भौर प्रार्थना की कि गुरुदेव मेरे कोई संतान नहीं है और निःसन्तान का जीवन इस संसार में व्यर्थ है, इस पर गुरुदेव ने अपना नासचूर्ण उन दोनों पति पत्नी के सिर पर डाल कर चार पुत्र होने का आशीर्वाद दिया। इसके पश्चात् संवत् ११६९ में आचार्य जिनदत्तसूरि ने उन सब को जैन धर्म में दीक्षित कर चौपदा, काम चौपड़ा, गणधर चौपड़ा, चौपड़गांधी, वेडर सांड आदि गोत्रों की स्थापना की। इसी वंश में आगे चलकर सोनपालजी हुए इनके पौत्र ठाकुरसीजी बड़े प्रतापी और बुद्धिमान हुए। ये राठौर राजा राव गजी के यहाँ कोठार का काम करते थे इससे कोठारी कहलाये । इसी खानदान में से भागे चलकर कुछ लोग बीकानेर तक चले गये और कुछ नागौर में बसे । नागौर वाले खानदान में क्रम से सांवतरामजी और गंगारामजी नामक दो भाई हुए। इनमें कोठारी सांवतरामजी तो अजमेर में रह कर व्यापार करते थे और कोठारी गंगारामजी युवावस्था ही से सैनिक का काम करते थे। अवसर पाकर यही कोठारी गंगारामजी स्वर्गीय महाराजा प्रथम तुकोजीराव के जमाने में, होलकरों की सेना में भरती हुए। तभी से इस खानदान का पाया इन्दौर स्टेट में जमा ।
रामपुरा भानपुरा का कोठारी खानदान कोठारी सांवतरामजी का परिवार
कोठारी भवानीरामजी-आप कोठारी सांवतरामजी के एकलौते पुत्र थे। आपका जन्म संवत् १४२९ में हुआ। आप कोठारी गंगारामजी के पास होल्कर दरवार की खिदमत में आये । ईस्वी सन् १८३१ में रामपुरा डिस्ट्रिक्ट का इंतजाम आपके जिम्मे किया गया, उस समय उस जिले में बहुत से ठाकुर बागी हो गये थे और व्यवस्था बहुत बिगड़ रही थी। कोठारी भवानीरामजी ने अपनी हिम्मत और हिकमत से उन लोगों को काबू में करके सारे जिले में अमन अमान कर दिया। इसके उपलक्ष में
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
आपको एक पालकी और लवाजमा बक्शा गया, जिसके खरच के लिये रामपुरा जिले की आमदनी से ७२० की वार्षिक नेमणूक दी गई । उसके पश्चात् १५००) वार्षिक की एक और नेमणूक आपको प्रदान की गई । आपके पास रामपुरा जिले के कई गाँव हजारे में थे और उनकी आमदनी से ये सिपाहियों का एक मजबूत दल रखते थे, जो कि उस कठिन जमाने में शांति बनाये रखने के लिये आवश्यक था । सन् १८३५
में आपका स्वर्गवास हुआ ।
कोठारी शिवचन्दजी कोठारी भवानीरामजी के पुत्र कोठारी शिवचन्दजी का जन्म संवत् १८६५ 'हुआ । आपने अपने पिताजी के नाम को केवल कायम ही न रक्खा, बल्कि अपनी बहादुरी, चतुराई आपने रामपुरा भानपुरा जिले की प्रजा में अमन १८४३ तक इस जिले का इन्तजाम शिवचन्दजी के
और प्रबन्ध कुशलता से बहुत अधिक चमका दिया। चैन और शांति स्थापित की। ईस्वी सन् १८३५ से पास रहा। इस समय में उस जिले की आमदनी में भी बहुत तरक्की हुई खिदमत की बहुत कदर की और इसके उपलक्ष में तत्कालीन रेजिडेंट सर रावर्ट पर आपको मोजा सगोरिया और खजूरी रुँडा पुश्तेनी इश्तमुरारी पट्टे पर वख्शा ।
सरकार ने आपकी इस हेमिल्टन की शिफारिश
ईसवी सन् १८४६ में रामपुरा डिस्ट्रिक्ट इंतजामी सुभीते के लिहाज से २ हिस्सों में बांट दिया गया। कोठारी शिवचन्दजी को उत्तरीय हिस्से का अर्थात् भानपुरा डिस्ट्रिक्ट का काम सौंपा गया और वे जीवन पर्यंत इसी जिले के इंतजाम में रहे। भानपुरे की प्रजा उन्हें अत्यन्त प्रेमकी दृष्टि से देखती थी। आज भी भानपुरे जिले के घर घर २ में उनकी गुण गाथाएँ बड़े आदर और प्रेम से गायी जाती हैं।
ऐसा मालूम होता है कि सन् १८४८ में आप इन्दौर रेसिडेंसी में दरबार की तरफ से वकील मुकर्रर किये गये । कहना न होगा कि इस नाजुक और जिम्मेदारी पूर्ण पद पर आपने बहुत संतोषजनक रूप से काम किया और अच्छी कीर्ति सम्पादन की । आपके कामों से सर हेमिल्टन बड़े प्रसन्न रहते थे । इसी समय में आपने एक प्रख्यात डाकू फकीर महम्मद मकरानी को गिरफ्तार किया, जिसके उपलक्ष में बम्बई गवर्नमेन्ट ने आपको एक बहुमूल्य खिल्लत बहझी । इस विषय में सर हेमिल्टन मे ता० १६ मई सन् १८५९ को एक धन्यवाद पत्र लिखा । इसके सिवाय और भी कई अंगरेज अफसरों से आप को अच्छे २ सर्टिफिकेट मिले हैं।
*
कुछ समय के पश्चात् गदर के इतिहास प्रसिद्ध दिन आये । उस समय में भानपुरा डिस्ट्रिक्ट, अराजक एवं असंतोषी लोगों का खास निवास स्थान था । बागियों को फोज से सारा जिला बड़े संकट में आ गया था। इस समय कोठारी शिवचन्दजी ने जिस वुद्धिमानी, चतुराई और राजनीतिज्ञता से वहाँ का इन्तजाम किया उससे इनकी योग्यता और प्रबन्ध कुशलता का पता बहुत आसानी से चल जाता
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व. सरदार शिवचन्दजो कोठारी (प्रथम), भानपुरा.
स्व. सरदार सावन्तरामजी कोठारी, भानपुरा.
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रायबहादुर हीराचन्दजी कोठारी, इन्दौर.
सरदार शिवचन्दजी कोठारी ( द्वितीय ), इन्दौर.
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कोठारी चोपड़ा
है। उन्होंने एक ओर तो बागी लोगों के पैरों को वहाँ नहीं जमने दिया, दूसरी ओर बागियों का पीछा करने वाली वृटिश फौज को रसद और दूसरा सामान पहुंचाने की उत्तम व्यवस्था की और तीसरी ओर भिन्न भिन्न स्थानों पर पड़ी हुई वृटिश सेना को, बागी लोगों की गति विधि और उनके मुकामों का संवाद पहुंचाने की व्यवस्था भी आपने की। ये सब काम आपने अत्यन्त फुर्ती और सावधानी से किये । इसके उपलक्ष में भापको कमांडिंग आफीसर के द्वारा लिखे हुए कई सार्टिफिकेट भी प्राप्त हुए । इसी सम्बन्ध में नीमच के बड़े साहब ने कमिवनर अजमेर के जरिये सन् १८५८ में जो रिपोर्ट की, उसका मतलब इस प्रकार है
इन्दौर के वकील ने बागी लोगों के पाटन पहुँचते समय प्रगट किया था कि कोठारी शिवचन्दजी ने अपने आदमियों के साथ संधारे पर डेरा किया है । और वहाँ बहुत अच्छा इन्तजाम कर रक्खा है । कोठारी जी इन्दौर रियासत में बहुत मर्द होशियार और कारगुजार ब्यक्ति हैं। सर हेमिल्टन भी आपके कामों से बहुत खुश हैं। जिस समय हम सरहद के फैसले में गये थे उस समय कोठारीजी से मिलकर हमारी तबियत बहुत प्रसन्न हुई। गदर के समय में इन्दौर, रियासत का अच्छा बंदोबस्त रखते हुए हमको क्षण क्षण में बागियों की खबर देकर बहुत खुश रक्खा। वास्तव में चन्द्रावतों ने रामपुरे में बड़ा सिर उठाया था, मगर कोठारीजी ने अपनी प्रबन्ध कुशलता से रामपुरा को इन्दौर रियासत में बनाए रखा। हमने इनको महाराजा व वृटिश गवर्नमेण्ट का खैरख्वाह समझ कर यह रिपोर्ट किया है ।
इस प्रकार प्रशंसापूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए सन् १८५९ ईस्वी में आपका स्वर्गवास हुआ।
कोठारी सांवतरामजी-कोठारी शिवचन्दजी के कोई संतान न होने से आपके नाम पर कोठारी सावंतरामजी को दत्तक लिया गया। आपका जन्म संवत् १९०१ में हुआ। कहना नहीं होगा कि आप भी अपने प्रतापी पिता के प्रतापी पुत्र थे। आपने भी अपने प्रशंसनीय कार्यों से इस खानदान की इज्जत और आबरू को बहुत बढ़ाया। आपके जिम्मे भानपुरा डिस्ट्रिक्ट का इन्तजामी चार्ज बना रहा और आप इस जिले के इजारदार भी रहे। इस जिले में सावन्तरामजी का प्रबन्ध अत्यन्त अक्लमन्दी और उदारता से भरा हुआ था। आपके समय में सरकारी आमदनी भी खूब जोरों से बढ़ी। खेती वादी और बागवानी में आप बहुत दिलचस्पी रखते थे। अपराधियों के साथ आपका वर्ताव अत्यन्त उदारता और दया से परिपूर्ण रहता था। इनकी उदारता, महानता और कला प्रेम की गाथा आज भी भानपुरा के
*"Kothariji Sahib has kept the district in excellent condition. He is a brave and inteligent ana experienced officer in the Indore State. Infact the Chandrawats bad attempted a rise at Rampura but Kothariji managed them excelently (and presented it ) It was owing to his tastful managemant that the Rampura district remain in the possession of the Holker Maharaja."
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ओसवाल जाति का इतिहास
बच्चे २ के मुँह पर है। इतना होते हुए भी उनकी उदारता तथा दया-पूर्ण व्यवहार जिले की अराजकता' को दवाने में बाधारूप नहीं हुआ। अराजकों, धादेतियों और लुटेरों को वे कठोर दंड देते थे, जिनकी कहानियाँ भानपुरा के पुराने लोग आजभी बड़ी दिलचस्पी के साथ कहा करते हैं।
इन्दौर दरबार ने आपकी सेवाओं से प्रसन्न होकर मौजे सगोरिया को इस्तमुरारी पट्टे से बदलकर जागीर में वख्शा जो आज भी उनके वंशनों के पास है ।
न
कोठोरी सावंतरामजी ने सन् १८६९ में अपने पुज्य पिताजी की स्मृति में उनके दाह संस्कार की जगह गरोठ में एक सुंदर छत्री बनवाई, जिसके खरच के लिये सरकार की ओर से २५ बीघा इनामी जमीन और १००) सालियाना वख्शा गया । इस रकम के कम पड़ने की वजह से ६ बीघा जमीन और वहशी गई। अपनी मृत्यु से कुछ समय पहिले आप स्टेट कौंसिल के मेम्बर भी बनाये गये । आपका स्वर्गवास सन् १९०० में हुआ । कोठारीजी की भानपुरा में भी एक सुन्दर छत्री बनी हुई है जिसके साथ एक बगीचा भी है ।
नाम पर कोठारी शिवचन्दजी को पुश्तैनी जायदाद और आमदनी
कोठारी सावंतरामजी के कोई संतान नहीं हुई अतः आपके दत्तक लिये गये । आप इस समय विद्यमान हैं। आप इस खानदान की के मालिक हैं। आप इन्दौर में ऑनरेरी मजिस्ट्रेट और जवाहरखाना स्टेट से "सरदार राव" का सम्माननीय खिताब भी प्राप्त है। दरबार में भी भापको बैठक प्राप्त 1 आपके इस समय २ पुत्र हैं ।
कमेटी के मेम्बर हैं । आपको
कोठारी गंगारामजी का खानदान
महाराजा होलकर की सेना में दाखिल होने के पश्चात् आपने कई लड़ाइयों में बड़ी वीरता के साथ युद्ध किया और अपनी योग्यता से बढ़ते २ जावरे के गवर्नर के पद तक को आपने प्राप्त किया । महाराजा यशवंतराव होल्कर ने अधिकारारूप होने पर आपको रामपुरा भानपुरा आदि कई स्थानों का गवर्नर नियुक्त किया। * उस समय में आपकी अधीनता में दस हजार सेना और दस तोपें रहती थीं तथा रेव्हेन्यु, दीवानी, फौजदारी इत्यादि सब प्रकार के अधिकार भी आपको दिये गये थे। इन परगनों में आपने शान्ति स्थापन का बहुत प्रयत्न किया और समय २ पर कई लड़ाइयाँ लड़कर अपनी बहादुरी और राजनीतिकुशलता का परिचय दिया। आपकी वीरता और कारगुजारियों का वर्णन इन्दौर राज्य के हुजूर फडनीसी के रिकार्डों में, सरजान मालकम के मध्य भारत के इतिहास में तथा और भी कई ग्रन्थों में मिलता है । • देखिये मि० एम्बरे मैक का चौकस आफ सेन्ट्रल इण्डिया पृष्ठ ३० ।
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प्रोसवात्न जाति का इतिहास ,
कोठारी साहब की छत्री, गरोठ.
श्री कोठारी हरिसिंहजी अपने पुत्र-पौत्र सहित, सैलाना,
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कोठारी चोपड़ा
'बापका विशेष परिचय हम इसी प्रन्थ के राजनैतिक और सैनिक महत्व नामक अध्याय के पृष्ठ १४-१५
कोठारी गंगारामजी के स्वर्गवासी हो जाने पर उनके पुत्र कोठारी मगनीरामजी भपने पिता के स्थान पर काम करते रहे । आपने अपनी जागीर के गांवों और बगीचे के लिए स्वर्गीय महाराजा मल्हारराव होलकर (द्वितीय) से पुनः सनद प्राप्त की। मगनीरामजी को भी उनके पिता के ही समान इजत भौर हक प्राप्त थे।
कोठारी मगनीराम जी के पश्चात् उनके पुत्र कोठारी रतनचन्दजी हुए। इनके समय में रामपुरा जिले का अधिकार इनको और कोठारी भवानीरामजी के पुत्र कोठारी शिवचंदजी को आधा २ बॉट दिया गया। सन् १८४५ तक इस जिले पर इनका अधिकार रहा। भाप रामपुरा के कुमेदान के पद पर भी रहे। उस समय भाप रामपुरा के एक प्रभावशाली कारगुजार थे। आप बड़े साहसी तथा स्वामिभक सजन थे। आपने अपने प्रांत में बदमाशों तथा लुटेरों को उचित दण्ड देकर शांति स्थापित की थी। इसी प्रकार संवत् १९१५ के गदर के समय इन्दौर की बागी फौज को मापने अपने भाधीन करने में बड़े साहस के काम किये थे। एक समय की बात है कि इन्दौर की फौज के कुछ लोगों ने फणसे को मारने का प्रयत्न किया, उस समय आपने नंगी तलवार से कुछ समय तक युद्ध कर सारी फौज को भगा दिया था। तत्कालीन पोलिटिकल एजंट सेंडिस तथा नार्थ ब्रुक ने आपको कई महत्व के काम सौंपे थे। सन् १८४४ में मालाहेड़े वाले महाराजा फौजसिंहजी के जागीरी के झगड़े में व रामपुरा तथा संजीव (जावरास्टेट) के सरहदी के झगड़े में उक्त पोलिटिकल एजण्ट ने आपको भेजा था। आपने इन्हें बड़ी योग्यता से निपटाया। इसके बाद भापके उपर सरकारी कर्जा अधिक बढ़ जाने के कारण भापकी जागीरी के धोनों गाँव खालसे कर लिये गये। तब आप सं. १९१० में मारवाद के गये। वहाँ जोधपुर दरबार की भोर से आपको पालकी, नगारा, निशान छड़ी आदि का सम्मान प्रास हुमा। माप संवत् १९२५ में मारवाद में ही स्वर्गवासी हुए । आपके उदेचन्दजी, फूलचन्दजी, गुलाबचंदजी तथा मूलचन्दजी नामक चार पुत्र हुए।
कोठारी उदेचन्दजी सर्व प्रथम जावरा के अधिकारी हुए। तदनंतर भाप महित्पुर फौज में तथा लदाई बन्द होने पर आप इन्दौर मुनाफे के खजाने पर नियुक्त किये गये। भाप भाजीवन इसी पद पर काम करते रहे । आप और फूलचन्दजी ग्यारह दिन के अन्तर से साथ १ स्वर्गवासी हुए। भाप दोनों भाइयों की मृत्यु के पश्चात् आपके शेष दोनों भाई पहले मानकरी और फिर इन्दौर मरेषा यशवंतराव होकलर और युवराज शिवाजीराव होलकर के प्राइवेट सेक्रेटरी बनाये गये। तदनंतर कोठारी गुलाबचंदजी क्रमशः मुनाफा खजांची, कारखानेदार, हुजूर खजांची, कौंसिल के मेम्बर मादि २ कामों पर तथा कोठारी
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ओसवाल जाति का इतिहास
मूलचन्दजी कारखानेदार, मनासा के अमीन आदि २ कार्यों पर नियुक्त किये गये। आप दोनों बन्धुओं ने प्रयत्न करके अपने पूर्वजों के जप्त किये हुए जागीरी के गावों को पुनः प्राप्त करने के लिये प्रयत किया । इसके फलस्वरूप उन दोनों गाँवों के बदले में मौजा वासन्दा तथा कुछ जमीन बगीचे के लिये आप लोगों को इनायत की गई । इस प्रकार आप दोनों बन्धु होलकर सरकार की सेवा करते हुए स्वर्गवासी हुए। इनमें से कोठारी मूलचन्दजी के हीराचन्दनी, दीपचन्दजी और देवीचन्दजी नामक तीन पुत्र विद्यमान हैं।
कोठारी हीराचन्दजी बड़े मुसुरद्दी, कार्य कुशल तथा योग्य सज्जन हैं। मापने अपनी योग्यता एवं कार्य कुशलता से एक साधारण पद से एक बहुत बड़े सम्माननीय पद को प्राप्त किया है। आपने प्रारम्भ में इन्दौर के मुनाफा कारखाना, फड़नीसी दफ्तर, पोलिस विभाग तथा सायर के महकमें में काम कर अपने आपको वृद्धि की ओर अग्रसर किया। आप इसके पश्चात् कोठी कारखानदार और फिर मनासा के अमीन बना कर भेजे गये। उस समय मनामा परगने के आस पास बड़ी दुर्व्यवस्था और गड़बड़ी हो रही थी। इसे आपने मिटा कर वहाँ ति स्थापित की तथा बढ़ी योग्यता और बुद्धिमानी से कई उजदे हुए गाँवों को बसाया। आपकी इस सुम्यवस्था तथा नवीन बसाहत से राज्य के तत्कालीन उप पदाधिकारी बड़े संतुष्ट रहे और उन्होंने समय समय पर आपके कार्यों की खुब प्रशंसा की। आपके इन कायों के उपलक्ष्य में आपको रामपुरा के नायब सूबा और फिर महत्पुर का सूबा बनाया। तदनन्तर रामपुरा और भानपुरा इन दोनों परगनों को सम्मिलित कर आप उसके सूबा बनाये गये । इसी समय इन्दौर नरेश महाराजा तुकोजीराव होलकर ने इस जिले का दौरा करते समय आपके कार्यों से बड़ी प्रसबता प्रगट की और वहाँ के जागीरदारों और सरदारों से भरे दरबार में आपको १.०१) नगद तथा फर्स्ट क्लास सिरोपाव देकर सम्मानित किया।
तदनंतर क्रमाः आप रेव्हेन्यू , कस्टम कमिश्नर, एक्साइज मिनिस्टर, रेव्हेन्यू मिनिस्टर, नायव दीवान खासगी मावि २ च पदों पर नियुक्त किये गये और फिर कौन्सिल के मेम्बर भी बनाये गये । इसके पश्चात् माप दीवान खासगी मुकर्रर किये गये तथा यहाँ से पेंशन प्राप्त होने पर भाप फिर से कौंसिल के मेम्बर बनाये गये । कहने का तात्पर्य यह है कि आपने इस राज्य में बड़े २ उत्तरदायित्वपूर्ण पदों पर रहकर बड़ी योग्यता से व्यवस्था की। जिस समय महाराजा होलकर विलायत गये हुए थे उस समय आप कौंसिल के सभापति भी बनाये गये थे।
आपका इन्दौर राज्य में बहुत सम्मान है। आपको सन् १९१७ में ब्रिटिश गवर्नमेंट ने “राव बहादुर" के सम्माननीय खिताब से विभूषित किया। इसी प्रकार होलकर सरकार ने आपको "मुन्तजिमए-खास" की पदवी तथा हुजूर प्रिवी कौंसिल के कौंसिलर बना कर सम्मानित किया। इतना हो नहीं
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कोठारी चौपड़ा
इन्दौर राज्य की ओर से आपकी धर्मपत्नी को ५०) मांसिक का भोजीवन के लिये अलाउन्स भी कर दिया था, भो इस समय आपकी पुत्र वधु को मिल रहा है। आपने इन्दौर नरेश बावंतराव होल्कर के विवाहोप्रसव पर अत्यन्त सुचारु रूप से व्यवस्था की, जिससे प्रसन्न होकर होल्कर नरेश ने आपको ७०००) बक्षिस में प्रदान किये थे । आपके संतोषचन्दजी नामक एक पुत्र हुए। आप भी कई स्थानों पर अमीन रह चुके थे। आपका स्वर्गवास हो गया है ।
कोठारी हीराचन्दजी के भाई दीपचन्दजी भी कई स्थानों पर अमीन रहे । इस समय आप बड़वाह (नेमाद) में अमीन हैं। आपके एक पुत्र है । इसी प्रकार कोठारी वेदी बन्दी भी सरकारी सर्विस करते हैं। आपके भी एक पुत्र हैं ।.
सेठ रामचन्द्र फूलचन्द कोठारी, भोपाल
इस कोठारी परिवार का मूल निवासस्थान बीकानेर है । वहाँ से १०० साल पूर्व कोठारी करमचन्दजी भार गये और वहाँ उन्होंने व्यापार की अच्छी उन्नति कर धार, बदनावर, भाथ, नागदा आदि स्थानों में १५ दुकानें खोलीं । धार से कोठारी करमचन्दजी के पुत्र रामचन्द्रजी भानपुरा (इन्दौर स्टेट) गये। इनके कमकमलजी, हेमचन्दजी (उर्फ सावंतरामजी), नेमीचन्दजी व किशनचंदजी नामक ४ पुत्र हुए। इनमें से कोडारी नेमीचन्दजी सम्वत् १९३४-३५ में भानपुरा से भोपाल आने तथा कोठारी सावंतमलजी और उनके भ्राया वहीं रहते रहे । कोठारी सावंतरामजी का विस्तृत परिचय हम ऊपर दे चुके हैं। कोठारी कनक्रमरुजी के पुत्र कानमब्जी और पौत्र जवानमळजी व पानमलजी हुए। इनमें से जवानमलजी भोपाल में नेमीचन्दजी के पुत्र मंत्री के नाम पर दसक भावे तथा पानमलजी जोधपुर में अजमेर वाले सोनियों की दुकान पर काम करते हैं।
कोठारी नेमीचन्दजी का शरीरान्त संवत् १९४६ में हुआ। आपके पुत्र मूलचन्दजी का जन्म संवत् १९१६ में हुआ । इस समय आप वोकानेर में ही निवास करते हैं । कोठारी जवानमलजी का जन्म सं० १९५७ में हुआ । आपका कुटुम्ब यहां की ओसवाल समाज में प्रतिष्ठित समझा जाता है । आपके यहाँ रामचन्द्र फूलचंद के नाम से सराफी का व्यापार होता है ।
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
कोठारी हाकिम और शाह
कोठारी चौपड़ा गौत्र की उत्पत्ति का वर्णन करते समय हम ऊपर लिख आये हैं कि ठाकुरसीजी के पश्चात् इस खानदान के कुछ लोग बीकानेर की ओर चले गये। उनमें कोठारी चौथमलजी भी थे । आप राव बीकाजी के, जब कि वे नवीन राज्य की स्थापना के लिए जांगलू प्रान्त में गये थे, साथ थे । इनके सूरजमलजी नामक पुत्र हुए। सूरजमलजी के सात पुत्र हुए। जिनमें से पृथ्वीराजजी को तत्कालीन बीकानेर नरेश ने अपने राज्य में हाकिमी का पद प्रदान किया। तबही से पृथ्वीराजजी के वंशज हाकिम कोठारी कहलाते हैं। शेष छहों भाइयों की संतानें साहूकारी का काम करने के कारण शाह कोठारी कहलाती हैं ।
सेठ रावतमल भैरोंदान कोठारी (हाकिम) बीकानेर
हाकिम कोठारी पृथ्वीराजजी के जीवनदासजी और जगजीवनदासजी नामक दो पुत्र हुए। आप कोण आजन्म रियासत बीकानेर में हाकिमी का काम करते रहे। इनमें जगजीवनदासजी के करमसिंहजी और खींवसीजी नामक दो पुत्र हुए। आप दोनों भाई भी हाकिमी का काम करते रहे । यह परिवार करमसीजी का है । करमसीजी के पश्चात् उनके पुत्र सुल्तानसिंहजी और सुल्तान जिंहजी के पुत्र मदनसिंहजी हाकिम रहे। मदनसिंहजी के पुत्र रेखचंदजी को सरकारी नौकरी से अरुचि होगई । अतएव आपने सरकारी - मौकरी करना छोड़ दिया और सरकार से साहुकारी का पट्टा हासिल किया । इनके अमोलकचन्दजी और रावतमलजी नामक दो पुत्र हुए। सेठ रावतमकजी ने दोहद नामक स्थान पर साधारण कपड़े का व्यापार प्रारम्भ किया था | आपका स्वर्गवास हो गया है। आपके भैरोंदानजी नामक एक पुत्र हैं ।
अहम
सेठ भैरोंदानजी का जन्म संवत् १९३८ में दोहद नामक स्थान में हुआ। संवत् १९५५ में आप कक्षकता गये और वहाँ १०) मासिक पर नौकरी की । आप बड़े प्रतिमा सम्पन्न, और व्यापार चतुर हैं । आपने शीघ्र ही नौकरी को छोड़ दिया और वहीं विलायती कपड़े को बेचने के लिये मेसर्स रावतमल भैरोंदान के नाम से फर्म स्थापित की । जब इसमें आप असफल रहे तब आपने अपनी फर्म पर स्वदेशी कपड़े का व्यापार करना प्रारम्भ किया। इसमें आपके योग्य संचालन से आशातीत सफलता हुई । आपने लाखों रुपयों की सम्पत्ति उपार्जित की। इतना ही नहीं वरन् उसका सदुपयोग भी किया। आपका ध्यान हमेशा धार्मिक एवं सामाजिक बातों की ओर भी रहता है। आपकी धर्मपत्नी के नवपद ओली के तप के उद्यापन में आपने करीब ५० हजार रुपया खर्च किया । एक सुन्दर चाँदी और सोने का सिंहासन बनाकर
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कोठारी चौपड़ा
श्री चिन्तामणिजी के मंदिर को भेंट किया । आपने बीकानेर की श्री जैन पाठशाला को ५१००), कलकत्ता श्वेताम्बर मित्र मंडल को ३१००), पूना भंडारकर पुस्तकालय को १०००), इसी प्रकार और भी कई संस्थाओं को सहायता पहुँचाई है । आपका विद्या की ओर भी अच्छा ध्यान है । आपने जैन साहित्य के प्रकाशनार्थ पं० काशीप्रसादजी जैन को ५ हजार रुपया प्रदान किया है। इसी प्रकार आप समय २ परगुप्तदान -- भी करते रहते हैं । आपके यहाँ से बहुतसी अनाथ विधवाओं को सहायता पहुंचाई जाती है। लिखने का मतलब यह है कि आप उदार और दानी सज्जन है। आपका स्वभाव मिलनसार है। आपको देशी कारीगरी का बेहद शौक है । आपने अपने यहाँ कई चाँदी सोने की कलामय वस्तुओं का बहुमूल्य संग्रह कर रक्खा: । आपका मकान एक दर्शनीय मकान है। आपके यहाँ एक देशी किंवाड़ जोड़ी को करीब २ साल से इसी प्रकार आपके मकान
२ कारीगर बना रहे हैं। इस किंवाड़ जोड़ी की कारीगरी देखते ही बनती है । की छतों एवं दीवालों पर का सुनहरी काम तथा चित्रकारी दर्शनीय है। नं. १०० क्रास स्ट्रीट में होता है ।
आपका व्यापार कलकत्ता में
सेठ जतनमल मानमल कोठारी (शाह) बीकानेर
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यह हम ऊपर लिख चुके हैं कि सूरजमलजी कोठारी के पुत्र थे। जिनमें से पृथ्वीराजजी के वंशज हाकिम कोठारी कहलाते हैं और शेष भ्राताओं का परिवार शाह कोठारी कहलाता है। यह परिवार भी शाह कोठारी है। इस परिवार का पुराना इतिहास बड़ा गौरव-पूर्ण है । इस परिवार में ऐसे २ व्यापार कुशल व्यक्ति हो गये हैं, जिन्होंने अपनी अपूर्व व्यापार-चातुरी और अद्भुत प्रतिभा के बलपर तत्कालीन व्यापारिक फर्मों में अपनी फर्म का एक खास स्थान बना रक्खा था। इस परिवार के पुरुषों की फर्मों का हेड आफिस बीकानेर ही था। करीब ३०० वर्ष पूर्व इस परिवार की फर्म आमेर में थी । वहाँ उस समय गुमानसिंह दानसिंह नाम पड़ता था। इसके बाद जबकि जयपुर बसा तब यह फर्म भी वहाँ से जयपुर लाई गई। इसी प्रकार इस परिवार की उस समय इन्दौर, पूना, गवालियर, उदयपुर, अमरावती आदि प्रसिद्ध २ व्यापारिक केन्द्रों में फर्मे खुली हुई थीं । जब बम्बई पोर्ट कायम हुआ तब इस परिवार की पूना वाली फर्म बम्बई लाई गई । इन्दौर वाली फर्म से स्टेट को काफी आर्थिक सहायता दी गई थी। इसके प्रमाण स्वरूप इस परिवार वालों के पास खास रुक्के मौजूद हैं। बीकानेर दरवार ने भी समय २ पर इस परिवार वालों को साहुकारी के खास रुक्के प्रदान कर सम्मानित किया है। उदयपुर और गवालियर रियासत से भी कई रुक्के प्राप्त हुए हैं। लिखने का मतलब यह है कि इस परिवार का व्यापारिक इतिहास प्राचीन और गौरव मय स्थिति में रहा है ।
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
सेठ सुजानमलजी इस परिवार में बड़े प्रालब्धी व्यक्ति माने जाते हैं। उनके समय तक फर्म बहुत अच्छी अवस्था में संचालित होती रही। सेठ सुजानमलजी के चार पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः सेठ वाघमलजी, हजारीमलजी, मोतीलालजी और केसरीचन्दजी था । उपरोक्त फर्म सेठ हजारीमलजी के परिवार की है।
सेठ हजारीमलजी के उदयमलजी नामक एक पुत्र थे । आपके इस समय जतनमलजी नामक एक पुत्र हैं। सेठ जतनमलजी, बड़े होशियार सज्जन और मिलनसार व्यक्ति हैं । आजकल आपका व्यापार बिहार प्रान्त में होता है। आपकी फर्म का हेड आफिस खगडिया (मुंगेर) में है तथा शाखाएँ मोकामा (पटना) और फूलवारिया (मुंगेर) में है । सब फर्मों पर मेसर्स जतनमल मानमल कोठारी के नाम से गल्ला, तिलहन और बैकिंग का व्यापार होता है। आपका मूळ निवास स्थान बीकानेर ही है । आप मंदिर मार्गी सम्प्रदाय के समान हैं। आपका बीकानेर के स्व० सेठ चाँदमलजी डड्डा पर पूरा २ विश्वास था । आपका उनका पूरा २ दोस्ताना था। इसके पूर्व भी आपके पूर्वजों और उनके पूर्वजों का काफी मेल था । एकबार ज | आप पर आर्थिक संकट आया था और आपकी फर्म खतरे में पड़ गई थी, उस समय सेठ चाँदमलजी ने सहायता कर आपकी फर्म की रक्षा की थी। इसके बदले में आपने भी उनकी वृद्धावस्था में काफी सेवा की, जिसके लिये सेठ चाँदमलजी आपको सुन्दर सार्टीफिकेट प्रदान कर गये हैं। आपके जतनमलजी नामक एक पुत्र हैं। आप भी उत्साही नवयुवक हैं।
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ जतनमलजी कोठारी (जतनमल मानमल) बीकानेर.
जालिमसिंहजी कोठारी, अजमेर.
कुँ० मानमलजी S/o जतनमलजी कोठारी.
सेठ नैनमलजी कोठारी, शिवगंज.
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कोठारी रणधीरोत
कोठारी रणधीरोत गौत्र की उत्पत्ति
कोठारी रणधीरोत गौत्र की उत्पत्ति के विषय में यह दन्त कथा प्रचलित है कि मथुरा के राजा पांडू सेन-अखैपुरा राठोड़ मेडत्या को संवत् १०.1 में भट्टारक श्री धनेश्वरसूरिजी ने नेणखेड़ा नामक प्राम में प्रतिबोध देकर जैनी बनाया और ओसवाल जाति में सम्मिलित किया। इसी नेणखेड़ा गाँव में श्री ऋषभदेवजी का विशाल मन्दिर बनवाने के कारण इनका "ऋषम" गौत्र हुआ। साथ ही स्थान २ पर श्री ऋषभनाथजी के निमित्त कोठार शुरू करवाने से कोठारी कहलाये। राजा पांडूसेन की चौबीसवीं, पच्चीसवीं पुश्त में रणधीरजी नामक एक प्रतापी पुरुष हुए। इन्हीं रणधीरजी के वंशज रणधीरोत कोठारी कहलाते चले आ रहे हैं।
उदयपुर का कोठारी खानदान कोठारी रणधीरजी की तेरहवीं पुश्त में कोठारी चोलाजी हुए। इनके पुत्र मांडणजी संवत् १६१३ में राठोड़ कूपाजी की बेटी के साथ, जो महाराणा उदयसिंहजी के साथ ब्याही गई थी, दहेज में आये । संवत् १६२७ में महाराणा ने इन्हें डहलाणा नामक एक गाँव जागीर स्वरूप प्रदान किया। संवत् १६५२ में महाराणा अमरसिंहजी ने इसे वापस ले लिया, मगर महाराणा जगतसिंहजी ने सिंहासनारूढ़ होते ही इस गाँव के अतिरिक्त आसाहोली नामक एक और गाँव जागीर में प्रदान किया। कोठारी मांडणजी की तीसरी पुश्त में कोठारी खेमराजजी और हेमराजजी हुए। महाराणा ने इन्हें संवत् १७०१ में हाथी का सम्मान प्रदान किया।
कोठारी खेमराजजी के पुत्र भीमजी को महाराणा अमरसिंहजी (दूसरे) ने अपने प्राइवेट काम काज पर रक्खा। इनके पश्चात् महाराणा संग्रामसिंहजी (दूसरे ) ने इन्हें फौजबक्षी का काम प्रदान किया। इनके पुत्र चतुर्भुजजी को महाराणा जगतसिंहजी तथा महाराणा राजसिंहजी (दूसरे) ने प्रधान का काम इनायत किया, जिसे आपने बड़ी सफलता से संचालित किया। इसके पश्चात् इनके पुत्र शिवलालजी और शिवलालजी के पुत्र पन्नालालजी हुए। आप दोनों ही पिता पुत्र सरकार में काम काज करते रहे। कोठारी पक्षालालजी के छगनलालजी एवम् केशरीसिंहजी नामक दो पुत्र हुए।
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श्रीसवाल जाति का शर्तहास
कोठारी छगनलालजी का परिवार
कोठारी छगनलालजी - आप बड़े प्रतिभा सम्पन्न और होशियार व्यक्ति थे । प्रारम्भ में आप खजाने के अफसर नियुक्त हुए। इसके बाद आपको फौजबशी का सम्मान मिला । आप जिला सादड़ी, कणेरा, कुम्भलगढ़, मगरा, खेरवाड़ा, राजनगर इत्यादि कितने ही स्थानों में हाकिम रहे। आपको हाकिम देवस्थान और हाकिम महकमें माल का काम भी मिला था। यही नहीं बल्कि आपने कुछ समय तक महकमा खास का काम भी किया। आपके कार्यों से प्रसन्न होकर तत्कालीन महाराणा साहब ने आपको मोरजाइ नामक एक गाँव जागीर स्वरूप प्रदान किया था। इस गाँव को बदल कर संवत् १९११ में महारानी की ओर से सेतूरिया नामक गाँव प्रदान किया गया । संवत् १९३२ में भारत सरकार ने आपको 'राय' की सम्मान सूचक उपाधि प्रधान की थी। महाराणा उदयपुर ने समय २ पर आपको सिरोपाव, सोना और बगीचे के लिये जमीन आपका विशेष परिचय "राजनैतिक और सैनिक महत्व" नामक आपके कोई पुत्र न था । अतएव बनेड़ा से कोठारी मोतीसिंहजी
प्रदान कर आपका सम्मान बढ़ाया था । शीर्षक में पृष्ठ ९३ में दिया गया है। दसक आये ।
कोठारी मोतीसिंहजी —- आपको महाराणा सज्जनसिंहजी ने प्रारम्भ में अफसर खजाना, टकसाल और स्टाम्प मुकर्रर किया । कुछ समय तक आप महकमा देवस्थान और जिला गिरवा के हाकिम भी रहे। आपके कामों से प्रसन्न होकर महाराणा साहब ने आपको कण्डी, सिरोपाव, बैठक आदि का सम्मान प्रदान किया । आपके दलपतसिंहजी नामक एक दत्तक पुत्र 1 आप सिरोही स्टेट में, मजिस्ट्रेट, आबू वकील, असिस्टेंट चीफ मिनिस्टर और कुछ समय के लिए चीफ मिनिस्टर भी रहे। आपको भारत सर कार की ओर से गवर्नमेण्ट फौज में, लेफ्टिनेण्ट का कामीशन इनायत हुआ है । होकर कई अंगरेज हाय अफसरों ने बहुत अच्छे २ सार्टिफिकेट दिये हैं। आपको शिकारखेलने का बहुत शौक है। आपने कई बड़े २ शेरों का शिकार किया है । आपके भँवर गणपतसिंह नामक एक पुत्र हैं। आप अभी बालक हैं, मगर अभी से प्रतिभावान हैं। आपको मिलिटरी कवायद करने का अनहद शौक है।
आपके कार्यों से प्रसन्न
ओर भी अच्छा है। आपने स्थानीय शीतल आपकी ओर से थोबकी बाड़ी नामक स्थान पर वगैरह में आप खर्च करते रहते हैं ।
कोठारी मोतीसिंहजी का ध्यान धार्मिकता की नाथजी के मन्दिर को कुछ कोठरियाँ बनवा कर भेंट की हैं। एक धर्मशाला बनी हुई है। इसी प्रकार और भी मन्दिरों
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व. छगनलालजो कोठारी, उदयपुर.
श्री मोतीसिंहजी कोठारी, उदयपुर.
लेफ्टिनेंट कुँवर दलपतसिंहजी कोठारी A.L.R.O., उदयपुर.
भंवर गनपतसिंह S/o कुं० दलपतसिंहजी कोठारी, उदयपुर,
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कोठारी रणधारोत
कोठारी केशरीसिंहजी का खानदान
कोठारी केशरीसिंहजी-आप बड़े स्पष्ट वक्ता, निर्भीक, इमानदार, अनुभवी, स्वामि-भक्त और प्रबन्ध कुशल व्यक्ति थे। आपने अपने जीवन काल में अनेक राजनैतिक खेल खेले। आप अपनी चतुराई एवम् बुद्धिमानी से क्रमशः बढ़ते २ दीवान के पद तक पहुंचे। आपका विशेष इतिहास इसो ग्रन्थ के 'राजनैतिक और सैनिक महत्व' नामक अध्याय में भलिभाँति दिया जा चुका है। आपके कोई पुत्र न होने से मापने कोठारी बलवन्तसिंहजी को दत्तक लिया।
. कोठारी बलवंतसिंहजी-महाराणा सजनसिंहजी ने संवत् १९२८ में भापको महकमा देवस्थान का हाकिम नियुक्त किया। इसके पश्चात् जब महाराणा फतेसिंहजी सिंहासनारूढ़ हुए तब आपने कोठारीजी को महद्वाज सभा का मेम्बर बनाया। इसी समय महाराणा ने भापको सोने का कंगर प्रदान कर सम्मानित किया। इसके बाद भापको स्टेट बैंक का काम दिया गया । राय मेहता पचालालजी के महकमा खास के पद में इस्तीफा देने पर वह काम आपके तथा सही वाले अर्जुनसिंहजी के सिपुर्द हुमा । इसके बाद संवत् १९६२ में आप दोनों सज्जनों का इस्तीफा पेश होने पर इस काम को मेहता भोपालसिंह जी और महासानी हीरालालजी पंचोली के जिम्मे किया गया। इसके बाद फिर ३ वर्ष तक आपने महल कमा खास का काम किया। देवस्थान के काम के अलावा टकसाल का काम भी आपके जिम्मे रहा । इस प्रकार कई वर्ष तक इतनी बड़ी सेवा करते हुए भी आपने राज्य से तनखा के स्वरूप कुछ नहीं लिया । मापके गिरधारीसिंहजी नामक एक पुत्र हैं।
गिरधारीसिंहजी सज्जन और मिलनसार व्यक्ति हैं। आप मेवाड़ में सहा , भीलवादा, गिर्वा, चित्तौड़ आदि कई स्थानों में हाकिम रहे। इसके बाद आप महकमा देवस्थान के हाकिम रहे। आजकल आप कपासन में हाकिम हैं । आपके भंवर तेजसिंहजी नामक एक पुत्र हैं। भाप ग्रेज्यूएट हैं। ..
मसूदे का कोठारी परिवार इस वंश के पूर्वजों का मूल निवास स्थान कुंभलगढ़ ( मेवाद) था। जब मेवाड़ के महाराणा के भतीजे रतनसिंहजी का विवाह मेड़ते में हुआ, उस समय इस परिवार के पूर्वज कोठारी रणधीरसिंहजी को महाराणा जी ने विवाह का प्रबन्ध करने के लिये मेड़ते भेजा। मेड़ते के तत्कालीन रावजी, रणधीरसिंह जी की व्यवस्थापिका शक्ति एवं कार्य चातुरी से बड़े खुश हुए, एवं उन्हें अपने यहीं रहने देने के लिये महाराणा बी से मांग लिया। इनके पुत्र खींवसीजी और पौत्र घणमलजी मेड़ते रावजी की सेवा में रहे।
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
कोठारी घणमालजी
आप मेड़ता कुँवर भोपतसिंहजी के साथ यूसुफ आई के साथ वाली लड़ाई में देहली बादशाह शाह अकबर की मदद के लिये गये थे । जब बादशाह ने कुँवर भोपतसिंहजी को पेशावर के ४ परगने और अजमेर के समीप मसूदे का दो लाख की आय का प्रसिद्ध ठिकाना जागीरी में दिया, उस समय घण माल मे बड़ी बुद्धिमत्ता पूर्वक इन परगनों का प्रबंध किया। आपके बाद, क्रमशः सकटदासजी, केशवदासजी, बनराजजी और नथमलजी भी मसूदे का काम करते रहे ।
कोठारी नथमलजी – आप बड़े वीर और व्यवहार कुशल सज्जन थे। जिस समय मसूदे के नाबालिग अधिकारी जैतसिंहजी को इनके काका शेरसिंहजी ने जोधपुर की मदद से निकाल दिया था, उस समय आपने अपनी बुद्धिमानी और चतुराई द्वारा बादशाह फसंख़ुशियर की शाही सेना की मदद प्राप्त कर कुँवर जैतसिंहजी को पुनः अपना राज्य दिलवाया। आपके सूरजमलजी और जयकरणजी नामक पुत्र हुए। कोठारी सूरजमलजी मरहों के साथ की गढ़बीटली की लड़ाई में वीरता से लड़कर मारे गये । कोठारी जयकरणजी के पुत्र बहादुरमलजी हुए ।
कोठारी बहादुरमलजी - आप वीर, समझदार तथा इतिहासज्ञ सज्जन थे। आपने जोधपुर का ईडर पर हक साबित करने के लिये एक ख्यात तय्यार की थी । सन १८१७ में कर्नल हॉल के साथ मेरों की बगावत शान्त करने में आपने भी सहयोग लिया था। इसी तरह रायपुर और मगेर के झगड़ों के समय आपको गवर्नमेंट ने पंच मुकर्रर किया था। आपके कार्यों से प्रसन्न होकर अजमेर मेरवाड़ा के अफसर कर्नल डिक्सन ने आपको इस्तमुरारी हकूक पर १ हजार बीघा जमीन मय तालाब और कुओं के इनायत की। संवत् १९१७ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके अमानसिंहजी, छतरसिंहजी, सावंतसिंहजी, बलवंतसिंहजी, सालमसिंहजी, छोटूलालजी और समरथसिंहजी नामक सात पुत्र हुए ।
कोठारी श्रमानसिंहजी —— कोठारी अमानसिंहजी ने मसूदे की कामदारी का काम बड़े सुव्यवस्थित ढंग से किया। आपका संवत् १९१६ में स्वर्गवास हुआ। आपके सुजानसिंहजी, सौभागसिंहजी, वल्लभसिंहजी तथा समीरसिंहजी नामक चार पुत्र हुए ।
कोठारी सुजान सिंहजी - आपका जन्म सं० १९१० में हुआ। आप बड़े योग्य तथा स्वतन्त्र विचारों के सज्जन थे । आप मसूदे से अजमेर आकर रहने लगे । उस समय आपकी साधारण स्थिति थी । लेकिन अपनी योग्यता और बुद्धिमत्ता द्वारा आपने अपनी स्थाई सम्पत्ति को खूब बढ़ाया। आपने भाय्यं
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कोठारी
समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्दजी के साथ रहकर उनकी बहुत सेवा की थी। अजमेर की आय्य समाज के प्रथम प्रवर्तकों में आप हैं ।
कोठारी मोतीसिंहजी - आप कोठारी सुजानसिंहजी के पुत्र हैं। संवत् १९३१ में आपका जन्म हुआ है । आप फूलिया के तहसीलदार, शाहपुरा के मजिस्ट्रेट और कन्नौद तथा महत्पुर में ए० व्ही●• स्कूलों के हेड मास्टर रहे हैं । इस समय आप अजमेर में निवास करते हैं। आपके यहाँ पर कई मकानात हैं जिनसे किराये की आमदनी होती है । आप होमियोपैथिक डाक्टर और आयुर्वेद विशारद हैं।
कोठारी सोभागसिंहजी का जन्म सम्वत १९१२ में हुआ। आप मेवाड़ के नायब हाकिम और आमेर, कोठारिया, तथा भेंसरोड़ ठिकानों के कामदार रहे। आपके जालिमसिंहजी और सुगनसिंहजी नामक दो पुत्र हैं । इनमें सुगनसिंहजी, कोठारी समीरसिंहजी के नाम पर दत्तक गये हैं । कोठारी जालमसिंहजी - आपका जन्म संवत् १९२९ में हुआ । आप बड़े बुद्धिमान, योग्य ववस्थापक तथा शिक्षित सज्जन हैं । आपने अपनी योग्यता तथा कार्यकुशलता से कई रियासतों में बड़े २ ऊँचे पद पर काम किया। सबसे पहले आपने सन् १९०० में बी० ए० पास किया तथा उसके बाद इलाहाबाद हॉर्ट की कानूनी परीक्षा का इम्तहान दिया । तदनंतर आप सर्विस करने लगे । प्रारम्भ में आप बहुत से छोटे २ पदों पर नियुक्त हुए, परन्तु आप अपनी बुद्धिमानी और व्यवस्थापिका शक्ति द्वारा बहुत ऊँचे पदों पर पहुँच गये । आप नागोदा रियासत के कुमार भागवेन्द्रसिंहजी के टयूटर रहे। इसके पश्चात् इन्दौर रियासत ने ब्रिटिश गवर्नमेंट से आपकी सर्विस को मांगा। वहाँ पर आप हुजूर आफिस के सुपरिण्टेण्डेण्ट नियुक्त हुए। उसके बाद क्रमशः स्टेट कौंसिल के सेक्रेटरी तथा कस्टम एण्ड एक्साइज कमि श्नर रहे । तदनंतर आप वहाँ से जोधपुर चले गये और जोधपुर राज्य की ओर से साल्ट और आबकारी डि० के सुपरिन्टेन्डेण्ट बनाये गये । वहाँ से आप उदयपुर गये तथा महद्राज सभा के सेक्रेटरी नियुक्त हुए ।
इसके बाद आपने एक्साइज कमिश्नर के पद पर काम किया । सन् १९२७ में आप ब्रिटिश सरकार से पेंशन लेकर रिटायर हुए। तदनंतर आप बांसवाड़ा स्टेट के दीवान पद पर अधिष्ठित किये गये । इस समय आप अजमेर में शांति लाभ कर रहे हैं। आप यहाँ की आर्य समाज के प्रेसिडेण्ट तथा राजस्थान व मालवा आर्य्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान हैं । आपके हरदयालसिंहजी, लक्ष्मणसिंहजी, संग्रामसिंहजी तथा सरूपसिंहजी नामक चार पुत्र हैं। इनमें से लक्ष्मणसिंहजी, कोठारी मोतीसिंहजी के नाम पर दत्तक गये हैं । बड़े पुत्र हरदयालसिंहजी एल० ए० जी० इम्पीरियल गवर्नमेंट के शुगर ब्यूरो के १२ वर्षों तक सीनियर असिस्टंट रहे हैं। शेष दोनों भाई पढ़ते हैं ।
कोठारी वल्लभसिंहजी तथा समीरसिंहजी का देहान्त क्रमशः संवत १९५८ में तथा १९८० में २३३
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
हुआ । कोठारी समीरसिंहजी के दत्तक पुत्र सुगनचन्दजी का जन्म संवत १९३१ में हुआ । आप जावद, ( गवालियर) आदि जगहों के तहसीलदार रहे। इस समय आप भेंसरोड़ के कामदार' | आपके शिवसिंहजी और सरदारसिंहजी नामक दो पुत्र हैं। श्री शिवसिंहजी बी० कॉम • बिड़ला शुगर फेक्टरी सिहोरा (बिजनौर) के मैनेजर तथा सरदारसिंहजी बी० कॉम० इसी फेक्टरी के केमिस्ट हैं । कोठारी वल्लभसिंहजी के पुत्र दलेल - सिंहजी इस समय रेलवे में सर्विस करते हैं ।
कोठारी छतर सिंहजी के पाँच पुत्र हुए। इनमें से बड़े पुत्र कल्याणसिंहजी मसूदा और रायपुर (मारवाड़) के कामदार रहे। छतरसिंहजी के परिवार में इस समय किशोरसिंहजी गंगापुर में, माणकचंदजी और सुलतानचन्दजी मसूदे में और भोपालसिंहजी जयपुर में निवास करते हैं। इसी प्रकार कोठारी सावंतसिंहजी के पौत्र लक्ष्मीसिंहजी लादुवास (मेवाड़) में कामदार हैं।
कोठारी बलवन्तसिंहजी भी मसूदे के कामदार रहे। आपके किशनसिंहजी, विशनसिंहजी तथा माधौसिंहजी नामक तीन पुत्र हुए। इनमें माधौसिंहजी विद्यमान हैं। किशनसिंहजी के पुत्र शक्तिसिंहजी और नाहरसिंहजी रेलवे में सर्विस करते हैं। कोठारी माधौसिंहजी के दलपतसिंहजी, दरयावसिंहजी, गुलाबसिंहजी तथा केशरीसिंहजी नामक चार पुत्र हैं। इनमें से दलपतसिंहजी उदयपुर में कोठारी मोतीसिंहजी के नाम पर दत्तक गये हैं। दरयावसिंहजी देवगढ़ तथा भींडर में मजिस्ट्रेट तथा शेष पोलिस में सर्विस करते हैं। इसी तरह कोठारी सालमसिंहजी के पौत्र नरपतसिंहजी तथा दौलतसिंहजी अजमेर में ही निवास करते हैं कोठारी भगवंतसिंहजी के पुत्र मोहकमसिंहजी, अभयसिंहजी तथा उगमसिंहजी और पौत्र जैतसिंहजी, उमरावसिंहजो, भेरूसिंहजी, धनपतिसिंहजी और मोहनसिंहजी विद्यमान हैं। इसी प्रकार कोठारी समरथसिंहजी के पौत्र अनराजजी भीलवाड़े में रहते हैं ।
सेठ मूलचन्द जावंतराज खीचिया ( कोठरी )
इस रणधीरोत कोठारी परिवार के पूर्वज उदयपुर में निवास करते थे । यह परिवार उदयपुर से मेड़ता कुंभलगढ़, होता हुआ घाणेराव आया । कोठारी देवीचन्दजी घाणेराव में निवास करते थे, आप के नरसिंहदासजी, अमरदासजी और करमचन्द्रजी नामक ३ पुत्र हुए, इनमें करमचन्दजी के परिवार में इस समय सेठ नेनमलजी कोठारी, शिवगंज में रहते हैं ।
कोठारी नरसिंहजी के समय में इस खानदान का व्यापार पाली में होता था। आप घाणेराव के भोसवाल समाज में मुख्य व्यक्ति थे । इनके सागरमलजी, निहालचन्दजी तथा सूरजमलजी नामक ३ पुत्र हुए। ये तीनों आता व्यापार के लिये संवत् १९३४ में बम्बई गये, और सागरमल निहालचन्द के नाम
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कोठारी
से व्यापार शुरू किया । इन बंधुओं का परिवार घाणेराव में “नगरसेट" के नाम से बोला जाता है। सेठ सागरमलजी के केसरीमलजी और चुनीलालजी सेठ, निहालचन्दजी के नथमलजी, हमीरमलजी, और राजमह जी तथा सेठ सूरजमलजी के मूलचंदजी, जावंतराजजी, मुलतानमलजी और जेठमलजी नामक पुत्र हुए। इनमें केसरीमलजी, हमीरमलजी तथा मूलचन्दजी विद्यमान नहीं हैं। इस परिवार का कारवार संवत् १९५५ में अलग अलग हुआ ।
सेठ चुन्नीलालजी बाणेराव के जैन मन्दिरों के प्रबंध में बहुत दिलचस्पी से भाग लेते हैं । आप घाणेराव के प्रतिष्ठित सज्जन हैं तथा श्री पार्श्वनाथ जैन विद्यालय वरकाण की प्रबंध कमेटी के मेम्बर हैं । आपके पुत्र मोतीलालजी २२ साल के हैं ।
सेठ सुरजमलजी कोठारी की धर्मध्यान के कामों में बड़ी रुचि थी । उत्सव किया, कापरदातीर्थ के जीर्णोद्वार में मदद दी । आपने संवत् १९५८ में में दुकान की, तथा १९६० में मंगलदास मारकीट में कपड़े का व्यापार शुरू किया। मैं स्वर्गवास हुआ । आपके बड़े पुत्र मूलचन्दजो संवत् १९८५ में स्वर्गवासी हुए
।
रतनलालजी मौजूद हैं।
सेठ जावंतराजजी का जन्म संवत् १९४४ में हुआ । आप अपने बंधुओं के साथ मूलचन्द जावंतराज के नाम से व्यापार करते हैं। घाणेराव तथा गोड़वाड़ प्रान्त में आप अच्छी प्रतिष्ठा रखते हैं । संवत् १९८७ में आप लोगों ने श्री आदिश्वरजी के मन्दिर घाणेराव में एक देवली बनाई । इसी तरह के धार्मिक कामों में यह कुटुम्ब सहयोग लेता है । आपके यहाँ मूलचन्द जावंतराज के नाम से मंगलदास मारकीट बम्बई में सोलापुरी साड़ी का थोक व्यापार होता है ।
आपने पाली में अठाई बम्बई के दागीना बाजार
आपका संवत् १९६७
अभी इनके पुत्र
सेठ अनोपचन्द हरखचन्द खीचिया, कोठारी ( रणधीरोत ) शिवगंज
हम उपर लिख चुके हैं कि कोठारी देदीचन्दजी के सबसे छोटे पुत्र करमचंदजी थे । आप घाणेराव में रहते थे । इनके अनोपचंदजी, पूनमचंदजी, फूलचंदजी, हरकचंदजी, मगनीरामजी, उम्मेदमल जी, तेजराजजी और केसरीमलजी नामक ८ पुत्र हुए। इनमें सेठ अनोपचंदजी तथा हरखचंदजी संवत् १९१३ में शिवगंज आये और अनोपचंद हरकचंद के नाम से दुकान की । आपके शेष भ्राता घाणेराव में 'ही निवास करते रहे । यह कुटुम्ब घाणेराव तथा शिवगंज में खीचिया - कोठारी के नाम से बोला जाता है । इन दोनों भाइयों ने शिवगंज की पंचपंचायती और व्यापारियों में अच्छी इज्जत पाई। सिरोही दरबार महाराव केसरीसिंहजी, कोठारी अनोपचंदजी का अच्छा सम्मान करते थे । संवत् १९५२ की भादवा
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
सुदी २ को आपका स्वर्गवास हुआ। आपके रूपचन्दजी खींवराजजी और बभूतमलजी नामक ३ पुत्र हुए, इनमें खींवराजजी, हरकचन्दजी के नाम पर दत्तक गये ।
. संवत् १९३७ में कोठारी हरकचन्दजी तथा रूपचन्दजो मद्रास गये और वहाँ इन्होंने अपने नाम से किराना तथा मनीहारी का थोक व्यवसाय आरंभ किया । हरकचन्दजी संवत् १९६७ में स्वर्गवासी हुए ।
कोठारी रूपचंदजी को सिरोही दरबार महाराव स्वरूपसिंहजी ने संवत् १९०३ में २४ वीधा ६ विस्वा का बगीचा मय कुएं के इनायत किया; तथा “सेठ" की पदवी दी। और दो घोड़ों की बध्वी और मोम रखने की इज्जत वख्शी । संवत् १९८४ के वैशाख में आप बीमार हुए, तब दरबार इनकी साता पूछने इनकी हवेली पर पधारे। इसी मास की वेशाख वदी ७ को इनका स्वर्गवास हुआ । आपके मुखराजजी, मेनमलजी, जुहारमलजी, और मोतीलालजी नामक ४ पुत्र हुए। इनमें पुखराजजी का स्वर्गवास हो गया है और शेष विद्यमान हैं। कोठारी खींवराजजी के पुत्र कुंदनमलजी मौजूद हैं।
- कोठारी नेनमलजी स्त्रीचिया का जन्म संवत १९४९ में हुआ। आप शिवगंज और सिरोही स्टेट के प्रसिद्ध धनिक साहुकार हैं। स्टेट से आपको “सेठ" की पदवी प्राप्त है । संवत् १९४९ में आपने बम्बई में जवाहरमल मोतीलाल के नाम से दुकान की है। मद्रास के गोड़वाड़ समाज में आपकी फर्म प्रधान है। शिवगंज, बम्बई, मद्रास आदि में आपकी स्थाई सम्पत्ति है। आपके पुत्र जीवराजजी और भेरूमलजी हैं। इनमें भेरूमलजी, पुखराजजी के नाम पर दत्तक गये हैं । सुकनराजजी के पुत्र अमृतराज जी और बाबूलालजी हैं।
सेठ कुन्दनमलजी और तेजराजजी कोठारी (रणधीरोत ) दारह्वा ( यवतमाल )
इस परिवार के पूर्वज कोठारी हरीसिंहजी, शेरसिंहजी की रीयाँ ( मेड़ते के पास ) रहते थे। इन के पुत्र कोठारी निहालचन्दजी संवत् १८९५ के लगभग बराड़ में आये । और इस प्रान्त के सूबेदार बनाये गये । आपका खास निवास अमरावती में रहता था। आपके छोटे भ्राता बहादुरमलजी के गाढमलजी, जवाहरमलजी, हिन्दूमलजी तथा सरदारमलगी नामक , पुत्र हुए । आप लोग देश में ही रहते थे।
___ कोठारी सरदारमलजी का परिवार-मारवाड़ से सेठ गाढमलजी के पुत्र हजारीमलजी खरवंडी (अहमद नगर ) गये और सरदारमलजी के पुत्र वख्तावरमलजी दारता ( बरार ) आये । यहाँ आकर सेठ वख्तावरमलजी ने महुवे के बड़े २ कंट्राक्ट लिये, और इस धन्धे में अच्छी सम्पत्ति उपार्जित की । दारह्वा तालुके के आप प्रतिष्ठित सज्जन थे। आपको घोड़े, ऊँट, सिपाही, आदि रखने का बहुत शौक था ।
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श्रोसवान जाति का इतिहास
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कमरा (सेठ मालचंदजी कोठारी)चूरू.
बगीचे का पिछला हिस्सा (मालचंदजी कोठारी) चूरू.
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कोठारी संवत् १९५७ में भाप स्वर्गवासौ हुए। आपके नाम पर सेठ हजारीमलजी के पौत्र फलमलजी खर वंडी से दत्तक आये। इनका संवत् १९७० में शरीरान्त हुआ। आपने दारहा में संवत् १९६० में जीनिंग फेक्टरी खोलो। इस समय आपके पुत्र कुंदनमलजी विद्यमान हैं, आप भी यहाँ के प्रतिष्ठित सज्जन हैं। आपके यहाँ वख्तावरमल फलमल के नाम से जमीदारी और जिनिंग फेक्टरी का कार्य होता है।
कोठारी जवाहरमलजी का परिवार-कोठारी जवाहरमलजी के जीतमलजी, चांदमलजी तथा सागर मलजी नामक ३ पुत्र हुए। सन् १८५७ के बलवे के समय कोठारी जीतमलजी और सागरमलजी मारवाड़ की ओर से फौज लेकर बागियों को दबाने भेजे गये थे। तत्पश्चात् कोठारी जीतमलजी बहुत समय तक भानपुरा ( इन्दौर स्टेट ) में व्यापार करते रहे, वहाँ से बीमार होकर आप कुचेरा चले गये। जहाँ संवत् १९४७ में स्वर्गवासी होगये। इनके पुत्र नथमलजी निसंतान स्वर्गवासी हुए।
कोठारी चांदमलजी के राजमलजी तथा दानमलजी नामक २ पुत्र थे । कोठारी राजमलजी संवत् १९४० में अपने बाबा वख्तावरमलजी के बुलाने से कलकत्ता होते हुए दारता आये। संवत् १९८५ में शत्रुजयजी में आप स्वर्गवासी हुए। वर्तमान में आपके पुत्र तेजराजवी, धनराजजी और देवराजजी सेठ राजमल तेजराज के नाम से जमीदारी और लेने देन का काम काज करते हैं । दानमलजी के पुत्र मुकुन्दमलजी तथा घासीमलजी हैं। इनमें घासीमलजी दत्तक गये हैं।
इसी तरह इस परिवार में शिवदानमलजी के पुत्र भागचन्दजी खरवंडी में और हीराचन्दजी के पुत्र लालचन्दजी, घासीमलजी, नेमीचन्दजी दारता में रहते हैं। नेमीचन्दजी मेट्रिक में पढ़ते हैं।
सेठ अगरचन्द जीवराज कोठारी (रणधीरोत ) डिगरस ( यवतमाल )
इस परिवार का मूल निवास स्थान समेल (जोधपुर स्टेट ) है। वहाँ से लगभग १५० साल पूर्व यह परिवार व्यापार के निमित्त यवतमाल डिस्ट्रिक्ट के डिगरस नामक स्थान में आया। सेठ अगरचन्दजी का लगभग ७० साल पूर्व स्वर्गवास हुआ। इनके पुत्र कोठारी जीवराजजी ने इस दुकान के व्यापार और सम्मान को बहुत बढ़ाया। संवत् १९८० के माघ मास में आप स्वर्गवासी हुए।
__वर्तमान में सेठ जीवराजजी कोठारी के पुत्र शिवचन्दजी और लोमचन्दजी कोठारी विद्यमान है, आपकी फर्म डिगरस के व्यापारिक समाज में नामांकित मानी जाती है। शिवचन्दनी कोठारी समझदार तथा प्रतिष्ठित सज्जन हैं। आपके छोटे भाई लोमचंदजी नागपूर में इंटर में अध्ययन करते हैं। आपकी दुकान पर चांदी सोना तथा कृषि का काम काज होता है।
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आसवाल जाति का इतिहास
कोठारी परिवार चूरू (बीकानेर स्टेट) इस परिवार के लोग कई वर्षों से यहीं निवास कर रहे हैं। इस खानदान में सेठ हजारीमलजी बड़े प्रतिष्ठित व्यक्ति हुए। आपने अपनी व्यापार कुशलता से बहुत उन्नति की। आपके सेठ गुरुमुखरायजी, सेठ सागरमलजी और सेठ सरदारमलजी नामक तोन पुत्र हुए। सेठ हजारीमलजी का स्वर्गवास संमत १९३५ में होगया। आजकल आपके तीनों पुत्रों का परिवार स्वतन्त्र रूप से म्यापार कर रहा है।
सेठ गुरुमुखरायजी का परिवार-सेठ गुरुमुखरायजी का जन्म संवत् १८९६ में हुआ संवत १९३५ में जबकि आप तीनों भाई अलग २ होगये तबसे आपने अपनी फर्म का नाम मेसर्स हजारीमल गुरुमुखराय रक्खा । इस फर्म में आपने बहुत उन्नति की। आपका ध्यान धार्मिक कार्यों की ओर भी अच्छा रहा । आपका स्वर्गवास संवत् १९५८ में हो गया। आपके तीन पुत्र हुए। जिनके नाम क्रमशः सेठ तोला. रामजी, शोभाचन्दजी और जवरीमलजी थे। इनमें से दूसरे एवम् तीसरे पुत्र सेठ सागरमलजी के यहाँ दत्तक गये।
सेठ तोलारामजी का जन्म संवत् १९२५ का है। आप शुरू से ही बड़े मिलनसार, सादे और धार्मिक वृत्ति के सजन है। आपका विशेष समय धर्म ध्यान ही में व्यतीत होता है। आप तेरापंथी संप्रदाय के अच्छे जानकार हैं। आपका यहाँ की समाज में बहुत नाम एवम् प्रतिष्ठा है। आपके चिरंजीलालजी, सोहनलालजी, माणकचन्दजी, श्रीचन्दजी और हुलासचंदजी नामक पाँच पुत्र हैं। इनमें से बड़े पुत्र चिरंजीलालजी बहुत समय से अलग हो गये हैं। शेष सब लोग शामिल ही न्यापार करते हैं । भापका व्यापार केवल हुंडी, चिट्ठी और ब्याज का है। .
सेठ सागरमलजी का परिवार-सेठ सागरमब्जी का जन्म संवत् १८९८ में हुआ। आप धार्मिक प्रकृति के महानुभाव थे। आप जैन शास्त्रों के अच्छे जानकार कहे जाते थे। आपका संवत् १९६० में स्वर्गवास होगया । आपके कोई पुत्र न होने से सेठ जवरीमलजी दत्तक लिये गये। मगर छोटी अवस्था में ही आपका स्वर्गवास होगया । आपके भी कोई पुत्र न होने के कारण आपके छोटे भाई शोभाचन्दजी दत्तक आये। आप बुद्धिमान और होशियार व्यक्ति थे। आपका भी संवत् १९६२ में स्वर्गवास हो गया। आपके दो पुत्र सेठ सूरजमलजी और सेठ मालचन्दजी हुए । इनमें से सूरजमलजी अपने पिताजी के एक साल पश्चात् ही स्वर्गवासी हो गये । वर्तमान में इस परिवार में सेठ मालचन्दजी है।
सेठ मालचन्दजी बड़े सरल, और उदार प्रकृति के व्यक्ति हैं। आपको विद्या से बड़ा प्रेम है। भाप बीकानेर स्टेट की असेम्बली के मेम्बर हैं। आपकी सेवाओं से प्रसन्न होकर बीकानेर दरबार में आपको
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० सेठ सरदारमलजी कोठारी, चूरू.
सठ तोलारामजी कोठारी, चूरू.
सेठ मूलचंदजी कोठारी, चूरू.
सेठ मदनचंदजी कोठारी, चूरू.
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० सेठ सरदारमलजी कोठारी, चूरू.
सठे तोलारामजी कोठारी, चूरू.
सेठ मूलचंदजी कोठारी, चूरू.
सेठ मदनचंदजी कोठारी, चूरू.
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ओसवाल जाति का इतिहास
श्री चम्पालालजी कोठारी, चूरू.
सेठ मालचंदजी कोठारी, चूरू.
भँवर फतेचंदजी S/o चम्पालालजी कोठारी, चूरू.
कुँवर धर्मचन्दजी s/o मालचन्दजी कोठारी, चूरू.
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कोठारी
कैफियत की इज्जत प्रदान की है। आप यहाँ के आनरेरी मजिस्ट्रेट भी हैं। स्थानीय म्युनिसिपेल्टी के भी आप मेम्बर हैं । आपके इस समय चार पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः बा० धर्मचन्दजी, विरदीचन्दजी, खूबचन्दजी और जतनमलजी हैं। आप सब लोग अभी बालक हैं । सेठ मालचन्दजी को मकान बनाने का बहुत शौक है । आपके एक मकान का फोटो भी इस ग्रंथ में दिया जा रहा है । आपका व्यापार कलकत्ता में मेसर्स हजारीमल सागरमल के नाम से आर्मेनियम स्ट्रीट में होता है, तथा कोटकपूरा (पंजाब) नामक स्थान पर गल्ले का व्यापार होता है आपकी फर्म चुरू में सम्मानित समझी जाती है।
___सेठ सरदारमलजी का परिवार-सेठ सरदारमलजी का जन्म संवत् १९०२ का था । इस परिवार की विशेष तरक्की आपही के द्वारा हुई। आपने लाखों रुपयों की सम्पत्ति उपार्जित की । संवत् १९७१ में आपने चुरू स्टेशन पर एक धर्मशाला बनवाई । आपका स्वर्गवास संवत् १९७४ में हो गया। इस समय आपके दो पुत्र , जिनके नाम क्रमशः सेठ मूलचन्दजो और सेठ मदनचन्दजी हैं। आप लोग पुराने विचारों के हैं। आपने अपने पिताजी के स्मारक स्वरूप एक सरदार विद्यालय नामक एक स्कूल की स्थापना की है। आपको बीकानेर दरबार से छड़ी, चपरास व खास रुक्के इनायत हुए हैं। सेठ मूलचन्दजी के इस समय चम्पालालजी नामक एक पुत्र हैं। आजकल आप ही अपनी फर्म का संचालन करते हैं। आप उत्साही और मिलनसार व्यक्ति हैं। आपके फतेराजजी नामक एक पुत्र हैं। सेठ मवनचन्दजी के धनपतसिंहजी, गुनचन्दलालजी और भंवरलालजी नामक तीन पुत्र हैं।
इस परिवार का व्यापार जूट, कपड़ा और गल्ले का है। इसकी दो शाखाएँ कलकत्ता में मेसर्स हजारीमल सरदारमल और चम्पालाल कोठारी के नाम से आर्मेनियम स्ट्रीट में है। इनके अतिरिक्त भिन्न २ नामों से मैमनसिंह, बेगुनबाड़ी, बोगरा, सुकानपोकर, बिलासीपाड़ा, कसबा, सिरसा, श्री गंगानगर इत्यादि स्थानों पर भी आपकी शाखायें हैं। यह फर्म यहाँ प्रतिष्ठित और सम्मानित समझी जाती है।
सेठ केशरीचन्द गुलाबचन्द कोठारी, चुरू (बीकानेर)
इस परिवार के सज्जन करीब २५० वर्ष पूर्व बीकानेर से चलकर चुरू नामक स्थान पर आये। जब आप लोगों के पूर्वज सन् 1५०० के करीब बीकानेर में रहते थे तब उन लोगों ने राज्य की बहुत सेवा की। उनमें से सेठ टाडमलजी भी एक थे । इनके पश्चात् सेठ कुशलचन्दजी बड़े व्यापार चतुर और साहसी सज्जन हुए। आपने अपने साहस और वीरता से बीकानेर स्टेट मे अच्छे २ कार्य किये । आपके कार्यों से प्रसन्न होकर तरकालीन बीकानेर दरबार ने आपको नोहर नामक एक गाँव जागीर स्वरूप तथा रहने के लिए एक हवेली प्रदान कर आपको सम्मानित किया था। आपके पश्चात् इस परिवार में
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ओसवाल जाति का इतिहास
विजयचन्दजी, जयभुपजी, शंकरदासजी, नोवतरायजी भादि २ सज्जन हुए। आप लोगों ने अपनी फर्म की अच्छी उन्नति की। ऐसा कहा जाता है कि यह पहली फर्म बीकानेर स्टेट में ऐसी थी, जिसने सर्व प्रथम ब्रिटिश राज्य में अपनी बैंकिंग फर्म स्थापित की थी। इसका उस समय ईस्ट इंडिया कम्पनी से व्यापारिक सम्बन्ध था। इस विषय में इस परिवार वालों को कई महत्वपूर्ण तसल्लीनामा और परवाने मिले हुए हैं। जो इस समय इस परिवार के पास हैं । आगे चलकर सेठ लाभचन्दजी इस परिवार में प्रतिष्टित व्यक्ति हुए आपने गदर के समय कई अंग्रेजों की जान बचाई थी। इसके उपलक्ष में आपको ब्रिटिश सरकार ने एक प्रशंसा सूचक सार्टीफिकेट दिया है। आपका स्वर्गवास हो गया है। आपके केशरीचन्दजी नामक एक पुत्र हैं।
सेठ केसरीचंदजी का जन्म संवत् १९२६ में हुआ । आप बड़े व्यापार कुशल, समाजसेवी और उत्साही सज्जन हैं। आपने अपने प्रभाव से लाखों रुपये एकत्रित कर वारलोन फंड में दिलवाये हैं। इससे प्रसन्न होकर भारत सरकार ने आपको सर्टिफिकेट आफ ऑनर प्रदान किया है । आपका भ्यान सार्वजनिक सेवा की ओर बहुत रहता है। आपने सन् १९१३ में अखिल भारतवर्षीय तेरा पंथी सभा नामक एक संगठित सभा स्थापित करवाने में बहुत कोशिश की है। आप करीब ११ साल तक उसके आनरेरी सेक्रेटरी रहे। आपका तेरा पंथी संप्रदाय में बहुत सम्मान और प्रतिष्ठा है। सन् १९२१ की सेन्सेस के समय आपने बहुत कार्य किया। आपने तेरापंथी संप्रदाय के व्यक्तियों की अलग सेन्सेस की जाय इसकी बहुत कोशिश की। और सारे भारतवर्ष में गणना करने के लिये पृथक प्रबन्ध करवाया। आपने संयुक्त प्रांतीय कौंसिल में पास होने वाले माइनर साधु बिलका घोर विरोध किया और जनमत को अपने पक्ष में करके उसे पास होने से रोक दिया। लिखने का मतलब यह है कि आप प्रतिभा सम्पन्न और कुशल कार्यकर्ता हैं। सिंद स्टेट में आपका अच्छा सम्मान है। चरखी दादरी नामक स्थान पर आपकी पुरानी जायदाद थी वह नजुल की हुई थी। आपके प्रयत्न से महाराजा साहब ने उसे वापस आपके सुपुर्द कर दिया। आपको स्टेट से कुर्सी का सम्मान तथा सिरोपाव प्रदान किया हुआ है। इसी प्रकार बीकानेर, सिरोही और उदयपुर दरबारों की ओर से आपको समय समय सिरोपाव मिलते रहे हैं। इस समय आपकी वय ६४ वर्ष की है। अतएव भाजकल आप चुरू ही में शांति लाभ कर रहे हैं । आपके चार पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः घेवरचन्दजी, मालचन्दजी, गुलाबचन्दजी और डूंगरमलजी हैं । इनमें से प्रथम दो चरखादादरी में स्वतन्त्र व्यापार करते हैं। शेष दो कलकत्ता में नं. १५ शोभाराम वैशाख स्ट्रीट में बैंकिंग का व्यापार करते हैं। बाबू गुलाबचन्दजी मिलनसार और उत्साही सज्जन हैं। आपका बैकिंग व्यापार केवल अंग्रेजों से होता है।
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ओसवाल जाति का इतिहास
कुँवर बिरदीचंदजी Sio मालचंदजी कोठारी, चूरू.
बाबू जीवनमलजी बच्छावत, मुनीम सेठ मालचंदजी कोठारी, चूरू.
बाबू जसकरणजी वैद, मुनीम सेठ मालचंदजी कोठारी, चूरू.
बाबू खूबचंदजी S/o सेठ मालचंदजी कोठारी, चूरू.
सेठ मालचंदजी कोठारी के सुपुत्र, चूरू.
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ केशरीचंदजी कोठारी, चूरू.
बाबू गुलाबचंदजी कोठारी, चूरू.
बाबू फतेचंदजी काठारी, चूरू.
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कोठारी
कोठारी जोरावरमल मोतीलाल का खानदान सिकंदराबाद (दक्षिण)
इस खानदान के पूर्वजों का मूल निवास स्थान बगड़ी (मारवाड़ ) का है। बगड़ी से इस परिवार के पूर्व पुरुष सेठ थानमलजी ने व्यापार निमित्त दूर २ के प्रदेशों का भ्रमण कर सबसे पहले अपनी एक फर्म बोलारम में स्थापित की । आपके हाथों से इस फर्म की काफी उन्नति हुई । आपके जोरावरमलजी नामक एक पुत्र हुए। आप बड़े धार्मिक विचारों के सज्जन हैं । आपके मोतीलालजी नामक एक पुत्र हैं।
श्री मोतीलालजी कोठारी- आप शिक्षित तथा उन्नत विचारों के सज्जन हैं । आप बड़े व्यापार कुशल, भच्छे व्यवस्थापक तथा वर्तमान उन्नतिशील युग के सिनेमा व्यवसाय में निपुण हैं। आपने अपनी व्यापार चातुरी तथा दूरदर्शिता से अपनी फर्म की काफी उन्नति की है। तिरमिलगिरी, सिकन्दराबाद तथा हैदराबाद में सब मिलाकर आपके माठ सिनेमा बने हुये हैं । इधर कुछ वर्ष पूर्व ही हैदराबाद के कुछ शिक्षित एवं उत्साही सज्जनों ने दस लाख की पूंजी से 'दी महावीर फोटो प्लेज एण्ड थिएट्रिकल कम्पनी लि.' की स्थापना की है। इस संस्था का उद्देश भारतीय शिक्षाप्रद डामा एवं फिल्म प्रचार करवाकर सदपदेशों का प्रचार करते हुए द्रव्योपार्जन करना है। श्री मोतीलालजी की बुद्धिमानी तथा योग्य म्यवस्था से इस संस्था को काफी सफलता प्राप्त हुई हैं। आप ही वर्तमान में इसके मेनेजिंग एजण्ट हैं।
इसके अतिरिक्त आपके यहाँ से "हैदराबाद बुलेटिन" नामक एक अंग्रेजी दैनिक पत्र भी निकलता है। आपका यहाँ की शिक्षित समाज में बहुत सम्मान है। आपके बुलेटिन अखबार की यहाँ पर भच्छी प्रतिष्ठा है।
इसके साथ ही साथ आपका स्वभाव बड़ा सरल, मिलनसार तथा नम्र है। भाप बड़े सुधा... रक विचारों के सज्जन हैं। ओसवाल जाति की उन्नति करने की इच्छा आपको सदैव लगी रहती है। आप यहाँ की ओसवाल समाज में प्रतिष्ठित सज्जन हैं।
सेठ बरदीचन्दजी कोठारी का.खानदान, जयपुर इस परिवार में सेठ देवीचंदजी कोठारी प्रतिष्ठित पुरुष हुए । आप बीकानेर से इन्दौर आदि स्थानों में होते हुए संवत् १८६० के करीब जयपुर आये । आपकी मालवा,कलकत्ता,बम्बई कानपुर, फरुखाबाद आदि २ स्थानों पर ५४ दुकानें थीं। संवत् १८८२ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी जयपुर में छतरी बनी हुई है। आपके पुत्र मूलचन्दजी, कपूरचन्दजी, तिलोकचन्दजी, रायचन्दजी, और सर्वसुखजी ने जयपुर में अपनी अलग २ हवेलियाँ बनवाई। आप सब बंधु प्रतिष्ठित व्यापारी माने जाते थे।
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ओसवाल जाति का इतिहास
कोठारी कपूरचन्दजी -- -- आप जयपुर के प्रसिद्ध साहुकार थे । आप स्टेट को लाखों रुपये उधार दिया करते थे । आपको जयपुर स्टेट ने "सेठ" का पद और नाम के बाद "जी" लिखने का सम्मान बख्शा। संवत् १९०४ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके नाम पर आपके छोटे भ्राता तिलोकचन्दजी के पौत्र वरदीचन्दजी दत्तक आये ।
कोठारी बरदीचन्दजी — आपका जन्म संवत् १८९४ में हुआ । आप साहुकारी व्यापार के अलावा | स्टेट द्वारा सौपे हुए फौज के काम को भी देखते थे। आगरे में २४ सालों तक आप बंगाल बैंक के 'खजानची रहे। इससे बैंक ने आपको एक उत्तम सार्टिफिकेट दिया । संवत् १९५६ के अकाल के समय आप स्टेट द्वारा बनाई गई सहायता कमेटी के मेम्बर और खजांची थे । आपने अपनी बुद्धिमानी और शौकीनी से जनता, राज्य और ओसवाल जाति में अच्छी इज्जत पाई थी । संवत् १९६९ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके केवल चन्दजी, हुकुमचन्दजी और चांदमल नामक ३ पुत्र हुए ।
कोठारी चांदमलजी - आपका जन्म १९२० में हुआ। आपने सन् १८९२ में अजमेर में आइस फेक्टरी खोली, जो सन् १९१५ तक काम करती रही । सन् १९०१ में अजमेर में आयर्न एण्ड ब्रास फाउण्डरी, सन् १९१२ में मंडावर में एक जिनिंग फेक्टरी और सन् १९२७ में जयपुर में एक आइस फैक्टरी खोली । ये सब फेक्टरियां इस समय काम कर रही हैं । आपके सुमेरचन्दजी तथा समीरचन्दजी और आपके बड़े भ्राता हुकुमचन्दजी के उत्तमचन्दजी और संतोषचन्दजी नामक पुत्र हुए । उत्तमचन्दजी शांत स्वभाव के समझदार सज्जन हैं, तथा फर्म और कारखानों का तमाम काम योग्य रीती से चलाते हैं । कोठारी संतोषचन्दजी केवलचन्दजी के नाम पर दत्तक गये हैं । आप साहुकारी व्यापार में भाग लेते हैं । यह परिवार जयपुर की ओसवाल समाज में प्राचीन तथा प्रतिष्ठित माना जाता है । इसी प्रकार इस खानदान में कोठारी मूलचन्दजी के परिवार में रिखबचन्दजी, सरूपचन्दजी, रूपचन्दजी और केशरीचन्दजी विद्यमान हैं । केशरी चन्दजी जवाहरात का व्यापार करते हैं । त्रिलोकचन्दजी के पौत्र पेमचन्दजी जयपुर स्टेट के नायव दीवान के पद पर कार्य्यं कर चुके हैं। अभी इनके भतीजे भागचंदजी मौजूद हैं। रायचंदजी के परिवार में गोकुलचंदजी और उनके पुत्र जवाहरात का व्यापार करते हैं तथा कोठारी सर्वसुखजी के पौत्र अगरचंदजी, मिलापचंदजी और हीराचंदजी साहुकारी का कार्य करते हैं। हीराचंदजी को दरवार में कुर्सी प्राप्त है। आप एफ० ए० में पढ़ रहे हैं।
सेठ हजारीमल हुलासचन्द कोठारी सुजानगढ़
करीब ७० वर्ष पूर्व सेठ धरमचन्दजी सुजानगढ़ आकर बसे । यहाँ आपके गुलाबचन्दजी नामक आप लोग यहीं साधारण देन लेन का व्यापार करते रहे। सेठ गुलाबचन्दजी के दो पुत्र
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पुत्र हुए ।
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० सेठ हजारीमलजी कोठारी, सुजानगढ़.
स्व० सेठ भैरोंदानजी कोठारी, बीकानेर.
सेठ हुलासचन्दजी कोठारी, सुजानगढ़..
कुं० भँवरलालजी S/o हुलासचन्दजी कोठारी, सुजानगढ़.
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कोठारी
थे जिनका नाम क्रमशः जीतमलजी और मगनीरामजी था। आप दोनों ही भाइयों ने कलकत्ता जाकर मेसर्स चौथमल गुलाबचन्द के साथ व्यापार प्रारम्भ किया। इसके पश्चात् आपने सरदारशहर निवासी आसकरण पांचीराम पींचा की फर्म के साझे में काम किया। संचालकों की बुद्धिमानी एवम् होशियारी से फर्म खूब चली। इसके पश्चात् सेठ जीतमलजी का सं० १९३८ में स्वर्गवास होगया । आपके हजारीमलजी एवम् मोतीलालजी नामक दो पुत्र हुए। मगनीरामजी के पुत्र का नाम दुर्गाप्रसादजी है। वर्तमान में तीनों भाइयों का परिवार स्वतंत्ररूप से व्यापार कर रहा है। दुर्गाप्रसादजी के पुत्र पूसराजजी हैं। दोनों ही पिता पुत्र सर्विस करते हैं। मोतीलालजी का स्वर्गवास होगया है। इनके पुत्र धनराजजी, इन्द्रचन्दजी, सूरजमलजी और सोहनलालजी कलकत्ते में अपना स्वतंत्र व्यापार करते हैं।
सेठ हजारीमलजी ने साझे की फर्म से अलग होकर स्वतंत्र फर्म मेसर्स हजारीमल हुलासचन्द के नाम से कलकत्ता ही में खोली। इस समय इस पर चलानी का काम हो रहा हैं। आपने इस व्यवसाय में अच्छी सफलता प्राक्ष की और अपनी एक ब्रांच बोगड़ा में भी पाट का ब्यवसाय करने के हेतु से स्थापित की। आपका ध्यान सार्वजनिक कार्यों की ओर भी बहुत रहा । आप तेरापंथी संप्रदाय के मानने वाले सज्जन थे। आपका स्वर्गवास संवत् १९८४ में ७४ वर्ष की आयु में होगया । आपके पुत्र हुलासचंदजी इस समय फर्म के काम का संचालन करते हैं। भापका यहाँ कलकत्ता की चलानी कमेटी में अच्छा प्रभाव है। आप उसके प्रेसिडेण्ट है। बाजार में व्यापारियों के आपसी कई झगड़े भाप के द्वारा निपटाये जाते हैं। आप से दोनों पार्टियां खुश रहती हैं। परोपकार और सेवा की तरफ भी आपका बहुत ध्यान है। आपके भँवरलालजी नामक एक पुत्र हैं। आप शिक्षित सज्जन हैं। आपका रियासत बीकानेर में अच्छा सम्मान है। आपके मोहनलालजी नामक एक पुत्र है। कलकत्ता फर्म का पता १९. स्तापट्टी है।
सेठ कालूराम वच्छराजजी कोठारी, ढानकी ( यवतमाल )
इस परिवार का मूल निवासस्थान कुड़की (जोधपुर स्टेट ) में है। वहाँ से लगभग ३५ साल पहिले सेठ उदयराजजी कोठारी बराड़ प्रान्त के पूसद तालुके के ढानकी नामक स्थान में म्यवसाय के लिये आये। आपके हाथों से धन्धे को अच्छी उन्नति मिली। संवत् १९८२ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके पुत्र कालूराम जी तथा बच्छराजजी कोठारी विद्यमान हैं। आप दोनों सज्जनों के हाथों से कृषि और व्यापार के कार्य में बहुत उन्नति हुई है। आप ढानकी और आस पास के ओसवाल समाज में उत्तम प्रतिष्ठा रखते हैं।
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लोढ़ा
लोढ़ा गौत्र की उत्पत्ति
लोदा गौत्र की उत्पत्ति के सम्बन्ध में महाजनवंशमुक्तावली में इस प्रकार की किम्बदन्ति लिखी हुई है कि पृथ्वीराज चौहान के सूबेदार देवड़ा चौहान वंशीय लाखनसिंह के कोई संतान न होती थी। इससे दुखित होकर उसने जैनाचार्य श्री रवीप्रभुसूरि से संतान के लिये प्रार्थना की, और जैनधर्म अंर्ग:कार किया। इनकी संतानें लोढ़ा कहलाई। इसी वंश की आगे चलकर ४ शाखायें हो गई जिनमें टोडरमलजी के वंशज टोडरमलोत छजमलजी के छजमलोत, रतनपालजी के रतनपालोत और भावसिंह के भावसिंहोत कहलाये ।*
रावरजा बहादुरशाह माधौसिंहजी लोढा का खानदान, जोधपुर
इस परिवार के पूर्वज शाह सुल्तानमलजी लोढ़ा (टोडरमलोत) नागौर में रहते थे और वहाँ जोधपुर राज्य की सेवा करते थे। इनके पुत्र शाहमलजी हुए।
___ रावरजा शमशेरबहादुर शाहमलजी लोढ़ा-आप इस खानदान में बहुत प्रतापी पुरुष हुए। संवत् १८४० के लगभग महाराजा विजयसिंहजी के कार्य काल में आप जोधपुर आये। जिस समय आप यहाँ आये थे, उस समय जोधपुर की राजनैतिक स्थिति बड़ी डाँवाडोल हो रही थी। आपको योग्य अनुभवी और बहादुर पुरुष समझकर दरबार ने फौज मुसाहिब का पद दिया । तदनंतर आपने कई युद्धों में सम्मिलित होकर बहादुरी के काम किये। संवत् १८४९ में आप गोडवाड़ प्रान्त के युद्ध में गये और इसी साल महारागा विजयसिंहजी ने प्रसन्न होकर जेठ सुदी १२ के दिन आपके बड़े भाई के लिए "रावरजा शमशेर बहादुर" की और छोटे भाई के लिए "राव" की पुश्तैनी पदवी प्रदान की। साथ ही दरबार ने आपको २९ हजार की जागीरी और पैरों में सोना पहिनने का अधिकार बख्शा। इसके अलावा आपको घड़ियाल और हाथी सिरोपाव भी इनाया किया गया। इस प्रकार विविध उच्च सम्मानों से विभूषित होकर संवत् १८५४ में आप स्वर्गवासी हुथे। आपके छोटे भ्राता राव मेहकरणजी जालौर के घेरे के समय बिलादे में केसरिया करके काम आये। आपके रिधमलजी एवं कल्याणमलजी नामक दो पुत्र हुए।
• लोदा गौत्र एक और है । ऐसा कहा जाता है कि चावा नामक एक माहेश्वरी गृस्य श्री वर्धमानसूरिजी के उपदेश से जैन हुआ। इनकी संतानें लोदा कहलाई।
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लोड़ा रावराजा रिधमलजी-आप बड़े बहादुर और वीर प्रकृति के पुरुष थे । संवत् १८८९ में १५०० सवारों को लेकर आप और मुणोत रामदासजी ब्रिटिश सेना की सहायतार्थ अजमेर गये थे। संवत् १८९२ में महाराजा मानसिंहजी ने आपको ए० जी० जी० के यहाँ अपनी स्टेट का वकील बनाकर भेजा। संवत् १९०० तक आप इस पद पर रहे। संवत् १८९८ में आपको १६ हजार की जागीर बख्शी गई। थोड़े समय बाद महाराजा मानसिंहजी ने आपको अपना मुसाहिब बनाया । दरवार आपका बड़ा सम्मान करते थे। आपने महाराजा से प्रार्थना कर ओसवाल समाज पर लगनेवाले कर को माफ कराया, तथा पुष्कर के कसाईखाने को बन्द कराया। आपने संवत् १८९६ में दरबार और जागीरदारों के बीच सम्बन्ध की शर्ते तय की, जो अब भी स्टेट में १८९६ की कलम के नाम से जोधपुर में व्यवहार की जाती हैं। पुष्कर के कसाईखाने को बन्द करवाने के सम्बन्ध में तस्कालीन कवि ने आपके लिए निम्नलिखित पद्य कहा था किः
भला भुलाया भोपती, नवकोटीरे नेत ।
रावमिटायो रिधमल, पुष्कर रो प्रायश्चित ॥ ____आपके कार्यों से प्रसन्न होकर आपको महाराजा मानसिंहजी ने दरबार में प्रथम दर्जे की बैठक, ताजीम, सोना और हाथी सिरोपाव इनायत किया था। महाराजा तखतसिंहजी को जोधपुर की गद्दी पर दत्तक लाने में आपने विशेष परिश्रम किया था । अतः महाराजा तखतसिंहजी ने आपको कई खास रुक्के प्रदान कर प्रसञ्चता प्रकट की थी। इन महाराजा के राजत्वकाल में आपने फौज लेकर लाडनू ठाकुर साहिब के साथ उमरकोट पर चढ़ाई की थी। संवत् १९०८ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके रावरजा राजमलजी तथा राव फौजमलजी नामक दो पुत्र हुए। आपके छोटे भ्राता राव कल्याणमलजी ने भी रियासत की वहुतसी सेवाएँ कीं। जालौर घेरे के समय आप महाराजा मानसिंहजी की ओर से आरबों की फौज लेने गये थे। सम्वत् १८६० से ६५ तक आप मुसाहिब रहे । जोधपुरी घेरे के समय आपने दौलतराव सिंधिया को अपनी ओर मिलाने की कोशिश की थी।
शबरजा राजमलजी-आपका जन्म सम्बत् १८७३ में हुआ। संवत् १९०३ से १९०९ तक आप जोधपुर दरबार की ओर से पोलीटिकल एजण्ट के वकील रहे। सम्बत् १९०७ की चैत वदी १० को महाराजा तखतसिंहजी ने आपको दीवानगी का पद प्रदान किया। सन् १८५७ के बलवे के समय भाऊवे के ठाकुर ने बागी लोगों को अपने यहाँ टिकाया। उन्हें निकालने के लिये पोलिटिकल एजण्ट ने जोधपुर दरवार को लिखा । फलतः दरबार ने आपको फौज देकर आउवा भेजा । उक्त स्थान पर युद्ध करते हुए आसोज वदी ६ को आप स्वर्गवासी हुए। आपके अंतकाल होजाने की खबर जब जोधपुर पहुंची, तब दरबार अपने स्वर्गीय मुसाहिब को सम्मान देने के लिए मातमपुरसी के लिये इनकी हवेली पर भाये। इनके
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ओसवाल जाति का इतिहास
समय तक इस परिवार के पास 10 हजार रुपयों की जागीर थी। आपके रावरजा सरदारमलजी और जोरावरमलजी नामक २ पुत्र हुए। इनमें सरदारमरूजी, राव फौजमलजी के नाम पर दत्तक गये ।
राव फौजमलजी-आप मारवाद राज्य में हाकिम और सुपरिटेन्डेण्ट के पद पर कार्य करते रहे । दरबार ने आपको सोना और पालकी सिरोपाव इनायत किया था। सम्वत् १९०३ में आप स्वर्गवासी हुए।
रावरजा सरदारमलजी-आप सम्वत् १९०५ में फौजमलजी के नाम पर दत्तक गये । दरबार ने आपको बैठने का कुल्ब और ताजीम इनायत की। आपने अपने पिता राजमलजी के औसर के उपलक्ष में १२॥ न्यात और राज्य के रिसाले को निमंत्रित किया। उस समय दरबार ने आपको मोतियों की कंठी, कदा, सिरपंच, हाथी सिरोपाव, पालकी और पैर में पहिनने के लिए सांटें इनायत की। सम्वत् १९१४ तक आप दीवानी अदालत तथा हुजूरी दफ्तर की दरोगाई (मजिस्ट्रेट शिप) और हाकिमी का कार्य करते रहे । इसके बाद आप पोलिटिकल एजेण्ट के वकील और दफ्तर के सुपरिन्टेन्डेन्ट रहे। संवत् १९३३ की भादवा सुदी के दिन महाराजा जसवंतसिंहजी ने आपको दीवानगी का सम्मान बख्शा । संवत् १९४१ में आप ए. जी. जी. के यहाँ मारवाड़ राज्य की तरफ से वकील बनाये गये और मृत्यु समय तक आप यह कार्य करते रहे । आपका स्वर्गवास संवत् १९४५ की काती बदी ८ को हुआ। आपकी हवेली पर महाराजा जसवंतसिंहजी मातमपुर्सी के लिए पधारे। आपके रावरजा माधौसिंहजी और अमरसिंहजी नामक २ पुत्र हुए।
राव जोरावरमलजी-आपका जन्म संवत् १९०७ में हुआ। आप सांचोर और जोधपुर के हाकिम रहे तथा संवत् १९४९ में ए० जी० जी० के यहाँ वकील बनाये गये। संवत् १९५२ की मगसर सुदी ३ को आप स्वर्गवासी हुए। आपके राव बहादुरमलजी तथा राव दानमलजी नामक ९ पुत्र हुए।
राव बहादुरमलजी-आप जेतारण और पचपदरा के हाकिम रहे और संवत् १९७० में ए. जी. जी. के वकील बनाये गये। भापको पैरों में सोना पहिनने का अधिकार प्राप्त था। संवत् १९८० में भाप स्वर्गवासी हुए। भापके पुत्र सोमागमलजी म्युनिसिपैलिटी में सर्विस करते हैं।
___राव बहादुरमलजी के छोटे भ्राता राव दानमलजी दौलतपुरा तथा पचपदरा के हाकिम थे। संवत् १९६५ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र राव बदनमलजी का जन्म संवत् १९३८ की भासोज सुदो • को हुआ। आप थोड़े समय के लिये एरनपुरा की छावनी के वकील रहे और इधर सन् १९२३ से देवस्थान धर्मपुरा के सुपरिण्टेण्डेण्ट हैं। आपके मोहवतसिंहजी, फसेसिंहजी तथा उमरावसिंहजी नामक तीन पुत्र हैं।
- रावराजा माधोसिंहजी-जापका जन्म संवत् १९३४ की पोष बदी को हुआ। भारम्भ में
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लावा
१० साल तक आप पाली, जोधपुर और जालोर के हाकिम रहे और इधर सन् १९१७ से जनानी ज्योढ़ी के सुपरिण्टेण्डेण्ट के पद पर कार्य कर रहे हैं। आप बड़े मिलनसार, सरल चित्त और निराभिमानी सजन हैं। जोधपुर की ओसवाल समाज में आपकी बड़ी प्रतिष्ठा है। राज्य के सरदारों में भी आपका उस सम्मान है। आपको दरबार से दोवड़ी ताजीम और पैरों में सोना पहिनने का अधिकार प्राप्त है। भाप जोधपुर भोस. वाल श्रीसंघ के प्रेसिडेण्ट हैं। आपके सवाईसिंहजी, वल्लमसिंहजी तथा किशोरसिंहजी नामक तीन पुत्र हैं। कुँवर सवाईसिंहजी इस समय सीवाने के हाकिम है और आपको पैरों में सोना पहिनने का अधिकार प्राप्त है। आपके बड़े पुत्र कुँवर वल्लभसिंहजी ने हाल ही में बी० ए० की परीक्षा पास की है। कुँवर सवाईसिंहजी के पुत्र गुलाबसिंहजी इन्दौर में एल० एल० बी० के द्वितीय वर्ष में पढ़ रहे हैं। इनसे छोटे भाई जसवंतसिंहजी मेट्रिक में शिक्षा पा रहे हैं।
राब अमरसिंहजी-आप रावरजा बहादुर माधोसिंहजी के छोटे भाता है। जोधपुर दरबार से भापको हाथी, सिरोपाव, सोना और ताजीम प्राप्त हैं। इसी प्रकार जयपुर दरवार ने भी भापको हाथी, सिरोपाव देकर सम्मानित किया है। आप रीवा महारानी (जोधपुर की महाराज कुमारी) के कामदार हैं। रीवा स्टेट ने भी आपको सोना पहिनने का अधिकार बख्शा है । मापके पुत्र सूरतसिंहजी पढ़ते हैं।
इस परिवार को जोधपुर दरबार की ओर से गेगोली और परासली नामक दो गाँव जागीर में प्राप्त हुए थे। वे इस समय इस कुटुम्ब के अधिकार में हैं।
सेठ कमलनयन हमारसिंह लोढ़ा का खानदान अजमेर भारतवर्ष की भोसवाल जाति में यह बहुत बड़ा घराना है। इस घराने का सरकार, देशी राज्यों तथा प्रजा में बहुत सम्मान है। इस घराने के पूर्वज सेठ भवानीसिंहजी अलवर राज्य में रहते थे । इनके पांच पुत्रों में से सेठ कमलनयनजी कुछ समय किशनगद राज्य में रहकर संवत् १८६० के पूर्व अजमेर में भाये और यहाँ पर "कमलनयन हमीरसिंह" के नाम से दुकोन खोली। आपने अपनी कार्य-कुशलता तथा सत्य-प्रियता से धन्धे को भली भांति बदाया। आप ने जयपुर और किशनगढ़ में “कमलनयन हमीरसिंह" के नाम से और जोधपुर में "दौलतराम सूरतराम" के नाम से दूकानें खोली। आरके पुत्र सेठ हमीरसिंहजी हुए । आपने फर्रुखाबाद, टोंक व सीतामऊ में दूकानें जारी की और जयपुर, जोधपुर के महाराजाओं से लेन-देन प्रारम्भ किया तथा इस घराने की प्रतिष्ठा बढ़ायी। इनके चार पुत्र हुए-सेठ करणमलजी, सेठ सुजानमलजी, रायबहादुर सेठ समीरमलजी और दीवानबहादुर सेठ उम्मेदमलजी । प्रथम पुत्र सेठ करणमलजी का
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प्रोसवाल जाति का इतिहास
बाल्यावस्था में ही स्वर्गवास हो गया। दूसरे पुत्र सेउ सुजानमलजी ने सन् १८५७ के विद्रोह के समय अंग्रेज़ सरकार को बहुत सहायता दी। इन्होंने रियासत शाहपुरा में रायबहादुर सेठ मूलचंदजी सोनी के साझे में दूकान खोली, और वहाँ के राज्य से लेन-देन किया। इनके समय साम्भर की हुकूमत इनके घराने में आई और वहाँ का कार्य आप अपने प्रतिनिधियों द्वारा करते रहे। इनके स्वर्गवास के पश्चात् इस घराने की बागडोर तीसरे पुत्र रायबहादुर सेठ समीरमलजी के हाथ में आई। अजमेर नगर की म्युनिसिपल कमेटी के आप बहुत वर्षों तक मेम्बर रहे और बहुत समय तक आनरेरी मजिस्ट्रेट भी रहे थे । भाप म्यु० कमेटी के ३१ बर्ष तक वाइस चेयरमैन बने रहे। इस पद पर और मजिस्ट्रेटी परये मृत्यु दिवस तक अरूद रहे थे । इनकी वाइस चेयरमैनी में अजमेर में सुप्रसिद्ध जल की सुविधाडलिये “फाईसागर" बना, जिससे आज सारे नगर और रेलवे को पानी पहुंचाया जाता है। इनके समय में इलकत्ता, बम्बई, कोटा, अलवर, टोंक, पड़ावा, सिरोंज, छबड़ा, और निम्बाहेड़ा में नयी दूकानें खुली। ये अलवर, कोटा और जोधपुर की रेजीडेन्सी के कोषाध्यक्ष नियत हुऐ। देवली और एरनपुरा की पल्टनों के भी कोषाध्यक्ष का कार्य इनको मिला। रायबहादुर सेठ समीरमलजी को सार्वजनिक कार्यों में प्रसन्नता होती थी। संवत् १९४८ के अकाल में अजमेर में आपने एक धान की दुकान खोली। इस दुकान से गरीब मनुष्यों को सस्ते भाव से उदर पूर्ति के हित अनाज मिलता था। इस दुकान का घाटा सब आपने दान किया। इनके समय में यह घराना भारतवर्ष भर में विख्यात हो गया तथा देशी रजवाड़ों से इन्होंने घनिष्ठ मित्रता स्थापित की । उदयपुर, जयपुर, जोधपुर से इनको सोना और ताजिम थी। बृटिश गवर्नमेंट में भी इनका मान बहुत बढ़ा। इनमें यह योग्यता थी कि जिन अफसरों से ये एकवार मिल लेते थे वे सदा इनको आदर की दृष्टि से देखते थे। इनके कार्यों से प्रसन्न होकर सरकार ने इनको सन् १८७७ में रायसाहब की पदवी और तत्पश्चात् सन् १८९० में रायबहादुर की पदवी दी। इनकी मृत्यु के पश्चात् सेठ हमीरसिंहजी के चौथे पुत्र दीवान बहादुर सेठ उम्मेदमलजी ने इस घराने के कार्य को संचालन किया। वे व्यापार में बड़े कार्य दक्ष थे। इनके Entreprise से इस घराने की सम्पत्ति बहुत बढ़ी। सरकार ने इनको सन् १९०१ में रायबहादुर की और सन् १९१५ में दीवान बहादुर की पदवी दी। ये भी मृत्यु दिवस तक अजमेर नगर के प्रसिद्ध आनरेरी मजिस्ट्रेट रहे थे। रियासतों से हनको भी सोना और ताजिम थी। इन्होंने उद्यमहीनों को उद्यम से लगाने के हेतु व्यावर में एडवर्ड मिल खोली, जिसमें बहुत अच्छा कपड़ा बनता है और जो इस समय भारतवर्ष की विख्यात मिलों में एक है। इन्होंने बी० बी० सी० आई० रेलवे के मीटर गेज भाग के धन कोर्षों का तथा कुल वेतन बाँटने का ठेका लिया और इसका काम भी उत्तमता से चलाया । सेठ उम्मेदमलजी के कोई संतान नहीं हुई । इनके नाम पर सेठ समीरमलजी के दूसरे पुत्र अभयमलजी गोद आये ।
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सेठ हमीरसिंहजी के चारों पुत्रों में से बड़े पुत्र करणमलजी तो अल्पायु में ही स्वर्गवासी हो चुके थे जैसा कि ऊपर वर्णन हो चुका है। शेष तीन भ्राताओं के पुत्र तथा पुत्रियां हुई। सेठ सुजानमलजी के दो पुत्र थे; सेठ राजमलजी तथा सेठ चन्दनमलजी। इन दोनों का स्वर्गवास दीवान बहादुर सेठ उम्मेदमलजी की मोजूदगी में ही हो गया। सेठ राजमलजी के एक पुत्र सेठ गुमानमलजी हुए । जो मृत्युपर्यन्त अजमेर म्युनिसिपल कमेटी के मेम्बर और एडवर्ड मिल ब्यावर के चैयरमेन रहे, ये जहाँ रहे वहाँ इन्होंने कई अच्छे-अच्छे कार्य किये। इनके पुत्र सेठ जीतमलजी थे। वे भी चन्द वर्ष तक मेम्बर म्युनिसिपल कमेटी रहे। परन्तु उनका अल्पायु में ही स्वर्गवास हो गया। सेठ चन्दामलजी के पुत्र कानमलजी तथा पौत्र पानमलजी हैं। सेठ हमीरसिंहजी के तीसरे पुत्र राव बहादुर सेठ समीरमलजी के चार पुत्र हुए; सेठ सिरहमलजी, सेठ अभयलालजी, सेठ विरधमलजी तथा सेठ गादमलजी। इनमें से सेठ सिरहमलजी आजीवन म्यूनिसिपल कमेटी के मेम्बर रहे परन्तु इनकी आयु बलवान नहीं हुई और यह २९ वर्ष की अवस्था में ही स्वर्गपासी होगये। जोधपुर राज्य ने इनको भी सोना तथा ताजीम प्रदान की थी। सेठ गादमलजी इस सुकी (Joint Hindu Family ) रीति के अनुसार इनके गोद है। रायबहादुर सेठ समीरमलजी के दूसरे पुत्र अभयमलजी भी मृत्यु तक ऑनरेरी मजिस्ट्रेट रहे थे। ये बड़े लोकप्रिय तथा कार्यदक्ष थे परन्तु खेद की बात है कि इनका अल्पायु में ही स्वर्गवास होगया। इनके पुत्र सेठ सोभागमलजी हैं।
इन दिनों में इस घराने का सब कार्य भार रायबहादुर सेठ विरधमलजी के हाथ में है जो राय बहादुर सेठ समीरमलजी के तीसरे पुत्र हैं। इनकी अध्यक्षता में इनके छोटे भ्राता सेठ गाढमलजी तथा भतीजे सेठ कानमलजी सब कार्य बड़े प्रेम और मनोयोग से करते हैं। सेठ गादमलजी कुछ समय तक म्यूनिसिपल कमेटी के मेम्बर रहे तथा इस समय एडवर्ड मिल ज्यावर के चेयरमैन हैं । इनके पांच पुत्र हैं, जिनमें से बड़े कुंवर उमरावमलजी तो दूकान के काम में सहायता देते हैं और शेष चार अभी बाल्यावस्था में हैं।
रायबहादुर सेठ विरधमलजी का जन्म संवत् . १९३९ में हुआ। आप अपने जेष्ठ भ्राता अभयमलजी की अल्पायु में ही मृत्यु हो जाने के पश्चात् अत्युत्तम रीति से सब काम चला रहे हैं। जनता तथा ब्रिटिश सरकार इनके काम में सदा सन्तुष्ट रहती है आप ऑनरेरी मजिस्ट्रेट भी हैं। सरकार ने सन् १९२१ में इनको रापबहादुर की पदवी से सुशोभित किया। आपने नये विक्टोरिया अस्पताल में एक्सरेज की कल कई हजार रुपया देकर मंगाई है जिसके द्वारा प्रत्येक मनुष्य के अन्दर के रोग का निदान होजाता है। आपकी दूकानें बम्बई, कलकत्ता आदि बीस स्थानों में हैं जहाँ ग्याज का धंधा व सोना
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पोसवाल जांति का इतिहास
चांदी, तांबा, पीतल, जस्ता, चीनी, कपड़े आदि का व्यापार सीधा बिलायत से होता है। रामकृष्योपुर ( कलकत्ता ) में आपका चावल का बड़ा भारी व्यापार होताहै । कई स्थानों पर पह फर्म स्टेट कर है।
. लोढ़ा हणुतचंदजी का परिवार, जोधपुर
रावरजा माधोसिंहजी के पूर्वज लोदा सुलतानमलजी से इस खानदान की शाखा भलग हुई। पुलतानमलजी की कुछ पुश्तों के बाद लोढ़ा रामचन्दजी हुए।
रामचन्दजी लोढ़ा-आप फलौदी के हाकम के पद पर नियुक्त किये गये थे। पर किसी कारणवश आप राज्य द्वारा कैद कर लिए गये। कैद से मुक्त होने पर आपने राज्य की नौकरी न करने का निश्चय किया। इसके बाद आप अजमेर की ओर आ गये । और अपनी कार्य कुशलता से अच्छा द्रव्य उपाजन कर लिया। आपकी पीसांगन की हवेलियाँ अब भी लोगों की हवेलियों के नाम से मशहूर हैं। कोदा रामचन्दजी के साहिबचन्दजी, शिवचन्दजी और शोभाचन्दजी नामक ती न पुत्र हुए। इनमें से प्रत्येक को अपने पिताजी की सम्पत्ति से लगभग तीन-तीन लाख रुपये मिले थे। पर इन्होंने इस द्रव्य को वर्षाद कर डाला और अपने पुत्रों के लिये कुछ नहीं छोड़ा । इससे लोदा शोभाचन्दजी के पुत्र रूपचन्दजी की भार्थिक दृष्टि से बड़ी शोचनीय स्थिति हो गई।
___ रूपचदजी लोढ़ा-आप बड़े साहसी थे । आप पीसांगन से अजमेर चले आये और सिपाहीगिरी की नौकरी करली। इसी समय आपने फारसी भाषा का भी अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। वहाँ से बाप जोधपुर आये, और ३०) मासिक पर ब्रिटिश रेजिमेण्ट में वकील हो गये। बढ़ते-बढ़ते आप १५०) मासिक तक पहुंच गये। इसी समय मारवाद के गोड़वाड़ प्रांत में मीणों ने विद्रोह मचा दिया। इस विद्रोह का दमन करने के लिये जोधपुर राज्य की ओर से रूपचन्दजी भेजे गये। इन्होंने इस कार्य में बड़ी सफलता प्राप्त की। इसके बाद आप नागोर के कोतवाल तथा सिवाने के हाकिम बनाये गये। सिवाने से आप सांचोर के हाकिम होकर गये । यहाँ से अवसर ग्रहण कर आप जोधपुर रहने लगे । जहाँ भाजीवन आपको १०) मासिक पेन्शन मिलती रही। सम्बत् १९५५ में आपका स्वर्गवास हुआ।
बभूतचन्दजी लोढ़ा-रूपचन्दजी के बड़े पुत्र बभूतचन्दजी सांचोर, शेरगढ़, फलोदी और साम्भर भादि अनेक स्थानों पर हाकिम रहे। फलोदी में आपने बड़ी बहादुरी से डाकुओं का उपद्रव शांत किया और उनके नेता को गिरफ्तार किया, इससे राज्य की ओर से भापको पुरस्कार मिला। ईस्वी सन् १९२० में भापका स्वर्गवास हुभा। आपके पुत्र लोदा किशनचन्दजी सेशन कोर्ट में सरिश्तेदार हैं।
हणवतचंदजी लोढ़ा-रूपचन्दजी के दूसरे पुत्र लोदा हणवन्तचन्दजी का जन्म सन्वत् १९९५
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लोढ़ा
हुआ । सम्वत् १९४६ में आप मैट्रिक पास हुए। बांद आपने ग्रास फार्म महकमा तथा कोठार में नौकरी की । सम्वत् १९५३ में आप स्टेट जवाहरखाने के मेम्बर हुए। सम्वत् १९५८ में आप नौकरी से रिटायर हुए । सन् १९११ में आप जोधपुर राज्य की ओर से किंग जॉर्ज प्रेजेंट शो में प्रतिनिधि होकर कलकत्ता गये थे । आपने बम्बई में व्यापार भी अच्छी सफलता के साथ किया था । आप जोधपुर के ओसवाल समाज के विशेष व्यक्तियों में से हैं । आप बड़े मिलनसार और योग्य सज्जन हैं। आपके भोपालचन्दजी और गणेशचन्दजी नामक दो पुत्र हैं। लोढ़ा भोपालचन्दजी का जन्म सम्वत् १९५५ में हुआ । आपने जोधपुर से एफ० ए० तथा बम्बई से बी कॉम की परीक्षा पास की। इसके बाद आप रेल्वे ऑडिट ऑफिस में इन्स्पेक्टर ऑफ अकाउण्टस् मुकर्रर हुए। और इस पद पर आप इस समय काम करते हैं । लोढ़ा भोपालचन्दजी बड़े योग्य और प्रतिभासम्पश्च सज्जन हैं, जोधपुर सरदार हाईस्कूल के बनवाने मैं आपने दिन-रात परिश्रम कर देख रेख रक्खी और बड़ी ही किफायतशारी से एक भव्य और सुन्दर इमारत बनवाने में शुम प्रयास किया। समाजहित के काव्यों में आप दिलचस्पी रखते हैं। आपके छोटे भाई गणेशचन्दजी विट ऑफिस में मौकरी करते हैं ।
लोढ़ा सावंतमलजी का खानदान, जोधपुर
इस खानदान के पूर्वजों का मूल निवास स्थान मेड़ता है। वहाँ से पहाड़ मलजी के पुत्र जसवंतमलजी जोधपुर आये, तब से यह परिवार जोधपुर में निवास करता है। जसवंतमलजी का स्वर्गवास संवत् १९४२ में हुआ । इनके कुन्दनमलजी, जीवनमलजी और पारसमलजी नामक तीन पुत्र हुए । कुन्दनमलजी जोधपुर रियासत की ओर से एजण्ट के यहाँ वकील थे । संवत् १९३६ में वकालत छोड़कर आय बोहरागत का काम करने लगे, तथा संवत् १९६५ में स्वर्गवासी हुए । जीवनमलजी भी कुन्दनमलजी के बाद एजण्ट के यहाँ वकील रहे । इनके छोटे भ्राता पारसमलजी फौजदारी कोर्ट में काम करते रहे । लोढ़ा कुन्दनमलजी के सावंतमलजी, चंदनमलजी और बुधमलजी नामक तीन पुत्र विद्यमान हैं । सावंतमलजी सन् १९०५ से जोधपुर स्टेट के पुलिस विभाग में सर्विस करते हैं और इस समय बाड़मेर में सर्कल इन्स्पेक्टर पोलिस हैं। आपके छोटे भ्राता चंदनमलजी कोर्ट ऑफ वार्डस के मैनेजर और बुधमलजी शेशन फोर्ट में पोतदार हैं। इसी तरह जीवनमलजी के पौत्र हरखमलजी इनवेटिंग ऑफिस में सर्विस करते हैं और पारसमलजी के पुत्र हिम्मतमलजी, डीडवाणा में वकालात करते हैं।
शाह लक्ष्मीमल प्रसन्नमल लोढ़ा, नागौर
यह परिवार मूल निवासी नागौर का ही है। इस परिवार में उजमलजी बड़े नामांकित तथा बहादुर प्रकृति के पुरुष हुए। आपकी संताने उजमलोत छोढ़ा कहलाई । आपके नामका छजमहल आज
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मालवाल जाति का इतिहास
भी नागौर में विद्यमान है। आपके पूर्वज सारंगशाहजी को देहली बादशाह ने शाह की पदवी इनायत की थी। सं० १०५६ में महाराजा अजीतसिंहजी ने आपको आधे महसूल की माफी का परवाना देकर सम्मानित किया। आपके सुजानसिंहजी, सबलसिंहजी, भावसिंहजी तथा भगवतसिंहजी नामक चार पुत्र हुए।
मावसिंहजी लोढ़ा-आप बड़े प्रभावशाली साहुकार थे। एक समय आपके नेतृत्व में नागौर के साहूकारोंने राज्य से अप्रश्न होकर नागौर छोड़ दी तब संवत् १७७४ में जोधपुर नरेश अजितसिंहजी ने आपके नाम पर दिलासा का पत्र भेज कर सब को पुनः वापस बुलाया था। नागौर वापस आने पर आपको जोधपुर दरबार में बैठने का कुरुब इनायत किया था। भापका बीकानेर स्टेट में भी अच्छा सम्मान था। आपके हठीमलजी, अभयमलजी तथा हिम्मतमलजी नामक तीन पुत्र हुए। आप सब भाइयों को जोधपुर दरबार की ओर से कई रुक्के परवाने, दुशाले तथा सिरोपाव बक्षे गये थे।
सेठ हठीसिंहजी के पुत्र हिन्दूमलजी को सं० १८३१ में जोधपुर दरबार की ओर से सिरोपाव इनायत किया गया। आपके परथीमलजी, गढ़मलजी, भारमलजी तथा फौजमलजी नामक चार पुत्र हुए। इनमें गढ़मलजी के गम्भीरमलजी, सिरेमलजी तथा मगनमलजी नामक तीन पुत्र हुए। आप लोगों ने संवत् १९६४ में जोधपुर के घेरे के समय महाराजा मानसिंहजी को अर्थिक मदद दी थी, जिससे प्रसन्न होकर मानसिंहजी ने आपको एक रुक्का इनायत किया था।
लोदा मगनमलजी के सौभागमरूजी, छगनमलजी, मनरूपमलजी, अनोपचन्दजी तथा बहादुर मलजी नामक पाँच पुत्र हुए। आप लोगों को भी जोधपुर स्टेट की ओर से दुशाले, सिरोपाव व खास रूक्के इनायत किये गये थे। इनमें से सेठ सौभागमलजी के जावन्तमलजी, मनरूपमलजी के मनोहरमलजी, कस्तूरचन्दजी तथा जीतमलजी और बहादुरमथली के जतरूपमळनी नामक पुत्र हुए। इनमें से कस्तूरमलजी अनोपचन्दजी के नाम पर, यरूपमलजी के ज्येष्ठ पुत्र सुपारसमलजी जावंतमलजी के नाम पर और जीतमलजी के पुत्र घासीलालजी ममोहरमलजी के यहाँ पर दत्तक गये। सेठ फूलमलजी जगरूपमलजी तथा घासीमलजी को जोधपुर स्टेट की ओर से दुशाले इनायत हुए। सेठ घासीमलजी ने १९५६ के अकाल में गरीबों तथा पर्दानशीन औरतों की बड़ी इम्दाद की थी। आपके इस समय लक्ष्मीमलजी, प्रसन्चमाजी तथा भवरलालजी नामक पुत्र विषयान हैं। इनमें से लक्ष्मीमलजी, कस्तूरमलजी के नाम पर तथा प्रसन्नमलजी,जीतमलजी के नाम पर दत्तक गये हैं।
वर्तमान में इस परिवार के मुल्य व्यक्ति सेठ लक्ष्मीमजी, प्रसजमलजी, भंवरमलजी, कुंदनमलजी (जसरूपमलजी के पुत्र) और गंगामलजी (सुपारसमलनी के पुत्र ) विद्यमान हैं।
इस समय सेठ लक्ष्मीमलजी के पुत्र चंचलमलजी, विनमलजी गुलाबमलजी, पलभसिंहजी,
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सखतमलजी और मोहनसिंहजी हैं। सेठ प्रसन्नमलजी के पुत्र प्रकाशमलजी, दिलखुशहालजी, गंगामलजो
और प्रेमसिंहजी हैं। प्रकाशमलजी ने बी० काम की परीक्षा पास की है। और गंगामलजी सुपारसमलजी के नाम पर दत्तक गये हैं। सेठ भंवरमलजी के पुत्र मनोहरमलजी व भीमसिंहजी तथा कुंदनमलजी के पुत्र उगममलजी व हणुतमलजी हैं।
' नागोर के ओसवाल समाज में यह परिवार अच्छी इज्जत रखता है। जब कभी जोधपुर दरबार नागोर आते हैं, सो अणवीधे मोतियों से तिलक करने का अधिकार लोदा (जमलोत ) परिवार को ही प्राप्त है।
सेठ मूलचन्द मिलापचन्द लोढा, नागोर ___ यह खानदान नागोर में ही निवास करता है। इस खानदान के पूर्वज शाह टोडरमलजी लोढ़ा की सातवीं पीढ़ी में सेठ मेहताबचन्दजी लोढ़ा हुए। इनके मूलचन्दजी और मिलापचन्दजी नामक वो पुत्र हुए। सेठ मूबचन्दजी लोढ़ा का जन्म संवत् १९२१ में हुमा । आप म्यापार के निमित्त संवत् १९४५ में बम्बई गये, और वहाँ के व्यापारिक समाज में आपने अच्छी इज्जत पाई। संवत् १९६५ में मागोर में भापका स्वर्गवास हुभा।
सेठ मूलचन्दजी के बाद फर्म का ब्यापार उनके छोटे भाई मिलापचन्दजी ने सझाला, आपका जन्म संवत् १९२५ में हुआ। आपने इस फर्म के व्यापार को बहुत उन्नति पर पहुँचाया और इसकी शाखाएं बम्बई के अलावा कलकत्ता, अहमदाबाद तथा सोलापुर में खोली। नागोर के ओसवाल समाज में आप अच्छी प्रतिष्ठा रखते हैं। तथा बम्बई वालों के नाम से बोले जाते हैं।
. सेठ मूलचन्दजी के पुत्र केवलचन्दजी होशियार व्यक्ति थे। संवत् १९८७ में इनका शरीरान्त हुभा । इनके बड़े पुत्र माधोसिंहजी स्वर्गवासी हो गये हैं और प्रसनचन्दजी सुमेरचन्दजी तथा हुकुमचन्दजी नामक ३ पुत्र विद्यमान हैं। प्रसन्नचन्दजी व्यापार में भाग लेते हैं और छोटे भ्राता कालेज में पढ़ते हैं।
सेठ मिलापचन्दजी के पुत्र कानचन्दजी नेमीचन्दजी और मंगलचन्दजी व्यापारिक कारवार सम्हालते हैं। कानचन्दजी के पुत्र सूरजचन्दजी और सरूपचन्दजी हैं। इसी तरह नेमीचन्दजी के पुत्र किशोरचन्द, मंगलचन्दजी के पुत्र भँवरचन्द और प्रसनचन्दजी के मनोहरचन्द और अमरचन्द है।
नगर सेठ कालुरामजी लोढ़ा का खानदान, शिवगंज इस परिवार के पूर्वज (टोडरमलोत ) लोदा रायचन्दजी के पौत्र लोदा कचरदासजी सं० १८५० में सोजत से पाली आये। यहाँ अझीम के धन्धे में इन्होंने अच्छी तरको पाई। इनके चौथमलजी और कालूरामबी नामक २ पुत्र हुए।
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प्रोसवाल जाति का इतिहास
. नगर सेठ कालूरामजी लोड़ा-आप पाली की पंचपंचायतो में प्रधान व्यक्ति थे। भापको जोधपुर महाराजा मानसिंहजी ने और तखतसिंहजी ने सिरोपाव इनायत कर सम्मानित किया था। संवत् १९११ में पाली पर टैक्स बढ़ाये जाने के कारण आप अपने साथ कई लखपतियों को लेकर सिरोही स्टेट में चले आये, और वहाँ के महाराव शिवसिंहजी के नाम से एरनपुरा के पास शिवगंज नामक बस्ती भावाद की। इसके उपलक्ष में सिरोही दरवार ने आपको "नगर सेठ" की पदवी प्रदान की। आपकी दुकानें उदयपुर, गुजरात और बम्बई में थीं। संवत् १९९६ में आपने ऋषभदेवजी का संघ निकाला । और इसी साल भादवा बदी • को भोजन में किसी दुश्मन द्वारा जार दिये जाने के कारण आप उदयपुर में स्वर्गवासी हुए। सन् १९१४ के गदर में आपने अंग्रेजों की बहुत मदद की थी। . सेठ जुहारमलजी लोढ़ा-आप सेठ कालूरामजी लोदा के पुत्र थे। उदयपुर दरबार ने आपको अपने राज्य में आधे महसूल माफ रहने का परवाना दिया था। आपको जोधपुर दरवार के हाकिम मनाकर शिवगंज से १ वार पाली ले गये । संवत् १९२४ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके माम पर सेठ चौथमलजी के प्रपौत्र बरदीचन्दजी दत्तक आये ।
सेठ चौथमलजी लोढ़ा-आपकी दुकान संवत् १९९७ में एरमपुरा कम्टून्मेंट की ट्रेजरर थे, पाली से पुनः शिवगंज आने पर सिरोही दरबार ने आपको २ कुए तथा कस्टम की आय से ५) सैकड़ा देने का हुक्म दिया। आपको दरवार और गवर्नमेंट में अच्छी इजत थी। संवत् १९६५ में आप स्वर्गवासी हुए। वर्तमान में आपके पुत्र सेठ तखतराजजी विद्यमान हैं।
से तखतराजजी का जन्म संवत् १९५० में हुभा। आपको शिवगंज की कस्टम की आय से ५) सैकड़ा मिलता है। यहाँ की जनता में आप लोकप्रिय तथा प्रतिष्ठित सज्जन है। आप स्थानीय गौशाला और बईमान विद्यपीठ के प्रेसिडेण्ट है। आपने परिश्रम करके शिवगंज में पैदा हुई पोसवाल समाज की तह को साल पहिले मिटाया है। आपके पुत्र प्रकाशराजजी और बलवन्तसिंहजी हैं।
इसी तरह इस परिवार में सेठ कालूरामजी के बड़े माता चौथमलजी के कुटुम्ब में सेठ घेवरचंदजी बुद्धीलालजी और बलवन्तसिंहजी हैं।
सेठ नवलमल हीराचन्द लोढ़ा, बगड़ी . इस परिवार का तीन चार सौ वर्ष पूर्व नागौर से बगढ़ी में आगमन हुआ। इस परिवार के पूर्वज सेठ दौलतरामजी और उनके पुत्र नवलमलजी ४०-५० साल पहिले ब्यापार के लिए बगढ़ी से कामठी गये और वहाँ आपने दुकान की। कामठी से आपने रायपुर में दुकान की । सेठ मळमजी संवत् १९५२
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ओसवाल जाति का इतिहास
नगरसेठ तखतराजजी लाढ़ा, शिवगंज,
सेठ केवलचन्दजी लोढ़ा, नागौर.
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स्व० सेठ आनन्दमलजी लोढ़ा (श्रानंदमल किशनमल) सुजानगढ़.
श्री. जसवंतसिंहजी लोढ़ा बी० काम बनेड़ा.
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बोका
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में स्वर्गवासी हुए । आपके हीराचन्दजी और जसराजजी नामक दो पुत्र हुए । इन बन्धुओं में सेठ हीराचंदजी कोदा संवत् १९५३ में स्वर्गवासी हुए । सेठ समनजी बोदा का कारबार बंगलोर में था, आपके पुत्र भानराजजी और पौत्र अबीरचंदजी का २ साल पूर्व छोटी वय में शरीन्ति हो गया। .. .
सेठ हीराचन्दजी लोदा के पुत्र सोभागमलजी और अमोलकचन्दजी विद्यमान है। भाप बन्धुओं का जन्म क्रमशः संवत् १९५० और १९५८ में हुआ बापने लगभग २० साल पूर्व मद्रास प्रान्त के मदुरान्तकम् नामक स्थान में बेकिंग व्यापार भारम्भ किया, और इस दुकान से भक्छी सम्पत्ति उपार्जित की। व्यापारिक कार्मों के अलाका आफ् बन्धु सार्वजनिक शिक्षा प्रचार के कामों में प्रशंसनीय भाग लेते रहते हैं। भाप जैन गुरुकुल ग्यावर के ट्रस्टी है और उसमें । हजार रुपया प्रतिवर्ष सहायता देते हैं।
___ सेठ अमोलकान्दजी गोवा स्था. जैन कान्फ्रेंस की जनरल कमेटी के मेम्बर और बगड़ी की श्री महावीर जैन पाठशाम के सेक्रेटरी है। इसी तरह के धार्मिक, व विद्योधति के कामों में आप सहयोग लेते रहते हैं। बगड़ी के ओसवाल समाज में आपका परिवार बड़े सम्मान की निगाहों से देखा जाता है।
सेठ सोममजी के पुत्र मिश्रीलालजी, धरमीचन्दजी तथा माणकचन्दजी है। मिमीलाजी मुचीक तथा समझदार युक्क हैं । तथा फर्म के व्यवसाय में भाग लेते हैं।
सेठ इन्द्रमलजी लोढ़ा का परिवार, सुजानगढ़ इस परिवार के पूर्वज सेठ बागमलजी लोढा अपने मूल निवास स्थान नागौर में व्यापार करते थे। इनके पुत्र सूरजमलजी तथा चाँदमलजी ने संवत् १९०० में सुजानगढ़ में सूरजमल इन्द्रमल के नाम से दुकान की। सेठ सूरजमलजी ने अपने नाम पर अपने भतीजे इन्द्रमलजी को दत्तक लिया। सेठ इन्द्रमलजी के जीवनमलजी, आनंदमलजी, दौलतमलजी और कानमलजी नामक ४ पुत्र हुए। इन माताओं ने संवत् १९५१ में कलकत्ते में आनंदमल कानमल के नाम से जूट का मापार शुरू किया । संवत् १९६० में एक कपड़े की ब्रांच कानमल किशनमल के नाम से और खोली गई । इन चारो भाइयों ने कठिन परिश्रम कर भपने म्यवसाय को उन्नति पर पहुंचाया। संवत् १९७५ में आप लोगों का कारवार अलग २ हुआ।
सेठ जीवनमलजी-आप सुजानगढ़ में ही कारवार करते रहे इनके पुत्र गणेशमलजी ने अपने नाम पर मरमलजी को दत्तक लिया। झूमरमलजी के पुत्र जीतमलजी इस समय सुजानगढ़ में
. . सेठ मानन्दमलजी-आपने पीरगाछा (बंगाल) और रंगपूर में अपनी प्रांच आनन्दमल किशन• मल के नाम से खोली। इस पर जूट का ब्यापार बारम्भ किया। भापके हाथों से व्यवसाय को उन्नति
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भोसवाल जाति का इतिहास प्राप्त हुई। सुजानगढ़ की पंचपंचायती में व राज में आपका अच्छा सम्मान था । आपका संवत् १९८२ में स्वर्गवास हुआ। आपके पुत्र छगनमलजी, किशनमलजी एवं मानकमलजी इस समय तमाम व्यापार को सम्हालते हैं। सेठ छगनमलजी के पुत्र भंवरमलजी और कुन्दनमलजी व्यापार में भाग लेते हैं तथा नय. रतनमलजी, जसवंतमलजी और अमृतमलजी पढ़ते हैं। इसी तरह किशनमलजी के मानमलजी, रणजीत. मलजी तथा प्रसन्नमलजी और माणकमलजी के पुत्र मनोहरमलजी हैं। इनमें मानमलजी कारबार में भाग लेते हैं। भंवरमलजी के पुत्र सम्पतलाल और मानमलनी के पुत्र चंचलमल हैं।
. सेठ दौलतमलजी-आपके यहाँ जूट और कपड़े का व्यापार होता है। आप संवत् १९८२ में स्वर्गवासी हुए । आपके पुत्र सेठ जवरीमलजी, मोहनमलजी, मोतीमलजी एवं सोहनमब्जी है आप सब सज्जन व्यापार में सहयोग लेते हैं। जवरीमलजी के पुत्र अमरमलजी, भंवरमलजी, सुपार्श्वमलजी एवं हाथीमलजी हैं। मोहनमलजी के पुत्र अंगारमलजी, मोतीमलजी के रेवतीमलजी और सोहनमलजी के पुत्र उम्मेदमलजी हैं। .... सेठ कानमलजी-आपका व्यापार केसरीमल समरमल के नाम से कलकत्ते में था, लेकिन सम्वत् १९७४ में आपके स्वर्गवासी होने के समय आपके पुत्र छोटे थे, अतः वहाँ से व्यापार उठा दिया गया। इस समय आपके पुत्र भोपालमलजी, केसरीमलजी और बहादुरमलजी सुजानगढ़ में रहते हैं।
इस परिवार की ओर से सुजानगढ़ स्टेशन पर एक सुन्दर धर्मशाला बनी हुई है तथा श्मशान भूमि में चारों भाइयों की स्मृति में । छत्री और मकान बना है।
श्री नैनसुख रामचन्द्र ओसवाल (लोढ़ा ) भुसावल . इस परिवार के पूर्वव सेठ दौलतरामजी लोदा, घोडनदी (पूना में गल्ले का व्यापार करते थे। इनके पुत्र रामचन्दजी का जन्म संवत् १९२२ में हुआ। आप भी गल्ले की भादत का व्यापार और आवकारी तथा सिविल कंट्राक्टिंग का कार्य करते रहे। बहुत पहिले आपने मेट्रिक का इम्तहान पास किया । संवत् १९७० से आप गमचन्द्र दौलतराम के नाम से पूना में व्यापार करते हैं। आपके चुनीलालजी, हंसराजजी और नैनसुखजी नामक ३ पुत्र हैं।
___श्री चुन्नीलालजी लोदा २२ सालों तक बम्बई प्रेसीडेण्सी में सब रजिष्ट्रार रहे। इधर सालों से रिटायर्ड हो कर पूना में रहते हैं। आपके छोटे भाई हंसराजजो ने २॥ सालों तक फ्रांस और मेसोपोटामियों में मिलटरी अकाउन्ट डि० में सर्विस की । वहाँ से आप पूना आये और इस समय अपने पिताजी के साथ व्यापार में सहयोग लेते हैं। इनसे छोटे भाई मैनसुखजी ओपवाल ने सन् १९२९ में एस० एल०बी०
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खोला
की डिगरी हासिल की और उसके दो साल बाद से आप भुसावल में प्रेक्टिस करते हैं। आप शुद्ध खहर धारण करते हैं तथा भुसावल के प्रतिष्ठित वकील हैं।
श्री नन्दूबाई असवाल-आप श्री नैनसुखजी ओसवाल की धर्मपत्नी एवं सेठ धौंडीरामजी खींवसरा की कन्या रत्न हैं। ओसवाल समाज की इनीगिनी शिक्षित रमणियों में आपका नाम अग्रगण्य है। वैसे तो आपका शिक्षण मराठी चौथी कक्षा तक ही हुभा है, पर आपके पिताजी की स्त्री-शिक्षा की ओर विशेष अभिरुचि होने से आपने पठन पाठन द्वारा अपने अध्ययन को अच्छा बढ़ाया है। आप महाराष्ट्र प्रान्तीय जैन स्त्री परिषद् के मालेगाँव अधिवेशन की समानेत्री थीं । मापने ओसवाल नवयुवक के मारवाड़ी महिलांक का सम्पादन किया था। माप शुद्ध खइर धारण करती हैं तथा परदा के समान जघन्य प्रथा की विरोधी हैं। आपके धार्मिक क्या सामाजिक सुधार विषयक लेख हिन्दी और मराठी के पत्रों में प्रकाशित होते रहते हैं।
सेठ भालमचंद शोभाचंद लोढ़ा, हिंगनघाट इस खानदान के पूर्वजों का मूल निवास स्थान नागोर (मारवाद) का है। सब से प्रथम इस बानदान के पूर्व पुरुष सेठ आलमचन्दजी ने ८० वर्ष पूर्व हिंगनघाट में आकर अपनी फर्म स्थापित की थी । आपके पुत्र शोभाचन्दजी के हाथों से इस फर्म की उन्नति हुई। इनके जेठमलजी तथा हरकचन्दजी नामक दो पुत्र हुए। इनमें से सेठ जेठमलजी का सं १९८५ में स्वर्गवास हो गया है। आप घड़े धार्मिक पुरुष थे। स्थानकवासी रत्न चिंतामणि सभा के आप संचालक थे। आपके रिखबदासजी नामक एक पुत्र हैं।
इस समय इस फर्म के संचालक सेठ हरकचन्दजी तथा रखबदासजी हैं। आपकी फ़र्म पर सराफी का व्यापार होता है। आप लोगों ने हिंगनघाट के स्थानक में ३०००) तथा पाथरड़ी जैन पाठशाला में ५००) की सहायता प्रदान की है। इसी प्रकार और भी सार्वजनिक कार्यों में देते रहते हैं ।
सेठ चुन्नीलाल लूणकरण लोढ़ा चांदा इस परिवार का निवास तीवंरी ( जोधपुर स्टेट ) है । आप मन्दिर मार्गीय आम्नाय के मानने पाले सज्जन हैं। चाँदा में सेठ लूणकरणजी लोढ़ा ने लगभग ५० साल पहिले इस दुकान का स्थापन किया, आप बात के बड़े पक्के पुरुष थे और यहां के व्यापारिक समाज में अच्छी इज्जत रखते थे। आपका शरीरान्त ता० २० मार्च सन् १९३३ को हुआ। आपके पुत्र लोदा सौभागमलजी तथा मोतीलालजी फर्म के व्यापार को भली प्रकार संचालित कर रहे हैं। सौभागमलजी का जन्म संवत् १९५९ में हुआ।
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भोसवान जाति का इतिहास
आपके यहाँ चांदा में पुत्रीलाल लूणकरण के नाम से आवृत, रूई तथा सूती कपड़े का म्यापार होता है तथा वणी, आसिफाबाद (मुगलाई) और कुत्रा पेंड ( निजाम ) में सौभागमल मोतीलाल के नामसे कपड़ा चाँदी सोना और किराने का काम काज होता है। यह फर्म यहाँ के व्यापारिक समाज में उत्तम प्रतिष्ठा रखती है।
सेठ मोतीलाल रतनचंद, लोढा, मनमाड ... इस परिवार के पूर्वज लोदा छजमलजी लगभग १००।१२५ वर्ष पूर्व अपने मूल निवास स्थान बड़ी पाद (जोधपुर स्टेट) से व्यापार के निमित्त मनमाड आये। तथा छजमल सखाराम के नाम से दुकान स्थापित की। आपके मगनीरामजी, हीराचन्दजी, भीवराजजी तथा सखारामजी नामक १ पुत्र हुए। इन बंधुओं का व्यापार लगभग संवत् १९२० में अलग अलग हुआ।
सेठ सखारामजी लोदा ने इस दुकान के व्यापार को बहुत तरक्की दी। आप आस पास के ओसवाल समाज में नामांकित व्यक्ति थे। संवत् १९४७ में सेठ नेनसुखदासजी नीमाणी के प्रयास से जो नाशिक में "भोसवाल हितकारिणी सभा" भरी थी, उसमें आप एक दिन के सभापति बनाये गये थे। भापकी दुकान मनमाड के ओसवाल समाज में नामांकित दुकान थी। संवत् १९५० में भाप स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र रतनचंदजी संवत् १९६० में स्वर्गवासी हुए। इस समय इनके पुत्र मोतीरामजी विद्यमान है। लोढ़ा मोतीरामजी का जन्म संवत् १९५५ में हुभा। आप भी मनमाड में अच्छी प्रतिष्ठा रखते हैं तथा जातीय सुधार के कामों में भाग लेते रहते हैं। आपके यहां आसामी लेखदेन का काम होता है।
इसी तरह इस परिवार में इस समय मगनीरामजी के पौत्र (मुलतानमलबी के पुत्र ) धनराज जी और हीराचन्मजी के पौत्र (बनेचन्दजी के पुत्र) फूलचन्दजी किराने का व्यापार करते हैं।
सेठ मुलतानमल अमोल कचन्द लोढ़ा, कातर्णी ( येवला)
इस परिवार का मूल निवास बढ़ी पादू ( जोधपुर स्टेट ) है। देश से सेठ रामसुखजी और भमोलकचन्दजी दोनों भ्राता लगभग ९० साल पूर्व नासिक जिले के कातर्णी नामक स्थान में भाये। पीछे से सम्वत् १९३५ में इनके तीसरे भ्राता भमोलकचन्दजी भी कातर्णी आ गये। सेठ अमोलकचन्दजी के चांदमलजी, मुलतानमलजी, हीराचन्दजी तथा रतनचन्दजी नामक चार पुत्र हुए। इनमें चांदमलजी और रतनचन्दजी विद्यमान हैं। सेठ चांदमलजी रामसुखजी के नाम पर दत्तक गये हैं। भापका कारवार सम्बत् १९.८ में अलग हुआ।
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खोढ़ा सेठ सनचन्दजी का जन्म संवत् १९४० में हुआ। आपके बड़े भ्राता मुलतानमलजी ने इस दुकान के व्यापार और सम्मान को विशेष बढ़ाया। माप आस पास की ओसवाल समाज में सम्माननीय यक्ति थे। आप संवत् १९८७ में स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र मोतीलालजी और गणेशमलजी हैं। हीराचन्दजी के नाम पर ताराचन्दजी दत्तक लिये गये हैं। सेठ रतनचन्दजी भास पास की भोसवाल समाज में अच्छी इज्जत रखते हैं। आपके यहाँ मुलतानचन्द अमोलकचन्द के नाम से लेन देन और कृषि कार्य होता है। आप तेरापंथी आनाय के मानने वाले सज्जन हैं। आपके पुत्र दीपचन्दजी, मोहनलालजी और
सुखलालजी हैं।
इसी तरह चांदमलजी के यहाँ चांदमल रामसुख के नाम से व्यापार होता है। आपके पुत्र देवीचन्दजी, लक्ष्मीचन्दजी, किशनदासजी, चम्पालालजी तथा दुलीचन्दजी हैं।
सेठ जेठमल जोगराज लोढा, त्रिचनापल्ली इस परिवार का मूल निवास फलोदी (जोधपुर स्टेट ) में है। आप मन्दिर मार्गीय भानाय के मानने वाले सजन है। इस परिवार के पूर्वज सेठ अखेचन्दजी के पुत्र प्रेमराजजी थे। इनके मोतीलालजी और देवीचन्दजी नामक दो पुत्र हुए। सेठ देवीचन्दजी लोदा फलोदी में रहते थे। वहीं से कलकत्ते के साथ अफीम की पेटियों के वायदे का धंधा करते थे। संवत् १९६४ में आपका स्वर्गवास हुआ । आपके जेठमलजी, भगरचंदजी और जोगराजजी नामक तीन पुत्र हुए। जेठमलजी का संवत् १९५४ में स्वर्गवास हुआ। भापकी धर्मपत्नी ने दीक्षा ग्रहण की।
देश से व्यापार के लिये सेठ जोगराजजा लोदा सम्बत् १९८० में त्रिचनापल्ली आये और आपने अगरचन्द साहूकार के नाम से गिरवी का व्यापार भारम्भ किया। आप बड़े मिलनसार और सरल स्वभाव के सजन हैं। आपकी बड़ी बहन श्री सोनीबाई ने सम्वत् १९५५ में मुनि सुखसागरजी महाराज के समुदाय में दीक्षा ग्रहण की । इनका नाम सौभाग्यश्रीजी था। सम्बत् १९७५ में इनका स्वर्गवास हो गया।
सम्वत् १९८३ में सेठ अगरचन्दजी का स्वर्गवास हो गया । अतः जोगराजजी ने उनका भाग निकालकर अपने नाम से धन्धा चालू किया। जेठमलजी के कोई सन्तान नहीं थी, अतएव उनके उत्तराधिकारी आप ही हुए । आप इस समय त्रिचनापल्ली पांजरापोल के प्रेसिडेण्ट हैं। सेठ अगरचन्दजी के पुत्र उम्मेदमलजी और बालचन्दजी फलोदी में पढ़ते हैं। आपके यहाँ फलोदी में हुंडी चिट्ठी का काम होता है। '. राय साहब लाला टेकचंदजी का खानदान, जंडियाला गुरु
इस खानदान के लोग श्री जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी भाम्नाय के हैं। आप लोग मूल निवासी अजमेर के हैं। वहाँ से भाप लोग पंजाब के कसेल नामक गांव में भाकर बस गये। वहाँ पर इस
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मोसवाल जाति का इतिहास
खानदान की बहुतसी जमीन जायदाद थी और अब भी इस खानदान के पूर्वजों की "बाबा बैरागी" नाम: समाधी बनी हुई है, जहाँ पर माज इस खानदान के बालकों का मुण्डन संस्कार होता है। इस खानदान का कसेल में भावड्यानी नामक विशाल मकान बना हुआ है।
कसेल से करीब १५० वर्ष पहले इस खानदान के पूर्वज लाला नन्हूमलजी जण्डियालागुरु में आकर बसे और तभी से आपका परिवार यहीं पर निवास कर रहा है। यहाँ के गुरुओं ने आदर सहित आपको अपना साहकार बनाया और बहुत सी जमीन व जायदाद प्रदान की।
लाला नन्हूमलजी के लाला देवीसहायजी नामक एक पुत्र हुए। लाला देवीसहायजी के लाला भवानीदासजी, गुलाबरायजी तथा महताबरायजी नामक तीन पुत्र हुए। इनमें से यह परिवार लाला गुलाबरायजी का है। आप बड़े धार्मिक और शांतिप्रिय सजन थे। आपके लाला परमानन्दजी नामक पुत्र हुए। आप बड़े धार्मिक सज्जन थे। आपके समय में इस खानदान के सब भाई अलग अलग हो गये। अतः आपको सब कारबार अकेले ही करना पड़ता था। आपका संवत् १९३५ में स्वर्गवास हो गया है। आपके लाला मेहरचन्दजी नामक पुत्र हुए।
लाला मेहरचन्दजी का जन्म संवत् १९०७ में हुआ। आप भी धर्मध्यानी व साधु संतों की सेवा में लगे रहते थे। आपका संवत् १९८५ में स्वर्गवास हुआ। आपके दौगरमलजी, राय साहब काला टेकचन्दजी, मेतरामजी एवं नन्दलालजी नामक चार पुत्र हुए। ..
___ लाला दौगरमलजी का जन्म संवत् १९३० में हुआ। आपने अल्पायु से ही व्यापार में हाथ डाल दिया था। आप बड़े व्यापार कुशल और मशहर व्यक्ति थे। आपका स्वर्गवास संवत १९७९ में घोदे से गिरने के कारण हो गया। आपके छः पुत्र हैं जिनके नाम मुलखराजजी, हंसराजजी, देशराजजी, बंसीलालजी, रोशनलालजी और माणकचन्दजी है।
राव साहब लाला ठेकचन्दजी का जन्म संवत् १९३८ में हुआ। आप इस खानदान में बड़े नामी और प्रसिद्ध व्यक्ति हैं । आपकी समाज सेवा सारे पंजाब में प्रसिद्ध है। आपने २१ फरवरी सन् १९०९ में पंजाब की सुप्रसिद्ध स्थानकवासी जैन सभा को स्थापना की और आप ही उसके जनरल सेक्रेटरी हुए। इसका प्रथम अधिवेशन भी जण्डियाले में हुआ। उसी साल जण्डियाले में एक गौशाला की स्थापना हुई, जिसके प्रधान आप ही बनाये गये और करीब २४ वर्ष तक यह संस्था आपके नेतृत्व में चलती रही। सन् १९१० में आप जण्डियाले को म्युनिसीपालिटी के कमिश्नर चुने गये और अभी तक उसी स्थान पर कायम हैं। सन् १९१० में मेम्बर होने के कुछ ही दिनों पश्चात् आप म्यु० पै० के व्हाइस प्रेसिडेण्ट चुने गये। उसके बाद बहुत समय तक भाप उसके ऑनरेरी सेक्रेटरी और सन् १९२१ से
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लोढ़ा
१९३१ तक उसके प्रेसिडेण्ट भी रहे। इसके अतिरिक्त आप अमृतसर डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के पहले भी तीन साल तक मेम्बर रहे और अब भी मेम्बर हैं। आप बड़े उत्साही और सार्वजनिक कार्यों में बड़ी दिलचस्पी से भाग लेने वाले सज्जन हैं । स्थानीय म्युनिसिपालिटी में आपकी सेवाएँ बड़ी बहुमूल्य समझी गई । यहाँ तक कि हिज एक्सलेंसी गवर्नर सर जाफरे डि० माउण्ट मौरोसी ने सन् १९२९ में जण्डियाले में दरबार करके अपने भाषण में पंजाब को म्युनिसीपालिटियों को राय साहब टेकचन्दजी की सेवाओं का अनुकरण करने की सलाह दी थी। इसी सम्बन्ध में आपको दो तीन खिलअतें भी प्राप्त हुई । सन् १९२७ में गवर्नमेंट ने आपको " राय साहिब" की उपाधि से विभूषित किया ।
सन् १९२९ तक आप पंजाब सभा के जनरल सेक्रेटरी रहे और उसके बाद आप उसके सभापति हो गये, जो अब तक हैं। इसके अलावा आप अखिल भारतवर्षीय जैन स्थानकवासी सम्मेलन के प्रांतिक सेक्रेटरी एवं उसकी स्टैंडिंग कमेटी में पंजाब प्रांत की ओर से प्रतिनिधि हैं । आप ही ने पंजाब के स्थानक बासियों के झगड़ों को निपटाने में मुख्य भाग लिया था । साधु-सम्मेलन अजमेर की कार्य्यवाही में भी आपका प्रमुख भाग था । आप बड़े समाज सुधारक और साहसी व्यक्ति हैं। अपने अनेक विरोधों का सामना करते हुए भी पंजाब प्रान्त में दस्सा और बीसा फिरकों में बेटी व्यवहार चालू होने का रास्ता खुला किया । सारे पंजाब के जैन समाज में आप प्रतिष्ठित व्यक्ति माने जाते हैं। आपके इस समय लाला जगन्नाथजी और लाला अमृतलालजी नामक २ पुत्र हैं। लाला अमृतलालजी ने बी० ए० एल० एल० बी० की सनद हासिल की है। बी० ए० में आपका ब्रिलियंट केरेक्टर रहा । आप लाहौर के अमर जैन होस्टल में असिस्टेंट सुपरिटेण्डेण्ट और महावीर जैन एसोशिएसन के वाइस प्रेसिडेण्ट रहे । इसी तरह के सार्वजनिक कामों में आप हिस्सा लेते रहते हैं । आपके पुत्र नरेन्द्रकुमार तथा जेनेन्द्रकुमार हैं । लाला अमृतलालजी के छोटे भ्राता जगन्नाथजी अपनी फर्म का चाँदी सोने का व्यापार सम्हालते हैं। लाला नेतरामजी का जन्म १९४५ में हुआ । आप योग्य पुरुष और डिस्ट्रिक्ट दरबारी हैं । आपके बड़े पुत्र लाला मदनलालजी बड़े उत्साही व्यक्ति हैं । तथा तमाम दुकानों का काम बड़ी होशियारी से चलाते हैं । इनके भाई मूलचन्दजी तथा प्रकाशचन्दजी भी व्यापार में भाग लेते हैं । लाला नन्दलालजी का जन्म सं० १९५२ में हुआ। आप जंडिबाला जैन मित्र मंडल के सेक्रेटरी, गौशाला और मर्चेण्ट एसोशियेसन के वाइस प्रेसिडेण्ट हैं । आप चाँदी सोने का व्यापार करते हैं । इनके कपूरचन्दजी सरदारीलालजी और सत्यकुमारजी नामक ३ पुत्र हैं। लाला कपूरचन्दजी ने वीविंग इस्टीव्यूट अमृतसर से डिप्लोका प्राप्त किया है। आपको वीविंग सम्बन्ध में लण्डन से २ सार्टिफिकेट मिले हैं । इस समय इस परिवार की जण्डियाले में ५ दुकानें हैं, जिन पर कपड़ा चाँदी सोना मनी लैंडिंग
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मोसबाल माति का इतिहास
बर्तन आदि का व्यापार होता है। यहाँ माप लोगों का जैन वीविंग वर्कस नामक कारखाना है। जिसमें सिल्की कपड़ा तैयार होता है। गर्मियों में आपकी प्राँच मसूरी में भी रहती है। साधु मुनिराजों की सेवा सरकार में यह परिवार काफी सहयोग लेता है।
लाला नराताराम हंसराज लोढ़ा. रायकोट (पंजाब) ... यह परिवार कई पुश्तों से रायकोट में निवास करता है। इस खानदान के बुजुर्ग लालाखुशीरामजी साहूकारे का काम करते थे। संवत् १९६० में इनका स्वर्गवास हुआ। आपके पुत्र लाला काशीरामजी ने अपनी तिजारत और इज्जत को काफी बढ़ाया। आप २० सालों तक रायकोट म्युनिसिपैलेटी के मेम्बर रहे। सं० १९७९ में १२ साल की उमर में आप सर्गवासी हुए। आपके तुलसीरामजी, नरातारामजी, पूरनमलजी और किशोरीलालजी नामक , पुत्र विद्यमान हैं। पांचवें पुत्र सोहनलालजी स्वर्गवासी हो गये हैं। संवत् १९६५ में इन सब भाइयों का कारवार अलग २ हुआ।
लाला मरातारामजी के यहाँ नराताराम सराव के नाम से बैटिग व साहकारी व्यापार होता है। भाप रायकोट की जैन बिरादरी के चौधरी हैं और वहाँ के व्यापारिक समाज में अच्छी इज्जत रखते हैं। आपने जैम गुरुकुल पंचकूला में एक कमरा बनवाया है और भाप उसकी मैनेजिंग कमेटी के मैम्बर हैं। भाप गुरुकुल के कामों में इमदाद पहुँचाते रहते हैं। आपके छोटे भ्राता पूरनचन्दजी, रायकोट म्युनिसिपेलिटी के वाइस प्रेसिडेण्ट हैं। आला मरातारामजी के पुत्र हंसराजजी और चिरंजीलालजी हैं । हंसराजजी उत्साही युवक हैं, इनके हेमचन्दजी, चिमनलालजी और बलवन्तरायजी नामक ३ पुत्र हैं।
. लाला तुलसीरामजी के यहाँ तुलसीराम सुखीलाल के नाम से कारबार होता है। इनके पुत्र पुत्रीलालजी, मुन्नीलालजी, अमरनाथजी और शांतिनावजी तथा परनचन्दजी के पुत्र रामलालजी, वचनलालजी और किशोरीलालजी के टेकचन्दजी हैं।
लाला चदनमल रतनचंद का खानदान अम्बाला .. इस खानदान के पूर्वज पहले सुनाम (पटियाला ) में रहते थे। वहाँ से भाप लोग अम्बाला में आये और सभी से वहाँ पर निवास कर रहे हैं। आप लोग श्री जैन श्वेताम्बर मन्दिर मार्गीय है । इस खानदान में ला• गुलाबरायजी हुए। इनके पुत्र जमनादासजी के पुत्रौमलजी, कमैयालालजी, चढ़तीमलजी तथा गौनमलजी नामक चार पुत्र हुए। इनमें से यह खानदान काला कन्हैयालालजी का है।
काला कमैयालालजी के बसंतामलजी नामक एक पुत्र हुए। भापकी स्मृति में जैन मन्दिर
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लोका के पास एक धर्मशाला बनवाई गई तथा आपकी धर्मपत्नी की स्मृति में भारमानंद जैन कन्या पाठशाला क एक मकान दिया गया । आपके उत्तमचंदजी, चंदनमलजी तथा रतनचंदजी नामक तीन पुत्र हुए। लाला उत्तमचंदजी और चंदनमलजी योग्य तथा धार्मिक व्यक्ति है।
लाला रतनचंदजी बड़े समझदार सज्जन है। इस समय भाप श्री आरमानंद जैन हॉईस्कूल कमेटी के प्रेसिडेंट, कन्या पाठशाला के प्रेसिडेंट, आत्मानंद जैन महासभा के कोषाध्यक्ष, हस्तिनापुर तीर्थ कमेटी के कोषाध्यक्ष तथा अम्बाला प्रिजनर्स सोसायटी के डायरेक्टर हैं । राज्य में भी आपका काफी सम्मान है। आप यहाँ के डिस्ट्रिक्ट दरबारी हैं। भाप प्रायः सभी धार्मिक संस्थाओं में दान देते रहते हैं। आपके यहाँ चांदी, सोना व कमीशन एजेन्सी का काम होता है। यहाँ पर आपकी काफी जायदाद है।
राजसिंहजी लोढा का परिवार, बनेड़ा इस परिवार का मूल निवास स्थान मांडलगढ़ है। वहाँ यह परिवार बड़ा सम्माननीय समझा जाता है। मांडलाद से राजसिंहजी लोदा बनेडा आये। यहाँ के अधिपति ने भापको रेवेन्यू डिपार्टमेण्ट की व्यवस्था का कार्य सौंपा। आपके पुत्र उम्मेदसिंहजी भी बनेड़ा में सर्विस करते रहे। उदयपुर महाराणा की भोर से इस परिवार को नगर सेठ" की पदवी प्राप्त है तथा यह कुटुम्ब बनेड़ा की जनता और वहाँ की मोसबाट अति में भादरणीय माना जाता है।
उम्मेदसिंहजी कोदा के पुत्र जसवन्तसिंहजी लोदा की आयु इस समय २३ साल की है। मापने उदयपुर हॉई स्कूल से मेट्रिक, सनातन धर्म कॉलेज कानपुर से कामर्स की इन्टरमीजिएट और कलकत्ता यूनिवर्सिटी से बी कॉम की परीक्षाएं पास की। इस वर्ष भाप आगरा यूनिवर्सिटी के प्रीवियस एल. एल. बी
और बम्बई के जी० डी० ए० इम्तहान में बैठे हैं। आपने अपने पैरों पर खड़े रह कर उच्च शिक्षा प्राप्त की है। इस समय आप भण्डारी विद्यालय इन्दौर में कामर्स के अध्यापक हैं।
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ड्डा गौत्र की उत्पत्ति
दसवीं शताब्दी में सोलंकी वंश में सिद्धराज जयसिंह नामक एक नामी व्यक्ति हुए, जिन्होंने पालनपुर से १९ मील की दूरी पर गुजरात में सिद्धपुरपाटन नामक नगर बसाया था। इनके पुत्र कुमार पाल ने सन १६० में जैन धर्म अंगीकार किया। इसके अनंतर इनके पौत्र राजा नरवाण ने पुत्र प्राप्ति की इच्छा से श्री भट्टारक धनेश्वरसूरिजी की खूब आवभगत की तथा अपनी मनोकामना पूर्ण होने पर जैन धर्म स्वीकार करने का वचन दिया। श्री धनेश्वरसूरिजी महाराज ने अम्बादेवी का स्मरण किया और इन्हें आशीर्वाद देकर आश्वासन दिया । ठीक समय में इनके एक पुत्र उत्पन्न हुआ और इन्होंने भी जैन धर्म की दीक्षा ली। तभी से इनकी कुलदेवी अम्बादेवी हुई जो आज तक इस खानदान में मानी जाती हैं । उस समय राजा नरवाण तथा इनके वंशज "श्रीपति" इस गौत्र से पुकारे जाते थे ।
इनके बाद तेलपादजी नामक एक राजा हुए, जिन्होंने सोलह गांवों में भगवान महावीर तथा भगवान ऋषभदेव के मन्दिर बनवाये । ऐसा कहा जाता है कि एक समय जब ये मंदिर तयार करवाने जा रहे थे, इन्होंने इनकी नीमों में तेल और घी के सैकड़ोंडब्बे कुदवाये जिससे इस खानदान का गौत्र “तिलेरा" प्रसिद्ध हुआ। इनकी २९वीं पीढ़ी में सारंगदासजी हुए, जिन्होंने जैसलमेर छोड़कर जोधपुर से .. मील उत्तर की ओर बसे हुए फलौदी को अपना निवासस्थान बनाया । ये बड़े बहादुर और साहसी थे। इन्होंने भारत के कई स्थानों में व्यापार के लिए यात्रा की तया इसी सिलसिले में सिंध की ओर भी गये । यहाँ पर सिंघ के अमीर ने इनकी कार्य कुशलता तथा बहादुरी से प्रसन्न होकर इनका बहुत सन्मान किया। इनका शरीर बहुत गठीला और मजबूत था। इनकी इस लोहे के समान शरीर की मजबूती को देखकर सिंध के अमीर ने इन्हें “ढद" * इस नाम से पुकारा था। इस शब्द का सिंधी भाषा में बहादुर यह अर्थ निकलता है। धीरे २ "ढद” यह शब्द अपभ्रंश होते २ डहा इस रूप में परिणत हो गया और इस वंश वाले इसी नाम से पुकारे जाने लगे। कालांतर से यह नाम गौत्र के रूप में परिणत हो गया । सारंगदासजी ने श्री भागचन्दजी महाराज के उपदेश से संवत् 100 में लँकागच्छ अंगीकार किया था कि जिसे इस वंश वाले आज तक मानते चले आ रहे हैं।
• "ढद" यह शम दृढ़ इस शब्द का अपभ्रंश रूप प्रतोत होता है।
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डड्ढा
इन्हीं सारंगदासजी के रघुनाथदासजी और नेतसीजी नामक दो पुत्र हुए। रघुनाथदासजी के परिवार वालों ने फलौदी को ही अपना निवासस्थान कायम रक्खा । नेतसीजी के परिवार वाले कुछ बीकानेर, कुछ जयपुर, कुछ जोधपुर और कुछ अजमेर चले गये । तथा कुछ फलौदी ही में रहकर व्यापार करने लगे । कहना न होगा कि डठ्ठा परिवार ने जहाँ २ अपने व्यापारिक केन्द्र स्थापित किये, उन सब स्थानों पर उनकी पोजिशन बहुत ऊँचे दरजे की रही । इन लोगों ने अपनी व्यापारिक प्रतिभा से द्रव्य और राज्य सम्मान दोनों चीजों को प्राप्त किया। इन लोगों के पास तत्कालीन समय के जोधपुर, जैसलमेर तथा बीकानेर के महाराजाओं के दिये हुए ऐसे रुक्के मिलते हैं, जिनसे मालूम होता है कि उस समय के राजकीय वातावरण में इनकी बहुत अच्छी व्यापारिक प्रतिष्ठा जमी हुई थी । जोधपुर और जैसलमेर राज्य की ओर से आप लोगों को चौथाई महसूल की माफी दी गई थी । अस्तु, अब हम नीचे रघुनाथसिंहजी और नेतसीजी के परिवार का वर्णन करते हैं ।
डढा रघुनाथदासजी का खानदान
( सेठ सुगनमलजी लालचन्दजी डड्डा, फलौदी )
हा रघुनाथदासजी के तीन पुत्र हुए जिनमें से तीसरे पुत्र अनोपचन्दजी के वंश में आगे चलकर क्रमशः जीवराजजी, पीरचन्दजी, कपूरचन्दजी, किशनचन्दजी और माणिकचन्दजी हुए। इनमें माणिकचन्दजी के शाह सुगनमलजी, मगनचन्दजी और अगरचन्दजी नामक तीन पुत्र हुए। संवत् १६९५ में इस खानदान वाले जैसलमेर से चलकर फलौदी (मारवाड़) में जा बसे और तभी से इस परिवार वाले फलौदी में ही निवास करते हैं ।
शाह सुगनमलजी डढ्ढा - आपका जन्म संवत् १९२२ में हुआ । संवत् १९५७ में आपने व्यापार के निमित्त मद्रास प्रान्त की ओर प्रस्थान किया तथा इसी वर्ष मद्रास में बैकिङ्ग कारवार की फर्म स्थापित की। आपके लक्ष्मीचन्दजी, सौभागमलजी तथा लालचन्दजी नामक तीन पुत्र हुए।
लक्ष्मीचन्दजी डढ्ढा-डहा लक्ष्मीचन्दजी का जन्म संवत् १९३९ में हुआ था । आप बड़े संवत् १९७० में अपने
फर्म के व्यवसाय को
व्यापार कुशल, अनुभवी, योग्य तथा समझदार सज्जन थे । सर्व प्रथम आपने भाइयों के साथ मद्रास में 'केमिस्ट एण्ड ड्रगिस्ट' की एक फर्म स्थापित की । इस आपने अपनी व्यापार चातुरी तथा बुद्धिमानी से बहुत चमकाया। इस फर्म पर आपकी कार्य कुशलता तथा योग्य संचालन से दवाइयों का काम बड़ी तीव्र गति से बढ़ने लगा और कुछ ही वर्षों बाद यह फर्म इस व्यवसाय को बहुत बड़े स्केल पर करने लगी । इस समय यह फर्म सारे मद्रास में सबसे बड़ी तथा मशहूर
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केमिस्ट एण्ड ड्रगिस्ट है और सारे भारत के दवाई के व्यवसाइयों में दूसरा स्थान रखती है। इस फर्म के द्वारा न केवल मद्रास प्रान्त में ही बरन् दूर २ के प्रदेशों में तथा मैसूर, ट्रावनकोर, कोचीन, पदुकोटा आदि देशी रियासतों में भी बहुत बड़े स्केल पर औषधियाँ सप्लाय की जाती हैं। इस प्रकार व्यापार में अत्यन्त सफलता प्राप्त कर आपका संवत् १९८३ की श्रावण सुदी ४ को स्वर्गवास हुआ।
उड्डा सौभागमलजी का सम्वत् १९४५ में जन्म हुआ था। आपने अपने ज्येष्ठ भ्राता लक्ष्मीचन्दजी के साथ व्यापार में सहयोग दिया। आप संवत् १९८६ में स्वर्गवासी हुए।
श्री लालचन्दजी डढ्ढा-आपका जन्म सम्वत् १९५५ के चैत वदी । को हुआ। आप बड़े सरल स्वभाव और उदार हृदय के सजन है तथा इस समय फर्म के तमाम कारवार को बड़ी बुद्धिमानी के साथ संचालित कर रहे हैं। आपके द्वारा हजारों रुपयों की सहायता चन्दे के रूप में कई अच्छी २ संस्थाओं और जैन मन्दिरों आदि को दी गई हैं। आप बड़े कर्मवीर और उद्योगी पुरुष हैं आपके पुत्र मिलापचन्दजी हैं।
यह परिवार फलौदी व जोधपुर स्टेट के प्रधान २ धनिक कुटुम्बों में माना जाता है । फलौदी में इसकी बहुतसी स्थाई सम्पत्ति है। .
शाह सुगनमलजी डहाके छोटे भ्राता शाह अगरचन्दजी के तीन पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः श्री अमरचन्दजी, गोपीचन्दजी और कल्याणचन्दजी हैं। आप अपना स्वतंत्र व्यवसाय करते हैं। ... रघुनाथसिंहजी के छोटे भाई नेतसीजी के छः पुत्र हुए जिनके नाम खेतसीजी, वर्द्धमानजी, अभयराजजी, हेमराजजी, खींवराजजी और बच्छराजजी था। इनमें खेतसीजी के रतनसीजी, तिलोकसीजी, विमलसीजी और करमसीजी नामक चार पुत्र हुए।
*सेठ तिलोकसीजी बड़े बहादुर और प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे। रियासत से अनबन हो जाने के कारण आप संवत् १७२४ में फलौदी से बीकानेर चले गये। बीकानेर के तत्कालीन महाराजा मे आपका बम सत्कार किया । बीकानेर में आपने अपने व्यापार को खूब चमकाया, और पातायात के साधनों से रहित उस युग में भी सुदूरवर्ती बनारस शहर में तिलोकसी अमरसी नथमल के नाम से अपनी फर्म स्थापित की। आपके चार पुत्र हुए. जिनके नाम क्रमसे पदमसीजी, धरमसीजी, अमरसीजी और टीकमसीजी था।
सेठ पंदमसीजी नेनसीजी का खानदान
( सेठ सौभागमल जी डड्डा अजमेर,) सेठ तिलोकसीजी के पश्चात् सेठ पदमसीजी ने स्वतन्त्ररूप से अपने कारवार का संचालन किया। आपने इन्दौर में अपनी शाखा स्थापित की। इन्दौर की राजमाता अहिल्याबाई की आप पर
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स्व० श्री लक्ष्मीचन्दजी ढड्डा, फलौदी.
श्री लालचन्दजी ढहा, फलौदी.
स्व० श्री सौभागमलजी ढड्डा, फलौदी.
कुं० मिलापचन्दजी s/o लालचंदजी ढवा, फलौदी,
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बड़ी कृपा थी। ऐसा कहा जाता है कि आप उनके राखीवन्द भाई थे। उस समय इस फर्म का इन्दौर में बड़ा प्रभाव था। आपका स्वर्गवास संवत् १८७५ में हुमा । आपके शवदाह घाट दरवाजा स्थान पर जयपुर में हुआ वहां आपकी छत्री बनी हुई है।
आपके राजसीजी, प्रतापसीजी और तेजसीनी मामक तीन पुत्र हुए। इनमें सेठ राजसीजोजिनका दूसरा नाम जेठमलजी भी था का देहान्त संवत् १८६० में आपने पिताजी की मौजूदगी में ही हो गया था। आपके दाह स्थान पर भी घाट एमजे पर एक चबूतरा बना हुआ है। आपके छोटे भाई तेजसीजी हुए।
____ सेठ तेजसीजी ने बीकानेर के गोगा दरवाजे के मन्दिर के निकट एक विश्रान्ति गृह बनाया तथा इस मन्दिर पर कलश चढ़या । आपने जयपुर के सांगानेर दरवाजे के पास एक पार्क की नींव डाली जिसमें भागे जाकर आपके पुत्र सदासुखजी ने एक विष्णु का मन्दिर बनवाया। इस पार्क और मन्दिर के बनवाने में करीव ७५०००) खर्च हुआ होगा। आपके नैनसुखजी नामक एक पुत्र हुए।
डहा नैनसीजी एक नामांकित पुरुष हुए। उस समय इस परिवार की “पदमसी नैनसी" के नाम से बड़ी प्रसिद्ध फर्म थी । इस फर्म की कई स्थानों पर शाखाएँ खुली हुई थीं। इस फर्म का व्यापार उस समय बहुत चमका हुआ था और कई रियासतों से इसका लेन देन भी होता था । इस फर्म के नाम से कई रियासतों ने रुक्के प्रदान किये हैं जिनसे मालूम होता है कि यह फर्म उस समय बड़ी प्रतिष्ठित तथा बहुत ऊँची समझी जाती थी । इन्दौर नगर में इस फर्म का बहुत प्रभाव था । यह फर्म यहां के ११ पंचों में सर्वोपरि तथा अत्यन्त प्रतिष्ठित मानी जाती थी। इन्दौर-स्टेट में भी इसका अच्छा सम्मान था । महाराजा काशीराव तथा तुकोजीराव होलकर बहादुर के समय तक इस फर्म का व्यवसाय बहुत चमका हुआ था। इस फर्म के नाम पर उक्त नरेशों ने कई रुक्के प्रदान किये हैं जिनमें व्यवसायिक बातों के अतिरिक्त इस फर्म के साथ अपना प्रेमपूर्ण सम्बन्ध होने का जिक्र भी किया है। इस फर्म को उक्त परिवार के सज्जनों ने बड़ी योग्यता एवं व्यापार चातुरी से संचालित किया था।
नैनसीजी के पश्चात् उनके पुत्र उदयमलजी हुए इनके समय में संवत् १९१६ में यह परिवार जयपुर से अजमेर चला आया और तभी से इस परिवार के सज्जन अजमेर में हो निवास करते हैं।
सेठ उदयमलजी के कोई सन्तान न होने से संवत् १९२७ में फलौदी से सेठ बदनमलजी डड्डा के पुत्र सौभाग्यमलजी आपके नाम पर दत्तक आये । बीकानेर नरेश को आपने एक कंठी भेंट की। इससे दरबार ने प्रसन्न होकर आपको व्यापार की चीजों पर सायर का आधा महसूल तथा घरू खर्च की
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चीजों पर सायर का पूरा महसूल माफ कर सम्मानित किया । इतना ही नहीं आपको अपने नौकरों के लिये दीवानी तथा फौजदारी के अधिकार भी दिये । आप इस परिवार में बड़े नामाङ्कित व्यक्ति हो गये हैं। आपने पुष्कर में एक हवेली तथा पुष्कर के रास्ते में एक सुन्दर बगीचा बनवाया जो आज भी आपकी अमरकीति का घोतक है आपने इसी प्रकार कई सार्वजनिक कार्यों तथा परोपकारी संस्थाओं को खुले हृदय से दान दिया। यहां के विक्टोरिया हॉस्पिटल को भी आपने अच्छी सहायता प्रदान की। आपके इन कार्यों से प्रसन्न होकर ब्रिटिश गवर्नमेंट ने आप को सन् १८९५ में "रायबहादुर" के सम्माननीय खिताब से विभूषित किया । ब्रिटिश गवर्नमेण्ट और देशी रियासतों पर आपका बहुत अच्छा प्रभाव रहा । आपको गवर्नमेण्ट की ओर से सैकड़ों सार्टीफिकेट प्राप्त हुए, जिनमें आपकी व्यापारिक प्रतिभा
और आपके सुन्दर व्यवहार की बहुत प्रशंसा की गई है। उस समय आप कई रियासतों और रेसिडेन्सियों के वैर थे और कई स्थानों पर आपके शाखाएँ थी। आपके वृद्धावस्था में अधिक बीमार रहने से अपकी फर्म का काम कच्चा रह गया। आपका स्वर्गवास संवत् १९६० में हुआ।
__ आपके भी कोई संतान न होने से आपने अपने नाम पर कल्याणमलजी उड्डा को दत्तक लिया । . इस समय इनके खानदान में आप विद्यमान हैं । भापके पुत्र बन्सीलालजी बी० ए० एल० एल० बी० हैं ।
सेठ धरमसीजी का खानदान जयपुर के
- (सेठ गुलाबचन्दजी डड्डा जयपुर) सेठ पदमसीजी के छोटे भाई सेठ धरमसीजी के चार पुत्र हुए जिनके नाम क्रमसे कस्तूरचन्दजी, कपूरचन्दजी, किशनचन्दजी और रामचन्दजी था। इनमें से रामचन्दजी के क्रमशः रतनचन्दजी, पूनमचंदजी
और सागरचन्दजी नामक तीन पुत्र हुए शाह सागरचन्दजी के लखमीचन्दजी और गुलाबचन्दजी नामक दो पुत्र हुए। सेठ गुलाबचन्दजी
आप ओसवाल समाज के अत्यन्त प्रतिष्ठित समाज सेवकों में माने जाते हैं। आपने उस समय में एम० ए० पास किया था जिस समय ओसवाल समाज में कोई भी दूसरा एम० ए० नहीं था। सामाजिक गति विधि के सम्बन्ध में आपके विचार बहुत मंजे हुए और अनुभव युक्त हैं। भाप ओसवाल
• आपका कौटुम्बिक परिचय बहुत प्रयत्न करने पर भी हम लोगों को प्राप्त न हो सका। इसलिए जितना हमारी स्मृति में था उतना ही प्रकाशित कर सन्तुष्ट होना पड़ा-लेखक ।
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उँढ्ढी
जाति की कई बड़ी २ सभाओं के सभापति के आसनों पर प्रतिष्ठित रह चुके हैं। इस वृद्धावस्था में भी आप सामाजिक कार्यों में बड़े उत्साह से भाग लेते हैं ।
श्री सिद्धराजजी डढ्ढा - आप ओसवाल समाज के अत्यन्त उत्साहित विचारों के नवयुवकों में से एक हैं । आपने बी० ए० एल० एल० बी० तक अध्ययन किया है। जाति सेवा के लिए आपके हृदय में भी बड़ी लगन है । आपके विचार समाज सुधार के सम्बन्ध में बहुत गर्म और छलकते हुए हैं। सामाजिक सभा सोसायटियों में आप भी बहुत उत्साह से भाग लेते हैं।
सेठ अमरसी सुजानमल का खानदान, बीकानेर
( सेठ चांदमलजी डड्ढा सी० आई० ई० )
सेठ अमरसीजी तिलोकसीजी के तीसरे पुत्र थे I आपभी अपने पिता की ही तरह बुद्धिमान और व्यवहार कुशल पुरुष थे । आपने अपने व्यापार की वृद्धि के लिए सुदूर निजाम- हैदराबाद में मेसर्स अमरसी सुजानमल के नाम से अपनी फर्म खोली । यहाँ पर आपकी फर्म क्रमसे बहुत तरक्की को प्राप्त हुई । यहाँ की जनता और राज्य में इनका अच्छा सम्मान था ।* हैदराबाद रियासत से आपका लेन देन का काफी व्यवहार था । एक बार एक कीमती हीरा आपके यहाँ रहा था, जिसकी रक्षा के लिए स्टेट की ओर से सौ जवान आपके यहाँ तैनात रहते थे । आपके दावों मुकद्दमों के लिए निजाम सरकार ने एक स्पेशल कोर्ट नियत कर रक्खी थी जिसका नाम “ मजलिसे साहुवान” रक्खा गया था । इस कोर्ट में आपके सब दावे बिना स्टाम्प फ़ीस के लिये जाते थे तथा बिना मियाद के सुनवाई होती थी ।
शाह अमरसीजी के कोई सन्तान न होने से आपने अपने छोटे भाई टीकमसीजी के पुत्र नथमलजी को दत्तक लिया । सेठ नथमलजी के सेठ जीतमलजी और सुजानमलजी नामक दो पुत्र हुए । सेठ सुजानमलजी - आप भी बड़े व्यापार कुशल और प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे । आपने अपने व्यापार को बड़ी तरक्की दी । आप ही ने मेवाड़ स्टेट में अपनी फर्म को स्थापित कर सुजानमल सिरेमल के
नाम
से अपना कारबार प्रारम्भ किया। इतना ही नहीं आपने अपने व्यापार को पंजाब तक फैलाया और - लाहौर, अमृतसर इत्यादि स्थानों पर भी अपनी शाखाएं स्थापित कीं । आपके पाँच पुत्र हुए जोरावर मलजी, जुहारमलजी, सिरेमलजी, समीरमलजी और उदयमलजी । इनमें से पहले तीन भाई तो निःसन्तान स्वर्गवासी * श्रापकी व्यापारिक ताकत के सम्बन्ध में यह बात प्रसिद्ध है कि एक बार बैङ्क ऑफ बङ्गाल की हैदराबाद शाखा से किसी विषय पर आपकी तनातनी हो गई थी, इससे उत्तेजित हो आपने बैक पर इतनी हुण्डियाँ एक साथ करवा दी कि बैक को भुगतान से इन्कार कर देना पड़ा, इसमें आपको बहुत रुपया खर्च करना पड़ा ।
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ओसवाल जाति का इतिहास
हो गये चौथे सेठ समीरमलजी के भी कोई सन्तान न होने से उन्होंने अपने छोटे भाई उदयमलजी को दत्तक लिया।
सेठ उदयमलजी-आपका जन्म संवत् १८८६ में हुआ। आपने भी अपने पूर्वजों के व्यापार और कीर्ति को अक्षुण्ण रक्खा। राज्य और प्रजा दोनों ही क्षेत्रों में आपका काफी सम्मान था। आपको राज्य की ओर से संवत् १९१६ में एक खास रुका इनायत हुआ जो इस प्रकार था
श्रीरामजी
(सही) रुक्को खास मेहता उदयमल दिसी सुप्रसाद बंचे उपरंच तनै वा थारे भाई ने पहले सुं हाथी वा पालकी वा छड़ी वा चपरास वा गुजरा वा छुट को गुजरा वा सिरे दरबार में बैठक वा पग में सोनो, वा सेठ पदवी रो खिताब वगैरह कुरब इनायत हुवोड़ो छे तमे वा थाहारी इज्जत आबरू में म्हें वा म्हारो पूत पोतो तेसु वा थाहारे पूत पोतो सुं कोई बात रो फरक न घालसी श्री लक्ष्मीनारायणजी बीच में छे म्हारो वचन छै और म्हारे पधारने में किताइक दिनरी देरी हुई तेसु रंज दिल माहे मती राखजे तू म्हारे घणी बात छे और किताइक समाचार रामेंने फरमाया छे सुं तने मुख जवानी केसी । संवत् १६१६ मिती पोह वदी ४
इससे पता चलता है कि राज्य में आपका कितना सम्मान था । आपके एक पुत्र सेठ चाँदमलजी हुए।
सेठ चान्दमलजी सी० आई० ई०
आपका जन्म संवत् १९२६ में हुआ। आप भी इस खानदान में बड़े प्रतिष्ठित व्यक्ति हुए। आपने प्रारम्भ में अपने व्यापार का विस्तार करने के उद्देश्य से मद्रास, कलकत्ता, सिलहट, मौर ( पंजाब ) इत्यादि स्थानों पर अपनी फमैं स्थापित की। इसके अतिरिक्त जावरा स्टेट के आप स्टेट बैक्कर भी हुए। देशी राजाओं और ब्रिटिश गवर्नमेंट में भी आपकी बड़ी इज्जत थी। भारत सरकार ने आपको सी. आई. ई० की सम्माननीय उपाधि से विभूषित किया था। निजाम स्टेट में भी आपका अच्छा सम्मान था । वहाँ पर आपको दरबार में कुरसी और चार घोड़ों की बग्गी में बैठने का सम्मान प्राप्त था। बीकानेर के देशनोक नामक स्थान पर आपने करणी माता के मन्दिर का प्रथम द्वार बनवाया । इस द्वार की कारीगरी और कोराई दर्शनीय है । इसके बनवाने में करीब ३॥ लाख रुपया खर्च हुआ । लार्ड मिण्टो तथा और कई लोग इस द्वार को देखने के लिए आये थे। संवत् १९५९ में एक दिन दरबार बीकानेर ने आपके यहाँ सेल आरोग
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श्रीमान् स्व० सेठ चांदमलजी डड्ढा सी० आई० ई०, बीकानेर.
कलकत्ता सोप वर्क्स (मंगलचन्द अानन्दमल डड्ढा ), बीकानेर.
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कर आपको अपने परसनल स्टॉफ का मेम्बर बनाया। साहूकारों में यह सम्मान सब से पहले आप ही को मिला। इसके अतिरिक्त और भी कई देशी राज्यों से आपके तालुकात बहुत अच्छे थे। बीकानेर और उदयपुर से आपको कई खास रुक्के भी मिले थे जिनमें एक दो नीचे दिये जाते हैं।
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श्री लक्ष्मीनारायणजी सहाय भक्त महाराजाधिराज राज राजेश्वर नरेन्द्र शिरोमाण श्री डूंगरसिंहजी बहादुर कस्य मुद्रिका
श्रीरामजी रुको खास सेठ चांदमल दिसी सुप्रसाद बंचै उपरंच सेठ उदयमल को समा हुओ पछ थारो अठ श्राव वो हुवो नहीं सो हमें यूं जमा खातर राख अठे आय हाजर होवजा थारो मुलायजो श्री बाबेजी साहबां राखा जे मुजब रेसी कोई तरह री हरकत न रेसी दिल जमा राख सताब हाजर होइज जिसु म्हें घणां खुश हुस थारे काण- मुलाहिजा में फरक न पड़सी म्हारा वचन के थारे आवणे में दस पांच दिनरी देरी होने तो मगनमल ने पेला मेलं दीजे . संवत् १६३१ मिती असाढ़ वदी १४
इसी प्रकार के आपको और भी पचीसों रुक्के रियसतों से प्राप्त हुए थे। इनको भी ताजीम, हाथी, सिरोपाव, सिरपंच, मोती की कण्ठी, बैठक, और किले में सिंहपोल दरवाजे तक चढ़कर आने के सम्मान प्राप्त थे।
कहना न होगा कि सेठ चांदमलजी अपने उन्नत काल में सारे ओसवाल समाज में प्रथम श्रेणी के रईस और उदार व्यक्ति थे। इनकी तबियत महान् थी और यह महानता उस स्थिति में भी वैसी ही बनी रही जब कि ये अपने अन्तिम कुछ वर्षों में आर्थिक दशा से कमजोर हो गये थे। आपका स्वर्गवास संवत् १९९० मे हुआ।
सेठ टीकमसीजी का परिवार बीकानेर
(सेठ गुनचंद मंगलचंद) सेठ टीकमसीजी-आप भी अपने बन्धुओं की तरह बहादुर प्रकृति के बुद्धिमान पुरुष थे। आपने भी बीकानेर में अपना कारबार स्थापित किया था। आपका स्वर्गवास फलौदी में ही हुआ, आपके शवदाह स्थान पर आपके पुत्र लालचन्दजी ने एक देवालय बनाया । आपके तीन पुत्र हुए जिनके नाम सेठ नथमलजी, माणकचन्दजी और लालचन्दजी थे। इनमें से नथमलजी सेठ अमरसीजी के यहाँ दत्तक चले गये। दूसरे पुत्र माणकचन्दजी का परिचय अन्यत्र दिया जावेगा।
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ लालचंदजी-आप बीकानेर में बैकिङ्ग का व्यापार करते थे। आपका लेन-देन अक्सर राजा, महाराजा और जागीरदारों के साथ रहता था। ज्योतिष विषय के आप अच्छे जानकार थे । बीकानेर की तरफ से आपको छड़ी तथा चपरास का सम्मान प्राप्त था। आपको समय २ पर कई रुक्के परवाने भी मिले थे। आपके बालचन्दजी और गुनचन्दजी नामक दो पुत्र हुए। बालचन्दजी के कोई सन्तान न होने से गुनचन्दजी उनके नाम पर दत्तक लिये गये। सेठ गुनचन्दजी भी बड़ी सरल प्रकृति के सज्जन पुरुष थे। दरबार से आपको भी बहुत सम्मान प्राप्त. था। आपका स्वर्गवास संवत् १९६३ में हो गया। भापके मंगलचन्दजी और आनन्दमलजी नामक दो पुत्र हुए।
सेठ मंगलचन्दजी-आप इस परिवार में नामांकित व्यक्ति हुए। जब आप केवल १४ वर्ष के थे तभी से आप व्यापार करने लगे। आपने अपने जीवन में भिन्न भिन्न प्रकार के व्यवसायों का संचालन किया। इनमें कपड़ा, मूंगा और साबुन विशेष हैं। आप कपड़े एवम् मूगे के लिये लन्दन की फर्म मेसर्स "जूलियस कारपल्स" के वेनियन थे। व्यापार को विशेष उत्तेजन प्रदान करने के लिये आपने मद्रास वगैरह स्थानों पर अपनी फमैं स्थापित की थीं। रङ्गपुर में जूट और बैंकिंग का काम करने के लिये भी आपने फर्म स्थापित की थी। इसके अतिरिक्त कलकत्ते के मशहूर साबुन के कारखाने कलकत्सा सोप वसं को आपने खरीद किया। इस समय इस कारखाने में वैज्ञानिक ढंग से साबुन बनाया जाता है। इस कारखाने की स्थापना आचार्य पी० सी० राय के द्वारा हुई थी। यह कारखाना भारतवर्ष में सब से बड़ा माना जाता है। इसका क्षेत्र फल करीब २० बीघा है । सेठ मंगलचन्दजी का स्वर्गवास संवत् १९८९ में हुआ। इसके पूर्व आपके भाई आनन्दमलजी स्वर्गवासी हो चुके थे। आनन्दमलजी के दो पुत्र हुए। बा. बहादुरसिंहजी और बाबू प्रतापसिंहजी। इनमें से प्रतापसिंहजी सेठ मङ्गलचंदजी के नाम पर दत्तक गये।
इस समय इस परिवार में आप दोनों ही भाई विद्यमान हैं । आप लोग मिलनसार और सज्जन व्यक्ति हैं। सेठ बहादुरसिंहजी बीकानेर स्टेट में आनरेरी मजिस्ट्रेट हैं। साथ ही आप म्युनिसिपल मेम्बर भी हैं। प्रतापचन्दजी सुधरे हुए विचारों के देशभक्त सज्जन हैं। आपके नरपतसिंहजी, धनपतसिहजी और इन्द्रसिंहजी नामक तीन पुत्र हैं। कलकत्ता ५० फ्लाईव स्ट्रीट में आपका बैकिंग, जूट, मूंगा और साबुन का व्यापार होता है।
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उड्डा
शाह सादूलसिंहजी का परिवार, जोधपुर ( मनोहरमलजी सिरेमलजी, जोधपुर )
शाह खेतसीजी के चौथे पुत्र करमसीजी के सादूलसिंहजी, सांवतस्रीजी, रायसिंहजी, हीरासिंहजी सुलतानचन्दजी और मुलतानचन्दजी नामक छः पुत्र हुए। इनमें शाह सादूलसिंहजी के कमलसीजी और उस समय इस परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी थी । जोधपुर और जैसलमेर रियासतों में आपका बड़ा सम्मान था ।
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राज्य से
सालमसीजी नामक दो पुत्र हुए आपका काफी लेन-देन रहता था।
शाह कमल सीजी - शाह कमलसीजी के नैनसीजी और ठाकुरसीजी नामक दो पुत्र हुए। इनमें नैनसीजी के कोई सन्तान न होने से इनके नाम पर डठ्ठा जालिमसिंहजी के छोटे पुत्र हरकमलजी दत्तक आये । शाह हरकमलजी ओसवाल समाज में सर्व प्रथम अंग्रेजी के ज्ञाता थे । आप जोधपुर स्टेट में भिन्न २ पदों पर सफलता पूर्वक कार्य्यं करते रहे । आपका स्वर्गवास संवत् १९४२ में हुआ। आपके मनोहर रूजी, जसराजजी और लाभमलबी नामक तीन पुत्र हुए ।
आपका शिक्षण मैट्रिक तक के सुपरिन्टेण्डेण्ट का काम
ढड्ढा मनोहरमलजी — आपका जन्म संवत् १९२४ में हुआ। हुआ | आपने मेड़ते में सायर दरोगाई और महकमाखास के हिन्दी विभाग बढ़ी योग्यता से किया । सन् १९२७ में आप सर्विस से रिटायर हो गये । इस समय आप जोधपुर में आनरेरी मजिस्ट्रेट हैं । जातीय सेवा से प्रेरित होकर आपने सन् १९३० में ओसवाल कुटुम्ब सहायक द्रव्यनिधि का स्थापन किया । सन् १८९८ में आप श्रीसंघ सभा के सेक्रेटरी बनाए गये । इस सभा के द्वारा आपने काफी समाज सेवा की। जोधपुर की इन्स्युरेन्स कम्पनियों के स्थापन में भी आपका बड़ा हाथ है। आपकी सार्वजनिक स्पिरीट बहुत प्रशंसनीय है। आपके पुत्र माधौसिंहजी इस समय पोलिस में सब-इन्स्पेक्टर हैं । आपके भ्राता डढा जसराजजी का जन्म संवत् १९३३ में हुआ। आप ठाकुरसीजी के पुत्र जीवनसीजी के नाम पर दत्तक गये ।
शाह सालमसीजी - शाह सालमसीजी के चार पुत्र हुए, जिनके नाम क्रम से जालिमसिंहजी, बदनमलजी, मुरलीधरजी और कानमलजी थे । संवत् १९०० के करीब शाह जालिमसिंहजी जोधपुर आये । आप बड़ी तीव्र बुद्धि के व्यक्ति थे । संवत् १९१३ में आपका स्वर्गवास हुआ । आपके रतनमलजी और हरकमलजी नामक दो पुत्र हुए। इनमें से हरकमलजी, नैनसीजी के नाम पर दत्तक चले गये । शाह रतनमलजी का संवत् १८९२ में जन्म हुआ । आप बड़े व्यापार कुशल, प्रवीण और साहित्य प्रेमी व्यक्ति थे । रियासत के दीवान, मुत्सुद्दी भी कई गम्भीर मामलों में आपकी सलाह लिया करते थे । संवत् १९३२ में आपका स्वर्गवास हुआ । आपके सिरेमलजी नामक एक पुत्र हुए ।
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सोसवाल जाति का इतिहास
ना सिरेमलजी
भापका जन्म संवत् १९२४ में हुआ। संवत् १९३९ में आप नागौर के हाकिम हुए। इसके पश्चात् सन् १८८९ से ११ तक आप कृष्णा मिल ब्यावर के ऑडिटर रहे। इसके पश्चात् आप एक साल तक घुरू के हाकिम रहे। संवत् १९५६ में आप कस्टम सुपरिण्टेण्डेण्ट हुए। महाराजा जालिमसिंहजी भापके कार्यों से बदे खुश थे। आप दरबार के कुछ समय तक प्राइवेट कामदार रहे थे। इसके पश्चात् कई अच्छे २ स्थानों पर काम करते हुए सन् १९१३ में रेख सुपरिण्टेण्डेण्ट के पद पर नियुक्त हुए । तथा सन १९२६ में इस पद से ग्रेन्यूटी लेकर रिटायर होगये। आपको अपने उत्तम कार्यों के उपलक्ष में कई अच्छे भच्छे सार्टीफिकेट मिले हैं। रिटायर होने के बाद भी भाप रीयां के नावालिगी ठिकाने की व्यवस्था करने के लिए भेजे गये थे । आप बड़े स्पष्ट वक्ता हैं । इस समय आप सिंहसभा 'कुटुम्ब सहायक फण्ड' की मैनेजिंग कमेटी के मेम्बर तथा इन्स्युरेन्स कार्पोरेशन के डायरेक्टर और ओसवाल कन्यामाला के सुपरवाइजर है। आपके मदनसिहजी, सुजानसिंहजी और सज्जनसिंहजी नामक तोन पुत्र हैं । मदनसिंहजी का जन्म संवत् १९४४ में हुआ । एफ. ए. तक पढ़ाई करके आप फलौदी के हाकिम नियुक्त हुए। भापका कम उम्र में ही स्वर्गवास होगया। दूसरे पुत्र सुजानसिंहजी का जन्म सन् १८९१ में हुमा । मापने मैट्रिक तक अध्ययन किया ।
सज्जनसिंहजी ढड्ढा-आप उड्डा सिरेमलजी के तीसरे पुत्र हैं । मापने बी० ए० एल० एल० बी० सक विद्याध्ययन किया। आपका विवाह इन्दौर के प्राइम मिनिस्टर रायबहादुर सिरेमलजी बापना सी. माई... की पुत्री से हुआ। भाप सन् १९१८ में इन्दौर में फर्स्ट क्लॉस मजिस्ट्रेट नियुक्त हुए। इस कार्य को आप अभी बदी योग्यता से संचालित कर रहे हैं । आप बड़े सज्जन और इतिहास प्रेमी म्यक्तिहै।
___ महा सालमसिंहजी के छोटे पुत्र बदनमलजी संवत् १९४५ में स्वर्गवासी हुए। इनके कुन्दनमलजी और सोमागमकजी नामक र पुत्र हुए । उहा कुन्दनमलजी हैहराबाद में कपड़े का व्यापार करते हैं। संवत् १९६१ में इनका स्वर्गवास हुआ। इनके दत्तक पुन उम्मेदमलजी अजमेर में म्यान का धन्धा करते हैं।
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
श्री सिरेमलजा ढढ्ढा, भूतपूर्व रख सुपरिण्टेण्डेण्ट जोधपुर
श्री मनोहरलालजी ढढ्ढा, ऑनरेरी मजिस्ट्रेट जोधपुर
श्री सज्जनसिंहजी ढड्ढा, एडीशनल डि० मजिस्ट्रेट, इन्दौर ।
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डढा सुलतानमलजी का परिवार ( सेठ बख्तावरचंदजी फलौदी )
डड्डा सादूलसिंहजी के छोटे भाई सुलतानचन्दजी थे। उस समय में इस परिवार की दुकानें जोधपुर, फलौदी, पाली, हैदराबाद, जयपुर, बम्बई, शाहजहांपुर इत्यादि स्थानों पर थीं। संवत् १८०० से १९२२ तक इस परिवार की व्यापारिक स्थिति बहुत अच्छी रही। इनकी सबसे बड़ी दुकान हैदराबाद दक्षिण में सुलतानचन्द बहादुरचन्द के नाम से काम करती थी स्मारक में फलौदी में छन्नी बनी हुई हैं।
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डड्डा सुलतानचन्दजी के
सुलतानचन्दनी के पश्चात् क्रमशः बहादुरचन्दजी, रेखचन्दजी और शिवचंदजी काम देखते रहे । शिवचन्दजी के पुत्र बख्तावरचन्दजी और लालचन्दनी इस समय विद्यमान हैं। इनमें से लालचन्दजी जमनादासजी के नाम पर दत्तक गये हैं। ढड्ढा बस्तावरचन्दजी का जन्म संवत १९२४ में हुआ । संवत् १९६४ तक आपकी दुकान मद्रास में रही। आपने सुलतानचन्दजी के कुटुम्ब की ओर से एक रामद्वारा महेश्वरी समाज को और दो उपाश्रय सम्यगी और बाइस सम्प्रदाय के साधुओं के ठहराने के लिये भेट किये । आप फलौदी म्यूनिसिपैलिटी के मेम्बर रह चुके हैं। आप का परिवार फकौदी में बहुत प्राचीन और प्रतिष्ठित माना जाता
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डड्ढा अभयमलजी का खानदान
( हेमचंदजी डड्ढा सोलापुर )
डढी
डट्ठा सारंगदासजी के पुत्र नेतसीजी के ६ पुत्र हुए, उनमें तीसरे पुत्र अभयमलजी थे। इनके शिवजीरामजी मूलचन्दजी आदि पुत्र हुए। इनमें शिवजीरामजी संवत् १८७० । ७५ में जैसलमेर के दीवान हुए। वहाँ से रियासत की नाराजी होजाने से आप फलौदी आगये तथा वहीं आपने अपना स्थाई निवास बनाया | आपके पुत्र अमीचन्दजी ने जोबद ( मालवा ) में बैंकिंग व्यापार चालू किया । आपने गवालियर स्टेट की कौंसिल में भी अच्छा सम्मान पाया था। आपको दूकान जावद की सरपंच 'दुकान थी । आपके पुत्र रावतमलजी भी प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्ति हुए । इनके पुत्र केसरीचन्दजी का अल्पवय में ही स्वर्गवास होगया था। इनकी धर्मपत्नी श्रीमती जुहारबाई ने फ़लौदी के धार्मिक क्षेत्र में अच्छा नाम पाया। आपने तीर्थयात्रा, स्वामि वत्सल आदि कामों में लगभग १॥ लाख रुपया व्यय किया । आपके पुत्र फूलचन्दजी अल्पायु में संवत् १९४३ में स्वर्गवासी होगये । आपके पुत्र मेमीचन्दजी का जन्म संवत् १९३८ में हुआ ।
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बोसवाल जाति का इतिहास
ढहा नेमीचन्दजी विशेषकर गवालियर रहे, तथा वहाँ सेठ नथमलजी गोलेछा की दुकानों का काम देखते रहे। आपने फलौदी ने म्युनिसिपैलिटी कायम करने में अधिक परिश्रम किया, तथा आजीवन उसके सेक्रेटरी रहे। संवत् १९७५ में आप स्वर्गवासी हुए। आपने संवत् १९६५ में मद्रास में दुकान खोली थी। वह आपके स्वर्गवासी होने के बाद आपके पुत्रों ने उठा दी । सेठ नेमीचंदजी के प्रेमचन्दजी, हेमसिंहजी और ज्ञानचन्दनी नामक सीन पुत्र विद्यमान हैं। प्रेमचंदजी का जन्म संवत् १९५६ में हुआ। आप अपनी जावद दुकान की जमीदारी का काम देखते हैं। लाभग ५ हजार बीघा जमीन आपकी जमी-दारी की है। आप जावद में ऑनरेरी मजिस्ट्रेट भी रहे थे। इनके पुत्र मदनसिंहजी तथा बभूतसिंहजी हैं।
ढहा हेमसिंहजी का जन्म १९५४ में हुआ। आपने जोधपुर से मेट्रिक पास किया । आरम्भ में आप १९८० तक मद्रास डर्गिस्ट स्टोभर के नाम से दवाइयों का व्यापार करते थे। वहाँ से आपको आपके श्वसुर फलौदी निवासी सेठ नेमीचंदजी गोलेछा ने अपनी सोलापुर दुकान का काम सम्हालने के लिए बुलाया । इसलिए इस समय आप इस फर्म के भागीदार हैं। आप विचारवान तथा उन्नतिशील युग के सदस्य हैं। आपके पुत्र महावीरसिंहजी हैं। हेमसिंहजी के छोटे भ्राता ज्ञानसिंहजी, डहा एण्ड कम्पनी मद्रास नामक फर्म पर कार्य करते हैं।
सुराणा सुराणा गौत्र की उत्पत्ति
सुराना गौत्र की उत्पत्ति के सम्बन्ध में यह किम्बदन्ति है कि इस गौत्र की उत्पत्ति जगदेव नामक एक सामंत से हुई है। ये तत्कालीन सिरपुर पाटन के राजा सिद्धराज जयसिंह के प्रतिहारी थे । ये बड़े वीर और पराक्रमी थे। इनके सात पुत्र हुए, जिनके नाम क्रमशः सूरजी, सांवलजी, सामदेवजी, रामदेवजी, छारदजी वगैरह थे। ये लोग भी अपने पिता की मांति बढ़े वीर और साहसी व्यक्ति थे। यह वह समय था जब महम्मूद गजनवी का कातिल हमला भारत पर होरहा था। वह घूमता हुआ गुजरात की ओर भी आवा और उसने सिद्धपुर पाटन पर चढ़ाई की। इस समय जगदेव के प्रथम पुत्र सूरजी सेनापति के पद पर थे। उन्हें राज्य की रक्षा की चिन्ता हुई। इसी समय हेमसूरिजी महाराज वहां पधारे । सूरजी ने महाराज से युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए प्रार्थना की। महाराज ने जैन धर्म स्वीकार करने की प्रतिज्ञा करवा कर विजय पताका यंत्र सूरजी को दिया । भुना पर यन्त्र को बांधकर सूरजी युन-क्षेत्र में गये । घमासान युद्ध
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ओसवाल जाति का इतिहास -
टारसिहजी
तालारामजी
उदयचंदजी
तेजपालजी
उगरचंदजी
रेशमजी
चालचंदजी
श्रीमानसेठजीसुखमलजी
श्रीसुराणावंशकाआदि निवासस्थाननागोर(मारवाक) है। श्रीमान शेटजीवनदासजी के तीन पुत्र थे,जिनमें सबसे बड़े पुत्र श्रीमान शेउसुखमलजी विक्रम संवत १४. के लगभग चुरुमेंआकर निवास किया। आपके वंशजोंका यह कल्प वृक्षहै।
सजातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् ।। परीवर्तिनि संसारे मृताकोवा न जायते।।
- भावार्थ:जन्म उसीका सार्थक है जो अपनी जाति ओर वंशकोउन्नति - करताहै नहीं तो इस परिवर्तन शशिल संसार में कौन नहीं
जन्मताऔर मरताहै। विक्रम संवत १४४० मितीभाद्रपद कृष्णा १३ ।
निवासस्थानाका
सुराणाके बंशजोंकाकल्पवृसंह।
सुराणा परिवार, चुरू ।
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सुराली
होने के पश्चात् अंत में विजयश्री सूरजी को ही मिली । पवन लोग पराजित होकर भाग खड़े हुए। जब सूरजी विजयी होकर दरबार में पहुँचे तब महाराज ने आपके कार्यों की बड़ी प्रशंसा की। और कहा, वास्तव में तुम "सूरराणा" हो । तबसे उनके वंशज सुरराणा से सुराणा कहलाने लगे । इसी प्रकार और भाइयों से और २ गोत्रों की उत्पत्ति हुई। जैसे संखजी के साँखला, सांबलजी से सिवाल इत्यादि । सांवलजी के बड़े पुत्र हृष्टपुष्ट थे अतएव लोग उन्हें संड मुसंड कहा करते थे असएव इनकी संताने सांड कहलाई । सांवलजी के दूसरे पुत्र सुक्खा से सुखाणी, तीसरे सालदे से सालेचा और चौथे पुत्र पूनमदे से पुनमियां शाखा प्रकट हुई ।
इसी सुराणा परिवार में आगे चलकर कई प्रसिद्ध २ सुराना भी एक थे । आप तत्कालीन बीकानेर दरबार के दीवान थे। युद्ध किये एवम् उनमें सफलता प्राप्त की। आप बड़े राजनीतिज्ञ, विशेष परिचय इसी ग्रंथ के राजनैतिक और सैनिक महत्व नामक शीर्षक में दिया गया है ।
व्यक्ति हुए। उनमें मेहता भमरचन्दजी आपने बीकानेर राज्य की ओर से कई वीर और बहादुर व्यक्ति थे । आपका
चूरू का सुराणा परिवार
चूरू बीकानेर राज्य में एक छोटासा किन्तु सम्पद्म नगर है। यहाँ सुराणाओं का एक प्रतिष्ठित घराना है। यह वंश अति प्राचीनकाल से सम्पन्न तथा राज्य में बहुत गण्यमान्य रहा है। यह वंश लगभग विक्रमी संवत् १८०० में नागौर से सुरू आकर बसा था। इस वंश वाले श्री श्वेताम्बर तेरापंथी जैनी हैं। इस घराने में बड़े-बड़े वीर हो गये हैं । जिनमें सेठ जीवनदासजी का नाम विशेष रूप से उल्लेखमी है। प्रसिद्ध है कि उन्होंने सिर कट जाने पर भी चिरकाल तक तलवार चलाई थी जिससे वे जुझार योद्धा प्रसिद्ध हुए । आज तक स्त्रियाँ उनकी वीरता के गीत गाती हैं । जीवनदासजी के चार पुत्र थे, जिनमें सबसे बड़े पुत्र सेठ सुखमलजी चूरू आकर बसे ।
कलकत्ते की मेसर्स " तेजपाल वृद्धिचन्द” नाम की प्रसिद्ध फर्म इसी परिवार की है। इस फर्म में कपड़े और बैकिंग का काम होता है। इसका एक छाते का भी कारखाना है, जिसमें प्रतिदिन ५०० दर्जन छाते तैयार होते हैं । यह कारखाना भारत भर में सबसे बड़ा है। श्री रुक्मानंदजी ने विक्रमी संवत् १८९३ में इस फर्म को स्थापित किया था । उस समय कलकता में मारवादियों की सिर्फ पाँच दस दूकानें थी । उन्होंने इसका " रुकमानन्द वृद्धिचंद" नाम रखा । पीछे संवत् १९६२ में जब रुकमाजी के वंशज दो विभागों में बढ गये तब से इस फर्म पर "तेजपाल वृद्धिचन्द” नाम पड़ने लगा ।
सेठ सुखमलजी के वंशजों ने उस जमाने में जब भारतवर्ष में सर्वत्र रेलवे लाइनें नहीं चुकी थीं २०७
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भोसवाल जाति का इतिहास
अन्यन्त साहस पूर्वक जल और स्थल मार्गों से दूर २ देशों में जाकर अपना व्यापार फैलाया, कलकत्ता प्रभृति नगरों में कई फर्मे स्थापित कीं जिनमें विशेष उल्लेखनीय यह हैं:
कलकत्ता में (1) रुक्मानन्द वृद्धिचन्द, । (अब) तेजपाल वृद्धिचन्द (२) ऋद्धकरण सुराना (१) रायचन्द शुभकरण (४) श्रीचन्द सोहनलाल (५) मुन्नालाल शोभाचन्द ( ६ ) सुजानमल करमचन्द (७) चम्पालाल जीवनमल (८) लाभचन्द मालचन्द ( ९ ) तिलोकचन्द जयचन्दलाल (१०) तनसुखदास दुलीचन्द (११) हरचंदराय मुनालाल (१२) हरचंदराय सोभाचंद (१३) सुराना प्रादर्स और (१४) सुराना - एण्ड कम्पनी इत्यादि ।
बम्बई में - वृद्धिचन्द शुभकरण, रंगून में तेजपाल वृद्धिचंद, भिवानी में - ऋद्धकरण सुजानमल फर्रुखाबाद में - कालूराम जुहारमल, अहमदाबाद में-थानमल मानमल इत्यादि ।
इनमें से कलकत्ता की बहुतसी फर्मे अभीतक सुचारु रूप से चलती हैं । अन्य स्थानों में व्यापार की असुविधा के कारण बन्द करदी गई हैं ।
आपके समय में संवत् १९२२ में
स्वर्गीय सेठ रुकमानन्दजी, तेजपालजी और वृद्धिचन्दजी - आप तीनों भाई सेठ बालचन्दजी के पुत्र थे । आप बड़े होशियार व्यापार कुशल और वीर व्यक्ति थे । इन फर्मों की विशेष तरक्की का श्रेय आप ही लोगों को है। आपका राजदरबार में अच्छा सम्मान था। एक बार जगात का झगड़ा चला था । उसमें आप नाराज होकर बीकानेर स्टेट को छोड़कर सपरिवार रामगढ़ (जयपुर स्टेट) में चले गये थे। फिर महाराजा सरदारसिंहजी ने आपको अपने खास व्यक्ति मेहता मानमलजी रावतमलजी कोचर के साथ जगात महसूल की माफी का परवाना भेजकर आपको सम्मान सहित वापिस बुलाया था । सं० १९२५ में तहसीलदार अबदुलहुसेन के जमाने में चुरू में जब धुवां वगैरः लागें लगाई गई तब आप लोग फिर रुष्ट होकर मेहडसर ( जयपुर स्टेट) में चले गये। फिर महाराजा ने मोहम्मद अब्बास खाँ को ख़ास रुक्के देकर भेजा और बीकानेर बुला कर आप लोगों को पैरों में पहनने के सोने के कड़े, लंगर, छड़ी चपड़ास वगैरह बख्शी । आपके द्वितीय भ्राता सेठ तेजपालजी का स्वर्गवास संवत् १९२४ में होनाने खिन हो गये थे । इस लिये ये सब इज्ज़तें लेने से अस्वीकार किया । श्रीमान् महा• राजा ने प्रसन्न होकर सिरोपाव, मोतियों के कंठे, और चढ़ने को रथ वगैरह देकर आप लोगों को सम्मानित
आप लोग बहुत
दरबार में विशेषमान है, और वर्तमान
कर वापस चुरू भेजा । तब से आपके परिवार वालों का राज महाराजा भी आपके वंशजों पर विशेष कृपा रखते हैं। आप तीनों भाइयों का जन्म क्रमशः संवत् १८७६, १८८५ और १८९१ में, और देहावसान क्रमशः विक्रम संवत् १९४२ संवत् १९५४ और संवत् १९५९ को हो गया, सेठ वृद्धिचन्दजी को लोग कालुरामजी भी कहते थे।
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से
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ उदयचंदजी सुराणा, चूरू,
सेठ मोतीलालजी सुराणा, चूरू.
स्व० सेठ तोलारामजी सुराणा, चूरू,
सेठ रायचन्दजी सुराणा, चूरू,
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ रिधकरणजी सुराना, चूरू.
कुं० कन्हैयालालजी सुराना, चूरू.
A
MITTEHIRONTENT
सुराना पुस्तकालय, चूरू,
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स्वर्गीय सैठ जुहारमलजी व गुलाबचन्दजी-आप सेठ रुक्मानन्दजी के तीनों पुत्रों में प्रथम - द्वितीय पुत्र थे। आपका जन्म क्रमशः संवत् १९०६ और १९०९ में हुभा था। आप बड़े वीर और तेजस्वी हो गये हैं। आपका स्वर्गवास क्रमशः संवत् १९५१ और १९६२ में हुआ।
सठ उदयचन्दजी-आप श्री रुक्मानन्दजी के सबसे छोटे पुत्र हैं। आप बहुत सरल चित्त और मिलनसार हैं। आपका जन्म संवत् १९1 में हुभा। भापके तीन पुत्र और चार पुत्रियां हुई, जिनमें से २ पुत्र और । पुत्री अभी वर्तमान हैं। इस समय भापकी करीब ८० वर्ष की अवस्था है।
स्वर्गीय तोलारामजी-भाप सेठ तेजपाबजी के एकमात्र पुत्र थे। भाप बड़े तेजस्वी, विधाम्यसनी और कर्म वीर पुरुष थे। भापका ध्यान पुरातत्व सम्बन्धी खोजों की ओर विशेष रहता था। भापने अपने पहाँ "सुराना पुस्तकालय" स्थापित किया, जिसमें इस समय संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, फारसी इत्यादि भाषाओं की हजारों छपी हुई पुस्तकों के अलावा करीब २५०० हस्तलिखित प्राचीन ग्रंथ (पुस्तकें) मौजूद हैं। भापका राज दरबार में भी अच्छा सम्मान था। आप शुरू म्युनिसिपल बोर्ड के आजीवन मेम्बर रहे और सन् १९११ ई० में जब बीकानेर राज्य में लेजिस्लेटिव एसेम्बली स्थापित हुई तब से आप इसके भी सदस्य रहे। श्री बीकानेर दरबार आपको बहुत मानते थे। एक बार आपने अपना एसेम्बली का पद एक अन्य सज्जन के लिए खाली कर दिया, तब भी दरबार ने अपनी ओर से आपको मनोनीत मेम्बर बना लिया। इस प्रकार आप लगातार १५ वर्ष तक एसेम्बली के सदस्य रहकर राजा और प्रमा की सेवा करते रहे। अन्त में जब लकवे से विवश होकर आपने अपने पद त्याग-पत्र दिया, तब महाराजा ने भापके पुत्र श्री शुभकरणजी को उम्मेदवार होने का विशेषाधिकार दिया (क्योंकि यहाँ पिता की मौजूदगी में पुत्र को मेम्बर बनने का अधिकार नहीं है ) आपका जन्म संवत् १९१९ में हुआ था।
आपके चार पुनिये हुई, पुत्र एक भी नहीं हुआ। तब आपने श्रीऋद्धकरणजी के द्वितीय पुत्र श्री शुभकरसाजी को गोद लिया। संवत् १९८५ में आप अपने पुत्र श्री शुभकरणजी और पौत्र श्री हरिसिंहजी को छोड़कर स्वर्गवासी हो गये। आपका उपनाम चतुर्भुजजी था।
स्वर्गीय सेठ ऋद्धकरणजी-सेठ वृद्धिचन्दजी के तीन पुत्रों में भाप सब से प्रथम थे। भाप बने प्रतापी पुरुष हुए । आपका नाम कलकत्ता की मारवाड़ी समाज मेंबहुत अग्रगण्य है। "तेजपाल वृद्धिचन्द" फर्म की विशेष उन्नति आप ही के जमाने में हुई। आप कुशल व्यापारी थे। आपने ही कलकत्ता की मारवाड़ी चेम्बर आफ कामर्स की स्थापना की और आजन्म उसके सभापति बने रहे। अखिल भारतवर्षीय श्वेताम्बर जैन तेरापंथी सम्प्रदाय की सभा की स्थापना भी आपने ही की और आजीवन उसके भी सभापति रहे । भाप चिरकाल तक हबदा के आमरेरी मजिस्ट्रेट रहे। सं० १९७५ में जब कपड़ा बहुत मांगा
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आसवाल जाति का इतिहास हो गया था तब गवर्नमेंट में पदे व्यवसाय का कंट्रोल करने के लिये एक काटन अडवाईजरी कमेटी (Cotton Advisory Committee) बनाई थी। जिसमें सात मेम्बर थे उनमें आप भी एक थे । भापका जन्म संवत् १९२१ को हुआ था। आपने दो विवाह किये। प्रथम गृहणी से आपको सिर्फ एक पुत्र हुआ और दूसरी से चार पुत्र और एक कन्या। आपके सिर्फ तीन पुत्र अभी वर्तमान में हैं। आपके कनिष्ट पुत्र कुं० फूलचन्दजी की मृत्यु का आपके जीवन पर बहुत असर पड़ा। इसीसे सम्बत् १९७५ में आपका स्वर्गवास हो गया। . स्व. सेठ रायचदजी-आप सेठ वृद्धिचन्दजी के द्वितीय पुत्र थे। आपका स्वभाव मिलनसार और सीधा सादा था। आपकी रुचि धार्मिक विषयों में अधिक थी। आप ही के अथक परिश्रम से कलकत्ता में श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी विद्यालय की स्थापना हुई और उसके स्थाई कोष के लिये मापने बहुत धन संग्रह किया। आप उसकी कार्यकारिणी समिति के सभापति भी रहे। आपका जन्म संवत् १९२८ को हुमा था। मापने भी दो विवाह किये । आपको पहली पत्नी से एक पुत्र दो कन्या हुई और दूसरी से • पुत्र और एक कन्या, जिनमें से • पुत्र और एक कन्या, जिनमें से ४ पुत्र और एक पुत्र अब भी वर्तमान हैं। आपका स्वर्गवास संवत् १९८९ को हुआ। सेठ तोलारामजी, ऋद्धकरणजी और रायचन्दजी तीनों भाई बड़े उदार हो गये हैं जिन्होंने श्री जैन श्तेताम्बर तेरापंथी विद्यालय कलकत्ता को २०००१), श्री मारवाड़ी होस्पिटक कलकत्ता को ५००१), श्री चुरू पीजरा पोल को ५०८१) और श्री हिन्दू विश्वविद्यालय काशी को १५.१) इत्यादि अनेक संस्थाओं को हजारों रुपये दान दिये थे।
सेठ छोटुलालजी-आप सेठ वृद्धिचंदजी के कनिष्ट पुत्र हैं। आपका जन्म सम्वत् १९३१ को हुवा। आप हाथ के बड़े दक्ष हैं। बहुतसी चीजें अपने हाथ से ही बना डालते हैं। जो कारीगरों से भी बनना मुश्किल है। भापके तीन पुत्र और दो पुत्री अभी वर्तमान हैं। .. सेठ मोतीलालजी-बाप सेल गुलाबचन्दजी के एकमात्र पुत्र हैं । आपका जन्म संवत् १९३२ को हुमा। आप बड़े साहसी और व्यापार कुशल हैं । सेठ जुहारमलजी के इकलौते पुत्र सरदारमलजी के स्वर्गवासी होने के बाद सेठ मोतीलालजी, जुहारमलजी के नाम पर दत्तक लिये गये । आपके पाँच पुत्र हैं। जिनमें से चौथे पुत्र श्री कुंवर जीवनमलजी को सेठ गुलाबचंदजी के और कोई पुत्र न होने से गोद के दिवा है, और कनिष्ट पुत्र कुंवर छन्नमलजी ने इस संसार को असार जान गृह त्याग दिया है, और जैन पवेताम्बर तेरापंथी सम्प्रदाय में साधु हो गये हैं।
कुंवर सुजानम लजी-आप सेठ उदयचन्दजी के ज्येष्ठ पुत्र हैं। आप बड़े उद्योगी और व्यापार अपार है। आपका जन्म संवत् १९३० में हुआ था। आपके ६ पुत्र और एक कन्या हुई। जिनमें बड़े पुत्र
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ओसवाल जाति का इतिहास
जन्म संवत १०८ 1
दिवंगत् श्रीमान कुंवर हरिसिंहजी सुराणा। जन्म संवत् १९८१
स्वर्गवास संवत् १९८० मिति कार्तिक कृष्णा
| मिति श्रावण शुक्ला १२
चुरू। [मिति श्रावण शुका १२
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ श्रीचंदजी सुराणा, चूरू,
सेठ शुभकरणजी सुराणा, चूरू.
सेठ हुकमचंदजी सुराणा, चूरू.
स्व० कुँवर फूलचंदजी सुराणा, चूरू.
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सुराणा कुंवर कर्मचन्दजी का संवत् १९७५ में स्वर्गवास होगया। भापकी एक पुत्री विवाह होने से कुछ समय बाद ही इस संसार को अनित्य जानकर वैराग्य भाव उत्पन्न होने पर अपने पति और परिवारवालों को छोड़कर सादी होगई हैं।
सेठ श्रीचन्दजी-आप सेठ प्रकरणजी के ज्येष्ठ पुत्र हैं। आपका जन्म संवत् १९३८ में हुआ। आप चुरू म्युनिसिपल बोर्ड के मेम्बर हैं। आप बहुत मिलनसार और उदार है। आरके एक पुत्र और एक पुत्री है। भाजकल भाप "तेजपाल वृद्धिचंद" फर्म के संचालकों में अग्रगण्य हैं।
सेठ शुमकरणजी-भाप सेठ तोलारामजी के दत्तक पुत्र हैं। भाप शिक्षित एवं सरलचित हैं। आजकल "सुराना पुस्तकालय" का संचालन आप ही करते हैं। मापने इस पुस्तकालय की और भी उन्नति की है। इस पुस्तकालय की बिल्डिङ्ग बहुत सुन्दर बनी हुई है। जिसका चित्र इस ग्रंथ में दिया गया है। भापका राज्य में और यहाँ के समाज में अच्छा सम्मान है। कई वर्षों तक भाप म्युनिसिपक बोर्ड पुरू मेम्बर, अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की प्रबन्ध कारिणी स्कूल कमेटी के मेम्बर, मजहबी खैराती और धर्माद के एक्ट की प्रबन्ध कारिणी कमेटी के मेम्बर, हाई कोर्ट बीकानेर के जूरर भौर चुरू के भानरेरी मजिस्ट्रेट रहे। श्री ऋषिकुल ब्रह्मचर्याश्रम घुरू के प्रधान मन्त्री और श्री सर्व हितकारिणी सभा पुरू के उपसभापति भी रहे। श्री जैनश्वेताम्बर तेरा पंथी सभा कलकत्ता के आप सहकारी मंत्री है। और कलकत्ता यूनिवर्सिटी इन्स्टीट्यूट के आप सीनियर मेम्बर है। सन् १९१८--२९ ई. में आप बीकानेर लेजिस्लेटिव एसेम्बली के मेम्बर रहे। आपका जन्म विक्रमी संवत् १९५३ मिती श्रावण शुक्ला ५ गुरुवार को चुरू नगर में हुआ। आपका प्रथम विवाह संवत् १९६७ मिती वैशाख शुक्ला ३ को सरदार शहर निवासी सेठ पूर्णचन्दजी भणसाली की पुत्री से हुआ था। आपका विवाह होने से १४ वर्ष के पश्चात् आपके भंवर हरिसिंह नामक एक पुत्र हुए।
स्व० मंवर हरिसिंहजी-मवर हरिसिंह सेठ शुभकरणजी सुराणा के इकलौते पुत्र थे । इनका जन्म संवत् १९८१ की कार्तिक कृष्ण ९ को हुआ था। चूंकि इस सम्पन्न घर में १२ वर्ष के पीछे पुत्रोत्पत्ति हुई थी इसलिए इनके जन्मोत्सव के समय बहुत उत्सव किया गया था। बालक हरिसिंह बहुत होनहार और प्रतिभा सम्पन्न थे । लक्षणों से ऐसा मालूम होता था कि अगर यह बालक पूरी आयु को पाता तो इस कुल का दीपक होता । मगर दुर्भाग्यवश माता का दूध न मिलने से या और कारणों से यह आजन्म रुग्णावस्था ही में रहा । ऐसी स्थिति में भी इस प्रतिभापूर्ण बालक में अपने खानदान की वीरता, उदारता और कई ऐसी दिव्य बातें पाई जाती थीं जो इसके उज्ज्वल भविष्य की ओर स्पष्ट रूप से इशारा कर रही थीं। इनमें इस छोटी अवस्था में ही शस्त्रास्त्रों के संग्रह की बहुत बड़ी अभिरुचि पाई जाती थी। हाथी, घोड़ा,
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भोसवाल नाति का इतिहास
मोटर इत्यादि कई प्रकार की सवारियों में बैठने का इन्हें बड़ा शौक था। केवल इतना ही नहीं सात वर्ष की इस छोटी उम्र में ही इस बालक ने वायुयान के समान कठिन आरोहण पर बड़ी खुशी से सवारी की थी।
इतनी छोटी अवस्था में इतना रुग्ण रहने पर भी इस बालक ने बिना किसी खास परिश्रम के हिन्दी लिखने पढ़ने की भी अच्छी योग्यता प्राप्त करली थी। इनके आसपास रहनेवाले लोगों का कथन है कि कभी २ तो यह छोटा बालक ऐसी बुद्धिमानी और गम्भीरतापूर्ण सलाह देता था जिसे सुनकर आसपास के लोग आश्चर्यचकित रह जाते थे। गायन वगैरह का भी इन्हें काफी शौक था। हिन्दी के सुप्रसिद्ध लेखक भाचार्य चतुरसेन शास्त्री ने इनका रुग्णावस्था में इलाज किया था, उस समय वे इनके गुणों पर इतने मुग्ध होगये कि उनकी मृत्यु के उपरान्त उन्होंने इनके जीवन चरित्र पर “पुत्र" नामक एक स्वतन्त्र पुस्तक लिखी, इस पुस्तक में इस बालक की आश्चर्यपूर्ण बातों का उल्लेख किया है।
दुर्दैव से आठ वर्ष की अल्पायु में ही विक्रम सम्वत् १९८९ की श्रावण शुक्ला १२ को यह प्रतिभाशाली बालक अपने स्वजनों को शोकसागर में दुबाकर इस संसार से चल बसा। इनके इलाज में इनके पिता श्री शुभकरणजी सुराणा ने कुछ भी उठा न रखा, पानी की तरह रुपया बहाया, मगर काल की गति पर विजय प्राप्त नहीं की जा सको । उसकी मृत्यु से उनके पिता शुभकरणजी को इतना रंज हुआ कि उन्होंने अपने बड़े । जिम्मेदारी के पदों से इस्तीफा दे दिया। बीकानेर स्टेट ने इनके कौंसिल की मेम्बरी के पद का इस्तीफा खेद के साथ स्वीकार किया।
___ सेठ हुकमचन्दजी-आप सेठ ऋद्धकरनजी के तृतीय पुत्र है। आप बहुत संयमी सरल चित्त और सुशील हैं। आपकी बुद्धि बहुत तीक्षण है। व्यापारिक बही खातों के काम में आप बहुत निपुण हैं। आपका जन्म संवत् १९५८ में हुआ। आपके तीन पुत्र और तीन पुत्रिये हुई जिनमें से एक पुत्र
और दो कन्यायें वर्तमान हैं। आपके दो बड़े पुत्रो के स्वर्गवास हो जाने के बाद आप संसार से उदासीन भाव में रहते हैं। आपका समय प्रायः धर्म ध्यान में ही व्यतीत होता है।
सेठ कन्हैयालालजी-आप सेठ रायचन्दजी के प्रथम पुत्र हैं। आपका जन्म संवत् १९५८ में हुआ था। आप बड़े कसरती और पहलवान हैं। तपस्या करने में चुरू भर में अद्वितीय हैं। मापने सिर्फ जल पीकर ३१ दिन २१ दिन १५ दिन ॥ दिन और १० दिन इत्यादि अनेक तपस्या की है। आपके कोई सन्तान नहीं हैं।
स्वर्गीय कुंवर फूलचन्दजी-भाप सेठ ऋद्धकरणजी के सब से छोटे पुत्र थे। आपका जन्म
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ओसवाल जाति का इतिहास
श्री छोटूलालजी सुराणा, चूरू.
श्री जीतमलजी सुराणा, चूरू.
श्री माणिकचन्दजी सुराणा, चूरू.
श्री लूनकरणजी सुराणा, चूरू,
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सुराणा संवत् १९६० में हुआ था। आप बहुत होनहार और सुशील थे। आपकी धार्मिक विषय में अच्छी रुचि थी। दुर्भाग्य वश विवाह होने के ठीक १५ दिन बाद संवत् १९०४ में आपका स्वर्गवास हो गया।
सेठ माणकचन्दजी-आप सेठ रायचन्दजी के वर्तमान पुत्रों में द्वितीय हैं। भापका जन्म सम्बत् १९५६ में हुआ था। आप मोटर ड्राइविंग में निपुण हैं। आप मिलनसार और उदार भी हैं। आपके एक पुत्र और दो कन्यायें हैं।
सेठ ताराचन्दजी-आप सेठ रायचन्दजी के तृतीय पुत्र हैं। आपका जन्म संवत् १९६९ में हुआ था। आप शिक्षित और होनहार युवक हैं। अंग्रेजी में आप मैट्रिक पास हैं। आजकल म्यापारिक शिक्षा ग्रहण करते हैं। आप अच्छे लेखक है। मासिक पत्रिकाओं में आपके लेख अक्सर निकलते रहते हैं। भाप से एक छोटे भाई और हैं जिनका नाम श्री भीमचन्दजी है। ताराचन्दजी के पुत्र का नाम कुँवर शेषकरणजी है।
कुंवर जीतमलजी-भाप श्रीचंदजी के इकलौते पुत्र हैं। आपका जम्म संवत् १९६० में हुमा। बाप बहुत इष्ट-पुष्ट नवयुवक हैं।
कुंवर लूणकरणजी-आप सेठ हुकमचंजी के पुत्र हैं। आपका जन्म संवत् १९८० में हुआ। आप बहुत सुशील और होनहार है अभी आप अंग्रेजी और हिन्दी की शिक्षा प्राप्त कर रहे है।
इस परिवार के लोगों पर ब्रिटिश गवर्नमेंट और बीकानेर राज्य की सदैव कृपा रही है और समय-समय पर खास रुक्के और सारटिफिकेट मिले हैं।
शाह रतनसिंहजी सुराणा का खानदान, उदयपुर यह प्राचीन गौरवशाली परिवार बहुत वर्षों से उठ्यपुर में ही निवास करता है। इस खान दान के कई सजनों ने समय र पर कई महत्व के काम किये जिनका उल्लेख हम यथा स्थान करेंगे । इस परिवार में पहले पहल सुराणा ब्रजलालजी बड़े नामांकित व्यक्ति हुए।
__सुराणा ब्रजलालजी-आप बड़े वीर, कार्यकुशल तथा साहसी व्यक्ति थे। शूरता और योग्य म्यवस्थापिका शक्ति का आप में बड़ा मधुर सम्मेलन हुआ था। आपने उदयपुर राज्य में कई ऊँचे २ पदों पर काम किया तथा कई ठिकानों की योग्य व्यवस्था की। एक समय नाप एक बड़ी सेना के साथ महाराणाजी की ओर से धांगड़मऊ के बागी रजपूत जागीरदार को गिरफ्तार करने के हेतु से भेजे गये थे। यहाँ पर कुछ देर तक घमासान लड़ाई होती रही जिसमें आप विजयी हुए और उक्त जागीरदार उमराव सिंहजी युद्ध में मारे गये। उस प्रांत की आपने बड़ी बुद्धिमानी से सुन्वक्स्था भी की थी। आपकी
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मौसवाल माति का इतिहास
इन सेवाओं से प्रसन्न होकर महाराणाजी ने आपको बलेणा घोड़े का सम्मान तथा भोलखेड़ा और कुछ गांव जागीरी में इनायत किये थे। आपके जोरावरसिंहजी नामक एक पुत्र हुए।
सुराणा जोरावरसिंहजी-आप भी बड़े समझदार, बुद्धिमान तथा कार्यकुशल व्यक्ति थे। आप के द्वारा उदयपुर राज्य के कई महत्वपूर्ण कार्य हुए है। आपने सरदारों और उमरावों को समझाने में तथा महाराणाजी और उमरावों के बीच की संधि के आशय को कर्नल रोबिन को समझाने में अग्र भाग लिया था। इसी प्रकार आप सरूपशाही रुपये के सिक्के के समय मीमच के रेसिडेण्ट को समझाने के लिये भी भेजे गये थे। आपने सं० १९१५ में डाकूमीणों का दमन भी किया था।
आप राजकीय कामों में चतुर होने के साथ ही साथ बड़े प्रबन्ध कुशल सज्जम भी थे। आपने चित्तौड़गढ़ की हाकिमी के पद पर रह कर इसकी इतनी सुन्दर व्यवस्था की कि जिससे उसकी वार्षिक आय ५७०००) से बढ़ कर एक लाख होगई। कहने का तात्पर्य यह है कि आप बड़े ही बुद्धिमान, राजनीतिज्ञ प्रबन्ध कुशल तथा कार्यकुशल सज्जम थे। आपने उदयपुर राज्य की कई अमूल्य सेवायें की जिनसे प्रसन्न होकर महाराणाजी ने छड़ी रखने का हुक्म, बलेणा घोड़ा, दरबार में बैठक की इजत, दरबारी पोशाक, जीकारे का सम्मान, नाव की बैठक आदि आदि सम्मान प्रदान किये थे। इतना ही नहीं आपकी सेवाओं के उपलक्ष्य में बासणी गांव जागीरी में वक्षा जो आज तक इस खानदान के पास है। इसके अतिरिक्त आपको कई रुक्के तथा कई बार इनाम भी बक्षे गये थे।
उदयपुर दरबार के अतिरिक आपका इस राज्य के बड़े २ जागीरदारों में भी अच्छा सम्मान था । आपके दौलतसिंहजी नामक एक पुत्र हुए।
सुराणा दौलतसिंहजी-आप भी अपने पिताजी की तरह होशियार तथा प्रबन्ध कुशल सज्जन थे। आप संवत् १९४४ में भीडर के मौत मिन्द मुकर्रर किये गये। इस पद पर आपने बड़ी योग्यता से काम किया। इसी प्रकार कई ठिकानों के मौत मिन्द भी मुकर्रर किये गये। तदनन्तर भापकी कार्य कुशलता से प्रसन्न होकर आपको अकाउटंट जनरल मेवाड़ का पद को प्रदान किया गया। इन सब पदों पर जवाबदारी के साथ काम करते हुए आप स्वर्गवासी हुए। आपकी कारगुजारी के उपलक्ष्य में आपके पूर्वजों के सम्मान आपको पुनः इनायत हुए तथा कई खास रुक्के भेकर आपकी सेवाओं का समुचित भादर किया। आपके रतनसिंहजी जसवन्तसिंहजी तथा जीवनसिंहजी नामक तीन पुत्र हुए।
सुराणा रतनसिंहजी कानोड़ टिकाने के मोतमिंद, टकसाल के दरोगा आदि स्थानों पर मुकर्रर किये गये। इस परिवार के विवाहोत्सव तथा अन्य इसी प्रकार के उत्सवों पर उदयपुर के महाराणाओं ने कई बार बहुत सी रकम प्रदान कर इस खानदान के सम्मान में वृद्धि की थी। सुराणा रतनसिंहजी
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ओसवाल जाति का इतिहास
शाह ज़ोरावरसिंहजी सुराणा, उदयपुर,
सेठ बच्छराजजी सुराणा, बागलकोट,
सेठ खींवकरणजी सुराणा, रीणी.
सेठ कन्हैयालालजी सुराणा, बागलकोट,
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का जन्म संवत् १९३९ में हुआ। आप आज भी उदयपुर में सम्मानित किये जाते हैं। आपके माता जसवन्तसिंहजी का संवत् १९४६ में जन्म हुआ। आप बहुत समय तक उदयपुर के महाराणा फतेसिंहजी के पेशी क्लार्क रहे। वर्तमान में आप विद्यमान हैं। आपको उदयपुर दरबार की ओर से कई बार रुपये इनायत किये गये हैं। सुराणा जीवनसिंहजी का संवत् १९६१ में जन्म हुआ। आप बडे उत्साही तण मैट्रिक तक पढ़े हुए सज्जन हैं। वर्तमान में आप इन्दौर-स्टेट के काटन कंट्राक्ट आफिस में काम कर रहे हैं। आप सब भाई बड़े मिलनसार और सब्जन व्यक्ति हैं।
सुराना नरासिंहंदासजी का खानदान, झालरापाटन इस खानदान का मूल निवास स्थान नागोर का है। आप श्वेतम्बर जैन स्थानकवासी मानाय के मानने वाले सज्जन हैं।
__ सेठ कनीरामजी सुराना-सेठ उत्तमचन्दजी के पुत्र सेठ कनीरामजी इस खानदान में बड़े प्रसिद्ध और प्रतिभाशाली व्यक्ति हुए। आप नागोर से कोटा आये और वहाँ के दीवान मदनसिंहजी मान के पास प्रधान कामदार हो गये। जब संवत् १८९० में कोटा से झालावाड़ रियासत अलग हुई, उस समय मदनसिंहजी के साथ आप भी झालावाड़ आगये। झालावाद का राज्य स्थापित करने में आपका बड़ा हाथ था। आप बड़े बुद्धिमान और राजनीति निपुण पुरुष थे। आपके कामों से प्रसन्न हो कर महाराज राणा मदनसिंहजी मे आपको रूपपुरा नामक गाँव जागीर में बख्शा और मियाने की इजत बल्ली। तथा जीकारा और “नगर" सेठ का खिताब प्रदान किया। उसके बाद सम्बत् १९१५ के बैशाख सुदी १० को महाराज राणा परीसिंहजी ने १५००१) की आमदनी के आमेठा वगैरह गाँव जागीर में बख्शे। आपका स्वर्गवास संवत् १९२० के कार्तिक बदो ६ को हुआ। .
___सेठ कनीरामजी के नाम पर सेठ गंगाप्रसादजी दत्तक आये। आपको महाराज राणा परथीसिंहजी ने दो हजार की जागीरी बख्शी। तथा फौज की बख्शीगिरी का काम सिपुर्द किया। आपका स्वर्गवास सं. १९२३ में हुआ।
सेठ नरसिंहदासजी सुरणा-सेठ गङ्गाप्रसादजी के स्वर्गवास के समय आपके पुत्र सेठ मरसिंहजी की उम्र केवल चार वर्ष की थी। उस समय जागीर आपके नाम पर कर दी गई ओर बख्शीगिरी का काम भी आपके नाम पर हुआ जिसका संचालन आपके बालिग होने तक मायब लोग करते रहे । आप बड़े प्रतिमा. शाली और नामांकित व्यक्ति हैं। सन् १९१९ में महाराज राना भवानीसिंहजी मे पुनः आपको जीकारे का सम्मान बख्शा। उसके पश्चात् सन् १९२६ में उक्त महाराजा ने आपको पैरों में सोना वस्शा। उसके पश्चात् सन् १९३० में वर्तमान महाराज ने आपको ताजीम दी।
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भोपाल जाति का इतिहास
सेठ नरसिंहदासजी के यहाँ मगनमलजी दत्तक आये । आपका जन्म सम्वत् १९३७ में हुआ । शुरू में सन् १९१३ में आपने रियासत के सेटलमेंट में काम किया । इस काम को आपने बहुत सफलतापूर्वक किया जिससे खुश हो कर महाराजा साहब ने आपको सिरोपाव बख्शा। उसके बाद आप पाटन में तहसीलदार बनाये गये वहाँ से आप पचपहाड़ के तहसीलदार बनाये गये । इस काम को आपने बड़ी होशियारी और लोक प्रियता के साथ सम्पन्न किया। कुछ समय तक आपने झालरापाटन आफिसर का काम भी किया। उसके पश्चात् सन् १९३० में आपकी पेन्शन हो गई । 1 जिनके नाम सौभागमलजी, समरथमलजी, और प्रतापसिंहजी हैं।
में इन्चार्ज रेव्हेन्यू आपके तीन पुत्र
सौभागमलजी - - आपका जन्म संवत् १९५१ में हुआ । आपने बी० ए० पास करके एम० ए० प्रीव्हियस पास किया । वहाँ से आप हाऊस मास्टर होकर राजकुमार कॉलेज रायपुर (सी० पी०) में गये । वहाँ से फिर आप अपने पिताजी के स्थान पर पचपहाड़ के तहसीलदार बनाये गये । उसके पश्चात् भाप महाराजा के साथ अक्टूबर सन् १९३० में विलायत चले गये । फरवरी १६३१ में वापस आकर रियासत में हाउस कन्ट्रोलर नियुक्त हुए। उसके पश्चात् भाप मिलीटरी सेक्रेटरी बनाये गए । कुछ समय तक आप नेट सेक्रेटरी भी रहे। इस समय आप महाराजा के खास कर्मचारियों में हैं ।
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महाराजा
समरथसिंहजी -- आपका जन्म सम्वत् १९७१ में हुआ। आपने पूना में सन् १९३१ में बी० एस० सी० पास किया और इस समय सिविल इञ्जिनियरिंग की ट्रेनिंग के लिए बिलायत गये हैं। इनसे छोटे भाई प्रतापसिंहजी मेट्रिक में पढ़ते हैं।
सुराणा पनराजजी का परिवार, सिरोही
इस परिवार के पूर्वज सुराणा सतीदासजी सोजत में निवास करते थे । आपके सम्बन्ध में सोजत में सुरागों के वास में एक शिलालेख खुदा हुआ है । उस से ज्ञात होता है कि "ये सम्वत् १७७२ के वैशाख मास में अचानक १०-१५ चोरों के हमले से मारे गये और उनकी धर्म पत्नी उनके साथ सती हुई ।" इनके बाद क्रमशः मलूकचन्दजी तथा भानीदासजी हुए। सुराणा भानीदारुजी के निहालचन्दजी मोतीरामजी तथा खींवराजजी नामक ३ पुत्र हुए। सुराणा मलूकचंदजी सोजत के कोतवाल थे। और निहालचंदजी बोहरगत का व्यापार करते थे । निहालचन्दजी के धीरजमलजी आदि ५ पुत्र हुए। सुराणा धीरजमलजी की राज्य के अधिकारियों से अनबन हो गई, इसलिये इनकी सब सम्पत्ति लुटवादी गई । संवत् १९१६ में आप स्वर्गवासी हुए। उस समय आपके पुत्र नथमलजी, जसराजजी, छोगमलजी और नवलमलजी छोटे थे ।
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सुराणा छोगमलजी - आरम्भ मे आप एरनपुरा छावनी में हुई हुए तथा शीघ्रातिशीघ्र उन्नति कर आप'
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ पनराजजी सुराणा, सिरोही.
श्री सुकनराजजी सुराए। 6/0 से 5 पनराज जी, सिरोही.
श्री धनराजजी सुराणा s/o सेठ पनराजजी, सुमेरपुर.
सेठ हीरालालजी बापना, भीनासर. ( परिचय पृ० नं० २१७ में देखिये )
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मुरायो
एरनपुरा, भावू और मजमेर के खजाने पर मुकरर होते गये। इसके बाद आपने १२. साल तक साहुकारो नौकरी की और अंत में धार्मिक जीवन विताते हुए स्वर्गवासी हुए।
सुराना पनराजजी-आप छोगमलजी के पुत्र हैं। भापका जन्म संवत् १९२५ में हुमा। १५ साल की वय में आपने कपड़े का व्यापार शुरू किया । यहाँ भापको चौधरी का भी सम्मान मिला। इसके बाद आरके जीवन का विशाल क्रान्ति युग आरम्भ हुआ। भापको अपनी कर्तव्य शक्ति के दिखलाने का पूरा भवसर मिला। सम्बत् १९५६ में सिरोही स्टेट ने अपनी प्रजा पर ३॥ भारी टेक्स लगाये, संवत् १९६० में उसका विरोध जनता ने आपके नेतृत्व में उठाया। आपने कई गण्यमान्य व्यक्तियों के साथ सिरोही जाकर टेक्स माफ करवाने की कोशिश की। लेकिन रियासत ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया, तब मापने गुप्त रूप से जोधपुर दरबार से उनकी हद में शिवगंज के समीप एक बस्ती आबाद करने का परवाना हासिल किया और वहाँ शिवगंज के सैकड़ो कुटुम्बों को लेजाकर भावाद किया। जोधपुर स्टेट ने आपका सम्मान कर आपको “नगर सेठ" की पदवी, सिरोपाव, कड़ा, कन्डी, दुशाला और मंदिल इनायत किया। साथ ही आषाद होने वाली जनता को ३३ कलमों की छूट दी । जब यह समाचार सिरोही दरबार ने सुना तो अपनी प्रजाके सब टेक्स माफ कर दिये । जिससे बहुत से कुटुम्ब वापस शिवगंज चले गये । आपने सुमेरपुर में सर्वहित कारिणी सभा स्थापित की । जैन मन्दिर, गणेश व महादेव का मन्दिर, धर्मशाला, मस्जिद, प्रतापसागर नामक कूप आदि स्थान बनवाये। इसी बीच सन् १९१४ में यूरोपियन वार छिड़ा, उस समय इस स्थान की भाब हवा उत्तम समझ कर ए० जी० जी० अजमेर ने जोधपुर दरबार से सुमेरपुर नामक बस्ती, तुर्की कैदियों को रखने के लिए मांगी। तथा जोधपुर के मुसाहिब, ए० जी० जी०, भादि ने यहाँ के निवासियों को समझाया और यह बस्ती खाली कराई । तथा यहाँ तुर्की कैदी आबाद किये गये ।
सुमेरपुर खाली करते ही पनराजजी सुराणा ने उसके समीप ही ऊंदरी नामक गाँव आवाद किया, और वहाँ अपनी एक जीनिंग फेक्टरी खोली। सम्वत् १९७२ में आपके मसले पुत्र धनराजजी को उनके विवाह के समय जोधपुर स्टेट से पालकी सिरोपाव इनायत हुआ। युद्ध शांत होने के बाद ऊंदरी तथा सुमेरपुर के राज्य कर्मचारियों से आपकी अनबन हो गई। उसी समय सिरोही दरबार ने आपको सिरोही स्टेट में बुलवाया। अतः आपने सम्वत् १९८३ में सिरोही के समीप "नया बाजार" नामक बस्ती मावाद की। आपकी तर्क शक्ति और याददाश्त अच्छी है। सोजत में “शुभखाता दुकान और भगवानजी पुरुषोत्तम" नामक फर्म के स्थापन में आपने प्रधान योग दिया था। इसी प्रकार उम्मेद कन्याशाला के स्थापन में और सम्वत् १९७६ में मुसलमानों के झगड़े को निपटाने में भी मापने काफी परिश्रम उठाया था। सेठ पनराजी सुराणा के लालचन्दजी, धनराजजी तथा सुकनराजजी नामक तीन पुत्र हुए। इनमें
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बोसवाल जाति का इतिहास
लालचन्दजी का अन्तकाल हो गया है। तथा सुराणा धनराजजी इस समय सुमेरपुर जोनिंग फेन्टरी का काम देखते हैं। भापकी वय ३१ साल की है।
सुराणा सुकनराजजी का जन्म 'वत् १९६१ में हुमा सन् १९२४ में आपने सोजत में मेक्टिस शुरू की। सन् १९१७ में आप सिरोही आ गये। यहाँ सरूप नगर के लिये आप भानरेरी मजिस्ट्रेट बनाये गये। इधर ४ सालों से आप सिरोही में वकालात करते हैं। भाप सिरोही के वकीलों में अच्छा स्थान रखते हैं और आप कानून की अच्छी जानकारी रखते हैं और उग्र बुद्धि के युवक हैं।
सुराणा हीरालालजी, सोजत हम ऊपर लिख आये हैं कि सुराणा निहालचन्दजी के छोटे भ्राता खींवराजजी और मोतीरामजी थे, उन्हीं से इस परिवार का सम्बन्ध है। सुराणा मोतीरामजी ने जोधपुर दरबार से जीव हिंसा रुकवाने के कई परवाने हासिल किये। आप बड़े वीर और बहादुर प्रकृति के पुरुष थे। इनके पुत्र साहबचन्दजी संवत् १८६० में सोजत के कोतवाल थे। इनके बाद तेजराजजी और जसवन्तराजजी हुए। जसवन्तराजजी के चार पुत्र हुए। इनमें पन्नालालजी गुजर गये हैं, बलवन्तराजजी कलकत्ते में जवाहरात का तथा सुकनराजजी दारव्हा में रूई का व्यापार करते हैं। सबसे बड़े सुराना हीरालालजी सोजत में रहते हैं।
सुराणा हीरालालजी बड़े हिम्मतवर, समाज सेवी और ठोस काम करने वाले व्यक्ति हैं। संवत् १९३० में भापका जन्म हुआ। साल तक आपने जोधपुर में वकालात की। इसके बाद मापने मारवाड़ की जैन डायरेक्टरी तयार करने में बहुत परिश्रम किया। फिर श्वेताम्बर जैन कान्फ्रेन्स की ओर से मारवाड़ के जैन मंदिरों की जांच व दुरुस्ती का कार्य उठाया। जब जोधपुर महाराजा उम्मेदसिंहजी सन् १९२५ में विलायत से वापस आये, उस समय आपने मारवाड़ की जनता की ओर से ५ हजार
रुपया खरच कर दरबार को एक किताब नुमा मानपत्र भेंट किया, जिसमें चांदी के १६०० अक्षर थे । .. जब पालीताना दरवार से शQजय का झगड़ा हुआ, उसका भारत भर में प्रोपेगंडा करने का भार ६ व्यकियों
को दिया. उसमें । आप भी थे। मारवाद से गाय. फी मेल शिपस तथा सी० गडस बाहर न जाने देने लिये मापने जबर्दस्त प्रयत्न उठाया, लेकिन जब जोधपुर दरबार ने सुनवाई नहीं की, तो सुराणा हीरालालजी ने दरबार के बंगले पर : दिन तक अनशन सत्याग्रह किया। इस समय आपके पास हर समय २ हजार भादमी बने रहते थे। अन्ततः दरबार से उपरोक्त पशु बाहर न जाने देने की परवानगी हासिल हुई। इसी तरह सिरोही स्टेट से भी पयूषण पर्व में जीवहिंसा न होने का हुकुम प्राप्त किया। कहने का तात्पर्य यह कि सुराणा हीरालालजी की पब्लिक स्प्रिट प्रशंसनीय और अनुकरणीय है।
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सुराणा
सेठ माणकचन्द शेरमल सुराणा, नागपुर
इस परिवार का मूल निवास अलाय (नागोर) नामक ग्राम है। वहाँ से सेठ माणकचन्दजी सुराणा लगभग १०० साल पहिले व्यापार के निमित्तं नागपुर आये, और यहाँ आकर सदर (छावनी) में सराफी और गल्ले का धंधा प्रारम्भ किया आपके पुत्र सुराणा शेरमलजी थे ।
शेरमलजी सुराणा - आपने इस फर्म की विशेष तरक्की की । आप बड़े बुद्धिमान और दूरदर्शी पुरुष थे। आपका नाम सी० पी० तथा बरार के लोकप्रिय और सार्वजनिक कामों में भाग लेने वाले सज्जनों में गिना जाता था । आपका सम्वत् १९६६ में स्वर्गवास हुआ। आपके रामचन्दजी, रतनचन्दजी, लखमीचन्दजी, मोतीलालजी, सूरजमलजी चांदमलजी और ताराचन्दजी नामक ७ पुत्र हुए। इन बन्धुओं में इस समय सुराणा मोतीलालजी, सूरजमलजी तथा ताराचन्दजी विद्यमान हैं ।
ताराचन्दजी सुराणा - भापका जन्म सम्वत् १९५४ में हुआ । आप धार्मिक और सुधरे विचारों के समाज सेवी सज्जन है । सन् १९२७ में सी० पी० बरार ओसवाल सम्मेलन के समय भाप स्वागताध्यक्ष थे । आप श्वेताम्बर जैन समाज के तीनों आम्नाय के शास्त्रों की अच्छी जानकारी रखते हैं ।
इस समय आप मृतक भोज प्रति-बन्धक संस्था के प्रेसिडेण्ट हैं । आपके बड़े भ्राता सेठ मोतीकालजी तथा सूरजमलजी सज्जन व्यक्ति हैं । तथा फर्म का व्यवसाय संचालित करते हैं। नागपुर तथा यवतमाल जिले के ओसवाल समाज में आपके परिवार का अच्छा सम्मान है ।
सेठ मोतीलालजी सुराणा के दो पुत्र हुए । पन्नालालजी और सिद्धकरणजी । पन्नालालजी का १५ वर्ष की आयु में स्वर्गवास हो चुका है। सूरजमलजी के तीन पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः शेंशकरणजी, शुभकरणजी प्रेमकरणजी हैं । शेसकरणजी बड़े उत्साही और समाज सेवी सज्जन हैं। ओसवाल समाज की उन्नति के लिए आपके हृदय में बड़ी आकांक्षा रहती है। नागपुर के सभी ओसवाल सभा सोसाइटियों में आप बड़े उत्साह से भाग लेते हैं। शुभकरणजी यवतमाल दुकान पर काम करते हैं, आप बड़े उत्साही युवक हैं। तीसरे प्रेमकरणजी इण्टर में पढ़ रहे हैं। ताराचन्दजी के दो पुत्र हैं- हेमकरणजी तथा चेनकरणजी। इनमें हेमकरणजी नागपुर दुकान पर काम करते हैं । इस फर्म की एक शाखा शेरमक सूरजमल के नाम से यवतमाल में भी है। इन दोनों स्थानों पर यह दुकान बहुत प्रतिडित मानी जाती है। दुकानों पर सोना चांदी और बैकिंग का व्यवसाय होता है ।
इन दोनों
रिणी का सुराणा परिवार
बसे ।
इस परिवार के लोग सांतू नामक स्थान पर रहते थे। वहां से १०० वर्ष पूर्व रिणी में आकर भाप जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सम्प्रदाय के अनुयायी हैं । इस खानदान में मथमलजी हुए . २८९
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श्रो सवाल जाति का इतिहास
इनके प्रपौत्र मोहनलालजी के रामसिंहजी, लुनकरणजी, डूंगरसीदासजी, जालिमसिंहजी तथा खुशालचन्दजो नामक पांच पुत्र हुए ।
सुरणा लूनकरणजी का परिवार - आप के उदयचन्दजी तथा हंसराजजी नामक दो पुत्र हुए। इन में से उदयचंदजी के बागमलजी तथा बागमलजी के इंद्रचन्दजी, मानूरामजी तथा सागरमलजी नामक तीन पुत्र हुए। सेठ इन्द्रराजजी तक की पीढ़ी के सब लोग रिणी में ही रहे । सुराणा इन्द्रराजजी इस समय रिणी में वकालत करते हैं। आपके सोहनलालजी, माणकचन्दजी तथा मोतीकालजी नामक तीन पुत्र हैं। सोहनलालजी के दो पुत्र हैं ।
सबसे पहले सुराणा नानूरामजी देश से कलकत्ता आये और यहाँ चाँदी की दलाली करना प्रारम्भ किया जो आज भी आप कर रहे हैं। आपका रिणी में अच्छा सम्मान है । आपके जंवरीमलजी कुन्दन1 मलजी तथा ताराचन्दजी नामक तीन पुत्र हैं । जवरीमलजी के झुमरमलजी तथा रतनलालजी नामक दो पुत्र हैं । सागरमलजी भी इस समय दलाली करते हैं। आपके छोटूलालजी एवम् भिक्खनचन्दजी नामक दो पुत्र हैं ।
सुराणा डूंगरदासजी का खानदान - आपके मिर्जामलजी, कालूरामजी, मोहबतसिंहजी. ठाकुरदासजी पृथ्वीराजजी तथा किशनचन्दजी नामक छः पुत्र हुए। इनमें से मिर्जामलजी के परिवार में मालचन्दजी दलाली करते हैं तथा बालचन्दजी मनोहरदास के कटले में भोपतराम बालचन्द के नाम से कपड़े का व्यापार करते हैं । कालूरामजी के परिवार में सुजानमलजी एवम् रुक्मानन्दजी मैमनसिंह में व्यापार करते हैं ।
सुराणा पृथ्वीराजजी सबसे पहले कलकते आये और यहाँ दलाली करने लगे । तदनन्तर आपने अपनी चलनी की एक दुकान कलकत्ते में गुलाबचन्द शोभाचन्द के नाम से स्थापित की । आपके स्वर्ग वासी होने के पश्चात् आपकी धर्मपत्नी चांवाजी ने तेरापन्थी सम्प्रदाय में महासती के रूप में दीक्षा ग्रहण करली। सेठ पृथ्वीराजजी के गुलाबचंदजी एवम् शोभाचंदजी नामक दो पुत्र हुए। इनमें सेठ शोभाचन्दजी के बंसीलालजी नामक पुत्र है । आप बड़े मिलनसार नवयुवक हैं। इस समय फर्म के काम को आप दोनों पिता पुत्र देखते हैं। बंसीलालजी के भीखमलालजी नामक पुत्र हैं ।
इसके अतिरिक्त सुराणा रामसिंहजी के परिवार में सुगनचन्दजी, मेधराजजी, तोतारामजी, चौथमलजी तथा मुखराजजी कर सियांग में व्यापार करते हैं तथा धर्मचन्दजी, नेमीचन्दजी दलाली करते हैं और धर्मचन्दजी के पुत्र लखमीचन्दजी, भँवरलालजी एवम् डायमलजी विद्यमान हैं। नेमीचन्दजी के पुत्र डालचन्दजी बी० ए० तथा बच्छराजजी हैं। सुराणा जालमचन्द जी के परिवार में रायचन्दजी और जयचन्दलाल
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प्रोसवाल जाति का इतिहास
श्री नानूरामजी सुराणा, कलकत्ता.
सेठ शोभाचन्दजी सुराणा (गुलाबचंद शोभाचन्द) कलकत्ता.
सेठ बालचन्दजी सुराणा (भोपतराम बालचन्द), कलकत्ता.
सेठ बन्सीलालजी सुराणा (गुलाबचन्द शोभाचंद), कलकत्ता,
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. सुराणा जी तथा सुराणा कुशलचन्दजी के परिवार में दीपचन्दजी, हीरालालजी,रिधकरणजी, रावतमलजी, बहादुरमलजी एवम् जीतमलजी नामक पुत्र हैं।
सेठ शेरमलजी सुराणा का खानदान, राजगढ़ ___ इस परिवार वाले राजगढ़ (बीकानेर-स्टेट) के निवासी श्री जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी आम्नाय को मानने वाले हैं। इस खानदान में सेठ शेरमलजी हुए। आपके ख्यालीरामजी तथा भगवानदासजी नामक दो पुत्र हुए। इनमें से सेठ भगवानदासजी सबसे पहले राजगढ़ से कलकत्ता गये और वहाँ पर आपने कपड़े की दलाली प्रारम्भ की । आपके मुखचन्दजी तथा ख्यालीरामजी के लाभचन्दजी नामक पुत्र हुए।
मुखचन्दजी भी इसी प्रकार देश से बंगाल प्रान्त में बोगरा नामक स्थान में गये और काम सीखने लगे। तदनन्तर मापने कई फर्मों पर नौकरियां की। आपकी होशियारी से मालिक लोग खुश रहे। इसके पश्चात् संवत् १९५२ में मुखचन्द खींवकरण के नाम से आपने कलकत्ते में कपड़े की फर्म स्थापित की। इसमें आपको काफी सफलता रही। आपके खींवकरणजी तथा मालन्धदजी नामक दो पुत्र हुए।
सेठ खींवकरणजी ने प्रथम तो अपनी कपड़े की फर्म के काम में सहयोग लिया। और फिर कई स्थानों की दलाली की। इसके पश्चात् आपने जुहारमल सोहनलाल के नाम से जापानी तथा विलायती कपड़े का डायरेक्ट इम्पोर्ट शुरू किया जिसमें आपको काफी सफलता रही । आपके सोहनलालजी भवरलालजी व शुभकरणजी नामके तीन पुत्र हैं। इस समय सोहनलालजी दलाली करते तथा भवरलालजी सोहनलालजी सुराणा " क्रास स्ट्रीट की कपड़े की दुकान का काम देखते हैं। बाबू मालचन्दजी भी इस समय स्वतन्त्र दलाली करते हैं।
सेठ भूरामल राजमल सुराणा, जयपुर यह सुराणा खानदान बादशाही जमाने से देहली में जवाहरात का काम काज करता था। इस वंश में सुराणा मोतीलालजी के पूर्वज १५० वर्ष पूर्व जयपुर आये । सुराणा मोतीलालजी के रंगलालजी, जवाहरलालजी, बख्वावरमलजी तथा हीरालालजी नामक ४ पुत्र हुए।
इन चारों भाइयों में से रंगलालजी के पुत्र ताराचन्दजी व हरकचन्दजी हुए, जवाहरलालजी के भूरामलजी, चौथमलजी तथा बख्तावरमलजी के पुत्र लालचन्दजी हुए। इनमें हरकचन्दजी के नाम पर भूरामलजी दत्तक दिये गये। सुराणा हरकचंदजी के समय से इस खानदान में पुनः जवाहरात के व्यापार में उन्नति हुई।
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पोसवाल जाति का इतिहास
भआपके पुत्र भूरामलजी ने इसे विशेष चमकाया। भूरामलजी का जन्म लगभग संवत् १९२२ में हुआ। ये जयपुर, जोधपुर, बीकानेर आदि राजाओं, रईसों तथा जागीरदारों के यहाँ जवाहरात के तयारीमाल को विक्री करने में विशेष जुटे रहे। इसमें इन्होंने लाखों रुपये कमाये और कई मकानात, इमारतें बनवाई तथा खरीद की। जौहरीबाजार का लाल कटला भी आपने सम्बत् १९४२ में खरीदा। भाप यहाँ की ओसवाल समाज में बड़े प्रतिष्ठित पुरुष माने जाते थे। संवत् १९.७ में आप स्वर्गवासी हुए।
सेठ भूरामलजी के पुत्र सेठ राजमलजी सुराणा का जन्म संवत् १९६४ में हुआ। आप विवेक शील तथा शान्त स्वभाव के सज्जन हैं। इस समय आप जयपुर की ओसवाल समाज में धनिक व्यक्ति माने जाते हैं। इस समय आपके यहाँ बैकिंग , जवाहरात तथा मकानों के किराये का काम होता है। आपकी जयपुर में बहुतसी इमारतें बनी हुई हैं।
लाला गुलाबचन्द धन्नालाल सुराणा, आगरा आप श्वेताम्बर जैन स्थानकवासी भाम्नाय को मानने वाले हैं। इस खानदान का मूल निवास स्थान नागौर का है मगर करीब दो तीन सौ वर्षों से यह खानदान आगरे में निवास करता है। इस खानदान में लाला बुद्धाशाहजो हुए आपके दो पुत्र हुए जिनके नाम क्रम से लाला चुनीलालजी और लाला मुबालालजी था। जिनमें यह खानदान लाला चुनीलालजी का है। लाला चुनीलालजी का स्वर्गवास संवत् १९१८ में हो गया। लाला चुनीलालजी के लाला गुलाबचन्दजी नामक पुत्र हुए, आपने इस खानदान के व्यवसाय, सम्पत्ति और इज्जत की खूब तरक्को दी । आप बड़े व्यापार कुशल और बुद्धिमान व्यक्ति थे। भापका स्वर्गवास संवत् १९८८ में हो गया। आपके दो पुत्र हुए। लाला धन्नालालजी और लाला बाबूलालजी । इनमें से लाला धन्नालालजी का स्वर्गवास संवत् १९४५ में हो गया। लाला बाबूलालजी का जन्म संवत् १९३९ का है । आपही इस समय इस खानदान के संचालक हैं। भाप बड़े सजन और बुद्धिमान व्यक्ति है। इस समय आपही इस फर्म के व्यवसाय को संचालित करते हैं । आपके दो पुत्र हैं जिनके नाम निर्मलचन्दजी और उदय वन्दजी हैं।
आगरे के ओसवाल समाज में यह खानदान बहुत प्रतिष्ठित और अगण्य हैं । इस फर्म पर गोटा किनारी का पुश्तैनी व्यवसाय होता है। जिसके लिए फर्म को लार्ड चेम्सफोर्ड, लार्ड रीडिश, सार्ड इरविन, बंगाल गवर्नर, लार्ड लिटन आदि कई महानुभावों से प्रशंसापत्र मिले हैं। इस फर्म ने अपने वहाँ मशीनों से सोने चांदी की जंजीरों को बनाने का काम प्रारम्भ किया है। यह काम बहुत बड़े स्केल पर होता है।
सेठ चन्दनमल मिश्रीमल सुराणा, पांढर कवड़ा (यवतमाल) जोधपुर स्टेट के कुचेरा नामक स्थान से सेठ उत्तमचन्दजी और उनके छोटे भाई चंदनमलजी म्यापार
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सुराकी
के निमित्त ६० साल पहिले माहेरी (सी० पी०) आये, और वहाँ कपड़ा किराने का व्यापार चालू किया । संवत् १९६८ में आपने पॉटर कवड़ा में दुकान की। सेठ चन्दनमलजी का स्वर्गवास सम्वत् १९०८ में हुआ | आपके बड़े पुत्र बहादुरमलजी का सं० १९८९ में स्वर्गवास होगया, और शेष मिश्रीलालजी, मोहनलालजी और मोतीलालजी नामक तीन पुत्र विद्यमान है । संवत् १९८२ में इन सब भाइयों का कारवार अलग २ हुआ । सेठ बहादुरमलजी के पुत्र सुगनमलजी तथा मोतीलालजी माहेरी में व्यापार करते हैं। मोतीलालजी के पुत्र कॅवरीलालजी तथा कानमलजी हैं।
सेठ मिश्रीलालजी सुराणा का जन्म सम्वत् १९४४ में हुआ । आप पांदर कवड़ा के व्यापारिक समाज में अच्छी प्रतिष्ठा रखते हैं। आपके यहाँ चन्दनमल मिश्रीलाल के नाम से जमीदारी, साहुकारी, सराफी तथा कपड़े का व्यापार होता है। आपने पाथरड़ी गुरुकुल, भागरा विद्यालय आदि संस्थाओं को सहायताएँ दी हैं। आपके पुत्र रतनलालजी उत्साही युवक हैं तथा फर्म के व्यापार को तत्परता से संभालते है। इनके पुत्र पत्राकाल हैं।
सुराणा मोहनलालजी का कारवार चन्दनमल मोहनलाल के नाम से होता है। इसी तरह उतमचन्दजी के पौत्र हीरालालजी, उत्तमचन्द सूरजमल के नाम से माहेरी में व्यापार करते हैं।
सेठ दीपचन्द जीतरमल सुराणा, भुसावल
यह कुटुम्ब थांवला (अजमेर से १० मोल की दूरी पर) का निवासी है। वहाँ से सेठ जीतरमलजी सुराणा लगभग ५०-६० साल पहिले भुसावल आये, तथा लेनदेन का व्यापार जीतरमल मोतीराम के नाम से आरम्भ किया । इस प्रकार व्यापार की उन्नति कर आप संवत् १९७२ में स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र भैरोंलालजी और दीपचन्दजी विद्यमान हैं । आप दोनों सज्जन व्यक्ति हैं।
सुराणा भैरोंलालजी का जन्म संवत १९५७ में हुआ। आपकी दुकान यहाँ के जोसवाल समाज में अच्छी प्रतिष्ठित मानी जाती है। आपके छोटे भाई दीपचन्दजी २६ साल के हैं।
आनंदराजजी सुराणा, जोधपुर
आनंदराजजी सुराणा न केवल ओसवाल समाज ही में वरन् राजस्थान के देश सेवकों में अपना ऊँचा स्थान रखते हैं। आपने राजस्थान में जागृति करने के लिये बड़े २ कष्ट उठाये, तथा कई साल तक आपने जेल की कठोर यातनाएं भोगीं । स्थानकवासी समाजके आप प्रधान नेताओं में से हैं। इस संप्रदाय की कोई उल्लेखनीय संस्था ऐसी नहीं होगी, जिससे आपका सम्बन्ध न हो ।
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ओसवाल जाति का इतिहास
आप ओसवाल समाज के विशेष व्यक्तियों में हैं, तथा इस समय दिल्ली में प्रेस मशीनरी का व्यापार करते हैं।*
किशोरमलजी सुराणा, जोधपुर
आपके पूर्वज नागोर में रहते थे। कोई तीन चार पुश्त से यह परिवार जोधपुर आया । किशोरमलजी सुराणा नथमलजी सुराणा के पुत्र हैं। आप ट्रिब्यूट विभाग में कार्य्यं करते हैं। आप ओसवाल समाज के हित के मामलों में दिलचस्पी रखते हैं। आप ओसवाल कुटुम्ब सहायक 'द्रम्यनिधि नामक संस्था के स्थापकों में से एक हैं। आप स्थानकी वासी जैन आम्नाय के अनुयायी हैं । तथा जीवदया के कामों में अपनी सामर्थ्य के अनुसार अच्छा द्रव्य खर्च करते हैं । आपके चचेरे भ्राता फतेराजजी सुराणा सायर विभाग में नौकरी करते हैं। रियासत की उन्हे बहुत वकफियत है। आप देशी हिसाब के बहुत उत्तम जानकार हैं। इनके पुत्र किशनराजजी ने मेट्रिक पास किया है।
सुराणा कनकमलजी, अमृतसर
सुराणा कनकमलजी के पूर्वज शिषलालजी और बच्छराजजी मशहूर धनिक थे । आप सरवाड़ (किशनगढ़ स्टेट) में बोहरगत का व्यापार करते थे । सेठ बच्छराजजी के बलदेवसिंहजी, विजयसिंहजी हरनामसिंहजी, अनारसिंहजी और कस्तूरमलजी नामक पांच पुत्र हुए। सम्वत् १९२५ के अकाल के समय सेठ बलदेवसिंहजी ने गरीबों को कई खाई अनाज बाँटकर, मदद पहुँचाई। कई महीनों तक जनता इन्ही के अनाज पर गुजारा करती रही। किशनगढ़ दरबार ने आपकी उदारता की बहुत तारीफ की। साथ ही इनसे यह भी कहा कि अगर गरीब जनता के ३ मास आप निकलवायें तो उत्तम हो, लेकिन अनाज न होने से बलदेवसिंहजी ने असमर्थता प्रकट की । यह सुनकर महाराजा, अपनी सरकारी खाइयां जो सरवाड़ किले में भरी थीं वह बलदेवसिंहजी के जिम्मे कर, किशनगढ़ चले गये। इस प्रकार सुराणा बलदेवसिंहजी ने वह अनाज गरीबों और जमीदारों को बांट दिया । संवत् १९२६ में आप स्वर्गवासी हुए । आपके पश्चात् परिवार में कोई होशियार आदमी काम सम्हालने वाला नहीं रहा। संवत् १९४० में किशनगढ़ स्टेट ने अकाल के समय दी हुई अनाज की खाइयों का बकाया वसूल करने के लिये सुराणा, विजयसिहजी
• खेद है कि आप का परिचय कोशिश करने पर भी नहीं प्राप्त हो सका, अतएव जितना हमारी जानकारी में भा-उतना ही परिचय छापा जा रहा है।
लेखक
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सुराया
और इनके भाइयों से तकाजा किया, जिससे सुराणा बंधु बड़ी तकली में आ गये, और किशनगढ़ आकर किसी प्रकार राज्य से समझौता किया। इसके पश्चात् इधर-उधर यह परिवार व्यवसाय की तलाश में गया। संवत् १९४८ में विजयसिंहजी स्वर्गवासी हुए ।
सुराणा बलदेव सिंहजी के पुत्र सोभागसिंहजी, वीसलपुर दसक गये। विजयसिंहजी के पुत्र गुलराजजी बम्बई गये । हरनाथसिंहजी के पुत्र चौथमलजी दानड़ (मेवाड़) में अपने नाना के यहाँ चले गये । और अनारसिंहजी के पुत्र उगरसिंहजी संवत् १९५२ में निसंतान गुजर गये ।
सुराणा कस्तूरमलजी के राजमलजी और कनकमलजी नामक १ पुत्र हुए। कस्तूरमलजी का संवत् १९६३ में और उनके पुत्र राजमलजी का इनके सम्मुख संवत् १९५६ में स्वर्गवास हो गया । अतएव कनकमलजी अमृतसर आ गये और शिवचंद सोहनलाल कोचर बीकानेर वालों की दुकान पर संवत् १९५७ में नौकर हो गये । इधर १९७७ से आप अमोलकचन्दजी श्रीश्रीमाल भी भागीदारी में अमोलकचन्द कनकचन्द के नाम से कटरा महलू वालियों में शाल तथा कमीशन का व्यापार करते हैं।
सुराणा दीपचन्दजी, अजमेर
सुराणा दीपचन्दजी के पूर्वज सुराणा रायचन्दजी नागौर से रतलाम होकर अजमेर आये । इनके बाद चन्दनमलजी व दानमलजी हुए, इनके समय तक आपके लेनदेन का व्यापार रहा । दानमलजी के पुत्र दौलतमलजी भोले व्यक्ति थे इनके समय में कारबार उठ गया । इनका अंतकाल सम्वत १९८७ में होगया । इनके पुत्र सुराणा दीपचन्दजी का जन्म संवत् १९३९ को हुआ, आप बालपन से ही अजमेर की लोदा फर्म पर सीख पढ़कर होशियार हुए, इधर १० सालों से लोदा फर्म पर मुनीमात करते हैं। आपकी याददाश्त बहुत ऊँची है। अजमेर के ओसवाल खानदानों के सम्बन्ध में आप बहुत जानकारी रखते हैं। आपके पुत्र सुराणा हरखचन्दजी हैं ।
डाक्टर एन० एम० सुराणा, हिंगनघाट
इस परिवार के पूर्वज सौभागमलजी सुराणा मैनपुर राज्य में दीवान के पद पर काम करते थे । वहाँ से राजकीय अनबन हो जाने के कारण उक्त सर्विस छोड़कर हिंगनघाट की तरफ चले आये। इनके पुत्र शेषकरणजी थे, आप संवत् १९७२ में स्वर्गवासी होगये । तब आपके पुत्र नथमलजी सुराणा की आयु केवल ७ साल की थी। इन्होंने अपनी माता की देखरेख में नागपुर से मेट्रिक पास किया। इसके बाद आपने एम० डी० की डिगरी हासिल की। सार्वजनिक कामों में भाग लेने की स्प्रिंट भी आप में अच्छी है ।
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
भांदकजी गुरुकुरु में छात्रों को एकचित करने एवं उसकी व्यवस्था जमाने में आपने अकथ परिश्रम किया । इस कार्य के लिए कई मास तक आप वहाँ ठहरे। आप शिक्षाप्रेमी तथा सुधरे विचारों के सज्जन हैं । आप होमियोपैथिक चारिटेबल डिस्पेंसरी तथा महाराष्ट्र एस० स्वस्तिक स्टोर्स का संचालन करते हैं। आप हिंगनघाट की जैन युवक पार्टी के शिक्षित और उत्साही मेम्बर हैं ।
सौभागमल गुलजारीमल सुराणा, बुहारनपुर
इस परिवार के व्यक्ति सेठ सौभागमलजी सुराणा नागौर से लगभग ७० साल पहिले बुहारनपुर आये, आरम्भ में आपने नौकरी की और बाद में अपनी दुकान खोली, आपके पुत्र गुलजारीमलजी और गुमानीमलजी के हाथों से धंधे को उन्नति मिली । गुलजारीमलजी संवत् १९९० के भादवा मास में स्वर्गवासी हुए। गुमानीमलजी मौजूद हैं। गुलजारीमलजी के पुत्र जोशव मलजी तथा गुमानीमलजी के पुत्र रतनमलजी हैं। सेठ जोरावरमलजी व्यापार संचालन में सहयोग लेते हैं। (सी० पी०) में भारत गला तथा लेनदेन का व्यापार होता है तथा यहाँ के मानी जाती है।
इस दुकान पर बुहारनपुर व्यापारिक समाज में प्रतिष्ठित
कन्हैयालालजी सोहनलालजी सुरामा, उदयपुर
आप दोनों भ्राता उदयपुर के निवासी हैं तथा दोनों ही बी० एस० सी० एल० एल० बी० की परीक्षा में सफलता पूर्वक उत्तीर्ण हुए हैं। आप बड़े समाज सुधारक युवक हैं। आप दोनों भाइयों ने पड़दे की कुप्रथा को तोड़ कर भोसवाल नवयुवको के सम्मख एक आदर्श उपस्थित किया है। सुराणा सोहनलालजी उदयपुर में गायब हाकिम है।
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ओसवाल जाति का इतिहास
श्री कुमारसिंह हॉल, कलकत्ता.
नाहर बिल्डिङ्ग, कलकत्ता.
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नाहर
ना हरवंश की उत्पत्ति
अजीमगंज के नाहरवंशवालों के पुराने इतिहास पर दृष्टि पास करने से यह ज्ञात होता है कि इस वंश की उत्पत्ति पँवार ( परमार ) राजपूतों से है । इस वंश के मूल पुरुष प्रतापी राजा पँवार थे। पँवार राजा की ३५ वीं पीढ़ी में आसार जी हुए, जिनके समय से यह वंश नाहरवंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके सम्बन्ध में यह किम्बदन्ति प्रचलित है कि भगवती देवी ने बाघनी का रूप धारण कर बालक आसघर को उनकी माता की गोद से चुरा कर जंगल में अपने दूध से पाला । जब ये बड़े हुए और मानवी दुनिया में आये तब इन्होंने अपने आप को नाहर के नाम से प्रसिद्ध किया । इन्हीं आसधरजी ने सं० ७१७ में जैनाचार्य श्री मानदेव सूरिजी के उपदेश से महानगर में जैन धर्म ग्रहण किया । और तब से ये महानगर में ही रहने लगे। इनकी ४७ वीं पीढ़ी में अजयसिंहजी हुए । इन्होंने महानगर को छोड़कर मारवाड़ में अपना निवास स्थान किया । वहाँ से कुछ समय के पश्चात् इनके वंशज शेषमलजी भीनमाल आये । इसके पश्चात् इनके वंशज कमरमलजी राधरिया डेलाना चले गये । वहीँ से उठकर बीकानेर स्टेट के डेगाँ नामक स्थान में जा बसे ।
और इनके पुत्र तेजकरणजी
नाहर खड्गसिंहजी का परिवार
राजा पँवार की ७३ वीं पीढ़ी में बाबू खड्गसिंहनी का जन्म डेगों में ही हुआ था । उस समय बीकानेर राज्य में यह परिवार बहुत धनवान एवं प्रभावशाली था । नाहर खड्गसिंहजी का विवाह भी उसी ग्राम की एक कन्या से हुआ था। विवाह में घोड़े पर चढ़ कर तीरन मारा। इस प्रथा -विरुद्ध कार्य पर गाँव के ठाकुर साहब इनके विरुद्ध हो गये । यहाँ तक कि इनका सिर काट कर ठाकुर साहब के पास लानेवाले को पुरस्कार की घोषणा कर दी गई । फल-स्वरूप खड्गसिंहजी को उसी रात नववधू सहित राज्य छोड़ देना पड़ा । वे वहाँ से आगरे चले आये। आगरे आकर इन्होंने थोड़े ही समय में अपनी बुद्धिमानी और दूरदर्शिता से अच्छी ख्याति प्राप्त करली । उन दिनों मुर्शिदाबाद निवासी जगत सेठ धन-दौलत, आदर सत्कार में सब से भागे बढ़े हुए थे । एक बार जब वे किसी राजकीय कार्य से देहली जा रहे थे,
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रास्ते में आगरा ठहरे । वहीं खड्गसिंहजी से आपका परिचय हुआ। जगत सेठ जो खड्गसिंहजी के स्वजातीय और सहधर्मीय थे, उनसे मिलकर बड़े प्रसन्न हुए तथा मुर्शिदाबाद में जैनियों की कमी को अनुभव कर उन्होंने खड्गसिंहजी को बंगाल आने के लिये आमन्त्रित किया। उनके आमन्त्रण से खड्गसिंहजी सं० १८२३ में बंगाल आये और अजीमगंज में बस गये। कुछ समय बाद जगत सेठजी के आग्रह से आपने दिनाजपुर में कोठी खोली और वहाँ अपना कारबार शुरू किया। कारबार में क्रमशः वृद्धि होने पर कलकत्ते में भी आपने एक शाखा खोली। यह वह समय था जब कि उनका भाग्य उनके ऊपर मुसकरा रहा था और उनका कारबार तीव्र गति से उन्नति की ओर प्रवाहित हो रहा था।
___ सं० १८४६ में आपके एक पुत्र हुए जिनका नाम उत्तमचंदजी था। उत्तमचंदजी के पैदा होने के पूर्व ही उन्होंने मोतीचंदजी नामक एक युवक का पालन-पोषण पुत्रवत् किया था। कहना न होगा कि पुत्र-रत्न की प्राप्ति हो जाने पर भी मोतीचंदजी के ऊपर आपका स्नेह पूर्ववत् ही रहा । इसका एकमात्र कारण. यही था कि आप बड़े उदार हृदय और उच्च प्रकृति के मनुष्य थे। आपको अपने धर्म पर अटल श्रद्धा थी। इसी के परिणाम स्वरूप आपने दिनाजपुर में आठवें तीर्थकर श्रीचन्द्रप्रभु स्वामी का एक सुन्दर मन्दिर और धर्मशाला बनवाये ।
सं० १८५९ में खड्गसिंहजी की मृत्यु के पश्चात् उत्तमचंदजी और मोतीचंदजी जायदाद के उत्तरा. धिकारी हुए। उत्तमचन्दजी की नाबालिगी के कारण जायदाद का सारा प्रबन्ध मोतीचन्दजी ने अपने हाथ में लिया। इन दोनों भाइयों में गहरा प्रेम था। परन्तु दुर्भाग्यवश उत्तमचंदजी का केवल १७ वर्ष की उम्र में स्वर्गवास हो गया।
___ कुछ ही समय पश्चात् सं० १८६५ में बाबू मोतीचन्दजी का भी स्वर्गवास हो गया। अब केवल उत्तमचन्दजी की विधवा पनी बीवी माया कुमारी ही बच रहीं। इन्होंने अपने पिता बाबू मेघराजजी चोरड़िया की देख-रेख में जायदाद का काम सम्हाला। कुछ समय पश्चात् इन्होंने गुलालचन्दजी को दत्तक लिया । बीबी मायाकुमारी ने अजीमगंज में सं० १९१३ में पाँचवें तीर्थकर श्री सुमतिनाथजी का मन्दिर बनवाया
और उसी वर्ष जैनियों के प्रसिद्ध तीर्थ शत्रुञ्जय पर मूल टोंक में श्री आदीश्वर भगवान के मन्दिर के उपरिभाष में प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई पश्चात् सं० १९९६ में इनका परलोकवास हुआ ।
बाबू गुलालचन्दजी--बाबू गुलालचन्दजी ने उत्तराधिकारी होने के पश्चात् जायदाद की व्यवस्था की ओर ध्यान दिया। इन्होंने अपने इलाके में कुछ ऐसे नियम प्रचलित किये जिससे प्रजा को कई सुविधायें मिलीं और वे लोग इनसे विशेष प्रसन्न रहने लगे। फलस्वरूप अब इनकी बायदाद में अच्छा लाभ होता रहा और राजकीय कर्मचारी भी इन पर बड़ी श्रद्धा रखने लगे। .
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स्व० रायबहादुर सिताबचंदजी नाहर, अजीमगंज.
स्व. रायबहादुर मणिलालजी नाहर, कलकत्ता,
当当当当当当当当当当9999999999湾当当当当当当当当当当当当当当当当当当当当当当当当当
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नाहर बाबू गुलालचन्दजी दृष्ट-पुष्ट तथा बड़े निर्भीक थे। इन्होंने कई बार साहस के साथ भयानक खतरों का मुकाबिला किया। एक समय इन्होंने सारी रात अपनी पत्नी बीबी प्राणकुमारी के साथ डाकुओं के एक दल का सामाना किया और उन्हें खदेड़ दिया। सं० १९०७ में आपका स्वर्गवास हो गया ।
__आपके पश्चात् आपकी विधवा पत्नी श्रीमती प्राणकुमारी ने बाबू सिताबचन्दजी को तीन वर्ष की अवस्था में दत्तक लिया और जब तक वे होशियार न हो गये तब तक जायदाद की व्यवस्था और देख भाल स्वयं करती रहीं। इनका स्वर्गवास १९४६ में हुआ। रायबहादुर सिताबचन्दजी नाहर
राय बहादुर सिताबचन्दजी का जन्म सं० १९०४ में हुआ। आप पटावरी गोत्र में उत्पन्न हुए थे। तीन वर्ष की उम्र में आप बाबू गुलालचन्दजी के नाम पर दत्तक लिये गये । आपका विवाह अजीमगंज निवासी बाबू जयचन्दजी वेद की पुत्री श्री गुलाब कुमारीजी से हुआ । आप हिन्दी और बंगला के अतिरिक्त संस्कृत और फारसी के अच्छे विद्वान् थे। संगीत और गायन कला में भी आपका अच्छा प्रवेश था। आपका विद्या-प्रेम अतीव सराहनीय था। सबसे पहिले आपने ही अजीमगंज में "विश्वविनोद" नामक प्रेस की स्थापना की और कई अच्छी २ धार्मिक पुस्तकें प्रकाशित की । इन्होंने जायदाद की व्यवस्था बढ़ी योग्यता से की। इनके शिक्षा सम्बन्धी विचार भी बहुत उच्च थे। बंगाल के जैनियों में आपका परिवार आज भी विद्या और संस्कृति का उच्च आदर्श माना जाता है ।
समाज तथा गवर्नमेंट में आपकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। सं० १९३०-३१ में जब बंगाल में बहुत बड़ा दुर्भिक्ष पड़ा था, उस समय आपने अकाल पीड़ितों को बहुतं सहायता पहुँचाई थी। सं० १९३२ में भारत सरकार ने आपको 'राय बहादुर' की पदवी से सम्मानित किया। महारानी विक्टोरिया की जुबली के अवसर पर अपने ग्रामवासी भाइयों की उच्च शिक्षा के लिये अपनी मातेश्वरीजी से अनुमति लेकर आपने "बीबी प्राणकुमारी जुबली हाई स्कूल" नामक एक अवैतनिक उच्च विद्यालय खोला; किन्तु छात्रों की कमी के कारण यह संस्था आगे चलकर बंद हो गई। सम्राट् एडवर्ड के राज्यारोहण के समय भी आप को कई सार्टिफिकेट और सम्मान प्राप्त हुए।
गवर्नमेंट की तरह समाज तथा जनता में भी आपका सम्मान कम न था। जैनियों के प्रसिद्ध केन्द्र अहमदाबाद में पाँचषी जैन कानफरेंस के अवसर पर आपने सभापति का आसन सुशोभित किया था । इसके अतिरिक्त अनेक संस्थाओं ने आपको मानपत्र दे देकर सम्मानित किया था।
- बीवी मायाकुमारीजी का बनाया हुआ मन्दिर गंगास्त्रोत में नष्ट हो जाने पर मापने अजीमगंज में
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नवीन मन्दिर बनवाया । इसी तरह कासिम बाजारको धर्मशाला, पावापुरीतीर्थ की विशाल धर्मशाला, अजीमगंज में "मैकेंजी पब्लिक हाल" पालीताने में 'नाहर बिल्डिंग' और कलकरो में "श्री आदिनाथजी का देरासर" और " कुमारसिंह हाल" नामक दिव्य विशाल भवन विशेष उल्लेखनीय हैं ।
आपके नाम से दिनाजपुर जिले में सेताबगंज नामक एक बस्ती वस गई है। वहाँ पर आपने एक बड़ा अस्पताल खोला है। बिहार उड़ीसा प्रान्त के सन्थाल परगने के दुमका नामक शहर के अस्पताल में भी आपने एक 'फीमेल वार्ड' बनवा दिया था। इन सब के अतिरिक्त आपने कई सार्वजनिक संस्थाओं में काफी सहायता दी थी ।
आपके ही उद्योग से अहमदाबाद में “जैन मदद फण्ड” की स्थापना हुई और आपने बीस हजार की एक बड़ी रकम इसके स्थाई फण्ड में प्रदान की थी । आप कई वर्षों तक लालबाग बेंच में आनरेरी मजिस्ट्रेट रहे और म्युनिसिपैलिटी में बहुत वर्षों तक कमिश्नर थे ।
इस प्रकार अत्यन्त यशस्वी जीवन व्यतीत करते हुए सं० १९७५ में आपका स्वर्गवास हुआ ! आपकी पत्नी श्रीमती गुलाबकुमारीजी बड़ी धर्मात्मा थीं। उनका अधिक समय धर्म ध्यान और ईश्वरोपासना में व्यतीत होता था । आप सं० १९६९ में इहलोक छोड़ परलोक सिधारीं । आपके चार पुत्र हुए जिनके . नाम क्रम से रायबहादुर मणिलालजी, बाबू पूरणचन्दजी एम० ए० बी० एल०, बाबू फतेसिंहजी और बाबू कुमरसिंहजी बी० ए० हैं । आपके ही स्मारक रूप में बाबू पूरणचंदजी ने "श्री गुलाबकुमारी लाइब्रेरी " नामक एक अत्युत्तम संग्रहालय स्थापित किया है ।
रायबहादुर मणिलालजी नाहर - आपका जन्म सं० १९२१ में हुआ । आपने बंगला, हिन्दी के अतिरिक्त अंग्रेजी में उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। आपका अधिक समय सार्वजनिक कार्यों में व्यतीत होता था । सन् १८९८ में इनके पिता की मौजूदगी में सरकार से इनको 'रायबहादुर' की पदवी प्राप्त हुई थी । इसके अतिरिक्त आपको कई सम्मानपूर्ण सार्टिफिकेट मिले थे। आप बहुत दिन तक मुर्शिदाबाद डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के मेम्बर, अजीमगंज म्युनिसिपैलिटी के चेयरमेन और लालबाग, अजीमगंज तथा कलकत्ते के प्रेसिडेंसी बेंच में आनरेरी मजिस्ट्रेट का कार्य बड़ी योग्यता से करते रहे । कलकत्ता कारपोरेशन के भी आप तीन वर्षों तक कमिश्नर थे । सं० १९६५ में आप और आपके सब भ्राता अजीमगंज से उठकर कलकते में आकर बस गये ।
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अपने समाज में भी आपका उच्च स्थान था । तिलजला रोड में आपका 'नाहर विला' नाम का एक मनोरम उद्यान है । आप अपना भारतीय चित्रकारी तथा और और कारीगरो का संग्रह बंगाल गवर्नमेंट को दे गये थे जो इस समय कलकते के इण्डियन म्युजियम के कला-विभाग में 'नाहर कलेक्शन' के नाम से
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बाबू पूरणचंदजी नाहर एम. ए. बी. एल., कलकत्ता.
बाबू फतेसिंहजी नाहर, कलकत्ता,
स्व. बाबू कुमरसिंहजी नाहर बी. ए., कलकत्ता.
बाबू अजयसिंहजी नाहर, कलकत्ता.
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भाहर प्रदर्शित होता है। सन् १९२७ में आपका अकस्मात् हार्ट फेल होने से स्वर्गवास हो गया । आपके तीन पुत्र
और एक कन्या हुए। पुत्रों के नाम क्रम से बाबू भंवरसिंहजी, बावू बहादुरसिंहनी तथा बाबू जोहारसिंहजी थे। खेद है, कि रायबहादुरजी के स्वर्गवास के पश्चात् इन तीनों पुत्रों का भी असमय में ही देहान्त होगया।
बाबू भँवरसिंहजी-आपका जन्म सं० १९४० में हुआ था। आप बड़े बुद्धिमान थे । कलकत्ते के सियालदह पुलिस कोर्ट में आनरेरी मजिस्ट्रेट की हैसियत से आपने कई वर्ष तक कार्य किया था। आपका देहान्त सं० १९०९ में हुआ। आपके सजनसिंहजी और भजनसिंहजी दो पुत्र हैं।
बाबू बहादुरसिंहजी-आपका जन्म सं० १९४२ में हुआ। आप सदा प्रसन्नचित्त रहते थे । बी० ए० तक आपने अध्ययन किया था। आपको पोस्टेज स्टाम्प के संग्रह का अच्छा शौक था। आपका देहान्त सं० १९८६ में हुआ। आपके जयसिंहजी और अजयसिंहजी दो पुत्र हैं।
बाबू जाहारसिंहजी-आपका जन्म सम्वत् १९५६ में हुआ। आप बड़े सरल प्रकृति के थे। आपने भी अंग्रेजी में उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। आप बी० ए० परीक्षा पास करके सालिसीटरी का काम सीखते थे । कुछ समय तक रोगग्रस्त रहने पर आपका देहान्त सम्वत् १९८७ में हुभा । आपके किरणसिंहजी दीपसिंहजी, ललितसिंहजी और तरुणसिंहजी ये चार पुत्र हैं। बाबू पूरणचन्दजी नाहर
आपका जन्म सं० १९३२ की वैशाख शुक्ल दशमी को हुआ था। ओसवाल समाज में जितने गण्यमान्य विद्वान हैं, उनमें आपका स्थान बहुत ऊँचा है। आपका इतिहास और पुरातत्व सम्बन्धी शौक बहुत बढ़ा-चढ़ा है। आपका ऐतिहासिक संग्रह और पुस्तकालय कलकत्ते की एक दर्शनीय वस्तु है। इनमें जो आपने अतुल परिश्रम, आजीवन अध्यवसाय और अर्थ व्यय किया है, वह प्रत्येक दर्शक अनुभव करेंगे। प्राचीन जैन इतिहास की खोज में आपने बहुत कष्ट सह कर और धन खर्च कर सुदूर आसाम प्रान्त से ले कर उत्तर-पश्चिम प्रदेश, राजपूताना, गुजरात, काठियावाड़ आदि स्थानों तक भ्रमण किया है। फलस्वरूप आपने जो "जैन लेख संग्रह” नामक पुस्तक “तीन भाग” “पावापुरी तीर्थ का प्राचीन इतिहास" "एपिटोम आफ जैनिज्म" आदि ग्रन्थ प्रकाशित किये हैं, वे ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण और नवीन अनुसन्धानों से परिपूर्ण हैं । इनके अतिरिक्त आपने समय २ पर जो निबन्ध लिखे हैं, उनका विद्वद्-समाज में बड़ा आदर हुआ है। 'आल इण्डिया ओरियंटल कानफरेंस' के द्वितीय अधिवेशन के अवसर पर जिसमें फ्रेंच विद्वान् डा० सिलभेन लेभी सभापति थे, आपने "प्राचीन जैन संस्कृत साहित्य" पर एक अंग्रेजी में प्रबन्ध पढ़ा था, वह अपने ढग का अद्वितीय था। ११वें हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में आपने "प्राचीन जैन भाषा साहित्य” पर जो लेख पढ़ा था वह भी गवेषणपूर्ण था। २० वें हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अवसर
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पर आपने प्रदर्शनी विभाग के मन्त्री की हैसियत से बहुन प्रशंसनीय कार्य किया था। आपके धार्मिक, ऐतिहासिक आदि विषयों पर हिन्दी, गुजराती, बंगला और अंग्रेजी के पत्र-पत्रिकाओं में समय २ निबन्ध प्रकाशित होते रहते हैं।
आपका शिक्षण उस समय हुआ जब ओसवाल समाज में शिक्षा का प्रायः अभाव सा था । आपने २० वर्ष की आयु में बी० ए० को परीक्षा पास की। पूर्व भारत के ओसवालों में आप ही उच्च शिक्षा प्राप्त पहले युवक थे। पत्रात् एम० ए० और बी० एल० की परीक्षाएँ पास कर हाई कोर्ट के वकील हुए । बनारस हिन्दू-विश्वविद्यालय में श्वेताम्बर जैनियों की ओर से आप कई वर्ष तक प्रतिनिधि थे । आप कलकत्ता विश्वविद्यालय के मैट्रिक, इंटरमिजियेट, और बी० ए० परीक्षाओं के कई वर्ष तक परीक्षक रहे। इसी विश्वविद्यालय के. पी० आर० एस० की बोर्ड में भी आपने परीक्षक का कार्य किया है। आप जिस समय मुर्शिदाबाद जिले के जीयागंज एडवर्ड कारोनेशन हाई स्कूल के सम्पादक पद पर रहे, उस समय आपने बड़े परिश्रम से ढाई साल तक इस कार्य को सफलतापूर्वक संचालक किया।
तीर्थ सेवा-आपने श्री महावीर स्वामी की निर्वाण भूमि 'पावापुरी' तीर्थ तथा 'राजगृह' तीर्थ के विषय में समय, शक्ति और अर्थ से अमूल्य सेवा की है। तीर्थ 'पावापुरी' का वर्तमान मन्दिर जो सम्राट शाहजहाँ के राजस्वकाल में सं० १६९८ में बना था, उस समय की मन्दिर प्रशस्ति जिसके अस्तित्व तक का पता न था, आपने ही मूलवेदी के नीचे से उद्धार किया और उसी मन्दिर में लगवा दिया है। इस तीर्थ के इलाके कुछ गाँव थे जिसकी आमदनी भंडार में नहीं आती थी, जो आपके अथक परिश्रम और एकमात्र प्रयत्न से आने लगी है। आपने पावापुरी में दीन-हीनों के लिये एक 'दीनशाला' बनवा दी है जो विशेष उपयोगी है। तीर्थ 'राजगृह' के लिये आपकी सेवा सर्वथा उल्लेखनीय है। यहाँ के विपुलाचल पर्वत पर जो श्री पार्श्वनाथजी का प्राचीन मन्दिर है, उसकी सं० १४१२ की गद्यपद्य बन्ध प्रशस्ति के विशाल शिलालेख का आपने बड़ी खोज से पता लगाया था। वह शिलालेख अभी तक वहाँ पर आपके 'शान्ति भवन' में है। इस तीर्थ के लिये श्वेताम्बर, दिगम्बर के बीच मामला छिड़ा था। उसमें विशेषज्ञों की हैसियत से आपने गवाही दी थी और आप से महीनों तक जिरह किया गया था। इसमें आपका जैन इतिहास और शास्त्र का ज्ञान, आपकी गम्भीर गवेषणा और स्मृतिशक्ति का जो परिचय मिला, वह वास्तव में अद्भुत है। पश्चात् दोनों सम्प्रदायों में समझौता हो गया। उसमें भी आप ही का हाथ था। आपने पटना ( पाटलिपुत्र ) के मन्दिर के जीर्णोद्धार में अच्छी रकम प्रदान की है। ओसियां (मारवाड़) का मन्दिर जो ओसवालों के लिये तीर्थ रूप है, आपने वहाँ की अच्छी सेवा की और समीप ही दूंगरी पर जो चरण थे, उन पर आपने पत्थर की सुन्दर छतरी बनवा दी है।
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बाबू जौहारसिंहजी नाहर, कलकत्ता.
बाबू भँवरसिंहजी नाहर, कलकत्ता.
बाबू बहादुरसिंहजी नाहर, कलकत्ता.
श्री० जे० एस० नाहर, कलकत्ता,
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नाहर
समाज-सेवा-तीर्थ सेवा के साथ १ आपने अपने जीवनकाल में समाज सेवा और जन-सेवा के भी कई प्रशंसनीय कार्य किये हैं। कलकत्ते की समस्त ओसवाल जाति में सं० १९८० में जो देशी और विदेशी समस्या पर द्वन्द्व चल गया था और जिस कारण वहाँ के समाज में घृणामूलक वातावरण पैदा हो गया था, उसको मिटाने के लिये आपने सी सूक्ष्म दृष्टि और बुद्धिमत्ता से कार्य किया बह बड़ा ही आश्चर्य. जनक था । वह कलह यहाँ के ओसवाल समाज की नस नस में फैल गया था और विशेषकर थलीधड़े के बड़े २ लोग इसमें बुरी तरह फँस गये थे । आप ही की बहुदर्शिता से यह क्लेश बड़ी कुशलता से निपट गया । आप अखिल भारतवर्षीय ओसवाल महासम्मेलन के प्रथम अधिवेशन अजमेर के सभापति चुने गये थे । इस अधिवेशन की बैठक सं० १९८९ में अजमेर में हुई थी ।
सांग्रहिक प्रवृत्ति — आप की खास विशेषता यह है कि आप प्रायः सभी वस्तुओं का संग्रह भली प्रकार करते रहे हैं । 'कुमारसिंह हाल' में 'नाहर म्युजियम' नाम से आपका जो संग्रह है, उसमें पाषाण और धातु की मूर्त्तियाँ, नाना प्रकार के चित्र, सिक्के आदि भारत के प्राचीन समय की कारीगरी के आपने अच्छे-अच्छे नमूने एकत्रित कर रखे हैं । आपका पूरा संग्रह देखने से ही आपकी संग्रह प्रियता का पता चल सकता है। कई वर्षों की कुँ कुम पत्रिकाएँ, इनविटेशन कार्ड और हिन्दी, बंगला आदि भाषाओं के साप्ताहिक, मासिक पत्र-पत्रिकाओं के मुख पृष्टों का अच्छा संग्रह है। इसी प्रकार कई विषयों पर भिन्न २ समय में प्रकाशित सूचना, हैंडबिल, निमन्त्रण पत्रादि का भी अच्छा संग्रह है। इस प्रकार जब छोटी २ वस्तुओं के संग्रह में आप इतने तल्लीन रहते हैं । तब दूसरी २ वस्तुओं का आपके पास सुन्दर संग्रह होना स्वाभाविक ही है ।
सांसारिक जीवन- आपके सांसारिक जीवन की कुछ घटनाएँ ऐसी महत्वपूर्ण हैं कि प्रत्येक व्यक्ति के लिये वे अनुकरणीय और सामाजिक जीवन की शान्ति के लिये बहुत आवश्यक हैं। प्रथम बात यह है कि आपने अपने सब पुत्रों को उच्च शिक्षा से शिक्षित किया । पश्चात् उन लोगों के सब प्रकार से योग्य होने पर आपने अपनी विद्यमानता में सबको अलग करके उनकी साम्पत्तिक व्यवस्था भी अलग २ कर दी । समाज के अन्तर्गत माता पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर भाई-भाई के झगड़े सब जगह देखे जाते हैं और जिस कारण समाज के बड़े बड़े घर नष्ट हो जाते हैं । इन बातों को देखते हुए आपका यह कार्य बहुत प्रशंसनीय है । सारांश यह कि आपका जीवन क्या धार्मिक, क्या सामाजिक, क्या साहित्यिक सभी दृष्टियों से उच्चादर्श है। आपके चार पुत्र हैं जिनके नाम क्रम से केशरीसिंहजी, पृथ्वीसिंहजी, विजय सिंहजी, और विक्रमसिंहजी हैं।
बाबू केशरीसिंहजी - आपका जन्म सं० १९५१ में
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हुआ । आपका पठन-पाठन कालेज में इंटर
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मिजियट तक हुआ। पश्चात् घर पर ही मध्ययन किया। आपने अंगरेजी, बंगला का अरछा अभ्यास किया है। आपको संगीत विषय की भी शौक है। पोस्टेज स्टाम्प के भी आप विशेषज्ञ हैं। आपके इस समय दो पुत्र है-अरुणसिंहजी और वरुणसिंहजी ।
___बाबू पृथ्वीसिंहजी-आपका जन्म सं० १९५५ में हुआ। बी. ए. की परीक्षा में उत्तीर्ण होने के पश्चात् घर पर ही आपने संस्कृत, बंगला आदि का अच्छा अध्ययन किया। भापको विद्या-व्यसन के साथ २ संगीत प्रेम भी है। सं० १९८९ में आपकी स्त्री का स्वर्गवास हो जाने पर आपने पुनर्विवाह नहीं किया है । आपके पांच पुत्र हैं-धीरसिंहजी, वीरसिंहजी, नरेन्द्रसिंहजी, निर्मलसिंहजी भोर अभयसिंहजी।
बाबू विजयसिंहजी-आपका जन्म सं० १९६३ में हुआ। आप भी बी० ए० परीक्षा पास कर कानून का अध्ययन करते थे। हाल में ही आप कलकत्ता कारपोरेशन के कौंसिलर निर्वाचित हुए हैं। आपके एक पुत्र हैं, जिनका नाम रतनसिंहजी हैं।
बाबू विक्रमासिंहजी-आपका जन्म सं० १९६७ में हुआ। आपका शिक्षण कालेज में एफ० ए० तक हुआ। इसके बाद बंगाल टेकनिकल कालेज में मिकेनिक लाइन की शिक्षा प्राप्त की। आपके इस समय एक पुत्र हैं, जिनका नाम समरसिंहजी है।
बाबू फतेसिंहजी नाहर-आपका जन्म सं० १९३८ में हुआ। आपने मुर्शिदाबाद हाई स्कूल में शिक्षा प्राप्त की। इसके पश्चात् आपने अंगरेजी, बंगला आदि भाषाओं तथा धार्मिक विषयों का घर पर ही अध्ययन किया। आपकी बुद्धि प्रखर है और आप निरालस्य तथा सादी प्रकृति के हैं। आपने अपनी जमींदारी और सम्पत्ति की विशेष वृद्धि की है । दिनाजपुर, सन्थाल परगना के अतिरिक्त २४ परगना, हबड़ा मुर्शिदाबाद, हुगली, वर्दमान, बगुडा आदि स्थानों में भी आपकी जमींदारी फैली हुई है। आपके सात पुत्र हैं-राजसिंहजी, रणजीतसिंहजी, उदयसिंहजी, महाराजसिंहजी, अजितसिंहजी, इंद्रजीतसिंहजी और जीतेन्द्रसिंहजी।
बाबू राजसिंहजी-आपका जन्म सं० १९६० में हुआ। आपका शिक्षण कालेज में आई. ए. तक हुआ। आपका विवाह बनारस के सुप्रसिद्ध राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द की प्रपौत्री से हुभा था । परन्तु खेद है कि हाल में उनका देहान्त हो गया। आपने अंग्रेजी, बंगला आदि की उच्च शिक्षा प्राक्ष की है। आप वैषयिक कार्यों में अच्छे निपुण हैं। आपके एक पुत्र हैं जिनका नाम वीरेन्द्रसिंहजी हैं।
बाबू रणजीतसिंहजी-आपका जन्म सं० १९६४ में हुआ। आप कलकत्ता विश्वविद्यालय की बी० ए० बी० एल. की परीक्षाएं पास कर कलकत्ता हाईकोर्ट में एटनी के कार्य की शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।
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बाबू राजसिंहजी नाहर, कलकत्ता.
बाबू रणजीतसिंहजी नाहर बी. ए. बी. एल., कलकत्ता.
बाबू उदयसिंहजी नाहर, कलकत्ता.
बाबू महाराजसिंहजी नाहर, कलकत्ता,
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बाबू केशरीसिंहजी नाहर, कलकत्ता.
बाबू पृथ्वीसिंहजी नाहर, कलकत्ता.
बाबू विक्रमसिंहजी नाहर, कलकत्ता,
बाबू विजयसिंहजी नाहर, कलकत्ता,
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नाहर बाबू उदयसिंहजी-आपका जन्म सं० १९६० में हुआ। भाप अंग्रेजी, बंगला आदि की शिक्षा इंटरमीनियट तक प्राप्त कर इस समय कृषि-विज्ञान सम्बन्धी कार्य में तत्पर है।
बाबू महाराजसिंहजी-आपका जन्म सं० १९७० में हुआ। भाप कालेज में आई० ए० क्लास में पढ़ रहे हैं। आपके और छोटे भाई स्कूलों में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।
बाबू कुमरसिंहजी-आपका जन्म सं० १९४० में हुआ था। मैट्रिक परीक्षा में मुर्शिदाबाद जिले में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करने के कारण आपको छात्रवृत्ति (स्कॉलरशिप) के अतिरिक्त एक सोने का और दो चाँदी के पदक पुरस्कार में मिले थे। पश्चात् आप बरहमपुर कॉलेज से एफ० ए० की परीक्षा पास कर 'ला' में पढ़ ही रहे थे कि अचानक आपका सं० १९७१ में स्वर्गवास हो गया । कलकत्ते में माहरों का निवास स्थान इण्डियन मिरर स्ट्रीट नं०४६ में आपकी स्मृति में "कुमरसिंह हाल" नामक एक विशाल भवन बनवाया गया है। पह भी नाहर वंशजों के एक गौरव की वस्तु है । स्थानीय सार्वजनिक कार्यों में इसका बारबार उपयोग होता है।
लाला गोकुलचन्दजी नाहर का खानदान, देहली इस खानदान के पूर्वजों का मूल निवासस्थान लाहौर था। यहाँ से इस खानदान के पूर्व पुरुष लाला नीधूमलनी दिली आये। तभी से यह खानदान देहली में ही निवास कर रहा है तथा आज भी लाहोरी के नाम से प्रसिद्ध है। लाला नीधूमलजी के सीधूमलजी नामक एक पुत्र हुए। आपके पुत्र जीतमलजी के बुधसिंहजी तथा चुनीलालजी नामक दो पुत्र हुए। लाला बुधसिंहजी के शादीरामजी नामक एक पुत्र हुए।
लाला शादीरामजी का संवत् १४४५ में जन्म हुआ। आपने छोटी उमर से ही अपने व्यापार में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया था। आपने गोटे किनारी का व्यापार शुरू किया। इस व्यापार में भापको काफी सफलता मिली। आपका सं० १९३८ में स्वर्गवास हुआ। आपके लाला भेरूदासजी तथा लाला गोकुलचन्दजी नामक दो पुत्र हुए । लाला भेरूदासजी का जन्म संवत् १९१७ में हुभा ।
लाला गोकुलचन्दजी-आपका जन्म संवत् १९२४ में हुआ। आप बड़े मशहूर तथा पंजाब के स्थानकवासी समाज में बड़े प्रतिष्ठित सजन हैं। आपने संवत् १९१६ से अपनी फर्म पर जवाहरात का व्यापार शुरू किया। इस व्यापार में आपको काफी सफलता प्राप्त हुई। इस समय आपकी फर्म पर बैकिंग तथा किराये का व्यवसाय होता है।
आपकी धार्मिक भावना बढ़ी चढ़ी है। आपने कई धार्मिक कार्यों में सहायताएँ प्रदान
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मोसवाल जाति का इतिहास
की हैं । आपको संवत् १९६२ में दिल्ली की जैन समाज ने जैन बिरादरी का काम सौंपा । जिस समय आपको यह काम सौंपा गया था उस समय उक्त संस्था में १८ ) मासिक की आमदनी थी। आपने अपनी बुद्धिमानी से इसकी आय बढ़ाते २ करीब १२००) मासिक के कर दी तथा देहली में एक बहुत ही भव्य स्थानक बनवाया। इस स्थानक के लिये आपने किसी से भी कुछ चंदा नहीं लिया। अभी तक इस स्थानक में दो लाख रूपया लग चुके हैं। मकान अभी तक बन रहा है । धार्मिक प्रेम के साथ ही साथ आपका विद्यादान की ओर विशेष लक्ष्य रहा है। आपने सन् १९२० में महावीर जैन मिडिल स्कूल स्थापित किया, जो सन् १९२८ से हॉयस्कूल हो गया है तथा जिसका मासिक खर्च १२००) है । इसी प्रकार आपके प्रयत्नों से महावीर जैन लायब्ररी, महावीर जैन कम्या पाठशाला, महावीर जैन विद्यालय आदि २ सार्वजनिक संस्थायें स्थापित हुईं जिनसे देहली की जनता बहुत लाभ उठा रही है ।
तदनुसार ही आपके प्रयत्न से रोहतास में ११५००) में एक मकान लिया गया और वहाँ स्थानक बनाया गया। तदनंतर इस पर कुछ झगड़ा खड़ा होने पर आपने १०००) खर्च करके इसे तथा २१००) खर्च करके सब्जी मण्डी वाली धर्मशाला को जनता की सेवा निमित्त खुली रक्खी ।
सेठ जवरीमल सुगनचन्द नाहर का खानदान, अजमेर
इस परिवार के पूर्वज नाहर मेघाजी अजमेर से ४ कोस की दूरी पर राजोसी नामक गाँव में रहते थे। इनके पुत्र भालूजी संवत् १७७५ में अजमेर आये। भालूजी के पुत्र माणकजी हुए तथा इनके धनाजी, फतेचन्दजी और बच्छराजजी नामक तीन पुत्र हुए। फतेचन्दजी के नाम पर रूपचंदजी दलक आये । आपका स्वर्गवास संवत् १९२८ में हुआ। आपके हरक बन्दजी, हजारीमलजी, आसकरणजी, सिद्धकरणजी तथा छोटूलालजी नामक ५ पुत्र हुए। इनमें हरकचन्दजी माहर वष्टराजजी के नाम पर दत्तक गये । इनका संवत् १९३४ में स्वर्गवास हुआ।
हजारीमलजी नाहर - आपने संवत् १९१९ में मेट्रिक पास किया। आप पटना और अजमेर के तहसीलदार और अजमेर म्युनिसिपैलेटी के सेक्रेटरी और मेम्बर रहे। संवत् १९४२ में आपने हिन्दू मुसलमानों के बीच समझौते में जोरों से भाग लिया। आपके पुत्र नाहर जोधराजजी एफ० ए० तक पढ़े हैं, तथा गोटे का व्यापार करते । इनके पुत्र जावंतराजजी तथा जयचन्दजी विजयचन्दजी हैं। इनमें जावं तराजजी छोटूलालजी के नाम पर दत्तक गये हैं।
जंवरीमलजी नाहर - आप आसकरणजी माहर के पुत्र हैं। तथा भजमेर की भोसवाल समाज में ६०६..
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ओसवाल जाति का इतिहास
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लाला गोकुलचंदजी नाहर, देहली.
(परिचय पेज नं० ३०५)
श्री० हेमसिंहजी डड्ढा, फलौदी. :
(परिचय पेज नं० २७५)
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श्री० मेघराजजी बंदा मेहता, कोयम्बटूर.
(परिचय पेज नं. ३४५)
सेठ बसंतीलालजी नाहर, रामपुरा.
(परिचय पेज नं० ३०८)
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्वर्गीय मुंशी हजारीमलजी नाहर, अजमेर.
स्वर्गीय मास्टर छोटूलालजी नाहर, अजमेर.
स्वर्गीय सेठ जवरीलालजी नाहर, अजमेर.
बाबू सुगनचन्दजी नाहर, अजमेर.
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माहर
पुराने और प्रतिष्टित व्यक्ति हैं। साधु सम्मेलन अजमेर के समय भाप स्थानीय स्वागत समिति के सभापति निर्वाचित किये गये थे । आपका संवत् १९१९ में जन्म हुआ है । आपके पुत्र पन्नालालजी साहुकारी और गोटे के व्यापार को सह्मालते हैं । इनके पुत्र पारसमलजी और अभयमलजी पढ़ते हैं।
___ नाहर सिद्धकरणजी के पुत्र पन्नालालजी हुए । इनके पुत्र अमरचन्दजी तथा मूलचन्दजी गोटे का व्यापार करते हैं और तीसरे पुत्र चांदमलजी नाहर सुगनचन्दजी के नाम पर दत्तक गये हैं।
छोटू लालजी नाहर-भाप सन् १८८५ में एफ. ए. पास कर जोधपुर हाईस्कूल के हेडमास्टर हो गये । चार वर्ष बाद आप अजमेर मेयो कालेज में जोधपुर हाउस के गार्जियन के स्थान पर निर्वाचित किये गये । और इसी पद पर कार्य करते हुए सन् १९११ में भाप स्वर्गवासी हुए । आपके नाम पर जावंतराजजी दत्तक आये हैं।
सुगनचन्दजी नाहर-आप हरकचन्दजी नाहर के पुत्र हैं। आपका जन्म संवत् १९२९ में हुआ। सन् १८९७ में आप एफ० ए० क्लास छोड़कर पो० डब्ल्यू. डी० में नौकर हो गये । सन् १९०० में भाप २५) मासिक पर बी० बी० सी० आई० रेलवे के ऑडिट ऑफिस में छाकं हुए, और इसी विभाग में तरकी पाते २ सीनियर ट्रेढेलिंग इन्स्पेक्टर ऑफ अकाउंट के पद पर ४००) मासिक वेतन तक पहुंचे। इस प्रकार सर्विस को सफलता पूर्वक अदा करते हुए मार्च १९३० में आप ग्रेच्युटी लेकर सर्विस से रिटायर्ड हुए।
सुगनचन्दजी नाहर ने सर्विस से रिटायर होने के बाद सार्वजनिक व धार्मिक कामों में हिस्सा लेना भारंभ किया है। आप अखिल भारतीय ओसवाल कान्फेंस अजमेर के उप स्वागताध्यक्ष तथा स्थानक वासी साधु सम्मेलन की स्वागत समिति के सेक्रेटरी निर्वाचित हुए थे। इन सम्मेलनों को सफल बनाने में मापने भरसक प्रयत्न किया था । आपने अपने नाम पर दिमलजी को दत्तक लिया है । इनके समरथमल और और संतोषमल नामक पुत्र हैं।
लाला हीरालाल चुनीलाल नाहर का खानदान, लखनऊ
इस खानदान के पूर्वज लगभग २५० साल पहिले मारवाद से देहली आये, यहाँ उस समय इस वंश में लाला गूजरमलजी प्रतापी पुरुष हुए। इनका शाही दरबार में भी अच्छा मान था। इत्तिफाक से देहकी के बादशाह से नबाव लखनऊ की कुछ अनबन होगई, उस समय लाका गूजरमलजी, लखनऊ नबाव के भागृह से लखनऊ आ गये, और यही इन्होंने अपना स्थायी निवास बनाया । आपके यहाँ जवाहरात और महाजनो का कारबार होता था। आपके पुत्र पूनमचन्दजी हुए और पूनमचंदजी के पन्नालालजी तथा छगनमलजी नामक २ पुत्र हुए। इनमें लाला पूनमचन्दजी के हीरालालजी, जवाहरलालजी तथा मोती
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श्रीसंभाल जाति का इतिहास
लालजी नामक तीन पुत्र हुए, इनमें जवाहरमलजी, आगनमलजी के नाम पर दत्तक गये। इन बन्धुओं के समय से यह परिवार अलग २ व्यापार कर रहा है ।
बाला हीरालालजी का परिवार छाला हीरालालजी संवत् १९५३ में स्वर्गवासी हुए । आपके चुन्नीलालजी, चम्पालालजी, मूलचन्दजी तथा फूलचन्दजी नामक ४ पुत्र हुए । लाला चुन्नीलालजी ने इस खानदान की दौलत और इज्जत को बहुत बढ़ाया। आपने लखनऊ से बैल गाड़ियों द्वारा आबूजी और गोड़वाद की पंचतीर्थी का संघ निकाला । आप जवाहरात के व्यापार में और चोरासी संघ के काम में अच्छे जानकार थे। इस प्रकार प्रतिष्ठा पूर्ण जीवन बिताते हुए आप संवत् १९७३ में स्वर्गवासी हुए । आपके छोटे भ्राता चम्पालालजी और फूलचन्दजी आपसे पहिले गुजर गये थे । सब से छोटे लाला मूलचन्दजी संवत् १९८० में स्वर्गवासी हुए। इनके फतेचन्दजी और अमीचन्दजी नामक २ पुत्र विद्यमान हैं । में हुआ 1 - लाला फतेचन्दजी का जन्म संवत् १९४८ और अमीचन्दजी का १९५० आप दोनों बुद्धिमान और सुवरे हुए विचारों के सज्जन हैं। आपके यहाँ जवाहरात तथा लेन-देन का व्यापार होता है । लखनऊ की ओसवाल समाज में तथा बौहरी समाज में यह परिवार पुराना और प्रतिष्ठित माना जाता है। लाला फतेचन्दजी के पुत्र नौरतनमलजी, धनपतराजजी और प्रतापचन्दजी तथा अमीचंदजी के पुत्र
अमोलकचन्दजी हैं।
लाला जवाहरमलजी के पुत्र मानकचन्दजी तथा नानकचन्दजी थे। इनमें मानकचन्दजी के नगीनचन्दजी, आनंदचन्दजी और केसरीचंदजी नामक ३ पुत्र हुए।
सेठ बसंतीलालजी नाहर का खानदान, रामपुरा
आप
इस परिवार के सज्जन बहुत वर्षों से इन्दौर राज्य के रामपुरा नामक नगर में रहते हैं । इस परिवार में माणानी बड़े नामाश्री जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी सम्प्रदाय को माननेवाले सज्जन हैं । कित व्यक्ति हुए । आप अफीम का व्यापार करते थे । आप सालमशाही रुपया परखना अच्छा जानते थे । आपकी परोपकार के कामों की तरफ भी काफी इच्छा रहती थी । आपने यहाँ पर एक बावड़ी भी बनवाई थी ।
आपके पश्चात् इस फर्म की दो शाखाएँ हो गईं जिनमें से एक शाखा मन्दसौर चली गई तथा दूसरी शाखा रामपुरा में विद्यमान है। नाहर माणाजी के वंश में आगे चलकर बहुतलालजी और बसंतीलालजी नामक दो भाई हुए ।
1. बहुत लालजी नाहर - आप बड़े व्यापार कुशल व्यक्ति थे। आपका स्वर्गवास हो गया है। आपके
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० सेठ कुंदनमलजी नाहर, न्यायडोंगरी ( नाशिक)
स्व० सेठ गुलाबचन्दजी नाहर, न्यायडोंगरी (नाशिक)
सेठ चुन्नीलालजी नाहर (भीवराज चुन्नीलाल ) न्यायडोंगरी.
श्री बंशीलालजी नाहर (कुंदनमल गुलाबचन्द) न्यायडोंगरी.
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नाहर
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जवाहरलालजी, मोतीलालजी तथा माणकलालजी नामक तीन पुत्र हुए। आप इस समय रामपुरा में अपने काका बसंतीलालजी के साथ सम्मिलित रूप से व्याज, सोने चाँदी तथा कपड़े का व्यवसाय करते हैं ।
बसंतीलालजी नाहर — आप बड़े देशप्रेमी, शिक्षित तथा सुधरे हुए विचारों के सज्जन हैं । रामपुरा की ओसवाल समाज में आपका काफी सम्मान है। परोपकार तथा सार्वजनिक कार्यों में आप सहायता देते रहते हैं ।
सेठ भींवराज चुन्नीलाल नाहर का खानदान, न्यायडोंगरी ( नाशिक )
इस परिवार के पूर्वज सेठ प्रयागजी नाहर के पुत्र सेठ कस्तूरचन्दजी नाहर लगभग ९०-१०० साल पूर्व अपने मूल निवास स्थान बाजूली ( मेड़ते के पास ) से व्यापार के निमित्त रोझाना ( मालेगाँव तालुका) में आये । यहाँ से आपका परिवार संवत् १९३८ के लगभग न्यायडोंगरी भाया । आपके भींवराजजी, कुन्दनमलजी और छगनीरामजी नामक ३ पुत्र हुए। संवत् १९५० में इन भाइयों का काम काज अलग २ हो गया । संवत् १९५२ में सेठ कस्तूरचन्दजी स्वर्गवासी हुए। आपका परिवार स्थानकवासी आम्नाय को मानने वाला है ।
सेंठ भींवराजजी का परिवार - आपके चुनीलालजी, लच्छीरामजी और लालचन्दजी नामक ३ पुत्र हुए । सेठ चुन्नीलालजी के हाथों से इस खानदान के व्यापार और सम्मान में विशेष तरक्की मिली। आप यहाँ के और आसपास के व्यापारिक समाज में अच्छी इज्जत रखते हैं। आपका जन्म संवत् १९३८ में हुआ। आपके यहाँ चुन्नीलाल भींवराज के नाम से रुई और गले का बड़े प्रमाण में व्यापार और भारत का काम होता है । आपके छोटे भाई लच्छीरामजी आपके साथ व्यापार में भाग लेते हैं। इनके पुत्र कन्हैयालालजी और घेवरचन्दजी हैं ।
सेठ कुन्दनमलजी का परिवार - आपने अपने व्यापार की उन्नति में विशेष भाग लिया । राज दरबार तथा आस पास की ओसवाल समाज में आप वजनदार पुरुष थे । गाँव के लोग आपको आदर की दृष्टि से देखते थे । संवत् १९७३ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र गुलाबचन्दजी ने दुकान के काम को व्यवस्थित रूप से चलाया । आपका स्वर्गवास १९८३ में होगया है । आपके नाम पर बंशीलालजी बढ़ोनी ( कुचेरा ) से दत्तक आये हैं । आप समझदार तथा होशियार सज्जन हैं, और परिवार के साथ मेल से रहते हैं। आपके यहाँ गुलाबचन्द कुन्दनमल के नाम से साहुकारी व्यवहार होता है ।
सेठ छगनीरामजी का परिवार - आप बड़े योग्य पुरुष थे। संवत् १९६० में आपका स्वर्गबास हुआ। आपके पुत्र लखमीचन्दजी, पूनमचन्दजी के बालचन्दजी तथा दीपचन्दजी मौजूद हैं। आप छगनीराम कस्तूर वन्द के नाम से व्यापार करते हैं। आपके पुत्र इन्द्रचन्दजी तथा मोहनलालजी हैं ।
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मोसवाख माति का इतिहास
- लाला मोतीराम चुनीलाल नाहर का खानदान, अमृतसर
इस सानदान के लोग श्वेताम्बर जैन स्थानक वासी भानाय को मानने वाले हैं। इस खानवान का मूल निवास स्थान होशियारपुर का है। करीब दो वर्षों से अमृतसर में इस खानदान की दुशन स्थापित हुई है।
इस सानदान में लाला हरमुखरायजी बड़े मशहूर और प्रतापी व्यक्ति हुए। आप पंजाब में ब्रिटिश गवर्नमेण्ट के करीब इस पन्द्रह जिलों के लिए पहले पहल खजान्ची चुने गये थे। आपके पांच पुत्र हुए-का• मेहरचन्दजी, लाला राजमलजी, ला• लालचन्दजी, लाला कन्हैयालालजी और लाला बादीशाहजी। इनमें लाला मैहरचन्दजी का खानदान इस समय लाहौर में वसा हुआ है।
ला. राजमलजी को गवर्नमेण्ट के साथ कारोबार होने से बहुत से सार्टिफिकेट भी प्राप्त हुए थे। भाप ओसवाल जाति में बड़े नामी और प्रतिष्ठित थे। आपके चार पुत्र हुए-ला. फतेचंदजी, ला. नाथूरामजी, ला. गंगारामजी और लाला दौलतरामजी ।
ला. दौलतरामजी का जन्म संवत् १९३६ में हुआ। आप बड़े सादे और सरल प्रकृति के पुरुष थे। आप बड़े धर्म प्रेमी थे। भापके चार पुत्र हुए-साला मोतीरामजी, चुनीलालजी, ज्ञानचन्दनी और प्रेमचन्दजी।
ला. मोतीरामजी का जन्म संवत १९५६ का है। आप बड़े योग्य, उत्साही और बुद्धिमान युवक हैं। आप बड़े धार्मिक और समाज सुधारक व्यक्ति हैं। आप पंजाब जैन संघ सियालकोट के सेक्रेटरी, पत्री तहकीकात कमेटी होशियारपुर के सेक्रेटरी, होशियापुर जैनसभा के सेक्रेटरी है। आप साहित्य के भी बड़े प्रेमी हैं। इसके अतिरिक्त आपने बहुत परिश्रम करके होशियारपुर में अमर जैन पांजरापोल की स्थापना की और इस समय आप ही उसके सेक्रेटरी है। होशियारपुर मर्चेण्ट ऐसोसियेशन के आप सेक्रेटरी हैं, हिन्दू सेवा समिति होशियारपुर के भी आप प्रेसीडेण्ट रहे हैं । पंजाब जैन स्थानकवासी सभा की सब्जेक्ट कमेटी के आप मेम्बर रहे हैं। अजमेर के साधु सम्मेलन की अन्तरंग कमेटी के भी भाप मेम्बर थे और भी बहुत से सामाजिक और धार्मिक कार्यों में आप बड़ी दिलचस्पी से भाग लेते हैं। आपने अपने हाथ से अपनी ब्यापारिक स्थिति को भी बहुत तरकी प्रदान की। अमृतसर ब्रांच भी आपने अपने ही हायों से खोली। होशियारपुर और अमृतसर की जैन समाज में आपकी बहुत प्रतिष्ठा है। आपके इस समय दो पुत्र है-बाबू गिरधारीलालजी और शादीरामजी। आप दोनों ही इस समय पढ़ रहे हैं।
ला. चुनीलालजी का जन्म संवत् १९५९ में हुआ। आप बड़े धर्म प्रेमी है। और कार. पार के काम में भाग देते हैं। भापके पवनकुमारजी नामक एक पुत्र है।
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ला. ज्ञानचन्दजी का जन्म १९६३ में हुमा था। भाप केवल 10 वर्ष की उम्र में अपने परि. बार वालों को दुखित कर स्वर्गीय हो गये।
ला. प्रेमचन्दजी का जन्म संवत् १९६७ में हुआ | आप भी इस समय दुकान के कारोबार में भाग लेते हैं।
लाला निहालचन्द लखूमल नाहर, सियालकोट इस खानदान का मूल निवासस्थान होशियारपुर का था। वहाँ से इस खानदान वाले करीब २५०-३०० वर्ष पूर्व सियालकोट में आकर बसे । तभी से आप लोग सियालकोट में ही निवास करते हैं। आप लोग श्री जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी आम्नाय को माननेवाले सज्जन हैं। इस खानदान में लाला लालशाहजी मशहूर व्यक्ति हुए। आपके निहालचन्दजी नामक एक पुत्र हुए। आप सराफी का व्यापार करते थे। आप बड़े धर्मात्मा तथा बिरादरी में बड़े इज्जतदार व्यक्ति थे। आपके लाला लद्दूमलजी, पक्षालालजी तथा दीवानचन्दजी नामक तीन पुत्र हुए।
लाला लवूमलजी का संवत् १९४० में जन्म हुआ। भाप बड़े धर्मध्यानी तथा व्यापारमाल सज्जन हैं। आपके नगीनालालजी, जंगीलालजी, हंसराजजी, कस्तूरीलालजी तथा शादीलालजी नामक पाँच पुत्र हुए। इनमें लाला नगीनालालजी के मदनलालजी एवम् सुभाषचन्दजी नामक दो पुत्र हैं ।
लाला पन्नालालजी का जन्म संवत् १९४२ में हुमा। आप बड़े धार्मिक पुरुष हैं। भापके पिशोरीलालजी, लाहोरीलालजी, राजकुमारजी, चिमनलालजी, चैनलालजी तथा तिलकचन्दजी नामक छः पुत्र हैं। लाला पिशोरीलालजी के सुदर्शनकुमारजी तथा प्रेमचन्दजी, लाहोरीकारूजी के जगदीशकुमारजी, पुरानशीलजी तथा रेशमचन्दजी नामक पुत्र हैं। पिशोरीलालजी तथा साहोरीलालजी इस समय व्यापार में भाग लेते हैं।
____ लाला दीवानचन्दजी का जन्म सं० १९४५ में हुआ। आप भी बड़े मिलनसार पुरुष है। भापके रोशनलालजी, हरवंशलालजी तथा तरसेपचन्दजी नामक पुत्र है। इनमें से रोशनलालजी म्यापार में भाग लेते हैं।
__यह खानदान यहाँ की ओसवाल समाज में प्रतिष्ठित है। इसकी यहाँ पर ५ सराफी की दुकानें तथा एक पीतक के वर्तन की दुकान भी है। आप लोगों का एक बहुत बड़ा परिवार है और इस समय भाप सब लोग बड़े प्रेम से सम्मिलित रूप से ही व्यवसाय करते तथा एकही साथ रहते हैं।
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बोतवाल आति का इतिहास ... : लाला कृपारामजी नाहर, होशियारपुर
आपका खानदान होशियारपुर का ही निवासी है । लाला कृपारामजी के पिताजी लाला रामजसजी का स्वर्गवास लगभग १० साल पहिले हो गया। सन् १८८१ में लाला कृपारामजी का जन्म हुआ। लगभग बीस साल की उमर में आपने मेट्रिक और कमर्शियल क्लास पास किया और उसके दो तीन साल बाद आप म्युनिसिपल सर्विस में शरीक हुए, और इधर सन् १९०६ से होशियारपुर म्यु. के सेक्रेटरी पद पर कार्य करते हैं। ..
- लाला कृपासमजी नाहर होशियारपुर की जैन समाज में अच्छे प्रतिष्ठित व्यक्ति है। स्थानीय जैन सभा के आप सेक्रेटरी रहे हैं। आप स्थानकवासी आम्नाय के मानने वाले सज्जन हैं । धार्मिक ग्रहों में आप हिस्सा लेते रहते हैं। भापके पुत्र जुगलकिशोरजी, रोशनलालजी और मदनलालजी हैं।
दुधोरिया
दुधोरिया गौत्र की उत्पत्ति
मसीह सन् से १२५-11० वर्ष पूर्व त्यवन नामक चौहान क्षत्रिय राजा अजमेर में राज्य करते थे। इन्हीं महापुरुष से इस गौत्र की उत्पत्ति हुई है। इनके ३०० वर्ष बाद राजा दुधोरराव गद्दी पर बैठे। आपने सम्वत् २२२ (सन १६५ ईस्वी) में जैन धर्म की दीक्षा ली और तभी से आपके वंशज
दुधोरिया के नाम से प्रसिद्ध हुए। तभी से दुधोरिया गौत्र की स्थापना हुई। ... राय बुद्धसिंहजी दुधोरिया बहादुर का खानदान, अजीमगंज
अजीमगंज के इस प्राचीन प्रतिष्ठित परिवार का मूल निवासस्थान अजमेर का है। वहाँ से वीर प्रतापी राव दुधोर के तृतीय पुत्र मोहनपालजी के समय से यह परिवार चन्दोरी में चला आया और वहाँ से समय २ पर यह परिवार बनीकोट, रतलाम आदि स्थानों में होता हुआ बीकानेर के राजलदेसर नामक स्थान पर 10 वीं शताब्दी के मध्यकाल के लगभग चला गया। सन् १७०४ ई० में हरबीमालजी दुधोरिया अपने दो पुत्र सवाईसिंहजी और मौजीरामजी को लेकर अजीमगंज आये और यहाँ बस गये । आपने यहाँ पर व्यवसाय आरम्भ किया और अपनी योग्यता से अल्पकाल में ही अच्छी उन्नति की । पर व्यवसाय की वास्तविक उन्नति हरकचन्दजी दुधोरिया के समय में हुई । आपने अजीमगंज के अतिरिक्त कलकत्ता, सिराजगंज,
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ओसवाल जाति का इतिहास
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राय बुद्धसिंहजी का परिवार, अजीमगंज.
बीच में बैठे हुए-स्व० राय बुद्धसिंहजी दुधोरिया बहादुर. ऊपर नं० १-स्व० बा० अजीतसिंहजी दुधोरिया, नं० २-स्व० बा० कुँवरसिंहजी दुधोरिया. नीचे नं० १-बा. जयकुमारसिंहजी दुधोरिया, नं० २-बा० नवकुमारसिंहजी दुधोरिया,
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- धोरिया जंगीपुर और मैमनसिंह में अपनी बैटिंग की फमें स्थापित की। आप सन् १८१२ में स्वर्गवासी हुए। आपके बुद्धसिंहजी तथा विशनचन्दजी नामक दो पुत्र हुए।
वुद्धसिंहजी और विशनचन्दजी-माप दोनों हीभाईवाल्यकाल से ही कुशाग्रबुद्धि और होनहार थे। अतः अपनी फर्म के व्यवसाय को आप लोगों ने बरे हो सुचारू रूप से संचालित कर बहुत अधिक बढ़ा लिया। आप लोगों ने अपनी पूंजी जमीदारी खरीदने के काम में लगाई और थोदे ही समय में मुर्शिदाबाद, मैमनसिंह, वीरभूमि, प्रदिया, फरीदपुर,पुनिया, दिनाजपुर और राजशाही जिलों में आपकी काफी जमीवारी हो गई। आप लोगों ने धन संचय के अतिरिक्त उसके सदुपयोग की और भी अच्छा ध्यान दिया। समाज के दीन व्यक्तियों की सहायता करना, भूखों को खिलाना, अकाल के समय अवक्षेत्र खोल कर पीड़ितों की मन व से सहायता करना बादि जितने ही लोकोपकारी कार्य आपने किये । इन सबसे प्रसन्न होकर मर मे दोनों भाइयों को रायबहादुर' के सम्मान से सम्मानित किया। माप लोग मुर्शिदाबाद की साकीचमाबरी मजिस्ट्रेट नियुक्त किये गये। सन् 100 में दोनों भाई अलग से गये और अपने नाम से स्वतंत्र कार्य करने लगे।
राम बुद्धसिंहजी दुधोरिया वहादुर के इन्द्रचन्द्रजी, अजितसिंहजी तथा मारसिंहजी नामक तीन पुत्र हुए। बाबू इन्द्रचन्द्रजी बडे ही होनहार, सुशिक्षित एवं उत्साही नवयुवक थे। भापके बा. जगतसिंहजी और रणजीतसिंहजी नामक दो पुत्र हुए, जिनमें बा. रणजीतसिंहजी विद्यमान हैं। सन् १८८९ ई. में बाबू इन्द्रचन्द्र दुधोरिया ने योरोप की यात्रा की और वहाँ से लौटने पर आपने अपने पिता से सामाजिक सम्बन्ध विच्छेद कर लिया। कुछ ही समय बाद आपका भी स्वर्गवास हो गया। बाबू अजितसिंहजी एवम् बाबू कुँवरसिंहजी दुधोरिया राय बुधसिंहजी बहादुर की दूसरी धर्मपत्नी से हुए। आप दोनों का खेदजनक स्वर्गवास सन् १९१० ई० में २४ घण्टों के अन्तर से होगया। बा० अजितसिंहजी के दो पुत्र हुए जिनका नाम गबू नवकुमारसिंहजी और जयकुमारसिंहजी हैं। यही दो पौत्र वर्तमान में राय बहादुर बुद्धसिंहजी के उत्तराधिकारी हैं। कुमारसिंहजी के कोई सन्तान नहीं हुई।
दुधोरिया राजवंश की इस प्रधान शाखा के ये दोनों उत्तराधिकारी अपने पितामह के स्वर्गवास के समय सन् १९२० में केवल १५ और १४ वर्ष के थे। अतः इनके संरक्षण का भार आपके सुयोग्य चाचा राजा विजयसिंहजी दुधोरिया के हाथ में आया। आपने अपनी वंश परम्पस के अनुकूल उन्हें उच्च शिक्षा से विभूषित किया । इन दोनों महानुभावों का व्याह महिमापुर के इतिहास प्रसिद्ध जगत् सेठ की बहिन और पुत्री से सन १९१९ में हुआ। इनके भी एक २ पुष हैं। वयस्क होते ही इन्होंने अपनी स्टेट का सारा कार्यभार सन १९६६ के अगस्त मास से सम्हाल लिया। आप दोनों ही होनहार और उत्साही
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भोसवाल जाति का इतिहास
नवयुवक हैं। आप अपने कुछ परम्परा के अनुसार ही अपना सारा प्रबन्ध संचालित करते हैं। आपके पूर्वजों के द्वारा प्रोत्साहित सभी कार्यों ओर संस्थाओं को बराबर आप लोग सहायता दिया करते हैं। आपके यहाँ प्रधान व्यापार बैंकिंग का है। आपकी बहुत बड़ी जमींदारी है।
राप बुद्धसिंहजी बहादुर पुराने ढंग के सज्जन थे। आपको 1600 में 'राय बहादुरी' का सम्मान प्राप्त हुआ । भाप बडे सहृदय और उदार सजन थे । मापका व्यवहार स्पष्ट और सादा था। इन्ही विशेषताओं के कारण आपकी बहुत बड़ी प्रतिष्ठा थी। सन् १९०४ में आपने अखिल भारतवर्षीय जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेन्स बढ़ौदा के अधिवेशन में सभापति का आसन सुशोमित किया था। आपको सभी आदर की दृष्टि से देखते थे। आप दोनों भाइयों ने जंगीपुर डिस्पेन्सरी और बस्ताको लिए एक मूल्यवान भवन तैयार कराया था। आप ही ने गिरिडिह और जंगीपुर में जैन मन्दिर तथा पावापुरी (बिहार) आबूपर्वत, पारसनाथ पहाड़ी, बम्बई, रानी (मारवाद) और अजीमगंज में धर्मशालाएँ बनवाई थीं। आप लोगों ने अजीमगंज में कन्या पाठशाला और अजीमगंज, बनारस, पालीताना और धोराजी में जैन पाठशालायें चलाई। और भी कई धार्मिक कार्यों में आपने बड़ी सहायता दो। जैन समाज में इस परिवार को बहुत प्रतिष्ठा है।
___ इस परिवार की कई स्थानों पर बैंकिंग का व्यापार करने के लिए फमें खुली हुई है। इसके भतिरिक्त संथाल, परगना दुमका भादि जिलों में आपकी जमींदारी है।
रायबहादुर विशनचन्दजी दुधोरिया का खानदान, अजीमगंज
इस प्रसिद्ध खानदान का पूर्व परिचय हम पिछले पृष्टों में दे चुके हैं। इस खानदान का इतिहास श्री हरकचन्दजी, दुधोरिया के द्वितीय पुत्र राव विशनसिंह जी बहादुर से प्रारंभ होता है । आप का विशेष परिचय आपके ज्येष्ठ भ्राता के साथ पहिले दे चुके हैं। आप बड़े कार्य कुशल मिलनसार तथा योग्य सज्जन थे। आपका देहावसान सन् १८९४ ई. में हुआ। उस समय आपके पुत्र बाबू विजय. सिंहजी की आयु केवल 18 वर्ष की थी। स्टेट का सारा प्रबन्ध भार आपके चचा राय बहादुर बाबू बुद्धसिंह जी के हाथ में रहा । सन् १९०० ईसवी में मापने अपनी स्टेट का सारा भार अपने हाथ में लिया । भाप भारम्भ से ही होनहार थे। आपने अपने काय्यों से खूब यश सम्पादित किया। सरकार ने आपको सन् १९०३ में अजीमगंज के म्युनिसिपल कमिश्नर मनोनीत किया। सन् १९०१ ई.की अ. भा. जैन कान्फरेन्स के बदौदा वाले अधिवेशन में आपके चचा रायबहादुर बुद्धसिंहजी प्रमुख और राजा सा० उप सभापति रहे । सन् १९०६ में भाप भजीमगंज म्युनिसिपैलिटी के चेयरमैन निर्वाचित हुए, सन् १९०८
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
स्वर्गीय राय विशनचन्द्रजी दुधोरिया बहादुर, अजीमगंज.
कुमार चन्द्रसिंहजी दुधोरिया, S/o राजा विजयसिंहजी अजीमगंज,
स्वर्गीय राजा विजयसिंहजी दुधोरिया, ग्राफ अजीमगंज.
कुमार पदमसिंहजी दुधोरिया, S/o राजा विजयसिंहजी अजीमगंज,
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हुधोरिया १. में सरकार ने आपको राजा को उपाधि से सम्मानित कया। भाप जितने कायं दक्ष थे उतने ही दानवीर भी थे। आपका झुकाव शिक्षा प्रसार की ओर अधिक रूप से रहता थ । सन् १९१५ ई. में आप कलकत्ता के ब्रिटिश इण्डिया एसोसियेशन के उप सभापति रहे । आप मुर्शिदाबाद जिला बोर्ड के सदस्य, इम्पीरियल लीग की कार्य कारिणी के सभासद, किंग एडवर्ड मेमोरियल फण्ड कमेटी के मेम्बर रहे है। इसके अतिरिक्त आप कलकत्चे के मशहूर क्लब लेण्ड होल्स ऐसोसियन कलकत्ता के, जैन एसो. सियेशन आफ इण्डिया बम्बई के, आनन्दजी कल्याणजी की पेढ़ी की, तीर्थ स्थान कमेटी के और कलकत्तल रॉयल ट्रोफ क्लब के मेम्बर थे। श्री सम्मेदशिखरजी के झगड़े के लिए पटने में जो कान्फरेन्स हुई थी उसके आप प्रेसीडेन्ट निर्वाचित हुए थे। सार्वजनिक कामों में इस प्रकार लगे रहने पर भी आप अपने व्यवसाय का कार्य स्वयम् देखते हैं। आपका स्वर्गवास संवत् १९१० में हो गया।
दुधोरिया परिवार अपनी दानवीरता के लिये सदा से प्रसिद्ध चला आ रहा है। इसके दान से बनी हुई धर्मशालाएं, मौषधालय, अस्पताल तथा स्कूल मादि आज भी भापकी अमर कीर्ति को फैला रहे हैं। स्वयं राजा सा० ने जब से कार्य भार सम्हाला तब से दोनों हाथ खोल कर लाखों रुपयों का दान किया। मापाख रुपये लेडी मिण्टो फेटी के नर्सिङ्ग एसोसियेशन को, २० हजार सप्तम एडवर्ड कारोनेशन इन्स्टीयूट को, १ हजार इम्पीरियल बार रिलीफ फण्ड को और ४ हजार कृष्ण नगर कालेज को दान दिये हैं। इसके अतिरिक्त कष्ट प्रपीड़ित लोगों की सेवा और सहायता आप सदैव करते रहते थे । सन् १९१९-२० में मैमनसिंह, ढाका, फरीदपुर, इत्यादि स्थानों में बहुत जोर का तूफान आया। उसमें लोग धरबार विहीन होकर महान् दुर्दशा ग्रस्त हो गये थे। ऐसे कठिन समय में आपने हजारों मन चांवल भेज कर, उन लोगों की सहायता पहुँचाई । लिखने का मतलब यह है कि इस खानदान का सार्वजनिक और धार्मिक कार्यों में बहुत हाथ रहता है। ओसवाल समाज में यह परिवार बहुत अग्रगण्य और प्रतिष्ठा सम्पन है। इस परिवार की बंगाल ग्राम में बहुत बड़ी जमीदारी है तथा कई स्थानों पर बैकिंग व्यापार के लिये फर्मे खुली हुई हैं।
सेठ कालुराम सुखलाल दुधोरिया, छापर ___ इस परिवार के प्रथम पुरुष करीब २७५ वर्ष पूर्व लच्छासर नामक स्थान पर आकर पसे । २०० वर्ष के पश्चात् यहाँ से इस खानदान के पूर्वज जौधरामजी के पुत्र गुमानसिंहजी सं० १९१२ में छापर गये। तभी से यह परिवार छापर में ही निवास करता है। सेठ गुमानसिंहजी दुधोरिया की साधारण स्थिति थी। अतः आप छापर में ही व्यापार करते रहे । आपके चार पुत्र हैं, जिनके नाम क्रमशः बा. मेठमलजी, शेरमसजी, कालूरामजी एवं पांचीरामजी हैं।
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प्रोसवाल जाति का इतिहास
- सेठ जेठमकी विलंबान ही स्वर्गवासी हो गये। सेठ शेरमलजी के वंशजों की फर्म मेकर्स शेरमल चौथमल के नाम से शिकांग में चल रही है।
सेठ कालूरामजी का जन्म संवत् १९३२ तथा सेठ पाँचीरामजी का जन्म संवत् १९२० में हुमा। सेठ कालूरामजी संवत् १९२५ में शिलांग गये। कहा जाता है कि जब गवर्नमेंट की पलटन शिलांग जा रही थी तब भाप भी उसी पलटन के साथ उस पलटन को रसद का सामान देते हुए शिलांग पहुँचे। वहाँ पर मापने अपनी एक फर्म स्थापित की तथा उस पर दुकानदारो और गवर्मेंट कन्ट्रॉक्टिंग का काम शुरू किया । आपके भाई पाँचीरामजी भी देश से शिलांग आगये और व्यापार करने लगे। भाल दोनों भाई बड़े परिश्रमी एवं व्यापार चतुर थे। आपने अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए अपने फर्म की गोहाटी, पटना एवं कलकत्ता में शाखाएं खोली और इन पर चलानी का काम प्रारम्भ किया। इन फों पर मापको बहुत सफलता मिली और मापने हजारों रुपयों की सम्पत्ति उपार्जित की। आपके सुखलालजी नामक एक पुत्र हैं। सेठ पांचीरामजी भी धार्मिक प्रकृति के पुरुष थे । आपका संवत् १९७२ में स्वर्गवास हो गया है। आप भीमसिंहजी नामक पुत्र हैं।
बा० सुखलालजी-आपका संवत् १९४२ में जन्म हुआ। आप आज कल फर्म के प्रधान संचालक है। आपके समय में भी इस फर्म की बहुत उन्नति हुई । आप भी अपने पिताजी की भांति व्यवसाय कुशल एवं चतुर व्यक्ति हैं। भापके गिरधारीमलजो, पूनमचन्दजी, माणकच्चन्दजी, चम्पालालजी, सेमरामबी, सोहनलालजी एवं मोहनलालजी नामक सात पुत्र हैं। प्रथम चार पुत्र इस फर्म से अलग हो गये हैं तथा अपना स्वतंत्र व्यापार करते हैं । शेष तीन अभी बालक हैं।
बा. भौमसिंहजी-आपभी इस फर्म में पार्टनर है। आप इस फर्म का संचालन बड़ी चोच्छता से कर रहे है। आप शिवदानमलजी एवं बुद्धसिंहमामक दो पुत्र हैं। बड़े व्यापार में योग देते हैं तथा छोटे अभी पढ़ते हैं।
यह फर्म इस समय शिलांग में सुखलाल भौंमसिंह के नाम से गवर्मेट न्ट्रेक्टर कॉथमचण्ट एवं मोटर ट्रांसपोर्ट का काम करती है । कलकत्ता और गोहाटी में कालूराम, सुखलाल के नाम से इस पर भादत का काम होता है। कलकत्ता में इस फर्म पर इम्पोर्ट और एक्सपोर्ट का काम मो किया जाता है। यह फर्म पटना में चलानी का काम करती है। बा० गिरधारीमलजी का सं० १९५८ में जन्म हुआ है। आज कल आप अपने ही नाम से गोहाटी में चलानी का काम करते हैं। माग भी मिलनसार
मा० पूनमचन्दजी-आपका संवत् १९६० में लगा
मिलनसार एवं समवार
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सबल है। आजकल बाप मी फर्म से अलग हो गये है तथा मापने छोटे भाई माणकचन्दजी के साथ व्यापार करते हैं। आपकी फर्म सरभोग में मेसर्स मागकचन्द तेजकरण के नाम से जूट, सरसों एवम् धान वाऔर गल्ले का तथा आदत का काम होता है। आपके तेजकरनजी मामक एक पुत्र हैं।
बा० माणकचन्दजी-आपला संवत् १९५३ में जन्म हुभा है। आप भी इस फर्म से अलग होकर भापने भाई पूनमचन्दजी के साझे में मपसाब करते हैं । आप भी मिलनसार सजाम हैं । आपके इस समय तीन पुत्र हैं जिनके नाम क्रममा जारीचन्दजी, शुभ करणजी एवम् विजयसिंहजी है।
बा० चम्पालालजी-आपका संवत् १९५८ में जम्म हुबा। आजकल भाप छापर में ही विपक्ष करते हैं। वहाँ पर चाप ब्याज का काम करते हैं।
ललवाणी ललवाणी गोत्र का उत्पत्ति
महाजन बंश मुकावली नामक ग्रंथ में सवाणी गौत्र की उत्पतिसमें लिया,लकत् 1९२ में रणथंभोर गढ़ में परमार राजा लालसिंहजी राज करते थे इनके पुत्र थे। इनमें से एक पुत्र महादेव को आलंधर का महाभयंकर रोग हुमा । तब राजा ने मुनि श्री जिनवडभसूरिजी से प्रार्थनाकी । मुनी ने ब्रह्मदेव को तंदुरुस्त किया। इससे प्रभावित होकर राजा लालसिंहजी ने अपने • पुत्रों सहित जैन धर्म अंगीकार किया । इस प्रकार उनके लालमणी पुत्र की संताने ललवाणी कहलाई।
.. ललवाणी खानदान, खानदेश
खानदेश के इस प्रतिष्ठित परिवार का मूल निवासस्थान बदल (जोधपुर स्टेट) है। बस में इस खानदान में सेठ मोटाजी ललवाणी हुए। इनके शोभाचन्दजी, ताराचन्दजी, 'तेजमानी और समरथमलनी नामक ४ पुत्रों का परिवार मारवाड़ और खानदेश के जामनेर, कलमसारा, मांडल, नांचनखेड़ा (शेदुर्णी ), चीलगाँव (शेंदुर्णी ), बोरद (भूलिया ) और नसीराबाद (भुसावक) मादि स्थानों में निवास करते हैं।
बलवानी मोटाजी के बड़े पुत्र शोमाचन्दजी का कुटुम्ब बदलू और चील गाँव में निवास करता है। इनके दूसरे पुत्र ताराचन्दजी थे। ललवानी ताराचन्दजी के पुत्ररतमलजी हुए और कीरतबलबी के पुत्र उसमन्दकी समा धनजी मारवाद से लगभग १२५ साल पहले जलगाँव के पास पिंपराल मा स्थान में भावे तथा वहाँ म्यवसाय शुरू किया। इनमें उत्साबादी के परिवार में इस समाधी
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मोसमासा बाति का इतिहास
बाजी तथा प्रमालाकी नसीराबाद (भुसावल) में तथा भेरूलालजी, माणकलालजी और धोकलचन्दजी चीलगाँव (खानदेश) में न्यसाय करते हैं।
. सेठ धनजी ललवाणी का परिवार 3 . मणी उत्तमचन्दजी के छोटे भ्राता धनजी सेठ पिंपडाला से कलमसरा नामक स्थान में आये और वहां उन्होंने खेती बाड़ी और दुकानदारी का व्यापार भारम्भ किया। सेठ धनजी की संतानों ने अपनी चतुराई, म्यवसाय कुशलता और दूरदर्शिता से अपने व्यापार को कलमसरा तथा जामनेर में इतनी उन्नति पर ९गया कि आपका परिवार न केवल इन स्थानों पर बल्कि सारे खानदेश प्रान्त में अपना प्रधान स्थान रखता है। ऐसे गौरवशाली परिवार के पूर्वज सेठ धनजी ललवाणी संवत् १९०० में स्वर्गवासी हुए । मापके सेठ रामचन्द्रजी ललवाणी तथा सेठ सतीदासजी ललवाणी नामक २ पुत्र हुए।
सेठ रामचन्द्रजी ललवाणी का कुटुम्ब सेठ रामचन्द्रजी अपने पिताजी की मौजूदगी में ही संवत् १८९७ में कलमसरा से लगभग दस बारह मील दूर नांचनखेड़ा नामक स्थान में चले गये और वहाँ आपने अपना व्यवसाय रामचन्द्र धनजी के माम से जमाया, आपकी बुद्धिमत्ता तथा कार्य कुशलता से इस दुकान ने आस पास के सर्कल में बड़ी ख्याति प्राप्त की । जब सम्वत् १९१४ का विल्यात गदर भारम्भ हुआ, उस समय बलवाइयों की एक पार्टी ने सेठ रामचन्द्रजी का मकान लूट लिया। इससे आप को बहुत बड़ी हानि हुई। थोड़े ही समय बाद जाप अपने पुत्र पीरचन्दजी तथा लक्खीचंदजी को लेकर नांचनखेड़ा के समीप जामनेर में जहाँ इनके बड़े पुत्र हरकचन्दजी व्यवसाय करते थे; चले गये और वहाँ गल्ला और साहुकारी व्यवसाय की पुनः नीव जमाई । धीरे २ जामनेर में आपने अपने म्यापार की उन्नति की । संवत् १९२९ में आप स्वर्गवासी हुए। भापके हरकचन्दजी, किशनचंदजी, पीरचंदजी तथा लक्खीचन्दजी नामक • पुत्र हुए। इनमें पीरचन्दजी निःसंतान स्वर्गवासी हुए। सेठ हरकचन्दजी ललवाणी
आपने संवत् १९०९ में जामनेर में अपना निवासस्थान कायम किया, तथा यहाँ बसमा अवसान स्थापित किया। भापके पुत्र लक्ष्मणदासजी फर्म के व्यापार को हद करते हुए लगभग संवत् १९०५ में स्वर्गवासी हुए। इनके नाम पर मोतीलालजी ललवाणी मलकापुर (बरार) द आये । भापके यहाँ सेठ मोतीलाल लछमनदास के नाम से साहुकारी लेनदेव तथा कृषि का काम होता है । जामनेर
पापारिक समाज में परफर्म मच्छी प्रतिक्षित मानी जाती है।
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सेठ लक्खीचन्दजी ललवाणी
आप सेठ रामचन्दजी ललवाणी के सबसे छोटे पुत्र थे। जिस प्रकार कलमसरा के परिवार की व्यापार वृद्धि का श्रेय सेट सतीदासजी तथा पनालालजी को है उसी प्रकार जामनेर के व्यवसाय की उन्नति का प्रधान श्रेय सेठ रामचन्द्रजी तथा लक्खीचंदजी को है। सेठ लक्खीचन्दजी ने जामनेर आने के बाद १५सालों तक अपने पिताजी की देखरेख में व्यवसाय कार्यं सम्हाला । अतएवं आप पर उन की व्यव साय चतुरता, कार्य्यं तत्परता तथा बुद्धिमत्ता आदि गुणों का अच्छा असर हुआ। कहना नहीं होगा कि आपने अपने पिताजी के बाद इस दुकान के व्यापार में तथा कृषि कार्य में उत्तरोत्तर तरक्की की और धीरे २ आप सारे खानदेश में मशहूर व्यक्ति गिने जाने लगे । भापने अपना व्यवसाय बम्बई में भी आरम्भ किया । इन दोनों स्थानों पर यह फर्म लाखों रुपयों का व्यापार करती थी। इस प्रकार प्रतिष्ठामय जीवन विताते हुए संवत् १९६३ के भादवावदी १४ को आपका देहान्त हुआ। आपके दाह संस्कार के लिये १५ मन चंदन और १० सेर कपूर प्रथम ही बम्बई से मँगा रक्खा था। इन सुगन्धित वस्तुओं से आपका दाह संस्कार किया गया। आपने अपने स्वर्गवासी होने के समय ४ लाख रुपया अपने रिश्तेदारों तथा कुंटुम्बियों को बाँटे । आपके यहाँ श्री राजमलजी ललवाणी मूडी (अमलनेर) से दत्तक आये ।
सेठ राजमलजी ललवाणी
आपका विशेष परिचय इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में दिया गया है। कहना न होगा कि आपका व्यक्तिगत जीवन अनेकानेक विचित्रताओं का प्रदर्शन है । आपका जन्म संवत् १९५१ की वैशाख सुदी ३ को हुआ । आपका वाल्यकाल बहुत ही साधारण स्थिति में व्यतीत हुआ, बहुत छोटी उम्र में ही आपको बड़े भयंकर आर्थिक कष्टों का सामना करना पड़ा। मगर उस कठिन स्थिति में भी आपका उत्साह और आपकी कर्म वीरता आपके साथ रही । जैसा कि उस समय की घटनाओं को पढ़ने से पाठकों को अपने आप ज्ञात हो जायगी । उसके पश्चात् आपके भाग्य ने एक जोर का पलटा खाया और अकस्मात आप अत्यन्त दीन स्थिति से उठ कर श्रीमन्त स्थिति में आगये, अर्थात् जामनेर के सेठ लक्खीचन्दजी के यहाँ आप दत्तक आगये । मगर एक दम इतना बड़ा परिवर्तन होजाने पर भी आपके अदम्य उत्साह, सादगी और कर्मवीरता में रत्ती भर भी अन्तर न आया । भाग्य लक्ष्मी की इस मुसकराहट के समय में भी आप अपने आपको तनिक भी न भूले। इस स्थान पर आने पर आपकी सारी शक्तियां अपने व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊँची उड़कर सार्वजनिक और जातीय कार्यो की ओर प्रवाहित हुई और भापके हाथों से कई बड़े बड़े और ११९
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श्रयाति का इतिहास
उत्तम कार्य्यं सम्पन्न हुए जिनका वर्णन हम आपकी जीवनी में प्रकाशित कर चुके हैं। खानदेश एज्यूकेशन सोसाइटी, जैन ओसवाल बोर्डिंग जलगांव, अ० भा० महावीर मुनिमण्डल, जलगाँव जिमखाना, भागीरथी बाई साममेरी, राजमक छक्कीचन्द धार्मिक मौषधालय, जामनेर एग्रिकल्चर फर्म, केटल ब्रिडिङ्ग फर्म इत्यादि अनेकानेक सार्वजनिक संस्थाओं को स्थापित करने में या उनकी व्यवस्था करने में आपने प्रधान रूप से आग किया। आपके हृदय का प्रत्येक परमाणु जातीय सेवाओं की भावना से भरा हुआ है । भोसाक जाति का इतिहास भी आपही की सहायता और सहानुभूति का परिणाम है । होगा कि इसके पहले आधार स्तम्भ आप ही हैं।
कहना न
सेठ किशनचंदजी ललवाणी
आप सेठ रामचन्दजी ललवाणी के द्वितीय पुत्र हैं। हम उपर बतला चुके हैं कि आपके भ्राता नांचनखेड़ा से जामनेर चले गये, और आप यहीं अपना साहुकारी लेनदेन का कारोबार सम्हालते रहे । आपका जन्म संवत् १८८७ में तथा स्वर्गवास संवत् १९४५ में हुआ । आपके रूपचंदजी तथा दीपचन्दजी नामक २ पुत्र हुए। सेठ दीपचन्दजी और रूपचंदजी ने कृषि के व्यापार को जमाया। संवत् १९४७ में रूपचंदजी तथा दीपचंदजी का कारवार अलम २ होगया ।
ललवाणी रूपचंदजी का जन्म संवत् १९१९ में हुआ। आपके पुत्र ललवाणी भींवराजजी हुए । आपका स्वर्गवास संवत् १९८७ में हुआ है। आपके पुत्र इन्द्रचन्दजी इस समय विद्यमान हैं। आपका जन्म संवत् १९७६ में हुआ । आपके यहां कृषि तथा लेनदेन का व्यापार होता है। सेठ दीपचंदजी के दत्तक पुत्र चांदमलजी के यहाँ भी यही व्यापारिक काम होता है। सेठ दीपचंदजी का स्वर्गवास २४ साक की अवस्था में सं० १९५० में हुआ ।
यह परिवार बांचनखेड़ा तथा आस पास की ओसवाल समाज में नामांकित व पुराना माना बाता है ।
सेठ सतीदासजी ललवाणी का कुटुम्ब *
सेठ सतीदासजी का जन्म संवत् १८५३ में हुआ। आपने इस दुकान के व्यापार को बहुत चमकाया । आपकी दुकान सतीदासधनजी के नाम से व्यवसाय करती थी । आप भी आस पास के • इस परिवार का पूर्ण परिचय प्राप्त करने के लिये बहुत पत्र दिये लेकिन समय पर परिचय न मिला । भतपण जितना हमारी स्मृति में था उतना ही छापा जा रहा है
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जलवाय
व्यापारिक समाज में नामांकित व्यक्ति थे । व्यापार की उन्नति के साथ २ आपने इस खानदान के सम्मान
की भी विशेष उन्नति की । हुए । सेठ रतनचंदजी के
आपका स्वर्गवास संवत् १९५२ में हुआ । बाद उनका कार्य्यभार उनके पुत्र सेठ
आपके पुत्र से रतनचन्दजी पद्मालालजी और भागचन्दजी
ने सम्भाला ।
सेठ पन्नालालजी ललवाणी — सेठ सतीदासजी के पश्चात् सेठ पश्चालालजी ने इस खानदान । के लेनदेन और कृषि काम को बढ़ाया। आपके छोटे भ्राता सेठ प्रेमराजजी भी आपके साथ व्यापार में भाग लेते थे। आपकी दुकान खानदेश की नामी दुकानों में मानी जाती है, तथा हरएक धार्मिक और परोपकारी कायों में यह परिवार उदारता पूर्वक भाग लेता है। सेठ पन्नालालजी का स्वर्गवास संवत् १९८२ की कार्त्तिक बदी ३ को तथा प्रेमराजजी का स्वर्गवास लगभग संवत् १९७७ में हुआ । आप दोनों बंधुओं के कोई संतान नहीं थी, अतएव सेठ पद्मालालजी के यहाँ सरूपचन्दजी कालू (जोधपुर) से और प्रेमराजजी के यहाँ भागचंदजी तापू से दत्तक लाये गये । इस समय सेठ सरूपचंदजी तथा भागचंदजी ललवाणी अपना अपना स्वतन्त्र कार्य्यं सम्हालते हैं ।
श्री सरूपचंदजी - आप बड़े होशियार तथा धनिक व्यक्ति हैं। सार्वजनिक व धार्मिक काम में आप उदारता पूर्वक भाग लेते रहते हैं । आपके यहाँ कृषि लेनदेन और साहुकारी का व्यापार होता है । श्री मागचंदजी — आप भी शिक्षित एवं कार्य्यं चतुर सज्जन हैं । आपने कुछ समय पूर्व
गाँव में एक फर्म स्थापित की है उस पर अनाज की आढ़त व बैकिंग का कारवार होता है। जलगाँव में आप प्रतिष्ठा सम्पन्न व्यापारी माने जाते हैं तथा हर एक सार्वजनिक काम में हिस्सा लेते रहते हैं । यह परिवार खानदेश के ओसवाल समाज में बड़ी ऊँची प्रतिष्ठा रखता है तथा इस प्रांत के प्रधान धनिक परिवारों में माना जाता है। इस परिवार के पुरुष श्वेताम्बर स्थानक वासी भाग्नाप मानने वाले हैं।
ललवाणी मानमलजी छोटेमलजी का परिवार, मांडल
ऊपर लिखा जा चुका है कि सेठ मोटाजी के तीसरे पुत्र तेजमलजी थे। उनके पुत्र प्रेमराजजी हुए। सेठ प्रेमराजजी ललवाणी के छोटमलजी, पीरचंदजी तथा नगराजजी नामक ३ पुत्र हुए। ये तीनों भ्राता लगभग १०० साल पहिले व्यापार के लिये मांडल-खानदेश में आये ।
सेठ टमलजी ललवाणी - आपने थोड़े समय तक म्यालोद में फकीरचंदनी खींवसरा के यहां सर्विस की । पश्चात् आप मांडल आये और यहां बहुत छोटे प्रमाण में किराने की दुकानदारी शुरू की ।
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पासवान जाति का इतिहास
इस प्रकार इद्धिमानी और हिम्मत के बल पर नापने अपने व्यापार को दिन दिन बढ़ाने की भोर कम
समा। तथा किराने पापार में सम्पति उपार्जित कर मासामी लेनदेन का काम्यं भारम्भ किया । इस प्रकार की व्यापार को उमति की ओर अग्रसर करके भाप स्वर्गवासी हुए।
सेठ मानमबजी ललवाणी-आपका जन्म १९१२ की फागुन वदी को हुमा।भाप सेठ छोटमलजी के पुत्र बाप बड़े होनहार मेधावी तथा व्यवसाय दक्ष पुरुष थे। केवल ।। साल की भल्पायु से ही आपने अपने सवसाय को सम्हाल लिया था। आपने इस दुकान के व्यापार तथा सम्मान को इतना बढ़ाया कि आपका परिवार खानदेश के मोसवाल परिवारों में मुख्य तथा क्यातिवान माना जाने लगा। आपका राज दरबार में भी अच्छा मान था। खानदेश के ओसवाल सज्जनों में आप समझदार पुरुष थे । आपने जगह, जमीन, मावदाद तथा कृषि और साहुकारी के व्यापार को ज्यादा बदाया । आपको दरवार में कुर्सी मिलती थी भआपके ३ पुत्र हुए जो अभी विद्यमान है। इस प्रकार प्रतिष्ठा पूर्ण जीवन विताते हुए संवत् १९४४ की पौर सुदी 1 को भाप स्वर्गवासी हुए। भापके पृथ्वीराजजी, जेठमलजी तथा चंदनमलजी नामक तीन पुत्र है।
- ललवाणी पृथ्वीराजजी-भापका जन्म संवत १९५ की भाषाव सुदी ९ को हुभा है । भाप पांत, समझदार, म्यवहार कुशल तथा वजनदार म्पति है । फर्म के व्यापार भादि का प्रधान बोना भाप ही पर है। हरएक धार्मिक और सामाजिक कामों में भाप सहायता पहुंचाते हैं । आपके यहाँ कृषि तथा मासामी लेनदेन का व्यापार बढे प्रमाण में होता है। आपके छोटे भाता चंदनमलजी का जन्म संवत् १९६६ की पौष वदी को हुआ। भाप अपने बड़े भ्राता के साथ में व्यापारिक कामों में सहयोग के है। भाप दोनों बंधु मांडल तथा खानदेश के प्रसिद्ध व्यक्ति हैं।
. लखवाणी जेठमखजी-पापको जन्म संवत् १९६५ की वेशाख सुदी को हुमा । भापका मारवार दो साल पूर्व भाग मग हो गया है। इसलिए इस समय आप जेठमल मानमल के नाम से पाहुबारी तथा कृषि का काम करते है। मापने अपनी माता श्री केशरवाई के नाम से अमलनेर गर्ल स्कूल में ५ हजार रुपये दिये हैं। यह शाला भापकी मातेश्वरी के नाम से चल रही है। इसी तरह अपनी मातेश्वरी के माम से कमलाबाई शंकरलाल गर्ल स्कूल धूलिया में एक होस्टल बनवाने के लिए मापने भदाई हजार रुपये दान दिये हैं। इसी तरह भौर भी उत्तम कामों में बाप म्यष करते हैं। भाप अमळनेर म्युनिसिपेलेटो के लोकल बोर्ड की भोर से |मेम्बर है। इसी तरह कृषि (शेतकी) एसोसिएशन के मेम्बर है।
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ पृथ्वीराजजी ललवाणी, मांडल (खानदेश).
शाहजी जीवणचन्दजी ललवाणी, जोधपुर.
स्व० सेठ जवाहरमलजी ललवाणी, पूना.
कुँ० सम्पतलालजी लूणावत (किशनलाल संपतलाल), फलौदी.
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सेठ लालचन्द जीतमल, ललवाणी-धूलिया
इसी तरह मोटाजी सेठ के चतुर्थ पुत्र समरथमब्जी के पुत्र जीतमकाजी हुए। भाप ...साळ पहिले धूलिया जूनियाँ नामक स्थान में बाये। आपके दगडूजी, गुलाबचंदजी, बालचंदजी, मसीचंदजी बसखारामजी नामक ५ पुत्र हुए। सेठ जी जन्म १९६० में हुना। भाप नियों से बोल गये, तथा इस समय सिरूर (पुलिया के पास) में व्यापार करते हैं। पुलिया में भी । साय पहिले इन्होंने दुकान की है आपके यहाँ किराने का व्यापार होता है। आपके भागचंदजी, लोभाचंदजी, कपूरचंदजी वया छगनमलजी नामक । पुत्र विषमान है। इसी तरह दगडुजी एडवाणी के पुत्र दीपचन्दजी बोरड़ में व्यापार करते हैं। सालीचन्दजी के पुत्र परचन्दजी भी व्यापार करते हैं।
• सलवाणी जीवणचन्दजी का खानदान, बोधपुर इस परिवार के पूर्वज वाणी जगनाथजी के नगराजजी और असामाची नामक दो पुत्र हुए। हनने नगराजजीम परिवार इस समय पचपदरा में है।
बलवाणी कुशालचन्दजी-भापको प्रसन्न होकर जोधपुर दरबार में "भार" की पदवी वापस की थी। तब से भापका परिवार "शाह" के नाम से सम्बोधित होता है। आपके पुत्र अमरचन्दजी तथा माणकचन्दजी ललवाणी हुए।
___ ललवाणी अमरचन्दजी-आप जोधपुर महाराजा मानसिंहजी के विश्वासपात्र ओहदेदारों में थे। अब महाराजा भीवसिंहजी गुजर गये, सब महाराजा मानसिंहजी को वापस लाने के लिये भाप जालोर मेजे गये थे। उस समय इनको महाराजा मानसिंहजी ने एक खास रुका दिया, जिसमें लिखा था कि...... "तथा थारी बंदगी सदाई सामघरमी री है हमें मारी बंदगी में हाजर हुवो सुथारी भाजीविका खिदमत में माराराज में दूर न हुसी । तो हुँ सदा मेहरवानी रासी मारो श्री हरदेव बिचे है ने सुव निजर सवायो नीवाजस हुसी : सुतो नीजर भावसी खातर खुसी राखे मे परबतसर री हाकमी में अपनतो. दोष हजार रो गाँव इनायत हुसी। काती सुदी ५ संवत् १..।
___ जब महाराजा मानसिंहजी जोधपुर की गद्दी पर बैठे, उस समय उन्होंने परवतसर, तोसीणा, बवाल वगैरा परगनों का हाकिम आपको बनाया और धोरू नामक २ हजार की रेख का गाँव जागीर में दिया। इसके बाद ये गाँव जस होकर भापको। हजार रुपया साख्यिाना मिलते हैं। भापके पुत्र चतुरभुजजी को भी संवत् १८६० में एक खास रुका इनायत हुआ।
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मोसवाल जाति का इतिहास
संवत् १८६२ में जोधपुर तथा जयपुर रिपासतों के दरमियान उदयपुर की कुमारी के सगपण के सम्बन्ध में झगड़ा खड़ा हुआ, और दोनों तरफ से झगड़े की तयारी होने लगी। इस दुर्घटना को टालने के लिये ललवाणी अमरचन्दजी जयपुर भेजे गये और इन्होंने बुद्धिमानी पूर्वक इस मामले को शांत किया। इससे प्रसन्न होकर आपको जोधपुर दरबार ने जयपुर का वकील बनाया। आपके पुत्र फतेकरणजी, चतुर्भुजजी और रूपचन्दजी हुए । इनमें संवत् १८६३ में ललवानी फतेकरणजी पर्वतसर के होकिम बनाये गये । आपके पुत्र फोजकरणजी जेतारण के हाकिम मुकर्रर किये गये थे। उस समय से अमरचन्दजी का परिवार जयपुर में निवास करता है।
- ललवाणी प्रतापमलजी- ललवाणी कुशालचन्दजी के छोटे भ्राता माणकचन्दजी का परिवार जोधपुर में रहा। इनके पुत्र विजेचंदजी और पौत्र प्रतापमलजी हुए। आप वीर पुरुष थे। आपने कई लड़ाइयाँ लड़ी। संवत् १८६३ में जब जोधपुर पर आक्रमण हुआ, तब ललवानी प्रतापमलजी जोधपुर दरवार की ओर से युद्ध में सम्मिलित हुए। संवत् १८६३ की जेठ वदी १२ को आपको महाराजा मानसिंहजी ने एक रुमन प्रसन्नता का दिया था। संवत् १८७९ में सरदारों के बखेड़े को शांत करने के लिए फौज लेकर आप गूलर गये, और वहाँ फतह पाई । संवत् १८८१ में आप दोलतपुरे के हाकिम मुकर्रर हुए। संवत् १८४७ में इस स्थान पर इनके बड़े पुत्र सिधकरणजी भेजे गये और आप फौज के कार्य के लिये जोधपुर बुलवा लिये गये। ललवाणी प्रतापमलजी के पुत्र सिधकरणजी तथा अभयकरणजी थे। इनमें सिधकरणजी के जीवणचन्दजी और लालचन्दजी तथा अभेकरणजी के लिखमीचन्दजी और शिवचन्दजी नामक पुत्र हुए। संवत् १८९९ में ललवाणी लखमीचन्दजी जेतारण के और १९०२ में शिवचन्दजी दौलतपुरे के हाकिम बनाये गये। इसी तरह सिधकरण जी डीडवाणे के कोतवाल बनाये गये। इस प्रकार आप लगातार रियासस की सेवाओं में भाग लेते रहे।
ललवाणी जीवणचन्दजो प्रतिष्ठित व्यक्ति थे । आपके पुत्र शाह पृथ्वीराजजी इस समय विद्यमान हैं। आपकी अवस्था ६७ साल की है। आप इस समय रेवेन्यू आफिसर हैं। आपने रियासत के मालगुजारी बंदोवरत में बहुत काम किया है, तथा तजुरवेकार और होशियार मुत्सुद्दी हैं। आपके छोटे भाई दीपचन्दजी हवाला में माफिज अफसर हैं। इनको हवाले के काम का अच्छा तजुर्वा है। आपके पुत्र रतनचंद जी हैं। इनमें रतनचंदजी, पृथ्वीराजजी के नाम पर दत्तक गये हैं। ललवाणी रतनचन्दजी के पुत्र जगदीशचन्द है।
यह परिवार जोधपुर के ओसवाल समाज में अच्छा प्रतिष्ठित माना जाता है । ललवानी पृथ्वीराज भी पुराने प्रतिष्ठित महानुभाव है।
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सेठ पूनमचन्द नारायणदास ललवाणी, मनमाड इस परिवार का मूल निवास बढ़ी पादू (मेड़ता के पास ) जोधपुर स्टेट है। आप स्थानक वासी भाम्बाय के अनुयायी हैं। मारवाद से व्यापार के निमित्त लगभग १२५ साल पहिले सेठ मनरूपनी ललवाणी मनमाद आये । आपक गजमलजी तथा खूबचन्दजी नामक दो पुत्र हुए । सेठ गजमलजी के पुत्र जोधराजजी ने आस पास के ओसवाल समाज तथा तथा पंचपंचायती में अच्छा सम्मान पाया। आप धार्मिक वृत्ति के पुरुष थे। आपका संवत् १९३८ में स्वर्गवास हुआ। भापके दीपचन्दजी तथा पूनमचन्दजी नामक २ पुत्र हुए। इनमें से पूनमचंदजी, ललवाणी खूबचंदजी के नाम पर दत्तक गये। भाप दोनों का जन्म क्रमशः संवत् रा और में हुआ था। इन दोनों बन्धुओं ने इस परिवार के व्यापार को विशेष बदाया। दीपचन्दजी का स्वर्गवास संवत् १९५२ में हुआ। इसके खीवराजजी तथा गणेशमजी मामक २ हुए। इनमें गणेशमलजी सन् १९३में स्वर्गवासी हुए। भाप शान्त स्वभाव के
वर्तमान में इस परिवार में मुख्य व्यक्ति सैठे पनमचन्दजी तथा खींवराजी है। इनमें से पूनमचन्दजी छलवानी पुराने ढंग के प्रतिष्टित पुरुष हैं । सेठ खींवराजजी का जन्म संवत् १९५२ में हुमा । भापही इस समय बमाम न्यापार का संचालन करते हैं। आपके पुत्र माणकचन्दजी • साल है। गणेशमलजी के पुत्र धरमचन्दजी पढ़ते हैं।
यह परिवार खानदेश तथा महाराष्ट्र प्रान्त की ओसवाल समाज में अच्छा सधन व प्रतिष्ठित माना जाता है। आपके यहाँ पूनमचंद नारायणदास ललवाणी के नाम से भासामी व सराफी लेनदेन का काम होता है।
सेठ पूनमचंद हीरालाल ललवाणी, भोपाल ललवाणी पूनमचन्दजी मेड़ते में निवास करते थे। उनके पुत्र हीरालालजी तथा राजमलजी ७०-७५ साल पूर्व इन्दौर और मगरदा (भोपाल स्टेट) होते हुए भोपाल आये, यहाँ आकर राजमलजी ने काश्तकारी और हीरालालजी ने रामकिशन पृथ्वीराज नामक दूकान पर गुमाश्तगिरी की। बाद में हीरा. लालजी ने भोपाल शहर में पूनमचंद हीरालाल के नाम से दुकान की। इनको प्रतिष्ठित समझकर संवत् १९५४ में भोपाल स्टेट ने इनको अपने शाहगंज और नजीराबाद परगनों का खजांची बनाया। और इन दोनों जगहों पर हीरालालजी ने मूलचन्द मोतीलाल के नाम से दुकानें की। पीछे से दुराहा (भोपाल स्टेट) में और पोसार पिपरिया में भी इसी नाम से दुकानें की गई। आपने स्थानीय वे जैन मन्दिर में एक
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भानाति का इतिहास
छोटा मंदिर बनवाया और २५००) नगर देवश्री संघ के जिम्मे करवी । सरकार सुक्तान जहविगम साहिया ने अपने शाहजादे नवाब हमीदुक्कायां साहिब की जनानी ज्योदी की विजारत का काम आपके सुपुर्द किया जो आपके गुजरने के एक लाक तक भापके पुत्र के पास रहा। आप के छोटे पुत्र मोतीकालजी का अंतकाळ संवत १९९९ हुआ। आपने संवत् १९०२ में ७ क्षेत्रों के किए ५ हजार रुपयों का दान धार्मिक काव्यों के किये विकाका । आपका स्वर्गवास संवत् १९०२ की फागुन यदी अमावस को हुआ ।.
वर्तमान में खेठ हीराकाजी के बड़े पुत्र राय सेठ मुकंचन्दकी कहानी विद्यमान है आपका जन्म संवत् १९४१ में हुआ। आपके जिम्मे सरकार सुल्तान वहां बेगम साहिबा के परम सुल्तानपुर (भोपाक स्टेट) की खजाना किया। आपने ४० हजार रुपयों में भोपाल स्टेट के मनकापुर और इसनिया नामक २ मोजे किये। संवत् १९८३ में मूलचन्द सरदारमक के नाम से मलकापुर में दुकान की गई ।१ सार्की तक बहूम नयान उमेदुमका साहिब की क्योड़ी की तिजारत का काम भी आपके जिम्मे रहा। युरोपीय वार के समय पर स्टेट मे आपको पारको अण्ड का ट्रेडरर बनाया। आपने आठ सालों तक ऑनरेरी मजिस्ट्रेडशिप का कार्य किया । सन् १९९८ में की पदवी इनायत की। सन् १९१२ में आपको भोपाक स्टेट ने "स्टेट आप स्थानीय पवे० जैनापाठशाला के प्रेसिडेन्ट और गौशाला के १२ शहर के प्रतिष्ठित पुरुष हैं। आपके पुत्र सरदारमकजी का जन्म समझदार युवक हैं। इन्होंने एक० ए० तक शिक्षा पाई है।
भोपाल सरकार ने आपको "राब" राजांची" बनाया। वर्तमान में सालों से संचालक है। आप भोपाल
१९९८ में हुआ। आप उत्साही तथा
सेठ जवाहरमल सुखराज सलवायी, पूना
इस परिवार के पूर्व सेठ भीमाजी कल्याणी के पुत्र सेठ पूनमचन्दजी ख्वाणी अपने मूळ निवास स्थान फोसेकाव ( जोधपुर स्टेट) से संवत् १९६० में पूना भावे । तथा पूना छावनी में सराफी व्यवहार चालू किया। आप संवत् १९०० में स्वर्गवासी हुए। आपके जवाहरमलजी, रतनचन्द्जी कपचंदजी और छोगामकजी नामक पुत्र हुए।
जवाहरमलजी ललवाणी - आपका जन्म संवत् १९११ में हुआ। आपने २१ सांक की वचतक सेठ इतनाजी सेवाजी दुकान पर सुनीमात की। पश्चात् १९५५ से बर्तनों का अपना वह व्यापार आरंभ किया। और इस व्यापार में आपने अच्छी सम्पत्ति उपार्जित की। आपने स्थानीय दादावाड़ी के उदार तथा नवीन बिल्डिंग बनवाने में विशेष परिश्रम किया। जातीय पंचायती में मेक बनाये रखने में आप
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ललनायी
प्रयत्न पूर्वक भाग लेते थे । आप महादेव मन्दिर, मैन पाठशाला और अन्य कई संस्थाओं के ट्रस्टी थे । आपने जिनदस म्यायाम शाळा का स्थापन किया था । आप भी पार्श्वनाथ विद्यालय वरकाणा के काइफ़ मेम्बर थे। आपने अपने गाँव में एक कम्बा पाठशाला शुरुबाई है। आप पूना के जैन समाज में बजनदार पुरुष थे। संवत् १९९० की कासी वहीं १३ को आप स्वर्गवासी हुए। आपके सुखराजजी, केसरीमछत्री, मोहनलालजी तथा कान्तिकाजी पुत्र विद्यमान है।
सेठ सुखराजजी वाणी का जन्म १९५८ में हुआ आप श्री भामानन्द जैन कायमेरी पूना हे सेक्रेटरी हैं। इसमें भापने बहुत अधिक उत्पति की है। इस वाचना में रूपभग १० हजार प्रन्थ है। आप मारवाद प्राविंशियल जैन कॉन्फ्रेंस के सेक्रेटरी तथा उसकी स्टेडिंग कमेटी के मेम्बर हैं। इसी तरह वरकाणा विद्यालय एजूकेशन बोर्ड के सेक्रेटरी है। आपके छोटे भ्राता केसरीमलजी फर्म के व्यापार मैं सहयोग देते हैं। तथा दो पढ़ते है। आपके वहाँ जवाहरमक सुबराज के नाम से बैताक पैठ मैं बर्तनों का व्यापार होता है। आप मन्दिर भार्गीय महाब के मनुवादी हैं।.
सेठ मीकचंद केवलचंदजी ललवाणी, मनमाड
सेठ मेघराजजी ललवाणी बढ़ी बाद (मारवाद) में रहते थे। इनके हिन्दूमकजी, छोटमलजी तथा नवलमलजी नामक ३ पुत्र हुए। वे बंधु देश से व्यापार के लिये मनमाड के पास नीमोन नामक स्थान में आये । छोटमलजी के केवकचंदजी तथा दीपचन्दजी नामक १ पुत्र हुए, इनमें केवलचन्दजी, हिन्दूमलजी के नाम पर दसक गये । सेठ केवकचन्दजी की मनमाड़ के व आसपास के ओसवाल समाज में अच्छी प्रतिष्ठा थी । संवत् १९५२ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र भीकचन्दजी का जन्म संवत् १९३८ में हुआ । ५ साल पूर्व आपने मनमाड में अपना स्थायी निवास बनाया । व्यक्ति हैं। आपके यहाँ भीकचन्द केवचन्द के नाम से आसामी लेनदेन का काम होता है ।
आप प्रतिष्ठित
इसी प्रकार इस परिवार में दीपचन्दजी के पौत्र करदासजी मोर मोतीकाजी तथा नवलमलची के पौत्र बालचन्दजी नीमोन में व्यापार करते हैं।
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लुणावत
लूणावत गौत्र की उत्पत्ति
ऐसा कहा जाता है कि सिंध देश के भाटी राजपूत राव गोशल को विक्रम संवत १९ ग. भग उपकेश गच्छीय जैनाचार्य कक्कसूरि ने प्रतिबोध देकर जैनी बनाया और आपरिया गौत्र की स्थापना की। इसी बंध में भागे चलकर कूणा साहस नामक एक भाग्यशाली. एवम् प्रतिष्ठित पुरुष हुए । सिंध देश में मारवाड़ के गुढा नामक स्थान में आकर रहने लगे। वहाँ इन्होंने एक मन्दिर भी बनवाया। खुणा साह को फिर से आचार्य देवगुप्त सूरि ने प्रतिबोध देकर जैनी बनाया। इन्हीं लूणासाह के वंशज खूणावत के नाम से मशहूर हुए। *
सेठ घुधमलजी विरदीचन्दजी लूणावत का खानदान
इस खानदान के पूर्वजों का मूल निवास स्थान मान्द ( अजमेर) का है। आप सुप्रसिद्ध लूणावत वंश के हैं।
करीब १०० वर्ष पूर्व आपके पूर्व पुरुष सेठ सुधमलजी साहब धामक में आये। भापही ने यहाँ पर भाकर दुकान स्थापित की और सबसे पहले कपास और जमीदारी का काम प्रारम्भ किया। उस समप भापका प्रभाव इतना बढ़ गया था कि सारा धामक गांव, बुधमलजी का धामक इस नाम से प्रसिद्ध हो गया था। उस समय रेलवे न होने की वजह से धामक कपास के व्यापार का प्रधान सेण्टर हो रहा था। निमाम स्टेट और नागपुर के बीचवाली सड़क की यह प्रधान मण्डी था। इस अवसर से फायदा उठा कर मापने कपास के व्यापार में बहुत द्रव्य उपार्जन किया आपका स्वर्गवास संवत् १९२५
• महाजन वंश मुक्तावली में इस किम्वदंति का उल्लेख करते हुए लिखा है कि सिंध देश के भाटी राजपूत रावा अभयसिंह को संवत् ११६५ में श्री जिनदत्त सूरि ने प्रतिबोध देकर जैनी बनाया । और भापरिया गौत्र की स्थापना की। इन्ही अभयसिंह की १७ पीढ़ी में लूणा साह हुए। इनकी संतानें पूणावत कहलाई। इन्होंने राजय का एक संघ भी निकाला था।
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अोसवाल जाति का इतिहास
स्व० सेठ बिरदीचन्दजी लूणावत, धामक,
स्व० सेठ चुन्नीलालजी लूणावत, धामक.
बाबू सुगन्धचन्दजी लूणावत, धामक.
बाबू इन्द्रचन्द्रजी लूणावत, धामक.
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लगावत
में हुआ । आपके एक पुत्र श्रीयुत बिरदीचन्दजी हुए। आपका जन्म चैत सुदी १५ संवत् १९१२ में हुआ। जिस समय सेठ बुधमलजी का देहान्त हुआ, उस समय आपकी उम्र केवल १३ वर्ष की थी । मगर आपने अपनी परिश्रमशीलता, दूरदर्शिता और बुद्धिमानी से दुकान के काम को बहुत योग्यता से संचालित किया। आपका सामाजिक, सार्वजनिक तथा धार्मिक जीवन भी बहुत अनुकरणीय रहा। आप का सामाजिक पंचायत पर बहुत अच्छा प्रभाव था तथा आप पंचायत के अग्रगण्य व्यक्ति थे । आप गुप्त दान विशेष रूप से किया करते थे । गौपालन का भी आपको बहुत शौक था। आपके स्वभाव में सादापन, दया और सचाई की मात्रा बहुत अधिक थी। विक्रम संवत् १९५६ में जब भारत व्यापी दुष्काल पड़ा था उस समय आपके पास काफी अनाज सिलक में था। आपने उस भयङ्कर दुष्काल के समय में स्वार्थ त्याग कर गरीबों के लिए अन्न क्षेत्र खोले । आपका लक्ष्य गरीबों के प्रतिपालन की तरफ विशेष रहता था । आपके हाथ से दान धर्म भी बहुत हुआ । आपका स्वर्गवास सं० १९८८ की कार्तिक वदी ११ को हुआ । आपके एक पुत्र हुए जिनका नाम चुन्नीलालजी था । आप बड़े नीतिवान और धर्मशील व्यक्ति थे । आपका विवाह खामगांव में सेठ ऋषभदासजी सखलेचा की पुत्री से हुआ । यह विवाह बड़ी धूमधाम से हुआ जिसमें काफी रुपया खर्च हुआ | आपका स्वर्गवास केवळ २९ वर्ष की छोटी उम्र में संवत् १९७५ में हो गया ।
सेठ चुन्नीलालजी के दो पुत्र और एक कन्या हुई । पुत्रों के नाम सुगन्धचन्दजी, तथा इन्द्रचन्दजी हैं तथा कन्या का नाम मदनकुँवर बाई है। इनमें से श्रीयुत सुगन्धचन्दजी का विवाह हैदराबाद के सुप्रसिद्ध सेठ दीवान बहादुर थानमलजी लूगिया की पौत्री से हुआ । इस विवाह में बहुत काफी रुपया खर्च हुआ । इन्द्रचन्दजी का विवाह भुसावल में सेठ पञ्चालालजी बम्ब की सुपुत्री से हुआ । इस विवाह के उपलक्ष्य में भिन्न २ कार्यों में ग्यारह हजर रुपये दान दिये गये और काफी रुपया खर्च हुआ। श्री मदनकुँवर बाई का विवाह औरंगाबाद में मोहनलालजी देवड़ा से हुआ । आप
अच्छे सुशिक्षित हैं ।
श्रीयुत सुगन्धचन्दजी लूणावत
आपका जन्म संवत् १९६६ की महा सुदी ९ को हुआ । स्कूल में आपकी शिक्षा मैट्रिक तक हुई मगर आपका अध्ययन और आपकी योग्यता बहुत बढ़ी हुई है। आप शान्त स्वभाव और उच्च प्रवृत्तियों के नवयुवक हैं। इतनी बड़ी फर्म के मालिक होते हुए भी अहङ्कार और उच्छृंखलता आपको छूभी नहीं गई है। इतनी सामग्रियों के विद्यमान होते हुए भी आप शुद्ध खद्दर का व्यवहार करते हैं तथा अत्यन्त सादा
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प्रोसवाल जाति का इतिहास
जीवन व्यतीत करते हैं। देश और समाज-सेवा की तरफ भी आपका बहुत काफी लक्ष्य है। इतनी छोटी उस के होने पर भी सभा, सोसायटी, सम्मेलन तथा शिक्षासंस्थाओं में आप बहुत दिलचस्पी से भाग लेते रहते है। सबसे पहले नवयुवकों के शारीरिक विकास के लिये मापने प्रयत्न करके धामक गांव में एक सार्वजनिक म्यायामशाला की स्थापना करवाई, कहना न होगा कि इसके पहले यहाँ पर कोई प्यायामशाला न थी। इसके पश्चात् आपने अपनी भोर से धामक में-ज्ञानवर्धक वाचनालय का स्थापना की इसके सिवा भाप मोमिमाबाद के महावीर वालाश्रम के उपसभापति हैं। अभी आपकी उन्न बहुत कम है, मगर समाज-सेवा की जो चिनगारी इस समय आपके हृदय में सुलग रही हैं उसका विकास होने पर समाज सेकस । काम मापसे होने की भाशा है। समाज सेवा के कार्यो में आप अत्यन्त उत्साह के साथ बार्षिक देखे रहते हैं। आप भजमेर में होने वाली स्थानकवासी कान्फ्रेन्स के अवसर पर श्री स्थानकवासी जैन नपयुक्त सम्मेलन की स्वागत कारिणी के अध्यक्ष चुने गये थे। ओसवाल जाति के इस विशाल इतिहास के भी भाप एक प्रधान भधार स्तम्भ हैं।
श्रीयुत इन्द्रचन्दजी खूणावत-भापका जन्म संवत् १९० में हुआ। भापका शिक्षण भी मैट्रिक तक हुआ। आप भी सज्जन और सुशील स्वभाव के नवयुवक हैं। भापका बन्धु प्रेम बहुत बड़ा हुमा है, आप अपने बड़े भ्राता सुगन्धचन्दजी खूणावत की आज्ञा का पालन बड़ी श्रद्धा से करते हैं। भापका भी समाजसेवा और दानधर्म की ओर पूरा लक्ष्य है।
सेठ किशनलाल सम्पतलाल लुणावत, फलोदी किशनलालजी लूणावत का जन्म संवत् १९३८ की भाषाद बदी को हुभा । आप अबराबधी लूणावत फलोदी वालों के पुत्र और भाखरचन्दजी के पौत्र हैं, तथा तमसुखलालजी लूणावत (रावतमलजी के पुत्र) के यहाँ दत्तक गये है। लूणावत किशनलालजी का धर्मध्यान में जादा लक्ष है। भाप बड़े सीधे स्वभाव के पुरुष हैं। लगभग 10 लाख रुपया आपने धार्मिक कार्यों में लगाये हैं। संवत् १९॥ में आपने पाली से कापरड़ा तीर्थ का संघ आचार्य नेमिविजयजी के उपदेश से निकाला। इसके अलावा १५ हजार की लागत से फलोदी में एक विशाल धर्मशाला और देरासर बनवाया तथा भाचार्य नीतिविवव जी से उपाध्यान कराया।
लूणावत किशनलालजी ने सम्मेदशिखरजी, गिरनार, सिदाचरू, भार, तारंमाहिल, केसरिवाजी आदि कई तीर्थों की यात्रा की । पाली में किशनलाल सम्पतलाल के नाम से मापका मिरवी रब्याज का धंधा होता है और फलोदी में खास निवासस्थान है। भापके असुर निहालचन्दजी सराफ ने अपनी सम्पतिका
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खुणावत
चितलामा अपनी पुत्री के नाम कर दिया । इसीलिए उनकी तमाम सम्पत्ति के मालिक किशनलालजो बगावत हो गये। आपके पुत्र सम्पतलालजी का जन्म संवत् १९७० में पाली में हुभा। सम्पतकालजी भी अपने पिताजी की तरह धर्मध्यान में जादा दिलचस्पी लेते हैं।
सेठ चन्दूलाल पन्नालाल लूणावत, सेंदूरजना इस परिवार के पूर्वजों का मूल निवास स्थान अजमेर के समीप नरवर का था । आप लोग श्री जैन श्वेताम्बर मन्दिर आनाय के सजन हैं। सबसे पहले करीब १०० वर्ष प्रथम इस परिवार के पूर्व पुरुष सेठ महताबमलजी, चन्दूलालजी तथा जेठमलजी राजेगांव होकर सेंदूरजना भाये । इनमें महताबमलजी के कोई संतान न हुई । जेठमलानी के जगवावजी, दुलीचन्दजी, हरकचंदजी तथा कालूरामजी नामक चार पुत्र हुए। इनमें तृतीय तथा पुन विद्यमान हैं।
सेठ जी ने अपने परिवार के म्यापार को खूब बढ़ाया। आपके मोतीलालजी तथा पच लाजी माल पुत्र हुए। मोतीलालजी संक्त् १९५० में स्वर्गवासी हुए। आपके पश्चात् पनाला जीने काम को खूब बढ़ाया। भापकी दुकान मुख्तामा प्रांत में नामांकित फर्म है। आपका
र १९२० में हुभा। आपने अपने परिवार की इजत भावरू को भी खुब बढ़ाया। आपके पुत्र सालासी का. १९४७ में जन्म हुआ। कन्हैयालालजी के माणकलालजी तथा चम्पालालजी नामक दो
आपकी फर्म पर साहूकारी का बड़ा काम होता है। आपके एक जीनिंग फेक्शी भी है।
सेठ जोरावरमलजी लूनावत का खानदान, जयपुर इस खानदान के प्रसिद्ध पुरुष लूणासा के पश्चात् क्रमशः दुधाजी, पदमाजी, खेतसीजी, सोनराजजी, व बेलाजी हुए। लूणावत बेलाजी के देदोजी, रूपोजी तथा रतनाजी नामक चार पुत्र हुए । इम में से रतनाजी के जेतोजी, जयमलजी, पेमाजी तथा लाखाजी नामक चार पुत्र हुए। जेतोजी के फतहरामजी सबा इशारजी नामक दो पुत्र हुए। फतहरामजी के मोतीचन्दजी एवम् सूरतरामजी नामके दो पुत्र हुए। इनमें से मोतीचन्दजी के भैरोंदत्तजी तथा सूरतरामजी के मगनीरामजी, छगनीरामजी, घमंडीरामजी, चौथमाजी, हमारीमकजी तथा हमीरमलजी नामक छः पुत्र हुए। इस खानदान के पूर्वजों का मूल निवास स्थान विसर था। वहां से आप लोग बद्दल तथा बड़लू से संवत् १८९५ में सेठ मगनीरामजी जयपुर भागये। तभी से आप लोग जयपुर में ही निवास करते हैं। इस खामदान का सेठ मगनीरामजी से
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गोसवाल जाति का इतिहास
सम्बन्ध है। आपने सेठ मनीराम मथुरावालों की टोंक, बम्बई आदि फर्मों पर मुनीमात भी की थी । आपने बड़ल में एक मकान तथा अपने पिता के यादगिरी में एक छतरी बनवाई जो आज भी विद्यमान है। आप के जवाहरमलजी व जीतमलजी नामक दो पुत्र हुए।
सेठ जवाहरमलजी बड़े होशियार आदमी थे। आप कई सालों तक मुनीमात करते रहे । तदनंतर आप महाराणीजी ( जयपुर ) के कामदार रहे। आपने झाडशाही सिक्के की पैठ जमाने में भी बहुत सहायता की। आपके जोरावरमलजी, चांदमलजी तथा केशरीमलजी नामक तीन पुत्र हैं। सेठ जीतमलजी ने जयपुर में पौहारी तथा कई फर्मों पर मुनीमात की। आपके कार्यों से खुश होकर टोंक में नवाब ने आपको कई पारितोषक दिये थे। आपने केशरीमलजी को अपने नाम पर दत्तक लिया। - सेठ जवाहरमलजी ने जयपुर में दारोगा टकसाल तथा महाराणीजी के यहां कामदारी पर भी काम किया। आपको इस समय स्टेट की ओर से पेंशन मिल रही है। आपने केशरीमलजी के पुत्र गुमानमल जीको अपने नाम पर दत्तक लिया है। आप इस समय जयपुर महकमा खास में मुलाजिम हैं। सेठ चांदमलनी भी दारोगा टकसाल रहे तथा वर्तमान में सेठ मनीरामजी मथुरावालों की कोठी पर मुनीमात का काम करते हैं। आपने केशरीमलजी के पुत्र जतनमलजी को गोद लिया है। आप इस समय बी. ए. ( Final) में पढ़ रहे हैं। सेठ केशरीमलजी ने कितने ही ठिकानों की कामदारी की, तथा मथुरा वाले सेठों की तरफ से रेसीडेंसी के खजांची रहे हैं। आप की कारगुजारी के उपलक्ष्य में कई रेजिडेंटों ने आपको प्रशंसा पत्र दिये हैं। इस समय आप लोड़ों की फर्म पर टोंक में मुनीम हैं। आप पर टोंक के नबाब भी बड़े खुश हैं। आपके गुमानमलजी, जतनमलजी, फतेमलजी, सरदारमलजी, मनोहरमलजी तथा नौरतनमलजी नामक छः पुत्र हैं। इनमें से गुमानमलजी तथा जतनमलजी दत्तक गये हैं । फतहमलजी मेट्रिक में हैं तथा शेष भी पढ़ते हैं।
___ सेठ हजारीमल खूबचन्द लुणावत, नरसिंहपुर
इस परिवार के पूर्वज सेठ हजारीमलजी लूणावत मांडपुरा (नागौर) के समीप आचीमा नामक गाँव से लगभग ६० साल पहिले पूना नाशिक आदि स्थानों में होते हुए नरसिंहपुर आये और अनाज कपड़ा आदि का कारधार शुरू किया। आपके हाथों से ही व्यापार को उन्नति प्राप्त हुई। आपके छोटे भाता सेठ खूबचन्दजी, जुहारमलजी, तुलसीरामजी और पृथ्वीराजजी थे । संवत् १९६५ में सेठ हजारीमलजी का स्वर्गवास हो गया। आपके पुत्र सेठ हंसराजजी, हमीरमलजी, टीकारामजी तथा मोतीलालजी विद्यमान है। आप बंधुओं ने हंसराज हमीरमल के नाम से १२ साल पूर्व भुसावल में दुकान खोली। सेठ टीका
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रामजी, खूबचन्दजी के नाम पर दत्तक गये हैं। यह परिवार नरसिंहपुर के व्यापारिक समाज में बड़ा प्रतिण्ठित माना जाता है। आपके यहाँ लकड़ी, गला और कपड़े का ब्यापार होता है। सेठ टीकारामजी का जन्म संवत् १९५७ में हुभा।
इसी तरह सेठ जुहारमलजी के पुत्र मोतीलालजी और हीराचन्दजी जुहारमक बच्छराज के नाम से मरसिंहपुर में व्यापार करते हैं। आप सब सजन यहाँ अच्छे प्रतिष्ठित माने जाते हैं।
सेठ मुल्तानमल हरकचन्द लुणावत, लोनावला - इस कुटुम्ब का मूलनिवास खींवसर (जोधपुर स्टेट) में है । यहां से इस परिवार के सेठ मुलतानमलजी लगभग सौ साल पहिले लोनावला-खटकाला आये। आपका संवत् १९६५ में शरीरान्त हुभा । भापके पुत्र हरकचन्दजी का जन्म संवत् १९३३ में हुआ। आप दोनों सज्जनों ने इस दुकान के व्यापार को तरको दी। यह कुटुम्ब लूनावला के ओसवाल समाज में अपनी अच्छी इज्जत रखता है। भापके यहाँ मुलतानचन्द हरकचन्द के नाम से किराना तथा अनाज का म्यापार होता है।
सेठ गुलाबचन्द अमरचन्द लुणावत, लोनावला __आपका निवास भी खींवसर (जोधपुर स्टेट) में है। सेठ कपरचन्दजी के पाँच पुत्र थे। उनमें मुलतानमलजी दूसरे तथा गुलाबचन्दजी पाँचवें पुत्र थे। संवत् १९५८ में सेठ गुलाबचन्दजी देश से लूनावला आये तथा किराने व अनाज का थोक व्यापार शुरू किया । आपका सम्वत् १९६३ में शरीरावसान हुआ। आपके पुत्र अमरचन्दजी तथा हंसराजजी हुए। इनका जन्म १९४३ तथा १९४९ में हुआ। आप दोनों बन्धुओं के हाथों से व्यापार को तरक्की मिली । हंसराजजी लोनावड़ा म्यु० के मेम्बर रहे तथा हरएक सार्वजनिक कामों में भाग लेते हैं। आप चिंचवड विद्यालय के कार्यों में भी दिलचस्पी लेते हैं। अमरचन्दजी लूनावड़ा के अच्छे प्रतिष्ठित व्यापारी हैं। आपके यहाँ किराना तथा अनाज का व्यापार होता है। अमरचंदजी के पुत्र कचरदासजी है । तथा हंसराजजी के पुत्र मोहनलालजी तथा शान्तिकाराजी पढ़ते हैं।
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लूणिया
लुणिया गौत्र की उत्पत्ति
लूणिया गौत्र की उत्पत्ति माहेश्वरी वैश्य जाति से होना बतलाई जाती है। हालाता है कि हाथीशाह नामक माहेश्वरी जाति के मूंदड़ा गौत्रीय एक व्यक्ति संवत् १९२ में मुलतान (सिंध) राजा दीवान थे। उनके पुत्र लूणाजी को साँप ने डस लिया और उनकी मृत्यु हो गई। उस समय दादा जिनदत्तसूरिजी वहीं विराजते थे । अतः उन्होंने संवत् १९२ की वैसाख वदी • के दिन लूणाजी को जीवनपाल देकर जैन धर्म अंगीकार कराया, और ओसवाल जाति में सम्मिलित किया। इन लूणाजी को संतानें बणिया गौत्र से सम्बोधित हुई । मुलतान से भाकर इस परिवार ने फलौधी में अपना निवास बनाया। इस परिवार की कई पीढ़ियों के बाद लूणिया सरूपचन्दजी हुए।
दीवान बहादुर थानमलजी लुणिया का खानदान, हैदराबाद
इस परिवार का मूल निवासस्थान अजमेर में है। अजमेर की भोसवाल जाति के इतिहास में हणिया खानदान का इतिहास बहुत ऊँचा है। इस खानदान में कई व्यक्ति ऐसे हुए हैं जिन्होंने अपने गपूर्व कार्यों से इतिहास के पृष्ठों को चमका दिया है। इनमें तिलोकचन्दजी लूणिया, गजमलजी लणिया और पानमळजी इणिया के माम विशेष उल्लेखनीय है। सेठ नामलजी लूणिया के स्मारक में तो अजमेर में एक मुहला भी बना हुआ है।
सेउ तिलोकचन्दजी ने अजमेर से शत्रुजय का संघ निकाला। यह संघ हजारों श्रावक, सैकड़ों मा माध्वियों तथा फौज पलटन इत्यादि से सुभोभित था। इस संघ के निकालने में आपने हजारों लाखों पये खर्च किये थे। उस समय शर्बुजयजी के पहाड़ पर अंगारशाह पीर का बहुत उपद्रव था जिससे पहुंजयजी की यात्रा बन्द हो गई थी। आपने ही सबसे पहले इस यात्रा को पुनः चाल किया। इसके स्मारक में भाज भी उनके लूणिया वंशज इस पीर के नाम की एक सफेद चादर चढ़ाते हैं । सेठ तिलोकचन्दजी खूणिया के हिम्मतरामजी तथा सुखरामजी मामक २ पुत्र हुए। इनमें सेठ हिम्मतरामजी के गजमरूजी, चांदमलजी तथा जेठमलजी नामक ३ पुत्र हुए। इन बन्धुओं में सेठ चांदमलजी अपने काका सुखरामजी नाम पर दत्तक गये।
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० दीवानबहादुर सेठ थानमलजी लूणिया, हैदराबाद (दक्षिण). स्व० श्री सुगनमलजी लूणिया, हैदराबाद ( दक्षिण )...
श्री इन्दमलजी लूणिया, हैदराबाद.
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मा
सेठ चांदमलजी लूणिया के पुत्र दीवान बहादुर सेठ थानमलजी कूणिया थे । आपका जन्म संवत् १९०७ की आसोज सुदी १३ को हुआ था । आप संवत् १९३३ में भजमेर से किसी कार्यवश हैदराबाद आये और यहाँ की अनुकूल स्थिति को देखकर यहीं पर अपनी दुकान स्थापित की। आपने यहाँ पर जवाहरात का व्यापार आरम्भ किया। इस व्यवसाय में आपने अतुल सम्पत्ति, इज्ज़त और पश प्राह किया । कुछ ही समय में आप यहाँ के नामो रईसों में गिने जाने को । स्वयं निजाम महोदय की भी आप पर बहुत कृपा रही। करीब ६ वर्षों तक तो सेठ साहब रोज निजाम महोदय से मुलाकात करने जाया करते थे । आपकी सेवाओं से प्रसन्न होकर निजाम सरकार ने सन् १९१३ में आपको "राजा बहादुर”
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का सम्माननीय खिताब प्रदान किया तथा घरू खर्च के माल के लिए कस्टम ड्यूटी भी माफ दी थी । इसी वर्ष भारत गवर्नमेंट ने भी आपको "शब बहादुर” का खिताब प्रदान किया । सन् १९१९ में आपको भारत गवर्नमैंट ने “दीवान बहादुर” के पद से सुशोभित किया । इसके अतिरिक्त बीकानेर दरबार मे भी आपको दोनों पैरों में सोना, ताजीम, हाथी, पालकी और छड़ी का सम्मान प्रदान किया। जोधपुर और उदयपुर से भी आपको सिरोपाव और बैठक का सम्मान प्राप्त था। जोधपुर में आपको भाभी कस्टम ब्यूटी माक थी । मैसूर, भौपाल, इन्दौर तथा और भी बड़ी २ रियासतों में आपका पूरा २ मान था। आपको दिल्ली दरबार में भी बैठक दी गई थी। आपका हैदराबाद के मारवादी समाज में बहुत बड़ा मान था । इस समाज में करीब १६ वर्षों से धड़े पड़े हुए थे जिन्हें आपने बहुत कोशिश करके सुलझाया। केवल राजकीय, सामाजिक और व्यापारिक मामलों में ही आप दिलचस्पी लेते थे सो बात नहीं । प्रत्युत आप धार्मिक मामकों में भी खूब लक्ष्य रखते थे । आप स्वयं बड़े धार्मिक पुरुष थे। आपने केशरियाजी में एक धर्मशाला और मल्लिनाथजी में एक मंदिर बनवाया । हैदराबाद की दादावाड़ी के रास्ते में एक सड़क बनवाई। आप स्वर्गवासी होने के पूर्व एक वसीयतनामा कर गये जिसके अनुसार आपके नाम पर करीब तीस चालीस हजार रुपये की एक विशाल धर्मशाला हैदराबाद में बनवाई गई है। तथा श्री राजगिरीजी का मार्ग ठीक कराने में भी आपके नाम पर आपके पौत्र इन्द्रमलजी लूणिया ने १०००) प्रदान किया है। सेठ साहब ने मो वसीयत की उसमें आपने अपने मौसर करने की साफ मनाई लिखी है जिससे आपकी समाज सुधारकता का सहज ही पता लग आता है। इस प्रकार यशस्वी जीवन व्यतीत करते हुए माह सुदी १ संवत् १९४९ में आपका स्वर्गवास हो गया ।
आपके चार पुत्र हुए मगर देव दुर्वियोग से चारों का आपकी विद्यमानता में हो स्वर्गवास होगया। इनमें सुगनमज्जी लूनिया तेजस्वी और प्रभावशाली युवक थे। हैदराबाद की भोसवाल समाज में आपका बस मान था। आप निजाम सरकार के ऑनरेरी सेक्रेटरी भी थे। चारों पुत्रों के अपनी विद्यमानता में
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पोसवाल जाति का इतिहास
स्वर्गवासी हो जाने से सेठ थानमलजी ने सुगनमलजी के नाम पर सेठ जवाहरमलजी लूणिया के पुत्र इन्द्र. मरूजी लूणिया को अजमेर से दत्तक लिया। इस समय आप ही इस फर्म के मालिक है।
इन्द्रमलजी लुणिया बड़े सज्जन, उदार और विनयशील युवक हैं। आपके हृदय में भोसवाक जाति की उन्नति की हरदम आकांक्षा रहती है । हैदराबाद में मारवाड़ी लोगों के उतरने की कोई सुविधा न होने से आपने अपने दादाजी के स्मारक में एक बहुत विशाल धर्मशाला बनवाई । जिसमें मुसाफिरों के ठहरने की सभी सुविधाओं का प्रबन्ध है। अभी आपने अपनी यात्रा में बहुतसा अन्य परोपकारार्थ खर्च किया है। भजमेर की ओसवाल कान्फ्रेंस में भी आपने बहुत दिलचस्पी बताई। ओसवाल समाज को आपसे भविष्य में बहुत आशा है। आपकी फर्म हैदराबाद रेसिडेंसी में सरदारमल सुगनमल के नाम से बैंकिंग व जवाहरात काम्यापार करती है । हैदराबाद में यह खानदान बहुत प्रतिष्ठा सम्पन्न है।
लूणिया सरूपचंदजी का परिवार, अजमेर हम ऊपर कह चुके हैं कि लुणिया सरूपचन्दजी फलोदी में निवास करते थे। इनके हेमराजजी, तिलोकचन्दजी तथा करमचन्दजी नामक ३ पुत्र हुए। ये तीनों भ्राता फलोदी के बड़े समृद्धिशाली साहुकार माने जाते थे। यह परिवार फलोदी से बडू ( मारवाड़) गया, तथा वहाँ कारवार करता रहा । वहाँ से बगभग १८५० में व्यापार के निमित्त सेठ तिलोकचन्दजी लूणिया गवालियर गये, जिनका विशेष परिचय मीचे दिया जारहा है। लूणिया हेमराजजी का परिवार
भाप तिलोकचन्दजी लुणिया के बड़े भाता थे। बहू से आप किस प्रकार अजमेर आये, इसका क्रम पर इतिहास उपलब्ध नहीं है। पर इनके समय अजमेर में लूणिया वंश का सितारा बड़ी तेजी पर था। आपके छोटे भाई लूणिया तिलोकचन्दजी के खानदान ने बहुत बड़े २ कार्य किये। लूणिया हेन. रामजी के पश्चात् क्रमश, नगराजजी, रूपराजजी और पूनमचन्दजी हुए। लूणिया पूनमचन्दजी धनरूपमलजी और जीतमलजी नामक २ पुत्र हुए। संवत् १९६३ में पूनमचन्दजी तथा धनरूपमणी का प्लेग में एक साथ स्वर्गवास हो गया ।
जीतमलजी लूणिया-आप का जन्म संवत् १९५२ में हुआ। आपके बाल्यकाल में ही आपके पिता जी तथा बड़े भ्राता स्वर्गवासी होगये थे। अतएव आपका शिक्षण आपके भोजाइजी के संरक्षण में हुआ। भाप एफ. ए• तक पढ़ाई करके सन् १९१५ में इन्दोर गये तथा सेठ हुकुमचन्दनी के प्राइवेट सेक्रेटरी के
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लणिया
पद पर कार्य करते रहे। कुछ समय पश्चात् आपने हिन्दी साहित्य मन्दिर के नाम से पुस्तक प्रकाशन का
कार्य किया, तथा मालव मयूर नामक एक मासिक पत्र निकाला । इसके पश्चात् आप अपने - ऑफिस को बनारस लेगये, और वहाँ राष्ट्रीय एवम् शिक्षाप्रद ग्रन्थों का प्रकाशन बहुत जोरों से भारम्भ किया । सब मिलाकर भापने ३५ पुस्तके प्रकाशित की । इसके पश्चात् देश सेवा की उन्नत भावनाओं से प्रेरित होकर भाप अजमेर चले आये' तथा अपना निजी प्रकाशन बंद कर के सार्वजनिक क्षेत्र में भाग लेने लगे। आपने अपने कई मित्रों के और घनश्यामदासजी विडला व जमनालाल जी बजाज के सहयोग से अजमेर में “सस्ता साहित्य मण्डल" नामक प्रसिद्ध संस्था स्थापित की और इसी संस्था के द्वारा आपने अपने पत्र "मालव मयूर" का नाम बदल कर "त्यागभूमि" के रूप में प्रकाशित करना आरम्भ किया। केवल निर्वाह के योग्य रकम लेकर आपने निस्वार्थ भाव से इस संस्था की बहुत सेवा की। सन् १९५० में स्वास्थ्य ठीक न रहने से आपने उससे त्याग पत्र दे दिया । सन् १९३१ में आपने "भजमेर सेवा भवन" नामक एक संस्था स्थापित की तथा इस संस्था के द्वारा एक सार्वजनिक वाचनालय भौर एक रात्रि पाठशाला स्थापित की। यह दोनों संस्थाएं भभी तक सुम्यवस्थित रूप से चल रही हैं। सन् १९३० में भाप अजमेर कांग्रेस कमेटी के डिक्टेटर बनाये गये जिसमें आपको ६ मास की कठोर कारावास की सजा मिली । इसके पश्चात् सन् १९३२ में स्वयं सेवकों के साथ जत्था लेकर देहली जाते हुए अजमेर स्टेशन पर आप गिरफ्तार किये गये, इस बार आपको तीन मास की सजा हुई । आपकी धर्म पत्नी श्रीमती सरदार बाई लूणिया भी अपने पति के देश हित के कामों में तन मन से सहयोग देती हैं । आप बड़ी देशभक्त महिला हैं। सन् १९३३ के अगस्त मास में आप ८ बहिनों और ५ भाइयों के साथ राष्ट्रीय गान गाती हुई निकली तथा घण्टाघर अजमेर के पास गिरफ्तार करली गई। मजिस्ट्रेट ने आपको ३ मास की सजा देकर ए० क्लास में रखना चाहा, परन्तु भापकी कुछ साथी बहिनों को सी० क्लास दिया गया था, अतएव आपने भी ए० क्लास स्वीकार नहीं किया। इनके साथ २ इनके तीन वर्षीय पुत्र कुँवर प्रतापसिंह भी गये थे। हाल ही में लूणिया जीतमलजी ने "सस्ता मण्डल" का प्रेस खरीद कर उसे "भादर्श प्रिंटिंग प्रेस" के नाम से अजमेर में चालू किया है। यह बड़ा व्यवस्थित प्रेस है तथा सफलता के साथ अपना कार्य कर रहा है। आप के भतीजे नथमलजी लूणिया (धनरूपमलजी के पुत्र ) मोटर सर्विस का बिजीनेस करते हैं। माप उत्साही युवक हैं। भापके फतेसिंह तथा रणजीतसिंहजी नामक दो पुत्र हैं। लूणिया तिलोकचंदजी का परिवार
हम अपर लिख आये हैं कि लूणिया तिलोकचन्दजी फलोदी से बडू (मारवाड़) गये, तथा वहाँ से व्यापार के निमित्त संवत् १८५० में एक लोटा डोर लेकर गवालियर पहुंचे, और वहाँ कारबार करने
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मोसवास नाति का इतिहास
लगे। आपकी जवाहरात परखने की रष्टि सूक्ष्म थी। इनकी होशियारी से प्रसन्न होकर तरकालीन सिंधिया सूबेदार ने आपको अपने खजाने का पोहर बनाया। उस समय अजमेर में मरहठों का शासन था, अतएव आप मरहठा खजाने के खजांची होकर अजमेर आये। पोद्दारे के साथ २ आपने अजमेर में "तिलोकचंद हिम्मतराम" के नाम से अपना घरू न्यापार भी भारम्भ किया। धीरे धीरे आपने स्याति व सम्पत्ति उपार्जिन कर अजमेर से सिद्धाचलजी ( शत्रुजय ) का एक संघ निकाला। उसमें जोधपुर से एक और संघ लेकर सेठ राजारामजी गढ़िया भी आये थे। आपने. सिवाचलजी के खरतरवसी में एक मंदिर बनवाया, और एक धर्मशाला बनवाई, जो आनन्दजी कल्याणजी के बंडे के नाम से मशहूर है। दादा जिनदत्त सूरिजी महाराज की दादावाड़ी में आपकी छतरी आपके पुत्र हिम्मसरामजी र सुखरामजी ने बनवाई। उसके शिलालेख में संघ निकाले जाने का विवरण है। इस प्रकार प्रतिष्ठापूर्ण जीवन विताले हुए संवत् १८८३ में लूणिया तिलोकचन्दजी का स्वर्गवास हुआ। आपके हिम्मतरामजी तथा मुखसमयी नामक दो पुत्र हुए। लूणिया हिम्मतरामजी के गजमलजी, चांदमलजी तथा जेठमलजी नामक ३ पुत्र हुए इनमें लूणिया चांदमलजी अपने काका सुखरामजी के नाम पर दत्तक गये।
____ गजमलजी लूणिया सेठ गजमलजी लूणिया ने इस परिवार में बहुत नाम पाया । मापने अपनी स्थायी सम्पत्ति काफी बढ़ाई थी । आप अपने समाज के बड़े २ झगड़ों को बड़ी बुद्धिमत्तापूर्वक निपाते थे। आपकी हवेलियों के पास का मोहल्ला आज भी गजमल लूणिया की गली के नाम से मशहूर है। संवत् १९२० में आप तीनों बन्धुओं का काम कमजोर हो गया। सेठ गजमलजी की मौजूदगी में ही उनके दोनों भ्राता स्वर्गवासी हो गये थे।
सेठ गजमलजी के पुत्र करणमलजी तथा जेठमलजी के कुन्दनमलजी, नवलमलजी, कानमलजी तथा सोहनमलजी नामक पुत्र हुए। जब लूणिया गजमब्जी की स्थिति कमजोर हो गई तब इनके भतीजे लूणिया थानमलजी इन्दौर, बम्बई होते हुए हैदराशद गये, तथा वहाँ उन्होंने अच्छी उन्नति प्राप्त की।
लूणिया कुन्दनमलजी-आप अजमेर की भोसवाल समाज में प्रथम बी०ए० पास शुदा सजन थे। भापके नाम पर लूणिया कानमलजी के पुत्र जवाहरमरूजी दत्तक आये।
कानमलजी लूणिया-आपने सन् १८४७ की प्रथम जुलाई से विक्टोरिया प्रेस के नाम से एक प्रिंटिंग प्रेस का स्थापन किया और १८९६ के ज्युबिली उत्सव पर इसका नाम डायमंड जुबिली प्रेस रक्खा गया। सन् १९१८ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके कनकमलजी, जवाहरमलजी, उमरावमलजी तथा हमीरमलजी नामक पुत्र हुए। इनमें कनकमलजी करणमरूजी के नाम पर, जवाहरमजी कुन्दनमलजी के नाम पर और उमरावमलजी अपने बड़े भाता कनकमलजी के नाम पर दत्तक गये।
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्वर्गीय कानमलजी लूणिया, अजमेर,
सेठ रामलालजी लूणिया, अजमेर.
बाबू जीतमलजी लूणिया, अजमेर.
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सेठ धनसुखदासजी लूणिया ( धनसुखदास मघराज ) बीकानेर.
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लूणिया वर्तमान में इस परिवार में लूनिया जवाहरमलजी, उमरावमलजी, हमीरमलजी तथा चन्दनमलजी विद्यमान है।
लूणिया जवाहरमलजी-भापका जन्म संवत १९५३ में हुआ। आप सन् १९१२ से अक्टोबर सन् १९३॥ तक जोधपुर स्टेट की तरफ से अजमेर मेरवाड़ा और म्यावर के वकील रहे। आप अजमेर के प्रतिष्ठित सजन है । सन् १९२६ से आप म्युनिसिपक मेम्बर निर्वाचित हुए । इधर सन् १९३४ में आपने उक्त मेम्बरी के पद से इस्तीफा दे दिया है। अजमेर की मोसवाल समाज में आपका खानदान बड़ा नामी माना जाता है। हाल ही में भाप ओसवाल सम्मेलन के द्वितीय अधिवेशन के स्वागताध्यक्ष हुए थे। आपके पुत्र इन्द्रमलजी ललिया हैदराबाद में सेठ थानमलजी लूणिया के यहाँ दत्तक गये हैं। आपके छोटे भाई उमरावमलजी लूणिया लोको आफिस में सर्विस करते हैं।
लूणिमा हमीरमलबी-आपका जन्म संवत् १९५५ में हुआ। आप बड़े शान्त एवं सरल स्वभाव के सजन हैं तथा डायमंड ज्युबिली प्रेस का संचालन उत्तमता से करते हैं। आपके पुत्र गुमानमलजी पढ़ते हैं। चन्दनमलजी लूणिया अजमेर में कोल विजिनेस करते हैं।
- लुणिया रामलालजी का खानदान, अजमेर
इस लूणिया परिवार में लूणिया शिवजीरामजी फलौदी में निवास करते थे। इनके पश्चात् क्रमशः सादूलसीजी, सावंतसीजी, मेघराजजी और टीकमदासजी फलौदी में निवास करते रहे । कहा जाता है कि एक बार राज की तरफ से फलौदी ग्राम पर कोई दंड पड़ा था वह सब अकेले इस लूणिया परिवार ने चुका दिया । इसलिए जोधपुर दरबार से लूणिया शिवजीरामजी को “नगर सेठ" की पदवी मिली थी।
___ फलौदी से लूणिया टीकमदासजी संवत् १८७५ के लगभग अजमेर आये और इन्होंने लूणिया तिलोकचन्दजी हिम्मतरामजी के साझे में मांडवी बंदर से मोती और दाँत दूसरी जगह भेजने का कारबार आरम्भ किया। संवत् १८९५ के लगभग छोटी वय में इनका अंतकाल हो गया। उनके पुत्र केवलचन्दजी और कस्तूरचन्दजी हुए । केवलचन्दजी लश्कर दराक गये तथा कस्तूरचन्दजी ने अजमेर में संवत १९०५ में गोटे किनारी की दुकान की । इनका शरीरावपान संवत् १९७३ में हुआ। इनके केसरीचन्दजी और फूलचन्दजी नामक पुत्र हुए।
लूणिया केसरीचन्दजी ने व्यापार में विशेष तरक्की की । व्यापार के साथ २ आपने अजमेर में मकानात बनवाये तथा बांदा (यू० पी०) में दुकान खोलकर वहाँ दो गाँव खरीद किये । आप पंच पंचायती में मच्छी प्रतिष्ठा रखते थे। आपका शरीरावसान ७० साल की वय में सम्वत् १९८१ में हुआ। आपके पुत्र दीपचन्दजी हुए।
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ओसवाल जाति का इतिहास
लूणिया पचाल लजी का जन्म सम्वत् १९२० में हुआ। आप अपने बड़े भ्राता के साथ व्यापार में सहयोग देते रहे । आप दोनों भ्राताओं का कारवार संवत् १९६५-६६ से अलग २ हो गया है। आप इस समय विद्यमान हैं। आपके पुत्र पन्नालालजी बम्बई में अलसी और कॉटन के स्पेक्यूलेशन का काम करते हैं।
. लूणिया दीपचन्दनी का जन्म संवत् १९३८ में हुआ। भाप अपने पिताजी के साथ कपड़े के व्यापार में सहयोग देते रहे । आपका सम्वत् १९७३ में अंतकाल हुआ । आपके पुत्र लूणिया रामलालजी का जन्म सम्वत् १९५५ में हुआ।
लूणिया रामलालजी ने कपड़े के व्यापार को उठाकर सराफी का थोक काम काज शुरू किया, तथा अकेले रहने के कारण बांदा की जमीदारी का काम भी उठा दिया । इस समय आप अजमेर के मशहूर सराफ माने जाते हैं तथा ओसवाल हाईस्कूल और ओसवाल कन्याशाला के खजांची हैं। आपके पुत्र अमरचन्दजी हैं।
बन्दा-मेहता
बन्दा मेहता गौत्र की उत्पत्ति
इस गौत्र की उत्पत्ति के सम्बन्ध में यह किम्बदन्ति है कि संवत् ७३५ में पीपाड़ के तत्कालीन पड़िहार राजा कान्हजी के पौत्र राजसिंह ने आचार्य बिमलचन्द सूरि के उपदेश से जैन धर्म ग्रहण किया तभी से इनकी सन्ताने ओसवाल जाति में सम्मिलित की गई और इनका गौत्र पूर्ण भड़ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इनके कुल देवता नाग हैं।
राजसिंह के बारह पुश्त पश्चात् इस वंश बासणजी हुए जिनके लिए कहा जाता है कि वे अनहिलपुर पट्टण के राजा पालजी के दीवान हुए, इन्होंने वहाँ श्री ऋषभदेव का मन्दिर बनवाया । वहाँ पर इन्हें संघपति और घीया मेहता की पदवी मिली, इनकी चौवीसवीं पुश्त में आसदत्तजी हुए, इन्होंने तत्का. सीन दिल्ली नरेश की बहुत बन्दगी की । जिससे प्रसन्न हो बादशाह ने इन्हें बन्दा मेहता के नाम से सम्मानित किया, तभी से इनका गौत्र इस नाम से प्रसिद्ध है।
आसदत्तजी की आठवीं पुश्त में खींवसीजी हुए। खींवसीजी के भखैचन्दजी और जीवराजजी नामक दो पुत्र हुए। इनमें मेहता अखैचन्दजी का नाम जोधपुर के राजनैतिक इतिहास में अपना खास स्थान
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व. मेहता मुकुन्दचन्दजी दीवान
राज मारवाड़, जोधपुर.
स्व० मेहता कुंदनमलजी, जोधपुर.
मेहता चांदमलजी, जोधपुर.
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बन्दा मेहता
रखता है। अपने जीवकाल में इस चतुर मुत्सुद्दी ने जोधपुर के राजकीय प्राङ्गण में भांति २ के खेल खेले, और अपने व्यक्तित्व का जबर्दस्त प्रदर्शन किया।
मेहता अखैचन्दजी का खानदान, जोधपुर ___ मेहता अखैचन्दजी के प्रपल व्यक्तित्व और उनकी राजनीति चतुरता का दर्शन उस समय से होता है जब कि संवत् १८१९ में भीवसिंहजी जोधपुर के राजा बन गये और मानसिंहजी को जालौर दुर्ग में आश्रय लेना लड़ा। इस दुर्ग में मानसिंहजी को बहुत दिनों तक घिरे रहना पड़ा जिससे उन्हें वहाँ अन्न और जल का बड़ा कष्ट होने लगा। ऐसे समय में आहौर के ठाकुर अनारसिंहजी के द्वारा मेहता अखैचन्दजी का मानसिंहनी से परिचय हुआ और इन्होंने मानसिहजी को उस महान् विपत्ति के समय में अन्न और द्रव्य की बहुत सहायता पहुँचाई और उनकी विश्वास पात्रता प्राप्त की। जब यह बात जालौर पिरधेरा देने वाले भण्डारी गंगारामजी और सिंघवी इन्द्रराजजी को मालूम हुई तो उन्होंने मेहता अखैचन्दजी की पकड़ने की बहुत कोशिश की, मगर अखैचन्दजी अत्यन्त चतुराई पूर्वक इनसे बचते रहे । इसके पश्चात् जब महाराज भीमसिंहजी का देहान्त हो गया, और उनकी जगह पर सब मुस्सुदियों ने महाराज मानसिंहजी को ही जोध. पुरका राजा बनाया उस समय महाराजा मानसिंहजी. ने मेहता अखैचन्द जी को मोतियों की कंठी, कड़ा मन्दील, सिरोपाव तथा नीमली नामक गांव जागीर में बख्श कर इनका सम्मान किया इसी साल मालाई नामक और एक गांव इनके पट्टे दुआ। इसके पश्चात् इन्होंने अपने व्यापार को बढ़ाने की ओर लक्ष दिया, जिसमें आपने लाखों रुपये की सम्पति उपार्जित की । यह वह समय था जब सिंधवी इन्द्रराजजी, भण्डारी गंगारामजी, मुणोत ज्ञानमलजी और मेहता अखैचन्द जी का सितारा पूरी जाहोजलाली पर था । इन्ही दिनों इन्होंने जालौर गढ़ की तलहटी में जागोड़ी पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाया ।
संवत् १८६३ में जब मारवाड़ के कई सरदार धोकसिंहजी का पक्ष लेकर महाराज मानसिंह से बागी हो गये और जयपुर तथा बीकानेर की सहायता से मारवाड़ में धोकलसिंह की दुहाई फेर दी, उस महान् सङ्कट के समय में भी मेहता अखैचन्दजी ने राज को बहुत बड़ी आर्थिक सहायता पहुँचाई। इससे प्रसव होकर महाराज मानसिंहजी ने कई रुक दिये, जिनका उल्लेख इस ग्रन्थ के राजनैतिक महत्व नामक शीर्षक में दिया जा चुका है । संवत् १८६६ में इन्हें पालकी सिरोपाव तथा खास रुक्का इनायत हुआ। संवत् १८६७ में इनके पुत्र लक्ष्मीचंदजी के विवाह के समय दरबार इनकी हवेली पर पधारे और इन्हें कड़ा, दुशाला, सिरपंच, कण्ठी और बीस हजार रुपये प्रदान किये ।।
संवत् १०६४ से १८७२ तक मारवाड़ में सिंघवी इन्द्रराजजी और मेहता अलैचन्दजी दोनों का
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
सितारा बहुत तेजी पर था संवत् १८७२ में जब मीरखां के सिपाहियों ने सिंघवी इन्द्रराजजी और देवनाथजी को कल कर डाला, उस समय उसकी चढ़ी हुई ९॥ लाख की रकम में से पौने पांच लाख रुपये मेहता अलैचन्दजी ने और पौने पांच लाख जोशी श्री कृष्णजी और सेठ राजारामजी गदिया ने मीरखां को देकर बिदा किया। इन्दराजजी के करल हो जाने पर दीवानगी का ओहदा खालसे होगया, और उस स्थान का संचालन मेहता अखैचन्दजी के जिम्मे किया गया। इसके तीन मास पश्चात् इन्दराजजी के पुत्र सिंघवी फतेरोजजी दीवान बनाये गये।
संवत् १८७३ में चैत मास में कई सरदारों के प्रयत्न से राजकुमार सिंहजी राजगद्दी पर बिठाये गये और मेहता अखैचन्दजी संवत् १८७३ की बैसाख सुदी ५ को उनके दीवान बनाये गये । मगर महाराज छत्रसिंहजी, का देहान्त केवल ग्यारह महीने पश्चात् १८७४ की चैत सुदी ४ को होगया, और उसी साल के श्रावण में मेहता अखैचन्दजी की जगह उनके पुत्र लक्ष्मीचन्दजी दीवान बनाये गये। संवत् १४७५ में मेहता अखै वन्दजी ने राज्य के ठिकानों में से एक एक २ गाँव पट्टे से छुड़ा लिया जिससे राज्य की आमदनी तीन लाख बढ़ गई । उस समय महाराज मानसिंहजी ने कहा कि हमारा हुक्म भखैचन्द पर, और अखैचन्द का हुक्म सब पर रहे। इनकी मरजी के बिना खजाने में कोई जमा खरच न होने पावे। इन सब बातों से मेहता अखैचन्दजी की शक्ति, उनके प्रबल प्रभाव और जबर्दस्त कारगुजारी का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
इस सारे वातावरण में धीरे २ मेहता अखैचन्दजी के विरोधियों की संख्या भी बढ़ती जा रही थी जिसके परिणाम स्वरूप सम्बत् १८७६ की बैसाख बदी ६ को वे एकाएक गिरफ्तार कर लिए गये । उनके पश्चात् उनके पुत्र लक्ष्मीचन्दजी, पौत्र मुकुन्ददासजी और कामेती रामचन्द्रजी भी गिरफ्तार कर लिए गये तथा उनका सारा घर लूट लिया गया। उसके एक मास पश्चात जेठ सदी १४ को उनके पास हलाहल विष का प्याला पीने के लिए भेजा गयो । मेहता अखैचन्दजी ने जीवनदान के बदले पच्चीस लाख रुपया देना चाहा मगर उनकी प्रार्थना पर कोई ध्यान नहीं दिया गया और वे अपने आठ साथियों सहित हलाहल विष का पान कर इस लोक से विदा हुए। संवत् १८७९-८० में अखैचन्दजी के बेटे लक्ष्मीचन्दजी और पोते मुकुन्ददासजी ३० हजार रुपये लेकर छोड़े गये। .. मेहता लक्ष्मीचन्दजी-भाप मेहता अखैचन्दजी के पुत्र थे आपका जम्म सम्वत् १४५० में हुआ। १८७४ में आप पहले पहल दीवान बनाये गये। उसके पश्चात सम्बत १९०७ तक आप करीब चार पाँच के और दीवान बने । करीब ९ साल तक आप दीवान रहे । १९०७ में भापका स्वर्गवास हुमा । भापको
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बंदामेहता
हाथी, पालकी सिरोपाव, बैठने का कुरुख और सोना इनायत हुभा था। भापके मकुन्दचंदजी, लालचंदजी, समरथमलजी और कुंदनमलजी नामक चार पुत्र हुए।
मेहता मुकुन्दचन्दजी-सम्वत १९०० में मेहता लक्ष्मीचंदजी म स्वर्गवास होने पर आप दीवान बनाये गये। इसके पश्चात् फिर सम्बत् १९०९, १९१६ .और १९४९ में आप दीवान बने कुल सात वर्षों तक आपने दीवानगी की। आपको भी हाथी और पालकी, सिरोपाव, बैठक दावा बन्द तथा पैरों में सोने की साँटों का सम्मान प्राप्त हुआ। महाराजा साहब तीन बार आपकी हवेली पर पधारे । संवेत् १९१७ में आपने अपने भाइयों के साथ श्री पार्श्वनाथ का मंदिर बनवाया। उसके पश्चात दरबार के हुक्म से उसमें गोपीननाथ और माता के मन्दिर बनवाये । संवत १९२४ में आपका देहान्त हुआ। आपके पूनमचंदजी और किशनचंदजी नामक दो पुत्र हुए। इनमें किशनचंदजी मेहता लालचंदजी के नाम पर दत्तक गये ।
मेहता कुन्दनमलजी-मेहता कुन्दनमलजी का जन्म संवत् १८९६ में हुमा। राजकुमार जसवन्तसिंहजी की नाबालिगी के समय इन्होंने बड़ी इमानदारी से राज काज सम्हाला । संवत् १९९३ में भाप महाराजा सखतसिंहजी के साथ आगरा के दरबार में गये वहाँ आपको सिरोपाव मिला। उसके पश्चात् माप कई स्थानों के हाकिम हुए तथा और कई भिन्न २ पदों पर रहे। १९३८ में आपको हाथी और पालकी सिरोपाव और पैरों में सोना इनायत हुआ। संवत् १९३८ के श्रावण में भयंकर पुष्टि की बजह से महाराजा साहब एक मास तक आपकी हवेली में जनाने समेत रहे। यहीं महाराजा ने इन्हें पैरों में सोना और ताजीम देना चाहा । मगर इन्होंने स्वीकार न किया, तब महाराणी साहब ने कुन्दनमलजी की दोनों पत्नियों को सोना इनायत किया। मेहता कुन्दनमलजी को शिल्प और संगीत से बड़ा प्रेम था। संवत् १९३. के अकाल में मापने २ साल का इकट्ठा किया हुआ अनाज गरीबों को मुफ्त बांट दिया। सम्वत् १९३५ में मापने सबसे पहिले तौजी की प्रथा प्रचलित की। संवत् १९५६ में मापने भोसियाँ का मीर्णोद्धार करवाया। सं० १९४१ में आपका देहान्त हुमा। आपके सन्तान न होनेसे आपके नाम पर मेहता चांदमलजी दत्तक लिये गये।
___ मेहता पूनमचन्दजी-आप मेहता मुकन्दचन्दजी के पुत्र है आपका जन्म सं० १९०९ में हुआ। कुछ समय तक हाकिम के पद पर रहकर आप सरकारी दुकानों (स्टेट बैंक) के पदाधिकारी नियुक्त हुए। इसके पश्चात् और भी कई महत्त्व पूर्ण पदों पर काम करते हुए आप एरनपुरा के वकील नियुक्त हुए । आपके पिता मुकुन्दचन्दजी का स्वर्गवास होने पर दरबार मातम पुर्सी के लिये भापके यहाँ पधारे, और उनके सब करव भापको इनायत किये। उनके मौसर के समय भी दरबार ने सात हजार रुपये नगद और पालकी
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
सिरोपाव भेज मेहता पूनमचन्दजी को सम्मानित किया। संवत् १९३२ में आपका स्वर्गवास हुआ आपके पुत्र मेहता गणेशचन्दजो हुए ।
मेहता किशनचन्दजी - आप मेहता मुकुन्दचन्दजी के छोटे पुत्र थे तथा मेहता लालचन्दजी के नाम पर दत्तक गये । परवतसर और जोधपुर की हाकिमी करने के पश्चात् आप घोड़ों के तबेलों के
अफ़सर हुए ।
मेहता शिवचन्दजी — आप मेहता समरथमलजी के पुत्र थे । आप भी कई स्थानों के हाकिम रहे । संवत् १९५३ में आपका देहान्त हुआ। आपको भी पालकी सिरोपाव का सम्मान मिला था । मेहता चाँदमलजी के बड़े पुत्र कानमलजी आपके नाम पर दत्तक गये ।
मेहता गणेशचन्दजी - आप मेहता पूनमचन्दजी के पुत्र थे । आप क्रमशः जैतारण, मारोठ, परबतसर, जालौर, सांचोर और भिनमाल के हाकिम रहे। फिर जालौर के कोतवाल और एजेन्टी के वकील बनाए गये आपको भी सिरोपाव, पैरों में सोना, बैठने का कुरब और डावा बन्द इनायत हुआ । इसके पश्चात् कुछ समय आप एजेण्ट जोधपुर के वकील रहकर बाद में जोधपुर की कौंसिल के मेम्बर हुए इसके साथ २ आप महकमा वाकयात, खासगी दुकानों और स्टेट ज्वैलरी के भी आफिसर रहे। आपके नाम पर मेहता सुमेरचन्दजी दत्तक लिये गये ।
मेहता चाँदमलजी - आपका जन्म संवत् १९३४ में हुआ। आप मेहता कुन्दमलजी के नाम पर दत्तक आये । आप बड़े योग्य और प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं । संवत् १९४२ में महाराजा जसवन्तसिंहजी आपको पालकी और सिरोपाव इनायत किया । इसी वर्ष इनके पिता कुन्दनमलजी की मातम पुर्सी के लिए महाराजा जसवन्तसिंहजी, प्रतापसिंहजी और किशोरसिंहजी इनकी हवेली पधारे। इनकी शादी के समय इन्हें पालकी और सिरोपाव इनायत हुआ । संवत् १९५६ में महाराजा सरदारसिंहजी ने आपको पैरों में सोना, हाथी सिरोपाव तथा ताजीम बख्शी और जालसू नामक गाँव पट्टे दिया । १९६८ में आप स्टेट ज्वैलरी के मेम्बर हुए। आपके कानमलजी और सरदारमलजी नामक दो पुत्र हुए। मेहता शिवचन्दजी के नाम पर दत्तक गये ।
इनमें कानमलजी
मेहता सुमेर चन्दजी - आपका जन्म सं० १९४५ में हुआ। आप जोधपुर में बड़े प्रभावशाली पुरुष हैं। वहाँ के मुत्सुद्दी खानदानों में आपकी अच्छी प्रतिष्ठा है आपकी मारवाड़ प्रान्त में कई स्थानों पर दुकानें हैं। आप शुरू २ में पाली के हाकिम हुए, उसके पश्चात् क्रमशः जोधपुर के ज्वाइण्ट कोतवाल, सुपरिटेण्डेण्ट एक्साईज और साल्ट और स्टॉम्प और रजिस्ट्रेशन डिपार्टमेण्ट के सुपरिटेण्डेण्ट हैं । जोधपुर के
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बन्दा मेहता ओसवाल समाज में आप सम्पत्तिशाली महानुभाव है। जनता में आप प्रितिष्ठित सज्जन है । सम्पत्ति तथा सम्मान से युक्त होने पर भी आप में अभिमान की लेश मात्र नहीं है।
बंदा मेहता छोगालालजी, जालोर बंदा मेहता गौत्र की उत्पत्ति में भासदत्तजी का नाम भा चुका है। इनके पुत्र मा को मलिक युसुफखान ने कानूगो पद प्रदान किया। इनके छोटे भाई वेजू के वंश में मेहता अखेचंदजी का खानदान है। मेहता मापूजी की १४ वीं पीढ़ी में मेहता उम्मेदमलजी हुए। मेहता उम्मेदमलजी के छोगालालजी,
सुमेरचन्दजी, पुखराजजी और नथमलजी नामक चार पुत्र हुए । इनमें मेहता सुमेरचन्दजी जोधपुर में मेहता गणेशचन्दजी के नाम पर दत्तक गये।
मेहता छोगालालजी का जन्म संन्द १९३१ में हुमा आप इस समय जालोर के कानूगो है। मारवाद राज्य के इतिहास की आपको जानकारी है। मापने पालनपुर राज्य के इतिहास बनवाने में मदद दी। आपका खानदान जालोर में उत्तम प्रतिष्ठा रखता है। आपके पुत्र नमलजी तथा प्रताप चन्दजी हैं। इनमें प्रतापचन्दजी नथमलजी के नाम पर दत्तक गवे हैं। कानमकजी की बावु २० साल की है। आप अपने लेन-देन का कार्य देखते हैं।
सेठ फतेचन्द मेघराज (बंदा महेता), कोयम्बटूर इस परिवार का निवास कोसेलाव (राणी स्टेशन के पास ) है। बंदा मेहता बेलाजी तथा उनके पुत्र लालजी और पौत्र किसनाजी हुए। मेहता किसनाजी के उम्मेदमजी, नेमीचन्दजी तथा जवानमलजी नामक ३ पुत्र हुए। इनमें नेमीचन्दजी विद्यमान हैं। मेहता उम्मेदमलजी का संवत् १९५९ में स्वर्गवास हुभा । आपके पुत्र फतेचन्दजी और मेघराजजी विद्यमान हैं।
मेहता फतेचन्दजी का जन्म संवत् १९४३ में हुआ। आप व्यापार के निमित्त संवत् १९५० में . कोयम्बटूर आये और ओटाजी शिवदानजी की दुकान पर सर्विस की। फिर आपने जरी का ब्यापार शुरू किया संवत् १९६३ से आप केसरीमल हीराचंद और फतेचन्द हजारीमल के नाम से भागीदारी में व्यापार करते रहे। आप संवत् १९७६ से अपना घरू व्यापार करते हैं। इस दुकान के व्यापार को सेठ फतेचन्दजी और उनके छोटे भाई मेघराजजी ने तरक्की पर पहुंचाया है। मेघराजजी का जन्म संवत् १९५४ में हुआ। आप बन्धुओं ने १० हजार रुपया बरकाणा विद्यालय में तथा ७ हजार रुपया वरकाणा मन्दिर के जीर्णोद्धार फंड में दिये हैं। १९५५ के अकाल के समय कोसेलाव में आपने रुपये के मूल्य का अनाज दस पाना मूल्य में
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मोलवावा नाति का इतिहास
विक्वाया। भापने मुनिरामय विजयजी का कोसेलाव में ४ हजार रुपया व्यय करके चतुर्मास कराया। आप दोनों बधु वरकाणा विद्यालय कमेटी के मेम्बर है। आपके यहाँ कोयम्बटूर में फतेचन्द मेघराज तथा मेघराज केसरीमल के नाम से जरी कपडा तयार करवा कर दिसावर भेजने का व्यापार होता है। रिडिगल में भी भापकी एक शाखा है। मापने इन्दौर में केसरीमल द्वारकादास के नाम से प्रांच खोली है। इस पर कोयम्बटूरी जरी माल का व्यापार होता है।
सेठ नेमीचंदजी कुंभाकोनम में धनरूप हीराजी नामक फर्म पर काम करते हैं। इनके पुत्र दीपचंदजी तथा भनराजजी है।
मेहता कागरेचा बागरेचा गौत्र की उत्पत्ति
बागरेचा गौत्र की उत्पत्ति सोनगरा चौहान राजपूतों से मानी जाती है। इस गौत्र की उत्पत्ति कम हुई और किस प्रकार हुई, यह निश्चयात्मक नहीं कहा जा सकता। ऐसा कहा जाता है कि जालौर के राजा सोमदेवजी के बड़े पुत्र बागराजजी को जैनाचार्य श्री सिद्धसूरिजी ने जैनी बनाया। इन्होंने जालौर के पास बागरा नामक गाँव बसाया। इन्हीं बागराजजी के नाम से वागरेचा गौत्र की उत्पत्ति हुई। इसी खानदान में आगे चलकर जगरूपजी हुए। इन जगरूपजी की कई पीढ़ियों के बाद अमीपालजी हुए ।
अमीपाजजी-संवत् १४२ के लगभग आप सिरोही गये तथा वहाँ के मुख्य मुसाहब और दीवान हुए। संवत् १६५६ रेखामग जोधपुर के महाराज सूरसिंहजी ने दीवान अमीपालजी के कार्यों से प्रसन्न होकर सिरोही राव से इन्हें मांगलिया और उन्हें जोधपुर ले आये । आपने संवत् ॥६५८ में जहाँगीर से अजमेर में महाराज सूरसिंहजी को जालौर का परगना इनायत करवाया। महाराजा ने जालौर पर कब्जा करके समीपालजी को वहाँ रक्खा। जब महाराज दिल्ली गये तब अमीपालजी को भी साथ ले गये। बादशाह अमीपालजी के काम से खुश हुए और उन्हें दिल्ली के खजाने का काम सौंपा। इसके पश्चात् समीपालजी दिल्ली रहे और वहीं पर इनका शरीरान्त हुआ। इनकी धर्मपत्नी इनके साथ सती हुई। इनके स्मारक में दिल्ली में छत्री बनी हुई है। भापके कीताजी और सोमसिंहजी नामक दो पुत्र हुए।
. मेहता सोमासिंहजी-सं० ११०९ के करीब मेड़ते के सूबा आमूमहम्मद ने चदाई करके निम्बोल के एक सम्पत्तिशाली ननवाणा बोहरा को पकड़ लिया। उसका सामना करने के लिये मेहता सोमसिंहजी
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मेहता बागरेचा
और बलून्दा के ठाकुर रामसिंहजी चांगावत फौज लेकर गये । हम दोनों वीरों में बड़ी वीरता से उसका सामना किया । इस लड़ाई में बलून्दा के ठाकुर तो मारे गये और सोमसीजी विजयी होकर जोधपुर में आकर रहने लगे।
मेहता भगवानदासजी-सोमसीजी के दूसरे भाई कीताजी के भगवानदासजी नामक एक पुत्र हुए। आप भी बड़े बहादुर ब्यक्ति थे। संवत् १७०६ कार्तिक मास में जैसलमेर के रावल मनोहरदासजी का स्वर्गवास हुआ तथा वहाँ की गद्दी के लिये भाटी रामचन्द्र और सबलसिंह के बीच में झगड़ा हुआ। तब बादशाह की आज्ञा से जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंहजी ने मेहता भगवानदासजी और सिंघवीप्रतापमलजी को फौज देकर सबलसिंहनी की मदद पर भेजा । कहना न होगा कि इस लड़ाई में मेहता भगवानदासजी विजयी हुए और सबलसिंहजी को राज्यासीन करके अपनी फौज को वापस जोधपुर ले आये। इससे जोधपुर नरेश महाराजा जसवंतसिंहजी बड़े खुश हुए । मेहता भगवानदासजी के मेरूदासजी और जीवनदास बी नामक-दो पुत्र हुए।
मेहता जीवनदासजी-संवत् १७४५ लगभग राव भानंदसिंहजी और रामसिंहजी जालौर में उपद्रव करने लगे। उनको दबाने के लिए महाराजा अजीतसिंहजी ने मारी अनोपसिंहजी तथा मेहता जीवनदासजी की अधीनता में फौज भेजी । इस फौज का आना सुनकर दोनों बागी सरदार जालौर मेडकर भाग गये। मेहता जीवनदासजी के गिरधरदासजी, सुन्दरदासजी, तथा नरसिंहदासजी नामक तीन
मेहता लालचन्दजी-मेहता सुन्दरदासजी के पुत्र लालचन्दजीने महाराज विजयसिंहजी के समय में राज्य की बहुत सेवाएँ की हैं। आप दरबार की तरफ से दिल्ली और आगरा भी भेजे गये थे। जोधपुर नरेश ने उन्हें बीकानेर नरेश महाराज गजसिंहजी के पास भी रेखा था। वहाँ रहकर उन्होंने बीकानेर में बहुत सी सेवाएँ बजाई जिसके उपलक्ष्य में उनको बहुत से रुक्के मिले । जब निजबकुलीखो ५००० फौज लेकर जोधपुर पर चढ़ आया उस समय महाराजा विजयसिंहजी ने सहायता के लिये हरदिया नंदरामजी और मेहता लालचन्दजी को बादशाह के पास भेजा। बादशाह ने इन्हें ५००० फौज देकर रवाना किया इस फौज की सहायता से उन्होंने दुश्मन को भगा दिया। इससे प्रसन्न होकर महाराज ने इन्हें बड़ी जागीरी बक्षी। इसके पश्चात् जोधपुर नरेश ने प्रसन्न होकर इनको क्रमशः आकेलड़ी, पाचोदी, मूडधा, बेचरोली, कुण्डी, अकड़ाया, नेणिया तथा झालामण्ड नामक गाँव समय २ पर जागीर में इनायत किये।
मेहता बांकीदासजी-मेहता लालचन्दजी के बांकीदासजी मामक एक पुत्र हुए । आप भी बडे कारगुजार पुरुष थे। महाराजा जोधपुर के साथ मरहठों की सुलह कराने में इन्होंने बड़ी मदद दी थी।
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मोतवाल बाति का इतिहास
संवत् १८५६ में ये मेड़ते के हाकिम बनाये गये । इनके मलूकचन्दजी, दलीचन्दजी एवं थानमलजी नामक तीन पुत्र हुए। इन तीनों भाइयों ने भी दरवार की अच्छी सेवाएं कीं । मेहता दलीचन्दजी के साथ उनकी स्त्री सती हुई। इनकी छतरी जोधपुर में बनी हुई है। मेहता थानमलजी पर्वतसर के हाकिम तथा और भी कई मित्र र पदों पर रहे । आपके नाम पर नेणिया गांव पट्टे था । मेहता थानमलजी के शंभूमलजी और जोरा वरमलजी नामक दो पुत्र हुए।
मेहता शम्भूमल और जोरावरमलजी-आप दोनों महाराज मानसिंहजी और तखतसिंहजी की सेवा में बहुत काम करते रहे । उनियारे के झगड़े का फैसला करने के लिए बड़ी २ रियासतों के मौतवीर मुसाहिब एक त्रित हुए थे, इनमें जोधपुर की ओर से शंभुमलजी मुकर्रर किये गये थे। इसके पश्चात ये पर्वतसर के हाकिम और किलेदार रहे। इसके पश्चात् आपने छानमलजी सिंघवी के साथ दीवानगिरी का काम किया। मेहता शंभुमलजी का संवत् १९९९ में स्वर्गवास हुभा । मेहता जोरावरसिंहजी ने हाजी महम्मदखां के दीवानगी में नायबी का काम किया । मेहता शंभूमलजी के जवानमलजी एवं दानमलजी नामक पुत्र हुए । जवानमलजो कुमार जसवंतसिंहजी के युवराज काल में इनकी सेवा में रहे और फिर डीडवाने के हाकिम हुए ।
____ मेहता दानमलजी-आपने मारोठ की हाकिमी का काम किया। आप बड़े सदाचारी तथा दयालु प्रकृति के पुरुष थे। यही कारण है कि विरादरी में भापका अच्छा सम्मान था। संवत् १९६३ में आपका स्वर्गवास हुआ। भापके पुत्र मेहता बस्तावरमलजी हुए।
मेहता बख्तावरमलजी-आप इस खानदान में बड़े प्रतापी और प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं। आपका जन्म संवत् १९१९ में हुमा । संवत् १९४१ में भाप महकमा वाकयात और महकमा नमक के सुपरिटेण्डेण्ट नियुक्त हुए । इसके पश्चात् कई परगनों के सुपरिटेण्डेण्ट रहकर भाप मारवाड़ और मेवाड़ की सरहह पर जोधपुर राज्य की भोर से मोतमिन्द मुनर हुए। यहाँ पर आपको ४२०) मासिक वेतन मिलता था। इसके पश्चात् भाप अफसर जवाहररवाना, सुपरिटेन्डेन्ट सेन्ट्रल जेल, हाकिम मेड़ता और सुपरिटेण्डेन्ट बराबम पेशा नियुक्त हुए। उसके पश्चात आपने सरदारपुरा नामक नयी बस्ती आबाद करने में मेहता विजयसिंहजी दीवान को सहायता दी। कई स्थानों से आपको पालकी, सिरोपाव का सम्मान प्राम हुमा । सन् १९१४ में आप कन्सल्टेटिव्ह कौंसिल के मेम्बर बनाए गए। जोधपुर के राजनैतिक वातावरण में भापका बड़ा प्रभाव रहा। मैजर जनरल हिज हाईनेस सर प्रतापसिंह ने सन् १९९० की २० फरवरी को जो पत्र लिखा था उसमें आपके लिए लिखा है।
- "जिस किसी भी महकमें में मेहता बख्तावमल में काम किया, उसमें उन्होंने अपनी योग्यता और ज्ञान का पूरा २ प्रदर्शन किया। इन्होंने अपने स्वामी के हितों का पूरा २ खयाल रखा। मैं कई
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
MITTE
श्री स्वर्गीय मेहता दानमलजी बागरेचा, जोधपुर
श्री मेहता जसवंतमलजी बागरेचा, जोधपुर
श्री मेहता बख्तावरमलजी बागरेचा, जोधपुर
श्री मेहता रणजीतमलजी बागरेचा, बी. ए. एल. एल. बी., जज्ज हाईकोर्ट, जोधपुर
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मेहता बागरेचा
बरसों से उन्हें जानता हूँ और उनकी बोमाता की तस्लीम करता हूँ"।"........"ईसवी सन १८४० में एक बार महाराज नरसिंहगढ़ ने मेहता सतावरमलजी को एक सम्माननीय ऊँची जगह पर बुलवाया था, पर भूतपूर्व महाराजा जसवंतसिंहजी इनसे इतने प्रसव थे कि उन्होंने इन्हें वहाँ न जाने दिया और जोधपुर स्टेट ही में ऊँची २ जगह देने का आश्वासन दिया। इस बचन की पूर्ति के लिए महाराजा ने इनकी तनख्वाह बढ़ाई और यह हुक्म कर दिया कि मेहता बख्तावरमल चाहे जिस ओहदे पर रहे, मगर तनख्वाह उसकी जाति तनख्वाह कर दी जावे ।" इसी प्रकार और कई पुलों ने समय २ पर आपके कार्यों की बढ़ी प्रशंसा की।
आपका सार्वजनिक जीवन भी उँचे दर्वे का है। संवत् १९५७ में आप अखिल भारतीय स्थानक वासी जैन कान्फरेंस के फलौदी वाले प्रथम अधिवेशन के सभापति बनाए गये। इसके पश्चात् आप जोधपुर साहित्य सम्मेलन की-जोकि मुनि विजयधर्मसूरिजी के भाग्रह से हुआ था और जिसके सभापति श्री सतीशचन्द्र विद्या भूगल थे-स्वागत कारिणी समिति के सभापति बनाए गये थे। इस अवसर पर अर्मबी के सुप्रसिद्ध जैव विज्ञान या हरमन जैकोबी भी जर्मनी से पधारे थे। इस समय आप सब कामों से अवसर ग्रहण कर शांति काम कर रहे है । माप बसवन्तमम्जी और रणजीतमलजी नामक दो
__ मेहता जसवंतमलजी--मापका जन्म संवत् १९३८ में हुआ । मापने महाराज सरदारसिंहजी के साय नोबक स्कूल में शिक्षा पाई। संवत् १९९९ में आप जोधपुर के हाकिम हुए। संवत् १९७६ से १९८५ तक आप कुचामन ठिकाने के मैनेजर रहे। आपके समय में कुचामन ठिकाने की अच्छी उन्नति हुई और भापही के समय में वहाँ स्कूल, हॉस्पिटल और सड़क मादि का निर्माण हुआ। स्वयं दरबार एवम् दूसरे अफिसरों ने आपके कार्यों की प्रशंसा की। भापके शंकरमलजी नामक एक पुत्र हैं।
____ मेहता रणजीतमलजी-आपका जन्म संवत् १९४६ में हुआ। सन् १९०९ में आपने बी. ए. पास किया। इसके पश्चात् मागरे से एल. एल. बी० श्री परीक्षा पास की। सन् १९१८ में भाप बाड़मेर के हाकिम और इसके पश्चात् मालानी डिस्ट्रिक्ट के सुपरिटेण्टेण्ट बनाए गये। सन् १९१९ में मापने दीवानी जज का चार्ज लिया । इसके बाद आप महकमाको सरदारान् के माफीसर नियुक्त हुए। सन् १९२१ में भाप सेशन जज, और सन् १९२० में चीफ कोर्ट के जज बनाये गये । वर्तमान में भाप इसी मोहदे पर काम कर रहे हैं।
आपकी इमानदारी, कार्यतत्परता तथा सचाई के विषय में जोधपुर नरेश, जुडिशियल मेम्बर सर रेनाल्ड, कनक हेमिल्टन, कर्नल विग्हम आदि पुरुषों ने समय २ पर आपकी बड़ी तारीफ की है। सीवानदी (पाली) मरडर रेस में भापके इमानदारी और न्यायप्रियता से भरे हुए फैसले को
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पोसवाल जाति का इतिहास
देखकर जोधपुर महाराजा आपसे बहुत खुश हुए। सारे जोधपुर के जन समाज में आपके उच्च चरित्र और कर्तव्य परावणता की भी अच्छी छाप है। आप स्थानीय म्युनिसिपेलिटो के नामिनेटेड प्रेसिडेण्ट हैं। इतने महत्व पूर्ण काम करते रहने पर भी आपको लेश मात्र अभिमान नहीं है। आपके पुत्र गोपालमलजी वी. ए. में तथा किशनमलजी मेट्रिक में पढ़ रहे है।
मेहता रंगरूपमलजी बागरेचा, जोधपुर . ऊपर मेहता बख्तावरमलजी बागरेचा के परिचय में बतलाया जा चुका है कि मेहता शंभूमलजी के पुत्र जवानमलजी तथा दानमलजी हुए । इनमें जवानमलजी के मेहता सावंतमलजी, छगनमलजी, जवरमलजी तथा अचलमलजी नामक ४ पुत्र हुए और दानमलजी के पुत्र मेहता वख्तारमलजी हैं।
मेहता जवाहरमलजी-अपका जन्म संवत् १९२३ में हुआ।आप नागोर, सीवाणा तथा पाली में स्टेट के खजांची रहे । सांसारिक कार्यों से विरक्ति होजाने के कारण आपने संवत् १९७० में सर्विस छोड्दी
और इस समय जोधपुर शहर के समीप अपने जवराश्रम नामक बंगले में निवास कर धार्मिक जीवन विताते हैं।ज्योतिष की ओर आपकी अच्छी रुचि है। कविता करने का भी आपको अच्छा शोक है । आपके द्वारा रचित पों का संग्रह जवर भजनमाला के रूप में प्रकाशित हुआ है। आपके पुत्र मेहता रंगरूपमलजी तथा जगरूपमलजी हुए।
... मेहता रंगरूपमलजी-आपका जन्म संवत् १९४३ में हुआ । आपने कानूनी लाइन में प्रवेश कर इस व्यवसाय में अच्छी योग्यता तथा सम्पत्ति उपार्जित की है। आपने सन् १९१५ में एक लॉ क्लास खोकी । इस क्लास में शिक्षा प्राप्त कर इस समय लगभग ६०-७० व्यक्ति वकालात करते हैं। इस समम आप जोधपुर के फर्स्ट क्लास कील हैं। आप सुधार के कार्मों में बहुत प्रेम के साथ भाग लेते हैं । सन् १९२६ मैं आप जोधपुर हिन्दू सभा के प्रेसिडेन्ट रहे थे। इसके अलावा गोडवाड़ हिन्दू सभा के भी आप सभापति निर्वाचित किये गये थे। समय २ पर आप अपने सुधार विषयक विचार, पुस्तिकाएं तथा पेम्प्लेट में प्रकाशित करते रहते हैं। आपके परिश्रम से जोधपुर में एक ला लायब्रेरी स्थापित हुई है। इस में आरंभ में आपने । हज़ार रुपया प्रदान किया है। आपके पुत्र राणामलजी, महावीरमलजी तथा मरुधरमलजी है।
मेहता मैरराजजी बागरेचा, जोधपुर इस परिवार के पूर्वज मेहता मलूकचन्दजी खेजड़ले के दीवान थे। संवत् १८५९ की भादवा वदी ३को कई सरदारों ने इनका चूक किया। इनके नाम पर मेहता हरवंचन्दजी दत्तक जाये। ये भी खेजड़ला
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मेहता बागरचा
की कामदारी करते हुए संवत् १८८० में स्वर्गवासी हुए। इनके पुत्र मेहता रिधकरणजी तथा राजमलजी हुए । मेहता रिधकरणजी - आप अर्जुनोत भाटी खानदान के वकील डोकर संवत् १८०३ में जोधपुर आगे और यहीं आबाद होगये। संवत १८९६ में बने हुए हुक्म नामे के बनवाने में आपने भी बहुत सहयोग लिया था । आप अपने समय के वकीलों में प्रसिद्ध वकील माने जाते थे। संवत् १९२५ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके उदयराजजी, सिद्धकरणजी, किशनकरणजी और मगनराजजी नामक ४ पुत्र हुए। मेहता उदयराजजी खेजड़ला तथा साथण के वकील रहे । संवत् १९३९ में इनका स्वर्गवास हुआ । इनके पौत्र विजयराजजी उगमराजजी आदि इस समय विद्यमान हैं । '
मेहता सिद्ध करणजी आप भी रायपुर, खेजड़ला और साथण के वकील रहे । आप सिद्धान्त के बढ़े पक्के और निर्भीक तबियत के पुरुष थे । संवत् १९६५ में इनका स्वर्गवास हुआ। आपके छोटे भ्राता किशन करणजी के ५ पुत्र हुए, इनमें सूरजकरणजी तथा सुकनकरणजी स्वर्गवासी होगये हैं, तथा करणराजजी केवलराजजी और रंगराजजी विद्यमान हैं। सूरजकरणजी के पुत्र सज्जनराजजी हैं।
मेहता ऋधकरणजो सब से छोटे पुत्र मगनराजजी विद्यमान हैं। आपका जन्म संवत् १९१२ में हुआ। आपको पुरानी बातों की अच्छी याददास्त है । आपके बड़े पुत्र जोगराजजी का संवत् १९८५ में स्वर्ग वास होगया है । इनके पुत्र कुंदनराजजी तथा अकलराजजी पढ़ते हैं। मेहता मगनराजजी के छोटे पुत्र मेहता भैरूराजजी हैं। आपका जन्म संवत् १९४६ में हुआ । आपने सन् १९२९ में ओसवाल नामक पत्रिका के सम्पादन में भाग लिया तथा इसी तरह के जाति सुधार के कामों में भाग लेते हैं। आपके पुत्र चन्दनराजजी स्टेट सर्विस में हैं तथा अमृतराजजी और रतनराजजी पढ़ते हैं ।
मेहता रतनराज - इस प्रतिभाशाली बालक की उम्र केवल ८३ वर्ष की है। यह वालक प्रारम्भ से ही बड़ी तीक्ष्ण बुद्धि का तथा मेधावी है। इसने अपनी छोटो अवस्था में हिन्दी और अंग्रेजी में जो ज्ञान प्राप्त किया है वह अत्यन्त ही प्रशंसनीय तथा भाश्वर्य की वस्तु है। इस बालक को जिन २ महानुभावों मे देखा है उन्होंने इसकी मुग्ध कण्ठ से प्रशंसा करते हुए बहुत प्रसन्नता जाहिर की है। हिन्दी के अनेक समाचार पत्रों एवं मासिक पत्रिकाओं में इस बालक के फोटो छप चुके हैं । इसके अलावा इसे कई सार्टिफिकेट एवं प्रशंसापत्र प्राप्त हुए हैं। पाठकों की जानकारी के लिये श्रीउमासङ्करजी एम० ए० द्वारा लिखित बॉम्बे क्रानिकल में प्रकाशित लेख का कुछ अंश हम नीचे देते हैं ।
Master Ratan, a young Marwari Jain child of seven years, exhibits in him
a rare genius. Surprisingly enough, he could speak fairly fluent English and could talk well almost on any topic at the tender age of bare four, and through the natural
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
unfolding of his native intelligence and gifted powers, he is now capable of reading and writing any difficult passage-even deliberately highworded. His clear accents, his capacity to stand difficult dictations and the possession of a remarkably assimi lative tenacious memory for words are his valuable assets and suggest in him the magnificent possibilities of life.
सेठ राजमल गणेशमल आच्छा ( बागरेचा मेहता ) चिंगनपैठ
इस परिवार के पूर्वज बागरेचा नगाजी के पुत्र दीपचंदजी, जोधजी और नरसिंहजी सिरिबारी में रहते थे। जब सम्वत् १८७३ में सिरियारी पर हमला हुआ तो ये वन्धु वहां से ढूंढला चले गये और वहाँ से सियार में सम्वत् १८८० में इन्होंने अपना निवास बनावा । सेठ दीपचन्दजी के पुत्र मगनीरामजी हुए। सेठ मगनरामजी के नवलमलजी, बहादुरमडजी, रतनचन्दजी तथा धन्नालालजी नामक ४ पुत्र हुए। इनमें सेठ रतनचन्दजी का स्वर्गवास सम्वत् १९५८ में हुआ। आपके पुत्र सेठ राजमलजी तथा गणेशमलजी हुए । आप दोनों भाइयों का जन्म क्रमशः सम्वत् १९५६ तथा १९६० में हुआ ।
सियार से व्यापार के निमित्त सेठ गणेशमलजी आच्छा संवत् १९६५ में चिंगनपैठ (मद्रास) आबे, तथा सेठ थानमलजी संचेती के यहाँ सर्विस की। संवत् १९६८ में इनके बड़े भ्राता राजमलजी भी चिंगनपैठ आये तथा रूपचन्द बरदीचन्द रायपुरम् वालों के यहाँ सर्विस की। इस प्रकार नौकरी करने के बाद इन भाइयों ने संवत् १९७१ में अपनी स्वतन्त्र दुकान खोली, जिस पर ब्याज का काम होता है। आप दोनों भाई बड़े समझदार व्यक्ति हैं। धर्म ध्यान में आपकी अच्छी श्रद्धा है | गणेशमलजी के नेमीचन्दजी, पारसमलजी, केक्लचन्दजी तथा इमस्तमजी नामक ४ पुत्र है। इनमें नेमीचन्दजी राजमलजी के नाम पर दत्तक गये हैं। यह दुकान चिंगमपैंठ के व्यापारिक समाज में अच्छी प्रतिष्ठित मानी जाती है।
इसी तरह इस परिवार में जुगराजजी सियार में रहते हैं तथा नवलमलजी के पौत्र सुरूलालजी दहीठाणा (अहमदनगर) में व्यापार करते हैं।
पन्नालालजी बागरेचा, नागपुर
सेठ बख्तावरमलजी बागरेचा बरार में धामक से ८ मील दूर पर मंगरूर चवाका नामक स्थान पर व्यवसाय करते रहे। आपके छोटे भ्राता पद्मालालजी बागरेचा मे नागपुर के सीताबरड़ी नामक स्थान में दुकान की। आप दोनों सज्जन ओसवाल समाज में बड़े प्रतिष्ठित हैं । आपके नहीं बैंकिंगका व्यापार होता है। धार्मिक कामों में भी आप सहयोग लेते रहते हैं ।
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्वर्गीय मेहता लालजी (मेहता बातावरमलजी के पूर्वज ) जोधपुर.
स्वगीय मेहता जसरूपजी ( मेहता जसवंतरायजी के पूर्वज ) जोधपुर. (श्री महाराजा मानसिंहजी और देवनाथजी के समीप खड़े हुए)
MEANINGarnumariHITTINUTWARINIANTARTHMANM
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जूने दीवानों की हवेली ( मेहता चांदमलजी), जोधपुर.
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कांकरिया कांकरिया गौत्र की उत्पति
इस गौत्र की उत्पत्ति कंकरावत गाँव के निवासी परिवार राजपूत वंशीष खेमटरावजी के पुत्र राव भीमसीजी से हुई है । राव भीमसीजी उदयपुर महाराणाजी के नामांकित सामंत थे। भापको भरतर गच्छाचार्य श्री जिनवल्लभसूरिजी ने जैन धर्म का प्रतिवोष देकर दीक्षित किया तथा भाप करावत गाँव निवासी होने से कांकरिया के नाम से प्रसिब हुए। भाप लोग खरतरगच्छ के भनुवापी है।
मेहता जसरूपजी कांकरिया का खानदान, जोधपुर जोधपुर के कांकरिया खानदान के इतिहास में मेहता जसरूपजी का नाम विशेष उल्लेखनीय है। पोषपुर की गद्दी पर जिस समय महाराजा मानसिंहजी प्रतिष्ठित थे उस समय जोधपुर में नाथजी का प्रभाव बहुत जोरदार और व्यापक हो रहा था। यह कहना अत्युक्ति न होगी कि माथजी.
आँख के इशारे पर उस समय सारे राज्य की धुरी घूमती थी। महाराज मानसिंहजी नाथों के तत्कालीन गुरू देवनाथजी को करीब २ विधाता के ही तुल्य समझते थे। मेहता असल्पनी ही नामजी के कामदार थे। कहना न होगा कि इनका भी उस समय बड़ा म्यापक प्रभाव था।
संवत् १८४२ में मेहता जसरूपजी को दरवार की मोदी का काम सौंपा गया। संवत् १४९ में भापका राजनैतिक वातावरण में बहुत प्रभाव बढ़ गया। इस समय इन्होंने अपने कामेती (कामदार) कालूराम पंचोली को दीवान का पद दिलाया। इसी बात से उनके प्रभाव का अन्दाजा लगाया जा सकता है। संवत् १८९५ में आप के पुत्र बच्छराजजी को किलेदारी का पद मिला । इसी वर्ष ब्रिटिश गवर्नमेंट को यह ख़याल हुमा कि जोधपुर के शासन में नाथजी का दखल होने से सारी व्यवस्था गड़बड़ हो रही है। इसलिये उसने महाराजा पर नाथजी के कम दखल करने का दबाव डाला । इस अप.
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मांसवात जाति का इतिहास
सर पर महाराज मानसिंहजी की इच्छा न होने पर भी मेहता जसरूपजी कुछ समय के लिए जोधपुर छोड़ कर म्यावर आ गये । इस पर मारवाद के दस प्रमुख सरदारों ने महाराजा की आज्ञा से भापके पास एक पाश्वासन पत्र भेजा था जो इस प्रकार था।
श्रीनाथजी सहाय
मुहताजी श्री जसरूपजी सूं दस सिरदारां रो जुहार पंचावसी तथा राजरा टावर कबीला भाई तालकदार सुदा खात्र जमां सु खुसी आवे जण ठिकाणे रहो कठी कानी सू कैदेई खेचल होषणा देसां नहीं ने श्री हुजूर तूं आजीविका ४०००) री इनायत हुई जिणमें तफावत पड़न देसा नहीं ने साहचरी चीखती खातरी म्हांहा वणता खेवट करने कराय देखा इण में तफावत पड़न देसा नहीं म्हारा इसटदेवरी आण है ने भी हुजूररा फरमावणा रौँ मारो वचन है संवत् १८९६ रा पोस सुद २"
इस रुख के नीचे पोकरन, भाद्राजन भासोप इत्यादि दस ठिकानों के जागीरदारों के दस्तखत थे। प्यावर भाकर मेहता जसरूपजी ने नल डिक्सन को ग्यावर आवाद करने में बड़ी मदद दी। इससे कर्नल डिक्सन आपसे बहुत खुश हुए। संवत् १९०९ में महाराजा मानसिंहजी ने भाप को फिर से जोधपुर बुलाया मगर भाप मार्ग में ही लकवे से ग्रसित हो गये और जोधपुर पहुंचते २ स्वर्गवासी हो गये।
मेहता जसरूपजीने भोसवाक जातिके याचकों और भोजकों को “लाख पसाब" नामक वरदान दिये जिसकी कीर्ति का उल्लेख भाजभी सेवक लोग कविताओं में बड़े उत्साह के साथ करते हैं। महाराज मानसिंहजी के जसरूपजी की सेवाओं से प्रसव होन समय २ पर कर्मावास, बोरावास, धवा आदि करीब १२००४) की रेख के गाँव जागीर में दिये। इनके साथ भापको पालकी, सिरोपाव आदि के सम्मान से भी सम्मानित किया था। आपके पाँच पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः प्रतापमलजी, बच्छराजजी, बागमलजी, फतेचन्दजी तथा गिरधारीमलजी थे। इनमें मेहता प्रतापमलजी के मगनराजजी, शिवराजजी, उम्मैदराज जी तथा जगनराजजी नामक चार पुत्र हुए।
' मेहता मगनर जजी-आप महाराजा तखतसिंहजी के समय में महकमें हवाला के अध्यक्ष ( Land Revenue Superintendent ) के पद पर रहे। आपने बड़ी ईमानदारी से राज्य का काम
• याचक चारण और भाटों को व्याह शादी के अवसर पर जो दान दिया जाता है उसे साधारणतः त्याग कहा माता है। मगर यही त्याग जब हाथी, घोडे, ऊँट आदि के रूप में हजारों रुपयों के मूल्य का होता है तब इसे लखपसाब
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कांकरिया
किया । आप संवत् १९५८ में स्वर्गवासी हुए। आपके बड़े पुत्र विजयराजजी संवत् १९१६ में तथा छोटे पुत्र पनराजजी संवत् १९७२ में गुजरे । विजयराजजी के पुत्र मेहता जतनराजजी इस समय कस्टम डिपार्टमेंट में सर्विस करते हैं ।
मेहता शिवराजजी - आप शुरू में जोधपुर स्टेट में हवाला सुपरिन्टेन्डेन्ट, हाकिम और फिर बीकानेर के कस्टम सुपरिन्टेन्डेन्ट रहे । आप दिगम्बर जैन धर्मावलम्बी थे। आपके पास प्राकृत और मागभी भाषाओं का बहुत अच्छा संग्रह था जो मापने दिगम्बर जैन मन्दिर को भेंट किया था । आप संवत् १९७२ में स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र दुल्हेराजजी का संवत् १९७४ में स्वर्गवास होगया था । मेहता उम्मेदराजजी छोटी उमर में ही स्वर्गवासी हुए 1
आपका स्वर्गवास
भी कुछ समय तक
मेहता छगनराजजी - आप शुरू में महामन्दिर के नाथजी के कामदार तथा फिर शेरगढ़ आदि कई स्थानों के हाकिम रहे। संवत् १९५८ में आपका देहान्त हुआ | आपके गणेशराजजी और रंगराज जी नामक दो पुत्र हुए। मेहता गणेशराजजी बड़े मिलनसार और समन पुरुष थे । संवत् १९८४ में हुआ । मेहता रंगराजजी का जन्म संवत् १९३९ में हुआ । आप नाथों के कामदार रहे । आपका संवत् १९८८ में स्वर्गवास होगया है । मेहता राजजी, जसवन्तराजजी और हनुमन्तराजजी नामक तीन पुत्र हैं, मेहता रंगराजजी के अमृतराजजी नामक एक पुत्र है । इन चारों भाइयों में असाधारण प्रेम है। जोधपुर की ओसवाल समाज में यह सामदान प्रतिष्ठित और अग्रगण्य है ।
गणेशसब्जी के हुकुम
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मेहता हुकुमराजजी - आपका जन्म संवत् १९५२ में हुआ। आप इस समय जोधपुर राज्य में एक्साइज इन्सपेक्टर हैं। इसके पूर्व आप सेन्सस डिपार्टमेंट में असिस्टेन्ट सुपरिन्टेन्डेन्ट भी रहे । आपका स्वभाव बड़ा मिलनसार और सादा है।
मेहता जसवन्तराजजी - आपका जन्म संवत् १९५५ में हुआ । आप बड़े प्रतिभाशाली, कार्य कुशल तथा गम्भीर व्यक्ति हैं। आपने अपने जीवन में बहुत उन्नति की । सन् १९१९ में आपने B. A. तथा सन् १९२६ में आपने I. L. B. की परीक्षाएँ पास कीं । आप सन् १९२० में मजिस्ट्रेट के पद पर नियुक्त हुए और वहाँ पर बहुत ही शीघ्र अपनी बोम्यता और प्रतिभा का परिचय दिया जिसे देखकर सन् १९२४ में तत्कालीन चीफ जज राव बहादुर लक्ष्मणदासजी बैरिस्टर एट कॉ ने आप के विषय में लिखा,
"It is a pity that a 'Hakim' like the present one should lose his fragrance in the desert air ! अर्थात् इनके गुण जितने उच्च हैं उनका यथावत् उपयोग नहीं हो रहा है। इसके
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ओसवाल जाति का इतिहास
परिणाम स्वरूप सन् १९२४ में सर सुखदेवप्रसाद ने आपको असिस्टेण्ट रजिस्ट्रार बना कर महकमा खास में अपने पास रक्खा । इसके पश्चात् आप रजिस्ट्रार बनाये गये । यह पहला ही अवसर था जब महकमा खास के रजिस्ट्रार के पद पर एक मारवाड़ी नियुक्त हुए। इस पद के उत्तरदायित्व के आपने बड़ी योग्यता से निभाया। सब उच्च पदाधिकारी तथा स्टेट कौंसिल के मेम्बर आपका बड़ा विश्वास करते थे । - सन् १९३१ में आपको महाराजा साहब ने फारेन एण्ड पोलिटिकल सेक्रेटरी के सम्मानीय पद पर नियुक्त किया । इस कार्य्यं को आपने बहुत योग्यता के साथ संचालित क्रिया । स्टेट कौंसिल के म्हाइस प्रेसिडेण्ट कुँवर सर महाराजसिंहजी ने अपनी स्पीच में आपके लिये जो शब्द कहे उनका सारांश इस प्रकार है।
"Mr. Jaswantraj Mehata. paid a special tribute to the excellent work of the foreign and political Secretary. He was officer of an exceptional ability with whose work kunwar Sir Maharajsing has been completely satisfied. He had always found him reliable."
सन् १९३३ में आपको महाराजा ने ट्रिब्यूट डि० का सुपरिन्टेन्डेन्ट नियुक्त किया । इस 'उत्तरदायित्व पद पर पहले जमाने में दीवान और वक्षी ही मुकर्रर होते थे क्योंकि इस पदाधिकारी का सम्बन्ध स्टेट के सम्माननीय जागीरदारों के साथ रहता है ।
मेहता जसवन्तराजजी राज्य के कामों के अतिरिक्त जाति सुधार, समाज सुधार और विद्या प्रचार के कामों में भी बराबर बड़े उत्साह के साथ भाग लेते रहते हैं। ओसवाल नवयुवक मण्डल जोबपुर तथा अखिल भारतवर्षीय मधयुवक महामण्डल के आप बहुत अर्से तक मुख्य कार्य्यं कर्ता रहे। आपके विचार सामाजिक मामलों में बड़े उदार और उच्च हैं ।
मेहता हनुमन्त सिंहजी - आपने सन् १९३० में B. A. तथा सन् १९३३ में एल० एल० बी० एक होनहार वकील 1
की परीक्षाएँ पास कीं । आप जोधपुर चीफ कोर्ट के मेहता अमृतलालजी B. ALL. B. भापका जन्म संवत् १९५९ में हुआ । आ जोधपुर चीफ कोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील हैं। आपकी योग्यता और सच्चरित्रता से जनता और अधिकारी दोनों ही बहुत प्रसन्न हैं। कुछ दिनों से आप मारवाड़ के सर्व प्रधान बकीलों में समझे जाते हैं । आप म्युनिसिपालिटी के कमिश्नर भी हैं।
सेठ छत्तूमल मुलतानमल कांकरिया, गोगोलाव ( नागोर )
इस परिवार के पूर्वज पहले थबूकड़ा (जोधपुर) में रहते थे। वहाँ से सेठ भेरोंदानजी लगभग
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ओसवाल जाति का इतिहास
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सेठ अमोलकचंदजी कांकरिया, गोगोलाव.
सेठ अमोलकचंदजी रतनचंदजी कांकरिया, बाघली.
सेठ पन्नालालजी कांकरिया, ब्यावर,
बाबू रतनचंद मेहता S/o भैरूंराजजी बागरेचा, जोधपुर,
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कांकरिया
२०० साल पहिले गोगोलाव ( नागोर ) आये । इनके पश्चात् क्रमशः ईश्वरचन्दजी, सवाईसिंहजी और रामचन्दजी हुए । आप लोग आस पास के गावों में साधारण देनलेन का व्यापार करते थे । सेठ रामचन्दजी के छतमलजी, हजारीमलजी, मुल्तानमकमी, चौथमलजी और रामलालजी नामक ५ पुत्र हुए।
सेठ छत्तूमलजी कांकरिया - आप गोगोलाव से ६० साल पूर्व बंगाल में तुलसीघाट ( गायबंदा) आये और यहाँ सेठ कुशलचन्दजी बागचा लुंगसरा निवासी की फर्म पर नौकर हो गये । ४ साल बाद ही आप इस फर्म के भागीदार होगये और घोड़े समय के पश्चात् आपने अपना घरू व्यापार भी आरम्भ किया। आपके सब भाइयों मे भी व्यापार की उन्नति में पूर्ण भाग लिया । संवत् १९५१ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके अमोलकचन्दजी, दुलीचन्दजी, सुगनमलजी तथा रेखचन्दजी नामक ४ पुत्र हुए। इनमें दो छोटेभाई अपने काका चौथमलजी के यहां दत्तक गये हैं।
अमोलकचन्दजी कांकरिया - आपका जन्म संवत् १९४१ में हुआ । छस्तू मलजी के स्वर्गवासी
हो जाने पर आपने ही इस फर्म का संचालन किया । आप बड़े धार्मिक एवं परोपकार वृत्ति के पुरुष थे । संवत् १९८९ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र बच्छराजजी शिक्षित सज्जन हैं और व्यापार में भाग लेते हैं तथा कन्हैयालालजी व मोतीलालजी पढ़ते हैं ।
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दुलीचन्दजी कांकरिया - आपका जन्म संवत् १९४४ में हुआ मिलनसार व्यक्ति हैं तथा फर्म का व्यापार बड़ी उत्तमता से सम्हालते हैं । जी व्यापार में सहयोग लेते हैं तथा दूसरे सोहनलालजी बालक हैं।
आप बड़े योग्य और आपके बड़े पुत्र भँवरलाल
सेठ हजारीमलजी कांकरिया - आप विशेषकर देश में ही निवास करते थे । आपका स्वर्गवास संवत् १९७६ में हुआ। आपके मुकनमलजी, किशनलालजी तथा भेरोंदासजी नामक ३ पुत्र हैं। इनमें किशनलालजी सेठ मुलतानमलजी के नाम पर दत्तक गये हैं। सेठ सुकनमलजी का जन्म संवत् १९४९ में तथा भैरोंदासजी का संवत् १९६० में हुआ । आप दोनों सज्जन व्यापार के काम में भाग लेते हैं । मुकनमलजी के पुत्र चम्पालालजी, दीपचंदजी और हरकचन्दजी तथा भेदाननी के पुत्र हीरालालजी और मांगीलालजी हैं।
सेठ मुलतानमलजी कांकरिया — आपने भी अपनी फर्म का व्यापार बड़ी योग्यता से चलाया । संवत् १९७२ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके नाम पर आपके भतीजे किशनलालजी दत्तक आये । आप योग्यता पूर्वक फर्म का संचालन करते हैं। आपके पुत्र पार्श्वमलजी तथा सरदारमलजी बालक हैं । सेठ चौथमलजी कांकरिया - आप छोटी वय में ही स्वर्गवासी होगये थे । आपके नाम पर
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ओसवाल जाति का इतिहास
सुगनचंदजी दत्तक लिये गये । आपके भी कम वर्ष में स्वर्गवासी हो जाने से आपके नाम पर आपके छोटे भाई रेखचन्दजी दत्तक आये । आपके पुत्र मदनलालजी और शुभकरणजी बालक हैं।
सेठ राजमल्लजी कांकरिया--आपने सेठ छत्तूमलजी के बाद इस फर्म के व्यापार को खूबबदाया । आप बड़े योग्य तथा जैन धर्म के अच्छे जानकार थे । संवत् १९८२ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र दूसराजजी एवं जेठमलजी हैं दूसराजजी के पुत्र पूरनमल बाबूलाल हैं ।
इतना बड़ा परिवार होते हुए भी इस में यह विशेषता है कि यह कुटुम्ब सम्मिलित रूप से बड़ी यत्परतापूर्वक अपने तमाम व्यापार को संचालित कर रहा है। आपका हेड आफिस तुलसीघाट ( गायबंदा) में छत्तमल मुलतानमल के नाम से तथा ७।२ बाबूलाल लेन कलकत्ता में इसकी एक ब्रांच है। इसके अलावा बंगाल प्रान्त के पलासवाड़ी, सादुलपुर, चौंतरा, कोमलपुर, दौलतपुर आदि स्थानों में भिन्न २ नाम से दुकानें हैं जिनपर जूट खरीदी बिक्री, गल्ला, कपड़ा और ब्याज का काम होता है ।
धूलचन्द कालूराम कांकरिया, ब्यावर
इस परिवार के पूर्वज कॉकरिया नंदरामजी बिरांठिया ( जोधपुर ) से लगभग ९० साल पूर्व आये । उस समय इस कुटुम्ब की आर्थिक परिस्थिति बहुत साधारण थी। इसी वंश में सेठ धूलचंदजी कोरिया का जन्म संवत् १९१४ में हुआ । उन्होंने अपनी सम्पति, मान, प्रतिष्ठा तथा व्यापार को खूब बढ़ाया । आप संवत् १९८५ में स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र कालूरामजी कोकरिया का जन्म संवत् १९५० 'हुआ । सेठ कालूरामजी काँकरिया की सत्कार्यों में पैसा खर्च करने की विशेष रुचि रहती है । आपने संवत् १९७७ से ही व्यावर के जैन मिडिल स्कूल का खर्च भार अपने ऊपर ले लिया है। इस समय आप इस संस्था को ५०० मासिक दे रहे हैं। इसके अतिरिक्त आपने १५/२० हजार के लागत की एक बिल्डिंग इस संस्था को देदी है। इसी तरह स्थानीय जैन सेवा समिति नामक संस्था को भी आपने अपना नेमीभवन नामक मकान प्रदान किया है। आपने व्यावर स्टेशन पर एक ३०।४० हजार की लागत से धर्मशाला बनवाई । इसी तरह के हर एक धार्मिक व विद्यावृद्धि के कामों में आप सहायताएँ देते रहते हैं ।
सेठ कालूरामजी कांकरिया व्यावर के प्रसिद्ध बैंकर हैं। इस समय आप स्थानीय म्युनिसीपालिटी के मेम्बर, सराफान चेम्बर के मेंबर, एडवर्ड मिल के डाइरेक्टर व जैन गुरुकुल व्यावर के व्यवस्थापक हैं। आपके लक्ष्मीचन्दजी, नेमीचन्दजी तथा हेमचन्दजी नामक तीन पुत्र हैं। आप तीनों पड़ते हैं । आपकी फाजिल्का दुकान पर ऊन, आढ़त, धान्य, और बैंकिग को कारवार होता है ।.
सेठ हजार मिल जेठमल कांकरिया, ब्यावर
इस खानदान के पूर्वज, कांकरिया सावंतमलजी अपने पुत्र हजारीमलजी, जेठमलजी तथा जुहार
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कांकरिया
मजी के साथ संवत् १८९२ में जोधपुर स्टेट के बरांठिया नामक ग्राम से ब्यावर आये । व्यावर आकर हजारीमलजी ने मोतीचन्द करनचन्द के यहाँ मुनीसात की • तथा जेठमलजी ने हजारीमल जेठमल के नाम से व्यवसाय करना शुरू किया। जैठमलजी का लगभग १९१३ में तथा हजारीमलजी का संवत् १९३४ में शरीरावसान हुआ ।
करिया हजारीमलजी के पश्चात् उनके पुत्र फतेचन्दजी मै कारवार सम्हाला । आप जेठमलजी के नाम पर दत्तक दिये गये । इनका' अन्तकाळ संवत् १९५९ में हुआ । कांकरिया जेठमलजी का ब्यावर की ओसवाल समाज में अच्छा प्रभाव था । आप लम्बे समय तक म्यावर म्युनिसिपलिटी के कमिश्नर रहे थे। इनके पुत्र गुलाबचन्दजी का जन्म संवत् १९१९ में हुआ ।
कांकरिया गुलाबचन्दजी बड़े प्रभावशाली और धार्मिक पुरुष थे । १९७१ में हुआ । वर्तमान में उनके पुत्र पचालालजी कांकरिया विद्यमान हैं। पर दत्तक गये हैं।..
कांकरिया पनालालजी का जन्म संवत् १९३८ में हुआ । अच्छी प्रतिष्ठा रखते हैं। आपके पुत्र पूनमचंदजी तथा नेमीचंदजी है। जेठमल के नाम से किराया तथा पुराना लेन-देन वसूली का काम और आवृत का कामकाज होता है ।
३५९.
आपका शरीरावसान संवत् आप फतेचंदजी के नाम
ब्यावर की ओसवाल समाज में आप इस समय आपके यहाँ हजारीमल गणेशदास पचाकाल के नाम से
सेठ मोतीलाल अमोलकचन्द कांकरिया, बाघली ( खानदेश )
इस परिवार का मूल निवासस्थान बढ़लू ( जोधपुर स्टेट ) का है। वहाँ से एक शताब्दी पूर्व सेठ भेरूदासजी कांकरिया बाघली आये । इनके रामचन्दजी, विजयराजजी तथा ताराचन्दजी नामक तीन पुत्र हुए। सेठ रामचन्द्रजी का स्वर्गवास संवत् १९१५ में हुआ । आपके पुत्र रतनचन्दजी ने इस दुकान के व्यापार और सम्मान को विशेष बढ़ाया। इनके पुत्र मोतीलालजी तथा अमोलकचन्दजी विद्यमान है। आपका जन्म क्रमशः संवत् १९५८ तथा ६० में हुआ है। आपके यहाँ साहुकारी लेन-देन का व्यापार होता है। यहाँ की ओसवाल समाज में यह परिवार अच्छी प्रतिष्ठा रखता है। धार्मिक कामों में भी यह परिवार व्यय करता रहता है। इसी तरह विजयराजजी के पौत्र माणकचन्दजी विद्यमान है ।
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रतनपुरा कटारिया
रतनपुरा कटारिया गौत्र की उत्पत्ति
विक्रम संवत् १०११ में सोनगरा चौहान जातीय रतनसिंहजी नामक एक प्रसिद्ध राजपूत हो गये हैं। आपने अपने नाम से रतनपुर नामक नगर बसाया । आपकी पांचवीं पीढ़ी में धनपालथी नाम के एक नामांकित राजा हुए। सुप्रसिद्ध जैनाचार्य दादा जिनदत्तसूरि के द्वारा राजा धनपाल ने जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण की तथा श्रावक के बारह गुण सुनकर अंगीकार किये । तभी से भापके वंशज अपने पूर्वज रखनसिंहजी के नाम से रतनपुरा कहलाने लगे।
इन्हीं रतनसिंहजी के वंश में भागे जाकर झाक्षणजी नामक एक प्रतापी और बुद्धिमान पुरुष हो गये हैं। भापकी वीरता से प्रसव होकर मांडलगढ़ के बादशाह ने भापको भले मोहदे पर मुकर्रर किया था। भापका धार्मिक प्रेम बहुत बड़ा चदा था। आपने भ→जय का बड़ा भारी संघ भी निकाला था। कहते हैं कि इस संघ के शबूंजय पहुंचने पर भारती की बोली पर शाह अवीरचन्द नामक एक नामी साहुकार के साथ भापकी प्रतिस्पर्धा हो गई। यह बोली बढ़ते । हजारों लाखों रुपयों तक पहुंची और अंत में झामणजी ने मालवा प्रदेश की ९१ लाख की आमदनी की बोली इस पर लगाकर प्रभु की भारती उतारी । भापके दूसरे भाई पेथड़शाह ने शत्रुजय, गिरनार पर मजा चदाई तथा अन्य कई धर्म के कार्य किये । इसके पश्चात् किसी के चुगली लगने पर एक समय बादशाह क्षणजी पर प्रसन्न हुआ और इन्हें पकड़वा मंगाने के लिए एक सेना भेजी और फिर माप भी गये। हाँक्षणसिंहजी के हाथ में कटार देखकर उन्हें कटारिया नाम से सम्बोधित करते हुए, खजाने से कितने रुपये पुराये इसके विषय में पूछा । सांझणसिंहजी ने कहा कि हुजूर मैं एक पैसा भी बेहरू का खाना हराम समझता हूँ। हाँ, हुजूर के जगजाहिर नाम को खुदा तक “मैंने अवश्य पहुँचाया है।" इस उत्तर से प्रसन्न होकर बादशाहने आपके सब गुन्हाभों को माफ कर भापको दरबार में कटारी रखने का सम्मान इनायत किया । तभी से कटारी रखने के कारण मापन कटारिया कहलाये।
आपके पश्चात् जावसी कटारिया के समय मुसल्मानों ने सब कटारियों को मारवाद में कैद र २२०००) दण्ड किये। ये रुपये भट्टारक गछ के अति जगरूपजी ने अपनी बुद्धिमानी से छुड़वाये । नापसीजी के पश्चात् भापके वंश में महता लाखनबी नामक प्रसिदम्पति हुए। मापने एक बहुत बड़ा
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रतनपुरा-कटारिया शत्रुजय का संघ निकाला और हजारों रुपये के खर्चे से एक स्वामिवरसल किया। मापने वंशज लाखनसीजी मे एक लाख २१ हजार की लागत के महेन्द्रपुर के पास एक सुन्दर धर्मशाला तथा बावड़ी बनवाई।
मेहता भोपालसिंहजी का खानदान मेहता कुंपाजी के वंशज-मेहता सोमाजी के पश्चात् सलखाजी संवत् १९५० के लगभग उदव. पुर में आये । आपके दो पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः हरचंदजी और ताणाजी था। इनमें से हरचंदजी के वंश में देवराजजी हुए । देवराजजी के पुत्र का नाम बछराजजी था। मेहता बछराजजी के तीन पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः शेरसिंहजी सवाईरामजी एवम् गुमानजी था। इनमें से शेरसिंहजी और सवाई. रामजी महाराणा भीमसिंहजी के प्रतिष्ठित कर्मचारी रहे । भापकी सेवाओं से प्रसन्न होकर संवत् १४.५ में महाराणा ने भाप तीनों भाइयों को अलग २ कुछ गाँव जागीर में दिये। इसके कुछ समय पाचार मेहता शेरसिंहजी ने इंवर जवानसिंहजी के वरपदे का काम किया। इससे प्रसन्न होकर महाराणा ने आपको पालकी की इजत बक्षी। मेहता शेरसिंहजी के स्वर्गवासी हो जाने के पाचात् मापके छोटे भाई मेहता सवाईरामजी आपके स्थान पर नियुक्त हुए और कुछ समय पाच वरपदे के प्रधान हो गये।
. मेहता शेरसिंहजी का परिवार-मेहता शेरसिंहजी के पुत्र गणेशदासजी भी राज कार्य करते रहे। आपके पश्चात् आपके पुत्र मेहता बस्तावरसिंहजी मेवाड़ के जिलों के हाकिम रहे।
मेहता गोविन्दसिंहजी-मेहता बख्तावरसिंहजी के पुत्र गोविन्दसिंहजी भी मेवाड़ के जिले में हाकिम रहे । आप बड़े साहसी और प्रबन्ध कुशल व्यक्ति थे। मगरा जिले में जब वहाँ के भीलों ने उपद्रव किया तब महाराणा सजनसिंहजी ने आपको इस काम के योग्य समझ वहाँ का हाकिम नियुक्त कर भेजा। भील जाति बेसमझ, जंगली, लड़ाकू, जरायमपेशा और गोमांस भक्षी जाति थी। भापका उसके साथ ऐसा वर्ताव रहा कि जिससे वह आप पर विश्वास भी करती थी और बरती भी थी। आपके वहाँ रहने से सब उपद्रव शांत हो गये। साथ ही यहां की भील जाति ने आपके उपदेशों एवम् प्रभाव से गोमांस खाना बंद कर दिया। इसके पश्चात् संवत् १९३९ में भोराई के भील लोगों ने उपद्रव मचाया। इस उपद्रव को शान्त करने के लिए फौज के तत्कालीन अफसर महाराजा अमानसिंहजी फौज लेकर वहाँ भेजे गये । उस समय भी वहाँ के हाकिम गोविन्दसिंहजी ने अमानसिंहजी के कार्य में बहुत सहायता देकर उपद्रव को शांत करवाया । इससे प्रसन्न होकर महाराणा ने आपको (गोविन्दसिंहजी) कंठी और सिरोपाव प्रदान किया। इसी सिलसिले में गवर्नमेंट हिन्द (भारत सरकार) ने भी आपके कार्य की बहुत प्रशंसा की और मेवाड़ के तत्कालीन रेजिडेण्ट लेफ्टिनेन्ट कर्नल सी० बी० इयून स्मिथ सी. एस. आई. ने एक बहुत
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प्रोसनाख बाति का इतिहास
सुन्दर प्रशंसा पत्र भी आपको प्रदान किया । इसीप्रकार आपको और भी कई प्रशंसा पत्र मिले ।
मेहता गोविन्दसिंहजी वर्ष तक हाकिम से। इस अवधि में भापने भील जाति को बहुत पति की। उनमें कई प्रकार के नवीन सुधार करवाये।
मेहता गोविन्दसिंहजी राजनीतिज्ञ के अतिरिक्त बहुत धर्म प्रेमी थे। आपने मगरा जिले के सुप्रसिद्ध जैव तीर्थ श्री केशरियाजी के स्थान पर एक धर्मशाला बनवाई। आपका स्वर्गवास १९७५ में ज्या भापकी धर्मपली का ३९५९ में हुवा। भाप दोनों पति पती शवदाह स्थान पर भापके पुत्र मेहता कामसिंहजी ने भापके स्मारक स्वरूप एक २ छत्री बनवाई तथा सदावर्त जारी किया ।
मेहता लक्ष्मणसिंहजी.
मेहता गोविन्दसिंहजी के कोई पुत्र न था, अतएव आपके नाम पर मेहता लक्ष्मनसिंहजी दत्तक लिये गये। वर्तमान में भापही इस बानदान के प्रमुख व्यक्ति हैं। आप बड़े बुद्धिमान, विचारक एवम शांत स्वभावी है। आपका जन्म संवत् १९४३ में हुभा। भाप संवत् १९६५ से ही राज्य की सेवाओं में
ग गये। भाप पहले क्रमशः बागोर, रासमी, सहार्ग, भीलवाड़ा, चित्तौड़गढ़, जहाजपुर आदि स्थानों पर हाकिम रहे। इसके पश्चात् आपको स्टेट के अकाउंटेष्ट जनरल का काम सौंपा गया । जिसे मापने बड़ी योग्यता एवम् बुद्धिमानी से संचालित किया। वर्तमान में भाप मेवाड़ के मगरा डिस्ट्रक्ट के हाकिम हैं। भापके दो पुत्र हैं, जिनके नाम क्रमशः मेहता भगवतसिंहजी और प्रतापसिंहजी हैं।
भापके पुत्र श्रीयुत भगवतसिंहजी बी. ए. एस. एल.बी है। आप भी अपने पिताजी ही की तरह शांत स्वभावी, मिलमसार एवम् बुदिमाम सबन है। वर्तमान में आप उदयपुर रियासत के असिस्ट सेट्टमेंट भाकिसर है, आपके माई प्रतापसिंहजी इस समय एफ. ए० में विद्याध्ययन कर रहे हैं।
मेहता सवाईरामजी का परिवार
मेहता शेरसिंहजी के दूसरे भाई सवाईगमजी का जिक्र हम उपर कर ही चुके हैं कि भाप महा. राणा भीमसिंहजी के पुत्र पर जवानसिंहजी के कुंवर पदे के प्रधान रहे। इसके पश्चात् अब अचानसिंहजी महाराणा हुए तब आपको मेहता सवाईरामजी पर बहुत कृपा रहो। दीपमालिका के अवसर पर स्वयं महाराणा भाप की हवेली पर पधार कर आपका सम्मान बहाते थे। जब आपकी पुत्री भीमती चोदवाई का विवाह मांडलगढ़ मेहतारमाणसिंहजीकेसाथ हमा तब महाराणा आपकी हवेली
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ओसवाल जाति का इतिहास
श्री स्व० मेहता भोपालसिंहजी, उदयपुर.
श्री मेहता जगन्नाथसिंहजी एक्सदीवान, उदयपुर.
श्री स्व० मेहता गोविन्दसिंहजी, उदयपुर.
श्री मेहता लक्ष्मणसिंहजी हाकिम, उदयपुर.
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रतनपुरा-कटारिया
पर पधारे तथा एक गांव 'नीतीयास' हथलेवे (दहेज) में प्रदान किया। आपके कोई पुत्र न होने से आपके नाम पर मेहता गोपालदासजी दत्तक लिये गये ।
मेहता गोपालदासजी - आप महाराणा सरूपसिंहजी के समय में बढ़े विश्वासी एवम् प्रतिष्ठित राज-कर्मचारी रहे । संवत् १९०७ में महाराणा ने आपको कुछ नये गाँव आबाद करने के लिये भेजा। आप बड़े बुद्धिमान एवम व्यवहार चतुर पुरुष थे। अतएव कहना न होगा कि गाँव आबाद करने में आपको बहुत सफलता हुई। इससे प्रसन्न होकर महाराणा ने आपको सिरोपाव एवम् रेलमगरा डिस्ट्रिक्ट की हुकुमत बक्षी । संवत् १९१४ में महाराणा ने आपको 'जीकारा' बक्षा। इसी प्रकार आपकी सेवाओं से प्रसन्न होकर आपको पैर में सोने के संगर बसे । महाराणा समय २ पर आपकी हवेली पर पधारते रहे । संवत् १९४० में महाराणा सज्जनसिंहजी के समय में बोहड़े के रावत केसरीसिंहजी ने दरबार की आज्ञा का उलंघन किया । अतएव इस समय मेहता गोपालदासजी एवम् मेहता लक्ष्मीलालजी उन्हें गिरफ्तार करने के लिये भेजे गये। कुछ लड़ाई होने के पश्चात् मे स्लोग रावतजी को गिरफ्तार करकाये । इससे प्रसन्न होकर महाराणा ने आपको कंठी एवम् सिसेवा प्रदान किया । आपका स्वर्गवास संवत् १९४६ में हुआ। आपके भोपालसिंहजी नामक एक पुत्र हुए।
मेहता मोपालसिंहजी - आपका जन्म संवत् १९१४ में हुआ। आप बचपन से ही प्रतियाकाळी रहे। १८ वर्ष की अवस्था में आप राशमी जिले के हाकिम नियुक्त हुए थे। आपकी सेवाओं और बुद्धि का वर्णन हम, राजनैतिक महत्व, नामक अध्याय में कर चुके हैं। राशमी जिले से बदल कर आप मांडलगढ़ जिले में गये । वहाँ जाकर आपने वहाँ की आमदनी में बहुत तरक्की की। इससे प्रसन्न होकर महाराणा फतेहसिंहजी ने आपको 'बैठक' बक्षी । संवत् १९४६ में आप रेव्हेन्यू सेटलमेंट आफिसर मि० विडलफ़ की जगह नियुक्त किये गये । आपने उस काम को बहुत योग्यता के साथ संचालित किया और किसानों के साथ पूरी २ सहानुभूति रक्खी। संवत् १९५६ में काल पड़ने से किसानों में बहुत बकाया रहने की | उस समय उनकी आर्थिक दशा का पूरा खयाल रखते हुए उचित रूप से वसूली करवाई तथा लाखों रुपयों की छूट किसानों को दिलवाई। उस कहत साली का प्रबंध भी आपने बाउण्डरी सेटलमेंट आफिसर मि० - पीनी के साथ रहकर बहुत योग्यता पूर्वक किया । संवत् १९५७ में आप महद्राज सभा के मेम्बर नियुक्त हुए। संवत् १९६१ में आप महकमा खास के प्रधान नियुक्त हुए । इसी समय महाराणा ने आपको 'नीकाश' बक्षा । आपने रियासत में बजट तैयार करने का सिलसिला जारी किया और कई सालों के आंकड़े तैय्यार करवाये । संवत् १९६३ में महाराज कुमार भोपालसिंहजी के जन्म उत्सव पर आपको पैर में सोने के लंगर प्रदान किये गये । संवत् १९५३ में झील सक्षमी के अवसर पर महाराजा और महाराज
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श्रोतवास माति का इतिहास
कुमार दावत मरोगने के लिये भापकी हवेली पर पधारे। उस रोज आपको पगडी में मांझा बांधने का सम्मान प्रदान किया। संवत् १९९८ में आपने स्वर्ग यात्रा की। आपके शवदाह के स्थान पर महा सतियों में एकछत्री बनाई गई। आपके दो पुत्र एवम् एक कन्या हुई। पुत्रों का नाम क्रमशः मेहता जगन्नाथसिह जी और मेहता समनसिंहजी है। आपकी पुत्री का विवाह मेवाड़ के सुप्रसिद्ध सेठ जोरावरमलजी बापना के कंचन वजीरगीला रायबहादुर सिरेमरूजी बापना सी. आई.ई. प्राइम मिनिस्टर इन्दौर स्टेट के साथ
- मेहता जगन्नाथसिंहजी-आपका जन्म संवत् १९४२ में हुआ। आप बड़े कुशाग्र बुद्धि के सन है। आपने हिन्दी एवम् अंग्रेजी शिक्षा का अच्छा अध्ययन किया है। संवत् १९६० में महाराय साहब ने आपको खास खजाने के काम पर नियुक्त किया। इसी समय आपके पिता मेहता भोपालसिंहजी के सुपुर्द राजपुत्र हितकारिणी समा, टकसाल, एवम् देलवाड़े की नाबालिगी का प्रबन्ध था। यह सब काम भी आपही करते थे। आपके पिताजी का स्वर्गवास होजाने पर महाराणा साहब ने आपको अपनी पेशी का काम सुपुर्द किया। आपकी योग्यता से प्रसन्न होकर संवत् १९०१ में आपको और राय बहादुर पं० सुकदेवप्रसादजी को महकमा खास के प्रधान बनाये। इसी समय मापको 'जीकारे' की भी
बत बीसी। तथा इसी साल पैर में सोने के लंगर प्रदान किये। संवत् १९७३ में शील सप्तमी पर महाराणा साहब आपकी हवेली पर पधारे। संवत् १९७५ में जब कि पंडित शुकदेप्रसादजी जोधपुर चले गये तब आपही अकेले महकमा खास का काम करते रहे। इसके बाद संवत् १९७७ में लाला दामोदरलालजी, पं० शुकदेवप्रसादजी के स्थान पर आये। संवत् ७८ तक आप दोनों ही महकमा खास का काम करते रहे। वर्तमान में आप मेम्बर कौंसिल और कोर्ट माफ वाद् के अफसर हैं। आपका विवाह संवत् १९५६ में उदयपुर के भूतपूर्व दीवान कोठारी बसवन्तसिंहजी की पुत्री के साथ हुआ है। भआपके चार पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः हरनाथसिंहजी, सवाईसिंहजी, जीवनसिंहजी, और मनोहरसिंहजी है। इनमें से बड़े पुत्र हरनाथसिंहजी बी० ए० हैं और अकाउण्ट्स लिखने के लिये स्टेट की ओर से देहली भेजे गये हैं। शेष तीन विद्याध्ययन करते हैं। मेहता गुमानजी का परिवार ।
शेरसिंहजी के तीसरे भाई गुमानजी के ज्ञानसिंहजी नामक पुत्र हुए । ज्ञानसिंहजी के पुत्र न होने से उनके नाम पर जवानसिंहजी दत्तक लिये गये । भापके स्वनाथसिंहजी नामक एक पुत्र हुए। जो मेवाड़ के सहा जिले के हाकिम रहे। आपके पुत्र मेहता भीमसिंहजी इस समय
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रतनपुरा-कटारिया वर्तमान है। वर्तमान में आप आमेठ ठिकाने की मामालिनी के मैनेजर हैं। इसके पहले भी आप पारसोली, कोरिया, और धरियावद ठिकाने मेजर रहा है।
उपरोक्त वर्णन पढ़ने से यह अनुमान सहज ही निकलता है कि इस परिवार के लोगों ने रियासत उदयपुर में बहुत इमानदारी, सच्चाई, बोन्पा मोर दिमार्नी के साथ राज्य कार्य किया । इसी लिबे मेवाद के महाराणाओं ने प्रसन्न होकर समय २ पर आप लोगों को बहुत सम्मान और इज्जत प्रदान की। इस समय भी यह खानदान उदयपुर में गुसप्रतिक्षित और माननीय घरानों में से एक माना जाता है।
ताबाजी के वंशज ___ सलखाजी के पुत्र ताणानी के वंश में संवत् १७०५ में मेहता सांवलदासजी हुए। जो राजकर्मचारी रहे। आपके मामदासजी नामक पुत्र हुए। आपने अपने नाम से उदयपुर में मालसेरी नामक मोहल्ला बसाया। इन्हीं के वंश में भागे चलकर मेहता विजयचन्दजी हुए । आप मेवाड़ में बदलाबाद और भोमराड नामक टेक्स वसूली पर नियुक्त हुए। इसकी सफलता देखकर आपको सरकारी धोदा मी बक्षा गया। इनके चौथे पुत्र मोहकमसिंहजी बड़े यशस्वी और कार्यकुशल हुए । आपमी अपने पिताजी की तरह राज कार्य में सामिल हुए। आपने अपने जीवन में महाराणा साहब की बहुत अच्छी सेवाएं की। जिनसे प्रसन्न होकर महाराणा सरूपसिंहजी ने आपको जागीर में एक गांव वक्षा । • आपके तीन पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः मेहता माधौसिंहजी, मदनसिंह जी और मालमसिंहजी थे। जो मेवाड़ के भिन्न २ जिलों में हाकिम रहे। इसके पश्चात् मालमसिंहजी को, महाराणा साहब ने अपनी पुत्री का विवाह जोधपुर नरेश सरदारसिंहजी के साथ होने से वहाँ कामदार बनाकर भेजा । ये अपने जीवन पर्यंत जोधपुर रहे। आपके पुत्र मोतीसिंहजी नावालिग ठिकाना पारसोली, सरदारगढ़ और धरियावद के मैनेजर रहे। हाल में आप देवली वकीक है। भापके बड़े पुत्र गोवर्धनसिंहजी बी. ९. एल. एल. बी० हैं। और इस समय में मेवाद स्टेट में असिस्टेंट सेटलमेंट भाफिसर हैं। आप मनो. हरसिंहजी के दत्तक हैं।
कटारिया मेहता नाथूलालजी का खानदान, सीतामऊ
उपर भोपालसिंहजी के परिवार में हम यह लिख ही चुके हैं कि यह परिवार कुंपाजी का है। कुंपाजी के तीन भाई और थे । जिनमें से हाफणजी का वंश चला । हाफणजी के जिन्दाजी और जेसाजी नामक दो पुत्र हुए। जेसाजी के पश्चात् क्रमशः हाथाजी, मरवरजी, हासाजी, भेलूजी, और नाथाजी हुए। मायानी के भाई पवाजी के पुत्र प्रेमचन्दजी की श्री प्रेमसुखदे इनके साथ क्षती हुई।
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सवाल बाति का इतिहास
मेहता नाथाजी-आप पर और सरगुजार व्यक्ति थे । आपको रतलाम के तत्कालीन शासक महाराज शिवसिंहजी से टांका माफ हुमा था। इसके पश्चात् संवत् १०३। में रतलाम दरवार रामसिंहजी ने भापको शाह मुकुन्दजी के साथ अपना कामदार नियुक्त किया था । साथही आपको बागीर भी प्रदान की थी। भापके र पुत्र हुए जिनके नाम प्रमशः मेहता मागचंदजी और मेहता हीरचन्दजी था।
मेहता हीरचन्दजी-आपसे रतलाम मरेश दासजी ने अपना कामदार नियुक्त किया। भाप की सेवाओं से प्रसन्न होकर आपको धराद परगने के बागड़ी' और खुच्छा नामक दो गाँव जागीर स्वरूप प्रदान किये थे। आपके मिखारीदासजी और सम्बलसिंहजी नामक दो पुत्र हुए।
____ मेहता मिखारीदासजी-आप भी इस परिवार में बड़े प्रतापी पुरुष हुए। आपके कार्यों से प्रसन्न होकर संवत् १७१२ में महाराज केशोदासजी ने आपको मौजा खेरखेड़ा नामक स्थान पर १६. बीघा जमीन जागीर में प्रदान की थी। इसके अलावा आपको टोका भी माफ था। इसके बाद आप संवत् १७५९ में महाराज केशोदासजी द्वारा सीतामऊ के कामदार बनाए गये। आपके एक मात्र पुत्र मेहता सुजानसिंहजी हुए।
मेंहता सुजानसिंहबी-पाप भी इस खानदान के प्रसिद्ध म्यक्तियों में से थे। आपने भी राज्य में अच्छे २ स्थानों पर काम किया। भापको महाराज कुंवार बखतसिंहजी ने संवत् १७४२ में एक परवाना बझा था जिसमें लिखा था कि " म्हारे साथ आया हुआ हो और हमारे लारे लगा हुआ हो, थै घर का हो" इस परवाने से स्पस्ट होता है कि भापका राज्य में अच्छा सम्मान रहा होगा । मेहता सुजानसिंहजी के बाद क्रमशः कुशलसिंह उंगारजी,श्यमानजी और लखमीचन्दजी हुए। लखमीचन्दजी के दो पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः मेहता नाथाजी और मेहता मथुरालालजी हैं।
... मेहता नाथूखालजी-आजकल मापही इस परिवार में प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। आपका स्वभाव मिलनसार और सज्जन है। आप इस समय स्टेट में तहसीलदार हैं। इसके अलावा ट्रेसरी भाफिसर
और पी० डब्ल्यू. टी. के सुपरवाइजर है और दरवार के जेब खर्च का काम भी देखते हैं । आपके कायों से खुका होकर हाल ही में महाराजा साहब ने मापको सन् १९९६ में जागीर प्रदान की है । भाप के दुलेसिंहजी, मोहनसिंहजी, और कंचनसिंहजी नामक तीन पुत्र हैं। . ......
श्री दुःसिंहजी बी० ए०, और मोहनसिंहजी एम. ए. एस. एल.बी. पास हैं। कंचनसिंह जी इस समय विद्याध्ययन कर रहे हैं।
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कटारिया
सीतामऊ स्टेट में यह परिवार सम्मानीय परिवार माना जाता है । समय २ पर महाराजा आपकी हवेली पर पधार कर आपको सम्मानित करते रहते हैं। सीतामऊ के ओसवाल समाज में यह खानदान प्रथम पद पर माना जाता है ।
सेठ धनराज हीराचन्द कटारिया का परिवार, बंगलोर कैंट
इस खानदान के पूर्वजों का मूल निवास स्थान बोरांकी देवली (मारवाड़) का है। आप जैन श्वेताम्बर बाइस सम्प्रदाय के अनुवाणी हैं। सबसे पहले सेठ धनराजजी देवली से करीब संवत १९४४ में बंगलोर आये और यहाँ आपने ६ साल तक सर्विस की। इसके पश्चात आपने अपनी एक स्वतन्त्र फर्म स्थापित की ।
सेठ धनराजजी का जन्म संवत १९३० में हुआ । आप बड़े व्यापार कुशल हैं। आपका धर्म ध्यान में बहुत कक्ष है। आप इस समय करीब चार सालों से गरम जक पान करते, रात्रि में भोजन नहीं करते तथा जोड़े से चौथे व्रत के त्याग का पालन करते हैं। आपके धार्मिक विचार बहुत बढ़े हुए हैं। आपके हीराचन्दजी तथा फूलचन्दजी नामक दो पुत्र I
हीराचन्दजी का जन्म संवत १९५० का है। आप बड़े सज्जन हैं तथा इस समय बड़ी होशियारी से दुकान के सब कामों को सम्भाल रहे हैं। आपके भँवरलालजी और फतहचन्दजी नामक दो पुत्र हैं । इनमें से भँवरलालजी, सेठ धनराजजी के छोटे भाई चौथमलजी कटारिया के नाम पर सम्वत १९८४ में दत्तक गये हैं । फूलचन्दजी का जन्म सम्बत १९६० का है । आप भी बड़े होशियार और दुकान के काम को संभालते हैं।
इस 'फर्म की ओर से दान धर्म और सार्वजनिक कार्यों की ओर भी खर्च किया जता है । यह फर्म ज्वेलरो रोड पर मातवर मानी जाती है। इस फर्म पर सराफी वैडिंग व केव्हलरी का काम होता है ।
सेठ बनाजी राजाजी कटारिया, पूना
इस परिवार का मूल निवास स्थान सनपुर (सिरोही स्टेट ) में है। इस परिवार के पूर्वज राजाजी कटारिया के जेठाजी, चेलाजी और बनाजी नामक १. पुत्र हुए । इनमें दो ज्येष्ठ भ्राता संवत् १९२१ में पूना आये, और यहाँ नौकरी करके बाद में अपनी दुकान खोली । इनके छोटे भाई बनाजी कटारिया ने
अपने व्यापार को और सम्मान को बहुत बढ़ाया ।
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प्रोसवाल जाति का इतिहास
- सेठ बनाजी कटारिया-आपका जन्म संवत् १९१९ में हुणा। धार्मिक कामों में आपका बहुत बड़ा लक्ष था। मापने सम्बत् १९८६ में सनपुर से एक संघ निकाला। इस संघ में १००० पुरुष तथा स्त्री सम्मिलित हो गये थे। सनपुर से यह संघ २२ दिनों में एरनपुरा पहुंचा। यहाँ से मगसर सुदी । को ५ स्पेशल ट्रेनें संघ को लेकर रवाना हुई। अनेक स्थानों पर भ्रमण करता हुमा यह संघ ॥ दिनों में वापस एरनपुरा पहुंचा। इस संघ के उपलक्ष में कलकत्ते में ३ अजीमगंज में एक और जयपुर में एक स्वामीवत्सल किये गये । इस प्रकार इस संघ में बनाजी सेठ ने 1 रुपया व्यय किया।
___ इस संघ में सबसे दुखदायक घटना यह होगई कि अजीमगंज से इस संघ में कोलेरा का प्रवेश हुमा । जिससे बख्तियारपुर में संघवी बनाजो के पुत्र माणकचन्दजी का स्वर्गवास हो गया। इसी तरह कौलेरा से लगभग ६० मौतें और हो गई।
_सेठ बनाजी ने सनपुर के पास स्याकमा नामक स्थान के मन्दिर में तथा पूना के बेताल पैठ के मन्दिर में श्री पाश्र्वनाथ भगवान की प्रतिमाएं प्रतिडित कराई, इस तरह धार्मिक जीवन बिताते बुए भाप सम्वत् १९९० की अगहन सुदी को स्वर्गवासी हो गये।
वर्तमान में इस परिवार में सेठ बगाजी के पुत्र लम्बाजी क्यारिया तथा माणिकचन्दजी के पुत्र पूनमचंदजी और रतनचन्दजी कटारिया और लूम्बाजी के पुत्र कपूरचन्दजी कटारिया है। श्री पूनमचन्दजी तथा कपूरचन्दबी व्यापार में भाग लेते है । यह परिवार मंदिर मार्गीय आम्नाय का मानने वाला है। भापके यहाँ पूना लश्कर के सदरबाजार में बनाजी राजाजी के नाम से वेकिंग व्यापार होता है।
सेठ हमीरमल पूनमचन्द कटारिया, न्यायडोंगरी (नाशिक)
इस परिवार का मूल निवास स्थान पंडावळ (जोधपुर स्टेट ) है देश से इस परिवार के पूर्वज सेठ दौलतरामजी कटारिया के पुत्र सेठ हमीरमजी कटारिया संवत् १९९६ में व्यापार के लिये अहमदनगर भाये और यहाँ से एक साल बाद भाप न्यायडोंगरी आये। और एक साल नौकरी कर कपड़े का व्यापार शुरू किया । सम्वत् १९३६ में आपके छोटे भाई फौजमलजी भी न्यायडोगरी आ गये। सेठ हमीरमजी का सम्वत् १९६८ में स्वर्गवास हुआ। आपने म्यापार की उन्नति के साथ २ अपने समाज में भी अच्छी इज्जत हासिल की। भापके पूनमचन्दजी तथा चुनीलालजी नामक २ पुत्र हुए। इनमें सेठ पूनमचन्दजी सम्वत् १९४८ में ५४ साल की आयु में स्वर्गवासी हुए। इनके पुत्र धनराजजी व्यापार में भाग लेते हैं।
सेठ चुनीलालजी का जन्म सम्बत् ११३८ में हुभा । भाप न्यायडोंगरी के अच्छे प्रतिष्ठित व्यक्ति है। भापके पुत्र दगदूरामजी तथा धोंडीरामजी है। इनमें दगदूरामजी व्यापार में भाग लेते हैं। भापके
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ओसवाल जाति का इतिहास
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स्व० सेठ बनाजी राजाजी कटारिया, पूना.
स्व० सेठ पूनमचंदजी कटारिया, न्यायडोंगरी (नाशिक).
सेठ चुन्नीलालजाकटारया (हमीरमल पूनमचंद)न्यायडागरी. श्रीधनराजजी कटारिया (हमीरमल पूनमचंद), न्यायडोंगरी (नाशिक.)
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कटारिया
यहाँ हमीरमल पूनमचन्द के नाम से कपड़े का तथा धनराज दगडूराम के नाम से किराने का व्यापार होता है। आप स्थानकवासी आम्नाय के मानने वाले हैं।
सेठ फौजमलजी का स्वर्गवास सम्बत् १९८५ में हुआ। आपके पुत्र लखमोचन्दजी, लालचंदजी पनालालजी तथा माणकचन्दजी विद्यमान हैं। इनमें पन्नालालजी अहमदनगर दत्तक गये हैं। इन भाइयों का यहाँ अलग २ व्यापार होता है । लखमीचन्दजी के पुत्र हंसराजजी हैं।
सेठ उम्मेदमल चुन्नीलाल कटारिया, रालेगांव (बरार)
इस कुटुम्ब का मूल निवास रीयां (मारवाड़) है । सेठ जवानमलजी चुनीलालजी तथा कुंदनमलजी नामक तीनों भ्राता देश से सम्बत् १९४० तथा ५० के मध्य में अलग २ आये । सेठ जवानमलजी ने प्रथम यहाँ पाकर से अमरचन्द रतनचन्द मुहणोत के यहाँ सर्विस की।
सेठ चुनीलालजी का जन्म सम्बत् ११३४ में हुआ। आपने किराने के व्यापार में विशेष सम्पत्ति कमाई । सम्बत् १९५६ में चुचीलालजी और कुन्दनमलजी का व्यापार अलग २ हुआ। सेठ चुन्नीलालजी
पाँव, वर्दा, पांढरकवड़ा आदि की ओसवाल समाज में प्रतिष्ठित सज्जन हैं । अहमदनगर मंदिर के कलश चढ़ाने में मापने २१००) दिये हैं। इसी तरह कड़ा (मआष्टी) की जैन पाठशाला, पाथरडी पाठशाला, आगरा जैन अनाथालय आदि संस्थाओं को सहायताएँ देते रहते हैं। सम्वत् १९६४ में आग लग जाने से आपकी सब सम्पत्ति नष्ट हो गई । लेकिन पुनः आप लोगों ने हिम्मत से सम्पत्ति उपार्जित कर व्यापारिक समाज में अपनी इज्जत बढ़ाई।
सेठ कुन्दनमलजी का सम्वत् १९६२ में स्वर्गवास हुआ। आपके हीरालालजी तथा रतनचंदजी नामक २ पुत्र हुए। इनमें रतनचन्दजी चुन्नीलालजी के नाम पर दत्तक गये। आप दोनों सज्जन भी व्यापार संचालन में भाग लेते हैं । हीरालालजी का जन्म १९४८ में तथा रतनचन्दजी का १९५२ में हुआ। हीरालालजी पांढरकवड़ा में तथा रतनलालजी अपने पिताजी के साथ रालेगाँव में दुकान का काम देखते हैं । हीरालालजी के पुत्र मिश्रीलालजी, पुखराजजी तथा प्यारेलालजी हैं। इस परिवार की रालेगाँव में बहुत कृषि होती है तथा बाग बगीचा आदि स्थाई सम्पत्ति है। वहाँ के धनिक परिवारों में इस कुटुम्ब की
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शाह नोरतनमलजी भांडावत, जोधपुर शाह नौरतनमलजी उन उन्नतिशील व्यक्तियों में हैं जो अपनी योग्यता, बुद्धिमानी और कार्य तत्परता के बल पर अपनी परिस्थिति को उत्त कर समाज में अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करते हैं। आपके पितामह श्री गुनेचन्दजी भांडावत अजमेर में साधारण व्यवसाय करते थे। इनके २ पुत्र हुए । घेवरचन्दजी तथा फूलचन्दजी । गुनेचन्दजी भांडावत का स्वर्गवास लगभग संवत् १९२६ में हुआ।
__ शाह फूलचन्दजी का जन्म सं० १९०७ एवं देहावसान १९६६ में हुआ। आप भी विशेष कर जीवन भर अजमेर में ही व्यवसाय करते रहे । आपके पुत्र शाह नोरतनमलजी का जन्म संवत् १९३० की भासोज सुदी को हुआ।
शाह नोरतनमलजी अपने समय के छात्रों में बड़े मेधावी नवयुवक थे। आपका शिक्षण गवर्नमेन्ट कालेज अजमेर में हुआ। कुशाग्र बुद्धि होने के कारण आप युनिवर्सिटी में एफ० ए० में फस्र्ट, बी० ए० में सेकंर तथा एल० एल० बी में फर्स्ट आये। सन् १८९८ में एल० एल० बी० में सारी युनिवर्सिटी में प्रथम उत्तीर्ण होने के उपलक्ष में आपको एक स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ है।
संवत् १९५२ में शाह नौरतनमलजी जोधपुर में प्रोफेसर होकर आये । भापके यहाँ आने के १५ साल बाद आपके पिताजी भी जोधपुर आ गये। सन् १९०० के अप्रैल तक भाप जोधपुर कालेज के सीनियर प्रोफेसर रहे। पश्चात् भापकी ज्युडिशियल लाइन में सर्विस हुई । सन् १९०० में आप असिस्टेंट सुपरिन्टेन्डेन्ट कोर्ट ऑफ सरदार्स एवं सन् १९०८ में सुपरिन्टेन्डेन्ट ज्युडिशियल नार्थवेस्टर्न डिस्ट्रिक्ट तथा फिर फरवरी १९१३ में फौजदार (असिस्टेन्ट सेशन जज) के पद पर नियुक्तहुए । सन् १९१३ के दिसम्बर में आप जोधपुर के असिस्टेन्ट व्हाइस प्रेसिडेन्ट निर्वाचित किये गये। फिर सन् १९९६ में आप सेक्रेटरी मुसाहिब आला हुए । जब यह ओहदा टूट गया तब सन् १९२७ में आप डिस्ट्रिक्ट सेशन जज और फिर १९२९ से जनवरी १९३३ तक चीफ कोर्ट के जज रहे ।
शाह नौरतनमलजी जोधपुर की ओसवाल समाज में ऊँचे दर्जे के शिक्षित तथा समाज सुधार के विचार रखने वाले सजन हैं। आप बड़े मेधावी तथा लोकप्रिय महानुभाव है । जोधपुर की ओसवाल समाज का शिक्षा की ओर ध्यान आकर्षित करने में आपका प्रधान हाथ है। सरदार हाईस्कूल की आपके द्वारा बहुत उन्नति हुई है। जब से सरदार हाईस्कूल स्थापित हुआ है तब से आप उसके ऑनरेरी सुपरिन्टेन्डेन्ट
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० शाह सुजानमलजी सराफ, जोधपुर.
श्री शाह नौरतनमलजी भांडावत बी. ए. एल एल. बी.
“एक्स चीफजज' जोधपुर,
श्री शाहु गणेशमलजी सराफ, जोधपुर,
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श्रीसलवाल
1 लगभग १० साल पूर्व आपने अपने पिताजी की यादगार में 'फूलचन्द जैन कन्या पाठशाला' का स्थापन किया है।
आपको ता० २० अप्रैल सन् १९३३ के दिन जोधपुर बार एसोशिएसन ने मान पत्र भेंट किया । इसमें जोधपुर के लगभग ४०० प्रतिष्ठित सज्जन उपस्थित थे । इसी समय ओधपुर दरबार की ओर से आपको पैरों में सोना इनायत किया गया, इस समय भाप जोधपुर की ओसवाल समाज में, राज्य में, सरदारों में और शिक्षित सज्जनों में नामांकित पुरुष हैं। जनवरी १९३३ से आप स्टेट सर्विस से रिटायर्ड हैं तथा शान्तिमय जीवन बिताते हैं । आपके पुत्र धनपतसिंहजी पढ़ते हैं ।
ग्रोसतकाल
शाह गणेशमलजी सराफ ओसतवाल, जोधपुर
- यह खानदान अपने मूल निवासस्थान नागोर में चौधरी कहलाता था । वहाँ से नगराजजी के पिता संवत् १६०० के लगभग जोधपुर आये। नगराजजी के पश्चात् क्रमशः बनेचंदजी और मनजी हुए। जो मोहल्ला अब सराफों की पोल कहलाता है, वह पुराने पट्टों में मनजी की ग्वाल के नाम से लिखा हुआ पाया जाता है। सराफ मनजी के भानीदासजी तथा कनीदासजी के किशनदासजी और विशनदासजी नामक पुत्र हुए । सराफ विसनदासजी के नथमलजी, हिम्मतमलजी, उम्मेदमलनी, तथा अगर चन्दजी नामक चार पुत्र हुए। संवत् १९०० के लगभग उम्मेदमलजी तथा अगरचन्दजी का बैकिग व्यापार जोरों पर था। सराफ अगरचन्दजी के आलमचन्दजी, मोतीलालजी तथा चन्दनमलजी नामक १ पुत्र हुए।
चन्दनमलजी सरराफ— आपका जन्म संवत् १८८० में हुआ। आपका महासज कुमार यशवंतसिंहजी से अच्छा मेल था। कहा जाता है। एक बार सरालजी, "राजकुमार से कुश्ती में दांव जीत गये । इससे अप्रसन्न हो राजकुमार ने आलमचंदजी के तमाम वही खाते जप्त करवा लिये। इससे संवत १९२५ में चंदनमलनी रतलाम चले गये। वहाँ के आफिसर मोर शहमत अली ने इन्हें अफीम के सेल्स रजिस्टर का ओहदेदार बनाया। इसके बाद आप क्रमशः गणेशदास किशनाजी की महदपुर और आगरा - -दुकानों के सुन्नीम, तथा गोकुलदासजी की दुकानों के सुपरवायजर रहे । रेसिडेंसी खजाने पर सर्विस करते रहे तथा संवत् १९५७ में स्वर्गवासी हुए। सराफ हुए ।
वहाँ से जोधपुर आकर आपके पुत्र सुजानमलजी
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
सुजानमलजी सराफ - आपका जन्म संवत् १९१४ में हुआ । रतलाम से आने पर आप जोधपुर स्टेट में असिस्टेण्ट ऑडीटर मुकर्रर हुए तथा संवत् १९५९ में स्टेट के आडीटर बनाये गये । आप ने स्टेट की पुरानी हिसाब पद्धति में बहुत से सुधार कराये । इस पद्धति का अनुकरण कई स्टेंटों ने किया । इसके सिवाय मारवाड़ की हुकूमतों में ब्रांच ट्रेलरी कायम करवाई तथा रेलवे कं० के अकाउंट में बहुत माद्दे की गलतियाँ ठीक करवाई। आपकी योग्यता की मुसाहिब आला शुकदेवप्रसादजो, फाइनेंस मेम्बर कर्नल टेटर्सन, स्टेट आडीटर मि० गॉयडर तथा पेस्तनजी नेर वानजी ने समय २ पर सार्टिफिकेट देकर प्रशंसा की । वृद्ध हो जाने से सन् १९१८ में आप रिटायर्ड हुए। आपके पुत्र सराफ गणेशमलजी हुए ।
गणेशमलजी सराफ - आपका जन्म सन् १८८१ में हुआ । १९०० में आप रेसिडेंसी ट्रेनिंग में भरती हुए । यहाँ से दूगरपुर, इन्दौर आदि स्थानों में सर्विस कर आप जोधपुर म्यु० में लागू हुए तथा सन् १९०३ में महकमा वाक्यात के सुपरिन्टेन्डेण्ट बनाये गये। तब से आप इसी ओहदे पर कार्य्यं करते हैं। इसके साथ आप सन् १९१४ से २३ तक असिस्टेण्ट सुपरिटेन्डेन्ट कस्टम भी रहे। इस समय आपने मारवाड़ की हद में जाने वाली बी० बी० सी० आई० रेलवे के लिए कस्टम ज्युरिडिक्शन के वारे में ऐसा केस तयार किया, जिससे गवर्नमेंट ने मारवाड़ की ज्युरिडिक्शन मानली । जब पुरानी बकाया के कारण राज्य ने जनता के बहुत से मकानात जप्त कर लिये थे उस समय आपने उनके देनों को निपटा कर वापस मकान दिलवा दिये । इससे स्टेट के फाइनेंस मेम्बर मि० बेल हेवन ने आपकी होशियारी की प्रशंसा की । सन् १९२० में दरवार से सिफारिश कर आपने काश्तकारों के ६०/७० लाख बकाया रुपये माफ करवाये ।
सर्विस के अलावा सराफ गणेशमंलजी ने सरदार हाईस्कूल की सेवाओं में चिस्मरणीय योग दिया तथा आरंभ से ही उसकी नींव को दृढ़ बनाने में आप विशेष प्रयत्नशील रहे । सन् १९०३ से मेहता बहादुर मलजी गधैया के साथ हाईस्कूल को संगठित किया । सन् १९११ में आपने अपने सुपर बीजन में २० हजार की विल्डिंग बनवाई। जब फंडमें कमी आ गईं तो चंदा एकत्रित करने का बीड़ा आपने उठा कर बहुत रकम एकत्रित करवाई। जब उपरोक्त जगह कम पढ़ने लगी तो हाईस्कूल की पुरानी स्टेट बेच कर हाईस्कूल की वर्तमान बिल्डिङ्ग भेरों बाग में बनवाने में कार्य्यं तत्परता बतलाई। इस समय भी आप शाह नौरतनमलजी भाण्डावत के साथ संस्था की सेवा में योग देते हैं। आपने अपनी प्राईवेट साबरी की दो-तीन हजार किताबें हाईस्कूल को भेंट दी हैं ।
गणेशमलजी सराफ सुधरे विचारों के सज्जन हैं। आपने अपनी कन्या का विवाह एक साधा
श्ग स्थिति के युवक भण्डारी लाडमलजी के साथ किया तथा एफ० ए० २० हजार रुपया देकर उन्हें अपने पुत्र सरदारमलजी के साथ मद्रास में
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की शिक्षा खतम कर लेने पर
सरदारमल लाडमल के नाम से
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श्रीसतवाले
बेनि व्यापार की फर्म खुलवादी । कहने का तात्पर्य यह कि आप जोधपुर के एक कार्य्यं कर्त्ता समझदार तथा सुधारक सज्जन हैं। आपके सरदारमलजी तथा चौथमलजी नामक दो पुत्र हैं । सरदारमलजी मे अपने घर से परदा प्रथा को हटा दिया है।
सेठ चन्दनमल जसराज भोसतवाल, अहमदनगर
इस परिवार का मूल निवास स्थान, म्मरबाद में बोरावड़ के पास लाडोही नामक गाँव है। इस परिवार में ओसतवाल सूरतसिंहजी चोरों के साथ युद्ध करते हुए बुझार हुए, जिनका चबुतरा हाडोली में बना है। इनके पुत्र हुकमीचंदजी तथा पौत्र नवकमरूजी, प्रेमराजजी तथा खूबचन्दजी हुए। ये बंधु व्यापार के लिये सुरेगाँव ( अहमदनगर ) भने । साथ ही अपने भागेज पत्राललजी तथा धनरामजी डोसी को भी साथ कावे |
संवत् १९३० में पेमराजजी ओसतवार तथा पद्मालाकजी डोसी ने अहमदनगर में पेमराज पचाकाल के नाम से दुकान की तथा इन्ही दोनों सज्जनों ने व्यापार में उन्नति की। धीरे २ इस दुकान की शाखाएँ मेलू, परभनी आदि स्थानों में खुलीं । सेठ पेमराजजी तथा उनके पुत्र जसराजजी १९५४ में स्वर्गवासी हुए। उस समय जसराजजी के पुत्र चंदनमलजी तथा कुंदनमलजी ओसतवाल बालक थे । अतः फर्म की देख रेख सेठ पनालालजजी डोसी करते रहे ।
सेठ पालालजी डोसी का स्वर्गवास संवत् १९३४ में हुआ । इनके पुत्र हीरालालजी तथा ताराचंदजी हुए। संवत् १९७५ में ताराचंदजी स्वर्गवासी हुए। इनके पुत्र नारायणदासजी का जन्म १९५४ मैं हुआ। १९६० में इन्होंने कुन्दनमल नारायणदास के नाम से दुकान तथा कुकाना और पाथरड़ी में जीनिंग फेक्टरी खोली ।
सेठ चंदनमलजी ओसवाल का जन्म सं० १९४२ में हुआ । आप बड़े मिलनसार तथा प्रतिष्ठित आसपास की ओसवाल समाज में आपका घराना नामी माना जाता है। आपके यहाँ पेमराज पन्नालाल के नाम से जींनिग फेक्टरी है तथा आदत व रुई का व्यापार होता है ।
सज्जन हैं ।
सेठ धोडीराम हेमराज श्रोसतंवाल, उमराणा नाशिक
इस परिवार का मूल निवासस्थान बढलू ( मारवाद ) है । वहाँ सेठ जोधाजी निवास करते थे। इनके ज्ञानीरामजी, राजारामजी तथा तिलोकचंदजी नामक तीन पुत्र हुए। इन भाइयों में से सेठ राजारामजी तथा तिलोकचन्दजी उमराणा के पास पीपल गाँव में भये । वहाँ से आकर इन्होंने उमराणा में दुकान की ।
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मोसवाल जाति का इतिहास
: सेठ तिलोकचंदजी के हेमराजजी तथा परशुरामजी नामक २ पुत्र हुए। इन दोनों भाइयों ने कुटुम्ब के व्यापार तथा सम्मान को विशेष बढ़ाया। आप दोनों व्यक्तियों का स्वर्गवास क्रमशः सं० १९३८ और सं० १९५७ में हुआ। सं० १८१२ में सेठ परशुरामजी ने उमराणा में एक विशाल दीक्षा महोत्सव कराया । महाराष्ट्र प्रांत में यह पहला दीक्षा महोत्सव था।
_ सेठ हेमराजजी ओसतवाल के गुलाबचन्दजी तथा धोंडीरामजी नामक २ पुत्र हुए । इनमें गुलाबचन्दजी के पुत्र बालचन्दजी तथा शेषमलजी हुए। इनमें शेषमलजी परशुरामजी के नाम पर दत्तक गये । - सेठ धोंडीरामजी का जन्म संवत् ११३२ में हुमा । नाशिक जिले की ओसवाल जाति में भाप नामी धनवान हैं। आप समझदार और पुराने ढंग के पुरुष हैं। आप स्थानकवासी आम्नाय को मानने वाले हैं। आपके पुत्र शंकरलालजी तथा रतनलालजी हैं। आपके धोंडीराम हेमराज के नाम से तथा शेषमलजी के शेषमल परशुराम के नाम से साहुकारी का व्यापार होता है।
कोलिया
बोलिया गौत्र की उत्पत्ति
ऐसा कहा जाता है कि प्राचीन समय में मारवाड़ में 'अप' नामी एक नगर था जिसका अनुमान वर्तमान में नागोर के पास लगाया जाता है। वहाँ एक समय चौहान वंशीय राजा सगर राज्य करते थे। इनके पुत्र कुँवर नरदेवजी को विक्रमी संवत् १९ में भहारकजी श्रीकनकसूरि महाराज ने जैन धर्म का उपदेश देकर जैन धर्मावलम्बी भोसवाल बनाया। महाराज का यह उपदेश 'बूली' नामक प्राम में होने से इस खानदान वालों का गौत्र दूलिया या बोलिया कहलाया।
मोतीरामजी बोलिया का खानदान, उदयपुर इनके वंशज बहुत समय तक देहली और रणथम्भोर नामक स्थानों में रहे । यहाँ इन्होंने कई नामी काम करके प्रतिष्ठा प्राप्त की। पंद्रहवीं शताब्दी में इस वंश की ३३ वी पीढ़ी में टोडरमलजी हुए। आपने रणथम्भोर में प्रसिद्ध गणपति का मन्दिर बनवाया। आपकी वृत्ति धार्मिक कार्यों को
ओर विशेष रही। आपने अपने समय में काफी दान पुण्य भी किया। भापके पुत्र बाबूजी .. एणथंभोर से चित्तौड़ भाये। इन्ही छाजूजी के वंश में यह खानदान है। .. .
छाजूजी के पश्चात् इस वंश में क्रमशः खेतानी, पाजी, निहालचंदजी, जसपालजी,
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बोलिय
सुस्तानजी, रंगाजी, चांखाजी, सूरजमलजी, कान्हजी, अबाषजी, मोतीरामजी, एकलिंगदासजी, भगवानदास जी, ज्ञानमलजी, और लछमीलालजी हुए जिनका थोड़ा सा परिचय हम नीचे देते हैं:
छ जूजी - आप संवत् १४९५ के लगभग चित्तौड़ जाकर महाराणा कुम्भा के पास रहे । महाराणा ने आपका अच्छा सम्मान किया। आपने चित्तौड़गढ़ के ऊपर हवेली, धर्मशाला, और महावीर जी का मन्दिर तथा एक तालाब बंधवाया। इनकी हवेली की जगह इस समय चतुरभुजजी का मन्दिर बना हुआ है।
निहालचन्दजी -- आपने चितौड़गढ़ में महाराणा श्री उदयसिंहजी का प्रधाना किया। संवत् १६१० में आपने श्री महाराणाजी की पधरावनी की थी । उदयसागर की नींव आपही के प्रधाने में लगी ।
जसपालजी -जब कि संवत् १६२४ में चित्तौड़ में साका हुआ उस समय आप तथा आप के भाई बेटे साके में काम करने आये । केवल दो पुत्र बसे जिनमें से बड़े सुक्तानजो संवत् १६३२ में कसबा' पुर' में आकर बसे ।
रंगाजी - आपने महाराणा अमरसिंहजी ( बड़े ) और कर्णसिंहजी के समय में प्रधाना किया । आपने शाहंशाह जहाँगीर के पास जाकर महाराणा अमरसिंहजी की इच्छानुसार चार शर्ते तय कर मेवाड़ में से बादशाही थाणा उठवाया और देश में फिर से अमन अमान स्थापित किया । आपकी सेवाओं से प्रसन्न होकर महाराणा साहब ने आपको हाथी पालकी का सम्मान बक्षा । साथ ही चार ग्राम की जागीर का पट्टा भी प्रदान किया, जिनके नाम इस प्रकार हैं:-मेवदा काणोली, मानपुरा और जामुण्या | आपने उदयपुर शहर में घूमठावाली हवेली बनवाई जो आपकी इज्जत का एक खास सबूत है - जिसमें इस समय महाराज लक्ष्मनसिंहजी निवास करते हैं। यहां पर रंगाजी का एक शिलालेख का होना भी बतलाया जाता है । इसके अतिरिक्त आपने कसबा 'पुर' में श्री नेमीनाथजी का मन्दिर भी बनवाया, आपके पांच पुत्र हुए- जिनके नाम क्रमशः चोखाजी; रेखाजी, राजूजी, श्यामजी, और पृथ्वीराजजी थे। इनकी शाखाएँ रंगावत कहलाई । रंगाजी के छोटे भाई पचाणजी थे जिनके वंशज पचनावत कहलाते हैं।
चोखाजी - आप मेवाड़ की वकालत पर देहली भेजे गये । आपके शोभाचन्दजी, रायभाणजी, उदयचन्दनी, सूरजमलजी और कर्णजी नामक पांच पुत्र हुए। कर्णजी महाराज गरीबदासजी ( महाराणा सिंहजी के छोटे कुँवर ) की इच्छानुसार श्री हजूर में से उजियारे इन्तजाम के लिये भेजे गये । बे वहीं पर संवत् १७२३ के भाद्रपद मास में स्वर्गवासी हुए । इनके साथ इनकी धर्मपत्नी सती हुई । जिनकी
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प्रोसबाट जाति का इतिहास
छत्री व शिलालेख उणियारे में सप्पन जो के तालाब के पास मौजूद है। चोखाजी के भाई राजूजी के वंश में रुद्रमाणजी और सरदारसिंहजी हुए जिन्होंने अपने समय में फौज मुसाहिबी की।
अनोपजी-आपका जन्म संवत् 100 कार्तिक मास में हुआ। महाराणा श्री संग्रामसिंहजी (द्वितीय) ने आपको और धाभाई देवजी को सरकारी काम के लिये देहली भेजे। आपने राज के कोठार का काम किया। इसके पश्चात् कपासन वगैरह कई परगनों पर आप हाकिम रहे। संवत् १९०६ में आपके पुत्र मोतीरामजी के विवाह में महाराणा की आपके घर पधरावणी हुई। आपने कपासन प्रान्त में अपने नाम से अनोपपुरा नामक ग्राम बसाया । इस गांव में भापने वावड़ी और तालाब बंधवाया । साथ ही पोटला का तालाब भी आप ही ने बंधवाया । कसबा 'पुर' में आपने अपने पूर्वजों द्वारा निर्मित श्री नेमीनाथजी के मन्दिर का जीर्णोद्धार करवा कर एक नया सभा मंडप बनवाया, तथा दूसरी मूर्ति स्थापन करवा कर उसकी प्रतिष्ठा करवाई। आपने वहाँ बाग बावड़ी और ममलेश्वरजी का एक मन्दिर बनवापा । भापकी हवेली 'पुर' में महलों के नाम से मशहूर है
और आज भी होली दिवाली पर पंच दस्तूर के लिए आते हैं। आपकी जागीर में रंगाजी की जागीर के दो गाँव मेवदा और काणोंली रहे । आपके मोतीरामजी, मोजीरामजी एवम् मानसिंहजी नामक तीन पुत्र हुए।
मोतीरामजी-आपका जन्म सम्बत् १७०३ की श्रावण सुदी २ को हुआ। आपने सम्वत् १८१९ से १०२५ तक महाराणा श्री अरिसिंहजी को प्रधानगी की। इस अवधि में एक बार संवत् १८२१ के जीव प्रधाने का काम दूसरे व्यक्ति को दिया गया था। मगर सुचारु रूप से कार्य न चलने के कारण कुछ ही दिनों पश्चात् वापस आपको ही दिया गया। संवत् १.२६ में जबकि सिंधिया के साथ वाली सन्धि में बड़वा अमरचन्दजी ने इनकी इच्छा के खिलाफ तप की, इस शर्तनामें के अनुसार सरकार का बुकसान समझ कर बापने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और बाहर चले गये। भेड़े ही समय पश्चात महाराणा में इसकी असलियत का हाल मालूम हुआ तो ये वापस बुलवाये गये। मगर ये हाजिर न हो सके और उसी समय संवत् १९२८ में आपका स्वर्गवास हो गया। आपके स्वर्गवासी हो जाने के पश्चात् भी महाराणा साहब ने आपके पुत्र एकलिंगदासजी को श्यामधर्मी होने वगैरह के कई परवाने बो जिससे मालम होता है कि महाराणा का भाप पर पूरा भरोसा था। मोतीरामजी की जागीर में चार गाँव मेवदा, मानपुरा, काणोली और सादड़ा थे। आपके एकलिंगदासजी और अचलदासजी नामक दो पुत्र हैं।
___ उपरोक्त कार्यों के अतिरिक्त आपके द्वारा कई धार्मिक कार्य भी हुए । आपये कसारों की ओल में एक श्री ऋषभदेवजी महाराज का मंदिर तथा उपाश्रय बनवाया और उसकी प्रतिष्ठा संवत १८२० में करवाई।
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बोखिया ... संवत १८२३ में आपने आबू तीर्थ का विकास । इसके अतिरिक्त मापने स्थानीय हाथीपोल और दिल्ली दरवाजा के बीच शहरपनाह के पास एक बावड़ी बनवाई जो आज भी आपके नाम से मशहूर है। । आपके छोटे भाई मोजीसमजी का जन्म संवत् १७९१ में हुआ। भाप पर महाराणा
अरिसिंहजी का पूरा भरोसा था। आप उनके फौज मुसाहिब हुए। संवत् १८२२ में श्रीजी हुजूर दुश्मनों पर चढ़े उस समय “विजयकटव" सेना में मौज मुसाहिब आप ही थे। इसके अतिरिक माप जावद, गोदवाद, चित्तौड़, कुम्भलगढ़, भीलवादा, खोड़, वगैरह कई मुकामों पर फ़ौज लेकर समय र पर दुश्मनों के मुकाबले पर भेजे गये थे। जिसके विषय में आपको कई परवाने प्राप्त हुए । जो इस समय इनके वंशजों के पास मौजूद हैं। उन परवानों से मालूम होता है कि उस समय कई सरदार आपकी अध्यक्षता में रहे। और कई स्थानों पर दुश्मनों से भापको मुकाबला करना पड़ा। : - पकलिंगदासजी-आपका जन्म संवत् १८१४ में हुमाभापको केवल बीस साल की उन्न में ही प्रधान का पद इनायत हुा । छोटी उमर होने से इस काम को बाप अपने काका मौजीरामजी की सहायता से करते रहे। मौजीरामजी के स्वर्गवासी होने पर आपने इस काम को छोड़ दिया। इसके पश्चात भाप फौज मुसाहिब बनाये गये । इस सर्विस में मापने राज्य की कई सेवाएं की। कई छोटी बड़ी लड़ाइयां मापने बहादुरी के साथ लड़ी।
___ संवत् १८५८ में जब इन्दौर के महाराजा यशवंतराव होलकर ने नाथद्वारे पर चढ़ाई की। उस समय उन्हें रोकने के लिये आप भी फौज लेकर नाथद्वारे पर पहुंचे थे । वहाँ के आक्रमण को रोक कर इसी साल माह महीने में आपने श्री ठाकुरजी को नाथद्वारे से उठाकर उदयपुर विराजमान किया । इसके पश्चात् भीसंवत् १८६५ तक आपको समय २ पर नाथद्वारे की रक्षा के लिए जाना पड़ा था । संवत् १८७१ में राजनगर में माधौकुँवर सुखाराम का आना सुनकर वहां किसनाजी भाऊ के साथ आप भी पहुंचे और गढ़ की रक्षा की। संवत् १८७६ में गुसाईजी कांकरोली के लिये राजतिलक का दस्तूर तथा १८७८ में जयपुर महाराजा श्री सवाई जयसिंहजी का टीला लेकर गये।
- इसी प्रकार उपरोक्त प्रकार के मापने कई काम किये । भापकी सेवाओं से महाराणा हमीरसिंहजी भीमसिंहजी, जवानसिंहजी, सरदारसिंहजी और सरूपसिंहजी सभी प्रसन्न रहे। भाप मन्तिम समय तक अपने मालिकों की सेवा करते रहे । आपका स्वर्गवास ८७ वर्ष की अवस्था में संवत् १९०० में हुआ। उस समय के कागजों से पता चलता है कि करीब २ सभी उमराव, सरदार एवम् मरहठे अफसर आपकी इज्जत करते थे। तथा आपके साथ प्रेम रखते थे।
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सवाल जाति का इतिहास
इनकी जागीर में इनके पिता के समय के चारों गाँव रहे। मगर संवत् १८९० में मेवदा नामक गांव के स्थान पर समाखदी दी गई थी। इनके छोटे भाई अचलदासजी की जागीर में “भोंपों का खेड़ा" अलग ही था। एकलिंगदासजी के पुत्र भगवानदासनी एवम् अचलदासजी के पुत्र सबदासजी थे।
भगवानदासजी-आपका जन्म संवत् १८५९ चेत बदी को हुआ। संवत् १९०१ में महाराणा सम्पसिंहली, की नाराजगी होने से उन्होंने आपकी जागीर, गेणाघट के गाँव, घर खेती वगैरह तब खाल सेकषि। फिर संवत् १९३० में महाराणा शम्भूसिंहजी ने रूपाखेदी के बजाय ग्राम बान्यो जागीर में प्रदान किया । भगवानदासजी का स्वर्गवास १९३९ में हुमा।
शानमनजी-आपका जन्म संवत् १८४८ वश स्वर्गवास संवत् १९४७ फागण सुदी १४ को हुआ। भाप मुस्तकील तौर पर कोई काम नहीं किया ।
लक्ष्मीलालजी-आप जन्म संवत् १९२२ असाद बदी ९ को हुआ । संवत् १९५० भापके जिम्मे लवाजमा का बखाया और संवत् १९५६ में गेणे का काम बापके सिपुर्द हुमा जो बदस्तूर मारहे हैं। बाप भी राज्य की सेवाएं बहुत ईमानदारी के साथ कर रहे हैं।
भारके देवीलालजी नामक एक पुत्र हैं। जिनका जन्म संवत् १९६५ में हुआ है। भाप संवत् १९८० में बो. ए. की डिग्री हासिक की। भाप संस्कृत में शात्री परीक्षा की पास हैं। आप ने संस्कृत कादम्बरी के कुछ भागों का (शुकनासोपदेश, महाश्वेत वृत्तान्त ) का अंग्रेजी में अनुवाद करके सन् १९५ में प्रकाशित किया है। आप बड़े होनहार और प्रतिभाशाली बुधक है।
मेवाड़ोद्धारक भामाशाह का घराना, उदयपुर इस घराने वाले सज्जन कावड़िया गौत्र के हैं । महाराणा सांगा के समय इस गौत्र के प्रसिर पुरूष कावदिया भारमलजी रणथंबोर नामक किले के किलेदार नियुक्त किये गये थे। इनके पुत्र मेस-उद्धारक वीरवर भामाशाह हुए। इन भामाशाह की वीरता, इनका स्वार्थ स्याम और इनकी बुद्धिमानी को कौन इतिहास पाठक नहीं जानता ? जब तक महाराणा प्रताप का नाम अमर रहेगा तब तक सर्वस्व त्यागी भामाशाह का नाम भी नहीं भुलाया जा सकता। मेवाड़ में भामाशाह की जो अपूर्व सेवाएं हैं उनके समान विरले ही उदाहरण इतिहास में रष्टि गोल होते हैं। जिस प्रकार भामाशाह
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कावड़िया
ने अपने अपूर्व वीरत्व का परिचय दिया था उसी प्रकार अपनी चिरसंचित भसंख्यात सम्पत्ति को महा. राणा प्रताप की सेवा में अर्पित कर अपनी विकारता का परिचय दिया था। कर्नल जेम्सटाड के कथनानुसार वह द्रव्य इतनी थी, जिससे २५ हजार सैनिक १२ वर्ष तक निर्वाह कर सकें। कहना न होगा, कि इस सम्पत्ति को पाकर महाराणा प्रताप ने अपनी विसरी हुई शक्ति को क्टोरा और मेवाड़ के बहुत से परगने अपने अधिकार में किये। भामाशाह का विस्तृत परिचय इस ग्रंथ के राजनैतिक विभाग में पृष्ठ ७३ में दिया गया है। उसी प्रकार इनके माई ताराचन्द ने भी बहुत बार युद्ध में लड़कर अपना हस्त कौशल दिखलाया था ।
___ भामाशाह के पश्चात् उनके पुत्र जीवाशाह हुए। वे महाराणा अमरसिंहजी के प्रधान रहे। ' इसके पश्चात् अब महाराणा कर्णसिंहजी मेवार की राजगद्दी पर विराजे सब जीवाशाह के पुत्र अक्षयराज मेवाड़ के प्रधान बनाये गये। इस प्रकार तीन पुश्त तक प्रधानगी का काम इस वंश के हाथ में रहा । और सवंचवानेही योग्यता से उसे संचालित किया। 2. लक्षवराज की कुछ पुश्त पश्चात् जपचन्दजी, कुन्दनजी और वीरचन्दजी नामक तीन बन्Y हुए। प्रजा की तरफ से जब भाप लोगों के पुश्तैनी तिलक के सम्मान में कई भाने लगा तब सालीन महाराणा सरूपसिंहजी में एक नये परवाने द्वारा फिर से मापन सम्मान बढ़ाया। यह परकमा इसी अन्ध में राज. मैतिक और सैनिक महत्व नामक शीर्षक में 'सर्वस्व त्यागी भामाशाह वाले हेडिंग के अंबर में दिया गया है।
शाह कुन्दनजी के सवाईरामजी और अंबालालजी नामक २ पुत्र हुए । भम्वालालजी की स्थितिस समय बहत साधारण रह गई थी। अतएव आपने प्रारम्भ में दुकानदारी की। पश्चात मापने उमरावों एवम् सरदारों की वकालत का काम करना प्रारम्भ किया। इसमें आपको बहुत सफलता रही। यही नहीं बल्कि इन्हीं उमरावों में से एक साल राज से भापको चोकदी नामक एक गाँव जागीर में मिला जो भाज भी आपके वंशजों के पास है। भापके समय में पुश्तैनी तिलक में सम्मान का फिर सगड़ा हुआ। इस बार भी महाराणाजी की ओर से फैसला होकर उस परवाने की पाबन्दी करवाई गई। भापका संवत् १९७६ में स्वर्गवास होगया। आपके तीन पुन हुए जिनके नाम क्रमशः बहुतलालजी, अमरसिंहजी और मनोहरसिंहजी हैं। इनमें से अनरसिंहजी स्वर्गवासी होगये। बहुतलालजी मान कर अपने पिता जी के स्थान पर वकालत को करते हैं । आपके भाई भी वकालत करते हैं ।आप लोग मिलनसार सज्जन हैं। बहुतलालजी के कालूलालजी और छगनलालजी नामक २ पुत्र है। कालूलालजी वकालत करते हैं। छगनलालजी पुलिस ट्रेनिंग पास करके प्रेक्टिस कर रहे हैं। मनोहरलालजी रोशनसिंहजी और जसवन्तलालजी नामक दो पुत्र हैं।
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चील मेहता
मेहता रामसिंहजी का घराना, उदयपुर इस परिवार का इतिहास बहुत पुराना है। इस परिवार में मेहता जालसी नामक एक बहुत प्रसिद्ध म्बकि हो गये हैं। वे तत्कालीन जालोर के राव मालदेव के बड़े विश्वास पात्र सेवक थे। जब कि चित्तोड़ पर रावल रतनसिंह राज्य करते थे उस समय मेवाड पर अलाउद्दीन ने चढ़ाई की और चित्तौड़ का किला हस्तगत कर लिया और अपने पुत्र खिजरखा को यहाँ का शासक नियुक्त कर वह वापस लौट गया । १० वर्ष पश्चात् सोनगरा मालदेव को विश्वास पात्र समझ कर खिजरखां इन्हें यहाँ का गवर्नर बना कर चला गया। इसी समय महाराणा हम्मीर अपने पैतृक राज्य को पुनः प्राप्त करने की लालसा में लगे हुए थे। उस समय जालसीजी मेहता द्वारा आपको बहुत सहायता मिली और आप चित्तौड़ का उद्धार करने में समर्थ हो सके। जालसी मेहता के पश्चात् मेहता चीलजी इस परिवार में बड़े नामांकित पुरुष हुए जिनका विशेष परिचय इसी ग्रन्थ के राजनैतिक और सैनिक महत्व नामक अध्याय में दिया जा चुका है। इन्हीं चीलजी मेहता की संताने चील मेहता कहलाई । वास्तव में आप लोगों का गौत्र भंडसाली है। .
___मेहता चीलजी के कई पुश्तों के पश्चात् १९ वीं शताद्वि के मध्य में इस परिवार में मेहता ऋषभ दासजी हुए। इनके पुत्र मेहता रामसिंह जी थे। मेहता रामसिंहजी बड़े होशियार, पराक्रमी, बुद्धिमान
और चतुर राजनीतिज्ञ थे। आप कई बार मेवाड़ के प्रधान बनाये गये। आपने राज्य के हित के बहुत काम किये । आपको जागोर में गांव तथा सोना वगैरह इनायत किया गया था । आपका विशेष परिचय हम लोग इसी ग्रंथ के राजनैतिक और सैनिक महत्व नामक अध्याय में कर चुके हैं। ..... मेहता रामसिंहकी के वातावरसिंहजी, गोविन्दसिंहजी जालिमसिंहजी, इन्द्रसिंहजी तथा फतह. सिंहनी नामक ५ पुत्र हुए।
___संवत् १९०३ में मेहता रामसिंहजी अपने पांचों पुत्रों को लेकर व्यावर चले आये, और यहाँ संवत् १९१४ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके बड़े पुत्र वख्तावरसिंहजी आपके सामने ही गुजर गये थे। उनके नाम पर गोविंदसिंहजी के छोटे पुत्र कीर्तिसिंहजी दत्तक गये । इस समय इनके परिवार में जवरसिंहजी नामक एक बालक जोधपुर में विद्यमान हैं।
मेहता रामसिंहजी के द्वितीय पुत्र गोविंदसिंहजी का परिवार ब्यावर में ही रहता रहा। इनके परिवार का विस्तृत परिचय नीचे दिया जा रहा है। इनके तीसरे पुत्र जालिमसिंहजी को संवत् १९१८ में
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चील मेहतां
महाराजा शंभूसिंहजी ने उदयपुर बुलालिया, तथा चौथे पुत्र इन्द्रसिंहजी को बीकानेर महाराज ने बुलालिया । अभी इनके परिवार में पृथ्वीसिंहजी जयसिंहजी तथा बीसजी अजमेर रहते हैं ।
मेहता जालिमसिंहजी - आपने राशंमी प्रान्त में अपने नाम से जाहिमपुरा नामक एक गाँव बसाया । संवत् १९२५ में आप खादी के हाकिम थे। लेकिन आपने वेतन नहीं लिया । पश्चात् आप हिसाब दफ्तर के हाकिम बनाये गये । दरबार ने प्रसन्न होकर बरोड़ा नामक गांव तथा एक मौहरा प्रदान किया । संवत् १९३१ में आपने अपने स्थान पर बड़े पुत्र अक्षयसिंहजी को जहाजपुर का हाकिम बनाकर भेजा । संवत् १९३६ में आप स्वर्गवासी हो गये । आपके अक्षयसिंहजी, केशरीसिंहजी और उग्रसिंहजी नामक ३ पुत्र हुए।
मेहता अक्षय सिंहजी - आपने जहाजपुर जिले की आय को बढ़ाया, तथा अपने भाई और पुत्रों के नाम पर अखयपुरा, केसरपुरा और जीवनपुरा नामक ३ गाँव बसाये । आपको महाराणा ने निम्बाहेड़ा के सरहद्दी मामले में अपना मातेमिद बनाकर भेजा था। इसके पश्चात् आप कुम्भलगढ़ और मगरे के हाकिम बनाये गये । आपने लुटेरे भीलों को कृषि में लगाया तथा मगरा जिले की आबादी बढ़ाई। इसके बाद आप मांडलगढ़ तथा भीलवाड़ा के हाकिम हुए। संवत् १९४० में आपके ज्येष्ठ पुत्र जीवनसिंहजी के विवाह प्रसंग पर महाराणा आपकी हवेली पर मेहमान होकर पधारे । संवत् १९५६ के अकाल के समय आपने गरीब लोगों की बहुत इमदाद की । भिंडर ठिकाने को कर्ज मुक्त करने की व्यवस्था आपने व्यवस्थित ढंग से की। इसी तरह आप माल, फौज, खजाना, निज सैम्य सभा आदि महकमों में कार्य्यं करते रहे । और संवत् १९६२ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र जीवनसिंहजी तथा यशवंतसिंहजी हुए, इनमें यशवंतसिंहजी, केशरीसिंहजी के नाम पर दत्तक गये ।
मेहता जीवन सिंहजी - आप लगातार ३५ सालों तक कुम्भलगढ़, सहाड़ा, कपासन, जहाजपुर, चित्तौड़, आसींद, भीलवाड़ा, मगरा आदि स्थानों के हाकिम रहे। महाराणाजी ने समय २ पर पुरस्कार आदि देकर आपकी प्रतिष्ठा बढ़ाई। मेवाड़ के रेजिडेंट तथा अन्य अंग्रेज आफीसरों ने आपकी प्रबंध कुशलता व का शक्ति की समय २ पर सराहना की है। कुछ सालों से आप महद्राज सभा के मेम्बर नियुक्त हुए हैं। महाराणा भूपालसिंहजी को आप पर बड़ी कृपा है। आपके तेजसिंहजी, मोहनसिंहजी, तथा चन्द्रसिंहजी नामक ३ पुत्र हैं ।
महता जसवन्तसिंहजी —- आप मेहता जीवनसिंहजी के छोटे भ्राता हैं तथा अपने काका केशरीसिंह जी के नाम पर दत्तक गये हैं। आपने राज्य के विविध प्रतिष्ठित पदों पर काम किया है। कई वर्षों तक आप जोधपुर की शीसोदिनीजी महारानी के पास कामदार रहे। इसके बाद आप मेवाड़ में चित्तौड़
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
आदि कई स्थानों के हाक्रिम रहे । अब भी आप मेवाड़ में हाकिम हैं । आप सुधारक विचारों के और बड़े मिलनसार सज्जन हैं। आपके नाम पर मेहता जीवनसिंहजी के तीसरे पुत्र चन्द्रसिंहजी दत्तक आये हैं । आप उदयपुर रेलवे में ट्राफिक सुपरिंटेन्डेन्ट हैं । इसी तरह आलिमसिंहजी के तीसरे पुत्र मेहता उग्रसिंहजी पुत्र मदनसिंहजी और पौत्र प्रतापसिंहजी तथा राजसीजी विद्यमान हैं।
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मेहता तेजसिंहजी - आप बी० ए० एल० एल० बी० तक शिक्षा प्राप्त कर कुछ समय तक सीता पुर में बकालात करते । संवत् १९७५ में कुम्भलगढ़ और साम्भर प्रान्त के हाकिम के पद पर नियुक्त हुए संवत् १९७८ में आप राजकुमार भूपालसिंहजी के प्राइवेट सेक्रेटरी नियत हुए और उनके राज्य पद पाने पर भी उसी पद पर अधिष्ठित रहे । महाराणाजी ने आपको सोने का लंगर प्रदान कर सम्मानित बढ़ाया है । सन् १९३१ के फाल्गुन मास में आपको दरबार मे जालमपुरा नाम का गाँव जागीर में वख्शा है।
मेहता मोहनसिंहजी - आप राजस्थान के प्रमुख व्यक्तियों में से हैं। आपने अपनी विद्वत्ता और अपनी अपूर्व सेवा से राजस्थान के नाम को उज्ज्वल किया है। प्रारम्भ में आप एम० ए० एल० एल० बी० तक शिक्षा प्राप्त कर इलाहाबाद आगरा और अजमेर के कॉलेजों में प्रोफेसर रहे। इसके बाद आपने पंडित बैंकटेश नारायणजी तिवारी के सहयोग में प्रयाग की सुप्रसिद्ध सेवा समिति के कार्य्य को संचालित किया । इसके बाद संवत् १९७८ में आप कुम्भलगढ़ के हाकिम बनाये गये । इसके पश्चात् आप उदयपुर राज्य के असिस्टंट सेटलमेंट आफीसर के पद पर नियुक्त हुए। सन् १९२५ में आपने इग्लैंड जाकर वेरिस्टरी की परीक्षा पास की और लंदन युनिवर्सिटी की सर्वोच्च उपाधि पी० एच० डी० प्राप्त की। यहाँ यह कहना आवश्यक है कि राजपूताने में यह पहिले ही महानुभाव हैं, जिन्होंने सब से पहिले इस सम्माननीय उपाधि को प्राप्त किया है। इसके बाद आप भारत आये, तथा मेवाड़ स्टेट के रेवेन्यू आफीसर के पद पर नियुक्त हुए ।
डाक्टर मोहनसिंहजी का ऊपर थोड़ा सा परिचय दिया गया है । सब पहिलुवों से आपका जीवन बड़ा गौरवपूर्ण तथा प्रकाशमय है । मानवीय सेवाओं के भावों से आपका हृदय लवालब भरा है। स्वार्थ त्याग के आप ज्वलंत उदाहरण हैं। राजस्थान में सब से पहिले बड़े पाये पर स्काउटिंग का काम आपही ने शुरू किया । विद्या भवन जैसी आदर्श संस्था आप ही के परम त्याग का फल है। यह एक ऐसी 1 संस्था है, जो शिक्षा के उच्च आदर्श तथा देश की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर प्रस्थापित की गई है और जहाँ दूर २ से स्वायं त्यागी विद्वान बुलाकर रक्खे गये हैं। यह संस्था भारतवर्ष में अपने ढंग की अपूर्व है।
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चीन मेहता
मेहता गोविन्दसिंहजी का परिवार
(मेहता चिमनसिंहजी, ब्यावर) ऊपर उदयपुर के दीवान मेहता राखिसी के पुत्रों के घरानों का परिचय दिया जा चुना है। मेहता गोविन्दसिंहजी मेहता रामसिंहजी दिलीच पुथे। भापके छोटे भाई जालिमसिंहजी उदयपुर चले गये तथा आप ब्यावर में ही निवास करते रहे।
मेहता गोविन्दसिंहजी-जाप मार विमरनल डिक्सन नेम्यावर तथा अजमेर के बीच जेठाणा नामक गाँव में एक हजार बीमा कमीना की। तथा बेठाणे में गवालियर गज का एक गया था वह भी इनको दिया। इसके बावा लन् वा सम्मान व भाषे कस्टम के महसूल की माफी का भार्डर दिया । उक्त जमीन तथा पद, अब आपके पौत्र मेहता चिमनसिंहजी के अधिकार में है। संवत् १९२० में भाप स्वर्गवासी हुए। आपके बड़े पुत्र कीर्तिसिंहजी बापके बड़े भाई मेहता बस्तावरसिंहजी के नाम पर दत्तक गये।
.. मेहता रतनसिंहजी-आप मेहता गोविन्दसिहजी के द्वितीय पुत्र थे। भापत्र जन्म संवत् १८९८ में हुभा । आप म्यबा मुनिसिपैठिी के मेम्बर । संवत् १९३५ में भापक स्वर्गवास हुआ।
__ मेहता चिमनसिंहजी-माप मेहसा रतनसिंहजी के पुत्र हैं। भापका जन्म संवत् १९१४ में हुला । आप "साल तक लगातार ब्यावर म्युनिसिपेलिटी के मेम्बर रहे और सन् १९१३ से १९ तक असिस्लेंट मिावर के यहाँ वकील रहे । ब्यावर में भापका खानदान पुराना तथा प्रतिष्ठित माना जाता है। भआपके पुत्र भमरसिंहजी तथा रतनराजजी है।
मेहता रतनसिंहजी ने इंटर तक पढ़ाई करके एप्रीक्सचर कॉलेज कानपुर से एक. ए.जी. की डिगरी प्राप्त की। पश्चात आप यू० पी० में एप्रोकार इन्सपेक्टर तथा अजमेर मेरवादा प्रान्त के मॉग्स फार्म के सुपरिन्टेन्डेन्ट रहे। इस समय भार ब्यावर में निवास करते हैं। भापके छोटे भाई रणजीतसिंह मेट्रिक में पढ़ते हैं।
चीलमेहता नाथजी का परिवार, उदयपुर इस खानदान के पूर्वज मेहता बालसीजी जाऔर सोनगरे चौहान मालदेव के विश्वास पात्र थे। सम्भव है जालसीजी उनके साथ मारवाद से मेवाड़ भावे हो।
मेहता जालसीजी महाराणा हमीरसिंहजी के समय में तथा मेहला चीलजी महाराणा उदयसिंहजी के समय में हुए । इनकी सेवाओं का विस्तृत विवरण हम इस प्रथ राजनैतिक महत्व नामक अध्याय में कर चुके हैं।
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पोसवाल जाति का इतिहास
इस समय चीलजी के परिवार में १०.१५ कुटुम्ब उदयपुर में निवास करते हैं। इस परिवार के लोग महाराणा उदयसिंहजी के साथ विसौद से उदयपुर चले आये । वहाँ पर आप लोग प्रातः स्मर्णीय महाराणा प्रताप के महलों के पास देवाली गाँव में रहने लगे।
- मेहता नाथजी-अठारहवीं शताब्दी के अंत में इस वंश में मेहता नाथजी हुए। घरेलू कारणों से कुछ समय के लिए ये कोटे चले गये । संवत् १८०७ के लगभग भाप कोटे से मांडलगढ़ आये और मांडलगढ़ किले पर फौज के अफसर बनाये गये । साथ ही नवलपुरा नामक एक गाँव भी आपको जागीर में बख्शा गया। मांडलगढ़ किले पर आपकी बनवाई हुई बुर्ज अब भी माथबुर्ज के नाम से मशहूर है । आपकी हवेली किले के सदर दरवाजे पर बनी हुई है। आपने किले के नजदीक एक पहाड़ पर बिजासन माता का मंदिर बनवाया। इसी तरह अपनी हवेली के सामने श्रीलक्ष्मीनारायण का मन्दिर बनवाया। इस मंदिर की व्यवस्था के लिए राज्य की ओर से नवलपुरे में डोली (माफी की जमीन) है तथा शादी गमी के मौके पर मांडलगढ़ की पंचायत से लागत वगैरा आती है। आपका परिवार पुष्टि मार्गीय वैष्णव धर्मावलम्बी है। संवत् १८६९ में आपका स्वर्गवास हुआ।
मेहता लक्ष्मीचन्दजी-आप मेहता नाथजी के पुत्र थे। अपने पिताजी के साथ कई लड़ाइयों में आप सम्मिलित हुए थे। अंत में सम्बत् १८७३ में खाचरोल की घाटी में युद्ध करते हुए आप वीरगति को प्राप्त हुए। उस समय आपके पुत्र जोरावरसिंहजी और जवानसिंहजी क्रमशः ५ और २ वर्ष के थे। ऐसे कठिन समय में इनकी चतुर माता ने इन दोनों शिशुओं का लालन पालन किया। इनको मदद देने के लिये महाराणा ने मांडलगढ़ के मेहता देवीचन्दजी को लिखा था। लेकिन बजाय मदद देने के इनका जागीरी का गाँव भी जस हो गया। इन दोनों शिशुओं के बालिग होने पर महाराणाजी ने इनके नाम का नवलपुरा गाँव संवत् १९०४ में ५५) साल में इस्तमुरार कर दिया। यह गाँव अब तक इस परिवार के पास चला आ रहा है। इसका रकबा करीब १५ हजार बीघा है। जब दरबार की नाराजी के कारण मेहता रामसिंहजी मेवाड़ छोड़कर बाहर चले गये उस समय जोरावरसिंहजो ने उनका साथ दिया और उनके साथ रहते हुए व्यावर में स्वर्गवासी हुए। इनके पुत्र मोखमसिंहजी हुए। मोखमसिंहजी के पुत्र रघुनाथसिंहजी तथा पौत्र हरनाथसिंहजी इस समय विद्यमान हैं।
मेहता जवानसिंहजी--ये बड़े प्रभावशाली पुरुष हुए। इन्होंने अपनी स्थिति को बहुत उच्चत किया । इनको दरवार से कई बार सिरोपाव मिले । ये बड़े बहादुर प्रकृति के आदमी थे। १९१० में इनका स्वर्गवास हुआ। इनके चतुरसिंहजी और कृष्णलालजी नामक २ पुत्र हुए। ये दोनों धार्मिक वृत्ति के पुरुष थे।
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रतनपुरा-कटारिया
मेहता चतुसिंहजी-आपने उदयपुर आकर निवास किया। संवत् १८९५ में भापका जन्म हुआ। आपने राजनगर, मेजा, भीमलत आदि परगनों का मुकाता लिया। कुछ समय बाद आप एकलिंगजी के मन्दिर के दरोगा बनाये गये । इसके बाद आप हुकुम खर्च के खजाने पर मुकर्रर किये गये। भापको दरबार ने हाथी की बैठक, अमरशाही पगड़ी, बैंकों की पछेवड़ी, गोठ की जीमण आदि इजतें दी। इसके बाद भाप अंतिम समय तक महाराणा शम्भूसिंहजी की महाराणी के कामदार रहे। आप अपना अत्यधिक समय ईश्वर उपासना ही में लगाते थे। इस तरह पूर्ण धार्मिक जीवन बिताते हुए संवत् १९७३ में आप स्वर्गवासी हुए । आपने सहेलियों की बाड़ी के पास एक बगीचा बनवाया। मेहता चतुरसिंहजी के इन्द्रसिंहजी मदनसिंहजी, मालुमतिहजी तथा जालिमसिंहजी नामक पुत्र हुए और इसी प्रकार मेहता कृष्णलालजी के माधवसिंहजी और गोविन्दसिंहजी नामक २ पुत्र हुए। इन बंधुओं में मालुमसिंहजी का स्वर्गवास संवत् १९६५ में और माधवसिंहजी का संवत् १९८४ में हो गया।
महता चतुरसिंहजी का परिवार मेहता इन्द्रसिंहजी का जन्म संवत् १९३० में हुआ। मापने सरहद के बल के मामलों में और भीलों में अमन अमान रखने में महाराणा फन्दसिंहजी ने कई इनाम दिये भौर रियासत के बाा माफीसर व अंग्रेज आफीसरों में कई उत्तम सार्टीफिकेट दिये। भार सादिया, गढ़ी, झाबुआ भादि जिलों में बहुत असें तक तहसीलदार रहे और बाद में ऋषभदेवजी तथा एकलिंगजी के दारोगा रहे । भापके पुत्र कुन्दनसिंहजी इस समय मेवाड़ के एकाउन्टेष्ट आफिस में इन्सपेक्टर हैं।
बोहता मदनसिंहजी कई ठिकानों के नायव मुंसरीम तथा नायब हाकिम रहे। इस समय कुराबद सिकाने नायब मुखरीम हैं। आपने अपने भाई जालमसिंहजी के पुत्र फतहलालजी को दत्तक लिया है। मेहता मालुमसिंहजी के पुत्र मन हरसिंहजी मेवाड़ में सब इन्सपेक्टर पोलीस हैं। इनके पुत्र प्रतापसिंहजी, सोभागसिंहजी और जीवनसिंहजी हैं। मेहता जालिमसिंहजी कोठारिये के नायब सुसरिम हैं। भापको साधु सत्संग व धार्मिक ग्रंथों के अवलोकन का ज्यादा प्रेम है। आपके पुत्र बलवंतसिंहजी तथा फतहलालजी हैं।
महता कृष्णसिंहजी का परिवार-मेहता कृष्णसिंहजी के बड़े पुत्र मेहता माधवसिंहजी थे। आपने मेवाद में सबसे पहले मेट्रिक पास की। आपकी लिखित “माप विया प्रदर्शनी” नामक पुस्तक का बहुत प्रचार हुआ भापने १५ वर्ष तक परिश्रम कर मेवाड़ के प्रत्येक गाँव की अक्षांस देशांश रेखा का मेवाड़ की बस सारिणी नामक एक ग्रंथ तयार किया था। आपके पुत्र रवसिंहजी साहित्यिक क्षेत्र में प्रेम रखते थे। इनका संवत् १९७२ में २५ साल की आयु में स्वर्गवास हो गया। मेहता गोविन्दसिंहजी के मनोहरसिंहजी तथा सज्जनसिंहजी नामक २ पुत्र हैं।
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चतुर-साम्भर
चतुर साम्भर गौत्र की उत्पत्ति है. इस गौत्र के इतिहास को देखने से पता चलता है कि पंवार वंशीय राजपूत खेमकरणजी के बेटे सामरसाजी हुए। इन्हीं के नाम से साम्भर गौत्र की उत्पत्ति हुई।।
इसी वंश में भागे चलकर शाह जिनदत्तजी साम्भर हुए । आपने श्री सिद्धाचलजी की यात्रा का बड़ा भारी संघ निकाला। वहाँ पर एक बड़ा भारी स्वामी वात्सल्य किया गया। इसमें भोजन की बहुत चतुराई की । जिससे मुग्ध होकर वहाँ के चतुरविध संघ ने आपको 'चतुर' की पदवी दी।
इसी वंश में आगे चलकर मेड़ते में शोभाजी के पश्चात् क्रमशः सोडलजी, मेलोजी, पोडोजी कालोजी, वालोजी, जसोजी, गुणोजी, टीलोजी, मालोजी, भीमचन्दजी और उनके पुत्र रामचन्दजी हुए।
चतुरों का खानदान, उदयपुर रायचन्दजी के वंश में खीमसीजी, तेजसीजी, लखमीचन्दजी और उनके पुत्र जोरावरमलजी हुए । उनीसवीं शताब्दी में मेड़ता निवासियों.पर तत्कालीन नरेश का कोप होगया जिससे वहाँ से कई लोग शहर छोड़कर बाहर चले गये। उसी सिलसिले में संवत् १४७६ में जोरावरमलजी के पुत्र उम्मेदमलजी पहले पहल मेड़ते से उदयपुर में आये ।
उम्मेदमलजी-सेठ उम्मेदमलजी चतुर पहले पहल फ़ौज में नौकरी करने के लिये जोधपुर गये । वे यहाँ आकर पहले पहल सेठ ठाकरसीदास ज्ञानमल की दुकान पर ठहरे । यह दुकान उस समय जागीरदारों के साथ लेनदेन का काम करती थी। उसी के साझे में आपने व्यापार करना शुरू किया। जब महाराणा भोमसिंहजो की शादी बूंदी में हुई तब आपको पोद्दारी का काम मिला था। बन्दी से वापस लाने के बाद वहाँ मापने अपनी स्वतन्त्र दुकान कायम की। आपका स्वर्गवास संवत् १९०२ में हुआ। आपके तीन पुत्र हुए जिनके नाम क्रम से कर्मचन्दजी, छोगमलजी और चन्दनमलजी थे। इनमें से कर्मचन्दजी का स्वर्गवास केवळ १२ वर्ष की उम्र में होगया । आपके पुत्र श्रीमालजी हुए । छोगमलजी और चन्दनमलजी ने राज्य में बहुत पाया। .
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ओसवाल जाति का इतिहास
श्रीयुत रोशनलालजी चतुर का कुटुम्ब, उदयपुर.
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चतुर साम्मर छोगमलजी ने उदयपुर से सिद्धाचलजी का एक पैदल संघ निकाला था । छोगमलजी का स्वर्गवास संवत् १९२७ में और चन्दनमलजी का १९४७ में हुआ । छोगमलजी के पुत्र केशरीचन्दजी और चन्दनमलजी के पुत्र लक्ष्मीलालजी हुए । आप सब लोग बड़े दूरदर्शी और व्यापार दक्ष थे । उदयपुर में आपका बहुत सम्मान था । सेठ श्रीमालजी चतुर का १९७१ में और केशरीचन्दजी चतुर का संवत् १९५६ में स्वर्गवास होगया । लक्ष्मीलालजी अभी विद्यमान् हैं। सेठ श्रीमालजी ने बहुत परिश्रम करके उदयपुर में जैन पाठशाला की नींव डलवाई तथा आपके पुत्र चुनीलालजी ने कन्या पाठशाला स्थापित करवाई ।
सेठ केशरी चन्दजी के पुत्र सेठ रोशनलालजी चतुर हैं। आप बड़े विद्या प्रेमी, धर्मवत्सल तथा सार्वजनिक कार्य्यं प्रेमी पुरुष हैं। उदयपुर के अन्तर्गत आपने कठोर प्रयत्न करके कई सार्वजनिक कायों की नींव डाली, जिनमें से उदयपुर की जैन धर्मशाला मुख्य है। यह धर्मशाला बहुत विशाल है और सं. १९६५ में बनी है। इसमें अभी तक करीब दो लाख रुपया लग चुका है। यह आपही के प्रयत्न का फल है कि उदयपुर में इतनी विशाल धर्मशाला बनकर तैय्यार हो गई । इसके पश्चात् संवत् १९८३ में आपने सतत प्रयत्न कर उदयपुर में भोपाल जैन बोर्डिङ्ग हाउस की नींव अपने पास से दो हजार रुपया देकर डलवाई। इसमें जैन छात्रों को भोजन, बस्त्र देकर पढ़ाया जाता है। इसके पश्चात् आपने जैन श्वेताम्बर लायब्रेरी की स्थापना करीब ५०० पुस्तकें अपने पास से देकर करवाई । यह मेरी भी बहुत सफलता के साथ इस समय चल रही है। संवत् १९८३ में आपने केशरियाजी में श्री तपागच्छाचार्य श्री सागरानन्दसूरिजी की अध्यक्षता में ध्वजा दण्ड चढ़वाया। इसी दिन श्री करेडाजी नामक तीर्थ स्थान में ध्वजा दण्ड चढ़ाया गया तथा इसी अवसर पर अपके तरफ से यहां पर तीन मूर्तियां. स्थापित की गई। आपने एक बड़ा स्वामिवत्सक किया और ऋषभदेवजी में भी दिगम्बरियों को छोड़कर सारे गाँव को स्वामिवत्सल के रूप में जीमण दिषा ।
मतलब यह है कि उदयपुर के विद्या प्रचार, सार्वजनिक जीवन और धार्मिक जीवन के सेठ रोशनलालजी प्राण स्वरूप हैं । उदयपुर में जैनियों की शायद ही कोई ऐसी संस्था हो जिसमें आपका हाथ न हो । विद्या और धर्म से आपको बेहद प्रेम है। आप हृदय की बीमारी के रहते हुए भी प्रत्येक मास में एक चतुर्दशी का उपवास करते हैं । स्थानीय विद्याभवन नामक संस्था मेहता मोहन सिंहजी और आप दोनों के प्रयत्न से स्थापित हुई । इसके अतिरिक्त आपने उसमें १५००) रुपये की सहायता भी प्रदान की । आप स्थानीय आनरेरी मजिस्ट्रेट हैं, म्युनिसिपल बोर्ड के व्हाईस प्रेसिडेण्ट हैं। तथा केसरियाजी की प्रबन्ध कारिणी समिति के मेम्बर भी रहे हैं।
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प्रोसवाल जाति का इतिहास
___ आपके बड़े पुत्र मनोहरलालजी है। इस समय आप एम० ए० एल० एल० बी० के फायनल में पढ़ रहे हैं तथा छोटे पुत्र पावचन्दजी एफ० ए० में विद्याध्ययन कर रहे हैं तथा प्रकाशमलजी मिडिल में पढ़ रहे हैं ।
- सेठ श्रीमालजी भी केशरियाजी की प्रबन्ध कारिणी समिति के मेम्बर थे । आपके पुत्र सेठ चुनीलाल जो भी सरिचाजी की प्रबन्ध कारिणी के मेम्बर रहे । आपका स्वर्गवास संवत् १९८२ की भासोजसुदी ९ में हो गया । आपके दो पुत्र हैं जिनके नाम फतेलालजी तथा ओंकारलालजी है । फतेलालजी म्यु. बोर्ड में मेम्बर रह चुके हैं। वर्तमान में आप दोनों ही सज्जन फर्म का संचालन करते है। फतेकाजी के पुत्र रणजीतलालजी मेट्रिक में पढ़ रहे हैं तथा लक्ष्मीलालजी के पुत्र रखबलालजी बालक हैं।
इस खानदान की विशेषता यह है कि बिना किसी विरोध के पांच पीढ़ियों से आप लोग शामिल पवसाय कर रहे हैं। इस परिवार को उदयपुर में बहुत अच्छी प्रतिष्ठा है।
मुरडिया
मुरड़िया गौत्र की उत्पत्ति
मण्डोवर नगर के राठोड़ वंशीय राजा चम्पकसेन बड़े मशहूर हो गये हैं। आप ठाकुर गौत्र के थे। भापको जैनाचार्य श्री कनकसेनजी ने जैन धर्म का प्रतिबोध देकर भावक बनाया। जागे चल कर आपके सानदाल में सीगलजी, अजयभूतजी, संतकुमारजी, मजवपालजी तथा आमाजी नामक प्रसिद्ध पुरुष हुए नाप लोगों ने हजारों लाखों रुपये भत्रुजय, गिरनार मादि तीर्थों के संघ निकालने में, मंदिर बनवाने में तथा बढे २ स्वामि वत्सल करने में खर्च किये थे । इसो परिवार में अजयपालजी की भार्या लुणादे सती हुई जिनका चबूतरा भीनमाल के पश्चिम दिशा में तालाब के किनारे बना हुआ है।
कहा जाता है कि उक्त मामाजी के यहाँ दाँत का व्यापार होता था । एक समय मापने एक व्यापारी को दांत नहीं बेचे और बहुत मरोड़ की। इस व्यापार में दो लाख का नुकसान गया । फिर मी दाँत नहीं बेचे । इस मरड़ से आप मुरदिया नाम से मशहूर हुए। तभी से मुरलिया वंश की स्थापना हुई।
मुरड़िया परिवार का परिचय, उदयपुर उपरोक्त आमाजी के वंशजों में शिवदासजी मुरदिया नामक प्रभावशाली व्यक्ति हो गये हैं । आपके भोजाजी, रावतजी, हीराजी तथा खेमाजी नामक चार पुत्र हुए। आप लोगों का मूल निवासस्थान भीन
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मुरड़िया माल था। वहाँ से इस परिवार के प्रसिद्ध पुरुष हीराजी को संवत् ११३४ में उदयपुर के तत्कालीन महाराणा वीरवर प्रताप ने भामाशाह के द्वारा बड़े भादर सहित बुलाकर उदयपुर में बसाया। तभी से मापके वंशज उदयपुर में निवास कर रहे हैं। हीराजी के गोगाजी, बछराजजी, देवाजी तथा दूदाजी नामक चार पुत्र हुए । मुरदिया बच्छराजजी मे बार में तलवायनी के मंदिर में ४५०००) की लागत से पावन जिनालय बनाये। भाप लालाजी तालावी बाम के दो पुत्र हुए। लालाजी के पुत्र नगराजजी ने प्रसाद में एक बड़ा मंदिर बनाया तथा मवार में शांतिवापसी के मंदिर की प्रतिष्ठा वाई । भापके हाथों से अपनी कुलदेवी की प्रतिमा नदी में गिर गई। तभी से इस परिवार वाले कुलदेवी के बदले पीपल की पूजा करते हैं। आगे जाकर इस परिवार में पुरडिया भीमलजी बड़े ही नामांकित व्यक्ति हुए । आपके अम्बावजी, चम्पालालजी, ज्ञानचन्दजी, फतेलाची, प्यारचन्दजी तथा अर्जुनलालालजी नामक छः पुत्र हुए। भाप सब भाइयों के परिवार इस समव उदयपुर में निवास कर रहे हैं।
मुरड़िया अम्बावजी-आपका सं० १८९५ में अन्न हुमा । आप प्रारंभ में उदयपुर राज्य के मसिस्टंट स्टेट इंजीनीवर स्था संवत् १९१५ में स्टेट इंजीपीवर के पद पर नियुक्त किये गये आपके द्वारा बड़े काम किये गये है। उदयपुर के सुप्रसिद और मयंत ही मनमाम्यूनिवास महल, जगनविकास तथा नाहर मनरे में शम्भूप्रमान तथा शम्भूविलास नामक महल बाप ही की निगरानी में बसपाये गये थे। इसी प्रकार सजनगढ़ और कई सड़कें भी आपके द्वारा बनवाई गई थीं। मापकी इन बहु मूल्य सेवामों से प्रसन होकर महाराणाने आपको सं० १९३१ में बलेया घोड़ा का सम्मान बख्शा। इसी तरह महाराणा शम्भूसिंहजी ने भी आपको रैव नामक गाँव व एक बाड़ी इनायत कर सम्मानित किया था। महाराणा सज्जनसिंहजी की भी भाप पर बड़ी कृपा थी। वे इनको अम्बाव राजा के नाम से सम्बोधित करते थे। महाराणा फतेसिंहजी आपसे बड़े प्रसव रहे। भापका संवत् १९५१ में स्वर्गवास हुआ। आपका अग्निसंस्कार महासतियों में हुआ। तथा वहीं पर आपकी स्त्री भी बनी हुई है। आपके कोई पुत्र न होने से आपके नामपर आपके छोटे भाई ज्ञानजी के मेटे पुत्र हीरालालजी दत्तक माये ।
___मुरड़िया हीराखालजी-आपका सं.१९३० में जन्म हुवा था । भाप ने भी पी० सम्ल्यू. डी० में सर्विस की। आपके द्वारा कुम्भलाद के महल, चित्तौड़गढ़ का फतह प्रकाश महरू, उदयपुर का मिष्टहॉल (दरबार हॉस) आदि कई सुन्दर भवन बनवाये गये। जिनमें लाखों रुपये खर्च हुए। इसके अतिरिक्त भारत प्रसिद रमणीय "सहेलियों की बाड़ी" नामक प्रसिद्ध बगीचा मी मापकी निगरानी में बना था। इसी प्रकार स्टेट की कई जीनिंग फेक्टरियों, तालाब वगैरह मापके द्वारा निर्मित करवाये गये । आपकी
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इन सेवाओं से महाराणाजी बड़े प्रसन्न हुए। आपको सं १९८९ में बैठक का सम्मान प्राप्त हुआ। आपके बसंतीलालजी एवं सुन्दरलालजी नामक दो पुत्र हैं।
बसन्तीलालजी मुरड़िया - आपका सं० १९५२ में जन्म हुआ। आप बड़ी तीक्ष्ण बुद्धि के सज्जन हैं। आप देहरादून फारेस्ट कालेज की परीक्षा में सारी युनिवर्सिटी में प्रथम नम्बर से पास हुए थे इसके उपलक्ष्य में आपको मेडल्स भी मिले थे । वर्तमान में आप मेवाड़ स्टेट के कन्सरवेटर के पद पर काम कर रहे हैं। आपके मनोहरसिंहजी, सुगनसिंहजी, मोतीसिंहजी तथा वीरसिंहजी नामक चार पुत्र हैं। इनमें से मनोहर सिंहजी बी० एस० सी० आनर्स की परीक्षा में उत्तीर्ण हो चुके हैं।
सुन्दरलालजी - आपका जन्म संवत् १९६० में हुआ। आपने एफ० एस० सी० तक पढ़ाई कर बनारस युनिवर्सिटी से सिवल इंजिनिरिंग पास की। इस समय आप उदयपुर स्टेट के नवीन रेलवे डि० में असिस्टेट इंजीनियर हैं ।
चम्पालालजी मुरडिया - आप मुरडिया श्रीलालजी के पुत्र तथा भम्बावजी के छोटे भ्राता थे । आपका सं० १८९८ में जन्म हुआ था। आप बड़े व्यवस्थापक, दूरदर्शी तथा साहसी व्यक्ति थे । आपने आरज्या ठिकाने की व्यवस्था बड़ी योग्यता से की। आप बड़े प्रसन्न चित्त तथा उदार हृदय के सज्जन थे । आपका सम्वत् १९६४ में स्वर्गवास हुआ। आपके नाम पर आपके छोटे भ्राता प्यारचंदजी के पुत्र मालूमसिंहजी गोद आये ।
ज्ञानमलजी मुरडिया - आप मुरडिया श्रीलालजी के तीसरे पुत्र थे । आपके हमीरसिंहजी एवं हीरालालजी नामक दो पुत्र हुए। इनमें हीरालालजी अम्बाबजी के नाम पर दत्तक चले गये हैं ।
हमीर सिंहजी मुरडिया - आपका सम्वत् १९२५ में जन्म हुआ था । आप बड़े हो सज्जन थे, जाति सुधार के कामों में आप बड़ी दिलचस्पी से भाग लेते हैं । आपने मेवाड़ के ४४ गाँव के पंचों की सम्मति से जाति सुधार के नियम भी बनवाये थे। आप बड़े विवेकशील तथा दूरदर्शी सज्जन थे । अभी कुछ माह पूर्व आपका स्वर्गवास हुआ। आपके मदनसिंहजी एवं रणजीतसिंहजी नामक दो पुत्र हुए।
मदनसिंहजी मुरडिया - आपका सन् १८९१ में जन्म हुआ । आपने मेट्रिक्यूलेशन पास कर गवर्नमेंट के खर्चे से सन् १९१४ में मुरादाबाद पोलिस ट्रेनिंग में शिक्षा प्राप्त की । तदनंतर आपने अजमेर मेरवाड़ा तथा गवर्नमेंट रेलवे पोलिस में करीब १६ वर्ष तक सब इन्सपेक्टर के पद पर काम किया और यहाँ से पेंशन मिलने पर उदयपुर के महाराणाजी ने आपको मेवाद में सुपरिन्टेन्डेन्ट पोलिस के पद पर नियुक्त कर सम्मानित किया । वर्तमान में आप भीलवाड़ा डिवीज़न के पोलिस सुपरिन्टेन्डेण्ट हैं। आप बड़े
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श्रीसेठ रोशनलालजी चतुर, उदयपुर.
श्री हमीरसिंहजी मुरड़िया, उदयपुर.
श्री रणजीतसिंहजी मुरड़िया बी. ए. एल. एल. बी., उदयपुर.
श्री जोधसिंहजी मेहता बी. ए. एल. एल. बी., उदयपुर.
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मुरड़िय
ही कार्य कुशल, योग्य व्यवस्थापक तथा पोलिसे के कार्यों में निपुण हैं। इस लाइन में आपका अनुभव काफी बढ़ा चढ़ा है। आपके रतनसिंहजी तथा मोहनसिंहजी नामक दो पुत्र हैं।
रतनसिंहजी मुरड़िया - - आपका सन् १९११ में जन्म हुआ। आप बड़े उत्साही तथा मिलनसार सज्जन हैं । आप एफ० एस० सी० की परीक्षा पास कर इस समय एग्रीकल्चर कॉलेज पूना में विद्याध्ययन कर रहे हैं। आपके भगवतसिंहजी नामक एक पुत्र हैं। मोहनसिंहजी सुरड़िया का जन्म सन् १९१५ में हुआ। आप बड़े तीक्ष्ण बुद्धि के युवक हैं। आपने आगरा युनीवर्सिटी से प्रथम दर्जे में F. Sc. की परीक्षा पास की तथा इस समय अंछाहाबाद युनिवर्सिटी में B. Sc. की परीक्षा में बैठे हैं। आप बड़े मिलनसार तथा उत्साही नवयुवक हैं।
आप बड़े योग्य, शिक्षित,
की परीक्षा पास की। श्रेणी में उत्तीर्ण हुए । डी० जी के आफिस में जुडिशियल का काम करते रहे । तथा प्रबन्ध चातुरी से प्रसन्न होकर आपको उदयपुर
रणजीत सिंहजी मुरड़िया - आपका सन् १८९६ में जन्म हुआ । गम्भीर तथा शांत प्रकृति के सज्जन हैं। आपने आगरा युनिवर्सिटी से बी० ए० तदनन्तर आप एल० एल० बी० की परीक्षा में अहमदाबाद युनिवर्सिटी की प्रथम इसके पश्चात् आप दो वर्ष तक आबू के पु० मेवाड़ के उच्च अधिकारियों ने आपकी कार्य-कु सिटी मजिस्ट्रेट के पद पर नियुक्त कर सम्मानित किया इसके बाद आप क्रमशः वागोर, खमनोर, राजनगर, आसिन्द आदि २ जिलों के हाकिम रह चुके हैं। वर्तमान में आप लसाड़िया जिले के हाकिम हैं । आप बड़े लोकप्रिय तथा अनुभवी सज्जन हैं। प्रजा व सरकार दोनों ही आपके कामों से बड़ी प्रसन्न रहती हैं । उदयपुर की ओसवाल समाज में आपकी अच्छी प्रतिष्ठा है। आपके बाबु जसवन्तसिंहजी, प्रतापसिंह जी तथा महेन्द्रसिंहजी नामक तीन पुत्र हैं। इनमें जसवन्तसिंहजी बड़े तीक्ष्ण वृद्धि वाले, सुशील तथा
।
होनहार बालक हैं । आपको चित्रकारी का
शौक है। आप इस समय विद्याभवन में छठी क्लास
में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।
फतहलालजी मुरड़िया - आप श्रीलालजी के चौथे पुत्र थे। आपका जन्म संवत् १९०५ में हुआ । आप बुद्धिमान एवं साहसी पुरुष थे । आपका संवत् १९५९ में स्वर्गवास हुआ। आपके छत्रसिंहजी नामक एक पुत्र हैं। छत्रसिंहजी मुरड़िया का जन्म संवत् १९५९ में हुआ। आप बड़े मिलनसार सज्जन हैं। आप वर्तमान में केलवा जागीरदार के यहां नामे खीगे की अफसरी का कार्य करते हैं । आप हिसाब के कामों में बड़े निपुण हैं। आपके सुजानसिंहजी, दलपतसिंहजी, जोधसिंहजी तथा धनसिंहजी नामक चार पुत्र हैं।
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श्री प्यारचंदजी मुरड़िया- भाप भीकमकजी के पांचवे पुत्र थे। आपका जन्म संवत् १९१ में हुभा। आप बड़े विचारशीक तथा सहिष्णु प्रकृति के सज्जन थे। आप इंजिनीयरिंग डि० में सर्विस करते थे। आपकी निगरानी में कई भव्य इमारतें, तालाब, सड़कें वगैरह बनीं। आपकी इन सेवाभों से प्रसन्न होकर महाराणाजी ने, आपको ऋषभदेवजी तीर्थ के प्रबन्ध के सुपरिन्टेन्डेन्ट पद पर नियुक्त कर सम्मानित किया था। इसके पश्चात् आपने कई पदों पर काम किया। आप बड़े मिलनसार तथा जैन धर्म के जानकार थे। आप बड़े धार्मिक पुरुष थे। आपका संवत् १९८१ में स्वर्गवास हुआ। भापके चार पुत्र हुए जिनमें से श्री मालूमसिंहजी विद्यमान हैं । शेष सब भापकी विद्यमानता में ही स्वर्गवासी हो गये थे।
मुरड़िया मालूमसिंहजी-आपका जन्म संवत् १९४६ में हुआ। आपने एफ० ए० तक शिक्षा प्राप्त की। तदनन्तर आप स्टेट की ओर से बीजोल्या के प्रथम श्रेणी के उमराव राव सवाई केशरीसिंहजी की नावालिगी के समय गार्डियन नियुक्त हुए। इसके पश्चात् आप भदेसर ठिकाने के प्रधान कार्यकर्ता नया बानसी ठिकाने के जुडिशियल व रेग्यू के व्यवस्थापक पद पर नियुक्त हुए। तदनन्तर माप इसी ठिकाने की बागडोर सम्हालने के जवाबदारी पूर्ण कामको करते रहे । आप बड़े योग्य व्यवस्थापक तथा मिलनसार सजन है। भापके संग्रामसिंहजी तथा भीमसिंहजी नामक दो पुत्र हैं । आप दोनों बन्धु पढ़ते हैं।
अर्जुनलालजी मुरड़िया-आप श्रीलालजी के छटे पुत्र थे। आपका जन्म संवत १९१७ में हुभा। आप सरल प्रकृति के धार्मिक पुरुष थे। आपका संवत् १९०१ में स्वर्गवास होगया। आपके बलवन्तसिंहजी एवम् रोशनलालजी नामक दो पुत्र हैं। बलवन्तसिंहजी ने मेट्रिक तक पढ़ कर सब इन्स्पेक्टर के मोहदे पर काम किया। वर्तमान में माप फारेस्ट में रेज अफसर हैं। रोशनलालना का जन्म संवत् १९५६ मे हुना। मापने भी मेट्रिक पास कर एल. सी० पी० एस० नामक मेडिकल डिग्री को प्राप्त किया है। इस समय भाप नीमच में सर्विस करते हैं। आपके जतनसिंहजी, लक्ष्मीकाक बी, चिमनसिंहजी तथा भंवरलाळजी नामक चार पुत्र हैं।
मुरड़िया शोभालालजी वकील का खानदान, उदयपुर
इस खानदान के सज्जन उदयपुर में निवास करते हैं। इस परिवार में मुरदिवा कोषालाजी एवं जवाहरचन्दजी दोनों भ्राता हुए।
मुरड़िया शोमाचन्दजी पवम् जवाहरचन्दजी-मुरविण सोमाचन्दजी बने प्रसिद्ध वकील है। आप इस समय उदयपुर में वकालान करते हैं। अखिल मारवाद पताम्बर जैन धर्मानुयायियों के आप
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शिशोदिया
आनरेरी वकील हैं । आपके कुँवर हमीरमलजी मुरड़िया नामक पुत्र हैं। सुरड़िया जवाहर चन्दजी भी बड़े नामी वकील हो गये हैं ।
कुँवर हमीरमलजी मुरड़िया - आप इस समय एल० एल० बी० में इन्दौर में पढ़ रहे हैं। आप बढ़े तीक्ष्ण बुद्धि वाले, उत्साही तथा मिलनसार सज्जन हैं। जातीय सुधार सम्बन्धी कामों में तथा सार्वजनिक कार्यों में आप बड़ी लगन और उत्साह के साथ भाग लेते हैं। आपको कई बड़े २ महानुभावों की ओर से अच्छे २ सार्टिफिकेट प्राप्त हुए हैं। भोसवाल समाज को आप सरीखे होनहार नवयुवकों से बहुत भाता है।
शिशोदिया
शिशोदिया गौत्र की उत्पत्ति
मेवाड़ के शिशोदिया वंशीय महाराणा कर्णसिंहजी के पुत्र श्रवणजी से इस गौत्र की उत्पचि हुई है। श्रवणजी मे तेरहवीं शताब्दी में यति भी यशोभद्रसूरिजी (शांतिसूरिजी से जैन धर्म की दीक्ष्म ग्रहण कर श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किये। तभी से आपके वंशज जैन मतानुयायी हुए तथा शिशोदिया गौत्र के नाम से प्रसिद्ध हुए ।
शिशोदिया खानदान, उदयपुर
शिशोदिया वंश के आदि पुरुष श्रवणजी के वंश में आगे जाकर डूंगरसीजी बड़े नामी व्यक्ति हो गये हैं । आप महाराणा लाखाजी के कोठार के काम पर नियुक्त थे । आपकी सेवाओं से प्रसन्न होकर महाराणाजी ने आपको सिरोपाव तथा सुरपुर नामक गाँव जागीर में प्रदान कर सम्मानित किया था। इस समय भी पुर के पास सरूप्रियों के महल के खंडहर विद्यमान हैं। आप लोग सुरपुर के जागीरदार होने की वजह से सरूप्रिया नाम से मशहूर हुए। ड्रॅगरसीजी ने आदिश्वर का एक मंदिर बनाया जो इस समय इन्दौर स्टेट में रामपुरा नगर के पास है। आपकी कई पीढ़ियों बाद इस वंश में घरसिंहजी नामक व्यक्ति हुए । इनके रंगाजी तेजाजी तथा मियाजी नामक तीन पुत्र हुए। .
शिशोदिया तेजाजी का खानदान उदयपुर में व रंगाजी का बेगू में निवास करता है। तेजाजी की चौथी पीढ़ी में वीरवर सिंघवी दबालदासजी नामक एक अत्यन्त ही नामांकित व्यक्ति हुए ।
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प्रोसवाल जाति का इतिहास
संघवी दयालदासजी का घराना संघवी दयालदासजी-आप बड़े ही वीर तथा पराक्रमी सजन थे। आप तथा आपके पूर्वज मारवाड़ में रहते थे। तदनंतर आपके साहस तथा वीरता से प्रसन्न होकर उदयपुर के तत्कालीन महाराणा ने भापको उदयपुर बुला लिया । तभी से आपके वंशज उदयपुर में निवास कर रहे हैं। संघवी दयालदासजी ने उदयपुर में आकर अपने साहस, वीरता तथा व्यवस्थापिका शक्ति का परिचय देना प्रारम्भ किया। भापके इन गुणों को देखकर उदयपुर के महाराणा ने आपको प्रधानगी के उस पद पर विभूषित किया जिसे आपने बहुत योग्यत्ता से सम्पादित किया । आपका पूर्ण परिचय हम इस ग्रन्थ के राजनैतिक और सैनिक महत्व' बामक अध्याय के उदयपुर विभाग में दे चुके हैं। भापके सांवलदासजी नामक एक पुत्र हुए । इसके बाद का इतिहास अब तक अप्राप्य है।
बेगूं का शिशोदिया खानदान हम ऊपर लिख आये है कि वरसिंहजी के ज्येष्ठ पुत्र रंगाजी का परिवार बेगूं में निवास करता है। इस खानदान में भी बहुत बड़े र व्यक्ति हो गये हैं। शिशोदिया रंगाजी की पांचवीं पीढ़ी में प्रहलादजी नामक एक बड़े नामानित व्यक्ति हुए।
शिशोदिया प्रहलादजी-आप बड़े वीर, साहसी तथा प्रभावशाली सज्जन थे। आपने अपने नाम से प्रहलादपुरा नामक एक गाँव भी बसाया था जो आज दौलतपुरा के नाम से मशहूर है। इस गाँव में आज भी आपकी छतरी बनी हुई है। आपने राज्य की बहुत सेवाएँ की जिनसे प्रसन्न होकर तस्कालीन महाराणाजी ने आपको संवत् 1०७२ में एक कुआ, ३५ बीघा जमीन, बाग के वास्ते ४ बीघा जमीन, “नगर सेठ" की इज्जत आदि सम्मानों से सम्मानित किया। आपके वंशजों के पास इसका असली पट्टा तथा यह जागीर आज भी विद्यमान है तथा स्टेट में आज भी आप लोगों का वैसा ही सम्मान चला आता है। प्रहलादजी के वख्तसिंहजी नामक एक पुत्र हुए।
शिशोदिया बल्तसिंहजी-ऐसा कहा जाता है कि आपने अपने चाचा अर्जुनसिंहजी के साथ इन्दौर नरेश वीर मरहठा सरदार मल्हारराव होलकर की खूब सेवाएँ की जिनके उपलक्ष्य में आपको रामपुरा भानपुरा जिले में जागीरी तथा अन्य कई सम्मान इनायत किये गये थे। इसका एक रुक्का आपके वंशजों के पास मौजूद है । आपके महलों के खण्डहर आज भी रामपुरा में शिशोदिया के खण्डहर के नाम से मशहूर है। आपके पश्चात् आपके पौत्र शिवलालजी भी बड़े प्रसिद्ध सजन हुए हैं।
शिशोदिया शिवलालजी-आप बड़े पोग्य तथा वीर पुरुष थे। आपको बन्दी रियासत की ओर
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ओसवाल जाति का इतिहास
(मेहता रुवलालजी यादीवाले, उदयपुर.
- मेहता हिम्मतसिंहजी सरूप्रिया हाकिम, नाथद्वारा.
कुंवर रोशनलालजी मेहता बी. ए., उदयपुर,
कुंवर हमीरमलजी मुरड़िया बी. ए. एल एल. बी., उदयपुर.
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शिशोदिया
से वहाँ के बागी मीनों को दबाने के उपलक्ष में दो गाँव जागीर में बड़े गये थे जिसको सनद भी आपके वंशजों के पास है। इसके अतिरिक्त बेगू ठिकाने ने आपकी कारगुजारी से प्रसन्न होकर आपको परतापपुरा नामक गाँव इनायत किया था। आपके किशोरसिंहजी, द्वारकादासजी तथा गोकुलचन्दजी नामक तीन पुत्र हुए । इनमें किशोरसिंहजी मवलजी के नाम पर दत्तक आये। किशोरसिंहजी के जलालजी, गिरधारीसिंहजी तथा गोविन्दसिंहजी नाम के पुत्र हुए । ब्रजलालजी की धर्मपत्नी अपने पति के साथ सती हुई। गिरधारीसिंहजी के पुत्र तख्तसिंहजी के मनोहरसिंहजी, रघुवरसिंहजी तथा खुनाथसिंहजी नामक पुत्र हैं। इसी प्रकार गोविन्दसिंहजी के यशवंतसिंहजी तथा इनके खरीसिंहजी एवं गोवर्द्धनसिंहजी नामक पुत्र हैं । आप लोग इस समय सर्विस करते हैं। इसी प्रकार इस बानदान में शिशोदिया नथमलजी तथा हरिसिंहजी विद्यमान हैं। आप लोगों ने मेवाड़ राज्य में बहुत काम किये हैं तथा कई ओहदों पर भी रहे हैं।
शिशोदिया साहबलालजी का खानदान, उदयपुर इस खानदान के प्रसिद्ध पुरुष डूंगरसीजी का वर्णन हम पिछले पृष्ठों में कर चुके हैं। आपके परिवार में एकलिंगदासजी बड़े नामी व्यक्ति हुए । मापने कई सार्वजनिक काम किये हैं। आपके द्वारा बनी हुई तितरड़ी के पासकी डाकन कोटना की सराय, तोरनवाली बावड़ी तथा उदयपुर में सरूपियों के घर के सामने का मन्दिर आज भी आपकी अमर कीर्ति के घोतक हैं। आपके सात पुत्र हुए। इनमें यह खानदान साहबलालजी से सम्बन्ध रखता है । साहबलालजी के पचालालजी, रतनलालजी तथा गणेशलालजी नामक तीन पुत्र हुए।
वर्तमान में पन्नालालजी के पुत्र करणसिंहजी महकमा खास में तथा अर्जुनलालजी स्टेट हॉस्पिटल में डाक्टर हैं । रतनलालजी महकमा माल में मुलाजिम हैं। आपके पुत्र अमरसिंहजी महकमा बन्दोवस्त में सर्विस करते हैं तथा आपके पुत्र जवानसिंहजी ने साधु धर्म की दीक्षा ग्रहण करली है।
गणेशलालजी उदयपुर में सराफी का कारबार करते हैं । आपके तेजसिंहजी, नजरसिंहजी, चांदसिंहजी तथा हिम्मतसिंहजी नामक चार पुत्र हैं । इनमें तेजसिंहजी अपने न्यापार में भाग लेते हैं तथा नजर. सिंहजी धनेरिया के नायब हाकिम (देवस्थान ) तथा चांदसिंहजी इरिगेशन डि. में ओवरसिपर हैं। हिम्मतसिंहजी का शिक्षण एम० एस० सी० एल० एल० बी० तक हुआ है। आप बड़े तीक्ष्ण बुद्धि पाले मेधावी सज्जन हैं। वर्तमान में आप नाथद्वारा में हाकिम तथा सिटी मजिस्ट्रेट के पद पर कार्य कर रहे हैं। आप बड़े ऊँचे विचारों के समाज सुधारक तथा मिलनसार सज्जन हैं। आप सुशिक्षित तथा बुद्धिमान महानुभाव हैं।
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बोसवाल जाति का इतिहास
स्थाहाकाकाय्य सदा AT ST TO
त
ब्योढ़ी वाले मेहता का खानदान, उदयपुर इस खानदान के स्थापक श्रावणजी के तृतीय पुत्र सरीपतजी से यह खानदान प्रारम्भ होता है। ऐसा कहते हैं कि आपको महाराणा की ओर से सातगाँव जागीरी में देकर जनानी ज्योढ़ी का काम सौंपा गया था। इस से आप लोग ड्योढ़ी वाले मेहता के नाम से मशहूर हुए तथा आज तक आपके वंशजों को
द है। सरीपतजी को महाराणाजी ने मेहता की पदवी प्रदान की। तब से आपके वंशज मेहता कहलाते हैं। आपकी तीसरी पीढ़ी में हरिसिंहजी तथा चतुर्भुजजी नामक नामांकित व्यक्ति हो गये हैं। आपको पांच गांव के पट्टे मिले थे जिन्हें आपने बसाया। आगे जाकर आपके वंशजोंमें मेहता मेघराजजी को छोड़कर आपका सारा कुटुम्ब साके के समय वीरता से लड़ता हुआ मारा गया। मेघराजजी महाराणा उदयसिंहजी के बड़े विश्वास पात्र थे। आप जनानी ज्योढ़ी तथा भण्डार का काम करते रहे। उदयपुर में आपने श्री शान्तिनाथजी का मन्दिर बनवाया । इसके अतिरिक्त आपने एक टीबा बनाया जो आप भी मेहतों का टीबा के नाम से मशहूर है। इसी खानदान मे मेहता पूरनमलजी, चन्दरभानजी तथा लखमीचंदजी नामक तीनों भाई बड़े नामी हो गये हैं। आप लोगों ने उदयपुर में लक्ष्मीनारायणजी का मन्दिर बनवाया।
- मेहता जबरचन्दजी-मेहता पूरनमलजी की दो तीन पीढ़ियों के बाद आप बड़े कारगुजार व्यक्ति हुए। आपको महाराणाजी ने इज्जत आवरू के साथ जनानी ड्योढ़ो का काम इनायत किया । इसमें मापने बड़ी योग्यता से सब काम संभाला जिससे प्रसन्न होकर महाराणाजी ने आपको छडगा का खेड़ा नामक गांव जागीर में बक्षा। इसके अतिरिक्त बलेणा घोड़ा, बैठक सभा, नामा पावण, पाटवी बरोबर कुरुब के सम्मानों से सम्मानित किया। आपके स्वर्गवासी होने पर आपकी धर्मपत्नी आपके साथ सती हुई।
... मेहता देवीचन्दजी और प्यारचंदजी-मेहता जवरचन्दजी के पश्चात् आप दोनों भ्राता मशहूर व्यक्ति हो गये हैं। आपकी सेवाओं के उपलक्ष में महाराणा शम्भुसिंहजी ने बलेणा घोड़ा, भीमशाही तुर्रा, तथा रुपेरी पवित्रा इनायत कर सम्मानित किया। इतना ही नहीं आपको ढावटा नामक गाँव भी जागीर में बक्षा गया था। महाराणा फतेसिंहजी ने भी आपको सोने का लंगर तथा हीरे की कण्ठी देकर सम्माकिया था। आपके बड़े भाई मेहता देवीचन्दजी को जिंकारा सोने का लंगर, हीरे की कण्ठी भादि का सम्मान भी इनायत किया गया था। मेहता प्यारचन्दजी ने अपने नाम पर अपने भाई मेहता देवीचन्द जी के मझले पुत्र मेहता पन्नालालजी को दत्तक लिया।
मेहता पन्नालालजी-आपने संवत् १९५२ से संवत् १९६७ तक जनानी ब्योदी का काम बड़ी योग्यता के साथ किया । आप उदयपुर राज्य में एक प्रतिष्ठित पुरुष समझे जाते हैं। आपको दरबार
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ज्योढ़ी वाले मेहता
की ओर से कई सम्मान प्राप्त है। आपके मेहता रुषलली तथा मन्दलालजी नामक दो पुत्र हुए। मेहता रुघलालजी ने भी अपने पिताजी के बाद नौ साल तक जनानी ब्योदी का काम किया । आप भी बड़े योग्य और समझदार व्यक्ति हैं। आपको उदयपुर राज्य की तरफ से बैठक, सुनहरी पवित्रा व सवारी में घोड़ा आगे रखने का सम्मान भी प्राप्त है। इसी प्रकार आपके पिताजी मेहता पत्रालालजी को भी यही सब सम्मान बक्षे गये हैं। मेहता रुपलालजी के रोशनलालजी, तेजसिंहजी, छगनमलजी, रणजीतलालजी तथा उदयलालजी नामक पांच पुत्र हैं। मेहता रोशनलालजी के समरथमलजी नामक एक पुत्र हैं। मेहता नन्दलालजी के लक्ष्मीलालजी नामक एक पुत्र है।
मेहता देवीचंदजी का परिवार-आपके मेहता इन्दरचन्दजी, मगनचन्दजी तथा पन्नालालजी नामक तीन पुत्र हुए। इनमें मेहता पचालालजी मेहता प्यारचन्दजी के नाम पर गोद चले गये। मेहता इन्दरचन्दजी के गिरधारीसिंहजी एवम् गोविंदसिंहजी नामक दो पुत्र हुए। इन में से मेहता गोविन्दसिंह जी अपने काका मगवचन्दजी के बाम पर दत्तक गये।
___ मेहता गिरधारीसिंहजी-बाप बड़े योग्य तथा समझवार सज्जन हैं। आपके कार्यों से प्रसन्न होकर महाराणा भोपालसिंहजी ने आपको दरीखाने को बैठक, नाव की बैठक, बलेणा घोड़ा व सोने की पवित्रा बक्ष कर सम्मानित किया है। उदयपुर में आपकी अच्छी प्रतिष्ठा है। इस समय आप जनानी व्योदी का काम काज देखते हैं। आपके बिहारीलालजी, दुरजनमलजी, कनकमलजी, छगनमलजी, मोठालालजी तथा फतेहलालजी नामक छः पुत्र हैं।
कुंवर विहारीलालजी-आप B.A. L. LB. तक पढ़े हुए हैं। मेवाड़ में आप एक ऐसे सज्जन हैं जो बी० ए० में सर्व प्रथम उत्तीर्ण हुए थे। मापने अपने पुश्तहापुरत के जनानी ड्योदी के काम को छोड़ कर डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेटी का काम किया। इस समय आप सिटी मजिस्ट्रेट के पद पर काम कर रहे हैं। आपके संतोखचन्दजी नामक पुत्र हैं। जिस समय मैं• संतोखचन्दजी का जन्म हुआ था उस समय बड़ा उत्सव किया गया था और आपके पददादा इन्दरसिंहजी सोने की निसची पर चढ़े थे । पुं० विहारीलालजी को भी राज्य की ओर से दरबार में बैठक, नाव की बैठक, सोने का पवित्रा तथा सवारी में आगे घोड़ा रखने का सम्मान प्रासहै। कनकमलजी पोलिस में सुपरिन्टेन्डेन्ट की शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। मेहता गोविन्दसिंहजी के पुत्र हजारीलालजी इस समय एल. एल. बी. में
इसी प्रकार मेहता देवीचन्दजी के पिता जवरचंदजी और गणराजजी दोनों सगे भ्राता थे। इसमें जबरचंदनी के वंशजों का वर्णन हम ऊपर दे चुके हैं। मेहता गणराजजी के दीपचन्दजी नामक एक पुत्र
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श्रीसवाख जाति का इतिहास
हुए। मेहता दीपचन्दजी के लालचन्दजी, हरलालजी तथा शोभाचन्दजी नामक तीन पुत्र हुए। मेहता लालचंदजी ने भी जनानी क्योड़ी का काम किया ।
मेहता हरलालजी तथा शोभाचन्दजी का परिवार — मेहता हरलालजी के दौलत सिंहजी, मोतीसिंह जी, शेरसिंहजी तथा भकारसिंहजी नामक चार पुत्र हैं। मेहता शोभाचन्दजी के गणेशलालजी, मदनसिंह जी, वख्तावरसिंहजी तथा धनलालजी नामक चार पुत्र हैं। मदनसिंहजी, ने भी जनानी ड्योढ़ी का काम किया हैं । गणेशलालजी मेहता जुहारमलजी के यहां पर दत्तक चले गये हैं। आपके चुन्नीलाल जी तथा विजयसिंहजी नामक दो पुत्र हैं। इनमें से चुनीलालजी के भँवरलालजी नामक एक पुत्र हैं ।
ड्योढ़ावाले मेहता की उपशाखा, उदयपुर
इन
हम लोग ड्योढ़ी वाले मेहता के खानदान में मेहता मेघराजजी का वर्णन कर चुके हैं। मेहता मेघराजजी की चौथी पीढ़ी में मेहता अमरचन्दजी हुए। आपके जीवनदासजी, जयसिंहजी तथा विजयसिंहजी नामक तीन पुत्र हुए। इनमें से मेहता जीवनदासजी से बोदी वाले मेहता का खानदान चला तथा जयसिंहजी से ब्योढ़ी वाले मेहता की उपशाखा चली ।
मेहता अमरसिंहजी के पश्चात् क्रमशः धनरूपमलजी, गोकुलदासजी तथा रोड़जी हुए। मेहता रोड़जी के रूपजी, भोगीदासजी तथा श्रत्रभुजजी नामक तीन पुत्र हुए। इनमें भोगीदासजी के पुत्र मेहता मालदासजी बड़े नामांकित व्यक्ति हुए ।
मेहता मालदासजी - आप बड़े वीर, साहसी तथा योग्य सेनापति थे । आपने उदयपुर स्टेट की ओर से कई सेनाओं में भाग लेकर अपनी वीरता एवं रणकुशलता का परिचय दिया था। मेवाड़ पर जिस समय मरहठों ने आक्रमण किये थे, उस समय आपके सेनापतित्व में मेवाड़ की सेना ने जो युद्ध कौशल तथा साहस का प्रदर्शन किया था उसका वर्णन हम "राजनैतिक तथा सैनिक महत्व" नामक शीर्षक के उदयपुर विभाग में पूर्णरूप से कर चुके हैं।
मेहता रूपजी के लालजी तथा लालजी के हेमराजजी नामक पुत्र हुए। आप बड़े नामी व्यक्ति हो गए हैं। आपने जनानी ड्योढ़ी का काम बड़े अच्छे ढंग से किया जिससे प्रसन्न होकर महाराणा भीमसिंहजी ने आपको राजपुरा और साकरोदा गाँव के बदले भजण नामक गाँव इनायत किया । आपके पुत्र हेमराजजी के नाम पर मेहता चत्रभुजजी के प्रपौत्र मेणचन्दजी गोद लिये गये। मेहता नेणचन्दजी को महाराणा स्वरूपहिंजी बड़े आदर की दृष्टि से देखते थे। आपके वेणीलालजी तथा बेणीकालजी के पुत्र तख्तसिंहजी विद्यमान हैं । 196
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घण्डिया
मेहता तस्वससिंहजी वृद्ध तथा समालदा सजा है। आपके बोधसिंहजी एवं कन्हैयालालजी नामक दो पुत्र हैं। इनमें से कुंवर जोपसिंहजी बी. ए., एक० एक.बी० है तथा इस समय भाप मेवाड़ में नायब हाकिम हैं। कुंवर कनपालालबीरा में पा रहे हैं।
पण्डिया घण्डिया गौत्र की उत्पत्ति
ऐसा मामला है कि राठौड़ वंशीय राजपूत घुड़िया शाखा में राजा चन्द्रसेन ने कमीज नामक नगर में भहारक शांतिसूर्यकी से संवत् १५ में जैनधर्म की दीक्षा ग्रहण कर की। इससे उस समय घुड़िया से गुगलिया गौत्र की स्थापना हुई। इसके बाद राठौड़ वंशीय लोग मण्डोवर माये। इसी वंश के शाह कडोजी ने गर्लंड ग्राम में एक मन्दिर बनवाया। वहाँ से गरदिवा शाला की उत्पत्ति हुई।
शाह माधोसिंहजी घलूण्डिया का खानदान, उदयपुर
इसके बाद इस वंश के लोगों ने संवत् १८२५ में मंडोवर से आकर जाशेर तथा सांभर नामक स्थानों पर मन्दिर बनवाया। शाह कल्लोजी के वंश में सूरोजी बड़े मशहूर तथा मामांकि व्यक्ति हो गये हैं। भाप बड़े उदार चरित्र वाले तथा दानी सज्जन थे। कहते हैं कि मंडोर के प्रधान भंडारी समरोजी को मांडू के बादशाह ने पकड़ कर कैद कर लिया। उस समय उसे मारह लाख रुपया देकर सूरोजी ने खुदवाया । यहाँ आपने एक मन्दिर बनवाया स्था पर कियाइसमें बहुत-सा पास हुमा।
कोठारिया के मनोरजी सुराना और बाप दोनों मिल संवत् ११. में उदयपुर भाये । भाप एक पुत्र हुभा जिनकानाम श्रीवंतजी था । श्रीवंतजी के खमाजी, शिवानी, इसरजी, रतनाजी और ठाकुरसिंहजी मामक पाँच पुत्र उत्पन्न हुए।
सम्बत् १७४० में महाराणा श्री जयसिंहजी ने ठाकुरसिंहजी को गोसमाणो नामक गांव जागीर में दिया तथा सिरोपाव दिये। आपके उदयभानजी, कल्याणदासजी और बदभानजी नामक तीन पुत्र हुए ।
व भानजी ने लड़ाई में हादा को मारा जिससे प्रसन्न होकर महाराणा ने भापको सिरोपाव प्रदान किया। आपके पुत्र हंसराजबी तथा हंसराजजी पुत्र शिवकालजी हुए।
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प्रोसवाल जाति का इतिहास
शिवलालजी-भाप महाराणा भीमसिंहजी के प्रधान नियुक्त रहे । आप बड़े वीर तथा पराक्रमी व्यक्ति थे। आपकी सेवाओं के उपलक्ष्य में मेवाड़ के तत्कालीन महाराणा ने आपको तथा आपकी स्त्रियों को पैरों में सोना बक्षा था। इतना ही नहीं वरन् भापको रियासत से सात गाँव की जागीर देकर पूर्ण रूप से सम्मानित किया था। आपने स्वर्गवासी होने पर आपकी पत्नी आपके साथ सती हुई जिनकी छत्री आज भी महा सतियों में मौजूद है। आपके कोई पुत्र न था। अतएव आपने अपने नाम पर अपने दामाद गेगराजजी को गोद लिये । इसके पश्चात् इस खानदान में चतुरसिंहजी घटुंडिया दत्तक आये। भाप दरबार की चाकरी में रहे। आपको भी वही इज्जत हासिल थी जो पहले दीवान शिवलालजी को थी । भापका स्वर्गवास संवत् १९६८ में हो गया। आपके पुत्र शाह माधोसिंहजी घडिया है। वर्तमान में आप ही इस खानदान में प्रमुख हैं । आपको महाराणा साहब फतेसिंहजी ने टकसाल पर दरोगा नियुक्त किये थे । आपका जन्म संवत् १९४३ में हुमा । आपकी भी दरबार में वही इज्जत चली आती है। आपके मालमसिंहजी नामक एक पुत्र हैं जो इस समय विद्याभ्यास कर रहे हैं।
शाह हरिसिंहजी घलुण्डिया का खानदान, उदयपुर __इस खानदान के पूर्वजों का मूल निवासस्थान बेगूं (मेवाद) का है। आप लोग पहले बेगू की दीवानगिरी करते थे। तदनंतर शाह चम्पालालजी बेगूसे कोठारिया आये जहाँ पर आपको जागीरी आदि इनायत कर वहाँ के तत्कालीन ठाकुर ने सम्मानित किया । यह जागीरी आज भी आपके वंशजों के पास विद्यमान है । आप कोठारिया और बेगू दोनों की वकालात का काम करते थे । आपके गोपाललालजी नामक एक पुत्र हुए । आप भी उक्त ठिकानों के अतिरिक्त कई और ठिकानों के भी वकील रहे । आप वहाँ से उदयपुर चले आये । तभी से भापके वंशज उदयपुर में रहते हैं । आपके पुत्र शाह मोड़ीलालजी घलुण्डिया हुए भाप बेगूं के कार्यकर्ता थे तथा मापने उदयपुर राज्य में प्रथम श्रेणी के जिला हाकिमी के पद पर काम किया। भापके हरिसिंहजी, रुधनाथसिंहजी तथा हिम्मतसिंहजी नामक तीन पुत्र हैं।
____आप तीनों भाइयों का जन्म क्रमशः संवत् १९४७, ४९, तथा ६२ में हुआ। शाह हरिसिंहजी मेवाड़ के कई गांवों में हाकिमी के पद पर रहे तथा मापने भिण्डर ठिकाने की मैनेजरी भी बड़ी पोग्यता से की है । शाह रुधनाथसिंहजी बेगूं आदि ठिकानों की वकालात का सारा काम करते रहते हैं । आपके जगनाथसिंहजी नामक एक पुत्र विद्यमान हैं। शाह हिम्मतसिंहजी बड़े शिक्षित तथा समाज सुधारक हैं। भाप इस समय लखनऊ कालेज में एम० ए० एल. एल. बी० का अध्ययन कर रहे हैं। आप साथ ही साथ मिलिटरी की शिक्षा भी पा रहे हैं। आपके इस समय एक पुत्र विद्यमान है।
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जोसी
डोसी गौत्र की उत्पत्ति
ऐसा कहा जाता है कि संवत् १९७ में विक्रमपुर में सोनगरा राजपूत हरिसेन रहता था। आचार्य श्री जिनदचसूरिजी ने इसे जैकप्रतिसेच देकर ओसवाल जाति में मिलाया और डोसी गौत्र की स्थापना की।
मिक्खूजी डोसी का खानदान, उदयपुर : सामान में मिवजी प्रेसी बड़े प्रसिदए । मापने महाराणा राजसिंहजी (प्रथम) ग प्रयांका दिया। मापही की निगरानी में उदयपुर का मनहरू राजसमा नामक सावन काम जारी हुन एवम् पूर्ण हुआ। इस तालाब के बनवाने में १०५०७६०८) खर्च हुए। इस बाल बनाने पर महाराणा राजसिंहबी ने इसके उद्घाटनोत्सव के समय पर कई लोगों को कई तरह के इमाम व इज्जत प्रदान की थी। मेसी मिाखूजी को भी इस अवसर पर महाराणा ने एक हाथी और सिरोपाव प्रदान कर मनन सम्बार पानामा
महाराणा सासिंहजी पवे समय में राजनगर नामक स्थान पर विशेष रहते थे। कहना न होगा कि उनके प्रधान सी भिखोजी को भी नहीं रहना पड़ता था। मापने वहाँ एक सुन्दर मकान बनवाया था जो कि वर्तमान में भी डोसीजी के महल के नाम से मशहूर है। इसके अतिरिक्त आपने यहां एक सुन्दर सफेद पत्थर की बावड़ी और एक बाड़ी भी बनवाई थी। उक्त तीनों चीजें इस समय भी आपके खानदान वालों के कब्जे में हैं।
___उदयपुर में आपने वासपूज्य स्वामी का एक सुन्दर कांच का मन्दिर बनवाया । इसके अतिरिक्त ऋषभदेवजी के मन्दिर के पास में भी आपने एक उपाश्रय बनवाया था। जो वर्तमान में वासपज्यजी मन्दिर के ताल्लुक में मौजूद है। लिखने का मतलब यह किमाने समय में बहुत से अच्छे अच्छे काम किये। तथा महाराणा साहब भी आप पर बहुत प्रसव रहे।
मापके कुछ पीढ़ियों पश्चात् क्रमशः रायचन्दजी, धनराजजी, रामलालजी, चन्दनमसजी और अम्बालालजी हुए।
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मोसवाल जाति का इतिहास
अम्बालालजी-भापका जन्म संवत् १९५२ के ज्येष्ठ सुदी १३ को हुआ। आप यहां स्टेट में इन्जीनियरिंग डिपार्टमेण्ट में सन् १९१२ से ओवरसियरी का काम कर रहे हैं। आपके इस समय चार पुत्र हैं। पुत्रों के नाम मवरलालजी, उदयलालजी, मनोहरलालजी और जीवनसिंहजी हैं। इनमें से बड़े तीनों पुत्र विद्याध्ययन कर रहे हैं।
सेठ गम्भीरमल कनकमल डोसी, भोपाल ___ लगभग ७० । ७५ साल पूर्व मेड़ते से डोसी गंभीरमलजी भोपाल आये और यहाँ दुकान की। आपके सिरेमलजी तथा कनकमलजी नामक दो पुत्र हुए। डोसी कनकमलजी के पुत्र नथमलजी हुए तथा सिरेमलजी के नाम पर भेरूमलजी दत्तक लिये गये। कनकमलजी और सिरेमलजी का कारवार उनकी मौजूदगी में ही अलग अलग होगया था।
डोसी नथमलजी का जन्म संवत् १९३७ में हुआ था । आप भोपाल म्युनिसिपैलेटी के १२ सालों तक मेम्बर रहे, संवत् १९७५ में आपका शरीरान्त हुआ। आपके पुत्र डोशी राजमलजी का जन्म संवत् १९५४ के भादवा मास में हुआ।
डोसी राजमलजी ने मेट्रिक तक शिक्षा प्राप्त की है। तथा अपनी फर्म पर कई नये व्यापार खोले हैं। संवत् १९८६ से आपने राजमल केशरीमल के नाम से भेलसा में दुकान की। भोपाल में राजमल जवाहरमल के नाम से हार्डवेअर, इलेक्ट्रिक व मोहर गुड्स, जनरल मर्चेण्डाइज़ तथा गंभीरमल कनकमल के नाम से इम्पोर्ट ब्यापार होता है। डोशी राजमलजी की फर्म भोपाल के व्यापारिक समाज में प्रतिष्ठित समझी जाती है, आप यहां ६ । ७ सालों से ऑनरेरी मजिस्ट्रेट भी हैं।
दूगड़ गौत्र की उत्पत्ति
दूगड़ गौत्र की उत्पत्ति राजपूत चौहान वंश से है। यह राजवंश पहिले सिद्धमौर और फिर अजमेर के पास बीसलपुर नामक स्थान में राज्य करता था। सन् ८३८ में इस राजवंच में राजा माणिक देव हुए जिनके पिता राजा महिपाल ने जैनाचार्य श्री जिनवल्लभसूरिजी से जैनधर्म अंगीकार किया। आपके मशः दो तीन पीढ़ी बाद दूगद और सूगढ़ नामक दो भाई हुए इन्हीं के नाम से दूगड़ गौत्र चका ।
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श्री बुद्धसिंह प्रतापसिंह दूगड़ का खानदान, मुर्शिदाबाद
दूगड़ और सूगड़ के कई पीढ़ी बाद सुखजी सन् १९६२ ई० में राजगढ़ भाषे। आप बादशाह शाहजहाँ के यहाँ ५ हजार सेना पर अधिपति नियुक्त हुए और राजा की पदवी से विभूषित किये गये। भापके बाद १४ वीं शताब्दी में वीरदासजी हुए जो किशनगढ़ (राजपूताना) से बंगाल के मुर्शिदाबाद नगर में जाकर बस गये। तभी से इस खानदान के लोग यहाँ ही निवास करते हैं। आपने यहाँ बैंकिंग का न्या. वसाय आरम्भ किया । आपके पुत्र बुद्धसिंहजी हुए । बुद्धसिंहजी के पुत्र बहादुरसिंहजी एवम् प्रतापसिंहजी ने इस व्यवसाय को तरकी पर पहुंचाया। बहादुरसिंहजी निसन्तान स्वर्गबासी हुए।
राजा प्रतापसिंहजी दूगड़-आपने भागलपुर, पुर्णिया, रंगपुर, दिनाजपुर, माल्दा, मुर्शिदाबाद, कुचविहार आदि जिलों में जमीदारी की खरीदी की। आप बड़े नामांकित पुरुष हो गये हैं। आपकी धार्मिक मनोवृत्तियाँ भी बड़ी बढ़ी चढ़ी थी। आपने कई स्थानों पर जैन मन्दिरों का निर्माण कराया। सार्वजनिक कामों में आपने पकी र रकमें मेंट की तथा अपनी जाति के सैकड़ों व्यक्तियों के उत्थान में उदात्ती दिखाई। विष्ठी के बादशाह और बंगाल के नवाब ने खिल्लत बख्श कर आपका सम्मान किया था। बंगाल की जैन समाज में आप सबसे बड़े जमीदार थे। आपने पालीताना और सम्मेद शिखरजी की पात्रा के लिये एक बहुत बड़ा पैदल संघ निकाला था। इस प्रकार पूर्ण गौरवमय जीवन व्यतीत करते हुए सन् १८५० में आप स्वर्गवासी हुए। आप अपने पुत्र लक्ष्मीपतिसिंहजी और धनपतिसिंहजी का विभाग अपनी विद्यमानता में ही अलग कर गये थे।
__राय लक्ष्मीपतिसिंहजी बहादुर-आपने अपने जीवनकाल में अपनी विस्तृत जमीदारी में कितने ही स्कूल और अस्पताल स्थापित किये एवम् सार्वजनिक संस्थाओं में यथेच्छ सहायताये दी। जैन समाज में आपने भी बहुत बढ़ी कीर्ति पैदा की थी। आपने छत्रबाग (कठगोला) नामक एक दिव्य उपवन लाखों रुपयों की लागत से सन् १८७६ में बनाया जो मुर्शिदाबाद और बंगाल का दर्शनीय स्थान है इसमें एक सुन्दर जैन मन्दिर भी बना है। इन सार्वजनिक सेवाओं के उपलक्ष में सन् १८६० में आपको गवर्नमेंट ने 'राय बहादुर, की पदवी से अलंकृत किया । आपने भी सन् १८७० में एक संघ निकाला था । भाप बड़े समय के पावन्द तथा उदारचित्त महानुभाव थे । आपके छत्रपतसिंहजी नामक पुत्र हुए।
. छत्रपतसिंहजी-आप बहुत स्वतन्त्र विचारों के निर्भीक सज्जन थे। बलकले के जैन समाज में आपका खुब नाम था। वर्तमान में आपके पुत्र श्रीपतसिंहजी और जगपतसिंहजी विद्यमान हैं तथा अपनी जमीदारी का प्रबन्ध करते हैं। आप भी सरल स्वभाव के शिक्षित महानुभाव हैं। समाज में आप सजनों का भी अच्छा सम्मान है। जगपतसिंहजी के राजपतसिंहजी, कमलपतसिंहजी प्रतापसिंहजी और
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मोसवाल जाति का इतिहास
यदुपतसिंहजी नामक चार पुत्र हैं। इनमें राजपतसिंहजी बी० ए० की उच्च डिग्री से विभूषित हैं। श्रीपत सिंहजी ब्रिटिश इण्डिया ऐसोसिएशन, कलकत्ता क्लब आदि संस्थाओं के मेम्बर हैं। भापकी जमीदारी संथाल परगना, मुंगेर, भागलपुर, पुनिया, रंगपुर, दिनाजपुर आदि में है।
___ राय धनपतसिंहजी बहादुर-आप भी बड़े नामांकित पुरुष हो गये हैं। मापने जैन धर्म के मात्रकाशित बागम ग्रंथों को प्रचुर धन व्यय करके प्रकाशित करवा कर मुफ्त पँटवाया। इसके अतिरिक्त मापने अजीमगंज, बालूचर, नलहट्टी, भागलपुर, लक्खीसराय, गिरीडीह, बढ़ापुर, सम्मेद शिखर, लछवाद, कांकड़ी, राजगिरी, पावापुरीजी, गुमाया, चम्पापुरी, बनारस, बटेश्वर, नवराही, भावू, पालीताला, तकाजा, गिरनार, बम्बई तथा किशनगढ़ में मंदिर और धर्मशालाओं का निर्माण कराया। इन सब में विशेष उल्लेसनीय शत्रुजय तलहट्टी का मन्दिर है। इसी प्रकार आपने तीन चार संघ भी अपने समय में निकाले थे।
की सभी संस्थाओं में एवम सार्वजनिक चन्दों में भाप मुक्त हस्त में सहायताएँ प्रदान किया करते थे। आपकी इन सेवाओं के उपलक्ष में सन् १८६५ में गवर्नमेंट ने भापको 'राय बहादुरी का सम्मान प्रदान किया । आपके तीन पुत्र हुए जिनके नाम क्रम से राय गणपतसिंहजी बहादुर श्री नरपतसिंहजी एवम् तीसरे श्री महाराज बहादुरसिंहजी हैं। इन तीनों सज्जनों में से सन् १८८७ में आपने राय गणपतसिंहजी और नरपतसिंहजी को पृथक् किया।
राय गणपतसिंहजी बहादुर श्रापको सन् १८९८ में राय बहादुर की पदवी प्राप्त हुई। आपने अपनी स्टेट में बहुत तरक्की की । आपका विद्या दान की ओर भी काफ़ी लक्ष्य रहता था। कई विद्यार्थियों को मदद देकर आपने शिक्षित किया था । आप संतोषी तथा उच्च चरित्र वाले सजन थे । भापके पश्चात् आपकी सम्पत्ति के उत्तराधिकारी आपके छोटे भ्राता दरपतसिंहबी हुए । नरपतसिंहजी के तीन पुत्र हुए जिनके नाम अमः श्री सुरपतसिंहजी, महीपतसिंहजी एवम् भूपतसिंहजी हैं। भाप ही तीनों सजन वर्तमान में इस खानदान की जमीदारी के विस्तृत क्षेत्र का संचालन करते हैं।
- राय नरपतसिंहजी बहादुर, कैसरेहिन्द-आप और आपके भ्राता राय गणपतसिंहजी बहादुर ने मिलकर भागलपुर जिले में, हरावत नामक स्थान में अपनी जमीदारी स्थापित की और वहाँ के राजा के नाम से आप लोग प्रख्यात हुए । आपकी जमीदारी ४०० वर्गमील में फैली हुई है तथा १३०००० जनसंख्या से भरी पुरी है । आपने अपनी जमीदारी में स्कूल, अस्पताल सार्वजनिक संस्थाएँ बनवाई तथा उच्च शिक्षा का प्रबन्ध भी आपके द्वारा किया जाता है। वर्तमान में श्री सुरपतिसिंहजी के पुत्र नरेन्द्रपतसिंहजी तथा वीरेन्द्रपतसिंहजी और महीपतसिंहजी के योगेन्द्रपतसिंहजी, वारिन्द्रपतसिंहजी, कनकपतसिंहजी और कीर्तिपतसिंहजी नाम के पुत्र हैं। भूपतसिंहजी के राजेन्द्रपतसिंहजी नामक एक पुत्र हैं।
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मेजर जनरल रा० ब० विशनदासजी दूगड़, C.I.E., C.S.I. लाला अनंतरामजी बी. ए. एलएल. बी. एडवोकेट, जम्बू (काश्मीर).
लेट दीवान काश्मीर ( जम्बू)
स्व० लाला खानचंदजी दूगड़, रावलपिंडी.
लाला निहालचंदजी जैन (के. सी. निहालचंद) रावलपिंडी
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महाराज बहादुरसिंहजी-भापका जन्म सन् १८. में हुवा। माप अच्छे शिक्षित समलवार एवम् उदार हृदय के रईस हैं । आप अपने मंदिर, धर्मखान, स्कूल भादि की व्यवस्था बड़े ही योग्य बंस से करते हैं। सम्मेदशिखरजी, चम्पापुरीजी, भादि तीर्थों का प्रबन्ध भार जैन समाज की भोर से भापके जिम्मे है और उसमें आप बड़ी तत्परता से माग आते हैं। अपने पूर्वजों की कीर्ति को अशुभम बनाये रखने को मापके हृदय में बड़ी लगन है । भापके अमार बाजबहादुरसिंहजी एम. एल. सी०, श्रीपाल बहादुरसिंहजी, महिपाल बहादुरसिंहबी, भूपाल बादुरसिंहली तथा जगतपाल बहादुरसिंहजी नामक पुत्र हैं। श्री ताजबहादुरसिंहजी सुशिक्षिव एवम् विचारवान नवयुवक हैं। जून सन् १९२९ में आप बंगाल लेजिस्लेटिव कौंसिल के मेम्बर निर्वाचित हुए थे। आप लोगों की विस्तृत जमीदारी बंगाल तथा बिहार प्रान्त के मुर्शिदाबाद, वीरभूमि, हुपली, कईमान, रंगार, दिनाजपुर, पुर्णिया संथाल परमना, राजशाही, हजारीबाग, गया,
बिहार आदि जिलों में है। दिनाजपुर में प्राइवेट बैंकिंग का काम भी बापो यहाँ होता है। आपकी स्टेट बाळूछ स्टेट के नाम से प्रसिद्ध है। मेजर जनरल दीवान विशनदासजी रायबहादुर सी० एस० आई० सी० आई० ई०
__ का खानदान, जम्मू इस खानदान के लोग श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी सम्प्रदाय को मानने वाले सज्जन हैं। यह सानदार पहले बीकानेर में निवास करता था। वहाँ से सैकड़ों वर्ष पहले यह सरसा में और वहाँ से कसूर में भाकर बसा । कसूर से महाराजा रणजीतसिंहजी के समय में लाहौर में चला गया। लाहौर से मजीस (अमृतसर) में तथा वहाँ से गदर के समय में सियालकोट और फिर जम्मू आकर बस गया। सभी से इस खानदान के लोग जम्मू में निवास कर रहे हैं।
इस खानदान में लाला बुग्गामलजी हुए । इनकी सीसरी पुश्त में काका दामामलजी हुए। माप पंजाब केशरी श्री महाराजा रणजीतसिंहजी के अहलकारों में से थे । आपके पुत्र लाला किशनचंदजी का जन्म संवत् १८९१ में तथा स्वर्गवास संवत् १९७२ में हुआ । आपके दो पुत्र हुए। जिनके नाम श्री विशनदासजी राय बहादुर एवं दीवान अनंतरामजी हैं।
. राय बहादुर विशनदासजी का जन्म संवत् १९२१ में हुमा । आप उन लोगों में से हैं, जो अपनी मसिमा और बुद्धि के बल पर अपना गौरव व मान प्राप्त करते हैं। आपने अपने परिवार को व अपने समाज को अपनी बुद्धि के बल से खूब चमकाया। मापने सन १८८६ में काशमीर-स्टेटकी सर्विस में प्रवेश किया। गुरूर में भाप स्वर्गीय राजा रामसिंहजी के प्राइवेट सेक्रेटरी रहे । इसके बाद आप Military Secretary
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सवाल जाति का इतिहास
to the Commander-in-chief of Kashmir Army रहे। इसके पश्चात् आप काश्मीर स्टेट के होम मिनिस्टर (Home minister) और फिर इसी रियासत के रेव्हेन्यू मिनिस्टर ( Revenue minister) हुए तथा इसी प्रकार आप अपनी सेवाओं से बढ़ते २ काश्मीर स्टेट के चीफ मिनिस्टर हो गये । तदंनंतर आप रिटायर हो गये । आप वर्तमान में रिटायर लाइफ बिता रहे हैं।
विश्व व्यापी यूरोपियन युद्ध में आपकी सेवाएँ बहुत अधिक रहीं । आपने गवर्नमेंट की मदद के लिए बहुतसे रंगरूट और रुपया भेजा । जिसके उपलक्ष्य में ब्रिटिश गवर्नमेंट ने प्रसन्न होकर आपको कई उच्च उपाधियों से विभूषित किया। आपको गवर्नमेंट की ओर से सन् १९११ में 'राय बहादुर' का खिताब, सन १९१५ में "सी० आई० ई०” का सन्माननीय खिताब व सन् १९२० में "सी० एस० आई०" के टॉयटल प्राप्त हुए । इनके अतिरिक्त आपको और भी कई पर वाने तथा सार्टीफिकेट्स प्राप्त हुए ।
इसके अतिरिक्त आपकी धार्मिक व सामाजिक सेवाएँ भी बहुत महत्वपूर्ण एवं कीमती हैं। आप पंजाब प्रांत के "पंजाब स्थानकवासी कान्फ्रेंस" के सिवालकोट तथा लाहौर वाले अधिवेशनों के सभापति रहे हैं । जब ऑल इन्डिया स्थानकवासी कान्फ्रेंस का प्रथम अधिवेशन मोरवी में हुआ था तब आपको सभापति के लिये चुना था मगर कार्य्यवश आप वहाँ उपस्थित न हो सके । काशी के धर्म महा मण्डल ने भी आपको एक उपाधि देकर सम्मानित किया था । और भी कई स्थानों पर आपने प्रायः सभी सार्वजनिक एवं धार्मिक काय्यों में भाग लेकर बहुमूल्य सेवाएँ की हैं।
आपके छोटे भाई दीवान अनन्तरामजी पहले तो काश्मीर महाराजा के यहां पर प्राइवेट सेक्रेटरी रहे । तदनन्तर इस पद को छोड़ कर आप वहाँ पर वकालत करने लगे । आपने बी० ए० एल० एल० बी० तक शिक्षा प्राप्त की है। आप पुनः राजा अमरसिंहजी के प्राइवेट सेक्रेटरी हुए तथा फिर क्रमशः उनकी जागीर के चीफ जज, कमेटी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ इस्टेट के मेम्बर, चीफ जज्ज तथा लीगल रमेम्बरन्सर के पद पर काम करते रहे। वहाँ से रिटायर होकर वर्त्तमान में आप जम्मू हॉयकोर्ट के पब्लिक प्रॉसीक्यूटर हैं ।
रा० ब० दीवान विशनदासजी के चार पुत्र हैं लाला प्रभुदयालजी, चेतरामजी, चंदुलालजी एवं ईश्वरदासजी । लाला प्रभुदयालजी ने काश्मीर स्टेट में रेव्हेन्यू डिपार्टमेंट में नायब तहसीलदार से लेकर वजीर वजारत के भोहदे तक काम किया और वर्त्तमान में आप वहाँ से रिटायर होकर शांति लाभ करते हैं । लाला चेतरामजी भी फौज के मेजर रह चुके हैं। वहाँ से आप ने रिझाइन कर अपनी प्राइवेट प्रापर्टी की देख भाल करना प्रारम्भ कर दिया है । लाला चंदूलालजी काश्मीर स्टेट में इलेक्ट्रिक इन्जीनियर थे । वहाँ से पंजाब गवर्नमेंट ने आपको लॉयलपुर हॉइड्रो इलेक्ट्रिक इन्स्टीट्यूट में बुला लिया । वहाँ सर्विस
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प्रोसवात्न जाति का इतिहास
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स्व. सेठ सम्पतरामजी दूगड़, सरदारशहर.
धर्मशाला (चैनरूप सम्पतराम दूगड़) सरदारशहर.
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दूगड़ करके आप रिडक्शन में आ गये। लाला ईश्वरदासजी ने एफ० एस० सी० तक शिक्षा प्राप्त कर सालिमार वर्क्स के नाम से एक फर्म स्थापित की है। वर्तमान में भाप ही उस के सब काम काज को संभालते हैं।
दीवान अनन्तरामजी के पुन्न लाला शिवशरणजी इस समय काश्मीर में डिवीजनल फारेस्ट अफसर हैं तथा छोटे पुत्र देवराजजी मेडिकल कालेज में पढ़ रहे हैं।
यह परिवार सारे पंजाब प्रांत में बड़ा प्रतिष्ठित माना जाता है।
सेठ सम्पतरामजी दूगड़ का परिवार, सरदारशहर इस परिवार के सज्जन तेरापन्थी श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के मानने वाले हैं। इस परिवार के पूर्व पुरुष तोल्यासर (बीकानेर ) नामक स्थान के निवासी थे। मगर वहाँ से व्यापार के निमित्त सेठ फतेचन्दजी के पुत्र सेठ चैनरूपजी, सरदारशाह में आकर रहने लगे। तभी से आपके वंशज यहीं पर निवास करते हैं।
सेठ चैनरूपजी-इस परिवार में भाप बड़े प्रतिभा सम्पन्न और व्यापार चतुर महानुभाव हुए । मापने कलकत्ते में अपनी फर्म स्थापित कर उसके द्वारा लाखों रुपयों की सम्पत्ति उपार्जित की। जिस समय संवत् १९०५ में आप कलकत्ता गये उस समय आज कल की भांति सुगम मार्ग न था । अतएव बड़े कठिन परिश्रम एवम् अनेक दुःखों को उठाते हुए आप कलात्ता पहुंचे थे। आपकी प्रकृति बड़ी सीधी सादी एवम् मिलनसार थी। आपका स्वर्गवास संवत् १९५० के करीब हो गया। आपके सम्पतरामजी नामक एक पुत्र हुए।
सेठ सम्पतरामजी-अपका जम्म संवत् १९२३ में हुआ। बाल्यावस्था से ही आपकी रुचि धार्मिकता की ओर रही। आपभी अपने पिताजी की तरह सरल प्रकृति के सज्जन थे। आपके समय कलकत्ता फर्म पर विलायत से डायरेक्ट कपड़े का इम्पोर्ट व्यापार होता था । उस समय यह फर्म बहुत बड़ी मानी जाती थी। इस व्यवसाय में भी इस फर्म ने बहुत उन्नति की। मगर कुछ वर्षों के पश्चात् आपकी बृद्धावस्था होने के कारण आपने अपने इम्पोर्ट व्यवसाय को घटा दिया । व्यापार के अतिरिक्त आपने सामाजिक बातों की ओर भी बहुत ध्यान दिया। यहां की पंच पंचायती में आपका बहुत बड़ा सम्मान था। आप जबान के बड़े पाबंद थे । बीकानेर दरबार ने आपको छड़ी, चपरास, ताज़िम तथा हाथी वगैरह का सम्मान प्रदान किया था। इसके अतिरिक्त आपको कुर्सी का सम्मान, सोने का लंगर, बक्षा गया, तथा सोने के जेवर पैरों में पहनने का सम्मान आपके जनाने में भी प्रदान
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मोसवात नाति का इतिहास
किया है। आपको जगात की माती तथा चूने की चौथाई भी माफ है। तलाशी भी भापको माफ है। लिखने का मतलब यह है कि स्टेट में भी आपका अच्छा सम्मान था। आपका स्वर्गवास संवत् १८४५ के जेष्ठ में हो गया। आपके सेठ सुमेरमलजी तया सेठ बुधमलजी नामक दो पुत्र हैं।
__सेठ सुमेरमलभी का जन्म संवत १९५० तथा सेठ बुधमलजी का संवत् १९६१ का है। आप दोनों भाई भी मिलनसार एवम् सज्जन व्यक्ति हैं। आप लोगों को बीकानेर दरबार की ओर से सब सम्मान प्राप्त हैं जो आपके पिताजी को प्राप्त थे। आज कल आपकी फर्म पर केवल बैंकिंग का व्यापार होता है। आपकी गिही कलकत्ता में नं०९ आर्मेनियन स्ट्रीट में हैं तथा मेसर्स चैनरूप सम्पतराम के नाम से व्यवसाय होता है। कलकत्ता में आपकी ४ सुन्दर इमारते बनी हुई हैं । सरदारशहर का भापका मकान दर्शनीय है तथा वहीं एक सुन्दर धर्मशाला भी बनी हुई है।
सेठ सुमेरमलजी के दो पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः भंवरलालजी और कन्हैयालालजी हैं। आप दोनों ही इस समय विद्याध्ययन करते हैं। .. सेठ जवरीमलजी, सोहनलालजी, मँवरलालजी, दूगड़ का खानदान फतेपुर . आपका निवास स्थान फतेपुर (सीकर) है। आपके पूर्वज कई वर्षों पहले मारवाड़ से होते हुए फतेपुर आकर बस गये । फतहपुर पहले नवाब के हाथ में था उस समय आपके पूर्वज सूरजमलजी हुए । आप बड़े प्रतिभा सम्पन्न एवम् दबंग व्यक्ति थे। आपने अपने समय में नवाप के यहाँ अपनी योग्यता एवम् होशियारी से देश दीवानगी का काम किया । आपके ही वंश में भांडोजी तथा आपके चामसिंहजी हुए । आप लोग बड़े बहादुर एवम् वीर व्यक्ति थे । आप लोगों को अपने समय में नवाब के यहाँ रहते हुए कई युद्ध करना पड़े। एक बार आप लोग जुझार तक हो गये । जुझार का मतलब यह है कि सिर के कट जाने पर भी आप दोनों ही भाई शत्रु सेना का मुकाबला करते रहे। जिस स्थान पर आप जुझार हुए उस स्थान पर आज भी आपकी आपके वंशज पूजा करते हैं। मांडोजी के एक पुत्री अक्षय कुँवरी बाई हुई। इनका विवाह जालोर के भण्डारी सुगनसिंह जी के साथ हुआ था। ये सुगनसिंहजी जालोर के किले वाले युद्ध में स्वर्गवामी होगये । आपके स्वर्गवासी होजाने के पश्चात् ये अक्षय कुंवर बाई फतेपुर में सती हुई। जिनका स्थान आज भी फतेहपुर में है और पूजा भी की जाती है। भांडोजी एवम् चामसीगत्री के ही वंश में कई पुश्त बाद सेठ भैरोंदानजी हुए।
सेठ भैरोंदानजी इस परिवार में बड़े नामङ्कित व्यक्ति हुए। आप अफीम के वायदे के बड़े म्यापारी थे। आप ने अफीम के इसी वायदे के व्यापार में कई लाख रुपया पैदा किये । आप पड़े
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ सुमेरमलजी दूगड़ (चैनरूप सम्पतराम) सरदार शहर
सेठ बुधमलजी दूगड़ (चैनरूप सम्पतराम) सरदार शहर
कुँ, भंवरलालजी S/o सुमेरमलजी दूगड़ सरदार शहर
कुँ० कन्हैयालालजी S/o सुमेरमलजी दूगड़ सरदार शहर
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
कमर के भीतर का दृश्य (चनरूप सम्पतराम दुगड़) सरदारशहर
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व्यापार चतुर, मेधावी एवम् सज्जन व्यकि थे। परोपकार एवं धार्मिकता की ओर आपका बहुत ध्यान था। आपके समय में आपके घर में रुपयों को कदाई में भरते थे। इसका मतलब यह है कि उस समय आप के पास बहुत सा रुपया आता था । आपका स्वर्गवास सं० १९५७ में होगया। आपके पांच पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः धनराजजी, सदासुखजी, हीरालालजी, मंगलचन्दजी, चंदनमलजी, और आनन्दीलाल जो थे। इनमें से सदासुखजी और हीरालालजी का स्वर्गवास होगया। शेष सब भाई वर्तमान है। भाप लोगों के परिवार वाले फतेहपुर तथा कलकत्ता में निवास करते हैं और वायदे का काम करते हैं।
सेठ धनराजजी-आप पहले कलकत्ता आया करते थे। मापने भी अपने जीवन में वायदे के बहुत बड़े २ सौदे किये। मानकल आप वयोवृद्ध होने से देश ही में रहते हैं और वहीं थोड़ा र सौदा किया करते हैं। आपके तीन पुत्र हैं जिनके नाम जवेरीमलजी, रामचन्दजी एवम् हुलासमलजी हैं। भाप तीनों भाई भी आज कल अलग २ होगये हैं एवम् अलग अलग अपना व्यापार करते हैं।
सेठ जवेरीमलजी-आपका जन्म संवत् १९३५ के करीब का है। आपने भी यहां अपने जीवन में वायदे का अच्छा काम किया। वर्तमान में आप भी वयोवृद्ध होने से फतेपुर ही रहते हैं। आपका : ध्याम धार्मिकता की ओर बहुत हैं। आपके सोहनलालजी एवम् मवरलालजी नामक र पुत्र हैं।
सेठ सोहनलालजी-आपका जन्म संवत् १९५२ की जेठ वदी का है। आप प्रारम्भ से ही पही वायदे का व्यापारमा रहे हैं। आप भी इस विषय में बड़े अनुभवी एवम् नामी व्यक्ति हैं। हज़ारों लाखों रुपये खो देना और कमा लेना आपके बायें हाथ का खेल है। आप बड़े मिलनसार, सवार, दानी एवम् सरल स्वभावी सजन हैं। आपने कई समय अनेक संस्थाओं को बहुत सा रुपया दान स्वरूप प्रदान किया है।
सेठ मँवरलालजी-आपका जन्म संवत् १९६० का है। आप भी अपने भाई सोहनलालजी के साथ व्यापार करते हैं। आपभी बड़े योग्य सजन हैं। भापके चार पुत्र हैं जिनके नाम रतनलालजी, शुभकरणजी, जगतसिंहजी और कमलसिंहजी हैं। इनमें दो पढ़ते हैं।
सेठ बनेचन्द जुहारमल दूगड़, तिरमिलगिरी (हैदराबाद)
इस खानदान के लोग स्थानकवासी भाम्नाय को मानने वाले हैं। आपका मूल निवासस्थान नागौर का है। इस खानदान को दक्षिण हैदराबाद में आये हुए करीब ९० वर्ष हुए। इसके पहले इस खानदान ने बंगलोर में जाकर अपनी फर्म स्थापित की थी तथा तिरमिलगिरी (सिकन्दराबाद ) में पहले पहल सेठ नेचन्दजी मे आकर दुकान खोली । बनेचन्दजी का स्वर्गवास हुए करीब
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पोसवाल जाति का इतिहास
५० वर्ष होगये हैं। इनके पुत्र का नाम जुहारमलजी था। आप दोनों ही पिता पुत्रों ने मिलकर इस फर्म की तरक्की की। जुहारमलजी का स्वर्गवास अपने पिताजी की मौजूदगी में ही हो गया था। आप के मानचन्दजी नामक एक पुत्र थे। आपने भी इस फर्म के कारबार में तरक्की की। आप सं० १९७४ में स्वर्गवासी हुए।
मानचन्दजी के दो पुत्र हुए। जिनमें बड़े समीरमलजी दूगढ़ थे। मगर आप केवल १९ वर्ष की अवस्था में ही संवत् १९७५ में स्वर्गवासी हुए। इस समय इस फर्म के मालिक मानचन्दजी के छोटे पुत्र जसवन्तमलजी है। आप बड़े योग्य, विनयशील और शान्ति प्रकृति के सज्जन हैं।
- इस फर्म की तरफ से तिरमिलगिरी के बालानी के मन्दिर में एक धर्मशाला बनवाई गई है। और भी परोपकार सम्बन्धी कार्यों में आपकी ओर से सहायता दी जाती है। - आपकी दुकान पर मिलिटरी बैंकिंग, मिलिटरी के साथ लेनदेन तथा कन्ट्राक्टिंग का काम होता है।
सेठ बींजराजजी दूगड़ का परिवार, सरदारशहर * यह परिवार फतेपुर (सीकर-राज्य) से करीब १०० वर्ष पूर्व सरदारशहर में भाया। इस परिवार के पूर्व का इतिहास बढ़ा गौरवमय रहा है जिसका जिक्र हम अलग दूसरे इतिहास के साथ दे रहे हैं। फतेहपुर से सेठ बींजराजजी पहले पहल सरदारशहर आये । आप उस समय यहाँ के नामांकित व्यक्ति थे । यहाँ की पंच पंचायती में आपका बहुत बड़ा भाग था। जाति के लोगों से आपका बहुत प्रेम था। जब कभी जाति का कोई कठिन काम आ पड़ता और उसमें आपके विरोध से काम बिगड़ने का अंदेश होता तो आप उसी समय अपना व्यक्तिगत विरोध छोड़ देते थे। यहां की पंचायतो में आपके द्वारा कई नियम प्रचलित किये गये जो इस समय भी सुचारु रूप से चल रहे हैं। व्यापार में भी आपका बहुत बड़ा भाग था । आपने कलकत्ता में अपनी फर्म स्थापित की। तथा व्यापारिक चातुरी एवम् होशियारी से उसमें अच्छी सफलता प्राप्त की महाराजा डूंगरसिंहजी बीकानेर से आपका दोस्ताने का सम्बन्ध था। लिखने का मतलब यह है कि इस परिवार में आप बहुत प्रभावशाली एवम् प्रतिष्ठित व्यक्ति हुए। आपका स्वर्गवास संवत् १९६३ में होगया। आपके सेठ भैरोंदानजी, सेठ तनसुखदासजी एवम् सेठ पूसराजजी नामक तीन पुत्र हुए।
सेठ भैरोंदानजी का जन्म संवत् १९१६ का था। आप बड़े बुद्धिमान एवं चतुर पुरुष थे। आपका स्वर्गवास संवत् १९७१ में हो गया । आपके केवल भा नीरामजी नामक एक पुत्र थे। आपका जन्म १९३७ में हुआ। आप भी अपने पिताजी की भांति व्यापार कुशल व्यक्ति थे।
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आपकी प्रकृति बढ़ी उदार थी । आपको ग्रंथ संग्रह का बड़ा शौक अच्छे ग्रन्थों का संग्रह किया ।
आपको
प्रायः सभी सार्वजनिक कार्यों में आप सहायता प्रदान किया करते थे । था । कहना न होगा कि आपने अपनी प्रायवेट लायब्रेरी में बहुत अच्छे आपका स्वर्गवास संवत् १९८७ में होगया। आपके रामलालजी नामक एक पुत्र हुए । आपका जन्म संवत् १९६५ का है। आप सुधरे हुए विचारों के युवक हैं । भी पठन पाठन का बहुत शौक है और आपने भी एक प्राइवेट लायब्रेरी खोल रक्खी है। अपिका व्यापार कलगत्ता में मेसर्स बींजराज भैरौदान के नाम से ११३ क्रास स्ट्रीट मनोहरदास का कटला में बैंकिंग, कमीशन और इम्पोर्ट का होता है । आपही इस फर्म के संचालक हैं तथा योग्यता से संचालित करते हैं । आपके अनूपचन्दजी नामक एक पुत्र हैं। जिनकी अवस्था ५ बर्ष की है ।
सेठ तनसुखदासजी का जन्म संवत् १९१६ का है । आप आजकल अलग रहते हैं । आप भी बड़े व्यापार कुशल सज्जन हैं। आपका शहर भर में बड़ा प्रभाव ' तथा आपकी सच्चाई पर लोगों का पूरा विश्वास है आपने व्यापार में भी लाखों रुपयों की सम्पत्ति उपार्जित की। आपके मंगसमलजी नामक एक पुत्र हैं। मंगलचंदजी के नाम पर आप शोभाचन्दजी को दत्तक ले चुके हैं। आप बाईस सम्प्रदाय के मानने वाले हैं। शोभाचन्दजी के इस समय चार पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः मालचन्दजी, भूरामलजी. किशनलालजी और रिधकरणजी हैं ।
सेठ सराजजी का जन्म संवत् १९२१ में हुआ । आप बड़े गम्भीर विचारों के पुरुष हैं । आपकी सलाह बड़ी वजनदार मानी जाती है। आपका ध्यान भी व्यापार में बहुत रहा एवम् आपने बहुत सम्पत्ति उपार्जित की। आप बीकानेर- स्टेट कौन्सिल के मेम्बर हैं । आप भी बाईस सम्प्रदाय के अनु यायी हैं। आपके ५ पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः इन्द्रराजजी, शोभाचन्दजी ( जो तनसुखदासजी के यहाँ दत्तक चले गये हैं) नगराजी, सोहनलालजी और माणकचन्दजी हैं। इनमें से प्रथम इन्द्रराजजी आप से अलग होकर अपना स्वतन्त्र व्यवसाय इन्द्रराजमल सुमेरमल के नाम से कलकत्ते में करते हैं।
सेठ तनसुखरायजी और सेठ प्सराजजी का व्यापार शामलात में कलकत्ता मनोहरदास कटला ११३ क्रास स्ट्रीट में होता है। यहां डायरेक्ट कपड़े का इम्पोर्ट और जूट का व्यवसाय होता है ।
सेठ तेजमालजी दूगड़ का परिवार सरदारशहर
इस परिवार के व्यक्ति पहले फतहपुर ( सीकरी ) के निवासी थे । वहाँ वे लोग नबाब के यहाँ राज्य के ऊँचे २ पदों पर आसीन रहे । वहीं से उनके वंशज सवाई नामक स्थान पर आकर बसे । सवाई से फिर जब कि सरदारशहर बसा, तब इस परिवार वाले सेठ लालसिंहजी सरदारशहर आकर बस गये ।
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श्रेसिवाल जाति का इतिहास
यहाँ आकर आप साधारण लेन-देन का व्यापार करने लगे । आपके चैनरूपजी, माणकचंदजीभौर बुधसिंहजी नामक तीन पुत्र हुए। वर्तमान परिवार चैनरूपजी का है।
- चैनरूपजी के तीन पुत्र हुए जिनमें दो का परिवार नहीं चला तीसरे तेजमालजी का परिवार विद्यमान है। सेठ तेजमालजी पहले अपने भाई के साथ कलकत्ता गये और वहाँ से फिर सिलहट जाकर वहाँ भआपने अपनी फर्म खोली एवम् अच्छी सफलता प्राप्त की। वहाँ से आप वापस देश मा रहे थे कि रास्ते में
डलोद में उनका स्वर्गवास हो गया। आपके हजारीमलजी कोदामलजी, और बालचंदजी नामक तीन पुत्र हुए। कोदामलजी निःसंतान स्वर्गवासी हुए। बालचन्दजी के भी कोई पुत्र न हुमा। अतएव हजारीमलजी के पुत्र तोलारामजी दत्तक लिये गये, जो वर्तमान हैं। आपके मोतीलालजी, जयचंदलालजी और मानमलजी नामक तीन पुत्र हैं।
सेठ हजारीमलजी इस परिवार में खास व्यक्ति हुए। आपने कलकत्ता आकर संवत् १९४२ में हजारीमल समरथमल के नाम से रेडीमेड क्लाथ का काम प्रारम्भ किया। इसमें आपको अच्छी सफलता रही। आपका स्वर्गवास हो गया। आपके बिरदीचंदजी, खूबचन्दजी, सागरमलजी, तोलारामजी एवम् समरथमलजी नामक पाँच पुत्र हुए। आप सब लोग संवत् १९६४ तक साथ २ व्यापार करते रहे, पश्चात् अलग २ हो गये।
बिरदीचंदजी के पुत्र इन्द्रचन्द्रजी इस समय दलाली का काम करते हैं। भापके बुधमलजी और चन्दनमलजी नामक पुत्र हैं। खूबचन्दजी के पुत्र करनीदानजी एवम् रिधकरणजी भी अपना स्वतंत्र व्यापार कर रहे हैं। रिधकरणजी के मनालालजी नामक एक पुत्र हैं।
सागरमलजी एवम् समरथमरूजी दोनों भाइयों ने मिलकर संवत् १९४८ तक फिर शामलात में काम किया और फिर अलग २ हो गये । इस बार आप लोगों को अच्छा लाभ रहा। सेठ सागरमलजी का स्वर्गवास हो गया और भापके पुत्र स्वरूपचन्दजी, शुभकरनजी और गणेशमलजी तीनों भाई स्वरूपचन्द गणेशमल के नाम से मनोहरदास के कटले में कपड़े का व्यापार करते हैं। आप लोग उत्साही और मिलनसार युवक हैं।
समरथमलजी प्रारम्भ से ही हजारीमल समरथमल के नाम से रेडीमेड क्लाय का व्यापार करते भा रहे हैं। आपके सुमेरमलजी नामक एक पुत्र है जो उत्साही हैं और व्यापार कार्य करते हैं। आपकी फर्म १५ नारमल लोहिया लेन में हैं। यहाँ कपड़े का तथा चलानी का काम होता है। भापके यहाँ देसी मिलों से कपड़ा आता है और थोक बिक्री किया जाता है।
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सेठ सुजान मलजी दूगड़ (मोतीलाल नेमचंद) सरदारशहर.
स्व० से सागरमलजी दूगड़, सरदारशहर.
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बाबू अनोपचंदजी S० बा० रामलालजी दूगड़, सरदारशहर.
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सेठ मोतीलाल नेमचन्द दूगड़, कलकत्ता इस परिवार के लोगों का पूर्व निवासस्थान फतेपुर (सीकरी) नामक स्थान था जहाँ आपके पूर्वजों ने कमाल के काम किये जिनका विवरण अन्यत्र दिया जा रहा है। फतेपुर से चलकर आपके पूर्वज सवाई नामक स्थान पर आये । और जब कि सरदारशहर बसा यहाँ से भाप लोग वहाँ आ गये यहाँ आने वाले सजन सेठ अमरचन्दजो के पुत्र गुलाबचन्दजी थे। आपके पुत्र मगनीरामजी सवाई में ही रहे और उनका स्वर्गवास भी हुआ। उनके पुत्र हरकचन्दजी हुए। हरकचन्दजी के तीन पुत्र हुए जिनमें से शोभाचाइजी के पुत्र सुमेरमलजी विद्यमान हैं तथा इस समय नौकरी कर रहे हैं।
सेठ गुलाबचन्दजी इस परिवार में नामी व्यक्ति हुए। आपने कलकत्ता जाकर यहीं के आचालिया नरसिंहदासजी के साझे में मनीहारी का काम करने के लिये फर्म खोली। इसमें आपको अच्छा लाम रहा। इसके बाद आपका साझा अलग अलग हो गया। माप संवत् १९५३ तक और भी लोगों के शामलात में व्यापार करते रहे। पश्चात् १९६२ में आपने उपरोक्त नामकी फर्म स्थापित की जो इस समय भी चल रही है। आपके तीन पुत्र हुए जिनके नाम रावतमलजी, पुनीलालजी और बालचन्दजी है। प्रथम और तृतीय का परिवार सरदारशहर ही में रहता है। वर्तमान परिचय सेठ सुनीलाल के के परिवार का है।
सेठ चुनीलालजी बड़े होशिमार और व्यापार कुशल व्यक्ति थे। पापका स्वर्गवास हो गया । आपके केसरीचंदजी, मगराजजी और हुलासचंदजी नामक तीन पुत्र हुए। सेठ मगराजजी का स्वर्गवास संवत १९६१ तथा केशरीचंदजी का संवत् १९०१ में हो गया। वर्तमान में हुलासचंदजी की वय ५७ वर्ष की। भाप सजन व्यक्ति हैं।
. सेठ केसरीचंदजी के सुजानमलजी और उदयचंदजी नामक दो पुत्र हैं। भाप दोनों भाई व्यापार संचालन करते हैं तथा खुश मिजाज हैं। सुजानमलजी के सौभागमसजी, मनीयालालजी और रतनलालजी नामक तीन पुत्र हैं।
सेठ मगराजजी के छगनमलजी, मोतीलालजी और इन्दचन्दजी नामक पुत्र हैं। इनमें से मोतीलालजी का स्वर्गवास हो गया। शेष व्यापार संचालन करते हैं। संगनमलजी के हीरालालजी, और इन्द्र चन्द्रजी के अनोपचन्दजी नामक पुत्र है।
सेठ हुलासचन्दजी के मेमचन्दजी, भैरोंदानजी और सोहनलालजी नामक तीन पुत्र हैं । नेमीचन्दजी का स्वर्गवास हो गया। शेष व्यापार संचालन में सहयोग देते हैं।
इस फर्म का व्यापार कलकत्ता में ४६ स्ट्राँड रोड में मोतीलाल नेमचन्द के मामसे चलानी का तथा
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सोहनलाल हीरालाल के नाम से जूट का होता है। फरबिसगंज में इन्द्रचन्द्र सोहनलाल के नाम से पाट कपड़े का तथा सिरसा (पंजाब) में हीरालाल भँवरलाल के नाम से गल्ले का व्यापार होता है । तथा गुलाब बाग (पूर्णियाँ) में सुजानमल करनीदान के नाम से जूट का व्यापार होता है । पिछली दो फर्मों में आपका साझा है। आप लोग तेरापंथी जैन धर्म के अनुनापी हैं।
सेठ हनुमतमल नथमल दूगड़, सरदारशहर इस परिवार के पुरुष पहले सवाई नामक स्थान पर रहते थे । वहीं इस वंश में खेमराजजी हुए। आपकी बहुत साधारण स्थिति थी । आप वहीं रहकर खेती बाड़ी का काम कर निर्वाह किया करते थे । वहीं आपके पनेचन्दजी नामक एक पुत्र हुए। इन्हीं दिनों सरदारशहर बसाया जा रहा था, अतएव पनेचन्दजी भी संवत् १८९५ के करीब सवाई को छोड़कर सरदारशहर आ गये । आपके लालचन्दजी नामक पुत्र हुए। सेठ लालचन्दजी का जन्म संवत् १८८८ का था। जिस समय आपके पिताजी सरदार शहर में आये थे उस समय आपकी वय केवल ७ साल की थी । की करीब २५ वर्ष की अवस्था में आप तेजपुर नामक स्थान पर गये और वहीं आपने मेसर्स महासिंहराय मेघराज बहादुर के यहाँ सर्विस की। पश्चात् आप वहीं मुनीम हो गये । वहाँ से आप वापिस संवत् १९५५ में देश में आ गये एवं अपना जीवन शांति से बिताने लगे । दस वर्ष बाद आपका स्वर्गवास हो गया। आपके हनुतमलजी और नथमलजी नामक दो पुत्र हैं । प्रारम्भ में आप लोग भी अपने पिताजी के साथ तेजपुर ही में रहे । पश्चात संवत् १८४८ में आपने बीकानेर के सौभागमलजी के साझे में सौभागमल नथमल के नाम से कलकत्ता में चलानी का काम प्रारम्भ किया । इसके पश्चात् संवत् १९५५ में आपने उपरोक्त नाम से निज की फर्म स्थापित की। इसमें आप दोनों भाइयों ने बहुत सफलता प्राप्त की। बड़े भाई आजकल देश ही में रहते हैं तथा नथमलजी फर्म का संचालन करते हैं । आपका कलकत्ता में १६० सूता पट्टी में तथा ५१ लुक्सलेन में उपरोक्त नाम से कपड़ा, जूट तथा इम्पोर्ट का व्यापार होता है। काशीपुर, हटगोला वगैरह स्थानों पर आपके निज के पाट गोदाम हैं । इसके अतिरिक्त इन्द्रचन्द्र सूरजमल के नाम से इस्लामपुर (पुर्णिया) में जूट का काम होता है । सेठ हनुतमलजी के मालचन्दजी, इन्द्रचन्दजी, पूनमचन्दजी, तथा नथमलजी के बालचन्दजी मामक पुत्र हैं । आप सब लोग मिलनसार व्यक्ति हैं तथा फर्म का संचालन करते हैं। इनमें से इन्द्रचन्द के भँवरलालजी तथा बालचन्दजी के हनुमानमलजी नामक एक २ पुत्र हैं ।
सेठ सालमचन्द चुन्नीलाल दुगड़, कलकत्ता
संवत् १९०० के करीब इस परिवार के पुरुष सेठ जेठमलजी दूगड़ कल्यानपुर नामक स्थान से यहाँ आये तथा घी का व्यापार प्रारम्भ किया । उस समय इस व्यापार में आपको अच्छा लाभ रहा ।
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ भानीरामजी दूगड़, सरदारशहर.
स्व० सेठ दानसिंहजी दूगड़ (प्रतापमल
मोतीलाल ) सरदारशहर.
सेठ मोतीलालजी दगड़ (प्रतापमल मोतीलाल )
सरदारशहर.
कुँ० नेमचंदजी दूगड़ S/o मोतीलालजी दूगड़, सरदारशहर.
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दूगड़
आपके केवलचन्दजी और सालमचन्दजी नामक दो पुत्र हुए। दोनों ही भाई करीब ७० वर्ष पूर्व जलपाई गौड़ी नामक स्थान पर गये और साधारण काम काज शुरू किया । पश्चात् संवत् १९३१ में आप लोगों ने जेठमल केवलचन्द के नाम से अपनी फर्म स्थापित की। इस पर कंपड़ा, सूत, किराना एवम् गल्ले का व्यापार प्रारम्भ किया । इसमें आप लोगों की बुद्धिमानी से अच्छी उन्नति हुई । आप लोगों का स्वर्गवास हो गया । केवलचन्दजी के पुत्र न हुआ । सालमचन्दजी के चुनीलालजी नामक एक पुत्र हुए।
सेठ चुन्नीलालजी ही इस समय इस परिवार में बड़े पुरुष हैं। आप मिलनसार हैं। आपने अपने व्यापार को विशेष रूप से बढ़ाया तथा कलकत्ता में चुनीलाल जसकरन के नाम से फर्म खोली । आजकल इसका नाम चुनीलाल शुभकरन पड़ता है। इसपर जूट, कपड़ा एवं चलानी का व्यापार होता है। इसमें आपको अच्छी सफलता रही। आपके इस समय ७ पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः जसकरनजी, सूरजमलजी, जैचंदलालजी, चम्पालालजी, सोहनलालजी, शुभकरनजी और पूनमचन्दजी हैं। इनमें से जसकरनजी अपना स्वतन्त्र व्यापार करते हैं। शेष सब शामिल हैं। आप लोग जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सम्प्रदाय के मानने वाले हैं।
बानिन्दा के दूगड़ दानसिंहजी का परिवार, सरदारशहर
सेठ टीकमचंदजी बानिंदा ( सरदारशहर) नामक स्थान से चलकर यहाँ आये । आपके चार पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः सेठ शिवजीरामजी, सेठ जीवनदासजी, सेठ मुकनचन्दजी और सेठ दानसिंहजीं थे । करीब ८० वर्ष पूर्व आप चारों ही भाइयों ने मिलकर सिरसागंज में अपनी एक फर्म स्थापित की तथा अच्छी उन्नति की। इनमें खासकर उन्नति का श्रेय सेठ दानसिंहजी को है । आप बड़े प्रतिभा सम्पन्न, व्यापार चतुर और कठिन परिश्रमी व्यक्ति थे । आपका स्वर्गवास संवत् १९५२ में हो गया। आपके प्रतापमलजी, कुशलचन्दजी, चुन्नीलालजी एवम् मोतीलालजी नामक चार पुत्र हुए. 1
सेठ प्रतापमलजी व्यापारिक पुरुष थे। आपका यहाँ की समाज में अच्छा प्रभाव था । आपके कोई पुत्र न था । अतएव आपने अपने छोटे भाई मोतीलालजी को दतक लिया। आप भी मिलनसार और सज्जन व्यक्ति हैं । आपका जन्म सम्वत् १९४४ में हुआ। पहले तो आप अपनी पुरानी फर्म में साझीदारी का काम करते रहे। मगर फिर आपने अपना काम अलग कर लिया एवंम् इस समय सरदारशहर ही में बैंकिंग का काम करते हैं । आपके नेमीचन्दजी नामक एक पुत्र हैं। आप भी उत्साही नवयुवक हैं। आपको फोटोग्राफी का बहुत शौक है। आपने कई इन्लार्जमेंट अपने हाथों से तैयार किये हैं। मशीनरी लाइन में मी आपको दिलचस्पी है ।
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सेठ कुशलचन्दजी का जन्म संवत् १९३१ में हुआ । आपके भी कोई पुत्र न था । अतएव आपने अपने भाई सुनीलालजी के पुत्र चंदनमलजी को दत्तक लिया। वर्तमान में आप ही इस परिवार में बड़े हैं। सेठ चुनीलालजी का जन्म सं० १९३५ में हुआ । आप यहाँ के प्रतिष्ठित पुरुष थे । आपको पाटके व्यापार का अच्छा अनुभव था तथा जवाहिरात की परीक्षा भी आप अच्छी जानते थे । आपका स्वर्गवास सम्वत् १९७५ में हो गया। आपके चन्दनमलजी तथा कन्हैयालालजी नामक २ पुत्र हुए । चन्दनमलजी कुलचन्दजी के यहाँ दतक चले गये। कन्हैयालालजी के मांगीलालजी नामक एक पुत्र हैं।
सेठ चुनीलालजी और कुशलचन्दजी के परिवार की सिराजगंज, कलकत्ता, भडंगामारी, मीरगंज, सोनातोला, और जवाहरबाड़ी आदि स्थानों पर शाखाएँ हैं जहाँ पाट का व्यापार होता है। सरदारशहर इस परिवार की बहुत बड़ी २ हवेलियाँ बनी हुई हैं। आप लोग तेरापंथी जैन श्वेताम्बर धर्म के अनुयायी हैं ।
में
सेठ सुल्तानचन्द जुहारमल दूगड़ कोठारी, कलकत्ता
इस फर्म के मालिकों का मूल निवासस्थान वीदासर है। आप लोग जैन तेरापंथी सम्प्रदाय के मानने वाले हैं। यह फर्म करीब ८० वर्ष पूर्व जमालदे नामक स्थान पर जो कूँचबिहार में है, सेठ मुक्तानचन्दजी द्वारा स्थापित की गई। इसके कुछ वर्ष बाद मेखड़ीगंज ( कुचबिहार) में आपने इसी नाम से एक फर्म और खोली । इन दोनों फर्मों पर तमाखु और कुष्टा का काम शुरू किया गया जो इस समय भी हो रहा है। सेठ मुल्तानचन्दजी के कोई पुत्र न होने से जुहारमलजो दत्तक आये । आपके हाथों से इस फर्म की बहुत तरक्की हुई। आप बड़े व्यापार कुशल और मेधावी व्यक्ति थे । आपका स्वर्गवास सम्वत् १९६२ में हो गया। आपके भी कोई पुत्र न होने से भैरोंदानजी आपके नाम पर दत्तक लिये गये । आपने भी फर्म की अच्छी उन्नति की । आप भी अपने पिता की भांति व्यापोर कुशल एवम् मिलनसार व्यक्ति थे । आपका भी स्वर्गवास सम्वत् १९९० में हो गया। आपका ध्यान धार्मिक बातों में बहुत रहा। आपके कानमलजी एवम् सोहनलालजी नामक दो पुत्र हैं। आजकल आप दोनों ही फर्म का संचालन करते हैं। आप भी उत्साही और मिलनसार सज्जन हैं। कानमलजी के नौरतनमलजी एवं जतनमलजी नामक दो पुत्र हैं । आपकी कलकत्ता में मुल्तानचन्द जुहारमल के नाम से फर्म है जहाँ ब्याज का काम होता है । इस फर्म पर मुनीम नेमचन्दजी सिंधी बिदासर वाले मुनीमात का काम करते हैं। आपके समय में फर्म की बहुत उन्नति हुई।
लाला छोटेलाल अबीरचन्द दूगड़, आगरा
इस खानदान के लोग श्वेताम्बर जैन मन्दिर आम्नाय को मानने वाले हैं। यह खानदान करीब
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स्व० सेठ भैरोदानजीदूगड़ (मुलतानमल जुहारमल),
बीदासर.
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सेठ कानमलजी दूगड़ (मुलतानमल जुहारमल) बीदासर. बाबू सोहनलालजी दूगड़ (मुलतानमल जुहारमल) बीदासर.
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दो तीन सौ वर्षों से भागरे ही में बसा हुआ है। इस खानदान में बाला छोटेलालजी एक मशहुर व्यक्ति हो
है। आप ही ने इस फर्म को करीब ७० वर्ष पहिले स्थापित किया था। आपका स्वर्गवास सम्वत् * १९४४ में हो गया। आपके चार पुत्र हुए जिनके नाम काला अवीरचन्दजी, लाला कपूरचन्दजी, लाला गुलाबचन्दजी और लाला मिहनलालजी था।
लाला अबीरचन्दजी का जन्म संवत् १९३६ में हुआ। आप इस खानदान में बड़े योग्य और प्रतिभाशाली पुरुष थे । आपका स्वर्गवास सम्वत् १९६५ में हुआ। आपके पुत्र लाला चांदमलजी का स्वर्गवास सम्वत् १९४५ में केवल ३२ वर्ष की उम्र में हो गया । आपके चितरंजनसिंहजी नामक एक पुत्र है।
____ लाला कपूरचन्दजी का जन्म सम्वत् १९२१ में हुमा । आपका भी स्वर्गवास हो गया । आपके दो पुत्र हुए मगर दोनों का कम उम्र में ही स्वर्गवास हो जाने से आपके नाम पर लाला किरोड़ीमलजी दत्तक लिये गये। काका किरोंदीमलजी का जन्म संवत् १९६० का है। आपके एक पुत्र हैं जिनका नाम
काला गुलाबचन्दजी का जन्म संवत् १९३० में हुमा । आपका स्वर्गवास संवत् १९८९ में हो ‘गया । भापके पुत्र का देहान्त आपकी मौजूदगी में ही हो जाने से आपने अपने नाम पर लाला लक्खीमलनी "को दसक लिए । लाला लक्खीमकजी का जन्म संवत् १९१५ का है। आपके श्री देवेन्द्रसिंहजी मॉमक एक पुत्र हैं।
लाला मिट्ठनलालजी का जन्म संवत् १९३३ का है। आप इस समय इस खानदान में सबसे प्रधान है। आपके दो पुत्र हैं जिनके नाम सूरजमलजी और जीतमल जी हैं । सूरजमलजी का जन्म संवत् १९५५ है।
इस खानदान की तरफ से भागरे में उपाध्याय वीरविजय जैन श्वेताम्बर पाठशाला नामक एक पाठशाला छः हजार रुपये से खुलवाकर उसे पंचायत के सिपुर्द कर दिया है।
कोठारी वेरीसालसिंहजी दूगड, जोधपुर आप का मूल निवास नामली (रतलाम) है। वहाँ आपका परिवार बहुत प्रतिष्ठा सम्पन्न माना जाता था। आपके पिताजी जव्हारसिंहजी दूगढ़ रतलाम स्टेट के दीवान रहे थे। कोठारी वेरीसाल सिंहजी इस समय जोधपुर रियासत के ऑडिट विभाग में असिस्टेंट आडीटर हैं। आपने अपना निवास पही बना लिया है। भाप बड़े शिक्षित तथा प्रतिष्ठित सज्जन हैं । खेद है कि समय पर आपके खानदान का परिचय गुम हो जाने के कारण हम विस्तृत नहीं देसके। पदि प्राप्त होसका तो इस ग्रन्थ के परिशिष्ट विभाग में विस्तृत परिचय देने की कोशिश करेंगे।
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बोसवाल जाति का इतिहास
श्री मानमलजी दूगड़, जोधपुर आपका परिवार जोधपुर में निवास करता है । आप कई वर्षों से जोधपुर स्टेट में हुकूमात करते है तथा इस समय भीनमाल आदि के हाकिम हैं। आप बड़े सज्जन, मिलनसार और लोकप्रिय महानुभाव हैं । आपके छोटे भ्राता चांदमलजी दूगड़ जोधपुर स्टेट के जालोर नामक स्थान की डिस्पेंसरी में राक्टर हैं । आप भी बहुत लोकप्रिय हैं । आपका परिवार जोधपुर की पोसवाल समाज में प्रतिष्ठा रखता है।
लाला मोहरसिंहजी दूगड़ का खानदान, कपूरथला लाला मोहरसिंहजी-इस खानदान के पूर्वज लाला मोहरसिंहजी जम्बू में निवास करते थे वहाँ से आप ने लाहौर और लुधियाना होते हुए जालंधर में अपना निवास बनाया। जालंधर में आपने बहुत बड़ा नाम पाया था। आपके नाम से जालंधर में मोहरसिंह बाजार आबाद है। आपके खानदान का काबुल के शाही खानदान से तिजारती ताल्लुक रहा । जब शाहशुजा से महाराजा रणजीतसिंह ने कोहिनूर हीरा लिया था, उस सम्बन्ध की बात चीत तय करने वाले व्यक्तियों में यह कुटुम्ब भी शामिल था। लाला मोहरसिंहजी की होशियारी व अक्लमन्दी से प्रसन्न होकर कपूरथला के तृतीय महाराज फतहसिंहजी इनको बड़ी इज्जत के साथ जालंधर से अपनी राजधानी में लाये तथा आपके सिपुर्द स्टेट ट्रेशरी का काम किया। पंजाव के दरबार में आपको कुर्सी मिलती थी । आपके परिवार ने सिक्ख वार, अफगान वार, तीरा वार और ग़दर के समय वृटिश गवर्नमेंट को काफ़ी इमदाद दी और इन युद्धों में आपका परिवार शामिल हुआ। इन सब सेवाओं का ख़याल करके इस खानखान को लॉर्ड सर जॉनलारेंस ने जालंधर और फीरोज़पुर डिस्ट्रिक्ट में बहुत सी लैंडेड और हाउस प्रापर्टी दी, जो इस समय तक इस परिवार के अधिकार में है। लाला मोहरसिंहजी के लाला जुहारमलजी, लाला निहालचन्दजी लाला, मुश्तहाकरायजी लाला, गंगारामजी तथा लाला वस्तीरामजी नामक ५ पुत्र हुए। इन भाइयों में लाला जुहारमलजी के पुत्र लाला मत्थूमलजी तथा लाला मुश्तहाकरायजी के लाला देवीसहायजी नामक पुत्र हुए। शेष तीन भाइयों के कोई औलाद नही हुई। ये पांचो भाई अपनी प्रापर्टी तथा बैकिंग का काम काज देखते रहे। लाला निहालचन्दजी लाहोर प्रापर्टी का काम देखते थे तथा उनका अधिककर जीवन यहीं बीता।
लाला नत्थूमलजी का खानदान-लाला नत्थूमलजी का जन्म संवत् १९१३ में हुआ। मापने अपने हाथों से कई दीक्षा महोत्सव कराये, तथा साधु संगति और धार्मिक कामों में हजारों रुपये खरच किये। आपके समय में भी रियासत के साथ आप का लेनदेन का सम्बन्ध रहा करता था । आपने म्यापार में लाखों रुपये कमाये। इस प्रकार प्रतिष्ठा पूर्वक जीवन बिताते हुए आप संवत् १९८४ में
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दूँगई
स्वर्गवासी हुए। आपके लाला रतनचन्दजी, लाला त्रिभुवननाथजी, लाला पृथ्वीराजजी लालादेसराजजी
रतनचन्दजी अपने भाइयों से
तथा लाला देवराजजी नामक ५ पुत्र विद्यमान हैं। इन बन्धुओं में लाला संवत् १९७९ में अलग होकर स्वतंत्र बैकिंग का कारवार करते हैं ।
लाला त्रिभुवननाथजी — आपका जन्म संवत् १९५८ में हुआ । आपने बी० ए० तक शिक्षा पाई । आप पंजाब की स्था० वासी जैन कान्फ्रेंस के लम्बे समय तक जनरल सेक्रेटरी रहे । इस समय स्थानीय गर्ल के प्रेसिडेंट और गौशाला के मन्त्री हैं । कपूरथला की कोई ऐसी इस्टीव्यशन नहीं स्कूल जिसमें आप इमदाद न देते हों। आपने अपने पिताजी की यादगिरी में यहाँ की पुत्री पाठशाला में एक " नत्थूमल हाल" बनवाया है। इसी तरह लाहौर हास्पीटल में एक कमरा बनवाया है। आपने अपने परिवार की लेंडेड प्रापर्टी में भी अच्छी तरक्की है । दानों में नामी माना जाता है। लाला पृथ्वीराजजी - आपका जन्म संवत् १९६३ में हुआ । तथा सन् १९२८ में एल० एल० बी० की परीक्षा पास की और इसी साल से प्रेक्टिस करना शुरू कर दिया। इधर १ साल से आप कपूरथला स्टेट के पब्लिक प्रॉसीक्यूटर पद पर कार्य्यं करते हैं। यहां के शिक्षित समाज में अच्छे प्रतिष्ठित हैं और सज्जन तथा मिलनसार व्यक्ति हैं। आपके रवीन्द्र नाथजी, प्रकाशनाथजी, प्रेमनाथजी तथा पदमनाथजी नामक ४ पुत्र हैं ।
आपका खानदान पंजाब के ओसवाल खानआपके पुत्र जितेन्द्रनाथजी और राजेन्द्रनाथजी हैं ।
आपने सन् १९१६ में बी० ए०
आप
लाला देसराजजी - आपने सन् १९३० में बी० ए० पास किया । आप रणधीर कॉलेज कपूरथला में एफ० ए० के आर्ट विषय में प्रथम आये थे । इधर ३ सालों से आप लंदन में चार्टर्ड एण्ड अकाउंटेंसी का काम सीखते हैं । आप से छोटे भाई देवराजजी मेट्रिक पास कर कॉलेज में पढ़ते हैं।
इसके अलावा लुधि
इस परिवार की छांगामांगा (लाहौर) में बहुत सी नहरी जमीन है। याना, फगुवाड़ा मण्डी, जालंधर बाजार और कपूरथला में बहुत सी हाउस प्रापर्टी है।
लाला देवीसहायजी का परिवार - लाला देवीसहायजी के पुत्र लाला बनारसीदासजी तथा लाला छज्जूमलजी हुए । orer बनारसीदासजी विद्यमान हैं। आपके यहां बैङ्किग का कारवार होता है तथा कपूरथला में आपका खानदान भी मातवर समझा जाता है। आपके 8 पुत्र हैं। इनमें बड़े लाला माणकचन्दजी, फीरोजपुर की प्रापर्टी का काम देखते हैं । दूसरे चुन्नीलालजी कपूरथला के हेड ट्रेसरर हैं। रामरतनजी बजाजी का काम करते हैं तथा मदनगोपालजी खजाने के हेड क्लर्क हैं।
इसी तरह लाला उज्जूमलजी के पुत्र लाला रामनाथजी, लाला हंसराजजी तथा छाला दौलतराम
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आसवाल जाति का इतिहास
जी हुए। आपका कुटुम्ब फगुवाड़ा में निवास करता है। लाला हंसराजजी फगुवादा के प्रतिडित मज्जन हैं।
लाला गोपीचन्दजी दूगड़, एडवोकेट-अम्बालाशहर
भापका जन्म ईसवी सन् १८७८ में अम्बालापाहर (पंजाब) में हुभा। आप के पूर्वज केशरी (जिल अम्बाला) से आकर यहां बसे थे। अतः आपका वंश 'केवारी वाला' नाम से प्रसिद्ध है। आपके पिताजी का मौम लाला गेंदामलजी था।
जब पचास वर्ष पहले जैन समाज में शिक्षा का अभाव था उस समय भापको बी. ए. तक, की संन्च शिक्षा दिलाई गई। जगद्विख्यात स्वामी रामतीर्थजी से कालेज में भाप गणित पदा करते थे। प्रेज्युएट होने के पश्चात् आपने वकालात की परीक्षा पास की और अम्बालाशहर में ही आप काम करने लगे। एक सुयोग्य वकील होते हुए भी आप प्रायः मुले मुकदमे नहीं लिया करते थे। इसीलिये दूसरे वकील और न्यायाधीश आपकी बात पर पूरा २ विश्वास किया करते थे।
सार्वजनिक कार्यों में आप पूरा २ भाग लिया करते थे। हिन्दू सभा के भाप मुख्य सदस्य थे। स्थानीय नागरी प्रचारिणी सभा, बाय स्काउट एसोसियेबान, बार रूम के आप कोषाध्यक्ष थे।
लाला गोपीचंदजी की सबसे बड़ी सेवा शिक्षा प्रचार की है। भाप श्री भास्मानन्द जैन हाईस्कूल अम्बालाशहर के २५ वर्ष तक मैनेजर रहे। इस संस्था की नींव को सुद्ध करने के लिये आपने मद्रास प्रान्त तक भ्रमण करके धनराशि एकत्र की तथा समय २ पर भाप पथाशक्ति आपने अपने पास से दिया और औरों से भी दिलाया । आप मात्मानन्द जैन महासभा पंजाब के सभापति थे। श्री हस्तिनापुर जैन श्वेताम्वर तीर्थ कमेटी के भी भाप ही सभापति थे। श्री भस्मानन्द जैन गुरुकुल पंजाब (गुजरांवाला) के ट्रस्टी और कार्यकारिणी समिति के मुख्य सदस्य थे। आपके निरीक्षण और आपकी सहयोगिता से इन संस्थाओं ने अच्छी समाज सेवा की है और दिनों दिन उन्नति कर रही है। आप श्री आत्मानन्द जैन सभा अम्बालाशहर के प्रधान रहे हैं। स्कूलों में पढ़ाये जाने वाली इतिहास की पुस्तकों में जैन धर्म के विषय में जो कुछ भन्ड बन्द लिखा जाता रहा है उसका निराकरण कराना एक सहज बात नहीं थी, परन्तु मापने बहुत परिश्रम से उसमें भी सफलता प्राप्त की। श्री आत्मानन्द जैन ट्रैक्ट सोसायटी में आपके प्रधानत्व में १८ वर्ष तक जैन धर्म का जो प्रचार जैनियों तथा सर्वसाधारण में किया है, यह समाज से छिपा नहीं है।
उमर भर पाश्चात्य शिक्षा के वातावरण में रह कर भी भाप अपने जैनधन एवम् जैन संस्कृति को न भूले । भापका स्वर्गवास तीन मास की बीमारी के पाचात् ११.२.१४ को शिवरात्री के दिन होगया ।
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ओसवाल जाति का इतिहास
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स्व. कोठारी जव्हारचन्दजी लेट दीवान रतलाम, नामली.
स्व. लाला परमानन्दजी बी. ए. एडवोकेट, कसूर.
कोठारी बैरीसालसिंहजी दूगड़ बी, काम, जोधपुर,
स्व. बाबू गोपीचन्दजी दूगड़ एडवोकेट, अम्बाला.
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लाला पन्नालालजी दूगड़, जोहरी, अमृतसर ___ इस बानदान के पूर्वज लाला उत्तमचन्दजी महाराजा रणजीतसिस्नी मोर्ट ज्वेलर थे। तब से बरावर यह परिवार जवाहरात का व्यापार करता आ रहा है। आगे चलम इस परिवार में काला राधाकिशनजी जौहरी हुए। आपके बड़े भ्राता छाला जसवन्तरायजी और छोटे भाता लाला हुकमचन्दजी तथा लाला हरनारायणदासजी भी जवाहरात का व्यवसाय करते थे। लाला राधाकिसनजी के पुत्र लाल पक्षालालजी हुए।
___ लाला पन्नालाऊजी नामांकित जौहरी थे। भारत के जौहली समाज में आप सुपरिचित एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। पंजाब प्रान्त में आपका घर सबसे प्राचीन मन्दिर मार्गीय आम्नाय का पालने वाला है। आप सन् १९१४ में ऑल इण्डिया जैन कान्फ्रेंस मुलतान अधिवेशन के सभापति निर्वाचित हुए थे। अमृतसर मन्दिर की देख रेख आप ही के जिम्मे थी। सन् १९२० में भापक तथा सन् १९२८ में आपके पुत्र रामरखामलजी का स्वर्गवास हुना। इस समय रामस्खामजी बहती पुत्र मोतीलालजी सराफी तथा जवाहरात का न्यापार करते हैं।
लाला पचालाकी अपने भाणेज लाला मोहनकाली पाटनी बे उपियाने से २ साल की उम्र में अपने यहाँ ले आये। इस समय लाला मोहनबाजी जैन बी० ए० एल० एक० बी० अमृतसर में अच्छी प्रतिष्ठा रखते हैं। आपका विस्तृत परिचय पाटनी गौत्र में दिया गया है।
लाला गोरीशंकर परमानन्द जन दूगड़, कसूर (पंजाब)
यह खानदान सम्बी मियाद से कसूर में निवास करता है। इस खानदान के पूर्वज लाला जमीताशाहजी और उनके पुत्र लाला वधावाशाहजी तथा जीवनशाहजी सराफी व्यापार करते रहे। लाला. वधावाशाहजी की लगन धर्मध्यान और जैन कौम की उन्नति में विशेष थी। आपका स्वर्गवास सन् १९०२ में हुआ। आपके लाला गौरीशंकरजी, बाला परमानन्सी तथा लाला चुनीलालजी वामक । पुत्र हुए। इन सजनों में लाला गौरीशंकरजी और परमानन्दजी ने पंजाब की जैन समाज में बहुत नाम पाया। आप दोनों भाइयों का परस्पर बहुत मेल था। आप दोनों भाई क्रमशः सन् १९२३ पौर, १९२० में . स्वर्गवासी हुए। आपके छोटे भाई चुन्नीलालजी पंजाब युनिवर्सिटी की मेट्रिक में सर्व प्रथम आये थे। सन् १९२८ में इनका स्वर्गवास हुआ।
___ लाला परमानन्दजी बी० ए०-आप कसूर हाईकोर्ट के एडवोकेट थे। और यहाँ के बड़े मोआजिज़ व्यकि माने जाते थे। आप अपनी अंतिम उमर तक कसूर म्यु. के मेम्बर रहे। आपने पंजाब
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सवाल जाति का इतिहास
में स्थानकवासी जैन सभा के स्थापन में राय साहब लाला टेकचन्दजी के साथ प्रधान सहयोग लिया । आप उसके अम्बाला अधिवेशन के प्रेसिडेंट थे तथा जीवन भर वाइस प्रेसिडेंट रहे थे। लाहोर के अमर जैन होस्टल के बनवाने में आपने बहुत बड़ा परिश्रम उठाया । एवं स्वयं ने उसमें कमरे भी बनवाये । बनारस युनिवर्सिटी में आप पंजाब के जैन समाज की ओर से मेम्बर थे । आपके स्वर्गवास के समय कसूर की कोर्ट कचहरी, स्कूल, आदि बंध रक्खे गये थे और आपके कुटुम्बियों के पास आसपास के तमाम हिम्दुस्तानी व. अंग्रेज गण्य मान्य सज्जनों ने दिलासा के पत्र आये थे । आपकी यादगार में आपके भतीजे ने १० हजार की लागत की एक बिल्डिंग स्थानीय जैन कन्या पाठशाला को बनवाकर दी ।
इस समय इस परिवार में लाला गौरीशंकरजी के पुत्र लाला अमरनाथजी, लाला रघुनाथदासजी तथा लाला देवराजजी विद्यमान हैं। आप तीनों भाइयों का जन्म क्रमशः संवत् १९५३, ५६ तथा १९५९ में हुआ है । लाला अमरनाथजी तथा रघुनाथदासजी सराफी तथा बैङ्किग व्यापार संभालते हैं तथा ला देवराजजी कसूर के म्युनिसिपल कमिश्नर, ऑनरेरी मजिस्ट्रेट तथा मेम्बर डिस्ट्रिक्ट बोर्ड हैं। आपका परिवार कसूर में नामी माना जाता है।
लाला रघुनाथदासजी के पुत्र अजितप्रसादजी, मदनलालजी, जलंधरनाथजी तथा पुरुषोत्तमदासजी हैं। इसी प्रकार देवराजजी के पुत्र शीतलप्रसादजी, सुमतिप्रकाशजी, भूपेन्द्रकुमारजी और सतपालजी हैं।
लाला फग्गूमल मोतीराम दूगड़, लाहोर
इस खानदान में लाला हरजसरायजी के पुत्र फम्मूशाहजी हुए। लाला फग्गूशाहजी के पुत्र लाला दुमीचन्दजी और लाला मोतीरामजी हुए। इन दोनों भाइयों ने करीब ३०, ३५ वर्ष पूर्व लाहौर में एक दीक्षा महोत्सव कराया तथा इन्होंने एक जंजाधर नामक विशाल मकान बनवाकर धर्म कार्य के लिये दान दिया । लाला दुनीचंदजी लाहौर तथा पंजाब प्रान्त की जैन समाज में नामी आदमी थे । धर्मं के कामों में आप दिलेरी के साथ खरच करते थे। आपका स्वर्गवास लगभग १९६५ में हुआ । लगभग २५/३० साल बाद आप दोनों भाइयों का कारवार अलग २ हो गया। इस समय लाला दुनीचंदजी के पुत्र छाला खेरातीलालजी, दुनीचंद खेरातीलाल के नाम से जनरल मर्चेंट का व्यापार करते हैं ।
लाला मोतीरामजी का जन्म संवत् १९२५ में हुआ । आप लाहौर की जैन समाज में बहुत इज्जत रखते हैं। आपके लाला विलायतीरामजी, लाला खजाँचीमलजी और लाला ज्ञानचन्दजी नामक ३ पुत्र हुए। इनमें विलायतीरामजी संवत् १९८१ में स्वर्गवासी हो गये ।
लाला खजचीमलजी का जन्म संवत् १९५७ में तथा ज्ञानचन्दजी का १९६२ में हुआ
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| आपकी
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दुकान पर सेदमीठा बाजार में रेशमी तथा सफेद कपड़ा और मनिहारी सामान का व्यापार होता है। आप स्थानकवासी आनाय के माननेवाले सज्जन हैं। बाबा विलायतीरामजी के पुत्र लाला रतनचन्दजी हैं पह परिवार लाहौर में प्रतिष्ठित माना जाता है।
___लाला विशनदास फग्गूमल जैन दूगड़, पसरूर (पंजाब)
इस परिवार के पूर्वज लाम पृथ्वीशाहजी के दिवानेशाहजी, मानेशाहजी, सुजानेशाहजी तथा बस्तीशाहजी नामक ४ पुत्र हुए। इनमें दिवानेशाहजी के परिवार में राय साहिब लाला उत्तमचन्दजी कुन्जीलालजी आदि सज्जन हैं। लाला भानेशाहजी के करमचन्दजी, ताराचन्दजी तथा धरमचन्द मामक ३ पुत्र हुए। इनमें लाला करमचन्दजी के दिताशाहजी, गोविंदशाहजी, हाकमशाहजी तथा नरपतशाहजी नामक ४ पुत्र हुए। तथा लाला ताराचंदजी के पुत्र सीतारामजी हुए। लाला गोविंदशाहजी का स्वर्गवास संवत् १९०१ में हुआ। बापका खानदान भादत का रोजगार करता है। लाला गोविंदशाहजी के किशनदासजी. मोतीरामजी, पचालालजी, नंदलालजी, काशीरामजी तथा. गोकुलचन्दजी नामक ६ पुत्र हुए । इनमें विशनदासजी ५० वर्ष पहिले और पन्नालालजी १२ साल पहले स्वर्गवासी हो गये हैं तथा काशीरामजी ने संवत् १९६० में सोहनलालजी महाराज से दीक्षा ग्रहण की। इस समय आप स्थानकवासी पंजाब सम्प्रदाय के युवराज पद पर हैं। शेष ३ भ्राता मौजूद हैं।
लाला विशनदाशजी के पुत्र फग्गूमलजी, लाला मोतीरामजी के खेरातीलालजी तथा गोकुलचन्दजी के पुत्र मुनीलालजी हैं। लाला फग्गूमलजी का जन्म संवत् १९३८ में हुआ। आपके यहाँ फग्गूमल खेरातीलाल, तथा विशनदास मोतीरामजी के नाम से आदत का कारबार होता है। आप पसरूर की उदयचन्द जैन लायबरी, जैन सभा तथा हिन्दू सभा के सेक्रेटरी हैं और यहाँ के अच्छे इज्जतदार पुरुष है। आपके पुत्र चिरंजीलालजी खानगा डोकरा में व्यापार करते हैं तथा दूसरे शादीलालजी बी० ए० एक० एल० बी० ने होशियारपुर में ३ सालों तक प्रेक्टिस की तथा इस समय हंसराज शादीलाल जैन के नाम से १९ सैनागो स्ट्रीट कलकत्ता में जनरल मरचंट्स का व्यापार करते हैं। लाला नंदलालजी, लाला गोकुलचन्दजी तथा लाला खेरातीलालजी पसरूर दुकान का काम देखते हैं। गोकुलचन्दजी के पुत्र, मुन्नीलालजी पढ़ते हैं।
इसी तरह इस परिवार में लाला सीतारामजी के पुत्र लालचन्दजी अमृतसर में आदत का प्यापार करते हैं।
लाला मिनखीराम धनीराम दूगड़, कसूर इस परिवार के सज्जन मंदिर मार्गीय भानाय के मानने वाले हैं । लाला मिनखीरामजी दूगड़ ने
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प्रोसवाल जाति का इतिहास
इस परिवार में मनिहारी (विसाती) का म्यापार आरम्भ किया। आपके भाई धनीरामजी केलाला दीनानाथजी लाला लालचन्दजी, बनारसीदासजी और कस्तूरीलालजी नामक ५ पुत्र हुए। आप सब भाई सज्जन व्यक्ति हैं तथा आपने अपने धंधे को उन्नति दी है। आपकी दुकान कसूर में अच्छी प्रतिष्ठित मानी जाती है । लाला कस्तूरीमलजी ने श्री आत्मानन्द जैन गुल्कुल गुजरानवाला में शिक्षा पाई है तथा सन् १९३० में 'न्यायतीर्थ' की परीक्षा इन्दौर से पास की है। आप इस समय अपनी होयजरी फेक्टरी का संचालन करते हैं। इस परिवार में मिनखीराम धनीराम के नाम से जनरल मर्चेटाइज का म्यापार होता है।
• . लाला खानचन्दजी दूगड़, रावलपिण्डी
इस परिवार की आर्थिक स्थिति लाला खानचन्दजी के पिता लाला जीवाशाह के समय तक साधारण श्री। काला जीवाशाहजी के लाला खानचंदजी, लाला खजानचंदजी, लाला ज्ञानचंदजी और लाली रामरिखामजी नामक चार पुत्र हुए। इनमें से काला खानचंदजी ने इस खानदान की दौलत और इजत को खूब बढ़ाया । इन्ने कन्ट्राक्टिङ्ग बिजिनेस भारम्भ करके उसमें बहुत बड़ी कामयाबी हासिल की। आप श्री जैन सुमति मित्र मण्डल रावलपिण्डी प्रथम सभापति रहे । जैन कना पाठशाला की स्थापना में भी आपने बहुत मदद दी। इसी प्रकार और भी पब्लिक कार्यों में भाप सहयोग देते रहते थे। आपका देहान्त सन् १९२ में हुआ । मापके लाला सागरचन्दजी, छाला भगतरामजी, लाला नौवतरामजी, लाला सांईदास तथा लालाचमनलाळजी नामक पाँच पुत्र हुए । इस समय इस खानदान में लाला खानचन्द एण्ड सन्स के नाम से जनरल मर्चेण्टाइज का व्यापार होता है। लाला सागरचंदजी तथा लाला भगतरामजी बड़े धार्मिक और उत्साही सजन है। रावलपिण्डी में इस खानदान की अच्छी प्रतिष्ठा है। पहखानदान जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी भानाय का उपासक है।
__लाला के. सी. निहालचन्द जैन, रावलपिण्डी
इस खानदान के पूर्वज बाला गण्डामलजी पसरूर में रहते थे। लाला गण्डामली की पसरूर में बहुत इजत थी। इनके लाला बोगाशाहजी और लाला गुरुदित्ताशाहजी नामक दो पुत्र हुए। लाला गुरुदिता. शाहनी के पुत्र हुए। इनमें से सबसे छोटे लाला निहालचंदजी ने करीब २५ साल पहले रावलपिन्डी में आकर गोटा किनारी का कारवार शुरू किया। सन् १९१६ में हिन्दू मुसलमानों के दंगे के समय जब रावलपिण्डी में चारों ओर अग्निकाण्ड हो रहे थे तब इन्होंने फायर ब्रिगेड के कप्तान होकर जनता की बहुत सेवा की थी । आपको गक्टरी और इंजीनियरिश का बहुत शौक था । आपका अन्तकाल संवत् १९४३ में हुभा । आपके बड़े भाई काला भीमसेनजी और लाला खुशालचन्दजी का स्वर्गवास मशः १९७२ और १९६०
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दूगर
में हुआ। लाला खुशालचन्दजी के चार पुत्र हुए जिनमें सबसे छोटे काला मुकसाराजजी जैन हिन्दी रख हैं। इस समय आप विद्यमान हैं। आप श्री जैन सुमति मित्र मण्डल के सेक्रेटरी और जैन पाठशाला के मैनेजर हैं। इसके पहले आप जैन यंग मेन्स एसोसिएशन के सेटरी है। खाला भीमसेनजी के पुत्र लाला मगरमलजी हैं। ये दोनों भाई रावलपिण्डी में 'के. सी. विहालवन्द' के नाम से सराफी और जेवर का मापार करते हैं।
लाला पंजूशाह धर्मचन्द जैन दूगड़, नारोवाल (पंजाब)
नारोवाल की दूगड़ बिरादरी के पूर्वज लाला केशरीशाहजी सिपालकोट डिस्ट्रिक्ट के चिट्ठीशेषा नामक स्थान से १५० साल पहले गारोवाळ भाये । इनके पौत्र घसीटेशाहजी के पुत्र सख्दूशाहजी ने पूरे जैन मंदिर बनवाने का बीड़ा उठाया, और उसे तयार करवा कर उसकी प्रण्टिा संवत् १९१३ में की। घसीटेशाहजी के तीसरे भाई मुस्तहाकशाहजी के पोलानाहजी, गोकशाहजी, काशीरामजी, पदमुनी तथा पालाशाहजी नामक पाँच पुत्र थे। इनमें से छोटे पाबाजी थे। आप मामूली सत्की यापार करते हुए संवत् १९६० में स्वर्गवासी हो गये। आपके पुत्र लाल पंजूसाहजी का जन्म सम्बत् १९१५ में हुमा । लाला पंजूशाहजी ने अपने खानदान की इजत तथा अपने व्यापार की बहुत बढ़ाया। मापने २५ हजार रुपयों की लागत से नारोवाल स्टेशन पर एक सुंदर धर्मशाला बनवाई है। स्थानीय मंदिर आदि कार्यों में आप पूरी मदद देते हैं। आपके धरमचंदजी, गुलजारीलालजी, सरदारीलालजी, पूर्णचन्द्रजी, कपूर चंदजी, टेकचंदजी, रतनलालजी तथा शांतिलालजी नामक ८ पुत्र हैं। आपके यहाँ सराफी, बर्तन व भादत का काम होता है।
इसी परिवार में लाय घसीटाशाहजी के पौत्र बाला चुनीलालजी हैं । आपके पुत्र लाला जसवंतरायजी बी० ए० एल० एल० बी० अमृतसर में प्रेक्टिस करते हैं। तथा चाबूलालजी बी० ए० एल. एल. बी. नारोवाल में प्रेक्टिस करते हैं। आप दोनों सज्जनों का पंजाब के शिक्षित जैन समाज में अच्छा सम्मान है तथा कई संस्थाओं से आपका सम्बन्ध है।
सेठ चुन्नीलाल सुखराज दूगड, विल्लिपुरम् (मद्रास) इस परिवार वाले मूल निवासी बगदी (मारवाद) है। भाप जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी भाम्नाय को मानने वाले हैं। इस खानदान में से सेठ पूनमचन्दजी के पुत्र चुनीलालजी व्यवसाय के लिये सन १९०० में देश से चलकर नौरंगाबाद आये, और वहां की प्रसिद्ध फर्म, मेसर्स पूनमचन्द बक्तावर
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
मल,
की 'दुकान पर मुनीम होगये । उस स्थान पर आपने बड़ी सच्चाई और ईमानदारी से काम किया और मालिकों में तथा जनता में अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त की । सन् १९१६ में स्वतंत्र दुकान स्थापित करने के विचार से ये मद्रास आये और बिल्लीपुरम् में अपने बहनोई सेठ कुंदनमलजी सेठिया की भागीदारी में 'सेठ वक्तावर मल बच्छराज' के नाम से दुकान स्थापित की। सात वर्षों में आपने अपनी दुकान की स्थिति को मजबूत बना लिया। आपका स्वर्गवास संवत् १९८० में हुआ। आपने यहां की तामिल जनता में अच्छा सम्मान पाया। आपके सुखराजंजी नामक एक पुत्र है। विल्लिपुरम् की जनता में सुखराजजी दूगड़ का बड़ा सम्मान है। आप अच्छे राष्ट्रीय कार्य्यकर्ता और खहर प्रचारक है । आप यहां की कांग्रेस के सेक्रेटरी भी रह चुके हैं। ब्यावर जैन गुरुकुल आदि संस्थाओं को आप काफी सहायता पहुँचाते हैं । सेठ चन्दनमलंजी के पुत्र नथमलजी बड़े योग्य और होनहार नवयुवक हैं। इन्होंने व्यावर गुरुकुल से न्यायतीर्थं, व्याकरणतीर्थं तथा सिद्धान्त तीर्थं की परिभाषाएँ पास कीं । विल्लीपुरम् में आप लोग मेसर्स बतावरमल बच्छराज के साझे में बैकिंग का तथा नेहरू स्वदेशी स्टोअर के नाम से स्वदेशी कपड़े का व्यापार करते हैं। यहां के व्यापारिक समाज में यह फर्म प्रतिष्ठित है ।
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सेठ कपूरचन्द हंसराज दूगड़ न्यायडोंगरी
इस परिवार के पूर्वज हुकमीचन्दजी दूगड़ मारवाड़ के दूगोली नामक स्थान से कुचेरा में आकर बसे । इनके भवानीरामजी, हिम्मतरामजी, हीराचन्दजी, सिरदारमलजी, गुलाबचन्दजी, धनजी, सूरजमलजी और जोधराजजी नामक ८ पुत्र हुए। इनमें गुलाबचन्दजी, सूरजमलजी तथा जोधराजजी का परिवार वाले लगभग सौ सवासौ साल पहले न्यायडोंगरी आये तथा शेष ५ भाइयों का परिवार टाकली ( चालीस गाँव ) गया । सेठ गुलाबचन्दजी के पुत्र हंसराजजी तथा सूरजमलजी के पुत्र चन्दूलालजी हुए । इन दोनों भाइयों ने इस परिवार के व्यापार और सम्मान में उन्नति की । इन दोनों भाइयों ने व्यापार संवत् १९४० में शुरू किया। सेठ चन्दूलालजी का संवत् १९७८ में स्वर्गवास हुआ ।
सेठ हंसराजजी का जन्म संवत् १९०८ में हुआ । आप विद्यमान हैं । आपके पुत्र नथमलजी, माणकचन्दजी, अमरचन्दजी तथा कपूरचन्दजी हैं। इसी तरह चंदूलालजी के पुत्र रतनचन्दजी और उमदजी हैं। आप सब बंधु किराना, कपास, कपड़ा, कृषि तथा साहुकारी लेने देन का काम काज करते हैं। यह परिवार न्यायडोंगरी में अच्छा प्रतिष्ठित माना जाता है । । नथमलजी के पुत्र हरकचन्दजी तथा माणकचन्दजी के पुत्र मोतीलालजी भी व्यापारिक कामों में भाग लेते हैं। शेष सब भाइयों के भी संतानें हैं। यह परिवार स्थानकवासी आम्नाय का अनुयायी हैं ।
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चोपड़ा गौत्र की उत्पत्ति
विक्रमी संवत् ११५६ में जैनाचार्य जिनबल्लभसूरिजी मंडोवर नगर में पधारे। वहाँ के अधिपति नाहरराव पड़िहार ने जैनाचार्य से पुत्र प्राप्ति के लिए प्रार्थना की । आचार्य श्री के उपदेश से राजा के ४ पुत्र हुए। लेकिन राजा ने जैन धर्म अंगीकार नहीं किया। थोड़े समय बाद राजा नाहरराव पड़िहार के बडे पुत्र कुकड़देव साँप का विष खाजाने से भयंकर रोग ग्रसित हो गये और सारे शरीर से दुर्गन्ध आने लगी। अनेकों चिकित्साएँ करने पर भी जब शांति नहीं मिली, उस समय राजा चतुर के दीवान गुणधरणी ने नाहरराव को बतलाया कि आपने जैनाचार्य के साथ धोखा किया है, इसी के प्रतिफल में यह आपत्ति भाई है। फलतः राना मुनिदेव की तलाश में गये, और सोजत के समीप उनसे भेंट की। राजा की प्रार्थना पर ध्यान देकर मुनिदेव मंडोवर आये और कुछड़देव के शरीर पर मक्खन चोपड़ने को कहा। इससे कुक्कड़ देव ने स्वास्थ्य लाभ किया। यह चमत्कार देख राजा अपने चारों पुत्रों सहित जैन धर्म से दीक्षित होगया। इस तरह औषधि चोपड़ने से इनकी गौत्र “चौपड़ा” प्रसिद्ध हुई और कुक्कड़ पुत्र के नाम से कुक्कड़ चोपड़ा विख्यात हुए। इसी तरह मंत्री गुणधरजी की संतानें गणधर चोपड़ा कहलाई।
माहरदेव के पश्चात् उनकी पीदी में दीपचन्दजी हुए । जैनाचार्य जिनकुशलसूरिजी के उपदेश से इन्होंने ओसवाल समाज में अपना सम्बन्ध किया। इनकी कई पीढ़ियों के बाद सोनपालजी के पौत्र ठाकुरसीजी हुए। वे बड़े शूर तथा बुद्धिमान पुरुष थे । जोधपुर के राष चूंडाजी ने इनके जिम्मे अपने कोठार का काम किया, तबसे ये चौपड़ा कोठारी कहलाये ।
यह कहे बिना नहीं रहा जा सकता कि इस चोपड़ा परिवार ने समय २ पर अनेकों धार्मिक काम किये, अनेकों मंदिरों का निर्माण कराया, और शास्त्र भंडार भरवाये, जिनका परिचय स्थान २ के शिलालेखों में मिलता है । इस परिवार के साः हेमराजजी, पूनाजी नामक व्यक्तियों ने संवत् १४९४ में जेसलमेर में सुप्रसिद्ध संभवनाथजी का मन्दिर तयार करवाया । इस विशाल मन्दिर के भूमि गृह में ताडपत्र पर अंकित जेसलमेर का सुप्रसिद्ध जैन वृहद् ग्रंथ भण्डार मौजूद है। इस भण्डार के ग्रंथों की सूची “बड़ौदा सैंट्रल लायब्रेरी" ने प्रकाशित कराई है। इसी तरह संखलेचा साः खेता तथा चोपड़ा साः पाँचा ने जेसलमेर में शांतिनाथजी तथा अष्टापदजी के मंदिर की प्रतिष्ठा संवत् १५३६ में कराई। इन दोनों मन्दिरों में लगभग
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प्रोसबाल बाति का इतिहास
हजार प्रतिमाएँ है। इसी तरह के कई कार्य चोपड़ां गोत्र के सजनों ने किये। इनके सम्बन्ध में “जैन धातु प्रतिमा लेख संग्रह" नामक ग्रंथ में शिलालेख अंकित हैं।
गंगाशहर का चौपडा (कूकर) परिवार - यह खानदान प्रारम्भ में मारवाड़ के अन्तर्गत रहता था। वहाँ से इसके पूर्वज बीकानेर के दुस्सारण नामक स्थान पर आकर बसे। वहाँ पर इस खानदान में सेठ अमीचन्दजी हुए। ये दुस्सारण से उठकर संवत् १००० के करीब बीकानेर रियासत के गुसाईसर नामक स्थान में आकर रहने लगे। आपके दो पुत्र हुए जिनके नाम क्रमसे सेठ देवचन्दजी और सेठ बच्छराजजी था। सेठ देवचन्दजी के तीन पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः सेठ भौमराजजी, सेठ मेघराजजी और सेठ अखेचन्दजी था। इनमें से पहले सेठ भौमराजजी गुसाईसर में ही स्वर्गवासी हो गये, दूसरे सेठ मेघराजजी गुसाईसर से उठकर गंगाशहर (बीकानेर) में आकर बस गये और तीसरे अक्खैराजजी पंजाब के गैलाला नामक स्थान पर चले गये और वहीं उनका देहान्त हुआ।
सेठ मेघराजजी गुसाईसर और गंगाशहर में ही रहे । इनकी आर्थिक स्थिति बहुत साधारण थी। फिर भी इनका हृदय बड़ा उदार और सहानुभूति पूर्ण था। अपनी शक्ति भर ये अच्छे और परोपकार सम्बन्धी कार्यों में सहायता देते रहते थे। आपका स्वर्गवास संवत् १९६३ के पौष मास में हो गया। आपके क्रमसे सेठ भैरोंदानजी, सेठ ईसरचंदजी, सेठ तेजमलजी, सेठ पूरनचन्दजी, सेठ हंसराजजी और सेठ चुन्नीलालजी नामक छः पुत्र हुए।
सेठ भैरोंदानजी-आपका जन्म संवत् १९३७ की आश्विन शुक्ला दशमी को हुआ। आप शुरू से ही बड़े प्रतिभाशाली और होनहार थे। आप केवल नौ वर्ष की उन्न में संवत् १९४३ में अपने काका मदनचन्दजी के साथ सिराजगंज गये और वहाँ सरदारशहर के टीकमचन्द मुकनचन्द की फर्म पर नौकरी की। मगर आपका भाग्य आप पर मुसकरा रहा था और आपकी प्रतिभा आपको शीघ्रता के साथ उन्नति की ओर खींचे लिये जा रही थी, जिसके फल स्वरूप इस नौकरी को छोड़कर आपने संवत् १९५३ में बंगाल की मशहूर फर्म हरिसिंह निहालचन्द की सिराजगंज वाली शाखा पर सर्विस करली । यहीं से आपके भाग्य ने पलटा खोना प्रारम्भ किया। संवत् १९५८ तक भाप यहाँ पर रहे। तदन्तर इसी फर्म के हेड आफिस कलकत्ता में आप चले आये। आपके आने के पश्चात् इस प्रसिद्ध फर्म की और भी जोरों से तरकी होने लगी। आपकी तथा आपके भाइयों की कारगुजारी से मेसर्स हरिसिंह निहालचन्द के मालिक बहुत प्रसन रहते थे। इसके पश्चात् आपने डिवडिबी (रंगपुर) और भदंगामारी (रंगपुर) नामक जूट के केन्द्रों में भैरोंदान ईसरचन्द के नाम से अपनी स्वतन्त्र फर्म भी खोली और उनके द्वारा काफी द्रव्य उपार्जिन किया।
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इसके पागात् अपनी प्रतिभा और कारगुजारी से बढ़ते २ संवत् 18 भाद मास में. आप मेसर्व हरिसिंह निहालचन्द की फर्म में साक्षीदार हो गये। आपका स्वर्गवास सम्बत् ११४. भाषाद सुदी २ को हुआ ।
सेठ भैरोंदानजी के सारे जीवन को देखने पर यह स्पष्ट मालूम हो जाता है कि भाप उन कर्मवीरों में से थे जो अपनी प्रतिभा और कर्मवीरता के बल से अपने पैरों पर खड़े होकर संसार की सब सम्पदाओं को प्राप्त कर लेते हैं । इन्होंने अत्यन्त साधारण स्थिति से ऊँचे उठकर अपने हाथों से लाखों रुपयों की दौलत को उपार्जित किया और इतना कर लेने पर भी आप पर. धन-मद विलकुल सवार नहीं हुआ। आप जीवन पर्यन्त अत्यन्त निरभिमान, सादे, उदार और धार्मिक वृत्तियों से परिपूर्ण रहे। बीकानेर स्टेट में आपका बहुत अच्छा सम्मान था। आपके बाल लूनकरनजी, बाबू मंगलचन्दजी, बाबू जसकरणजी और बाबू पानमलजी नामक चार पुत्र हुए हैं। आप चारों भाई बड़े सजन और मिलनसार हैं और अपने व्यापार का संचालन करते हैं। बाबू लूनकरणजी के पूनमचन्दजी और बाबू जसकरणजी के जवरीमलजी नामक एक र पुत्र हैं।
. सेठ ईसरचन्दजी चोपड़ा-आपका जन्म संवत् १९३९ के कार्तिक मास में हुआ। आप भी केवळ ग्यारह वर्ष की उम्र में संवत् १९५० के अन्तर्गत सिराजगंज गये और वहाँ पर काम सीखते रहे। फिर संवत् १९५८ तक दो तीन स्थानों पर नौकरी कर आप भी मेसर्स हरिसिंह निहालचन्द की फर्म पर आगये। आप भी अपने भाई सेठ भैरोंदानजी ही की तरह विलक्षण बुद्धि के व्यापारकुशल सजन हैं। सम्बत् १९६५ में उक्त फर्म में साझा हो जाने के पश्चात् इन दोनों भाइयों की कार्यकुशलता से इस फर्म ने बहुत वेग गामी गति से उन्नति की । इस समय सेठ ईसरचन्दजी सारेकुटुम्ब का, और सारे व्यापार का संगठित रूप से संचालन कर रहे हैं । आपकी उदारता, दानवीरता और धार्मिकवृत्ति भी बहुत बड़ी चढ़ी है। आपको तथा आपके बड़े भ्राता को बीकानेर दरवार ने एक खास रुका प्रदान कर सम्मानित किया है। मापके इस समय तोलारामजी नामक एक पुत्र हैं जो अभी विद्याध्ययन कर रहे हैं।
सेठ तेजमलजी चोपड़ा-आपका जन्म सम्वत् १९४१ पौष में हुमा । आप भी ५ वर्ष की भायु में सम्वत् १९५४ में सिराजगंज गये और वहाँ कुछ काम सीख कर अपनी डिवडिबी वाली फर्म पर जाकर उसका संचालन करने लगे। आप भी बड़े योग्य और मिलनसार बक्ति हैं। आप अधिकतर देशही में रहते हैं। भापके वा० आसकरणजी, बा० राजवरणजी, बा. दीपचन्दजी,वा. प्रेमचन्दनी और वा पूसराजजो नामक पाँच पुत्र है। इनमें छोटे पूसराजजी भभी पढ़ते है और बड़े चारों व्यापार में भाग लेते हैं। बापू भासकरणवी
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बोसवाल जाति का इतिहास के जेठमलजी, राजकरणजी के इन्द्रचन्दजी, दीपचन्दजी के जयचन्दलालजी और मोहनलालजी प्रेमचन्दजी तथा सोहनलालजी नामक पुत्र है। सेठ पूरनचंदजी, हेमराजजी और चुन्नीलालजी चोपड़ा का खानदान
सेठ पूरनचंदजी का जन्म संवत् १९४६ में, सेठ हेमराजजी का १९५० में और सेठ चुनीलालजी का १९५३ में हुआ। खेद है कि इनमें से सेठ चुन्नीलालजी का स्वर्गवास बहुत कम उम्र में संवत् १९९० में होगया। आप सब भाई भी बड़े योग्य और सजन व्यक्ति हैं। आप सब लोग भी कलकत्ते में अपनी फर्म के व्यापार संचालन में भाग लेते हैं। सेठ पूरनचन्दजी के छगनमलजी, केसरीसिंहजी और हंसराजजी नामक तीन पुत्र हैं बाबू छगनमलजी के मांगीलालजी नामक एक पुत्र है।
सेठ हेमराजजी के तिलोकचन्दजीनामक एक पुत्र है। आप भी बड़े मिलनसार और योग्य सजन हैं। आपके रतनलालजी, मोतीलालजी और कन्हैयालालजी नामक तीन पुत्र हैं।
सेठ चुनीलालजीके नेमचन्दजो और धनराजजी नामक दो पुत्र हैं आप दोनों विद्याध्ययन करते हैं।
इस परिवार वालों का व्यापार संवत् १९६३ से १९९० तक मेसर्स हरिसिंह निहालचन्द के साझे में होता रहा। संवत् १९७१ में आप लोगों ने कलकरो में मेसर्स आसकरण लूणकरन के नाम से एक और फर्म खोली जो संवत् १९८४ तक चलती रही। इसके पश्चात् संवत् १९८५ में यह फर्म मेससं छगनमल तोलाराम के नाम से स्थापित हुई जो अभी चल रही है। इस फर्म पर जूट बेलिंग, शिपिंग, सेलिंग
और कमीशन एजेन्सी का काम होता है। यह फर्म गंगानगर इण्डस्ट्रीज लिमिटेड की मैनेजिंन एजन्ट है। इस फर्म की शाखा कलकत्ता में मेसर्स चोपड़ा प्रोप्राइटीज एण्ड कम्पनी के नाम से है। इसके अण्डर में कलकत्ता काशीपुर में चौपड़ा बाजार के नाम से जूट के गोदाम, और बीकानेर रियासत के टीबी परगने में दो गाँव जमीदारी पर हैं इसके अतिरिक्त सिरसावाड़ी, सिरसागंज, पिंगना, भड़गामारी, फारबिसगंज, बनवन, रामनगर इत्यादि बंगाल के व्यापारिक केन्द्रों में इसकी शाखाएं हैं। इनमें से रामनगर नामक प्राम तो इसी फर्म के द्वारा जमीन खरीदकर बसाया गया है।
देवल म्यापारिक दृष्टि ही से नहीं धार्मिक और सार्वजनिक कार्यों में भी इस परिवार ने समय समय पर काफो भाग लिया है और हमेशा लेता रहता है। इस परिवार ने बीस हजार रुपया हिन्दू युनिवर्सिटी बनारस को तथा नौ हजार राजलदेसर गर्ल स्कूल में प्रदान किया है । गुसाईसर में करीब २० हजार की लागत से एक कुंआ बनवाया। आप लोगों का विचार गंगाशहर में एक चौपड़ा हाईस्कूल खोलने का है इसके लिए आपने करीब ७० हजार गज जमीन खरीद कर रखी है। इस स्कूल में लगभग
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० सेठ भैरोंदानजी चौपड़ा, गंगाशहर.
सेठ ईसरचंदजी चौपड़ा, गंगाशहर.
रव० सेठ घेवरचंदजी चौपड़ा, सुजानगढ़.
सेठ दानचंदजी चौपड़ा, सुजानगढ़.
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भोपड़ा एक लाख रुपया खर्च होने का अनुमान है। गंगा शहर में इस परिवार की बड़ी र मालीशान हवेलियां बनी हुई हैं।
सेठ घेवरचंद दानचंद चौपडा, सुजानगढ़ इस परिवार के वर्तमान मालिक जैनश्वेताम्बर तेरापंथी सम्प्रदाय के अनुयायी हैं। इनके पूर्वज शुरू शुरू में बीकानेर के निवासी थे। वहां वे लोग उस समय में राजकीय कार्य करते थे। वहाँ से घटना चक्र वश उनके वंशज चलकर आसोप नामक स्थान पर मा बसे जो कि वर्तमान में मारवाद स्टेट का एक ठिकाना है। कुछ समय तक ये लोग यहीं रहे। अन्त में संवत् १९०० के लगभग इस वंश के एक पुरुष जिनका नाम सेठ पूनमचन्दजी था चलकर डीडवाना (जोधपुर स्टेट ) में आ बसे । यहाँ भी आप राज कार्य ही करते रहे । मापके चार पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः सेठ हीराचंदजी, सेठ उदयचन्दजी, सेठ घेवरचन्दजी एवम् सेठ मिलापचंदजी था।
घेवरचंदजी-उपरोक्त चारों भ्राताओं में आप का नाम विशेष उल्लेनीय है भाप बड़े प्रतिभाशाली और कर्मवीर पुरुष थे। संवत् १९३५ में आपने शुरूर में ग्वालंदो (बंगाल) में अपनी फर्म खोली। उस समय इस फर्म पर बहुत मामूली म्यापार होता था। मगर भाप व्यापार कुशल सज्जन थे और उस समप बंगाल आसाम में जूट का व्यापार जोरों पर हो रहा था, अतएव कहना न होगा कि इस व्यापार में आपने बहुत द्रव्य उपार्जन किया। यहां तक कि साधारण स्थिति में होते हुए भी आप लखपतियों में गिने जाने लग गये । बंगाल के जूट के व्यापार का सम्बन्ध कलकत्ता में है अतएव आपने अपने व्यापार की विशेष उन्नति होने के लिये संवत् १९६३ में कलकत्ता में भी अपनी एक ब्रांच खोली और जूट का व्यापार प्रारम्भ किया। इस फर्म के द्वारा भी आपको बहुत लाभ हुआ। व्यापार के अतिरिक्त भार्मिकता की
ओर भी आपकी अच्छी रुचि थी। आपके दानचन्दजी नामक एक पुत्र हुए । सेठ घेवरचन्दजी का स्वर्गवास संवत् १९०१ में होगया।
दानचंदजी-वर्तमान में आप ही इस परिवार में मुख्य व्यक्ति हैं। आप भी अपने पिताजी की तरह व्यापार चतुर पुरुष हैं। यहां की पंचायती एवम् थली की ओसवाल समाज में आप एक प्रतिष्ठित व्यक्ति माने जाते हैं। आप यहां के प्रायः सभी सार्वजनिक जीवन में सहयोग प्रदान करते रहते हैं। आपने हाल ही में अपने स्वर्गीय पिताजी की स्मृति में एक श्री घेवर पुस्तकालय स्थापित किया है जिस की शानदार इमारत ३००००) रुपया लगा कर आपने बनवादी है। इसके अतिरिक्त मापने अपने स्वर्गीय पिताजी की स्मृति में इस्टर्न बंगाल रेल्वे के ग्वालंदो की स्टेशन का नाम ग्वालंदो घेवर बाजार कर दिया है। उसी स्थान पर आपने पब्लिक के लिए एक अस्पताल बनवा कर
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पोसवाल माति का इतिहास उसकी बिल्डिंग यूनियन पोर में प्रदान करदी है। इसी प्रकार आप हमेशा धार्मिक, सामाजिक और पब्लिक कार्यों में सहायता प्रदान करते रहते हैं। आप एक मिलनसार, शिक्षित एवम् उच्च विचारों के सजन है। बीकानेर दरवार ने मापके कार्यों से प्रसन्न होकर आपको आनरेरी मजिस्ट्रेट के पद पर नियुक्त किया है। आपके इस समय • पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः विजयसिंहजी, पनेचन्दजी, श्रीचन्दजी, एवम् परतापचन्दजी हैं। भापका मापार कलकत्ता एवम् ग्वालंदो घेवर बाजार में जूट का होता है ।
जोधपुर का मोदी खानदान इस खानदान पाले वास्तव में गणधर चौपडा गौत्र के हैं मगर राज्य की ओर से 'मोडी, की उपाधि मिलने से यह बानदान “मोदी" के नाम से प्रसिद्ध है। इस खानदान का इतिहास भी उज्वल और उत्साह वर्द्धक है । कहना न होगा कि इसके पूर्वजों ने अपने उज्ज्वल कारनामों से इतिहास में अपना खास स्थान प्राप्त कर लिया है।
मोदी पाथाजी-इस खानदान का इतिहास उस समय से प्रारम्भ होता है जब संवत् १७३५ में जोधपुर के तत्कालीन महाराजा यशवन्तसिंहजी का स्वर्गवास हो गया था और कई राजनैतिक परिस्थितियों के वश होकर उनके पुत्र महाराज भजीतसिंहजी को छप्पन के पहाड़ों में छिपकर रहना पड़ा था। उस समय उपरोक खानदान के पूर्व पुरुष नाथाजी के पुत्र पीथाजी (पृथ्वीराजजी) जालौर में रहते थे। उस कठिन समय में एक बार पीयानी जङ्गल में महाराजा अजितसिंहजी के साथियों से मिल गये, जिन्होंने उन्हें महाराजा भजितसिंहजी से मिलाया । कहना न होगा कि उस समय महाराजा अजितसिंहजी बहुत कठिन विपत्ति (बिखे ) में थे। उस विपत्ति के समय में पीथाजी ने उन्हें अन्न और धन की बहुत काफी सहायता पहुँचाई जिसकी वजह से उनका महाराजा से तथा उनके साथियों से-जिनमें वीरवर राठौड़ दुर्गाराम, मुकुन्ददास मेदतिया, गोपीनाथ आदि के नाम उल्लेखनीय हैं-इनका काफी परिचय हो गया।
जब संवत् १७६३ में औरंगजेब का देहान्त हो गया और महाराजा अजितसिंहजी गद्दीनशीन हुए, तब उन्होंने पीथाजी को बुलाकर उनका बड़ा सस्कार किया और वंश परम्परा के लिए "मोदी" की उपाधि दी। इसके सिवा "सरकार की भाण जठे थारो डाण" कहकर उनके लिए सायर महसूल की भी माफी दी।
पीथाजी के फत्ताजी ( फतेचन्दजी ) नामक एक छोटे भाई और थे। वे भी जालोर में रहते थे। महाराजा अजितसिंहजी की कृपा होने से पीथाजी के वंशज जोधपुर में आकर बस गये मगर फत्ताजी जालौर में ही रहे।
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श्री शम्भूनाथजी मोदी बी. ए.. सेशन जज जोधपुर.
श्री इन्द्रनाथजी मोदी बी. ए., जोधपुर.
श्री आसकरणजी चोपड़ा ( बालचन्द रामलाल) लोहावट.
रायसाहब डाक्टर रामजीदासजी जैन, मजीठा (पंजाब)
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चौपड़ा
मोदी पथाजी का खानदान
मोदी पीथाजी के माचन्दजी और बन्दकी नामक दो पुत्र हुए। इनमें माखचन्दजी के पुत्र मोदी मूलचन्दजी संवत् १८७२ में सिंघवी इन्दनी के साथ मीखां के सिपाहियों द्वारा घायल हुए और उसीसे उनका देहान्त्र हुआ, उनका दाह संस्कार सिंघवी इन्द्रसजी के समीप ही किया गया ।
मोदी दीनानाथजी चन्दनी के चार पुत्र हुए- हरनाथजी, गोपीनाथजी, शिवनाभजी और लक्ष्मीनाथजी । हरनाथजी के पुत्र दीनानाथवी को महाराजा मानसिंहजी के समय जयपुर घेरे में सहयोग देने के उपलक्ष्य में एक गाँव पट्टे हुआ था । आप जयपुर के वकील भी बनाए गये थे । आपके प्राणनाथजी नवलनाथजी, मीनाथनी, बैजनाथजी तथा चन्दननाथजी नामक ५ पुत्र हुए ।
मोदी प्राणनाथजी - आप जोधपुर के हाकिम रहे तथा आपके पास एक गांव जागीर में था । इन्होंने खासे के समय में कुछ दिनों तक दीवानगी का काम भी देखा था। बैजनाथजी के नाम पर जोधएक और गोलवाड़ की एवं मीठावाथजी के शिद की हुकुमत रही ।
मोदी सूरजनाथजी सवलताथजी सं० १९१५ के कमभम सिंथियों की कढ़ाई में मेड़ के पास काम आए। इनके दो पुत्र हुए, गुलाबनाभजी और अमरनाथकी। अगरनाथजी के पुत्र सूरजनाथजी हुम जिन्होंने महाराजा बख्तसिंहजी के समय में फ़ौज के जाकर भरूनियावाल, गूलर, आसोप तथा भाऊवा के बागी ठाकुरों को परास्त किया । इनका देहान्त १९५० में हुआ। आपके पुत्र सुजाननाथजी हुए जो अच्छे विद्वान व कट्टर भार्य समाजी थे । वर्तमान में सुजाननाथजी के दो पुत्र हैं। सरदारनाथजी और सोभाग्यनाथजी ।
मोदी सरदारनाथजी अपने अल्प अवस्था में ही वकाळात की और इस समय जोधपुर के योग्य वकीलों में आपकी गिनती है आप बड़े मिलनसार उदार तथा प्रतिष्ठित सज्जन हैं। जोधपुर के शिक्षित समान में वजनदार व्यक्ति माने जाते हैं। सौभाग्यनाथजी पिताजी के स्वर्गवास होने के समय बहुत छोटे थे । आप परिश्रम पूर्वक विद्या प्राप्ति में सलग्न रहे। जून १९३१ में आपने एल० एल० बी० की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की और अभी आप जोधपुर स्टेट में वकाळात करते हैं ।
मोदी दीनानाथजी के छोटे पुत्र चन्दननाथजी के अमरनाथजी और अमृतनाथजी नामक पुत्र हुए । अमरनाथजी एवं उनके पुत्र फूलनाथजी भी राज्य की सर्विस करते रहे। फूलनाथजी का स्वर्गवास संवत्
१९७७ में हुआ ।
मोदी शम्भूनाथजी -- मोड़ी फूलनाथजी के पुत्र शम्भूनाथजी और जबरनाथजी हैं। शम्भूनाथजी का जन्म १९४३ में हुआ । आपने बी० ए० तक शिक्ष्म प्राप्त की है। आप सन् १९१९ से १६ तक कई स्थान
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पोसवाल जाति का इतिहास
के हाकिम रहे। इसके बाद भाप जोधपुर में सेशन जज के पद पर नियुक्त हुए । वर्तमान समय में भी भाप इसी पद पर काम कर रहे हैं । आप जोधपुर के शिक्षित समाज में तथा ओसवाल समाज में वजनदार तथा लोकप्रिय सजन हैं। आपके पुत्र मोदी इन्द्रनाथजी हैं।
मोदी इन्द्रनाथजी का जन्म संवत् १९६२ में हुआ। आपने बी० ए० एल० एल० बी० तक उच्च शिक्षा प्राप्त की। सन् १९२७ में आप महाराजा साहिब के प्राइवेट सेक्रेटरी के ऑफिस में ऑफिस सुपरिटेण्डेण्ट हुए। सन् १९३० से १९३३ तक आप स्टेट कौन्सिल के मेम्बर इन वेटींग के सेक्रेटरी रहे । आप बड़े कुशाग्र बुद्धि के नवयुवक हैं।
श्री जवरनाथजी मोदी ने भी उच्च शिक्षा पाई है। इस समय आप महकमे खास में नियुक्त हैं।
श्री दीनानाथजी के तृतीय पुत्र बैजनाथजी थे, जिनके पुत्र शार्दूलनाथजी जाखोर और सांचोर के हाकिम रहे। शार्दूलनाथजी के चार पुत्र हुए-मिश्रीनाथजी, चतुरनाथजी, रूपनाथजी, और सोमनाथ जी। श्री रूपनाथजी के पुत्र श्रीनाथजी है जो टीचर्स ट्रेनिंग स्कूल में इन्स्ट्रक्टर हैं । आपको कविता बनाने की विशेष रुचि है। इनकी लिखी हुई दर्जनों पुस्तकें इस समय प्रचलित हैं।
श्री हरनाथजी के लघु भाता गोपीनाथजी के पौत्र अजबनाथजी हुए, जिनके पुत्र बदरीनाथजीजो उमरकोट के हाकिम थे-सं० १०४४-८५ के लगभग उमरकोट के युद्ध में काम आये आप के प्रपौत्र वर्तमान में वृद्धनाथजी विद्यमान हैं जो स्टेट सर्विस में हैं। बदरीनाथजी के कनिष्ट भ्राता मोदी रामनाथजी सं० १८८४ के लगभग दौलतपुरे में हाकिम थे ।
श्री हरनाथजी के सबसे छोटे भ्राता लक्ष्मीनाथजी थे जिनके वंशज वर्तमान में माणकचन्दजी हैं। आप स्टेट सर्विस में है।
यह परिवार जोधपुर की ओसवाल समाज में उत्तम प्रतिष्ठा रखता है तथा लगातार कई पीढ़ियों से जोधपुर स्टेट की सेवाएँ करता आ रहा है।
मोदी फत्ताजी का परिवार मोदी फत्ताजी के जगन्नाथजी और जसवन्तजी नामक दो पुत्र हुए। मोदी जगन्नाथजी के ठाकुरसीजी तथा रूपचन्दजी नामक पुत्र हुए। इनमें से रूपचन्दजी के कोई संतान नहीं हुई। मोदी ठाकुरसीजी के मुकुन्दसी, रतनसी, सरदारसी और सावंतसी नामक : पुत्र हुए। इनमें मोदी रतनसीजी ने संवत् १४८५ । ८६ में मारवाड़ की सायरात का कंट्राक्ट किया, इसके एवज में उनको जोधपुर दरबार से सायरात की माफी का आर्डर मिला जो उनके पुत्र पदमसी तक पाला गया।
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चोपड़ा
मोदी मुकुन्दसीजी के हेमसीजी, गुमानसीजी और राजसीजी नामक ३ पुत्र हुए और गुमानसी जी के मोकमसीजी, कुशलसीजी और अचलसीजी नामक पुत्र हुए इनमें से मोकमसीजी हेमसीजी के यहां तथा कुशलसीजी राजमीजी के यहां दत्तक गये। मोदी पदमसीजी के पुत्र महताबसीजी ने संवत् १९२५ में जालोर शहर की कोतवाली की। उनके बाद क्रमशः जोरावरसीजी शकुनसीजी व मदनसीजी हुए । वर्तमान में मोदी मदनसीजी वैक्तिगका कारवार करते हैं । मोदी अचलसीजी के पुत्र लालसीजी ने सायरात में सर्विस की, इस समय आप रिटायर्ड हैं, इनके पुत्र गणपतसीजी पढ़ते हैं। मोदी कुशलसीजी के पुत्र तेजसी जी मौजूद हैं। इनके पुत्र करणसीजी बैटिग व्यापार करते हैं।
मोदी सरदारसीजी के थानसीजी, भानसीजी और ज्ञानसीजी नामक तीन पुत्र हुए। ज्ञानसीजी के कुंदनसीजी और चिमनसीजी नामक पुत्र हुए । इनमें कुन्दनसीजी भानसीजी के नाम पर दत्तक गये । मोदी थानसीजी और चिमनसीजी के कोई संतान नहीं हुई। मोदी कुन्दनसीजी के पुत्र दीपसीजी संवत् १९८० में गुजरे । इनके नाम पर मोदी रघुनाथसीजी (पृथ्वीराजजी के खानदान में मोदी विश्वम्भरनाथजी के पुत्र ) संवत १९७६ में दत्तक लिये गये। आपके यहां बैटिंग का कारबार होता है। भाप उत्साही युवक हैं । आपके उगमसी नामक पुत्र हैं।
मोदी खींवसीजी ,के हुकुमसीजी जेतसीजी और सुलतानसीजी हुए। इनमें हुकुमसीजी के कोई संतान नहीं हुई। सुलतानसीजी अभी विद्यमान हैं उनके पुत्र बादलसीजी निसंतान गुजर गये। जेतसीजी के बख्तावरसीजी और सुकनसीजी नामक २ पुत्र हुए। इनमें बख्तावरसीजी विद्यमान हैं, इनके यहां मोदी जवरनाथजी के पुत्र सूरतसीजी दत्तक आये हैं। मुकनसीजी जोरावरसीजी के नाम पर दत्तक गये हैं।
सेठ बालचन्द रामलाल चोपडा, रायपुर (सी० पी०) - इस परिवार के पूर्वज कुक्कड़ चोपदा महाराबजी लोहावट से १० मील दूर सेतरावा नामक स्थान में रहते थे। वहाँ से यह कुटुम्ब लोहावट आकर बसा । महारावजी के राजसीजी, पुरखाजी तथा गोमाजी नामक ३ पुत्र हुए।
सेठ रघुनाथदास बालचन्द-पुरखाजी के गुलाबचन्दजी, रघुनाथदासजी तथा बालचन्दजी नामक ३ पुत्र हुए । इन तीनों भाइयों ने अपने चचेरे भाई गेंदमलजी के साथ लगभग १२५ साल पहिले ब्यापार के लिये यात्रा की तथा नागपुर और उसके आसपास पारदी और महाराजगंज में अपनी दुकाने खोली । धीरे २ इन बन्धुओं का व्यापार रायपुर, धमतरी, राजनांद गाँव, कलकत्ता और बम्बई में फैल गया, और छत्तीसगढ़ प्रान्त में रघुनाथदास बालचन्द के नाम से यह फर्म नामी मानी जाने लगी । इन बन्धुओं में से
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ओसवाल जाति का इतिहास
बालचन्दजी बड़े प्रतिष्ठा सम्पन्न व्यक्ति हुए। आपके विश्वास से लोहावट, फलौदी, खिचंद आदि के कई ओसवाल गृहस्थों ने सी० पी० में अपना व्यापार जमाया। सेठ गुलाबचन्दजी के हीराचन्दजी, सेठ रघुनाथदासजी रतनलालजी, कँवरलालजी, तेजपालजी सेठ बालचंदजी के रामलालजी और गेंदमलजी के भीकमचंदजी नामक पुत्र हुए। इन बन्धुओं ने लोहावट -विसनावास में संवत १९५७ में श्री चंदाप्रभु स्वामी का मंदिर व धर्मशाला बनवाई । अकाल में लोगों को मदद दी । संवत् १९५० में इन सब भाइयों का कारबार अलंग-अलग हुआ ।
चोपड़ा रतनलालजी - आप उम्र भर मारवाड़ ही में रहे तथा आतिथ्य सत्कार मैं नामवरी पाते रहे । सम्वत् १९८९ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके कन्हैयालालजी, जमनालालजी, सोहनलालजी फूलचंदजी तथा भोमराजजी नामक ५ पुत्र विद्यमान हैं। इनमें जमनालालजी तेजमालजी के नाम पर दत्तक गये हैं ।
चोपड़ा तेजमालजी आप बड़े योग्य और कुशल व्यापारी थे। आपने तमाम दुकानों का काम बड़ी बुद्धिमत्ता पूर्वक सम्हाला । आपके नाम पर जमनालालजी दत्तक आये ।
चोपड़ा रामलालजी - आपका जन्म सम्वत् १९२६ में हुआ । आप बड़े दयालु तथा धर्मात्मा पुरुष हो गये हैं । आपने राजनांदगांव में पांजरापोल को स्थापित किया । सम्वत् १९५५ तथा ६२ में मनुष्य तथा पशुओं को बहुत इमदाद पहुंचाई। इसी प्रकार के दिव्य गुणों से आपने विशेष नाम पाया । सम्वत् १९६४ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र चोपड़ा आसकरणजी विद्यमान हैं ।
चोपड़ा जमनालालजी बी० ए० एल० एल० बी० - आपका जन्म सम्वत् १९५० में हुआ । सन् १९१७ में आपने एल० एल० बी० की डिगरी हासिल की तथा १९१८ से आप रायपुर में प्रैक्टिस करते हैं। आप यहाँ के प्रतिष्ठित वकील माने जाने हैं। आपकी रायपुर के शिक्षित समाज में अच्छी प्रतिष्ठा है ।
चोपड़ा श्रासकरणजी -- आपका जन्म संवत् १९५९ में हुआ। आपकी फर्म सेठ बालचंद रामलाल के नाम से व्यापार करती है, तथा रायपुर छत्तीसगढ़ प्रान्त की प्रसिद्ध फर्म मानी जाती है । शिक्षा की ओर आपको अच्छी रुचि है। इस समय आप १ हजार रुपया सालाना व्यावर गुरुकुल को सहायता देते हैं। इसके अलावा लोहावट में आपकी एक कन्या पाठशाला और होमियोपैथिक डिस्पेंसरी है। परदा प्रथा को आपने तोड़ने का प्रयत्न किया है।
इसी तरह इस परिवार में हीराचंदजी के पुत्र माणकलालजी, कंवरलालजी के पुत्र केसरीचंदजी, चंदनमलजी, सम्पतलालजी और प्रतापचंदजी हैं। कंवरलालजी के बंदे पुत्र चम्पालालजी का स्वर्गवास
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चोपड़ा
हो गया है। आप बड़े शिक्षाप्रेमी सजन थे । गोमाजी के परिवार में कुंदनमलजी प्रभावशाली व्यक्ति थे। इस समय गोमाजी के परिवार में जालमचन्दजी, मोमराजजी, नेमीचंदजी, जुगराजजी, मूलचंदजी तथा जेठमलजी विद्यमान हैं । इसी तरह राजसीजी के परिवार में छोगमलजी, सतीदानजी, सुगनमलजी, गणेशमलजी और मेघराजजी हैं।
सेठ राजमल भँवरलाल चोपड़ा (कोठारी) बीकानेर यह परिवार बीकानेर का निवासी है। इस परिवार में सेठ मूलचन्दजी कोठारी ने सिलहट में दुकान स्थापित की, तथा अपनी बुद्धिमत्ता के बलपर उसके व्यापार को बढ़ाया । आपका स्वर्गवास सिलहट में ही हुआ। आपके पुत्र सोभागमलजी के युवावस्था में स्वर्गवासी हो जाने से भैरोंदानजी बीकानेर चले आये।
सेठ भैरौंदानजी बीकानेर से पुनः कलकत्ता गये,तथा वहाँ सेठ जगनाथ मदनगोपाल मोहता तथा हस्तीमलजी मकानेर वालों की फर्म पर कार्य करते रहे। इन दुकानों की आपने अच्छी उन्नति की। आपकी होशियारी और ईमानदारी से प्रसन्न होकर वृद्ध सेठ हस्तीमलजी ने आपको अपने पुत्र ललामीचन्दजी के साथ अपनी फर्म का भागीदार बनाया । आपने इस दुकान की बहुत उन्नति की। बीकानेर तथा कलकत्ता की मोसवाल समाज में आप अच्छे प्रतिष्ठित सजन थे । आपने कई धार्मिक कामों में सहायताएँ दी। संवत् १९४५ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके पुत्र हीरालालजी तथा राजमलजी विद्यमान है। सेठ भेगदानजी के स्वर्गवासी हो जाने पर उनके पुत्रों का उपरोक्त “हस्तीमल लखमीचंद" फर्म से भाग अलग हो गया। तथा इस समय आप लोग मनोहरदास कटला, कलकत्ता में राजमल भंवरलाल के नाम से अपना स्वतन्त्र कारबार करते हैं। आपके यहाँ रेशमी कपड़े का इम्पोर्ट तथा थोक विक्री का व्यापार होता है।
सेठ हीरालालजी के पुत्र भंवरलालजी, धरमचंदजी तथा उमरावसिंहजी और राजमलजी के गोपालचन्द्रजी नामक पुत्र हैं।
राय साहिब डाक्टर रामजीदासजी जैन, मजीठा (पंजाब)
इस परिवार के पूर्वज लाला काकूशाही चोपड़ा मजीठा में व्यापार करते थे । संवत् १९३० में इनका स्वर्गवास हुआ। इनके गोविन्दरामजी, नत्थूरामजी, जिवदामलजी, नथमलजी और विशनदासजी मामक ५ पुत्र हुए। इनमें जिवंदामलजी तथा नथमलजी अभी विद्यमान हैं। लाला गोविंदरामजी सराफी का व्यापार करते थे। इनके पुत्र लाला दौलतरामजी, लाला रामजीदासजी, तथा लाला बरकतरामजी हैं। आपका जन्म क्रमशः सम्बत् १९२७, ३३ तथा १९३५ में हुआ। इनसे छोटे केसरीचन्दजी बी० ए० प्लीडर थे। इनका सन् १९२४ में स्वर्गवास हुभा । इनके पुत्र कैलाशचन्द्रजी तथा प्रकाशचन्द्रजी हैं।
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पोसवाल जाति का इतिहास
___ लाला दौलतरामजी-आप काश्मीर स्टेट में ओवरसियर और जयपुर स्टेट में सब डिविजनल आफिसर फारेस्ट रहे । इधर कई सालों से आप पी० डब्ल्यू. डी० नेपाल में सर्विस करते हैं। आपके पुत्र अमरचंदजी, ताराचंदजी तथा सरदारचंदजी पढ़ते हैं ।
___ लाला रामजीदासजी - आप सन् १८९५ में डाक्टरी पास हुए तथा इसी साल गवर्नमेंट की ओर से जयपुर भेजे गये । वहाँ १९२६ तक आप मेयो हास्पिटल के हाउस सर्जन के पद पर कार्य करते रहे। सन् १९२६ में आपको स्टेट से पेंशन प्राप्त हुई । सन् १९२४ में भारत सरकार ने आपको "राय साहिब" की पदवी इनायत की । सन् १९२९ से ४ साल तक आप ठाकुर साहब डूंडलोद के प्राइवेट डाक्टर और मेयो कालेज अजमेर में उनके कुमारों के गार्जियन रहे। इस समय आपने मजीठा में अपनी प्राइवेट डिस्पेंसरी खोली है। आप मजीठा की जनता में प्रिय व्यक्ति हैं तथा टेपरेंस सोसायटी के प्रेसिडेण्ट हैं । आपके पुत्र प्यारेलालजी उत्साही नवयुवक हैं तथा महावीर दल के प्रधान हैं। आप जयपुर में जवाहरात का ब्यापार करते हैं।
इसी तरह इस परिवार में नत्थूरामजी स्टेशन मास्टर थे। इनके चार पुत्र हैं जिनमें गणपतरामजी स्टेशन मास्टर, काशीरामजी सब इन्सपेक्टर पोलीस पंजाब, तीरथराजजी सब इन्सपेक्टर पोलीस जयपुर हैं। तथा चौथे लाला दीवानचन्दजी मजीठा में व्यापार करते हैं। लाला जिवंदामलजी के पुत्र गोपालदासजी सिंगापुर में मेसर्स नाहर एण्ड कम्पनी के मैनेजर हैं । तथा निहालचन्दजी तिजारत करते हैं। बाबू नन्दलालजी के पुत्र दुर्गादासजी ने सन् १९०७ में दीक्षा ली। इनका वर्तमान नाम मुनि दर्शनविजयजी है।
सेठ अगरचन्द घेवरचन्द चोपड़ा, अजमेर सेठ घेवरचन्दजी चोपदा स्थानकवासी आम्नाय के मानने वाले सजन हैं। आप आरंभ में बहुत मामूली हालत में सर्विस करते थे । लगभग २० वर्ष पूर्व मापने कपड़े की दुकान की तथा इस व्यापार में आपने अपनी लायकी तथा परिश्रमशीलता से केवल कपड़े के व्यापार में अच्छी सम्पत्ति उपा. र्जित की। कपड़े के व्यापार में सम्पत्ति उपार्जित कर आपने अजमेर की प्रसिद्ध मम्बइयाँ परिवार की हवेली खरीद की। इस समय आपके यहाँ रेशमी कपड़ों का व्यापार होता है। आपकी दुकान से राजपूताने के कई रजवारे कपड़ा खरीदते हैं । भाप अजमेर के ओसवाल समाज में अच्छी इज्जत रखते हैं तथा सजन पुरुष हैं। आपके २ पुत्र हैं।
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सवाल जाति का इतिहास
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गधया परिवार ( श्रीचंद गणेशदास गंधइया ) सरदार शहर
बैठे हुए: - (१) सेठ विरदीचंदजी गधइया (२) सेठ गणेशदासजी गधइया ।
खड़े हुएः—(१) कुँ० नेमचंदजी S/O सेठ बिरदीचंदजी गधइया (२) कुँ० उत्तमचंदजी S/0 सेठ बिरदीचंदजी गधड्या
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मधेया
गधैया गौत्र की उत्पत्ति
___ ऐसा कहा जाता है कि चन्देरी नगर के राठौर वंशीय राजा खरहत्थसिंहजी ने खरतर गच्छाचार्य श्री जिनदत्तसूरि से जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण की। भापके भैंसाशाह नामक एक नामांकित पुत्र हुए। इन भैंसाशाहजी के पांचवे पुत्र सेनहत्य का लाड़ का नाम गहाशाहजी था। इन्हीं गद्दाशाहजी की सन्ताने आगे जाकर गधैया के नामसे मशहूर हुई और धीरे १ यह नाम गौत्र के रूप में परिणत हो गया। तभी से गहाशाहजी के वंशज गधैया के नाम से मशहूर हैं।
सेठ जेठमल श्रीचन्दजी गधैया संवत् १८९६ में सेठ जेठमलजी अपने काकाजी सेठ मानमलजी के साथ नौहर (बीकानेर स्टेट) से यहाँ भाये । आपका जन्म संवत् १८४८ में नौहर ही में हुआ। आप सरदारशहर भाये और अपना घर स्थापन किया उसी घर में आजतक आपके वंशज रहते आ रहे हैं। संवत् १९०७ में भाप
च बिहार (बंगाल) में गये और वहाँ जाकर अपनी फर्म स्थापित की तथा ९ वर्ष तक लगातार वहीं रहकर आप संवत् १९१६ में वापस सरदारशहर आये। आपको वहाँ पहुँचने में ५॥ माह लगे थे। आपके श्रीचन्दजी नामक एक पुत्र हुए। इसी समय से आपको साधु-सेवाओं से बड़ा प्रेम हो गया और आपने हमेशा के लिये रात्रि भोजन करना बंद कर दिया। इसके कुछ समय पश्चात ही आपने केवल भाठ दयों का भोजन करना शेष रक्खा था। रात्रि में आप कम्बल पर शयन करते थे। लिखने का मतलब यह है कि धनिक और श्रीमान् होते हुए भी आपने अपना जीवन त्यागमय बना लिया था। संवत् १९२४ में पत्नी के होते हुए भी आपने ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया। आपका स्वर्गवास संवत् १९५२ के वैशाख में हो गया। आपका परिवार श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी संप्रदाय का अनुयायी है।
सेठ श्रीचन्दर्जा-आपका जन्म संवत् १९१९ में हुआ। संवत् १९३७ में व्यापार के लिये कलकत्ता गये और वहाँ जाकर अपनी फर्म पर, जो पहले ही संवत् १९२९ में स्थापित हो चुकी, कपड़े का व्यापार प्रारंभ किया। इस व्यापार में आपने अपनी बुद्धिमानी एवम् व्यापार कुशलता से लाखों रुपयों की सम्पत्ति उपार्जित की। यह कार्य आप संवत् १९६० तक करते रहे। इसके पश्चात् आप अपने व्यापार का भार अपने पुत्र सेठ गणेशदासजी एवम् सेठ बिरदीचन्दजी को सौंप कर व्यापार से अलग हो गये तथा
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प्रोसवाल जाति का इतिहास
भआपने अपना ध्यान भर्मिकता की ओर लगाया। आपने भी ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया और व्यापार से हाथ हटाकर, साधु सेवा में लगे । आपका स्वर्गवास संवत् १९८६ के वैशाख में हो गया।
सेठ गणेशदासजी और बिरदीचन्दजी-आपका जन्म संवत् १९३६ का तथा सेठ विरदीचंदजी का संवत् १९३० का है। आप दोनों ही भाई बड़े मिलनसार सरल प्रकृति और सज्जन वृत्ति के महानुभाव हैं।
आप दोनों हीसजन व्यापार के निमित्त क्रमशः संवत् १९५० तथा सम्वत् १९५३ में कलकत्ता जाने लगे एवम् वहाँ कपड़े के व्यापार को आप लोगों ने विशेष उत्तेजन प्रदान किया । आप दोनों ही भाईयों ने अपने परिश्रम एवम् बुद्धिमानी से बहुत सम्पत्ति उपार्जित की। आप लोग यहाँ सरदारशहर में बहुत प्रतिष्ठित व्यक्ति माने जाते हैं। इतने प्रतिष्ठित और सम्पत्ति शाली होते हुए भी आप में अभिमान का लेश भी नहीं है। सेठ गणेशदासजी को सन् १९१६ में बंगाल गवर्नमेंट ने आसन प्रदान किया है इसी प्रकार भाप सन् १९१० में बीकानेर स्टेट के कौंसिल मेम्बर भी रहे । सेठ बिरदीचन्दजी के इस समय नेमीचन्दजी और उत्तमचन्दजी नामक दो पुत्र हैं। आप लोग भी आज कल व्यापार के लिए कलकता जाया करते हैं। भाप लोग भी शांत एवम् मिलनसार और समझदार नवयुवक हैं। . इस परिवार की सरदारशहर में बड़ी आलीशान हवेलियाँ बनी हुई हैं। आपका ध्यापार कल. कत्ता में क्रास स्ट्रीट मनोहरदास कटला में कपड़े का तथा बैंकिंग और हुँडी चिट्ठी का होता है। इसी फर्म की एक और यहाँ पांच है जहाँ कोरा, मारकीन और धोती जोड़ों का व्यापार होता है। इस फर्म पर तार का पता "Gadhaiya" और "Kelagachha" है। टेलीफोन नं० ३२८८ बड़ा बजार है।
सेठ रामकरण हरािलाल जौहरी, नागपुर इस चानदान के पूर्वजों का मूल निवासस्थान होशियारपुर ( पंजाब ) का है। वहाँ से सेठ रामकरणी करीब १०० वर्ष पूर्व व्यापार निमित्त नागपुर आये और यहाँ पर आकर आपने व्यापार करना प्रारंभ किया । आप मंदिर मानाय के मानने वाले हैं।
सेठ रामकरणजी-आपने उक्त फर्म की स्थापना सं० १८९० में की। शुरू से ही आपने जवाहिरात का म्यापार चाल किया । आप बड़े साहसी तथा व्यापार कुशल व्यक्ति थे । आपके पश्चात् इस फर्म की विशेष उखति सेठ हीरालालजी के समय में हुई। आपने अपनी फर्म को बहुत उबत अवस्था में पहुँच दिया । आपका स्वर्गवास सं० १९६५ में हुआ।
सेठहीरालालजी के तीन पुत्र हुए-मोतीलालजी माणकचन्दजी और केशरीचन्दजी ने माणकचन्दजी चांदा जिले में श्री भवती (भाण्डक) तीर्थ में एक आदीश्वर स्वामी का मंदिर बनवाया। मोतीलालजी
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सवाल जाति का इतिहास
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गधा भवन (श्री गणेशदास गधइया) सरदार शहर
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गधैया
का सं० १९६४ में, माणकचन्दजी का सं० १९७४ में तथा केशारीचन्दजी का स्वर्गवास संवत् १९८७ में हुआ। श्रीयुत माणकचन्दजो के जवाहरमलजी नामक एक पुत्र हुऐ मगर आपका भी देहान्त हो गया। आपके मानमलजी नामक पुत्र हुए। आपका देहान्त केवल १८ वर्ष की उम्र में सं. १९७० में हो गया । आपके कोई पुत्र न होने से केशरीचन्दनी के छोटे पुत्र इन्द्रचन्दजी जिनका वर्शमान नाम महेन्द्रकुमारसिंहजी हैं दत्तक रक्खे गये ।
इस समय इस फर्म के मालिक श्रीयुत केशरीचन्दजी के बड़े पुत्र पानमलजी, मानमलजी के पुत्र महेन्द्रकुमारजी तथा मंगलसिंहजी हैं । आपके वहाँ इस समय जवाहिरात का काम होता है। आपकी फर्म नागपुर में इतवारी बाजार में तथा सदर बाजार में है।
यह परिवार नागपुर की ओसवाल समाज में बहुत प्राचीन तथा प्रतिष्ठा सम्पन्न माना जाता है। जौहरी पानमळजी बड़े रईस तवियत के उदार पुरुष हैं। भापका परिवार कई पीढ़ियों से जवाहरात का म्यापार करता आ रहा है।
___लाला नत्थूशाह मोतीशाह, सियालकोट (पंजाब)
यह परिवार गधैया गोत्रीय है तथा जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी आम्नाय को पालन करने वाला है। यह खानदान बहुत लम्बे अर्से से सियालकोट में रहता है । लाला टिंडेशाहजी के पुत्र नारायणशाहजी सियालकोट के प्रसिद्ध बैंकर थे। आप राज घरानों के साथ बैकिग बिजिनेस करते थे। आपके लाला रामदयालजी, लाला साहबदयालजी तथा लाला सोनेशाहजी नामक ३ पुत्र हुए । लाला सोनेशाहजी के ला. देवीवित्ताशाहजी, ला. गंगाशाहजी, तथा ला• जेठशाहजी नामक तीन पुत्र हुए। इनमें यह परिवार लाला जेठ शाहजी का है। भापके नन्थूशाहजी, मोतीशाहजी, खजांचीशाहजी तथा लखमीचन्दजी नामक चार पुत्र हुए।
लाला नत्थूशाह जी का जन्म संवत् १९३१ में हुभा । आप इस खानदान में बड़े हैं तथा सियालकोट की जैन बिरादरी में मोअज्ज़िज पुरुष हैं। . २० सालों तक भाप यहां की जनसभा के प्रेसिडेंट रहे ।
___ लाला मोतीशाहजी का जन्म सं० १९३४ में हुआ। आप भी सियालकोट के प्रसिद्ध व्यक्ति हैं। सन् १९०८ से आप इस समय तक स्थानीय म्युनिसिपैलिटी के मेम्बर हैं। सन् १९१३ में आप सैण्ट्रल बैंक के केशिभर बने। इस समय आप उसकी स्थानीय ब्रांच के व्हाइस प्रेसिडेण्ट हैं। युद्ध के समय भापने गवर्नमेंट को रंगरूट भरती कराकर तथा रुपया विळाकर काफी इमदाद पहुंचाई। आप यहां के
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ओसवाल जाति का इतिहास डिस्ट्रिक्ट दरवारी है। आपके लाला प्यारेलालजी, नगीनालालजी, जंगीलालजी, शादीलालजी तथा मनोहरलालजी नामक ५ पुत्र मौजूद हैं।
लाला प्यारेलालजी बैङ्किग व्यापार सम्हालते हैं । लाला नगीनालालजी ने सन् १९२२ में बी. ए. तथा १९२४ में एल० एल० बी० पास किया। आप सियालकोट हिन्दू सभा के सेक्रेटरी हैं। आपके परिश्रम से यहां महावीर कन्या पाठशाला का स्थापन हुआ। आप शिक्षित तथा उत्साही सजन है तथा इस समय प्रेक्टिस करते हैं। लाला जंगीलालजी ने सन् १९२६ में एम० ए० तथा २८ में एल. एल. बी० की डिगरी हासिल की है। आप सबजजी की काम्पीटीशन परीक्षा में सेकण भावे । इस समय आप प्रेक्टिस करते हैं। इनसे छोटे शादीलाल जी जनरल मरचेंट हैं।
__लाला गोपालदासजी-लाला खजांचीशाहजी के पुत्र हैं । आप बी० एस०सी० एम० बी० बी० एस० हैं। आपने सबसे पहिले अपनी डिस्पेंसरी में एक्सरे की मशीन लगाई है। आप सियालकोट के मशहूर डाक्टर हैं। आपके छोटे भाई चैनलालजी, चिमनलालजी तथा रोशनलालजी अलग २ तिजारत करते हैं ।
लाला लखमीचन्दजी अपने बड़े भाता खजांचीशाहजी के साथ बैङ्किग व्यापार करते हैं। इनके पुत्र पूरनचन्दजी तथा शामलालजी है।
लाला काशीराम देवीचंद गधैया का परिवार. सियालकोट
इस खानदान वाले श्री जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी सम्प्रदाय को मानने वाले सजन हैं। भाप लोगों का मूल निवासस्थान सियालकोट का ही है। इसका इतिहास लाला केशरशाहजी से प्रारम्भ होता है। लाला केशरशाहजी के गोबिन्दशाहजी और गोबिन्दशाहजी के जयदयालशाहजी नामक
___लाला जयदयालशाहजी बड़े धर्मात्मा पुरुष थे। आपने कपड़े के व्यवसाय में खुब सफलता प्राप्त की। आपका संवत् १९३४ में स्वर्गवास होगया है। आपके लाला पालाशाहजी, लालशाहजी, मिहालशाहजी, रूपाशाहजी, बधावाशाहजी, मथुराशाहजी एवम् काशीशाहजी नामक सात पुत्र हुए। व मान परिवार लाला काशीरामजी के वंश का है।
लाला काशीरामजी का जन्म संवत् १९११ में हुआ था। आप जैन सिद्धान्तों एवम् सूत्रों को खूब जानते थे। आप बड़े धर्मध्यामी सज्जन थे। आपको बसाती के कामों में काफी सफलता मिली। आपका स्वर्गवास संवत् १९८० में हुआ | आपके लाला लदूशाहजी, हंसराजजी, कुन्दनलालजी, देवीचन्दजी, नगीनालालजी एवम् जंगीलालजी नामक छः पुत्र हैं। आप सब भाइयों का जन्म, क्रमशः
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गधेया
संवत् १९४०, १९४५, १९४८, १९५१, १९५४ एवम् १९६२ में हुआ। इनमें लाला हंसराजजी संवत् १९४० में स्वर्गवासी होगये हैं। शेष भाइयों में केवल लाला देवीचन्दजी और जंगीलालजी को छोड़ कर सब अलग अलग अपना स्वतंत्र व्यापार करते हैं। देवीचन्दजी और जंगीलालजी मेसर्स काशीराम देवीचंद के नाम से सम्मिलित रूप से व्यवसाय करते हैं। ..
लाला मोतीलाल बनारसीदास, लाहौर इस खानदान के पूर्वज लाला बूटेशाहजी अपने समय के नामी जौहरी होगये हैं। आप महा. राजा रणजीतसिंहजी के कोर्ट ज्वेलर थे। आप लाहौर म्युनिसिपैलेटी के प्रथम मेम्बर थे। इनके वल्लो. शाहजी, हरनारायणजी, विशनदासजो, तथा महाराजशाहजी नामक ४ पुत्र हुए।
. लाला विशनदासजी के पुत्र खुलाखीशाहजी हुए। इनके पुत्र लाला हीरालालजी एडवोकेट बी० ९० एल० एल० बी० लाहौर के प्रतिष्ठित वकील हैं तथा अमर जैन होस्टल और एस. एस. जैन सभा पंजाब के खास कार्य कर्ता हैं। इनसे छोटे भाई लाला मुन्शीलालजी बी० ए० एल० एल० बी० वकील थे इनका स्वर्गवास होगया है। इनके पुत्र मदनलालजी सर्विस करते हैं। हीरालालजी के पुत्र जवाहर लालजी ने इस साल बी० ए० की परीक्षा दी है।
. लाला महाराजशाहजी के गंगारामजी तथा नत्थूमलजी नामक २ पुत्र हुए। इनमें गंगारामजी के पुत्र मोतीलालजी तथा पत्रालालजी हुए। लाला मोतीलालजी ने सन् १९०३ में संस्कृत पुस्तकों का म्यापार तथा प्रकाशन जोरों से किया । आपका स्वर्गवास सं० १९८६ में हो गया है । आप श्री आत्मानन्द . जैन सभा पंजाब के गुजरांवाले के प्रथम अधिवेशन के सभापति थे। इस समय आपका लाहोर में मोतीलाल
बनारसीदास के नाम से प्रेस है। आपके यहाँ से संस्कृत, हिंन्दी तथा अंग्रेजी की लगभग २०० पुस्तकें निकली हैं। यह ग्रन्थालय पंजाब के पुस्तक व्यवसाइयों में अपना खास स्थान रखता है।
लाला मोतीलालीजी के पुत्र लाला सुन्दरलालजी गधैया विद्यमान हैं। आप शिक्षित तथा उन्नत विचारों के सज्जन हैं तथा ग्रन्थ प्रकाशन व विक्रय का कार्य भली भांति संचालित करते हैं।
इसी तरह इस परिवार में पन्नालालजी के पुत्र खजानचन्दजी तथा नत्थूसिंहजी के माणकचन्दजी हैं।
___ लाला गोपीचन्द किशोरीलाल जैन, अम्बाला
यह खामदान कई पुश्तों से अम्बाला में निवास कर रहा है। इस खानदान में लाला बहादुर मलजी के लाला पुनीलालजी, दुर्वकमलजी, तथा जयलालजी नाम के ३ पुत्र हुए। इनमें लाला राजारामजी
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प्रोसवाल जाति का इतिहास
के निहालचन्दजी था भगवानप्रसादजी नामक २ पुत्र हुए। इनमें लाला निहालचन्दजी के लक्ष्मी. चन्दजी, गोपीचन्दनी, नमीचन्दजी, संतरामजी तथा बनारसीदासजी नामक ५ पुत्र हुए।
- लाला लक्ष्मीचन्दजी स्वर्गवासी हो गये हैं। आपकी ओर से जैन हाई स्कूल अम्बाला में प्रथम पास होने वाले छात्र को प्रति वर्ष १००) की थैली दी जाती है। आपके पुत्र ताराचन्दजी हुए इनके पुत्र निरंजनलालजी बी० ए० में पढ़ते हैं। लाला गोपीचन्दजी का जन्म संवत् १९२२ में हुआ । राज दरबार में आपका मान हैं। महकमा पोलीस से इन्हें इन्तजाम के कामों के लिये सार्टिफिकेट मिले हैं। आपके पुत्र किशोरीलालजी, अम्बाला हाई स्कूल के लिये डेपुटेशन लेकर मद्रास, बम्बई, हैदराबाद की ओर गये थे। आप अम्बाला में असेसर हैं। आप बड़े उत्साही सज्जन हैं। इनके पुत्र रतनचन्दजो हैं।
लाला संतरामजी श्री आरमानन्द जैन सभा पंजाब के प्रधान हैं। आप पंजाब के मन्दिर मार्गीय जैन समाज में प्रतिष्ठित सज्जन हैं। आप अम्बाले के ऑनरेरी मजिस्ट्रेट, डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के मेम्बर डिस्ट्रिक्ट दरबारी और असेसर हैं। आपके पुत्र श्यामसुन्दरजी हैं। लाला बनारसीदासजी भी प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। आप के टेकचन्दजी चिम्मनलालजी, विजयकुमारजी तथा पवनकुमारजी नामक चार पुत्र हैं ।
. लाला नानकचन्द हेमराज गधैया, अम्बाला
यह परिवार श्वेताम्बर स्थानकवासी आम्नाय का मानने वाला है। इस खानदान में लाला जयदयालजी हुए । उनके पुत्र हीरालालजी और पौत्र नानकचन्दजी थे। लाला नानकचन्दजी का जन्म १८७९ में तथा स्वर्गवास संवत् १९६४ में हुआ। आपके लाला मिलखीरामजी, श्रीचंदजी तथा हेमराजजी नामक ३ पुत्र हुए।
लाला श्रीचन्दजी का जन्म संवत् १९३० में हुआ। आपने कई धार्मिक पुस्तकें प्रकाशित करवा कर मुफ्त बटवाई । आप प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। संवत् १९७४ में आप स्वर्गवासी हुए। इनके यहाँ कपड़े का व्यापार होता है। लाला शिवप्रसादजी के ओमप्रकाशजी, नत्थूरामजी, त्या पवनकुमारजी तथा लाला अमरनाथजी के जोगेन्द्रप्रसादजी, विमलकुमारजी व मोहनलालजी नामक ३ पुत्र हैं।
लाला श्रीचन्दजी के छोटे भ्राता हेमराजजी का जन्म १९४४ में हुआ। आप योग्य तथा धार्मिक व्यक्ति हैं। आप अम्बाला जैन युवक मण्डल के प्रेसिडेण्ट रहे। तथा लेन देन और हुंडी चिट्ठी का काम करते हैं।
लाला फग्गूशाह रतनशाह गधैया, जम्मू (काश्मीर) लाला महूशाहजी स्यालकोट में रहते थे, तथा वहाँ के मालदार और इजतदार व्यापारी माने जाते थे। इनको महाराजा गुलाबसिंहजी काशमीर ने बड़ी इजत के साथ व्यापार करने के लिये जम्मू
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
लाला फग्गूमलजी ओसवाल, जम्मू (काश्मीर) (पेज नं० ४४५ )
श्री० अम्बालालजी डोसी, उदयपुर (पेज नं० ४०२ )
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सेठ हंसराजजी गुलाबचन्दजी दूगड़ न्यायडोंगरी. ( पेज नं० ४२६ )
सेठ घेवरचन्दजी चोपड़ा, अजमेर
(पेज नं० ४३८ )
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गया
बुलाया । इन्होंने जम्मू आकर सराफे का रोजगार शुरू किया । इनके ९ पुत्र हुए, जिनमें एक मरपतशाहजी थे। आपने जम्मू के व्यापारियों में अच्छी इज्जत हासिलकी थी 1
लाला नरपत शाहजी के श्यामेशाहजी, नत्थूशाहजी तथा चेनेशाहजी नामक ३ पुत्र हुए। इन बन्धुओं में लाला श्यामेशाहजी महाराजा काशमीर की जनानी ब्योदी में माल सप्लाय करने का काम करते थे और नत्थूशाहजी अपने बड़े भ्राता के साथ व्यापार में सहयोग देते थे। आपका स्वर्गवास संवत् १९४४ में हुआ । लाला चैनेशाहजी अपने दोनों भाइयों के पहले गुजर गये थे । लाला श्यामेशाहजी के ४ पुत्र हुए अभी इनमें कोई विद्यमान नहीं है।
लाला नत्थूशाह के लाला फग्गूशाहजी, बोगाशाहजी, नानकचन्दजी और पनालालजी नामक ४ पुत्र विद्यमान हैं। लाला फग्गुशाहजी का जन्म संवत् १९१९ में हुआ । आपके यहाँ सराफी का व्यापार होता है । आप जम्मू की जैन सभा के प्रेसिडेण्ट हैं और यहाँ की जैन बिरादरी के प्रतिष्ठित पुरुष हैं । आपके पुत्र रतनचन्दजी दुकान के व्यापार को सम्हालते हैं । इनके पुत्र हीरालालजी हैं। लाला पन्नालालजी के पुत्र दर्शनकुमारजी हैं।
लाला पंजाबरायजी का खानदान, मलेरकोटला (पंजाब)
इस खानदान के लोग श्री जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी आम्नाय को मानने वाले हैं। इस खानदान में लाला पंजाबरायजी हुए। आप इस परिवार में बहुत मशहूर और नामी व्यक्ति हो गये हैं । आपके लाला शीलूमलजी एवं लाला बस्तीमलजी नामक दो पुत्र हुए ।
लाला शीलूमलजी को गुजरे करीब ४० वर्ष हो गये हैं। आपके लाला कपूरचन्दजी, हमीरचंदजी एवम् लाकजीमलजी नामक तीन पुत्र हुए । लाला कपुर चन्दजी को गुजरे करीब ३० वर्ष हो गये हैं । आपके लुम्बारामजी, मुंशीरामजी एवं चन्दनमलनी नामक तीन पुत्र हुए। लाला हमीरचन्दजी के लाला खैरातीलालजी नामक एक पुत्र हुए। लाला लालजीमलजी का जन्म संवत् १९१५ का है। आप इस समय विद्यमान हैं । आपने इस खानदान की इजत व दौला को खूब बढ़ाया। आपकी यहाँ पर बहुत प्रतिष्ठा है । आपके एक पुत्र लाला हरिचंदजी हैं। आप बड़े सज्जन हैं। आप मलेरकोटला कौंसिल तथा म्यूनिसिपल के मेम्बर हैं। इसके अतिरिक्तयहाँ की कोर्ट के असेसर तथा मलेरकोटला जैन पंचायती के चौधरी भी हैं । यहाँ के अनाथालय के आप खजांची हैं। आपके इस समय दो पुत्र हैं जिनके नाम भगवानदासजी एवम् हुकुमचन्दजी हैं। इनमें भगवानदासजी का केवल २३ वर्ष की आयु में ही स्वर्गवास हो गया हैं । हुकुमचन्दजी का जन्म सम्वत् १९६५ का है । आपके इस समय राजकुमारजी एवं पवनकुमारजी नामक दो पुत्र हैं। आपके यहाँ पर गल्ला और कमीशन एजेंसी को काम होता है।
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कोचर
कोचर गौत्र की उत्पत्ति
कहते हैं कि राजा विक्रमादित्य और भोज के वंश में राजा महिपाजी नामक प्रसिद्ध राजा हुए। भआपने तपेगच्छ के आचार्य महात्मा पोसालिया से जैन धर्म अंगीकार किया। भापके कोचरनी मामक पुत्र उत्पन्न हुए । कोचरजी बड़े वीर पराक्रमी तथा साहसी पुरुष थे। भापके नाम से आपकी संताने कोचर कहलाई। कोचरजी के वंश में आगे जाकर जीयाजी रूपाजी आदि नामांकित व्यक्ति हुए जिनकी संतानें उनके नाम से जीयाणी रूपाणी कोचर आदि २ नामों से मशहूर हुई।
कोचर पनराजर्जा का खानदान, सोजत इस खानदान के लोग पालनपुर से पुंगल, मंडोर, फलोधी तथा वहाँ से जोधपुर होते हुए महाराजा मानसिंहजी के समय में सोजत आये। इस परिवार में कोचरजी की मवी पीढ़ी में कुशालचंदजी हुए। इनके रूपचंदजी, सूरजमलजी, वहादुरमलजी तथा जोतमलजी नामक ४ पुत्र हुए। इन भ्रातानों में मेहता सूरजमलजी बहुत नामांकित पुरुष हुए।
कोचर मेहता सूरजमलजी-महाराज मानसिंहजी के समय में आप बड़े प्रभावशाली व्यक्ति थे । सं० १८६२ में आपको मारवाड़ राज्य की दीवानगी का सम्मान मिला । इसके अतिरिक्त कई रुक्के देकर दरबार ने आपको सम्मानित किया। मेहता सूरजमलजी, जीतमलजी, प्रेमचन्दजी (खुशालचन्दजी के भतीजे) तथा सुरतानमलजी (बहादुरमलजी के पुत्र ) महाराजा मानसिंहजी के साथ जालोर घेरे में शामिल थे। मेहता सूरजमलजी अपने समय के बड़े प्रभावशाली व्यक्ति थे आपके बुधमलजी तथा मूलचन्दजी नामक र पुत्र हुए।
मेहता बहादुरमलजी--आप भी बड़ी बहादुर प्रकृति के पुरुष थे । आप संवत् १८६६ की फागुन सुदी के दिन भीनमाल की लड़ाई में युद्ध करते हुए काम आये। भापके मारेजाने की दिलासा के लिए महाराजा मानसिंहजी ने एक रुका इस परिवार को दिया था।
मेहता जीतमलजी-आप फलोधी और पाली के हाकिम रहे। आपने कई लड़ाइयों में युद्ध किया। संवत् १८६४ में आपको सोजत का सऊपुरा नामक गाँव जागीर में मिला । आपके उम्मेदमलजी तथा जवाहरमलजी नामक २ पुत्र हुए।
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की चर
मेहता बुधमलजी - आप भी बड़े प्रतिभाशाली पुरुष हुए। संवत् १८९८ की चैत वदी १४ को आपको जोधपुर की दीवानगी का ओहदा प्राप्त हुआ । आपके छोटे भाई मेहता मूलचन्दजी भी पर्वतसर भादि स्थानों पर हुकूमातें करते रहे ।
मेहता उम्मेदमलजी जवाहरमलजी - आप दोनों बंधुओं को समय २ पर जोधपुर दरबार की ओर से कई सम्मान मिलते रहे। आपको सायर की माफी का रुक्का भी मिला था। आपके किये जोधपुर दरबार ने निम्नलिखित एक रुक्का भेजा था,
मुला उम्मेदमल कस्य सुप्रसाद बांचजो तथा श्री बड़ा महाराज री सलामती में मुता सूरजमल के श्राजीविका मुलायजो थो जीण माफक थारो रेहसी इसमें फरक पडतो
श्री इष्टदेव ने बड़ा माराजरी आण है। संवत् १६०० रा कातिक बदी ४
इन दोनों भाइयों का स्वर्गवास क्रमशः संवत् १९२१ तथा २४ में हो गया । मेहता उम्मेदमल जी के पुत्र शिवनाथमलजी परवतसर तथा सोजत के हाकिम हुए। आपका स्वर्गवास सं० १६५६ में हुआ । आपके पनराजजी तथा सावंतमलजी नामक २ पुत्र हुए ।
मेहता पनराजजी - आपका जन्म संवत् १९२२ में हुआ। आप २० सालों तक राखी ठिकाने के वकील रहे। आप सोजत के मुस्सुद्दी समाज में समझदार तथा वयो वृद्ध सज्जन हैं। आपके ५ पुत्र हैं । जिनमें मेहता सहस मलजी बीकानेर स्टेट रेलवे में मुलाजिम हैं। आप दत्तक गये हैं। दूसरे मेहता सम्पतमलजी मारवाड़ राज्य में डाक्टर हैं। आप इस समय फलोधी में हैं। तीसरे मेहता किशनमलजी कलकत्ते मैं बिड़ला ब्रदर्स फर्म पर सर्विस करते हैं। तथा शेष २ बाघमलजी और विजयमलजी हैं। इसी तरह मेहता सांवतमलजी के पुत्र मेहता जगरूपमलजी बीकानेर स्टेट के आडिट विभाग में मुलाजिम हैं ।
इसी तरह इस परिवार में मेहता बुधमलजी के पुत्र वख्तावरमलजी, चन्दनमलजी तथा भगनमलजी और मूलचन्दजी के पुत्र राजमलजी सरदारमलजी तथा जसराजजी कई स्थानों पर हुकूमातें करते रहे । बतावरमलजी के पुत्र रघुनाथमलजी भी संवत् १९२५ में सोजत के हाकिम थे अभी इनके पुत्र जतनम जी बम्बई में व्यापार करते हैं ।
यह परिवार सोजत के ओसवाल समाज में बहुत बड़ी प्रतिष्ठा रखता है। मेहता पनराजजी के पास अपने परिवार के सम्बन्ध में बहुत रुक्के तथा प्राचीन चित्रों का संग्रह है।
कोचर मेहता समरथरायजी का खानदान, जोधपुर
हम ऊपर कोचरजी का वर्णन कर चुके हैं। इनके पश्चात् पांचवी पीढ़ी में कोचर झांझणजी हुए। इनके समय में यह परिवार गुजरात तथा फलोधी में रहता था इनके पुत्र बेलाजी हुए ।
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मोसवाल जाति का इतिहास
• कोचर मेहता नेलाजी-भापकी योग्यता से प्रसन्न होकर मोटा राजा उदयसिंहजी बापको जोधपुर लाये। संवत् १९९७ में आपके परिश्रम से जोधपुर दरवार सूरसिंहजी को बादशाह से मेड़ता पर. गना जागीर में मिला। इस चतुराई से प्रसन्न होकर दरबार ने संवत् १९६४ में आपको दीवानगी का सम्मान वस्या और हाथी तथा सिरोपाव इनायत किया। आपने गुरां के टोना मारने से लुकागाछ की आम्नाय स्वीकार की। आपके काका पदोजी १६६२ में सीवाणे गढ़ की लड़ाई में बादशाह की फोज द्वारा मारे गये। आपकी बनवाई बावड़ी, वहां अब भी “भूतों का बेरा" के नाम से विधमान है।
मेहता बेलाजी के पुत्र जगनाथजी संवत् १६९२ में फलोदी के हाकिम थे । इनके पुत्र कल्याणदासजी केसांवलदासजी. गोपालदासजी और माधोदासजी नामक पुत्र हए ।
मेहता सांवलदासजी-आप सीवाणे के हाकिम थे। आपको महाराजा अजितसिंहजी ने सम्वत् १०६९ में गुजरात के धंधूके परगने का मुन्तजिम बनाकर भेजा। ५ वर्ष तक आप वहाँ रहे ।
मेहता गोपालदासजी-आप सीवाण, तोड़ा तथा जोधपुर परगने के हाकिम रहे। संवत् १४॥ में भापको २५००) की रेत का एक गांव जागीर में मिला तथा पालकी सिरोपाब इनायत हुआ। आपके गोपनदासजी तथा रामदानजी नामक २ पुत्र हुए। मेहता माधोदासजी भी हुकूमत करते थे।
मेहता रामदानजी-आप दोनों भाइयों ने भी अच्छी इज्जत पाई। रामानजी सम्पत्तिशाली व्यक्ति हुए। आपको संवत् १८१३ में मेडते प्रगणे का सरसंडो नामक गांव जागीर में मिला था। इसी साल २ माह बाद ४०० बीघा जमीन और आपको इनायत हुई । जयपुर महाराज इनसे बड़े प्रसन्न थे। रामदानजी, राजकुमार जालिमसिंहजी के कामदार थे। इनके माईदासजी तथा मोहनदास जी नामक २ पुत्र हुए।
मेहता माईदासजी-माम जोधपुर, जयपुर के जमीन की हिस्सा रसी में सम्मिलित थे। आप को संवत् १८८२ में जयपुर दरबार से "पालड़ी" नामक गांव जागीर में मिला। जोधपुर दरवार ने भी मोहनसिंहजी को निंबोला गांव जागीर में दिया था। माईदासजी ने कुंभलगढ़ की गढ़ी खाली कराई । दरबार ने आपको दुशाला सिरोपाव और घोड़ा इनायत किया। आपके पुत्र अगरचन्दजी, मानमलजी तथा किशनदासजी हुए।
मेहता अगरचंदजी-आप १८६९ में नागोर किले तथा शहर के कोतवाल रहे। संवत् १८९४ में आपको जयपुर स्टेट से “ीटका" नामक गांव जागीर में मिला। इसी साल मेजर फास्टर साहिब ने भापको तैनाती में धादेतियों को दबाने के लिये फौज भेजी। मेहता मानमलजी को ५.०) सालिबाना
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कोचर
वरसौद मिलती थी । संवत् १८८२ में पालड़ी नामक गांव इनको जागीरी में मिला । जो इनके पुत्र विशनदासजी के नाम पर रहा।
मेहता अगरचन्दजी के अमोलकचन्दजी तथा वल्लभदासजी नामक पुत्र हुए । अमोलकचन्द . जी के पास जयपुर का गांव जागीरी में था। इनके पुत्र जयसिंहदासजी उमरभर हाकिम रहे। इन्होने बहुत अच्छा काम किया । आपको कर्नल " जेकब" से उत्तम प्रमाण पत्र मिले थे। आपके पुत्र जसराजजी तथा भगवानदासजी हुए। आपने मारोठ की सायर में, तथा जयपुर में जिलेवारी का काम किया था । पश्चात् आप घर का काम देखने लगे थे। आपके समरथराजजी तथा इमरतराजजी नामक २ पुत्र हुए । मेहता समरथराजजी हवाला विभाग से रिटायर्ड होने पर पोकरण ठाकुर के दुमाड़ा डिविजन में कामदार हैं। आपके पुत्र मेहता उम्मेदराजजी होशियार तथा मिलनसार युवक हैं । इमरतराजजी जयपुर में रहते हैं ।
मेसर्स रायमल मगनमल कोचर स्था, हिंगनघाट
इस खानदान के लोग स्थानकवासी जैन आम्नाय के मानने वाले सज्जन हैं । आपका मूल निवास स्थान हरसोरा ( जोधपुर स्टेट ) का है। संवत् १९१६ में पहले सेठ रायमलजी भागपुर आये और यहां पर आकर आपने कपड़ा, लेनदेन इत्यादि की दुकान खोली । रायमलजी का स्वर्गवास
सेठ
संवत् १९३६ में हुआ ।
आपके पश्चात् आपके पुत्र मगनलालजी ने इस फर्म के काम को संचालित किया । आप संवत् १९७१ में स्वर्गवासी हुए । आप की मृत्यु के पश्चात् इस फर्म को आपके पुत्र चन्दनमलजी तथा धनराजजी ने संभाला। श्रीयुत चन्दनमलजी का जन्म संवत् १९१७ में हुआ है। बहुत उति की । आप बड़े व्यापार कुशल, बुद्धिमान और दूरदर्शी पुरुष हैं । समय यह फर्म सी० पी० की बहुत मातवर फर्मों में से एक मानी जाती हैं।
फर्म को भर से हजारों एकड़ भूमि में काश्तकारी की जाती है। चन्दनमलजी के मोतीलालजी नामक एक पुत्र हुए मगर आपका असमय में ही देहान्त होगया । आपके यहां पर पुखराजजी लोहावट ( जोधपुर स्टेट) से दस्तक लाये गये । आपके भाई धनराजजी का स्वर्गवास संवत् १९८६ की बैशाख बदी ५ को हुआ । आप बड़े धार्मिक और परोपकारी पुरुष थे । आपके हाथों से प्रायः सभी धार्मिक काय्यों में सहायता मिलती रहती थी ।
श्री पुखराजजी कोचर - आप बड़े देश भक्त, समाज सेवी, उदार एवम् लोकप्रिय युवक हैं । सी० पी० के ओसवाल नवयुवकों में आपका नाम बड़ा अग्रगण्य तथा सम्माननीय है । आप यहां की
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आपने इस फर्म की
आप ही की वजह से इस
हिंगनघाट जिले में इस
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मोसवाल जाति का इतिहास म्युनिसिपल बोर्ड में सरस्म है। शिक्षा तथा दूसरे सार्वजनिक कार्यों में आप भाग लेते रहते है। भान्दक नामक स्थान में भद्रावती जैन गुरुकुल नामक जो संस्था खोली गई है उसके पास सभापति हैं। हिंगनघाट के जैन "महावीर मण्डल" के माप सभापति रहे हैं। कांग्रेस के कार्यों में भी आप बहुत दिलचस्पी से भाग लेते हैं। आप शुद्ध स्वदेशी वस्त्र धारण करते हैं। इतनी बड़ी फर्म के मालिक होने पर भी आप अत्यन्त निरभिमान और सादगी प्रिय सजन है। आपका जन्म संवत् १९५४ में हुभा है। आपके इस समय फूलचन्दजी नामक एक पुत्र हैं।
सेठ धनराजजी के नाम पर बंशीलालजी बीकानेर से दत्तक लाये गये हैं। आपका जन्म संवत् १९६५ की श्रावण सुदी १० को हुभा। आप भी बड़े विवेकशील नवयुवक हैं। इस समय आप स्थानीय महावीर मण्डल के सभापति तथा मोतीज्ञान भण्डार के व्यवस्थापक हैं । आप प्रायः सभी सार्वजनिक कामों में भाग लेते रहते हैं।
सेठ धीरजी चांदमल कोचर का खानदान, सिकन्दराबाद ___फलौदी के निवासी कोचर मूता (रुपाणी कोचर ) शोभाचन्दजी के पुत्र धीरजी सं० १८९८ में फलौदी से हैदराबाद गये तथा वहाँ आपने लेनदेन शुरू किया। इस सिलसिले में आप फौजों के केम्पों के साथ २ काबुल और उस्मानिया तक की मुसाफिरी कर आये थे। आप बहुत बहादुर तथा साहसी पुरुष थे। आपने अपने पुत्र चांदमलजी का सं० १९२९ में सिंकदराबाद में सराफी की दुकान लगाई जिसका कारोवार चांदमलजी भली प्रकार चलाते रहे। श्रीयुत चांदमलजी का संवत् १९४९ में स्वर्गवास हुआ। इनके नि:संतान मरने पर सेठ धीरजमलजी ने चांदमलनी के नाम पर संवत् १९५५ में सूरजमलजी को दत्तक लिया। इस प्रकार भी सूरजमलजी अपने पितामह के साथ दुकान का कार्य भार सम्हालने लगे। धीरजमलजी का स्वर्गवास संवत् १९५७ में हो गया।
- धीरजमलजी के पश्चाप सेठ सूरजमलजी ने इस दुकान के कारवार तथा इज्जत को बहुत बदाया। आपकी दुकान सिंकदाबाद में (दक्षिण) मार्गेज तथा बैङ्किग का व्यापार करती है तथा वहां के म्यापारिक समाज में अच्छी मातवर मानी जाती है। इसी प्रकार फलौदी में भी आपका घर मातवर समझा जाता है।
___सेठ सूरजमलजी ने व्यापार की तरक्की के साथ दान धर्म के कार्यों की ओर भी अच्छा लक्ष्य रक्खा। आपकी ओर से पाँवा पुरीजी में एक धर्मशाला बनवाई गई है। इसी प्रकार कुंडलजी, कुल पाकजी आदि स्थानों में भी आपने कोठरियाँ बनवाई हैं। मद्रास पांजरापोल, शांतिनाथजी का देरासर
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० सेठ धीरजी कोचर, फलौदी.
सेठ सूरजमलजी कोचर, फलौदी.
स्व० सेठ चांदमलजी कोचर, फलौदी.
बाबू कन्हैयालालजी कोचर (जेठमल कर तूर चंद) बीकानेर.
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कोचर
साध्वियों के ठहराने के लिये
फलौदी में एक २००००) बीस हजार रुपये में मकान खरीद कर जैन साधु सुपुर्द कर दिया है। सेठ सूरजमलजी समझदार तथा धार्मिक व्यक्ति हैं। आपके पुत्र पुनमचन्दजी का जन्म संवत् १९५७ तथा प्रतापचन्दजी का जन्म संवत् १९६९ में हुआ। इनमें प्रतापचन्दजी का स्वर्गवास अभी थोड़े महीने पूर्व हुआ है । आप बड़े होनहार थे। पूनमचन्दजी योग्य हैं तथा अपने कारवार को भली प्रकार चलाते हैं ।
सेठ माणकलाल श्रमरचंद कोचर का खानदान, फलौदी
कोचरजी के पुत्र जीमाजी के वंशज "जीयाजी" कोचर कहलाते हैं । जीयाजी के पश्चात् क्रमशः मेघराजजी, पचानदासजी, मेहकरणदासजी तथा दौलतरामजी हुए ।
कोचर दौलतरामजी के पुत्र कुशलचन्दजी और जोरावरमलजी ये इनमें कुशलचन्दजी के पुत्र प्रतापचन्दजी तथा जोरावरमलजी के पुत्र भोलारामजी हुए। कोचर प्रतापचन्दजी के मोतीलालजी विशनचन्दजी तथा रतनलालजी और भोलारामजी के माणकलालजी नामक पुत्र हुए ।
कोचर भोलारामजी - आपने अपने भतीजे मोतीलालजी के साथ मुल्तान (सिंध) फलौदी, अहमदपुर (सिंघ ) तथा हैदराबाद ( दक्षिण ) में अपनी दुकानें खोलीं, उस समय इन दुकानों पर जोरों का धंधा चलता था । इन दोनों सज्जनों का कारबार संवत् १९१६ के लगभग अलग २ होगया आपने राणीसर तालाब एक नेस्टा ( अधिक पानी खाली करने का रास्ता ) बंधवाया ।
में
कोचर मोतीलालजी - आपका जन्म संवत् १९५७ में हुआ । आपने जसवन्तसराय उर्फ मोतीसराय नामक एक सराय फलोदी में बनवाई। १९५४ में बम्बई में दुकान खोली । संवत् १९७३ में इनका शरीरान्त हुआ। इस समय आपके पुत्र मिश्रीलालजी व लक्ष्मीलालजी विद्यमान हैं। लक्ष्मीलालजी के पुत्र बक्तावरमलजी हैं।
कोचर माणकलालजी—आपका जन्म संवत् १९३८ में हुआ। संवत् १९६१ में हैदराबाद (दक्षिण) में दुकान स्थापित की । आपके समय में भावलपुर, मुकतान, पाळी हैदराबाद और फौदी में कारवार होता था । संवत् १९६२ में आप श्री शांतिनाथजी तथा चिंतामणिजी के मन्दिर के व्यवस्थापक ( खजांची ) बनाये गये । यह कार्य्यं भार आज तक आपके पुत्र, अमरचन्दजी सम्हाल रहे हैं । इन संस्थाओं का का आपने अच्छी तरह से किया। आपके द्वरा खोली गई कन्या पाठशाल १३ । १४ साक तक काम करती रही। आपका स्वर्गवास संवत् १९७६ में हुआ
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मोसवाल जाति का इतिहास
कोचर अमरचंदजी-आपका जन्म संवत् १९६८ में हुआ। भाप सुशील नवयुवक है । तथा शिक्षा की ओर आपकी विशेष अभिरुचि है। इधर ३ सालों से भाप फलौदी म्यु. कमेटी के मेम्बर हैं, स्थानीय जैन श्वेताम्बर कन्या पाठशाला का प्रबन्ध भापके जिम्मे है। आपने राणीसर तालाब के पास एक जैन मन्दिर और दादावाड़ी बनवाने के लिये एक विशाल कम्पाउण्ड में चार दीवारी बनवाई है । इस समय आपके यहां "दौलतराम जोरावरवल" के नाम से फलौदी में सराफे का व्यापार तथा “भोलाराम माणकलाल" के नाम से हसमतगंज-रेसिडेन्सी- हैदराबाद (दक्षिण) में बैकिंग और मारगेज का व्यवसाय होता है। हैदराबाद तथा फलौदी के व्यापारिक समाज में आपकी फर्म प्रतिष्ठित मानी जाती है।
सेठ मदनचन्द रूपचन्द कोचर का खानदान, हैदराबाद
इस खानदान का मूल निवासस्थान बीकानेर का है। करीब १०० वर्ष पूर्व सेठ मदनचन्दजी पैदल मार्ग द्वारा हैदराबाद आये थे। आप बीकानेर राज्य में कामदार रहे। तदनंतर संवत् १८८४ में भापका नाम साहुकारी लिस्ट में लिखा गया । तभी से आपका व्यापारिक जीवन आरम्भ हुआ। आपके पुत्र बदनमलजी आपकी मौजूदगी में ही स्वर्गवासी हो गये थे । एतदर्थ आपके यहाँ सेठ रूपचन्दजी बीकानेर से दसक लाये गये।
सेठ रूपचन्दजी कोचर-आप बड़े लोकप्रिय सजन थे । कानून की आपको अच्छी जानकारी थी। फुलपाक तीर्थ के जीर्णोद्धार करने वाले ४ सजनों में से एक आप भी थे। आपही के हाथों से हैदराबाद में मेसर्स मदनचन्द रूपचन्द नामक फर्म की नीव पड़ी थी। मापने अपनी फर्म के व्यवसाय को खूब धमकाया। भाप संवत् १९५६ में स्वर्गवासी हुए। आपके नाम पर आपके भतीजे श्री मेघराजजी कोचर संवत् १९६६ में गोद लिये गये।
मेघराजजी कोचर-आप ही वर्तमान में इस फर्म के मालिक हैं। आप शिक्षित एवम् उन्नत विचारों के सजन हैं । आप मारवादी मण्डल के अध्यक्ष हैं तथा हैदराबाद की मारवाड़ी समाज के नवयु. वकों द्वारा होने वाले कार्यों में आप सहयोग देते रहते हैं। आप श्वेताम्बर जैन समाज के मंदिर मानाय को मानने वाले सज्जन हैं। आपकी फर्म हैदराबाद रेसीडेन्सी में बैंकिंग तथा जवाहरात का व्यवसाय करती है।
सेठ मगनमल पूनमचन्द कानगा, फलौदी इस परिवार का मूल निवासस्थान फलौदी (मारवाड़) का है। आप जैन श्वेताम्बर समाज के मन्दिर मानाय को मानने वाले सज्जन हैं। जोधपुर रियासत की ओर से आपको 'कानूगो' की पदवी मिली है।
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० सेठ रूपचंदजी कोचर (मदनचंद रूप
सेठ मेघराजजी कोचर ( मदनचंद रूपचंद ) हैदराबाद..
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सेठ विशनलालजी कानगो (मगनमल पूनमचन्द)
टिंडीवरम् (मदास )
सेठ गजराजजी कानूगो ( मगनमल पूनमचन्द )
टिंडीवरम् (मदास )
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ओसवाल जाति का इतिहास
श्री पुखराजजी कोचर, हिंगनघाट.
श्री अमरचंदजी कोचर (भोलाराम माणिकलाल) फलौदी.
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अमर-भवन फलौदी.
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इस परिवार में सेठ माणिकचन्दजी हुए । आपके दो पुत्र हुए जिनके नाम छोगामलजी और हजारीमलजी थे। सेठ हजारीमलजी साहसी तथा होशियार पुरुष थे। आप देश से संवत् १९३० में व्यापार के निमित्त हैदराबाद आये। यहाँ पर आपने बहुत रुपया कमाया। आपका स्वर्गवास १९३८ में हुभा। भापके मगनमलजी नामक एक पुत्र हुए।
सेठ मगनमलजी-आपका जन्म संवत् १९11 में हुआ था। मापने मेससं धीरजी चांदमल के यहाँ सिकन्दराबाद में सर्विस की । आप संवत् १९६३ में स्वर्गवासी हुए। आपके पूनमचन्दजी, समरथमलजी, उदराजजी, विशनलालजी, सोहनराजजी, जेठमलजी और गजराजजी नामक • पुत्र हुए । जिनमें सोहनराजजी तथा जेठमलजी का अल्पायु में स्वर्गवास हो गया। सोहनराजजी के नाम पर गजराजजी दत्तक गये हैं।
सेठ पूनमचन्दजी-आप सेठ खुशालचन्दजी गोलेछा के यहाँ मुनीम थे। उनके यहाँ २० साल नौकरी करने के बाद संवत् १९६६ में मगनमल पूनमचन्द के नाम से टिंडिवरम् में एक फर्म स्थापित की इसके बाद सेठ खुशालचन्दजी के साझे में टिंडिवरम् तथा पनरोटी में फमें स्थापित की। ये करीब १५ वर्षों तक बराबर साझे में चलती रही। इसके बाद आपने टिण्डिवरम्, पनरोटी, और मापावरम् में अपनी घरू दुकानें खोली। पूनमचन्दजी बड़े धार्मिक और परोपकारी पुरुष थे। जीवदया के लिये पर्युषण पर्व में 'आप प्रति वर्ष सैकड़ों रुपया खर्च करते थे। आपने फलौदी में दो स्वामिवत्सल और एक उजवणा बड़े ठाट बाट से किया जिसमें करीब १५०००) खर्च हुए होंगे । आपका स्वर्गवास संवत् १९८९ की माह बदी २ को एकाएक हो गया।
समरथलालजी का जन्म संवत् १९३४ में हुआ। आपने मद्रास में संवत् १९५० में मेसर्स मगनमल पूनमचन्द के नाम से फर्म स्थापित की। आपके दो पुत्र हुए जिनके नाम चम्पालालजी तथा विजैलालजी हैं । चम्पालालजी का जन्म संवत १९६६ का तथा बिजैलालजी का सम्वत् १९६९ का है। इनमें से चम्पालालजी पूनमचन्दजी के यहाँ पर दत्तक गये हैं। उदैराजजी का जन्म सम्बत् १९३९ का है। शुरू २ में आपने श्री सेठ खुशालचन्दजी के यहाँ सर्विस की। दुकान करने के बाद आपने भी सर्विस छोड़ दी। आपके दो पुत्र हैं जिनके नाम लालचन्दजी और केशरीलालजी हैं। लालचन्दजो का जन्म सम्बत् १९६६ का तथा केशरीलालजी का संवत् १९७२ का है।
विशनराजजी का जन्म सम्वत् १९४४ का है। भाप भी अपने भाइयों के साथ व्यापार करते हैं। आपके तीन पुत्र हैं जिनके नाम गुलाबचन्दजी, मंगलचन्दजी तथा उम्मैदमलजी हैं। इनमें से
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
गुलाबचन्दजी सम्वत् १९५४ में १५ वर्ष की उम्र में ही स्वर्गवासी हुए। इस समय आपके पुत्र मंगळ चन्दजी हैं। इनका जन्म सम्बत् १९४७ का है।
- गजराजजी का जन्म सम्वत् १९५७ का है। आप भी बड़े योग्य सजन हैं। आपके एक पुत्र है जिनका नाम जालिमचन्दजी है। इनका सम्वत १९४२ का जन्म है। यह परिवार पनरोटी, फलौदी पादि स्थानों में अच्छा प्रतिष्ठित माना जाता है।
मेहता राजमल रोशनलाल कोचर का खानदान, कलकत्ता
इस खानदान के पूर्वज बहुत समय से ही बीकानेर में रहते आ रहे हैं। आप लोगों ने बोकानेर स्टेट की समय २ पर सेवाएँ को हैं। इस खानदान में मेहता जेठमलजी कोचर हुए। आपके मानमलजी नामक एक पुत्र हुए। मापने भादरा तथा सुजानगढ़ की हुकूमात की व डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट भी रहे। राज्य में आपका सम्मान था। आपका सम्बत १९७२ में स्वर्गवास हो गया । आपके लूणकरनजी, हीरालालजी, हजारीमलजी तथा मंगलचन्दजी नामक चार पुत्र हुए।
मेहता लूणकरनजी का परिवार-मेहता लूणकरनजी कानून के अच्छे जानकार तथा कार्यकुशल सजन थे। आप बीकानेर राज्य में नायब तहसीलदार, नाजिम आदि पदों पर सं० १९८७ तक काम करते रहे । तदनंतर स्टेट से पेंशन प्राप्त कर आप बीकानेर में धार्मिक जीवन बिता रहे हैं। आपके राजमलजी, जीवनमलजी, सुन्दरमलजी, रोशनलालजी एवं मोहनलालजी नामक पाँच पुत्र विद्यमान हैं। मेहता राजमलजी बड़े व्यापार कुशल व्यक्ति हैं आपने पहले पहल कृपाचंद उत्तमचंद के साझे में कलकत्ते में एक फर्म स्थापित की थी। बाद में सन् १९३० से नं० १६ क्रास स्ट्रीट कलकत्ता में अपनी एक स्वतन्त्र फर्म स्थापित की जिसपर जापान, विलायत भादि देशों से कपड़ा इम्पोर्ट होता है। आपकी फर्म पर देशी मीलों के कपड़े का भी कारबार होता है । जीवनमलजी ने कलकत्ता यूनीवर्सिटी से बी० कॉम प्रथम दर्जे में ब सारी युनिवर्सिटी में द्वितीय नम्बर से पास किया। इस समय आप बी० एल० में पढ़ रहे हैं। आप बड़े सुधरे हुए विचारों के सजन हैं। सुन्दरलालजी मेट्रिक में तथा रोशनलालजी व मोहनलालजी भी पढ़ते हैं।
मेहता लूणकरनजी के भाई मेहता हीरालालजी तथा मंगलचंदजी बीकानेर स्टेट में सर्विस करते तथा हजारीमलजी कलकते में व्यवसाय करते हैं।
श्री माणिकलालजी कोचर बी० ए० एल०एल० बी०, नरसिंहपुर
इस परिवार के पूर्वज कोचर ताराचन्दजी फलौदी में रहते थे। वहाँ से इनके पौत्र रावतमलजी बथा जेठमलजी सं० १०॥ में मुंजासर गये । मुंजासर से सेठ जेठमलजी के पुत्र इन्द्रचन्द्र जी, बाधमलजी
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ मगनमलजी कानूगो (मगनमल पूनमचन्द), टिंडीवरम् . सेठ पूनमचन्दजी कानूगो (मगनमल पूनमचन्द) टिंडीवरम्.
सेठ समरथमलजी कानूगो (मगनमल पूनमचन्द)
टिंडीवरम् (मदास).
सेठ उदयराजजी कानूगो ( मगनमल पूनमचन्द )
टिंडीवरम् (मदास ).
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A SA TOEG
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स मस्ती कोचर नरसिंहगढ़ व्यापार के लिये आये । सं० १९०५ में रावतमलजी के पुत्र शिवजीरामजी
भी यहाँ आये । रावतमलजी के सबसे छोटे पुत्र अमोलकचन्दजी थे। इनके पुत्र छोगमलजी का जन्म १९२५ में हुआ। आपके यहाँ मालगुजारी तथा दुकानदारी का काम होता है। इनके पुत्र सुगनराजजी तथा गोकुलचन्दनी हैं। इनमें गोकुलचन्दजी अपने काका तखतमलजी के नाम पर दत्तक गये हैं। माणिकलालजी कोचर बी. ए. एल. एल.बी.-आपके पितामह को
तथा पिता माहरमलजी नरसिंहगढ़ में व्यापार करते थे। नाहरमलजी का स्वर्गवास सं० १९८३ में हुआ। आपके करणीदानजी, पेमराजजी, माणिकलालजी तथा हेमराजजी नामक ४ पुत्र हुए । इनमें कोचर माणिकलालजी का जम्म सं० १९३८ में हुभा । सन् १९०३ में आपने बी० ए० पास की। इसके पश्चात् आप जबलपुर, मरसिंहपुर और होशंगाबाद के हाई स्कूलों में अध्यापक रहे। सन् १९०९ में आपने एल०एल० बी० की जिगरी सिल की। तथा तबसे आप नरसिंहगढ़ में वकालात करते हैं।
कोचर माणकलालजी सी० पी० के प्रतिष्ठित सज्जन हैं। आप ओसवाल सम्मेलन मालेगांव, मंगमेंस भोसवाल एसोसिएसन जोधपुर तथा सी० पी० प्रान्तीय ओसवाल सम्मेलन यवतमाल के सभापति रहे थे । १९२०-२१ के असहयोग मान्दोलन के समय मापने अपनी प्रेक्टिस से इस्तीफा दे दिया था। भार प्रेस सेक्रेटरी तथा म्युनिसिपल प्रेसिडेंट रह चुके हैं। वर्तमान में आप डिस्ट्रिक्ट कौंसिल के मेम्बर लोकल कोआपरेटिव बैंक के प्रेसिडेण्ट, पी० डबल्यू. डी० स्कूल बोर्ड के प्रेसिडेण्ट, सी०पी० बरार प्राविशियल बैंक नागपुर के डायरेक्टर, और उसके मेनेजिंग बोर्ड के मेम्बर हैं। इसी तरह आप नर्दन इन्सटिव्यूट के भी चेयरमैन रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि भाप सी० पी० के नामांकित सजन है । आपके पुत्र विजय. सिंहजी १६ साल के हैं। तथा नरसिंहपुर हाई स्कूल में पढ़ते हैं ।
सेठ मूलचन्द घीसूलाल कोचर का खानदान, बेलगांव (महाराष्ट्र)
यह परिवार मूल निवासी सोजत का है। वहाँ से सेठ मगनीरामजी के पुत्र मूलचन्दजी, हेम. राजजी तथा मुलतानचन्द्रजी सवत् १९३०॥३२ में बेलगाँव आये । तथा मूलचन्द हेमराज के नाम से व्यापार भारम्भ किया। इन तीनों भाइयों ने इस दुकान के व्यापार तथा सम्मान को बढ़ाया । संवत् १९५० में सेठ हेमराजजी का तथा संवत् १९५२ में शेष दोनों भाइयों का कारवार अलगभला हो गया।
सेठ मूलचन्दजी का परिवार-कोचर मेहता मूलचन्दजी दुकान की उन्नति में भाग लेते हुए संवत् १९५९ में स्वर्गवासी हुए। इस समय दुकान के मालिक आपके पुत्र घीसूकाळजी हैं। घीसूलालजी
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का जन्म सम्बत् १९१ में हुआ। मापके यहाँ बेलगाँव (महाराष्ट्र) में मूलचंद घीसूलाल के नाम से कपड़े का थोक व्यापार होता है । यह दुकान ओसवाल पोरवाल समाज की मुकादम है। घीसूलालजी को परम ध्यान में अच्छा मन है। इनके बड़े पुत्र जीवराजजी व्यापारिक काम देखते हैं। तथा इनसे छोटे उगमरानजी और विशनराजजी है।
सेठ हेमराजजी का परिवार-सेठ हेमराजजी का स्वर्गवास संवत् १९६९ में हुआ। इनके पुत्र पनराजजी का जन्म १९४० में हुआ । आपके यहाँ बेलगाँव में कपड़े का व्यापार हेमराज पनराज के नाम से होता है । इनके पुत्र सोहनराजजी तथा दौलतराजजी हैं।
___सेठ मुलतानमलजी का परिवार-आपका स्वर्गवास संवत् १९६९ में हुआ । आपके पुत्र हरकमलजी का जन्म १९४५ में हुआ। आपकी दुकान बेलगाँव तथा सोजत में अच्छी प्रतिष्ठित मानी जाती है । आपने बेनियन एण्ड कं० की कपड़े की एजेन्सी हुबलो में ली है । आपके पुत्र लालचन्दजी १७ साल के हैं । तथा दुकान के काम काज में भाग लेते हैं। इनसे छोटे सूरजमलजी तथा चुनीलालजी हैं। इस दुकान की शाखायें हुबली तथा सोजत में हैं।
सेठ मूलचन्द घीसूलाल दुकान के 1५ सालों से मुनीम सिंघवी मोतीलालजी (मूलचंदोत) सोजत निवासी हैं । आपका खानदान भी सोजत में नामांकित माना जाता है । सेठ हरकमलजी की दुकान के भागीदार घीसालालजी सियाटिया सोजत निवासी हैं । आपके पिताजी संवत् १९५३ से यहाँ काम करते थे।
सेठ सुजानमल चांदमल कोचर, त्रिचनापल्ली यह परिवार फलोधी का निवासी है। सेठ बेनचंदजी कोचर फलोधी में रहते थे। इनके पुत्र रामचंदजी थे। हरिचन्दजी के पुत्र सुजानमलजी देश से व्यापार के निमित्त बंगलोर आये । तथा आईदान रामचंद के यहाँ मुनीमात करते रहे। इसके पश्चात् आप पल्टन के साथ त्रिचनापल्ली आये । उस समय सेठ आनंदरामजी पारख, रावतमलजी के यहाँ थे । इन दोनों सजनों ने मिलकर पल्टन के साथ तथा सर्व साधारण के साथ देनलेन का धंधा शुरू किया । आप 'रेजिमेंटल बैंकर्स के नाम से बोले जाते थे । आप दोनों सजनों ने व्यापार में सम्पत्ति उपार्जित कर त्रिचनापल्ली में अपनी उत्तम प्रतिष्ठा स्थापित की । कई अंग्रेज आफीसरों से आपका अच्छा मेल था। संवत् १९७४ में सेठ सुजानमलजी कोचर स्वर्गवासी हुए। तथा संवत् १९८० में आपका व्यापार सेठ आनंदरामजो पारख से अलग हुआ। आपके चांदमलजी तथा अमरचंदजी नामक पुत्र हैं। चांदमलजी का जन्म सन् १९०६ में तथा अमरचन्दजी का १९१६ में था।
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ओसवाल जाति का इतिहास
मेहता लूनकरणजी कोचर, बीकानेर.
कुँवर राजमलजी कोचर, बीकानेर,
कुँवर जीवनमलजी कोचर, बीकानेर.
सेठ कस्तूरचंदजो कोचर (जेठमल कस्तूरचंद) बीकानेर,
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कोचर मेहता चाँदमलजी फलोधी म्युनिसिपैलेटी के मेम्बर हैं। तथा शिक्षित व समझदार सजन हैं। त्रिचनापल्ली पांजरापोल को आपने २१००) दान दिये हैं। इसी तरह जीवदया प्रचारक संस्था में भी सहापता देते रहते हैं । फलोधी तथा त्रिचनापल्ली में भापकी अच्छी प्रतिष्ठा है। भापके यहाँ व्याज का व्यापार होता है।
सेठ जेठमल कस्तूरचन्द कोचर का खानदान, बीकानेर।
इस खानदान का मूल निवास स्थान बीकानेर का है। आप लोग श्री जैन श्वेताम्बर मन्दिर मार्गीय सजन हैं । इस खानदान के पूर्व पुरुष सेठ जेठमलजी का सं० १९३३ में स्वर्गवास हो गया । भापके कस्तूरचन्दजी नामक एक पुगए।
...जो कलरवंदजी काम सं० १९३१ का है। आप पहले पहल सं० १९४५ में कलकत्ता आये और यहाँ पर मापने दलाली की । आप साहसी, होशियार, कठिन परिश्रमी तथा सीदे सावे पुरुष है। मापने सवा९४८ में जेठमल कस्तूरवाद के नाम से ३९ क्लाइव स्ट्रीट में अपनी फर्म स्थापित की, जो भाज - चल रही और जिसका काम आप ही योग्यतापूर्वक सम्हाल रहे हैं। आपके कन्हैयालालजी नामक एक पुत्र हैं। भापका जन्म सं० १९५६ का है । आप भी इस समय फर्म के काम में सहयोग लेते हैं। भाप मिलनसार नवयुवक हैं।
सेठ शिवचन्दजी रोशनलालजी कोचर का खानदान, बीकानेर । - इस खानदान के लोग श्वेताम्बर जैन मन्दिर आम्नाय को मानने वाले हैं । इस खानदान का मूल निवास स्थान बीकानेर का है। अमृतसर में इस दुकान को स्थापित हुए करीब पचास वर्ष हो गये। इस खानदान में सेठ करणीदानजी हुए । करणीदानजी के पुत्र बिरदीचन्दजी और बिरदीचन्दजी के पुत्र श्रीचन्दजी हुए। श्रीचन्दजी का जन्म संवत् १८९८ में हुआ। आपके सेठ शिवचन्दजी, छगनमलजी और सोहनलालजी नामक तीन पुत्र हुए,।
सेठ शिवचन्दजी का जन्म सम्वत् १९९७ में हुआ । आप बड़े व्यापार कुशल और बुद्धिमान व्यक्ति थे । आपने ही अपने हाथों से अमृतसर में अपनी दुकान कायम की । आपका स्वर्गवास सम्बत् १९७४ में हुआ। आपके तीन पुत्र हुए । रोशनलालजी, बृजलालजी और सुन्दरलालजी । इनमें लाला रोशनलालजी का जन्म सम्बत् ११५1 में हुमा । आपके दो पुत्र हैं अनन्तलालजी और अभयकुमारजी । ला० रोशनलालजी ही इस समय अपनी दुकान संचालन करते हैं। सृजलालजी का जन्म सम्बत् १९६४ में हुआ। आप भी .
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
दुकान का कारोबार करते हैं । सुन्दरलालजी का जन्म सम्वत् १९६६ में हुआ । आप भी दुकान का कारोबार करते हैं। इस दुकान पर पश्मीने और आढ़त का काम करते हैं। तार का पता "बीकानेरी" है । सेठ पदमचन्द सम्पतलाल कोचर, फलौदी
इस परिवार के पूर्वजों का मूल निवासस्थान फलौदी ( मारवाड़ ) का है। आप श्री जैन श्वेताम्बर मंदिर आम्नाय को मानने वाले सज्जन हैं । इस कुटुम्ब में सब से प्रथम सेठ जीवणचन्द्रजी हुए। सेठ जीवनचन्दजी के पश्चात् क्रमशः उत्तमचन्दजी, मलकचन्दजी, मायाचन्दजी, सिरदारमलजी तथा कुन्दनमलजी नामक पुत्र हुए। सेठ कुन्दनमलजी के सेठ पदमचंदजी नामक पुत्र हुए ।
सेठ परमचन्दजी का जन्म संवत् १९३३ में हुआ । आप बड़े व्यापार कुशल, बड़े ईमानदारधार्मिक तथा समझदार सज्जन हैं। शुरू २ में कई वर्षों तक आप बरार में रहे। पश्चात् संवत् १९६० में अहमदाबाद में मेसर्स सरदारमल पाबूदान गोलेछा फलोदी वालों के पार्टनर शिप में कपड़े की कमीज्ञान एजन्सी का काम प्रारम्भ किया । अहमदाबाद में आपकी दुकान प्रतिष्टित मानी जाती है। आप उदार धार्मिक और सदाचारी सज्जन हैं। जो ओसवाल भाई अहमदाबाद आते हैं। उनकी अच्छी खातिर करते हैं। और आपने हजारों रुपये धार्मिक कामों में खर्च किये हैं तथा तीर्थयात्रा प्रायः हर साल किया करते हैं । आपकी दुकान की अहमदाबाद के मिल आदि व्यापारिक क्षेत्रों में अच्छी ख्याति है । आपके सम्पतलालजी नामक एक पुत्र हैं । आप व्यापारिक कार्यों में बहुत होशियार हैं। इनके भी तीन पुत्र हैं । सेठ उदयचन्द गुलाबचंद कोचर का परिवार, कटंगी
इस खानदान का मूल निवसस्थान नागौर ( मारवाड़ ) है । इस परिवार में कोचर उदयचंदजी हुए। आप देश से व्यापार के निमित्त कटंगी गये और वहाँ पर कपड़ा सोना, चांदी, आदि का व्यवसाय शुरू किया। आपका सं० १९७४ में स्वर्गवास हुआ। आपके गुलाबचंदजी, नेमीचन्दजी व भभूतभलजी नामक तीन पुत्र हुए। इनमें गुलाबचन्दजी सं० १९८४ में तथा भभूतमलजी सं० १९७४ में गुजरे ।
वर्तमान में इस खानदान में नेमीचंदजी व गुलाबचंदजी के पुत्र फूलचंदजी, लूनकरणजी तथा खुशालचंदजी विद्यमान हैं। आपकी कटंगी व बालाघाट की फर्मों पर कपड़ा व साहुकारी का काम होता है। बालाघाट की दुकान पर फूलचंदजी काम देखते हैं ।
सेठ गुलराजजी फौजराजजी कानुगा का खानदान, फलौदी
इस कुटुम्ब का मूल निवास स्थान फलौदी (मारवाड़) है। इस परिवार में सेठ सूरजमलजी हुए। आपके अनराजजी, गुलराजजी, सकहराजजी तथा फौजराजजी नामक चार पुत्र हुए। इनमें अन
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झाबक
राजजी, गुलराजजी तथा फौजराजजी सम्बत् १९४० में मद्रास आये और यहाँ पर सराफी का धन्धा चाल किया । सेठ अनराजजी का सं १९६७ में तथा सेठ सलहराजजी का संवत् १९०३ में स्वर्गवास हुआ। सलहराजजी फलौदी में कानूगो का काम करते थे। वर्तमान में इस खानदान में सेठ गुलराजजी, फौजराजजी तथा गुलराजजी के पुत्र सम्पतलालजो व राणूलालजी और अनराजजी के पुत्र कंवरलालजी मौजूद हैं । आपके यहाँ पर मद्रास में चाँदी, सोना व ब्याज का काम होता है । यह परिवार लगभग ३०० वर्षों से कानूगी का कार्य करता आ रहा है। फलौदी के कानगों खानदानों को समय समय पर कई लागें मिलती रही हैं।
माबक झाबक गौत्र की उत्पत्ति-ऐसा कहा जाता है कि राठौड़ वंशीय राव शृंदाजी के वंश में राजा मुम्बद, झाबुआ (मालवा) में राज्य करते थे। संवत् १५७५ में खरतर गच्छा चार्य श्री जिनभद्र सूरि के उपदेश से इन्होंने जैनधर्म और ओसर्वश को अङ्गीकार किया। इन्हीं के वंशज आगे चल कर झाबक, झामड़, भौर दुवक कहलाये।
झाबक फूलचन्दजी का खानदान, फलौदी। उपरोक्त साबक वंश में सेठ जबरसिंहजी हुए जो पहले जैसलमेर में रहते थे और पश्चात् आप फलौदी में भाकर बस गये । इनके पौत्र धरमचन्दजी हुए । धरमचन्दजी के पुत्र जीवराजजी और मानमलजी बड़े मामालित पुरुष हुए। आप फलौदी की ओसवाल जाति में सर्व प्रथम चौधरी हुए। इन्हीं के नाम से आज भी यह खानदान "जिया माना का परिवार" के नाम से प्रसिद्ध है। धर्मचन्दजी के तीसरे पुत्र अखैचन्दजी के परिवार वाले मड़िया झाबक कहलाते हैं। झाबक जीवराजजी के पश्चात् क्रमशः भासकरणजी और भागचन्दजी हुए। भागचन्दजी के पुत्र अचलदासजी हुए।
अचलदासजी झा क-आप इस खानदान में अच्छे प्रतापी हुए। आपने जाति सेवा में बहुत अच्छा भाग लिया था। दरबार ने आपको कई सनदें इनायत की थीं। पर वानों से मालूम होता है, कि आप १७५० से १७८७ तक विद्यमान थे। आपके अबीरचन्दजी और गुलाबचन्दजी नामक दो पुत्र हुए । अबीरचन्दजी भी फलौदी के ओसवाल और माहेश्वरी समाज में प्रधान व्यक्ति थे । आपके उदयचन्दजी नामक एक पुत्र और साह कुँवर नामक एक पुत्री हुई। साहकुंवर सुप्रसिद्ध डहा तिलोकसीजी की पत्नी, तथा पदमसीजी, धरमसीजी, अमरसीजी, टीकमसीजी आदि की माता थीं। झाबक उदयचन्दजी के कपूरचन्दजी,
और रायसिंहजी नामक दो पुत्र हुए। इनमें से कपूचन्दजी के वंश में झाबक मंगलचन्दजी हैं जिनका परिचय भागे दिया जा रहा है। तथा रायसिंहजी के परिवार में शावक फूलचन्दजी एवं नेमीचन्दजी हैं।
झाबक रायसिंहजी-आप अपने समय के अच्छे समझदार, प्रतिभाशाली और प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। इन्हें जोधपुर दरबार से निम्नलिखत एक परवाना प्राप्त हुभा था।
"अपरंच उठारा ओसवाला री चौधर झाबखां री है सो माबख जिया मामा रा परवार रा सदा माफक किया जावे है तिणंरो परवाणो सम्बत् १७३६ रा साल रोश्णा कने हाजर है। सो इणोरी सदामंदरी मरजाद में कोई उजर खोट करे निण कने रु.२७००) श्री
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ओसवाल जाति का इतिहास
दरबार में भरे सु हमें ई इणारी चौधर है ने मरजाद है जिण माफक राखियो कोजो ने कोई उजर खोट कर मरजाद मेटे तो आगे परवाना हुआ जीण मुजब कीजो श्री हुजूर रो हुकुम छै दूजा भादव, सुदी १३ संवत १८८...
मेघराजजी झाबक- रायसिंहजी के पुत्र मेघराजजी का जन्म संवत् १८८० में हुआ। आप सम्वत् १९०७ में बीकानेर में ड्डा अमरसीजी की फर्म के चीफ एजेण्ट नियुक्त हुए। कहना न होगा किडड्ढा खानदान इनका रिश्तेदार था और अमरसीजी इनके दादा उदयचन्दजी के भानजे थे। झाबक मेघराजजी के साथ सेठ अमरसी सुजारमल के मालिको का व्यवहार बड़ा प्रेमपूर्ण और प्रतिष्ठित था। साबक मेघराजजी सम्बत् १९१७ में इस खानदान की हैदराबाद वाली दुकान पर गये और अपने बड़े भाई सावक केशरीचन्दजी के मातहती में रहकर सब कारोबार करते रहे। आप साहुकारी लाइन में होशियार एवं अनभवी पुरुष थे। फलोदी की जनता में आप आदरणीय व्यक्ति माने जाते थे सं० १९२५ में आपका देहान्त हो गया। आपके बाधमलजी, बदनमलजी, नथमलजी और सुगनमलजी नामक चार पुत्र हुए। सं. १९१८ से ६५ तक इनकी एक दुकान “मेघराज बाघमल" के नाम से हैदराबाद में व्यापार करती रही।
झाब बाघमलजी-आपका जन्म संवत् १९०९ में हआ। आप समझदार एवं अमीराना तबियत के पुरुष थे। संवत् १९४१ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपकी धर्मपत्नी ने आपके बाद जीवन भर प्रत्येक मास में ८ उपवास किये । और लगातार ३१, २५ दिनों तक भी कई उपवास किये । आपके कोई संतान नहीं थी। अतः आपने अपने यहाँ पर पर झाबक नथमलजी के बड़े पुत्र बच्छराजजी को दत्तक लिया।
भाबक बच्छराजजी-आपका जन्म १९३२ में एवं संवत् १९६८ में समाधि मरण हुआ। भापकी मद्रास में घरु दुकान होते हुए भी सेठ चांदमलजी ड्डा के आगृह से उनकी हैदराबाद दुकान के आप १० साल तक चीफ एजंट रहे। आप बुद्धिमान् एवं कार्य कुशल व्यक्ति थे। आपके पुत्र नेमीचन्दजी साबक का जन्म संवत् १९५३ में हुआ।
___ झाबक नमीचन्दजी-आप बड़े प्रभावशाली जाति सुधारक और सज्जन व्यक्ति हैं। सम्वत् १९८० से ३ तक फलौदी की जाति में जो सधार हुए उनमें आपका प्रधान हाथ था। मद्रास के चायना बाजार में आपकी ज्वेलरी और रडीमेड सिलवर की बड़ी प्रतिष्ठित और प्रमाणिक दुकान है। आपके पुत्र वजीरचन्दजी बड़े होनहार हैं। ये अभी बालक हैं । सेठ फूलचन्दजी झाबक के कोई संतान नहीं है, अतः उन्होंने अपने भतीजे सेठ नेमीचन्दजी एवं उनके पुत्र वजीरचन्दजी को अपनी सम्पत्ति का मालिक कायम किया है। श्रीयुत फूलचन्दजी साबक अच्छे प्रभावशाली व्यक्ति हैं। जैन समाज के बड़े २ आचार्यों एवं धनिकों से आपका बहुत परिचय है। आपके यहाँ एक मूल्यवान पुस्तकालय है। जिनमें लगभग ८०० ग्रन्थ हैं। इनमें कल्पसूत्र नामक ग्रन्थ ताड़ पत्र पर लिखा है और वह सम्बत् ११०० के लगभग का है। इसके अलावा ओल्ड चायना का भी आपके पास संग्रह है। आपके सुप्रयत्न से फलोदी में एक कन्या पाठशाला स्थापित हुई। इसी तरह हैदराबाद की जीवदया समिति में भी आपने प्रधान भाग लिया था। आप १९४५ तक हैदराबाद में मुख्त्यार की हैसियत से सेठ "अमरसी सुजानमल" फर्म पर काम करते रहे। बाद दो सालों तक सेठ चांदमलजी की सेवामें रहे । आपका विस्तृत परिचय नीचे दिया गया है।
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ओसवाल जाति का इतिहास
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श्री फूलचन्दजी झाबक, फलौदी.
श्री नेमीचन्दजी झाबक, मद्रास.
कुं० वजीरचन्द s/नेमीचंदजी झाबक, मदास.
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झाबक
बंदनमलजी-बदनमलजी का जन्म 1९11 में और मृत्यु १९५६ में हुई। इनके लक्ष्मीलालजी खूणकरणजी और मानमलजी नामक तीन पुत्र हुए । इनमें लक्ष्मीलालजी का स्वर्गवास हो चुका है।
नथमलजी-आपका जन्म सम्बत् १९१५ में तथा मृत्यु सं० १९४४ में हुई । आप बड़े धर्मात्मा थे आपका देहान्त समाधि मरण से हुआ। इनके बच्छराजजी और फूलचन्दजी नामक दो पुत्र हुए, इनमें से बच्छराजजी, बाघमलजी के दत्तक चले गये । आपकी माता बड़ी धर्मात्मा थीं इन्होंने संवत् १९४५ से १९८२ तक लगातार इकोतरे उपवास किये थे। तथा ३७ वर्ष तक दूध और शक्कर का भी त्याग किया था। आपने श्री शीतलनाथजी के मन्दिर में श्री पार्श्वनाथ स्वामी की एक प्रतिमा स्थापित कर वाई थी। इसी प्रकार श्री मेमीचन्दजी की माता ने भी उक्त देरासर में एक महावीर स्वामी की स्वर्ण प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी।
झाबक फूलचन्दजी-आपका जन्म संवत् १९३७ में दुभा । आप बड़े बुद्धिमान और प्रभावशाली व्यक्ति हैं। फलौदी, हैदराबाद, मद्रास, गोडवाड़ आदि के भोसवाल समाज में आपका बड़ा प्रभाव है इतिहास, ज्योतिष, काव्य, संस्कृत ग्रंथ, आगम, पुराण इत्यादि विषयों में भापका अच्छा ज्ञान है। जाति बिरादरी के सगड़ों को निपटाने में आपको बढा यश प्राप्त है। कई बड़े २ गम्भीर झगड़ों के अवसर पर दोनों पार्टियाँ भापको समदर्शी समझकर अपना पंच मुकर्रर कर देती है और ऐसे झगड़ों को आप बड़ी बुद्धिमानी से निपटा देते हैं। संवत् १९७९ में बीकानेर के बाईस सम्प्रदाय और मन्दिर आम्नाय के झगड़े को आपने कुशलतापूर्वक निपटाया। इसी प्रकार फलौदी, खीचन्द, हैदराबाद, मद्रास आदि की धड़े बंदियों को भी आपने कई दफे मिटाया । आप फलौदी के ओसवाल नवयुवक मण्डल के प्रेसिडन्ट हैं । संवत् १९७३ में जब फलौदी में म्युनिसिपेल्टी कायम हुई तब आपने गरीब आदमियों की तरफ का सब टैक्स अपने पास से भर दिया था। इससे जनता आपसे बड़ी खुश हुई थी। इस समय आपको मान पत्र भी मिला था। इस प्रकार प्रत्येक शुभ कार्य में आपका बड़ा भाग रहता है ।
संवत् १९६८ में आपको बीकानेर के सेठ चांदमलजी ढहा ने अपना चीफ एजेण्ट बनाया। शुरू में आप उनकी बीकानेर और बेगूं दुकान पर और फिर हैदराबाद दुकान पर रहे। आपने बढ़ो ईमानदारी और चतुराई से इस कार्य को किया । संवत् १९८५ में आप वहाँ से अलग हो गये।
सुगनमलजी-इनका जन्म संवत् १९१८ और मृत्यु सं० १९.२ में जोधपुर में हुई थी, यह बुद्धिमान् सुशील तथा साहुकारी लाइन के अच्छे जानकार थे, इनके ३ पुत्र हुए।
अनराजजी-इनका जन्म १९४४ में मृत्यु १९७५ में हुई । इनके एक पुत्र दीपचन्दजी है। उनकी उन्न १५ साल की है। दूसरे गुलराजजी, का १७ वर्ष की उम्र में ही देहान्त हो गया। साबक सोहनराजजी,
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ओसवाल जाति का इतिहास
की उम्र इस वफ १२ साली। इनके ५ पुत्र रामलालजी, पेमचंदजी, सम्पतलालजी, हेमचंदजी आदि हैं । यह खानदान शुरू से अब तक श्री जैन श्वेताम्बर संवेगी ( मूर्ति पूजक ) है।
झाबक कपूरचंदजी का खानदान
(मंगलचंदजी शिवचंदजी झाबक मद्रास) रायसिंहजी के बड़े भाई शावक कपूरचन्दजी का उल्लेख ऊपर आ चुका है । आप संवत् · १८६४ में अमरसीजी उड्डा को फर्म पर बीकानेर चले गये। उसके पश्चात् संवत् १८६८ में आप उनकी तरफ से हैदराबाद गये । वहां अमरसी सुजानमल फर्म को स्थापित किया । करीब १५ वर्ष रह कर आपने उस फर्म की बहुत तरक्की की। आप बडे बुद्धिमान और प्रतिभाशाली थे। संवत् १८४४ में आप का देहान्त होगया। इनके केशरीचन्दजी और करणीदानजी नामक दो पुत्र हुए। केसरीचंदनी का जन्म संवत् १८६५ में और मृत्यु संवत् १९२२ में हुई। इन्होंने संवत् १९०७ तक सेठ सुजानमलजी के उड्डा के चीफ़ एजेण्ट का काम किया। संवत् १९०० में आप हैदराबाद में उक्त सेठजी की दुकान पर गये और वहां पर १५ बरस रहे। इस समय में आपने इस फर्म की अच्छी उन्नति की। हैदराबाद के मारवाड़ी समाज और राजदरबार में आपकी अच्छी इज्जत थी। आप बड़े बुद्धिमान सुशील और उदार सज्जन थे। भआपके रेखचंदजी और मगनमलजी नामक दो पुत्र हुए । रेखचंदजी का जन्म संवत् १९०१ में और मृत्यु संवत् १९३७ में हुई। संवत् १९२५ तक आप बीकानेर में उदयमलजी के पास रहे और पश्चात् उनकी हैदराबाद दुकान पर चीफ एजण्ट होकर गये। आप भी योग्य, बुद्धिमान और उदार ग्यक्ति थे। इनके एक पुत्र कानमलजी हुए जो केवल १६ वर्ष की उम्र में स्वर्गवासी होगये।
___ झाबक मगनमलजी-आपका जन्म संवत् १९०१ में और मृत्यु १९६२ में हुई। संवत् १९३७ तक ये बीकानेर में सेठ उदैमलजी के यहाँ चीफ एजण्ट रहे। संवत् १९२९ में उदैमलजी उड्डा का देहान्त होजाने से तथा सेठ चांदमलजीकी उम्र केवल ३ वर्ष की होने से उनका सब काम आपको सम्हालना पड़ा। पाचात् १९३० से १९६२ तक आप मेसर्स अमरसी सुजानमल की हैहराबाद दुकान पर काम करते रहे। भाप बड़े व्यापार कुशल और बुद्धिमान व्यक्ति थे, उर्दू फारसी के आप अच्छे जानकर थे । दुकान के मालिक आपकी बड़ी प्रतिष्ठा और इज्जत करते थे। आपके मंगलचन्दजी नामक एक पुत्र हुए।
झाबक मंगलचंदजी-आपका जन्म संवत् १९३२ के भाद्रपद में हुआ। भाप बड़े बुद्धिमान, सुशील और परोपकारी व्यक्ति हैं। ममास के ओसवाल समाज में भापकी बड़ी प्रतिष्ठा है। पंचायती के सब काम आपकी दुकान पर होते हैं। भापका हृदय बड़ा कोमल है। और परोपकार के कार्यो
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्वगाय सेठ रेखचन्दजी, झाबक.
स्वगाय सेठ मगनमलजी, झाबक,
साना सेठ मंगलचन्द्रजी झाबंक, मदास.
कुंवर शिवचन्द्रजी भाबक, मद्रास,
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भावक
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मैं आप कॉफी द्रव्य खर्च करते रहते हैं । आपकी एक दुकान मद्रास में फ़ेसरीचंद मगनमल के नाम से १९२२ में स्थापित हुई । जिस पर बैकिग का काम होता है। दूसरी पटना में मंगलचंद शिवचंद के नाम से संवत् १९६३ में स्थापित हुई इसकी एक शाखा मुकामा में भी है। पटियाला स्टेट के मोरमड़ी नामक स्थान में राठी वंशीलालजी के साझे में आपकी एक जिनिंग फैक्टरी भी चल रही है । आप बड़े सत्यप्रिय हैं।
कुँबर शिवचंदजी - सेठ मंगलचन्दजी के पुत्र कुँवर शिवचन्दजी का जन्म १९५९ में हुआ । आपने मैट्रिक तक शिक्षा प्राप्त की । आप योग्य उत्साही और प्रतिभाशाली नवयुवक हैं । आप जतनलालजी के साझे में मेसर्स शिवचन्द जतनलाल के नाम से कपड़े का व्यापार करते हैं ।
सेठ कपूरचन्दजी के पुत्र करनीदानजी थे इनका जन्म सं० १८६८ और मृत्यु सं० १९३५ में हैदराबाद में हुई थीं। यह बुद्धिमान् तथा साहुकारी लाइन में हुशियार थे, आप जवाहरात का व्योपार करते थे, और उस जमाने में जवाहरत के अच्छे परिक्षक माने जाते थे यह देसणोंक (बीकानेर) ले फलौदी आ गये थे इनके पुत्र पन्नालालजी हुए सं० १९४१ में इनका देहान्त हुआ । इनके पुत्र जवारमलजी थे। इनका देहान्त संवत् १९६५ में हुआ । इनके ३ पुत्र समीरमलजी, सुखलालजी, और मूलचन्दजी हैं, जो खगडिया (मुंगेर) में हस्तीमल, सुखलाल के नाव से दुकान चलती है, उसमें पार्टनर हैं।
यह खानदान शुरू से आज तक श्वेताम्बर जैन, मूर्ति पूजक है ।
झाबक लूणकरणजी का खानदान, फलोदी
शाबक शाबरसिंहजी के कई पीढ़ियों बाद जीवराजजी, मानमलजी व अखेचन्दजी हुए, जीवराजजी मानमलजी का परिवार तो जीवा माना का परिवार और भखेचंदजी का परिवार मड़िया शाबक कहाया । अखेचन्दजी की कई पीढ़ियों बाद सरूपचन्दजी और उनके पुत्र कस्तूरचन्दजी हुए। शावक कस्तूरचन्दजी के रामदानजी और चुनीलालजी नामक २ पुत्र हुए, इनमें रामदानजी ने संवत् १९२२ में फलौदी में कपड़ा तथा लेनदेन की दुकान खोली जो इस समय भली प्रकार काम कर रही है। संवत् १९६८ में इनका अंतकाल हुआ । शाबक चुनीलालजी के कोई सन्तान नहीं हुई। शाबक रामदानजी के नवलमलजी हीरचंदजी तथा तेजमलजी नामक ३ पुत्र हुए। इनमें से तेजमलजी, झाबकों की दूसरी फली में झाबक पीरदानजी के नाम पर दत्तक गये ।
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बक नवलमलजी का अंत काल संवत १९५५ में हो गया इनके पुत्र लूणकरणजी तथा जीवण चंदजी हुए, इनमें से जीवनचन्दजी, हीरचंदजी के नाम पर दत्तक गये । साबक लूणकरणजी के चम्पालाल जी और गुमानमलजी नामक पुत्र हैं, जिनमें चम्पालाजी, तेजमलजी के नाम पर दत्तक गये हैं । जीवणचन्द
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मोसवाल जाति का इतिहास
जी के पुत्र भंवरमलजी, अखेराजजी, मानमलजी तथा कंवरलालजी और चम्पालालजी के पुत्र कंवरलाबजी और मदनचंदजी हैं।
गोलेका
गोलेडा गौत्र की उत्पत्ति
कहा जाता है कि चंदेरी नगर में खरहत्थसिंह नामक राठोद राजा राज करता था। एक बार मुसलमानों की फौज ने इनके पुत्रों को घायल कर दिया। उस समय दादा जिनदत्तसूरिजी ने उन्हें जीवन दान दिया । इस प्रकार संवत् ११९२ में राजा ने जैन धर्म अंगीकार किया। इनके दूसरे पुत्र भेसाशाह बड़े प्रतापी व्यक्ति हुए । भेसाशाह के पुत्र गेलोजी तथा उनके पुत्र बच्छराजजी थे । बच्छराजजी को लोग गेल. बच्छा (यानी गेलाजी के बच्छराज) नाम से पुकारते थे । यह अपभ्रंश गोलेछा में परिवर्तित हो गया। और इस प्रकार बच्छराजजी की संताने गोलेछा नाम से सम्बोधित हुई।
गोलेका नथमलजी का खानदान, जयपुर यह परिवार विचंद का निवासी है। वहाँ से सेठ छगनलालजी गोलेछा व्यापार के लिये जयपुर आये । इनके पुत्र गोलेछा भेरूमलजी जयपुर स्टेट के ३० सालों तक खजांची रहे। संवत् १९३५ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके पुत्र नथमझजी तथा जुहारमलजी हुए।
गोलेछा नथमलजी-आपका जन्म संवत् १९०४ में हुआ। संवत् १९३५ में आप स्टेट ट्रेशरर बनाये गये । २ साल बाद यह कार्य इनके छोटे भ्राता के जिम्मे हुआ। और गोलेछा नथमलजी को जय. पुर स्टेट के दीवान का पद प्राप्त हुआ। संवत् १९५८ तक गोलेछा नथमलजी ने इस सम्माननीय पद पर कार्य किया । आप पर महाराजा सवाई रामसिंहजी तथा माधोसिंहजी की पूरी महरबानी थी। भोसवाल जाति के आप नामांकित व्यक्ति थे। आपका स्वर्गवास संवत् १९६० की चैत वदी ९ को हुभा । भापके छोटे भाई जुहारमलजी १९५० में गुजर गये । उनके बाद उनके पुत्र सागरमलजी संवत् १९७८ तक स्टेट ट्रेशरर रहे।
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गोलेडा
गोलेछा नथमलजी के इन्द्रमलजी, हजारीमरुजी, सोभागमलजी, सिरेमलजी तथा नौरतनमलजी नामक ५ पुत्र हुए। इनमें सिरेमलजी अपने बड़े भाई इन्द्रमलजी के नाम पर दत्तक गये । इन सब भाइयों का कुटुम्ब संवत् १९६१ में अलग २ हुआ। वर्तमान में इस खानदान में गोलेछा सोभागमलजी तथा हजारीमलजी के पुत्र घीसालालजी और सिरेमजी के पुत्र सरदारमलजी विद्यमान हैं। इनके यहाँ लेनदेन का व्यवहार होता है । गोलेछा सोभागमलजी के ३ पुत्र हैं ।
सेठ नथमलजी गोलेछा गवालियर वालों का खानदान
यह परिवार मूल निवासी विचंद फलौदी का है । वहाँ से सेठ धीरजमलजी गोलेछा लगभग १२५ वर्ष पहिले मथुरा होकर गवालियर गये। तथा वहाँ कपड़े का व्यापार आरम्भ किया । इनके तेजमलजी तथा जीरामकजी नामक २ पुत्र हुए 1
गीतमाजी गोडा- आप पास्पकाल से बड़े होनहार प्रतीत होते थे । अतएव आपने अपनी बुद्धिमत्ता से व्यापार में बहुत सम्पत्ति उपार्जित की। सेठ धीरजमलजी की राव राजा दिनकरराव के पिताजी राघोबा दादा के साथ गहरी मित्रता थी। धीरजमलजी के स्वर्गवासी होने पर जब दिनकरराव गवालियर राज्य के प्रधान हुए, तो उन्होंने गोलेछा जीतमलजी को तवरधार जिले का पातेदार बनाया । इस कार्य संचालन में जीतमलजी ने बहुत बुद्धिमानी से काम किया। इससे गवालियर दरबार ने प्रसन्न होकर गवालियर प्रान्त भर का इनको पोतेदार बनाया। इतना ही नहीं महाराजा जयाजीराव सिंधिया कई मामलों में इनकी सलाह लेते थे । तथा बहुत समय इनको अपने साथ रखते थे । अमझेरा तथा नीमच जिलों की सूबेदारी इनके पास बहुत दिनों तक रही। महाराजा ने प्रसन्न होकर इनको एक म्याना प्रदान किया था । आप संवत् १९२० से ४२ तक धौलपुर स्टेट के भी खजांची रहे । आपने सम्वत् १९२८ तथा ३२ में सम्मेद शिखर तथा पालीताना का संघ निकाला । संवत् १९४९ में आप स्वर्गवासी हुए । आपके मृत्यु समय ८ हजार रुपया धर्मार्थं निकाले गये थे ।
सेठ नथमलजी - आप गोलेछा जीतमलजी के पुत्र थे । आपका जन्म संवत् १९११ में हुआ था । आपने अपने पिताजी की मौजूदगी ही में राज्य के पातेदारी का तमाम काम सम्हाल लिया था । आपको गवायिर दरबार ने मीलिटरी ब्रिग्रेट तथा खानगी खाता और खासगो खजाने के काम भी इमामत क्रिये । इस कुटुम्ब का कई राज्यों में बड़ा भारी मान रहा है। दतिया राज्य के भी आप बैकर रहे थे । और आपको इस राज से म्याना, छत्री, हलकारा आदि का सम्मान बख्शा गया था । इतना ही नहीं आप को उक्त राज से जमीन और घोड़ा भी भेंट में दिया गया था । नवाब साहब पालनपुर ने सन् १९०३ में
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पोसवाल जाति का इतिहास
गवालियर में आपका अतिथ्य स्वीकार कर खिल्लत, कण्ठी, सर बंद, व पैरों में सोना वख्शा था। वर्तमान नवाब पालनपुर ने भी इन्हें सम्मान दिया, जम्मू, काश्मीर, करौली, चरखारी, पालीताना आदि के नरेशों ने भी मापको समय २ सम्मानों से विभूषित किया था।
इसके अतिरिक्त जैन श्वेताम्बर समाज में भी आपकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। सन् १९०७ में आप पूना जैन कान्फ्रेंस के सभापति के आसन पर अधिष्ठित किये गये। इसी समय डेक्कन एजूकेशन सोसायटी ने भी आपको अपना आजीवन का फेलो बनाया। गवालियर की चेम्बर आफ कामर्स ने आपको अपना अध्यक्ष चुना। गोलेछा नथमलजी महाराजा माधवराव सिंधिया के बड़े प्रिय पात्र थे। महाराजा की नाबालिगो हालत में आपने उन्हें लाखों रुपया उधार दिया था। पिछले दिनों में नथमलजी को बड़ी आर्थिक हानि हुई और उनके दुश्मनों ने महाराजा को उनके खिलाफ कर दिया । इससे महाराजा ने नाराज़ होकर आपको तमाम जमीदारी और स्टेट जप्त करली। इतना ही नहीं इनके ७० वर्ष के वृद्धशरीर को जेल में डाल दिया गया। वहीं कई वर्ष तक जेल यातना सहकर आपका शरीरान्त होगया । भापके पुत्र बाघमलजी हुए।
गोलेछा बाधमलजी-आपका जन्म संवत् १९३९ में हुआ। आपने १५ सालों तक अमझेरा में खजांची का काम किया। सन् १९१६ से १८ तक आप बोर्ड आफ कामर्स एण्ड इन्डस्ट्री के सलाहकार नियुक्त हुए। इसके बाद आप लश्कर नगर के आनरेरी मजिस्ट्रेट बनाये गये । इसके अलावा आप गवालियर की कई कम्पनियों के डायरेक्टर रहे। आपको सन् १९५२ में प्रिंस आफ वेल्स के सामने पेश होने का सम्मान भी मिला। आप जमीदार हितकारिणी सभा के सदस्य थे। सन् १९१७-१८ में आप सेंट जान एम्बुलेंस एसोसियेशन के भवेतनिक कोंसिलर बनाये गये। यह नियुक्ति स्वयं वाइसराय लार्ड चेम्सफोर्ड ने की थी। आप अपने पिताजी के साथ निमंत्रित होकर देहली दरबार में भी गये थे। भापको गवालियर राज्य की अदालत में उपस्थित होने की माफी है। गवालियर राज्य में आपको "राजमान राजे श्री सेठ” आदि सम्माननीय शब्दों से सम्बोधित किया जाता था। विवाह के अवसर पर इस परिवार को नगारा निशान खास बरदार तथा चांदी के होदे सहित हाथी, राज्य की ओर से मिलते थे। इस समय सेठ बाधमलजी जयपुर में निवास करते हैं। आप बड़े समझदार तथा विचारवान पुरुष हैं। पालनपुर दरबार से अब भी आपका पूर्ववत् प्रेम सम्बन्ध है।
गोलेछा राजमलजी जौहरी का खानदान, जयपुर
इस खानदान के पूर्व पुरुष गोलेछा रायमलजी तथा उनके पुत्र मुलतानचन्दजी बीकानेर में निवास करते थे। मुलतानचन्दजी के पुत्र माणकचन्दजी की बुद्धिमत्ता और कार्य दक्षता से प्रसन्न होकर
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गोलेका
जयपुर के रेजिडेंट मि० लडलू साहिब ने अपनी सिफारिश द्वारा उन्हें जयपुर स्टेट का प्रधान बनाया । आपने इस पद पर कई प्रभावशाली काम किये। इनके भाई मिलापचन्दजी भजमेर में रहते थे । सेठ माणिकचन्दजी को बीकानेर स्टेट ने पांव में पहिनने को सोना बख्शा था ।
माणिकचन्दजी के लक्ष्मीचन्दजी तथा मिलापचन्दजी के मोतीलालजी नामक पुत्र हुए । लक्ष्मीचन्दजो के मूलचन्दजी तथा नेमीचन्दजी हुए। इनमें से मूलचन्दजी, मोतीलालजी के नाम पर दत्तक गये । मूलचन्दजी के धनरूपमलजी तथा राजमलजी नामक पुत्र हुए। इनमें से राजमलजी, नेमीचन्दजी के बाल्यावस्था में ही स्वर्गवासी हो जाने से लक्ष्मीचन्दजी के नाम पर दत्तक आये । लक्ष्मीचन्दजी के बाद मूलचन्दजी ही सब कारवार देखते थे। गोलेछा मिलापचन्दजी के समय में इनका काम अजमेर में बहुत अच्छा चलता था। इनकी वहाँ पर हवेलियाँ, बगीचे, मकानात आदि थे। यह घर बड़ा मातवर माना जाता था । इनके बाद मिलापचन्दजी के पौत्र मूलचन्दजी जयपुर में रहने लगे । मूलचन्दजी का संवत् १९६४ में अंतकाल हुआ ।
गोलेछा राजमलजी ने इस फर्म की बहुत उन्नति की । क्यूरियो, मीनाकारी तथा आइल और रंगकी एजन्सी के व्यवसायों से आपने काफी सम्पत्ति उपार्जित की तथा राजदरबार में भी सम्मानित हुए । आपको जयपुर-स्टेट की ओर से दरबार में कुर्सी तथा लवाजमा प्राप्त था। आपने दो वर्ष पूर्व दोसा (जयपुर) में " जयपुर मिनरल डेव्हलपमेंट सिंडीकेट" नाम का सोप स्टोन पाउडर बनाने का मिल करीब १॥–२ लाख की लागत से खोला है आप जयपुर म्युनिसीपेलिटी के भी मेम्बर रह चुके थे । इसके अतिरिक्त और भी समाज सुधार सम्बन्धी कार्यों में भाप भाग लेते थे । आप का अंतकाल मिती माघ वदी २ संवत् १९८९ को हुआ ।
गोछा राजमलजी के पुत्र सोहनमलजी तथा महताबचन्दजी विद्यमान हैं । धनरूपमल जी के बाघमलजी, सिरेमलजी, कानमलजी तथा विनय चन्दजी नामक चार पुत्र हुए। इनमें से सिरेमलजी का अन्तकाल होगया है । शेष सब सज्जन विद्यमान हैं ।
गोलेछा सोहनलालजी का जन्म संवत् १९६३ में हुआ ।। आप बड़े शांत स्वभाव के सज्जन हैं। आपने अपने पिताजी की मृत्यु के पश्चात् दुकान के काम को बड़ी योग्यता से सम्हाला है । आप सुधारक विचारों के हैं तथा नवयुवक मण्डल के कोषाध्यक्ष हैं और अन्य सार्वजनिक संस्थाओं में भाग लेते हैं।
गोलेछा मुन्नीलालजी खुशाल चन्दजी का खानदान, टिएडीवरम् (मद्रास)
इस परिवार का मूल निवास स्थान बीकानेर शहर है । आप भोसवाल श्वेताम्बर जैन समाज
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ओसवाल जाति का इतिहास
के कचराणी गोछा गौत्रीय मंदिर-मार्गीय अम्नाय के माननेवाले सज्जन हैं। सेठ गिरधरजी के पश्चात् क्रमशः अरजुनजी, मौजीरामजी तथा गोकुलजी हुए। गोलेछा गोकुलजी के बरदीचन्दजी तथा लखमीचन्दजी नामक हो पुत्र हुए, सेठ बरदीचन्दजी गोलेछा बीकानेर में निवास करते थे, तथा उस समय वहाँ आपका परिवार बहुत समृद्धिपूर्ण अवस्था में था, सेठ बरदीचन्दजी के बींजराजजी तथा मुनीलालजी नामक दो पुत्र हुए, इनमें बीजराजजी सेठ लखमीचन्दजी गोलेछा के नाम पर दत्तक गये ।
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सेठ बरदीचन्दजी गोलेच्छा का परिवार
सेठ मुनीलालजी गोळेछा के कुशलचन्दजी, फतेचन्दजी तथा पन्नालालजी नामक ३ पुत्र हुए, आपके पुत्र सेठ खुशालचन्दजी अपने बाबा सेठ बींजराजी गोलेछा के पास बेंगलोर आये, तथा उन्हीं के पास कारोबार सीख कर होशियार हुए।
सेठ खुशालचन्दजी गोलेच्छा - आप बड़े कार्य चतुर तथा होशियार पुरुष थे। आपका जन्म संवत् १९१७ की काती सुदी १४ को बीकानेर में हुआ था। आपने बंगलोर में मुनीलाल खुशालचन्द के नाम से दुकान स्थापित की । धीरे २ इस फर्म की शाखाएँ तिरमिलगिरि, फरमकुंडा (सेंटथामस माउंट - मद्रास) आदि स्थानों पर जहाँ २ मिलिटरी केम्प रहे वहाँ वहाँ खोली गईं । आपकी योग्यता तथा होशियारी से प्रसन्न होकर कई अंग्रेज आफीसरों ने आपको उत्तम प्रमाण पत्र दिए। आपके छोटे भ्राता फतेचन्दजी, सेठ बींजराजजी के नाम पर दत्तक गये । तथा सबसे छोटे भ्राता सेठ पन्नालालजी बहुत समय आपके साथ व्यवसाय में सम्मि लित रहे तथा बाद सन् १९०९ में आप अलग हो गये तथा बंगलोर और तिरमिलगिरी में आपने अपनी स्वतन्त्र दुकान खोली । इस प्रकार प्रतिष्ठा पूर्वक जीवन बिताते हुए सेठ खुशालचंदजी गोलेछा का संवत् १९७७ में स्वर्गवास हुआ । आपके स्मरणार्थं आपके पुत्रों ने २० हजार रुपयों की रकम धर्मार्थ निकाली। इस रकम से टिण्डिवरम् में दी खुशालचन्द हॉयर एलिमेन्टरी इण्डिस्ट्रियल स्कूल नामक संस्था चल रही है। सेठ खुशालचन्दजी गोलेछा के ५ पुत्र हुए इनमें आगनमलजी, अमोलकचन्दजी तथा धर्मचन्दजी विद्यमान हैं । तथा मगनमलजी और मूलचंदजी का स्वर्गवास हो गया है। आप तीनों भ्राताओं की अलग १ स्वतन्त्र दुकानें हैं ।
सेठ छगनलालजी गोलेच्छा - अपका जन्म संवत् १९५० में हुआ । आपकी दुकानें सेंटथामस माउंट (मद्रास) तथा टिंडिवरम् में " खुशालचंद खानमल" के नाम से हैं। आपके पुत्र भँवरलालजी तथा उत्तमदी हैं।
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० सेठ खुशालचन्दजी गोलेछा, टिण्डिवरम् (मदास).
स्व० सेठ फतेचंदजी गोलेछा, बंगलोर,
श्री सेठ अमोलक चन्दजी गोलेछा, तिरपापल्लूर (मद्रास).
श्री सेठ धरमचन्दजी गोलेछा, टिण्डिवरम् (मदास).
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गोबछा
सेठ अमोलक चन्दजी गोलेछा-अपका जन्म संवत् १९५९ में हुमा । आपकी दुकाने "खुशालचन्द भमोलकचन्द" के नाम से पनरोटी, तिरपापल्लूर, गुडलूर, कुणजीवादी तथा हैदराबाद के तिरमलगिरी नामक स्थान में हैं । आप बड़े सजन व्यक्ति हैं।
सेठ धरमचन्दजी गोलेछा-अपका जन्म संवत् १९५९ में हुमा । भाप बड़े सजन तथा शिक्षाप्रेमी पुरुष हैं। आपकी दुकानें टिंडिवरम्, तिरिपापल्लूर तथा पदुमालियम् में हैं। इन दुकानों पर खुशालचन्द धरमचन्द के नाम से बैंकिंग कारबार होता है। आपने २० हजार रुपयों की रकम “सेठ धर्मचन्द गोलेछा साधारण फण्ड" के नाम से धर्मार्थ निकाली है, इस रकम का उपयोग साधु साध्वी, यात्रा, विद्यादान आदि कार्यों में खर्च होता है। इस फण्ड की तरफ से एक गौशाला, टिडिवरम् में बनवाई गई है। सेठ पन्नालालजी गोलेछा का स्वर्गवास संवत् १९८४ में हुआ । आपके पुत्र उदयराजजी, सोहनलालजी तथा अमरचन्दजी हैं। उदयराजजी के पुत्र गुलाबचन्दजी तथा सोहनलालजी के सोभागमलनी हैं।
सेठ लखमीचन्दजी गोलेका का परिवार-सेठ लखमीचन्दजी ने अपने नाम पर अपने भतीजे बींजराजजी को दत्तक लिया। आप दोनों सजन देश से लगभग संवत् १९०० में नागपुर आये । तथा यहाँ सर्विस की । आपकी होशियारी से प्रसन्न होकर नागपुर दुकान के मालिकों ने इन पिता पुत्रों के जिम्मे एक तोफखाने का बेक्किग व्यापार सोंपा, तथा पूँजी की सहायता दी । फलतः इन बंधुओं ने सिकंदराबाद तथा बलारी में दुकानें खोली। तथा संवत् १९२७ में लखमीचन्द बीजराज के नाम से बंगलोर में भी दुकान की गई। सेठ बींजराजजी गोलेछा ने अपने मृत्यु के पूर्व एक वख्शिस नामा किया। जिसमें अपनी पत्नी को ५० हजार रुपया और अपने भतीजे खुशालचन्दजी को २३ हजार की रकम दी। इस प्रकार उदारता पूर्वक रकम विभाजित कर गोलेछा वींजरामजी का संवत् १९५२ में स्वर्गवास हुआ। आपके नाम पर मुन्नीलालजी के मझले पुत्र फतेचन्दजी दत्तक आये । आपकी वीरचन्द फतेचन्द के नाम से बंगलोर में प्रतिष्ठित फर्म थी। आपका स्वर्गवास सवत् १९५९ में ३८ साल की वय में हुआ। आपके स्मरणार्य बंगलोर में एक छतरी बन. वाई गई है। इन्होंने अपने जीवन में कई प्रतिष्ठा पूर्ण कार्य किये । भापके सालमचन्दजी तथा पेमराजजी नामक २ पुत्र हुए।
सेठ सालमचन्दजी-अपका जन्म संवत् १९४४ में हुआ।आपका ब्यापार संवत् १९८४ तक बंगलोर में रहा। इस समय आप गुडलर न्यू टाडन में निवास करते हैं। भापके छोटे भाई पेमराजजी की मृत्यु केवल १९ साल की आयु में १९६७ में हुई। इसी साल इन बंधुओं का कारवार अलग २ हुआ। इस समय पेमराजजी के पुत्र नेमीचन्दजी हैं।
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औसवात जाति का इतिहास
.... गोलेछा हरदत्तजी का खानदान, फलोदी
इस खानदान का खास निवास फलोदी है। सेठ हरदत्तजी गोलेछा के ५ पुत्र हुए, कस्तूरचन्दजी, निहाल चन्दजी, बनेचंदजी, कपूरचंदजी, तथा खूबचंदजी । इनमें से कपूरचंदजी के कोई संतान नहीं हुई। गोलेछा कस्तूरचन्दजी और निहालचन्दजी फलोदी से हैदराबाद (दक्षिण) गये, तथा वहां चादी सोना गिरवी और जवाहरात का कारबार आरंभ किया। कस्तूरमलजी का स्वर्गवास संवत् १९३५ में और निहालचन्दजी का संवत् १९२२ में हुआ। संवत् १९२२ में इन दोनों भ्राताओं का कारबार अलग २ हो गया।
गोलेछा कस्तूरचन्दजी का परिवार-गोलेछा कस्तूरचन्दजी के हरकचंदजी तथा छोटमलजी नामक २ पुत्र हुए। इनके गोलेछा छोटमलजी के हीरालालजी, सुजानमलजी, विशनचंदजी, इस्तीमलजी एवम् लक्ष्मीलालजी नामक पाँच पुत्र हुए । गोलेछा सुजानमलजी का स्वर्गवास सन्वत् १९३८ में हुमा । भापके पुत्र गोलेला सोभामलजी वर्तमान हैं।
गोलेछा सोभागमलजी-आपका जन्म संवत् १९३१ में हुआ । संवत् १९५३ से आपने फलौदी के सार्वजनिक और सामाजिक कामों में सहयोग देना आरम्भ किया। आप बड़े विचारवान, हिम्मतवर और विरोधों की परवाह न कर मुस्तैदी से काम करने वाले व्यक्ति हैं। सम्वत् १९६३ में आपने फलोदी में जैन श्वेताम्बर मित्र मण्डल नाम की संस्था भी कायम की थी। सन् १९१५ से ३२ तक आप स्थानीय म्युनिसिपेलिटी के लगातार मेम्बर रहे। आपने फलौदी में, रेल, तार स्कूल, म्युनिसिपेलिटी आदि के स्थापन होने में उद्योग किया। इस समय आप स्थानीय पांजरापोल व सिंह सभा के ज्वाइण्ट सेक्रेटरी हैं, आपके दत्तक पुत्र भंवरमलजी ओसियां बोर्डिङ्ग में मैट्रिक का अध्ययन कर रहे हैं।
गोलेछा निहालचन्दजी पूनमचन्दजी का परिवार-सं० १९२२ में सेठ निहालचन्दजी के पुत्र पूनमचन्दजी अपना स्वतंत्र कार बार करने लगे। गोलेछा पूनमचंदजी के समय में धंधे को विशेष उन्नति मिली, इनका शरीरावसान संवत् १९३७ में हुआ । इनके पुत्र फूलचन्दजी गोलेछा हुए।
गोलेछा फूल चन्दजी-इनका जन्म संवत् १९२५ की कातिक वदी १० को हुआ । इन्होंने व्यापार की उन्नति के साथ र बहुत बड़ी २ रकमें धार्मिक कार्यों और यात्राओं के अर्थ लगाकर अपनी मान व प्रतिष्ठा की विशेष वृद्धि की। संवत् १९४९ तथा ५८ में आपने जेसलमेर तथा सिद्धाचलजी के संघ में १. हजार रुपये खरच किये इसी तरह ५ हजार रुपया समोण सरण को रचना में लगाये। सालों तक सिद्धा. चलजी की भोली का आराधन किया। इसी तरह आपने फलोदी के रानीसर तालाब के पश्चिमी हिस्से का घाट बनवाया, फलोदी पांजरा पोल, ओशियाँ जीर्णोद्धार, कुलपाक तीर्थ ( हैदराबाद ) के जीर्णोद्धार, और वर्धमान जैन बोडिंग हाउस के स्थापन में बड़ी २ मददें दी। इसी तरह अनेकों धार्मिक कामों में आपने लग
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ओसवाल जाति का इतिहास
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स्व० सेठ फूलचन्दजी गोले छा, फलोदी.
सेठ नेमीचन्दजी गोलेछा, फलोदी.
सेठ सोभागमलजी गोलेछा, फलोदी.
स्वर्गीय गुलाबचन्दजी गोलेछा, फलोदी.
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गोलेका भग डेढ़ दो लाख रुपये लगाये । आप जैन श्वेताम्बर मित्र मंडल के प्रेसिडेंट थे। संवत् १९७२ में भापने 'निहालचन्द नेमीचन्द' के नाम से सोलापुर में कपड़े व सराफे की दुकान खोली । इस प्रकार प्रतिष्ठा पूर्वक महत्वपूर्ण धार्मिक जीवन बिताते हुए संवत १९६९ की बेठ सुदी १४ को मापका स्वर्गवास हुआ। आपके गोलेछा नेमीचंदजी तथा गोलेछा गुलाबचंदजी नामक २ पुत्र हुए।
___ गोलेछा नेमीचन्दजी-आपका जन्म संवत् १९४७ में हुआ फलोदी के मोसवाल समाज में आप अच्छे प्रतिष्ठित व्यक्ति समझे जाते हैं आपके पुत्र मनोहरचन्दजी ने मेट्रिक तक अध्ययन किया है। भाप उत्साही युवक हैं। तथा सोलापुर जैन यूथलीग के प्रेसिडेट हैं। इनसे छोटे वस्तीचंदजी जोधपुर हॉई स्कूल में तथा मंगलचन्दजी फलोदी में पढ़ रहे हैं।
___गोलेछा गुलाबचन्दजी-आपका जन्म संवत् १९५५ में हुभा था। आप बड़े विद्या प्रेमी तथा होनहार नवयुवक थे। मापने फलोदी में एक जैन लायब्रेरी का स्थापन भी किया था, दुर्भाग्यवश २५ वर्ष की अल्पायु में भापका शरीरावसान हो गया। आपके पुत्र हीराचन्दजी, तिलोकचंदजी एवं अनोपचन्दजी इस समय जोधपुर में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।
सेठ जीवराज अगरचन्द गोलेछा, फलोदी गोलेछा बहादुरचन्दजी के जीवराजजी बदनमलजी और सतीदानजी मामक ३ पुत्र हुए। इनमें जीवराजजी का जन्म लगभग संवत् १९३२ में हुआ।
गोलेछा जीवराजजी व्यवसाय के निमित्त फलौदी से बम्बई की ओर गये । संवत् १९५० के लगभग आपने बम्बई में दुकान खोली। संवत् १९५९ में भापका स्वर्गवास हुआ। आपके अगरचन्दजी, जोगराजजी, रतनचन्दजी और लालचन्दजी नामक पुत्र हुए। इनमें से अमरचन्दजी का स्वर्गवास संवत् १९०५ में तथा लालचन्दजी का उसी साल आसोज सुदी • को ( इन्फ्ल्यु एन्झा में ) हुआ। गोलेछा भगरचन्दजी के पुत्र गुलाबचन्दजी हैं।
गोलेछा जोगराजजी का जन्म संवत् १९४६ में हुआ। भापके हाथों से दुकान के कारवार और इजत को तरक्की मिली । संवत् १९८८ की फागुन सुदी ३ के दिन आपने जैसलमेर का संघ निकाला । आपके छोटे भ्राता रतनचन्दजी का जन्म संवत् १९४८ में हुआ ।
___ गोलेछा गुलाबचन्दजी, शिक्षाप्रेमी, शांतप्रकृति तथा उत्साही नवयुवक हैं। इधर २ सालों से भाप फलौदी म्युनिसिपेलिटी के मेम्बर हैं । आपका कुटुम्ब फलौदी के मोसवाल समाज में अच्छा प्रतिष्ठित माना जाता है। इस परिवार की बम्बई में विठ्ठलवाड़ी में जीवराज अगरचन्द के नाम से तथा उटकमंड में जोगराज समरथमल के नाम से दुकानें हैं जिन पर बेकिंग और कमीशन का काम होता है।
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
सेठ मूलचन्द सोभागमल गोलेछा, फलोदी गोलेछा रामचन्द्रजी के कल्याणमलजी, इन्द्रचन्दजी, अमोलकचन्दजी, सरदारमलजी तथा चंदनमलजी नामक ५ पुत्र हुए। इनमें से गोलेछा इन्द्रचन्दजी ने संवत् १९१३।१४ में कारंजा (वरार) में जाकर दुकान स्थापित की । इन भ्राताओं का कार्य संवत् १९४० तक सम्मिलित चलता रहा । गोलेछा चन्दनमलजी का स्वर्गवास सम्वत् १९५७ में हुआ।
गोलेछा चन्दनमलजी के मुलचंदजी, सोभागमलजी, पुनमचन्दजी और दीपचन्दजी नामक ४ पुत्र हुए। मूलचन्दजी का जन्म सम्वत् १९२७ में, सोभागमलजी का १९३८ में, पूनमचन्दजी का १९४३ में और दीपचंदजी का जन्म १९४७ में हुआ । आप लोगों का कारवार कारंजा (बरार) में रामचन्द्र चंदनमल के नाम से और बम्बई में मूलचंद सोभागमल के नाम से होता है। कारंजा में कपड़ा और बेकिंग व्यापार के अलावा आपने कृषि और जमीदारी का कार्य भी बढ़ाया है। सम्वत् १९६४ में गोलेछा दीपचन्दजी का स्वर्गवास हो गया।
गोलेछा सोभागमलजी के प्रबोध से श्री पसारामजी कारंजा वालों ने ओसियां बोर्डिङ्ग को ५ हजार रुपया नगद दिया तथा प्रसारामजी के स्वर्गवासी होने के पश्चात् उनकी सारी सम्पत्ति बोर्डिङ्ग के लिये प्रदान करवाई। इसका मृत्यु-पत्र लिखा लिया है। इस समय सोभागमलजी के पुत्र कन्हैयालालजी तथा सम्पतलालजी और पूनमचन्दजी के पुत्र गुलाबचन्दजी हैं।
सेठ प्रतापचंद धनराज गोलेछा, फलोदी फलोदी निवासी गोलेछा टीकमचंदजी के २ पुत्र हुए। उनके नाम क्रमशः हंसराजजी तथा बख्तावरचन्दजी गोलेछा थे। गोलेछा हंसराजजी का जन्म संवत् १८८७ में हुआ,तथा संवत् १९१८ में वे फलौदी से व्यवसाय निमित्त जबलपुर गये, और वहां हंसराज वस्तावरचन्द के नाम से घृटिश रेजिडेंट के साथ लेनदेन का कार्य आरम्भ किया। पीछे से इनके छोटे भ्राता बख्तावरचन्दजी भी जबलपुर गये, तथा इन दोनों माताओं ने अपने धन्धे को वहाँ जमाया । गोलेछा हंसराजजी के प्रतापचंदजी तथा धनराजजी नामक २ पुत्र हुए, जिनमें से प्रतापचन्दजी, गोलेछा बख्तावरचन्दजी के नाम पर दत्तक गये । हंसराजजी का संवत् १९६० में तथा बख्तावरचन्दजी का उनके प्रथम स्वर्गवास हुआ।
गोलेछा प्रतापचन्दजी का जन्म संवत् १९२९ में तथा धनराजजी का संवत् १९३३ में हुआ। गोलेछा प्रतापचन्दजी फलोदी तथा जबलपुर के प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। इस समय आप जबलपुर सदर बाजार जैन मन्दिर के व्यवस्थापक है। आपके छोटे भ्राता धनराजजी गोलेछा जबलपुर कन्टून्मेन्ट बोर्ड के मेम्बर थे, उनका स्वर्गवास संवत १८८२ में हुआ।
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
सेठ प्रतापचन्दजी गोलेछा (प्रतापचन्द धनराज) फलौधी
व० सेठ धनराजजी गोलेछा (प्रतापचंद धनराज) फलौधी
श्रीरतन चन्द्रजी गोलेछा S/O सेठ धनराजजी गोलेछा फलौधी
श्री गुलाबचन्दजी गोलेछा (जीवराज अगरचन्द फलौबी )
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गालेछा प्रतापचन्दजी के पुत्र सम्पतकालजी तथा मूलचन्दजी एवम् धनराजजी के पुत्र रतनचन्दजी एवं लालचन्दजी हैं । सम्पतलालजी का जन्म १९५० में रतनचन्दजी का जन्म संवत १९५९ में तथा मूलचन्दजी और लालचन्दजी का जन्म संवत् १९६४ में हुमा । आप सब भ्राता फर्म के म्यवसाय संचालन में सहयोग देते हैं । आपत्र कुटुम्ब मंदिर मार्गीय आम्नाय को मानने वाला है।
____ गोलेछा रतनचन्दजी मुभील, शांतिप्रिय एवं उन्नतिशील नवयुवक हैं, आपकी वतृत्व शकि अच्छी है । समाज संगठन की भावनाएं आपके हृदय में जागृत हैं। जातीय सम्मेलनों में आप अक्सर सहयोग लेते रहते हैं।
___ गोलेला बाधमलजी का खानदान, खिचंद __ जोधपुर स्टेट के सेतरावा नामक स्थान से २५० वर्ष पूर्व आकर गोलेछा फतेचन्दजी ने अपना निवास खिचंद में बनाया। इनके दलीचन्दजी, मानरूपजी, सुखमब्जी, रासोजी तथा रायचंदजी नामक ५ पुत्र हुए। इन पांचों भाइयों के लगभग ८० घर इस समय खिचंद में निवास करते हैं।
गोला फतेचन्दजी के पश्चात् मशः दलीचन्दजी, मूलचंदजी और नेतसीजी हुए । नेतसीजी के अयकरणदासजी तथा नवलचंदजी नामक २ पुत्र थे। नवलचंदजी का पंच पंचायती में अच्छा मान था । इनका ४ साल की भायु में संवत् १९४८ में स्वर्गवासहुभा। गोलेछा जयकरणासजी के जालमचंदजी, सागरचंदजी, रूपचंदजी तथा बाघमलजी नामक ४ पुत्र हुए। इन बंधुओं ने लगभग संवत् १९०० में हैदराबाद में दुकान खोली, और उसके २० साल पश्चात् मद्रास में व्यापार शुरू किया गया। इन भाइयों में गोलेछा बावमलजी ज्यादा प्रतापी हुए ।
गोलेछा बाघमबजी--आपका जन्म संवत् १८९७ में हुआ। आप बाल्यावस्था से ही अपने बड़े भ्राता जालमचन्दजी के साथ हैदराबाद गये। धीरे २ आपका वृटिश पल्टन के साथ लेनदेन शुरू हुआ। और आप फोज के साथ विजगापट्टम गये। आपने इस दुकान की इतनी उन्नति की, कि आस पास “ वाघमल साहुकार " का नाम मशहूर हो गया। कई अंग्रेजों ने आपको सााटफिकेट दिये थे। सं० १९५०-५१ के अकाल में आपने वहाँ गरीबों को काफी इमदाद पहुंचाई थी । इससे प्रसन्न होकर सन् १८९७ में महाराणी विक्टोरिया ने आपको सनद दी। आपकी जवाहरात में भी अच्छी निगाह थी जिससे राजा महाराजाओं व अंग्रेजों से आपका काफी व्यापारिक सम्बन्ध था। आपको गुप्त दान को शोक था। संवत् १९५४ में आप खिचंद आगये। यहाँ १९५६ में अकाल के समय लोगों को इमदाद दी। महाराजकुमार उम्मेदसिंहजी तथा कर्नल विंडहम ने निचंद आकर आपकी मेहमानदारी मंजूर की । भापका स्वर्गवास संवत् १९.७ में हो गया ।
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प्रोसवाल आति का इतिहास
. गोलेछा जालमचंदजी का स्वगवास संवत् १९५६ में हुआ। इनके लादूरामजी तथा अगरचंद जी नामक २ पुत्र हुए। इनमें लादूरामजी, सेठ बाघमलजी के नाम पर दत्तक गये । आप दोनों सज्जनों का जम्म क्रमशः संवत् १९२९ तथा ३२ में हुआ। आपका "जयकरणदास वाघमल" के नाम से विजगापट्टम में बैटिग व्यापार होता है। वहां आपके चार गांव जागीरी के भी है। लादूरामजी के पुत्र सुखलाल जी और पञ्चालालजी तथा अगरचंदजी के पुत्र भोमराजजी व्यापार में भाग लेते हैं। इसी तरह इस परिवार में सागरचंदजी के पौत्र विजयलालजी तथा प्रपोन चम्पालालजी, सागरमल सुजानमल के नाम से मेड्रोज स्ट्रीट मद्रास में वैकिंग व्यापार करते हैं। तथा रूपचन्दजी के पौत्र माणकलालजी लक्ष्मीचन्दजी भादि रूपचन्द छोगमल के नाम से मद्रास में व्यापार करते हैं। यह परिवार खिचन्द तथा मद्रास प्रांत के ओसवाल समाज में प्रतिष्ठित माना जाता है।
गोलेछा रावतमलजी अगरचंदजी तेजमालजी का परिवार, खिचंद
· हम उपर बतला चुके हैं कि गोलेछा फतेचन्दजी के ५ पुत्र थे । इनमें तीसरे सुखमलजी थे । इनके बाद क्रमशः चेताजी, पदमसीजी तथा इन्द्रचन्दजी हुए। गोलेका इन्द्रचन्द्रजी के रावतमलजी, अगरचंदजी तथा तेजमालजी नामक ३ पुत्र हुए। गोलेछा रावतमलजी का जन्म संवत् १९१९ में हुआ। १२ साल की वय में ही आप अमरावती चले गये । वहां जाकर आपने नौकरी की । वहां से आप बम्बई गये और तथा वहाँ संवत् १९४४ में गुलराजजी कोठारी के भाग में गुलराज रावतमल के नाम से दुकान की। तथा १९४८ में रावतमल अगरचन्द के नाम से अपना घरू व्यापार आरम्भ किया । आप साधु स्वभाव के पुरुष थे। इस प्रकार मामूली स्थिति से अपनी फर्म के व्यापार को दृढ़ बनाकर आपका स्वर्गवास संवत् १९४२ में हुआ। आपके रतनलालजी, दीपचन्दजी, समरथमलजी, हस्तीमलजी, और धनराजजी नामक ५ पुत्र हैं। इनमें सेठ रतनलालजी का जन्म संवत् १९५० में हुआ । आप शिक्षित तथा प्रतिष्ठित सज्जन है। आपके यहां "रतनलाल समरथमल" के नाम से कालबादेवी रोड बम्बई में भादत का व्यापार होता है। यह फर्म संवत् १९७५ में खुली है।
सेठ अगरचन्दजी का जम्म संवत् १९३३ में तथा स्वर्गवास १९५८ में हुआ। आपके जेठमल जी तथा शंकरलालजी नामक २ पुत्र हुए। इनमें शंकरलालजी, सेठ तेजमलजी के नाम पर दत्तक गये हैं। और जेठमलजी १९ वर्ष की आयु में १९७१ में स्वर्गवासी हुए। सेठ तेजमलजी संवत् १९७५ में ३५ साल की आयु में स्वर्गवासी हुए। आपने व्यवसाय की उन्नति में काफी सहयोग दिया था। गोलेछा शंकरलालजी का जन्म संवत् १९५६ में हुआ। आप समझदार तथा शिक्षित सज्जन हैं। आप, जेठमलजी के पुत्र मानमलजी के साथ " अगरचन्द शंकरलाल " नाम से मद्रास में वैकिंग व्यापार करते ।
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ बाघमलजी गोलेच्छा, खिचंद ( मारवाड़ )
सेठ चौथमलजी सेठिया, सरदारशहर (पेज नं० ४८६ )
श्री सम्पतलालजी कोचर, फलोदी ( पेज नं० ४५८ )
सेठ सोहनलालजी बांठिया, सुजानगढ़ (पेज नं० ४६८)
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० सेठ सिद्धकरणजी गोलेच्छा, चांदा.
श्री गुलाबचन्दजी गोलेछा (जीवराज श्रगरचन्द), फलोदी.
श्री सेठ किशनलालजी गोलेछा, पनरोटी (मद्रास ).
श्री मेघराजजी गोलेच्छा, फलोदी.
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गालेखा
इस परिवार की खिचन्द, फलोदी में अच्छी प्रतिमा है। भाप लोगों ने संवत् १९४० में एक लापबेरी स्थापित की है। जिसमें २ हजार ग्रन्थ है। इसी तरह एक जैन कन्यापाठशाला आपकी ओर से यहां चल रही है।
. सेठ अमरचंद अगरचंद गोलेछा, चांदा .... . इस परिवार का मूल निवास स्थान बीकानेर है। आप श्वेताम्बर जैन समाज के मन्दिर मार्गीय आम्नाय के मानने वाले गोलेछा गौत्र के सज्जन हैं। देश से ब्यापार के निमित्त सेठ अमरचंदजी गोलेछा, मागपुर आये, और वहां व्यवसाय शुरू किया, उस समय चांदा (उर्फ चांदपुर ) के गौंड राजा का आगमन नागपुर में हुआ करता था, उस समय गौंड राजा ने सेठ अमरचन्दजी गोलेछा को प्रतिष्ठित व्यापारी समझ कर अपनी राजधानी में दुकान खोलने को कहा, फलतः सेठ अमरचन्दजी गोलेजा ने करीब ९० साल पहिले चांदा में गल्ले की खरीदी फरोख्ती तथा आदत की दुकान की। सेठ अमरचंदजी के पुत्र अगरचंदजी गोलेछा ने इस दुकान के व्यापार और सम्मान को विशेष बदाया, आपके पुत्र गोलेछा सिद्धकरणजी का जन्म संवत् १९३३ की माष बदी को हुना। गोलेछा सिद्धकरणजी का धार्मिक जीवन विशेष प्रशंसनीय तथा उल्लेखनीय है। सी० पी० के सुप्रसिद्ध तीर्थ भादक में मन्दिर तथा धर्मशाला का निर्माण करवाने में आपने बहुत सहायता पहुंचाई। भारत सरकार ने आपको सारे देश के लिये आर्मस एक्ट माफ किया था। इस प्रकार सी० पी० तथा बरार के ओसवाल समाज में नाम एवं यश प्राप्त कर संवत् १९८९ की भादधा वदी ८ को आपका स्वर्गवास समाधि-भरण से (पदमासन लगाये हुए) हुआ। आपके पुत्र चैनकरणजी गोलेछा का जन्म संवत् १९६० में हुआ, आप अपने पिताजी के बाद भांदक तीर्थ कमेटी के प्रेसिडेंट हैं तथा सन् १९२७ से ३० तक चांदा म्यु. के मेम्बर रहे हैं। आपकी दुकान पर चांदा में ग्रेन शीड्स का व्यापार, लेनदेन, मालगुजारी तथा कमीशन का काम होता है। आपके वृटिश हह में २ तथा मुगलाई में ३ गाम जमीदारी के हैं। चांदा में आपकी दुकान प्रधान मानी जाती है।
सुन्दरलालजी गोलेछा, बी० ए० एल० एल० बी०, बालाघाट .. इस परिवार के पूर्वज सेठ उदयचंदजी तथा गुलाबचन्दजी बीकानेर से संवत् १८७५ में जबलपुर आये। यहाँ आकर इन भाइयों ने सराफी तथा कपड़े का ब्यापार शुरू किया । इनके छोटे भ्राता गुलाबचन्दजी ने व्यापार में लाखों रुपये कमा कर इस परिवार की जमीदारी मकान बंगले आदि सम्पत्ति
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भोसवाल जाति का इतिहास
में वृद्धि की । गोलेछा उदयचन्दजी के गोड़ीदासजी तथा गोलेछा कस्तूरचन्दजी के माधवलालजी नामक पुत्र हुए । इन दोनों बंधुओं का कारवार संवत् १९२२ में अलग २ हुआ । गोलेछा गोड़ीदासजी का जन्म संवत् १९०० में 'हुआ । आपने भी व्यापार में तथा इज्जत में अच्छी उन्नति हासिल की। जबलपुर के ओसवाल समाज में आपकी पहिली दुकान थी। आपको दरबारी का सम्मान प्राप्त था । आपका स्वर्गवास संवत् १९४६ में हुआ। आपके पुत्र झुनमुनलालजी का जन्म संवत् १९३० सें 'हुआ ।
गोलेला भुनमुनढालजी - आप जबलपुर के नामी रईस थे । आप २० सालों तक म्यु० मेम्बर रहे। इसी तरह डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के मेम्बर तथा वाइस प्रेसिडेण्ट भी रहे। दरवारी सम्मान आपको भी प्राप्त था । सन् १९२८ के दिसम्बर मास में आप स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र सुन्दरलालजी का जन्म संवत् १९५६ में हुआ । आपने १९२० में बी. ए. तथा १९२९ में एल० एल० बी० की डिगरी हासिल की। इसके बाद आप ३ सालों तक जबलपुर में वकालत करते रहे। और इधर २ सालों से आप बालाघाट में वकालत करते हैं । आप बड़े सरल स्वभाव के मिलनसार सज्जन हैं। जबलपुर में आप का खानदान बहुत पुराना तथा प्रतिष्ठित माना जाता है ।
सेठ जेठमल रामकरण गोलेछा, नागपूर
स्थान बीकानेर से संवत्
इनके पुत्र जेठमलजी का
मील की दूरी पर केनहाल
इस परिवार के पूर्वज सेठ हरकचंदजी गोलेका अपने मूल निवास १८९५ में कामठी भाये । तथा यहाँ गुमाश्त गिरी और व्यापार किया। कंट्राक्टिंग लाइन में अच्छा अनुभव था । आपने संवत् १९१७ में कामठी से ३ ब्रिज नामक विशाल ब्रिज बनाने का कंट्राक्ट लिया । आप नागपुर से जबलपुर तक मेल कार्ट दौड़ते थे । इसी प्रकार आपने आर्मी के ट्रेसरर तथा कंट्राक्टर का काम भी संचालित किया था। संवत् १९२८ में आपका स्वर्गवास हो गया। आपके पुत्र सेठ रामकरणजी गोलेछा ने संवत् १९३० में " जेठमल रामकरण" के नाम से दुकान स्थापित की । तथा आप सन् १८७९ में बंगाल बैंक के ट्रेसरर हुए। आप संवत् १९५६ में स्वर्गवासी हुए। आपके नाम पर सेठ मेघराजजी बीकानेर से दत्तक आये ।
सेठ मेघराजजी गोलेछा का जन्म संवत् १९४९ में हुआ । आप संवत् १९६१ में इस फर्म पर दत्तक आये सन् १९२७ तक आपके पास इम्पीरियल बैंक की ट्रेसरर शिप रही। इसके बाद आपने मागपुर सिटी, सदर, मऊ छावनी तथा जयपुर, जोधपुर और साँभरलेक के पोस्ट की ट्रेसरी के ५ साल के लिये कंट्राक्ट लिये। जो इस समय भी आपके पास हैं । आपने अपने व्यापार को अच्छा बढ़ाया है। आपके ६ पुत्र हैं। जिनके नाम क्रमशः अभयराजजी, सिरेमलजी, उमरावमहजी, सिरदारमलजी, तथा रतनचन्दजी और विनयचन्द हैं। इनमें अभयराजजी व्यापार में भाग लेते हैं। इनकी आयु २० साल की है।
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गोलखा
श्री गुमानचन्दजी गोलेचा का परिवार ( मेसर्स आसकरण - गणेशमल पनरोटी )
मालिकों का मूल निवास स्थान फमैदी ( मारवाड़ ) का है ।
इस खानदान के समाज के मन्दिर अम्नाय को माननेवाले हैं। इस परिवार में भी दुलीचन्दजी हुए ।
गोलेछा दुलीचन्दजी के पुत्र गुमानचन्दजी के बहादुर चन्दजी नामक पुत्र हुए। इनके तीन पुत्रों में से यह खानदान धनसुखदासजी का है। धनसुखदासजी के चार पुत्र हुए जिनके नाम दीपचन्दजी, रतनलालजी, लक्ष्मीलालजी और जमनालालजी था । आपका जन्म क्रमशः संवत् १९१५, १९१८, १९२४ तथा १९३२ में हुआ 1
गोछा दीपचन्दी बड़े सज्जन और योग्य पुरुष हैं। आप संवत् १९४५ में फलौदी से अमरावती गये और वहाँ से संवत् १९५४ में आप बम्बई चले गये और वहाँ पर दीपचन्दजी गोलेछा के नाम से कॉन ब्रोकर्स के व्यवसाय को करने लगे । आपके केशरीचन्दजी और किशनलालजी नामक दो पुत्र हैं । इनमें से किशनलालजी रतनलालजी के नाम पर दत्तक गये हैं। रतनकाजी अजमेर में धन सुखदास रतनलाल नामक फर्म के मालिक थे। आपका संवत् १९३७ में अल्पायु में ही स्वर्गवास हो गया। केशरीचन्दजी का जन्म संवत् १९३४ का है । आप संवत् १९६३ से बम्बई स्वतन्त्र व्यापार करने लग गये हैं। आपसे संवत् १९८२ में स्वर्गवास हो गया । आपके पुत्र चम्पालालजी और पानमलजी अपना कार बार बम्बई में चला रहे हैं।
आप श्वेताम्बर
आप बड़े सज्जन और योग्य
गोलेछा किशनलालजी का जन्म संवत् १९३७ का है। प्रारम्भ में आप दीपचन्दजी के साथ बम्बई में व्यापार करने लगे । तदनंतर संवत् १९६३ में आपने अलग होकर स्वतंत्र दुकान स्थापित की । संवत् १९८६ में आपने पनरोटी में आकर बैकिग का व्यवसाय चालू किया । पुरुष हैं। आप फलौदी में अपनी समाज में बड़े अग्रसर और मोअजीज व्यक्ति माने जाते हैं। आपके हृदय में बिरादरी की सेवा के भाव बहुत अधिक हैं । आपके इस समय तीन पुत्र हैं जिनके नाम आसकरणजी गणेशमलजी और जसराजजी हैं। आपकी फर्म का नाम पनरोटी में "आसकरण गणेशमल" पड़ता है ।
जौहरी हमीरमलजी गोलेच्छा, जयपुर
इस परिवार के पूर्वज जौहरी जवाहरमलजी लगभग एक शताब्दी पूर्व बीकानेर से जयपुर आये और सेठ सदासुखजी उड्डा के यहाँ सर्विस की । आपके पुत्र दुलीचन्दजी भी ढड्डा फर्म पर मुनीमात
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मोसवाल आति का इतिहास
करते रहे। इन दोनों सज्जनों ने जयपुर के व्यापारिक समाज में अच्छा नाम पाया । सेठ दुलीचन्दजी का संवत् १९१० के जेठ मास में स्वर्गवास हो गया। आपके यहाँ सेठ हमीरमलजी बीकानेर से संवत् १९४९ में दसक आये। आप संवत् १९६९ से पना का व्यापार करते हैं। यहाँ से पना तय्यार करवा कर विदेशों में तथा भारत में भेजते हैं। इस व्यापार में आपने अच्छी सम्पत्ति व प्रतिष्ठा उपार्जित को है । इसके साथ २ धार्मिक कामों की ओर आपका बड़ा लक्ष है। एवं इस काम में आपने हजारों रुपये व्यय किये हैं। आप स्थानीय जैन भाविकाश्रम तथा कन्या पाठशाला के कोषाध्यक्ष है। आप जयपुर के ओस. वाल समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। आप मन्दिर मार्गीय आम्नाय के हैं। आपने अपने यहाँ दानमलजी गोलेछा के पुत्र मनोहरमलजी को दत्तक लिया है। आप भी कार बार में भाग लेते हैं।
सेठ भैरोंदान पूनमचन्द गोलेछा, कलकत्ता इस परिवार के पूर्व पुरुष तोल्यासर (बीकानेर) के निवासी थे। तोल्यासर में सेठ सुखलालजी तथा उदयचन्दजी हुए। आप दोनों भाई २ थे। आप लोगों ने वहाँ किराना एवम् कपड़े का थोक व्यापार किया। आप लोग बीकानेर भी अपना काम काज करते रहे। आपका स्वर्गवास हो गया। सेठ सुखलालजी के कोई पुत्र न था। सेठ उदयचन्दजी के दो पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः सेठ नेणचन्दजी एवम् सेठ सागरमलजी थे। आप दोनों भाई भी वहीं बीकानेर तथा तोल्यासर में व्यापार करते रहे । जेठ नेणचंदजी सेठ सुखलालजी के यहाँ दत्तक गये। आप लोगों का भी स्वर्गवास हो गया। सेठ नेणचन्दजी के एक पुत्र है जिनका नाम सेठ भैरोंदानजी है।
सेठ मैरोंदानजी-आपका जन्म सम्वत् १९३० में हुआ। आप केवल १५ वर्ष की अल्पायु ४. में संवत् १९४५ में कलकत्ता म्यापार के लिये गये। तथा यहाँ आकर आपने पहले खेतसीदास
तनसुखदास सरदार शहर वालों की फर्म में रोकड़ तथा अदालत वगैरह का काम किया। यह काम आप सम्वत् १९६९ तक करते रहे । इसमें आपने बहुत उन्नति की। आपकी ईमानदारी, होशियारी एवम् व्यापार संचालनता को देख कर मालिक लोग आप पर हमेशा प्रसन्न रहा करते थे। आप बड़े होशियार एवम् समझदार सजन हैं। आपने खेतसीदास तनसुखदास के यहाँ से काम छोड़ते ही अपनी निज की फर्म उपरोक्त नाम से गणेशभगत के कटले में स्थापित की। तथा वहाँ कपड़े का व्यापार प्रारम्भ किया। आप डायरेक्ट विलायत से पेचक मँगवाते थे तथा थोक व्यापारियों को बेचते थे। इस व्यापार में भी आपने अपनी व्यापार कुशलता का परिचय दिया एवम् बहुत ज्यादा उन्नति की । यह काम सन् १९३० तक करते रहे। इसके बाद भापने कपड़े का काम बन्द कर दिया। एवम् बंगाल के प्रसिद्ध
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ भैरोंदानजी गोलेछा ( भैरोंदान पूनमचंद ) बीकानेर.
कुँवर पूनमचंदजी S/o भैरोंदानजी गोले छा
कुँवर घेवरचंदजी S/o भैरोंदानजी गोलेछा
जौहरी हमीरमलजी गोलेछा, जयपुर.
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गोलेडा
जूट
के व्यापार की ओर अपना ध्यान दिया। तथा सम्वत् १९८१ में आपने फारविसगंज (पूर्णिया)
आपके इस समय दो
में अपनी एक ब्रांच खोली आप बाईस सम्प्रदाय के मानने वाले सज्जन हैं। पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः पूनमचन्दजी एवम् बेवरचन्दजी हैं । आप दोनों भाई भी मिलनसार एवम् सज्जन व्यक्ति हैं । आप लोग भी व्यापार संचालन करते हैं। पुनमचन्दजी के सोहनलालजी एवम् सम्पतलालजी तथा घेवरचंदजी के जतनलालजी, माणकचन्दजी एवम् चम्पालालजी नामक तीन पुत्र हैं । आप सब अभी बालक हैं ।
आपका व्यापार इस समय कलकत्ता में गणेश भगत कटला में जूट एवम् आदत का होता है । तथा फारविसगंज में पूनमचन्द वेनरचन्द के नाम से जूट का तथा आढ़त का व्यापार होता है ।
श्री समरथमल मेघराज गोलेछा फलोदी
इस परिवार के पूर्वज गोलेछा होराजी थे इनकी संतानें हीराणी कहलाई । गोलेछा हीराजी संवत् १७८७ में विद्यमान थे । उनके बाद क्रमशः भोपतसीजी, करमसीजी और मलूकचंदजी हुए । मलूकचन्दजी वजनदार व्यक्ति थे। उनके नाम पर जोधपुर राज से संवत् १७९३ में एक सनद हुई थी । इनके पुत्र सरूपचन्दजी हुए, तथा सरूपचन्दजी के शिवजीरामजी और बनेचंदजी नामक २ पुत्र हुए | शिवजीरामजी के थानमलजी, धनसुखदासजी तथा मालचन्दजी और बनेचन्दजी के उदयचन्दजी तथा सागरचंदजी नामक पुत्र हुए ।
गोलेछा धनसुखदासजी की चिट्ठियों से पता चलता है कि संवत् १८६० में इनकी दुकानें उज्जैन और जालना में थीं । गोलेछा थानमलजी के पुत्र नवलचन्दजी और हजारीमलजी हुए । थानमलजी और नवलचन्दजी ने बनारस में दुकान की थी। नवलचन्दजी का संवत् १९५० में अंतकाल हुआ । नवलमलजी
के पुत्र 'छोगमलजी और समरथमलजी हुए । छोगमलजी का अंतकाल १९७८ में हुआ । इस समय छोगमलजी के पुत्र गोलेछा मेघराजजी मौजूद हैं। इन्होंने हीराचन्द पूनमचन्द छल्लानी सिकन्दराबाद वालों की वरंगल दुकान पर मुनीमात की तथा संवत् १९७६ से ८२ तक निहालचन्द नेमीचन्द सोलापुर वालों की पार्टनरशिप में काम किया और इस समय १९८३ से सोलापुर में अपना कपड़े का घरू व्यापार करते हैं । गोलेछा समरथमलजी विद्यमान हैं । इन्होंने संवत् १९५५ से ८२ तक निहालचन्द पूनमचन्द हैदराबाद वालों की तथा १९८७ तक भोलाराम माणकलाल की मुनीमात की । आपके पौत्र घेवरचन्दजी का संवत् १९८८ में २० साल की अल्पायु में शरीरावसान हो गया है और दूसरे आसकरणजी मौजूद हैं । इसी प्रकार मालचन्दजी, उदयचन्दजी तथा सागरचन्दजी के परिवार में क्रमशः नेमीचन्दजी अगरचन्दजी व कँवरलालजी विद्यमान हैं।
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भासवाख आति का इतिहास
सेठ मूरजमल सम्पतलाल गोलेछा, फलोदी फलोदी निवासी सेठ कपूरचन्दजी गोळेछा के पौत्र सेठ सूरजमलजी (वीरचन्दजी के पुत्र) ने बहुत समब तक बम्बई में कॉटन ब्रोकरशिप का कार्य किया। सम्बत् १९६९ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके सम्पतलालजी, नेमीचन्दजी तथा पेमराजजी नामक ३ पुत्र विद्यमान हैं। इन बन्धुनों में पेमराजजी संवत् १९८४ में नीलगिरी आये । तया सेठ मूलचन्द जेठमल नामक फर्म की भागीदारी में सम्मिलित हुए । आप समझदार सज्जन हैं। आपके पुत्र जेठमलजी, भवरलालजी, गुलाबचन्दजी तथा अनोपचन्दमी पढ़ते हैं। सेठ सम्पतलालजी तथा नेमीचन्दजी बम्बई में व्यापार करते हैं। सम्पतलालजी के पुत्र सोहनराजजी उत्साही युवक हैं। तथा समाज सुधार के कामों में दिलचस्पी रखते हैं।
नाग सेठिया
नाग सेठिया गोत्र की उत्पत्ति
ऐसा कहा जाता है कि नाग सेठिया गौत्र की उत्पत्ति सोलंकी राजपूतों से हुई है। मथुरा नगर का राजा नर वाहन सोलंकी को किन्ही जैनाचार्य ने प्रतिबोध देकर जैनी बनाया। तदुपरांत नेणा नगर में जो वर्तमान में गोदवाद प्रान्त के अन्दर नाणाबेड़ा के नाम से प्रसिद्ध है उक्त नरवाहनजी को लाकर संवत् १००१ के लग भग भट्टारक श्री धनेश्वर-सूरिजी ने जैन धर्म का प्रतिबोध किया। उस समय बारह राजा विद्यमान थे,जिनसे जुदे बारह गौत्रों ( ठाकुर, हंस, वग, लकड़, कवाडिया, सोलंकी सेठिया, धर्म, पचलोदा, तोलेसरा और रिखब) की स्थापना हुई। इसी समय सोलंकी सेठिया गौत्र भी स्थापित हुभा ।
- यह भी किम्बदचि है कि संवत् १४७२ के करीब उथमण गाँव में इस सोलंकी सेठिया वंश में सेठ भर्जुनजी हुए। भापके घर पर एक समय तेले के पारने के दिन जल्दी चूल्हा सिलगाया गया। चूल्हे में नागदेव बैठे हुए थे उन पर अग्नि पड़ी जिससे वे क्रुद्ध हुए। ठीक उसी समय उनकी पुत्र बधू दुध लेकर आ रही थी। आपने नागदेव को अग्नि से सन्तप्त देख कर दूध डाल कर आग को शांत किया । यह देखकर नागदेव आपसे बहुत प्रसन्न हुए और शुभ आशीर्वाद दिया। इसी समय से नाग सेठिया" गौत्र की उत्पत्ति हुई। और तभी से इस गौत्र में नागदेव की पूजा जारी की गई। कहते हैं की उसी समय से लड़की के ब्याह के समय नाग और नागणी को फूल पहराने की प्रथा चालू हुई जो आजतक पाली जाती है। यह गौत्र तीन तरह के पुकारी जाती है। (१) सोलंकी सेटिया (२) नागदा सोलंकी सेठिया (३)नाग सेठिया ।
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ओसवाल जाति का इतिहास
श्री सेठ कन्हैयालालजी सेठिया, मद्रास.
श्री स्व० मोहनलालजी सेठिया, मद्रास,
श्री सेठ श्रासकरणजी सेठिया, मद्रास.
श्री सेठ जसवन्तमलजी सेठिया, मद्रास,
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नाम-सेठिया
भर्जुन की कई पीढ़ियों के पश्चात् सेठ उदाजी और इनके पुत्र माँखणजी हुए। आप लोग पहले सज्जनपुर बगड़ी में रहते थे और संवत् १७०७ की बैसाख सुद • को आपने बगड़ी से बलूदा आकर निवास कर दिया। तभी से इस परिवार वाले बलूँदे में रहते हैं। इनके वंशज तिलोकचन्दजी के वंश में मगराजजी हुए जिनके पुत्र गुलाबचन्दजी से इस परिवार का इतिहास आरम्भ होता है। .
सेठ बख्तावरमल मोहनलाल-नाग सेठिया, मद्रास
सेठिया गुलाबचन्दजी के वंशज बलूदे में रहते हैं। आप ओसवाल जैन श्वेताम्बर समाज की तेरापंथी आम्नाय को माननेवाले हैं। सेठ गुलाबचन्दजी संवत् १८७५ के लगभग बलूदे से पैदल रास्ते द्वारा जालना आये और वहाँ पर अपनी फर्म स्थापित की। इस फर्म पर आप बड़ी सफलता के साथ सराफी का कारबार चलाते रहे। आपके दो पुत्र हुए जिनके नाम अमरचन्दजी तथा गम्भीरमलजी थे।
गम्भीरमलजी-आप सन् १८१७ में अंग्रेजी पलटन के साथ पैदल रास्ते से मद्रास आये। कहते हैं कि इस मुसाफिरी में भापको तीन वर्ष लगे। इस घटना से आपकी जबर्दस्त हिम्मत का पता लग सकता है। श्रीयुत गम्भीरमलजी ने मद्रास में आकर गम्भीरमल एण्ड को. के नाम से १५० स्टॉडस रोड (पहलम सूला) में अपनी फर्म स्थापित की । प्रारम्भ से ही मापने इस फर्मपर वैकिग का व्यापार शुरू किया था। आप बड़े साहसी, व्यापार कुशल और दूरदर्शी पुरुष थे। आपने अपनी बुद्धिमानी से इस फर्म को बहुत तरक्की दी। आपका स्वर्गवास संवत् १९९६ में हुआ। आपने अपने समय में अनेक जाति भाइयों को मद्रास प्रान्त में लाकर बसाया। आपके तीन पुत्र हुए जिनके नाम चौथमलजी, वस्तावरमलजी तथा शुभकरणजी था । गम्भीरमलजी के पश्चात् इस फर्म के कारभार को आप तीनों भाइयों ने सम्हाला । आप तीनों भाइयों का जन्म क्रमशः संवत् १९१३, १९१८ तथा १९३३ में हुआ था।
बख्तावरमलजी-आप इस खानदान में बड़े प्रतापी पुरुष हो गये हैं । मद्रास की जनता में आप राजा सावकार के नाम से प्रसिद्ध थे। आप अपने जाति भाइयों को बहुत मदद पहुँचाते रहते थे। उस समय मद्रास में मारवाड़ियों की इनी गिनी दुकानें थी अतः मारवाड़ से शुरू में जो कोई भी व्यक्ति मद्रास की तरफ जाते तो उन्हें आप बड़े प्रेम से अपने यहाँ ठहराते और धंधे लगवाते थे। आपने कई लोगों को सहायता और सहानुभूति देकर मद्रास में जमाया। आपका स्वर्गवास संवत् १९५६ में हुमा। के चार पुत्र हुए जिनके नाम शिवलालजी, मोहनलालजी, मग्गूलालजी तथा केवलचन्दजी था। सेठिया शुभकरणजी के दो पुत्र हए जिनके नाम क्रमशः कन्हैयालालजी और आसकरणजी था। बहुत समय तक सब भाई साथ में व्यापार करते रहे फिर संवत् १९६६ के आषाढ़ सुदी १२ को इस फर्म की तीन स्वतंत्र शाखाएं-बख्तावरमल मोहनलाल, शुभकरण कन्हैयालाल, तथा शुभकरण आसकरण के नाम से हो गई।
मोहनलालजी सेठिया-अपका जन्म संवत् १९४१ की मगसर वदी ४ को हुआ । आप भी अच्छे
पुरुष हुए । आपका स्वर्गवास संवत् १९७१ की आषाद सुदी ५ को हुआ। आपके स्वर्गवास समय आपके ज्येष्ठ पुत्र श्री जसवन्तमलजी की वय बहुत थोड़ी थी अतः उस समय इस फर्म के सारे कार
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मोसवाल जाति का इतिहास
बार को आपकी मातेश्वरी ने सम्हाला । सेठिया शुभकरणजी के पुत्र कन्हैयालालजी का जन्म संवत् १९४६ तथा आसकरणजी का संवत् १९४९ का है । सेठिया मोहनलालजी के दो पुत्र हुए जिनके नाम जसवन्तमलजी तथा सोहनमलजी था । इनमें से सेठिया जसवन्तमलजी के छोटे भ्राता सोहनमलजी का पोष सुदी २ संवत् १९८८ को स्वर्गवास हो गया। इस समय उपरोक्त फर्म के मालिक सेठ जसवन्तमलजी हैं।
___ जसवन्तमलजी सेठिया-आपका जन्म पौष सुद६ संवत् १९६५ में हुआ । आप बड़े सजन, उच्च विचारों के तथा उदार हृदय के व्यक्ति हैं। इस कम उम्र में ही आपने फर्म के काम को बहुत अच्छीतरह से सम्हाल लिया है। आपका विद्या प्रेम बहुत ही सराहनीय है। आपने पट्टालम सूला में दी जैन मोहन स्कूल के नामसे एक स्कूल अपनी ओरसे कायमकर रक्खा है । आप प्रायः सभी सार्वजनिक, परोपकारी तथा धार्मिक कार्यों में सहायता देते रहते हैं। यहाँ यह लिखना आवश्यक है कि आप ओसर मोसर भादि सामाजिक कुरीतियों के बहुत खिलाफ हैं । आप इस समय मेसर्स वख्तावरमल मोहनलाल के मालिक हैं। आपकी दुकान पट्टालम सूला में सब से बड़ी तथा मद्रास की खास २ दुकानों में गिनी जाती है।
सेठिया शुभकरणजी के पुत्र आसकरणजी का जन्म संवत् १९४९ की जेठ सुदी ५ का है। आपके दो पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः नेमकरणजी तथा सजनकरणजी हैं। आप इस समय मेसर्स शुभकरण आसकरण के मालिक हैं।
सेठ हजारीमल केवलचन्द (नाग) सेठिया, मुदरान्तकम् (मद्रास)
इस परिवार का पूर्व इतिहास सेठ बख्तावरमलजी मोहनलालजी के परिचय में दिया गया है। इस परिवार में सेठ कपूरचन्दजी के पुत्र मुगदासजी तथा पौत्र गिरधारीमलजी हुए। सेठ गिरधारीमलजी के हिम्मतरामजी तथा जगरूपमलजी नामक २ पुत्र हुए। इन दोनों का स्वर्गवास संवत् १९३५ तथा ५० में हुआ। हिम्मतरामजी को बलूदे ठाकुर ने “नगर सेठ" की पदवी दी थी।
देश से व्यापार के लिये सेठ हिम्मतरामजी तथा जगरूपमलजी संवत् १८७४ में जालना आये। तथा पल्टन के साथ लेनदेन का कार्य आरम्भ किया। हिम्मतरामजी के पुत्र हजारीमलजी हुए। इनका स्वर्गवास १९५३ में ५२ साल की आयु में हुआ। आपके हीरालालजी, जसराजजी, केवलचंदजी, तथा माणिकचन्दजी नामक पुत्र हुए। इनमें माणकचन्दजी, जगरूपमलजी के नाम पर दत्तक गये। इस समय जगरूपमलजी का परिवार जालने में जगरूपमल मगनीराम तथा जगरूपमल माणिकचन्द के नाम से व्यापार करता है। मगनीरामजी के पुत्र मोहनलालजी तथा माणकचन्दजी के पुत्र सुगनचन्दजी हैं।
सेठ केवलचन्दजी का जन्म सं० १९४६ में हुआ। आप १९६६ में मदुरान्तकम् आये। तथा यहां सराफो व्यापार चालू किया । आप से बड़े भाई हीरालालजी तथा जसराजजी का जन्म क्रमशः १९२६ तथा १९४३ में हुआ। इस परिवार का मदुरान्तकम् में जे० माणिकचन्द तथा हजारीमल केवल. के नाम से त्रिविकोलर में जसराज पुखराज तथा माणिकचन्द सुगनचन्द के नाम से और वलंदे में हीरालाल जसराज के नाम से व्यापार होता है। हीरालालजी के पुत्र कनकमलजी तथा पुखराजजी, और सेठ जसराजजी के पुत्र रिखवचंदजी तथा सूरजकरणजी हैं । यह परिवार बलंदा में भन्छी प्रतिष्ठा रखता हैं।
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० से अगरचंदजी सेठिया, बीकानेर.
Q
सेठ भैरोंदानजी सेठिया, बीकानेर.
पारमार्थिक संस्था-भवन (अगरचंद भैरोंदान) बीकानेर.
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सेठिया
सोठया गौत्र की उत्पत्ति
ऐसा कहा जाता कि पाली नगर के पास ग्राम में रांका और बांका नामक दो राजपूत कृषि कार्य से अपना गुजारा करते हुए रहते थे। आचार्य श्री जिन वल्लभसूरि के उपदेश से इन्होंने जैन धर्म अङ्गीकार किया। इन्ही में से रांका से सेठी और बांका से सेठिया गौत्र की उत्पत्ति हुई। इन्हीं की संतानों से गोरा, देक, काला बोक भादि गौत्रों की उत्पत्ति हुई।
सेठ अगरचंद भैरोंदान सेठिया, बीकानेर अब हम पाठकों के सामने एक ऐसे दिव्य व्यक्ति का चरित्र उपस्थित करते हैं; जिसने अपने जीवन के द्वारा व्यापारी समाज के सम्मुख सफलता और सद व्यय का एक बहुत बड़ा आदर्श उपस्थित किया है। जिसने व्यापारी जगत् में अपने पैरों पर खड़े होकर लाखों रुपयों की सम्पत्ति उपार्जित की है।' यही नहीं मगर उसका सुन्दर सदुपयोग भी किया है। यह महानुभाव श्रीभेदानजी सेठिया है।
सेठ भैरोंदानजी-आपका जन्म संवत् १९३३ में हुमा । आपके २ बड़े एवम् एक छोटे भाई और थे। जिनके नाम क्रमशः सेठ प्रतापमलजी, अगरचन्दनी, और हजारीमलजी थे। जब आप केवल ८ वर्ष के थे तब ही आपके भाइयों ने आपको अलग कर दिया। इस समय भापके पास उतनी ही सम्पत्ति थी जितना कि आपको देना था । अतएव बड़ी कठिन परिस्थिति का अनुभव कर आपने ५००) सालियाना में ७ वर्ष तक बम्बई में नौकरी की । मगर इससे आपको संतोष न हआ। आप कर्मवीर व्यक्ति थे । शीघ्र ही आपने बम्बई को छोड़ कर कलकत्ता प्रस्थान किया। वहाँ जाकर आपने हनुमतराम भैरोंदान के नाम से साझे में रंग का व्यापार करने के लिये फर्म खोली। साथ ही मनिहारी का व्यापार भी करने लगे। देवयोग से यह व्यापार चमक उठा, एवम् इसमें आपने बहुत सफलता प्राप्त की। इसके बाद ही आपके भाई अगरचन्दजी फिर से आपके साथ शामिल हो गये और आप लोगों का व्यापार ए. बी० सेठिया एण्ड को० के नाम से चलने लगा। रंग की विशेष उन्नति होते देखकर आपने एक रंग का कारखाना दी सेठिया केमिकल वर्क्स के नाम से खोला। यह भारत में पहला ही रंग का कारखाना था। इसके पश्चात् आपका व्यापार वायु-वेग से उन्नति पाने लगा । आपकी बम्बई, मद्रास, कानपुर, देहली अमृतसर, करांची और अहमदाबाद में फमें स्थापित होगई। यही नहीं बल्कि आपने जापान में भी अपनी फर्म स्थापित की। मगर कुछ वर्षों पश्चात् बीमारी के कारण कलकत्ता और जापान के सिवा सब स्थानों से आपने अपना व्यवसाय उठा लिया। संवत् १९७५ में आपके भाई अगरचन्दजी का साझा आपसे अलग हो गया।
__आपका धार्मिक जीवन भी बड़ा सराहनीय है। आपने अभी तक लाखों रुपये सार्व जनिक कार्यों में खर्च किये हैं। आपकी ओर से इस समय निम्नलिखित संस्थाएं चल रही हैं। (१)
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठिया जैन स्कूल, (२) सेठिया जैन श्राविका पाठशाला (1) सेठिया जैन संस्कृत प्राकृत विद्यालय (४) सेठिया जैन बोडिंग हाउस (५) सेठिया जैन शास्त्र भंडार (६) सेठिया जैन विद्यालय (७) सेठिया जैन भाविकश्रम (6) सेठिया जैन प्रिंटिंग प्रेस आदि । उपरोक्त संस्थाओं के खर्च की व्यवस्था के लिये आपने कलकत्ते के चीना बाजार के मकान नं. १६.। १६१ की दुकानें, क्रास स्ट्रीट के नं. ३, ५, ७, ९, १९के मकान तथा मोहनदास स्ट्रीट के १२३, १२५ नम्बर के मकान की भी रजिस्ट्री करवा दी है। इसके अतिरिक्त आपके भाई और आपकी ओर से बीकानेर में संस्थाओं के लिये २ मकान दिये गये हैं जिनमें संस्थाओं का कार्य संचालन होरहा हैं। इन सब संस्थाओं का सारा कार्य आप ही देखते हैं।
आप अखिल भारत वर्षीय श्री जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी कान्फ्रेंस के सभापति रहे थे । इस स आप म्युनिसिपल मेम्बर, साधु मार्गीय जैन हितकारिणी सभा के प्रेसिडेण्ट और स्थानकवासी जैन ट्रेनिग कालेज के सभापति हैं। आपके इस समय पांच पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः जेठमलजी, पानमलजी, जुगराजजी और ज्ञानपालजी हैं आपने अपने सब पुत्रों को अलग २ कर दिया है।
कुँवर जेठमलजी-आप बड़े मिलनसार और सज्जन व्यक्ति हैं। आपका ध्यान भी परोपकार की ओर विशेष रहता है। आप उपरोक्त संस्थाओं के ट्रस्टी हैं। आपने भी अपने हिस्से से ३० हजार रुपये नकद और कलकत्ता के कैनिंग स्ट्रीट वाले मकान नं० 111 और ११५ और जंकशनलेन का मकान मं० ६ संस्थाओं को दान स्वरूप प्रदान किये हैं। जिनका व्याज एवम् किराये की करीव २० हजार रुपया सालाना आय संस्थाओं को मिलती है।
सेठ साहब के शेष पुत्रों में से प्रथम दो व्यवसाय करते हैं और छोटे दो विद्याध्ययन करते हैं। श्रीलहरचंदजीने भी एक प्रिंटिंग प्रेस संस्थाओं को दान में प्रदान किया है। आप सब भाइयों का अलग अलग रूप से भिन्न भिन्न प्रकार का व्यवसाय होता है । आपकी फर्म बीकानेर में अच्छी प्रतिष्ठित मानी जाती है।
सेठ खुशालचंदजी सेठिया का परिवार ,सरदारशहर इस परिवार के लोग संवत् १८९६ में सरदारशहर में आकर बसे । इसके पूर्व पुरुष सेठ खुशालचन्दजी के कालरामजी, टोडरमलजी, दुरंगदासजी, श्रीचन्दजी और आईदानजी नामक पांच पुत्र हुए। इनमें कालूरामजी, श्रीचन्दजी व आईदानजी नामक तीनों भाइयों ने संवत् १८७८ में पैदल रास्ते से सफर करके रंगपूर, कूच बिहार भादि स्थानों पर अपनी दुकानें खोली और कपड़े का व्यापार करने लगे। इसके पश्चात् आपने अमृतसर, बक्षीहाट, भडंगामारी, बलरामपुर, चोलाखाना बक्षाद्वार आदि स्थानों पर भी अपनी फर्मे स्थापित कर व्यापार में अद्भुत सफलता प्राप्त की। संवत् १९५० तक आप तीनों भाइयों का स्वर्गवास होगया और उसी साल आईदानजी के पुत्र मंगलचन्दजी इस फर्म से भलग होगये।
सेठ कालूरामजी का परिवार-सेठ कालूरामजी के तीन पुत्र हुए। जिनके नाम क्रमशः सेठ भीखणचंदजी, सेठ नथमलजी और सेठ नारायणचन्दजी हैं। इनमें से सेठ नथमलजी अपने चाचा सेठ श्रीचन्दजी के पुत्र न होने के कारण वहां दत्तक चले गये। शेष दोनों भाई भी अलग २ होगये एवम्
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ भीकमचन्दजी सेठिया, सरदारशहर,
सेठ दुलीचन्दजी सेठिया, सरदारशहर.
बाबू भीवराजजी सेटिया, सरदारशहर.
सेठ रावतमलजी सेठिया, सरदारशहर.
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सेठिया
अपना अपना स्वतंत्र व्यापार करने लगे। सेठ भीखणचन्दनी तीन पुत्र हुए शोभाचन्दजी, दुलीचन्दजी और भीमराजजी । इनमेंसे प्रथम शोभारामजी अलग होगये एवम् अपना स्वतंत्र व्यापार कलकत्ता में मेसर्स शोभाचंद सुमेरमल के नाम से करने लगे । भापका स्वर्गवास होगवा है। आप मिलनसार व्यक्ति थे । आपके समेरमलजी एवम् तनसुखरायजी नामक दो पुत्र हैं। आप लोग भी सज्जन एवम् मिलनसार हैं। दूसरे पुत्र दुलिचन्दजी सेठ नथमलजो के पुत्र न होने से वहाँ दत्तक चले गये। अतएव अब तीसरे पुत्र भीमराजजी ही इस समय अपनी फर्म मेसर्स कालूराम नथमल ताराचन्द दत्त स्ट्रीट का संचालन करते हैं। इसमें नथमलजी के दत्तक पुत्र सेठ दुलिचन्दजी का भी साझा है।
सेठ नारायणचन्दजी इस समय विद्यमान हैं आपकी वय इस समय ६४ वर्ष की है। आपकी फर्म इस समय कलकत्ता में मेसर्स कालूराम शुभकरन के नाम से चल रही है तथा मुगलहाट में भी आपकी एक फर्म है जहाँ पाट का व्यापार होता है। आपके दीपचन्दजी नामक एक पुत्र हैं। आपही आजकल फर्म के व्यापार का संचालन करते हैं। आप योग्य और मिलनसार सज्जन हैं। आपके चार पुत्र हैं जिनमें तीन के नाम क्रमशः शुभकरणजी, जसकरणजी, और रिधकरनजी हैं। बड़े पुत्र व्यापार में सहयोग लेते हैं । सेठ टोडरमलजी के कोई संतान न हुई। दुरंगदासजी के परिवार में उनके पुत्र जेठमलजी और किशनचन्दजी हुए। इस समय किशनचन्दजी के पुत्र नेमचन्दजी, मुगलहाट में किशनचन्द मंगतमल के नाम से व्यापार कर रहे हैं।
सेठ श्रीचंदजी का परिवार-आपके कोई पुत्र न होने से आपने नथमलजी को दत्तक लिया। मगर आपका केवल २२ वर्ष की युवावस्था ही में संवत् १९४४ में स्वर्गवास होगया । नथमलजी का राज में अच्छा सम्मान था। आपके भी कोई पुत्र न होने से दुलिचंदजी आपके नाम पर दत्तक आये। आपका जन्म संवत् १९३७ का है। आप पढ़े लिखे, उत्साही, और चतुर पुरुष हैं। आपने अपने स्वर्गीय पिताजी के स्मारक स्वरूप सरदारशाह में एक दातव्य औषधालय स्थापित किया है। यहाँ यही एक सबसे बड़ा औषधालय है । इसमें करीब ५०, ६०, हजार रुपया लगाया गया था। इसके अतिरिक्त इसके साथही एक जैन पुस्तकालय भी है। बाबू दुलिचन्दजी कुंचविहार में करीब ९ वर्ष तक वहाँ की कोंसिल के मेम्बर रहे। इसके अतिरिक्त बीकानेर हाईकोर्ट ने सर्व प्रथम भापको सहदारशहर में आनरेरी मजिस्ट्रेट नियुक्त किया। लिखने का मतलब यह है कि आपका यहाँ राज्य एवम् समाज में अच्छा सम्मान है। आपका व्यापार कूचबिहार तथा कलकत्ता में मेसर्स कालराम नथमल के नाम से होता है। जिसमें आपके भाई भीवराजजी का साझा है यह हम उपर लिख ही चुके हैं। इसके अतिरिक्त आपके पुत्रों के नाम से कलकत्ता के ताराचन्द दत्त स्ट्रीट में मेसर्स श्रीचंद मोहनलाल के नाम से जूट का व्यापार होता है। आपके दो पुत्र हैं जिनका नाम चम्पालालजी और मोहनलालजी है। कलकत्ते की ताराचन्द दत्त स्ट्रीट वाली विल्डिंग इन्हीं पुत्रों के नाम से खरीदी हुई है।
सेठ आईदानजी का परिवार-आपके एक मात्र पुत्र सेठ मंगलचन्दजी हुए । आपका जन्म संवत् १९२२ का है। जब कि आपकी अवस्था १५ वर्ष की थी उसी समय आप व्यापार के लिये अपनी फर्म पर कूच बिहार गये। आपके पिताजी के द्वारा निर्मित की हुई धर्मशाला संवत् १९५४ में भूकम्प के
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मोसवाल जाति का इतिहास
कारण गिरगई एवम् नष्ट होगई थी। अतएव आपने फिर से उसका निर्माण करवाया। दरबार ने आप को भिन्न र समयों पर किर्च, बन्दूक, पिस्तौल वगैरह प्रदान कर आपका सम्मान बढ़ाया था । सन् १९.४ में आपको वहां दरबार में फस्र्ट क्लास सीट मिली। इसके पश्चात् फिर सन् १९२५ में आपके सम्मान को विशेष रूप से प्रदर्शन करने के लिये आपको पैरों में सोने का लंगर तथा आसासोटा प्रदान किया। भापके कोई पुत्र न होने से आपके नाम पर बा. जयचन्दलालजी दत्तक लिये गये हैं। आप एक उत्साही युवक हैं। आपको आयुर्वेद का बड़ा शौक है । आपके प्रयत्न से यहाँ एक नवयुवक मंडल स्थापित है आपके एक पुत्र है जिनका नाम भंवरलालजी है। आपकी फर्म पर कूचबिहार में जूट का व्यापार होता है । इस परिवार वालों को कूचबिहार स्टेट और बीकानेर स्टेट से समय २ कई खास रुक्के प्राप्त हुए हैं।
सेट ताराचन्दजी सेठिया का परिवार, सरदारशाह सेठ ताराचन्दजी करीब ८० वर्ष पूर्व तोल्यासर से सरदार शहर में आकर बसे थे। आपका गौत्र सेठिया है। जिस समय आप यहाँ आये आपकी बहुत ही साधारण स्थिति थी। आपका स्वभाव बड़ा तेज एवम् आत्माभिमानी था। आप गरीबों के बड़े पृष्ट पोषक थे। यहाँ तक कि हमेशा आपका तन मन उनके लिये प्रस्तुत रहता था। इसी कारण से आप यहाँ की जनता के माननीय थे। आपका स्वर्गवास . १९४० में हुआ। आपके चुन्नीलालजी नामक एक पुत्र हुए। आप बड़े बुद्धिमान और समझदार व्यक्ति थे। अपका स्वर्गवास संवत् १९५३ में हो गया। आपके चार पुत्र सेठ पूरनचन्दजी, रावतमलजी, कालूरामजी
और चौथमलजी हैं। सेठ पूनमचन्दजी के पुत्र दीपचन्दजी और लक्ष्मीचन्दजी आजकल पूनमचन्द जीवनमल के नाम से ३५ आर्मेनियन स्ट्रीट में अलग व्यवसाय करते हैं।
सेठ रावतमलजी बड़े व्यापार चतुर और प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तिहैं। संवत् १९५३ में जब कि आपकी आयु केवल १३ वर्ष की थी, आप कलकत्ता व्यापार के लिये गये। एवम् धीरे २ आपने अपनी व्यापार चातुरी से बहुत सी सम्पत्ति उपार्जित की। आपने अपनी सम्पत्ति का एक नियम बना लिया था उससे ज्यादा पैदा करना आप नहीं चाहते थे, अतएव नियमित सम्पत्ति के पैदा होते ही सब कारबार अपने छोटे भाइयों को १९८३ में देकर आप आजकल सरदार शहर ही में रहते हैं । आप तेरापंथी संप्रदाय के अनुयायी हैं।
सेठ कालूरामजी एवम् चौथमलजी दोनों ही भाई वर्तमान में रामलाल जसकरन के नाम से आर्मेनियम स्ट्रीट में कपड़े का तथा जूट और कमीशन का तथा चौथमल रामलाल के नाम से सूतापट्टी ४६ में कपड़े का व्यापार करते हैं। सेठ कालूरामजी के रामलालजी, मदनचंदजी, संतोषचन्दजी और सूरजमल जी तथा चौथमलजी के जसकरनजी, फतेचंदजी, करनीदानजी एवम् रतनलालजी नामक पुत्र हैं।
सेठ चिमनीराम हुलासचंद सोठिया . ... इस परिवार के पुरुष तोल्यासर से सरदारशहर आये । पहले इस परिवार की स्थिति साधारण
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सेठ चिमनीराम हुलासचंद सेठिया कलकत्ता मध्य में--सेठ चौथमलजी सेटिया। ऊपर-(१) बाबू चिमनीरामजी सेठिया (२) बाबू हुलासचंदजी सेठिया नीचे-(१) बाबू आसकरणजी सेठिया (२) बाबू कन्हैयालालजी S/o बा० आसकरणजी सेठिया
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सेठिया
श्री सेठ चौथमलजी देश से चलकर व्यापार के लिये बङ्गाल के भूमी जिले में गये और वहां पूरनचन्द हुकुमचन्द संचेती के यहां नौकरी की । आपके संतान न होने से आपके नाम पर आपके भतीजे आसकरणजी दत्तक लिये गये । चौथमलजी के भाई सेठ चिमनीरामजी कलकत्ते में हरिसिंह सन्तोषचन्द की दुकान पर नौकरी करते रहे । नौकरी से कुछ सम्पत्ति जोड़कर आपने लोगों के साझे में हुलासचन्द भासकरण के नाम से कपड़े का व्यापार शुरू किया । इस समय आप इसी नाम से अपना स्वतन्त्र व्यापार करते हैं। संवत् १९७३ से व्यापार का भार अपने पुत्र हुलासचन्दजी को देकर आप रिटायर्ड लाइफ व्यतीत कर रहे हैं । आप सरदारशहर में रहते हैं ।
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सेठ आसकरणजी और हुलासचन्दजी कलकते में अपनी फर्म का योग्यता पूर्वक संचालन कर आपकी दुकान १८८ सूता पट्टी में है ।
मेसर्स गुलाबचंद धनराज सेठिया रिणी
इस खानदान के लोग रिणी में बहुत समय से रहते हैं। इनमें सेठ रामदयालजी के चार पुत्र हुए इनमें से उपरोक्त वंश सेठ गुलाबचन्दजी का है ।
रहे हैं ।
सेठ गुलाबचन्दजी का जन्म संवत् १९१२ में हुआ । आप देश से व्यापार के लिये बंगाल गये और वहां मैमनसिंह में दुधोरियों के यहां सर्विस की । आपके रावतमलजी, धनराजजी, हीरालाल हुआ 1 आप जी और हुकुमचन्दजी नामक चार पुत्र हुए। सेठ रावत्मलजी का जन्म सं० १९१७ में १९४९ में कलकत्ता गये और अपने भाई धनराजजी के साथ रावतमल धनराज के नाम से व्यापर शुरू किया इसके पश्चात आप दोनों भाई अलग अलग होगये । सेठ रावतमलजी का स्वर्गवास १९६७ में होगया । इनके मोहनलालजी और हनुमानमलजी नामक २ पुत्र हुए । सेठ धनराजजी ने अपने भाई से अलग होकर भूशमल धनराज के नाम से व्यापार आरम्भ किया फिर सं० १९६६ से ये गुलाबचन्द धनराज के नाम से व्यापार करने लगे । इस समय आप के यहां इसी नाम से व्यापार होता है । आपके इस समय मंगलचन्दजी, बुधचन्दजी, चम्पालालजी और ताराचंदजी नामक चार पुत्र हैं ।
सेठ रावतमलजी के पुत्र सोहनलालजी भी फर्म के पार्टनर हैं । आप बड़े योग्य हैं । हनुमानमलजी दलाली का काम करते हैं। इस फर्म का १२ नारमल लोहिया लेन कलकत्ता में बड़े स्केल पर देशी कपड़े का व्यापार होता है और इरगोला ( बङ्गाल ) में इसकी शाखा जूट का व्यापार करती है।
सुजानगढ़ का सेठिया परिवार
इस खानदान का इतिहास सेठ शोभाचन्दजी को प्रारम्भ होना है। उनके पुत्र किशनचन्दजी हुकुमचन्दजी, बींजराजजी, देवचन्दजी, और चौथमलजी हुए, इनमें से यह खानदान सेठ चौथमलजी का है। सेठ चौथमलजी का जन्म १९२२ में हुआ, पहले आप खेती बाड़ी के द्वारा। अपनी गुजर करते थे कुछ
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
समय पश्चात् आप अपने भाई विजराजजी के पास दिनाजपुर चले गये । दैवयोग से इसी समय दिनानपुर में चाड़वास वाले चोरड़ियों की मनिहारी की दुकान में आग लग गई, और उसका जला हुआ गोदाम आपने बहुत सस्ते दामों में खरीद लिया । इस व्यापार में आपको बहुत बड़ा लाभ हुआ और आपकी स्थिति बहुत अच्छी जम गई। इस प्रकार अपने परिवार की स्थिति जमाकर सेठ चौथमलजी १९७४ में और सेठ बींजराजजी १९६८ में स्वर्गवासी हुए। आप दोनों भाई वड़े व्यापार कुशल और धार्मिक व्यक्ति थे । सेठ चौथमलजी के हीरालालजी, लादूरामजी, कुन्दनमलजी एवम् मानिकचन्दजी नामक चार पुत्र हुए। इनमें हीरालालजी बाल्यावस्था में ही स्वर्गवासी होगये शेष तीनों भाई इस समय व्यापार का संचालन कर रहे हैं। कुन्दनमलजी और माणकचन्दजी बड़े देशभक्त सज्जन हैं ।
सेठ प्रेमचंद धरमचंद सेठी, मुलतान ( पंजाब )
. इस कुटुम्ब का मूल निवास बीकानेर है । वहाँ से १५० साल पूर्व सेठ आत्मारामजी सेठी मुलतान ( पंजाब ) गये और वहाँ जवाहरात का व्यापार शुरू किया। आपके पुत्र प्रेमचन्दजी सेठी के समय में मुलतान दीवान के महलों में जवाहरात की चोरी होगई, और उसका झूठा इलजाम प्रेमचंदजी पर लगा, इससे इन्होंने जवाहरात का व्यापार बन्द करके हाथी दांत का धन्धा शुरू किया । उसके पश्चात् आपने कपड़े का कारवार भी आरम्भ किया । इस व्यापार में आपने विशेष सम्पत्ति उपार्जित की । आपके धरमचन्दजी तथा नथमलजी नामक २ पुत्र हुए ।
सेठ धरमचंद सेठी का परिवार - सेठ धरमचन्दजी के पूनमचन्दजी तथा बलदेवप्रसादजी नामक दो पुत्र हुए। इन दोनों भाइयों की धार्मिक कामों की ओर बड़ी रुचि रही है । इन दोनों भाइयों ने संवत् १९७५ में मुलतान में एक विशाल जैन मन्दिर बनवाया। सेठी पूनमचन्दजी के पुत्र वासुरामजी, तिलोकचन्दजी, सुगनचन्दजी तथा वंशीलालजी हैं । इन बंधुओं के यहाँ मुलतान में " धरमचन्द सुगनचन्द” के नाम से व्यापार होता है। सेठी बलदेवप्रसादजी के पुत्र तोलारामजी, कालूराम जी तथा खुशालचन्दजी हुए । इनमें खुशालचन्दजी की फर्म करांची में व्यापार करती है।
सेठी तोलारामजी ने संवत् १९८० में बम्बई में अपनी दुकान की शाखा तोलाराम भँवरलाल के नाम से खोली । तथा १९८१ में आपका स्वर्गवास हुआ । आपके पुत्र माणकचन्दजी भँवरलालजी तथा संपतलालजी विद्यमान हैं। आप तीनों नवयुवक समझदार व्यक्ति हैं । माणकचन्दजी का जन्म १९६२ में तथा भँवरीलालजी का १९६९ में हुआ। आपके यहाँ मुलतान में प्रेमचन्द धरमचन्द के नाम से कपड़े का व्यापार होता है । तथा यह दुकान बड़ी मातवर मानी जाती है ।
सेठ नथमलजी सेठी काँ परिवार-सेठी नथमलजी की वय ६२ साल की है । आपके पुत्र उत्तमचन्दजी, ठाकरदासजी तथा टीकमदासजी मुलतान में प्रेमचन्द नथमल के नाम से सराफी व्यापार करते हैं ।
सेठ नथमल वख्तावरचन्द सेठी, नागपूर
इस खानदान का मूल निवासस्थान बीकानेर है । आप ओसवाल जाति के सेठी गौत्रीय
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स्व० सेठ बोरीदासजी रांका, मदास,
देशभक्त पूनमचंदजी रांका, नागपुर.
सेठ छगनमलजी रांका, मद्रास.
सेठ हंसराजजी रांका, नासिक,
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सेठिया
सज्जन हैं। आप श्वेताम्बर जैन भाम्माप के मानने वाले हैं। सेठ बख्तावरचन्दजी सेठी बीकानेर में बहुत प्रतापी व्यक्ति हुए हैं। आपने बीकानेर में सबसे पहले नगर भोजन करवाया जिसे ग्राम सारणी कहते हैं। बीकानेर राज्य में भी आपका बहुत प्रभाव था । धार्मिक कायों की तरफ भी भापका बहुत लक्ष्य था तथा इनमें आपने बहुत रुपये खर्च भी किये। आपने इस फर्म को नागपुर में १२५ वर्ष पूर्व
पित की थी। बख्तावरचन्दजी के पुत्र करणीदानजी हए । भापने नागपुर के अन्तर्गत मारवाड़ी समाज में बहुत नाम कमाया। आपका यहाँ की मारवाड़ी समाज में बहुत प्रभाव था । भापकी दुकान नागपुर में अभी तक बढ़ी दुकान के नाम से मशहूर है। करणीदानजी के कोई पुत्र न होने से भापके यहाँ श्रीयुत् पूनमचन्दजी दत्तक आये। इस समय आपही इस फर्म के मालिक हैं। आपके इस समय एक पुत्र है जिनका नाम रतनलालमो है। इस समय इस फर्म पर कपड़े का व्यापार होता है।
भी पूनमचंदजी राका, नागपुर . श्रीयुत पूनमचन्दजी रांका, जामनेर (पूर्व खानदेश ) तालुका के तोंडापुर नामक प्राम के निवासी छोगमलजी का मझले पुत्र है भाप संवत् १९६२ में नागपुर के रांका शंभूरामजी के नाम पर इत्तक लाये गये । रांका शंभूरामजी संवत् १९२० में खींवसर (मारवाद) से नागपुर आये थे मापने कपड़े की दुकान की तथा संवत् १९६० में आप स्वर्गवासी हुए।
रोका पूनमचंदजी का जन्म संवत् १९५५ की मिती आषाढ़ सुदी ४ को तोतापुर में हुषा, भापका शिक्षण घर पर ही हुआ। संवत् १९७७ तक आप अपना घरू कपड़े का व्यापार देखते रहे। जब संवत् १९७७ में नागपुर में राष्ट्रीय कांग्रेस का महा अधिवेशन हुआ, उसमें आप प्रतिनिधि के रूप में सम्मिलित हए और वहीं से भापके जीवन में सामाजिक सुधार और राष्ट्रीयता का अध्याय भारम्भ हुभा। फलतः उसी समय आपने अपने समाज को जागृत करने के लिये सन् १९२० में "मारवाड़ी सेवा संघ" नामक संस्था का स्थापन किया और आपने स्वयं उसके सभापति का स्थान संचालित किया। संन् १९२३ नागपुर के झंडा सत्याग्रह में आपने विशेष रूप से भाग लिया एवम् दिन दिन सामाजिक एवम् राष्ट्रीय कार्यों में भाप नूतन उत्साह से पैर बढ़ाते गये। आपकी धर्मपत्नी श्रीमती धनवती बाई रोका ने परदा प्रथा को तिलांजलि देकर, समाज की स्त्रियों के सम्मुख एक नूतन भादर्श रक्खा है,माप सार्वजनिक सभाओं में भाषण देती हैं तथा हर एक सार्वजनिक कामों में भाग लेती हैं। इस तरह सेठ पूनमचन्दनी रांका सन् १९३० तक राष्ट्रीय कार्यों में सहयोग लेते रहे। इसी समय आपने समाज सुधार के लिये भोसर मोसर विरोधक पार्टी भी स्थापित की। इसके भी आप प्रेसिडेंट रहे।
सन् १९३० से आपने अपने घरू कार्यों से सम्बन्ध छोड़कर अपना सब समय कांग्रेस की सेवा की भोर लगाना भारम्भ कर दिया तथा इसी साल तारीख ३१।।३० को राष्ट्रीय महायुद्ध में सम्मिलित होने के उपलक्ष में माप गिरफ्तार किये गये । दोनों बार आपको ऊँचा क्लास दिया गया । लेकिन जेल में आपने दूसरे राजवन्दियों के साथ A.B.C. इस प्रकार तीन प्रकार के व्यवहार देखकर गवर्नमेंट से सबके साथ एक समान व्यवहार करने की प्रार्थना की लेकिन जब आपकी प्रार्थना पर कुछ ध्यान नहीं दिया गया तो
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ओसवाल जाति का इतिहास
आपने उपवास आरम्भ कर दिया और इस प्रकार निरन्तर ७२ दिनों तक आपने उपवास की तपस्या की । ता० ९ । ३ । ३१ को गांधी-इरविन पेक्ट के समझौते के मुताबिक तमाम राजवन्दी छोड़ दिने गये, इस दिन उपवास की हालत में आप भी जेल से मुक्त कर दिये गये ।
इसी प्रकार ९ । १ । ३२ को सत्याग्रह आन्दोलन में सम्मिलित होने के उपलक्ष में आप पर १० हजार रुपया दण्ड तथा ३ साल ७॥ मास की सजा हुई जो पीछे से घटा कर, १५००) दण्ड के साथ 1 साल की करदी गई। इस वार भी आपने गवर्नमेंट से एकसा व्यवहार करने की प्रार्थना की लेकिन फिर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया अतः आपने पुनः पूर्ववत् उपवास आरम्भ कर दिया जब लगातार ६२ दिनों तक उपवास करते हुए आप बहुत अशक्त होगये तब ता० ४ । ५ । ३३ को सी० पी० गवर्नमेंट ने आपको स्वयं रिहा कर दिया। बाहर आने पर आपको ज्ञात हुआ कि आपके किसी मित्र ने आपकी ओर से १५००) भर दिये हैं वे रुपये आपने उन्हें सधन्यवाद लौटा दिये ।
इस प्रकार आपका त्याग और तपस्या का पवित्र जीवन ओसवाल समाज के लिये अभिमान और गौरव का द्योतक है तथा सम्पत्ति के मद में चूर वासनाओं के कीट समाज के नवयुवकों के लिये नवीन मार्ग दर्शक हैं । अभी अपने देश के हितार्थं घी तथा शकर का त्याग कर रक्खा है । इस समय आप नागपुर नगर कांग्रेस कमेटी के प्रेसिडेण्ट है। आपके छोटे भ्राता आसकरणजी ने भी परदा प्रथा का त्याग किया है। आपका विवाह बहुत ही सुधरी प्रथा से हुआ था। आपकी धर्मपत्नी सन् १९३० में ४॥ मास के लिये जैल गई थीं इस समय आप सेठ पूनमचन्दजी की कपड़े की दुकान का काम देखते हैं।
श्री सौभागमलजी सेठिया ( रांका ) का खानदान, मद्रास
इस खानदान का खास निवासस्थान नागौर का है। आप लोग रोका सेठिया गौत्रीय भोसवाल श्वेताम्बर जैन समाज के मंदिर आम्नाय को मानने वाले सज्जन हैं । आपके परिवार में श्रीयुत पारसमल जी सेठिया हुए। आप करीब पचास वर्ष प्रथम नागौर से हैदराबाद आये । यहाँ आपने अनाज का व्यापार शुरू किया, आपके एक पुत्र हुए जिनका नाम सौभागमलजी था ।
श्री सौभागमलजी सेठिया का जन्म संवत् १९९० में हुआ | व्यापार करते रहे। उसके पश्चात् सं० १९६७ में आप मद्रास आये और किया। इस फर्म के व्यवसाय में आपको अच्छी सफलता मिली । गया । आप के दो पुत्र हुए जिनके नाम सेठ उम्मेदमलजी तथा धीरजमलजी हैं ।
आप भी हैदराबाद में अनाज का यहाँ पर बैकिंग का व्यवसाय आपका संवत् १९७६ में स्वर्गवास हो
सेठ उम्मेदमलजी का जन्म संवत् १९४६ में तथा धीरजमलजी का संवत् १९४९ में हुआ । आप दोनों भाई बड़े होशियार तथा व्यापार दक्ष पुरुष हैं। आप के हाथों से इस फर्म की बहुत उन्नति हुई। संवत् १९८० तक आप दोनों शामिल व्यापार करते रहे। इसके पश्चात् दोनों अलग २ हो गये और सेठ उम्मेदमलजी ने मेसर्स सौभागमल उम्मैदमंल के नाम से कागज का व्यवसाय तथा धीरजमलजी मेसर्स सौभागमल धीरजमल के नाम से बैकिंग का व्यवसाय करना शुरू कर दिया ।
सेठ उम्मेदमलजी के तीन पुत्र हैं जिनके पानमलजी, भंवरलालजी तथा छोटमलजी हैं। इनमें
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ धीरजमलजी सेठिया, मद्रास.
स्वर्गीय सेठ चत्रींगजी (चत्रींगजी सूरजमलजी) सादड़ी
सेठ केवलचन्दजी सेठिया (हजारीमल केवलचन्द) मदुरान्तकम्.
श्री मगुलालजी सेठिया ( बख़्तावरमल मोहनलाल ) मद्रास
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सीठया
से श्री पानमलजी अपने पिताजी के साथ कागज के व्यवसाय में काम करते हैं तथा शेष दो बच्चे पढ़ते हैं । सेठ धीरजमलजी के दो पुत्र हैं जिनके नाम क्रम से भीखमचन्दजी तथा मूलचन्दजी हैं ।
इन दोनों भाइयों की ओर से धार्मिक, सार्वजनिक तथा परोपकार के कामों में काफी सहायता दी जाती है ।
सेठ फौज़मल बोरीदास रांका, मद्रास
इस परिवार का मूल निवास स्थान बगड़ी सज्जनपुर ( मारवाड़ ) है । वहाँ से सेठ फौजमल जी रांका लगभग संवत् १९२९ में सेष्ट थाम्स् माउण्ट (मद्रास) में आये और लेनदेन का कारबार शुरू किया तथा अल्पकाल में ही आपने अपनी सम्पत्ति की आशातीत उन्नति की । सेंट थाम्स् माउण्ट दुकान के अलावा संवत् १९४५ में आपने चिन्ताद्विपेठ-मद्रास में भी एक सराफी दुकान खोली । आपके पुत्र सेठ बोरीदासजी रांका शिक्षित और सुयोग्य व्यक्ति थे । आप में अपने पिताजी के सब गुण मौजूद थे। आप संवत् १९६६ में स्वर्गवासी हुए। आपके सामने ही आपके पौत्र जीवराजजी तथा अमोलकचन्दजी राँका का अस्पवय में संवत् १९५६ के पहिले शरीरावसान हो गया था । अपनी दुकान की प्रतिष्ठा को बढ़ाते हुए सेठ फौजमलजी राँका संवत् १९७२ में स्वर्गवासी हुए। सेठ फोजमलजी राँका के कोई सन्तान न रहने से आपने श्री छगनमलजी रौंका को गोद लिया ।
सेठ छगनमलजी रौँका का जन्म संवत् १९४८ में हुआ । मद्रास और बगड़ी के ओसवाल समाज में आपकी अच्छी प्रतिष्ठा है आपने अनेक धार्मिक तथा सामाजिक कार्यों में प्रशंसनीय भाग लिया है।
सेठ छगनभलजी ने अपनी माता की आज्ञानुसार बगड़ी में अमरे बकरों की रक्षा के लिए एक बाड़ा खोला है, जिसमें ३०० बकरों का पालन होता है बगढ़ी की श्मशान भूमि में एक धर्मशाला की बड़ी कमी थी अत एव आपने उक्त स्थान पर धर्मशाला बनवा कर जनता के लिये सुविधा की है। बगड़ी स्टेशन पर भी आपने एक विशाल धर्मशाला बनवाई है। बगड़ी में अछूत बालकों के सहायतार्थ आपने एक छोटी सी पाठशाला भी खोल रक्खी है । इसके सिवाय आपने श्री जैन पाठशाला बगड़ी, शान्ति पाठशाला पाली, जैन गुरुकुल ब्यावर, जैन ज्ञान पाठशाला उदयपुर को समय समय पर अच्छी आर्थिक सहायता दी है । आप के पुत्र धीरजमलजी १२ साल के तथा रेखचन्दजी १० साल के हैं। ये दोनों बालक होनहार प्रतीत होते हैं तथा शुद्ध खट्टर धारण करते हैं। छोटी वय में इन्होंने कई भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया है।
इस समय इस परिवार का मद्रास के सेठ थामस मांडण्ट तथा चिंतान्द्रि पैट नामक स्थान पर ब्याज का धंधा होता है । यह दुकान यहाँ अच्छी प्रतिष्ठित समझी जाती है ।
सेठ सूरजमल हंसराज, रांका ( सेठिया ) नाशिक
इस परिवार का मूल निवास बीज वाड़ा ( जोधपुर के पास ) है । आप स्थानक वासी आम्नाय के मानने वाले सज्जन हैं। सेठ सूरजमलजी राँका ८० साल पहिले देश से नाशिक जिले के सिंदे नामक
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मोसवाल जाति का इतिहास
स्थान में आये। आपके पुत्र बालारामजी और उनके पुत्र देवीचन्दजी तथा जसराजजी सिंदिया में रहते हैं। तथा रतनचन्दजी के पुत्र मैनसुखजी, माणकलालजी व धनराजजी नाशिक में किराने का व्यापार करते हैं।
सिंदिया से सेठ हंसराजजी रॉका शके १८२८ में नाशिक आये तथा यहाँ किराने का काम शुरू किया, आपने इस व्यापार में काफी उन्नति प्राप्त कर फर्म की प्रतिष्ठाव इज्जत को बढ़ाया। आपका जन्म संवत् १९५१ में हुआ आपके पूनमचंदजी, चुन्नीलालजी, मोहनलालजी और फतेचंदजी नामक पुत्र हैं। पूनमचन्दजी स्थानीय म्युनिसिपैलेटी के मेम्बर हैं। चुन्नीलालजी एम० ए० फाइनल और एल० एल० बी० में अध्ययन कर रहे हैं। मोहनलालजी ने मैट्रिक तक शिक्षा पाई है, तथा फतेचन्दजी मैट्रिक में पढ़ रहे है। चुनीलालजी रॉका ओसवाल जैन बोडिंग नाशिक के सेक्रेटरी हैं, इसी तरह आप नाशिक जिला ओसवाल सभाके अधिवेशन के सेक्रेटरी थे। मोहनलालजी को राष्ट्रीय कामों में भाग लेने के उपलक्ष में सन् १९६२ में ३ मास की जेल हुई थी । यह परिवार नाशिक व भासपास के ओसवाल समाज में अच्छी प्रतिष्ठा रखता है।
सेठ पूनमचन्द श्रीचन्द रांका, पूना इस परिवार का मूल निवास स्थान राणी (गोडवाड़) है राणी से सेठ पूरनचन्दजी रांका १० साल पहिले पूना भाये । थोड़े समय तक आपने रामचन्द हिम्मतमल की भागीदारी में व्यापार किया । पश्चात् अपने साले सादड़ी (गोडवाइ) निवासी सेठ चत्रींगजी की भागीदारी में पूना केम्प में संवत् १९४४ में दुकान की। इस दुकान ने अंग्रेज लोगों से लेन देन का ब्यापार शुरू किया आपने इस व्यापार में बहुत सम्पत्ति कमाकर अपने मकानात दुकाने बंगले आदि बनवाये। इस समय ४६ मालकम टेंक रोड पर पूनमचन्द श्रीचन्द के नाम से इस दुकान पर बैकिंग तथा प्रापर्टी के किराये का कार्य होता है। यहाँ की दुकानों में यह दुकान प्रतिष्ठित मानी जाती है। सेठ पूनमचंदजी के पुत्र कुंदनमलजो तथा चंदनमलजी इस समय सादड़ी में रहते हैं।
सेठ चत्रींगजी का परिवार-आपने १८ सालों तक सेठ रामचन्द हिम्मतमल पूना वालों की दुकान पर नौकरी की । तदनंतर अपने बहनोई के साझे में पूना में दुकान को । उस दुकान के व्यापार को आपने बहुत बदाया। चतरींगजी सेठ ने सादडी में कई धार्मिक काम किये । आपका जन्म संवत् १९१७ में हुआ । आपने गणकपुरजी के मेले में ७ हजार आबूजी आदि के संघ में ३५०१) तथा न्यात के नोरे में ३१००) लगाये । आपके पुत्र केसरीमलजी का जन्म संवत् १९४४ में हुआ। आप इस समय ब्यापार का संचालन करते है। केसरीमलजी के पुत्र सागरमलजी तथा जावंतराजजी हैं। सागरमलजी होशियार युवक हैं। आप ग्यापार में भाग लेते हैं। यह परिवार लुका गच्छ का अनुयायी है।
सेठ कीरतमल पन्नालाल रांका, चिंचवड़ ( पूना) इस परिवार का मूल निवास स्थान भावी (जोधपुर) है । वहाँ से लगभग १०० साल पहिले सेठ तेजमलजी रांका के पुत्र सेठ कीरतमलजी रांका चिंचवड़ आये तथा कपड़ा व अनाज का व्यापार शुरू किया।
आपके पन्नालालाजी, निहालचंदजी तथा मूलचन्दजी नामक ३ पुत्र हुए। इनमें सेठ पनालालजी रांका :चिंचवड़ के अग्रगण्य थे। आप स्थानीय फतेचन्द जैन विद्यालय के प्रथम सभापति थे । इस संस्था की
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ओसवाल जाति का इतिहास
बाबू सोहनलालजी बांठिया, भीनासर.
बाबू चम्पालालजी बांठिया, भीनासर.
PLEBRITESHEETHERHIBIBIPERHITREEEEEEEERI
THHATRAPEDIEHTERTAIHEEEEEEEEEEEETHEATREEEEEEEET
बाबू सोहनलालजो बाया बिारुडग कलकता.
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___बाँठिया
मापने अच्छी सेवा की । संवत् १९८७ की सावण सुदीको बाप स्वर्गवासी हुए। आपके छोटे भाई क्रमशः १९५५ तथा ७२ में स्वर्गवासी हुए।
वर्तमान में सेठ पन्नालालजी रांका के पुत्र होरालालजी, पूनमचन्दजी तया वंशीलालजी और निहालचन्दजी रांका के पुत्र लादूरामजी विद्यमान है। सेठ हीरालालजी का जन्म संवत् १९५२ में हुआ। भाप चिंचवड विद्यालय की प्रबंधक कमेटी के मेम्बर और ग्राम पंचायत के प्रधान है। भाप स्थानक वासी भानाय के मानने वाले हैं तथा यहाँ के ओसवाल समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं । आपके यहाँ कीरतमल पन्नालाल के नाम से अनाज का व्यापार होता है।
बांठिया बांठिया गौत्र की उत्पत्ति
ऐसा कहा जाता है कि संवत् १६० में रणथम्भोर के राजा लालसिंह पवार को उसके सात पुत्रों सहित आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि ने जैन धर्म का प्रतिबोध दिया। उसके बड़े पुत्र का नाम वंठयोद्धार था, इन्हींके वंशज बांठिया कहलाये। इस वंश में संवत् १५०. के लगभग बादशाह हुमायूँ के समय में चिमनसिंहजी बांठिया नामक बढ़े प्रसिद्ध और धनवान व्यक्ति हुए। इन्होंने लाखों रुपये लगाकर कई जैन मन्दिरों का उद्धार करवाया और शत्रुजयका एक विशाल संघ निकाला जिसमें प्रति आदमी एक अकबरी मुहर लहाण में बांठी।
सेठ मौजीरामजी पाँठिया का खानदान भीनासर इस परिवार के लोग करीब संवत् १९१० में भिनासर में आकर बसे । - सेठ मौजीरामजी इस परिवार में सबसे अधिक प्रतिभा सम्पन व्यक्ति हुए। भाप ही ने लगभग ७५ वर्ष पूर्व कलकत्ता जाकर अपने और अपने छोटे भाई सेठ प्रेमराजजी के नाम से फर्म स्थापित की। मापने अपनी व्यापारिक कुशलता से फर्म की अच्छी उन्नति की। आपका स्वर्गवास सम्वत् १९४१ में हो गया। अप मन्दिर मार्गी जैनी थे-आप बड़े धर्म परायण थे। भापके सेठ पचालालजी नामक पुत्र हुए।
सेठ पन्नालालजी-आप सरल और शान्ति प्रकृति के पुरुष थे। व्यापार में भाप विशेष दिलचस्पी न रखते थे और अधिकतर अपने देश में ही रहा करते थे । आपके ३ पुत्र हुए सेठ सालिमचन्दजी, हमीरमलजी, और किशनचन्दजी । सेठ किशनचन्दजी कई वर्ष हुए इस फर्म से अलग हो गये हैं। इनमें से सेठ हमीरमलजी बड़े प्रतिभाशाली पुरुष थे। आपकी बुद्धिमत्ता से फर्म ने उत्तरोत्तर पति की। आपका जन्म सं. १९१९ में हुआ था। भाप बाईस सम्प्रदाय के जैनी ये और धर्म में भापकी बड़ी निष्टा थी, आपने अपने जीवन काल में बहुत सा रुपया सत्कार्यों में व्यय किया। यही नहीं बल्कि एक मोटी रकम ५१०००) रु. की एक मुश्त पुण्य खाते निकाल कर अलग फण्ड स्थापित किया और उसमें से समय २ पर अच्छे २ सार्वजनिक कार्यों में म्यप करते रहे। अभी भी इस फण्ड से एक कन्या पाठशाला सुचारुरूप से चल रही है, उसकी देख रेख सेठ सोहनलालजी और चम्पा
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पोसवाल जाति का इतिहास .
लालजी करते हैं। सेठजी बड़े उदार, दयालु, शान्त-स्वभाव तथा धर्म-परायण थे। भापका स्वर्गवास फाल्गुन वदी १२ सम्बत् १९८५ को हो गया। आपके तीन पुत्र हुए जिनके नाम क्रमवाः सेठ कनीरामजी, (जो इनके बड़े भाई सेठ सालिमचन्दजी के दत्तक है) सोहनलालजी, और चम्पालालनी हैं। आजकल आप तीनों भाई अलग २ हो गये हैं और अपना २ व्यापार स्वतन्त्र रूप से करते हैं।
इस परिवार की ओर से सभी सार्वजनिक कार्यों में सहायता प्रदान की जाती है। आपकी ओर से साधुमार्गी श्री श्वेस्था. जैन हितकारिणी संस्था में १९१११) रुपये प्रदान किये हैं। इसके अतिरिक्त भीनासर स्कूल की वर्तमान बिल्डिङ्ग भी इस परिवार तथा से० बहादुरमलजी बाँठिया द्वारा बनाई गई है इसी परिवार की विशेष सहायता से गंगाशहर से भीनासर तक पक्की सड़क बनाई गई थी। इसी प्रकार गाँव की प्रत्येक संस्था पिंजरापोल वगैरः में भी आपकी ओर से अच्छी सहायता दी जाती है ।
बीकानेर गवर्नमेंट में भी आप लोगों का अच्छा मान है। एच० एच० महाराजा साहिब बहादुर बीकानेर की ओर से एक खास रुका सेठ हमीरमलजी कनीरामजी के नाम से मिला हुआ है।
सेठ कनीरामजी-आप बड़े साधु प्रकृति के मिलनसार सज्जन हैं। आपका व्यापार पहिले सेठ मौजीरामजी पन्नालालजी के नाम से सम्मिलित रूप में होता था पर कई वर्षों से कलकते में से. सालिमचन्दजी कनीरामजी के नाम से स्वतन्त्र रूप में चलानी एवम् जूट का होता है।
इस फर्म की भी भिन्न २ नामों से ताम्बाहार (धुवड़ी) मनमुख (सिलहट) सोनातोला (बुगड़ा) नामक स्थानों पर और भी शाखायें हैं। इसके अतिरिक्त दिल्ली में इंडोंयूरोपियन मैशीनरी कम्पनी के नाम से प्रिंटिंग मशीन एवम् प्रिंटिंग सम्बन्धी सब प्रकार के सामान का व्यापार होता है । इस विषय का बहुत बड़ा स्टाक आपके यहाँ हमेशा मौजूद रहता है। इसकी लाहौर, कलकत्ता, बम्बई में ब्रांचे हैं इसके और भी हिस्सेदार हैं। आपके तीन पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः श्रीयुत तोलारामजी, रामलालजी,
और भैरोंदानजी हैं। सेठजी के इस समय एक पौत्र भी है जिसका नाम दौलतरामजी है। आपका बीकानेर स्टेट में अच्छा मान सम्मान है। महाराजा साहिब बहादुर बीकानेर की ओर से आपको कैफियत मिली हुई है। भाप सामयिक समाज सुधार के भी बड़े प्रेमी हैं।
सेठ सोहनलालजी-आप भी पहले शामिल में ही व्यवसाय करते थे, मगर तीन वर्षों से पृथक ही भाप अपना स्वतन्त्र म्यापार करते हैं।
भापका कलकर में मेसर्स मौजीराम पक्षालाल के नाम से १५ आर्मीनियन स्ट्रीट में छाते का बड़े स्केल पर व्यापार होता है तथा हमीरमल सोहनलाल के नाम से १० कैनिंग स्ट्रीट में कपड़े की चालानी का काम होता है। आपकी एक प्रांच चटगांव में भी है। आपके २ पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः सम्पतलालजी एवम् इन्द्रकुमारजी हैं।
सेठ चम्पालालजी-आप भी आजकल स्वतन्त्र व्यापार कर रहे हैं। आपका व्यापार कलकत्ता में मेसर्स हमीरमलजी चम्पालाल के नाम से नं०२ राजा उडमंट स्ट्रीट में होता है। इस फर्म की शाखाएं कई स्थानों में है जहाँ पर जूट को खरीदी का काम होता है । कलकत्ता में आपका जूट मारकेट में अच्छा नाम है । आपके बेलिङ्ग भी पास कराया हुआ है और आप बड़े मिलनसार, उत्साही, विधाप्रेमी तथा उदार हृदय हैं।
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ओसवाल जाति का इतिहास
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सेठ कनीरामजी बांठिया, भीनासर
सेठ बहादुरमलजी बांठिया, भीनासर.
XLELLES
सेठ तोलारामजी So कनीरामजी बांठिया, भीनासर.
सेठ बहादुरमलजी बांठिया के पुत्र, भीनासर.
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बठिया
सेठ पेमराज हजारीमल बाँठिया, भीना र इस फर्म के मालिकों का मूलनिवास स्थान भीनासर (बीकानेर) में है। आप ओसवाल जाति के स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय के सजन है। कच्चे में इस फर्म को स्थापना करीब ८५ वर्ष पहले मौजीराम प्रेमराज के नाम से हुई थी, आप दोनों सहोदर भ्राता थे। उसके पश्चात् सेठ प्रेमराजबी के पत्र सेठ हजारीमलजी मंगलचन्दजी ने उपरोक्त फर्म से पृथक होकर सं० १९३९ में प्रेमराज हजारीमलके नाम से फर्म की स्थापना की। आपके उद्योग से इस दुकान की अच्छी उन्नति हुई। हजारीमकजी का जन्म सं० १९१३ में भऔर स्वर्गवास सं. १९९९ में हुआ। मंगलचन्दजी का जन्म सं० १९२० में हुभाआपका देहावसान सं० १९५० में अल्पावस्था में ही हो गया। आप बड़े उदार, तथा सदाचारी. पुरुष थे। इनके श्री रिखबचन्दजी दत्तक लिये गये थे। आपका जन्म १९२७ में और स्वर्गवास सं. १९६३ में हुआ था।
इस समय सेठ रिखबचन्दजी के पुत्र श्रीयुत बहादुरमलजी हैं। आप बड़े योग्य, तथा उदार पुरुष हैं। भापके इस समय तीन पुत्र हैं जिनके माम क्रमशः श्रीयुक्त तोलारामजी श्यामलालजी और वन्शीलालजी है। फर्म का कार्य आपकी तथा भापके बड़े पुत्र की देख भाल में सुचारुरूप से चल
इस खानदान की दान-धर्म और सार्वजनिक कार्यों की ओर बड़ी रुचि रही है। श्री हजारीमलजी ने अपने जीवन काल ही में एक लाख इकतालीस हजार रुपये का दान किया था जिससे इस समय कई संस्थाओं को सहायता मिल रही है। इसके पहले भी भाप अनेकों बार अपनी दानवीरता का परि. चय समय २ पर देते रहे हैं। आपकी ओर से भीनासर में एक जैन बवेताम्बर औषधालय भी चल रहा है। इसके भतिरिक्त यहाँ की पिजरापोल की विल्डिङ्ग भी आप ही के द्वारा प्रदान की है तथा भोसवाल पन्चायती के मकान की भूमि भी आपने ही प्रदान की है।
इसके अतिरिक्त यहाँ के व्यवहारिक स्कूल की बिल्डिङ्ग भी मौजीराम पनालाल की फर्म के मालिक सेठ हमीरमलजी, कनीरामजी की और भापकी भोर से ही प्रदान की गई है और आपने ९० १९१1 साधुमार्गी जैन हितकारिणी संस्था में दान दिया है। .
सेठ बिरदीचन्दजी बांठिया का परिवार, बीकानेर इस परिवार के लोग बाईस सम्प्रदाय के मानने वाले हैं। इसमें सर्व प्रथम सेठ साहबसिंगजी हुए । आपके पुत्र फूलचन्दजी बीकानेर ही में रहकर व्यापार करते रहे। आपके पुत्र जोरावरमलजी और तिलोकचन्दजी हुए। इनमें से तिलोकचन्दजी का परिवार प्रतापगढ़ चला गया। जिसका परिचय प्रतापगढ़ के बांठिया परिवार के नाम से दिया जा रहा है। सेठ जोरावरमलजी बीकानेर से व्यापार के निमित्त मद्रास गये और वहाँ अग्रेजों के साथ बैंकिग व्यापार प्रारंभ किया। इसमें आपको अच्छी सफलता रही। वहीं आपका स्वर्गवास हो गया । आपके बिरदीचन्दजी और लखमीचन्दजी नामक दो पुत्र हुए । लखमीचन्दजी का अल्पायु ही में स्वर्गवास हो गया। सेठ बिरदीचन्दजी पहले पहल कलकत्ता आये और अपने पुत्र किशनमलजी के साथ बिरदीचन्द
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बदनमल के नाम से फर्म स्थापित की। कुछ समय पश्चात् आपके दूसरे पुत्र बदनमलजी भी इसमें शामिल हो गये । आपके व्यवसाय में उतरते ही फर्म की दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति होने लगी। संबत १९७४ में बिरदी चन्दजी का स्वर्गवास हो गया। आप बड़े धार्मिक प्रवृति के पुरुष थे। आपका समाज में बड़ा भादर, सत्कार था। आपके स्वर्गवास के १० वर्ष पश्चात् आपके दोनों पुत्र अलग २ हो गये । संवत् १९८५ में किशनमलजी का स्वर्गवास हो गया।
- इस समय किशनमलजी के पुत्र नथमलजी, मेससं विरदीचंद नथमल के नाम से मनोहरदास कटला में कपड़े का व्यापार करते हैं । आप सजन पुरुष हैं। सेठ बदनमलजी भी मनोहरदास के कटले में विरदीचन्द बदनमल के नाम से कपड़े का व्यापार करते हैं । भापकी प्रकृति भी विशेष कर साधु सेवा और धर्मध्यान की ओर रहती है। बीकानेर की ओसवाल समाज में आप अच्छे प्रतिष्ठित व्यक्ति माने जाते हैं। म्यापार में तो आपने बहुत ज्यादा उन्नति की है।
प्रतापगढ़ का बांठिया परिवार इस परिवार के प्रथम पुरुष सेठ खूबचन्दजी और सेठ सबलसिंहजी दोनों भाई बीकानेर से प्रताप गढ़ नामक स्थान पर आये। यहां आकर खुवचंदजी तत्कालीन फर्म मेसर्स गणेशदास किशनाजी के यहाँ मुनीम हो गये । आपका स्वर्गवास हो जाने पर सेठ सवलसिंहजी ने यहाँ की महारानी (राजा दलपतसिंहजी की पत्नी के साझे में वैकिंग का व्यापार प्रारम्भ किया। इसमें आपको अच्छी सफलता रही। इसी कारण से तत्कालीन महाराजा साहब के और आपके बीच में बहत घनिष्ठता होगई। आप बड़े कर्मवीर चतर और वीर व्यक्ति थे। महाराजा आपका अच्छा सम्मान करते थे। कहा जाता है कि जब २ महाराजा देवलिया रहते थे तब २ प्रतापगढ़ का सारा शासन भार आप पर और भोजराजजी दागढ़िया तथा भापाजी पंड़ित पर छोड़ जाते थे। संवत् १९१४ के गदर के समय में आपने अपनी बुद्धिमानी और होशियारी से बागियों से राज्य की रक्षा की थी, जिससे महाराजा बहुत खुश हुए और इसके उपलक्ष्य में आपको एक प्रशंसा सूचक परवाना इनायत किया । भापका स्वर्गवास होगया । आपके सौभागमलजी बिरदीचन्दजी नामक दो पुत्र हुए । सेठ खूबचन्दजी के पुत्र का नाम लखमीचन्दजी था।
सेठ लखमीचंदजो के पुत्र गुमानमलजी हुए। आपके यहाँ दानमलजी दत्तक भाये। दानमलजी के धरमचन्दजी नामक पुत्र हैं। सेठ सौभागमलजी के वंश में आपके पौत्र मिश्रीमलजी और रूपचन्दजी हैं। रूपचन्दजी के पुत्र का नाम कंचनमसजी हैं। आप सब लोग प्रतापगढ़ में निवास करते हैं।
सेठ बिरदीचन्दजी अपने जीवनभर तक स्टेट के इजारे का काम करते रहे। आपके सुजानमलजी और चन्दनमलजी नामक दो पुत्र हुए । इनमें चन्दनमलजी का स्वर्गवास हो गया है।
बांठिया मुंशी सुजानमखजी-आप बड़े योग्य, प्रतिभा सम्पन्न और कारगुजार व्यक्ति हैं। भापका अध्ययन अंग्रेजी और फारसी में हुआ । भाप उन व्यक्तियों में से हैं जिन्होंने अपने पैरों पर खड़े होकर आशातीत उन्नति की है। प्रारंभ में भाप साधारण काम पर नौकर हुए और क्रमशः अपनी योग्यता, बुद्धिमानी और होशियारी से कई जगह कामदार और दीवान रहे। आपका तत्कालीन पोलिटिकल आफिसरों से बहुत मेल
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ओसवाल जाति का इतिहास,
सेठ चांदमलजी बांठिया ( बीजराज जोरावरमल ), कलकत्ता.
लाला संतरामजी जैन (संतराम मंगतराम ) अम्बाला.
कुं० पूनमचंदजी बांटिया S/o गंदमलजी बांठिया.
सेठ नथमलजी बांटिया (बिरदीचंद नथमल ) कलकत्ता.
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बांठिया
रहा। उन्होंने भापको कई प्रशंसा पत्र प्रदान किये हैं। भापको पिसीका ठिकाने से बाज जागीर मिली हो तथा प्रतापगढ़ स्टेट से पेशन मिल रही है। इस समय-मापसीतामढमैं शांतिलाम कर रहे हैं। आपका धार्मिक जीवन भी अच्छा है। उधर ओसवाल समाज में भी भाप प्रतिक्षित और सम्माननीय व्यक्ति माने जाते हैं। आपके जसवंतसिंहजी नामक एक पुत्र हैं। आप इस समय सीतामक स्टेट में नायव दीवान है। आपकी पढ़ाई B. A. तक हुई है। माप शेरसिंहजी, सवाईसिंहजी, समरसिंहजी भीर विमलसिंहजी नामक चार पुत्र हैं। भाप सब लोग स्थानकवासी संप्रदाय के भनुपायी हैं।
सेठ मागचन्दजी बांठिया का परिवार, जयपुर
इस परिवार के पूर्वजों का मूल निवास स्थान बीकानेर था। वहां से चुरू होते हुए करीब ... वर्ष पूर्व सेठ भागचन्दजी जयपुर माचे। यहां आकर आपने जवाहरात का व्यापार प्रारम्भ किया। इसमें मापको मच्छीसमकता रही। यहां की स्टेट में भी आपका बहुत सम्मन था। भापको यहां सेठ की पदवी मिली हुई थी। भापका स्वर्गवास होगया । आपके छोगमछजी और बींजराजजी नामक दो पुत्र हुए।
सेठ छोगमलजी-आप बड़े प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे। भाप जीवन भर तक सरकारी नौकरी करते रहे। आप उस समय में जयपुर स्टेट के कस्टम-विभाग के सबसे बड़े भाफिसर थे। आपके यहां सूरजमलजी दत्तक भाये। भापका भी स्वर्गवास होगया । इस समय मापके दत्तक पुत्र मोतीलालनी विद्यमान हैं और छोगमल सूरजमल के नाम से जयपुर ही में लेन देन का व्यापार करते हैं। आपके पुत्र का नाम पनालालजी हैं।
सेठ बांजराजजी-बाप व्यापार के निमित्त कलकत्ता गये और व्याज का काम करने लगे। आप संवत् १९५० में बनाए बैंक की सिराजगंज और जलपाईगुड़ी नामक स्थानों के खजांची नियुक्त हुए । भाप का स्वर्गवास होगया । भापके जोसंबरमलजी, सुरजमलजी, कस्तूरचन्दजी, सौभागमलजी और चांदमलनी नामक पाँच पुत्र हुए। इनमें से जोरावरमलजी का स्वर्गवास हो गया। उनके अमरचन्दजी और उत्तमचन्दजी नामक दो पुत्र हैं। सूरजमलजी दत्तक चले गये। कस्तूरचन्दजी जयपुर में मौजूद है। सौभागमलजी का तथा आपके पुत्र हीरालालजी दोनों का स्वर्गवास होगया।
सेठ चांदमलजी-आपके समय में यह फर्म पटना, चटगांव, अकिवाव भादि स्थानों पर इम्पीरियल बैंक की खजांची नियुक्त हुई। इसके अतिरिक मापने बांठिया एण्ड कम्पनी के नाम से विलायत में भी चांदी सोने का काम करने के लिये फर्म खोली । इस समय भापका म्यापार कलकत्ता, जलपाईगही और चटगांव में हो रहा है। यह फर्म चाय बागान की मैनेजिंग एजन्टहै। चटगाँव में भापकी जमींदारी भी है। इस समय आपकी फर्म पर बींजराज जोरावरमकके नाम से व्यापार होता है। अन्यत्र बुलियन कम्पनी लि.के नाम से भाप व्यापार करते हैं। भापके पूनमचन्दजी और पदमचन्दजी नामक पुत्र हैं। इनमें से बड़े व्यापार में सहयोग लेते हैं।
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मोसवाल जाति का इतिहास
श्री मगनमलजी बांठिया का परिवार, अजमेर इस परिवार के सेठ मगनमलजी ने कई बड़े २ ठिकानों पर मुनीमात की सर्विस की । आपके इस समय चार पुत्र विद्यमान हैं जिनके नाम क्रमश: बा. मानकमलजी, कस्तूरमलजी, कल्याणमलजी और इन्द्रमलजी हैं।
' ' माणकमलजी बांठिया-आपका अध्ययन मेट्रिक तक हुआ। भाप करीव ३० वर्षों से रेल्वे में सर्विस कर रहे हैं। आप मिलनसार सज्जन हैं।
___ कस्तूरमलजी बांठिया-आपका जन्म संवत् १९५१ का है। आपने बी० काम करने के पश्चात् बिड़ला प्रादर्स लिमिटेड कलकत्ता के यहाँ सर्विस की। यहां आपकी होशियारी और बुद्धिमानी से फर्म के मालिक बहुत प्रसन्न रहे। यहां तक कि आपको उन्होंने अपनी लण्डन फर्म दी ईस्ट इण्डिया प्रोड्यूज कम्पनी लिमिटेड के मैनेजर बनाकर भेजे । इस फर्म पर भी आपने बहुत सफलता के साथ काम किया । वहां आप इण्डियन चेम्बर आफ कामर्स के वाइस प्रेसिडेण्ट तथा आर्य भवन के सेक्रेटरी रहे थे। आप विलायत सकुटुम्ब गये थे। आजकल आप अजमेर में बांठिया एण्ड कम्पनी के नाम से बुक सेलिंग का व्यवसाय करते हैं। आपको व्यापारिक विषयों का अच्छा ज्ञान है। आपने इस विषय पर 'बहीखाता' 'मुनीमी' इत्यादि पुस्तकें भी लिखी हैं। आप मिलनसार और सरल व्यक्ति हैं।
कल्याणमलजी बांठिया-आप ने बी० एस० सी० तक शिक्षा प्राप्त की । आप कोटे के सेठ समीरमलजी बांठिया के यहां दत्तक चले गये। कोटा स्टेट में आप कई स्थानों पर नाजिम रहे। इस समय भाप इन्द्रगढ़ ठिकाने के कामदार हैं। आपभी मिलनसार और सज्जन व्यक्ति है। - इन्द्रमलजी बांठिया-आप इस समय अपने बड़े भ्राता कस्तूरमलजी के साथ व्यापार में सह. योग प्रदान करते हैं।
सेठ बख्तावरमल जीवनमल बांठिया, सुजानगढ़ इस परिवार के लोग बांठड़ी नामक स्थान के निवासी थे। वहाँ से करीब १०० वर्ष पूर्व सुजानगढ़ में आये। इन्हीं में सेठ बींजराजजी हुए। आपने पहले पहले बंगाल में जाकर शेरपुरा (मैमनसिंह) में साधारण दुकानदारी का काम प्रारम्भ किया। पश्चात् सफलता मिलने पर और भी शाखाएं स्थापित की। इन सब फर्मों में आपको अच्छा लाभ रहा। आप तेरापन्थी सम्प्रदाय के अनुयायी थे। आपका स्वर्गवास होगया । आपके रूपचन्दजी, बख्तावरमलजी और हजारीमलजी नामक तीन पुत्र हुए। संवत् १९६४ तक इन सबके शामिल में व्यापार होता रहा पश्चात् फर्म बन्द हो गई और आप लोग अलग अलग स्वतन्त्र रूप से व्यापार करने लगे । रूपचन्दजी का स्वर्गवास होगया हजारीमलजी के कोई पुत्र नहीं है। बख्तावरमलजी का स्वर्गवास भी हो गया। आपके जीवनमलजी नामक एक पुत्र है।
बाबू जीवनमलजी-आपने प्रारंभ में कपड़े की दलाली का काम प्रारंभ किया । पश्चात् वेगराजजी चोरडिया विदासर वालों के साझे में कलकत्ता में मोतीलाल सोहनलाल के नाम से व्यापार प्रारम्भ किया। एक वर्ष पश्चात् इसी नाम को बदलकर आपने जीवनमल सोहनलाल कर दिया । सोहनलाल
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नाहटा
जी, बेगराजजी के पुत्र हैं। इस समय इस फर्म पर नम्बर ४ दहीहटा में चलानी का काम होता है। इसके अतिरिक्त इस फर्म की खुलना, लालमनीरहार, और मैमनसिंह में मित्र २ नामों की फर्मे हैं जहां पर कपड़े का व्यापार होता है। मैमनसिंह में भापकी चार और ब्रांचे हैं। उन पर भी कपड़ा एवम् लकड़ी का व्यापार होता है।
सेठ शोभाचन्दजी बांठिया का परिवार, पनरोठी इस फर्म के मालिकों का मूलनिवास स्थान नागौर का है। आप ओसवाल जाति के बोठिया गौत्रीय जैन श्वेताम्बर मंदिर माम्नाय को मानने वाले सज्जन हैं।
श्री शोभाचन्दजी का जन्म संवत् १९३० का था। आप बड़े साहसी और कर्मवीर पुरुष थे। आप संवत् १९५० में पहले पहल नागौर से गुलेचगढ़ गये और वहां अपना फर्म स्थापित किया। वहाँ से संवत् १९०४ में पनरोटी आये और यहां आकर शोभाचन्द सुगनचन्द के नाम से अपना फर्म स्थापित किया। संवत् १९८४ में आपका स्वर्गवास होगया। .. मापके एक पुत्र है जिनका नाम सुगनमलजी हैं। आपका जन्म संवत् १९५२ का है। आप इस समय पनरोटी में बैंकिग का व्यापार करते हैं । आपके तीन पुत्र हैं जिनके नाम भवरलालजी, जवेरी लालजी और मगनराजजी हैं। श्री सुगनमलजी ने संवत् १९८९ में कोलर में मेसर्स सुगनमल जवरीमल के नाम से बैटिग म्यवसाय की दुकान खोली है।
श्रीयुत् शोभाचन्दजी बड़े धार्मिक और योग्य पुरुष थे। आपकी भोर से पनरोटी में सदाबृत चालू है। शोभाचन्दजी का स्वर्गवास होने पर आपके पुत्र सुगनचन्दनी ने ५०००) धार्मिक कार्यों में लगाये। इसी प्रकार आपने ओशियां की धर्मशाला में एक कमरा बनवाया और पनरोटी की स्मशान भूमि में एक धर्मशाला बनवाई।
नाहटा सेठ पूनमचंद औंकारदास नाहटा, भुसावल इस परिवार का मूल निवास जेतारण (जोधपुर ) है। देश से सेठ हंसराजजी नाहटा लगभग १२५ साल पहले व्यापार के निमित्त बामणोद (भुसावल) आये । भापके पुत्र अमरचन्दजी नाहटा के हाथों से इस दुकान की काफी तरक्की हुई। आपका संवत् १९५९ में स्वर्गवास हुआ। आपके ताराचन्दजी तथा औंकारदासजी नामक दो पुत्र हुए इनमें ताराचन्द जी का संवत् १९५९ में स्वर्गवास होगया। भापके पुत्र उदयचन्दजी विद्यमान हैं।
ओंकारदासजी नाहटा-आप अमरचन्दजी नाहटा के पुत्र थे। आपने भुसावल तथा आसपास के ओसवाल समाज में उत्तम प्रतिष्ठा प्राप्त की। आपके पुत्र सेठ पूनमचन्दजी नाहटा विद्यमान हैं।
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मोसवाल जाति का इतिहास
पूनमचंदजी नाहटा-आप शिक्षा प्रेमी तथा सुधार प्रिय सज्जन है। लगभग १२ सालों से माप ओसवाल शिक्षण संस्था के महा मन्त्री हैं। यह संस्था ओसवाल युवकों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने में आर्थिक सहायता देती है। इस संस्था का तमाम संचालन माप ही के जिम्मे है। भाप भुसावल म्युनिसिपैलिटी के वाइस प्रेसिडेंट भी रहे हैं। जातीय सुधार के कामों में भाप बढ़े उत्साह से भाग लेते हैं। भाप खानदेश तथा बरार के शिक्षित ओसवाल सज्जनों में वजनदार तथा अग्रगण्य व्यक्ति हैं। आपके यहाँ पूनमचन्द नारायणदास के नाम से कृषि तथा साहुकारी लेनदेन का काम होता है। .. इस प्रकार सेठ उदवचन्दजी नाहटा के जवरीलालजी, मंसुखलालजी तथा सरूपचन्दजी नामक ३ पुत्र हैं। इनमें जंवरीलालजी नाहटा एडवोकेट धूलिया में प्रेक्टिस करते हैं।
सेठ चांदमल भोजराज नाहटा, मोमासर इस परिवार के पूर्व पुरुष सेठ वीरभानजी करीब १०० वर्ष पूर्व तोल्यासर को छोड़कर मोमासर नामक स्थान पर आकर बसे। भापके ६ पुत्र हुए, जिनके नाम क्रमशः हुकमचन्दजी, छोगमलजी, गुलाबचन्दजी, चौथमलजी, केशरीचन्दजी और शेरमलजी था । जिनका परिवार इस समय अलग २ व्यापार कर रहा है। यह फर्म सेठ गुलाबचन्दजी के परिवार की है।
सेठ गुलाबचन्दजी-आपने कलकत्ता भाते ही पहले मोमासर निवासी सतीदास उम्मेदमल के यहां नौकरी की। पश्चात् आप महासिंह राय मेघराज बहादुर के यहां रहे। इसके पश्चात् आपने अपनी स्वतन्त्र फर्म स्थापित की। आप बड़े योग्य, व्यापार चतुर और प्रतिभावान व्यक्ति थे। आप के हाथों से फर्म की बहुत उन्नति हुई। आपका स्वर्गवास संवत् १९८७ में होगया। आपके कर्मचन्दजी नामक एक पुत्र हुए।
सेठ करमचंदजी-आपका जन्म संवत् १९३८ का है। आप भी अपने पिताजी के साथ व्यापार कार्य करते रहे। आपने अपनी एक और फर्म नबावगंज में खोली और जूट का व्यापार प्रारम्भ किया । इसके अतिरिक्त आपने शोराक मिल, न्यू शोरोक मिल, सूरतमिल, स्टेंडर्ड मिल, चायना मिल, मफतलाल भाईलमिल, अंबिका मिल भादि कई मिलों की दलाली और सोल ब्रोकरी का काम किया। इस व्यवसाय में भापको बहुत सफलता रही। आपका स्वर्गवास आपके पिताजी के चार रोज पश्चात् ही होगया । इस समय आपके आसकरनजी चांदमलजी और पनेचन्दजी नामक तीन पुत्र हैं। आप तीनों भ्राता शिक्षित, मिलनसार और सज्जन व्यक्ति हैं। आप बड़ी होशियारी से अपनी फर्म का संचालन कार्य कर रहे हैं। भाप श्वेताम्बर तेरापंथी संप्रदाय के अनुयायी हैं।
सेठ आसकरणजी के हनुतमलजी, बच्छराजजी, मगराजजी और दौलतरामजी नामक पुत्र हैं। चांदमलजी के पुत्रों का नाम अमिचन्दजी और शुभकरनजी हैं। आप सब लोग अभी पढ़ रहे हैं।
___ इस फर्म का व्यापार कलकत्ता में उपरोक्त नाम से नं०४ रोजा उडमण्ड स्ट्रीट में होता है। इसकी ब्रांच मवावगंज में है। जहां जूट और कमीशन का काम होता है। मोमासर में यह परिवार बहुत प्रतिष्ठित माना जाता है।
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ गुलाबचंदजी नाहटा (चांदमल भोजराज) मोमासर.
सेठ करमचंदजो नाहटा (चांदमल भोजराज) मोमासर.
सेठ प्रासकरणजी नाहटा (चांदमल भोजराज) मोमासर.
सेठ चांदमलजी नाहटा (चांदमल भोजराज) मोमासर.
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नाहटा
सेठ मुन्तानचंद चौथमल नाहटा, छापर - इस परिवार के पुरुष सेठ खड्गसिहजी के पुत्र हुकमचन्दजी और मानमलजी के पुत्र जोरावरमल जी और मुल्तानचन्दजी करीब ८० वर्ष पूर्व चाइबास नामक स्थान से छापर में आये। इस समय आप लोगों की बहुत साधारण स्थिति थी। आप लोग पहले पहल बंगाल प्रांत के ग्वालपाड़ा नामक स्थान पर गये एवम् हुकुमचन्द मुल्तानचन्द के नाम से अपनी फर्म स्थापित की। इसमें जब अच्छी सफलता रही तब आपने इसी नाम से कलकत्ता में भी अपनी एक ब्रांच खोली। इन दोनों फर्मों से भापको अच्छा लाभ हमा। संवत् १९४९ में आप लोग अलग होगये। इसी समय से हकमचन्दजी के वंशज अपना अलग व्यापार कर रहे हैं। . सेठ जोरावरमलजी का तथा सेठ मुल्तानचन्दजी का स्वर्गवास हो गया। सेठ जोरावरमलजी के पुत्र हुए जिनके नाम सेठ चौथमलजी और तखतमलजी था। इनमें से तखतमलजी सेठ मुस्तानचन्दजी के नाम पर इत्तक रहे। आप दोनों भाइयों ने भी फर्म का योग्यता पूर्वक संचालन किया। इसी समय से इस फर्म पर उपरोक नाम पड़ रहा है। आप दोनों भाई बड़े प्रतिभा संपन्न थे। आपने पान बाज़ार, श्यामपुर, कुईमारी मौ. सरू नगर भादि स्थानों पर भिन्न २ नामों से अपनी शाखाएं स्थापित की। सेठ चौथमलजी का स्वर्गवास होगया। आपके पृथ्वीराजजी, बरदीचन्दजी और कुन्दनमलजी नामक तीन पुत्र हैं। सेठ तखतमलजो इस समय विद्यमान हैं। आपके इस समय ६ पुत्र हैं जिनके नाम मनालालजी, पदमचन्दजी, मोतीलालजी वगैरह हैं। आप सब लोग व्यापार संचालन में भाग लेते हैं। आप लोगों ने मऊनाट मंजन में एक और ब्रांच खोली हैं। जहां स्थानीय बने हुए कपड़े का व्यापार होता है। आप लोग मिलनसार और सज्जन है। बाबू मोतीलालजी बी. ए. में अध्ययन कर रहे हैं । आप करीब तीन साल से भोसवाल नवयुवक के ज्वाइंट सम्पादक हैं। आप कवि भी हैं।
___ आप लोगों का उपरोक्त स्थानों पर भिन्न भिन्न नामों से वैरिज, जूट और कपड़े का व्यापार होता है। आप लौग तेरापन्थी श्वेताम्बर जैन संप्रदाय के अनुयायी हैं।
सेठ उदयचन्दजी राजरूपजी नाहटा, बीकानेर, इस परिवार के पूर्व पुरुषों का मलनिवास स्थान कानसर नामक ग्राम था। वहाँ से ये लोग जलालसर होते हुए डाइँसर नामक स्थान पर आये। यहाँ से फिर सेठ जैतरूपजी के पुत्र उदयचन्दजी, राजरूपजी, देवचन्दजी और बुधमलजी करीब ५० वर्ष पूर्व बीकानेर आकर बसे।
सेठ उदयचन्दजी का परिवार-सेठ उदयचन्दजी इस परिवार में नामांकित व्यक्ति हुए। संवत् १९०० के करीब आप ग्वालपाड़ा (बंगाल) नामक स्थान पर गये एवम् वहाँ अपनी एक फर्म स्थापित की । इसमें आपको बहुत सफलता रही । आपने संवत् १९०५ में यहाँ एक जैन मन्दिर भी श्री संघ की ओर से बनवाया। तथा उसमें अच्छी सहायता भी प्रदान की। आपके पुत्र न होने से भापके नाम पर दानमलजी दत्तक लिये मये । आप विशेष कर देश ही में रहे । आप नि: संतान स्वर्गवासी हो गये अतएव आपके नाम पर मेघराजजनी दत्तक भाये। आजकल आप ही इस फर्म का संचालन करते हैं। माप मिलनसार व्यक्ति हैं। आपके केसरीचन्दजी और बसंतीलालजी नामक दो पुत्र हैं।
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
सेठ राजरूपजी देवचन्दजी का परिवार - आप दोनों भाई बीकानेर में व्यवसाय करते रहे । आप लोगों का स्वर्गवास होगया । सेठ राजरूपजी के तीन पुत्र लखमीचन्दजी, दानमलजी और शंकरदासजी हुए। दानमलजी दत्तक चले गये । सेठ लखमीचन्दजी ग्वालपाड़ा का काम काज देखते रहे । आजकल आपके भँवरलालजी नामक एक पुत्र हैं। आप पढ़े लिखे सज्जन हैं । सेठ शंकरदानजी इस समय विद्यमान हैं। आपने अपने समय में फर्म की और भी शाखाएँ खोलकर उन्नति की। आपके इस समय भैरोंदानजी, अभयराजजी, सुभेराजजी, मेघराजजी और अगरचन्दजी नामक पुत्र हैं इनमें मेघराजजी दत्तक चले गये हैं । शेष सब लोग व्यवसाय का संचालन करते हैं। सेठ भेरोंदानजी के पुत्र का नाम भँवरलालजी हैं।
श्री अगरचन्दजी तथा भँवरलालजी को इतिहास का काफी शौक है। आपने अपनी निज की एक लायब्रेरी खोलरखी है। जिसमें १००० के करीब हस्त लिखित ग्रंथ हैं । अभय ग्रंथमाला के नाम से एक सिरीज निकालना भी प्रारम्भ की है।
साथ ही आप लोगों ने
इस परिवार का व्यापार इस समय कलकत्ता, बोलपुर सिलहट वगैरह २ स्थानों पर होता है । सरदार शहर का नाहटा परिवार
उपरोक्त नाहटा परिवार के पूर्व पुरुष सेठ हुकुमचन्दजी लाडनू से सरदार शहर में आकर बसे आपके सूरजमलजी हीरालालजी, बुधमलजी और चाँदमलजी नामक चार पुत्र हुए ।
सेठ बुधमलजी - आप बड़े प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे । संवत् १९१० में आपने कलकत्ता में सूरजमल बुधमल के नाम से अपनी फर्म स्थापित की। इसके पश्चात् आप सब भाई अलग २ हो गये । उसके पश्चात् संवत् १९२६ में दो भाइयों की सूरजमल चदमल के नाम से और दो की हीरालाल बुधमल के नाम से कपड़े की दुकानें स्थापित हुईं। इन चारों भाइयों का स्वर्गवास हो गया है और इनके वंशज इस समय अलग-अलग अपना कार बार करते हैं । सेठ सूरजमलजी का फर्म इस समय " सूरजमल धनराज" के नाम से चल रहा है। सेठ सूरजमलजी धनराजजी तथा धनराजजी के पुत्र शोभाचन्दजी स्वर्गवास हो गया है। शोभाचन्दजी के पुत्र बृद्धिचन्दजी वर्त्तमान में इस फर्म के मालिक हैं। आपके यहाँ १० ऑर्मेनियन स्ट्रीट में बैकिग कारबार होता है आपके एक पुत्र है जिनका नाम जीवनमलजी है ।
सेठ हीरालालजी के भैरोंदानजी चुनीलालजी और जुहारमलजी नामक तीन पुत्र हुए। आप लोग हीरालाल भैरोंदान के नाम से कपड़े का व्यापार करते रहे इन तीनों भाइयों का स्वर्गवास हो चुका है । सेठ मैदानजी के पुत्र बालचन्दजी इस समय लाइफ़ और फायर इन्स्यूरेंस की दलाली करते हैं। आप पूर्वीय और पश्चात्य दर्शनशास्त्रों के अच्छे जानकार हैं। लेखवकला में भी आप दक्ष हैं। आपके पुत्र का नाम पूनमचन्दजी है। सेठ चुन्नीलालजी के करणीदानजी और करणीदानजी के छगनमलजी नामक पुत्र
। जुहारमलजी के पुत्र मोतीलालजी हैं आप पाट की दलाली करते हैं। पाठ के व्यापारियों में आपका अच्छा सम्मान है । आपके प्सराजजी और शुभकरणजी नामक दो पुत्र हैं।
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ओसवाल जाति का इतिहास
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बाबू चम्पालालजी नाहटा (नाटा परिवार) सरदारशहर.
बाबू चन्दनमलजी नाहटा (नाहटा परिवार) सरदारशहर.
बाबू माणकचंदजी नाहटा (नाहटा परिवार) सरदारशहर,
बाबू पनेचंदजी नाहटा (गंदमल भोजराज) मोमासर.
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ओसवाल जाति का इतिहास
बाबू मोतीलालजी नाहटा (नाहटा परिवार) सरदारशहर.
बाबू शेषकरणजी नाहटा (नाहटा परिवार) सरदारशहर.
बाबू बालचंदजो नाहटा (नाहटा परिवार) सरदारशहर.
कुँवर तोलारामजी नाहटा (लखमीचंद तोलाराम) राजगढ़
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नाहटा
सेठ बुधमलजी ने अपने भाइयों से अलग होकर संवत् १९५४ में बुधमक नथमलके नाम से अपना फर्म स्थापित किया। इस पर कपड़े और बैकिग का काम होता था आपके हाथों से इस फर्म की बहुत उन्नति हुई। आप बड़े योग्य और व्यापार कुशल सजन थे। आपका स्वर्गवास सं० १९४६ में हुभा । आपके नथमलजी उदयचन्दजी और जयचन्दजी नामक दीन पुत्र हुए। इनमें से उदयचन्दजी अपने काका चाँदमलजी के यहाँ दत्तक चले गये। .
नथमलजी तथा जयचन्दजी दोनों भाईपहले 'बुधमल नथमल' के नाम से शामिलात में कारवार करते रहे। पश्चात् सं० १९८२ में अलग हो गये और अलग २ नाम से अपना व्यापार करने लगे।
नथमलजी ने अपने शामलात वाले फर्म की बहुत तरक्की की। आपका स्थानीय पंच-पंचायती में बहुत नाम था। आजकल आप देश ही में विशेष रूप से रहते हैं। आपके पुत्र नेमीचन्दजी फर्म का
र्य संचालन करते हैं इस समय आपका फर्म 'नेमीचन्द धर्मचन्द' के नाम से . पोयगीजचर्च स्टीट में चल रहा है। नेमीचन्दजी बड़े सजन, मिलनसार एवं खुश मिजाज व्यक्ति हैं। आपके पुत्र का नाम धर्मचन्दजी है। नथमलजी के छोटे पुत्र मानमलजी हैं। आपने सं० १९८४ में अपना अलग फर्म 'बुधमक मानमल' के नाम से स्थापित किया था।
__जयचन्दलालजी-आप पहले अपने बड़े भाई नथमलजी के साथ शामलात वाले फर्म में व्यापार करते रहे। पश्चात् जब भाप अलग हुए तब 'बुधम जयचन्दलाल' के नाम से व्यापार करने लगे जो अब भी हो रहा है। आप भी अच्छे मिलनसार एवं सज्जन व्यक्ति थे। भापका ध्यान धार्मिकता की तरफ विशेष रहता था। आपका स्वर्गवास अभी हाल में ही सं० १९९० में हो गया। आपके चम्पालालजी चन्दनमलजी और मानिकचन्दजी नामक सीन पुत्र हैं। चम्पालालजी और चन्दनमलजी तो अपने पिता के स्थापित किए फर्म का कार्य संचालन करते हैं और मानिकचन्दजी अभी बालक हैं । आपके फर्म में इस समय कपड़े व पाट का व्यापार होता है।
चम्पालालजी-आप बड़े उत्साही, मिलनसार एवं होशियार व्यक्ति हैं। आपने होमियोपैथिक चिकित्सा-विज्ञान का अच्छा अभ्यास किया है और बाकायदा अध्ययन कर एच. एम. बी. पास किया है। आप रोगियों का इलाज बड़ी तत्परता व प्रेम से बिना मूल्य लिए करते हैं।
सेठ चाँदमलजीने भी पूर्वोक्त फर्म से अलग होकर अपना स्वतंत्र कपड़े का व्यापार 'चाँदमल उदयचन्द' के नाम से शुरू किया था। आपका स्वर्गवास होने पर आपके दत्तक पुत्र उदयचन्दजी ने उक्त फर्म की अच्छी उन्नति की। आपके समय में कपड़े व ब्याज का काम होता रहा। आपका छोटी उमर में ही स्वर्गवास हो गयो। आपके तीन पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः सैंसकरणजी कन्हैयालालजी और मूखचन्दजी हैं। आप तीनों भाई सम्मिलित रूप से इस समय नं. ११३ मनोहरदास के कटरे में कपड़े का व्यापार करते हैं। आपकी वर्तमान फर्म का नाम-'उदयचन्द बच्छराज' है। आप शिष्ट, सभ्य और विनम्र स्वभाव के एवं मिलनसार । संसकरनजी सामाजिकता और पंच-पंचायती में विशेष भाग लेते हैं। आपके पुत्र का नाम बच्छराजजी और मूलचन्दजी के पुत्र का नाम मोहनलालजी है। आप सब लोग (नाहटा परिवार) तेरापंथी श्वेताम्बर जैन धर्म के माननेवाले हैं।
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
सेठ लखमीचन्द तोलाराम नाहटा, राजगढ़
इस परिवार के सेठ तारोचन्दजी, उदयचन्दजी, छतीदासजी और पनेवन्दजी नामक चार भाई सम्वत् १९१८ में कचोर नामक स्थान से राजगढ़ आये। इसके पूर्व ही आप लोगों का व्यापार ग्वालपाड़ा नामक स्थान में होरहा था। संवत् १९५० तक यह फर्म चलता रहा । पश्चात् सब लोग अलग २ हो गये सेठ ताराचन्दजी के हरकचंदजी एवम् गुलाबचन्दजी नामक दो पुत्र हुए। इनमें से गुलावचन्दजी, उदयचन्दजी के यहाँ दत्तक रहे । हरकचन्दजी के इस समय शिवलालजी नेतमलजी और पूरनमलजी नामक तीन पुत्र हैं जो हरकचन्द पूरनमल के नाम से कलकत्ता में व्यापार कर रहे हैं। सेठ गुलाबचन्दजी के पुत्र जेसराजजी, धनराजजी और तिलोकचन्दजी अन्य २ स्थानों पर व्यापार करते हैं। सेठ पचन्दजी के पुत्र खुमानचंदजी हुए। आपके चार पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः नथमलजी, सूरजमलजी, तेजकरनजी और हंसराजजी हैं। आप लोगों का व्यापार भी हरकचंद पुरनचन्द के साझे में होता है । इसके अतिरिक्त मूँगापट्टी में भी सूरजमल जैचन्दलाल के नाम से इनका कपड़े का काम होता है । नथमलजी के पुत्र का नाम जयचन्दलालजी है।
सेठ छतीदासजी के पुत्र लखमीचन्दजी हुए। आपने भी कलकत्ते के अन्तर्गत साझे में कपड़े का व्यापार किया। इसमें आपको अच्छी सफलता रही। आजकल आप ब्याज का काम करते हैं । आपके तोलारामजी नामक एक पुत्र हैं। आजकल आपही व्यवसाय का संचालन करते हैं। आपके यहाँ लखमीचन्द तोलाराम के नाम से व्यापार होता है ।
श्री सूरजमलजी नाहटा, इन्दौर
इस परिवार के पुरुष
सेठ डूंगरसीजी, फतेचंदजी, जीवनमलजी और खुशालचन्दजी बीकानेर, पाली आदि स्थानों पर होते हुए उदयपुर आये । यहाँ आकर आप लोगों ने कपड़े का व्यापार किया । इसमें अच्छी सफलता रही। कुछ समय पश्चात् खुशालचंदजी के पुत्र चन्दनमलजी किसी कारणवश इन्दौर चले आये । इनके पाँच पुत्रों में से भी सूरजमलजी और सरदारमलजी शेष रहे। कुछ समय पश्चात् सरदारमजजी का भी स्वर्गवास हो गया ।
नाहटा सूरजमलजी इस समय विद्यमान हैं। आप बड़े मिलनसार एवम् धुन के पक्के आदमी हैं। पब्लिक कार्यों में आपका हमेशा सहयोग बना रहता है। विद्या की ओर भी आपका अच्छा लक्ष्य है। आप इस समय ग्यारह पंचों की दुकान पर काम करते हैं। आप इस समय ग्यारह पंचों की कमेटी के कार्यकारी मंडल के सेक्रेटरी हैं ।
सेठ हीरालाल बालाराम नाहटा, धूलिया
इस परिवार का मूल निवास लहेरा बावड़ी (मारवाद ) है । आप मानने वाले हैं। देश से लगभग १०० साल पहिले सेठ रतनचंदजी नाहटा के पुत्र चन्दजी नाहटा मालेगाँव ताल्लुके के बांभनगाँव नामक स्थान में आये और वहाँ से
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स्थानकवासी आम्नाय के
दलपतजी और उदयधूलिया आकर आपने
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ओसवाल जाति का इतिहास
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स्वर्गीय सेठ पूनमचंदजी छल्लांनी, सिकंदराबाद ( दक्षिण ):)
श्री सेठ लक्ष्मीचंदजी छल्लानी ( हीराचंद पूनमचंद) सिकंदराबाद.
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छल्लानी
दुकान की। नाहटा दलपतजी के पुत्र नंदरामजी और बालारामजी हुए। इनमें बालारामजी, उदयचंदजी के नाम पर दत्तक गये। सेठ नंदरामजी ने इस दुकान के व्यापार तथा सम्मान को विशेष बढ़ाया, आपके पुत्र पन्नालालजी तथा बालारामजी के पुत्र हीरालालजी और नथमलजी हुए । इनमें नथमलजी पनालालजीके नाम पर दत्तक गये।
सेठ हीरालालजी नाहटा प्रतिष्ठित सजन हैं । भापका जन्म संवत् १९५३ की सावण सुदी १२ को हुआ है। आपकी दुकान यहाँ के ओसवाल समाज में प्राचीन मानी जाती है। आपके पुत्र मोतीलालजी, कन्हैयालालजी व मोहनलालजी हुए, इनमें मोतीलालजी का शरीरान्त १९०६ में हो गया, अतः इनके नाम पर मोहनलालजी को दत्तक दिया है। नाहटा कन्हैयालालजी, नथमलजी के नाम पर दत्तक दिये गये हैं। इस परिवार में लेन देन, कृषि और साहुकारी कामकाज होता है।
छल्लानी मेसर्स हीराचन्द पूनमचन्द छल्जानी सिकन्दराबाद
इस खानदान के वंशज भोसवाल जाति के छल्लानी गौत्रीय सजन है। आप मन्दिर आम्नाय के उपासक हैं। आपका मूल निवास स्थान नागौर (मारवाड़) का है । इस फर्म की स्थापना सिकन्दराबाद में करीब ८०-९० वर्ष पूर्व हुई। सबसे पहले सेठ हीराचंदजी छल्लानी नागौर से यहाँ पर आये। शुरू में आपने यहाँ पर सर्विस की। उसके पश्चात् दो० ब० रामगोपालजी मालानी के साझे में आपने कपड़े का व्यापार प्रारम्भ किया। करीमनगर की दुकान भी आप ही के समय में खोली गई। सेठ हीराचन्दजी का स्वर्गवास संवत् १९७० के करीब हुआ ।
आपके पश्चात् आपके दत्तक पुत्र श्री० पूनमचन्दजो छल्लानी ने इस फर्म के कार्य को सम्हाला । आप बड़े योग्य और व्यापार-दूरदर्शी पुरुष थे। आपके हाथों से इस फर्म के व्यवसाय, सम्मान एवम् प्रतिष्ठा में बहुत वृद्धि हुई। आपने वरंगल, पेद्दापल्ली तथा मंथनी में दुकानें स्थापित कर रुई और एरंडी का व्यापार शुरू किया। पेद्दापल्लो में आपने नीनिंग फेक्टरी और राइस मिल भी खोली।
व्यवसायिक कार्यों के अतिरिक्त धार्मिक कार्यों में भी आपके हाथ से एक बड़ा स्मरणीय कार्य हुआ। हैदराबाद के समीप कुळपाकजी तीर्थ के श्वेताम्बर जैन मन्दिर के जीर्णोदार में आपने बहुत परिश्रम उठाया। एवम् अपनी ओर से भी आपने इस कार्य में बहुत सहायता दी। उक्त मन्दिर की इमारत आदि बनवाने में हैदराबाद के चार प्रतिष्ठित सजनों में आपने भी प्रधान रूप से कार्य किया था। आपका स्वर्गवास सम्वत् १९७४ के भादों वदी ८ को हुमा। आपके यहाँ श्री लक्ष्मीचंदजी छल्लानी संवत् १९७२ में दत्तकलाये गये।
वर्तमान में इस फर्म के मालिक सेठ लक्ष्मीचन्दजी छल्लानी है। आपका जन्म संवत् १९६४ में हुआ। आप बढ़े शिक्षित, शान्तप्रकृति और विनयशील नवयुवक हैं । इस छोटी उम्र में ही फर्म के व्यापार
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भोसवाल जाति का इतिहास
का आप बड़ी तत्परता से संचालन करते हैं। कुलपाकजी तीर्थ की ख्याति वृद्धि करने में आपके पिताजी की तरह आप भी सचेष्ट हैं। यह फर्म यहाँ के व्यापारिक समाज में बहुत प्रतिष्ठित है ।
पीरचन्दजी छल्लाणी का परिवार कोलार गोल्डफील्ड
इस खानदान वाले जेतारण के रहने वाले हैं। आप स्थानकवासी आम्नाय को मानने वाले हैं। इस खानदान में छहलानी पीरचंदजी हुए जिनके सूरजमलजी, गुलाबचंदजी, घेवरचंदजी और प्रतापमलजी नामक चार पुत्र हुए। श्री सूरजमलजी का संवत् १९२१ में जन्म हुआ । आपका धर्मध्यान की तरफ काफी लक्ष्य था । आप बड़े साहसी और व्यापारकुशल भी थे। आपने सबसे पहले संवत् १९४४ में बंगलोर में मेसर्स शम्भूमल गंगाराम के पार्टनरशिप में चार साल तक व्यवसाय किया । तदनंतर आपने बंगलोर कैण्ट के सूलाबाजार में सूरजमल गुलाबचन्द के नाम से एक स्वतन्त्र फर्म स्थापित की। आपका सम्वत् १९७९ में स्वर्गवास हुआ। आपके दो पुत्र हुए जिनके नाम कन्हैयालालजी और माणकचन्दजी हैं । कन्हैयालालजी के अमरचंदजी और लखमीचन्दजी नामक दो पुत्र तथा अमरचंदजी के भँवरलालजी नामक एक पुत्र है | माणकचंदजी के पुखराजजी तथा रिखवचंदजी नामक दो पुत्र और पुखराजजी के हरकचन्दजी नामक एक पुत्र हैं । कन्हैयालालजी, कन्हैयालाल, अमरचंद के नाम से तथा माणकचन्दजी, माणकचन्द पुखराज के नाम से कोलार गोल्ड फील्ड में और माणकचन्द रिखबचन्द के नाम से मैसूर में व्यवसाय करते हैं । गुलाबचन्दजी का जन्म संवत् १९३८ का है। आपके सुगनमलजी नामक एक पुत्र हैं जिनका जन्म सं० १९७० में हुआ। घेवरचंदजी का जन्म सं० १९४० में हुआ । आपने सबसे पहले सं० १९५५ में कोलार गोड फील्ड में एक फर्म स्थापित की । तदनन्तर सोने की खदान के पास कोलार गोल्ड फील्ड में तीन फर्मे और स्थापित की जो वर्तमान में भी बड़ी सफलता के साथ चल रही हैं। आपके तीन पुत्र हुए जिनके नाम बख्तावरमलजी, किशनलालजी तथा मोहनलालजी हैं। इनमें से बख्तावरमलजी के चम्पालालजी और पखालालजी नामक दो पुत्र हैं। सेठ प्रतापमलजी का जन्म संवत् १९४५ का है। आपका धर्मध्यान में अच्छा लक्ष्य है । आपके एक पुत्र हैं जिनका नाम भीकमचंदजी है । आपकी ओर से कोलार गोल्ड फील्ड में प्रतापमल भीकमचन्द के नाम से एक स्वतन्त्र दुकान है। 1
बोहरा
सेठ श्रचलसिंहजी का परिवार, आगरा
भारतवर्ष के विभिन्न प्रान्तों में मारवाड़ी समाज के जो कतिपय
शिक्षित, उन्नत विचारों के,
जाति सुधारक, देश सेवक और समाज सुधारक व्यक्ति नजर आते हैं, उनमें से अचलसिंहजी का नाम पीछे नहीं रह सकता । ये बोहरा गौत्रीय सज्जन हैं। आपके पूर्व पुरुष सेठ सवाईरामजी थे। सेठ सवाईरामजी के कोई पुत्र न होने से उन्होंने श्री पीतमलजी चोरड़िया को दत्तक लिये ।
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ओसवाल जाति का इतिहास
देशभक्त सेठ अचलसिंहजी, आगरा,
सेठ प्रेमराजजी बोहरा, विल्लीपुरम् ( मदास ).
सेठ सूरजमलजी बोहरा, राबर्टसन् पेठ.
श्री गणपतराजजी बोहरा, विल्लीपुरम् (मदास ).
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बोहरा
सेठ पीतमलजी चोरडिया-जिस समय भाप यहाँ दत्तक बाये उस समय इस खानदान की साधारण स्थिति थी। आपने अपनी व्यापार कुशलता से धौलपुर नामक स्थान पर अपनी फर्म स्थापित कर लाखों रुपये उपार्जित किये। आप बड़े साहसी और अग्रसोची व्यक्ति थे। धौलपुर रियासत में आपका अच्छा सम्मान था। वहाँ से आपको 'सेठ' की पदवी मी प्राप्त थी। आपका स्वर्गवास सन् १९०० में हो गया। आप बड़े उदार एवम् दानी सजन थे। आपके तीन पुत्र हुए, जिनके नाम क्रमशः जसवंतसिंहजी, बलवंतरायजी और अचलसिंहजी हैं।
सेठ जसवन्तमलजी और बलवन्तरायजी-आप दोनों भाई भी व्यापार कुशल सज्जन थे। मापने अपने समय में फर्म की अच्छी उन्नति की । आप लोग मिलनसार और सज्जन व्यक्ति थे। सेठ जसवंतमलजी २८ वर्ष तक आगरा म्युनिसिपल के सदस्य रहे। इसके अतिरिक्त आप स्थानीय आनरेरी मजिस्ट्रेट भी रहे। आपको इमारतें बनवाने का बड़ा शौक था। यही मरण है आपने आगरा में लाखों रुपयों की इमारतें बनवाई। उनमें से पीतम मार्केट तथा जसवंत होस्टल विशेष प्रसिद्ध हैं। आप दोनों भाइयों का स्वर्गवास होगया।
सेठ अचलसिंहजी-आपके दोनों भाइयों के स्वर्गवासी हो जाने के पश्चात् फर्म संचालन का सारा भार आप पर आ पड़ा। आरंभ से ही आप तीक्ष्ण बुद्धिवाले सज्जन थे। अपने भाइयों को विद्यमानता ही में आप देशसेवा एवम् समाज सेवा की ओर झुक गये थे। इतना ही नहीं इस ओर झुककर आपने इसमें काफी दिलचस्पी से काम किया । बचपन से ही आपका जीवन सभा सोसायटियों में व्यतीत होता रहा है। प्रारम्भ में आपने एथलेटिक क्लब और एक पब्लिक लायब्रेरी की स्थापना की। इसके बाद आपने कई संस्थाओं में योग प्रदान किया। सन् १९२० में आपने मृतप्रायः आगरा व्यापार समिति का पुर्नसंगठन किया और आप उसके आनरेरी सेक्रेटरी बनाये गये। आपके मित्र श्रीचंदजी दौनेरिया ने जो बीमा कंपनी स्थापित की उसके आप चेअरमेन हैं। आपही के प्रयत्न से आगरा में पीपल्स बैंक की शाखा स्थापित हुई। इसके भी आप प्रेसिडेण्ट और डायरेक्टर बनाए गये। इसके पश्चात् आप कांग्रेस कमेटी के पदाधिकारी, आगरा म्युनिसिपल बोर्ड के मेम्बर और यू०पी० कौंसिल में स्वराज्य पार्टी की ओर से मेम्बर निर्वाचित हुए थे । असहयोग आन्दोलन में आप कई बार जेलयात्रा कर आये हैं। आपने समय २ पर कई बार हजारों रुपये एकत्रित कर सार्वजनिक कार्यों में खर्च किये हैं। आप यू०पी० के सम्माननीय देशभक्त और आगरा के प्रमुख नेता हैं। आपका कई सार्वजनिक संस्थाओं से सम्बन्ध है। आपकी ओर से इस समय एक जैन छात्रालय चल रहा है। स्त्री शिक्षा के लिए भी आपने योग्य व्यवस्था की है। इसी प्रकार अचल. सेवा-संघ इत्यादि कई संघ स्थापित कर आपने आगरे के सार्वजनिक जीवन में एक ताज़गी की लहर पैदा कर दी है।
जब मागरे में हिन्दू-मुसलिम दंगा हो गया था। उस समय इन लोगों की चोट को सहन करते हुए भी आपने शांति स्थापन की पूरी २ कोशिश की थी। जब सन् १९२५ में अति वर्षा के कारण भागरा तहसील में बाढ़ आ गई थी उस समय भी आपने जनता की रक्षा के लिये काफी प्रयत्न किया तथा धन, वस्त्र की सहायता हुँचाई। लिखने का मतलब यह है कि आपका जीवन प्रारम्भ से अभी तक सार्वजनिक सेवा,
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
देश सेवा, जाति सेवा एवम् समाज सुधार को भर रहा है । आप आगरे के एक गण्यमान्य नेता हैं। इस समय आप अखिल भारतवर्षीय स्थानकवासी भोसवाल नवयुवक कांफ्रेन्स के प्रेसिडेण्ट हैं ।
सेठ बुधमल कालूराम बोहरा, ( रतनपुरा) लोणार
वह परिवार बहू का निवासी है। लगभग १०० साल पहिले । सेठ सलजी बोहरा के पुत्र बुध मलजी, हमीरमलजी तथा गम्भीरमलजी लोणार आये तथा लेन देन का व्यवसाय आरम्भ किया । सेठ बुधमलजी ने अच्छा नाम व सम्मान पाया । संवत् १९५३ में आप स्वर्गवासी हुए । स्थानीय मन्दिर की नीव डालने वाले ४ व्यक्तियों में से एक आप भी थे । आपके कालुरामजी, बिरदीचंदजी, खुशालचन्दजी तथा गुलाबचंदजी नामक ४ पुत्र हुए, जिनमें खुशालचन्दजी मौजूद हैं।
बोहरा कालूरामजी ने आसपास की पंच पंचायती में बहुत इज्जत पाई। संवत् १९७९ में बडू ठाकुर साहब लोनार आये तब आपको “सेठ" की पदवी दी । संवत् १९८३ में आप स्वर्गवासी हुए । बोहरा गम्भीरमलजी के पुत्र देवकरणजी और पौत्र तेजभालजी हुए, इन्होंने भी अपने समाज में अच्छी प्रतिष्ठा पाई । तेजमलजी संवत् १९७९ में स्वर्गवासी हुए। आपकी दुकान यहाँ के व्यापारियों में प्रतिष्ठित मानी जाती है।
वर्तमान में इस परिवार में सेठ खुशालचन्दजी और उनके पुत्र हेमराजजी, गेंदूलालजी, पन्नाroat तथा बरदीचंदजी के पुत्र वंशीलालजी, कन्हैयालालजी एवम् तेजमलजी के पुत्र कतरूमलजी विद्यमान हैं। इनमें हेमराजजी, कालुरामजी के नाम पर और कन्हैयालालजी, गुलाबचन्दजी के नाम पर दत्तक गये हैं। सेठ खुशालचन्दजी आसपास के ओसवाल समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं । यह परिवार बरदीचन्द खुशालचन्द और तेजभाल कतरूलाल बोहरा के नाम से सराफी, साहुकारी, कृषि तथा कपास का व्यापार करता है । इसी तरह इस परिवार में हमीरमलजी के पौत्र नंदलालजी हीरडव में कारबार करते हैं ।
सेठ पेमराज गणपतराज बोहरा, बिल्लीपुरम् (मद्रास)
इस कुटुम्ब का मूल निवास मारवाड़ में जेतारण के पास पीपलिया नामक ग्राम का है । इस परिवार के पूर्वज सेठ उदयचन्दजी के पश्चात् क्रमशः खूबचन्दजी, बच्छराजजी और साहवचन्दजी हुए । साहबचन्दजी इस परिवार में नामी व्यक्ति हुए । जेतारण के आसपास इनका लाखों रुपयों का लेन देन था। संवत् १९३९ में इनका ४१ साल की उमर में स्वर्गवास हुआ । आप बड़े स्वाभिमानी व प्रतिष्ठित पुरुष थे। आपके पुत्र मगराजजी का जन्म १९२२ में तथा केसरीचन्दजी का १९२५ में हुआ। तथा शरीरान्त क्रमशः संवत् १९७४ तथा १९७३ में हुआ । केसरीमलजी के पेमराजजी तथा हीरालालजी नामक २ पुत्र हुए, जिनमें पेमराजजी, मगराजजी के नाम पर दत्तक आये । हीरालालजी १९६६ में स्वर्गवासी हो गये ।
बोहरा पेमराजजी मद्रास होते हुए संवत् १९७३ में विल्लीपुरम् आये और व्याज का काम शुरू किया । आपके हाथों से ही व्यापार को तरक्की मिली । आप सुधरे हुए विचारों के धर्मप्रेमी सज्जन हैं ।
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बोहरा
आप अपनी आय में से दो आना रुपया धर्म और ज्ञान के खातों में लगाते हैं। प्रेमाश्रम पिपलिया को आपने बड़ी सहायता दी । आपके पुत्र गणपतराजश्री, मोहनलालजी और सम्पतराजजी हैं। इनमें गणपतराजजी व्यापार में भाग लेते हैं । आपकी वय २० साल की है।
सेठ रघुनाथमल रिधकरण बोहरा बम्बई
सेठ रघुनाथमलजी रतनपुरा- बोहरा जोधा की पालड़ी ( नागोर) से । कुचेरा तथा वहां से जोधपुर आये वहीं उनका स्वर्गवास हुआ। आपके पुत्र रिधकरणजी का जन्म संवत् १९३२ में हुआ । आप संवत् १९४४ में देश से हैदराबाद सिंकराबाद गये । तथा वहाँ से बम्बई आकर नौकरी की । पीछे से आपने कपड़े की दलाली का काम किया । इस प्रकार अनुभव प्राप्त कर आपने आढ़त का कारबार शुरू किया । तथा अपने अनुभव तथा होशियारी के बल पर काफी उच्चति की । बम्बई के मारवाड़ी आढ़तियों में आपकी अच्छी प्रतिष्ठा है। आप इधर १४ सालों से नेटिव्ह मरचेंट एसोशियेसन बम्बई के सेक्रेटरी हैं । आपके यहाँ रघुनाथमल रिधकरण के नाम से विट्ठलवाड़ी बम्बई में आदत का काम होता आप मन्दिर मार्गीय आम्नाय के मानने वाले हैं।
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श्री मूलचंदजी बोहरा, अजमेर
अजमेर के ओसवाल समाज में जो लोग समाज सेवा के कार्य में उत्साह पूर्वक भाग लेते हैं उनमें श्री मूलचन्दजी बोहरा का नाम विशेष उल्लेखनीय है । कई जातीय और सामाजिक संस्थाओं से आपका सम्बन्ध है, गत वर्ष ओसवाल - सम्मेलन के प्रथम अधिवेशन करने के
सम्बन्ध में जो सभा हुई थी उसके सभापति आप हीं थे । आप सामाजिक विषयों पर गम्भीरता से विचार करते हैं । बम्बई की एक संस्था ने "ओसवाल जाति की उन्नति” पर निबन्ध लिखने के लिये कुछ पुरस्कार की घोषणा की थी उसमें सबसे प्रथम पुरस्कार आपको अपने निबन्ध के लिये मिला था । सार्वजनिक काय्यों में भी अपनी परिस्थिति के अनुसार आप भाग लेते रहते हैं ।
चोरडिया
चोरड़िया गौत्र की उत्पत्ति
कहा जाता है कि चंदेरी नगर के राजा खरहतसिंह राठोर को जैनाचाय्यं जिनदत्तसूरिजी ने संवत् ११९२ में जैनधर्म से दीक्षित किया । इनके बड़े पुत्र अम्बदेवजी ने चोरों को पकड़ा व उनके बेड़िये डालीं। इससे चोर बेड़िये या चोरों से भिड़िये कहलाये । आगे चलकर यही नाम अपभ्रंश होते हुए " चोरड़िया ” नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
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मोसवाल जाति का इतिहास
शाहपुरा (मेवाड़ ) का चोरड़िया खानदान यह खानदान पहिले चित्तौड़गढ़ में निवास करता था। वहाँ से चोरड़िया डूंगरसिंहजी संवत् १७४५ में शाहपुरा भाये। इनके वेणीदासजी तथा फतेचन्द जी नामक र पुत्र हुए। इनमें वेणीदासजी शाहपुरा स्टेट के कामदार थे। इनको संवत् १८०३ की सावण सुदी १५ को मांडलगढ़ का शिवपुरी नामक गांव जागीर में मिला था। इनके नारायणदासजी, खुशालचन्दजी, बरदभानजी, लखमीचन्दजी तथा शिवदासजी नामक ५ पुत्र हुए। इन बंधुओं में चोरड़िया खुशालचन्दजी महाराजा के साथ उज्जैन के युद्ध में तथा विरदभानजी मेड़ते की लड़ाई में काम आये।
नारायणदासजी चोरड़िया का परिवार-शाह नारायणदासजी चोरड़िया बड़े प्रतापी व्यक्ति हुए । जब शाहपुरा अधिपति महाराजा उम्मेदसिंहजी मेवाड़ की तरफ से मरहठों से युद्ध करते हुए उज्जैन में काम आये। उस समय उनके पुत्र रणसिंहजी को आपने गद्दी पर बिठाया। इसके उपलक्ष में महाराजा रणसिंहजी ने नारायणदासजी को निम्न लिखित परवाना दिया।
सिद्धश्री महाराजाधिराज श्री रणसिंहजी बचनात सहा नारायणदासजी दसे सुप्रसाद बंच्या अपंच थे म्हाका श्याम धरमी छो सो रणसिंहजी का बेटा पोता पीढ़ी दरपीढ़ी पाटवी ने सपूत कपूत ने थान में सूं आखी में सूं आदी देर अरोगसी थांकी राह मुरजाद श्री महाराज वांदी जी सुं सवाई रियां करसी ....."संवत् १८२६ का वैशाख सुदी।
कहने का तात्पर्य यह कि मेहता नारायणदासजी अपने समय के नामांकित व्यक्ति थे। आपके जयचन्दजी तथा बदनजी नामक २ पुत्र हुए। इन दोनों सज्जनों के अजीतमलजी तथा चतुर्भजजी नामक दो पुत्र हुए। इन दोनों भाइयों को महाराजा अमरसिंहजी ने संवत् १८५८ में कई गांव जागीरी में दिये, साथ ही उदयपुर महाराणाजी ने भी साख रुक्के और बैठक देकर इनको सम्मानित किया। अजीतमलजी के पश्चात् क्रमशः खुशालचन्दजी, रघुनाथसिंहजी मुलतानचन्दजी तथा छगनमलजी हुए। ये बंधु भी रियासत की सेवा करते रहे। चोरडिया छगनलालजी का स्वर्गवास छोटी वय में संवत् १९५७ में हुआ। भआपके नाम पर चमणमलजी के पुत्र अमरसिंहजी चोरड़िया दत्तक आये हैं।
अमरसिंहजी चोरड़िया-आपका जन्म संवत् १९४० में हुआ बहुत समय तक आप राजाधिराज सर नाहरसिंहजी के प्राइवेट सेक्रेटरी रहे। आप समझदार तथा प्रतिष्ठित सज्जन हैं। तथा इस समय राज्य में सर्विस करते हैं। आपके पुत्र नाथूसिंहजी हैं। इसी तरह इस परिवार में चतुरभुजजी के पौत्र ( चरणमलजी के पुत्र ) सरदारसिंहजी तथा अखोसिंहजी अजमेर में रेलवे विभाग में सर्विस करते हैं।
शाह बरधभानजी चोरड़िया का परिवार-हम ऊपर लिख चुके हैं कि शाह वर्द्धमानजी चोरड़िया मेड़ते में बहादुरी पूर्वक युद्ध करते हुए मारे गये थे। इनके पश्चात् की पीढ़ियों ने भी कई शाहपुरा राज्य की सेवाएं की इस परिवार में चोरदिया जोरावरमलजी शाहपुरा स्टेट के दीवान रहे। समय २ पर इस परिवार को शाहपुरा दरबार से सम्मान एवं खास रुक्के भी प्राप्त होते रहे हैं।
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श्रसवाल जाति का इतिहास ७
प्रोफेसर श्यामसुन्दरलालजी चोरड़ियां एम. ए., उदयपुर, सेठ मोहनमलजी चोरड़िया, ( अगरचन्द मानमल ) मद्रास.
श्री अमरसिंहजी चोरदिया शाहपुरा ( मेवाड़ )
बाबू दयालचन्दजी जौहरी, आगरा.
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चोरड़िया
चोराड़िया जोरावरमलजी-आप शाहपुरा स्टेट के दीवान थे। भापके गोवईलालजी तथा फूलचन्दजी नामक दो पुत्र हुए। गोवर्द्धनलालजी शाहपुरा में उच्चपद पर कार्य करते थे। तथा डावला नामक एक गाँव भी आपको जागीरी में मिला था। लगभग ५. साल पहिले आप यहाँ से उदयपुर चले गये। आपके किशनसिंहजी तथा मोतीसिंहजी नामक पुत्र हुए। मोतीसिंहजी का जन्म संवत् १९२९ में हुआ। आप उदयपुर स्टेट में सर्विस करते रहे और इस समय वहीं निवास करते हैं। आपके श्यामसुंदरलालजी तथा हीरालालजी नामक पुत्र हुए। इनमें हीरालालजी का सन् १९१० में स्वर्गवास हो गया।
श्यामसुन्दरलालजी चोरडिया एम० ए०-आपका जन्म सन् १८९८ में हुआ। आपने म्योर सैण्ट्रल कॉलेज इलाहबाद से सन् १९२२ में एम० ए० की डिगरी हासिल की। इस समय अंग्रेजी विषय में आप सारी युनिवर्सिटी में प्रथम आये थे। तत्पश्चात् आप सन् १९२३ में महाराणा इंटर मिजियेट कालेज उदयपुर के प्रोफेसर हुए और इसके कुछ ही दिनों बाद आपकी प्रतिभा की कद्र करके प्राविशियल सविस में सी० पी० एजूकेशन डिपार्टमेंट ने आपको मोरिस कॉलेज नागपूर में अंग्रेजी का प्रोफेसर निर्वाचित कर सम्मानित किया। आप अंग्रेजी साहित्य के उच्चकोटि के लेखक हैं। कई अंग्रेजी साहित्य रसशों ने भापकी रचनाओं की प्रशंसा की है।
उदयपुर के महाराणा साहब आपकी बड़ी कद्र करते हैं, उन्होंने भापको जून १९२३ में दरबार में बैठक वख्शी है। इस समय आप नागपुर युनिवर्सिटी बोर्ड के मेम्बर, फेकिलिटी आफ ऑर्टस के मेम्बर, एवं एक्झामिनेशन बोर्ड के मेम्बर हैं। कई बार आप बी० ए० एम० ए० और इंटर के एक्झामिमर रहे हैं। आपके पुत्र कुंजबिहारीजी मेट्रिक में तथा रोशनलालजी विद्या भवन में पढ़ते हैं।
कुमारी दिनेश नंदिनी-आप श्यामसुन्दरलालजी चोरडिया की कन्या हैं। आपने नागपुर में मैट्रिक तक अध्ययन किया । हिन्दी साहित्य में आपकी बड़ी रुचि है। हिन्दी के गण्य मान्य पत्रों में भापकी गम्भीर भावों से परिपूरित गद्य काव्य एवम् हृदय स्पर्शी पद्यावली प्रकाशित होती रहती हैं।
भोपालसिंहजी चोरड़िया-आप बहुत समय तक शाहपुरा अधिपति राजाधिराज नाहरसिंहजी के प्रायवेट सेक्रेटरी रहे। तथा कलक्टरी में ट्रेलरी आफिसर रहे इस समय भाप मेवाड़ के कानोड़ ठिकाने
कामदार हैं आपका परिवार शाहपुरा में ऊँचे दरजे की प्रतिष्ठा रखता है। शाहपुरा दरबार ने समय २ पर कई आपको सम्मान दिये हैं। आपकी आयु इस समय ६० साल की है। आपके पुत्र रघुनाथसिंहजी तथा रणजीतसिंहजी हैं।
रघुनाथसिंहजी चोरड़िया-आपका जन्म संवत् १९५३ में हुआ। सन् १९२३ में आप बी० ए० पास हुए । सन् १९२३ में आप शाहपुरा कुमार उम्मेदसिंहजी के प्रायवेट सेक्रेटरी निर्वाचित हुए। इसपद के साथ साथ कई भिन्न २ उच्च पदों पर काम करते हुए इस समय आप डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट तथा फाइनेन्स मेम्बर के पद पर हैं। आपको दरबार ने तिलक के समय जागीर बख्शी है। भापके पुत्र बीरेन्द्रकुमारजी तथा सुरेन्द्रकुमारजी हैं। आपके छोटे भ्राता रणजीतसिंहजी स्माल कॉज कोर्ट में सर्विस करते हैं।
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सवाल जाति का इतिहास
इसी तरह इस परिवार में श्री गणेशलालजी उदयपुर में निवास करते हैं ।
आपने बी० ए०
तक शिक्षण पाया है। फूलचन्दनी वयोवृद्ध सज्जन हैं तथा शाहपुरा में रहते हैं । तथा उदयसिंहजी पुत्र 'मोहनसिंहजी शाहपुरा स्कूल में सर्विस करते हैं ।
के
रामपुरिया
रामपुरिया नाम की स्थापना
इस परिवार के सज्जनों का मूल गौत्र चोरड़िया है। जिसका विवरण ऊपर दिया जा चुका है। इस परिवार के पूर्व पुरुष रामपुरा ( इन्दौर स्टेट ) नामक स्थान में निवास करते थे। वहां इस वंश में क्रमशः मेहराजनी, लालचन्दजी, नथमलजी, हीराचन्दजी, हरध्यानसिंहजी, और खींवसीजी हुए। खींवसीजी के तीन पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः मानसिंहजी, बुधसिंहजी और जगरूपजी था । जगरूपजी के चार पुत्र हुए, जीवराजजी, राजरूपजी, जसरूपजो और प्रेमराजजी । इनमें से जीवराजजी के ६ पुत्र हुए, जिनके नाम क्रमशः शिवराजजी, शेरसिंहजी, विजयराजजी, भींवराजजी, गुणोजी और सुल्तानजी था। इनमें से शेरसिंहजी के भेरोंदानजी नामक पुत्र हुए, शेष निःसन्तान रहे ।
सेठ भैरोंदान के चार पुत्र हुए, जिनके नाम क्रमशः सेठ जालमचन्दजी, आलमचन्दजी, केवलचंद जी, और गम्भीरमलजी था । इनमें से जालमचन्दजी का वंश आज भी रामपुरा में निवास कर रहा है 1 आलमचन्दजी के लिये कहा जाता है कि रामपुरे के चंद्रावतों की एक कन्या का विवाह बीकानेर के महाराजा के साथ हुआ, उसी समय आप बाईजी के कामदार बनाकर बीकानेर भेजे गये । आपके साथ में आपके वंशज आये जिनका खानदान बीकानेर में निवास कर रहा है। आलमचन्दजी को बीकानेर दरबार मे राज्य में काम पर नियुक्त किया। जिसे भाज तक आपके खानदान वाले करते आ रहे हैं। रामपुर से आने के कारण ही आप लोगों के वंशज रामपुरिया कहलाये । और जिस स्थान पर आप लोग काम करते थे वह दफ्तर आप ही के नाम से 'दफ्तर रामपुरिया' कहलाता चला आ रहा है।
सुजानगढ़ का रामपुरिया परिवार
सेउ आलमचन्दजी के चार पुत्र हुए, जिनके नाम क्रमशः विरदीचन्दजी, गणेश दासजी, चुनीलाल जी और चौथमलजी था । आप चारों भाई करीब १०० वर्ष पूर्व बीकानेर छोड़कर सुजानगढ़ नामक स्थान पर चले आये । आप लोगों ने मिलकर संवत् १९१३ में मेसर्स चुन्नीलाल चौथमल के नाम से कलकत्ता में फर्म स्थापित की। इनमें आपको अच्छी सफलता रही। संवत् १९५० के पूर्व केवल चौथमलजी को छोड़ कर शेष भाई स्वर्गवासी हो गये । इसके पश्चात् ही आपके वंशज अलग होगये और अपना स्वतंत्र व्यापार करने लगे ।
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मोसवाल जाति का इतिहास
स्व० सेठ हमीरमलजी रामपुरिया, सुजानगढ़.
सेट चुन्नीलालजी रामपुरिया, सुजानगढ़.
सेट कन्हैयालालजी रामपुरिया, सुजानगढ़.
कुँवर शुभकरणजी दस्साणी, सुजानगढ़,
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ओसवाल जाति का इतिहास
कुँ. जयचंदलालजी S/o कन्हैयालालजी रामपुरिया, सुजानगढ़.
स्व० बंसीलालजी रामपुरिया Bo कन्हैयालालजी रामपुरिया.
स्व० सेठ हमीरमलजी रामपुरिया का मकान, सुजानगढ़.
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रामपुरिया
से बिरदीचंदजी का परिवार-सेठ विरदीचन्दजी के सूरजमलजी, सदासुखजी, और तोलारामजी नामक पुत्र हुए। आप लोगों का स्वर्गवास होगया। सेठ सूरजमलर्जी के पूनमचन्दजी, हुलासचंदजी, थानमलजी, सुखलालजी और रिधकरनजी नामक पुत्र हैं। इसी प्रकार सेठ सदासुखजी के शोभाचन्दजी तथा सेठ तोलारामजी के सेठ हनुमानमलजी नामक पुत्र हैं। सेठ पूनमचन्दजी के चार पुत्र जिनके नाम लूनकरनजी, घेवरचन्दजी, तिलोकचन्दजी और श्रीचन्दजी हैं। इनमें से अंतिम दो प्रेज्युएट हैं। इसी प्रकार और ए भाइयों के भी पुत्र हैं।
सेठ गणेशदासजी का परिवार-आपके मेघराजजी नामक पुत्र हुए। आपने बीदासर के रास्ते में एक धर्मशाला तथा कुँवा बनवाया । आपके कोई पुत्र न होने से थानमलजी दत्तक आये । आप ही इस परिवार में बड़े व्यक्ति हैं।
सेठ चुन्नीलालजी का परिवार-सेठ चुनीलालजी बड़े प्रतिभा सम्पन्न म्यक्ति थे । भापने व्यापार में लाखों रुपया पैदा किया। आपके हमीरमलजी तथा हजारीमलजी नामक दो पुत्र हुए । हमीरमलजी अपने चाचा सेठ चौथमलजी के यहां दत्तक चले गये । वर्तमान में इस परिवार में हजारीमलजीही प्रधान है। आप यहां की म्युनिसिपेलिटी के मेम्बर हैं। आपने भी व्यापार में लाखों रुपया पैदा किया। इस समय आप कलकत्ता में अपनी निज को कोठी ढाका पट्टी में चुन्नीलल हजारीमक के नाम से जूट का व्यापार करते हैं। आपके कोई पुत्र नहीं है। अतएव आपने अपने दोहित्र शुभकरनजी दस्साणी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया है।
सेठ चौथमलजी का परिवार-सेठ चौथमलजी के पुत्र न होने से हमीरमलजी दत्तक भाये यह हम ऊपर लिख चुके हैं। हमीरमलजी बड़े व्यापार कुशल और राजपूती ठंग के व्यक्ति थे। आपके भी जब कोई पुत्र न हुआ और आप स्वर्गवासी होगये तब सेठ पूनमचन्दजी के पुत्र सूरजमलजी दसक लिये गये, मगर आपसी झगड़ों के कारण आपके स्थान पर बीकानेर से कन्हैयालालजी दत्तक आये। वर्तमान में आपही इस परिवार के संचालन कर्ता हैं। आप बड़े मिलनसार और व्यवहार कुचाल तथा सज्जन व्यक्ति हैं। आपके यहां अभ्रक का व्यापार होता है। आपकी फर्म कोडरमा में है। आपने कोडरमा तथा गिरिडिह में कई अभ्रक की खदाने खरीद की हैं। आजकल आपका व्यापार कोडरमा में कन्हैयालाल रामपुरिया के नाम से हो रहा है। आपके यहां तार का पता 'kanyaहै। आपके दो पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः जयचंदलालजी और सुमेरमलजी हैं। आपके भाई बंसीलालजी बीकानेर ही रहते थे। आप बड़े होनहार थे। मगर बहुत कम वय ही में आपका स्वर्गवास होगया।
सेठ हजारीमल हीरालाल रामपुरिया, बीकानेर यह हम ऊपर लिख ही चुके हैं कि इनके पूर्वज रामपुरा नामक स्थान से भाये। इन्हीं में आगे चलकर सेठ जोरावरमलजी हुए । आपकी बहुत साधारण स्थिति थी। आपके तीन पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः सेठ बहादुरमलजी, हजारीलालजी और हीरालालजी हैं।
सेठ बहादुरमलजी-आप बड़े मेधावी और व्यापार चतुर पुरुष थे। मापने केवल १३ वर्ष की आयु में व्यापार के निमित्त कलकत्ता प्रस्थान किया। आपको व्यवसाय के लिये कलकत्ता जाते समय रास्ते
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श्रीसिवान जाति का इतिहास
में सैकड़ों आपत्तियों का सामना करना पड़ा, मगर फिर भी आप विचलित न हुए। यहाँ आकर आपने मेसर्स चैनरूप सम्पतराम दगडके यहाँ) मासिक पर गुमास्तागिरी की। सात वर्ष के पश्चात् आप अपनी कार्य चतुरता और व्यापारिक बुद्धिमानी से इस फर्म के मुनीम हो गये। सन् १८८३ में आपने अपने भाइयों को हजारीमल हीरालाल के नाम से एक फर्म स्थापित करवा दी और उसपर कपड़े का न्यव्यावसाय प्रारम्भ किया । इस व्यापार में आप लोगों को बहुत सफलता प्राप्त हुई। कुछ समय पश्चात् सेठ बहादुरमलजी भी मुनीमात का काम छोड़कर इस फर्म के व्यापार में सहयोग देने लगे। बहुत ही शीघ्रता
और तेजी के साथ इस फर्म की उन्नति होने लगी यहाँ तक कि वर्तमान में यह फर्म बीकानेर और बीकानेर स्टेट के धन कुबेरों में समझी जाती है । इस फर्म का कलकत्ता के इम्पोर्टरों में बहुत ऊंचा स्थान है। सेठ बहादुरमलजी के लिए बंगाल, बिहार और उड़ीसा के इनसाइक्लोपीडिया में इस प्रकार लिखा है"He is one of the fine products of the business world, having imbibed sound business instincts, copled with courtesy to strangers and religious faith in Jainism." आपही ने अपने जीवनकाल में बहुत सम्पत्ति उपार्जन कर एक कॉटन मिल खरीदा था जो वर्तमान में रामपुरिया कॉटन मिल के नाम से प्रसिद्ध है। आपका यह मिल आज भी धरू है। आपके जसकरणजी नामक पुत्र हुए।
सेठ जसकरणजी-आप बड़े मेधावी और व्यापार चतुर पुरुष थे। आपने भी अपने व्यापार की विशेष उन्नति की। इतना ही नहीं बल्कि आपने मेनचेस्टर तथा लण्डन में भी अपनी फर्मे स्थापित कर अपने व्यवसाय को बढ़ाया। चूंकि इन फर्मों का काम आपही देखते थे अतः ये सब फर्मे आपकी मृत्यु के बाद उठा दी गई। बीकानेर दरबार में आपका बहुत सम्मान था। वर्तमान में आपके सेठ भंवरलालजी नामक एक पुत्र हैं। भवरलालजी बड़े योग्य तथा मिलनसार सज्जन हैं। आपही रामपुरिया काटन मिल के सारे कारवार को.बड़ी योग्यता से संचालित कर रहे हैं।
सेठ हजारीमलजी-आप भी बड़े कार्य कुशल और व्यापार में बड़े चतुर सज्जन थे। आपने भी अपनी फर्मों का बड़ी योग्यता और बुद्धिमानी से संचालन किया । आपको स्वर्गवास संवत् १९९५ में होगया। आपके दो पुत्र विद्यमान हैं जिनके नाम शिखरचन्दजी और नथमलजी हैं।
बा० शिखरचन्दजी-आपका जन्म संवत् १९५० का है। आप बहुत साधारण प्रकृति के और धर्म पर बहुत श्रद्धा रखने वाले सज्जन है। आपके तीन पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः घेवरचन्दजी, कवरलालजी एवम् शांतिलालजी हैं। घेवरचन्दजी दुकान के काम में सहयोग देते हैं तथा शेष दो बच्चे हैं।
बाबू नथमलजी-आपका जन्म संवत् १९५६ में हुआ। आप बड़े मिलनसार भौर योग्य सजन हैं। आप फर्म के काम में विशेष रूप से सहयोग देते हैं। आपको कपड़े के व्यापार का अच्छा अनुभव है।
आपने जापान से डायरेक्ट कपदे को इम्पोर्ट करने का कारबार शुरू किया जिसमें आपको बहुत सफलता मिली। बापका व्यापार की तरफ बहत लक्ष्य है। मिल के काम को भी आप देखते हैं। आपके पुत्र सम्पतलालजी अभी पढ़ते हैं।
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चोरड़िया
सेठ हीरालालजी-आप सेठ बहादुरमलजीतीसरे भाई और वर्तमान में इस परिवार में सबसे पृद्ध सजन है । आप फर्म के सारे कारबार का संचालन करते हैं। भापके बाबू सौभागमलजी नामक एक पुत्र हैं तथा बाबू सौभागमलजी के जयचन्दलासजी, रतनलालजी भादि पुत्र हैं।
आप लोगों का कलकत्ता में “रामपुरिया काटन मिस" नाम से एक प्राइवेट मिल है, जिसमें ८०० लूम्स काम करते हैं। इसके अतिरिक्त भापकी फर्म पर विलायत और जापान के कपड़े का इम्पोर्ट बहुत बड़े परिमाण में होता है। कलकत्ते में भापकी बहुतसी बढ़ी बिल्डिंग्ज किराये के लिये बनी हुई हैं। इसी प्रकार आपकी बीकानेर की हवेलियाँ भी दर्शनीय हैं।
सेठ मेघराज तिलोकचन्द रामपुरिया, बीकानेर ऊपर हम सेठ जीवराजजी के ३ पुत्रों में भीवराजजी का नाम लिख चुके हैं। इन भीवराजजी के सेठ पेमराजजी और नेठमलनी नामक दो पुत्र हुए। जेठमलजी के पाँच पुत्रों में से पदमचंदजी भी एक थे। पदमचन्दजी के चुनीलालजी और करनीदानजी नामक दो पुत्र हुए। सेठ चुनीलालजी के कोई संतान नहीं हुई। सेठ करनीदानजी ने बम्बई में अपना व्यापार स्थापित किया था। भापके मेघराजजी नामक एक पुत्र हुए। : सेठ मेघराजजी ने कलकत्ता में आकर नौकरी की । आपके उदयचंदजी और अमोलचंदजी नामक दो पुत्र हुए। अमोलकचंदजी, सेठ लखमीचन्दजी के यहाँ दत्तक चले गये। सेठ उदयचंदजी इस परिवार में विशेष व्यक्ति हैं। आपने अपनी बहुत साधारण स्थिति को बहुत अच्छी स्थिति में रख दिया। प्रारम्भ में मापने कई स्थानों पर साझे में फर्म स्थापित की। अन्त में संवत् १९८७ से आप उपरोक्त नाम से व्यापार कर रहे हैं। आपका ब्यापार शुरू से ही देशी कपड़े का रहा है। इस व्यापार में मापने हजारों रुपये पैदा किये हैं। आपके धार्मिक विचार अच्छे हैं। आपका बीकानेर के मन्दिर सम्प्रदावियों में बहुत अच्छा सम्मान है। आपने कई धार्मिक कार्यों में अच्छी सहायता पहुंचाई है। इस समय भापके मोहनलालजी और जेठमलजी नामक दो पुत्र हैं । बाप लोग भी सजन और मिलनसार हैं। भापका कपड़े का म्यापार इस समय १५० क्रास स्ट्रीट में होता है।
सेठ अगरचन्द मानमल चोरडिया, मद्रास इस फर्म के मालिकों का निवास स्थान कुचेरा (जोधपुर-स्टेट) का है। आप स्थानकवासी भानाय को मानने वाले सजन हैं। देश से पैदल मार्ग द्वारा सेठ मगरचन्दजी सन् १८४७ में जालना होते हुए मनास आये।
सेठ अगरचन्दजी-आरम्भ में भाप सन् १८४० तक रेजिमेंटल वैकर्स का काम करते रहे। यहाँ केन्यापारिक समाज में एवम् आफीसरों में भाप बड़े भादरणीय समझे जाते थे। मारवादी समाज पर भापकी बढ़ी मदद रहा करती थी। आपके कोई पुत्र न था अतः आपने अपनी मृत्यु के समय अपनी फर्म का उत्तराधिकारी अपने बड़े भ्राता सेठ चतुर्भुजजी के पुत्र सेठ मानमलजी को बनाया मापने ७० हजार रुपयों
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ओसवाल जाति का इतिहास
का दान किया था जिसका "भगरचन्द ट्रस्ट" के नाम से एक ट्रस्ट बना हुआ है। इस रकम का ब्याज शुभ कार्यों में लगाया जाता है। इस प्रकार प्रतिष्ठापूर्ण जीवन बिताते हुए सन् १८९१ में आप स्वर्गवासी हुए।
सेठ मानमलजी-आप पदे उप्रबुद्धि के सजनथे । यही कारण था कि केवल १९ वर्ष की अल्पायु में ही माप नावा (कुचामण रोड़) में हाकिम बना दिये गये थे। भापको होनहार समझ सेठ अगरचन्दजी ने विल में अपनी फर्म का उत्तराधिकारी बनाया था। लेकिन केवल २८ वर्ष की अवस्था में ही सन् १८९५ में भाप बम्बई में स्वर्गवासी हुए । आपके यहाँ सेठ सोहनमलजी (जोधपुर के साह मिश्रीमलजी के द्वितीय पुत्र) सन् १८९६ में दत्तक लाये गये। आपने २५ हजार रुपयों को रकम दान की। तथा मद्रास पांजरापोल और जोधपुर पाठशाला को भो समय २ पर मदद पहुँचाई । व्यापारिक समाज में आपकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। आपका सन् १९१५ में स्वर्गवास होगया। भापके यहाँ नोखा (मारवाड़) से सेठ मोहनमलजी (सिरेमलजी चोरडिया के दूसरे पुत्र) सन् १९१८ में दत्तक आये।
सेठ मोहनमलजी-भाप ही वर्तमान में इस फर्म के मालिक हैं। आपके हाथों से इस फर्म की विशेष उन्नति हुई है। आपके दो पुत्र हैं जो अभी बालक हैं और विद्याध्ययन कर रहे हैं। यह फर्म यहाँ के व्यापारिक समाज में बहुत पुरानी तथा प्रतिष्ठित मानी जाती है। मद्रास प्रान्त में आपके सात आठ गाँव जमीदारी के हैं। मद्रास की ओसवाल समाज में इस कुटुम्ब की अच्छी प्रतिष्ठा है। इस समय आपके यहाँ "अगरचन्द मानमल" के नाम से साहुकार पैठ मद्रास में वैक्तिग तथा प्रापर्टी पर रुपया देने का काम होता है। आपकी दुकान मद्रास के ओसवाल समाज में प्रधान धनिक हैं।
आगरे का चोरड़िया खानदान लगभग १५० वर्षों से यह परिवार आगरे में निवास करता है। यहाँ लाला सरूपचन्दजी चोरडिया ने डेढ़सो साल पूर्व सच्चे गोटे किनारी का व्यापार भारम्भ किया। आपके पुत्र पन्नालालजी तथा पौत्र रामलालजी भी गोटे का मामूली व्यापार करते रहे। लाला रामजीलालका संवत् १९१५ में स्वर्गवास हुमा। आपके गुलाबचन्दजी, छुदनलालजी, चिमनलालजी तथा लखमीचन्दजी नामक पुत्र हुए।
लाला गुलाबचन्दजी चोरड़ियों का परिवार-आप अपने माता लखमीचन्दजी के साथ गोटे का म्यापार करते थे। तथा इस व्यापार में आपने बहुत उन्नति की । आप अपने इस लम्बे परिवार में सबसे बड़े तथा प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। संवत् १९०३ में आपका स्वर्गवास हुभा। आपके कपूरचन्दजी, चांदमल जी, दयालचन्दजी, मिट्ठनलालजी तथा निहालचन्दजी मामक ५ पुत्र हुए । इनमें लाला मिट्ठनलालजी को छोड़कर शेष सब विद्यमान हैं। लाला कपूरचन्दजी जवाहरात का व्यापार करते हैं।
लाला चांदमलजी-आपका जन्म संवत् १९३० में हुआ। आपने बी० ए० एल० एल० बी० तक शिक्षण प्राप्त किया। पश्चात् १२ सालों तक वकालत की। आप देश भक्त महानुभावहै। देश की पुकार सुनकर आप वकालत छोड़कर कांग्रेस की सेवाओं में प्रविष्ट हुए। सन् १९२१ में आप भागरा कांग्रेस के प्रेसिडेंट थे। आपने राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने के उपलक्ष में कारागृह वास भी किया है। भाप बड़े सरल, शांत एवम् निरभिमानी सज्जन हैं।
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चोरड़िया
साला दयालचंदजी जौहरी-आपका जन्म संवत् १९३९ में हुला। आपने १९ साल की वय में ही जवाहरात का व्यापार शुरू किया । २५ वर्ष की भायु में भापकी धर्मपत्नी का स्वर्गवास होगया, ऐसे समय आपने विवाह न कर और नवीन उपभादर्श उपस्थित किया । कार्ड हाडिज, ख्यक माफ केनाट,क्वीन "मेरी" आदि से आपको सार्टीफिकेट प्राप्त हुए। इधर १२ सालों से आप सार्वजनिक सेवाएँ करते हैं। आपने अपने जीवन में लगभग ३ लाख रुपया मित्र संस्थाओं के लिये इकट्ठा किया। इसमें २० हजार रुपया अपनी तरफ से दिये। इस समय भाप बगभग २० प्रतिष्ठित संस्थाओं की कार्य वाहक समिति के मेम्बर प्रेसिडेंट आदि हैं। रोशन मुहल्ला आगरा के वीर विजय वाचनालय, धर्मशाला और मन्दिर के आप मैनेजर हैं। बाप दीर्घ अनुमवी और नवयुवकों के समान उत्साह रखने वाले महानुभाव हैं। भापके छोटे भाता लाला निहालचन्दनी, लाला मुबालाजी के साथ, "गुलाबचन्द लखमीचन्द" के नाम से गोटे का व्यापार करते हैं।
___ खाला छुट्टनलालजी जौहरी का परिवार-आप नामी जौहरी होगये हैं। महाराजा पटियाला धौलपुर और रामपुर में भाप खास जौहरी थे। राजा महाराजा रईस और विदेशी यात्रियों को जवाहरात तथा क्यूरियो सिटी का माल बेच कर आपने अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। संवत् १९६३ में आपका स्वर्गवास हमा। आपके मुन्नालालजी तथा हरकच्चन्दजी नामक पुत्र हुए। इनमें मुन्नालालजी विद्य. मान हैं, तथा गोटे का ब्यापार करते हैं।
____लाला चिमनलालजी तथा लखमीचंदजी का परिवार-काला चिमनलालजी आगरा सिटी के टेलीग्राफ ऑफिस में हेड सिगनलर थे। इनके पुत्र बाबूलालजी तथा ज्योतिप्रसादजी पेट्रोल एजंट हैं। इसी तरह लखमीचन्दजी के पुत्र माणकचन्दजी, मोहनलालजी तया छबूलालजी जवाहरात का काम करते हैं।
यह एक विस्तृत तथा प्रतिष्ठित परिवार है। इस परिवार में पहले जमीदारी का काम भी होता था। इस परिवार ने आगरा रोशन मोहल्ला के श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ के मन्दिर में पच्चीकारी आदि में तथा पाठशाला वगैरा में करीब ३० हजार रुपये लगाये । लगभग ५०।६० सालों से उक्त मन्दिर की व्यवस्था इस परिवार के जिम्मे हैं।
लाला इन्द्रचंद माणिकचन्द का खानदान, लखनऊ इस खानदान के लोग श्वेताम्बर जैन मन्दिर आम्नाय को मानने वाले सज्जन है। यह खान. दान करीब डेढ़सौ वर्षों से लखनऊ में ही निवास करता है। इस खानदान में लाला हीरालालजी तक के इतिहास का पता चलता है। लाला हीरालालजी के पश्चात् क्रमशः लाला जौहरीमलजी, लाला रज्जूमलजी, और उनके पश्चात् लाला इन्द्रचन्दजी हुए। भापका जन्म संवत् १९०९ का और स्वर्गवास संवत् १९५० में हुआ। आपके पुत्र लाला मानिकचन्दजी इस खानदान में बड़े बुद्धिमान और दूरदर्शी म्यक्ति हैं। भापका जन्म संमत् १९३५ में हुआ। आपने अपनी बुद्धिमानी से इस फर्म के व्ययसाय को खूब बढ़ाया। आपके इस समय दो पुत्र हैं जिनके नाम नानकचन्दजी और ज्ञानचन्दजी हैं। मानकचन्दजी का जन्म संवत् १९५९ का और ज्ञानचन्दजी का जन्म संवत् १९६१ का है।
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
आप दोनों भाई बड़े बुद्धिमान और सज्जन हैं । लाला नानकचन्दजी के एक पुत्र है जिसका नाम जयचन्दजी है ।
इस खानदान का पुश्तैनी व्यवसाय जवाहरात का है। तब से अभी तक जवाहरात का काम बराबर चला आ रहा है। इसके सिवाय लाला मानिकचन्दजी ने यहां पर केमिस्ट और ड्रागिस्ट का व्यापार शुरू किया जो बहुत सफलता से चल रहा है। जिसकी दो ब्रांचे लखनऊ में और एक बाराबंकी में है। लखनऊ के भोसवाल समाज में वह खानदान बहुत अग्रसर तथा प्रतिष्ठित है ।
सेठ मांगीलाल धनरूपमल चोरड़िया, निलीकुपम् (मद्रास)
इस परिवार के पूर्वज चोरड़िया चतुर्भुजजी के पुत्र रिखबदासजी मारवाड़ के चाड़वास (डीडवाणा के पास ) नामक स्थान में रहते थे। वहाँ से आप टोंक होते हुए संवत् १९०० में नीमच ( मालवा ) भाये । तथा यहाँ लेनदेन का व्यापार आरम्भ किया। आपके चाँदमलजी, मानमलजी, हेमराजजी तथा खेमराजजी नामक ४ पुत्र हुए। इनमें सेठ चांदमलजी के पुत्र सुगनचन्दजी तथा श्यामलालजी हुए । सुगनचंदजी का स्वर्गवास संवत् १९५२ में ५१ वर्ष की उम्र में हुआ । बिहारीलालजी तथा श्यामलालजी के पुत्र लूणकरणजी हुए ।
सेठ सुगनचंदजी के पुत्र मांगीलालजी और
सेठ मांगीलालजी का जन्म संवत् १९२९ में हुआ । आप संवत् १९५९ में नीमच से नागौर आये तथा वहाँ अपना निवास स्थान बनाया । वहाँ से एक साल बाद रवाना होकर आप हैदराबाद आये तथा सेठ खुशालचन्दजी गोलेछा की फर्म पर २० सालों तक मुनीम रहे, तथा फिर भागीदारी में निलीकुपम् में दुकान की । इधर सन् १९२७ से आप अपना स्वतन्त्र व्यापार करते हैं । आप समझदार तथा होशियार सज्जन हैं । धन्धे को आपही ने जमाया है। आपके छोटे भाई बिहारीलालजी लवकर वालों की ओर से शिवपुरी तथा भांडेर खजानों में सुनीम हैं। सेठ मांगीलालजी के पुत्र सुपारसमलजी का जन्म १९५८ में हुआ । इनसे छोटे सजनमलजी हैं। सुपारसमलजी तमाम काम बडी उत्तमता से सम्हालते हैं । आपके पुत्र धनरूपमलजी हैं। इस दुकान की एक शाखा कलपुरची (मद्रास) में एम० सजनलाल चोरड़िया के नाम से हैं। इन दोनों दुकानों पर ब्याज का काम होता है ।
चोरड़िया एकामलालजी के पुत्र लूणकरणजी तथा केसरीमलजी हुए। ये बन्धु नीमच में रहते हैं। केशरीचन्दजी, मानमलजी के पुत्र नंदलालजी के नाम पर दत्तक गये हैं। इसी तरह इस परिवार में सेठ चाँदमलजी के तीसरे भ्राता हेमराजजी के पुत्र नथमलजी चोरदिया है। आपका विस्तृत परिचय अन्यत्र दिया गया है।
श्री नथमलजी चोरड़िया, नीमच
आपके परिवार का विस्तृत परिचय से माँगीलाल धनरूपमल नामक फर्म के परिचय में दे चुके हैं। सेठ रिखबदासजी चोरड़िया के तीसरे पुत्र सेठ हेमराजजी थे । आपके पुत्र मथमलजी हुए। श्री नथHeat स्थानकवासी समाज के गण्यमान्य सज्जन हैं। आपने अपने व्यापार कौशक तथा कार्य कुशलता से
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ओसवाल जाति का इतिहास
श्री मन्नालालजी चोरडिया, भानपुरा.
स्व. लाला गुलाबचन्दजी चोरडिया, आगरा..
सेठ मांगीलालजी चोरडिया, निलिकुम्पम्
(मदास).
रायसाहब सेठ रावतमलजी चोरडिया,
बरोरा (चांदा)
सेठ उदयचन्दजी रामपुरिया, बीकानेर.
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चोरड़िया
सम्पत्ति उपार्जित कर समाज में अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की है। आप मशहूर सार्वजनिक कार्यकर्ता हैं । स्थानकवासी कान्फ्रेन्स, खादीप्रचार तथा अछूत आन्दोलन में आपने बहुतसा हिस्सा लिया है। आपने राष्ट्रीय कार्यों में सहयोग लेने के उपलक्ष में कारागृह वास भी किया था । आप अजमेर कांग्रेस के सभापति भी रहे थे। इस समय आप ऑल इण्डिया स्थानकवासी कान्फ्रेंस के जनरल सेक्रेटरी हैं । आपने अजमेर साधु सम्मेलन के समय अपनी ७० हजार की प्रापर्टी का दान, सार्वजनिक कामों में लगाने के लिये घोषित किया है । आपके पुत्र माधोसिंहजी चोरड़िया का अल्प वय में स्वर्गवास हो गया । आप बड़े होनहार थे । इस समय आपके पुत्र सोभागसिंहजी तथा फतेसिंहजी विद्यमान हैं। फतेसिंहजी बनारस युनिवर्सिटी में पढ़ते हैं ।
सेठ सुगनमल पाबूदान चोरड़िया, कुन्नूर (नील गिरी )
सेठ मेहरचन्दजी के छोटे पुत्र जसराजजी ने संवत् १९५२ में पली से आकर अपना निवास फलौदी में किया । संवत् १९५७ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके कुन्दनमलजी, सुगनमलजी. पाबूदानजी, अलसीदासजी तथा बख्तावरमलजी नामक ५ पुत्र हुए। इनमें सुगनमलजी, पाबूदानजी और अलसीदासजी मौजूद हैं। सेठ कुन्दनमलजी, मुन्नीलाल खुशालचन्द हैदराबाद वालों की दुकानों पर मुनीम थे । इनका संवत् १९५६ में स्वर्गवास हुआ। सुगनमलजी भी अपने भ्राता के साथ उन दुकानों पर मुख्यारी करते रहे । पश्चात् इन सब भाइयों ने कुन्नर (नीलगिरी) में दुकान खोली । संवत् १९७४ में इन बन्धुओं का कारवार अलग २ हो गया ।
सेठ सुगनमलजी का जन्म १९३२ में हुआ । इस समय आपके पुत्र मूलचन्दजी. गुलराजजी, किशनलालजी. दौलतरामजी तथा उदयराजजी हैं। आपके यहाँ सुगनमल गुलराज के नाम से कुन्नूर में बेडग कारबार होता है । सेठ पाबूदानजी का जन्म संवत् १९३९ में हुआ । आपने १९५८ में अलसीदास एण्ड ब्रदर्स के नाम से कुन्नूर में बेकिंग व्यापार शुरू किया । तथा व्यापार को आपने । तरक्की दी है। इधर १ वर्ष से आपने जसराज पाबूदान के नाम से कपड़े का अपना स्वतन्त्र व्यापार आरम्भ किया है । आपके पुत्र रतनलालजी, मेघराजजी तथा गुलाबचन्दजी हैं। आप बन्धुओं में से बड़े २ व्यापार में भाग लेते हैं। सेठ भलसीदासजी के पुत्र कुँवरलालजी तथा सुखलालजी हैं। इनके यहां अहमदाबाद में कपड़े का व्यापार होता है । यह परिवार फलौदी में अच्छी प्रतिष्ठा रखता है ।
सेठ गुलाबचन्दजी चोरड़िया का परिवार, भानपुरा
इस परिवार वाले सज्जनों का मूल निवास स्थान मेड़ता था । वहाँ से करीब १२५ वर्ष पूर्व सेठ उम्मेदमलजी भानपुरा ( इन्दौर) नामक स्थान पर आये । यहाँ आकर आपने साधारण व्यापार प्रारम्भ किया । इसमें आपको अच्छी सफलता मिली। आपके दो पुत्र हुए, जिनके नाम सेठ अमोलकचन्दजी और केसरीचंदजी था । अमोलकचन्दजी के तीन पुत्र हुए। जिनके नाम क्रमशः सेठ गुलाबचंदजी, फूलचन्दजी और रूपचन्दजी था । सेठ अमोलकचन्दजी ने अपने पुत्रों के साथ व्यापार में अच्छी सफलता प्राप्त की । आपका स्वर्गवास हो गया । पश्चात् आपके तीनों पुत्र अलग २ हो गये ।
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मौसवाल जाति का इतिहास
सेठ गुलाबचन्दजी का परिवार-सेठ गुलाबचन्दजी ने व्यापार में बहुत उन्नति की। मापने स्थानीय भलबाड़ा मन्दिर के ऊपर सोने के कलश चढ़वाने में २१००) की मदद दी । आपका स्वर्गवास हो गया। आपके इस समय धनराजजी और प्रेमराजजी नामक दो पुत्र विद्यमान हैं । आजकल आप दोनों ही अलग २ रूप से व्यापार करते हैं। सेठ धनराजजी वृद्ध पुरुष हैं। आपके मन्त्रालालजी नामक एक पुत्र हैं। आप भी मिलनसार उत्साही एवम् नवीन विचारों के युवक हैं। भापके लालचन्द, प्रसन्नचन्द, विमलचन्द और नरेशचन्द्रजी नामक चार पुत्र हैं। सेठ प्रेमराजजी के हरकचन्दजी और सन्तोषचन्दजी नामक दो पुत्र हैं। यह परिवार भानपुरा में प्रतिष्ठित समझा जाता है।
सेठ पन्नालाल हजारीमल चोरडिया, मनमाड यह परिवार धनेरिया ( मेड़ता के पास ) का निवासी है। वहां से सेठ खूबचंदजी चोरडिया के पुत्र सेठ जीतमलजी चोरदिया लगभग १०० साल पूर्व मनमाड के समीप घोटाना नामक स्थान में आये। और यहां लेन देन का धंधा शुरू किया । इनके हजारीमलजी तथा मगनीरामजी नामक पुत्र हुए। सेठ हजारीमलजी ने मनमाड में दुकान खोली आपका स्वर्गवास संवत् १९५९ में तथा मगनीराम जो का १९३६ में हुआ। सेठ हमारीमलजी के पन्नालालजी राजमलजी तथा सेठ मगनीरामजी के पुनमचन्दजी और सरूपचन्दजी नामक २ पुत्र हुए। इन भाइयों में सेठ पनालाजजी चोरड़िया ने इस कुटुम्ब के व्यापार और सम्मान को विशेष बढ़ाया । भाप चारों भाइयों का कारवार संवत् १९५० में अलग २ हुआ। सेठ राजमलजी का स्वर्गवास संवत् १९४८ में तथा पन्नालालजी का संवत् १९७८ में हुआ। सेठ पक्षालालजी के नाम पर राजमलजी के पुत्र खींवराजजी दत्तक आये।
वर्तमान में इस परिवार में सेठ खींवसीराजजी तथा मूलचन्दजी के पुत्र ताराचन्दजी विद्यमान हैं। सेठ खींवराजजी का जन्म १९५९ में हुआ । आपके यहां “पन्नालाल हजारीमल" के नाम से साहुकारी लेनदेन का काम होता है। आपका परिवार भास पास के व मनमाड के ओसवाल समाज में अच्छी प्रतिष्ठा रखता है। आपके पुत्र अमोलकचन्दजी, माणकचम्दजी और मोतीचन्दनी हैं। यह परिवार स्थानकवासी आम्नाय मानता है।
चौधरी पीरचंद सूरजमल चोरड़िया, बुरहानपुर इस परिवार का मूल निवास पीपाड़ (जोधपुर स्टेट ) में है । देश से लगभग ६५ साल पहिले सेठ सूरजमलजी चोरडिया इच्छापुर (बुरहानपुर से १२ मील) आये । आपके हाथों से धंधे की नींव जमी संवत् १९३६ में आपका शरीरान्त हुभा। आपके पुत्र पीरचन्दजी का जन्म संवत् १९३२ में हुआ। श्री पीरचन्दजी ने संवत् १९७८ में बुरहानपुर में दुकान की यहां आप इच्छापुर बालों के नाम से बोले जाते हैं। पीरचन्दजी चौधरी शिक्षित सज्जन हैं । यह चौधरी परिवार पीपाड़ में नामांकित माना जाता है और वहां मोतीरामजी वालों के नाम से मशहूर है, इस परिवार के पुरुषों ने जोधपुर स्टेट में आफीसरी, हाकिमी आदि के कई काम किये हैं। इच्छापुर में इस परिवार के ५घर है।
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चोरडिया
पीरचन्दजी चौधरी के ५ पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः बंसीलालजी, मोहनलालजी, रतनलालजी हस्तीमलजी तथा माणकलालजी हैं। इन भाइयों में बंशीलालजी ने एफ. ए. तथा रतनलालजी और हस्तीमलजी ने मेट्रिक तक शिक्षा पाई है। बंशीलालजी, हरीनगर यूगर मिल विहार में असिस्टेंट मैनेजर हैं । इस परिवार के यहां इच्छापुर तथा पुरहानपुर में कृषि जमीदारी तथा केनदेन का काम काज होता है।
सेठ लखमीचन्द चौथमल चोरड़िया, गंगाशहर इस परिवार के पूर्व पुरुष जैतपुर के निवासी थे। वहां से सेठ पदमचन्दजी के पुत्र मायाचंद जी और हरिसिंहजी यहां गंगाशहर भाये । मायाचन्दजी का परिवार अलग रहता है । यह परिवार हरिसिंहजी का है। सेठ हरिसिंहजी के छोगमबजी एवम् दानमलजी नामक पुत्र हुए। सेठ दानमलजी इस समय विद्यमान हैं। आपके गंगारामजी और बनेचन्दजी मामक दो पुत्र हुए हैं।
सेठ छोगमलजी का जन्म संवत् १९.५का है। आपने अपने जीवन में साधारण रोजगार किया । भापका स्वर्गवास संवत् १९४२ में होगया। भापके खुवचन्दजी, लखमीचन्दजी, शेरमलजी, चौथमलजी और रावतमलजी नामक पांच पुत्र हुए। इनमें से प्रथम तीन स्वर्गवासी होचुके हैं। भाप सब भाइयों ने मिलकर सोलंगा (बंगाल) में अपनी फर्म स्थापित की। इसमें भापको अच्छी सफलता मिली। अतएव उत्साहित होकर भाप लोगों ने सिरसागंज में भी आपनी एक प्रांच खोली। इसके बाद आपकी एक फर्म कलकत्ता में भी हुई । कलकत्ता का पता १६ स्ट्रॉड रोड है।
वर्तमान में इस फर्म के संचालक सेठ चौथमलजी. रावतमलजी खवचन्दजी के पुत्र सोहनलाळजी और शेरमलजी के पुत्र आसकरनजी है। भाप लोग योग्यता पूर्वक फर्म का संचालन कर रहे हैं। चौथमलजी के हाथों से फर्म की बहुत उन्नत हुई।
सेठ रामलाल रावतमल चोरड़िया, बरोरा (सी० पी०)
यह परिवार रूपनगर (किशनगढ़-स्टेट) का निवासी है। देश से सेठ भोमसिंहजी के पुत्र रामलालजी तथा रावतमलजी लगभग ८० साल पहिले बरोरा आये तथा बुद्धिमत्ता पूर्वक व्यापार करके लगभग १० लाख रुपयों की सम्पत्ति इन बन्धुओं ने कमाई । व्यापार की उन्नति के साथ मापने धार्मिक कामों की ओर भी काफी लक्ष दिया। आपने बरोरा के जैन मन्दिर व विहलमन्दिर के बनवाने में सहायताएँ दी, तथा परिश्रम उठाया। सरकार में भी दोनों भाइयों का अच्छा सम्मान था। सेठ रामलालजी का संवत् १९६५ में स्वर्गवास हो गया। आपके बाद सेठ रावतमलजी ने तमाम काम सम्हाका । सेठ रावतमक श्री सन् १९११ में बरोरा के ऑननेरी मजिस्ट्रेट थे। सन् १९२१ में आपको भारत सरकार "रायसाहिब" की पदवी से सम्मानित किया था। संवत् १९८२ में आपका स्वर्गवास हुआ।
सेठ रामलालजी के पुत्र सुखलालजी तथा माँगू लालजी हुए. इनमें माँगूलालजी, सेठ रावतमल जी के नाम पर दत्तक गये। इनका संवत् १९८५ में स्वर्गवास हुभा। इनके मदनलालजी, भीकमचन्दजी, माणकचन्दजी और मोहनलालजी नामक पुत्र हैं। आपके यहाँ रावतमल मांगूलाल के नाम से व्यापार
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प्रोसवास जाति का इतिहास
होता है। सेठ सुखलालजी १९८५ में स्वर्गवासी हुए। इनके पुत्र धर्मचन्दजी १९७४ में तथा सुगनचन्दजी १९५३ में गुजरे । वर्तमान में धर्मचन्दजी के पुत्र शंकरलालजी तथा सुगनचन्दजी के पुत्र नंदलालजी चोर. डिया है। आपके यहाँ “रामलाल सुखलाल" के नाम से व्यापार होता है । आपके ४ गांव माल गुजारी के हैं। सेठ नंदलालजी प्रतिष्ठित संजन हैं। धर्मध्यान में आपका अच्छा लक्ष है। आपने एक धर्मशाला भी बनवाई है।
सेठ रतनचन्द दौलतराम चोरड़िया, बाघली (खानदेश)
यह परिवार कुचेरा ( जोधपुर ) का निवासी है। देश से लगभग १२५ वर्ष पहिले सेठ लच्छीरामजी चोरडिया व्यापार के निमित्त बाधली (खानदेश) आये । तथा दुकान स्थापित की। संवत् १९१८ में ७२ साल की वय में आप स्वर्गवासी हुए। आपके नाम पर दौलतरामजी चोरड़िया दत्तक लिये गये । इनका भी संवत् १९३९ में स्वर्गवास हो गया। इस समय आपके पुत्र रतनचन्दजी मौजूद हैं। सेठ रतनचन्दजी स्थानकवासी ओसवाल कान्फ्रेस के प्रान्तीय सेक्रेटरी है। आपका जन्म संवत् १९३१ में हुआ। आपका परिवार आसपास के मोसवाल समाज में नामांकित माना जाता है। आपके राजमलजी, चांदमलजी तथा मानमलजी नामक तीन पुत्र हैं। राजमलजी की आयु ३० साल की है।
सेठ जेठमल सूरजमल चोरड़िया, बाघली (खानदेश )
इस परिवार का मूल निवास तींवरी ( मारवाड़) है। देश से लगभग ७५ साल पहिले सेठ रूपचन्दजी चोरड़िया व्यापार के लिये बाघली (खानदेश) आये । इनके पुत्र सूरजमलजी चोरड़िया हुए। आपका ६० साल की वय में संवत् १९७५ में स्वर्गवास हुआ। आपके पुत्र जेठमलजी मोजूद हैं।
चोरडिया जेठमलजी का धर्म के कामों में अच्छा लक्ष है। आपने बड़ी सरल प्रकृति के निरभि मानी व्यक्ति हैं । आपके यहाँ सराफी काम काज होता है । आप श्वेताम्बर स्थानक वासी आन्नाय के मानने वाले सजन है। बाघली के जैन समाज में आपको उत्तम प्रतिष्ठा है।
कोरड़-बरड़
बोरड़ या बरड़ गौत्र की उत्पत्ति
आंबागढ़ में राव बोरड़ नामक परमार राजा राज करते थे। इनको खरतरगच्छाचार्य दादा जिनदत्तसूरिजी ने संवत् १७५ में जैन धर्म से दीक्षित किया तथा उन्हें सकुटुम्ब जैन बनाया। राव बोरद की संताने बोरब तथा वरद कहलाई।
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ओसवाल जाति का इतिहास
लाला रतनचन्दजी बरड़, अमृतसर.
लाला हरजसरायजी बरड़ B. A, अमृतसर.
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लाला हंसराजजो बरड़, अमृतसर.
श्री शादोलालजो बरड़, अमृतसर.
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बोरड़-बरड़
लाला रतनचंद हरजसराय बरड़, अमृतसर इस खानदान के लोग पहिले गुजराज (पंजाब) में रहते थे। उसके पाचात् यह खानदान सम्बड़ियाल ( स्यालकोट) में आकर बसा। वहाँ से काला गण्डामलजी के पुत्र लाला सोहनलालजी अपना व्यापार जमाने अमृतसर में आये। तब से यह खानदान अमृतसर में बसा हुआ है।
लाला सोहनलालजी-आपने अमृतसर में आकर जवाहरात का ज्ञान प्राप्त किया। जवाहरात का काम सीख कर आपने मूंगा का ब्यापार शुरू किया इस व्यापार में आप साधारणतया अपना काम करते रहे। आप उन भाग्यवानों में से थे जो अपनी पांचवीं पुश्त को अपने सामने देख लेते हैं। केवल ४० सालकी आयु में ही कारोबार से मन खींच कर आपने धर्म ध्यान में अपना मन लगाया। आप जैन सिद्धान्त के अच्छे विद्वान थे। आपका स्वर्गवास सन् १९०५ में हुआ। आपके लाला उत्तमचन्दजी तथा तथा लाला हाकमरायजी नामक २ पुत्र हुए। यह परिवार स्थानकवासी आम्नाय का मानने वाला है।
लाला उत्तमचन्दजी-आप बड़े प्रेमपूर्ण हृदय के तथा उदार स्वभाव के व्यक्ति थे। अमृतसर की बिरादरी तथा व्यापारिक समाज में आपकी बड़ी साख तथा व्यापारिक प्रतिष्ठा थी। भापका स्वर्गवास सन् १९०५ में अपने पिताजी के १ मास पूर्व होगया था। आपके छोटे भ्राता लाला हाकमरायजी का स्वर्गवास भी सन् १९०४ में होगया। और इसके थोड़े समय पहिले काला हाकमरायजी का । मापसे अलग होगया था। लाला उत्तमचन्दजी के लाला जगनाथजी नामक ! पुत्र हुए। - लाला जगन्नाथजी-आप शुरू २ असली मंगे का तथा उसके बाद नकली मंगे का व्यापार करने लगे। उसके बाद आप व्यापर से तटस्थ होकर धर्म ध्यान की ओर लग गये। आप पंजाब जैन सभा तथा लोकल सभा के जीवन पर्यंत मेम्बर रहे। इन सभाओं द्वारा पास होने प्रस्तावों को सबसे पहिले व्यवहारिक रूप मापने ही दिया। आपका स्वर्गवास सन् १९३० में हुआ। आपके लाला रतनचंद जी, लाला हरजसरायजी तथा लाला हंसराजजी नामक ३ पुत्र हुए।
लाला रतनचंदजी-आपका जन्म संवत् १९४५ में हुआ। आपके हाथों से इस खानदान के व्यापार, व्यवसाय और आर्थिक स्थिति को बहुत उन्नति मिली। आप बड़े व्यापार कुशल और बुद्धिमान व्यक्ति हैं म्यापारिक मामलों में आपका मस्तिष्क बहुत उन्नत है। सामाजिक तथा धार्मिक कामों में भी भापकी अच्छी रुचि है। आप पंजाव स्थानकवासी जैन सभा वाइस प्रेसीडेण्ट रह चुके हैं। अजमेर साधु सम्मेलन की एक्झीक्यूटिव कमेटी के भी ओप मेम्बर थे। अमृतसर के लेस फीता एसोसिएसन के भी आप प्रेसिडेण्ट रह चुके हैं। आपके प्रेसिडेण्ट शिप में अमृतसर में इस व्यापार ने बहुत उन्नति की है। धार्मिक व सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में आप हमेशा अप्रगण्य रहते हैं। आपकी बड़ी कन्या कुमारी शकुंतला ने हाल ही में "हिन्दी रत्न" की परीक्षा पास की है। आपके बाबू शादीलालजी, सुरेन्द्रनाथजी सुमति प्रकाश, जगत्भूषण, व देशभूषण नामक ५ पुत्र हैं। उनमें बाबू शादीलालजी, फर्म के व्यापार में मदद देते हैं। आपका जन्म संवत् १९६४ में हुआ। आपके ४ पुत्र हैं। बाबू सुरेन्द्रनाथजी इस समय इंटर में पढ़ रहे हैं। तथा २ स्कूल में अध्ययन कर रहे हैं। लाला हरजसरायजी-आपका जन्म संवत् १९५४ का है। सन् १९१९ में आपने बी० ए०
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भोसबाल बाति का इतिहास
की परीक्षा पास की आप बड़े प्रतिभाशाली व्यापार निपुण तथा नवीन स्प्रिट के व्यक्ति हैं । आपके मीवन का बहुत सा समय पब्लिक सेवाओं में व्यतीत होता है। खानदान के व्यापार में प्रविष्ट होकर आपने अपने बड़े प्राता लाला रतनचन्दजी के काम में बहुत हाथ बंटाया है। आपने जापान से डायरेक्टर इम्पोर्ट का व्यापार शुरू किया। आप यहां की “को एज्यूकेशन" की भादर्श संस्था श्री रामाश्रम हाई स्कूल के सेक्रेटरी हैं। इसके अलावा आप अमृतसर की लोकल जैन सभा, और वॉयस्काउट सेवा समिति के सेक्रेटरी है। लाहौर के हिन्दी साहित्य मण्डल लिमिटेड के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के आप चेअरमैन हैं । आपके विचार बड़े मंझे हुए हैं। आपके इस समय ६ पुत्र हैं उनमें लाला अमरचंदजी इन्टरमिजिएट में तथा लाला भूपेन्द्रनाथजी मेट्रिक में पढ़ रहे हैं।
लाला हंसराजजी-आपका जन्म संवत् १९५६ का है। सन् १९१५ में आपने मेट्रिक पास करके व्यापारिक लाइन में प्रवेश किया। आपकी व्यापारिक दृष्टि बहुत बारीक है।
लाला नंदलालजी-लाला गंडामलजों के पौत्र लाला नन्दलालजी बड़े धार्मिक तथा तपस्वी पुरुष हैं। आपके जीवन का अधिकांश समय धार्मिक कामों में ही व्यय होता है। गृहस्थावस्था में रहते हुए भी आपने एक साथ इकतीस इकतीस उपवास किये। छोटी अवस्था में ही आपकी पत्नी का स्वर्गवास होगया था, तब से आप ब्रह्मचर्य प्रत धारण किये हैं।
इस समय इस परिवार में सोने के थोक एक्सपोर्ट का व्यापार होता है । अमृतसर के सोने के व्यापारियों में यह फर्म बजनदार मानी जाती है। इस फर्म की यहाँ पर चार शाखाएँ हैं। जिन पर बैटिग, सोना, चांदी, होयजरी तथा जनरल मर्चेटाइज़ एवं इम्पोटिंग विजिनेस होता है। इस खानदान ने पंजाब प्रांत में ओसवाल समाज के दस्सा तथा बीसा फिरकों में शादी विवाह होने में बहुत लीडिंग पार्ट लिया है।
लाला श्रद्धामल नत्थूमल बरड़, अमृतसर इस खानदान में लाला नन्दलालजी के पुत्र लाला राजूमलजी और उनके पुत्र लाला हरजसरायजी हुए। लाला हरजसरायजी के पुत्र लाला श्रद्धामलजी हुए।
___ लाला श्रद्धामलजी-आपका जन्म सम्वत् १८८० में हुआ। आप बड़े विद्वान और जैन सूत्रों के जानकार थे। शुरू २ में ओपने अमृतसर में शालों की दूकान खोली और उसकी एक ब्रांच कलकत्ते में भी स्थापित की। जिस समय आपने कलकत्ते में दूकान खोली उस समय रेलवे लाइन नहीं खुली थी। अतएव आपको टमटम, छकड़ा आदि सवारियों पर कलकत्ता जाना पड़ा था। आपके छः पुत्र हुए जिनके माम क्रमशः हरनारायणजी, निहालचन्दजी, खुशालचन्दजी, गंगाविशनजी, राधाकिशनजी और शालिगरामजी था।
लाला निहालचन्दजी-आपका जन्म सम्वत् १८९९ में हुआ आप भी बड़े धार्मिक पुरुष थे। आपका स्वर्गवास सम्वत् १९५९ में हुभा । आपके लाला नत्थुमलजी, लक्खीरामजी और लालचन्दजी नामक तीन पुत्र हुए।
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ओसवाल जाति का इतिहास
मेहता सरदारचंदजी खींवसरा, जोधपुर.
(परिचय पेज नं० ५२६)
मेहता उम्मेदचंदजी खींवसरा, जोधपुर.
(परिचय पेज नं० ५२६)
लाला नत्थूशाहजी बरड़ का परिवार, अमृतसर. ( परिचय पेज नं० ५२४)
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बोरड़-बरड
लाला नत्थुमलजी-आपका जन्म संवत् ११२६ में हुआ। आप इस खानदान में बड़े नामी और प्रसिद्ध पुरुष हैं। आप जैन साधुओं की सेवा बहुत उत्साह प्रसन्नता से करते हैं। जाति सेवा में भी आप बहुत भाग लेते हैं। पंजाब की सुप्रसिद्ध स्थानकवासी जैन सभा के करीब दस बारह साल तक प्रेसिडेण्ट रहे । इसी प्रकार आल इण्डिया स्थानकवासी कान्फ्रेन्स के भी आप करीब २० साल तक स्थानीय सेक्रेटरी रहे । इस समय भी आप अमृतसर की लोकल जैन सभा के प्रेसिडेण्ट हैं। भाप उन पाँच व्यक्तियों में से एक हैं जिन्होंने पंजाब के जैन समाज में सबसे पहिले नवजीवन फूंका। आपके इस समय तीन पुत्र हैं। जिनके नाम लाला उमरावसिंहजी, लाला जमनादासजी, लाला शोरीलालजी हैं । आप तीनों भाई बड़े बुद्धिमान और योग्य हैं और अपने व्यापारिक काम को करते हैं। लाला उमरावसिंहजी की शादी जम्बू के सुप्रसिद्ध दीवान बहादुर विशनदासजी की कन्या से हुई। इनके दो पुत्र हैं जिनके नाम मनोहरलाल और सुभाषचन्द्र हैं। लाला जमनादासजी के सुरेन्द्रकुमार और सुमेरकुमार और शोरीलालजी के सत्येन्द्रकुमार नामक पुत्र हैं।
- लाला लालचन्दजी का जन्म संवत् १९४१ का है। आप भी इस समय दुकान का काम करते हैं लाला हरनारायणजी के पुत्र लाला हंसराजजी हुए । हंसराजजी के पुत्र धरमसागरजी इस समय एफ. ए. में पढ़ते हैं।
लाला गंगाविशनली के पुत्र लाला मथुरादासजी का स्वर्गवास सन् १९१३ में हुआ। आपके पुत्र वृजलालजी और रामलालजी हैं। वृजलालजी कमीशन एजन्सी का काम करते हैं। आपके रतनसागर, मोतीसागर और स्वर्णसागर नामक तीन पुत्र हैं । रवनसपार एफ. ए. में पढ़ते हैं। रामलालजी लखनऊ और मसूरी में फैन्सी सिल्क और गुड्स का व्यापार करते हैं। ...
लाला बदरीशाह सोहनलाल बरड़, गुजरानवाला इस खानदान के पूर्वज लाला पल्लेशाहजी और उनके पुत्र टेकचंदजी पपनखा (गुजरानवाला) रहते थे । वहाँ से टेकचन्दजी के पुत्र लाला दरबारीलालजी सन् १७९० में गुजरानवाला आये । आप जवाहरात का व्यापार करते थे। आपके पुत्र विशनदासजी तथा पौत्र देवीदत्ताशाहजी तथा हाकमशाहजी हुए। लाला हाकमशाहजी ने सराफी धंधे में ज्यादा उन्नति की । धर्म के कामों में आपका ज्यादा लक्ष था । संवत् १९६७ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके महताबशाहजी, सोहनलालजी, बदरीशाहजी, शंकरदासजी, चुन्नीलालजी, जमीताशाहजी तथा बेलीरामजी नामक पुत्र हुए। ये सब भ्राता अपने पिताजी की विद्यमानता में ही संवत् १९५३ में अलग २ हो गये थे। इन भाइयों में लाला महताबशाहजी का स्वर्गवास संवत् १९५७ में लाला बदरीशाहजी का १९६७ में तथा जमीताशाहजी का १९७८ में हुआ।
इस समय इस विस्तृत परिवार में लाला सोहनलालजी सबसे बड़े हैं। आपका जन्म संवत् १९१५ में हुआ । आपका परिवार यहाँ के व्यापारिक समाज में अच्छी प्रतिष्ठा रखता है। आपने व्यापार में सम्पत्ति कमाकर अपने खानदान की प्रतिष्ठा को काफी बढ़ाया है। आपके भाई बदरीशाहजी ने आपके साथ में "बदरीशाह सोहनलाल"के नाम से सम्बत् १९४७ में आढ़त का व्यापार शुरू किया, तथा इस काम में भी अच्छी उन्नति की है। इस खानदान की स्थावर जंगम सम्पत्ति यहाँ काफी तादाद में है। लगभग हजार बीघा जमीन आपके पास है। इस परिवार का ५ दुकानों पर सराफी व्यापार होता है।
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प्रोसवाल जाति का इतिहास
लाला महतावशाहजी के बधावामलजी, दीवानचन्दजी, ज्ञानचन्दजी तथा सरदारीमलजी नामक ७ पुत्र हुए। इनमें लाका सरदारीमलजी मौजूद हैं। आपके पुत्र रामलभायामलजी हैं । वधावामलजी के पुत्र प्यारेलालजी तथा रामलालजी हैं। दीवानचन्दजी के पुत्र खजांचीलालजी और ज्ञानचन्दजी के पुत्र कस्तूरीलालजी सराफी का काम काज करते हैं। लाला सोहनलालजी के जसवंतरामजी, अमीचन्दजी, मुल्कराजजी बी० ए० तथा कुजलालजी नामक ४ पुत्र हुए। लाला कुंजलालजी धार्मिक विचारों के व्यक्ति थे। आपका तथा आपके बड़े भ्राता अमीचन्दजी का स्वर्गवास हो गया है। लाला मुल्कराजजी ने सन् १९२२ में बी० ए० पास किया । आप समझदार तथा शिक्षित सज्जन हैं। स्थानीय ब्रदडहुड के आप जीवित कार्यकर्ता हैं।
लाला बदरीशाहजी के दत्तक पुत्र मोतीशाहजी हैं तथा दूसरे शादीलालजी हैं। शादीलालजी ने मैट्रिक तक शिक्षा पाई है । तथा सुशील व होनहार व्यक्ति हैं । लाला शंकरदासजी के पुत्र मुंशीलालजी. बनारसीदासजी, हजारीलालजीतथा विलायतीरामजी हैं। इसी तरह लाला चुन्नीलालजी के देसराजजी, रतन चन्दजी, प्यारेलालजी, बाबूलालजी, जंगेरीलालजी तथा रोशनलालजी नामक ६ पुत्र तथा लाला जमीतराजजी के मुनीलालजी, छोटेलालजी, चिरंजीलालजी तथा बेलीरामजी के हंसराजजी, जयगोपालजी, नगीनचन्दजी व चन्दनमलजी नामक पुत्र मौजूद हैं।
यह परिवार श्वेताम्बर जैन स्थानकवासी आम्नाय का मानने वाला है। शादीलाल मुलखराज के नाम से इस परिवार का गुजरानवाला (पंजाब) में भादत का ब्यापार होता है।
सेठ धर्मसी माणकचन्द बोरड, सुजानगढ़ इस परिवार के पूर्व पुरुष सेठ धर्मसीजी करीव १०० वर्ष पूर्व देशनोक नामक स्थान से चलकर सुजानगढ़ आये । आपके चार पुत्र सेठ माणकचंदजी, चुन्नीलालजी, उत्तमचन्दजी वगैरह हुए। इनमें से माणकचन्दजी बड़े नामांकित और व्यापारकुशल सजन थे। आप लोगों का स्वर्गवास हो गया। इनमें से केवल सेठ चुनीलालजी के मोतीलालजी और भूरामलजी नामक दो पुत्र हुए। आप लोगों का यहाँ की पंच पंचायती में अच्छा नाम था । व्यापार में भी आपने बहुत तरक्की की। आप दोनों का भी स्वर्गवास हो गया। सेठ भूरामलजी के लाभचन्दजी और तालालजी नामक पुत्र हुए। लाभचन्दजी का स्वर्गवास हो गया।
इस समय मृतालालजी ही इस परिवार के व्यापार का संचालन करते हैं। आपने कलकत्ता में भी अपनी एक ब्रांच स्थापित कर उस पर कपड़े का व्यापार प्रारम्भ किया। इसमें आपको बहुत सफलता रही। आप यहाँ की म्युनिसिपैलेटी के मेम्बर रह चुके हैं। आपके पन्नालालजी नामक एक पुत्र है। आप भी मिलनसार और सजन व्यक्ति हैं। आपके जैनसुखजी, पृथ्वीराजजी और चम्पालालजी नामक तीन पुत्र हैं। इस समय आपका व्यापार सुजानगढ़, कलकत्ता, सरभोग (आसाम) इत्यादि स्थानों पर भिन्न २ नामों से जूट, कपड़ा, बेकिंग और सोना चाँदी का काम होता है। आप लोग तेरापंथी सम्प्रदाय के माननेबाके सजन हैं
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श्रोसवाल जाति का इतिहास 2
धरमसी माणकचन्द बोरड़, सुजानगढ़.
श्री पन्नालालजी बोरड़ ( धरमसी माणकचन्द), सुजानगढ़.
शाह धनरूपमलजी हरकावत, अजमेर.
सेठ हीराचन्दजी धाड़ीवाल, रायपुर. (C.P)
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खींवसरा
खींवसरा गौत्र की उत्पत्ति
उज्जैन के पवार राजा खीमजी एक बार भाटी राजपूतों से हार गये, तब इनको जैनाचार्य जिनेश्वरसूरिजी ने शत्रु वशीकरण मंत्र दिया। इससे शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर इन्होंने खीवसर नामक गाँव बसाया। कुछ समय तक इनका सम्बन्ध राजपूतों से रहा। पश्चात् इनके पौत्र भीमजी को दादा जिनदत्तसूरिजी ने ओसवाल जाति में मिलाया । कहीं २ खींवजी के वंशज शंकरदासजी को जैन बनाये जाने की बात पाई जाती है। खींवसर में रहने के कारण यह परिवार खींवसरा कहलाया ।
सेठ हजारीमल बनराज मूथा, मद्रास इस परिवार ने खीवसर से बीकानेर, नागौर आदि स्थानों में होते हुए जोधपुर में अपना निवास बनाया। यहाँ आने के बाद खोवसरा नाथाजी के पुत्र भमयराजजी तथा पौत्र अमीचन्दजी राज्य के कार्य करते रहे, अतएव इन्हें “मूथा" की पदवी मिली। अमीचन्दजी के पुत्र सीमलजी तथा मानोजी प्रतिष्ठित भ्यक्ति हुए । इन बन्धुओं को जोधपुर महाराज अभयसिंहजी ने संवत् १८०० में चौकड़ी गाँव में एक बेरा तथा १२५ बीघा जमीन जागीर में दी। इसी तरह मानाजी को संवत् १८०९ की फागुन सुदी के दिन महाराजा रामसिंहजी ने बेरा और २० बीघा जमीन जागीरी में इनायत की। थोड़े समय बाद मानाजी नाराज होकर पूना चले गये। तब महाराजा जोधपुर में रुक्का भेजकर इनको वापस बुलाया उस समय रीयां से बलूदा ठाकुर इनको अपना “पगड़ी बदल भाई" बनाकर बलंदे ले गये। तब से यह परिवार बलूदा में निवास कर रहा है। मूथा सीमलजी के परिवार में इस समय मूथा गणेशमलजी चिंगनपैठ में, मूथा फतेराजजी तथा धरमराजजी बंगलोर में और चम्पालालजी जालना में व्यापार करते हैं।
मूथा मानोजी के मालजी, सिरदारमलजी तथा धीरजी नामक पुत्र हुए। इनमें सिरदोरमलजी के परिवार में सेठ गंगारामजी हैं तथा धीरजी के परिवार में विजयराजजी और तेजराजजी मूथा है। मुथा धीरजी के बाद उदयचन्दजी तथा उनके पुत्र हंसराजजी खींवसराहुए । सेठ हंसराजजी के हजारीमलजी तथा बख्तावरमलजी नामक २ पुत्र हुए।
सेठ हजारीमलजी मूथा-आप संवत् १९०७ में बलूदे से पैदल राह चलकर जालना आये । बहाँ से संवत् १९१२ में बंगलोर आये और वहाँ दुकान स्थापित की। भाप बड़े प्रतापी तथा साहसी पुरुष हुए । बंगलोर के बाद आपने संवत् १९२५ में मद्रास में अपनी दुकान खोली। तथा इस फर्म
के व्यापार में आपने उत्तम सफलता प्राप्त की। संवत् १९४० में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके बनराजजी तथा चन्दनमलजी नामक दो पुत्र हुए। सेठ बनराजजी मूथा का जन्म संवत् १९२७ में हुआ।
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प्रोसवाल जाति का इतिहास
आपका स्वर्गवास २० वर्ष की आयु में हुआ। आपने भी इस फर्म के व्यापार को बढ़ाया। आपके नाम पर सेठ बिजेराजजी दत्तक आये।
सेठ बिजेराजजी मूथा- आपका जन्म संवत् १९४७ में हुआ। आपही इस समय इस दुकान के मालिक हैं । आपने इस दुकान के व्यापार की अच्छी तरकी की है। आप स्थानकवासी सम्प्रदाय के अनुयायी है। आपके पुत्र सजनराजजी १५ साल के तथा मदनराजजी ९ साल के हैं। आपके यहाँ बंगलोर, मद्रास, चिदम्बरम्, त्रिरतुराई पुडो, वरधाचलम् तथा सीयाली में बेकिंग व्यापार होता है। इन सब स्थानों पर यह फर्म प्रतिष्ठित मानी जाती है। सेठ गंगारामजी की और आपकी ओर से बलूदे में एक जैन स्कूल और बोडिंग हाउस चल रहा है। इसमें भाप २ हजार रुपया वार्षिक मदद देते हैं। इसी तरह वहाँ एक अमर बकरों का ठाण है। सेंटथामस माउण्ट में आपने एक मकान स्कूल को दिया है, तथा मद्रास स्थानक, सरदार हाई स्कूल जोधपुर तथा हुक्मीचंद जैन मण्डल उदयपुर में भी अच्छी सहायताएँ दी हैं। इस परिवार को जोधपुर स्टेट की तरफ से व्याह शादी के अवसर पर नगारा निशान मिलता है।
सेठ बख्तावरमल रूपराज मूथा, बंगलोर हम ऊपर लिख चुके हैं कि सेठ हंसराजजी खींवसरा के द्वितीय पुत्र सेठ बख्तावरमलजी थे । आप बलूदे से बंगलोर आये तथा यहाँ व्यापार स्थापित किया। आपने अपने ओसवाल बन्धुओं को मदद देकर बसाया, आपके समय यहाँ मारवादियों की २।४ ही दुकाने थीं। आप बड़े प्रतिष्ठित पुरुष हो गये हैं। आपके रूपराजजी तथा कुन्दनमकजी नामक दो पुत्र हुए। आप दोनों भाइयों का स्वर्गवास अल्प वय में ही हो गया। आपके कोई सन्तान न होने से मूथा कुन्दनमलजी के नाम पर चिंगनपैठ निवासी मूथा गणेशमलजी के पुत्र तेजराजजी को दत्तक लिया। आपका जन्म सम्वत् १९५२ में हुआ। आपकी दुकान बंगलोर में अच्छी प्रतिष्ठित तथा पुरानी मानी जाती है। आपके पुत्र सोहनराजजी, मोहनराजजी तथा पारसमलजी हैं।
सेठ शम्भूमल गंगाराम मूथा, बंगलोर इस परिवार के पूर्वज बलूदा निवासी मूथा मानाजी का परिचय हम ऊपर दे चुके हैं। इनके बाद क्रमशः सिरदारमलजी, उत्तमाजी तथा बुधमलजी हुए । बुधमलजी के नाम पर (सीमलजी के प्रपौत्र मूथा चौथमलजी के पुत्र) शम्भूमलजी दत्तक आये। मूथा शम्भूमलजी सम्वत् १९३४ में बंगलोर आये। तथा बंगलोर केंट में दुकान स्थापित कर आपने आपनी व्यापार दूरदर्शिता से बहुत सम्पत्ति उपार्जित की। आप का सम्वत् १९७२ में स्वर्गवास हुआ। आपके नाम पर मूथा गंगारामजी सम्बत् १९५९ में दत्तक आये । आप ही इस समय इस दुकान के मालिक हैं। आपने २० हजार के फंड से देश में एक पाठशाला खोली है तथा २ हजार रुपया प्रति वर्ष इस पाठशाला के अर्थ आप व्यय करते हैं। आपने अपने नामपर छानमलजी को दत्तक लिया है। इनका जन्म सम्बत् १९५९ में हुआ। यह दुकान बंगलोर के ओसवाल समाज में सबसे धनिक मानी जाती है। बंगलोर के अलावा मद्रास प्रान्त में इस दुकान की और भी शाखाएं हैं।
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० मूथा गंगारामजी खींवसरा (शंभूमल गंगाराम), बंगलौर.
सेठ दौंडीरामजी खींवसरा (दौंडीराम दलीचंद), पूना,
श्री हीराचन्दजी खींवसरा ( दोंडीराम दलीचन्द ), पूना.
श्री दलो चन्दजो खींवसरा ( दौंडीराम दलीचंद), पूना.
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० सेठ हजारीमलजी मूथा, ( हजारीमल वनराज ) मदास. स्व० सेठ बनराजजी मूथा, ( हजारीमल वनराज ) मद्रास.
सेठ विजयराजजी मूथा, ( हजारीमल वनराज ) मदास.
कुँवर सजनराजजी S/o सेठ विजयराजजी मूथा, मद्रास.
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स्त्रींवसरा
खींवसरा सरदारचंदजी उम्मेदचंदजी का खानदान, जोधपूर
इस परिवार के पूर्वज खींवसरा राजाजी संवत् १६६० में जोधपुर आये तथा यहां अपना निवास बनाया। इनकी छठी पीढ़ी में खींवसरा भींवराजजी हुए। आपने जोधपुर स्टेट में कई काम किये। आपके पुत्र दौलतरामजी तथा पौत्र मुकुन्दचन्दजी हुए। खींवसरा मुकुन्दचन्दजी स्टेट सर्विस के साथ २ बोहरगत का व्यापार भी करते थे । आपकी आर्थिक स्थिति बड़ी उन्नति पर थी । कागे में आपने श्री मुकुन्द बिहारीजी का मन्दिर बनवाया। इनको स्टेट से कैफियत और मुहर प्राप्त थी । संवत् १९२९ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके पुत्र खींवसरा सरदारचंदजी तथा उम्मेदचंदजी नामांकित व्यक्ति हुए ।
खींवसरा सरदारचन्दजी जेतारण आदि के हाकिम थे । संवत् १९३९ में आपका स्वर्गवास हुआ । आपके छोटे भ्राता उम्मेदचंदजी जोधपुर स्टेट की जांच पड़ताल कमेटी के मेम्बर थे । संवत् १९७७ में आपका स्वर्गवास हुआ । आप दोनों बंधु सरकारी नौकरी के अलावा अपने बोहरगत के व्यापार को चलाते रहे। सरदारचन्दजी के पुत्र सज्जनचन्दजी एवम् वक्कमचन्दजी तथा उम्मेदचन्दजी के पुत्र किशन चन्दजी तथा बलवन्तचन्दजी हैं। इनके किशनचन्दजी का स्वर्गवास होगया है । इनके पुत्र मेघचन्दजी हैं । इन बंधुओं में इस समय बलवन्तचन्दजी तथा मेवचन्दजी महकमा खास जोधपुर में सर्विस करते हैं । तथा सज्जनचन्दजी बोहरगत का व्यापार करते हैं । आप सज्जन व्यक्ति हैं । आप को भी स्टेटे से मुहर छाप प्राप्त है। आप लोग जोधपुर के ओसवाल समाज में प्रतिष्ठित माने जाते हैं ।
सेठ दोंडीराम दलीचन्द खींवसरा, पूना
इस परिवार का मूल निवास नाटसर ( जोधपुर स्टेट ) में है ।
वहाँ से सेठ जोधराजजी तथा उनके पुत्र मूलचन्दजी मूथा लगभग ८० साल पूर्व पूना जिला के सुखई नामक गांव में आये । आप संवत् १९२० के लगभग स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र गुलाबचन्दजी का संवत् १९३१ में तथा शिवराजनी का संवत् १९५९ में स्वर्गवास हुआ । सेठ गुलाबचन्दजी परिंचे (पूना) में व्यापार करते थे । आपके दोंडीरामजी, हीराचन्दजी, दलीचन्दजी तथा शिवराजजी के शंकरलालजी नामक पुत्र हुए।
सेठ घोड़ी रामजी खींवसरा - आपका जन्म शके १८११ में हुआ । आपके हाथों से व्यापार की विशेष उन्नति हुई । भरम्भ से ही समाज सुधार की भावनाएं आपके मन में बलवती थीं । आपने सन् १९०८ में जैनोन्नति नामक पत्र निकला । सन् १९११ में पूना में एक जैन बोर्डिंग स्थापित करवाया । जिसका रूपान्तर इस समय स्था० जैन बोर्डिंग है। ज्ञान मण्डल स्थापित कर छात्रों को स्कारशिप दिलवाने की व्यवस्था की । औसर मौसर आदि के विरुद्ध आवाज उठाई। संवत् १९७४ में परिचें नामक खेड़े को आपने उपर्युक्त न समझ कर आप अपने बन्धुओं के साथ पूना चले आये । तथा यहाँ जरी और रंगीन कपड़े का व्यापार स्थापित कर अपने दोनों छोटे बन्धुओं के सहयोग से इसमें बहुत सफलता प्राप्त की। आपकी कन्या श्री नंदूबाई ओसवाल का विवाह, आपने समाज की कुछ भी परवाह न कर बहुत सादगी से किया। आपके आचरणों का अनुकरण पूना के जैन युवकों में नवजीवन का संचार करता है ।
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ओसवाल जाति का इतिहास
इधर २ साल पूर्व आपने हीराचन्द दलीचन्द के नाम से बम्बई में भादत का व्यापार शुरू किया है। दोंडीरामजी के पुत्र माणिकलालजी, मोतीलालजी व्यापार में भाग लेते हैं । तथा हीराचन्दजी के पुत्र बदरीलालजी, कांतिलालजी तथा दलीचन्दजी के पुत्र बंशीलालजी, कन्हैयालालजी और चन्द्रकांतजी पढ़ते हैं। सेठ शिवराजजी के पुत्र शंकरलालजी इनकमटेक्स का कार्य करते हैं।
सेठ हंसराज दीपचंद खींवसरा, मद्रास इस परिवार का निवास डे ( नागौर के पास ) है। इस परिवार में सेठ नगराजजी के पुत्र हंसराजजी का जन्म संवत् १९०७ में हुआ। आप उद्योगी व धार्मिक प्रवृष्टि के पुरुष थे। आप संवत् १९२९ में मद्रास आये। तथा खेठ अगरचन्द मानचन्द के यहाँ सर्विस की। और फिर मारवाड़ चले गये। तथा वहाँ संवत् १९७३ में स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र भीमराजजी तथा दीपचंदजी हुए। इनमें भीमराजजी २० साल की उम्र में १९५६ में स्वर्गवासी हुए।
सेठ दीपचन्दजी विद्यमान हैं। आपका जन्म संवत् १९३७ में हमा। संवत् १९७४ में आपने मद्रास के बैकिंग तथा ज्वेलरी का व्यापार स्थापित किया। तथा अपनी होशियारी और बुद्धिमानी से इस व्यापार में बहुत सफलता प्राप्त की है। इस समय मद्रास में आपकी दुकान बहुत प्रतिष्ठित मानी जाती है। दीपचन्दजी खींवसरा का समाज की उन्नति की ओर अच्छा लक्ष्य है। आपने मद्रास में स्थानक बनवाने में मदद दी है। तथा इस समय भाप मद्रास स्थानकवासी स्कूल के सेक्रेटरी है। आप के नाम पर हुक्मीचन्दजी दत्तक आये हैं।
सेठ कनीराम गुलाबचन्द खींवसरा, धूलिया इस परिवार के पूर्वज जेठमलजी और उनके भाई वेणीदासजी नारसर ठाकुर के कामदार थे । वहाँ से यह परिवार बडल (मारवाड़) आया। तहाँ वहाँ से लगभग १५० साल पूर्व जेठमलजी के पुत्र कनी. रामजी और तिलोकचंदजी नालोद (धूलिया के पास) भाये। और वेणीदासजी का परिवार शाई खेड़ा (नाशिक)गया। सेठ कनीरामजी के पुत्र गुलाबचंदजी तथा प्रतापमलजी और तिलोकचन्दजी के हुकमी. चंदजी हुए। इनमें सेठ गुलाबचंदजी और प्रतापचन्दजी का व्यापार धूलिया में स्थापित हमा। इन दोनों भाइयों का व्यापार संवत १९३१ में अलग २ हुआ। तथा सेठ हुकमीचन्दजी के पुत्र कस्तूरचन्दजी फकीर. चन्दजी और चौथमलजी नालोद में व्यापार करते रहे। फकीरचंदजी प्रतिष्ठित पुरुष हुए । इनका तथा गुलाबचन्दजी का संवत १९४२ में स्वर्गवास हुआ। खींवसरा गुलाबचन्दजी के नाम पर जोगीलालजी बडलू से, तथा प्रतापमलजी के नाम पर तुलसीरामजी नालोद से दत्तक आये।
खींवसरा जोगीलालजी का जन्म संवत् १९३६ में हुआ। आप सेठ वेणीदासजी के प्रपौत्र है। धूलिया में भापकी दुकान सब से प्राचीन मानी जाती है । आप प्रतिष्ठित तथा समझदार व्यक्ति हैं। आपके पत्र टीकमचन्दजी. जवरीमलजी तथा सोभागमलजी हैं। भापके यहाँ सराफी व्यापार होता है। खीवसरा तुलसीरामजी के पुत्र रूपचन्दजी, तुलसीराम रूपचन्द के नाम से धूलिया में व्यापार करते हैं। तथा शेष३ भाता छोटे हैं। पह परिवार मंदिर मार्गोय भाम्नाय का मानने वाला है।
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नौलखा
सेठ नेमीचन्द हेमराज खींवसरा, लोनार (बसर) - इस परिवार का मूल निवास बढ़ी पादू (मेड़ते के पास ) है। वहाँ से सेठ गंभीरमलजी के पुत्र नेमीचंदजी संवत् १९४० में लोनार आये तथा देवकरण चांदमल बोहरा की दुकान पर सर्विस की । पीछे से इनके छोटे भ्राता पेमराजजी आनंदरूपजी, नंदलालजी, देवीचन्दजी तथा चंदूलालजी लोनार माये तथा इन भाइयों ने सम्मिलित रूप में व्यापार भारंभ किया। सेठ पेमराजजी तथा देवीचन्दजी विद्यमान हैं । इनके यहाँ "देवीचंद प्रेमराज" के नाम से व्यापार होता है। देवीचन्दजी के पुत्र उत्तमचंदजी हैं।
____ सेठ अनंदरूपजी का स्वर्गवास संवत् १९७५ में हुआ। आपके पुत्र हेमरानजी का जन्म संवत् १९५४ में हुआ। आपने स्वर्गीय सेठ मोतीलालजी संचेती की निगरानी में हिन्दू मुस्लिम दंगे को व दंगाइयों के आंदोलन को शांत करने में बहुत परिश्रम किया। भाप जातीय कुरीतियों को मिटाने में तथा शुद्धि संगठन में प्रयाशील रहते हैं। आपके यहाँ “नेमीचन्द हेमराज" के नाम से कपड़े का व्यापार होता है।
नौलखा
नौलखा परिवार अजीमगंज सबसे प्रथम सन् १७५० ई० में इस परिवार के पूर्व पुरुब बाबू गोपालचन्दजी नोलखा भजीमगंज आये, आप बड़े व्यापार दक्ष थे । अतः थोड़े ही समय में अच्छी उन्नति करली आपने अपने भतीजे बाबू जयस्वरूपचन्दजी को दत्तक लिया और बाबू जय स्वरूपचन्दजी ने बाबू हरकचन्दजी को दत्तक लिया।
__ हरकचन्दजी नालखा-आप सन् १८५७ में अपने पिता से अलग हो गये और अपने नाम से स्वतन्त्र व्यवसाय प्रारम्भ किया तथा अल्पकाल ही में इसमें अच्छी उन्नति करली। आपने कलकत्ता लधियान साहेबगंज, पुर्णियां, मुर्लीगंज, महाराजगंज और नवाबगंज में अपनी फर्मे खोली । बैंकिंग व्यवसाय के साथ ही जमीदारी खरीदने में भी आपने पूंजी लगाई। फलतः आपकी जमीदारी मुर्शिदाबाद, वीरभूमि
और पूर्णिया जिले में हो गई। आपका स्वर्गवास सन् १८०४ ई० में हुमा । भापके तीन पुत्र हुए जिनमें बूलचन्दजी नोलखा और दानचन्दजी नोलखा का स्वर्गवास सन् 1610 में हुमा। आपके तीसरे पुत्र बाबू गुलाबचन्दजी नोलखा थे।
गुलाबचन्दजी नोलखा-आपने म्यवसाय और स्टेट को अधिक बढ़ाया । आप मुर्शिदाबाद की लाल बाग बेच के १० वर्ष तक ऑनरेरी मजिस्ट्रेट रहे। आपने सन् १८८५ के अकाल में अपनी प्रजा का कर माफ कर दिया और तीन महीने तक दो हजार प्रपीड़ितों को भोजन देते रहे । आपने अजीमगंज का प्रसिद्ध "राजे विला" नामक उद्यान बनवाया। आप बहुत ही लोक प्रिय सहृदय सज्जन थे। आपका स्वर्गवास सन् १८९६ ई. के जून मास में हुआ। आपके पुत्र बाबू धनपतसिंह जी भी उदार और सहृदय सज्जन थे।
धनपतसिंहजी नोलखा-आपने बंगाल सरकारको १५ हजार की रकम अजीमगंज में गुलाब.
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भोसवाल जाति का इतिहास
चन्द नौलखा अस्पताल भवन के लिये दिये। इसी प्रकार २५ हजार की रकम मापने कलकत के शम्भूनाथ हास्पिटल में सर्जिकल वार्ड बनाने के लिये दिये। सरकार ने आपके कार्यों के सम्मान स्वरूप आपको सन् १९१० में "राय बहादुर" की पदवी प्रदान की। इतना ही नहीं सरकार ने आपको कलंगी के रूप में खिल्लत दे आपका भादर किया। आपका स्वर्गवास संवत् १९७० में हुआ । आपके दो पुत्र थे जिनके नाम बाबू भानन्दसिंह नौलखा और बाबू इन्द्रचन्द्रजी नौलखा थे। भाप दोनों ही क्रमशः सन् १९०४ और सन् १९०८ में निसन्तान स्वर्गवासी हुए। अतएव आपके नाम पर बाबू निर्मलकुमारसिंहजी नौलखा सुजानगढ़ से दत्तक भाये।
निर्मलकुमारसिंहजी नोलखा आपने १९७६ में स्टेट का कार भार सम्हाला । आप बहुत होनहार राष्ट्रीय विचारों के शिक्षित नवयुवक हैं। आपको शुद्ध खहर से बड़ा स्नेह है। आप जैन श्वेताम्बर सभा अजीमगंज, जियागंज एडवर्ड कोरोनेशन स्कूल के व्हाइस प्रेसिडेण्ट और अजीमगंज के म्युनिसिपल कमीभर हैं। १९१६ में आपकी ओर से यहां एक बालिका विद्यालय खोला गया है। इसके अलावा भाप बंगाल लैंड होल्डर्स एसोसियेशन, कलकत्ता क्लब, ब्रिटिश इण्डिया अशोसिएसन आदि संस्थाओं के भी मेम्बर हैं। हाल ही में आपने जैन श्वेताम्बर अधिवेशन अहमदाबाद के सभापति का स्थान आपने सुशोभित किया था। शिक्षा एवम् सामाजिक प्रतिष्ठा के साथ धार्मिक कामों की ओर भी आपका अच्छा लक्ष्य है। संवत् १९८२ में महात्मा गांधीजी अजीमगंज आये थे उस समय भापने १० हजार रुपया उनकी सेवा में भेंट किया था उसी साल जैनाचार्य ज्ञानसागरजी महाराज को भी ज्ञान भंडार में १० हजार रुयया दिया था । श्री पावापुरीजी में गांव के जैन श्वेताम्बर मन्दिर के जीर्णोद्धार में २० हजार रुपया गाया। आपको पुरातत्व विषयों से भी बहुत स्नेह है।
आपने अपने बगीचे में पुरानी बस्तुओं का एक संग्रह कर रखा है। इस समय आपके चरित्र कुमार सिंहजी नामक एक पुत्र है । आपकी बहुत से स्थानों पर जमींदारी है। तथा कलकत्ता अजीमगंज, और बड़िया, अकबरपुर, फबाड़ गोला इत्यादि स्थानों पर बैंकिंग, पाट और गल्ले का व्यापार होता है।
नौलखा परिवार, सीतामऊ कहा जाता है कि जब महाराजा रतनसिंहजी इधर मालवे में भाये तब इस खानदान वाले भी साथ थे। उनकी पत्नी यहां रतलाम में सती हुई, जिनके स्मारक रूप में आज भी चबूतरा बना हुआ है। और भाज भी इस परिवार के लोग अपने यहां होने वाले शुभ कार्यों पर पूजा करने के लिये वहां जाया करते हैं। यहीं से करीब १२५ वर्ष पूर्व सेठ धनाजी के पुत्र हरीरामजी सीतामऊ आये । यहाँ भाकर आपने स्टेट के खजाने का काम किया। भापके बड़े पुत्र हरलालजी आजीवन स्टेट के हाउस होल्ड आफिसर तथा छोटे पुत्र सवालालजी हाकिम रहे। स्टेट में भापका अच्छा सम्मान था।
सेठ हरलालजी के जैतसिंहजी और रामलालजी नामक दो पुत्र हुए । आप लोग भी स्टेट में सर्विस करते रहे। जैतसिंहजी के नन्दलालजी, खुमानसिंहजी और लालसिंहजी नामक तीन पुत्र हुए । इनमें लालसिंहजी. रामलालजी के नाम पर दत्तक रहे। प्रथम दो भाइयों का स्वर्गवास होगया। इस समय मंदलालजी के वस्तावरसिंहजी और किशोरसिंहजी नामक पुत्र विद्यमान है।
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धाड़ीवाल
श्री लालसिंहजी ने पहले पहल दरबार पेशी का काम किया । पश्चात् तहसीलदार रहे । इस समय आप स्टेट के रेव्हेन्यू आफिसर हैं । आप मिलनसार शिक्षित एवम् सज्जन व्यक्ति हैं । आपके प्रतापसिंहजी, कुबेरसिंह, हिम्मतसिंहजी, प्रहलादसिंहजी, गिरिशकुमारजी और सुमतिकुमारजी नामक ६ पुत्र हैं। बाबू प्रतापसिंहजी एम० ए० एल० एल० बी० और बाबू कुमेरसिंहजी बी० ए० हैं । आप दोनों भाई सज्जन और नवीन विचारों के हैं। आप मन्दिर संप्रदाय के मानने वाले हैं। सेठ झवालालजी के पुत्र धूलसिंहजी नाहरगढ़ नामक परगने के इजारे का काम करते रहे । । इनके ४ पुत्रों में से दो का स्वर्गवास होगया । शेष में एक लखपतसिंहजी आगरे में तहसीलदार हैं। तथा दूसरे विशनसिंहजी सीतामऊ स्टेट में सर्विस करते हैं ।
घाड़ीवाल
धाड़ीवाल गौत्र की उत्पत्ति
महाजन वंश मुक्तावली में लिखा है कि विभंग पाटन नगर में डेहूजी नामक एक उरभी वंशीय राजपूत रहते थे। वे इधर उधर धाड़े मारकर अपनी आजीविका चलाते थे। एक बार का प्रसंग है कि उहड़ खीची राजपूत अपनी लड़की का ढोला लेकर शिसोदिया राजा रणधीर के पास जा रहा था। रास्ते में डेहूजी मे इसे लूट लिया और इसकी लड़की बदन कुँवर को अपने साथ ले आया । इस बदन कुँवर से सोहड़ नामक एक पुत्र हुआ । इसे संवत् ११६९ में श्री जिनदत्त सूरिजी ने जैन धर्म का प्रतिबोध देकर जैन धर्मा वलम्बी बनाया। इसकी माँ धाड़े से लाई गई थी, अतएव इसका धादेवा गौत्र स्थापित हुआ । कालान्तर में यही धाड़ीवाल के नाम से पुकारा जाने लगा ।
सेठ मुल्तानचंद हीरचंद धाड़ीवाल, रायपुर
यह परिवार बगडी ( मारवाड़ ) का निवासी है। वहाँ से सेठ सरदारमलजी के बड़े पुत्र मुलतानचंदजी संवत् १९२४ में औरंगाबाद गये । वहाँ से आप संवत् १९२८ में अमरावती होते हुए जबलपुर गये तथा वहाँ रेजिमेंट के साथ कपड़े का व्यापार शुरू किया । जबलपुर से आप अपने छोटे भ्राता हीरचंद जी को लेकर पल्टन के साथ संवत् १९३५ में रायपुर ( सी० पी० ) आये । इन दोनों भ्राताओं ने कपड़ा आदि के व्यापार में लाखों रुपयों की सम्पत्ति उपार्जित की। सेठ मुलतानमलजी का संवत् १९७१ में स्वर्गवास हुआ । तथा सेठ हीरचंदजी मौजूद हैं। आपका जन्म संवत् १९१९ में हुआ ।
वर्तमान में मुलतानचंदजी के पुत्र लखमीचन्दजी तथा हीरचंदजी के पुत्र नथमलनी तथा उत्तमचंद तमाम कारवार सझालते हैं आपका जन्म क्रमशः संवत् १९५४ सं० १९५३ तथा १९६० में हुआ। आपकी दुकान रायपुर की प्रधान धनिक फर्म है । आपके यहाँ सराफी, वेडिंग व पुलगांव मिल की एजेंसी का काम होता है। बगड़ी में इस परिवार में एक जैन महावीर पाठशाला खोल रक्खी है। इसमें १२५ छात्र पढ़ते
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भोसवाल जाति का इतिहास
। इस पाठशाळा को आपने १५ हजार की लागत की एक बिल्डिंग भी दी है। यह परिवार बगड़ी में अच्छी प्रतिष्ठा रखता है । नथमलजी के पुत्र सम्पतराजजी तथा केसरीचंदजी और हुकमचन्दजी के पुत्र सुगनचन्दजी हैं।
सेठ फतेमल अजितसिंह धाड़ीवाल, भीलवाड़ा
सोहड़जी की ३५ वीं पुश्त में मेघोजी नामक व्यक्ति हुए। इनके देवराजजी और हंसराजजी नामक दो पुत्र थे । इनमें से सेठ हंसराजजी गुजरात प्रांत छोड़कर सांगानेर नामक स्थान पर आये । यहाँ आपके दौलतरामजी और सूरजमलजी नामक दो पुत्र हुए। अपने पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर आप दोनों भाई अलग हो गये। इनमें दौलतरामजी भीलवाड़ा तथा सूरजमलजी सरवाड़ नामक स्थान पर चले गये । सेठ दौलतरामजी के गंभीरमलजी और नथमलजी नामक दो पुत्र हुए। सेठ गंभीरमलजी बड़े व्यापार कुशल व्यक्ति थे । आपने व्यापार में लाखों रुपये पैदा किये । आपकी उस समय जाबद, शाहपुरा, कंजेड़ा आदि कई स्थानों पर शाखाएँ थीं । सेठ नथमलजी भीलवाड़ा जिले के हाकिम हो गये थे। आपकी यहाँ बहुत प्रतिष्ठा थी । आपके नाम पर तिंवरी से नवलमलजी दत्तक आये । सेठ गंभीरमलजी के भी कोई पुत्र म था, अतएव आपके नामपर सर वाड से कल्याणमलजी दत्तक आये । आप लोगों ने भी अपने व्यवसाय की अच्छी तरक्की की । संवत् १९२२ में फिर आप लोग अलग २ हो गये ।
सेठ कल्याणमलजी के तीन पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः फतेमलजी, जवानमलजी और इन्द्रमल जी हैं। इनमें से फतेमलजी अपने चाचा नवलमलजी के नाम पर दत्तक रहे । जवानमलजी का स्वर्गवास हो गया । इन्द्रमलजी अपने पुराने आसामी देनलेन के व्यवसाय का संचालन कर रहे हैं। आपके रिषभचंदजी और पार्श्वचन्दजी नामक २ पुत्र हैं। प्रथम बी० ए० में पढ़ रहे हैं। सेठ फतेमलजी इस समय अपने पुराने व्यवसाय का संचालन कर रहे हैं। यहाँ की ओसवाल पंचायती में आपका बहुत सम्मान है । आपके द्वारा कई फैसले किये जाते हैं। आपके अजीतमलजी नामक एक पुत्र हैं। आप अभी विद्याध्ययन कर रहे हैं। अजीतमलजी के भँवरलालजी नामक एक पुत्र हैं ।
श्री शिवचंदजी धाड़ीवाल, अजमेर
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शिवचन्दजी घाड़ीवाल - आपका जन्म सम्वत् १९२३ में अजमेर में हुआ । सम्वत् १९४४ से आप २८ सालों तक बीकानेर स्टेट में डिप्टी सुपरिन्टेन्डेण्ट बन्दोवस्त अफसर कइतसाली, रेलवे इन्सपेक्टर और कई जिलों के हाकिम रहे | आपको उर्दू और फारसी का अच्छा ज्ञान है। आपके गोपीचन्दजी तथा हीरा. चन्दजी नामक २ पुत्र हुए। शिवचन्दजी के छोटे भ्राता हरकचन्दजी एल एम० एस० कई स्थानों पर मेडिकल आफीसर रहे । सम्वत् १९७२ में उनका स्वर्गवास हुआ। उनके नाम पर हरीचन्दजी दत्तक गये ।
गोपीचन्दजी घाड़ीवाल - आपका जन्म संवत् १९५२ में हुआ । आपने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से बी० एस० सी० एल० एल० बी० की डिगरी हासिल की। फिर २ साल अजमेर में वकालत करने के बाद भाप मेसर्स बिड़ला ब्रदर्स लिमिटेड के जूट डि० में नियुक्त हुए। और इस समय आप इस फर्म के असिस्टेंट
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घाडीवाल
मैनेजर हैं। आप बड़े शान्त, अनुभवी तथा मिलनसार सज्जन है। सन् १९९० में भाप बिड़ला ब्रदर्स की तरफ से ईस्ट इण्डिया प्रोड्यूज के डायरेक्टर होकर विलायत गये थे। आपके पुत्र फतहचन्दजी पढ़ते हैं तथा हेमचन्द्रजी अजमेर में रहते हैं। धाड़ीवाल हरीचन्दजी का जन्म सम्बत् १९५६ में हुमा । आपने बी, कॉम तक अध्ययन किया । कुछ दिन जयाजीराव मिल में सर्विस की, तथा इस समय अजमेर में रहते हैं। यह परिवार अजमेर के ओसवाल समाज में उत्तम प्रतिधा रखता है। इस परिवार में धाड़ीवाल वीपचन्दजी के पुत्र लक्ष्मीचन्दजी धाड़ीवाल एम० ए० एल० एल० बी० प्रोफेसर होल्कर कॉलेज इन्दौर हैं।
सेठ मुलतानमल शेषमल धाड़ीवाल का परिवार, कोलार गोन्ड फील्ड
इस परिवार के मालिकों का मूल निवास स्थान बगढ़ी (जोधपुरस्टेट) का है। आप ओसवाक जैन श्वेताम्बर समाज के बाइस सम्प्रदाय को मानने वाले सजन हैं। इस परिवार में सेठ मुलतानमलजी संवत् १९४६ में बंगलोर आये और यहाँ आकर भापने मेसर्स आईदान रामचन्द्र के यहाँ दो साल तक सर्विस की। इसके दो वर्ष बाद आपने बंगलोर में लेन देन की दुकान स्थापित की। सम्वत् १९५७ के लगभग श्री मुलतानमलजी ने कोलार गोल्ड फील्ड के अण्डरसन पेठ में एक लेन देन की धर्म स्थापित की जो आज तक बड़ी अच्छी तरह से चल रही है । आपका सम्वत् १९३० में जन्म हुआ है। आप बड़े साहसी तथा व्यापारकुशल सजन हैं। आपका धर्म ध्यान में अच्छा लक्ष्य है। करीब २ सालों से इस फर्म में से मेसर्स आइदान रामचन्द्र का भाग निकल गया है। भापके इस समय तीन पुत्र हैं जिनके नाम श्रीशेषमलजी, अमोलंकचन्दजी तथा केवलचन्दजी हैं। आप तीनों भाइयों का जन्म क्रमशः सम्वत् १९६५, १९७१ तथा १९७३ का है। आप तीनों ही बड़े योग्य और नवीन विचारों के सजन हैं। श्री केवलचन्दजी इस समय मेट्रिक में पढ़ रहे हैं।
इस परिवार की मलतानमल शेषमल के नाम से अण्डरसनपेठ में तथा मुलतानमल मिश्रीलाल के नाम से रेलामेठम् अर्कोनम् में बैकिंग का व्यवसाय होता है। यह फर्म यहाँ मातबर मानी जाती है।
हरखावत गौत्र की उत्पत्ति
संवत् ९१२ में पवार राजा माधवदेव को भहारक भावदेवसूरिजी ने प्रतिबोध देकर जैन धर्म अंगीकार करवाया । संवत् १३४० में इस परिवार के पामेचा साः रतनजी ने शाही फौज के साथ कुवाड़ियों से लड़ाई की इसलिए इनकी गौत्र “कुवाद" हुई । संवत् ११४४ में इस परिवार में हरखाजी हुए। इनकी संतानें “हरखावत” कहलाई। इन्होंने सिरोही, जोधपुर तथा जालोर में मंदिर बनवाये, शत्रुजय का संघ निकाला । इनके पुत्र विमलशाहजी मेड़ते के सम्पत्तिशाली साहुकार थे । भापको बादशाह ने "शाह" की पदवी दी। इनके कुशलसिंहजी तथा सगतसिंहजी नामक २ पुत्र हुए।
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मोसवाल जाति का इतिहास
,, हरखावत कुशलसिंहजी का परिवार, इन्दौर
हरखावत कुशालसिंहजी अच्छे प्रतिष्ठित व्यक्ति हुए। आपके परतापसिंहमी, कल्याणसिंहजी, परथीसिंहजी, विनवसिंहजी, बहादुरसिंहजी तथा केसरीसिंहजी नामक ६ पुत्र हुए। इनमें सम्वत् १८७९ में बहादुरमलजी की धर्मपत्नी उनके साथ सती हुई। संवत् १८२३ में इस परिवार को गाँव जागीर में मिला । उस सम्बन्ध में इनको निम्न परवाना मिला था ।
सिंघवी फतेचन्द लिखावंत प्रगणे मेडतारा गांवरा माचारणरी वीसणी तर्फे हवेली रा चोधरियां लोकांदिसे-तथा गांव साः परतापमल, कल्याणमल कुशलमल विमलदास रे पट्टे हुश्रा के सु संवत १८२४ रा साख साबण था अमलदीजो दाण जमा खंदी वगेरा बाब दरबार छे रेख १००१ इनायत बालसा री संवत १८२३ आषाढ वदी ७
उपरोक ग्राम अभी तक इस परिवार के अधिकार में चला आता है। हरखावत प्रतापमलजी के पुत्र उम्मेदमलजी, बख्तावरमलजी, हिन्दूमलजी, ईसरदासजी तथा जगरूपमलजी हुए। इनमें ईसरीदासजी के माम पर जगरूपमलजी के छोटे पुत्र मगनमलजी दत्तक आये। मगनमलजी के पुत्र सरदारमलजी केथूली (इन्दौर-स्टेट) में रहते थे। तथा भानपुरा आदि की सायरों के इजारे का काम करते थे। तथा मालदार साहुकार थे। इनके पुत्र सिरेमलजी भी भानपुरा में एक प्रतिष्टित पुरुष हो गये हैं। यहाँ की जनग आपका बहुत सम्मान करती थी। माप भाजन्म कस्टम इन्सपेक्टर रहे। वर्तमान में आपके पुत्र शिवराजमलजी इन्दौर स्टेट के गरोठ परगने में सब इक्साइज इन्सपेक्टर हैं। आप बड़े मिलनसार तथा समझदार युवक हैं।
हरखावत सगतसिंहजी का परिवार, अजमेर शाह सगतसिंहजी के पश्चात् क्रमशः शिवदासजी, निहालचन्दजी, वरदीचंदजी तथा प्रभूदानजी हए । संवत् १९11 में शाह प्रभूदानजी जोधपुर दरबार की ओर से अजमेर दरबार में खलीता लेकर गये थे। संवत् १९१४ के गदर में भाप रावजी राजमलजी लोढ़ा के साथ फौज लेकर उवा तथा आसोप की बागी फौजों को दबाने के लिये गये थे। जब राजमलजी वहाँ काम आगये तब आप फौज को वापस लेकर जोधपुर आये । तथा वहीं आपका स्वर्गवास हुमा । आपके पुत्र पुसमलजी संवत् १९२७ में स्वर्गवासी हुए इनके पुत्र शाह हमीरमलजी विद्यमान हैं। आपका जन्म संवत् १९२२ में हुआ। आपने ३० सालों तक अजमेर रेलवे के ऑडिट ऑफिस में सर्विस की । सन् १९१६ में आप रिटायर्ड हुए। भापके पुत्र कुंवर धनरूपमलजी का जन्म १९४२ में हुआ। आपने संवत् १९६१ में कपड़े तथा गोटे का व्यापार किया । तथा इस समय जवाहरात का व्यापार करते हैं। आप अजमेर के प्रतिष्ठित जौहरी माने जाते हैं। आपके पास क्यूरियो तथा जवाहरातका अच्छा संग्रह है।
सेठ मनीरामजी देवीचन्दजी हरखावत, सीतामऊ करीब १२५ वर्ष पूर्व इस परिवार के पूर्व पुरुष सेठ कपूरचन्दजी रतलाम से सीतामऊ भाये । यहाँ आकर आपने व्यापार में अच्छी सफलता प्राप्त की। आपके मनीरामजी नामक एक पुत्र हुए।
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ कनकमलजी चौधरी, बड़नगर.
जौहरी रतनचंदजी पारख, देहला. ( परिचय पेज नं० ५४७ में )
मेहता लालसिंहजी नौलखा, सीतामऊ.
मेहता नाथूलालजी रतनपुरा कटारिया, सीतामऊ ( परिचय पेज नं० ३६५ में )
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पावेचा
मनीरामजी के पुत्र देवचन्दजी बड़े प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति हुए। यहां की जनता में भापका बहुत सम्मान था। एक बार आपने जनता पर लगाये गये इनकमटेक्सको सरकार से माफ करवाया था। राज्य दरबार में भी आपका अच्छा सम्मान था। आपने यहाँ मन्दिर में एक रिषभदेव स्वामी की स्त्री बनवाई। आपके नीमचन्दजी नामक पुत्र हुए। इनके नाम पर सेंट जवाहरलालजी दत्तक आये। वर्तमान में भाप ही इस परिवार के व्यवसाय के संचालक है। भाप सजन और मिलनसार व्यक्ति हैं। भापके नानालालजी भगवती. लालजी और मनोहरलालजी मामक तीन पुत्र हैं। यह परिवार सीतामऊ में बहुत प्रतिष्ठित माना जाता है।
पावेका
बड़नगर का चौधरी परिवार इस परिवार वालों का गौत्र पावेचा है। भाप लोगों का मूल निवास स्थान सोजत का है। करीव ३.. वर्षों से इस परिवार के लोग इधर मालवा प्रांत में आकर बस रहे हैं। कहा जाता है कि जब मारवाद से राठोद लोग इधर मालवे में आये तब उनके साथ भापके पूर्वज भी थे। रतलाम, साबुना, बदनावर बगेरह स्थानों पर जब कि राठोड़ों का अधिकार होगया तब इस परिवार वाले साबुभा में रहे । यहाँ से फिर कुछ तो समिजा चले गये और कुछ बदनावर चले आये। उपरोक परिवार पदनावर वालों का है। रूनिजा में इस खानदान के लोग कामदार वगैरह ऊँची २ जगहों पर रहे। बदनावर में भी आप लोगों काबहत सम्मान रहा। किसी कारणवश इस परिवार के लोग फिर बदनावर को छोडकर नीलाईजा इस समय बड़नगर कहलाता है-नामक स्थान पर आये। इसके पूर्व जब कि आप बदनावर में ये भापके यहाँ गल्ले का बहुत बड़ा व्यापार होता था। अतएव यहां भापकी अनाज की बहुत सी खत्तिर्या भरी हुई थीं। इस समय मौलाई के स्वतन्त्र राजा थे। इसी समय यहां बड़ो भारी दुष्काल पड़ा। इस विपत्ति के समय में सेठ साहब ने मुफ्त में धान वितरण कर जनताकी सहायता की। इससे प्रसन्न होकर सरकालीन नौलाई-नरेश ने आपको 'चौधरी का पद प्रदान किया। तब से आजकल आपके वंशज चौधरी कहलाते चले आ रहे हैं और चोधरायत कर रहे हैं।
भागे चल कर इस परिवार में सेठ माणकचन्दजी हुए। माणकचन्दबी के भैरोंदानजी और लखमीचन्दजी नामक दो पुत्र हुए। भाप दोनों भाई बड़े प्रतिभा सम्पन व्यक्ति थे। यहां की जनता में आपका बहुत बड़ा सम्मान था। सारी जनता एक स्वर में आपकी भाश मानने को हमेशा तैयार रहती थी। दरबार से भी आपको बहुत सम्मान प्राप्त था। बाप कोगों को कई प्रकार के टैक्स माफ थे। आप ही के कारण इस शहर की बसावट में वृद्धि हुई तथा कई भोसगड परिवार यहां भाये । आप लोगों का स्वर्गवास होगया। सेठ भैरोंदानजी के श्रीचन्दजी और सेठ समीचंदजी के दुलिचन्दजी
और जवरचन्दजी नामक पुत्र हुए। सेठ दुलिचन्दजी के पौत्र ठाकवन्दजी के पुत्र गेंदालालजी इस समय विद्यमान है। सेठ जवरचन्दजी के कोई संतान नहीं हुई। माप वहां के नामांकित व्यक्ति थे। सेठ श्रीचन्दजी के चार पुत्र हुए। जिनके माम फतेचन्दजी, बापूलालजी, कस्तूरचन्दजी और
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भोसवाल जाति का इतिहास
हजारीमलजी था । फतेचन्दजी का कम वय में ही स्वर्गवास होगया। शेष तीनों भाइयों के हाथों से इस फर्म की अच्छी तरक्की हुई। मगर संवत् १९४२ के बाद ही आप लोग अलग २ होगये और स्वतन्त्र रूप से अपना २ व्शपार करने लगे ।
सेठ बापूलालजी बड़ी सरल प्रकृति के पुरुष थे। यहां की जनता में आपका अच्छा सम्मान थी । आप का स्वर्गवास संवत् १९८४ में होगया । आपके छगनलालजी, सौभागमलजी, कनकमलजी, चांदमलजी और लालचंदजी नामक पांच पुत्र हैं। इनमें से सेठ कनकमलजी अपने चाचा सेठ हजारीमल जी के यहां दत्तक गये । शेष चारों भाई शामलात में श्रीचन्द बापूलाल के नाम से व्यापार कर रहे हैं। आप लोग मिलनसार सज्जन हैं। आज भी गांव की चौधरायत आप ही के पास है । सेठ कस्तूरचन्दजी भी योग्य सज्जन थे । आप आजीवन व्याज का काम करते रहे। आपके कोई पुत्र न होने से आपके नाम पर सूरजमलजी दशक लिये गये हैं। वर्तमान में आप श्रीचंद कस्तूरचन्द के नाम से व्यापार करते हैं। आपके इन्दौरीलालजी नामक एक पुत्र हैं ।
• सेठ हजारीमलजी ने अपने भाइयों से अलग होकर व्यापार में बहुत तरक्की की। आप चतुर व्यापारी थे । आपने अफीम के वायदे के व्यवसाय में लाखों रुपये की सम्पति उपार्जित की। आपका स्वभाव बड़ा आनन्दमय और मिलनसार था । आपके यहां सेठ कनकमलजी दशक भये । वर्तमान में आप श्रीचंद हजारीमलजी के नाम से ब्याज का काम करते हैं। आप परोपकारी, शिक्षित और सज्जन व्यक्ति हैं । आपने हजारों लाखों रुपया सार्वजनिक काय्यों में खर्च किया है। आपकी ओर से एक कन्या पाठशाला, प्रसूतिगृह, पब्लिक लायब्रेरी इत्यादि संस्थाएँ चल रही हैं। इन सबका खर्च आप ही उठाते हैं। इसके अतिरिक्त आपने लोगों की सुविधा के लिये स्थानीय स्मशानघाट को पक्का बनवा दिया है। मन्दिर में आपने ७०००) की एक चांदी की वेदी भेंट की है। आपके पिताजी के नाम पर आपने नगर चौरासी की उसमें डेढ़ लाख रुपया खर्च किया । इसी प्रकार आपके पुत्र जन्म पर ५० हजार रुपया खर्च हुआ। लिखने का मतलब यह है कि आपने अपने हाथों से लाखों रुपया खर्च किया । आपके इस समय अभयकुमारजी नामक एक पुत्र है । बड़नगर में यह परिवार बहुत प्रतिष्ठित माना जाता है ।
सेठ उकारजी लालचन्दजी नांदेचा ( खेत पालिया ), मुल्यान ( मालवा )
इस परिवार वालों का वास्तविक गौत्र नांदेचा है, मगर बहुत वर्ष पूर्व इस खानदान के पुरुष खेताजी पर एक बार क्षेत्रपालजी बहुत प्रसन्न हुए थे अतएव तब ही से ये लोग खेतपालिया कहलाने लगे। इसके बाद करीब २५० वर्ष पूर्व इस परिवार के लोग मालवा प्रांत में आकर बसे । सेठ गुमानजी के पिताजी ने मुल्थान में अफीम का व्यापार करना प्रारम्भ किया। इसमें उन्हें अच्छी सफता ! मिली आपके बाद सेठ गुमानजी ने फर्म का संचालन किया । आप दबंग व्यक्ति थे । आपका व्यापार मोघिये लोगों से होता था, अतएव यह परिवार मोधिया वाले के नाम से प्रसिद्ध है । आपके ओंकारजी नामक एक पुत्र हुए ।
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ओसवाल जाति का इतिहास
HAN
सेठ सरूपचंदजी नांदेचा, खाचरोद.
सेठ प्रतापचन्दजी नांदेचा, खाचरोद.
सेठ हीरालालजी नांदेचा, खाचरोद.
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नांदेचा
सेठ भोंकारजी ने इस फर्म के व्यवसाल में बहुत उन्नति की। आपके पुत्र लालचन्दजी भी बड़े योग्य पुरुष थे। आपने भी काफी उन्नति कर फर्म की वृद्धि की । आप दोनों का स्वर्गवास होगया। जिस समय सेठ लालचन्दजी का स्वर्गवास हुआ उस समय. भापके पुत्र स्वरूपचन्दजी नाबालिग थे। अतएव फर्म का संचालन रामाजी बोरा नामक एक व्यक्ति ने किया। आप भी भापके एक रिश्तेदार थे ।
सेठ स्वरूपचन्दजी इस परिवार में खास व्यक्ति हुए। आपने मुल्योन स्टेट के खजांची का काम किया। आपके समय में ही इस फर्म पर काछी बड़ौदा, निजा, पचलाना, बावनगढ़, दौतरिया कानौगा, कठौड़िया इत्यादि ठिकानों का काम शुरू हुआ। प्रायः इन सभी ठिकानों में भापका अच्छा सम्मान था। इनके द्वारा आपको समय २ पर कई प्रशंसा सूचक रुक्के भी प्राप्त हुए थे। धार स्टेट से आपको 'सेठ' की पदवी मिलीथी । मुल्थान ठिकाने से आपको जागीर और बैठक का सम्मान मिला हुआ था। जो इस समय भी इस परिवार वालों के पास है । मुल्थान के अलावा आपने खाचरोद में भी अपनी एक फर्म स्थापित की, जो इस समय सुचारु रूप से चल रही है। लिखने का मतलब यह है कि आप इस खानदान में बड़े प्रभाविक और प्रतिष्ठित व्यक्ति हुए। आपका स्वर्गवास हो गया। आपके चार पुत्र हुए, जिनके नाम पचालालजी, प्रतापमलजी, गेंदालालजी और कन्हैयालालजी था। इनमें से अंतिम तीनों का स्वर्गवास आपकी मौजूदगी ही में होगया था। आपके स्वर्गवास होने के पश्चात् ही आपके चौथे पुत्र का भी स्वर्गवास होगया। इनमें से केवल सेठ प्रतापमलजी के हीरालालजी नामक एक पुत्र हुए। जिस समय आप लोगों का स्वर्गवास हुआ उस समय हीरालालजी नाबालिग थे। अतएव फर्म का संचालन स्वरूपचन्दजी के भानजे सेठ इन्द्रमलजी ने देखा। जो इस समय भी बरावर देख रहे हैं। आप भी बड़े व्यापार कुशल और मेधावी सज्जन हैं । आपके द्वारा इस फर्म की बहुत उन्नति हुई है।
सेठ हीरालालजी संवत् १९७० से व्यापार में लगे। आपके सामाजिक विचार बड़े ऊँचे हैं । धार्मिक एवम् सार्वजनिक कार्यो की ओर भी आपका बहुत ध्यान है। आपने अपने दादाजी के स्मारक स्वरूप उनके निकाले हए दान से एक जैन स्वरूप पाठशाला स्थापित कर रखी है। जिसमें इस समय ७० विद्यार्थी विद्याध्ययन कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त आपने यहां एक प्रान्हवेट लायब्रेरी भी स्थापित कर रखी हैं जिससे यहां की जनता लाभ उठा सकती है। स्थानीय श्री. श्वेताम्बर साधुमार्गीय जैन हितेच्छु मण्डल की ओर से यहाँ एक विद्यालय स्थापित है उसमें भी माप २००) माहवार खर्च के लिये प्रदान करते हैं। इसी प्रकार और भी कई सार्वजनिक कार्यों में आपकी ओर से सहायता प्रदान की जाती है, आप मिलनसार, सजन और उत्साही व्यकि हैं। आपको साहुकारों की दरबारी बैठक में प्रथम स्थान मिला हुआ है भाप परगना बोर्ड के भी मेम्बर हैं। भापका ब्यापार इस समय मुल्थान और खाचरोद में बैकिंग और भासामी लेन देन का हो रहा है।
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छाजेड़
छाजेड़ गौत्र की उत्पात — ऐसी किम्बदन्ति है कि सबीबाणगढ़ नामक स्थान में राठोड़ राजपूत धांधल रामदेव के पुत्र काजल निवास करते थे । इन्हें चमत्कारों पर विश्वास नहीं था । अतएव ये हमेशा इसी खोज में रहते थे एक बार उन्हें श्री जिनचन्द्रसूरि ने इन्हें चमत्कार बतलाया कहा जाता है कि उन्होंने इन्हें ऐसा वासक्षेप चूर्ण दिया कि जो दीपमालिका की रात्रि में जहाँ डाला जाय वह स्थान सोने का होजाय । इन्होंने चूर्ण प्राप्त कर मन्दिर उपाश्रय और अपने घर के छज्जों पर डाल कर सूरिजी की परीक्षा करनी चाही । कहना न होगा कि सुबह सब छज्जे सोने के हो गये । यह चमत्कार देखकर काजल ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया । तब ही से इनके वंशज छज्जे से छजेहड़ कहलाये । आगे चल कर यही नाम छाजेड़ रूप में बदल गया ।
रायबहादुर सेठ लखमीचन्दजी छाजेड़ का खानदान, किशनगढ़
इस परिवार के पूर्व पुरुष सेठ कल्याणमलजी छाजेड़ सन् १८४८ में व्यापार के लिए अपने निवासस्थान किशनगढ़ से झांसी गये और जाकर दमोह तहसील के खजांची हुए। वहाँ के कप्तान डी० रास आपको अपने साथ पंजाब ले गये तथा सन् १८४९ में लय्या कमिश्नरी का खजांची बनाया । आप वहाँ के दरबारी तथा म्यु० मेम्बर थे । लख्या कमिश्नरी के टूट जाने पर आप सन् १८६० में देराइस्माइल खाँ के खजांची हुए । सन् १८७७ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र लखमीचन्दजी तथा रामचन्दजी हुए ।
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मिला तथा सन १९११ में देहलीदरबार के सन १९१२ में आपका स्वर्गवास हुआ।
रा० ब० सेठ लखमीचन्दजी छाजेड़-अप देहरागाजीखाँ के म्यु० मेम्बर थे । पिताजी के गुजरने पर आप देहराइस्माईलखाँ कमिश्नरी के खजांची बनाये गये साथ ही सब जिलों के म्युनिसिपल ट्रेसर भी आप निर्वाचित हुए। आप इक्कीस सालों तक वहाँ ऑनरेरी मजिस्ट्रेट रहे । किशनगढ़ स्टेट ने आपको दरबारी बैठक और "शाह" की पदवी दी । किशनगढ़ स्टेट ने आपको सन् १९०२ में देहलीदरबार में भेजा । १९०१ में फ्रांटियर में मासूद ब्लांकेट शुरू हुई, उसमें आपने बहुत इमदाद दी । १९०६ में आपको "रायसाहिब" का खिताब समय आप " रायबहादुर" के सम्मान से विभूषित किये गये । आपके छोटे भ्राता रामचन्द्रजी देहरा. गाजीखाँ के ट्रेशरर रहे। अभी उनके पुत्र हीराचन्दजी इस खजाने का काम देखते हैं। सेठ लखमीचन्दजी ने किशनगढ़ स्टेशन पर एक धर्मशाला बनवाई। आपके गोपीचन्दजी तथा अमरचन्दजी नामक दो पुत्र हैं । रायसाहब गोपीचन्दजी — आपका जन्म संवत् १९४७ में हुआ । पर वेराइस्माईलखा, गाजीखाँ, बन्नू और मियांवाली के खजांची हुए। १५ सालों तक देहरा इस्माईल खाँ में आप ऑनरेरी मजिस्ट्रेट रहे । वायसराय ने आपको सन् १९१७ में सेंट जॉन एम्बुलेंस का ऑनरेरी कौंसिलर बनाया। सन् १९२१ में आप शाही दरबारी बनाये गये । तथा इसके २ साल बाद आपको रायसाहिब का खिताब इनायत हुआ । इसी तरह आप वहाँ की कई सरकारी
आप अपने पिताजी के स्थान
वहाँ के आप दरबारी थे ।
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ओसवाल जाति का इतिहास
रायबहादुर स्व. लक्ष्मीचन्दजी छाजेड़, किशनगढ़.
सेठ कस्तूरचन्दजी छाजेड़, मदास.
रायसाहब सेठ गोपीचन्दजी छाजेड़, किशनगढ़,
बा० उत्तमचन्दजी छाजेड़, मदास.
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छाज
सभा सोसायटियों व डिपार्टमेंटों के मेम्बर रहे। आपको किसनगद स्टेट में भी शाह की पदवी तथा दरबारी बैठक दी थी। आपके छोटे भ्राता अमरचन्दजी तमाम कामों में भापका साथ देते रहे। भाप दोनों बन्धु इस समय किशनगढ़ में रहते हैं। गोपीचंदजी के पुत्र बालचन्दजी, सुगनचन्दजी, पेमचन्दजो तथा गुलाब चन्दजी हैं । अमरचन्दजी के पुत्र घेवरचन्दजी मेट्रिक पास है।
श्री प्रतापमलजी छाजेड़, जोधपुर प्रतापमलजी छाजेड़ उन व्यक्तियों में है, जो अपनी बुद्धिमत्ता एवं परिश्रम के बलपर साधारण स्थिति से उन्नति कर समाज में एक वजनदार स्थान प्राप्त करते हैं। भापके पिताजी पचपदरा में नमक का व्यापार करते थे उनका संवत् १९७२ में स्वर्गवास हुआ। इनके प्रतापमलजी, मीठालालजी तथा मिश्रीमलजी नामक ३ पुत्र हुए।
प्रतापमलजी छाजेड़-आपका जन्म संवत् १९४४ में हुआ। आप सन् १९०२ में पचपदरा साल्ट हि० की हुकूमत में अहलकार हुए। वहाँ से १९१३ में जोधपुर भाये तथा इसके एक साल बाद मारवाद की वकीली परीक्षा में प्रथम श्रेणी में सर्वप्रथम उत्तीर्ण हुए। तबसे भाप जोधपुर में प्रेक्टिस करते है. तथा यहाँ के प्रसिद्ध वकील माने जाते हैं। आपको स्थानीय वार एसोसिएशन ने अपना प्रधान चुनकर सम्मानित किया है। जोधपुर के हिन्दू मुसलमानों के बकरों के सम्बन्ध के झगड़े में तथा दोनों कौमों के तालाब के मगहों में स्टेट कौंसिल ने इन्हें झगडा निपटाने वाले सदस्यों में निर्वाचित किया था। हाई कोर्ट की वकालत के सिवाय आप कई प्रसिद्ध ठिकानों के वकील भी हैं। भाप जोधपुर राजकुमारी (बाईजीलाल) के विवाह के समय कोटा दरबार के कैम्प के प्रवन्धक मुकर्रर हुए थे। हरएक अच्छे कामों में आप सहायताएँ देते रहते हैं। जोधपुर के ओसवाल समाज में तथा शिक्षित समाज में मापकी उत्तम प्रतिष्ठा है। आपके पुत्र सोहनलालजी पढ़ते हैं। आपके भाई मीठालालजी "हजारीमल प्रतापमल" के नाम से भादत का व्यापार करते हैं तथा उनसे छोटे मिश्रीलालजी छाजेड़ जोधपुर के सेकंड क्लास वकील हैं।
श्री सरदारमलजी छाजेड़, शाहपुरा इस परिवार का मूल निवासस्थान जयपुर स्टेट के मालपुरा नामक स्थान में है। वहाँ से छाजेड़ करमचंदजी तथा उनके पुत्र कल्याणमलजी व्यापार के लिये मालवे की ओर जा रहे थे तब उन्हें तत्कालीन शाहपुराधीश महाराजा उम्मेदसिंहजी ने अपने यहाँ रोक लिया। तबसे यह परिवार शाहपुरा ही में निवास करता है। कल्याणमलजी के पुत्र बखतमलजी तथा पौत्र जोरावरमलजी शाहपुरा के ऑनरेरी कामदार थे । जोरावरमलजी को राजाधिराज अमरसिंहजी ने देनेपेटे उदयपुर दरबार के यहाँ मोल में रक्खा था । शाहपुरा दरबार की नाराजी हो जाने से आप अपनी जागीर तथा जायदाद छोड़कर सरवाद चले गये थे, वहाँ से पुनः विश्वास दिला कर आप बुलवाये गये। इनके पुत्र नथमलजी तथा पौत्र चांदमलजी हुए। छाजेड़ चांदमलजी ने महाराजा छछमणसिंहजी तथा नाहरसिंहजी के समय में वर्षों तक कामदारी की। मापने उदयपुर स्टेट से कोशिश करके तलवार बंधाई की रकम वापस की। भापके तेजमलजी, सगतमलजी
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मोसवाल जाति का इतिहास
तथा राजमलजी नामक ३ पुत्र हुए। तेजमलजी ५० सालों तक मेवाड़ में हाकिम तथा मुंसरीम रहे। संवत् १९७२ में इनका शरीरान्त हमा। इसी तरह सगतमलजी तथा राजमलजी भी शाहपुरा स्टेट में तहसीलदारी आदि सर्विस करते हुए क्रमशः संवत् १९५७ तथा १९८६ में गुजरे। सगतमलजी के पुत्र सरदारमलजी विद्यमान हैं। आपका जन्म १९४३ में हुआ। आप अठारह सालों तक दीवानी हाकिम तथा वाढंडरी आफीसर और सुपरिटेन्डेन्ट जेल रहे । वर्तमान में आप वाडंडरी अफीसर हैं । भापके खानदान को "जीकारा" प्राप्त हैं आपके पुत्र मोनमलजी मेसर्स विडला ब्रदर्स की अपरगंज इयूगर मिल सिहोरा में क्यूगर केमिस्ट हैं। शाहपुरा में यह परिवार बहुत प्रतिष्ठित माना जाता है।
सेठ बालचन्दजी छाजेड़, इन्दौर ___ सेठ बालचन्दजी छाजेड़ इन्दौर में बड़े प्रतिष्ठित और नामांकित व्यक्ति हो गये हैं । आपके पिता सेठ मोतीचन्दजी जावरा में रहते थे। वहीं आपका जन्म हुआ। आपके २ भाई और थे जिनका नाम गंभीर. मलजी और जीतमलजी है। इनमें से सेठ गम्भीरमलजी इन्दौर के सेठ नथमलजी के यहाँ दत्तक आये । आपके साथ २ आपके भाई भी इन्दौर आगये। सेठ गम्भीरभलजी का युवावस्था ही में देहान्त होजाने के कारण मेसर्स नथमल गम्भीरमल फर्म का संचालन आपने ही किया। आपने हजारों लाखों रुपयों की सम्पत्ति उपार्जित की । इतना ही नहीं बल्कि उसका सदुपयोग भी किया। आपने तिलक स्वराज्य फण्ड, पिपल्स सोसायटी इत्यादि संस्थाओं को बहुत द्रव्य प्रदान किया । करीब २०००० हजार रुपया लगाकर इन्दौर में भी आपने श्री आदिनाथजी का एक सुन्दर मन्दिर बनवाया । जबकि इन्दौर में जोरों का इन्फ्लुएन्जा चला था उस समय आपने ८, १० प्राइवेट औषधालय खोलकर जनता की सेवा की थी। इसमें आपने करीब १००००) रुपया खर्च किया। इसी प्रकार आपने करीब १०००००) से यहाँ एक "सुन्दरबाई भोसवाल महिलाश्रम" के नाम से एक संस्था स्थापित की। इसमें इस समय १२५ लड़कियाँ तथा स्त्रियाँ धार्मिक और व्यवहारिक शिक्षा प्राप्त कर रही हैं । भापका स्वर्गवास हो गया है। इस समय आपके भाई जीतमलजी विद्यमान हैं। इनके चार पुत्र हैं। बड़े पुत्र श्री सिरेमलजी छाजेड़ बी. ए. एल. एल० बी० हैं और इन्दौर में वकालत करते हैं । आप उत्साही और मिलनसार नवयुवक हैं।
डागा डागा गौत्र की उत्पत्ति
कहा जाता है कि कि संवत् १३०१ में गोड़वाद प्रांत के नागेल नामक स्थान में डूंगरसिंह नामक एक पराक्रमी और वीर राजपूत रहता था। यह चौहान वंशीय था। किसी कारण वश इसने श्री जिन कुशल सरि द्वारा जैन धर्म का प्रतिबोध पाया। इंगरसीजी के नाम से इसके वंशज डागा कहलाये। आगे चलकर इसी वंश में राजाजी और पूजाजी नामक व्यक्ति हए। उनके नाम से इस गौत्र में राजाणी और पूजाणी नामक शाखाएं हुई इनके वंशज जेसलमेर जाकर रहने लगे। इससे ये लोग जेसलमेरी डागा कहलाये ।
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ओसवाल जाति का इतिहास
श्रीयुत प्रतापमलजी छाजेड वकील, जोधपुर.
स्व० सेठ माणकचन्दजी डागा (शेरसिंह माणकचन्द ) बेतूल
श्री सेठ जसकरणजी डागा, रायपुर,
श्री सेठ मंगलचन्दजी डागा सरदारशहर.
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सेठ हस्तमल लखमीचंद-डागा बीकानेर . कई वर्ष पूर्व इस परिवार के व्यक्ति जेसलमेर से बीकानेर में जाकर बस गये । भागे चलकर इस खानदान में क्रमशः सुजानपालजी एवम् अमरचन्दजी हुए। अमरचंदजी के दो पुत्र हुए जिनके नाम सेठ रूपचन्दजी एवम् सेठ खूबचन्दजी था। सेठ खूबचन्दजी के परिवार के लोग आज कल अपना स्वतंत्र व्यापार करते हैं। उपरोक्त वर्तमान फर्म सेठ रूपचन्दजी के वंश की है। सेठ रूपचंदजी अपना व्यवसाय बीकानेर ही में करते रहे। आपके चन्दनमलजी मामक पुत्र हुए। भाप बड़े होशियार व्यक्ति थे। आपने अमृतसर में शाल कुमाले के व्यापार में बहुत सफलता प्राप्त की। भापका स्वर्गवास हो गया। आपके हस्तमलजी नामक एक पुत्र हुए।
सेठ हस्तमलजी-आप संवत् १९२५ के करीब पहले पहल व्यापार के निमित्त कलकत्ता गये। पश्रात् १९३२ में आपने सेठ अमोलकचन्दजी पारख के साझे में फर्म स्थापित कर उस पर रेशमी कपड़े का व्यापार प्रारंभ किया। यह फर्म संवत् १९५० तक अमोलकचंद लखमीचंद के नाम से चलती रही। कुछ वर्षों के पश्चात् पारखों से आपका साझा अलग हो गया। इसी समय से आपकी फर्म पर हस्तमल लखमीचन्द नाम पड़ने लगा। सेठ हस्तमलजी बड़े बुद्धिमान, मेधावी एवम् व्यापार चतुर पुरुष थे। आपके ही कठिन परिश्रम का कारण है कि भाज यह फर्म बहुत उन्नतावस्था में चल रही है। संवत् १९७२ के मिगसर में आपका बीकानेर में स्वर्गवास हो गया। आपके लखमीचंदजी नामक पुत्र थे।
सेठ लखमीचन्दजी-आपका जन्म संवत् १९३७ का था । भापभी अपने पिताजी की तरह बड़े बुदि. मान एवम व्यापार चतुर पुरुष थे । अपने पिताजी की मौजूदगी ही में आप फर्म का संचालन कार्य करने लग गये थे। इस फर्म में बीकानेर निवासी सेठ भैरोंदानजी चोपड़ा कोठारी का संवत् १९६७ से ही साझा प्रारंभ हो गया था जो अभी एक साल से अलग हो गया है। इस समय सेठ भैरोंदानजी के पुत्र अपना अलग व्यापार करते हैं। सेठ लखमीचन्दजी बड़े कर्मण्य व्यक्ति थे। आपने संवत् १९६९ में अपनी फर्म पर जापान, अर्मनी आदि विदेशी स्थानों के रेशमी तथा सिल्की कपड़े का डायरेक्ट इम्पोर्ट करना प्रारंभ किया। संवत् १९७५ में आपने जसकरनजी सिद्धकरनजी के साझे में यहीं मनोहरदास स्ट्रीट नं. 1 में अपनी एक और फर्म खोली तथा इस पर भी वही सिक्क तथा रेशम का व्यापार प्रारंभ किया। संवत् १९७९ में बम्बई में झकरिया मसजिद के पास आपने मेसर्स हस्तमल लखमीचंद के नाम से यही उपरोक्त व्यापार करने के लिये फर्म खोली । इसके २ वर्ष पश्चात् अर्थात् संवत् के १९८१ मिगसर में आपने देहली में केसरीचंद माणकचन्द के नाम से अपनी एक और ब्रांच खोली। इस पर रेशमी कपडे का व्यापार प्रारंभ हआ। ये सब फर्मे आपके जीवन काल तक चलती रहीं। संवत् १९८२ चैत्र में आपका स्वर्गवास हो गया । पश्चात् उपरोक्त देहली एवम बम्बई वाली फर्म उठाली गई। सेठ लखमीचंदजी बड़े प्रतिभा सम्पान्यतिथे । बीकानेर की पंचायती में आपका खास स्थान था। भापके केसरीचन्दजी एवम माणकचन्दजी नामक दो पुत्र हुए। खेद है किया केसरीचन्दजी का युवावस्था ही में स्वर्गवास हो गया। आप एक होनहार नवयुवक थे।
वर्तमान में इस फर्म के संचालक सेठ लखमीचन्दजी के द्वितीय पुत्र पा. माणकचन्दजी है।
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भापका जन्म संवत् १९७१ के कार्तिक में हुआ। आप बड़ी योग्यता एवम बुद्धिमानी से फर्म के सारे कार्य का संचालन कर रहे हैं। आप नवीन विचारों के शिक्षित सज्जन हैं। यह परिवार बाईस संप्रदाय का अनुयायी है।
सेठ हरकचंदजी मंगलचंदजी डागा सरदार शहर सेठ सांवतरामजी के पुत्र पनेचन्दजी घड़सीसर नामक स्थान से चल कर सरदार शहर में आकर बसे। आप सगा गौत्र के सज्जन हैं। यहाँ से फिर आप कलकत्ता गये एवम वहां दलाली का काम प्रारंभ किया। इसके पश्चात् आपने कपड़े की दुकान खोली आपका स्वर्गवास हो गया। आपके तीन पुत्र उदयचन्दजी, छोगमलजी और चौथमलजी हुए।
उदयचन्दजी के पुत्र कालूरामजी हुए । आपका भी स्वर्गवास हो गया। आपके पुत्र बुधमलजी वहीं रहते हैं। चौथमलजी के पुत्र हनुमानमलजी पहले कलकत्ते में कपड़े का व्यापार करते रहे। आज कल किशनागंज (पूर्णियाँ ) में पाठका यापार करते हैं । भापके पुत्र बिरदीचन्दजी और रामलालजी दलाली करते हैं।
सेठ छोगमलजी के जुहारमळनी, उमचन्दजी और हरकचन्दजी तीन पुत्र हुए। जिनमें से प्रथम दो निःसन्तान स्वर्गवासी हो गये। सेठ छोगमलजी की मृत्यु के समय उनके पुत्र हरकचन्दजी की उन्न केवल १५ वर्ष की थी इस छोटी उम्र में ही आपने बड़ी होशियारी से कटपीस का व्यापार आरंभ किया। इसमें आपको बहुत लाभ हुमा । आपने अपने हाथों से लाखों रुपये कमाये । इसके पश्चात् विशेष रूप से बाप देश ही में रहे। आपका स्वर्गवास हो गया । आप भी जैन श्वेताम्बर तेरापंथी संप्रदाय के अनुयायी थे। आपके मंगलचन्दजी नामक एक पुत्र हैं।
सेठ मंगलचन्दजी समझदार, शिक्षित और मिलन सार व्यक्ति हैं। आपके धार्मिक विचार उंचे हैं। आजकल आप नं० २ राजा उडमंड स्ट्रीट कलकत्ता में जूट, कटपीस तथा बैंकिंग का काम कर रहे हैं। तथा मंगलचंद डागा के नाम से फारविसगंज (पूर्णिमा) में जूट का व्यापार करते हैं। आपके नथमलजी, चम्पालालजी, सुमेरमलजी, श्रीर चम्पालालजी नामक पुत्र हैं। नथमलजी व्यापार में सहयोग देते हैं।
सेठ रतनचन्दजी हरकचंदजी डागा का परिवार, सरदार शहर
करीव ९० वर्ष पूर्व जब कि सरदार शहर बसा इस परिवार के पुरुष सेठ लछमनसिंहजी के पुत्र दानमलजी, कनीरामजी और जीतमलजी तीनों ही भाई घड़सीसर नामक स्थान से चल कर सरदार शहर में आकर बसे । भाप तीनों ही भाई संवत् १९०० के करीब नौगाँव (आसाम ) नामक स्थान पर गये
और फर्म स्थापित कर जूट एवम् दुकानदारी का काम प्रारम्भ किया। इस समय इस फर्म का नाम दानमल कनीराम रक्खा था जो आगे चलकर कनीराम हरकचन्द हो गया। इस फर्म में आप लोगों को अच्छी सफलता रही। आप लोगों का स्वर्गवास हो गया । सेठ कनीरामजी के हरकचन्दजी, और दाममलजी के रतनचन्दजी नामक पुत्र हुए। जीतमलजीके कोई पुत्र न होने से उनके नाम पर हरकचन्दजी दत्तक रहे।
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डाया
सेठ हरकचन्दजी और रतनचन्दजी भी योग्य निकले। आपने भी फर्म की बहुत उन्नति की क्या अपनी एक शाखा मेसर्स हरकचन्द नथमल के नाम से कलकत्ता में खोली। जिसका नाम आजकल हरकचन्द रावतमळ पड़ता है। इस पर जूट. कपड़ा तथा चलानी का काम होता है। आप दोनों भाई भकग हो गये तथा भाप लोगों का स्वर्गवास भी हो गया।
___सेठ रतनचन्दजी के नथमलजी नामक पुत्र हुए। आपका स्वर्गवास हो गया। आपके चम्पा. कालजी, और दीपचन्दजी दो पुत्र हैं। सेठहरकचन्दजीके रावतमकजी एवम् पूनमचन्दजी नामक पुत्र हैं। आजकल उपरोक्त फर्म के मालिक आप ही है। आप दोनों भाई मिलनसार और सजन व्यक्ति हैं। भाप लोगों का कलकत्ता के अलावा सालांगा नामक स्थान पर भी रावतमल मोतीलाल के नाम से जूट का व्यापार होता है। आप तेरापंथी जैन श्वेताम्बर संप्रदाय के हैं।
रावतमलजी के बुधमलजी, मनालालजी और माणकचन्दजी तथा पूनमचन्दजी के मोतीलालजी नामक पुत्र हैं।
सेठ शेरसिंह: मालकचन्द डागा, बेतूल इस परिवार का मूल निवास बीकानेर है। देश से प्रेड शेरसिंहजी डागा संवत् १८९१ में बदनूर भाये, तथा हुकुमराज मगनराज नामक दुनन पर मुनीम हुए। मनीमात करते हुए सेठ शेरसिंहजी ने माल गुजारी जमाई और अपना घरू म्यामार भी चालू लिया। दरबार में इनको कुर्सी प्राप्त थी संवत् १९३९ में .. डागा शेरसिंहजी का स्वर्गवास हुभा, मापके पुत्र माणकचन्दजी डागा का जन्म संवत् १९१० में हुआ। आपने ३०।१० गांव जमीदारी के खरीद किये, आप भी यहाँ के राजदरबार व जनता में अच्छी इजत रखते थे, आपने अपनी मृत्यु के समय अपनी कन्या सौ. भीखीबाई को लगभग 1 लाख रुपयों की सम्पत्ति प्रदान की। इनके स्वर्गवासी होने के बाद इनकी धर्म पत्नी ने ५ हजार की लागत से मेन डिस्पेंसरी में अपने पति के स्मारक में उनके नाम से । वार्ड बनवाया, संवत् १९७० में गगा माणकचंदजी का स्वर्गवास हुआ, आपके नाम पर कस्तूरचन्दजी डागा बीकानेर से दत्तक लाये गये।
डागा कस्तूरचन्दजी का जन्म संवत् १९५५ में हुया आपका कुटुम्ब भी वेतूल जिले का प्रतिष्ठित तथा मातवर कुटुम्ब है, आपके यहाँ वेतूल में शेरसिंह माणकचंद गगा के नाम से जमीदारी तथा सराफी म्यवहार होता है डागा कस्तूरचन्दजी के पुत्र हरकचंदजी १० साल के हैं।
सेठ भवानीदास अर्जुनदास, डागा रायपुर लगभग १०० साल पूर्व बीकानेर से जागा मेरोंदानजी के पुत्र भवानीदासजी रायपुर आये और यहाँ उन्होंने कपड़ा तम्बाकू व घी का व्यापार शुरू किया । डागा भवानीदासजी के जावंतमलजी तथा अर्जुनदास जो नामक २ पुत्र हुए।
लगभग संवत् १९०० से भवानीदासजी के पुत्र भवानीदास अर्जुनदास तथा भवानीदास जावंतम के नाम से व्यवसाय करते हैं। सेठ अर्जुनदासजी डागा रायपुर के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे आपका १०९
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संवत् १९४२।४३ में शरीरान्त हुआ, आपके नाम पर आपके चचेरे भ्राता हमीरमलजी के पुत्र गंभीरमलजी दत्तक आये । डागा गंभीरमलजी धार्मिक वृत्ति के पुरुष थे संवत् १९५४ की कुंवार सुदी ४ को आपका शरीरान्त हुआ।
__डागा गंभीरमलजी के यहाँ सरदार शहर से संवत् १९६२ की बैशाख सुदी २ को डागा जसकरण जी दत्तक लाये गये। डागा जसकरणजी का जन्म संवत् १९५५ की मगसर सुदी ५ को हुभा । डागा जसकरणजी के ख्यालीरामजी, छगनमलजी व कुशलचन्दजी नामक ३ भ्राता विद्यमान हैं जो कलकत्ते में ख्यालीराम डागा व कुशलचन्द माणिकचन्द के नाम से अपना स्वतंत्र कारबार करते हैं।
डागा जसकरणजी ने एफ० ए० तक शिक्षा प्राप्त की है। सामाजिक तथा देश सेवा के कार्यों की ओर आपकी खास रुचि है स्थानीय दादावाड़ी को नवीन बनाने में व उसकी प्रतिष्ठा में आपने बहुत परिश्रम उठाया इसके उपलक्ष में यहाँ के ओसवाल समाज ने अभिनंदन पत्र देकर आपका स्वागत किया। आपने मारवाड़ी छात्र सहायक समिति नामक संस्था को । हजार रुपयों की सहायता दी है तथा इस समय आप उसके मंत्री हैं, इसी तरह और भी सामाजिक और सार्वजनिक कामों में आप दिलचस्पी लेते रहते हैं । आपके पुत्र सम्पतलालजी पढ़ते हैं । आपके यहाँ भवानीदास अर्जुनदास के नाम से रायपुर में बैकिंग तथा बर्तनों का थोक व्यापार और भर्जुनदास गंभीरमल के नाम से राजिम में वर्तन तयार कराने का काम होता है। रायपुर की प्रतिष्ठित फर्मों में आपकी दुकान मानी जाती है।
सेठ भीकमचन्द डागा, अमरावती इस परिवार का मूल निवास स्थान बीकानेर हैं। वहाँ से लगभग १२५ साल पूर्व सेठ हमीरमल जी डागा अमरावती भाये तथा यहाँ नौकरी की। इसके बाद आपने किराने का व्यापार किया । आपके पुत्र लखमीचन्दजी, हैदराबाद वाले सेठ पूरनमल प्रेमसुखदास गनेडीवाला के यहाँ मुनीम रहे। संवत् १९२८ में आपका स्वर्गवास हुआ। उस समय आपके पुत्र भीकमचन्दजी चार वर्ष के थे आपने होशियार होकर जवाहरात का व्यापार आरम्भ किया तथा इस व्यापार में अच्छी सम्पत्ति उपार्जित की । आप अमरावती के ओसवाल समाज में समझदार तथा प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं तथा यहाँ को पंचपंचायती व धार्मिक कामों में प्रधान भाग लेते हैं। आपके पुत्र रतनचन्दजी की वय १९ साल की है। इस समय आपके यहाँ जवाहरात, कृषि तथा सराफी का व्यापार होता है।
सेठ तेजमल टकिमचन्द डागा, रायपुर इस परिवार के पूर्वज डागा तखतमलजी अपने मूल निवास बीकानेर से लगभग ८० साल पहिले रायपुर आये और कपड़े का व्यवसाय शुरू किया, आपके पुत्र चन्दनमलजी ने व्यवसाय को उन्नति दी। सेठ चन्दनमलजी के पुत्र तेजमलजी संवत् १९५२ की कातिक वदी १ को ३९ साल की आयु में स्वर्गवासी हुए । वर्तमान में इस दुकान के मालिक सेठ तेजमलजी डागा के पुत्र टीकमचन्दजी डागा हैं। आपका जन्म संवत् १९५४ में हुआ है। आप रायपुर के व्यापारिक समाज में अच्छी प्रतिष्ठा रखते हैं, तथा चांदी सोना और सराफी का व्यापार करते हैं।
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पारख गौत्र की उत्पत्ति-बारहवीं शताब्दी के अंतिम समय में चंदेरी नगरी में राठौर खरहस्थसिंह राज्य करते थे। इनके चार पुत्र अम्बदेव, निम्बदेव, भैसासाह और आसपाल हए। इन चारों पुत्रों के परिवार से बहुत से गौत्रों की स्थापना हुई, जिसका अलग २ परिचय स्थान २ पर दिया गया है। भैसाशाह मांडवगढ़ में एक प्रसिद्ध व्यक्ति हो गये हैं। इन्होंने शत्रुजय का एक बहुत बड़ा संघ निकाय था, तथा वहाँ का जीर्णोद्धार करवाया था। इनके चौथे पुत्र पासूजी को आहड़नगर के राजा चन्द्रसेन ने अपना जौहरी नियुक्त किया था। वहीं एक बार हीरे की सच्ची परीक्षा करने के कारण राजा द्वारा पारखी की पदवी मिली । आगे चलकर यही पदवी पारख गौत्र के रूप में परिणत हो गई।
लाला दिलेरामजी जौहरी (लाहौरी) का खानदान, देहली
इस खामदान के मूल पुरुष लाला दिलेरामजी हैं। आप देहली के ही निवासी हैं। आपका परिवार यहाँ लाहोरी के नाम से मशहूर हैं। आप श्वेताम्बर जैन स्थानकवासी आन्नाय के मानने वाले हैं।
लाला दिलेरामजी-आप पंजाब के सुप्रसिद्ध महाराजा रणजीतसिंहजी के खास जौहरी थे। देहली में आप बड़े नामांकित पुरुष हो गये हैं। आपके पुत्र लाला दुलीचन्दजी तथा लाला सरूपचन्दजी हुए । लाला दुलीचन्दजी बादशाह अकबर (द्वितीय) के खास जौहरी थे। आपके हुलासरायजी, गुलाब चन्दजी, मानसिंहजी तथा थानसिंहजी नामक पुत्र हुए।
लाला हुलामरायजी जौहरी का परिवार-आपके लाला ईसरचंदजी नामक पुत्र हुए। ईसरचंदजी के लाला जगनाथजी, लाला प्यारेलालजी तथा लाला रोशनलालजी नामक ३ पुत्र हुए। लाला जगन्नाथजी नामांकित व्यक्ति हुए। आप राय बद्रीदासजी जौहरी के शागिर्द थे। भोपने कलकत्ते में भी अपनी एक फर्म खोली थी। आपका स्वर्गवास ५० सालकी आय में संवत् १९५१ में हआ। आपके पूरनचंदजी का जन्म संवत् १९२७ में हुआ। आपने उस समय बी० ए० परीक्षा पास की थी, जिस समय सारे ओसवाल समाज में एक दो ही ग्रेजुएट होंगे। आप भी जवाहरात का व्यापार करते रहे। आपका स्वर्ग वास संवत् १९५२ में हुआ। आपके नाम पर लाला रतनलालजी जोधपुर से संवत् १९५६ में दत्तक लाये गये । आपका जन्म संवत् १९४८ में हुआ। आपकी नाबालगी में आपकी दादीजी तथा लाला प्यारेलालजी व रोशनलालजी काम देखते रहे। इन दोनों सजनों का स्वर्गवास क्रमशः १९५६ तथा संवत् १९६५ में हो गया है। अब इनकी कोई संतान विद्यमान नहीं हैं।
____ लाला रतनलालजी बड़े योग्य तथा मिलनसार व्यक्ति हैं । आपके इस समय इन्द्रचन्द्रजी, हरिचन्द्रजी, ताराचन्दजी तथा कुशलचंदजी नामक ४ पुत्र हैं। आपका परिवार देहली के मोसमाल समाज में अच्छा प्रतिष्ठित माना जाना जाता है आपके यहाँ "लाला पूरनचन्द रतनलाल" के नाम से गली हीरानंद देहली में जवाहरात का व्यापार होता है।
लाला मानसिंहजी मोतीलालजी जौहरी का परिवार-लाला मानसिंहजी के पुत्र लाला मोतीरामजी हुए। आपका स्वर्गवास ७० वर्ष की आयु में संवत् १९६० में हुआ। आप भी देहली के अच्छे जौहरी थे।
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आपके लाला शादीरामजी, मुन्नालालजी तथा उमरावसिंहजी नामक ३ पुत्र हुए। लाला शादीरामजी बड़े योग्य तथा समझदार पुरुष थे। जाति विरादरी में आपकी अच्छी प्रतिष्ठा थी। आपका स्वर्गवास १२ साल की भायु में संवत् १९६४ में हुभा । आपके पुत्र लाला पक्षालाल जी का जन्म १९४७ में कुंदनमलजी का १९५१ में तथा कुज्जूमलजी का १९५० में हुभा तीनों भ्राता जवाहरात का व्यापार करते हैं। लाला मोतीरामजी के द्वतीय पुत्र मुन्नालालजी छोटी वय में स्वर्गवासी हुए तथा इनके छोटे भाई लाला उमरावसिंह जी संवत् १०८४ में स्वर्गवासी हुए। इनके जंगलीमलजी का जन्म संवत् १९२९ का है। आपके पुत्र फतेसिंहजी तथा कुन्दनमलजी के पुत्र कांतिकुमारजी हैं। देहली के ओसवाल समाज में यह खानदान पुराना तथा प्रतिष्ठित माना जाता है।
सेठ फौजमल आनन्दराम पारख, त्रिचनापल्ली इस परिवार का मूल निवास पांचला (तीवरी के पास) मारवाड़ है। इस परिवार के पूर्वज सेठ भेरूदानजी पारख के फौजमलजी तथा जेठमलजी नामक दो पुत्र हुए । इनमें सेठ फौजमलजी के आनंदगमजी और मगनीरामजी नामक २ पुत्र हुए।
सेठ आनन्दरामजी पारख का जन्म संवत् १९२५ में हुआ । सत्रह वर्ष की आयु में आप पल्टन के साथ रेजिमेंटल बैंकिंग का व्यापार करते हुए त्रिचनापल्ली आये । यहाँ भाकर मापने थोड़े समय तक सेठ रावतमलजी पारख के यहाँ सविसकी। पश्चात् आपने सुजानमल कोचर की भागीदारी में "आनन्दमल सुजानमल" के नाम से बैंकिंग व्यापार चालू किया । एक साल बाद इस फर्म में भखैचन्दजी पारख भी सम्मिलित हुए, एवम् इन तीनों सजनों ने अंग्रेजी फौजों के साथ जोरों से ५ दुकानों पर मनीलेडिंग विजिनेस चालू किया। आप पल्टन के खजाने के बेकिंग विजिनेस को सम्हालते थे । इसलिए रेजिमेंटल बैंकर्स के नाम से बोले जाते थे। इन सज्जनों ने अच्छी सम्पत्ति कमाई और अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाई। संवत् १९८० में सुजानमलजी के पुत्रों ने तथा १९८५ में अखेचन्दजी के पुत्रों ने अपना भाग अलग कर लिया। सन् १९२६ में सेठ आनन्दरामजी पारख स्वर्गवासी हुए। आपने त्रिचनापल्ली पांजरापोल को ५०००) की सहायता दी है। इस समय आपके पुत्र मूलचन्दजी " साल के तथा खेतमलजी ९ साल के हैं। इनकी नाबालगी में फर्म का प्रबन्ध ५ मेम्वरों की कमेटी के जिम्मे है। यह परिवार स्थानश्वासी आन्नाय मानता है तथा लगभग २० सालों से फलोदी में निवास करता है। वहाँ भी फौजमल आनन्दराम के नाम से आपके यहाँ बेकिंग व्यापार होता है। यह फर्म त्रिचनापल्ली के मारवाड़ी समाज में सबसे ज्यादा धनिक फर्म है।
सेठ जेठमल अखेचंद पारख, त्रिचनापल्ली ऊपर सेठ आनन्दरामजी के परिचय में लिखा जा चुका है कि पांचला ( मारवाड़) निवासी सेठ भेरुदानजी के फोजमलजी तथा जेठमलजी नामक २ पुत्र थे। इनमें सेठ जेठमलजी के अखेचन्दजी, धूलमलजी, अचलदासजी तथा रावतमलजी नामक ४ पुत्र हुए। इनमें सेठ धूलचन्दजी तथा अचलदासजी विद्यमान हैं। सेठ अखेचन्दजी सेठ आनन्दरामजी के साथ व्यापार करते रहे। संवत् १९७४ में आप स्वर्गवाती हुए। आपके पुत्र फूलचन्दजी ने संवत् १९८५ में सेठ आनन्दरामजी पारख से अपना म्यव.
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ रतनचंदजी पारख, रायपुर (सी. पी.)
स्व० सेठ श्रानंदरामजी पारख, त्रिचनापल्ली.
सेठ भीकमचंदजी पारख (भीकमचंद रामचंद) नासिक.
स्व० सेठ अखंचंदजी पारख, त्रिचनापल्ली.
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पारख
साय अलग किया। आपका जन्म संवत् १९०० में हुआ। इस समय आप अपने काका अचलदास जी के पुत्र रूपचन्दजी उदयराजजी तथा जुगराजजी के साथ त्रिचनापल्ली में "अचलदास फूलचन्द" के नाम से व्यापार करते हैं । सेठ अचलदासजी का व्रम ४५ साल की है।
सेठ धूलमलजी का जन्म १९४२ में हुआ। आपके लालचन्दजी, मोतीलालजी, कंवरीलालजी, इन्द्रचन्द्रजी, राजमल, मोहनलाल आदि ८ पुत्र है। आप के वहां जेठ "भूलचन्द लालचन्द" के नाम से बैकिक व्यापार होता है । सेठ रावतमलजी का स्वर्गवास २५ साल की अल्पायु में होगया । आपके कोई संतान नहीं है। यह परिवार त्रिचनापल्ली तथा फलोदी में अच्छी प्रतिष्ठा रखता है । संवत् १९७८ से आपने फलोदी में अपना निवास बना लिया है । यह परिवार स्थानकवासी आम्नाय मानने वाला है ।
सेठ हजारीमल भीकचंद पारख, त्रिचनापल्ली
यह कुटुम्ब लोहावट ( मारवाड़ ) का निवासी है। इस परिवार के पूर्वज पारख फतेचन्दजी के रावतमलजी, रिदमलजी, जयसिंहदासजी, शिवजीरामजी, वख्तावरमलजी, मुकुन्दचन्दजी तथा मगनीरामजी नामक ७ पुत्र हुए। इनमें सेठ शिवजीरामजी लगभग सौ साल पूर्व देश से भाकर बलारी, हैदराबाद, कामठी भादि स्थानों में रेजिमेंटल बैंकर्स का काम करते रहे, यहाँ से लगभग ७५ साल पहिले आप त्रिचनापल्ली आये । इन्होंने अपनी उमर में लगभग ५० सालों तक रेजिमेंटल बैंकर्स का काम किया । आपके साथ व्यापार में रिदमलजी के पुत्र रावतमलजी और रतनलालजी, जयसिंहदासजी के पुत्र चुनीलाल जी तथा आपके पुत्र चांदनमलजी और हजारीमलजी भी सम्मिलित रूप में "शिवजीराम चंदनमल" के नाम से व्यापार करते थे । सेठ शिवजीरामजी पारख के स्वर्गवासी होजाने के बाद उनके पुत्र चांदनमलजी तथा हजारीमलजी ने बेलगाँव ( महाराष्ट्र ) में दुकान खोली, तथा संवत् १९६१ तक दोनों बंधुओं का सम्मिलित व्यापार होता रहा । सेठ चादनमलजी की आयु ८० साल की है, और आप लोहावट में रहते हैं । आपके पुत्र सुगनचन्दनी का संवत् १९६८ में स्वर्गवास होगया है । सेठ हजारीमलजी पारख अपने जीवन के अंतिम पंद्रह साल देश में धार्मिक जीवन विताते हुए संवत् १९७६ में स्वर्गवासी हुए। आपके भीकमचन्दजी तथा खेतमलजी नामक २ पुत्र हुए। आप दोनों भाइयों ने सन् १९१६ में त्रिचनापल्ली में दुकान खोली । इस समय आपके यहां ३ दुकानों पर सराफी का व्यापार होता है । सेठ भीकमचन्दजी का जन्म संवत् १९४९ में आपके पुत्र हुआ नैनसुखजी भी व्यापार में भाग लेते हैं । खेतमलजी के पुत्र राणूलाल तथा शांतिलाल बालक हैं । खेतमलजी का धार्मिक कामों की ओर ज्यादा लक्ष है। यह परिवार मन्दिर मार्गीय भाम्नाय का है ।
सेठ रावतमल जोगराज पारख, त्रिचनापल्ली
इस परिवार का मूल निवास लोहावट ( मारवाड़ ) है । हम ऊपर लिख चुके हैं कि सेठ फतेचन्दजी के ७ पुत्र थे । इनमें द्वितीय तथा तृतीय पुत्र रिदमल और जयसिंहदासजी से इस
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ओसवाल जाति का इतिहास
परिवार का सम्बन्ध है। सेठ रिदमलजी के पुत्र रावतमलजी तथा रतनलालजी और जयसिंहदासजी के पुत्र चुन्नीलालजी हुए सेठ चुनीलालजी संवत् १९४५ में स्वर्गवासी हुए। सेठ रावतमलजी बड़े साहसी पुरुष थे। देश से आप मद्रास आये, और वहाँ रेजिमेंटल बैंस का काम करते रहे। वहाँ से आप फोजों के साथ बैंकिंग व्यापार करते हुए बलारी, कामठी आदि स्थानों में होते हुए लगभग संवत् १९२५ में त्रिचनापल्ली आये। और यहीं अपनी स्थाई दुकान स्थापित करली। आपने इस कुटुम्ब की खूब प्रतिष्ठा बढ़ाई । संवत् १९७३ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके दो साल बाद आपके छोटे भाई रतनलालजी गुजरे। सेठ रावतमलजी के इन्द्रचन्दजी, जोगराजजी तथा कवरलालजी नामक ३ पुत्र हैं। इनमें जोगराजजी सेठ चुनीलालजी के नाम पर दत्तक गये। आपका जन्म संवत् १९४८ में हुआ। आप "रावतमल जोगराज" के नाम से येढ़तरू बाजार त्रिचनापल्ली में बैकिंग व्यापार करते हैं । तथा यहां के ओसवाल समाज में अच्छे प्रतिष्ठित माने जाते हैं। धार्मिक कामों की ओर भी आपका अच्छा लक्ष है। आपके पुत्र चम्पालालजी २० साल के हैं। तथा व्यापार में भाग लेते हैं।
सेट इन्द्रचन्दजी के यहां “इन्द्रचन्द सम्पतलाल" के नाम से त्रिचनापल्ली में व्यापार होता है। इन्द्रचन्दजी धर्म के जानकार व्यक्ति हैं। आपका जन्म संवत १९३२ में हुआ। आपके पुत्र सम्पतलाल जो ३० साल के हैं। कँवरलालजी बहुत समय तक जोगराजजी के साथ व्यापार करते रहे । आप इस समय लोहावट में रहते हैं। रतनलालजी के पुत्र मिश्रीलालजी हैं। यह परिवार मंदिर आम्नाय का है।
सेठ हजारीमल कँवरीलाल पाराख. लोहावट ( मारवाड़)
यह परिवार लगभग दो शताब्दि से लोहावट में निवास करता है। इस परिवार के पूर्वज मुलतानचन्दजी पारख के हजारीमलजी तथा रतनलालजी नामक २ पुत्र हुए। इन दोनों भाइयों का जन्म क्रमशः संवत् १९१४ तथा संवत् १९२१ में हुआ। संवत् १९३२ में इन बंधुओं ने धमतरी में दुकान की। संवत् १९६२ में सेठ हजारीमलजी ने बम्बई में दुकान की। इसके १० साल बाद इम दोनों भाइयों का कारवार अलग २ होगया।
सेठ हजारीमलजी का परिवार-सेठ हजारीमलजी ने इन दुकान के व्यापार तथा सम्मान को विशेष बढ़ाया। संवत् १९८४ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके शिवराजजी, कँवरलालजी, रेखचन्दजी, मंसुखदासजी, तथा विजयलालजी नामक ५ हुए। इनमें सेठ शिवराजजी का स्वर्गवास संवत् १९६९ में तथा कँवरलालजी का संवत् १९७० में हुआ। शेष बंधु विद्यमान हैं। इन बंधुओं के यहाँ "हजारीमल कंवरलाल" के नाम से बिट्ठलवाड़ी बम्बई में आढ़त का व्यापार होता है । इस दुकान के व्यापार की सेठ शिवराजजी ने उन्नति की। उनके पश्चात् पारख रेखचन्दजी ने कारोबार बढ़ाया । वह परिवार लोहावट में अच्छी प्रतिष्ठा रखता है। सेठ शिवराजजी के पुत्र दडमलजी कन्हैयालालजी, सेठ रेखचंदजी के पाबूदानजी, सोहनराजजी, सेठ मंसुखदासजी के नेमीचन्दजी तथा राणूलालजी और विजयलालजी के जमनालालजी तथा पुखराजजी हैं। यह परिवार मन्दिर मार्ग य आम्नाय मानता है।
सेठ रतनलालीका परिवार-सेठ रतनलालजी के पेमराजजी, कुंदनलालजी, सतीदानजी,
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पारस
चंपालालजी तथा जुगराजजी नामक ५ पुत्र हुए। इनमें पेमराजजी १९६२ में तथा कुन्दनमलजी १९६३ में स्वर्गवासी हो गये हैं । शेष विद्यमान हैं । इस परिवार की धमतरी, तथा जगदलपुर में दुकाने हैं। सेठ मोतीलाल हीरालाल पारख, सिंगरनी कालरी (निजाम )
इस परिवार का मूल निवास लोहावट (मारवाड़) है। इस परिवार के पूर्वज सेठ रामचन्द्रजी के सुजानमलजी, महासिंहदासजी, सालमचन्दजी तथा मुलतानचन्दजी नामक ४ पुत्र हुए। इनमें सेठ महासिंहदासजी पारख के पूनमचन्दजी, मोतीलालजी मोहनलालजी व करनीदानजी नामक ४ पुत्र हुए। इनमें सेठ मोतीलालजी अपने पुत्र हीरालालजी को साथ लेकर संवत् १९५५ में सिंगरनी कॉलेरी आये, तथा सराफी और आदत का कार्य चालू किया । सेठ मोतोलालजी ने इस दुकान के व्यापार को बढ़ाया। आपका स्वर्गवास सम्वत् १९७६ में हुआ। आपके हीरालालजी, चांदमलजी, रेखचन्दजी, कुन्दनमलजी और सुखलालजी नामक ५ पुत्र हुए। जिनमें चांदमलजी संवत् १९७८ में स्वर्गवासी हो गये । यह परिवार मंदिर मार्गीय आम्नाय का मानने वाला है।
आप सबाने तथा समझदार व्यक्ति हैं। जन्म संवत् १९५० में 'हुआ। आपके इनके पुत्र अनोपचन्दजी हैं । सेठ
सेठ हीरालालजी का जन्म संवत् १९४० में हुआ । आपके पुत्र नेमीचन्दजी स्वर्गवासी हो गये हैं। सेठ रेखचन्दजी का पुत्र जेठमलजी २३ साल के हैं । आप व्यापार में भाग लेते हैं। कुन्दनमलजी का जन्म १९५६ में हुआ । आपके कॅवरलालजी, चम्पालालजी तथा खेतमलजी नामक ३ पुत्र हैं। इसी तरह सुखलालजी के पुत्र भेर्रोलालजी हैं। यह परिवार लोहावट के ओसवाल समाज में नामांकित कुटुम्ब माना जाता है । आपके यहाँ सिंगरनी कॉलेरी तथा बेल्लमपल्ली ( निजाम ) में बेकिंग व्यापार होता है।
सेठ अमरचन्द रतनचंद पारख, किशनगढ़
इस परिवार के पूर्वज सेठ माणकचन्दजी के पुत्र कुशाल चन्दजी लगभग एक सौ वर्ष पूर्व बीकानेर से किशनगढ़ आये । आपको दरबार ने इज्जत के साथ किशनगढ़ में बसाया, तथा व्यापार के लिए रियायतें दीं । आपके पुत्र पूनमचन्दजी पारख हुए ।
सेठ पूनमचन्दजी पारख - आप बड़े नामांकित व्यक्ति हुए। आपने व्यवसाय की बहुत उच्चति की, तथा बाहर कई दुकानें खोलीं। आप गरीबों की अन्न वस्त्र से विशेष सहायता करते थे । आप गुप्तदानी थे। इसी तरह की विशेषताओं के कारण आप राज्य, जनता एवं अपने समाज में सम्माननीय व्यक्ति हुए । आपके पुत्र पारख अमरचंदजी विद्यमान हैं ।
सेठ अमरचन्दजी पारख किशनगढ़ के ओसवाल समाज में तथा व्यापारिक समाज में अच्छी प्रतिष्ठा रखते हैं। राज्य में आपको दरबार के समय कुर्सी प्राप्त है। आपके यहाँ बैंकिंग व्यापार होता है । आपके रतनचन्दजी, लक्ष्मीचंदजी तथा उमरावचन्दजी नामक तीन पुत्र हैं। इन सज्जनों में श्री रतनचन्दजी ने सन् १९३३ में बी० ए० पास किया है, तथा इस समय आप इलाहाबाद में एल० एल० बी० का अध्ययन कर रहे हैं । आप बड़े सज्जन व समझदार व्यक्ति हैं। आपके छोटे भ्राता लखमीचन्दजी मेट्रिक में तथा उमराबचन्दजी छठी क्लास में पढते हैं ।
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श्रीसबाब आति का इतिहास
इस परिवार में सेठ माणकचन्दजी के छोटे भ्राता जसरूपजी के पुत्र हरखचन्दजी नामांकित व्यक्ति हुए, तथा इस समय उनके पुत्र सेठ अगरचन्दनी विद्यमान हैं। आप भी किशनगढ़ के ओसवाल समाज में वजनदार व्यक्ति हैं ।
सेठ जेठमल रतनचन्द पारख, रायपुर
इस परिवार के पूर्वज सेठ रावतमलजी पारख एक शताब्दि पूर्व अपने मूल निवासस्थान बीकानेर से रायपुर आये । यह परिवार मन्दिर मार्गीय आम्नाय का माननेवाला है। सेठ रावतमलजी के बड़े पुत्र आसकरणजी निसंतान स्वर्गवासी हुए, तथा छोटे भ्राता जेठमलजी ने अपने परिवार की जमीदारी तथा कृषि के काम को विशेष बढ़ाया, और समाज में अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की। संवत् १९३९ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके पुत्र रतनचन्दजी हुए ।
सेठ रतनचन्दजी पारख - आपका जन्म सम्वत् १९३६ में हुआ । धार्मिक कामों की ओर आपकी अच्छी रुचि है । अपने पिताजी के बाद आपने जमीदारी तथा कृषि के कार्य को बढ़ाया है। रायपुर के ओसवाल समाज के आप प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। आपके धर्मचन्दजी, कर्मचन्दजी, कस्तूरचन्दजी और प्रेमचन्दजी नामक ४ पुत्र हुए। धर्मचन्दजी का जन्म संवत् १९६४ में हुआ । इन भाइयों में कर्मचंदजी का संवत् १९८७ में १९ साल की वय में स्वर्गवास हो गया। आप बड़े होनहार थे। आप एफ० ए० सेकंड ईयर में पढ़ते थे। छात्रों को मदद देने की ओर आपकी विशेष रुचि थी । आपने अपनी प्राइवेट लायब्रेरी में डेढ़ हजार ग्रंथों का संग्रह किया था । आपके स्मारक में आपके पिताजी भी छात्रों को सहायता देते रहते हैं । सेठ रतनचन्दजी के शेष पुत्र धर्मचन्दजी, कस्तूरचंदजी तथा प्रेमचंदजी पढ़ते हैं ।
सेठ भीकमचन्द रामचन्द पारख, नाशिक
इस परिवार का मूल निवास तींवरी (जोधपुर स्टेट) है। इस परिवार के पूर्वज सेठ मोतीरामजी पारख लगभग १५० साल पहिले देश से नाशिक के समीप मखमलाबाद नामक स्थान पर आये । आपके पुत्र पारख किशनीरामजी और पौत्र पारख रामचन्द्रजी हुए। आप लोग मखमलाबाद में ही व्यापार करते रहे । सेठ रामचन्द्रजी पारख का स्वर्गवास संवत् १९५१ में हुआ। आपके पुत्र सेठ भीकमकंदजी तथा छगनमलजी पारख हुए ।
सेठ मीकमचन्दजी पारख - आपका जन्म संवत् १९४३ में हुआ । आपने नाशिक में कपड़े का व्यापार चालू किया । जातीय सुधार तथा धर्मं ध्यान के कार्यों की ओर आपका अच्छा लक्ष्य है । आप नाशिक जिला ओसवाल परिषद् के सेक्रेटरी थे तथा उसके स्थाई सेक्रेटरी भी आप हैं। नाशिक के भोसवाल समाज में आप प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। आपके पुत्र लक्खीचन्दजी अपनी "पारख ब्रदर्स” नामक कपड़े की दुकान का संचालन करते हैं तथा दूसरे पढ़ते हैं। यह परिवार स्थानकवासी आम्नाय का मानने वाला है ।
पारख छगनमलजी का जन्म १९४८ में हुआ। आप नंदलाल भण्डारी मिल क्लाथशॉप कानपुर पर कार्य करते हैं । आपके पुत्र देवीचन्दजी व्यवसाय करते हैं तथा हस्तोमलजी छोटे हैं ।
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पारस
सेठ जुगराज केसरीमल पारख, येवला (नाशिक) इस परिवार का मूल निवास तीवरी (जोधपुर स्टेट ) है इस परिवार के पूर्वज पारख लूमचंद जी के पुत्र भीमराजजी तथा दईचंदजी दोनों भाइयों ने मिलकर संवत् १९९० में पेवले में कपड़े की दुकान की। इसके थोड़े समय के बाद दुकान की शाखा नांदगांव में खोली गई। भाप दोनों भाइयों ने दुकान के व्यापार तथा सम्मान को तरकी दी। तथा अपनी दुकान की शाखा बम्बई में भी खोली। भाप दोनों सजनों का स्वर्गवास हो गया है।
वर्तमान में इस परिवार में सेठ भीमराजजी के पौत्र ( कानमलजी के पुत्र) उदयचंदकी तथा खेतमलजी और दईचंदजी के पुत्र जुगराजजी विद्यमान हैं। सेठ भीवरानजी के पुत्र कानमलजी का स्वर्गवास संवत् १९७५ में हो गया है। इस समय सेठ जुगराजजी इस परिवार में बड़े हैं। आपका जन्म संवत् १९४५ में हुआ। इस समय आपके यहाँ भीजराज देवीचंद के नाम से बम्बई में, भीमराज कानमल के नाम से नांदगांव में तथा जुगराज केशरीमल के नाम से येवला में कपड़े की आदत आदि का व्यापार होता है। यह परिवार तीवरी, बम्बई, येवला आदि स्थानों में अच्छी प्रतिष्ठा रखता है। तथा मंदिर मार्गीप मानाय का मानने वाला है।
मुनीम फतेचंदजी पारख, उज्जैन संवत् १८९२ में इस परिवार के प्रथम पुरुष सेठ फूलचन्दजी बीकानेर से वजरंगगढ़ नामक स्थान पर आये । यहाँ आकर आपने देनलेन का व्यापार शुरू किया। आपके पुत्र पूनमचन्दजी बड़े व्यापार कुशल और सजन व्यक्ति थे। आपने अपने व्यवसाय की उन्नति के साथ २ जमींदारी की खरीद की। आपका धार्मिकता की ओर भी अच्छा ध्यान था। आपका स्वर्गवास हो गया। इस समय आपके पुत्र सेठ फतेचन्दजी इन्दौर के प्रसिद्ध सेठ सर स्वरूपचन्द हुकमचन्द की उज्जैन दुकान पर मुनीम हैं। भापका स्वभाव मिलनसार है। यहाँ भापकी अच्छी प्रतिष्ठा है। आपने भी बहुत सी जमींदारी खरीद की हैं। बजरंगगढ़ के पंचायती बोर्ड के आप सरपंच रहे थे। उज्जैन की मंडी कमेटी के श्राप चौधरी रहे। इस समय आपके तीन पुत्र हैं, जिनके नाम हीराचन्दजी, रतनचन्दजी. और इन्द्रचन्दजी हैं। आपकी पुत्री श्री नाथीबाई ने आचार्या प्रमोद श्री जी के उपदेश से जैन धर्म में साध्वीपन ले लिया है। इस समय उनका नाम राजेन्द्र श्री जी है।
सेठ अजीतमल माणकचन्द पारख, बीकानेर इस परिवार के पूर्व पुरुष सेठ सुल्तानमलजी करीब १५० वर्ष पूर्व बीकानेर भाकर बसे थे। आपके पुत्र सेठ अबीरचन्दजी ने आगरे में सेठियों की फर्म पर सर्विस की । आपके हमीरमजी, सुगनमलजी सुमेरमलजी और चन्दनमलजी नामक चार पुत्र हुए। सेठ सुगनमलजी मे कलकत्ता भाकर सेठ रिखलाल श्रीकिशन के यहाँ नौकरी की। आपका स्वर्गवास हो गया। आपके फवेचन्दजी और नेमीचन्दजी नामक दो पुत्र हए। सेठ फतेचंदजी कुछ महाजनी का हिसाब किताब सीखकर बरोरा नामक स्थान पर चले आये।
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भोसवास जाति का इतिहाम
यहाँ आपने कपड़े और गल्ले का काम करने के लिये फर्म स्थापित की। आपकी बुद्धिमानी से फर्म की बहुत तरक्की हुई । आपका स्वर्गवास हो गया। इसी प्रकार आपके भाई नेमीचन्दजी का भी स्वर्गवास हो गया। आपके पुत्र डालचन्दजी, बींजराजजी और बिरदीचंदजी स्वतंत्र रूप से भोपाल में व्यापार करते हैं।
सेठ फतेचंदजी के आनंदचन्दजी, अजीतमलजी, लालजी तथा मालचन्दजी नामक चार पुत्र हैं। आजकल आप सब लोग स्वतंत्र रूप से व्यापार करते हैं। सेठ अजीतमलजी बीकानेर के खजांची प्रेमचंदजी माणकचंदजी के साझे में कलकत्ता में दुकान कर रहे हैं। आपकी फर्म पर कपड़े का थोक व्यापार हो रहा है। आप मिलसार और उत्साही व्यक्ति हैं आपके पीरूदानजी नामक एक पुत्र हैं।
सेठ पन्नालाल सुगनचन्द पारख, चुरू सेठ लालचन्दजी पारख के पूर्वजों का मूल निवास स्थान बीकानेर था। वहाँ से रिणी होते हुए चुरू नामक स्थान पर आकर बसे । चुरू में सेठ जोधमलजी हुए। जोधमलजी के चार पुत्रों से में मुकन्ददासजी और अनेचन्दजी के परिवार वाले शामलात में व्यापार करते हैं। मुकन्ददासजी के पश्चात् क्रमश उनके पुत्र गजराजजी, नवलचन्दजी, पनालालजी और सुगनचन्दजी हुए। सेठ अनेचंदजी के बाद क्रमशः घमण्डीरामजी जवाहरमलजी और लालचन्दजी हुए। सेठ लालचन्दजी बड़े व्यापार कुशल और सज्जन व्यक्ति हैं। सेठ सुगनचन्दजी भी मिलनसार और योग्य सजन है। आजकल आप दोनों सज्जन मेसर्स पनालाल सुगनचन्द के नाम से क्रास स्ट्रीट कलकत्ता में थोक धोती जोड़ों का व्यापार करते हैं। यह फर्म सम्वत् १८९२ में स्थापित हुई थी। सेठ लालचन्दजी के जयचन्दलालजी नामी एक पुत्र हैं।
बरमेचा बरमेचा गौत्र की उत्पत्ति-महाजन वंश मुक्तावली में लिखा है कि संवत् ११६७ में रणतभंवर के राजा लालसिंह को अपने सातों पुत्रों सहित मुनि श्री जिनवल्लभ सूरिजी ने जैनधर्म का प्रतिबोध देकर श्रावक बनाया। इन्ही सातों पुत्रों के नाम से सात गौत्र की उत्पत्ति हुई। इनमें से बड़े पुत्र ब्रह्मदेव से बरमेचा गौत्र की स्थापना हुई।
सेठ साहबराम बरदीचंद बरमेचा, नाशिक ' इस परिवार का मूल निवास जोधपुर के समीप दहीजर नामक स्थान है। यह परिवार जैनस्थानकवासी आम्नाय का मानने वाला है। देश से व्यापार के निमित्त सेठ साहबरामजी बरमेचा लगभग संवत् १९०५ में नाशिक आये, तथा म्यापार आरम्भ किया। आपके मगनमलजी, छगनमलजी तथा बरदीचन्दजी नामक तीन पुत्र हुए। इन भाइयों में से सेठ बरदीचन्दजी बरमेचा ने सेठ चुन्नीलालजी नवलमलजी कूमठ के साथ साहबराम बरदीचन्द के नाम से किराने का व्यापार किया तथा इस दुकान के व्यापार तथा सम्मान को ज्यादा बढ़ाया। भाप अपनी जाति के बड़े शुभचिंतक व्यक्ति थे। आप संवत्
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ अमरचंदजी पारख (अमरचंद रतनचंद ) किशनगढ़.
सेठ मोहनलालजी गोठी ( बालचंद गंभीरमल ) परभणी.
सेठ चांदमलजी बरमेचा ( साहबराम बरदीचन्द ) नाशिक.
सेठ माणिकचंदजी बरमेचा (सुगनचन्द माणिकचन्द ) किशनगढ़.
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बरमेचा
१९४७ में ओसवाल हितकारिणी सभा नाशिक के मंत्री थे। संवत् १९५८ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके शिवरामदासजी तथा चांदमलजी नामक दो पुत्र हुए। इनमें सेठ शिवरामदासजी संवत् १९५४ में स्वर्गवासी हुए।
सेठ चांदमलजी-आपका जन्म संवत १९४५ में हुआ। आप नाशिक के.ओसवाल समाज में गण्यमान्य व्यक्ति हैं। धार्मिक कामों में आप विशेष भाग लेते हैं। आप ओसवाल बोर्डिङ्ग तथा नाशिक जिला ओसवाल सभा के खजांची हैं। तथा जातीय सुधार के कामों में भाग लेते रहते हैं। आप नाशिक जिला ओसवाल अधिवेशन की स्वागत कारिणी समिति के सभापति थे । इस समय आपके यहाँ "साहबराम बरदीचन्द" के नाम से बैकिंग, हुंडीचिट्ठी तथा किराने का व्यापार होता है।
सेठ सुगनचन्द माणिकचंद बरमेचा, किशनगढ़ यह परिवार मूल निवासी मेदते का है। वहाँ से यह परिवार किशनगढ़ आया । यहाँ इस परिवार के पूर्वज सेठ कजोड़ीमलजी साधारण लेन-देन करते थे । इनके पुत्र कस्तूरचन्दजी का जन्म संवत् १९०३ में हुआ। आप संवत् १९३० में व्यापार के लिये दिनजापुर (बंगाल) गये, तथा वहाँ “कस्तूरचन्द फतेचन्द" के नाम से कपड़े का म्यापार चालू किया। आपने इस धंधे में काफी तरकी और इजत पाई । धार्मिक कामों में बापकी अच्छी रुचि थी संवत् १९५६ में आप स्वर्गवासी हुए। भापके फतेचन्दजी, सुगनचन्दजी, माणकचन्दजी, किशनचन्दजी तथा विशनचन्दजी नामक पाँच पुत्र हुए। इन भाइयों में सेठ फतेचन्दजी १९८५ में किशनचंदजी १९६६ में तथा विशमचंदजी १९८४ में स्वर्गवासी हुए । बरमेचा फतेचंदजी ने व्यापार में अच्छी सम्पत्ति उपार्जित की । सेठ सुगनचन्दजी का जन्म संवत् १९३७ में हुआ। आपके पुत्र दीपचन्दजी पढ़ते हैं।
___सेठ माणकचन्दजी बरमेचा-आपका जन्म संवत् १९४० में हुआ। आप किशनगढ़ के प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। धार्मिक कामों में आप अच्छा सहयोग लेते हैं। स्थानीय ज्ञानसागर पाठशाला के आप प्रारम्भ से ही सेक्रेटरी हैं। आप साधु सम्मेलन अजमेर के समय अथितियों को भोजन व्यवस्था कमेटी के मेम्बर थे। आपके यहाँ दिनाजपुर (बंगाल) में “कस्तूरचन्द फतेचन्द" के नाम से पाट, कपड़ा तथा ब्याज का काम होता है। आपके पुत्र अमरचन्दजी ने इण्टर तक अध्ययन किया है, इनसे छोटे भँवरलालजी हैं। इसी तरह विशनचन्दजी के पुत्र हुलाशचन्दजी तथा श्रीचन्दजी पढ़ते हैं।
गोठी गोत्र की उत्पत्ति-कहा जाता है कि संवत् ११५२ में मेघा नामक एक व्यक्ति ने भणहिणपुर पट्टन के यवन राजा से पांच सौ मुहर देकर एक जैन प्रतिमा खरीदी, तथा गोड़वाड़ प्रदेश में सुंदर मंदिर निर्माण करवाकर दादा जिनदत्तसूरिजी से उसकी प्रतिष्ठा कराई। और श्रावक व्रत धारण किया। इनके गौड़ी नामक एक पुत्र हुए। गुजरात के श्रावकों ने गोदी को पार्श्वनाथ प्रतिमा पूजक समझ "गोठी" कहना शुरू किया। यह शब्द गोष्टी का अपभ्रंश है। आज भी गुजरात देश में देव पुजारियों को कही २ "मोठी" कहते हैं। भागे चल कर गौदीजी की संताने गोठी नाम से सम्बोधित हुई।
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भोसवाल जाति का इतिहास
सेठ प्रतापमल लखमीचन्द गोठी, बतूलवालों का खानदान
इस परिवार का मूल निवास स्थान बावरा ( जोधपुर स्टेट ) में है। वहाँ लगभग एक शताब्दि पूर्व सेठ शेरसिंहजी गोठी के पुत्र सेठ प्रतापमलजी तथा साईदासजी बदनूर आये, तथा यहां से लेनदेन का व्यापार चालू किया।
सेठ प्रतापमलजी गोठी–आप बड़े व्यवसाय कुशल तथा दूरदर्शी पुरुष थे आपने व्यापार द्वारा उपार्जित की हुई सम्पत्ति से बेतूल जिले में संवत् १९३१ में सांकादही तथा जामशिरी और १९४० में वोयगाँव तथा डोलन नामक गाँव खरीद किये। आपको दरबार आदि सरकारी जलसों में कुर्सी प्राप्त होती थी। . आप बेतूल के ऑनरेरी मजिस्ट्रेट थे। संवत् १९४६ में ६५ साल की आयु में आप स्वर्गवासी हुए। आपके छोटे भ्राता साईदासजी भी संवत् १९४० में स्वर्गवासी हुए। सेठ प्रतापमल जी के तिलोकचन्दजी तथा लखमीचन्दजी नामक २ पुत्र हुए। इनमें तिलोकचन्दजी का स्वर्गवास संवत् १९३१ में २९ साल की अल्पायु में होगया, अतः इनके उत्तराधिकारी सेठ लखमीचन्दजी के ज्येष्ठ पुत्र मिश्रीलालजी बनाये गये।
.. सेठ लखनीचन्दजी गोठी-आपका जन्म संवत् १९१५ में हुआ। आप इस परिवार में बहुत प्रतापी व्यक्ति हुए। आपने अपनी जमीदारी के बढ़ाने की ओर बहुत लक्ष दिया, तथा अपने हाथों से बेतूल तथा होशंगाबाद जिले में करीब १०० गांव जमीदारी के खरीद किये। सरकार ने आपको ऑनरेरी मजिस्ट्रेट का सम्मान दिया था। आपके लिये वृटिश इंडिया में आमंस लाइसेंस माफ था। आपने अपने स्वर्गवासी होने के 10 साल पूर्व अपने सातों पुत्रों के विभाग अलग अलग कर दिये थे। तथा २ गाँव पुण्यार्थ खाते निकाले। जिनकी आय इस समय सदावृत आदि धार्मिक कामों में लगाई जाती है। इसके अलावा प्रधान दुकान और ग्राहस्थ जीवन सम्मिलित चालू रहने की व्यवस्था करदी। आपकी इच्छानुसार आपके पुत्रों ने साठ सत्तर हजार रुपयों की लागत से इटारसी स्टेशन पर एक सुंदर धर्मशाला बनवाई। इस प्रकार प्रतिष्ठा पूर्वक जीवन बिताते हुए संवत् १९८१ की काती वदी १० को आप स्वर्गवासी हुए। आपके मिश्रीलालजी, मेघराजजी, धनराजजी, पनराजजी, केशरीचन्दजी, दीपचन्दजी तथा तथा फूलचन्दजी नामक पुत्र हुए। इनमें धनराजजी स्वर्गवासी होगये ।
सेठ मिश्रीलालजी गोठी-आपका जन्म संवत् १९३९ में हुआ। आपही इस समय इस परिवार में सबसे बड़े हैं। आप बड़े शांत तथा समझदार सज्जन हैं। तथा तमाम जमींदारी, व्यापार
और कुटुम्ब की सम्भाल बड़ी तत्परता से करते हैं। आपके पुत्र बदरीचन्दजी १६ साल के हैं, आप शुद्ध खादी धारण करते हैं। आप होनहार युवक हैं। तथा मेट्रिक में अध्ययन करते हैं। सेठ मेघराजजी गोठी का जन्म १९४३ में हुआ। यूरोपीय युद्ध के बाद आपने छिंदवाड़ा डिस्ट्रिक्ट में दो लाख रुपयों की लागत से कोयले को तीन खाने खरीदी, तथा इस समय उनका संचालन करते हैं। आपके पुत्र अमरचन्दजी तथा प्रेमचन्दजी हैं। सेठ धनराजजी गोठी का जन्म संवत् १९४८ में तथा स्वर्गवास १९८४ में हुआ। आपके पुत्र गोकुलचन्दजी, नेमीचन्दजी, उत्तमचन्दजी तथा समीरमलजी हैं। सेठ पनराजजी का जन्म १९४८ में हुआ। भाप सराफी दुकान का काम देखते हैं। आपके मूलचन्दजी तथा मोतीलाल
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सवाल जाति का इतिहास
स्व० सेठ लखमीचंदजी गोठी बेतूल (प्रतापमल लखमीचंद)
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सेठ मिश्रीमलजी गोठी (प्रतापमल लखमीचंद) बेतूल
धर्मशाला इटारसी (प्रतापमल लखमीचंद बेतूल )
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गोठी जी नामक पुत्र हैं। सेठ के शरीचन्दजी गोठी का जन्म संवत् १९४९ में हुआ । आपने मेट्रिक तक शिक्षा पाई है, तथा जमीदारी और दुकानों का कार्य देखते हैं।
श्री दीपचन्दजी गोठी-आप सेठ लखमीचन्दजी गोठी के छठे पुत्र हैं। आपका जन्म संवत् १९५५ की दीपमालिका के दिन हुआ। नागपुर कांग्रेस से आपने राष्ट्रीय कायों में सहयोग देना आरंभ किया। आपके दयालु व अभिमान रहित स्वभाव के कारण बेतूल जिले की जनता आपसे दिनों दिन अधिकाधिक स्नेह करने लगी। आप जमता में सेवा समिति आदि का संगठन करते रहे। सन् १९२० में आपने "गौंड" नामक जंगली जातियों से शराब मांस आदिछुड़वाने का ठोस कार्य आरंभ किया। सन् १९२७ में आपको डिस्ट्रिक्ट कौंसिल की मेम्बरशिप व एम. एल. सी. का सम्मान प्राप्त हुभा । थोड़े समय बाद आप कौंसिल से इस्तीफा देकर सत्याग्रह संग्राम में प्रविष्ठ हुए। सन् १९२९ में जंगल सत्याग्रह करने के उपलक्ष में आपको एक साल का कारावास तथा ५००) जुर्माने की सजा हुई। आप की गिरफ्तारी के समय आपके प्रेम के वर्शभूत होकर २५। ३० हजार गौंड जनता उपस्थिति थी। आपके पीछे आपके परिवार से गवर्नमेंट ने सत्याग्रह शांत करने के लिये भेजी गई पुलिस के खर्चे के ३४००) वसूल किये। भाप गांधी इरविन समझौता के अनुसार • मास ४ दिन की सजा भुगत कर ता०९ मार्च ११के दिन नागपूर जेल से छटे। आपकी प्रथन पत्नी श्रीमती सगनदेवीजी भाप जेक यात्रा के पश्चात् अत्यन्त त्यागमय जीवन विताने लगी। जिससे उनका शरीर क्षीण होगया
और रोगप्रसित होजाने के कारण उनका शरीरान्त ५ सितम्बर १९६४ में होगया घर सालों से गोठी दीपचन्दजी डिस्ट्रिक्ट कौंसिल के सेक्रेटरी तथा स्कूल बोर्ड के मेम्बर हैं। भापका प्रेमालु स्वभाव प्रशंसनीय है। इतनी बड़ी सम्पत्ति तथा सम्मान के स्वामी होते हुए भी आपको अभिमान छू तक नहीं गया है। आपके छोटे भाता फूलचन्दजी अपनी मालगुजारी का काम देखते हैं।
यह परिवार सी० पी० के ओसवाल समाज में बहुत बड़ी प्रतिष्ठा रखता है । इस समर लगभग १०० गांवों की जमीदारी इस कुटुम्ब के पास है। इस परिवार को मुख्य दुकान “सेठ प्रतापमल लखमीचन्द" के नाम से बेतूल में है। जिस पर जमीदारी, बेंकिंग तथा चांदी सोने का व्यापार होता है। इसके अलावा इस परिवार की भिन्न २ नामों से बेतूल इटारसी तथा जुनरदेव में दुकाने हैं ।
सेठ बालचन्द गंभीरमल गोठी, परभणी (निजाम)
इस खानदान के मालिक मूल निवासी बिलाड़ा (जोधपुर-स्ट्रेट) के हैं। आप मंदिर आम्नाय के सज्जन हैं। सब से पहले बिलाड़ा से सेठ बालचन्दजी गोठी करीब १२५ बरस पहले परभणी में आये। आपने यहाँ आकर के अपनी फर्म स्थापित की। आपको स्वर्गवासी हुए करीब ५० वर्ष हो गये होंगे । आपके पश्चात आपके पुत्र सेठ गम्भीरमलजी गोठी ने इस फर्म के काम को सम्हाला । आपके समय में भी फर्म की बराबर तरक्की होती रही आपका संवत् १९५६ में स्वर्गवास हुआ।
आपके पश्चात् आपके पुत्र सेठ मोहनलालजी गोठी ने इस फर्म के काम की बहुत तरक्की दी। मापका जन्म संवत् १९२५ में हुआ। आपने मकान, बगीचे वगैरा बहुत सी स्थावर संम्पत्ति बढ़ाई । पर.
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मासवाल जाति का इतिहास
भणी में आपकी देख रेख में एक श्री पाश्र्वनाथजी का बहुत विशाल और भव्य मंदिर बना है। इस समय आपकी दुकान पर बैंकिंग सोना चाँदी, कपड़ा खेतीवड़ी आदि व्यापार होता है। परभणी में यह फर्म बहुत प्रतिष्ठित हैं। सेठ मोहनलालजी बड़े उत्साही हैं। आपके इस समय एक पुत्र हैं जिनका नाम नेमीचंदजी है। आपका संवत् १९६५ का जन्म है।
श्री मनोहरमलजी गोठी, नाशिक आपका परिवार महामन्दिर (जोधपुर) का निवासी है। इस परिवार के पूर्वज देश से व्यापार के लिये नाशिक जिले के घोटी नामक स्थान में आये। वहाँ सेठ मनीरामजी तथा उनके पुत्र लखमीचन्दजी आसामी लेन देन का काम करते रहे। सेठ लखमीचन्दजी संवत् १९७७ में स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र मनोहरमलजी हुए।
मनोहरमलजी गोठी-आपका जन्म संवत् १९५९ में हुआ। अपने पिताजी के स्वर्गवासी होने के बाद भाप" सालों तक बम्बई में सर्विस करते रहे। जाति हित के कामों में आपकी बहत रुचि है। भाप बम्बई की भोसवाल मित्र मण्डल, नामक संस्था के सेक्रेटरी रहे। संवत् १९३२ से आपने नाशिक में 'गोठी ब्रादर्स" के नाम से कपड़े का व्यापार स्थापित किया। आप इस समय नाशिक जिला भोसवाल सभा और जैन बोडिंग के सेक्रेटरी हैं। नाशिक जिले के उत्साही कार्य कर्ताओं तथा जाति हितैषी व्यक्तियों में भापका नाम अग्रगण्य है।
पूंगलिया पूंगलिया गौत्र की उत्पत्ति- कहा जाता है कि लोद्रपुर (जैसलमेर के भाटी राजा रावल जैतसी के ९ वर्षीय पुत्र केलणदे को गलित कुष्ट की बिमारी हो गई थी। उस समय राजा के आग्रह से दादा जिनदत्त सूरिजी लोद्रपुर आये । तथा राजपुत्र को स्वस्थ्य फिया । कुमार केलणदे ने साधुवृत्ति धारण करने की प्रार्थना की। तब गुरु ने उसका मुण्डन कराकर सम्यक्त युक्त बारह व्रत उच्चराये । दर्शन और दीक्षा की चाह रखने के कारण इनकी गौत्र राखेचाह ( राखेचा) हुई। ये अपने निवास पुंगल से उठकर दूसरे स्थल पर बसे । इसलिये पूंगलिया राखेचा कहलाये । इस प्रकार पूङ्गलिया गौत्र की उत्पत्ति हुई।
सेठ ताराचन्दजी बीजराजजी पूंगलिया, डूगरगढ़ इस परिवार के लोग पूंगल से संमदसर नामक स्थान पर आये । वहाँ से फिर संवत् १९५२ में सेठ रावतमलजी श्री डूंगरगढ़ाआये आप बड़े मेधावी और अनुभवी सज्जन थे। डूगरगढ़ आने के पूर्व ही आपने पूरणी (भागलपुर) नामक स्थान पर अपनी फर्म पर गले का व्यापार प्रारम्भ किया। इसके बाद सफलता मिलने पर क्रमशः साहबगंज और छत्तापुर में अपनी शाखाएं खोली। संवत् १९५७ में आपका स्वर्गवास हो गया । आपके ताराचन्दजी और बींजराजजी नामक दो पुत्र हुए।
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ओसवाल जाति का इतिहास
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सेठ बींजराजजी पूंगलिया, डूंगरगढ़.
सेठ जयचंदलालजी पूंगलिया, डूंगरगढ़.
बाबू तोलारामजी पूंगलिया, डूंगरगढ़.
श्री मनोहरमलजी गोठी, नाशिक,
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पूंगलिया सैठ ताराचन्दजी और बीजराजजी-आप दोनों भाइयों ने भी व्यापार में बहुत तरकी की । एवम् अपने व्यापार को विस्तृत रूप से बढ़ाने के लिये फारबिसगंज, डोमार, मुरलीगंज और कलकत्ता आदि स्थानों पर अपनी शाखाएँ स्थापित कर जूट का व्यापार शुरू किया। इसमें आप लोगों को बहुत सफलता मिली। आप लोगों का यहाँ की जनता एवम् बीकानेर स्टेट में अच्छा सम्मान है। संवत् १९८५ में ताराचन्दजी का स्वर्गवास हो गया। आपके शेरमलजी, जयचन्दलालजी, विरदीचन्दजी और जीवराजजी नामक चार पुत्र हुए। इनमें से शेरमलजी का स्वर्गवास हो गया। शेष बंधु व्यापार संचालन करते हैं। बांबू जयचन्दलालजी मिलनसार और उत्साही व्यक्ति हैं।
सेठ बींजराजजी के सात पुत्र हैं, जिनके नाम क्रमशः नेमीचन्दजी, मेघराजजी, धरमचन्दजी, माणकचन्दजी, रिधकरनजी, शुभकरनजी और पूनमचन्दजी हैं। इनमें से प्रथम तीन ब्यापार संचालन में योग देते हैं । शेष पढ़ते हैं। इस परिवार की डूंगरगढ़ में बहुत सी हवेलियां बनी हुई हैं। यह परिवार श्रीजैन तेरापंथी. संप्रदाय का अनुयावी है।
. सेठ गोकुलचंद कस्तूरचंद पूंगलिया, डूंगरगढ़
इस परिवार के लोगों का मूल निवास स्थान समक्सर ही था। वहाँ से संवत् १९४२ में सेठ अखयचन्दजी के पुत्र सेठ अर्जुनदासजी, शेरमलजी, गोकुलचन्दजी, दुलीचन्दजी और कालूरामजी श्रीडूंगरगद आये । कुछ समय के पश्चात् ये सब भाई अलग र हो गये । वर्तमान इतिहास सेठ गोकुलचन्दजी के वंश का है। सेठ गोकुलचन्दजी ही ने पहले पहल आसाम प्रान्त के गोलकगंज नामक स्थान पर जाकर जूट तथा गल्ले का प्यापार प्रारम्भ किया । आप बड़े प्रतिभावान व्यक्ति थे। आपने फर्म को बहुत तरकी की। कलकत्ता में भी आपने हस्तमल कस्तूरचन्द के नाम से फर्म स्थापित कर कपड़े का व्यापार प्रारम्भ किया। सम्वत् १९७२ में आपका स्वर्गवास हो गया । आपके हस्तमलजी, कस्तूरचन्दजी और बेगराजजी नामक तीन पुत्र हुए । आप लोग भी मिलनसार और व्यापार कुशल व्यक्ति थे। आप लोगों का स्वर्गवास हो गया। इस समय इस इस फर्म के मालिक सेठ कस्तूरचन्दनी के पुत्र बा तोलारामजी हैं। आप उत्साही नवयुवक हैं। आपने भी गौरीपुर में अपनी एक ब्रांच खोलकर उसपर जूट का काम प्रारम्भ किया है। आपकी फर्म का बीकानेर स्टेट में अच्छा सम्मान है।
सेठ नेमीचंदजी सरदारमल पूंगलिया, नागपुर इस परिवार का मूल निवास बीकानेर है। इस परिवार के पूर्वज सेठ दौलतरामजी पूलिया के कमीरामजी, मेरोंदानजी, सुगनचंदजी तथा जवाहरमरूजी नामक ७ पुत्र हुए। इनमें से सेठ मेरोंदानजी उँट की सवारी से लगभग १०० वर्ष पूर्व नागपूर आये। थोड़े समय बाद मापके छोटे भाई जवाहरमकजी भी नागपूर आ गये । आपके मझले भ्राता सुगनचन्दजी पनलिया अमरावती में सेठ मोजीराम बलदेव की दुकान पर प्रधाम मुनीम थे। तथा वहाँ वजनदार पुरुष माने जाते थे। सेठ भेरोंदानजी संवत् १९६० में
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नोसवान जाति का इतिहास
स्वर्गवासी हो गये। आपके हाथों से व्यापार को तरकी मिली। आपके बड़े भ्राता सेठ कनीरामजी के सामचन्दजी नामक पुत्र हुए। इनका स्वर्गवास संवत् १९७२ में हो गया। लाभचन्दजी पूलिया के मेमीचन्दजी तथा सरदारमलजी नामक २ पुत्र हुए। इनमें नेमीचन्दजी (सेठ जवाहरमलजी के पुत्र) छोगमलजी के नाम पर दत्तक गये। इनका स्वर्गवास संवत् १९७२ में हो गया।
सेठ सरदारमलजी पूंगलिया-आपका जन्म संवत् १९४४ में हुआ। आपका धार्मिक कामों की ओर बहुत बड़ा लक्ष है। आपने नागपुर स्थानक की बिल्डिंग बनवाने में सहायता दी, तथा बहुत परिश्रम उठाया। यहाँ आपने कई साधुओं के चातुर्मास कराये। केसरबाई के ४७ दिनों के संथारे का व्यय उठाया वृद्धि ऋषिजी की दीक्षा का खरच उठाया, नामली में स्थानक बनवाया। स्थानीय मंदिर के कलश चढ़ पाने में ५ हजार रुपये दिये, इत्यादि कई धार्मिक काम किये। आप नागपुर के जैन समाज में नामांकित गृहस्थ हैं। आपके यहाँ नेमीचंद सरदारमल के नाम से सोना चांदी तथा सराफी व्यापार होता है ।
सेठ केसरीमल पीरूदान पुंगलिया, चांदा इस परिवार का मूल निवास स्थान खारा ( बीकानेर स्टेट) है। वहाँ से संवत् १९३५ । १० के लगमग यह कुटुम्ब भिनासर (बीकानेर स्टेट) गया, तथा भिनासर से सेठ शिवजीरामजी के पुत्र लखमीचन्दजी पुगलिया २० साल की उमर में चांदा आये, तथा उन्होंने अमरचन्दजी अगरचन्दजी गोलेछा की दुकान पर १९६४ तक मुनीमात की, आपके ६ छोटे भ्राता रावतमलजी, भेरूदानजी, मंगलचन्दजी, केशरीमलजी, पूनमचन्दजी तथा पीरूदानजी नाम के और थे, इन भाइयों में से भेरोंदानजी केशरीमल जी तथा पूनमचन्दजी के कोई संतान नहीं हैं। सेठ लखमीचन्दजी पूलिया मुनीमी करते रहे, तथा भेरूदानजी ने व्यापार शुरू किया। आपके बाद केसरीमलजी तथा पीरूमलजी काम काज चलाते रहे। संवत् १९६४ में लखमीचन्दजी ने अपना घरू चांदी सोने का व्यवसाय शुरू किया। संवत् १९८९ में इनका शरीरावसान हुआ।
सेठ रावतमलजी पुलिया के हमीरमलजी तथा राजमलजी नामक २ पुत्र हुए तथा हमीरमलजी के केवलचन्दजी तथा खेमचन्दजी नामक पुत्र हुए। इनमें सेठ राजमलजी, पीरूदानजी के नाम पर तथा केवलचंदजी, लखमीचन्दजी के नाम पर दत्तक गये। पुगलिया मंगलचंदजी का शरीरान्त संवत् १९७८ में हमा। इनके ३ पुत्र हुए दीपचन्दजी मूलचन्दजी तथा नेमीचन्दजी। इन भ्राताओं के यहाँ दीपचन्द पुङलिया के नाम से चांदा में चांदी सोना व सराफी ब्यापार होता है।
सेठ राजमलजी पूँगलिया-अपका जन्म संवत् १९४९ के में हुभा, आपने अपने व्यापार की उन्नति के साथ २ कृषि तथा मालगुजारी के काम को बढ़ाया आपके पास इस समय ४ गाँवों की जमीदारी है। आप चांदा के व्यापारिक समाज में अच्छी इज्जत रखते हैं संवत् १९३० से आप चांदा म्युनिसिपैलिटी के मेम्बर निर्वाचित हुए हैं, सार्वजनिक और लोकहित के कामों में आप सहायता देते रहते हैं। भापके मन्नालालजी, चुनीलालजी, उत्तमचन्दजी, रेखचन्दजी तथा गुलाबचन्द नामक ५ पुत्र हैं जिनमें मत्रालालजी की वय २० साल की है।
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बैंगानी
बैंगानी परिवार की उत्पत्ति कहा जाता है कि जैतपुर के चौहान राजा जैतसिंहजी के पुत्र वंगदेव अंधे हो गये थे। इनको जैनाचार्य से स्वास्थ लाभ हुआ। इससे उन्होंने श्रावक व्रत धारण कर जैन धर्म अंगीकार किया। इन्हीं बंगदेव की संतानें बैगानी कहलाई।
बैंगानी परिवार लाइन इस परिवार वाले सज्जनों का पूर्व निवास स्थान बीदासर था वहाँ से सेठ जीतमलजी किसी वश लाडनू नामक स्थान पर आकर बसे । जिस समय भाप यहाँ आये थे भापकी बहुत साधारण स्थिति थी। आपके केसरीचन्दजी और कस्तूरचन्दजी नामक दो पुत्र हुए। सेठ केसरीचन्दजी के तीन पुत्र हुए उनके नाम सेठ जीवनमलजी, इन्द्रचन्दजी और बालचन्दजी हैं। सेठ बालचन्दजी सुजानगढ़वासी सेठ गिरधारीमलजी के पुत्र सेठ छोगमलजी के यहाँ दत्तक चले गये। सुजानगढ़ में आपका अच्छा सम्मान है मापके जातकरणजी नामक एक पुत्र हैं।
सेठ जीवनमलजी-सेठ जीवनमलजी ने सम्बत् १९५० में कलकत्ता जाकर अपनी फर्म सेठ जीवनमक चन्दनमल नाम से स्थापित की और इस पर जट का काम प्रारंभ किया गया। आपकी बुद्धिमानी और होशिपारी से इस व्यापार में सफलता मिली यहाँ तक कि आपने लाखों रुपयों की सम्पत्ति उपार्जित की। कलकवे के जूट के म्यवसाइयों में आपका भासन बहुत ऊँचा था। वहाँ के व्यापारी लोग कहा करते थे। "आज तो ये भाव है और कल का भाव जीवनमल के हाथ है" व्यापार के अतिरिक्त आपका ध्यान दूसरे कामों की ओर भी बहुत रहा। आपके कार्यों से प्रसन्न होकर जोधपुर नरेश महाराजा सुमेरसिंहजी ने आपको मय आल पोलाद पैरों में सोना पहिनने का अधिकार बख्शा। इसके अतिरिक्त आपको और आपके पुत्रों को जोधपुर की कस्टम की माफी का परवाना भी मिला। इतना ही नहीं दरबार की ओर से पोलकी, छड़ी और कोर्ट में हाजिर न होने का सन्मान भी आपको मिला था। आपका स्वर्गवास सम्बत् १९७४ में जयपुर में हुआ। जिस दिन आपका स्वर्गवास हुआ उस दिल कलकत्ते के जूट के बाजार में आपके प्रति शोक प्रकट करने के लिये हड़ताल मनाई गई थी। आपके पुत्र चन्दनमलजी, जवरीमलजी, हाथीमलजी, मोतीलालजी और सूरजमलजो हुए । सेठ मोतीलालजी का स्वर्गवास हो गया उनके पुत्र हनुमानमलजी विद्यमान है।
सेठ चन्दनमलजी-आपका जन्म सवत् १९३४ में हुआ आप व्यापार कुशल पुरुष हैं आपके छः पुत्र हैं जिनके नाम आसकरणजी, नवरतनमलजी, चम्पालालजी, पूनमचन्दजी, कानमलजी और गुलाबचन्दज हैं। इनमें से आसकरणजी सुजानगढ़ निवासी सेठ बालचन्दजी के यहां दत्तक गये हैं।
सेठ जवरीमलजी-आपका जन्म सम्बत् १९३६ में हुआ। भापका ध्यान विशेष कर धार्मिकता की ओर रहा आपका स्वर्गवास सम्बत् १९९० में हो गया। भापके सागरमलगी नामक एक पुत्र हैं। बाबू सागरमलजी देशभक्त हैं।
सेठ हाथीमलजी -आप बचपन से ही बड़े कुशाग्र बुद्धि के सज्जन रहे। इस फर्म के व्यापार
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मोसवाल जाति का इतिहास
में आपका बहुत बड़ा हाथ है। आपका हृदय वायदे के व्यापार के लिये बहुत खुला हुआ है। हजारों लाखों रुपयों की हार जीत करना आपके लिये बायें हाथ का खेल है। जिस समय आपकी खरीदी और बिकवाली शुरू होती है उस समय प्रायः सारे बाजार की निगाहें आपकी ओर रहती है, यहां तक कि आपके कारण बाजार में कई बार बड़ी घटा बढ़ी हो जाती है आपके इस समय जसकरणजी नामक एक पुत्र है।
सेठ सूरजमलजी-आप मिलनसार और खुशमिजाज सज्जन हैं। आपको मकान बनाने का बहुत शौक है। आपने अपने डिजाइन द्वारा एक सुन्दर हवेली का निर्माण करवाया है। यह डिजाइन अच्छे २ इजीनियरों के डिजाइन का मुकाबला करने में समर्थ हो सकता है । भापके रणजीतसिंह, धनपतसिंह और मोहनसिंह नामक तीन पुत्र हैं।
चंडालिया जयकरणदासजी चण्डालिया का परिवार, सरदारशहर
इस परिवार वालों का पहले निवास स्थान सवाई (सरदार शहर से ३ मीक) नामक स्थान था। मगर जब से सरदार शहर बसा उसी समय से इस परिवार के प्रथम व्यक्ति सेठ जयकरनदासजी यहां आये। इनके तीन पुत्र हुए जिनके नाम क्रम से सेठ उम्मेदमलजी सेठ जीतमलजी भौर सेठ इन्द्रचंद जी थे। इनमें से प्रथम एवम् तृतीय दोनों सज्जनों ने मिलकर कलकत्ता में अपनी फर्म स्थापित की। तथा कपड़े का व्यापार प्रारम्भ किया। आप लोगों को इसमें अच्छी सफलता प्रास हुई। सेठ उम्मेदमल जी धार्मिक व्यक्ति थे। भापका प्रायः सारा समय धार्मिक काव्यों ही में खर्च होता था। सेठ इन्द्रचन्द्र जी इस खानदान में बड़े प्रतिभा सम्पन्न और प्रतिष्ठित व्यक्ति हुए। मापने पहां की पंच पंचायती में कई नये कानून बनाये जो अभी भी सुचारू रूप से चल रहे हैं। आपने एक शनीचरजी का मन्दिर तथा कुवा भी बनवाया। सरदारकाहर के बसाने में आपने बहुत कोशिश की। लिखना यह कि है आप उस समय के नामांकित व्यक्ति थे। आपका स्वर्गवास संवत् १९४३ में होगया।
सेठ उम्मेदमलजी के तीन पुत्र हुए जिनके नाम सेठ कोड़ामलजी सेठ छोगमलजी और सेठ पोकरमलजी हैं। तथा सेठ इन्द्रचन्दजी के पुत्र सेठ शोभाचन्दजी चंडालिया थे । इस समय आप लोगों का व्यापार कलकत्ता में मेसर्स शोभाचन्द कोड़ामल के नाम से होता था। संवत् १९७२ में फिर भाई २ अलग होगये। और अपना अपना व्यापार स्वतंत्र रूप से करने लगे। सेठ कोड़ामलजी तथा छोगमलजी यहां के प्रसिद्ध व्यक्ति हुए। भाप लोगों ने व्यापार में भी अच्छी सफलता प्राप्त की। सेठ शोभाचंदजी भी अपने पिताजी की भांति बड़े नामांकित व्यक्ति हुए। आपका यहां की पंच पंचायती में बहत भाग रहा। आपका सारा जीवन एक प्रकार से पब्लिक सेवाओं ही में व्यतीत हआ। माप तीनों भाइयों का स्वर्गवास होगया। सेठ पोकरमलजी इस समय विद्यमान हैं आपकी अवस्था इस समय ७७ वर्ष के करीब है। अपने भाइयों से अलग होते ही आपने कलकत्ता में अपने पुत्रों के नाम से फर्म स्थापित करदी थी। जिस पर आज कपड़े का व्यापार हो रहा है।
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ओसवाल जाति का इतिहास
श्री जसकरणजी चण्डालिया, सरदारशहर.
सेठ पोकरमलजी चण्डालिया (बैठे हुए ), सरदारशहर. बाबू गणपतरायजो चण्डालिया, (खड़े हुए नं० १). बाबू रामलालजी चण्डालिया, ( खड़े हुए नं० २). जौहरीमलजी चण्डालिया, (खड़े हुए नं० ३)
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चंडालिया
सेठ कोड़ामलजी के मूलचन्दजी नामक पुत्र हुए। मगर उनका स्वर्गवास होगया। वर्तमान में सेठ मुलचन्दजी के पुत्र मिलापचन्दजी, धनराजजी और मंगलचन्दजी हैं। सेठ छोगमलजी के पुत्र सेदमल जी, नेमचन्दजी, हलासमलजी और जयचन्दलालजी हैं। सेठ पोकरमलजीवीन पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः बा. गणपतरायजी, जवरीमलजी और रामलालजी हैं। भाप तीनों ही भाई सज्जन एवं मिलनसार व्यक्ति हैं। और आजकल आप ही लोग अपनी फर्म का संचालन करते हैं। आपकी फर्म कलकत्ता के मनोहरदास कटला में कपड़े का ब्यापार करती है। सेठ शोभाचन्दजी के पुत्र सेठ कालूरामजी हैं। आपका यहाँ की पंच पंचायती में बहुत हाथ है। आप समझदार एवं बुद्धिमान व्यक्ति हैं। भाप यहाँ के म्युनिसिपल मेम्बर हैं। भापके चार पुत्र हैं जिनका नाम क्रम से सुमेरमलजी, मोतीलालजी, पूनमचंद जी और दोपचन्दजी हैं।
सेठ शिवजीराम खूबचंद चंडालिया, सरदारशहर - यों तो इस परिवार वालों का मूल निवास स्थान किशनगढ़ नामक स्थान है मगर कई वर्ष पूर्व वहाँ से चल कर सवाई होते हुए यहाँ भाये अतएव यहाँ सवाई वालों के नाम से प्रसिद्ध हैं। यहाँ आये आपको करीब ९५ वर्ष हुए । यहाँ आने वाले सज्जन सेठ गंगारामजी चण्डालिया थे । आपके चार पुत्र हुए सेठ दुर्जनदासजी, सेठ गुलावचन्दजी, सेठ आसकरनजी और सेठ कालूरामजी। आप चारों ही भाई अपना अलग २ व्यापार करने लगे । वत्तंमान इतिहास सेठ कालरामजी के वंश का है।
सेठ कालूरामजी ने कलकत्ता जाकर नौकरी की। आपके संवत् १९१२ में शिवजीरामजी तथा संवत् १९२२ में गजराजजी नामक दो पुत्र हुए। दोनों ही भाइयों ने मिलकर संवत् १९४२ में कलकते में अपनी फर्म स्थापित की। तथा कपड़े का व्यापार प्रारम्भ किया। इस व्यापार में आप लोगों के परिश्रम से अच्छा लाभ रहा। सेठ शिवजीरामजी बड़े प्रतिभा सम्पन्न और व्यापार चतुर थे। आपकी सलाह बड़ी वजनदार मानी जाती थी। आप साधु प्रकृति के महानुभाव थे। आपका स्वर्गवास संवत् १९८८ में होगया। आपके स्वर्गवास होने के कुछ ही दिन पश्चात् इसी साल सेठ गजराजजी का भी स्वर्गवास होगया। भाप दोनों भाई अपनी मौजूदावस्था ही में अलग २ होगये थे। सेठ शिवजीरामजी के कोई पुत्र न था । अतएव पाली के पास हिमावस नामक स्थान से वा खबर दत्तक लिया गया।
बा. खूबचन्दजी बड़े मिलनसार, उदार एवम् सहदय व्यक्ति हैं। व्यापार में भी आपका अच्छा ध्यान है। आजकल आपका व्यापार संवत् १९७८ से ही बीकानेर के प्रसिद्ध सेठ भैरोंदानजी सेठिया के साझे में हो रहा है। जिस फर्म का नाम मेसर्स खूबचन्द जुगराज पड़ता है इस नाम से कपड़ा तथा आदत का व्यापार होता है। तथा मेसर्स जुगराज रिधकरण के नाम से ३९ आर्मेनियम स्ट्रीट में जूट का म्यापार होता है। इसके अतिरिक्त खूबचन्द पूनमचन्द के नाम से बीकानेर में ऊन का व्यापार होता है। सेठ भैरोंदानजी खेठिया के नाम से उनके प्रेस में आपका साझा है। जो बीकानेर में है।
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ओसवाल जाति का इतिहास
आपके इस समय तीन पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः भंवरलाल जी, पूनम दजी और सिधकरनजी हैं। इनमें से भवरलालजी व्यापार कार्य करते हैं। शेष दोनों पढ़ते हैं।
सेठ जसकरन सुजानमल चण्डालिया, सरदारशहर इस परिवार के प्रथम व्यक्ति सेठ रायसिंहजी सवाई से यहाँ आकर बसे तथा साधारण दुकानदारी का काम प्रारम्भ किया। आपके दो पुत्र हुए जिनके नाम उदयचन्दजी और जैतरूपजी था । वर्तमान इतिहास जैतरूपजी के वंशजों का है। जैतरूपजी के चार पुत्र सेठ कस्तूरचन्दजी, ताराचन्द जी, छतमलजी और सूरजमलजी हुए। आप सब भाई अलग २ होगये एवम् अपना अपना व्यापार करने लगे। सेठ कस्तुरचन्दजी के मुकनचन्दजी नामक पुत्र हुए। आप सरदार शहर तथा कलकत्ता में व्यापार करते रहे। आपका स्वर्गवास संवत् १९६० में होगया। आपके जुहारमलजी एवम् जसकरमजी नामक दो पुत्र हए । जुहारमलजी का केवल १५ वर्ष की उम्र में स्वर्गवास होगया।
___ वर्तमान में इस फर्म के संचालक सेठ जसकरनजी तथा आपके पुत्र कुं० सुजानमलजी हैं। इस फर्म की सारी उमति जसकरनजी ही के द्वारा हुई। आप पहले पहल संवत् १९६३ में कलकत्ता आये। यहां आकर आपने पहले रावतमल पन्नालाल बोरड़ के यहां सर्विस की। इसके पश्चात् आपका इसमें साझा होगया। फिर संवत् १९७७ की साल से आपने अपनी स्वतंत्र फर्म उपरोक्त नाम से शुरू की।
और स्वदेशी कपड़े का व्यापार प्रारम्भ किया। पश्चात् संवत् १९८८ से आप सुजानमल चण्डालिया के नाम से व्यापार कर रहे हैं। आपकी गिद्दी कलकत्ता में ३० । ३८ आर्मेनियम स्ट्रीट में है। तथा सेलिंग शाप नार्मल लोहिया लेन में है। आपके सुजानमलजी नामक एक पुत्र हैं आप भी व्यापार में भाग लेते हैं। आप लोग प्रारम्भ से ही श्री जैन तेरा पन्थी संप्रदाय के अनुयायी हैं।
सेठ आनंदरूप कस्तूरचंद चंडालिया, जालना इस खानदान के मालिक मूल निवासी गठिया (जोधपुर स्टेट) के हैं। आप मन्दिर आम्नाय को मानने वाले सजन हैं। इस खानदान वाले करीब १५० वर्ष पहिले मारवाड़ से दक्षिण में आये। तथा
ओसाई खेड़ा नामक गाँव में रहे। इन आने वालों में सेठ श्यामदासजी, दुरगदासजी तथा उदयचन्दजी ये तीनों भाई मुख्य थे। कुछ समय पश्चात् श्यामदासजी के परिवारवालों ने औरंगाबाद में और दुरगदास जी के परिवार वालों ने जालना में अपनी दुकानें खोली।
दुरगदासजी के पुत्र सेठ आनन्दरूपजी हुए। आप बड़े विद्वान और धर्मप्रेमी पुरुष थे। आपने अपने यहाँ सैकड़ों शास्त्रों का संग्रह किया जो अभी भी विद्यमान है। मुगलाई स्टेट में आप बड़े नामी हुए सेठ आनन्दरूपजी का स्वर्गवास संवत् १९१५ के करीब हुआ। आपके पश्चात् आपके पुत्र कस्तूरचन्दजी बहुत प्रख्यात हुए । निजाम-स्टेट के अन्दर आपकी बहुत बड़ी इजत थी यहाँ तक कि बहुत दिनों तक केंटुन्मेट की तरफ से आपके यहाँ सम्मान के लिये १२ जवान और एक हवलदार हमेशा २४ घंटा पहरा देते थे । आपकी तरफ से दान धर्म और परोपकार भी बहुत होता था। सेठ कस्तूरचन्दजी का संवत् १९३७ में स्वर्गवास हुभा। आपके कोई पुत्र न होने से केसरीचन्दजी म्यावर से दत्तक लाये गये । इनका भी स्वर्गवास सन् १९१९ में हुआ। इस समय आपके पुत्र केवलचन्दजी विद्यमान हैं।
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ खूबचंदजी चण्डालिया, सरदारशहर.
कुं० भंवरलालजी चण्डालिया, सरदारशहर,
कुँ० पूनमचंदजी चण्डालिया, सरदारशहर,
कुँ० ऋद्धकरणजी चण्डालिया, सरदारशहर.
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ओसवाल जाति का इतिहास
श्री जसराजजी कठौतिया, सुजानगढ़,
स्व० सेठ चांदमलजी भूतोड़िया, लाडनूं.
स्व. सेठ बालचन्दजी कमोतिया, सुजानगढ़.
तोलामलजी S/o चांदमलजी भूनोडिया, लाडनूं.
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कठोतिया कठोतिया गौत्र की उत्पत्ति-कठोतिया गौत्र का मूल गौत्र सोनी है। जिसका विवरण हम पहले दे चुके हैं। सोनी परिवार के सजन कठोति नामक ग्राम में वास करते थे और फिर वहीं से दूसरे गाँवों में गये। अतएव कठोती से कठोतिया कहलाने लगे।
कठोतिया परिवार, सुजानगढ़। सेठ परसरामजी के पुत्र सेवारामजी, ताराचन्दजी और रतनचन्दजी संवत् १८७९ में लाइन से सुजानगढ़ भाये। जिस समय सुजानगढ़ बसा उस समय बीकानेर के तत्कालीन महाराजा रतनसिंहजी ने आपको शहर के बसाने वालों में आगेवान् समझकर बहुतसी जमीन मकानात एवम् दुकानें बनवाने के लिये जमीन फ्री प्रदान की। साथ ही कस्टम के आधे महसूल की माफी का परवाना मय स्वासरूके के प्रदान किया। रतनचन्दजी का परिवार वापस लाइन चला गया। ताराचन्दजी के कोई सन्तान न थी। वर्तमान परिवार सेठ सेवारामजी के दूसरे पुत्र पदमचन्दजी का है। सेठ पदमचन्दजी के बींजराजजी और पूसामलजी नामक दो पुत्र हुए।
___ सेठ बींजराजजी और पूसामलजी दोनों भाई बड़े व्यापारी होशियार तथा कष्ट सहन करने वाले परिश्रमी व्यक्ति थे। आपने संवत् १९०८ में बंगाल प्रान्त में जाकर बोडागाड़ी नामक स्थान पर अपनी फर्म स्थापित की। इसके बाद आपने घोडामारा, डोमार और कलकत्ता में भी अपनी फर्मे खोली। भाप लोगों का स्वर्गवास हो गया।
आपके पश्चात् फर्म का कार्य सेठ बींजराज के पुत्र जेसराजजी और सेठ पूसालालजी के पुत्र बालचन्दजी ने सम्हाला । आप दोनों भाइयों के परिश्रम से भी फर्म की उन्नति हुई। सेठ बालचंदजी की यहाँ बहुत अच्छी प्रतिष्ठा थी। आप प्रभावशाली व्यक्ति थे। आपका स्वर्गवास हो गया। आपके गणेशमलजी, पूनमचन्दजी, मोहनलालजी और नथमलजी नामक चार पुत्र हैं। जेसराजजी के पुत्र का नाम लालचन्दजी हैं। आप सब लोग मिलनसार और उत्साही सजन हैं। आप लोग भी व्यापार का संचालन करते हैं। आप लोग श्वेताम्बर तेरापंथी सम्प्रदाय के अनुयायी हैं। आपको बीकानेर दरबार की ओर से छड़ी, चपरास और कैफियत की इज्जत प्राप्त है। सेठ जैसराजजी स्थानीय म्युनिसिपेलटी के वायस प्रेसिडेण्ट हैं। तथा मोहनलालजी आनरेरी मजिस्ट्रेट हैं । वर्तमान में आपका व्यापार, डोमार, हल्दीबाड़ी, फारविसगंज, सिराजगंज और कलकत्ता में जूट, बैंकिंग और कमीशन का होता है। प्रायः सभी स्थानों पर भापकी स्थाई सम्पत्ति बनी हुई है।
मृतेड़िया
भूतदिया गौत्र की उत्पत्ति-ऐसा कहा जाता है कि संवत् 1००९ में जांगलदेश के सरसापट्टन नामक नगर में दुर्जनसिंह नामक एक राजा राज्य करता था। इसको भूतों के डर से मुक्त कर आचार्य श्री तरुणप्रभसरिजी ने जैन धर्मावलम्बी बनाया। इन्हीं भूत तादिया से भूतेदिया गौत्र की उत्पत्ति हुई।
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सेठ गंगारामजी भूतेड़िया का परिवार, लाड़न
दूसरे पुत्र सेठ हजारीमलजी बड़े व्यापार
इस परिवार के लोग बहुत समय से लाडनूं में ही रहते हैं। इस परिवार में से गंगारामजी बड़े मशहूर व्यक्ति हुए । इन्होंने वर्द्धमान (बङ्गाल ) में जाकर अपनी फर्म स्थापित की थी । इनके तिलकचन्दजी, छोटू लालजी और वींजराजजी नामक तीन पुत्र हुए। भाप लोगों ने व्यापार में बहुत तरक्की की। आप तीनों पीछे जाकर भलग २ हो गये, एवम् स्वतन्त्र व्यापार करने लगे । सेठ तिलोकचन्दजी का परिवार-सेठ तिलोकचन्दजी के कुशल व्यक्ति थे । आपने लाखों रुपयों की सम्पत्ति उपार्जित की। आप लाडनूं की पंच पंचायती में आगे वान थे । आपका स्वर्गवास हो गया। इस समय आपके जयकरनजी और मालचन्दजी नामक दो पुत्र हैं। दोनों ही गूंगे और बहरे हैं । आपका व मान में गंगाराम तिलोकचन्द के नाम से व्यापार होता है । सेठ हजारीमलजी के भाई सेठ मोहनलालजी के परिवार के लोग इस समय वद्धमान में तिलोकचन्द मोहनलाल और राजशाही में मोहनलाल जयचन्द के नाम से व्यापार कर रहे हैं।
सेठ छोटू लालजी का परिवार — आपके चार पुत्र सेठ हरकचन्दजी, जुहारमलजी, चांदमलजी और शोभाचंदजी हुए। सेठ जुहारमलजी बड़े व्यापार कुशल व्यक्ति थे । आपने कलकत्ता में मेसर्स छोटूलाल जुहारमल के नाम से फर्म स्थापित की। आपका संवत् १९८८ में स्वर्गवास हो गया। आपके सूरजमलजी और कुन्दनमलजी नामक दो पुत्र हुए। आप दोनों भाई अलग अलग रूप से व्यापार करने लगे । सेठ सूरजमलजी उपरोक्त फर्म के नाम व्यापार करते हैं। आप धार्मिक व्यक्ति हैं। आपके इस समय पूनमचन्दजी, बुधमलजी और लालचन्दजी नामक तीन पुत्र हैं। आप तीनों भाई मिलनसार हैं। प्रथम दो व्यापार संचालन करते हैं। तीसरे पढ़ते हैं। इस फर्म का आफिस ३९ लाईव स्ट्रीट में है । इस पर ब्याज बैंकिंग और जूट बेलिंग का व्यापार होता है ।
सेठ चांदमलजी ने मेसर्स छोटूलाल चांदमल के नाम से कलकत्ता में फर्म स्थापित की। इसमें आपने अच्छा लाभ उठाया। आपका स्वास्थ्य खराब रहने से यह फर्म उठा दी गई। आप बड़े व्या चतुर और बुद्धिमान सज्जन थे। आपका स्वर्गवास हो गया। शेष जीवनमलजी और धनराजी इस समय विद्यमान हैं। आप दोनों भाई उत्साही और मिलनसार व्यक्ति हैं। इस समय आपकी फर्म मेसर्स गंगाराम छोटूलाल के नाम से वर्द्धमान में ब्याज, हुंडी चिट्ठी और जमींदारी का काम कर रही है। आपकी ओर से लाड़नूं की गौशाला में ४१००) प्रदान किये गये हैं। तथा एक धर्मशाला बनी हुई है । वमान में २०० वर्षों से आपकी फर्म स्थापित है ।
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सेठ संतोषचंद रिखबदास कांसटिया,
भोपाल
इस खानदान के पूर्वज सेठ ऋषभदासजी कांसठिया मेड़ते में निवास करते थे । आप गरोठ हाते हुए आस्टा (भोपाल स्टेट) आये और यहाँ १०-१५ साल रहकर फिर भोपाल में आपने अपना स्थाई
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समदाड़या
निवास बनाया। आपका संवत् १९९६ में शरीरावसान हुवा, इसी साल मार्गशीर्ष बढी २ को भापके पुत्र गोड़ीदासजी का जन्म हुभा।
सेठ गोड़ीदासजीं कांसटिया-आपकी दिन चा का विशेषभाग धार्मिक विषय की चर्चा, प्रति क्रमण व सामयिक करने में व्यतीत होता था। सम्पत्तिशाली होते हुए भी प्रतिदिन अपनी बिरादरी के बच्चों को आप धार्मिक शिक्षा देते थे, नियम पूर्वक प्रतिवर्ष आप जैन तीर्थों की यात्रा करने जाते थे। संवत् १९७९ में आपने एक उपाय की लामत के २२.१) देकर उसे श्रीसंघ के अर्पण किया। सं० १९८५ में आपकी धर्मपत्नी श्रीमती मिश्रीवाई के स्वर्गवास के समय आपने ५ हजार रु. शुभ कार्यों में लगाने के निमित्त निकाले । आप मक्षी तीर्थ के सभासद् और श्वेताम्बर जैन पाठशाला के प्रेसिडेण्ट थे, आपकी धार्मिकता, न्यायशीलता और प्रामाणिकता के कारण ओसवाल समाज व अन्य समाजों में आपका अच्छा सम्मान था। इस प्रकार प्रतिष्ठामय जीवन बिताते हुए आप संवत् १९८६ की वैशाख सुदी ५ को स्वर्गवासी हुए। आपकी मोजूदगी में आपके पुत्र ममीचन्दजी कांसटिया ने १० हजार रुपयों का दान शुभ कार्यो के लिये किया। .
सेठं अमीचन्दजी कांसटिया-आपका जन्म संवत् १९३० में हुआ। भापका बाल्प और यौवन काल पिताजी की देखरेख में गुजरा, भतः आपकी भी धार्मिक कामों की अच्छी रुचि स्थानीय श्वेताम्बर जैन पाठशाला में आपकी ओर से एक धर्माध्यापक रहते हैं। बाप भोसवाल समाज के सम्मानीय गृहस्थ एवम् भोपाल के प्रतिष्ठि व्यापारी हैं, आपकी फर्म पर "संतोषचन्द रिखबदास कांसटिया" के नाम से साहुकारी लेन-देन, हुंडी चिट्ठी, रहन व सराफी व्यापार होता है।
समदड़िया समदड़िया गौत्र की उत्पत्ति-समदड़िया गौत्र की उत्पत्ति के सम्बन्ध में महाजन वंषा मुक्तवली में लिखा है कि पदमावती नगर के समीप सोदा राजपूत समंदसी अपने भाठ पुत्रों सहित बड़ी गरीबी हालत में रहता था। जैनाचार्य श्रीजिनवचभ सूरिजी के उपदेश से यह धार्मिक जीवन बिताने लगा। समंदसीको सेठ धनासा पोरवाल ने अपना सहधर्मी समझकर व्यापार में अपना भागीदार बनाया, तथा इनके आठों पुत्रों को व्यापार के लिए समुद्र पार भेजा। इन्होंने मोक्तिक, विद्रुम, अम्बर आदि के व्यापार में असंख्यात द्रव्य उपार्जित किया। समंदसी की संतान होने और समुद्र यात्रा करने से इनके वंशज समदरिया कहलाये। इस प्रकार समदड़िया गौत्र प्रसिद्ध हुभा।
समदड़िया मेहता सुकनमलजी मोहनमलजी का खानदान, जोधपुर
इस परिवार के पूर्वज समदोजी के पौत्र कोजूरामजी, जब राव जोधाजी ने जोधपुर बसाया, तब जोधपुर आये। इनको होशियार समझकर राव जोधाजी ने अपना दीवान बनाया। इनके प्रपौत्र मेहता समरथजी को राव मालदेवजी अपने साथ गुजरात के गये थे । इनका पुत्र मकबर के साथ वाली लड़ाई में मारा
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ओसवाल जाति का इतिहास
गया। इनके पौत्र भगवानदासजी, महाराजा जसवंतसिंहजी के साथ काबुल गये थे। भगवानदासजी के पौत्र गोकुलदासजी ने महाराजा अजीतसिंहजी की विखे के समय बहुत सेवा की । अतः इनको सांगासनी नामक ग्राम जागीरी में मिला । संवत् १७६९ में इनको महाराजा अजीतसिंहजी से दीवानगी का सम्मान इनायत हुभा । पुनः इन्होंने महाराजा अभयसिंहजी के समय में संवत् १७४१ में दीवानगी का कार्य किया। इसके प्रपौत्र खेमकरणजी मेड़ते के कोतवाल थे और महाराजा विजयसिंहजी के साथ नागोर के घेरे में सम्मिलित थे। इनके पुत्र मेहता मूलचंदजी तथा मीठालालजी महाराजा भीवसिंहजी तथा मानसिंहजी के समय में मारवाड़ में लम्बे समय तक कई परगनों के हाकिम तथा कोतवाल रहे। आप दोनों बंधुओं को सरकार ने बरसाद देकर सम्मानित किया था।
मेहता मूलचन्दजी के पुत्र मोतीचन्दजी तथा पौत्र रामकरणजी हुए। मेहता रामकरणजी भी हुकूमातें करते रहे। इनके कानमलजी तथा चांदमलजी मामक २ पुत्र हुए। कानमलजी को एक हार रुपया साल बरसोंद मिलती थी। मेहता चांदमलजी के बड़े पुत्र मानमलजी संवत १९०२ में मेड़ते के कोतवाल हुए । इनके छोटे भ्राता जवाहरमलजी थे। मेहता जवाहरमलजी के सुकनमलजी तथा मोहनमलजी मामक २ पुत्र हैं। इनमें मेहता सुकनमलजी, मेहता मानमलजी के नाम पर दत्तक गये हैं। मेहता सुकनमलजी के पुत्र सोहनमलजी बी. ए. एल. एल.बी० में पढ़ रहे हैं।
सेठ भेरुबचजी समदरिया का परिवार, मद्रास
(सुखलालजी, बहादुरमलजी कानमलजी समदरिया) इस खानदान के मालिक ओसवाल जाति के समन्दरिया गौत्रीय श्वेताम्बर जैन समाज के मन्दिर भानाय को मानने वाले सजन हैं । इस परिवार का मूल निवासास्थान नागौर का है। इस खानदान में भेरूवक्षजी समन्दरिया हुए। आप अपने जीवनकाल में नागौर में ही रहे, आप नागौर में बड़े धर्मात्मा पुरुष हो गये हैं। आपका जन्म संवत् १८९२ का था तथा स्वर्गवास संवत् १९४३ में हुआ।
आपके तीन हुए जिनके नाम क्रम से श्री सुखलालजी, बहादुरमलजी तथा कानमलजी हैं। श्री यत सुखलालजी का जन्म सम्बत १९३१ में हमा। आप बड़े प्रतिभाशाली और बुद्धिमान पुरुष हैं। आप संवत् १९४८ में मद्रास आये और यहाँ आकर आपने अपनी बैंकिंग की एक फर्म स्थापित की। आपकी बुद्धिमानी और दूरदर्शिता से आपकी फर्म खूब तरकी करती गई यहाँ तक कि इस समय यहाँ की नामी फर्मों में से यह एक है। श्री सुखलालजी समन्दरिया अपनी जाति की विधवाओं को प्रतिमास बहुत सा रुपया सहायतार्थ देते हैं। मद्रास साहुकार पेठ के मन्दिर की प्रतिष्ठा आपने बहुत उद्योग से पैसा एकत्रित कर करवाई। एवं मापने भी उसमें काफी द्रव्य प्रदान किया है । मद्रास की दादावाड़ी जो पहले एक जङ्गल के रूप में थी, आपके ही प्रयत से वह अब बहत ही रमणीक हो गई है। आपने अपने पास से .था रोगों से इकट्ठा करके करीब साठ सत्तर हजार रुपया इसमें लगाया। सार्वजनिक तथा धार्मिक कामों में आप बहुत दिलचस्पी से भाग लेते हैं। पंचायती तथा जैन भाइयों के झगड़ों को निपटाने में भाप अपने समय का बहुत सा भाग देते हैं। आपके हम समय नौ पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः दूंगरचंदजी
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स्व० सेठ गौड़ीदासजी कांसटिया, भोपाल.
सेठ सुखलालजी समदरिया, मदास.
सेठ बहादुरमलजी समदरिया, मदास.
श्री डूंगरलालजी समदरिया, मद्रास.
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सटिक
जीवनचन्दजी, मदनचन्दजी, केवलचन्दजी, सखरूपचन्दजी, लालचन्दजी, मोतीचन्दबी, पदमचन्दनी तथा प्रेमचन्दजी हैं।
श्रीयुत बहादुरमलजी का जन्म संवत् १९३४ में हुमा । भाप संवत् १९५१ में मनास बाये और अपने बड़े भाई सखलालजी के साथ २ व्यवसाय करने लगे भापक इस समय दोपत्र जिनके माम सागरमलजी तथा समरथमलजी हैं।
श्री कानमलजी का जन्म संवत् १९४१ में हुमा। भाप संवत् १९५५ में मद्रास भावे । आपके इस समय चार पुत्र हैं जिनके नाम सरदारमलजी, लक्ष्मीमलजी, कृपाचन्दजी और प्रकाशामजी हैं।
इस समय आप तीनों भाइयों की स्वतंत्र तीन दुकाने मद्रास में हैं। आप तीनों भाइयों की तरफ से नागौर स्टेशन पर एक धर्मशाला बनी है। इसी के अन्दर एक मंदिर भी बनवाया गया है।
मुनीम भंवरलालजी समदरिका मेहता, उजैन इस परिवार के सज्जनों का मूल निवासस्थान मेड़ता (जोधपुर ) का था। वहीं से सेठ मेहकरन जी अपने पुत्र शिवकरनजी और पूसकरनजी के साथ उज्जैन आये । यहाँ आपने दस्तकारी का काम प्रारंभ किया। शिव करनजी के कोई संतान नहीं हुई। पुसकरनजी के कस्तूरचन्दजी और उनके सीतारामजी धूलचन्दजी घेवरमलजी और रतनलालजी नामक चार पुत्र हुए।
सीतारामजी बड़े समझदार वयोवृद्ध पुरुष हैं। भाजकल आप मत्रालाल भागीरथ की उज्जैन फर्म पर केशियर हैं शेष तीनों भाई इन्दौर ही में व्योपार करते हैं। सीतारामजी के पाँच पुत्र है जिनके नाम क्रमशः भंवरलालजी, पन्नालालजी, हीरालालजी, माणकलालजी और चांदमलजी हैं। भंवरलालजी, रा० ब० सेठ तिलोकचन्द कल्याणमल की उज्जैन वाली फर्म पर मुनीम है आपके नरेन्द्रकुमारसिंहजी नामक एक पुत्र हैं।
खांटेड श्री कनीरामजी खांटेड़ का परिवार बगड़ी
(सेठ सागरमल चुनीलाल ट्रिवल्लूर) इस परिवार के मालिकों का मूल निवासस्थान बगड़ी (मारवाद) का है। भाप श्वेताम्बर जैन समाज के मन्दिर आनाय को मानने वाले खांटेड गौत्रीय सज्जन है। इस परिवार में श्री कनीरामजी हुए जिनके दो पुत्र मगनीरामजी तथा माणिकचन्दजी हुए । सेठ मगनीरामजी के दो पुत्र हुए जिनके नाम श्रीयुत हंसराजजी और मुलतानमलजी था।
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सेठ हंसराजजी खांटेड़-आपका जन्म संवत् १९१० में हुआ । आप बड़े बुद्धिमान तथा न्यापार कुशल पुरुष थे। आप मारवाद से जालना (निजाम) गये । इस मुसाफिरी में आपको बगड़ी से अजमेर तक पैदल रास्ते से आना पड़ा था। थोड़े दिन जालने में रहकर आप मद्रास माये । और यहाँ आकर पल्ला• परम् में बैंकिंग की दुकान स्थापित की। तदनन्तर आपने पूनवल्ली में अपनी फर्म स्थापित की। संवत् १९४० में आपने अपने छोटे भ्राता मुल्तानमलजी को भी बुला लिया । आपकी बुद्धिमानी भौर दूरदर्शिता से आपकी फर्मों को बहुत शीघ्रता से तरकी मिलती गई। कुछ समय पश्चात् आप अपने भाई मुलतानमक जी और बड़े पुत्र सागरमलजी के जिम्मे व्यापार का काम छोड़कर देश चले गये और धर्म ध्यान में अपना समय व्यतीत करते हुए आप संवत् १९६६ में स्वर्गवासी हुए। आपके छोटे भाई मुल्तानमलजी का स्वर्गवास संवत् १९६५ में हुआ। दोनों भाइयों की मृत्यु हो जाने पर आपकी फर्मे अलग २ हो गई। सेठ हंसराजजी के चार पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः सागरमलजी, गुलाबचन्दजी, गणेशमलजी तथा बुद्धीलालजी हैं।
सेठ सागरमलजी खांटेड़-आपका जन्म संवत् १९३२ में हुमा। आप बड़े योग्य, सजन, व्यापारकुशल तथा उदार पुरुष हैं । आपके हाथों से इस फर्म को बहुत तरक्की मिली संवत् १९५९ में आपने
और मुस्तानमलजी ने ट्विटर में अपनी फर्म का स्थापन किया। जिसमें आपको खूब सफलता मिली । श्री सागरमलजी का भी राज्य दरवार में बहुत अच्छा मान है। आप टूिवल्लूर कोकल बोर्ड के पांच सालों तक मेम्बर रहे। इसी प्रकार चिगनपेठ सेशनकोर्ट के आप जूरी भी रहे। संवत् १९६९ से संवत् १९८० तक आपके भाई मापसे अलग २ हुए। सेठ सागरमलजी के कोई सन्तान न होने से मापने अपने छोटे भाई चुनीलालजी को अपने नाम पर दत्तक ले लिया। श्री चुनीलालजी का जन्म संवत् १९११ की फाल्गुन शुक्ल तृतीया को हुभा । आप बड़े सजन, उदार, व्यापारकुशल तथा सुधरे हुए विचारों के सज्जन हैं । टूिवल्लूर की पडिलक और राजदरबार में आपको बहुत अच्छा सम्मान प्राप्त है। आप यहाँ पर ऑनरेरी मजिस्ट्रेट हैं और आपको फर्स्ट क्लास के अधिकार प्राप्त है। इसी प्रकार यहाँ के क्लबों, सभाओं और सोसायटियों में आप बड़ी दिलचस्पी से भाग लेते हैं। आपके एक पुत्र हैं जिनका नाम श्री नवरतनमलजी है।
इस परिवार की दान धर्म और सार्वजनिक कार्यों की ओर भी अच्छी रुचि रही है। सबसे प्रथम संवत् १९९१ में श्री हंसराजजी के हाथों से बगड़ी के मन्दिर की प्रतिष्ठा हुई और आपकी तरफ से उस पर ध्वजादण्ड चढ़ाया गया। संवत् १९६५ में सुप्रसिद्ध मुरडावा के प्राचीन मन्दिर के जीर्णोद्धार करवा ने में भी बहुत सहायता दी, और उस पर ध्वजादण्ड चढ़ाया गया। इसी प्रकार करमावस और वारणा के मन्दिरों की प्रतिष्ठा भी आपके द्वारा हुई। इसी खानदान की तरफ से चण्डावल स्टेशन पर एक धर्मशाला भी बनाई गई है। श्री सागरमलजी अपने पिता की तरह ही दानशूर और उदार व्यक्ति हैं। मद्रास श्वेताम्बर जैन मंदिर की प्रतिष्ठा में आपने बहुत बड़ी रकम दान दी और उसपर ध्वजादण्ड भी आप ही की तरफ से चढ़ाया गया। इसी प्रकार विकावस (मारवाड़) के मन्दिर की प्रतिष्ठा में भी आपने बहुत बड़ी सहायता दी ओर ध्वजा दण्ड चढ़ाया। बगड़ी के जैन मन्दिरों के जीणोद्धार में भी आपने दस हजार रुपये प्रदान किये और भापने करीब तीन वर्षों तक परिश्रम करके इस काम को पूरा किया। संवत् १९८४
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सेठ सागरमलजी खांटेड़ ( हंसराज सागरमल) ट्रिवल्लूर, सेठ चुन्नीलालजी खांटेड़ ( हंसराज सागरमल ) ट्रिवल्लूर.
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सेठ गुलाबचन्दजी खांटेड़, कांजीवरम् (मद्रास)
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खांटेड बैशाख सुदी ५को इस मन्दिर की प्रतिष्ठा हुई जिसमें ध्वजादण्ड और कलश चढ़ाने में आपके पैंतीस हजार रुपये खर्च हुए। धर्म प्रेम ही की तरह भापका विद्याप्रेम भी सराहनीय है। शिवपुरी बोर्डिङ्ग, जोधपुर सरदार स्कूल, ओशियां बोडिंग हाउस, न्यावर जैन गुरुकुल इत्यादि संस्थाओं में आपने हजारो रुपयों की मदद पहुंचाई। आपने ओशियां गुरुकुल के १३५ छात्रों तथा उनके अध्यापकों को ५ हजार रुपये व्यय करके श्री शत्रुजयजी तथा आबूजी की यात्रा कराई और स्वयं आप साथ गये। अपने जीवन में मापने अभी तक करीब डेढ़ लाख रुपया दान धर्म में खर्च किया । बगदी के जैन समाज में यह खानदान बहुत ही मनमण्य और दानवीर है।
सेठ गुलाबचन्दजी खांटेड़-आपका जन्म संवत् १९५१ में हुभा। आप भी बड़े सजन उदार तथा नवीन विचारों के सज्जन हैं। आपके हृदय में देश-प्रेम बहुत हैं। आप शुद्ध खादी के वस्त्र धारण करते हैं। आपकी दुकान कंजीवरम् (मद्रास) में हंसराज गुलाबचंद खांटेड के नाम से बैकिंग का व्यापार करती है तथा अच्छी प्रतिष्ठित मानी जाती है। आपके सात पुत्र हैं जिनके नाम अभैराजजी, सम्पतराजजी अमृतराजजी, सोहनराजजी, सुदर्शनमलजी, रणजीतमलजी, तथा पृथ्वीरानजी हैं।
श्रीयुत गणेशमलजी का जन्म संवत् १९५९ का है। आप भी बड़े योग्य धर्मप्रेमी तथा अपडेट विचारों के सज्जन हैं। आपके सामाजिक विचार बहुत सुधरे हुए हैं। आपके दो पुत्र हैं जिनके नाम श्री मिह लालजी तथा जवाहिरलालजी हैं। सेठ मुलतानमलजी के जसवंतराजजी तथा मानमलजी नामक दो पुत्र हुए आपका जन्म संवत् १९४५ में तथा संवत् १९५१ में हुआ। आप दोनों भ्राताओं का कारवार अलग २ होता है। सेठ जसवन्तराजजी पुनमलि (मद्रास) में मुलतानमल जावंतराज के नाम से वैकिंग व्यापार करते हैं। आपके मांगीलालजी, विजयराजजी तथा मदनलालजी नामक तीन पुत्र हैं। इसी प्रकार सेठ मानमलजी खांटेड़ का पुनमलि में मुलतानमल मानमल के नाम से कारबार होता है आपके पारसमलजी, शांतिलालजी तथा नेमीचन्दजी मामक तीन पुत्र है। यह कुटम्ब भी पुनमलि में अच्छा प्रतिष्ठित माना जाता है।
सेठ लखमीचंद पूनमचंद खांटेड़, बाली (गोड़वाड़)
इस परिवार के पूर्वज खांगड़ी जागीरवार के कामदार थे, वहाँ के ठाकुर से अनबन हो जाने के कारण इन्होंने संवत् १९०५ के लगभग अपना निवास बाली में बनाया। यहां से सेठ मनरूपजी संवत् १९३० में पूना गये, तथा यहाँ सर्विस की। वहाँ से भाप मोरा बन्दर (बम्बई के पास) गये, तथा यहाँ दुकान की। जब बृटिश सरकार ने यहाँ आंगरे सरदार की मिस्कियत नीलाम की, उस समय मापने एक पारसी गृहस्थ की मदद से उसे खरीदा, इसमें आपको बहुत लाभ हुभा। भापके छोटे भाई रूपजी भी व्यापार में सहयोग देते थे । सेठ मनरूपजी के टेकचन्दजी तथा रूपजी के बुधमलजी नामक पुत्र हुए। सेठ टेकचन्दजी नामांकित व्यक्ति हुए। आपने बाली में कुआ तथा अवाला बनवाया। आपके पुत्र पूनमचन्दजी तथा बुधमलजी के पुत्र लक्ष्मीचन्दजी हुए। सेठ टेकचन्दजी संवत् १९१८ में स्वर्गवासी हुए।
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मोसवाल जाति का इतिहास
सेठ पूनमचन्दजी तथा लक्ष्मीचन्दजी - आपने संवत् १९५२ में केसरियाजी का एक बड़ा संघ निकाला, इसमें आपने ६० हजार रुपये व्यय किये । संवत् १९५४ में मारवाड़ में अनाज महंगा हुआ, तब इन भाइयों ने अनाज खरीद कर पौने मूल्य में गरीब जनता को बिक्री किया, इस सेवा के उपलक्ष्य में जोधपुर दरबार महाराजा सरदारसिंहजी ने सिगेपाव, कड़ा, दुशाला आदि इनायत किया । इन बम्धुओं
बहुत से कुए खुदवाये, आप बन्धु बाली के नामांकित व्यक्ति हुए। आपका खानदान यहाँ “सेठ” के नाम से पुकारा जाता है। आप दोनों बन्धु क्रमशः संवत् १९७३ तथा १९७६ में स्वर्गवासी हुए । सेठ पूनमचन्दजी के पुखराजजी, भागचन्दजी, रतनचन्दजी तथा सन्तोषचन्दजी नामक चार पुत्र हुए तथा सेठ लखमीचन्दजी के कपूरचन्दजी, केसरीचन्दजी तथा बख्तावरचन्दजी नामक तीन पुत्र हुए। इनमें केसरीचन्दजी तथा भागन्दचजी स्वर्गवासी हो गये हैं। शेष सब विद्यमान हैं । आप बन्धुओं का "लखमीचन्द पूनमचन्द" के नाम से मोरा बन्दर में जमीदारी तथा बैकिंग का कारबार होता है । पूखराजजी मोरा बन्दर की म्युनिसिपल कमेटी के मेम्बर हैं तथा सन्तोषचन्दजी ने गत वर्ष बी० एस० सी० का इम्तिहान दिया है। आप गोड़वाड़ के प्रथम बी० एस० सी० हैं । यह परिवार गोड़वाड़ के ओसवाल समाज में नामांकित माना जाता 1
मम्बइया मम्बइया परिवार, अजमेर
हालांकि मम्बइया परिवार का आज अजमेर शहर में कुछ भी कारबार नहीं है, लेकिन उनके द्वारा बनाइ हुई लाखों रुपयों की लागत की हवेलियां, नोहरे, हजारों रुपयों की बनी हुई दादाबाड़ी में छतरियां इनके गत गौरव का पता दे रही है। संवत् १९३९ में लगभग उनका काम कमजोर हुआ, उसके पूर्व १२०-१२५ वर्षों से वे अजमेर शहर के नामी गरामी करोड़पति श्रीमन्त माने जाते थे । उनका बैकिंग व्यवहार अजमेर में मूलचन्द धनरूपमल के नाम से और बाहर अनोपचन्द मूलचन्द के नाम से चलता था । अजमेर, रतलाम, बदनोर, उज्जैन, छघड़ा, बम्बई कलकत्ता, टोंक, झालरापाटन, जयपुर, कोटा वगैरह स्थानों में आपकी दुकानें थीं। इस परिवार के आगमन, व्यवसाय के आरम्भ, उन्नति व सार्वजनिक कामों का सिलसिलेवार कुछ भी वृत्त मालूम नही होता है। कहा जाता है कि संवत् १८६५ में इनका आगमन अजमेर हुआ और मरहठा सरदारों व फोजों के साथ सम्बन्ध रखने से इनका अभ्युदय हुआ। । मम्बइया अनोपचन्दजी के पुत्र मूलचन्दजी के समय में व्यवसाय का आरम्भ होना माना जाता है । मूलचन्दजी के पुत्र धनरूपमलजी के समय में इनके व्यापार और जाहोजलाली की बहुत उन्नति हुई । अजमेर में पूज्य दादा जिनदत्तसूरिजी की समाधि दादाबाड़ी में इस परिवार की छतरियाँ बनी हुई हैं। अजमेर की धर्म संस्थाओं के प्रबन्ध का भार भी आप ही के जिम्मे था ।
मम्बया धनरूपमलजी के पुत्र बाघमलजी हुए और बाघमलजी के नाम पर राजमलजी दत्तक आये । राजमलजी और उनके पुत्र हिम्मतमलजी के समय में इनका काम कमजोर हुआ। हिम्मतमलजी
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ओसवान जाति का इतिहास
बाबू गोविन्दचंदजी सुचिन्ती, बिहारशरीफ़..
बाबू धन्नूलालजी सुचिन्ती, बिहारशरीफ़.
रायसाहब लक्ष्मीचंदजी सुचिन्ती, बिहारशरीफ़,
बाबू केशरीचंदजी सुचिन्ती, बिहारशरीफ़,
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सची सुि
पाटने में उनकी १५०० ) यहाँ से किशनगढ़ गये ।
का विवाह यहाँ के लोढ़ा परिवार में हुआ था। राजमलजी तक कोटा अथवा सालियाना की जागीर थी । मम्बइया राजमलजी संवत् १९६० तक अजमेर रहे राजमलजी का लगभग १० साल पूर्व शरीरावसान हुआ। हिम्मतमलजी के नाम पर प्रतापमलजी दत्तक आये । इस समय इस परिवार के कोई व्यक्ति छीपाबड़ौद में निवास करते हैं, इनका वहाँ जागीरी का एक गाँव भी था, वह राजमलजी तक रहा। जब उनकी हवेलियां बिकीं तब जबलपुर वालों ने व लोड़ों मे ली, आज भी भिन्न २ व्यक्तियों के सावे में उनकी इमारतें व नोहरे उनके नामकी याद दिला रही हैं।
सती, सुती
सुचिन्ती गौत्र की उत्पत्ति - कहते हैं कि देहली के सोनीगरा चौहान राजा के पुत्र बोहित्थ कुमार को सांप ने डस लिया, जिससे उनकी मृत्यु हो गई । जब उसके शव को दाह संस्कार के लिये ले गये, तो राह में जैनाचार्य श्री वर्द्धमान सूरिजी अपने पांचसौ शिष्यों के साथ तपस्या कर रहे थे। आचार्य मे राजा की प्रार्थना से उसके कुमार को सचेत किया, इससे राजा ने जैन धर्म स्वीकार किया। इनके पुत्र को संवत् १०२६ में जैनाचार्य ने सचेत किया, इसलिये आगे चलकर उनके वंशज वाले सचेती या सुचिंती नाम से विख्यात हुए ।
बिहार का सुचिन्ती परिवार
इस परिवार के लोगों का मूल निवासस्थान बीकानेर का है आप मन्दिर आम्नाय के उपासक हैं । इस परिवार में बाबू महताबचंदजी हुए, आपके कोई सन्तान न होने से आपके नाम पर मनेर निवासी मालकश गौत्रीय बाबू रतनचन्दजी को दत्तक लिया गया। बाबू रतनचंदजी के हीरानन्दजी और गोविन्दचन्दजी नामक दो पुत्र हुए। इनमें बाबू गोविन्दचन्दजी बड़े नामाङ्कित और प्रतापी व्यक्ति हुए । आपके हाथों में इस खानदान के व्यापार और जमीदारी की बहुत तरक्की हुई, आपका धर्म प्रेम भी बहुत बढ़ा चढ़ा था । संवत् १९६५ की अगहन सुदी १४ को अपने मकान पर राज गिरी के केस के सम्बन्ध में गवाह देते २ अचानक हार्टफेल से आपका देहान्त हो गया । आपके बाबू धन्नूलालजी, रा० सा० बाबू लक्ष्मीचंदजी और बाबू, केशरीचंदजी नामक तीन पुत्र हुए ।
बा० धन्नूलालजी - आपका जन्म संवत् १९४० में हुआ। आप श्री पांवापुरी, कुण्डलपुर, गुणाचा बिहार आदि स्थानों के वे० जैन मन्दिरों के मैनेजर हैं। पांवापुरी के जल मन्दिर का जीर्णोद्धार और वहाँ के तालाब का पकोद्धार भी आप ही के समय में हुआ। इसके सिवाय पांवापुरी के गाँव मन्दिर का विस्तार अनेकानेक धर्मशालाओं का निर्माण आप ही के समय में हुआ। आपके मैनेजर शिप में इस तीर्थ की रोनक में बड़ी वृद्धि हुई । आपके बाबू जवाहरलालजी और ज्ञानचन्दजी नामक दो पुत्र हैं। बाबू जवाहरकाजी के विमलचन्दजी और शान्तिचन्दजी नामक दो पुत्र हैं ।
रा० सा० बाबू लक्ष्मीचन्दनी- आपका जन्म संवत् १९४४ में हुआ। आप बिहार के ऑनरेरी
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भोसवाल जाति का इतिहास
मजिस्ट्रेट, लोकलबोर्ड के चेअरमेंन और डिस्ट्रीक्टबोर्ड के मेम्बर हैं । गवर्नमेण्ट से १९३० मैं आपको राय साहब की उपाधि प्राप्त हुई। आपके इस समय छः पुत्र हैं। आपके प्रथम पुत्र बाबू इन्द्रचन्दजी बी० ए० बी० एल० हैं। आप यहां पर वकालात करते हैं । इनसे छोटे बाबू विजयचन्दजी, श्रीचन्दजी प्रेमचन्दजी और हरकचन्दजी है। बाबू इन्द्रचन्दजी के दो पुत्र हैं। जिनमें बड़े का नाम रिखवचन्दजी हैं।
बाबू केशरीचन्दजी-आपका जन्म संवत् १९४६ में हुआ। आपके इस समय दो पुत्र हैं जिनके माम क्रम से बाबू सौभागचन्दजी और कपूरचन्दजी हैं। बिहार शरीफ में यह परिवार बहुत प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित हैं। यहाँ पर भापकी बहुत बड़ी जमींदारी है।
सेठ गुलाबचन्द हीराचन्द सचेती, अजमेर इस परिवार का मूल निवास स्थान मेड़ता (जोधपुर स्टेट ) में है। इस परिवार के पूर्वज सेठ जयचंदजी तथा उनके पुत्र अभयराजजी और पौत्र लक्ष्मीचंदजी वही निवास करते रहे। सेठ लक्ष्मीचंद जी के रूपचंदजी तथा वृद्धिचन्दजी नामक २ पुत्र हुए। वहाँ से सेट रूपचन्दजी व्यापार के लिये अजमेर तथा वृद्धिचन्द गवालियर गये।
सेठ वृद्धिचन्दजी सचेती-आपकी योग्यता से प्रसन्न होकर गवालियर स्टेट ने आपको अपनी ट्रेलरी का खजांची बनाया। सन् १८५७ के गदर में आपने खजाने की ईमानदारी पूर्वक रक्षा की। संवत् १९९५ में आपने गवालियर से श्री सिद्धाचलजी का संघ निकाला । संवत् १९२४ में आपने खजांची के पद से इस्तीफा दिया। इस कार्य के साथ आप अपना साहुकारी व्यापार भी करते थे। आपकी राज दरवार तथा व्यापारिक वर्ग में अच्छी प्रतिष्ठा थी। आपने गवालियर मंदिर में संगमरमर के अष्ठापदजी व नंदेश्वरजी बनवाये, आपने फलोदी पार्श्वनाथ नामक प्रसिद्ध तीर्थ में मंदिर के चारों ओर विशाल परकोटा बनवाया। आपके नाम पर गुलाबचन्दजी सचेती उदयपुर से दत्तक लाये गये । - संठ गुलाबचन्दजी सचेतो-आप अपने पिताजी के साथ तमाम धार्मिक कामों में सहयोग देते रहे। संवत् १९४३ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके पुत्र सेठ हीराचन्दजी सचेती हुए।
सेठ हीराचन्दजी सचेती-आपके पिताजी ने संभवनाथजी व आदीश्वर के मंदिर का व दादावादी वगेरा का प्रबंध भार अपने ऊपर लिया। तब से आप लोग इन संस्थाओं के कार्य को भली प्रकार संचालित कर रहे हैं। आप इस समय ओसवाल हाई स्कूल के प्रेसिडेंट हैं। इसके स्थापन में आपका उत्तम सहयोग रहा है। स्थानीय ओसवाल औषधालय के भी आप प्रेसिडेंट हैं। इसके अलावा आप श्वे जै. कान्फ्रेस के अजमेर मेरवाड़ा प्रान्त के सेक्रेटरी तथा स्टैंडिंग कमेटी के मेम्बर हैं। संवत् १९६४ में आपने अजमेर स्टेशन के सम्मुख एक सराय बनवाई है, इस समय आपके ५ पुत्र हैं जिनके नाम बाबू रतनचन्दजी जतनचन्दजी, दौलतचन्दजी, कुशलचन्दजी, और इन्द्रचन्दजी हैं। आप सब बंधु सुशील, विनम्र तथा अपने पिता के पूर्ण आज्ञाधारक हैं। सचेती रतनचन्दजी का जन्म संवत १९६५ में हमा। आप फर्म के वेडिग व्यापार को समालते हैं। आपसे छोटे जतनचन्दजी का जन्म १९६९ में हुभा। आपने गत वर्ष भागरे से बीकॉम की परीक्षा पास की है। बाबू रतनचन्दजीके नजरचन्द्र तथा इन्द्रचन्द्र नामक २ पुत्र हैं।
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० सेठ बिरदीचन्दजी सचेती, अजमेर.
स्व० सेठ गुलाबचन्दजी सचेती, अजमेर.
सेठ हीराचंदजी सचेती, अजमेर.
सेठ केवलचंदजी सचेती, मोमासर,
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संचेती
. सेठ हणुतमल मोतीलाल संचेती, लोणार ..
यह परिवार बवायचा (किशनगद के समीप) का निवासी है। इस परिवार के पूर्वज सेठ खुनाशमलजी लगभग संवत् १९०५ में व्याणर के लिये लोनार भाये। भापके इणुतमलजी, हीरालालजी तथा चुनीलालजी नामक ३ पुत्र हुए । संवत् १९५३ के करीब इन तीनों भाइयों का व्यापार अलग अलग हुआ ।
सेठ हणुतमलजी का परिवार-आपका स्वर्गवास संवत् १९३० में होगया। आपके मोतीलाल जी तथा पूनमचन्दजी नामक दो पुत्र हुए, इनमें पुनमचन्दजी, होरालालजी के नाम पर दत्तक गये।
सेठ मोतीललाजी संचेती-आप इस परिवार में बहुत प्रतापी पुरुषहए। भापका जन्म. संवत् १९२० में हुभा । भाप मास पास की पंचायती में नामांकित पुरुष तथा लोनार की जनता के प्रिय व्यक्ति थे। संवत् १९४७ में बुलढाना रिस्ट्रिक्ट के कुलमी मुसलमान तथा मरहठा लोगों ने मिल कर मारवाड़ी जाति के विरुद्ध विद्रोह उठाया। तथा उन्होंने २० गांवों में मारवादियों के घर खरे, बहिये जला दी, तथा घरों में भाग लगा दी। इस प्रकार उनका दल उत्तरोतर बढ़ता गया। जब इस दल बढ़ते २ मारवादियों की सबसे बड़ी और धनिक बस्ती लोनार को लूटने का नोटिस निकाला । तब लोनार की मारवाड़ी जनता ने बुलढाना डिस्ट्रिक्ट के कमिश्नर व माफीसरों से अपने बचाव की प्रार्थना की। लेकिन उनकी ओर से जल्दी कोई उचित प्रबन्ध न होते देख खेठ मोतीलालजी संचेती ने सब लोगों को अपनी रक्षा स्वयं करने के लिये उत्साहित किया, मापने ३०० सशस्त व्यक्ति अपने मोहल्लों की रक्षार्थ तयार किये, तथा तमाम पुरुष एवं स्त्रियों को हिम्मत पूर्वक हमले का मुस्तेदी से सामना करने के लिये हाडस बंधाया। जब ता० २३ । १२ । ३० को लटने वाली जनता का दल लोनार के समीप पहुंचा, तो उन्हें पता लगा कि इन लोगों ने पक्का जामा कर रक्खा है, जिससे वे लोग वापस होगये, पीछे से सरकार की भी मदद पहुंच गई जिससे यह बढ़ती हुई अग्नि, जो सारे बरार में फैलने वाली थी, यहीं शांत होगई।
लोनार के "धारा" नामक अविराम जलाप्रपात पर हिन्दू सियों तथा पुरुषों के स्नानादि धार्मिक कृत्यों में जब मुस्लिम जमता अनुचित हस्तक्षेप करने लगी, उस समय आपने ३ वर्षों तक अपने व्यय से धारा नामक स्थान पर बोग्य अधिकार पाने के लिए लड़ाई दी। इसी बीच बाजे का मामला बड़ा हुभा। इन तमाम बातों से चन्द मुसलमानों ने भाप पर हमला किया, जिससे भापके सिरमें २१ घाव लगे। उस समय हजारों भादमी आपके प्रति हमदर्दी तथा प्रेम प्रदर्शित करने के लिये अस्पताल में एकत्रित होगये, तथा उन्होंने दंगा करने की ठानकी। लेकिन मापने उन्हें सांत्वना देकर रोका। इस प्रकार जब हिन्दू मुसलमानों की यह आपसी रंजिश बहुत बढ़ गई, तब सरकार ने बीच में पड़कर 'धारा' तथा बाजे के प्रश्न को सुलझाया। दंगे के बाद सवा साल तक सेठ मोतीलालजी बीमार रहे। और मिती अपाद बदी संवत् १९४९ को इस मरवीर का स्वर्गवास हुना। भापके सम्मान स्वरूप लोनार का बाजार बन्द रक्खा गया था। महाराष्ट्र, प्रजापत्र व केशरी नामक पत्रों ने भापके स्वर्गवास के समा. चार लम्बे कालमों में प्रकाशित किये थे। सेठ मोतीलालजी लोनार के तमाम सार्वजनिक कामों में उदा. रता पूर्वक भाग लेते थे। आपने 'धार' के समीप एक धर्मशाला बनवाई। स्थानीय अठवाडे पाजार में
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पोसवाल जाति का इतिहास
दो तीन हजार रुपये खर्च कर पानी के पम्प लगाये, राममन्दिर तथा धारातीर्थ में बहुतसी सहायताएं दी। आप शिवपुर जैनतीर्थ की व्यवस्थापक कमेटी के मेम्बर थे। इसी तरह के प्रतिष्ठापूर्ण कार्य आजीवन करते रहे। आपने ही लोनार में सर्व प्रथम जिनिंग फेक्टरी खोली आपके अखेचन्दजी, उत्तमचन्दजी, लखमीचन्दजी, तथा गेंदचन्दजी नामक ४ पुत्र विद्यमान हैं। इस समय आप चारों ही भाई फर्म के व्यापार का उत्तमता से संचालन कर रहे हैं। आपका परिवार लोनार तथा आस पास के ओसवाल समाज में नामांकित माना जाता है।
सेठ अखेचंदजी- आपका जन्म संवत् १९५० में हुआ। आपके यहाँ “हणुतमल मोतीलाल के नाम से बैटिग, सराफी, कपड़ा का व्यापार तथा जिनिंग फेक्टरी का कार्य होता है। लोनार में भापकी दुकान मातवर है। सेठ उत्तमचन्दजी का जन्म संवत् १९६१ में लखमीचन्दजी का जन्म संवत् १९६५ में तथा गेंदचन्दजी का जन्म संवत् १९६८ में हुआ। गेदचन्दजी ने एफ. ए. तक शिक्षा पाई। आपने हनुमान व्यायाम शाला का स्थापन किया। आप उत्साही युवक हैं। सेट अखेचन्दजी के पुत्र नथमल जी तथा रतनचन्दजी पढ़ते हैं। और उत्तमचन्दजी के पुत्र मदनचन्दजी बालक हैं।
सेठ पूनमचन्दजी संचेती का स्वर्गवास अपने बड़े भ्राता मोतीलालजी के ८ मास बाद हुआ आपके पुत्र माणकचन्दजी का जन्म संवत १९५६ में हआ। आप "हीरालाल पूनमचन्द" के नाम से व्यापार करते हैं। आपके कपूरचन्दजी, तेजमल तथा पारसमल नामक पुत्र हैं। सेठ चुनीलालजी के पुत्र त्रिवकलालजी विद्यमान हैं। भापके पुत्र खुशालचन्दजी ने दंगे के समय दंगाइयों को पकड़वाने में पुलिस को बहुत इमदाद दी थी। आपके छोटे भाई गणेशलालजी, मिश्रीलाल जी तथा चम्पालालजी हैं।
सेठ थानमल चंदनमल संचेती, चिगंनपेठ ( मद्रास)
इस परिवार के मालिकों का मूल निवास स्थान हूंडला (मारवाद) का है। आप श्वेताम्बर जैन समाज के बाइस सम्प्रदाय को मानने वाले सज्जन हैं। सबसे पहिले इस परिवार के सेठ शेषमलजी "मेसर्स पूनमचन्द श्रीचन्द" के साझे में पूना में व्यापार करते थे। आप संवत् १९७६ की जेठ बुदी
को स्वर्गवासी हुए। आपके चार भाई और थे जिनके नाम भीकमचन्दजी, प्रतापमलजी, थानमलजी तथा जेवंतराजजी थे। सेठ शेषमलजी के स्वर्गवास होजाने के बाद संवत १९६० में थानमलजी ने चिंगनपेठ में "शेषमल थानमल" के नाम से दुकान स्थापित की। श्री शेषमलजी के पनालालजी, घेवरचन्दजी तथा मिश्रीमलजी नामक तीन पुत्र हुए जिममें से मिश्रीमलजी. भीकमचन्दजी के यहाँ दत्तक रख दिये गये। प्रतापमलजी के हीराचन्दजी तथा हस्तीमलजी नामक दो पुत्र हुए । हीराचन्दजी के भंवरीलालजी तथा रिखबचन्द्रजी नामक दो पुत्र हुए। संवत १९६८ में शेषमलजी तथा थानमलजी दोनों भाई अलग २हो गये। शेषमलजी के पुत्र पचालालजी “मेसर्स शेषमल पनालाल" के नाम से अलग स्वतंत्र दुकान कांजीवरम् में करते हैं।
सेठ थानमलजी की फर्म इस समय चिंगनपेठ में है। आप बड़े सजन है। तथा अपने जाति भाइयों का अच्छा सत्कार करते रहते हैं। भापकी यहां की पंच पंचापतियों की अच्छी प्रतिष्ठा है।
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ओसवाल जाति का इतिहास
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स्व० सेठ मोतीलालजी संचेती, लोणार ( बरार )
मेहता विजयसिंहजी खजांची, अमीन भानपुरा (पेज नं०५६६)
सेठ हेमराजजी संचेती, लोणार ( बरार )
लाला रतनचंदजी जैन, अम्बाला सिटी.
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ओसवाल जाति का इतिहास
चाबू जवाहरलालजी सचेती, बिहारशरीफ़.
बाबू इन्द्रचन्दजी संचेती, B.A.B.L., पटना.
RS
सेठ इन्द्रचन्दजी सचेती, मोमासर.
सेठ गोविन्दरामजी सचेती (सुगनमल गोविंदराम ) मोमासर.
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संचेती
पह फर्म चिगनपेठ में मातबर और प्रतिष्ठित मानी जाती है। आपके पुत्र चन्दनमलजी बाल्यका में ही स्वर्गवासी होगये। इस फर्म की ओर से दान धर्म और सार्वजनिक कामों में सहायताएँ दी जाती है।
सेठ बालचन्दजी संचेती का परिवार, मोमासर करीब २५० वर्ष पूर्व इस परिवार के पूर्व पुरुष डिगरस नामक स्थान से चलकर मोमासर नामक स्थान पर आये। आगे चलकर इनके वंश में कुंभराजजी हुए। कुंभराजजी के रधुनाथजी, ताजसिंहजी, शेरसिंहजी, नथमलजी और सतीदासजी नामक पाँच पुत्र हुए। भाप भाइयों ने सम्वत् १९०४ में मेसर्स सतीदास उम्मेदम के नाम से कलकत्ते में फर्म स्थापित किया। भाप लोगों की व्यापार कुशलता से फर्म चल निकली और पूर्णिया, इस्लामपुर, पटनागोला आदि स्थानों पर भापकी शाखाएँ कायम हो गई। संवत् १९५१ में आप सब भाई अलग २ हो गये।
. सेठ नथमलजी के पुत्र बालचन्दजी ने अलग होते ही बालचन्द्र इन्द्रचन्द्र के नाम से व्यापार करना प्रारम्भ किया। इसमें भापको बहुत सफलता हुई। आपका मोमासर की पंच पंचायती में अच्छा सम्मान था। आपके इन्द्रचन्दजी, डायमरूजी, सुगनमलजी और हीरालालजी नामक चार पुत्र हैं। भाजकल आप चारों भाई अलग २ हो गये हैं।
सेठ इन्द्रचन्द्रजी "बालचन्द इन्द्रचन्द" के नाम से व्यापार करते हैं। भाप पुद्धिमान् एवम् समझदार सजन है। आपके हाथों से इस फर्म की और भी तरकी हुई है। भाप धर्म में बड़े पक्के हैं। भापके इस समय डालचन्दजी और पुनमचन्दजी नामक दो पुत्र हैं। सेठ डायमलजी और सुगनमलजी दोनों भाई भी बड़े योग्य थे मगर आपका थोड़ी ही उम्र में स्वर्गवास हो गया। डायमलजी के कोई पुत्र न था और सुगनमलजी के गोविन्दरामजी एवं केवलचन्दजी नामक दो पुत्र हैं। गोविन्दरामजी सेठ डायमलजी के यहाँ दत्तक गये हैं। वर्तमान में आप दोनों ही भाई सुगनमल गोविन्दराम के नाम से चलानी, जूट और जमीदारी का काम करते हैं। आपकी दुकान का पता ४२ आर्मीनियन स्ट्रीट है। भाप लोगों ने मोमासर में अंग्रेजी स्कूल के लिये मकान बनवाकर सरकार को दिया है। यह परिवार जैन तेरापंथी सम्प्रदाय का अनुयायी है।
सेठ रूपचन्द छगनीराम संचेती, बैजापुर (निजाम) इस परिवार का मूल निवास डाबरा (जोधपुर स्टेट) है। आप स्थानकवासी आम्नाय के सज्जन हैं । देश से लगभग १७५ वर्ष पूर्व इस परिवार के पूर्वज व्यापार के लिये निजाम स्टेट के बैजापुर नामक स्थान में आये । यहाँ माने के बाद तीसरी पीढ़ी में सेठ जयरामजी संचेती हुए। भापके हाथों से इस परिवार के व्यापार तथा सम्मान को बहत तरक्की मिली। आपने भासपास के भोसवाल समान में भच्छा नाम पाया।
सेठ जयरामदासजी के धनीरामजी, बच्छराजजी तथा किशनदासजी मामक पुत्र हुए। इन तीनों भाइयों का व्यापार शके १७९९ में अलग हुआ। सेठ छगनीरामजी ने अपने पिताजी के बाद
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्वर्गवास हुआ । बागायत के कार्य
व्यापार को जादा बढ़ाया । आपका शके १८१७ में ७२ साल की आयु में आपके पुत्र रूपचन्दजी संचेती का जन्म शके १८१२ में हुआ । आपने अपनी फर्म पर को बहुत बढ़ाया है । इस समय आपके बगीचे में २ हजार झाड़ मोसुमी के और २ हजार झाड़ संतरे के हैं । इसके अलावा १ हजार झाड़ नीबू, अंजीर और अनार के हैं। इस प्रकार आपने नवीन कार्य का साहसपूर्वक स्थापन कर अपने समाज के सम्मुख नूतन आदर्श रच्खा है । आपके बगीचे के फल हैदराबाद तथा बम्बई भेजे जाते हैं। आपके यहाँ ३ हजार एकड़ भूमि में कृषि होती है । आप बड़े मिलनसार तथा सरल स्वभाव के व्यक्ति हैं । औरंगाबाद जिले में आप सबसे बड़े कृषि तथा बागायात का काम करने वाले सज्जन हैं । सेठ बच्छराजजी का स्वर्गवास शके १८१० में हुआ। आपके भोकचन्दजी तथा जेठमलजी नामक पुत्र हुए। आप दोनों बन्धुओं के क्रमशः फकीरचन्दजी तथा माणकचन्दजी नामक पुत्र हैं। इनके यहाँ कृषि तथा बागायात का व्यापार होता है। इसी प्रकार सेठ किशनदासजी शके १८२९ में स्वर्गवासी हुए । आपके पुत्र पूनमचन्दजी तथा दलीपचन्दजी हुए । इनके यहाँ कृषि का कार्य होता है। सेठ पूनमचन्दजी के पुत्र उत्तमचन्दजी, लक्खीचन्दजी तथा पेमराजजी हैं ।
सेठ भागचन्द जोगजी संचेती, लोनार
यह परिवार बवायचा ( मारवाड़) का निवासी है। वहाँ से इस परिवार के पूर्वज सेठ जोगजी ८०/९० साल पूर्व लोनार आये । आप श्वेताम्बर जैन स्थानकवासी आम्नाय के मानने वाले सज्जन थे । आपका संवत् १९४८ में स्वर्गवास हुआ । आपके भागचन्दजी, रतनचन्दजी तथा खुशालचन्दजी नामक ३ पुत्र हुए। इनमें सेठ भागचन्दजी विद्यमान हैं ।
सेठ भागचन्दजी संचेती का जन्म संवत् १९३४ में हुआ। आप लोनार के ओसवाल समाज में प्रतिष्ठित व हिम्मत बहादुर सज्जन हैं । आपने रुई के व्यापार में बहुत सम्पत्ति कमाई तथा व्यय की । आपके पुत्र पुखराजजी तथा भीकमचन्दजी हैं। पुखराजजी की वय १९ साल की है। आपके यहाँ " भाग - चन्द रतनचन्द" के नाम से साहुकारी, रुई तथा कृषि का काम होता है। सेठ रतनचन्दजी के पुत्र नथमल जी १२ साल के हैं । यह परिवार कोनार तथा आसपास के ओसवाल समाज में प्रतिष्ठित समझा जाता है।
भंसाली
मंसाली गौत्र की उत्पत्ति - संवत् ११९६ में लोद्रपुर पट्टन में यादव कुल भाटी सगर नामक राजा राज करते थे । उनके कुलधर, श्रीधर तथा राजधर नामक ३ पुत्र थे । राजा सगर ने जैनाचाय्यं जिनदत्तसूरिजी के उपदेश से अपने बड़े पुत्र कुलधर को तो राज्य का स्वामी बनाया, तथा शेष २ को जैन धर्म अंगीकार कराया । इन बंधुओं ने चिंतामणि पार्श्वनाथजी का एक मंदिर बनवा कर जैना चार्य्यं से उसकी प्रतिष्ठा करवाई' भंडार की साल में रहने के कारण इनकी गौत्र "भंडसाली" हुई। आगे चलकर इन्हीं श्रीधरजी की अठारवीं पीढ़ी में भंसाली थाहरूशाह नामक एक बहुत प्रतापी पुरुष हुए।
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भंसाली
मंसाली थाहरूशाह-लोद्रवा मंदिर के "शतदल पनयंत्र" नामक शिला लेख से, तथा भारत सरकार द्वारा प्रकाशित एपी ग्राफिया इण्डिका नामक ग्रंथ से थाहरूशाह के सम्बन्ध का निम्न वृत्त ज्ञात होता है कि
___ "प्राचीन काल में राजा सगर के पुत्र श्रीधर तथा राजधर ने जैन धर्म से दीक्षित होकर लोद्रपुर पट्टन में श्री चिंतामणि पार्श्वनाथजी का मंदिर बनवाया । राजा श्रीधर ने जो जैन मंदिर बनवाया था, वह प्राचीन मंदिर महम्मदगोरी के हमले के कारण लोदवा के साथ नष्ट हो गया । अतः संवत् १६७५ में जेसलमेर निवासी भणसाली गौत्रीय सेठ थाहरूशाह ने उसका जीर्णोद्धार कराया और अपने वास स्थान में भी देरासर बनवाकर शास्त्र भंडार संग्रह किया। सेठ थाहरूशाह ने लोद्रवे के मंदिर की प्रतिष्ठा के थोड़े समय बाद एक संघ निकाला, और शत्रुजय तीर्थ की यात्रा करके सिद्धाचलजी में खरतराचार्य श्री जिनराज सूरिजी से संवत् १६८१ में २४ तीर्थंकरों के १४५२ गणधरों की पादुका वहाँ की खरतर वशी में प्रतिष्ठित कराई थी।"
थाहरूशाह के सम्पत्ति शाली होने के सम्बन्ध में निम्न लोकोक्ति मशहूर है कि थाहरूशाह लोद्वे में घी का व्यापार करते थे। एक दिन रूपासिया ग्राम की रहने वाली एक स्त्री चित्रावेल की एंडुर पर रखकर लोदवा में घी बेंचने आई। थाहरूशाह ने उसका घी खरीदा और तोलने के लिये उसकी मटकी से धी निकालने लगे, जब घी निकालते २ उन्हें देर हो गई और मटकी खाली नहीं हुई तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने यह सब करामात एडंरी की समझ इसे ले लिया। उस एंडुरी के प्रभाव से थाहरूसाह के पास असंख्यात द्रव्य हो गया। जिससे उन्होंने अनेकों धार्मिक काम किये। इस समय इनके परिवार में कोई विद्यमान नहीं हैं। भंसाली मेहता किशनराजजी (उर्फ मिनखराजजी) का खानदान, जोधपुर
इस खानदान के पूर्वज भंसाली बीसाजी जेसलमेर के दीवान थे। ये राव चूंडाजी के समय में जेसलमेर से जोधपुर आये इन्होंने बीसेलाव तालाब बनवाया। इसके बाद नाडोजी, अखेमलजी तथा वेरीसालजी हुए। वेरीसालजी बालसमंद पर युद्ध करते हुए मारे गये। इनकी धर्मपत्नी इनके साथ सती हुई। तबसे जोधपुर के भंसाली अपने बच्चों का वहाँ मुंडन कराते हैं। इन बेरीसालजी की चौथी पीढ़ी में जगनाथजी हुए। इनके ३ पुत्र हुए जिनके नाम भंसाली मेहता तेजसी, रायसी, तथा श्रीचंदजी थे। इनमें भंसाली रायसी के पांचवो पीढ़ी में बोहरीदासजी हुए। इनके सादूलमलजी, मुलताममलजी तथा सुलतानमलजी नामक ३ पुत्र हुए।
. भंसाली सुलतानमलजी लेनदेन का काम करते थे। इनके सावंतमलजी, सुखराजजी, कुशलराज जी तथा जुगराजजी नामक ४ पुत्र हुए। भंसाली कुशलराजजी संवत् १९६६ में स्वर्गवासी हुए। आपके छानराजजी, माणकराजजी, कपूरराजजी, सम्पतराजजी, सुकनराजजी, विशनराजजी तथा किशनराजजी (उर्फ मिनखराजजी ) नामक छ पुत्र हुए। इनमें से भंसाली छगनमलजी सावंतमलजी के नाम पर दत्तक गये। इनके पुत्र उम्मेदराजजी तथा पौत्र मगराजजी भंसाली हैं। भंसाली कपूरराजजी कलकत्ते में दलाली करते थे। आप इनके पुत्र सबलराजजी आवकारी विभाग में हैं। सम्पतराजजी के पुत्र कनकराजजी कलकत्ते
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ओसवाल जाति का इतिहास
में सर्विस करते हैं। भंसाली सुकनराजजी सबइन्स्पेक्टर पोलिस थे, इनका स्वर्गवास हो गया है । भंसाली विशनदासजी पोलीस विभाग में थे। अभी आप रिटायर हैं ।
भंसाली किशनराजजी ( उर्फ मिनखराजजी ) - आपका जन्म संवत् १९३६ में हुआ । आप सन् १८९७ से मारवाड़ राज की सर्विस में प्रविष्ट हुए। तथा महाराजा सरदारसिंहजी के समय प्राइवेट सेक्रेटरी आफिस में क्लार्क हुए | पश्चात् आप संवत् १९६२ में पोलिस कॉन्स्टेबल हुए, एवं इस विभाग में अपनी होशियारी से बराबर तरक्की परते गये सन् १९१२ से १४ सालों तक आप पब्लिक प्रासी क्यूटर रहे । तथा सन् १९२६ से आप सुपरिन्टेन्डेन्ट पोलीस के पद पर कार्य्यं करते हैं। आपके होशियारी पूर्ण कामों की एवज में जोधपुर दरबार तथा कई उच्च पदाधिकारियों ने आपको सर्टिफिकेट दिये हैं। आपके ४ पुत्र हैं जिनमें बड़े जवरराजजी बी० ए० एल० एल० बी जोधपुर में वकालात करते हैं, कुंदनराजजी ने बी० ए० तक शिक्षा पाई है। इनसे छोटे रतनराजजी व चंदनराजजी हैं ।
भंसाली रतनराजजी कुशल राजजी का खानदान, जोधपुर
ऊपर लिख आये हैं कि इस परिवार के पूर्वज भंसाली जगन्नाथजी के तीसरे पुत्र श्रीचंदजी थे । इनके ५ पाँच पुत्र हुए, जिनमें मंझले पुत्र माणकचंदजी थे। इनके नाम पर मूलचन्दजी तथा उनके नाम पर बच्छराजजी दत्तक आये । इनका स्वर्गवास संवत् १९०५ में हुआ । वच्छराजजी के पुत्र फतहराजजी तक इस परिवार के पास सोजत परगने का खांभल गांव पट्टे था। फतहराजजी ने अपने पूर्वजों की एकत्रित की हुई सम्पति को खूब खर्च किया । संवत् १९५२ में इनका स्वर्गवास हुआ । इनके उदयराजी उम्मेदराजजी तथा पेमराजजी नामक ३ पुत्र हुए।
भंसाली उदयराजजी नागोर के मुसरफ तथा महाराणीजी ( चव्हाणजी) जोधपुर के कामदार थे । संवत् १९६४ में इनका स्वर्गवास हुआ । इनके पुत्र फौजराजजी के पुत्र किशनराजजी, मोहनराजजी सोहनराजजी तथा उगमराजजी हैं।
भंसाली उम्मेदराजजी भी राज्य की नौकरी करते रहे, इनका स्वर्गवास संवत् १९६९ में हो गया। इनके जोधराजजी, रतनराजजी, देवराजजी, रूपराजजी तथा करणराजजी नामक पाँच पुत्र हुए। इनमें रूपराजजी के पुत्र कुशलराजजी, रतनराजजी के नाम पर दत्तक आये हैं। भंसाली रतनराजजी का जन्म संवत् १९२० हुआ था । आप लगभग १२ साल तक खजाने के नायब दरोगा, बारह साल तक सब इन्स्पेक्टर पोलिस तथा दस साल तक कोर्ट आफ वार्डस् के अकाउण्टेण्ट रहे । सन् १९२७ में रिटायर्ड हुए तथा फिर बिलाड़ा तथा भँवराणी ठिकाने में २ साल तक मैनेजर रहे। इधर कुछ मास पूर्व आपका स्वर्गवास हो गया है। आपके पुत्र कुशलराजजी आडिट आफिस जोधपुर में सर्विस हैं। इसी तरह करणराजजी के पुत्र मुकुन्दराजजी भी आडिट आफिस में सर्विस करते हैं ।
भंसाली पेमराजजी का स्वर्गवास संवत् १९५७ में हुआ । आपके पौत्र भेरूराजजी डाक्टर हैं तथा सुकनराजजी ट्रिब्यूट इन्स्पेक्टर हैं।
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सेठ प्रतापमलजी भनसाली, डूंगरगढ़.
ॐ० हीरालाल जी भन्साली, डूंगरगढ़.
सेठ गोविन्दरामजी भनसाली, बीकानेर.
कुँ मिलनवन्दी भनसाली,
बीकानेर.
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भंसाली
भंसाली मेहता अर्जुनराजजी का खानदान, जोधपुर
इस परिवार के पूर्वज भंसाली बोहरीदासजी, जोधपुर में लेन देन का व्यापार करते थे। आपके सादूलमलजी, मुलतानमलजी तथा सुलतानमलजी नामक तीन पुत्र हुए, भंसाली मेहता मुलतानमलजी सम्पत्तिशाली साहुकार थे, तथा महाराजा मानसिंहजी के समय में सायरात के इजोर का काम करते थे। स्टेट को भी आपके द्वारा रकमें उधार दी जाया करती थी। सेठ मुलतानमलजी के गजराजजी, नगराजजी और बुधराजजी नामक तीन पुत्र हुए। नगराजजी भी सायरातों के इजारे का काम करते रहे । संवत् १९४१ में आपका स्वर्गवास हुआ। गजराजजी के पुत्र दौलसराजजी तथा सजनराजजी ज्युडिशियल विभाग में सर्विस करते रहे। इस समय इनके पुत्र कानराजजी व मानराजजी हैं।
मेहता नगराजजी के पुत्र खींवराजजी तथा भीवराजजी हुए। खींवराजजी २८ साल से ज्युडि. शियल कुर्क हैं। भीवराजजी हैदराबाद में व्यापार करते थे। आप संवत् १९६० में स्वर्गवासी हुए। सेठ खींवराजजी के पुत्र अर्जुनराजजी व किशोरमलजी हैं। मेहता अर्जुनराजजी का जन्म संवत् १९६१ में हुआ। आपने सन् १९२५ में बी०ए० पास किया। सन् १९२६ से आप रेलवे आडिट आफिस में सर्विस करते हैं, तथा इस समय इन्स्पेक्टर आप अकाउण्टेण्ट है। भंसाली किशोरमलजी की वय २५ साल की है, आपने सन् १९३० में बी० एस० सी० एल० एल० बी० की परीक्षा पास की है। सन् १९३१ से आप "मेहता एण्ड कम्पनी" के नाम से जोधपुर में इंजनियरिंग तथा कंट्राक्टिग का काम करते हैं।
सेठ प्रतापमल गोविन्दराम भंसाली, कलकत्ता इस परिवार वाले सजन मारवाड़ से बीकानेर राज्य के रायसर नामक स्थान पर आये। यहाँ कुछ समय तक निवास कर यहाँ से रानीसर नामक स्थान में जाकर रहने लगे। इस परिवार में सेठ तेजमलजी हुए। आपके दो पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः सेठ रतनचन्दजी एवम् सेठ पूर्णचन्दजी था।
सेठ रतनचन्दजी के तीन पुत्र हुए। जिनके नाम क्रमशः सेठ पदमचन्दजी, सेठ देवचंदजी एवम् सेठ कस्तूरचन्दजी था। सेठ पूरणचन्दजी के प्रतापमलजी एवम् मूलचन्दजी नामक दो पुत्र हुए। सेठ पदमचन्दजी का बाल्यकाल ही में स्वर्गवास हो गया।
सेठ देवचन्दजी-प्रारम्भ में आप देश से सिराजगंज के पास 'एलंगी' नामक स्थान पर गये । वहाँ जाकर आपने कपड़े का व्यवसाय शुरू किया। इस फर्म में आपने अपनी होशियारी एवम् बुद्धिमानी. से अच्छी सफलता प्राप्त की। मगर दैव दुर्योग से इस फर्म में आग लग गई और भापकी की हुई सारी
इनत पर पानी फिर गया। इसके पश्चात् भाप अपने सारे जीवन मर नौकरी ही करते रहे। आपका स्वर्गवास संवत् १९६५ में हो गया। आपके गोविन्दरामजी नामक एक पुत्र हुए।
सेठ गोविन्दरामजी-आपका जन्म संवत् १९३५ में हुआ। आजकल आपका परिवार बीकानेर का निवासी है । भाप बाईस संप्रदाय के अनुयायी हैं। प्रारम्भ में आपने सर्विस की। आप बड़े व्यापार चतुर पुरुष हैं। नौकरी से आपकी तबियत उकता गई एवम् आपके दिल में स्वतन्त्र व्यवसाय करने की इच्छा हुई। अतएव आपने संवत् १९५६ में यह सर्विस छोड़ दी तथा हनुमतराम तुलसीराम के साझे में
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फर्म स्थापित की। यह साझा संवत् १९६३ तक चलता रहा। इसके बाद इसी साल आपने अपनी निज की फर्म मेसर्स प्रतापमल गोविन्दराम के नाम से की। तब से आप इसी नाम से अपना व्यवसाय कर रहे हैं। आपका जीवन, बड़ा सादा जीवन है। विद्या से आपको बड़ा प्रेम है। करीब तीन साल पूर्व आपने बीकानेर में गोलछों की गबाड़ में श्री गोविन्द सार्वजनिक पुस्तकालय की स्थापना की। जहाँ सब प्रबन्ध आपकी ओर से हो रहा है। आपके बा० भीखनचन्दजी नामक एक पुत्र हैं। आप उत्साही नवयुवक हैं आजकल आप फर्म के कार्य में सहयोग दे रहे हैं।
सेठ प्रतापमलजी-आप इस फर्म के भागीदार हैं। आप श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी संप्रदाय के मानने वाले हैं। प्रारम्भ में आपने भी नेलफामारी में केसरीचन्द मोतीचन्द के यहाँ सर्विस की। कुछ वर्षों बाद उनकी नौकरी छोड़ दी एवम् अपने भतीजे सेठ गोविन्दरामजी के साथ प्रतापमल गोविन्दराम के फर्म में साझा कर लिया। जो इस समय भी है। आपके चार पुत्र हैं जिनके नाम क्रमशः हीरालालजी, भासकरनजी, सुगनचन्दजी एवम् जैसराजजी हैं। आप लोगों का आजकल देश में निवास स्थान श्री डूंगरगढ़ है।
हीरालालजी मैट्रिक पास हैं तथा जैसराजजो इण्टर मिजियेट कामर्स की स्टेडी कर रहे हैं। शेष सब भाई फर्म के कार्य में सहयोग देते हैं । सेठ प्रतापमलजी के भाई मूलचन्दजी का स्वर्गवास हो गया है। आपके जेठमलजी एवम् सुमेरमलजी नामक दो पुत्र हैं। जेठमलजी एफ. ए. पास करके डाक्टरी पढ़ रहे हैं। दूसरे दुकान का कार्य करते हैं। इस समय इस परिवार की कलकत्ता में भिन्न २ नामों से भिन्न २ व्यवसाय करने वाली ३ दुकानें चल रही हैं।
सेठ हनुतमल हरकचन्द भंसाली, छापर इस परिवार के पूर्व पुरुष सेठ खेतसीजी ने करीब १०० वर्ष पूर्व छापर में आकर निवास किया। आपके हनुतमलजी, उमचन्दजी और हरकचन्दजी नामक तीन पुत्र हुए। इनमें से हनुतमलजी एवम् हरकचन्दजी का परिवार शामिल में व्यवसाय कर रहा है। सेठ हनुतमलजी करीब ६० वर्ष पूर्व घोडामारा गये एवम् वहाँ अपनी फर्म स्थापित को। आप दोनों भाई बड़े प्रतिभा सम्पन्न एवम् व्यापारिक व्यक्ति थे। आपके व्यापार संचालन की योग्यता से फर्म के काम में बहुत सफलता रही। आपने अपने व्यवसाय को विशेष रूप से बढ़ाने के लिये डोमार, कलकत्ता, इसरगंज, अनंतपुर उल्लीपुर, (रंगपुर) इत्यादि स्थानों पर भिन्न २ नामों से फमें स्थापित की। सेठ हनुतमलजी का स्वर्गवास हो गया। भाप के इस समय बुधमलजी दत्तक पुत्र हैं । आप ही फर्म का संचालन करते हैं। आपके भंवरलालजी नामक एक पुत्र हैं।
__सेठ हरकचन्दजी इस समय विद्यमान हैं। आपके हाथों से भी फर्म की बहुत उन्नति हुई । इस समय आपने अवसर ग्रहण कर लिया है। आपका छापर की पंच पंचायती में अच्छा मान सम्मान है। आपके बुधमलजी, मालचन्दजी, डालचन्दजी, थानमलजी और माणकचन्दजी नामक पाँच पुत्र हैं। बड़े पुत्र आपके बड़े भाई हनुतमलजी के नामपर दत्तक गये। शेष अपने व्यापार का संचालन करते हैं। भाप सब सजन और मिलनसार व्यक्ति हैं।
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सेठ पन्नालाल नारमल बंब, भुसावल इस कुटुम्ब के मालिकों का मूल निवास स्थान पीही (जोधपुर स्टेट) में है। लगभग १०० साल पूर्व सेठ नारमलजी बम्ब ने मारवाद से आकर इस दुकान का स्थापन किया। भापके पुत्र सेठ गुलाबचन्दजी व पनालालजी बम्ब हुए।
सेठ गुलाबचन्दजी बम्ब-आपके हाथों से व्यापार को विशेष उन्नति प्राप्त हुई। आप अपने स्वर्गवासी होने के समय १५ । २० हजार रुपयों का दान कर गये थे। इस रकम में से ५। ६ हजार की लागत से पीही में एक धर्मशाला बनवाई गई है। आपका स्वर्गवास सन् १९२४ में हुआ। आपके भेरूलालजी तथा सरूपचन्दजी नामक दो पुत्र विद्यमान हैं।
सेठ पन्नालालजी बम्ब-ओप सेठ नारमलजी के छोटे पुत्र हैं। तथा इस परिवार में बड़े हैं। आप के परिवार की गणना खानदेश, तथा बराड़ के नामी भोसवाल कुटुम्बों में है। इस परिवार ने श्री भूराबाई श्राविकाश्रम तथा पदमावाई कन्या पाठशाला को सहायताएं दी है। यह परिवार स्थानकवासी आम्नाय का माननेवाला
___ श्री भेरूलालजी बम्ब-आप सेठ गुलाबचन्दजी के बड़े पुत्र हैं। आप शिक्षित तथा समझदार सज्जन हैं। तथा फर्म के व्यापार को बड़ी सफता से संचालित करते हैं । आप भुसावल म्युनिसिपेलिटी के १ वर्षों तक मेम्बर रहे हैं। शिक्षा के कार्यों में दिलचस्पी से हिस्सा लेते हैं। आपके छोटे भ्राता सरूपचन्दजी आपके साथ व्यापार में भाग लेते हैं। आपके यहां गुलाबचन्द नारमल बम्ब के नाम से साहुकारी लेन देन तना कृषि का और पनालाल नारमल बम्ब के नाम में सराफी व्यापार होता है।
सेठ सरूपचंद भूरजी बम्ब, कोपरगांव (नाशिक)
इस परिवार का मूल निवास स्थान कुराया ( अजमेर के पास)। यह परिवार स्थानक वासी आम्नाय का है। मारवाद से सो वर्ष पूर्व सेठ दलीपचन्दजी के पुत्र नन्दरामजी पैदलरास्ते से कोपरगांव के पास मुरशदपुर नामक रथान में आये। इनके पुत्र भरजी भी यहीं व्यापार करते रहे। संवत् १९४० में इनका स्वर्गवास हुआ। आपके रामचन्दजी तथा सरुचपन्दजी नामक २ पुत्र हुए। इनमें सेठ रामचन्दजी येरण गांव ( नाशिक ) गये। संवत् १९७७ में भापका स्वर्गवास हुआ । इस समय आपके पुत्र रतनचंदजी तथा खुशालचन्दजी यरण गांव में व्यापार करते हैं।
सेठ सरूपचन्दजी बम्ब-आपका जन्म १९२८ में हुआ। भाप संवत् १९४० में कोपरगांव आये। आपने व्यवसाय में चतुराई तथा हिम्मत पूर्वक द्रव्य उपार्जित कर अपने समाज में अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त की है। आपके यहाँ "सरूपचन्द भूरजी बम्ब" के नाम से भादत, साहुकारी तथा कृषि
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का काम होता है। आपके पुत्र मोतीलालजी, हीरालालजी, पनालालजी तथा झूमरलालजी व्यापार में भाग लेते हैं, तथा फूलचन्दजी और मंसुखलालजी छोटे हैं। यह परिवार नाशिक जिले के ओसवाल समाज में अच्छी प्रतिष्ठा रखता है। मोतीलालजी बम्ब के पुत्र हैं।
लाला निहालचन्द नन्दलाल बम्ब, लुधियाना यह खानदान लगभग पांच सौ वर्षों से यहां निवास कर रहा है । इस परिवार के पूर्वज लाला सुक्खामलजी के लाला गुलाबामल जी बूंटामलजी, तथा भवानीमलजी नामक ३ पुत्र हुए। इनमें लाला गुलाबामलजी, के लाला निहालालजी, नरायणमलजी, सावनमऊजी तथा पंजाबरायजी नामक १ पुत्र हुए। लाला निहालमलजी बड़े धर्मात्मा व्यक्ति थे। आप यहां की ओसवाल समाज में नामांकित व्यक्ति थे। संवत् १९४९ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके पुत्र नन्दलालजी तथा चन्दूलालजी थे।
लाला नन्दलाल जी लुधियाना के ओसवाल समान में प्रतिष्ठित व्यक्ति थे, आपका संवत् १९८२ में स्वर्गवास हुआ। आपके लाला जगनाथजी, अमरनाथजी, मोहनलालजी तथा पत्रालालजी नामक । पुत्र हुए। इनमें लाला अमरनाथजी मौजूद हैं। इस समय आप अपनी "निहालचन्द नन्दलाल" नामक फर्म का संचालन करते हैं । आपका परिवार पुश्तहानपुश्त से चोधरायत का काम करता आ रहा है। आपके पुत्र मदनलालजी हैं।
लाला गुलाबामलजी के द्वितीय पुत्र लाला नारायणलालजी के पुत्र लाला खुशीरामजी बड़े मशहर तथा धर्मात्मा व्यक्ति हुए। मापने यहां एक उपाश्रय भी बनवाया था।
लाला कालूमल शादीराम बम्ब, पटियाला ___ यह परिवार सौ वर्ष पूर्व दिल्ली से पटियाला आकर आबाद हुभा। इस परिवार में लाला कालरामजी तथा कन्हैयालालजी नामक २ बंधु हुए। इनमें कन्हैयालालजी के शादीरामजी, गोंदीरामजी तथा राजारामजी नामक ३ पुत्र हुए। इनमें लाला शादीरामजी के लाला पानामलजी, सुचनरामजी तथा दौलतरामजी नामक पुत्र हुए। इस समय सुचनरामजी के पुत्र मंगतरामजी तथा तरसेपचन्दजी और दौलतरामजी के पुत्र संतलालजी विद्यमान हैं।
लाला गोंदीमलजी का जन्म संवत् १९१५ में हुआ था। आप पटियाला के ओसवाल समाज में प्रसिद्ध व्यक्ति थे। आप चौधरी भी रहे थे। संवत् १९७० में आप स्वर्गवासी हुए। आपके लाला चांदनरामजी, धर्मचन्दजी तथा मातूरामजी नामक ३ पुत्र हुए। इनमें लाला चांदनरामजी का संवत् १९७८ में स्वर्गवास हुआ। लाला धर्मचन्दजीका जन्म संवत् १९५० में हुआ। आप पटियाला के मशहूर चौधरी है, पटियाला दरबार ने आपको दुशाला इनायत किया। : आपके यहाँ जनरल ठेकेदारी का काम होता है। आपके पुत्र कश्मीरोलाल तथा बीरूरामजी बालक हैं। लाला मातूरामजी की वय ३४ साल की है। आप जनरल मरचेटाइज का व्यापार करते हैं। यह परिवार स्थानकवासी आम्नाय का मानने वालाहै।
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सेठ पन्नालालजी बम्ब (पन्नालाल नारमल), भुसावल.
श्री कुन्दनमलजी फिरोदिया बी. ए. एल.एल. बी. अहमदनगर
श्री कुशलसिंहजी चौधरी एल. टी. एम. डाक्टर, शाहपुरा.
सेठ चंदनमलजी पीतल्या (चंदनमल भगवानदास), अहमद
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फिरोदिया श्री उम्मेदमलजी फिरोदिया का खानदान, अहमदनगर
इस खानदान का मूल निवास स्थान पीपाड़ (मारवाड़) का है। आपकी आम्नाय श्वेताम्बर स्थानकवासी है। इस खानदान में श्री उम्मेदमलजी फिरोदिया सबसे पहले अहमदनगर जिले में आये । आपकी हिम्मत और बुद्धिमानी बहुत बड़ी चढ़ी थी। यहां आकर आपने साहसपूर्वक पैसा प्राप्त किया और फिर मारवाड़ जाकर शादी की, वहाँ से फिर अहमदनगर आये और कपड़े की दुकान स्थापित की । आपके दो पुत्र हुए जिनके नाम खूबचन्दजी और विशनदासजी थे। अपने पिताजी के पश्चात् आप दोनों भाई मनीलेण्डिग और कपड़े का म्यपार करते रहे। इनमें से फिरोदिया खूबचन्दजी का स्वर्गवास सन् १९०१ में और फिरोदिया विशनदासजी का सन १८९७ में होगया।
फिरोदिया बिसनदासजी के तीन पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः शोभाचन्दजी, माणिकचन्दजी और पत्रालालजी थे। आप तीनों भाई भी कपड़े और मनीलैण्डिा का व्यापार करते रहे । इनमें से शोभाचन्दजी का स्वर्गवास सन १९११ में हुआ। आप बड़े धार्मिक, शांत प्रकृति वाले और मिलनसार पुरुष थे। आपके पुत्र कुन्दनमलजी फिरोदिया हुए।
कुन्दनमलजी फिरोदिया-आपका जन्म सन् १८९५ में हुआ। मापने सन् १९०७ में बी. ए०की और सन् १९१० में एल० एल० बी० की डिग्रियाँ प्राप्त की। आप सन् १९०८ में फर्ग्युसन कालेज के दक्षिण-फेलो रहे। उस समय भारत में ओसवालों के इने गिने शिक्षित युवकों में से आप एक थे। आप बड़े शांत प्रकृति के, उदार, और समाज सुधारक पुरुष हैं। जैन जाति के सुधार और अभ्युदय की ओर आपका बहुत लक्ष्य है । अहमदनगर की पांजरापोल के आप सत्रह वर्षों से सेक्रेटरी हैं । आप यहां के व्यापारी एसोसियेशन के चेअरमेन, अहमदनगर के आयुर्वेद विद्यालय, अनाथ विद्यार्थी गृह और हाईस्कूल की मैनेजिंग कमेटी के मेम्बर हैं। सन् १९२६ में आप बम्बई की लेजिस्लेटिव कौंसिल में अहमदनगर स्वराज्य पार्टी की ओर से प्रतिनिधि चुने गये थे। इसी प्रकार राष्ट्रीय शिक्षण संस्था के चेअरमेन रहे थे। अहमदनगर कांग्रेस कमेटी के भी आप बहुत समय तक सेक्रेटरी रहे हैं। अहमदनगर के सेंट्रल बैङ्क के आप चभरमैन हैं। इसी प्रकार जैन कान्फ्रेंस, जैन बोडिंग पूना इत्यादि सार्वजनिक संस्थाओं से आपका बहुत घनिष्ट सम्बन्ध हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि आप भारत के जैन समाज में गण्यमान्य व्यक्ति हैं। आपके तीन पुत्र हैं। जिनके नाम श्री नवलमलजी मोतीलालजी और और हस्तीमलजी फिरोदिया हैं।
नवलमलजी फिरोदिया-आपका जन्म सन १९१० में हुआ। आपने सन् १९३३ में बी. एस० सी० की परीक्षा पास की। आप बड़े देश भक्त और राष्ट्रीय विचारों के सज्जन हैं। सन् १९३० और सन् १९३२ के आन्दोलन में आपने कालेज छोड़ दिया। तथा आन्दोलन में भाग हेते हुए ९ मास
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मोसवाल जाति का इतिहास
की जेल में गये। राष्ट्रीय की तरह सामाजिक स्प्रिट भी आपमें कूट २ कर भरी है। आपने अपने घर से परदा प्रथा का बहिष्कार कर दिया है। महमदनगर के ओसवाल युवकों में आपका सार्वजनिक जीवन बहुत ही अग्रगण्य है। आपके छोटे भाई मोतीलालजी फिरोदिया का जन्म सन् १९१२ में हुआ । आप इस समय बी० ए० में पढ़ रहे हैं। आप बड़े योग्य और सज्जन हैं। आपसे छोटे भाई हस्तीमलजी हैं। इनकी वय १३ साल की है।
कोरदिया सेठ अनोपचन्द गंभीरमल, बोरदिया उदयपुर । इस परिवार के पूर्व पुरुष सेठ रखबदासजी नाथद्वारा से उदयपुर आये। आपने यहाँ महाराण भीमसिंहजी के राजस्व काल में सम्बत् १८८० से १९०७ तक राज्य में सर्विस की। आपके जिम्मे कोठार का काम था। आपके कार्यों से प्रसन्न होकर महाराणा ने आपको परवाने भी बख्शे थे। आपके अम्बावजी अनोपचन्दजी, रूपचन्दजी और स्वरूपचन्दजी नामक चार पुत्र हुए । आप लोग अलग अलग हो गये एवम स्वतन्त्र रूप से व्यापार करना प्रारम्भ किया। सेठ अनोपचन्दजी व्यापारिक दिमाग के सज्जन थे। आपने अपनी फर्म की अच्छी उन्नति की। आपके गोकलचन्दजी और गम्भीरमलजी नामक दो पुत्र हुए। यह फर्म सेठ गम्भीरमलजी की है।
सेठ गम्भीरमलजी शांत स्वभाव के व्यापार चतुर पुरुष थे। आपके समय में मी फर्म की बहुत उन्नति हुई। आपका स्वर्गवास हो गया। इस समय आपके पुत्र सेठ फोजमलजी और सेठ जुहारमलजी दोनों भाई फर्म का संचालन करते हैं। आप लोग मिलनसार हैं। सेठ फौजमलजी के सुल्तानसिंहजी
और जीवनसिंहजी नामक पुत्र हैं। सुल्तानसिंहजी योग्य और मिलनसार व्यक्ति हैं। आजकल आप ही फर्म का संचालन भी करते हैं। सेठ जुहारमलजी के मालचन्दजी, छोगालालजी, नेमीचन्दजी, चाँदमलजी
और सूरजमलजी नामक पाँच पुत्र हैं। प्रथम दो व्यापार में योग देते हैं। तीसरे बी० ए० में पढ़ रहे हैं। इस समय आप लोग उपरोक्त नाम से बैकिंग हुंडी चिट्ठी कपास वगैरह का अच्छा व्यापार करते हैं।
डाक्टर कुशलसिंहजी चौधरी, कोठियां (शाहपुरा) का खानदान
इस परिवार के पूर्वज मेवाड़ के हुरड़ा नामक ग्राम में रहते थे । वहाँ से महाराजा उम्मेदसिंहजी शाहपुराधिपति के राजत्वकाल में यह परिवार कोठियाँ आया। उस समय महाराजा के पौत्र कुँवर रणसिंहजी की सेवा चौधरी गजसिंहजी ने विशेष की। इससे प्रसन्न होकर राज्यासीन होने पर रणसिंहजी ने इनको कोठियाँ में कई सम्मान बख्शे। उसके अनुसार वसंत, होली, शीतलाअष्टमी, रक्षाबन्धन, दशहरा, व गणगोर के त्यौहारों पर गांव के पटेल पंच 'चौधरीजी' के मकान पर आते हैं, तथा सदा से बंधे हुए दरतूरों का पालन करते हैं । होली के एहड़े में दमामी लोग किले में दरबार की पीढ़ियों के साथ चौधरीजी की पीढ़ियां गाते
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कीमती
हैं, तथा हरएक व्यक्ति विवाह में चौधरीजी की हवेली पर "राम राम" करने जाता हैं । इत्यादि सम्मान इस परिवार के प्राप्त हुए, इतना ही नहीं, इनके वंशजों को गजसिंहपुरा, जयसिंहपुरा, गणपतियापुरा, व टीटोड़ी गांव भी जागीरी में मिले थे। चौधरी मजसिंहजी को शाहपुरा दरबार ने बहुत से रुक्क बख्शे थे। इनके बच्छराजजी, अभयराजजी तथा उम्मेदराजजी नामक ३ पुत्र हुए। इनमें चौधरी बच्छराजजी ने शाहपुरा में प्रधानगी का कार्य किया। इनके तीसरे भाई चौधरी उम्मेदराजजी को उदयपुर दरबार ने अपने यहाँ बैठक बख्शी तथा हुरदा में जागीर इनायत की। चौधरी अभयराजजी के पौत्र अर्जुनसिंहजी ने शाहपुरा रियासत में बहुत खैरख्वाही के काम किये । आप कुंभलगढ़ की हुकूमत पर भी रहे। इनके पुत्र राजमलजी शाहपुरा में कामदार कोछोला तथा कौंसिल के मेम्बर रहे। आपको अपनी जाति की पंचायती ने "जी" का सम्मान दिया था।
चौधरी बच्छराजजी के पुत्र फतहराजजी हुए । इनके पुत्र स्योलालसिंहजी को भी शाहपुरा दरबार ने कई रुक्के इनायत किये थे। इनके कल्याणसिंहजी, जालमसिंहजी तथा रघुनाथसिंहजी नामक ३ पुत्र हुए। चौधरी कल्याणसिंहजी मारवाद परगने में हुकूमतें करते रहे। आपको शाहपुरा दरबार महाराजा माधोसिंहजी ने जागीरी इनायत की। आपके नाम पर रघुनाथसिंहजी दत्तक आये। चौधरी रघुनाथसिंहजी ने महाराजा नाहरसिंहजी के समय कोटड़ी कोठियाँ की सरहद के फैसले में इमदाद दी इसलिये प्रसन्न होकर इनको जागीरी दी । इनके गम्भीरसिंहजी, किशोरसिंहजी, सगतसिंहजी तथा सवाईसिंहजी नामक ४ पुत्र हुए। इनमें चौधरी सगतसिंहजी कोठियाँ में निवास करते हैं। आपने महकमे कारखानेजात तथा भाबकारी में सर्विस की । आपको जीकारे का सम्मान प्राप्त है। मापने नौरतनसिंहजी, लछमणसिंहजी तथा कुशलसिंहजी नामक ३ पुत्र हुए। इनमें कुशलसिंहजी विद्यमान हैं।
डाक्टर कुशलसिंहजी का जन्म सम्वत् १९५९ में हुआ। अजमेर से इंटरमिजिएट की परीक्षा पास कर आपने डाक्टरी का अध्ययन किया सन् १९२९ में एल० एम० ओ० की डिगरी प्राप्त की। इसके बाद एल०टी० एम० का डिप्लोमा भी प्राप्त किया। सन् १९३० से शाहपुरा स्टेट में स्टेट मेडिकल ओफीसर हैं। आपको वर्तमान महाराजा ने प्रसन्न होकर जागीरी बख्शी है, आपके कार्यों से पब्लिक बहुत खुश है। आपके भूपसिंह नामक एक पुत्र हैं। इस परिवार में चौधरी जालिमासिंहजी के पौत्र समर्थसिंहजी गरोठ (इन्दोर स्टेट) में रहते हैं। इनके पुत्र इन्द्रसिंहजी हैं।
___वर्तमान में इस कुटुम्ब में समर्थसिंहजी, जोधसिंहजी, वल्लमसिंहजी, सुगनसिंहजी, चाँदसिंहजी, हमीरसिंहजी तथा मगनसिंहजी नामक व्यक्ति विद्यमान हैं। इनमें चौधरी वल्लभसिंहजी ने शाहपुरा स्टेट में कई स्थानों की तहसीलदारी व हाकिमी की । आपको शाहपुरा पंचायती ने "श्री" का सम्मान दिया है।
कीमती
सेठ जमनालाल रामलाल कीमती, हैदराबाद (दचिण) . इस खानदान का मूल निवास रामपुरा (इन्दौर स्टेट) है । यह परिवार स्थानकवासी आम्नाय का माननेवाला है। इस परिवार में सेठ रायसिंहजी धूपिया रामपुरे में प्रतिष्ठित व्यकि।हो गये हैं, यह
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भोसवाले जाति का इतिहास
खानदान पहले धूपिया परिवार के नाम से पहचाना जाता था। आगे चलकर इस परिवार में सेठ पक्ष लालजी तथा बग्नालालजी कीमती हुए। इन भाइयों में सेठ पन्नालालजी का जन्म सम्बत् १९०१ में हुआ । रामपुरे से यह खानदान इंदौर तथा मंदसोरं गया । तथा यहाँ से सेठ पन्नालालजी सम्वत् १९४८ में हैदराबाद आये | आप बड़े धर्मप्रेमी तथा साधुभक्त पुरुष थे । आपका स्वर्गवास सम्वत् १९७३ में हुआ । आपके जमनालालजी तथा रामलालजी नामक दो पुत्र हुए।
सेठ जमनालालजी रामलालजी कीमती-सेठ जमनालालजी का जन्म आप दोनों भाइयों ने अपने पिताजी की मौजूदगी में ही हैदराबाद में जवाहरात कर दिया था, तथा इस व्यापार में आप बंधुओं ने अच्छी सम्पत्ति उपर्जित की। जमने पर आपने इंदोर में भी अपनी एक शाखा खोली । सेठ जमनालालजी कीमती के एक पुत्र सुखलालजी हुए थे, आप बड़े होनहार प्रतीत होते थे, लेकिन ३-४ साल की अल्पायु में इनका स्वर्गवास हो गया । इनके नाम पर मदनलालजी दत्तक लिये गये । रामलालजी कीमती ने रोशनलालजी कीमती को दत्तक लिया था, लेकिन इनका भी शरीरान्त हो गया । सेठ जमनालालजी कीमती ने अपना उत्तराधिकारी अपने छोटे भाई रामलालजी को बनाया है, तथा रामलालजी ने सम्पतलालजी को अपना दत्तक प्रगट किया है। सेठ जमनालालजी तथा रामलालजी ने सुखलालजी के स्मरणार्थ पचास हज़ार रुपया, तथा रामलालजी की पत्नी के स्वर्गवासी हो जाने पर १ लाख रुपया धार्मिक कामों के लिये निकाले जाने की घोषणा की है।
सम्वत् १९३५ में
हुआ ।
आदि का व्यापार आरम्भ हैदराबाद में कारोबार
इस परिवार ने सेठ पन्नालालजी तथा सुखलालजी के स्मर्णार्थ रामपुरा में " जमनालाल रामलाल कीमती लायब्रेरी” का उदघाटन किया है। आपने हैदराबाद में एक धर्मशाला बनवाई। हैदराबाद की मारवाड़ी लायब्रेरी के लिये एक " कीमती भवन" बनवाया, इसी प्रकार यहाँ स्थानक के लिये एक मकान दिया । आप एक जैन ग्रन्थमाला प्रकाशित कर मुफ़्त वितरित करते हैं । इन्दोर में आपकी ओर से एक जैन कन्या पाठशाला चल रही है, तथा यहाँ भी शुभ कामों के लिये एक बिल्डिंग दी है। आपकी ओर से जैनेन्द्र गुरुकुल पंचकूला में एक जैन बोर्डिंग हाउस बनवाया गया है, इसी तरह मंदसौर में इन बंधुओं ने एक प्रसूति गृह बनवाया । इसी तरह के धार्मिक तथा लोकोपकारी कार्यों में आप लोग भाग लेते रहते हैं । इस समय इन कीमती बंधुओं के यहाँ सुलतान बाजार रेसिडेंसी हैदराबाद में जमनालाल रामलाल कीमती के नाम से बेकिंग जवाहरात का व्यापार होता है । तथा यहाँ की प्रतिष्ठित फर्मों में यह फर्म मानी जाती है । हैदराबाद सिकरांबाद, इन्दौर आदि में आपके कई मकानात हैं। आपके यहां इन्दोर / खजूरीबाजार में भी बैंकिंग व्यापार होता है।
पीत लिया
सेठ बंदीचन्द बर्द्धमान पीतलिया, रतलाम
इस परिवार के बुजुर्गों का मूल निवास स्थान कुम्भलगढ़ ( मेवाड़ ) है । वहाँ इस परिवार ने राज्य की अच्छी २ सेवाएँ की थीं। वहीं से इस परिवार के सज्जन सेठ बीराजी ताल ( जावरा-स्टेट) नामक
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० सेठ अमरचन्दजी पीतल्या, रतलाम.
सठ जमनालालजी कीमती, हैदराबाद.
सेठ वर्द्धमानजी पीतल्या, रतलाम,
सेठ रामलालजी कीमती, हैदराबाद.
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पीत लिया
स्थान पर आये एवम् साधारण दुकानदारी का काम प्ररम्भ किया। सेठ बीराजी के पश्चात् सेठ मागकचंद जी और सेठ विरदीचंदजी ने क्रमशः इस फर्म के कार्य का संचालन किया। आपका ताल की जनता में अच्छा सम्मान था । सेठ बिरदीचंदजी के भ्रमरचंदजी, बच्छराजजी और सौभागमलजी नामक तीन पुत्र हुए। वर्तमान में भाप तीनों ही आताओं के वंशज क्रमशः रतलाम, जावरा और ताल में अडंग २ अपना व्यवसाय कर रहे हैं।
सेठ श्रमर चन्दजी - आपने समत् १९११ में रतलाम में उपरोक्त नाम से फर्म खोली । साथ ही आपने अपनी बुद्धिमानी, मिलनसारी और कठिन परिश्रम से फर्म के व्यवसाय में अच्छी तरक्की प्राप्त की । आप का धार्मिक और जातीय प्रेम सराहनीय था । आपके द्वारा इन दोनों लाईनों में बहुत काम हुआ । स्थानकवासी जैन कांफ्रेन्स में आपका अपने समय में प्रधान हाथ रहता था। राज्य में भी आपका बहुत सम्मान था । रतलाम स्टेट से आपको 'सेट' की उपाधिप्राप्त हुई थी। आप बड़े प्रतिभा सम्पन्न, कार्य्यं कुशल और बुद्धिमान व्यक्ति थे । आपका स्वर्गवास हो गया। आपके वर्द्धभानजी नामक एक पुत्र हैं।
सेठ बर्द्धमानजी आप बड़े मिलनसार एवम जाति सेवक सज्जन हैं। आपने भी जाति की सेवा में बहुत मदद पहुंचाई। आप अखिल भारतवर्षीय स्थानकवासी जैन कांफ्रेन्स के जनरल सेक्रेटरी रहे । रतलाम के जैन ट्रेनिंग कालेज के भी आप सेक्रेटरी थे । आपका स्थानकवासी समाज में अच्छा प्रभाव एवम सम्मान है । आपका व्यापार इस समय रतलाम एवम इन्दौर में हो रहा है।
सेठ भगवानदास चन्दनमल पीतलिया,
अहमदनगर
इस खानदान वालों का खास निवासस्थान रीयां ( मारवाड़) में हैं। आप श्वेताम्बर जैन स्थानकवासी आम्नाय को माननेवाले हैं। रींया ( मावाड़) से करीब १५० बरस पहले सेठ भगवानदासजी के पिता पैदल रा ते से चलकर अहमदनगर आये और यहाँ पर आकर अपनी फर्म स्थापित की | आपके पुत्र भगवानदासजी हुए। आपका स्वर्गवास केवल २५ वर्ष की उम्र में ही हो गया। आपके पश्चात आपकी धर्मपत्नी श्रीमती रम्भाबाई ने इस फर्म के काम को संचालित किया । इन्होंने साधु साध्वियों के ठहरने के लिये एक स्थानक बनवाया । भगवानदासजी के कोई सन्तान न होने से आपके यहाँ चन्दनमलजी को दत्तक लिया । चन्दनमलजी का जन्म सं० १९२९ में हुआ। आपके हाथों से इस फर्म की बहुत तरक्की हुई । आपका स्वर्गवास संवत् १९८८ में हो गया । आप बड़े धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे । आपके स्वर्गवास के समय १५००) संस्थाओं को दान दिये गये । आपके पुत्र मोतीलालजी और झूमरलालजी हैं।
मोतीलालजी का जन्म संवत् १९६२ में हुआ । तथा झूमरलालजी हुआ । मोतीलालजी सज्जन और योग्य व्यक्ति हैं। झूमरलालजी इस समय खानदान की दान धर्म और सार्वजनिक कार्यों की ओर भी बड़ी रुचि रही है।
का जन्म संवत् १९७१ में मैट्रिक में पढ़ रहे हैं। इस
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जम्मड़
सेठ खेतसीदासजी जम्मड़ का परिवार, सरदारशहर
इस परिवार के लोग जम्मद गौत्र के सज्जन हैं। बहुत वर्षों से ये लोग तोल्यासर ( बीकानेर ) नामक स्थान पर रहते आ रहे थे । इस परिवार में सेठ उम्मेदमलजी हुए। आप तोल्यासर ही में रहे तथा साधारण लेन तथा खेती वाड़ी का काम करते रहे । आपके खेतसीदासजी नामक एक पुत्र हुए । भाप तोल्यासर को छोड़कर, जब कि सरदार शहर बसा, व्यापार के निमित्त यहाँ आकर बस गये । यहाँ आने के १२ वर्ष पश्चात् याने संवत् १९०८ में यहीं के सेठ बींजराजजी दूगड़, सेठ गुलाबचन्दजी छाजेड़ और सेठ चौथमलजी आंचलिया के साथ २ कलकत्ता गये । तथा सब ने मिलकर वहाँ सेठ मौजीराम खेतसीदास के नाम से सामलात में अपनी एक फर्म स्थापित की । मालिकों की बुद्धिमानी एवम् व्यापार चातुरी से इस फर्म की दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति होने लगी । इसके पश्चात् संवत् १९२८ में सेठ बींजराजजी एवम सेठ खेतसीदासजी ने उपरोक्त फर्म से अलग होकर अपनी नई फर्म मेसर्स खेतसीदास तनसुखदास के नाम से खोली । यह फर्म भी ४० वर्ष तक चलती रही। इस परिवार की सारी उन्नति इसी फर्म से हुई । सेठ खेतसीदासजी का स्वर्गवास संवत् १९३६ में ही हो गया था। आपके २ पुत्र हुए। जिनके नाम क्रमशः सेठ कालुरामजी एवम् सेठ अनोपचंदजी ( दूसरा नाम नानूरामजी ) हैं ।
सेठ कालूरामजी का जन्म संवत् १९१४ में हुआ । आपके छोटे भाई सेठ अनोपचंदजी थे। दोनों भाई बड़े प्रतिमा सम्पन्न और होशियार व्यक्ति थे । आप लोगों ने व्यापार में बहुत सम्पत्ति उपार्जित की। सामाजिक बातों पर भी आपका बहुत ध्यान था । पंच पंचायती के प्रायः सभी कार्यों में आप लोग सहयोग प्रदान किया करते थे । सेठ कालूरामजी बड़े स्पष्ट वक्ता और निर्भीक समाज सेवी थे । सेठ अनोपचन्दजी भी अपने भाई को सहयोग प्रदान करते रहते थे सेठ कालूरामजी का स्वर्गवास संवत् १९६८ में तथा सेठ अनोपचन्दजी का स्वर्गवास संवत् १९८२ में होगया । आप लोगों का स्वर्गवास होने के पूर्व ही सेठ बींजराजजी अलग हो चुके थे । सेठ कालुरामजी के तीन पुत्र हुए जिनने नाम क्रमशः सेठ मंगलचंदजी सेठ बिरदीचंदजी और सेठ शुभ करणजी हैं। सेठ अनोपचंदजी के कोई संतान न होने से सेठ बिरदीचंदजी दत्तक गये हैं । आप तीनों भाइयों का इस समय स्वतंत्र रूप से व्यापार हो रहा है। संवत् १९८६ तक आप लोग शामलात में व्यापार करते रहे ।
सेठ मंगलचन्दजी की फर्म मेसर्स खेतसीदास मंगलचन्दजी के नाम से कलकत्ता के मनोहरदास कला में चल रही है जहाँ कपड़ा एवम बैकिंग का व्यापार होता है। सेठ मंगलचन्दजी मिलनसार एवम समझदार व्यक्ति हैं । आपके रिधकरनजी और चन्दनमलजी नामक २ पुत्र हैं ।
सेठ बिरदीचन्दजी का जन्म संवत् १९४८ का है। आप मिलनसार एवम उत्साही सज्जन हैं। आपका ध्यान भी व्यापार की ओर अच्छा है। आपने अपने हाथ से ही कलकत्ता में एक कोठी खरीद की है । सरदार शहर में आपकी आलीशान हवेली बनी हुई है। आपकी फर्म कलकत्ता में ११३ क्रासस्ट्रीट में मेसर्स खेतसीदास मिलापचन्द के नाम से चल रही है। आपके मिलापचन्दजी नामक एक पुत्र हैं ।
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० सेठ नानूरामजी जम्मड़, सरदारशहर.
सेठ बिरदीचंदजी जम्मड़, सरदारशहर.
सेठ शुभकरणजी जम्मड़, सरदारशहर.
कुँवर मिलापचंदजी बिरदीचंदजी जम्मड़, सरदारशहर.
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नखत
बाबू शुभकरनजी का जन्म संवत् १९६५ का है। भाप भी भाजकल अपना स्वतंत्र व्यापार कलकत्ता में ममोहरदास कटला में मेसर्स खेतसीदास शुभकरन जम्मद के नाम से कर रहे हैं। आप भी मिलनसार एवम् सजन व्यक्ति हैं। आपकी भी सरदार शहर में एक सुन्दर हवेली बनी हुई है। यह परिवार श्री जैन श्रेताम्बर तेरापंथी संप्रदाय का मानने वाला है।
नखत
मुकीम फूलचन्दजी नखत, कलकत्ता इस परिवार के पूर्व व्यक्ति जैसलमेर रहते थे। वहाँ से सेठ जोगवरमलजी बंगला बस्ती (वर्तमान फैजाबाद यू०पी०) में आये। आपके पुत्र बख्तावरमलजी ने यहाँ कपड़े का व्यापार प्रारम्भ
आपने अपची व्यापारिक प्रतिभा से इसमें अच्छी उन्नति की। धार्मिक क्षेत्र में भी आप कम म रहे। बापने यहाँ एक जैन मन्दिर बनवाया और श्री जिनकुशल सूरि महाराज की चरण पादुका स्थापित की। आपके कन्हैयालालजी, मुकुन्दीलालजी और किशनलालजी नामक तीन पुत्र हुए। भाप लोगों का स्वर्गवास हो गया। सेठ कन्हैयालालजी के पुत्र बाबू फूलचन्दजी हुए।
. फूलचन्दजी नखत-आप बड़े प्रतिभा सम्पन्न और तेज नजर के व्यक्ति थे। आप १४ वर्ष की अवस्था में कलकत्ता भाये । यहाँ आपने जवाहरात का व्यापार शुरू किया। इममें आपको आशातीत सफलता मिली। आपको संवत् १८८० में लार्ड रिपन ने कोर्ट ज्वेलर नियुक्त किया था। आप आजीवन कोर्ट ज्वेलर रहे । आपके सिखाये हुए बहुत से व्यक्ति नामी जौहरी कहलाये ! आपका स्वर्गवास संवत् १९४१ में हो गया। आप बड़ी सरल प्रकृति के पुरुष थे। आपका स्थानीय पंच पंचायती में बहुत नाम था। भाप अपने समय के नामी जौहरी और प्रतिष्ठित पुरुष थे। आपके कोई पुत्र न होने से आपके नाम पर बा० मोतीचन्दजी नाहटा ब्यावर से दत्तक आये।
मोतीचन्दजी नखत-आपने सर्व प्रथम सेठ लाभचन्दजी के साझे में “लाभचन्द मोतीचन्द" नाम से जवाहरात का व्यापार किया। आपकी इस व्यापार में अच्छी निगाह है अतएव आपने इसमें बहुत सफलता प्राप्त की। इस फर्म के द्वारा “लाभचन्द मोतीलाल फ्री जैन लिटररी और टेकनिकल स्कूल" खोला गया जिसमें आज केवल लिटररी की पढ़ाई होती है। आपने अपने पिताजी की इच्छानुसार उनके स्मारक में श्यामाबाई लेन में फूलचन्द मुकीम जैन धर्मशाला के नाम से एक बहुत सुन्दर धर्मशाला का निर्माण कर वाया । इस धर्मशाला में बहुत अच्छा इन्तजाम है। आपने सम्मेद शिखरजी के मामले में भी और लोगों के साथ बहुत मदद की है। जाति हित की ओर आपका अच्छा ध्यान रहता है। सम्मेद शिखर के पहाड़ को खरीदने में जो रुपया आनन्दजी कल्याणजी की पेढ़ी से आया था उसे वापस करने के लिये ट्रस्ट कायम किया गया है। उसमें आपने १५०००)का कम्पनी का कागज उदारता पूर्वक प्रदान किया किया है। आप मिलनसार, समझदार और सज्जन व्यक्ति हैं। आपके इस समय फतेचंदजी
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ओसवाल जाति का इतिहास
नामक एक पुत्र हैं। भापके बड़े पुत्र इन्द्रचन्दजी का स्वर्गवास हो गया, उनके सुरेन्द्रचन्दजी नामक पुत्र है। आप मन्दिरमार्गीय सजन हैं। आपके यहाँ जवाहरात का व्यापार होता है।
श्री आसकरणजी नखत, राजनांद गाँव लमभग ७० साल पूर्व मारवाद के भियांसर नामक स्थान से आसकरणजी नखत राजनांदगांव भाये। तथा व्यापार शुरू किया। धीरे आपकी राज्य में प्रतिष्ठा बढ़ी। राजनांदगाँव के महंत घासीदासजी, सेठ आसकरणजी नखत से बहुत प्रसन्न थे। तथा राज्य के महत्व के मामलों में सलाह लिया करते थे । नखतजीने राजनांदगांव के आदितवारी, बुधवारी, कामठीबाजार, बोहरा लेन आदि बाजार बसवाये । ओसवाल जाति को राजनांदगाँव में बसाने तथा उसे हर तरह से इमदाद देने में आपका पूर्ण लक्ष्य था। राजनांदगांव का व्यापारिक समाज आपके उपकारों का प्रेम पूर्वक स्मरण करता है। रियासत में आपकी बहुत बड़ी प्रतिष्ठा थी। तथा राजा साहिब आपकी सलाहों की बहुत इज्जत करते थे। संवत् १९५२ में आप स्वर्गवासी हुए । भापके दत्तक पुत्र लखमीचन्दजी भी संवत् १९७८ में गुजर गये । अब इस समय लखमीचन्दजी के पुत्र सूरजमलजी मौजूद हैं। इनकी वय १३ साल की है।
सेठ मयकरण मगनीराम नखत, (कुचेरिया) जालना इस खानदान के लोगों का मूल निवासस्थान बडू (जोधपुर स्टेट) का है। आप श्वेताम्बर मन्दिर आन्नाय को मानने वाले सजन है। कुचेरे से उठने के कारण आपको कुचेरिया नाम से विशेष पुकारते हैं । इस खानदान के रघुनाथमलजी करीब सवा सौ वर्ष पहले मारवाड़ से दक्षिण में आये। आपने यहाँ आकर खेड़े में अपना व्यापार चलाया, तदन्तर इनके पुत्र मयकरणजी ने जालना में उक्त नाम से अपनी फर्म स्थापित की। आपका स्वर्गवास संवत् १९३५ में हो गया। आपके मगनीराजी और धनजी नामक दो भाई और थे। इनमें मगनीरामजी का स्वर्गवास संवत् १९१५ और धनजी का स्वर्गवास संबत् १९२२ में हो गया था। सेठ मयकरणजी और मगनीरामजी के निसंतान गुजरने पर सेठ मगनीरामजी के नामपर सूरजमलजी को दत्तक लिया। सेठ मयकरणजी के स्वर्गवासी होजाने पर सेठ सूरजमलजी ने फर्म के काम को सम्हाला । आपने इस फर्म की बहुत तरक्की की । आपका स्वर्गवास संवत् १९५६ में हुआ।
इस समय इस फर्म के मालिक श्री सेठ सूरजमलजी के पुत्र मोहनलालजी कुचेरिया हैं। आपका संवत् १९३६ में जन्म हुआ। आपके पुत्र न होने से आपनेकिशनलालजी को दत्तक लिया। इस खानदान की दानधर्म की ओर भी अच्छी रुचि रही है। यहाँ के मन्दिर की प्रतिष्ठा में आपने ५०००) सहायता के रूप में प्रदान किये थे। आपकी दुकान पर आढ़त, रूई, वगैरह का धंधा होता है।
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. ओसवाल जाति का इतिहास
TWARENESH
शुभकरणजी जम्मड़ की हवेली, सरदारशहर
श्री फूलचन्द मुकीम (नखत) धर्मशाला श्यामागली, कलकत्ता.
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लुंकड़ .सेठ रेखचन्दैजी लूंकड़, आगरा इस खानदान का मूल निवास फलोदी (मारवाद) है। संवत् १९०५ में. फलोदी से सैठ . 'सुल्तानमलजी लूकद व्यापार के लिये आगरा आये, तथा सेठ लक्ष्मीचन्द गणेशदास के यहाँ मुनीमात का काम किया । संवत् १९२४ में सेठ सुलतानचन्दजी के पुत्र रेखावन्दजी आगरा आये तथा अपने नाम से फर्म स्थापित की। और इसकी विशेष उन्नति भी आपके ही हाथों से हुई। आप बड़े व्यापार कुशल सज्जन थे। भाप संवत् १९८६ में स्वर्गवासी हुए। इस समय आपके पुत्र नेमीचंदजी तथा फतहचन्दजी व्यापार का संचालन करते हैं। बाप की फर्म "रेखचन्द खून" नाम से बेलनगंज आगरा में व्यापार करती है। इस दुकान पर कई मिलों की सूत तथा कपड़े की एजन्सियां हैं। तथा इस व्यापार में आगरे में यह फर्म बहुत भातवर मानी जाती है । फलोदी में भी आपका परिवार प्रतिष्ठा सम्पच हैं।
सेठ सागरमल नथमल लूंकड़, जलंगांव इस परिवार का मूल निवास पेजड़ली (जोधपुर स्टेट) में है। यह परिवार स्थानकवासी मानाप का माननेवाला है। देश से सेठ सागरमलजी लूकड़ जलगांव जाये, तथा सेठ जीतमल तिलोकचन्द की भागीदारी में व्यापार आरम्भ किया है। आपने अपनी बुद्धिमत्ता एवं होशियारी से व्यापार में सम्पत्ति उपार्जित कर अपने परिवार की प्रतिष्ठा को बढ़ाया है। सेठ सागरमलजी ने जलगांव ओसवाल जैन बोडिंग हाउस को 14.) की सहायता दी है। इस संस्था के तथा स्थानीय पांजरापोल के आप सेक्रेटरी हैं। जलगांव के व्यापारिक समाज में आप प्रतिष्ठित व्यापारी माने जाते हैं। आपका हैड ऑफिस “सागरमल नथमल" के नाम से जलगांव में है। आपने अपनी दुकान की शाखाएँ इन्दोर, खंडवा, तथा बुरहानपुर में भी स्थापित की हैं । इन सब दुकानों पर कपड़े तथा सूत का थोक व्यापार होता है। बुरहानपुर के ताप्ती मिल की एजेंसी भी इस फर्म के पास है। इस समय सेठ सागरमलजी के पुत्र नथमलजी, पुखराजजी, मोहनलालजी तथा चन्दनमलजी हैं। ये चारों बंधु पढ़ते हैं।
सेठ प्रतापमल बुधमल लूंकड़, जलगांव इस परिवार के पूर्वज मूल निवासी फलोदी के हैं। वहीं से इस परिवार के पूर्वज सेठ महराजजी सम्वत् १६८३ में सीलारी (पीपाड़ से ५ मील) आये। इनकी छठी पीढ़ी में लूकड़ गुमानजी हुए.। इनके सरदारमलजी तथा मूलचन्दजी नामक दो पुत्र थे। सम्वत् १८६९ मैं सेठ सरदारमलजी पैदल मार्गद्वारा बॉकोड़ी (अहमद नगर) भाये । पीछे से आपके छोटे भ्राता मूलचन्दजी के पुत्र मोहकमदासजी भी सम्वत् १८९६ में बाँकोड़ी आये । सेठ सरदारमलजी के पुत्र सेठ बुधमलजीतू कब हुए। , बुधमलजी के फौजमलजी, बहादुरमलजी, संतोषचन्दजी तथा प्रतापमलजी नामक १ पुत्र हुए। इनमें से बाँकोड़ी से सेल
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मोसवाल जाति का इतिहास
संतोषचन्दजी सम्वत् १९३४ में तथा सेठ प्रतापमलजी १९४० में जलगांव आये, और यहाँ कपड़े का व्यापार आरम्भ किया । सम्वत् १९६२ में सेठ फोजमलजी स्वर्गवासी हुए। भापके छोटे भाई बहादुरमलजी के शिवराजजी तथा जुगराजजी नामक २ पुत्र हुए, इनमें जुगराजजी सेठ प्रतापमलजी लूंकड़ के नाम पर दत्तक गये।
सेठ शिवराजजी का जम्म सम्बत् १९४९ तथा जुगराजजी का १९५२ में हुआ। आप दोनों सजन “प्रतापमल बुधमल" के नाम से कपड़े का थोक व्यापार करते हैं, तथा जलगाँव के व्यापारिक समाज में प्रतिष्ठित व्यवसायी समझे जाते हैं। इन्दौर में भी आपने एक शाखा खोली है।
इसी तरह इस परिवार में सन्तोषचन्दजी के पौत्र (रिखवदासजी के पुत्र ) भंवरीलालजी तथा बंशीलालजी हैं । तथा मोहकमदासजी के पौत्र कन्हैयालालजी आदि बांकोड़ी में व्यापार करते हैं। .. सेठ रेखचन्द शिवराज लूंकड़ का खानदान, फलादी
इस परिवार का मूल निवास फलोदी है । आप मन्दिर मार्गीय आम्नाय के माननेवाले हैं। इस परिवार में सेठ मालमचन्दजी के पुत्र गुलाबचन्दजी लकड़ फलादी से पैदल चलकर व्यापार के लिये बड़ोदा गये तथा वहाँ फर्म स्थापित की । आपके पुत्र चुन्नीलालजी का जन्म सम्वत् १८९५ में हुआ। आपने अपने परिवार की प्रतिष्ठा को विशेष बढ़ोया । आप धार्मिक प्रवृति के पुरुष थे। आपका स्वर्गवास सम्बत् १९४४ में हुआ । आपके अनराजजी, चाँदमलजी, रेखचन्दजी, भोमराजजी तथा सुगनमलजी नामक ५ पुत्र हुए, इनमें सेठ अनराजजी का स्वर्गवास सम्वत् १९८५ में तथा चाँदमलजी का सम्बत् १९६५ में हुआ। सेठ चाँदमलजी के पुत्र माणकलालजी पनरोटी में अपना स्वतंत्र व्यापार करते हैं।
सेठ रेखचन्दजी लूकड़ का जन्म सम्वत् १९२८ में हुआ। आप फलोदी के ओसवाल समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्ति हैं । वृद्ध होते हुए भी आप ओसर मोसर आदि कुरीतियों के खिलाफ़ हैं। आपने संवत् १९५९ में बम्बई में “मूलचन्द सोभागमल" की भागीदारी में व्यापार शुरू किया तथा संवत् १९६६ में स्वतंत्र दुकान की । संवत् १९७२ में आपने पनरोटी (मद्रास) में अपनी दुकान स्थापित की। आपके बदनमलजी, जोगराजजी, शिवराजजी, सोहनराजजी तथा चम्पालाल जी नामक पांच पुत्र हुए। इनमें बदनमलजी का स्वर्गवास अल्पवय में संवत् १९६४ में हो गया, और इनकी धर्मपत्नी ने दीक्षाग्रहण करली । लूकड़ जोगराजजी ने पनरोटी में अपनी स्वतंत्र दुकान करली है तथा शेष तीन भाई अपने पिताजी के साथ व्यापार करते हैं । इस दुकान पर पनरोटी तथा मायावरम् में ब्याज का काम होता है। लूकड़ जोगराजजी के पुत्र मांगीलालजी, शिवराजजी के गजराजजी तथा पारसमलजी और सोहनराजजी, के केशरीमल हैं।
सेठ भोमराजजी के पुत्र फकीरचन्दजी हैं। आप पनरोटी तथा राजमनारकोडी में बैंकिंग व्यापार करते हैं, आपके पुत्र देवराजजी तथा जसराजजी हैं। सुगनमलजी के पुत्र नथमल तथा ताराचंद हैं। इस परिवार का व्रत उपवास व धार्मिक कार्यों की ओर बहुत बड़ा लक्ष है।
सेठ चत्राजी डूंगरचंद, लूंकड़, बलारी यह परिवार राखी (सीवाणा-मारवाड).का रहनेवाला है। इस परिवार के पूर्वज सेठ चत्राजी
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ओसवाल जाति का इतिहास
Sadesmal
श्री सरदारमलजी छाजेड़, शाहपुरा-मेवाड़ (परिचय पेज ५४१ में) बा० जोगराजजी S/o सेठ रेखचन्दजी लूकड़, फलौदी.
बा० शिवराजजी S/o सेठ रखचन्दजी लूँकड़, फलौदी,
बाबू चम्पालालजी S/o सेठ रेखचन्दजी लूकड़, फलौदी.
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खजांची
लकड़ संवत् १९१६ में रायचूर आये, तथा वहाँ से बलारी आये और कपड़े का व्यापार शुरू किया। आप बड़े हिम्मतवर तथा व्यापार चतुर व्यक्ति थे । आपने अपने हाथों से ८-१० लाख रुपयों की सम्पत्ति कमाई। सम्वत् १९६० में आप स्वर्गवासी हुए। आपके भतीजे सेठ दूंगरचन्दजी भी आपके साथ व्यापार में मदद देते थे, उनका भी सम्वत् १९६५ के करीब स्वर्गवास हुआ। डूंगरचन्दजी के हजारीमलजी, बस्तीमलजी तथा मगनीरामजी हुए, इनमें हजारीलालजी, सेठ चत्राजी के नाम पर दत्तक गये । इनका संवत् १९६५ में स्वर्गवास हुआ । तथा इनके पुत्र लच्छीरामजी सम्बत् १९८४ में स्वर्गवासी हो गये। सेठ वस्तीरामजी ने . राखी के मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई है । आप सम्वत् १९७५ में स्वर्गवासी हो गये।
वर्तमान समय में इस कुटुम्ब में बस्तीरामजी के पुत्र आईदानजी तथा लच्छीरामजी के पुत्र सम्पतराजजी हैं। आपकी दुकान चत्राजी डूंगरचन्द के नाम से ब्याज का काम करती है। यह दुकान बलारी के ओसवाल पोरवाल फर्मों को मुकादम है । तथा बहुत मातवर मानी जाती है। इस दुकान के भागीदार सेठ आसूरामजी बागरेचा सिवाणा निवासी हैं। आपके परिवार में सेठ भोजाजी सीवाणे के नामांकित व्यकि थे, आपके पौत्र परशुरामजी संवत् १९४४ में बलारी आये, तथा कपड़े का व्यापार शुरू किया । संवत् १९६७ में आप स्वर्गवासी हुए। आसूरामजी "आसूराम" बहादुरमल के नाम से कपड़े का घरू व्यापार करते हैं। आप समझदार तथा होशियार पुरुष हैं । आपके पुत्र बहादुरमलजी १५ साल के हैं।
सेठ मालचन्द पूनमचन्द लँकड़, चिंचवड़ ( पूना) इस परिवार के मालिक खांगटा (पीपाड़ के पास.) के निवासी हैं। । वहां से सेठ बरदीचन्दजी लूकड़ संवत् १८८० में ताथवाड़ा ( चिंचवड़ के पास ) आये और यहाँ दुकान की। इनके मालचन्दजी तथा मगनीरामजी नामक २ पुत्र हुए । मालचन्दजी संवत् १९५० में चिंचवड़ आये । संवत् १९६३ में मापका स्वर्गवास हा। सेठ मालचन्दजी के पूनमचन्दजी और मीकमचन्दजी तथा मगनीरामजी के गलाबचन्दजी और कालूरामजी नामक पुत्र हुए । भीकमचन्दजी जातिउन्नति व धार्मिक कामों में सहयोग लेते रहे । संवत् १९७४ में आपका स्वर्गवास हुआ। इस समय इस परिवार में सेठ गुलाबचन्दजी लूँकड़ तथा सेठ पूनमचन्दजी के पुत्र रामचन्द्रजी, रघुनाथजी, गणेशमलजी तथा सूरजमलजी एवं कालूरामजी के पुत्र किशनदासजी विद्यमान हैं।
सेठ रामचन्द्रजी लू कढ़ शिक्षाप्रेमी सज्जन हैं । आप श्री फतेचन्द जैन विद्यालय चिंचवड़ के प्रेसीडेन्ट व खजानची हैं । आपके छोटे भ्राता व्यापार में भाग लेते हैं। आप चिंचवड़ के प्रतिष्ठित व्यापारी हैं। यह परिवार स्थानकवासी आम्नाय का मानने वाला है।
खजांची सेठ प्रेमचन्द माणकचन्द खजांची, बीकानेर इस परिवार वाले कांधलजी राजपूत पहले देवी कोट नामक स्थान में रहते थे वहीं ये जैनी बने भौर बोहरगत का व्यापार करने लगे। ऐसा करने के कारण इनके वंशज कांधल बोहरा कहलाये। आगे
क स्थान में रहते थे वहीं ये जैनी बने
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चलकर इसी परिवार के पुरुष जांजगजी जैसलमेर की राजकुमारी गंगा महाराणी के साथ करीब ३५० वर्ष पूर्व बीकानेर आये । आपके पुत्र रामसिंहजी को तत्कालीन बीकानेर महाराजा ने खजाने का काम - इनायत किया। इसी समय से इस परिवारवाले खजांची कहलाते चले आ रहे हैं। '
. रामसिंहजी के पुत्र वेणीदासजी का परिवार ही इस समय बीकानेर में निवास कर रहा है। इसी परिवार में आगे चलकर सेठ उदयभानजी हुए। इनके कुशलसिंहजी और किशोरसिंहजी नामक दो पत्र हए। किशोरसिंहजी का परिवार नागोर चला गया। वेणीदासजी के बाद क्रमशः पीरराजजी, सुन्दर दासजी, तखतमलजी, मैनरूपजी, गेंदमलजी, हुए । गेंदमलजी के तीन पुत्र हुए आसकरनजी, धनसुखदासजी
और मैंनचंदजी। इनमें से धनसुखदासजी के बाद क्रमशः कस्तूरचंदजी, और हरकचन्दजी हुए । हरकचंद जी के चार पुत्र अमरचंदजी, आबडदानजी, तेजकरनजी और सूरजमलजी हए । वर्तमान फर्म सेठ तेजकरनजी के पुत्र सेठ प्रेमचंदजी की है ।
सेठ प्रेमचंदजी यहाँ के स्टेट जौहरी हैं । आप मिलनसार व्यापार चतुर और धार्मिक पुरुष हैं। आपने अपकी एक ब्रांच कलकत्ता में भी जवाहरात का व्यापार करने में लिये खोली। इसके अतिरिक्त अजीतमल माणकचंद के नाम में साझे में भी एक कपड़े की फर्म खोल कर व्यापार की उन्नति की । आपने धार्मिक कार्यों में बहुत खर्च किया। आप कई जगह कई सभा सोसाइटियों के सभापति और मेम्बर रहे। आपको बीकानेर श्री संघ ने एक बहुत ही सुन्दर मानपत्र भेंट किया है। जिसमें आपकी उदारता,
सहृदयता और धार्मिकता की तारीफ की गई हैं। भापके इस समय माणकचंदजी, मोतीचन्दजी और - हीराचंदजी नामक तीन पुत्र हैं। माणकचन्दजी व्यापार में भाग लेते हैं ।
खजांची विजयसिंहजी का खानदान, भानपुरा इस खानदान वाले सजनों का पहले निवास स्थान मारवाड़ था। इनकी उत्पत्ति चौहान राजपूतों से हुई। ऐसा कहा जाता है कि इस परिवार के पूर्व पुरुषों ने सम्राट अकबर के प्रांतिय खजाने का काम किया था। अतएव खजांची कहलाये। पश्चात् बादशाहत् की हेराफेरी से इस परिवार के पुरुष घूमते हुए महाराजा यशवंतराव प्रथम के राजत्व काल में रामपुरा भानपुरा चले आये।
. इस परिवार में आगे चलकर तनसुखदासजी नामक एक बड़े बीर और प्रतिभासंपन्न व्यक्ति हुए। कहा जाता है कि महाराजा होल्कर की भोर से होने वाली गरासियों की लड़ाई में वे मारे गये। अतएव मुंडकनई में महाराजा ने प्रसन्न होकर उनके वंशज के लिए रामपुरा भानपुरा जिले के झारड़ा, कंजार्दा और जमूणियां के कुल ग्रामों पर जमींदारी हक्क इनायत फरमाये । इसका मतलब यह कि इन स्थानों की सरकारी आमदनी पर २) सैकड़ा दामी के बतौर आपको मिलने लगा । इसके बाद संवत् १९०६ में १००० बीघा जमीन भी आपको जागीर स्वरूप प्रदान की। इसके अतिरिक्त भी आपको कई प्रकार के हक प्रदान किये। वर्तमान में आपके वंशजों को सरकार से इस जागीर के एवज में नगदी रुपये मिलते हैं। इस समय इस परिवार में खजाँची विजयसिंहजी हैं। आर इन्दौर स्टेट के निसरपुर नामक स्थान पर अमीन हैं। आप मिलनसार और सज्जन व्यक्ति हैं । जहां २ आप अमीन रहे वहां २ आप बड़े लोकप्रिय रहे। इस समय आपके अजीतसिंह और बलवन्तसिंह नामक दो पुत्र हैं।
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सेठ रेखचंदजी लूंकड़, आगरा.
श्री मगनमलजी कोचेट', मदुरांतकम् (मद्रास).
स्व० सेठ आसकरणजी नखत, राजनांदगांव.
कुं० माणकचन्दजी खजांची (प्रेमचन्द माणकचन्द) बीकानेर.
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कोटा - सेठ कुन्दनमख मगनमल कोचेटा, अचरापाकम् ( मद्रास ). : .
इस परिवार का मूल निवास.जसवंताबाद (मेड़ते के पास) है। वहां से इस परिवार के ' • पूर्वज सेठ रतनचन्दजी कोचेटा लगभग ७० साल पूर्व मुरार (गालियर.) गये, तथा, व्यवहार स्थापित किया। आप बड़े साहसी पुरुष थे। आपने ही व्यापार तथा सम्मान को बढ़ाया। आपके चन्दनमल. जी तथा कुन्दनमलजी नामक २ पुत्र हुए। कोचेटा चन्दनमरूजी का जन्म संवत् १९१३ में हुआ। आप
प्रथम मुरार में कंट्राक्टिङ्ग व्यापार करते थे, तया फिर शिवपुरी में कपड़े का व्यापार चालू किया । आप .. संवत् १९७८ में तथा आपके पुत्र फतेमलजो संवत् १९८९ में स्वर्गवासी हुए। मेठ कुन्दनमलजी कोचेटा
का जन्म संवत् १९४ में हुआ। आप शिवपुरी में कपड़े का व्यापार करते रहे। आप धार्मिक प्रवृति के पुरुष थे। संवत् १९५८ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र मगनमलजी कोचेटा हुऐ।
श्री मगनलालजी कोचेटा-आपका जन्म संवत् १९५६ में हुआ। भाप मेट्रिक तक शिक्षण प्रास कर शिवपुरी में सार्वजनिक कामों में योग देने लगे। भाप यहां के सरस्वती भवन के संचालक, जैन पाठशाला तथा सेवा समिति के सेक्रेटरी थे। वहां की जनता में आप प्रिय व्यक्ति थे। शिवपुरी से आप संवत् १९८. में 'मद्रास आये. तथा वहां आपन जैन सधार लेखमाला प्रकाशित कर जैन
जनता में ज्ञान प्रचार किया, इसी तरह एक जैन पाठशाला स्थापित करवाई। यहां से २ साल बाद .. आप अचरापाकम् (चिंगनपैठ) आवे तथा पहा बिग ब्यापार चालू किया। इस समय आपने
भवाल (मारवाड़) में लोकाशाह जैन विद्यालय का स्थापन किया है। भाप जैन गुरुकुल ब्यावर के मन्त्री और आत्म जागृति कार्यालय के सेक्रेटरी है। तथा मूथा जैन विद्यालय बलूदा के सेक्रेटरी हैं। आप स्थानकवासी समाज के गण्य मान्य व्यक्तियों में हैं। और शिक्षा तथा समाजोन्नति के हरएक कार्य में बहुत बड़ा सहयोग लेते रहते हैं। आपके पुत्र मानन्दमलजी बालक हैं।
सेठ केशवलाल लालचंद कोटा, बोदवड़ ( भुसावल )
इस फर्म का स्थापन सेठ रघुनाथदासजी ने अपने निवासस्थान पीपलाद (जोधपुर) से आकर एक शताब्दि पूर्व बोदवड़ में किया। आपका परिवार स्थानकवासी भाम्नाय का मानने वाला है। भापका स्वर्गवास लगभग-संवत् १९३० में हआ। आपके लालचन्दजी तथा ताराचन्दजी नामक २ पुत्र हए। भाप दोनों भाइयों का जन्म क्रमशः संवत् १९३० तथा ३५ में हुमा।. . . सेठ लालचंदजी कोचेटा-आप बुद्धिमान तथा व्यापार चतुर पुरुष थे, आपने अपनी दुकान की शाखाएं अमलनेर, मलकापुर, खामगांव तथा अकोला में खोली और इन सब स्थानों पर जोरों से आदत का न्यापार कर अपनी दुकान की इज्जत व प्रतिष्ठा को बढ़ाया। संवत् १९८२ में भापका स्वर्गवास हुआ। भापके ३ साल पूर्व आपके छोटे भाई ताराचन्दजी निसंतान स्वर्गवासी हुए । सेठ लालचन्दजी के मूलचन्दजो, मोतीलालजी, हीरालालजी, माणकचन्दजी तथा सोभागचन्दजी नामक पाँच पुत्र हुए।
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__ कोचेटा मोतीलालजी-आपका जन्म संवत् १९४८ में हुआ। आप धार्मिक प्रवृत्ति के पुरुष हैं। आपने कई वर्षों तक मलकापुर गोरक्षण संस्था का काम देखा। आप ही के परिश्रम से संवत् १९८२ में मलकापुर में स्थानकवासी सभा का अधिवेशन हुआ, इसकी स्वागत कारिणी के सभापति आप थे । आपने संवत् १९८९ में तमान सांसारिक कार्यों से निवृत होकर दीक्षा ग्रहण की।
आप के शेष चारों भ्राता अपनी बोदवड़, खामगाँव, अकोला, अमलनेर तथा मलकापुर दुकानों का संचालन करते हैं। बरार व खानदेश में यह परिवार अच्छी प्रतिष्ठा रखता है। सेठ मूलचन्दजी के पुत्र रतनचन्दजी, भागचन्दजी, भाऊलालजी तथा चम्पालालजी व्यापार में सहयोग लेते हैं। मोतीलालजी के रामलालजी, रिखबदासजी तथा भीमलालजी और हीरालालजी के कान्तिलालजी, मगनमलजी, अजितनाथजी व धरमचन्दजी नामक चार पुत्र हैं। कान्तिलालजी ने कांग्रेस आंदोलन में सहयोग लेने के उपलक्ष्य में तीन मास के लिये कारावास प्राप्त किया है।
सेठ मानमल चांदमल कोचेटा, भुसावल यह परिवार पर्वतसर (मारवाड़) का निवासी है। इस परिवार के पूर्वज सेठ मानमलजी, चाँदमलजी तथा वृजलालजी नामक तीन भ्राता व्यापार के लिये भुसावल आये तथा लेनदेन का व्यापार शुरू किया। इन्हीं भाइयों के हाथों से व्यापार को तरक्की मिली। इन तीनों सजनों का स्वर्गवास क्रमशः १९८२, ७७ तथा सं. १९७४ में हुआ । कोचेटा ब्रजलालजी के पनालालजी व केसरीचन्दजी नामक २ पुत्र हुए। इनमें केसरीचन्दजी, मानमलजी के नाम पर दत्तक गये। सेठ पन्नालालजी का स्वर्गवास सं० १९७१ में हो गया। इनके पुत्र कन्हैयालालजी, चाँदमलजी के नाम पर दत्तक गये । सेठ पन्नालालजी के बाद इस दुकान के व्यापार को केसरीचन्दजी तथा कन्हैयालालजी ने ज्यादा बढ़ाया। आपके यहाँ बोदवड़, फैजपुर, व भुसावल के खेती, आढ़त व लेन-देन का म्यापार होता है। तथा आस पास के ओसवाल समाज में अच्छी प्रतिष्ठा रखते हैं। सेठ चाँदमलजी ने बोदवड़ में एक उपाश्रय बनवाया है। इसी तरह अमलनेर के स्थानक में भी आपने सहायता दी। अमलनेर में आपके कई मकानात हैं।
श्री कहैयालालजी कोचेटा, वणी (बरार) यह परिवार बडू (जोधपुर स्टेट) का निवासी है। वहाँ से इस परिवार के पूर्वज सेठ हजारीमलजी कोटेचा लगभ ५० वर्ष पूर्व वणी के पास नांदेपेरा नामक स्थान में भाये। आपका स्वर्गवास संवत् १९८० में हुआ। आपने संवत् १९५० के लगभग वणी में सेठ रायमल मगनमल की भागीदारी में हीरालाल हजारीमल के नाम से व्यापार शुरू किया तथा इस व्यापार में अच्छी सम्मति तथा प्रतिष्ठा पाई। आपके पुत्र कन्हैयालालजी विद्यमान हैं।
सेठ कन्हैयालालजी कोचेटा की उम्र ४० साल की है। आप इधर दो सालों से “हीरालाल हजारीमल" नामक फर्म से अलग हो कर "मूलचन्द लोनकरण" के नाम से कपड़ा तथा सराफी का अपना स्वतन्त्र व्यापार करते हैं। आप तेरा पंथी आम्नाय के मानने वाले सज्जन हैं, तथा शास्त्रों की अच्छी जान
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सांढ
कारी रखते हैं । बणी के ओसवाल समाज में आपका परिवार नामाङ्कित समझा जाता है। आपके पुत्र लोणकरणजी तथा मूलचन्दजी हैं ।
सेठ पन्नालाल ताराचंद कोटेचा, वणी ( बरार )
इस परिवार का निवास बहू (मारवाद) है। देश से सेठ ताराचन्दजी कोटेचा लगभग ३० साल पूर्व नांदेपेरा आये, तथा वहाँ से वणी आकर सेठ " हीरालाल हजारीमल " फर्म पर कार्य किया। इधर आप १० सालों से कपड़ा तथा सराफी का अपना घरू व्यापार करते हैं। आपका जन्म संवत् १९३५ में हुआ । आप वणी के ओसवाल समाज में प्रतिष्ठित सज्जन हैं। तथा मिलनसार एवं समझदार व्यक्ति हैं । आपके पुत्र बालचन्दजी कोटेचा का जन्म सं० १९५९ में आप भी तत्परता से व्यापार में भाग लेते हैं तथा उत्साही युवक हैं।
हुआ ।
सेठ ताराचन्दजी के भतीजे कालूरामजी कोटेचा सेठ " हीरालाल हजारीमल" नामक फर्म के १० साल से भागीदार हैं। आपका जन्म संवत् १९५३ में हुआ है । आप होशियार तथा सज्जन व्यक्ति हैं ।
सांढ
सांढ गौत्र की उत्पत्ति—कहा जाता है कि संवत् ११७५ में सिद्धपुर पाटण में जगदेव नामक एक राजपूत सरदार निवास करता था। इसके सूरजी, संखजी, साँवलजी, सामदेवजी आदि ७ पुत्र हुए । इनको आचार्य हेमसूरिजी ने जैन धर्म का प्रतिबोध दिया। सांवलजी का बड़ा पुत्र बड़ा मोटा ताजा था अतः इनको पाटण के राजा सिद्धराज ने "संड मुसंड" कहा। फिर इन्होंने राजा के मस्त सांढ़ को पछाड़ा, इससे इनकी पदवी सांढ हो गई और भागे चलकर यह सांढ गौत्र हो गई । इसी तरह जगदेव के अन्य पुत्रों से सुखाणी, सालेचा, पुनमियाँ आदि शाखाएँ हुई ।
सांढ तेजराजजी का खानदान, जोधपुर
इस परिवार के पूर्वज सांढ भगोतीदासजी मेड़ते में रहते थे । इनके पौत्र शोभाचन्दजी ( निहालचन्दजी के पुत्र ) ने जोधपुर में आकर अपना निवास बनाया । इनके पुत्र खींवराजजी हुए । विक्रम की अठारहवीं शताब्दि के मध्य काल में इस परिवार का व्यापार बहुत उन्नति पर था। महाराजा बख्तसिंहजी के समय जोधपुर राज्य से इस खानदान का लेन-देन का बहुत सम्बन्ध था । स्टेट के बाइसों परगनों में इनकी दुकाने थीं । इन दुकानों के लिये जोधपुर महाराज बख्तसिंहजी विजयसिजी तथा मानसिंहजी ने इस परिवार को कस्टम की माफ़ी के परवाने बख्शे, तथा अनेकों रुक्के देकर इस खानदान . के गौरव को बढ़ाया ।
सांढ़ खींवराजजी, सिंघवी इन्द्रराजजी के साथ एक युद्ध में गये थे। इसी तरह डीड़वाने की
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फौज में भण्डारी प्रताप मलजी के साथ और बलूंदे के पास झगड़े में सिंवी गुलराजजी के साथ साँड खींवराजजी गये थे । इन युद्धों में सम्मिलित होने के लिए इनको रतनपुरा का ढीवड़ा और एक बावड़ी इनायत हुई थी। संवत् १८९७ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके पुत्र शिवराजजी तथा पौत्र तेजराजजी भी रियासत के साथ लाखों रुपयों का लेन-देन करते रहे । आप लोग जोधपुर के प्रधान सम्पतिशाली साहुकार थे । साँढ तेजराजजी जोधपुर में दानी तथा प्रसिद्ध व्यक्ति हो गये हैं । आपका स्वर्गवास १९४८ में हुआ । आपके पुत्र रङ्गराजजी तथा मोहनराजजी हुए। सेठ रङ्गराजजी १९५८ में स्वर्गवासी हुए। तथा सेठ मोहनराजजी विद्यमान हैं। आपका जन्म संवत् १९३८ में हुआ | आपके समय में इस फर्म का व्यापार फैल हो गया । तथा इस समय आप जोधपुर में निवास करते हैं। रंगराजजी के नाम पर अमृतराजजी दत्तक हैं ।
सेठ केवलचन्द मानमल सांढ, बीकानेर
अठारहवीं शताब्दी में इस परिवार के पूर्व पुरुष सेठ सतीदानजी मेड़ता से बीकानेर आये । आपके हुकुमचन्दजी और हुकुमचन्दजी के केवल चन्दजी नामक पुत्र हुए। आपने सम्वत् १८९० में उपरोक्त नाम से गोटाकिनारी की फर्म स्थापित को।। इसमें आपको बहुत सफलना रही । आप मन्दिर संप्रदाय के सज्जन थे । आपके पाँच पुत्र हुए जिनके नाम सदासुखजी, मानमलजी, इन्द्रचन्दजी, सूरजमलजी और प्रेमसुखजी था । आप सब लोगों का परिवार स्वतन्त्र रूप से व्यापार कर रहा है। सेठ मानमलजी बड़े प्रतिमावान व्यक्ति थे । आपने दिल्ली में अपनी एक फर्म स्थापित की थी और आप ऊँटों द्वारा वहाँ माल भेजते थे । इसमें आपको अच्छी सफलता रही। आपके धार्मिक विचार अच्छे थे। आपका स्वर्गवास हो गया। आपके केसरीचन्दजी नामक पुत्र हुए I
वर्तमान में सेठ केशरीचन्दजी ही व्यापार का संचालन कर रहे हैं। आपके हाथों से इस फर्म के व्यापार की ओर भी तरक्की हुई। आपने दिल्ली के अलावा कलकत्ता में फर्म खोली । इस प्रकार इस समय ओपकी तीन फर्मे चल रही हैं। आपका स्वभाव मिलनसार और उदार है । आपने स्थायी सम्पत्ति रखा । बीकानेर में कोट दरवाजे के पास वाला कटला आपही का है। खर्च हुआ। इस समय आपके कोई पुत्र नहीं है ।
भी यही काम करने के लिये आप मन्दिर मार्गीय व्यक्ति हैं । बढ़ाने की ओर भी काफी ध्यान इसमें करीब १ || लाख रुपया
भाभू
भाभू गौत्र की उत्पत्ति — कहा जाता है कि रतनपुर के राजा ने माहेश्वरी वैश्य समाज के राठो गौत्रीय भाभूजी नामक पुरुष को अपना खजांची मुकर्रर किया । जब राजा रतनसिंहजी को सांप ने डसा, और जैनाचार्य जिनदत्तसूरि ने उन्हें जीवनदान दिया । तब राजा अपने मन्त्री, खजांची आदि सहित जैनधर्म अंगीकार किया । इस प्रकार खजांची भाभूजी की संताने "भाभू" नाम से सम्बोधित हुईं।
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भामू
लाला जगतूमलजी भाभू का खानदान, अम्बाला यह परिवार मन्दिर मार्गीय आम्नाय का मानने वाला है। आप मूल निवासी धनोर के हैं, अत: एवं धनोरिया नाम से मशहूर हुए। इस खानदान में लाला सुचनमलजी के लाला जेठुमलजी, लाला भगवानदासजी, लाला जगतूमलजी तथा लाला रुलियारामजी नामक ४ पुत्र हुए।
लाला जगतूमलजी-आपका जन्म सन् १८७६ में हुमाया। अम्बाला की "आत्मानन्द जैनगंन" नामक सुप्रसिद्ध विल्डिंग आपही के सतत परिश्रम से बनकर तयार हुई। आप यहाँ की स्कूल कमेटी के प्रधान थे। आपने अम्बाला की लोकल संस्थाओं तथा पंजाव की जैन संस्थाओं को काफी इमदाद दी। अपनी मृत्यु समय में आपने करीब तेरह हजार रुपयों का दान किया। इस प्रकार प्रतिष्ठापूर्वक जीवन विता कर सन् १९२६ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके स्मारक में यहाँ एक "जगतूमल जैन औषधालय" स्थापित है। इससे हजारों रोगी लाभ उठाते हैं । आपके ४ पुत्र हैं जिनमें लाला सदासुखरायजी, लाला मुनीलालजी के साथ और लाला नेमदासजी बी०ए०, लाला रतनचंदजी के साथ व्यापार करते हैं।
लाला नेभीदासजी-आपका जन्म संवत् १९६१ में हुआ। आपने सन १९२६ में बी. ए. पास किया। आप आत्मानन्द जैन सभा पंजाब के ऑनरेरी सेक्रेटरी व जैन हाई स्कूल अम्बाला की कमेटी के मेम्बर हैं। इसके अलावा आप गुजरानवाला गुरुकुल को कमेटी के मेम्बर, अम्बाला चेम्बर ऑफ कामर्स के डायरेक्टर, शक्ति एन्श्यूरेन्स कम्पनी के डायरेक्टर, जैन रीडिंग रूम अम्बाला के प्रेसिडेण्ट, जगतूमल औषधालय के मैनेजर तथा हस्तिनापुर तीर्थ कमेटी के मेम्बर हैं। कहने का तात्पर्य यह कि आप प्रतिभाशाली व विचारक युवक हैं। लाला सदासुखरायजी के पुत्र केसरदासजी, मुन्नीलालजी के पुत्र भोमप्रकाशजी, विमलप्रकाशजी, चमनलालजी तथा धर्मचन्दजी और रतनचन्दजी के पुत्र फीरोजचन्दजी हैं।
लाला दौलतरामजी भाभू का खानदान, अम्बाला यह खानदान मन्दिर मानाय का उपासक है। इस खानदान में लाला फग्गूमलजी के लाला दौलतरामजी बख्तावरमलजी. बलाकामलजी तथा शादीरामजी नामक ४ पुत्र हए ।
लाला दौलतरामजी-आपका जन्म संवत् १९१५ में हुमा था। आप बड़े नामी और प्रसिद्ध पुरुष हुए। आपने ही पहले आत्मारामजी महाराज के उपदेश को स्वीकार किया था। आपने अपने जीवन के अंतिम १० साल हस्तिनापुर तीर्थ की सेवा में लगाये, तथा उसकी बहुत उन्नति की। इस काम में आपने हजारों रुपये अपने पास से लगाये। संवत् १९८१ में आप स्वर्गवासी हुए । आपके गोपीचंदजी, मुकुन्दीलालजी, ताराचंदजी, हरिचन्दजी, इन्द्रसेनजी नामक ५ पुत्र हुए।
. लाला गोपीचन्दजी-आपका जन्म संवत् १९४२ में हमा। आपने गवर्नमेंट की सर्विस व बंबई में व्यापार कर सम्पत्ति उपार्जित की। आपने अपने पुत्रों को उच्च शिक्षा दिलाने का काफी लक्ष दिया है। भाप श्री आत्मानन्द जैन हाई स्कूल की मैनेजिंग कमेटी के सदस्य तथा आत्मानंद जैन सभा के मन्त्री हैं। भापके ५ पुत्र हैं। जिनके नाम बाबू रिखबदासजी, ज्ञानदासजी, सागरचन्दजी, सुमेरचन्द तथा राजकुमार जी हैं। लाला रिखबदासजी ने सन १९२४ में बी० ए० तथा १९२६ में एल. एल. बी. की डिगरी
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हासिल की। आप प्रतिभाशाली युवक हैं तथा आत्मानन्द जैन हाई स्कूल कमेटी के मेम्बर हैं। आपके छोटे बन्धु बाबू ज्ञानदासजी ने सन् १९२८ में बी० ए० सन् १९३० में एम० एस० सी० तथा १९३३ में एल० एल० बी० की डिगरी प्राप्त की । आपका स्कूली जीवन बहुत प्रतिभापूर्ण रहा है । आप एफ० ए० तथा एल० एल० बी की परीक्षाओं में सारी पंजाब यूनिवर्सिटी में प्रथम आये । इसके लिये आपको गोल्ड तथा सिल्वर मेडल भी मिले । आप आत्मानन्द जैन हाई स्कूल के ओल्ड वॉयज ऐसोसिएशन के प्रेसिडेंट हैं । और भी आपका जीवन बहुत अनुकरणीय है । आपके छोटे बंधु बाबू सागरचन्दजी बी० ए० के अंतिम वर्ष में अध्ययन कर रहे हैं। आपका भी स्कूली जीवन बहुत उज्वल है। कई विषयों में आप युनिवर्सिटी में प्रथम रहे हैं। आपकी योग्यताओं का सम्मान गवर्नमेंट ने सर्टिफिकेट देकर किया था । इनसे छोटे सुमेरचन्दजी, गुजरानवाला गुरुकुल में पढ़ते हैं।
लाला हरिचन्दजी यहाँ के पंच हैं। आपके टेकचन्दजी तथा दीवानचन्दजी नामक २ पुत्र हैं । इसी प्रकार लाला मुकुन्दीलालजी के पुत्र वीरचन्दजी तथा इन्द्रसेनजी के पुत्र प्रेमचन्दजी हैं । लाला मसानियामल आलूमल भाभू, अम्बाला
इस खानदान का मूल निवास स्थान थनौर है । इस खानदान में लाला बहादुरमलजी मसानियामलजी हुए । इनका संवत् १९४० में स्वगवास हुआ। आपके पुत्र आलूमलजी संवत् १९६४ में स्वर्गवासी हुए । ओलूमलजी के लाला छज्जूमलजी लाला धर्मचन्दजी तथा लाला संतलालजी नामक तीन पुत्र हुए ।
आप अम्बाला के गवर्नमेंट की ओर
लाला छज्जू मलजी माभू - आपका जन्म संवत् १९१४ में हुआ । प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं । तथा अम्बाला स्थानकवासी समाज के चौवरी हैं। से भी आप बाजार चौधरी रहे हैं। इसी प्रकार स्थानीय गौशाला के भी आनरेरी सुपरिटेण्डेण्ट रहे हैं । आपने अपने नाम पर अपने भतीजे लक्ष्मीचन्दजी को दत्तक लिया । बाबू लक्ष्मीचन्दजी स्थानकवासी समाज के मुख्य व्यक्ति हैं । आपकी वय ५० साल की है । आपके पुत्र रामलालजी, चिरंजीलालजी, जयगोपालजी, विमलप्रसादजी तथा जुगलकिशोरजी हैं। इनमें लाला रामलालजी तथा चिरंजीलालजी उत्साही युवक हैं, तथा स्थानकवासी सभा और जैन युवक मंडल के कामों में अग्रगण्य रहते हैं । आपके यहाँ "मसानियामक आलूमल" के नाम से बैकिंग, बजाजी, ज्वेलरी तथा सराफी व्यापार होता है।
लाला संतलालजी - आप बड़े धर्मात्मा तथा समाज सेवी पुरुष थे। संवत् १९६३ में ४० साल की उम्र में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके बाबूरामजी तथा प्यारेलालजी नामक १ पुत्र हुए। लाला बाबूलाल जी का जन्म संवत् १९४८ में हुआ । आप अम्बाला स्थानकवासी पंचायत के सेक्रेटरी तथा गवर्नमेंट की ओर से असेसर हैं। पंजाब स्था० जैन कान्फ्रेंस सेक्रेटरी भी आप रहे थे। इस समय उसकी प्रबन्धक कमेटी के मेम्बर हैं । आपके पुत्र टेकचन्दजी तथा पारसदासजी हैं । आपके यहाँ सूत दरो तथा बैग व्यापार होता है । लाला प्यारेलालजी भी यही व्यापार करते हैं । इनके पुत्र रोशनलालजी, अमरकुमारजी तथा श्यामसुन्दरजी हैं ।
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के
पुत्र
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भाभ
लाला बाबूलाल बंसीलाल भाभू. का खानदान, होशियारपुर
इस खानदान के लोग श्वेताम्बर जैन स्थानकवासी आन्ननाय को मानने वाले हैं। इस खानदान के पूर्वज पहले टाण्डा ( पंजाब ) में रहते थे । वहाँ से लाला किशनचंदजी होशियारपुर आये । आपके लाला फोगूमलजी, धूमामलजी तथा गनपतरायजी नामक तीन पुत्र हुए। इस खानदान में लाला फोगूमल जी ने व्यापार और बैकिग का काम शुरू किया । तथा इसकी खास तरक्की लाला फोगूमलजी के पुत्र लाला चूकामलजी ने की । उस समय यह खानदान होशियारपुर में बिजिनेस की दृष्टि से पहला माना जाता था और अब भी इसकी वैसी ही प्रतिष्ठा है। लाला फोगूमलनी के तीन पुत्र हुए लाला पिण्डीमलजी चूकामलजी तथा गोविंदमलजी । इनमें से यह परिवार लाला चूकामलजी का है।
लाला चूकामलजी के दो पुत्र हुए लाला कन्हैयालालजी और लाला रस्लूमलजी । लाला कन्ंया लालजी के लाला बाबू मलजी एवं लाला बंशीलालजी नामक दो पुत्र हैं। लाला बाबूमलजी के बनारसीदासजी रोशनलालजी एवं रतनलालजी नामक तीन पुत्र हैं। लाला बनारसीदासजी के हित कुमारजी नामक एक पुत्र हैं ।
बाला बंशीलालजी -- आप होशियारपुर की ओसवाल समाज में बड़े प्रतिष्ठात व्यक्ति माने जाते हैं । आप यहाँ भी म्युनसिपालिटी के कमिश्नर भी रहे हैं आप होशियारपुर की स्थानकवासी सभा के प्रेसिडेंट भी हैं। आप वैडिंग का व्यापार करते हैं। आपके पुत्र मदनलालजी ने एफ० ए० तक शिक्षा पाई है। तथा दिनेशकुमारजी एफ० ए० का अध्ययन करते हैं। तीसरे महेन्द्रकुमारजी हैं ।
लाला शिब्बूमल वजीरामल का खानदान, मलेर कोटला (पंजाब)
इस खानदान के लोग जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी सम्प्रदाय को मानने वाले सज्जन हैं। इस इस परिवार में लाला इन्द्रसेनजी हुए। आपके पोलूमलजी, रोडामलजी, सौदागरमलजी एवं हीरामलजी नामक चार पुत्र थे। इनमें से यह खानदान लाला रोडामलजी का है । लाला रोडामलजी का स्वर्गवास संवत् १९१४ में हुआ। आपके लाला शिभूमलजी एवं लाला ज्योतिमलजी नामक दो पुत्र हुए । लाला शिभूमलजी का जन्म संवत् १९०१ में हुआ। ये इस खानदान में बड़े नामी व्यक्ति हुए हैं। आपका संवत् १९८० में स्वर्गवास हुआ। आपके लाला वजीरामलजी नामक एक पुत्र हुए। लाला ज्योतिमलजी का जन्म संवत् १९१६ में व स्वर्गवास संवत् १९७६ में हुआ ।
लाला वजीरामलजी का जन्म संवत् १९२३ में हुआ। आपके भ्रमरचन्दजी एवं करमचंदजी नामक पुत्र हैं। लाला अमरचंदजी का जन्म संवत् १९६० तथा करमचंदजी का संवत् १९६२ में हुआ । आप दोनों भाई इस समय अपनी फर्म का कारवार देखते हैं। आपदोनों बड़े सज्जन हैं। लाला अमरचंद जी के ज्ञानचंदजी एवं फूलचंदजी नामक दो पुत्र हैं। इस परिवार के लोग मलेर कोटला की ओसवाल समान में प्रतिष्ठित माने जाते हैं और आप यहाँ की बिरादरी के चौधरी हैं। लाला ज्योतिमलजी के पुत्र लाला मूलालजी अपना स्वतंत्र व्यापार करते हैं। इनके चंदनदासजी, बनारसीदासजी एवं रतनचंदजी नामक तीन पुत्र हैं।
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लिगे लाला जयदयाल शाह गुरांताशाह लिगे, सियालकोट
यह खानदान स्थानकवासी आम्नाय का है। तथा कई पीढ़ियों में श्यालकोट में निवास करता है। इस खानदान के बुजुर्ग लाला गण्डामलजी के पुत्र दीवानचंदजी और पौत्र अमीचन्दजी हुए। लाला अमीरचंदशाहजी के गोविंदरामशाहजी, गंगारामशाहजी तथा मुकन्दाशाहजी नामक ३ पुत्र हुए । इनमें यह परिवार लाला गंगाराम शाहजी का है।
लाला गंगाराम शाहजी-आपका जन्म संवत् १८९० में हुआ। आपने सियाल कोट में एक कागज का कारखाना तथा सूसी का कारखाना खोला था। आपका अपने समाज में बड़ा सम्मान था। संवत् १९५४ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके जयदयाल शाहजी, गुरांताशाहजी, चूनीशाहजी देवीदयालशाहजी तथा हरदयालशाहजी नामक ५ पुत्र हुए। आप सब बंधुजन सम्मिलित रूप में व्यापार करते थे। तथा सियालकोट के प्रसिद्ध बैंकर माने जाते थे। इन भाइयों में लाला देवीदयाल शाहजी मौजूद हैं । लाला जयदयालशाहजी के पुत्र खजांचीशाहजी तथा गुरांताशाहजी के पुत्र शादीलालजी मौजूद हैं।
_ लाला खजांचीशाहजी-अपका जन्म संवत् १९४५ में हुआ । आप सियाल कोट के जैन समाज में प्रतिष्ठित सज्जन हैं । तथा डिस्ट्रिक्ट दरबारी हैं। यहाँ के सैंट्रल बैंक के डायरेक्टर तथा कोर्ट के असेंसर रहे हैं । आप पंजाब जैन संघ के खजांची भी रहे थे। कहने का मतलब यह है कि आप यहाँ के मशहूर आदमी हैं। आपके पुत्र नगीनालालजी सराफी व्यापार करते हैं तथा शेष मदनलालजी, सिकन्दरपालजी, कृष्ण गोपालजी, तथा सुदर्शनजी हैं। लाला शादीलालजी अपने चचा खजांची शाहजी के साथ “जयदयाल शाह गुरांता शाह" के नाम से बैंकिंग तथा मनीलेंडिग का व्यापार करते हैं। आपके जुगेन्द्रपाल तथा मनोहर पाल नामक २ पुत्र हैं।
लाला काकूशाह जीवाशाह लिगे का खानदान. रावलपिंडी
इस खानदान के बुजुर्ग लाला हरकरणशाहजी के रामसिंहजी, लालूशाहजी, मन्नाशाहजी, भोलाशाहजी तथा ठाकरशाहजी नामक ५ पुत्र हुए । उनमें लाला मनाशाहजी के काकूशाहजी, डोडेशाहजी तथा प्रेमाशाहजी नामक ३ पुत्र हुए। इनमें प्रेमाशाहजी मोजूद हैं।
लाजा काकूशाहजी का खानदान-आपका जन्म संवत् १९१२ में हुभा था। आप बड़े सादे और पुराने खयालों के सज्जन थे। आपने करीब ६० साल पहिले कपड़े का रोजगार शुरू किया। संवत् १९४४ में आप तीनों भाइयों का रोजगार अलग २ हुआ। संवत् १९७६ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके लाला अमीचंदजी, लाला रादू शाहजी, लाला उत्तमचन्दजी तथा लाला फकीरचन्दजी नामक पुत्र हुए। लाला अमीचंदजी की याद दाश्त बहुत ऊँची है। आपका जन्म संवत् १९३२ में हुभा। इस दुकान के
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व. लाला का शाहजी लिगे, रावलपिण्डी.
स्व. लाला डोडेशाहजो लिगे, रावलपिण्डी.
लाला उत्तमचंदजी लिगे (एम. एस. काकूशाह एंड संस) रावलपिंडी. लाला काशीशाहजी लिगे (काशीशाह मैयाशाह) रावलपिंडी.
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लिगे
ब्यापार में आप परिश्रम पूर्वक भाग लेते हैं। आपके पुत्र अमरनाथजी नेमनाथजी तथा गोरखनाथजी हैं । आप तीनों भाई व्यापार में भाग लेते हैं । रावूशाहजी संवत् १९८८ में गुजरे । आपके पुत्र मुकुन्दलालजी, सरदारोलालजी तथा शोरीलालजी अपना स्वतंत्र व्यापार करते हैं ।
लाला
लाला उत्तमचन्दजी - आपका जन्म संवत् १९३८ में हुआ। आप रावलपिंडी के जैन समाज में प्रतिष्टित व्यक्ति हैं । आपने सन् १९२० में कन्याशाला को एक साल का खरच दिया। तथा इस पाठशाला की बिल्डिंग बनवाने में २ हजार रुपये दिये। इस समय आप जैन सुमति मित्र मंडल के सभापति, बजाजा एसोशिएसन के वाइस प्रेसिडेंट तथा जैनेन्द्र गुरुकुल पंचकूला की प्रबंधक कमेटी के मेम्बर हैं । आप बड़े शांत, समझदार तथा प्रतिष्ठित सज्जन हैं। आपके छोटे भाई फकीरचंदजी आपके साथ व्यापार में भाग लेते हैं । लाला उत्तमचन्दजी के लालचन्दजी, चिमनलालजी तथा रोशनलालजी नाम ३ पुत्र है। इनमें रोशनलालजी एफ० ए० में पढ़ते हैं। शेष व्यापार में भाग लेते हैं। फकीरचंदजी के पुत्र वकीलचंदजी भी एफ० ए० में पढ़ते हैं। इस कुटुम्ब की २ कपड़े की दुकाने मनाशाह काकूशाह के नाम से रावलपिंडी में हैं इसके अलावा एक दुकान अमृतसर में भी है। पंजाब प्रान्त के मशहूर खानदानों में इस परिवार की गणता है ।
लाला डोडेशाहजी का खानदान - आप बिरादरी के मुखिया तथा बहादुर तबियत के पुरुष थे । संवत् १९८० में भापका स्वर्गवास हुआ आपके पुत्र लाला जीवाशाहजी हैं । लाला जीवशाहजी - आपका जन्म संवत् १९४३ में हुआ। आपका स्वभाव बढ़ा मिलनसार है । आप दिलेर तबियत और गुप्तदानी सज्जन हैं। रावळपिंडी के जैन समाज में आप मशहूर व्यक्ति हैं। आपके यहाँ डोडेशाह जीवाशाह के नाम से कपड़े का व्यापार होता है। आपके पुत्र लालचन्दजी का संवत् १९७३ में स्वर्गवास हो गया। आपने जैनन्द्र गुरुकुल पंचकूला को १ हजार तथा जैन सुमति मित्र मंडल को सात सौ रुपये प्रदान किये हैं ।
लाला तोतेशाह काशीशाह लिगे, जम्बू ( काश्मीर )
इस खानदान के बुजुर्ग लाला दयानतशाहजी को काश्मीर महाराजा गुलाबसिंहजी ने तिजारत करने के लिए इज्जत के साथ जम्बू में बुलाया । तथा मकान और दुकान की जगह दी । आपने सराफी व्यापार चालू किया । आपके पुत्र लाला बूँटाशाहजी भी सराफी व्यापार करते रहे। इनके लाला निहाला शाहजी तथा तोतेशाहजी नामक २ पुत्र हुए। इन दोनों भाइयों ने व्यापार में तरक्की प्राप्त कर रियाया तथा दर्बार में इज्जत प्राप्त की। आप दोनों का कारवार ४० साल पहिले अलग २ हुआ । लाला तोते साहजी का स्वर्गवास २० साल पूर्व हुआ। आप उम्र भर म्युनिसिपेलेटी के मेम्बर रहे। आपके पुत्र लाला काशीराम शाहजी विद्यमान हैं ।
लाला काशीराम शाहजी - आपका जन्म संवत् १९३९ में हुआ। आपका बिरादरी तथा राजदरबार में अच्छा सन्मान है । आप २० सालों से जम्बू म्युनिसिसिपैलेटी के मेम्बर हैं । आपके यहाँ "तोतेशाह काशी शाह" के नाम से बैंकिग व्यापार होता है, तथा यहाँ के व्यापारिक समाज में आपकी फर्म
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ओसवाल जाति का इतिहास
नामी समझी जाती है। आपके पुत्र प्यारेलालजी B.A. में पढ़ते हैं तथा दूसरे हीरालालजी तिजारत में हिस्सा लेते हैं। यह परिवार स्थानकवासी आम्नाय का है। .
___ लाला निहालशाहजी के हजारीशाहजी, करमचंदजी तथा धनपतचंदजी नामक ३ पुत्र हुए। इनमें करमचन्दशाहजी मौजूद हैं। आप सराफी तथा साहुकारे का काम करते हैं। आपके पुत्र बनारसी दासजी तथा कस्तूरीलालजी हैं। लाला हजारीशाहजी के पुत्र नानकचंदजी तथा धनपतचंदजी के पुत्र कपूरचंदजी तिजारत करते हैं। नानकचन्दजी के पुत्र किशोरीलालजी तथा शादीलालजी हैं।
लाला मय्यालाल काशीशाह लिगे, रावलपिंडी इस खानदान के बुजुर्ग लाला जीवाशाहजी ने ६० साल पहिले कपड़े का रोजगार शुरू किया। आप जैन बिरादरी के चौधरी थे। इनके मव्याशाहजी तथा गोबिन्दशाहजी नामक दो पुत्र हुए । मण्याशाहजी संवत् १९६१ में स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र लाला काशोशाहजी मौजूद हैं। आप जाति सेवा के कामों में बड़ी दिलचस्पी लेते हैं। जैन यंगमैन एसोसिएशन, बालंटियर कोर और जैन प्रकाश सभा में आप प्रधान हैं। अजमेर साधु सम्मेलन के समय आपने मृत्याग्रह किया था। आप रावलपिंडी गौशाला की व्यवस्थापक कमेटी के मेम्बर हैं। आपके यहाँ कपड़े का व्यापार होता है।
मनिहानी लाला सावनशाह मोतीशाह मनिहानी का खानदान, (सियालकोट)
यह खानदान स्थानकवासी सम्प्रदाय का मानने वाला है। इस परिवार का खास निवास स्थान सियालकोट का ही है। इस परिवार के वैज लाला रामजीदासजी के पुत्र लाला मंगलशाहजी,
और पौत्र बहादुरशाहजी हुए। लाला बहादुरशाहजी के दूशाहजी, मुश्ताकशाहजी और गुलाबशाहजी नामक पुत्र हुए । लाला रुल्दूशाह के परिवार में लाला खुशीरामजी प्रसिद्ध धर्म भक्त थे। आप मशहूर व्यक्ति थे। संवत् १९७० में आपका स्वर्गवास हुआ। लाला मुस्ताकशाहजी के लाला सावनशाहजी तथा रामचन्दजी नामक दो पुत्र हुए।
लाला सावनशाहजी-आपका जन्म संवत् १९२० में हुआ। आप इस समय इस परिवार में वयोवृद्ध सज्जन हैं। आपने व्यवसाय में हजारों लाखों रुपये उपार्जित किये । आपकी जवाहरात के के व्यापार में बड़ी बारीक दृष्टि है। आप यहाँ के प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। आपके इस समय • पुत्र हैं। जिनके नाम क्रमशः दीपचन्दजी, मोतीलालजी, पनालालजी. मंशीरामजी. हीरालालजी. सराजजी तथा रोशनलालजी हैं। लाला दीपचन्दजी संवत् १९५८ से अपने पिताजी से अलग ब्यापार करते हैं। आपके इस समय मुन्नीलालजी और सुदर्शनकुमारजी नामक दो पुत्र हैं। ..
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मनिहानी
बाला दीपचन्दजी को छोड़ कर शेष सब भाई सम्मिलित काम काज करते हैं। मोतीलालजी स्थानीय जैन कन्या पाठशाला के संरक्षक ( Patron) तथा इसकी कार्यकारिणी समिति के सदस्य हैं। लाला मुंघीलालजी प्रायः सभी सार्वजनिक कामों में भाग लेते रहते हैं। भाप वर्तमान में महावीर जैन कायरी की एकनीक्यूटिव के मेम्बर, डिस्ट्रिक्ट परवारी तथा Life Associate of red cross society हैं। लाला मोतीलालजी के जंगीलालजी, मनोहरलालजो, शादीलालजी, कपूरचन्दजी एवम् छोटेलालजी नामक पांच पुत्र हैं, खाना पचालालजी के शांतिलालजी चेनलालजी, देवराजजी एवम् विमलकुमार जी नामक चार पुत्र हुए, लाला मुन्शीरामजी के कुनणराजजी एवम् परतमनलालजी नामक दो पुत्र हैं । लाला हीरालालजी के दर्शनकुमारजी तथा सुदीशकुमार जी और लाला हंसराजजी के बच्छराजजो, जगमोहनजी एवम् बाबूलालजी नामक पुत्र हैं।
यह परिवार सियालकोट की बोसशल समाज में बड़ा प्रतिष्ठित माना जाता है। इस परिवार की सियालकोट में मेसर्स सावनशाह मोलीशाह के नाम से प्रधान फर्म तथा इसी की यहीं पर दो शाखाएँ है। इन सब फर्मों पर सराफी तथा बैकिंग व्यापार होता है। .
श्री हंसराजजी मनिहानी का खानदान सिवोरा (पंजाब)
इस खानदान का मूल निवासस्थान सिरसा (हिसार) का है। वहाँ से उठ कर यह खानदान सिनौरा ( अम्बाला ) में आकर करीब सात आठ पावाद हमा। यह परिवार जैन श्वेताम्बर
मार्गीय आम्नाय का मानने वाला है। इस परिवार में लाला जौंकीमलजी. दयारामजी और मौजीरामजी नामक तीन भाई थे। लाला मौजीरामजी बड़े वहादुर, दिलेरजंग और पराक्रमो थे। आपने कई छड़ाइयें लदी थी । लाला जोकीमलजी के लाला श्यामलालजी नामक एक पुत्र हुए । आपने इस खानदान की जमीदारी और नाम को बढ़ाया। आपके लाला नेमदासजी और लाला नेमदासजी के हीरालालजी,चढ़नी. मलजी और हाकमरायजी नामक पुत्र हुए । इस खानदान में लाला चढ़तीमलजो और हाकमरायजी बड़े मशहूर व्यक्ति हो गये हैं । आपने अपनी ज़मीदारी और इज्जत को बढ़ाया । लाला हाकमरायजी करीब ३० वर्षों तक म्युनिसीपल कमिश्भर रहे । चढ़तीमजी के पसंतामलजी और मित्रसेनजी नामक दो पुत्र हुए। . लाला बसंतामलजी के लाला मुकुन्दीलालजी नामक पुत्र हुए।
लाला मुकुन्दीलालजी-आपका जन्म संवत् १९३७ में हुआ। आपने जैन हाई स्कूल अम्बाला तथा हस्तिनापुर तीर्थ स्थान की धर्मशाला में एक एक कमरा बनवाय । आपके हंसराजजी, लाला सूरजमलजी तथा लाला दीपचन्दजी नामक ३ पुत्र हुए। लाला मुकुन्दीलालजी का स्वर्गवास सन् १९२६ में हो गया है।
___लाला हंसराजजी-आपका जन्म संवत् १९५९ में हुभा । आप सिद्वौरा के प्रतिष्ठित रईस हैं। आप यहाँ की स्थानीय म्युनिसीपलिटी के व्हाइस चेअरमेन; यहाँ के हिंदी हॉई स्कूक तया हिन्दू गल्स स्कूल के भानरेरी सेक्रेटरी रहे हैं। आप यहाँ की गवर्नमेंट में डिस्ट्रक्ट दरवारी हैं तथा शक्ति
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श्रो सवाल जाति का इतिहास
इन्शुरंस कम्पनी लि. के डायरेक्टर हैं। आप अछूतोद्धार और विद्या प्रचार के कामों में बहुत भाग लेते हैं । आपके छोटे भाई सूरतरामजी कॉलेज में तथा दीपचन्दजी हॉई स्कूल में पढ़ते हैं ।
लाला मित्रसेनजी के बड़े पुत्र श्रमीचन्दजी - आपका जन्म संवत् १९४२ का है । आप पहले यहाँ के म्युनिसीपल कमिश्नर रह चुके हैं। आपकी यहाँ पर बहुत बड़ी जमीदारी है। आपके रिखबदासजी, रोशनलालजी अमरनाथजी नामक तीन पुत्र हैं। छाला बसंतालालजी ने अपने भाई लाला पन्नालालजी की मदद से सिद्वौरामें एक विशाल जैन मन्दिर बनवाया । यह खानदान यहाँ बड़ा प्रष्टित और रईस माना जाता है।
लाला चेतराम नराताराम मुनिहानी, जुगरावाँ ( पंजाब )
यह परिवार स्थानकवासी आम्नाय का मानने वाला है। इस खानदान के पुरुष लाला चेतराम जी के यहाँ लम्बे समय से पसारी का होता आया है । आपका स्वर्गवास हो गया है । आपके लाला नरात मरामजी तथा मुनीलालजी नामक २ पुत्र विद्यमान हैं । आप दोनों भाई अच्छे कामों में सहायता देते रहते हैं । लाला नरातारामजी के यहाँ चेतराम नरातमराम के नाम से पसारी का व्यापार होता है । लाला मुनीलालजी जैन प्रचारक सभा के खजाञ्ची हैं । भाप गुरुकुल में बारी देते हैं । आपके यहाँ जानकीराम बालकराम के नाम से बिसाती का व्यापार होता है ।
तातेड़
लाला मुन्नीलोल मोतीलाल ताँतेड़, अमृतसर
इस परिवार का खास निवास लाहौर है । वहाँ से ७५ साल पहिले लाला मेलुमलजी अमृतसर आये । यह परिवार स्थानकवासी आम्नाय का मानने वाला है। लाला मेलूमलजी ने जनरल मर्चेंटाइज़ के व्यापार में अच्छी सफलता प्राप्त की । आपके पुत्र लाला माहताब शाहजी का जन्म करीब संवत् १९०३ -४ में हुआ। अमृतसर के ओसवाल समाज में आप प्रतिष्ठिवान सज्जन थे । जाति विरादरी के कामों में आपकी सलाह वजनदार मानी जाती थी । आपने अपने व्यापार को बहुत उन्नति पर पहुँचाया। संवत् १९५९ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके लाला मुन्नीलालजी, लाला मोतीलालजी लाला भीमसेनजी तथा लाला हंसराजजी नामक ४ पुत्र हुए ।
लाला मुनीलालजी, मोतीलालजी - आपका जन्म क्रमशः संवत् १९४७ तथा संवत् १९४९ में हुआ | आपने अपने व्यापार को काफी तरक्की पर पहुँचाया है। आपके दोनों छोटे भाई भी व्यापार में आपके साथ भाग लेते हैं । आपने अमृतसर में अपनी ३ ब्राचें फैंसी कपड़ा, होयजरी तथा मनिहारी के थोक व्यवसाय के लिए खोली हैं । आप बिलायत से डायरेक्टर कपड़े का इम्पोर्ट करते हैं। छाला रतनचन्द हरजसराय की गोल्डशाखा में आप भागीदार हैं। लाला मुनीलालजी श्री सोहनलाल जैन अनाथालय के कोषाव्यक्ष हैं। तथा धार्मिक और जातीय कामों में दिलचस्पी लेते रहते हैं। आप स्थानक -
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तांतर
वासी सभा की व्यवस्थापक कमेटी के मेम्बर हैं । अमृतसर के मोसवाल समाज में आपका खानदान नामी है। आपके पुत्र मनोहरलालजी, रोशनलालजी, तिलकचन्दजी तथा धर्मपालजी हैं। इनमें लाला मनोहरलाल जी ने एफ. ए.का इम्तहान दिया है। शेष सब पढ़ते हैं। काला मोतीलालजीके पुन शादीलालजी इंटर में पढ़ते हैं। तथा छोटे मदनलालजी तथा जितेन्द्रनाथजी हैं। इसी तरह लाला भीममसेनजी के पुत्र करतूरीमलजी तथा हंसराजजी के पुत्र राजपालजी तथा सतपालजी हैं।
लाला मस्तरामजी एम० ए० एल० एल० बी० तांतेड़े अमृतसर
इस खानदान के पूर्वज लाला शिवदयालजी अपने खास निवास लाहौर से कांगड़ा, होशियारपुर के जिलों में गये, वहाँ आप एक्साइज के कंट्राक्ट का काम करते थे। भाप लगभग ५० साल पूर्व स्वर्गवासी हुए। आपके लाला मिलखीमलजी, लाला लछमणदासजी, तथा लाला नन्दलालजी नामक पुत्र विद्यमान हैं। काला लछमणदासजी को उनके चाचा लाला महताबसाहजी ७ वर्ष की आयु में लाहोर के भाये. पीछे से इनके छोटे भाई भी अमृतसर आ गये। लाला लछमणदासजी इस समय आदत का काम करते हैं। आपने मेट्रिक तक शिक्षा पाई है। आपके पुत्र खाला मस्तरामजी हैं।
बाला मस्तरामजी-भापका जन्म संमत् १९५८ में हुआ। माप सन् १९२१ में बी.ए. ऑनर्स, सन् १९९४ में एम० ए० तथा १९२६ में एल० एल० बी० पास हुए। सन् १९९९ में आप हिन्दू कॉलेज में एकॉनामिक प्रोफेसर हुए। इसके अलावा आप यहाँ वकालत भी करते हैं । आपने सन् १९२२ में काला बाबूरामजी तथा मोतीशाहजी के सहयोग से लाहौर में जैन एसोशिएसन नामक संस्था स्थापित की थी। इसके अलावा आप अमर जैन होस्टल के सुपरिण्टेण्डेण्ट तथा "आफताब जैन" के एडीटर भी रहे थे। इस समय आप स्थानकवासी जैन सभा पंजाब, ऑल इण्डिया स्थानकवासी सभा, एस. एस. यूथ कान्फ्रेस, तथा अमृतसर की लोकल स्था० सभा की प्रबन्ध कारिणी कमेटी के मेम्बर और श्रीराम आश्रम हाईस्कूल की मैनेजिंग कॉसिल तथा बोर्ड ऑफ ट्रस्ट्रीज के मेम्बर हैं। तथा पब्लिक वेल फेअर लीग के प्रेसिडेण्ट हैं। कहने का मतलब यह कि आप यहां के जैन समाज में अग्रगण्य म्वक्ति हैं। हाला मिलखीमलजी के बड़े पुत्र हंसराजजी आदत का काम करते हैं। तथा छोटे लाला देसराज जी एफ० ए० दो साल पहिले स्वर्गवासी हो गये हैं। .
लाला दुनीचंद प्यारेलाल जैन-तातेड़, अमृतसर यह परिवार सो सवासो वर्ष पूर्व लाहोर से अमृतसर आया यह परिवार स्थानकवासी आम्नाय का मानने वाला है। इस परिवार के पूर्वज लाला कन्हैयालालजी के लाला कसूरियामलजी, छज्जूमलजी आदि ११ पुत्र थे। लाला कसूरियामलजी नामी जौहरो थे । लाला छज्जूमलजी धार्मिक प्रवृत्ति के के व्यक्ति थे। आपका संवत् १९४९ में स्वर्गवास हुआ। आपके लाला चुमीलालजी, दुनीचन्दजी और प्रभुदयालजी नामक ३ पुत्र हुए। लाला चुन्नीलालजी के पुत्र देवीचंदजी, नगीनालालजी तथा बाबूरामजी अमृतसर में स्वतन्त्र व्यापार करते हैं।
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ओसवाल जाति का इतिहास
- लाला दुनीचंदजी-आपका जन्म संवत् १९४० हुआ। आप आरम्भ में जवाहरात का काम करते थे। बाद आपने बसाती का व्यापार शुरू किया। इस व्यवसाय में आपको अच्छी सफलता मिली। धार्मिक कामों में आपकी अच्छी रुचि है। आपके प्यारेलालजी, प्रेमनाथजी, विलायतीरामजी, रतनचंदजी तथा रोशनलालजी नामक ५ पुत्र हैं। लाला प्यारेलालजी का जन्म संवत् १९६० में हुआ । भाप अपने व्यापार का उत्तमता से संचालन कर रहे हैं। आप हायजरी तथा मनीहारी का थोक व्यापार
और इस माल का जापान आदि देशों से डायरेक्ट इम्पोर्ट करते हैं। आपके छोटे भ्राता प्रेमनाथजी तथा विलायतीरामजी व्यापार में भाग लेते हैं। अमृतसर में यह परिवार अच्छा प्रतिष्ठित माना जाता है । प्यारेलालजी के पुत्र तिलकराज तथा जत
लाला मुंशीरामजी जैन तातड़, लाहोर इस खानदान के पुरुष स्थानकवासी सम्प्रदाय के मानने वाले हैं । इस परिवार का मूल निवास जयपुर है। वहां से यह परिवार लाहोर आया । इस परिवार में लाला नंदलालजी हुए। आपके पुत्र लाला शिब्बूमलजी और लाला पन्नालालजी हुए। लाला शिब्बूमलजी ने लगभग ५५ साल पूर्व काकरी मरचेंटस का व्यापार शुरू किया। आप दोनों बंधु:बड़े सजन व्यक्ति थे। लाला पन्नालाल जी संवत् १९०२ के स्वर्गवासी हुए। आपके लाला मुंशीरामजी, गंडामलजी तथा कपूरचन्दजी नामक ३ पुत्र विद्यमान हैं। इनमें गंडामलजी लाला शिब्बूमलजी के नाम पर तथा कपूरचन्दजी मोघा में अपने मामा के नाम पर दत्तक गये हैं।
लाला मुंशीरामजी-आपका जन्म संवत् १९५२ में हुआ। आपने मेट्रिक तक शिक्षण पाया । सन् १९२१ से आपने देशकी सेवाओं में योग देना आरम्भ किया, तथा उस समय से आप लाहोर कांग्रेस के तमाम कार्मों में दिलेरी से हिस्सा लेते हैं। आप कई सालों तक लाहोर कांग्रेस के कोषाध्यक्ष व सूबा कांग्रेस के मेम्बर रहे हैं। सन् १९३० में सरकार ने बग़ावत फैलाने के आरोप पर दफा १२४ में आपको । साल की सख्त सजा दी, तथा बी. क्लास रिकमेंड की। सत्यागृह के समय आपने 1 हजार वालंटियर दिये थे। और २ सालों तक वर्द्धमान नामक पेपर भी चालू किय था। आप कई सालों तक पंजाब मरचेंट एसोशिएसन के मेम्बर रहे। इस समय आप लाहोर ग्राम वेभर एसोशिएसन के सेक्रेटरी, भछूतोद्धार कमेटी, स्वराज सभा तथा एस० एस० जैन सभा, की व्यवस्थापक कमेटी के मेम्बर हैं। इसी तरह श्री अमर जैन होस्टल लाहोर की लोकल कमेटी के मेम्बर हैं। आप विधवा विवाह के बढ़े हामी हैं । आपने बीसियों विधवाओं का सम्बन्ध जैनियों से करा दिया है। आपके यहां लाला शिब्बूमल जैन अनारकली के नाम से क्राकरी विजिनेत होता है। लाला गंडामलजी भी "शिब्बूमल गंडामल" के नाम से क्राकरी विजिनेस करते हैं।
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___ ओसवाल जाति का इतिहास
लाला काशीरामजी जैन, जम्मू ( काश्मीर )
(पेज नं० ६०५)
लाला मोहनलालजी पाटनी बी. ए. एल एल. बी. एडवोकेट
अमृतसर.
का मस्तकाम
लाला मस्तरामजी जैन एम. ए. एल एल. बी.,
अमृतसर.
लाला नेमदासजी जैन, बी. ए. अंबाला सिटी,
(पेज नं०६०१)
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पाटनी ... लाला मोहनलालर्जी जैन एडवोकेट, अमृतसर
आपका खानदान झुधियाना (पंजाब) का निवासी है। यहाँ इस खामदान के पूर्वज लाला गोपीचन्दजी, तिजारत करते थे ।मापके पंजाबरायजी तथा खुशीरामजी नामक २ पुत्र हुए । आप भी लुधियाना में तिजारत करते रहे । लामा अंजावरायजी के पुत्र लाला मोहनलालजी हैं।
. लाला मोहनलालजी- आपका जन्म संवत् १९५३ में हुआ। आपको होनहार समझकर २।३. साल को बाल्यावस्था में ही आपके मामा अमृतसर के मशहूर जौहरी लाला पन्नालालजी दूगड़ अमृतसर ले आये। तब से आप यहीं निवास करते हैं। आपने सन १९२३ में एल. एल. बी. की डिगरी हासिल की, तथा तब से भाप अमृतसर में प्रेक्टिस कर रहे हैं। आप श्वेताम्बर जैन समाज के मंदिर मार्गीय आम्नाय के अनुयायी हैं। भाप पंजाब प्रान्त की ओर से "आनन्दजी कल्याण जी" की पेढ़ी के मेम्बर हैं। पंजाब के मन्दिर मार्गीय समाज में आप गण्य मान्य व्यक्ति हैं। आपने सन् १९२० में श्री आत्मानंद जैन सभा पंजाब के अम्बालाअधिवेशके समय तथा १९३३ में होशियारपुर अधिवेशन के समय सभापति का आसन सुशोभित किया था । अमृतसर जैन मंदिर की व्यवस्था आपके जिम्मे है । तथा आप जैन वाचनालय के प्रेसिडेंट हैं। लाला मोहनलालजी एडवोकेट बड़े समझदार तथा विचारवान सजन हैं। आपके छोटे भाई. सोहनलालजी तथा मुनीलालजी लुधियाने में अपना घरू व्यापार करते हैं।
- लाला चीचूमलजी का खानदान, लुधियाना इस खानदान के लोग मंदिर आम्नाय को मानने वाले हैं । इस खानदान का मूलनिवास स्थान पीचा पाटन ( गुजरात ) का श्र। वहाँ से उठकर करीब १०० वर्ष पहले यह खानदान लुधियाने में आकर बसा। तभी से यह खानदान यहों निवास करता है। और इस खानदान वाले पाटन से आने के कारण पाटनी के नाम से आज भी मशहूर हैं।
- इस खानदान में सबसे पहले लाला चीचूमलजी हुए । लाला चीचूमलजी के लाला फतेचंदजी एवं गोपीमलजी नामक दो पुत्र हुए । लाला फतेचन्दजी के लाला लाजपतरायजी कुन्दनरायजी एवं लाला हुकमचन्दजी नामक तीन पुत्र दुए। इनमें से लाला लाजपतराय जी और कुन्दनरायजी का स्वर्गवास हो गया है। लाला लाजपतरायजी के मंगतरायजी और मंगतरायजी के हितकरणदासजी नामक पुत्र हैं। आप लोग इस समय यहाँ पर अलग स्वतंत्र व्यवसाय करते हैं।
____ लाला कुन्दनमलजी के कस्तूरीलालजी और करतूरीलालजी के लालचन्दजी नामक पुत्र हैं जो अपने काका लाला हुकुमचन्दजी के साथ व्यापार करते हैं। लाला हुकुमचन्दजी का जन्म संवत् १९९५ में हुआ। आपके अमरनाथजी, दीवानचन्दजी, ज्ञानचन्दजी एवं केशरदासजी नामक चार पुत्र हैं। आपकी फर्म पर दरी कम्मल वगैरह का थोक और खुदरा व्यापार होता है।
लाला उत्तमचंद बाबूराम पाटनी, जुगरावाँ • यह खानदान में कई पीढ़ियों से जुगरावाँ में पसारी का ब्यापार करता आ रहा है। लाला उत्तमचन्दजी ने इस दुकान के धन्धे और बाबरू को ज्यादा बढ़ाया। आप जैन प्रचारक सभा जुगरावाँ
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सवाल जाति का इतिहास
को सहायता देते रहते हैं । इसी तरह जैनेन्द्र गुरुकुल पंचकूला को बारी देने की ओर अच्छा लक्ष रखते हैं । यहाँ के जैन समाज में आप सयाने व्यक्ति हैं। आपने रूपचन्दजी महाराज की समाधि में शादीरामजी महाराज की एक समाधि बनवाई है । आपने बाबूरामजी तथा शंडूरामजी नामक दो सज्जनों को दत्तक लिया है। आप दोनों बंधु अपनी दुकानों का व्यापार संचालन बड़ी तत्परता से करते हैं। आप के यहां "उत्तमचन्द बाबूराम" के नाम से शहर में तथा झण्डूमल प्यारेलाल के नाम से मंडी में पसारी और बसाती का व्यापार होता है । लाला बाबूरामजी उत्साही तथा समाज सेवी सज्जन हैं । आप श्री जैन प्रचारक सभा के प्रेसिडेंट हैं ।
मालकस
लाला गण्डामलजी का खानदान, जण्डियाला गुरू ( पंजाब )
यह खानदान श्री जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी सम्प्रदाय को मानने वाला हैं। यह खानदान
सबसे पहले पटियाला में रहता था। फिर वहाँ से महाराजा रणजीतसिंहजी के समय में लाहौर में आकर जवाहरात का व्यापार करने लगा इस खानदान में लाला जेठमलजी के पुत्र हरगोपालजी और पौत्र अनोखामलजी हुए । अनोखामलजी के पुत्र हरभजमलजी और जयगोपाल जी लाहौर में गदर हो जाने के कारण अपने ननिहाल जण्डियाला गुरू चले आये । आप लोगों के समय में जण्डियाला गुरू की दुकान पर जमीदारी और साहुकारा तथा अमृतसर की दुकान पर जवाहरात का व्यापार होता था । लाला हरभजमल जी के रामसिंहजी, ज्वालामलजी तथा कर्मचन्दजी नामक तीन पुत्र हुए। लाला रामसिंहजी के मेलामलजी, मीतामलजी, कालामलजी और दितमलजी नामक चार पुत्र हुए। लाला मेलामलजी बड़े दयालु तथा व्यापार कुशल व्यक्ति थे । आपका संवत् १९५९ में ८३ साल की दय में स्वर्गवास हो गया है। आपके तीन पुत्र हुए जिनके नाम लाला आत्मारामजी, कोटूमलजी तथा सिब्बूमलजी थे । लाला आत्मारामजी का जन्म संबत् १९०७ में हुआ था । आप धर्मात्मा पुरुष थे । आपका स्वर्गवास संवत् १९७२ में हो गया । आपके लाला गण्डामलजी, गोपीमलजी तथा खजांचीमलजी नामक तीन पुत्र हुए ।
लाला गएडामलजी - आपका जन्म संवत् १९३६ का है । आप इस परिवार में बड़े नामी तथा प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं । आपने प्रयत्न करके सन् १९०९ में पंजाब स्थानकवासी जैन सभा की स्थापना करवाई | और आप इसके १८ सालों तक ऑनरेरी सेक्रेटरी रहे । लाहोर के अमर जैन होस्टल के स्थापित करवाने में भी आपका बहुत बड़ा प्रयत्न रहा है । आप इस समय जण्डियाला गौशाला के प्रेसिडेंट, वहाँ के म्युनिसिपल कमिश्नर, डिस्ट्रिक्ट हिन्दू सभा अमृतसर के तथा जैन विधवा सहायक सभा पंजाब के ऑनरेरी सेक्रेटरी हैं। सारे पंजाब के जैन समाज में आपका नाम प्रसिद्ध है । आपके पुत्र लाला मुनीलालजी पढ़ते हैं । लाला गण्डामलजी के छोटे भाई लाला गोपीमलजी का जन्म १९३९ में हुआ। आप इस खान दान का तमाम व्यापार देखते हैं। तथा इस समय सराफा कमेटी के प्रेसिडेंट हैं। चंदजी तथा मदनलालजी व्यापार सझालते हैं, तथा रोशनलालजी और मनोहरलालजी
आपके पुत्र दिलीप पढ़ते हैं। लाला
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नागोरी
खजांचीमलजी उत्साही तथा समझदार सज्जन हैं । भाप जैन मित्र मंडल के प्रेसीडेंट हैं आपके पुत्र विद्यासागरजी सेकंड ईयर पढ़ते हैं। शेष विद्याप्रकाशजी और विद्याभूषणजी भी पढ़ते हैं ।
नागोरी
सेठ ज्ञानमलजी नागोरी का परिवार, भीलवाड़ा
इस परिवार के पूर्व पुरुष पंवार राजपूत सोभाजी को जैनाचाय्यं ने जैनी बनाया। इन्होंने जालोर में एक मन्दिर निर्माण करवाया। इनके वंशज संवत् १६१५ में नागोर आये। यहां से संवत् १६८३ में इस परिवार के प्रसिद्ध व्यक्ति कमलसिंहजी महाराणा जगतसिंहजी के समय में पुर (मेवाड़) में आकर बसे । नागोर से आने के कारण ये लोग नागोरी कहलाये । कनमलसिंहजी के पश्चात् क्रमशः गौड़ीदासजी, भोगीदासजी, और अखैराजजी हुए। ये भीलवाड़ा आकर बसे । इनके बाद क्रमशः माणकचन्द जी जुमजी, केशोरामजी और खूबचन्दजी हुए । आप सब लोग व्यापार कुशल थे। आप लोगों ने फर्म की बहुत तरक्की की। यहाँ तक कि खूबचन्दजी के समय में इस फर्म की १८ शाखाएं हो गई थी। आपके पुत्र न होने से जवानमलजी को दत्तक लिया । आपकी नाबालिगी में भीलवाड़ा एवम् जावद की दुकान रख कर शेष सब बन्द करदी गईं। सेठ जवानमलजी को महाराणाजी की ओर से खातरी के कई पर वाने प्राप्त हुए थे । कहा जाता है कि आपका विवाह रीयां के सेठों के यहां हुआ, उस समय सवा लाख रुपया इस विवाह में खर्च हुआ था । बरात में कई मेवाड़ के प्रसिद्ध २ जागीरदार भी आये थे । रास्ते में महाराणाजी की ओर से पहरा चौकी का पुरा २ प्रबन्ध था। आपका स्वर्गवास होगया। आपके ज्ञानमलजी और नथमलजी नामक दो पुत्र हुए । सेठ ज्ञानमलजी धार्मिक व्यक्ति थे । आपका राज्य में भी अच्छा सम्मान था । यहाँ की पंच पंचायती एवम् जनता में आपका अच्छा मान था । आपके समय में भी फर्म उन्नति पर पहुँची । आपका स्वर्गवास हो गया है । इस समय इस परिवार में सेठ नथमलजी ही बड़े व्यक्ति हैं । आप भी योग्यता पूर्वक फर्म का संचालन कर रहे हैं । आप मिलनसार हैं । आपके पुत्र न होने से चंदनमल जी नागोरी के पुत्र शोभालालजी दत्तक आये हैं । इस समय आप लोग जुमजी केशोराम के नाम से व्यापार कर रहे हैं। भीलवाड़ा में यह फर्म बहुत प्रतिष्ठित मानी जाती है ।
सेठ ज्ञानमलजी के दोहित्र कु० मगनमलजी कंदकुदाल एम० आई० सी० एस० बचपन से ही इसी परिवार में रह रहे हैं। आप मिलनसार और उत्साही नवयुवक हैं। आजकल आप यहाँ काटन का व्यापार करते हैं। आपके पिताजी वगेरह सब लोग जनकपुरा मदसोर में रहते हैं। वहीं आपका निवास स्थान भी है। आपके दादाजी चम्पालालजी मंदसोर में एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे । आपने हजारों लाखों रुपयों की सम्पत्ति उपार्जित की थी ।
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गुगलिया सेठ गुलाबचन्द हीराचन्द गुगलिया, मद्रास इस परिवार के पुरुष श्वेताम्बर जैन मन्दिर मार्गीय आम्नाय के मानने वाले हैं। इस खानदान के पूर्व पुरुष सेठ जयसिंहजी देवाली (मारवाड़) में रहते थे। वहाँ से इनके पुत्र खूमाजी, चाणोद ( मारवाड़ ) आये। इनके वीरचन्दजी और भूरमलजी नामक २ पुत्र हुए।
सेठ वीरचन्दजी भरमलजी गुगलिया-आप दोनों भाइयों में पहले सेठ वीरचन्दनी सन १८७० में व्यवसाय के लिये अहमदाबाद गये। वहाँ से आप कर्नाटक की ओर गये। उधर २ साल रहकर आपने मद्रास में आकर पैरम्बूर वैरक्स में दुकान की। यहाँ आने पर आपने अपने छोटे भाई भूरमलजी को भी बुलालिया, तथा अपनी दुकान की एक ब्रांच और खोली। इन दोनों बंधुओं ने साहस पूर्वक व्यापार में सम्पत्ति उपार्जित कर अपने सम्मान को बढ़ाया। आपने अपने कई जाति भाइयों को सहायता देकर दुकानें करवाई। सेठ वीरचन्दजी सन् १९०५ में स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र माणकचन्दजी का चाणोद में छोटी वय में स्वर्गवास हो गया। सेठ वीरचन्दजी के पश्चात् सेठ भूरमलजी व्यापार समालते रहे । सन् १९९९ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके धनरूपमलजी, हीराचन्दजी तथा गुलाबचन्दजी नामक ३ पुत्र हुए। इनमें गुलाबचंदनी सेठ विरदीचंदजी के यहां दत्तक गये। तथा धनरूपमलजी का स्वर्गवास छोटी वय में हो गया।
इस समय इस परिवार में हीराचन्दजी तथा गुलाबचन्दजी गुगलिया विद्यमान हैं। आपका जन्म क्रमशः सन् १९०८ तथा १९१३ में हुआ। सन् १९२९ में इन दोनों भाइयों ने अपना कार्य प्रेम पूर्वल अलग २ कर लिया है। आप अपने पिताजी के स्वर्गवासी होने के समय बालक थे। अतः फर्म का काम वीरचन्दजी की धर्म पत्नी श्री मती जड़ाव बाई में बड़ी दक्षता के साथ सह्माला । आपका धर्म ध्यान में बड़ा लक्ष्य हैं। आपने शत्रुजय तीर्थ में एक टोंक पर छोटा मन्दिर बनवाया। गुंदौल गाँव में दादाबाड़ी का कलश, चढ़ाया। इसी प्रकार जीव दया, स्वामी वात्सल्य पाठशाला आदि शुभ कार्यों में सम्पत्ति लगाई। इस समय गुलाबचन्दजी, “वीरचन्द गुलाबचन्द" के नाम के तथा हीराचन्दजी, "भूरमल हीराचन्द" के नाम से व्यापार करते हैं। मद्रास के ओसवाल समाज में यह फर्म प्रतिष्ठित मानी जाती है।
सेठ गम्भीरमल वख्तावरमल गुगलिया, धामक इस परिवार का मूल निवास स्थान बलँदा (जोधपुर) हैं। आप स्थानकवासी आम्नाय के माननेवाले सजन हैं। जब सेठ बुधमलजी लुणावत ने धामक आकर अपनी स्थित को ठीक किया, तथा उन्होंने अपने जीजा (बहिन के पति) सेठ गम्भीरमलजी को भी व्यापार के लिए धामक बुलाया। सेठ गम्भीरमलजी के साथ उनके पुत्र वख्तावरमलजी भी धामक आये थे। इन दोनों पिता पुत्रों ने व्यापार में सम्पत्ति पैदा कर अपने सम्मान तथा प्रतिष्ठा की वृद्धि की। सेठ वख्तावरमलजी बड़े उदार पुरुष थे। बरार प्रान्त के गण्य मान्य ओसवाल सज्जनों में आपकी गणना थी। आपकी धर्म पत्नी ने बलूंदे में एक
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ गुलाबचंदजी गूगलिया ( गुलाबचंद हीराचंद ) मदास.
सेठ ज्ञानमलजी नागोरी भीलवाड़ा ( मेवाड़)
श्री हीराचंदजी गूगालिया ( गुलाबचंद हीराचंद ) मदास
श्री मगनमलजी भीलवाड़ा ( मेवाड़ )
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संखलेचा
श्वेताम्बर जैन मन्दिर बनवा कर उसकी व्यवस्था वहाँ के जैन समान के जिम्मे की । आपके नाम पर रिखबचन्दजी अजितगढ़ ( अजमेर) से दत्तक भाये । इनका भी अल्प वय में स्वर्गवास हो गया, अतः -इनके नाम पर धामक से केसरीचंदजी गुगलिया दत्तक लिये गये ।
केशरी चन्दजी गुगलिया - आपका जन्म संवत् १९४७ में हुआ। आप उदार प्रकृति के राजसी ठाट बाट वाले व्यक्ति हैं । आपने अपने दादीजी के ओसर के समय ३१ हजार रुपया जैन बोर्डिंग हाउस फंड में दिया, इसी प्रकार हजारों रुपये की सहायता आपने शुभ कार्यों में की। ओसवाल बोडिंग में भी आपने सहायता प्रदान की थी। बाबू सुगनचन्दमी लुणावत द्वारा स्थापित महावीर मंडल नामक संस्था से आप दिलचस्पी रखते हैं । आप सन् १९२१ तक धामन गाँव में आनरेरी मजिस्ट्रेट रहे ! आपको पहलवान गवैया आदि रखने का बड़ा शौक है । आपके बड़े पुत्र खेमचन्दजी का ९ साल की वय में स्वर्गवास हो गया । इस समय आपके मुकुन्दीलालजी तथा कुंजीलालजी नामक २ पुत्र हैं जो बालक हैं। आपके यहाँ कृषि का विशेष कार्य्यं होता है । बरार प्रान्त के प्रतिष्ठित कुटुम्बों में इस परिवार की गणना है ।
संखलेचा
काशीनाथजी वाले जोहरियों का खानदान, जयपुर
इस परिवार के पूर्वज श्री जौहरीमलजी संखलेचा जयपुर में जवाहरात तथा जागीरदारों के साथ. लेने-देन का व्यापार करते थे । आपके नाम पर देहली से जौहरी दयाचन्दजी दत्तक आये । आपके समय से इस कुटुम्ब के व्यवसाय की उन्नति आरम्भ हुई । आपके काशीनाथजी, मूलचन्दजी, जमनालालजी तथा छोटीलालजी नामक ४ पुत्र हुए ।
काशीनाथजी जौहरी - आपने इस खान के जवाहरात के व्यापार को बहुत चमकाया। आप पर जयपुर महाराजा सवाई माधोसिंहजी बहुत प्रसन्न थे। जवाहरात में आपकी दृष्टि बड़ो सूक्ष्म थी । आप ए० जी० जी०, रेजिडेंट, तथा अन्य उच्च पदाधिकारियों से जवाहरात का व्यवसाय किया करते थे । इसके अलावा भारतीय राजा रईस तथा जागीरदारों में आप जवाहरात बिक्री किया करते थे। इस समय भाप का खानदान “काशीनाथजी वाले जौहरी" के नाम मशहूर है। आरके भैरोंलाखनी, बेजूलालजी तथा फूलचन्दजी नामक ३ पुत्र हुए। इन तीनों सज्जनों का स्वर्गवास हो गया है। इस समय बेजूलालजी के पुत्र नौरतनमलजी हैं।
मूलचन्दजी जौहरी — आपके नाम पर आपके सब से छोटे भ्राता छोटीलालजी के तीसरे पुत्र चुनी कालजी दत्तक आये । चुनीलालजी का स्वर्गवास हो गया है। आपके पुत्र माणकचन्दजी स्था० नवयुवक मंडल के कोषाध्यक्ष हैं ।
जमनालालजी जौहरी - आप अपने बड़े भ्राता काशीनाथजी के पश्चात् उसी प्रकार फर्म का संचालित करते रहे । संवत् १९५३ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र महादेवलालजी तथा
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आसवाल जाति का इतिहास
चम्पालालजी जौहरी विद्यमान हैं। वर्तमान में जौहरी महादेवलालजी ही इस परिवार में सब से बड़े हैं। आपको दरबार में कुर्सी प्राप्त है। जौहरी चम्पालालजी के पुत्र उमरावमलजी तथा गुलाबचन्दजी हैं। इनमें गुलाबचन्दजी महादेवलालजी के नाम पर दत्तक गये हैं। श्री उमरावमलजी, समझदार तथा मिलनसार नवयुवक हैं। आप शांति जैन लायब्रेरी के मंत्री हैं। आपके पुत्र मिलाप वन्दजी हैं।
__ छोटीलालजी जौहरी-आपका स्वर्गवास हो गया है। आपके पुत्र मुन्नीलालजी तथा चुनीलालजी हुए। इनमें चुनीलालजी जौहरी मूलचन्दजी के नाम पर दत्तक गये। जौहरी मुन्नीलालजी स्थानीय म्युनिसिपैलिटी के मेम्बर, स्थानकवासी जैन सुबोध पाठशाला के ट्रेशर तथा जैन कन्या शाला के प्रेसिडेंट तथा ट्रेशरर हैं। आपके पुत्र रतनलालजी व्यवसाय में भाग लेते हैं।
यह खानदान जयपुर के प्रधान जौहरियों में माना जाता है। इस खानदान की फर्म को कई मायसरायों ने सार्टिफिकेट दिये है। कई भारतीय राजा रईसों के यहाँ आपका जवाहरात जाता है। न्यूयार्क लंदन आदि स्थानों पर भी आप जवाहरात भेजते हैं। इस फर्म को लन्दन, कलकत्ता जयपुर आदि प्रदर्शनियों से गोल्ड सिलवर मेडल तथा सार्टिफिकेट मिले हैं। जयपुर के ओसवाल समाज में यह परिवार नामी माना जाता है। यह परिवार स्थानकवासी सम्प्रदाय का अनुयायी है। वर्तमान में इस परिवार का "जौहरीमल दयाचन्द" के नाम से व्यापार होता है । आपकी एक जीनिंग फेक्टरी, कसरावद (इन्दौर) में है।
सेठ रिखबदास सवाईराम संखलेचा, खामगांव सेठ रिखबदासजी संखले चा-इस परिवार के पूर्वज रिखबदासजी संखलेचा अपने मूल निवास जोधपुर से व्यापार के लिये संवत् १९२१ में खामगांव आये । तथा आपने सेठ "श्रीराम शालिगराम" के यहाँ २५ सालों तक मुनीमात की। आपका जन्म संवत् १९०२ में हुआ था। इस दुकान पर नौकरी करते हुए आप बून कम्पनी की रुई की आढ़त तथा अपनी घरू आढ़त का व्यापार भी करते थे। इसमें आपने २३ लाख रुपयों की सम्पत्ति उपर्जित की। साथ ही आपने राठीजी के व्यापार की भी काफी वृद्धि की। इस समय उनकी ३० दुकानों की देखरेख व व्यवस्था आपके जिम्मे थी। आप बड़े रुतवेदार तथा वजनदार पुरुष माने जाते थे। संवत् १९९३ में राठी फर्म की ५२ दुकानों का बँटवारा आपही के हाथों से हुआ था। संवत् १९४० में मस्जिद के सामने बाजा बजने के सम्बन्ध में बखेड़ा खड़ा हुआ, उसमें आपने हिन्दू समाज का नेतृत्व किया, तथा उस समय की निश्चित हुई शर्ते इस समय तक पाली जाती हैं। संवत् १९३६ में पानी के बंदोवस्त के लिये तालाब बनवाने में तथा नल का कनेक्शन ठीक करवाने में आपने इमदाद दो । खामगाँव के काटन मार्केट, म्युनिसिपेलेटी आदि के स्थापनकर्ताओं में आपका नाम अग्रगण्य है। कहने का तात्पर्य यह कि भाप खामगांव के नामीगरामी व्यक्ति हो गये हैं।
सेठ रिखबदासजी के शांविदासजी तथा गोड़ीदासजी नामक २ पुत्र हुए। भाप दोनों सजनों का जन्म क्रमशः १९४२ तथा संवत् १९५७ में हुआ। सेठ शांतिदासजी खामगाँव सेवा समाज के केप्टन थे। इसी प्रकार माहेश्वरी महासभा के चतुर्थ वेशन भकोले के समय आप असिस्टेंट हेड केप्टन थे। आप मध्य प्रांत तथा बरार की ओसवाल सभा के हर कार्यों में उत्साह से भाग लेते हैं। आप बुलढाणा प्रान्त के
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पोसवाल जाति का इतिहास
स्वर्गीय सेठ रिखबदासजी संख ले चा, खामगाँव
श्री जवाहरमल जी लूणिया, अजमेर (परिचय पेज नं० ३३७)
श्री शान्तिदासजी संखलेचा, खामगांव
श्री गोड़ीदासजी संखलेचा, खामगांव
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बरड़िया
वजनदार पुरुष है। आपके यहाँ रुई, आढ़त का कार्य होता है। आपके छोटे बंधु गोडीदासजी भापके साथ व्यापार में सहयोग लेते हैं।
- सेठ रामचन्द्र चुन्नीलाल संखलेचा आर्वी ( बरार)
इस परिवार का आगमन लगभग १५० साल पहिले जेसलमेर से आर्वी हुआ, पहिले इस दुकान पर "हुकुमचंद रामचंद" के नाम से काम होता था, संखलेचा हुकुमचंदजी के पुत्र रामचंदजी तथा रामचन्द्रजी के पुत्र चुन्नीलालजी हुए । संखलेचा चुन्नीलालजी संवत् १९०४ में स्वर्गवासी हुए, आपके ३ पुत्र भगवानदासजी, राजमलजी तथा गोकुलदासजी हुए. इनमें से भगवानदासजी २५/३० साल पहिले गुजर गये, तथा राजमलजी संखलेचा अमोलकचंदजी के नाम पर दत्तक गये।
संखलेचा गोकुलदासजी का जन्म संवत १९५६ में हआ। भगवानदासजी के पुत्र सोभागमलजी का जन्म संवत् १९५५ में तथा विसनदासजी का १९५८ में हमा। आपके हार्थों से दुकान के व्यवसाय व उन्नति मिली है। स्थानीय श्वे. जैन मंदिर की व्यवस्था आप लोगों के जिम्मे हैं, आपकी फर्म “रामचन्द्र सुखीलाल" के नाम से रुई चांदी सोना तथा लेनदेन का काम काज करती है तथा आर्वी के व्यापारिक समाज में प्रतिष्ठित मानी जाती है । संखलेचा राजमलजी, "अमोलचन्द हीरालाल" के नाम से कार बार करते हैं।
केसरीमलजी संखलेचा, येवला भापका मूल निवास तीवरी (जोधपुर) है। देश से सेठ हरकचंदजी संखलेचा व्यापार के निमित्त येवले भाये तथा सेठ भीमराजजी दईचन्दजी की भागीदारी में कपड़े का व्यापार आरंभ किया । संवत् १९६३।६४ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके पुत्र केसरीमलजी तथा पूनमचंदजी विद्यमान हैं। आप बंधु सेठ भीमराजजी दईचन्दजी की बम्बई और येवला दुकान के भागीगार हैं। केसरीमलजी का जन्म १९५२ में हुआ। भाप सजन व्यक्ति हैं। तथा येवले के व्यापारिक समाज में प्रतिष्ठित हैं।
श्री लक्ष्मीलालजी सखलेचा, जावद आप जावद (मालवा) के एक प्रतिष्ठित परिवार के हैं। भापके पिताजी वहाँ के लक्षाधीश व्यापारी थे। श्री लक्ष्मीलालजी ज्योतिष शास्त्र के अच्छे ज्ञाता हैं। और आपके सामाजिक विचार भी। अच्छे हैं। ज्योतिष के सम्बन्ध में आपने कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित की हैं। इस समय आप बम्बई में दलाली तथा ज्योतिष दोनों कार्य करते हैं। आपके चांदमलजी तथा सोभागमलजी नामक २ पुत्र हैं, चांदमलजी अपनी घरू जमीदारी का काम सम्हाल्ते हैं । और सोभाग्यमलजी एफ० ए० में पढ़ते हैं। सोभाग्यमलजी प्रतिभाशाली युवक हैं।
बरडिया बरड़िया गौत्र की उत्पत्ति-पवार राजवंशीय राजपूतों से बरडिया ओसवालों की उत्पत्ति का पता चलता है। कहते हैं कि पंवार लाखनसी के पुत्र बेरसी को श्री उद्योतन सूरिजी ने उपदेश कर जैन
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प्रोसबाख आति का इतिहास
धर्म का ज्ञान कराया। बड़ के नीचे उपदेश देने से "बरदिया" नाम सम्बोधित हुआ। यही नाम आगे चल कर बरडिया गौत्र में परिवर्तित हुआ।
श्री राजमलजी बरड़िया का खानदान, जेसलमेर इस परिवार का मूल निवास स्थान जैसलमेर ही है। हम ऊपर बरड़िया बेरसी का उल्लेख कर चुके हैं। इनके कई पीढ़ियों बाद समराशाहजी हए। ये जैसलमेर के दीवान थे। इनके पुत्र मूलराजजी ने भी रियासत के दीवान पद पर कार्य किया। मूलराजजी की 11वीं पीढ़ी में भोजराजजी हुए, इनसे यह परिवार "भोजा मेहता" कहलाया। इनकी छठी पीढ़ी में मेहता सरूपसिंहजी हुए। इनके सरदारमलजी, जोरावरसिंहजी तथा उत्तमसिंहजी नामक ३ पुत्र हुए।
धनराजजी बरड़िया-बरड़िया सरदारमलजी के नाम पर बभूतसिंहजी दत्तक आये, तथा इनके पुत्र धनराजजी थे। धनराजजी जेसलमेर स्टेट के प्रतिभा सम्पन्न पुरुष हो गये हैं। आपके नाम पर आपके चाचा विशनसिंहजी के पुत्र केवलचन्दजी दत्तक आये। इनके सोभागमलजी तथा तेजमलजी नामक पुत्र हुए। बरड़िया तेजमलजी भी जेसलमेर के प्रतिष्ठित सज्जन हैं। आप इस समय स्टेट ट्रेझरर हैं।
__बरड़िया जोरावरसिंहजी का परिवार-आपके बभूतसिंहजी, सगतसिंहजी, विशनसिंहजी, जबरचन्दजी, तथा नथमलजी नामक ५ पुत्र हुए। इनमें बभूतसिंहजी सरदारमलजी के नाम पर दत्तक गये। सगतसिंहजी के हिम्मतरामजी, ज्ञानचन्दजी, हमीरमलजी, इन्द्रराजजी, बलराजजी नामक ५ पुत्र हुए। इनमें हिम्मतरामजी का स्वर्गवास हो गया। शेष बन्धु विद्यमान हैं । बरडिया हमीरमलजी उत्तमसिंहजी के पुत्र चन्दनमलजी के नाम पर दत्तक गये हैं। इसी तरह जवरचन्दजी के प्रपौत्र कुन्दनमल जी विद्यमान हैं। बरडिया जोरावरसिंहजी के सबसे छोटे पुत्र नथमलजी थे। इनके पूनमचन्दजी तथा रतनलालजी नामक पुत्र हुए। इस समय पूनमचन्दजी के पुत्र राजमलजी तथा रतनलालजी के पुत्र रामसिंहजी विद्यमान हैं।
राजमलजी बरड़िया-आपका जन्म संवत् १९३७ में हुआ। आप जैसलमेर के ओसवाल समान में समझदार तथा वजनदार पुरुष हैं। यहाँ के करोड़ों रुपयों की लागत के जैन मंन्दिरों की व्यवस्था का भार श्री संघ ने आपके जिम्मे का रक्खा है। आप श्वेताम्बर संघ कार्यालय के प्रेसिडेंट हैं। इस समय आप जेसलमेर स्टेट में कस्टम सुपरिन्टेन्डेन्ट हैं । इसके अलावा आप अपना घरु व्यापार भी करते हैं। आपके पुत्र फतेसिंहजी हैं।
यह परिवार ५६ पीढ़ियों से जेसलमेर स्टेट की सेवा करता आ रहा है। रियासत को ओर से दी गई जागीरी का पट्टा इस परिवार वालों के हाथ से लिखा जाता है। रियासत के कस्टम, फोज बख्शी, खजाना, भंडार आदि मुख्य सीगे हमेशा से इस परिवार के जिम्मे रहते आये हैं। तथा जेसलमेर महारावल जो से इस परिवार को समय २ पर रुक्के तथा पर वाने मिलते रहे हैं।
बरड़िया गनेशजी का परिवार उदयपुर करीब १०० वर्ष पूर्व बरड़िया गनेशजी करेड़ा पार्श्वनाथ से उदयपुर आये। उनके मगनमल जी, जालमचंदजी. साहबलालजी और फूल बन्दजी नामक चार पुत्र हुए। इनमें मगनमलजी बड़े प्रतिभा
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ राजमलजी बरडिया, जैसलमेर.
सेठ मूलचंदजी बरडिया, सरदार शहर.
श्री माणकलालजी बरडिया बी. ए. एलएल. बी., उदयपुर.
सेठ फूलचंदजी बनवट ( प्रतापमल फूलचंद ) आस्टा (भापाल)
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बरड़िया सम्पन्न व्यक्ति थे। आप चारों भाइयों का परिवार अलग २ होगया। सेठ मगनमलजी के पुत्र सेठ चांदमलजी और सेठ प्यारचन्दजी इस समय अलीगढ़ में अपना २ व्यापार करते हैं।
सेठ जालमचन्दजी हिसाब के अच्छे जानकार थे। आपके चम्पालालजी और कहैयालालजी नामक दो पुत्र हैं। लेठ चम्पालोलजी करीब ३५ वर्षों से उदयपुर स्टेट में रेसिडेन्सी सर्जन की आफिस में हेड क्लर्क हैं। आपको यहां आने वाले कई अंग्रेज सर्जनों से अच्छे २ सर्टिफिकेट प्राप्त हुए हैं। आपके पुत्र माणकलालजी इस परिवार में सर्व प्रथम ग्रेज्युएट हुए हैं। आप मिलनसार और योग्य सज्जन हैं। आप इन्दौर स्टेट में मनासा, खरगोन, सनावद, जीरापुर, सेंधवा, हतोद आदि कई स्थानों और मजिस्ट्रेट रह चुके हैं। इस समय आप गरोठ में फर्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट हैं। आप फुटबाल, क्रिकेट वगैरह खेलों के अच्छे खिलाड़ी हैं। आपके हीरालालजी और जवाहरलालजी नामक दो पुत्र हैं। सेठ कन्हैयालाल जी उदयपुर ही में व्यापार करते हैं। आपके रतनलालजी, परमेश्वरीलालजी और मनोहरलालजी नामक नामक तीन पुत्र हैं। रतनलालजी शिक्षित और मिलनसार व्यक्ति हैं। भापका अध्ययन बी. ए. तक हुआ है। आप आजकल उदयपुर की मशहूर संस्था विद्याभवन में मास्टर हैं। - सेठ साहबलालजी के पुत्र कालूलालजी तथा फूलचन्दजी के पुत्र मोतीलालजी इस समय उदयपुर में विद्यमान हैं। तथा वहीं अपना व्यापार करते हैं।
सेठ जुहारमल मूलचंद बरडिया, सरदारशहर इस परिवार के लोग बहुत समय पहले सिरसा होते हुए अबोहर आये । सिरसा में सेठ गंगारामजी हुए। आप सिरसा ही में रहकर व्यापार करते रहे । आपके पुत्र छोगमलजी और गणेशमलजी अबोहर आये एवम् वहाँ कपड़े का ब्यागर प्रारम्भ किया। तथा इसमें अच्छी उन्नति की सेठ छोगमलजी के जुहारमलजी एवम् सेठ जेठमलजी नामक दो पुत्र हुए। प्रथम जुहारमलजी वहाँ से सरदारशहर आकर बस गये और जेठमलजी वहीं रहकर अपना व्यवसाय करने लगे। आपके सुगनचंदजी, जयचन्दलालजी और जगन्नाथजी नामक पुत्र हैं।
सेठ जुहारमलजी जब कि अबोहर रहते थे, उसी समय कलकत्ता व्यापार के लिये चले गये थे। कलकत्ता आकर आपने पहले भैरोंदानजी चुन्नीलालजी सरदारशहर वालों के यहां काम करना आरम्भ किया। पश्चात् आप अपनी बुद्धिमानी से इस फर्म में साझीदार हो गये। कुछ वर्षों बाद आपने इस फर्म से भी अपना साझा अलग कर लिया। एवम् रघुनाथदास शिवलाल के यहां ५ हजार रुपया सालाना पर मुनीमी का काम करना प्रारम्भ किया। इस समय आप वयोवृद्ध होने से सरदारशहर में शांतिलाभ कर रहे हैं। आपके पुत्र मूलचन्दजी, सोहनलालजी एवम् सूरजमलजी-अपना स्वतन्त्र व्यापार करते हैं।
बाबू मूलचन्दजी मिलनसार व्यक्ति हैं। आजकल १५ वर्षों से आप जूट का वायदे का सौदा करते हैं। इस ओर आपकी अच्छी गति है। आपकी गिद्दी १६ वोना फिल्ड लेन में हैं। सरजमलजी अपना स्वतन्त्र व्यापार करते हैं। सोहनलालजी अपने चाचा हीरालालजी के साझे में "छोटूलाल सोहनलाल" के नाम से पारख कोठी में धुले कपड़े तथा गगेश भगत के कटले में धोती का व्यापार करते हैं।
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मौसवाल जाति का इतिहास
बा० मूलचन्दजी के श्रीचन्दजी, सुमेरमलजी, चन्दनमलजी, कन्हैयालाल जी एवम् मंगलचन्दजी और बा० सोहनलालजी के माणकचन्दजी और रतनलालजी नामक पुत्र हैं। आप तेरापन्थी संप्रदाय के हैं। श्री भैरोंलालजी बरड़िया बी० ए० एल० एल० बी० नरसिंहपुर ( सी० पी० )
इस परिवार के पूर्वज बरडिया परभचन्दजी आपने मूल निवासस्थान फलौदी ( जोधपुर स्टेट) से व्यापार के लिये नरसिंहपुर आये। यहाँ आकर आप रीयाँवाले सेठों की दुकान पर मुनीम हुए। आप संवत् १९५५ में स्वर्गवासी हो गये। आपके पुत्र दमरूलालजी करीब १५ सालों तक रीयाँवाले सेठों का दुकान पर प्रधान मुनीम रहे । आपने गोटे गाँव में मानमल मिलापचन्द तथा परभचन्द नंदराम के नाम से दुकान खोली । सन् १९२७ में आप स्वर्गवासी हो गये। आपके पुत्र भैरोंलालजी तथा मिश्रीलालजी हैं ।
भैरोलालजी बरड़िया-आपका जन्म संवत् १९५४ में हुआ। आपने सन् १९२३ में बी० ए० तथा १९२६ में एल. एल. बी. की डिगरी प्राप्त की। सन् १९२७ से आप नरसिंहपुर से प्रेक्टिस करते हैं। यवतमाल के ओसवाल सम्मेलन में आप मध्यप्रान्तीय ओसवाल महा सभा के सेक्रेटरी नियुक्त हुए थे। आपको लिखन तथा भाषण देने का अच्छा अभ्यास है। आपने एक "हिन्दी ग्रन्थ माला" भी प्रकाशित की थी। आपके छोटे भाई मिश्रीलालजी ने मेट्रिक तक अध्ययन किया है। श्री भैरोलालजी बरडियाके पुत्र पूनमचन्दजी तथा हुकुमचन्दजी पढ़ते हैं तथा लक्ष्मीचन्दजी और कुशलचन्दजी छोटे हैं।
बनावट सेठ प्रतापमल फूलचन्द बनवट, आस्टा (भोपाल) यह कुटुम्ब जोधपुर स्टेट के रास ठिकाना का निवासी है, आप श्वेताम्बर जैन समाज के मंदिर मार्गीय आन्नाय के माननेवाले हैं। देश से लगभग संवत् १८५१ में सेठ विनेचन्दजी बनवट के पुत्र श्री नारायणदासजी, चन्द्रभानजी तथा नंदरामजी तीन भ्राता भोपाल स्टेट के मगरदा नामक स्थान में आये तथा वहाँ संवत् १८८१ में "नारायणदास नंदराम" के नाम से दुकान स्थापित की गई । सेठ नारायणदासजी के पुत्र चुन्नीलालजी तथा नंदरामजी के पुत्र छोगमलजी हुए। इन भ्राताओं में सेठ चुन्नीलालजी ने अफीम तथा लेन-देन के व्यापार में इस दकान के व्यापार तथा कुटुम्ब के सम्मान को विशेष बढ़ाया। इन दोनों सज्जनों का स्वर्गवास क्रमशः संवत् १९४६ तथा संवत् १९५८ में हुआ' सेठ चुन्नीलालजी के पुत्र प्रतापमलजी उनकी मौजूदगी में ही स्वर्गवासी हो गये थे। सेठ प्रतापमलजी बनवट के नाम पर बीजलपुर से फूलचन्दजी बनवट दत्तक आये तथा छोगमलजी के यहाँ सिरेमलजी, बड़ (खानदेश) से दत्तक आये। आप दोनों भाई संवत् १९६२ में अलग २ हो गये।
सेठ फूलचन्दजी बनवट-आपका जन्म संवत् १९४६ में हुआ। आप संवत् १९६६ में मगरदे से आस्टा आये। आप ही की हिम्मत के बल पर दिगम्बर जैन प्रतिमा का जुलूस आस्टे में निकालमा भारम्भ
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बढेर तथा मड़गातया
हुआ। इस सम्बन्ध में आपको आस्टे के दिगम्बर जैन समाज ने चाँदीकी हिन्बी, सिरोपाव तथा मान पत्र देकर सम्मानित किया। आपका आस्टे की जनता में तथा भोपाल राज्य में अच्छा सम्मान है, आपको बाला बाला नबाब साहिब से मिलने की इजाजत प्राप्त है। तथा आप आस्टे के ऑनरेरी मजिस्ट्रेट हैं। वर्तमान में आपके यहाँ "प्रतापमल फूलचन्द" बनवट के नाम से साहुकारी तथा भाखामी लेन-देन होता है।
सेठ कन्हैयालाल चुन्नीलाल बढ़ेर, देहली यह खानदान करीब सात आठ पुश्त से देहली में ही रहता है। आप ओसवाल जाति के बढेर गौत्रीय सज्जन हैं। आर स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय के मानने वाले हैं। इस खानदान में लाला आसानन्दजी के पुत्र लाला छजमलजी और जमरूजी के कीरालालजी नामक पुत्र हुए। आपका जन्म संवत् १८४२ के करीब हुआ। और संवत् १९५० के ज्येष्ठ मास में आपका स्वर्ग वास हुआ। आप बड़े धार्मिक और परोपकारी पुरुष थे सामायिक और प्रतिक्रमण का आपको बड़ा दृढ़ निश्चय था। भापके पुत्र लाला कन्हैयालालजी इस खानदान में बड़े नामी और प्रतापी पुरुष हुए। मापने इस खानदान की सम्पत्ति और इजत को बहुत बड़ाया। आप खास कर नीलाम का व्यापार करते थे। आपका स्वर्गवास १९४७ में हुआ। आपके दो पुत्र हुए जिनके नाम क्रम से लाला मांगीलालजी और लाला चुन्नीलालजी हैं। लाला मांगीलालजी का जन्म संवत् १९३७ का है। आपके तीन पुत्र हुए जिनके नाम श्री चम्पालालजी, मनालालजी और ऋषभचन्दजी हैं। इनमें से चम्पालालजी का केवल वर्ष की कम उम्र में ही देहान्त होगया । लाला चुनीलालजी का जन्म संवत् १९४६ का है। आप बड़े सज्जन और योग्य पुरुष हैं। आपके इस समय दो पुत्र हैं जिनके नाम जवाहरलालजी और मिलापचंद जी हैं। देहली के ओसवाल समाज में यह खानदान बड़ा धार्मिक और प्रतिष्ठित माना जाता है।
मड़गतिया
भड़गतिया खानदान, अजमेर इस परिवार का मूल निवास स्थान मेड़ता है। इस खानदान के पूर्वज भदगतिया सूरजमलजी तथा उनके पुत्र वाघमलजी मेड़ते के समृद्धि शाली साहुकार माने जाते थे। आपके यहाँ "सूरजमल बाधमल" के नाम से व्यापार होता था । सेठ बाघमलजी के पुत्र फतेमलजी हुए।
सेठ फतेमलजी भड़गतिया-आप संवत् १८६५-७० के मध्य में अजमेर आये। आप बढ़े बहादुर तबियत तथा राजसी ठाठ-बाट वाले पुरुष थे। मापने अजमेर में बैंकिंग व्यापार चालू किया। आपकी प्रथम पत्नो से कल्याणमलजी तथा द्वितीय पनी से सुगनमलजी भइगतियाका जन्म हमा।
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आसवाल जाति का इतिहास
संवत् १९२८ में आप अजमेर से वापस मेड़ते चले गये। आपके बड़े पुत्र कल्याणमलजी का परिवार अजमेर में तथा सगनमलजी का परिवार मेडते में निवास करता है।
मड़गतिया कल्याणमलजी-आपने अपने व्यापार और मकान, जायदाद आदि स्थाई सम्पत्ति को बहुत बढ़ाया । संवत् १९५७ में भाप स्वर्गवासी हए । आपके कस्तूरमलजी तथा जावंतराजजी नामक दो पुत्र हुए। इन बन्धुओं ने अपने पितामह सेठ फतेमलजी द्वारा बनाई गई दादाजीको छत्री में एक लाख रुपये व्यय करके १९७१ में प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई । आप दोनों बन्धुओं का लाखों रुपयों का लेनदेन मारवाड़ के जागीरदारों में रहा करता था। आप अजमेर के प्रधान, प्रतिभाशाली साहकारों में माने जाते थे। संवत् १९७३ में दोनों भाइयों का व्यापार अलग अलग हुआ। भड़गतिया कस्तूरमलजी विद्यमान हैं। आपने लाखों रुपयों की सम्पत्ति मौज, शौक और आनन्द उल्लास में खरच की। आपके कोई सन्तान नहीं है। सेठ जावन्तराजजी का स्वर्गवास सम्बत् १९७६ में हुआ। आपके पुत्र उदयमलजी का जन्म सन् १९९१ में हुआ। आप प्रसन्नचित्त युवक हैं आपके यहाँ कल्याणमल जावंतराज के नाम से जोधपुर में तथा “बावमल उदयमल" के नाम से अजमेर में बैकिंग तथा जायदाद के किराये का काम होता है।
भद्रगति या सुगनमलजी-आपका परिवार मेड़ते में निवास करता है। तथा वहाँ के ओसवाल माज म बहुत प्रातष्टित माना जाता है । आपका स्वर्गवास हो गया है। आपके तीन पुत्र हैं। जिनमें धनपतमलजी तथा आनन्दमलजी बिड़ला मिल गवालियर में सर्विस करते हैं तथा चन्दनमलजी मेड़ते में निवास करते हैं।
सांखला सांखला गौत्र की उत्पत्ति-कहा जाता है कि सिद्धपुर पाटन के राजा सिद्धराज जयसिंह के विश्वास पात्र सेवक जगदेवजी के सूरजी, संखजी, सांवलजी, तथा सामदेवजी आदि ७ पुत्र थे। जयदेव जी, बड़े बहादुर पुरुष हुए। इनको श्री हेमसूरिजी ने संवत् ११७५ में जैन धर्म की दीक्षा दी । इस प्रकार संखजी जैन धर्म से दीक्षित हुए। इनकी सन्ताने सांखला कहलाई।
सेठ सागरमल गिरधारीलाल सांखला, बंगलोर
इस परिवार का मूल निवास्थान मोहर्ग (जोधपुरस्टेट ) है वहाँ से लगभग ६५ साल पहले सेठ गिरधारीलालजी सांखला व्यापार के लिये बंगलोर आये । आरम्भ में आपने 10 सालों तक मुनीमात की। पश्चात मिलटरी को नाणा. सप्लाय करने के लिये बैंकिंग व्यापार आरम्भ किया। तथा "सागरमल गिरधारीलाल" के नाम से फर्म स्थापित की। इसके १० साल पश्चात् आपने सिंकराबाद (दक्षिण) में तथा इसके भी साल पश्चात् आपने नीलगिरी में अपनी दुकानें खोली। इन सब स्थानों पर यह फर्म ब्रिटिश-छावनी के साथ बैंकिंग विजिनेस करती है। आपके पुत्र श्रीयुत अनराजजी सांखला बड़े बुद्धिमान उदार तथा व्यापार कुशल सज्जन हैं।
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हिंगड़ इस कुटुम्ब की ओर से व्यावर में श्री गिरधारीलाल सांखला बोटिंग हाउस स्थापित है। जिसमें ६० विद्यार्थी निवास करते हैं । मोहर्रा में संवत् १९४६ से आपकी ओर से चिढ़ी चुगा का सदावृत जारीहै । सेठ अनराजजी के पुत्र केशरीमलजी, लालचन्दजी तथा स्तनलालजी हैं। इनमें केशरोमलजी फर्म के कारबार में भाग लेते हैं। यह फर्म सिकंदराबाद, बंगलोर तथा नीलगिरी के व्यापारिक समाज में बहुत प्रतिष्ठित मानीजाती है । इस खानदान के मेम्बर धार्मिक तथा परोपकार के कार्यों में अच्छी समत्ति व्यय करते रहते हैं। मारवाड़ में भी यह खानदान नामी माना जाता है । यह परिवार श्वेताम्बर जैन स्थानकवासी आम्नाय का मानने वाला है।
। सेठ लछमणदास शिवलाल, परभणी
इस खानदान के मालिकों का मूल निवास स्थान ताजौली (जोधपुर-स्टेट) का है। अप जैन तेरहपन्थी आम्नाय के मानने वाले सज्जन हैं। इस खानदान में सौ वर्ष पहले सेठ लक्ष्मणदासजी सांकला साढ़े गाँव (निजाम) आये। यहाँ भाकर आपने लेन देन और खेती बाड़ी का काम प्रारम्भ किया। तदनन्तर आपने अपनी एक और फर्म परभणी में स्थापित की, जिस पर बैकिङ्ग तथा कपास वगैरह का व्यापार प्रारम्भ किया। सेठ लक्ष्मणदासजी का संवत् १९२७ में स्वर्गवास हुआ । आपके पश्चात् भापके पुत्र सेठ शिवलालजी ने फर्म के काम को सम्हाला। भापके हाथ से इस फर्म के काम को बहुत तरक्की मिली। आप परभणी में प्रतिष्ठा सम्पन्न व्यक्ति माने जाते थे। आपका संवत् १९७६ में स्वर्गवास होगया। आपके नाम पर हेमराजजी साफला दत्तक पाये।
सेठ हेमराजजी सांकला-आप बड़े योग्य और सज्जन पुरुष हैं। आपका जन्म संवत १९५६ में हुआ। भापकी ओर से मन्दिरों, तीर्थ यात्राओं तथा परोपकार में बहुत सा धन खर्च होता रहता है। आपके इस समय एक पुत्र है जिनका नाम कुंदनमलजी है। आपने परभणी के पाश्र्वनाथ जी के मन्दिर में बहुत रकम सहायतार्थ प्रदान की थी। आपकी फर्म परभणी के व्यापारिक समाज में प्रतिष्टित मानी जाती है।
हिंगड़ सेठ केशरीमन कुन्दनमल हिंगड़, कलकत्ता इस परिवार के मालिकों का मूल निवास स्थान घागेराव (गोड़वाद ) का है। वहाँ से करोव ५० वर्ष पूर्व इस परिवार के पुरुष चन्द्रभानजी नाडोल (गोड़वाद) में आकर बसे। तभी से यह परिवार नाडोल में ही निवास करता है। आप श्वेताम्बर जैन मंदिर आन्नाय को मानने वाले सज्जन हैं। सेठ चन्द्रभानजी के छः पुत्र हुए जिनके नाम क्रमशः सेठ लखमीचंदजी, रिखबदासजी, गुलाबचंदजी, सिरदारमलजी पृथ्वीराजजी तथा राजमलजी हैं।
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ लखमीचंदजी नाडोल में ही राज का काम करते हैं। आप इस ठिकाने के कामदार हैं। सेठ गुलाबचंदजी और सिरदारमलजी का स्वर्गवास हो गया है। आप लोग भी जब तक रहे तब तक बड़ी बुद्धिमानी से फर्म का कारवार चलाते थे । सेठ रिखबदासजी बड़े प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं। रानी स्टेशन पर आपके यह रिखबदास सिरदरमलजी के नाम से अनाज, किराना, कमीशन आदि का व्यवसाय होता है । इसके पश्चात आपने तथा आपके परिवार वालों ने मिलकर कलकत्ता में भी एक शाखा खोली जिसपर भी उपरोक्त नाम पड़ता है। इस फर्म पर विदेश से कपड़े का डायरेक्टर इम्पोर्ट बिजिनेस होता है। इसके बाद आपने एक स्वदेशी जूट मिल नामक एक जूट खोला तथा एक छाते की फेक्टरी खोली । वर्त्तमान में आपके कलकत्ता आफिस से मद्रास, कोलम्बो, कोचीन, सीलोन, बम्बई वगैरह स्थानों पर लार्जस्केल में किराने का एक्सपोर्ट होता है। इसके अतिरिक्त गव्हर्नमेंट फारेस्ट डिपार्टमेंट तथा रक्षित राज्यों से आप हाथीदांत तथा गेडे के सींगों को कन्ट्राक्ट से खरीदते हैं। तथा बाहर पंजाब, मुलतान, राजपूताना वगैरह स्थानों पर अपना माल भेजते हैं। इस फर्म की एक शाखा नाडोल में सिरदारमल फौजमल के नाम से है । इस फर्म के कार्य्यं को संचलित करने में सेठ रिखबदासजी, पृथ्वीराजजी, राजमलजी, कुन्दनमल जी, दानमलजी, फतेराजजी, अमरचंदजी, भागचंदजी, सिरेमलजी, अजयराजजी, केशरीमलजी और पुखराज बहुत हाथ है। आप सब लोग व्यापार कुशल सज्जन हैं। वर्तमान में कलकत्ता दुकान का कार्य्यं प्रधान तौर से बाबू केशरीमलजी और पुखराजजी देखते हैं । आप दोनों भाइयों को मशीनरी विभाग का अच्छा ज्ञान है । इस परिवार के व्यक्तियों का सार्वजनिक कामों की ओर भी बहुत ध्यान है । सेठ रखवदासजी ने बरकाणा पार्श्वनाथ बोडिंग के लिये लगभग २ लाख रुपये एकत्रित करवाये ।
पटावरी
सेठ शोभाचन्दजी पटावरी का परिवार, भादरा
इस परिवार के लोग भादरा के निवासी हैं। इस परिवार में सेठ चैनरूपजी बड़े बुद्धिमान और प्रसिद्ध व्यक्ति हुए । आप तत्कालीन समय में ठाकुर साहब भादरा के कामदार रहे। इसके बाद ऐसा कहा जाता है कि जब भादरा खालसे हो गया तब आप बीकानेर दरवार की ओर से वहाँ का काम काज देखने लगे । आपके पुत्र जीतमलजी तथा पौत्र हीरालालजी भी वहीं राज में काम करते रहे। सेठ हीरालालजी के शोभाचन्दजी, चतुरभुजजी, लुनकरनजी प्रतापमलजी और छोटेलालजी नामक पांच पुत्र हैं ।
सेठ शोभाचन्दजी पटावरी अपने जीवन में बड़े क्रान्तिकारी व्यापारी रहे। प्रारम्भ में आपने कई स्थानों पर गुमास्तागिरी की, फिर पाट की दलाली का काम किया। इसके बाद जब कि कलकत्ते में पाट का बड़ा कायम हुआ उस समय आपभी इसमें शामिल हो गये । आप में उत्साह है, साहस है और व्यापार करने की पूरी २ क्षमता भी है। अतएव आप शीघ्र ही इस व्यापार में बड़े नामांकित व्यक्ति हो गये । आपने अपने हाथों से वायदे के सौदों में लाखों रुपये कमाये और खोये । आपने अपने हाथों से पाद का
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श्री श्रीमान
यादा स्थापित किया कई बार आपस में व्यापारियों की बाजी में आप साहसपूर्वक लदे रहे एक बड़ी पूर्व उसमें विजय पाई वायदे के व्यापार से आपका अनुभव बहुत बढ़ा चढ़ा है। इस समय आप ईस्ट इंडिया जूट एसोसिएशन के डायरेक्टर हैं। जूट के वायदे के उपवसाय में आप इस समय प्रभाव व्यक्ति माने जाते हैं। आपके भाई भी आपको इस व्यवसाय में सहयोग प्रदान करते हैं। आप श्वेताम्बर जैन तेरापंथी संप्रदाय को मानने वाले हैं। आपका भफ़िस नं. ४ सेनागो स्ट्रीट कलकत्ता में है।
बम्बोली
सेठ सोभाचन्द माणकचन्द बम्बोली, सादड़ी
इस खानदान वाले प्रथम उदयपुर में रहते थे। इस वंश में पीथाजी हुए जो सादड़ी में भाकर रहने लगे । पोथानी के सबजी नामक पुत्र हुए। सबजी के सोभाचन्दजी तथा माणकचन्दजी नामक दो पुत्र हुए। सोभाचन्दजी संवत् १९३८ में स्वर्गवासी हुए । सोभाचन्दजी के पुत्र नवलचन्दजी हुए । तथा नवलचन्दजी के केसूरामजी, सालबन्दजी संतोष वग्गजी रूपचन्दनी तथा मेघराजजी नामक ५ पुत्र हुए। इनमें से सांकलचन्दजी को माणकचन्दजी के नाम पर दत्तक दिया गया । इस समय इन आताओं की दो दुकाने पूना में बैकिंग, तथा सराफी काम करतो है। सांकलचन्दजी तथा संतोषचन्दजी दोनों प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। संवत् १९६७ में संतोषचन्दजी का स्वर्गवास हुआ ।
बम्बोली के सुरामजी के पुत्र गुलाबचन्दजी थे। इनके जसराजजी, तेजमकजी, चन्दनमलजी, हस्तीमलजी तथा देवराजजी नामक पाँच पुत्र विद्यमान है। इनमें से तेजमलजी को सांकलचन्दजी के पुत्र पृथ्वीराजजी के नाम पर दतक दिया है। बम्बोली संतोषचन्दजी के मयाचन्दजी, खुबीलालजी तथा बालचंद जी नामक तीन पुत्र विद्यमान है। जिनमें चुनीलालजी, रूपचन्दजी के नाम पर तथा बालचन्दजी, मेघराजजी के नाम पर दसक गये हैं ।
बम्बोली मयाचन्दजी का जन्म संवत् १९४७ में हुआ। आप स्थानीय शुभ चिंतक जैन समाज नामक संस्था के प्रेसिडेण्ट तथा वरकाणा विद्यालय की मैंमेजिंग कमेटी के मेम्बर हैं। सादड़ी के विद्यालय में इस परिवार ने ६०००) छः हजार रुपये दिये हैं। इसी प्रकार सार्वजनिक व धार्मिक कार्यों में आप सहायताएँ देते रहते हैं ।
श्री श्रीमाल
सेठ जेवन्दजी हिम्मतमलजी श्रीश्रीमाल, सिरोही
सेठ जेचन्दली सिरोही के प्रतिष्ठित व्यापारी थे। इनके हिम्मतमब्जी, फोजमलजी और जवानमजी नामक ३ पुत्र हुए। इनको प्रतिष्ठित व्यापारी समझकर महाराव केसरीसिंहजी ने संवत् १९४० की चेतवदी ११ के दिन अपनी स्टेट ट्रेसरी का ट्रेलर बनाया। इस स्टेट बैंकर शिप का काम ५० सालों तक
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मोसवाल जाति का इतिहास
यह परिवार करता रहा। ता० ॥१०॥३२ से स्टेट ने अपनी ट्रेशरी खोल कर यह काम इनकी फर्म से ले लिया। इन पचास सालों में स्टेट का तमाम खजाना इनकी फर्म पर आता रहा, तथा इनके द्वारा सुविधा नुसार हर एक डिपार्टमेंट में पहुँचाया जाता रहा । स्टेट की मीटिंगों में दीवान और रेवन्यू कमिश्नर के पश्चात् तीसरी चेयर इनकी लगती रही। जेठ हिम्मतमलजी प्रतिष्ठा सम्पन्न व्यापारी हैं,तथा स्थानीय पंच पंचायती में अग्रगण्य व्यक्ति माने जाते हैं । धार्मिक और सामाजिक कामों में भी आपने अच्छा व्यय किया है। सिरोही स्टेट में आपकी बड़ी इज्जत है। आपकी वफादारी और इमानदारी की कद्र कर स्टेट हर एक विवाह शादी आदि उत्सवों पर सिरोपाव प्रदान करती है । आपके छोटे भ्राता जवानमलजी विद्यमान हैं तथा फोजमलजी का अंतकाल १९७६ में हो गया है। सेठ हिम्मतमलजी के पुत्र इन्द्रचन्द्रजी हैं। भाप श्रीश्रीमाल-सेठिया बोहरा गौत्र के सज्जन हैं।
सेठ चुनीलाल रामचन्द्र सबदरा, मांजरोद (खानदेश )
इस परिवार का निवास आसरडाई ( जैतारण के पास ) मारवाड़ है। आप लोग स्थानकवासी आम्नाय के मानेवाले सज्जन हैं । इस परिवार के पूर्वज सेठ रायमलजी के पुत्र जीताजी तथा सरदारमलजी हुए । इन बंधुओं में देश से व्यापार के लिये लगभग ८० साल पहिले सेठ सरदारमलजी, खानदेश के मांजरोद नामक स्थान में आये । तथा मामूली हालत में यहाँ धंधा रू किया । आपके बड़े भ्राता सबदरा जीताजी के पुत्र रामचन्द्रजी हुए, आपने आसामी लेनदेन शुरू करके अपने व्यापार की नींव जमाई । संवत् १९५३ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके नाम पर आसरडाई से सेठ चुनीलालजी दत्तक आये।
चुन्नीलालजी सबदरा-आपका जन्म संवत् १९३२ में हुआ। १२ साल की वय में आप सेठ रामचन्द्रजी के नाम पर आये। आपने इस खानदान के व्यापार तथा सम्मान को बढ़ाया। खानदेश के ओसवाल समाज में आप का परिवार प्रतिष्ठित माना जाता है। आप सरल स्वभाव के, गंभीर तथा सुखी गृहस्थ हैं । भापके पुत्र पक्षालालजी, मोहनलालजी, चम्पालालजी, दीपचन्दजी तथा बंशीलालजी हैं । श्री पन्नालालजी का जन्म सं० १९५५ में मोहनलालजी का १९५८ में तथा चम्पालालजी का १९६४ में हआ। आप तीनों भाई फर्म में व्यापार में सहयोग लेते हैं। तथा इनसे छोटे दीपचन्दजी सबदरा पूना कॉलेज में बी० ए०के द्वितीय वर्ष में अध्ययन कर रहे हैं । आपका विवाह खानदेश के प्रसिद्ध श्रीमंत श्रीमान सेठ राजमलजी ललवानी की कन्या से हुआ है। इनसे छोटे वंशीलालजी जलगाँव हाईस्कूल में पढ़ते हैं। पन्नालालजी के पुत्र शिवलालजी तथा नेमीचंदजी और मोहनलालजी के पुत्र मानमलजी व सूरजमलजी तथा चम्पालालजी के पुत्र भंवरलालजी हैं।
बालोरी श्री तखनमलजी जालोरी, भेलसा (गवालियर ) इस परिवार के पूर्वज जालोरी खुशालचन्दजी तथा उनके पुत्र संतोषचन्दजी अरटिया (रीयां) में रहते थे। वहाँ से आपने अपना निवास संठों की रीयां में बनाया। सेठ संतोषचन्दजी के पुत्र तारा
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जालोरी
चन्दजी हुए । आप रीयां से व्यवसाय के लिये भेउसा भाये, और यहाँ सर्विस की । संवत् १९३१ में आप स्वर्गवासी हुए । आपके गुलाबचन्दजी पूनमचन्दजी तथा नथमलजी नामक ३ पुत्र हुए। सेठ गुलाबचन्दजी तथः पूनमचन्दजी ने बांसोदा ( भेलसा के पास) में अपना व्यापार शुरू किया, तथा १० गांवों में अपनी जमीदारी की। आप तीनों भ्राता क्रमशः संवत् १९४५ संवत् १९२८ तथा संवत् १९३१ में स्वर्गवासी हुए । सेठ गुलाबचन्दजी के पुत्र रिखवदासजी संवत् १९८१ में स्वर्गवासी होगये हैं । इनके पुत्र सिंगारमलजी तथा सागरमलबी बासोदा में व्यापार करते हैं। जालोरी पूनमचन्दजी के अनीरचंदजी तथा लूणकरणजी नामक २ पुत्र हुए। जालोरी लूणकरण जी संवत् १९७४ में भेलसा आये तथा यहाँ ३ गांवों की जमीदारी करके मकानात दुकाने आदि बनवाई | संवत् १९८० में आप स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र जालोरी तखतमलजी हैं ।
श्री तखतमखजी जालोरी - आपका जन्म संवत् १९५१ में हुआ । आप १८ साल की आयु से ही भेलसा कोर्ट में प्रेक्टिस करते हैं। तथा भेलसा और गवालियर स्टेट के प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं । तीन सालों तक आप गवालियर स्टेट प्रीवियस कान्फ्रेंस के सेक्रेटरी थे, तथा इधर २ वर्षों से उसके प्रेसिडेंट हैं । आप गवालियर स्टेट लेजिस्लेटिव कौंसिल के मेम्बर हैं। इसके अलावा अछूतोद्धारक संघ भेलसा के प्रेसिडेन्ट, चरखा संघ खादी भण्डार के संचालक तथा डिस्ट्रिक्ट बोर्ड और डिस्ट्रिक्ट ओकॉफ कमेटी के मेम्बर हैं । भेलसा म्यु० के प्रेसिडेण्ट भी आप रह चुके हैं । इसी तरह के हरएक सार्वजनिक कामों में हिस्सा लेते हैं । आपके पुत्र राजमलजी इलाहबाद में थर्ड ईयर में पढ़ते हैं ।
• सेठ अबीर चन्दजी के पुत्र मिलापचन्दजी तथा अमोलकचन्दजी स्वर्गवासी होगये हैं । इस समय मिलाप चन्दजी के पुत्र सोभागमलजी भेलसा में खजांची हैं । तथा सूरजमलजी उदयपुर में पढ़ते हैं । अमोलकचन्दजी के पुत्र सरदारमलजी हैं ।
सेठ नथमल दलीचंद जालोरी वोहरा का खानदान, अहमदनगर
इस खानदान का मूल निवास पीपाड़ ( मारवाड़ ) है । आप मन्दिर मार्गीय आम्नाय के मानने वाले सज्जन हैं । इस खानदान के पूर्वज सेठ बक्षूरामजी तथा उनके पुत्र मोतीरामजी थे । सेठ मोतीरामजी के ३ पुत्र हुए। इनमें बड़े दो सेठ तेजमलजी तथा सूरजमलजी लगभग १५० वर्ष पूर्व पैदल रास्ते से अहमदनगर आये, तथा यहाँ सराफी और कपड़े का व्यापार चालू किया। आपके छोटे भाई बुधमलजी मारवाड़ में ही रहते रहे ।
सेठ तेजमलजी के पुत्र गणेशदासजी तथा भगवानदासजी थे। इनमें गणेशदासजी के लक्ष्मणदासजी, राजमलजी तथा भीकनदासजी नामक ३ पुत्र हुए। और भगवानदासजी के पुत्र पेमराजजी हुए । इन चारों सज्जनों का स्वर्गवास हो गया है । इस समय लछमणदासजी के पुत्र चुनीलालजी तथा पेमराजजी के पुत्र पन्नालालजी विद्यमान हैं ।
सेठ सूरजमलजी के पुत्र नथमलजी तथा पौत्र दलीचन्दजी हुए । जालोरी बोहरा दलीचन्दजी के हाथों से फर्म के व्यापार को विशेष उन्नति मिली । आपने पीपाड़ में एक उपाश्रय तथा भांदकजी में
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मोसवाल जाति का इतिहास
एक धर्मशाला बनवाई। अहमदनगर में आपकी फर्म सबसे पुरानी मानी जाती है। आप ६५ सालकी आयु में, संवत् १९७८ में स्वर्गवासी हुए। आपके समरथमलजी, कनकमलजी, सिरेमलजी, हस्तीमलजी तथा अमोलकचन्दजी नामक ५ पुत्र हुए। आप सब भाइयों का भी धरम ध्यान की ओर अच्छा लक्ष्य था। इनमें सेठ हस्तीमलजी को छोड़कर शेष चार म्राता निःसंतान स्वर्गवासी हो गये हैं। हस्तीमलजी का जन्म संवत् १९४८ में हुआ। आप अहमदनगर के प्रतिष्ठित सज्जन है। आपके पुत्र बाबूलाल ४ साल के हैं।
फलोदिया सेठ फतेचन्द मांगीलाल फलोदिया, अहमदनगर इस परिवार का मूल निवास सेठों की संया (मारवाड़) है। वहाँ से सेठ खुशालचन्दजी फलोदिया अपने पुत्र गुमानचन्दजी तथा मोहकमदासजी के साथ लगभग २०० साल पूर्व अहमदनगर जिले के साकूर नामक गाँव में गये । और वहाँ अपनी दुकान खोलो । सेठ गुमानचन्दजी के इन्द्रभानजी, तथा मुलतानमलजी नामक २ पुत्र हुए।
इन्द्रमानजी फलोदिया का परिवार-सेठ इन्द्रभानजी का सम्बत् १९२७ में स्वर्गवास हुआ। आपके हजारीमलजी, भवानीदासजी तथा गुलाबचन्दजी नामक ३ पुत्र हुए। फलोदिया भवानीदासजी के नवलमलजी तथा हरकचन्दजी मामक २ पुत्र हुए। इनमें हरकचन्दजी, सेठ गुलाबचन्दजी के नाम पर दत्तक गये। इस समय इस परिवार में हजारीमलजी के पुत्र किशनदासजी तथा सूरजमलजी साकूर में व्यापार करते हैं। और हरकचन्दजी के पुत्र चुन्नीलालजी वरोरा (सी०पी०) में सूत का व्यापार करते हैं।
मुलतानमलजी फलोदिया का परिवार-आपका सम्बत् १९४२ में स्वर्गवास हुआ। आपके पुत्र पूनमचन्दजी लगभग ७० साल पहले साकर से अमरावती आये। तथा "मानमल गुलाबचन्द" के सा कपड़े का व्यापार शुरू किया। आप सम्बत् १९५० में स्वर्गवासी हए। आपके शोभचन्दजी. फतेचन्दजी तथा माँगीलालजी नामक ३ पुत्र हुए। इनमें शोभाचन्दजी सम्वत् १९६२ में स्वर्गवासी हुए ।
फतेचन्दजी फलोदिया-आपका जन्म सम्वत् १९३७ में हुआ। आप अमरावती के व्यापारिक समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं । सार्वजनिक तथा धार्मिक कामों में आप अच्छा सहयोग लेते हैं। आपने लगभग ५० हजार की लागत से अमरावती के एक जैन मन्दिर बनवाकर सम्बत् १९८० में उसकी प्रतिष्ठा कराई। आपके यहाँ “ फतेचन्द माँगीलाल" के नाम से कपड़े का व्यापार होता है। आपके पुत्र मोहनलालजी २० साल के हैं।
धूपिया सेठ हजारीमल विशनदास (धूपिया) का खानदान, अहमदनगर
इस खानदान का मूल निवास स्थान रणसी गाँव (पीपाद) का है। आप श्वेताम्बर जैन स्थानकवासी आन्नाय के सजन हैं । इस खानदान के पूर्वज सेठ पक्षालालजी के पौत्र श्रीयुत हजारीमलजी
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ओसवाल जाति का इतिहास
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'सेठ फतेचंदजी फलोदिया (फतेचंद मांगीलाल ) अमरावती.
सेठ हीरालालजी भलगट ( छोगमल हीरालाल ) गुलबर्गा.
स्व० सेठ किशनदासजी मेहता (किशनदास माणकचंद)
अहमदनगर.
श्री मोतीलालजी भलगट (छोगमल हीरालाल)
गुलबर्गा,
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धूपिया तथा मनगट
मारवाद से करीब ७५ वर्ष पूर्व अहमद नगर में जावे । मापने चोदे समय सर्विस की और पश्चात् संवत् १९२८ में “हजारीमल अगरचन्द" के नाम में भागीदारी में दुकान स्थापित की। संवत् १९४१ में भापका स्वर्गवास हुआ। भापके धीरजमलजी, मगरभन्दजी, बेमीदासजी और विशनासजी नामक माई ओर थे। इनमें से अगरचन्दजी, नेमीदासजी और विपदासजी भी मार से अहमदनगर भागये । बाप चारों भाइयों के हाथों से इस फर्म की खूब उनति हुई भापका धार्मिक कार्यों को ओर बहुत लक्ष्य भासम्बत् १९७३ में चारों भाइयों का व्यापार अलग २ हो गया। मूषा विशनहासजी ने शार्ग पठन पाठन और अभ्यास बहुत किया था। भगरचन्दजी का स्वर्गवास सम्बत् १९५५ में, मेमीदासजी का सम्बत् १९५९ में और विशनदासजीदा स्वर्गवास सम्बत् १९८९ में हुआ।
मूथा हजारीमलजी के पुत्र मोतीलालजी का जन्म सम्बत् १९३३ में हुआ है। आपके यहाँ "मोतीलाल चुनीलाल" के नाम से व्यापार होता है । भाप सज्जन व्यक्ति हैं। आपके पुत्र चुन्नीलालजी हैं।
मूथा विक्षनदासजी के माणकचन्दजी और प्रेमराजजी नामक २ पुत्र हैं। आपका जन्म सम्बत् १९५५ तथा ६१ में हुआ। आप दोनों भाई सज्जन पुरुष हैं। महमदनगर के ओसवाल नवयुवकों में आप बड़े उत्साही तथा कर्मशील हैं। आपने अपने पिताजी के स्वर्गवास के समय २१.०)का दाम किया था। मापके यहाँ "विशनदास माणकचन्द" के नाम से व्यापार होता है।
सेठ पूनमचंद मुकुन्ददास मूथा (धूपिया), अहमदनगर
यह खानदान श्वेताम्बर जैन स्थानकवासी आम्नाय का मानने वाला है। इस खानदान का मूल निवास स्थान रणी गांव (जोधपुर) का है। इस खानदान में मूथा जेठमलजी देश से अहमद नगर आये और यहाँ पर अपनी दुकान स्थापित की। आपके नवलमलजी और मुल्तानमलजी नामक दो पुत्र हुए। नवलमलजी बड़े बुद्धिमान और व्यापार दक्ष पुरुष थे। आपके हार्थों से इस फर्म की बहुत उन्नति हुई। आपका स्वर्गवास संवत् १९२९ में हुआ। आपके छः पुत्र हुए जिनके नाम क्रम से गंभीर• मलजी, हमीहमलजी, विशनदासजी, मुकुन्ददासजी, स्तचन्दनी और पूनमचंदजी थे। इनमे से केवल मूथा पूनमचन्दजी इस समय विद्यमान हैं । विक्षनदासजी का स्वर्गवास संवत् १९४७ में तथा मुकुन्ददासजीका सम्बत् १९७५ में हुआ। इस समय मुकुन्ददासजी के पुत्र प्रेमरामजी तथा मोतीलालनी और पूनमचन्दजी के पुत्र पत्रालालजी, धनराजजी तथा वंशीलालजी विद्यमान हैं। इस समय इस फर्म के व्यापार का संचालन सेठ पूनमचन्दजी और मूथा प्रेमराजजी करते हैं। भाप दोनों बड़े सज्जन और व्यापार दक्ष पुरुष है। दान धर्म और सार्वजनिक कार्यों की ओर आपका अच्छा लक्ष्य है। इस समय यह फर्म तिल, लई, कपास का व्यापार करती है। मूभा पूनमचन्दजी अहमद नगर जिला कोसबाल पंचायत अधिवेशन के स्वागताध्यश थे।
सेठ छोगमल हीरालाल मलगट, गुलवर्गा इस परिवार का सूर निधास सेठजी की रोया (मारवाद) में है। वहाँ भागट अनोपचंदजी
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प्रोसबाल जाति का इतिहास
निवास करते थे। आपके कस्तमलजी. हजारीमलजी व जीरामलजी तथा वख्तावामलजी नामक पुत्र हुए। हजारीमलजी रीयों के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे । आपके गाढ़मलगी तथा छोगमलजी नामक २ पुत्र हुए । देश से व्यापार के लिए सेठ छोगमलजी संवत् १९३० में गुलवर्गा आये। आपके आने के बाद दो दो साल के अन्तर से आपके पुत्र चन्नीलालजी तथा हीरालालजी भी यहाँ आगये.नथा छोगमल चन्नीलाल के नाम से व्यापार शुरू किया। संवत् १९६८ में इन दोनों भाइयों का व्यापार अलग २ हो गया। संवत् १९७७ में सेठ छोगमलजी तथा संवत् १९८४ में सेठ चुन्नीलालजी स्वर्गवासी हुए। इनके नाम पर मारवाड़ से गुलाब. चन्दजी दत्तक आये हैं। इनके यहाँ "चुन्नीलाल गुलाबचन्द' के नाम से सराफी व्यापार होता है।
सेठ हीरालालजी भलगट-आपका संवत् १९३१ में जन्म हुआ। आपने कपड़े के व्यापार में अच्छी सम्पत्ति पैदा की। तथा गुलवर्गा के व्यापारिक समाज में अपनी प्रतिष्टा को बढ़या । आपकी यहाँ ३ दुकाने सफलता के साथ कपड़े का व्यापार कर रहीं हैं। तथा गुलबर्गा की दुकानों में मातवर मानी जाती हैं । गुलवर्गा स्टेशन रोड पर आएका महावीर भवन नामक सुन्दर बंगला बना हुआ है। इसी तरह आपके और भी कई मकानात बंगले आदि हैं। सार्वजनिक तथा धार्मिक कार्यों में भी आप अच्छो सम्पत्ति व्यय करते हैं। आपके नाम पर मोतीलालजी बूसी (जोधपुर स्टेट) से दत्तक आये हैं। इनकी वय ३० साल की है। आपभी तत्परता से अपने कपड़े के व्यापार को सह्यालते हैं। इनके पुत्र शांतिलालजी २ साल के हैं।
इसी तरह इस खानदान में सेठ वजीरामलजी के छोटे पुत्र किशनराजजी तथा उन के भतीजे पेमराजजी और धनराजजी कान गाँव (वर्धा) में व्यापार करते हैं।
मुदरेचा (कोहरा) सेठ सूरजमल दूलहराज मुदरेचा (बोहरा), कोलार गोल्ड फोल्ड
इस परिवार की उत्पत्ति चौहान राजपूतों से हुई । इस कुटुम्ब का मूल निवास स्थान ब्यावर राजपूताना है । आप जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी आम्नाय के माननेवाले सजन हैं। सेठ छोगमलजी मुदरेचा अपने बड़े पुत्र सूरजमलजी के साथ सम्बत् १९५२ में बूटी से बंगलोर आए, तथा यहाँ सेठ “बख्तावरमल रूपराज" मूथा के यहाँ ६ सालों तक सर्विस की। इसके बाद सम्बत् १९५९ में सेठ “हजारीमल बनराज" मूथा की भागीदारी में बंगलोर में एक दुकान की। इसके २ वर्ष बाद कोलार गोल्ड फील्ड में आपने अपनी स्वतंत्र दुकान खोली। मुदरेचा सूरजमलजी का जन्म सम्वत् १९४६ में हुआ। आप सज्जन तथा व्यापार कुशल व्यक्ति हैं। आप कोलार गोल्ड फील्ड में "सूरजमल दूलहराज" के नाम से बेकिंग व्यापार करते हैं।
आपके छोटे भाई श्रीयुत दुलहराजजी का जन्म सम्वत् १९४६ में तथा श्री हरकचन्दजी का सं० १९४८ में हुआ । इन बन्धुओं का व्यापार बंगलोर हलसूर बाजार में "सूरजमल दूलहराज" तथा "छोगमल सूरजमल" के नाम से होता है । आप दोनों बन्धु सजन व्यक्ति हैं।
मुदरेचा सूरजमलजी के पुत्र रतनलालजी २० साल के हैं, तथा व्यापार में भाग लेते हैं। इनसे छोटे हीरालालजी तथा पन्नालालजी बालक हैं। इसी तरह हरकचन्दजी के पुत्र मोहनलालजी १४ साल के हैं।
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बैताला
तया शेष धनराजजी और माणकलालजी बालक है। इस परिवार की ओर से बूंटी में गायों की सुविधा के लिये एक बावड़ी तथा खेड़ी कोटा बनवाया गया है। आप शिक्षा के लिये ५००) सालियाना स्कूलों को देते हैं। कोलार गोल्ड फील्ड तथा बंगलोर के ओसवाल समाज में इस परिवार की अच्छी प्रतिष्ठा है।
बैताला सेठ अमरचन्द माणकचन्द बैताला, मद्रास यह खानदान मूल निवासी रे (मारवाड़) का है। मगर इस समय यह खानदान नागौर में रहता है। आप मन्दिर मानाय को माननेवाले सजन हैं । इस सानदान में सेठ बालचन्दजी हुए । मापने आसाम में जाकर अपनी फर्म स्थापित की। आपके पुत्र अमरचन्दजी का स्वर्गवास सम्वत् १९.४ में हमा।
- बैताला अमरचन्दजी के कोई पुत्र न होने से आपके नाम पर माणिकचन्दजी बैतालो सम्बत् १९०६ में दत्तक लिये गये। भापका जन्म सम्बत् १९६५ का है। आप सम्वत् १९८० में मद्रास पाये भौर काम सीखने के लिये सेठ बहादुरमलजी समदरिया के पास रहे। उसके पश्चात् मापने अमरचन्दजी बोथरा के हिस्से में ममी लेण्डिग और ज्वैलरी का व्यापार शुरू किया। उसके बाद सम्वत् १९८० से आपने अपना स्वतंत्र व्यापार शुरू कर दिया । इस समय भाप मद्रास में डायमण्ड और ज्वैलरी का व्यापार करते हैं। आपने अपनी बुद्धिमानी से व्यापार में अच्छी तरकी की है।
सेठ घासीराम बच्छराज बैताला, बागल कोट ... इस परिवार का मूल निवास स्थान सोवणा (नागोर) है। यह परिवार स्थानकवासी आनाम का माननेवाला है। इस परिवार के पूर्वज सेठ जेठमलजी बैताला मारवाड़ में रहते थे। इनके बख्तावरमलजी, कस्तूरचन्दजी तथा छोगमलजी नामक ३ पुत्र हुए। इन बंधुओं में सेठ बख्तावरमलजी बैताला
१०० साल पूर्व पैदल रास्ते से महाड़ बन्दर होते हुए बागलकोट आये। तथा "जेठमल बख्तावरमल" के नाम से कपड़े का व्यापार शुरू किया। आपने पीछे से अपने भाइयों को भी बागलकोट बुला लिया। आपके छोटे भाई छोगमलजी का सम्वत् १९४३ में स्वर्गवास हुआ। आपके घासीमलजी चंदूलालजी, हीरालालजी तथा किशनलालजी नामक.४ पुत्र हुए। इनमें किशनलालजी संवत् १९८६ में स्वर्गवासी हो गये। तथा सेठ हीरालालजी, करतूरचन्दजी के नाम पर दत्तक गये।
सेठ घासीलालजी का जन्म सम्वत् १९४२ में हआ। आपने सेठ "गणेशदास गंगाविशन" की भागीदारी में सम्बत् १९६५ से वेजवाड़ा तथा बागलकोट में आढ़त की फर्म खोली है। तथा भाप बागलकोटके व्यापारिक समाज में प्रतिष्ठित व्यापारी माने जाते हैं। आपके पुत्र बच्छराजजी तथा जसराजजी व्यापार में भाग लेते हैं। तथा मलचन्द, तेजमल और मेघराज छोटे हैं। इसी प्रकार से सेठ चंदूलालजी, "जेठमल वस्लावरमल" के नाम से कपड़े का व्यापार करते हैं। इनके पुत्र भीमराजजी हैं । हीरालालजी के पुत्र जोरावरमकजी तथा किशनलालजी के पुत्र चम्पालालजी सराफी व्यापार करते हैं।
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सेठ जुहारमल शोभाचंद विनायक्या, राजलदेसर इस परिवार के लोग बहुत वर्षों से राजलदेसर ही में निवास कर रहे हैं। इस परिवार में किशोरसिंहजी के पुत्र उमचन्दजी हुए। इनके दो पुत्र किस्तूरचन्दजी और जुहारमलजी हुए। आप दोनों ही भाई बड़े प्रतिभा वाले और व्यापार कुशल थे। आप लोगों ने गोविन्द गंज (रंगपुर) में जाकर अपनी फर्म मेसस किस्तूरचन्द जुहारमल के नाम से खोली। इसमें आप लोगों को अच्छी सफलता रही।
वर्तमान में इस फर्म के संचालक सेठ किस्तूरचन्दजी के पुत्र शोभाचन्दजी और सेठ जुहारमलजी के पुत्र मालचन्दजी, जयचन्दलालजी और धनराजजी हैं। आप सब सजन और मिलनसार व्यक्ति हैं। आप लोगों ने आर्मेनियन स्ट्रीट कलकत्ता में भी चलानी का काम करने के लिये अपनी एक फर्म खोली । इस समय भाप की कलकत्ता और गोविन्द गंज दोनों स्थानों पर फर्मे चल रही हैं। आपके यहाँ कपड़ा, चलानी तथा जूट का व्यापार होता है।
सेठ शोभाचन्दजी के मोहनलालजी, पन्नालालजी और दीपचन्दजी, सेठ मालचन्दजी के खीच. करणजो, सेठ जैचन्दलालजी के मनालालजी और धनराजजी के हनुमानमलजी नामक पुत्र हैं।
___लाला खेरातीराम पन्नालाल विनायक्या, लुधियाना
यह खानदान जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी सम्प्रदाय को माननेवाला है । यह खानदान करीब सौ सवा सौ वर्षों से यहीं निवास कर रहा है। इस खानदान में लाला जुहारमलजी और रनचन्दजी मामक दो भाई हो गये हैं। लाला जुहारमलजी के गुलाबमलजी नामक एक पुत्र हुए जो यहाँ के बड़े मशहर चौधरी हो गये हैं। आपका संवत् १९३० में स्वर्गवास हो गया। आपके लाला खैरातीमलजी एवं फकीरचन्दजी नामक दो पुत्र हुए। इनमें काला फकीरमलजी निसंतानावस्था में संवत् १९६७ में स्वर्गवासी हुए।
___लाला खेरातीमलजी का संवत् १९१९ में जन्म हुआ। आपने अपने भतीजे (लाला पूरनचंदजी के प्रपौत्र ) लाला पन्नालालजी को गोद लिया है। आप इस समय अपने पिता लाला खैरातीमलजी के साथ व्यापार करते हैं। आपके तिलकरामजी नामक एक पुत्र है। इस परिवार का यहाँ पर जनरल मचेंटाइज़ का व्यापार होता है । तथा यह कुटुम्ब यहाँ प्रतिष्ठित माना जाता है।
लाला रोशनलाल पन्नालाल जैन विनायक्या पटियाला
यह खानदान कई पुरत पहिले समाना से आकर पटियाले में भावाद हुआ। यह परिवार स्थानकवासी आम्नाय का मानने वाला है। इस परिवार में लाला चैनामलजी तथा उनके पुत्र पूरनचंदजी हुए। लाला पूरनचन्दजी के कूड़ामलजी तथा नथुरामजी नामक २ पुत्र हुए। इनमें से लाल कूड़ामलजी संवत् १९०१ में स्वर्गवासी हुए। आपके रामसरनदासजी तथा कन्हैयालालजी नामक दो पुत्र हुए ।
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इम भाइयों में काला रामसरनदासजी इस खानदान में पानी पकि हुए। भाप संवत् १९४८ में स्वर्गवासी हुए । आपके पुत्र लाला लछमणदासबी ३२ साल की मानु में संवत् १९६२ में तथा बाबूरामजी उनके चार साल पहिले १९ साल की भायु में स्वर्गवासी हुए।' इस समय बाबू रामजी के पुत्र लाला नगीनालाइजी हैं । इनके टेकचन्दजी तथा बामप्रकाशजी नामक पुत्र हैं।
लाला कन्हैयालालजी-पापका स्वर्गवास १० साल की भायु में संवत् १९२६ में हुआ। उस समय मापके पुत्र काला रोशनलालजी एक साल के थे। लाला रोशनलालजी बड़े धर्मात्मा तथा योग्य व्यक्ति हैं। तथा'१० सालों से पटियाला की जैन बिरादरी के चौधरी हैं । भापके पुत्र काला पवालामजी १० साल के हैं। इनके पुत्र मामलजी हैं।
सेठ सवाईराम गुलाबचन्द विनायक्या, जालना (निजाम) __इस फर्म के मालिकों का मूल निवास स्थान रायपुर (जोधपुर स्टेट) का है। आप श्वेताम्बर जैन मन्दिर मानाय को मानने वाले सज्जन हैं। करीब ६४ वर्ष पहले भी सवाईरामजी ने रायपुर से भाकर जालना में अपनी दुकान की स्थापित की। आपका संवत् १९५५ में स्वर्गवास हुआ । आपके बाद इस दुकान के काम को भाप के तीनों पुत्रों ने सझोला जिनमें से इस समय केशरीमलजी विद्यमान है।
केशरीमलजी इस समय दुकान के मालिक है। आपकी ओर से दान धर्म तीर्थ यात्रा भादि सत्कार्यों में द्रव्य व्यय किया जाता है। आपके पुत्र उत्तमचन्दजी म्यापार में भाग लेते हैं। आपके यहाँ "सवाईराम गुलावचन्द" के नाम से कमीशन, तथा कृषि का काम होता है। उत्तमचंदजी के २ पुत्र हैं।
मालू - मालू गौत्र की उत्पत्ति - कहा जाता है कि रतनपुर के राजा रतनसिंह के दीवान माहेश्वरी वैश्य जाति के राठी गौत्रीय माल्हदेवजी नामक थे। इनके पुत्र को अर्धाग की बीमारी हो गई थी। अतएव दादा जिनदत्तसूरिजी ने अपनी प्रतिभा के बल पर माल्हदेवजी के पुत्र को स्वास्थ्य लाभ कराया। इससे मंत्री ने दादा जिनदत्तसूरिजी से जैन धर्म का प्रति बोध लिया, इनकी संतानें "माल" के नाम से मशहूर हुई।
सेठ गणेशदास केशरचंद मालू , सिवनी-छपारा (सी० पी०)
बीकानेर के समीप गजरूप देसर नामक स्थान से लगभग ७५ साल पूर्व इस परिवार के पूर्वज सेठ तिलोकचन्दजी माल सिवनी भाये तथा यहां सराफी व्यवहार चालू किया। आपका संवत् १९४९ में शरीरान्त । हुआ। आपके गणेशदासजी,केवलचन्दजी व रतनचन्दजी नामक ३ पुत्र हुए। इन भ्राताओं का कार वार संवत् १९५० के लगभग अलग २ होगया। सेठ गणेशचन्दजी मालू का जन्म संवत् १९१४ में हुआ। मापके केशरीचंदजी, माणिकचन्दजी, सुगनचन्दजी तथा दुलीचन्दजी नामक ४ पुत्र हुए । मालू गणेशचन्दजी तथा उनके पुत्र केशरीचन्दजी और माणिकचन्दजी के हाथों से इस फर्म के व्यापार को उन्नति मिली। मालू केसरीचन्दजी का जन्म संवत् १९३० में हुआ । आप धार्मिक वृत्ति के पुरुष ये । सुगनचन्दजी माल का शरीरान्त संवत् १९८० में हुआ।
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ओसवाल जाति का इतिहास
वर्तमान में आप इस फर्म के मालिक सेठ माणिकचन्दजी, दुलीचन्दजी व केशरीचन्दजी के पुत्र देवचन्दजी, नेमीचन्दजी, हरिश्चन्दजी तथा सुगनचन्दजी के पुत्र शिखरचन्दजी हैं । आप सब सज्जन फर्म के व्यापार संचालन में भाग लेते हैं।
माणिकचन्दजी मालू—आपका जन्म संवत् १९४१ में हुआ । आप समझदार पुरुष हैं । आप वर्तमान में सिवनी में ऑनरेरी मजिस्ट्रेट, म्युनिसिपल मेम्बर तथा डिस्ट्रिक्ट कौंसिल के मेम्बर हैं । आपके उद्योग से सन् १९३२ में "श्री जैन भोसवाल परस्पर सहायक कोष मध्यदेश व बरार" नामक संस्था की स्थपना हुई है और आप उसके प्रेसिडेंट हैं। इधर दो सालों से आपकी फर्म के द्वारा एक जैन पाठशाला चल रही है। तथा इस समय स्थानीय जैन मन्दिर की व्यवस्था आपके जिम्मे है । आपके छोटे भ्राता दुलीचन्दजी मालू चांदी सोने के जेवर बनाने के कारखाने का संचालन करते हैं। आपके पुत्र ईश्वरचन्दजी इन्द्रचन्द्रजी, घेवरचन्द्रजी, कोमलचन्दजी, यादवचन्द्रजी तथा निहालचन्दजी हैं । इसी तरह दुलीचन्दजी के पुत्र सोभागचन्द्र, ईश्वरचन्दजी के पुत्र खुशालचन्द उत्तमचन्द व नेमीचन्दजी के पुत्र लालचन्द्र प्रेमचन्द हैं। इस परिवार का माणकचन्द्र दुलीचन्द्र के नाम से सराफी व्यवहार होता है । केवलचन्दजी मालू पुत्र भयालालजी अपना स्वतन्त्र कार्य्यं करते हैं। यह खानदान सी० पी० के ओसवाल समाज में प्रतिष्ठत है ।
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सेठ कालूराम रतनलाल मालू का परिवार, मद्रास
इस खानदान के मालिको का मूल निवास स्थान फलोधी ( मारवाड़ ) का है। इसके पहले आप लोगों का निवासस्थान खिचंद और तिंवरी था । आप लोग स्था० आम्ननाय के सज्जन हैं। इस ख़ानदान में लालचन्दजी हुए, आपके देवीचन्दजी, शोभाचन्दजी तथा खुशालचन्दजी नामक तीन पुत्र थे । देवीचन्दजी मालू के पुत्र कालूरामजी बड़े प्रतापी तथा साहसी व्यक्ति हो गये हैं। आप अपनी हिम्मत और बहादुरी के सहारे देश से पैदल मार्ग द्वारा नागपुर आये और अपने भाई खुशालचन्दजी की फर्म पर काम करने लगे । वहाँ से आप संवत् १८९० में पैदल रास्ते चलकर मद्रास में आये । उस समय मारवाड़ियों की मद्रास में दो तीन दुकानें थीं। सेठ कालुरामजी बड़े धर्मात्मा और जाति प्रेमी पुरुष थे ' आपने अपनी जाति के बहुत से पुरुषों को अपने यहाँ रखकर धंधे से लगाया । आपने मद्रास के बेपारी सूले में श्री चंदाप्रभु जी का संवत् १९३० में एक बड़ा मन्दिर बनवाया । संवत् १९३७ में आपका स्वर्गवास हो गया। आपके कोई पुत्र न होने से आपने शुगलचन्दजी के पुत्र रतनलालजी को दत्तक लिया रतनलालजी मा का जन्म संवत् १९२० में हुआ। आप अपने जाति भाइयों पर बड़ा प्रेम रखते थे । आपका संवत् १९६१ में स्वर्गवास हो गया। रतनलालजी के कोई संतान न होने से आपने अनोपचन्दजी को दत्तक लिया । अनोपचन्दजी का जन्म संवत् १९५३ का है। आपके पुत्र मनोहरमलजी, पूनमचन्दजी तथा गेंदमलजी हैं ।
मराठी
सेठ हीरचन्द पूनमचन्द मरोठी, दमोह,
इस परिवार के पूर्वज सेठ चैनसुखजी तथा उम्मेदचंदजी नामक दो भ्राता अपने मूल निवास
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सावण सुखा
स्थान बीकानेर से संवत् १९६०-६५ के लगभग व्यवसाय के किये दमोह आये । तथा यहाँ इन्होंने कुछ मौज़े सरकार से खरीदकर मालगुजारी और साहुकारी व्यापार चालू किया। मरोठी उदयचन्द का स्वर्गवास संवत् १८४१ में हुआ । आपके पुत्र सुखकाळजी भी जमींदारी का संचालन करते रहे। इनके वंशीधरजी, तखतमलजी और बिरदीचन्दजी नामक ३ पुत्र हुए। आप तीनों बंधु अपनी फर्म का संचालन करते रहे । वंशीधरजी के कोई संतान नहीं हुई। शेष २ बंधुओं का परिवार विद्यमान है ।
तखतमजी मरोठी का परिवार - सेठ तखकमलजी १५ वर्ष की आयु में संवत् १९६३ में स्वर्गवासी हुए। आपके डालचन्दजी, रतनचंदजी, मूलचन्दजी, हीरचन्दजी तथा कस्तूरचन्दजी नामक ५ पुत्र हुए 1 इनमें ढालचन्दमी संवत् १९७५ में, रतनचन्दजी संवत् १९६० में और हीरचंद का संवत् १९७१ में स्वर्गवासी हुए - इस समय इस परिवार में सेठ कस्तूरमलनी मरोठी, डालचन्दजी के पुत्र लक्षमीचन्दजी मरोठी तथा हीरचंदजी के पुत्र पूनमचंदजी मोठी हैं।
मरोठी पूनमचन्दजी- आपका जन्म संवत् १९६१ में हुआ । आप मिलनसार, शिक्षित तथा समझदार युवक हैं। आप स्थानीय म्बु० के मेम्बर रह चुके हैं। तथा इस समय डिस्ट्रक्ट कौसिल के मेम्बर हैं। आपके पुत्र पीतमचन्दजी तथा पदमचन्दजी पढते हैं। मरोठी लखमीचन्दजी के पुत्र हरखचंदजी मेट्रिक में पढ़ते हैं । इस परिवार में प्रधानतया जमीदारी का काम होता है ।
बिरदीचन्दजी मरोठी का परिवार आपका जन्म संवत् १९०५ में हुआ था। आप दमोह प्रतिष्ठित व्यक्ति थे । आप यहाँ के ऑनरेरी मजिस्ट्रेट थे । तथा दरबारी सम्मान भी आपको प्राप्त था । यहाँ की कई सार्वजनिक संस्थाओं के आप मेम्बर थे । आपके हजारीमलजी सूरजमलजी तथा नेमीचंदजी नामक ३ पुत्र हुए। जिनमें हजारीमलजी का स्वर्गवास हो गया ।
सूरजमलजी मरोठी - आपका जन्म संवत् १९४४ में हुआ । आप अपने पिताजी के बाद तमाम प्रतिष्ठित पदों और सार्वजनिक कामों में सहयोग देते हैं । इस समय आप दमोह के सेकंड क्लास ऑनरेरी मजिस्ट्रेट तथा कई संस्थाओं के मेम्बर हैं । सरकार में आपका अच्छा सम्मान है। आपके पुत्र खुशालचन्दजी १० साल के तथा गोकुलचन्दजी १५ साल के हैं। भाषके यहाँ जमीदारी का काम होता है । सेठ सूरजमलजी के छोटे भ्राता नेमीचंदजी का जन्म संवत् १९४८ में हुआ। आपके पुत्र तिछोकचन्दजी बालक हैं ।
सावगा सुखा
सावण सुखा गौत्र की उत्पत्ति—कहा जाता हैं कि चंदेरी के राजा खरहत्थसिंह राठोड़ ने अपने
चार पुत्रों सहित दादा जिनदत्तसूरिजी से संवत् ११९२ में जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण की।
इनके तीसरे पुत्र भैंसाशाह नामी व्यक्ति हुए। भैंसाशाह के ५ पुत्रों में से चौथे पुत्र कुँवरजी थे। इनको ज्योतिष का ज्ञान था। एक बार चित्तौड़ के राणोजी ने इनको पूछा कि कहो "कुँवरजी सावण भादवा कैसा होगा" । इन्होंने गिनती करके बतलाया कि "सावण सूखा और भादवा हरा होगा" जब यह बात सत्य निकली । तब .से कुंवरजी की संतानें "सावण सुखा” के नाम से प्रसिद्ध हुई। और इस प्रकार यह गौत्र उत्पन्न हुई ।
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श्रीसवाल जाति का इतिहास
सेठ गणेशदास जुहरमल सांवण सुखा, सरदार शहर जब सरदारशहर बसा तब इस परिवार के सेठ टीकमचन्दजी, मेघराजजी और द्वेरामजी तीनों भाई सवाई से यहां आकर बसे । एवम् साधारण खेतीबाड़ी एवम देन लेन का व्यापार करते रहे । सेठ टीकमचन्दजी के सात पुत्र हुए मगर इस समय उनके परिवार में कोई नहीं है। सेठ द्वेरामजी के भैरोंदानजी नामक एक पुत्र हुआ जिसका स्वर्गवास होगया । वर्तमान में उनके पुत्र मूलचन्दजी और शोभारामजी रंगपुर में अपना व्यापार करते हैं । मूलचन्दजी के भीखनचन्दजी और शोभाचन्दजी के फकीरचन्दजी नामक पुत्र हैं। सेठ मेघराजजी सरदारशहर ही में रहे। आप के सेढ़मलजी और गणेशदासजी नामक दो पुत्र थे । सेठ सेठमलजी के मूलचन्दजी, जुहारमलजी, नेमिचन्दजी, और हरकचंदजी नामक पुत्र हुए। इनमें से सेठ जुहारमलजी का स्वर्गवास होगया है । मूलचन्दजी के द्वारा इस फर्म की बहुत तरक्की हुई। भाज कल १५ वर्षों से आप सरदारशहर में ही रहते हैं । हरकचन्दजी दत्तक चले गये । एवम् आज कल फर्म का संचालन सेठ नेमीचन्दजी ही करते हैं । आप योग्य एवम्
समझदार सज्जन हैं । आपके बुधमलजी, सुमेरमलजी और चम्पालालजी नामक तीन पुत्र हैं।
सेठ गणेशदासजी इस परिवार में नामांकित दास मिलापचन्द के नाम से साझे में फर्म स्थापित की। स्वतंत्र व्यापार कर लिया । इसके पूर्व आप नरसिंहदास रहे। इसमें आपकी प्रतिभा से बहुत उन्नति हुई। नामक पुत्र हुए। जिनका स्वर्गवास होगया । इनके यहाँ हरकचन्दजी दत्तक हैं। मोतीलालजी और माणकचन्दजी पुत्र हैं । आपकी फर्म पर १३ नारमल लोहिया लेन में देशी कपदे का थोक व्यापार होता है। आपका परिवार तेरा पन्थी संप्रदाय का अनुयायी है ।
व्यक्ति हुए । आप ही ने संवत् १९६० में गणेशफिर “ गणेशदास जुहारमल" के नाम से अपना तनसुखदास आंचलिया की फर्म पर काम करते आप व्यापार चतुर थे । आपके मिलापचन्दजी आपके इस समय
मेसर्स हजारीमल रूपचन्द सावण सुखा का परिवार,
मद्रास
इस परिवार के मालिकों का मूल निवास स्थान बीकानेर का है । आप श्वे० जैन समाज के मंदिर आम्नाय को माननेवाले सज्जन हैं । सब से पहले इस परिवार में से हजारीमलजी सावणसुखा संवत् १९२१ में बीकानेर से मद्रास आये। आपने मद्रास में आकर ब्याज की फर्म स्थापित की। आपके हाथों से इस फर्म की अच्छी उन्नति हुई । आपका संवत् १९४९ में स्वर्गवास हो गया । आपके पश्चात् आपके नाम पर आपके भाई के पुत्र रूपचन्दजी दत्तक लाये गये । के मन्दिर का काम अच्छी तरह से देखा । श्री रूपचन्दजी का संवत् १९५७ में स्वर्गवास हो गया । आपके पुत्र चम्पालालजी हुए । इनका जन्म संवत् १९५० में हुआ । आप ही इस समय इस फर्म के कारबार को सम्हाल रहे हैं। आपके पुत्र रतनचन्दजी बालक हैं ।
इस परिवार के लोगों ने चन्द्राप्रभुजी
इस परिवार का दान धर्म की ओर विशेष लक्ष्य है । आप ही ने यहाँ की दादावाड़ी का . उद्यापन करवाया। साथ ही दादावाड़ी के एक तरफ का पर कोटा भी इस परिवार की ओर से बनाया गया है । आप ही के द्वारा दादावाड़ी के मन्दिर में संगमरमर के पत्थरों की जुडाई हुई है। आपकी मद्रास
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रैदासनी
साहुकार पेठ में "मेसर्स हजारीमल रूपचन्द" के नाम से बैशिंग की दुकान है। इस फर्म पर डायमण्ड डीलिंग व्यवसाय भी होता है ।
सेठ भीमराज हुकुमचंद सावण सुखा, रतनगढ़
इस परिवार का मूल निवास रतनगढ़ है। यहाँ सेठ खेतसीदासजी तथा अक्षयसिंहजी नामक दो भ्राता साधारण व्यापार करते थे। इनके कोई संतान नहीं हुई।, भतः इनके यहाँ रूणियाँ ( बीकानेर ) से भोमराजजी दत्तक आये । सेठ भोमराजजी का जन्म संवत् १९०७ में हुआ । आप यहाँ से कलकत्ता गये, तथा सेठ " माणकचन्द ताराचन्द" वेद के यहाँ सर्विस की । तथा पीछे " सेठ तेजरूप गुलाबचन्द" की भागीदारी में चलानी का काम शुरू किया । आपका स्वर्गवास संवत् १९५७ में हुआ। आपके पुत्र शोभाचन्दजी, रुपलालजी तथा जयचंदलालजी हैं। शोभाचन्दजी रतनगढ़ में रहते हैं। तथा जयचन्दजी कलकत्ता में सर्विस करते हैं। इनके पुत्र मोहनलालजी हैं।
बाबू भोमराजजी के मक्षले पुत्र रुघलालजी का जन्म संवत् १९४२ हुआ। पिताजी के स्वर्गवासी होने पर आप दलाली करने लगे, तथा इधर संवत् १९८३ से रोसड़ाघाट (दभंगा) में रुघाल हुकुमचन्द के नाम से चलानी का व्यापार आरम्भ किया। इसके बाद आपने सिंधिया ( दरभंगा ) में रुघलाल इन्द्राजमल तथा ढोली ( मुजफ्परपुर) में भीमराज सावणसुखा के नाम से आढ़त का व्यापार शुरू किया । इसके पश्चात् संवत् १९८७ में नं० २ राजा उमंड स्ट्रीट में अपनी फर्म स्थापित की । सेट रुवलालजी के भीमराजजी तथा इन्द्राजमलजी नामक पुत्र हैं। भीमराजजी ने अपने पिताजी के बाद व्यापार को बढ़ाने में काफी परिश्रम किया है। आपके पुत्र हुकुमचन्दजी हैं ।
रेदासनी
सेठ मोतीलाल रामचन्द्र रेदासनी, नसीराबाद (खानदेश)
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यह परिवार पीह (जोधपुर स्टेट) का निवासी है। वहाँ से लगभग १०० साल पूर्व सेठ शिवचन्दजी और अमरचन्दजी दो भ्राता व्यापार के लिये नसीराबाद (जलगांव के समीप) आये । सेठ शिवचन्द जी संवत् १९३५ में स्वर्गवासी हुए। आपके छोटे बंधु अमरचन्दजी के पुत्र मानमलजी तथा पौत्र रामन्नन्द्रजी हुए । सेठ रामचन्द्रजी ने इस दुकान के व्यापार को बहुत उन्नति दी । आपके पुत्र सेठ मोतीलालजी हुए सेठ मंांतीलालजी रेदासनी — आपका जन्म सम्वत् १९१६ में हुआ । आप खानदेश के ओसवाल समाज में गण्य मान्य तथा समझदार पुरुष थे । आप बड़े सरल स्वभाव के धार्मिक प्रवृति वाले पुरुष थे । कुछ मास पूर्व सम्वत् १९९० में आपका स्वर्गवास हो गया है। आपके पुत्र रंगलालजी, बंशीलालजी, बाबूकालजी तथा प्रेमचन्दजी हैं। रंगलालजी का जन्म सन् १९०५ में तथा बंशीलालजी का सत् १९०९ में हुआ। आप दोनों सज्जन अपने व्यापार को सम्हालते हैं। आपके यहाँ आसामी लेन देन का व्यापार होता है ।
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नीमानी सेठ खूबचंद केवलचंद नीमानी, नाशिक
इस परिवार का मूल निवास फलोधी (मारवाड़) है। भाप श्वेताम्बर जैन समाज के मन्दिर मार्गीय आम्नाय को माननेवाले सजन हैं। इस परिवार के पूर्वज सेठ रूपचन्दजी नीमानी (रतनपुरा-बोहरा) के पुत्र खुबचन्दजी नीमानी लगभग १०० वर्ष पूर्व मारवाड़ से मालेगाँव (नाशिक) आये तथा वहाँ साधारण कपड़ा विक्री का काम किया । पश्चात् आपने नाशिक भाकर खुर्दा बेंचने का काम किया। इस प्रकार साहस पूर्वक सम्पत्ति उपार्जित कर साहुकारी धंधा जमाया । आपका स्वर्गवास सम्बत् १९१८ में हुआ। आपके पुत्र केवलचन्दजी का जन्म सम्बत् १८८८ में हुआ। आपने इस फर्म के व्यवसाय तथा स्थिति को दृढ़ बनाया। सम्वत् १९४८ में भाप स्वर्गवासी हुए । आपके सेठ अमोलकचन्दजी, सेठ नैनसुखजी तथा सेठ बुधमलजी नीमानी नामक ३ पुत्र हुए।
सेठ अमोलकचन्दजी नीमानी-आपने सराफी, कपड़ा किराना आदि का व्यापार कर बहुत सम्पत्ति उपार्जित की। इसके साथ २ आपने अपने खानदान की जगह ज़मीन व लेंडेड प्रापर्टी के संग्रह करने में भी विशेष लक्ष दिया। आपके २ पुत्र हुए, इनमें बड़े भोजराजजी सन् १९१७ में स्वर्गवासी हो गये, तथा उनसे छोटे पृथ्वीराजजी विद्यमान हैं।
सेठ नैनसुखदासजी नीमानी-आपके हृदयों में जातीय संगठन की भावनाओं की बहुत बड़ी उमंग थी। आपने सम्बत् १९४७ में महाराष्ट्र प्रांत के तमाम ओसवाल गृहस्थों को एकत्रित कर ओसवाल हितकारिणी सभा का अधिवेशन किया, तथा जातीय सुधार सम्बन्धी २१ नियम बनाये, जिनका पालन माशिक जिले में आज भी कानून की भांति किया जाता है। आप महाराष्ट्र तथा खानदेश के नामीगरामी महानुभाव हो गये हैं। आपको सरकार ने आनरेरी मजिस्ट्रेट का सम्मान दिया था। आपके पुत्र रामचन्द्रजी छोटी वय में ही स्वर्गवासी हो गये थे।
सेठ बुधमलजी नीभानी- आपका जन्म सम्बत् १९३३ में हुआ था। भाप नाशिक की जनता में बड़े विद्वान तथा रुबाबदार पुरुष हो गये हैं। आपने अंग्रेज़ी की इंटर तक शिक्षण पाया था। संस्कृत के भी आप ऊंचे दर्जे के विद्वान थे। कानूनी ज्ञान आपका बहुत बड़ा चढ़ा था। आप १६ सालों तक नाशिक में फर्स्ट क्लास आनरेरी मजिस्ट्रेट रहे । इस प्रकार प्रतिष्ठामय जीवन बिताकर सं० १९८२ में आप स्वर्गवासी हुए ।
वर्तमान में इस परिवार में श्री पृथ्वीराजजी नीमानी विद्यमान है। आपका जन्म सन् १९१. में हुआ है। आपका परिवार महाराष्ट्र तथा नाशिक में नामांकित माना जाता है। आप ३ सालों तक म्यु० मेम्बर भी रहे थे। इस समय लोकल बोर्ड के मेम्बर हैं। आपके नाशिक तथा धूलिया में बहुत से मकामात तथा स्थाई सम्पत्ति है। आपके यहाँ किराया, सराफी तथा टोल कंदाक्टिंग का काम होता है।
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व० सेठ बुधमलजी नीमाणी ( खूबचंद केवलचंद ) नाशिक. स्व० सेठ छजमलजी घेमावत (छ्जमलजी नथमलजी) सादड़ी.
स्व० सेठ बख्तावरमलजी देवड़ा (बुधमल जुहारमल) औरंगाबाद.
स्व० सेठ नथमलजी घेमावत ( छजमलजी नथमलजी ) . सादड़ी.
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मावत घेमावत गौत्र की उत्पत्ति कहा जाता है कि संवत् ९०१ में बीजापुर ( गोदवाद) पास हस्ती कुंडी नामक स्थान में राजा दिगवत् रात्र करते थे। इनको जैन मुनि श्री बलभद्राचार्य ने जैनधर्म अंगीकार कराया। इसके कई पीढ़ियों बाद भांडाजी हुए जिन्होंने गिरनार व शत्रुजय के संघ निकाले। इनके कई पीढ़ियों बाद संवत् १९..के लगभग धेमाजी और मोटाजी हुए। इन्होंने बाली में मनमोहन पार्श्वनाथजी का मन्दिर बनाया। इनका परिवार घेमाक्त, और बोडावत कहलाता है। यह कुटुम्ब हटुंडिया राठोर हैं, तथा शिवगंज, सिरोही भोर सादनी में रहते हैं।
सेठ छजमलजी घेमावत का परिवार, सादड़ी इस खानदान के पूर्वज यमाजी घेमावत के पुत्र कपूरचन्दजी घेमावत लगभग संवत १९०५ में व्यवसाय के लिये सूरत गये तथा सूरत से ३ मील की दूरी पर मारे गाँव नामक स्थान में लेनदेन का व्यापार शुरू किया। संवत् १९५॥ में भाप स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र सेठ छजमलजी हुए।
सेठ छजमलजी घेमावत-बापका जन्म संवत् १८९1 में हुआ। आपने संवत् १९४८ में बम्बई में मदे की दुकान खोली । तथा आपही ने इस खानदान के जमीन जायदाद को विशेष बढ़ाया। भाप बने सरल तथा धर्म में श्रद्धा रखने वाले पुरुष थे। संवत् १९७० में भाप स्वर्गवासी हुए। आपके नशमलवी, कस्तूरचन्दजी, मूलचन्दजी, जसराजजी तथा दीपचन्दजी नामक ५ पुत्र हुए। इन बंधुओं में से कस्तूरचन्दजी संवत् १९६० में तथा बथमलजी संवत् १९८८ में स्वर्गवासी हुए। इन पांचों भाइयों ने इस दुम्ब व्यापार, सम्मान तथा सम्पत्ति को बहुत बढ़ाया। इन बंधुओं का कारवार इधर २ साल पूर्व अलग हो गया है। तथा सब भाइयों का बम्बई में अलग १ कपड़े का व्यापार होता है। सादड़ी में आप लोगों की बड़ी हवेलियाँ बनी हुई है। तथा गोडवाद प्रान्त के प्रतिष्ठित परिवारों में यह परिवार माना जाता है। इस परिवार में सेठ नथमलजी गोड़वाड के प्रतिष्ठा सम्पन महानुभाव थे। तथा इस समय सेठ मूलचन्द और दीपचन्दजी गोडवाड प्रांत के वजनदार पुरुष माने जाते हैं। भाप दोनों भाइयों का जन्म क्रमशः संवत् १९३२ तथा १९१० में हुमाइसी तरह आपके मसले बंधु सेठ जसराजजी का जन्म संवत् १९३६ में हमा।
वर्तमान में इस कुटुम्ब में सेठ मूलचन्दजी, सेठ जसराजजी, सेठ दीपचन्दजी तथा सेठ नथमलजी के पुत्र निहालचन्दजी और सेठ कस्तूरचन्दजी के पुत्र चन्दनमलजी मुख्य हैं। सेठ मूलचन्दजी के पुत्र सांगरमलजी, जसराजजी के पुत्र मोटरमलजी, हमीरमबजी तथा जुगराजजी और दीपचन्दजी के पुत्र सहस मात्री तथा लखमीचन्दजी हैं। इसी प्रकार निहालचन्दजी के पुत्र कालूरामजी तथा सागरमलजी के पुत्र विमचन्दजी पढ़ते हैं। और सहसमलजी के पुत्र हस्खामलजी हैं।
इस खानदान की भोर से सार्वजनिक तथा धार्मिक कार्यों की ओर उदारता से सम्पत्ति लगाई गई है। संवत् १९५९ में कन्या शाला का मकान बनाया तथा उसका व्यय आज तक आप ही दे
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प्रोसवाल आति का इतिहास
रहे हैं, आपने एक विद्यालय को २०००० का दान दिया था। संवत् १९७० में १७ हजार की लागत से गांव में एक उपाश्रय बनवाया। इसी प्रकार नथमलजी धर्मपत्नी हीराबाई के नाम से राणकपुरजी के रास्ते पर एक हीरा बावड़ी बनवाई। इस कुटुम्ब ने बरकाणा विद्यालय को १००००) एक बार तथा १०००) दूसरी बार प्रदान किये। इस विद्यालय की मेनेजिंग कमेटी के प्रेसिडेण्ट सेठ मूलचन्दजी है। इसके अतिरिक्त पालीताना, भावनगर विद्यालय, बम्बई महावीर विद्यालय, आदि स्थानों पर आपकी ओर से सहायताएं दी गई हैं। इस कुटुम्ब ने अभी तक लगभग एक लाख रुपयों का दान किया है।
घेमावत उदयभानुजी का परिवार, शिवगंज हम ऊपर कह आये हैं कि घेमाजी की संतानें घेमावत नाम से मशहूर हुई। इनके देवीचंदजी सुखजी, थानजी, तथा करमचन्दजी नामक ४ पुत्र हुए। घेमावत करमचन्दजी को बाली से सांडेराव के ठाकुर अपने यहाँ ले गये। इनका यहाँ जोरों से व्यापार चलता था। इनके पुत्र उदयभानजी भी सांडेराव में व्यापार करते रहे। उदयभानजी के रतनचंदजी, जवानमलजी, हजारीमलजी, मानमलजी, हिम्मत मलजी तथा फतेमलजी नामक ६ पुत्र हुए।
घेनावत रतन चन्दजी का परिवार-रतनचन्दजी ने धार्मिक कार्यों में बहुत इज्जत पाई। आपने सांडेराव से ऋषभदेवजी तथा आबूजी के संघ निकाले भाप संवत् १९२३ में सांडेराव से शिवगंज आये। संवत् १९३२ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके पुत्र चिमनमलजी आपके स्वर्गवासी होने के समय । माह के थे। घेमावत चिमनमलजी का खानदान शिवगंज में बहुत प्रतिष्ठित मान जाता है। भाप आरंभ में सांडेराव में कामदार थे। भाप समझदार पुरुष है। आपके पुत्र घेमावत धनराजजी तथा तखतराजजी है। धेमावत धनराजजी का जन्म संवत् १९५९ में हमा। संवत् १९८३ में आपने बी. ए. ऑनर्स तथा १९८५ में एल. एल.बो. की परीक्षा पास की। संवत १९८३ में आप सिरोही में डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट हुए, तथा संवत् १९८६ से आप चीफ मिनिस्टर के ऑफिस सुपरिटेन्डेन्ट पद पर कार्य करते हैं। आपके छोटे भाई तखतराजजी का जन्म संवत् १९६५ में हुआ। आप इंटर तक शिक्षा प्राप्त कर मुरादाबाद पोलीस ट्रेनिंग में गये, तथा इस समय जोधपुर में सब इन्स्पेक्टर पोलीस हैं धनराजजी के पुत्र सम्पतराजजी तथा खुशवंतराजजी हैं।
घेमावत जवानमलजी का परिवार-आपके पुत्र हीराचन्दजी तथा तेजराजजी हुए। आपका स्वर्गवास क्रमशः संवत् १९५४ तथा ५७ में हुआ घेमावत हीराचंदजी के पुत्र सुन्दरमलजी तथा तेजरामजी के पुत्र बरदीचंदजी तथा कुशलराजजी हुए। घेमावत सुंदरमलजी का जन्म १९३५ में हुआ। आप बड़े शिक्षा प्रेमी तथा धार्मिक सजन हैं। आप शिवगंज की कन्या शाला को विशेष सहायता देते रहते हैं। आपके मेनेजमेंट तथा कोशिश से पाठशाला की स्थिति में बहुत सुधार हुआ है। घेमावत हजारीमलजी के पुत्र राजमलजी सांडेराव में कामदार थे। इनके पौत्र देवीचंदजी तथा साहबवंदजी सांडेराव में व्यापार करते हैं। तथा घेमावत मानमलजी के पौत्र चांदमलजी सिरोही में सर्विस करते हैं।
घेमावत फतेचन्दजी का परिवार-घेमावत फतेचन्दजी गोड़वाड़ प्रान्त की पब्लिक तथा जागीरदारों में सम्माननीय व्यक्ति थे। संवत् १९५९ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके पुत्र पुखराजजो
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देवड़ा और डॉगी
का जन्म संवत् १९३८ में हुआ आप आरंभ में सांड़े राव ठिकाने में कामदार रहे। संवत् १९८३ में आप सिरोही स्टेट में कस्टम सुपरिटेन्डेन्ट हुए । तथा इस पद के साथ इस समय आप कंट्रोल हाउस होल्ड और जंगलात आफीसर भी हैं। सिरोही दरबार की आप पर अच्छी मरजी है। तथा समय २ पर आपको तथा धनराजजी घेमावत को दरबार ने सिरोपाव देकर सम्मानित किया है ।
देवड़ा
सेठ बुधमल जुहारमल देवड़ा, औरंगाबाद ( दक्षिण )
सिरोही के देवड़ा राजवंश से इंस परिवार का प्राचीन सम्बन्ध है । वहाँ से ३०० वर्ष पूर्व इस परिवार ने बगड़ी में आकर अपना निवास बनाया । यह कुटुम्ब स्थानकवासी भाम्नाय का मानने वाला है। बगड़ी से संवत् १८५५ में सेठ ओटाजी के पुत्र बुधमलजी पैदल रास्ते से औरंगाबाद आये । तथा " बुधमक जुहारमल" के नाम से किराने की दुकान की। आपके पुत्र जुहारमलजी तथा पूनमचन्दजी मे व्यापार को उन्नति दी। सेठ जुहारमलजी ने संवत् १९३८ में " पूनमचन्द वख्तावरमल" के नाम से सम्बई में दुकान खोली । इन बंधुओं के बाद सेठ जुहारमलजी के पुत्र सेठ गुरुतावरमलबी ने तथा सेठ पूनमचन्दजी के पुत्र सेठ जसराजजी ने इस दुकान के व्यापार सथा सम्मान को बहुत बढ़ाया । संवत् १९५८ में यह फर्म “औरंगाबाद मिल लिमिटेड” की बैंकर हुई। और इसके दूसरे ही साल मिल की सोल एजेन्सी इस फर्म पर आई । इसी साल फर्म की शाखाएं वरंगल, नांदेड, परभणी, जालना, सिकंदराबाद आदि स्थानों में खोली गई । संवत् १९६८ में इस दुकान की एक शाखा “गणेशदास, समरथमक" के नाम से मूलजी जेठा मारकीट बम्बई में खोली गई । इन सब स्थानों पर इस समय 1 सफलता के साथ व्यापार हो रहा है । तथा सब स्थानों पर यह फर्म प्रतिष्ठित मानी जाती 1. सेठ वख्तावरमलजी देवड़ा का स्वर्गवास संवत् १९८७ में ६९ साल की आयु में हुआ । जोधपुर स्टेट के जसवंतपुरा नामक गांव के १४ सालों तक ऑनरेरी मजिस्ट्रेट रहे । इसी प्रकार आपने बहुत प्रतिष्ठा प्राप्त की । सेठ जसराजजी संवत् १९८९ में स्वर्गवासी हुए । स्टेशन पर ७० हजार रुपयों की लागत से एक सुन्दर धर्मशाला बनवाई | बगड़ी में ४० सालों से एक पाठशाला व सदावृत 'चला रहे हैं । यहाँ एक समरथ सागर नामक सुंदर बावड़ी तथा १ धर्मशाला भी बन वाई। इसी तरह औरंगाबाद में मन्दिरों तथा धर्मशालाओं में २० हजार रुपये खरच किये। इसी तरह के कई धार्मिक काम इस परिवार ने किये ।
आप
इस परिवार ने औरंगाबाद
वर्तमान में इस फर्म के मालिक सेठ वख्तावरमलजी के पुत्र शेषमलजी तथा जसराजजी के पुत्र मेवराजजी, हस्तीमलजी तथा फूलचन्दजी हैं। सेठ मेघराजजी के पुत्र मोहनलालजी भी कारोबार में भाग छेते हैं। यह परिवार निजाम स्टेट तथा बगड़ी में बहुत प्रतिष्ठित माना जाता है।
डाँगी
शाहपुरा का डाँगी खानदान
इस परिवार के पूर्वज मेवाड़ में उच्च श्रेणी के व्यापारी तथा बैंकर्स थे। जब महाराणा अमरसिंह
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ओसवाल जाति का इतिहास
जी के तृतीय पुत्र सुजानसिंहजी ने शाहपुरा बसाया, उस समय वे इस परिवार के पूर्वज सेठ टेकचन्दजी को अपने साथ शाहपुरा में लाये थे। इनके पुत्र सरूपचन्दजी, अनोपचन्दजी तथा मंसारामजी हुए। इनमें सरूपचन्दजी तथा अनोपचन्दजी शाहपुरा रियासत के बैंकर थे। आवश्यकता पड़ने पर इन्होंने रियासत को आर्थिक सहायताएँ दी थों । “न्याय" का कुल काम इनके घर पर होता था। बनेड़ा स्टेट में भी यह परिवार बहुत समय तक बैंकर रहा। एक लड़ाई में मदद देने के उपलक्ष में शाहपुरा दरबार ने डाँगी अनोपसिंहजी को कंठी और मर्यादा की पदविया देकर सम्मानित किया था। आपके जेष्ठ पुत्र हमीरसिंहजी को सम्वत् १८९३ में कर्नल डिक्सन ने ब्यावर में बसने के लिये इजत के साथ निमंत्रित किया था। इनसे छोटे भाई चतुरभुजजी, सेठ सरूपचन्दजी डाँगी के नाम पर दत्तक गये। उदयपुर के दीवान मेहता अगरजी तथा मेहता शेरसिंहजी से इस परिवार की रिश्तेदारियाँ थीं। हमीरसिंहजी के ज्येष्ठ पुत्र चंदनमलजी के साथ उनकी धर्मपत्नी सम्वत् १९१४ में सती हुई। आगे चलकर डाँगी चतुर्भुजजी के पुत्र बालचन्दजी और चनणमलजी के दत्तक पुत्र अजीतसिंहजी कमजोर स्थिति में आ गये। जब शाहपुरा दरबार नाहरसिंह जी की दृष्टि में पुराने कागजात आये, तो उन्होंने इस परिवार की सेवाओं पर ख़याल करके डॉगी अजीतसिंह जी के पुत्र जीवनसिंहजी को "जीकारे" का सम्मान बख्शा । दरबार समय २ आपकी सलाह लेते थे। आप बड़े विद्याप्रेमी तथा सजन पुरुष थे । आपके पुत्र अक्षयसिंहजी डॉगी हैं। डॉगी बालचन्दजी के पुत्र सोभागसिंहजी बड़े परोपकारी, हिम्मत बहादुर तथा लोकप्रिय व्यक्ति थे। सम्वत् १९५६ के अकाल में आपने गरीब जनता की बहुत मदद की थी । सन् १९१२ में इनका स्वर्गवास हुआ । इनके पुत्र हरकचन्दजी हैं।
श्री अक्षयसिंहजी डॉगी ने बनारस यूनिवर्सिटी से बी०ए० पास किया। थर्ड ईयर में इकानामिक्स में प्रथम आने के कारण आपको स्कालरशिप मिली । इसी तरह आप हर एक क्लास में प्रथम द्वितीय रहते रहे । बी. ए. पास करने के बाद आप तीन सालों तक शाहपुरा में सिविल जज रहे। इसके बाद आपने एम० ए० और एल एल० बी० की डिगरी प्राप्त की। इस समय आप अअमेर में वकालत करते हैं। आपकी अंग्रेज़ी लेखन शेली ऊँचे दर्जे की है। ओसवाल कान्फ्रेंस के प्रथम अधिवेशन के आप मंत्री थे। सामाजिक सुधारों में आप अग्रगण्य रूप से भाग लेते हैं। आपके पुत्र सुभाषदेव हैं।
प्राचलिया
रामपुरा का आँचलिया परिवार यह परिवार मूल निवासी मारवाड़ का है। वहाँ से कई पुश्त पूर्व यह कुटुम्ब रामपुरे में आकर आवाद हुआ। इस परिवार में आँचलिया सूरजमलजी तथा उनके पुत्र चुनीलालजी कस्टम विभाग में कार्य करते थे। कार्य दक्ष होने के कारण जनता ने आपको चौधरी बनाया । और तब से इनका परिवार "चौधरी" कहलाने लगा। चौधरी चुन्नीलालजी के चम्पालालजी, रतनलालजी तथा किशनलालजी नामक ३ पुत्र हुए। इनमें चौधरी चम्पालालजी सीधे सादे तथा धार्मिक विचारों के व्यक्ति थे। भाप आसामी लेन देन का काम करते थे। संवत् १९७६ में ५१ साल की आयु में आप स्वर्गवासी हुए। आपके मोतीलाल जी, बसंतीलालजी, बाबूलालजी, कन्हैयालालजी, बहुतलालजी, तथा मदनलालजी नामक
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ओसवाल जाति का इतिहास
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राजवैद्य स्व० मुकुनचंदजी राय गांधी, जोधपुर ( पेज नं० ६५२ )
श्री बाबूलालजी चौधरी वकील, गरोठ.
श्री माणिक चंदजी बैताला, मद्रास ( पेज नं० ६३१)
श्री कचरुमलजी भाबड़, (छगनमल कपूरचंद)
जालना ( पेज नं० ६४६)
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मोधावत और दनेचा
६ पुत्र विद्यमान हैं। मोतीलालजी रामपुरा में व्यापार करते हैं। इनके पुत्र नानालालजी, ते जमलजी तथा शांतिलालजी हैं। चौधरी बसंतीलालजी रामपुरे के सर्व प्रथम मेट्रिक्युलेट हैं । सन् १९१५ में मेट्रिक पास करते ही आप जैन हॉईस्कूल के सेक्रेटरी नियुक्त हुए, और तब से इसी पद पर कार्य कर रहे हैं।
बाबूलालजी चौधरी-आपने इस परिवार में अच्छी उन्नति की। आपका जन्म संवत् १९५९ में हुआ। मेट्रिक तक अध्ययन कर आपने इन्दौर स्टेट की वकीली परीक्षा पास की । आज कल आप गरोठ में वकालात करते हैं। तथा रामपुरा भानपुरा जिले के प्रसिद्ध वकील माने जाते हैं। इतनी छोटी वय में ही आपने कानुनी लाइन मे अच्छी दक्षता प्राप्त कर अपनी आर्थिक स्थिति को उन्नत बनाया है। अ छोटे बंधु दरबार आफिस में क्लार्क है। तथा उनसे छोटे चौधरी बहुतलालजी इस समय एल. एल. बी.
और में मदनलालजी इन्टर में पढ़ रहे हैं। इसी तरह इस परिवार में रतनलालजी के पुत्र गेंदालालजी तथा छौटेलालजी इन्दौर में व्यापार करते है। यह परिवार श्वे. जैन स्थानकवासी आन्नाय को मानता है।
. सेठ मेघजी गिरधरलाल गोधावत, छोटी सादड़ी
इस परिवार के पूर्वज सेठ मेघजी बड़े प्रतिभावान सजन थे। आपके पौत्र सेठ नाथूलालजी ने ईस खानदान की मान मर्यादा तथा सम्पत्ति में बहुत उन्नति की। भाप बड़े वानी तथा व्यापारदक्ष पुरुष थे। अफीम के व्यापार में आपने सम्पत्ति उपार्जित की थी। मापने सवा लाख रुपयों के स्थाई फंड से "श्री नाथूलाल गोधावत जैन भाश्रम" नामक एक आश्रम की स्थापना की थी। सम्बत् १९७६ की ज्येष्ठ बदी.को आप स्वगवासी हुए। आपके पुत्र हीरालालजी का आपकी विद्यमानता में ही स्वर्गवास हो गया था। इस समय सेठ नाथूलालजी के पौत्र सेठ छगनलालजी विद्यमान हैं। आप सजन तथा प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। भापका परिवार मालवा तथा मेवाड़ के ओसवाल समाज में प्रधान धनिक माना जाता है। आप स्थानकवासी आन्नाव के माननेवाले सज्जन हैं। आपके यहाँ साड़ी में लेनदेन का व्यापार होता है, तथा बम्बई-धनजी स्ट्रीट में साहुकारी और आढ़त का व्यापार होता है।
दनेचा (कोहरा) सेठ आईदान रामचन्द्र दनेचा (बोहरा ) बंगलोर इस खानदान का मूल निवास मेसिया (मारवाड़) है। वहाँ से इस परिवार ने अपना मिवास व्यावर बनाया। आप स्थानकवासी आम्नाय के मानने वाले सज्जन हैं। इस खानदान में संठ ब्राईदानजी प्रतापी पुरुष हुए। . सेठ आईदानजी-आप लगभग १०० वर्ष पूर्व मारवाड़ से पैदल राह चलकर सिकन्दराबाद आये तथा रेजिमेंटल बैंस का कार्य आरम्भ किया। वहाँ से संवत् १९१० में आप बंगलोर आये। उस समय बंगलोर में मारवाड़ियों की एक भी दुकान नहीं थी। आपने कई मारवाड़ी कुटुम्बों को यहाँ आबाद करने में मदद दी। थोड़े समय बाद आपने अगरचन्दजी बोहरा की भागीदारी में "भाईदान अगरचन्द"
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पोसवाल जाति का इतिहास
के नाम से फर्म स्थापित की । ४० साल सम्मिलित व्यापार करने के बाद संवत् १९५४ में "आईदान रामचन्द्र" के नाम से अपना घरू बैंकिंग व्यापार स्थापित किया । आपका राज दरबार और पंच पंचायती में अच्छा सम्मान था। संवत् १९५५ में आप स्वर्गवासी हुए। आप के रामचन्द्रजी, हीराचन्दजी तथा प्रेमचन्दजी नामक तीन पुत्र हुए। अपने पिताजी के पश्चात् आप तीनों बंधुओं ने कार्य संचालित किया। आप तीनों सजन स्वर्गवासी हो गये हैं। सेठ रामचन्दजी के पुत्र ताराचन्दजी छोटी व्यय में स्वर्गवासी हए। वर्तमान में इस परिवार में सेठ हीराचन्दजी के पुत्र दुलहराजजी, मिश्रीलालजी तथा फूलचन्दजी बंगलोर छावनी में सेठ “भाईदान रामचन्द्र" के नाम से बैकिंग व्यापार करते हैं। आप तीनों सज्जनों का जन्म क्रमशः १९४८, ५२ तथा संवत् १९५६ में हुआ। सेठ प्रेमचन्दजी के पुत्र मिठूलालजी बंगलोर सिटी में कपड़े का व्यापार करते हैं। सेठ मिश्रीलालजी बड़े सज्जन तथा शिक्षित व्यक्ति हैं। आपकी दुकान बंगलोर में सबसे प्राचीन तथा प्रतिष्ठित है। आपके पुत्र भंवरलालजी की वय २० साल हैं।
लाला दानमलजी बागचार, जेसलमेर लाला अमोलक चन्दजी बागचार - आप जेसलमेर में प्रतिष्ठा प्राप्त महानुभाव हुए। आप का परिवार मूल निवासी जेसलमेर का ही है। आप मीर मुन्शी थे। तथा जेसलमेर रियासत की ओर से मोतमिद बनाकर ए. जी. जी. आदि गवर्नमेंट आफीसरों के पास तथा अन्य राजाओं के पास भेजे जाया करते थे। महारावल रणजीतसिंहजी आपसे बड़े प्रसन्न थे। उन्होंने संवत् १९२० की वेशाख वदी २ को एक परवाने में लिखा था कि "थं बहोत दानतदारी व सचाई के साथ सरकार की बंदगी में मुस्तेद व सावत कदम है."सरकार थारे ऊपर मेहरबान है"। इसी तरह पटियाला दरबारने भी आपको सनद दी थी। आपकी मातमी के लिये जेसलमेर दरबार आपकी हवेली पर पधारे थे। आपके पुत्र लाला माणकचन्दजी हुए।
लाला माणकचन्दजी बागचार-आप अपने पिताजी के बाद "बाप" परगने के हाकिम हुए। इसके अलावा आपने रेवेन्यू इन्स्पेक्टर, कस्टम आफीसर तथा बाउण्डरी सेटलमेंट मोतमिद आदि पदों पर भी काम किया। पश्चात् आप जीवन भर "जज" के पद पर कार्य करते रहे। रियासत में आने वाले बृटिश आफीसरों का अरेंजमेंट भी आपके जिम्मे रहता था। आपकी योग्यता की तारीफ रेजिडेण्ट कर्नल एवेट, कर्नल विंडहम तथा मि० हेमिल्टन आदि उच्च पदाधिकारियों ने सार्टिफिकेट देकर की । संवत् १९७८ में आप स्वर्गवासी हए । जेसलमेर दरबार आपकी मातमपुर्सी के लिये आपकी हवेली पर पधारे थे। आपके पुत्र लाला दानमलजी विद्यमान हैं।
____ लाला दानमलजी बागचार-आप अपने पिताजी के बाद "ज्वाइन्ट जज" के पद पर मुकर हुए। इसके पहिले आप "बाप तथा समखावा" परगनों के हाकिम तथा दीवान और दरबार की पेशी पर नियुक्त थे । आपको जेसलमेर दीवान श्रीयुत एम० आर० सपट, ए० जी०जी० भार०ई० हॉलेण्ड आदि कई उच्च आफीसरों न सार्टिफिकेट देकर सम्मानित किया है। संवत् १९८० तक भाप सर्विस करते रहे। आपका खानदान जैसलमेर में प्रतिष्ठा सम्पन्न माना जाता है।
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सालेचा और टाटिया सालेका
सेठ गुलाबचंदजी सालेचा, पचपदरा इस परिवार के पूर्वज सालेचा बजरंगजी गोपड़ी गांव से संवत् ११५ में पचपदरा भाये । तथा यहाँ लेन देन का व्यापार शुरू किया। इनकी नीं पीढ़ी में सागरमलजी हुए। आप बंजारों के साथ नमक का व्यापार तथा कोटे में अफीम की खरीदी फरोख्ती का म्यापार करते थे। इन व्यापारों में सम्पत्ति उपार्जित कर आपने अपने आस पास की जाति बिरादरी में बहुत बड़ी प्रतिष्ठा पाई । जोधपुर दरवार को आपने ६० हजार रुपया कर्ज दिये थे, इसके बदले में पचपदारा हुकूमत की आय आपके पहां जमा होती थी। संवत् ११३५ में भाप स्वर्गवासी हुए । उस समय आपके पुत्र हजारीमलजी ४ साल के थे।
सेठ हजारीमलजी सालेचा-आप पचपदराकेनामी व्यापारी और रईस तबियत के ठाठबाट वाले पुरुष थे। जोधपुर स्टेट व साल्ट डिपार्टमेंट के तमाम ऑफोसरों से आपका अच्छा परिवय था। आप जोधपुर स्टेट से २ लाख मन नमक खरीदने का कंट्राक्ट कई सालों तक लेते रहे। संवत् १९७३ में माप स्वर्गवासी हुए। आपके नाम पर सालेचा गुलाबचन्दजी भोपाल से दत्तक माये । . .
सेठ गुलाबचन्दजी सालेचा-आपका जन्म संवत् १९४४ में हुआ। मापं बड़े अनुभवी तथा होशियार पुरुष हैं। आपने पचपदरा आने के पूर्व भोपाल, नागपूर आदि में स्कूल खुलवाये। पचपदरा में भी शिक्षा के काम में मदद देते रहे। आपके पास भारत की नमक को सीलों का . सालों का कम्पलीट अकाउण्ट है। संवत् १९२९ में आपने विलायती नमक की काम्पीटीशन में पचपदरा साल्ट का एक जहाज करांची से भर कर कलकत्ता रवाना किया, लेकिन बृटिश कम्पनियों ने सम्मिलित होकर वहाँ भाव बहुत गिरा दिया, इससे आपको उसमें सफलता न रही। नमक के व्यापार में आपका गहरा अनुभव है। भाप पचपदरा के प्रधानपंच तथा नाकोड़ा पाश्र्वनाथ के प्रबन्धक हैं। तथा जाति सुधारों में भाग लेते रहते हैं। आपके पुत्र लक्ष्मीचन्दजी तथा अमीचन्दजी जोधपुर में और चम्पालालजी पचपदरा में पढ़ते हैं।
साँटिया सेठ भोमराज किशनलाल टाँटिया, खिचंद यह परिवार खिचंद का रहने वाला है। आप स्थानकवासी आम्नाय के मानने वाले सज्जन हैं। इस परिवार के पूर्वज सेठ हिम्मतमलजी टटिया, मालेगांव (खानदेश) गये, तथा वहाँ सर्विस करते रहे। फिर मापने चौपड़ा (खानदेश) में दुकान की। अपने जीवन के अन्तिम २५ सालों तक: मारवाद में आप धर्म ध्यान में लीन रहे। संवत् १९७९ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके हस्तीमलजी, सोभागमलजी, गम्भीरमलजी तथा भोमराजजी नामक पुत्र हए। इनमें हस्तीमलजी टांटिया ने संवत् १९४८ में बम्बई में दुकान खोली। संवत् १९६९ में आप स्वर्गवासी हुए। भाप चारों भाइयों का कारवार संवत् १९७६ में अलग २ हुआ। सेठ हत्तीमलजी के किशनलालजी तथा गणूलालजी नामक को पुत्र हुए। इनमें र.णूलालजी मद्रास दत्तक गये।
. . सेठ किशनलालजी ने अपने काका भोमराजजी के साथ बम्बई में भागीदारी में व्यापार भारंभ
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ओसवाल जाति का इतिहास
किया। तथा इधर संवत् १९८१ से बम्बई कारबा देवी में आढ़त का व्यापार "मिश्रीमल गुमानचन्द" के नाम से करते हैं। खिचन्द में आपका परिवार अच्छा प्रतिष्ठत माना जाता है। आपके पुत्र भेरूराज जी, गुमानचन्दजी, देवराजजी तथा समीरमलजी हैं। सेठ भोमराजजी विद्यमान हैं । आपके पुत्र मिश्रीलालजी हैं। इसी प्रकार इस परिवार में सेठ सोभागमलजी और उनके पुत्र कन्हैयालालजी का व्यापार धरनगाँव में तथा गम्भीरमलजी और उनके पुन मेघराजजी का व्यापार सारंगपुर (मालवा ) में होता है।
प्राकड सेठ हरखचन्द रामचन्द प्राबड़, चांदवड़। यह परिवार पीसांगन ( अजमेर के पास ) का निवासी है। आप मन्दिर मार्गीय आम्नाय को मानने वाले सजन हैं। इस परिवार के पूर्वज सेठ हणुवंतमल जी के बड़े पुत्र हरखचन्दजी व्यापार के लिये संवत् १९३० में चाँदवढ़ के समीप पनाला नामक स्थान में आये, तथा किराने की दुकानदारी शुरू की। आपका जन्म संवत् १९१५ में हुआ। पीछे से अपने छोटे भ्राता मूलचन्दजी को भी बुलालिया, तथा दोनों बंधुओं ने हिम्मत पूर्वक सम्पत्ति उपार्जित कर समाज में अपने परिवार की प्रतिष्ठा स्थापित की। सेठ मोती. लालजी का संवत् १९४४ में स्वर्गवास हो गया है, तथा सेठ हरकचन्दजी विद्यमान हैं। आपके पुत्र रामचन्दजी तथा केशवलालजी हैं। आप दोनों का जन्म क्रमशः संवत् १९४६ तथा १९५३ में हुआ। आप दोनों सजन अपनी कपड़ा व साहुकारी दुकान का संचालन करते हैं।
श्री केशवलालजी श्राबड़-आप बड़े शान्त, विचारक और आशावदी सजन हैं। चाँदवढ़ गुरुकुल के स्थापन करने में, उसके लिए नवीन बिल्डिंग प्राप्त करने में आपने जो जो कठिनाइयाँ झेली, उनकी कहानी लम्बी है। केवल इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि, आपने विद्यालय की जमावट में अनेकानेक रुकावटों व कठिनाइयों की परवाह न कर उसकी नींव को दृढ़ बनाने का सतत् प्रयत्न किया। इसके प्रति फल में परम रमणीय एवं मनोरम स्थान में आज विद्यालय अपनी उत्तरोत्तर उन्नति करने में सफल हो रहा है। तथा अब भी आप विद्यालय की उसी प्रकार सेवाएँ बजा रहे हैं। आप खानदेश तथा महाराष्ट्र के सुपरिचित व्यक्ति हैं। आपके बड़े भ्राता रामचन्द्रजी विद्यालय की प्रबंधक समिति के मेम्बर हैं। आपके पुत्र शांतिलालजी ब्रह्मचर्याश्रम से शिक्षण प्राप्तकर कपड़े का व्यापार सम्हालते हैं। इनसे छोटे लखीचंद तथा सरूपचन्द हैं। इसी प्रकार केशवलालजी के पुत्र संचियालाल तथा रतनलाल हैं ।
सेठ धनरूपमल छगनमल भाबड़, जालना इस खानदान का मूल निवास स्थान बीजाथल (मारवाड़) है। आप मन्दिर आम्नाय को माननेवाले सज्जन हैं। इस खानदान में सेठ धनरूपमलजी मारवाड़ से जालना ४० वर्ष पूर्व आये । तथा यहाँ आकर व्यापार किया। भापका स्वर्गवास हुए करीब १० वर्ष हुए। आपके पश्चात् आपके पुत्र सेठ छगनमलजी ने इस फर्म के काम को सम्हाला । आपके समय में फर्म की अधिक तरक्की हुई । संवत् १९६५ के करीब आपका स्वर्गवास हुआ। धार्मिक कार्यों की ओर आपकी अच्छी रुचि थी। आपके पश्चात् आपके पुत्र सेठ कपूरचन्दजी मे इस फर्म के काम को सम्हाला । वर्तमान समय में आप ही इस फर्म के
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ गुलाबचंदजी सालेचा, पचपदरा,
सेठ किशनलालजी टांटिया (मिश्रीमल गुलाबंचद ) खिचंद.
श्री केशवलालजी श्राबड़, चांदवड़ (नाशिक)
बाबू मन्नालालजी रीगल सिनेमा, इन्दौर.'
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ठाकुर और भादाणी
मालिक हैं। आपका संवत् १९३५ में जन्म हुआ है। आप समझदार तथा सज्जन व्यक्ति हैं। आपके हाथों से इस फर्म की बहुत तरक्को हुई। आपने जालना के मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाने में दो तीन हजार रुपये लगाये । इसी तरह के धार्मिक कामों में आप सहयोग लेते रहते हैं। इस समय आपके यहाँ लेन-देन, कृषि, तथा सराफी का व्यापार होता है । आपके पुत्र कचरूलाब्जी व्यापार में भाग लेते हैं तथा उत्साही युवक हैं । जालना में यह फर्म अच्छी प्रतिष्ठित मानी जाती है।
ठाकुर
सेठ देवीचंद पन्नालाल ठाकुर, इन्दौर
इस परिवार के पूर्वज अपने मूल निवास ओशियों से कई स्थानों पर निवास करते हुए लगभग २०० साल पूर्व इन्दौर में आकर आबाद हुए । इन्दौर में इस परिवार के पूर्वज सेठ बिरदीचन्दजी अफीम का व्यापार करते थे । आपके पुत्र नाथूरामजी तथा नगजीरामजी “नाथूराम नगजीराम" के नाम से व्यापार करते थे । आप दोनों भाइयों के क्रमशः देवीचन्दजी, तथा शंकरलालजी नामक एक एक पुत्र हुए । ये दोनों भाई अपना अलग २ व्यापार करने लगे ।
सेठ देवीचन्दजी का परिवार - आप इस परिवार में बड़े व्यवसाय चतुर तथा होशियार पुरुष हुए। आपके पुत्र पन्नालालजी तथा मोतीलालजी ने अपनी फर्म पर चाँदी सोने का व्यवसाय आरम्भ किया । तथा इस व्यापार में अच्छी सम्पत्ति उपार्जित की। सेठ पनालालजी का ९० साल की आयु में संवत् १९९० में स्वर्गवास हुआ। आपके पुत्र सरदारमलजी ६० साल के हैं। इनके पुत्र धन्नालालजी, मनालालजी तथा अमोलकचन्दजी हैं। इनमें अमोलकचन्दजी अपने पिताजी के साथ सराफी दुकान में सहयोग देते हैं । श्री धन्नालालजी तथा मन्नालालजी ठाकुर - आप दोनों बन्धुओं ने इन्दौर की शौकीन जनता की मनःस्तुष्टि के लिये सन् १९२३ में क्राउन सिनेमा तथा सन् १९३४ में रीगल थियेटर का उद्घाटन किया । इन सिनेमाओं में एक में "हिन्दी टॉकी" तथा दूसरी में “अंग्रेज़ी टॉकी" मशीन का व्यवहार किया जाता है। सिनेमा लाइन में आप दोनों बन्धुओं का अच्छा अनुभव हैं। धन्नालालजी के पुत्र हस्तीमलजी तथा बाबूलालजी पढ़ते हैं । मोतीलालजी ठाकुर के पुत्र इन्दौरीलालजी चाँदी सोने का व्यापार करते हैं इनके पुत्र मिश्रीलालजी व्यापार में भाग लेते हैं, तथा कालूरामजी छोटे हैं। इसी प्रकार इस परिवार में शंकरलालजी के पुत्र भगवानदासजी, सूरजमलजी तथा हजारीमलजी हुए। इनमें हजारीमलजी मौजूद हैं। सूरजमलजी के पुत्र ओंकारलालजी तथा हीरालालजी अपने काका के साथ चाँदी सोने का व्यापार करते हैं। ओंकारलालजी के पुत्र रतनलालजी हैं ।
भादाणी
सेठ दौलतराम हरखचन्द मादाणी, कलकत्ता
यह परिवार श्वे ० जैन तेरापन्थी आम्नाय को मानने वाला है । आपका मूल निवास स्थान डूंगरगढ़ (बीकानेर) का है। इस खानदान के पूर्व पुरुष भादाणी आशकरणजी ने करीब सौ वर्ष पहले
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प्रोसवाल जाति का इतिहास
कूच बिहार में दुकान खोली । धीरे २ आपका काम बढ़ने लगा, और आपकी कूच बिहार स्टेट में बहुत सी जमीदारी हो गई । आपके तनसुखदासजी और गुलाबचंदजी नामक दो पुत्र हुए। इन दोनों भाइयों के हाथ से इस फर्म की खूब उन्नति हुई । इंगरगढ़ बसाने में भादाणी तनसुखदासजी ने बहुत मदद दी । भादाणी हरखचन्दजी बीकानेर "राजसभा" के मेम्बर रहे थे । तनसुखदासजी के दौलतरामजी और गुलाब वन्दजी के हरकचन्दजो नामक पुत्र हुए । इनमें से श्री दौलतरामजी का स्वर्गवास संवत् १९७५ में हो गया आपके पुत्र मालचन्दजी विद्यमान हैं। हरखचन्दजी इस समय इस फर्म के खास प्रोप्राइटर हैं। आपके पाँचपुत्र हैं जिनके नाम श्री केशरीचन्दजी, पूनमचन्दजी, मोतीलालजी, इन्द्रराजमलजी और सम्पतरामजी हैं। करीब बीस वर्ष पूर्व इस फर्म की एक शाखा कलकत्ता आर्मेनियन स्ट्रीट में खोली गई है। यहाँ "दौलतराम हरकचंद" के नाम से कमीशन एजंसी का काम होता है।
गारिया सेठ सरूपचन्द पूनमचन्द पगारिया, बेतूल इस परिवार के पूर्वज सेठ छोटमलजी पगारिया, गूलर (जोधपुर स्टेट) से लगभग ७० साल पहिले चांदूर बाजार आये, तथा वहाँ से उनके पुत्र सरूपचन्दजी संवत् १९२७ में बदनूर आये तथा सेठ प्रतापचन्दजी गोठी की भागीदारी में "तिलोकचन्द सरूपचन्द" के नाम से कपड़े का कारबार चालू किया, संवत् १९३९ में आपने अपना निज का कपड़े का धंधा खोला, व्यापार के साथ २ सेठ सरूपचन्द जी पगारिया ने २ गाँव जमीदारी के भी खरीद किये, संवत् १९७४ में ६० साल की वय में आपका शरीरान्त हुभा। आपके गणेशमलजी, सूरजमलजी, मूलचन्दजी, चांदमलजी तथा ताराचन्दजी नामक ५ पुत्र हुए हुन भाइयों में से गणेशमलजी १९७१ में तथा मूलचन्दजी १९८२ में स्वर्गवासी हए ।
सेठ सरजमलजी पगारिया-आपका जन्म संवत् १९३६ में हुआ।आप सेठ "शेरसिंह माणकचंद" की दुकान पर पिताजी की मौजूदगी तक मुनीम रहे । बाद आपने अपनी जमीदारी के काम को बढ़ाया, इस समय आपके यहाँ १० गांवों की जमीदारी है, इसके अलावा बेतूल में कपड़ा तथा मनीहारी काम होता हैं। आपके छोटे बंधु चांदमलजी का जन्म १९४२ में तथा ताराचन्दजी का जन्म १९४९ में हुआ। सेठ गणेशमलजी के पुत्र धरमचन्दजी, सूरजमलजी के पुत्र मोतीलालजी तथा चांदमलजी के पुत्र कन्हैयालालजी व्यापार में भाग लेते हैं। आप तीनों का जन्म क्रमशः सम्वत १९५४ संवत १९६१ तथा १९६० में हुआ। मूलचन्दजी के पुत्र पुखराजजी, जसराजजी, हंसराजजी और ताराचन्दजी के वसंतीलालजी हैं।
भटेवा सेठ मोतीचन्द निहालचन्द, भटेवड़ा, बेलुर (मद्रास) इस परिवार के पूर्वज सेठ मनरूपचंदजी भटेवड़ा अपने मूल निवास स्थान पिपलिया (मारवाद) से व्यापार के लिये जालना आये, तथा वहाँ रेजिमेंटल बैकिंग तथा सराफी व्यापार किया । आपका परिवार स्थानकवासी आम्नाय के मानने वाला है। संवत् १९३४ में ६८ साल की वय में आप स्वर्गवासी हुए।
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पूनमियां और ललूडिया राठोड़
भापके जुहारमलजी, मोतीचन्दजी, छोगमलजी तथा हजारीमलजी नामक पुत्र हुए। भटेवड़ा जुहारमलजी का स्वर्गवास सम्वत् १९५८ में ६४ साल की वय में हुआ। आपके नाम पर आपके भतीजे गुलाबचन्दजी दत्तक आये । इस समय इनके पुत्र केवलचन्दजी तथा घेवरचन्दजी बेलूर में व्यापार करते हैं। वलचंदजी पुत्र सोहनराजजी तथा सम्पतराजजी हैं।
भटेवड़ा मोतीचन्दजी का जन्म सम्बत् १९०० में हआ था। आपने २६ साल की वय में जालना से सागर में अपनी दुकान खोली । आप सरल प्रकृति के सजन थे । सम्बत् १९३४ में आपका स्वर्गवास हो गया। आपके पुत्र सेठ निहालचन्दजी विद्यमान हैं। आप बेलूर के प्रतिष्ठित सज्जन माने जाते हैं। आपने बेलूर में “मोतीचन्द निहालचन्द" के नाम से फर्म स्थापित की। इस समय यह फर्म बेलूर में मातवर है। आपके यहाँ बेकिंग तथा सराफी का काम होता है। सेठ छोगमलजी के पुत्र सूरजमलजी व गुलाबचन्दजी हुए। इनमें गुलाबचन्दजी, अपने काका सेठ जुहारमलजी के नाम पर दत्तक गये, तथा सरजमलजी के पुत्र हीराचन्दजी ओर बनेचन्दजी बेलूर में अपना २ स्वतन्त्र व्यापार करते हैं। हीराचन्दजी के पुत्र भंवरीलालजी तथा बनेचन्दजी के विजयराजजी तथा सम्पतराजजी हैं। सेठ हजारीमलजी भटेवड़ाके पौत्र सुखराजजी विद्यमान हैं। इनके पुत्र चम्पालालजी हैं।
पूनमिया
सेठ ताराचन्द डाहजी पूनमियां, सादड़ी इस वंश का मूल निवास सादड़ी है । यहाँ से सेठ इंदाजी लगभग ०५ साल पहले सादड़ी से बम्बई गये । तथा इन्होंने बम्बई में सराफी लेन देन शुरू किया। इनके डाहजी, तेजमलजी तथा गेंदमलजी नामक ३ पुत्र हुए । डाहजी का जन्म सम्वत् १९१९ तथा मृत्युकाल सम्बतू १९७८ में हुआ। ये अपना सराफी लेनदेन व जुएलरी का काम काज देखते रहे । आप धार्मिक वृत्ति के पुरुष थे। आपके पुत्र केसरीमलजी, रूपचन्दजी तथा ताराचन्दजी विद्यमान हैं । इनमें केसरीमलजी, तेजमालजो के नाम पर दत्तक गये । इनकी बाँदरा (बम्बई) में चाँदो सोने की दुकान है । गेंदमलजी के पुत्र रिखबदासजी तथा बालचन्दजी हैं। इनका "रिखबदास बालचन्द" के नाम से मोती बाजार-बम्बई में गिनी का बड़ा कारबार होता है।
सेठ ताराचन्दजी-आप स्थानकवासी आम्नाय को मानने वाले हैं। आप सेठ नवलाजी दीपाजी के साथ बम्बई में बंगड़ियों का इम्पोटिंग तथा डीलिंग विजिनेस करते हैं। मापने देशी चूड़ियों के कारबार को भी अच्छी उत्तेजना दी है। ताराचन्दजी शिक्षित सज्जन हैं। आपने स्थानकवासी ज्ञानवर्द्धक सभा के लिये ६०००) का एक सुन्दर मकान बनवाया है। आप अन्य संस्थाओं को भी सहायताएँ देते रहते हैं।
ललडिया राठोड़ सेठ पृथ्वीराज नवलाजी, ललूंडिया राठोड़, सादड़ी इस वंश के पूर्वज जोकोदा (शिवगंज के पास) में रहते थे। वहाँ इन्होंने एक जैन मन्दिर भी बनवाया था । इस कुटुम्ब में दौलजी के पुत्र राजाजी तथा पौत्र खाजूजी हुए। जाकोड़ा से खाजूजी और १२२
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ओसवाल जाति का इतिहास
उनके पुत्र दीशजी सादड़ी आये । दीपाजी के पुत्र नवलाजी का जन्म १८९९ में तथा भागाजी का १९११ में हुआ। इन दोनों भाइयों का स्वर्गवास सम्वत् १९६६ में हुआ । नवलाजी के कस्तूरचन्दजी, संतोषचन्द जी, पृथ्वीराजजी तथा दलीचन्दजी नामक ४ पुत्र हुए । इन भाइयों ने सम्वत् १९४९ में बम्बई में बंगड़ी का व्यापार शुरू किया, तथा इस व्यापार में इतनी उन्नति प्राप्त की, कि आज आप बम्बई में सब से बड़ा चूड़ी के व्यापार करते हैं। आपका आफिस "नवलाजी दीपाजी" के नाम से फोर्ट बम्बई में है, तथा आपके यहाँ चूड़ी का विदेशों से इम्पोर्ट होता है । सेठ कस्तूरचन्दजी सम्बत् १९५४ में तथा दलीचन्दजी १९७५ में स्वर्गवासी हुए । इस समय संतोषचन्दजी तथा पृथ्वीराजजी विद्यमान हैं। संतोषचन्दजी के पुत्र पुखराजजी व्यापार में भाग लेते हैं तथा दलीचन्दजी के पुत्र फूलचन्दजी पढ़ते हैं।
सेठ पृथ्वीराजजी-आप सादड़ी तथा गोड़वाड़ के प्रतिष्ठित सजन हैं। इस समय आप "दयाचन्द धर्मचन्द" की पेढ़ी व न्यात के नौहरे के मेम्बर हैं। आपके परिवार ने राणकपुरजी में ८ हजार रुपये लगाये । पंच तीर्थी के संघ में १७ हजार रुपये व्यय किये । सादड़ी में उपासरा बनवाया। नाडोल तथा बाँदरा के मन्दिरों में कलश चढ़ाने में मदद दी। नाडलाई मन्दिर में चाँदी का पालना चढ़ाया । इसी तरह के कई धार्मिक कार्यों में आप हिस्सा लेते रहते हैं।
सेठ कोजीराम घीसूलाल छजलानी, टिंडिवरम् (मद्रास)
इस खानदान के मालिकों का मूल-निगसस्थान जेतारण (मारवाड़) का है। आप जैन श्वेताम्बर समाज में तेरापंथी आन्नाय को मानने वाले हैं। इस परिवार के श्री घीसूलालजी सबसे पहले सम्वत् १९७२ में टिण्डिवरम् आये और गिरवी के लेन देन की दुकान स्थापित की । घोसूलाजजी बड़े साहसी और व्यापार कुशल पुरुष हैं । आपका जन्म संवत् १९५३ में हुआ। आपके पुत्र बिरदीचन्दजी इस समय दुकान के काम को संभालते हैं । इस फर्म की ओर से दान धर्म और सार्वजनिक कामों में यथाशक्ति सहायता दी जाती है। इस समय इस फर्म पर गिरवी और लेन देन का व्यवसाय होता है।
सेठ चौथमल चाँदमल भूरा, जबलपूर इस गौत्र की उत्पत्ति भणसाली गौत्र से हुई है। इस परिवार का मूल निवास देशनोक (बोकानेर) है । वहाँ से सेठ परशुराम जी भूरा अपने पुत्र चौथमलजी तथा करनीदानजी को लेकर सौ वर्ष पूर्व जबलपुर आये । यहां से करणीदानजी शिवनी चले गये, इस समय उनके परिवार वाले शिवनी में "बहादुरमल लखमीचन्द" के नाम से व्यापार करते हैं। सेठ चौथमलजी भूरा संवत् १९२३ में स्वर्गवासी हुए। आपके चाँदमलजी, मूलचन्दजी, मिलापचन्दजी तथा चुनीलालजी नामक ४ पुत्र हुए। इनमें सेठ चांदमल जी ने १९ साल की आयु में अपने पिताजी के साथ संवत् १९२९ में सराफी की दुकान स्थापित की साथ ही इस फर्म की स्थाई सम्पत्ति को भी आपने खूब बढ़ाया । स्थानीय जैन मन्दिर की व्यवस्था
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गांधी
का भार संवत् १९४० से आपने लिया। तथा उसकी नई बिल्डिंग व प्रतिष्ठा कार्य आपही के समय में सम्पन्न हुभा। इसी तरह आपकी प्रेरणा से सिवनी, बालाघाट, कटंगी तथा सदर में जैन मन्दिरों का निर्माण हुआ। आप बड़े प्रभावशाली पुरुष थे। आपके छोटे भाई आपके साथ व्यापार में सहयोग देते रहे। संवत् १९७९ में आप स्वर्गवासी हुए । भापके नेमीचन्दजी, रिखवदासजी तथा मोतीलालजी नामक ३ पुत्र हुए । इनमें नेमीचन्दजी, मूलचन्दजी के नाम पर दत्तक गये। मिलापचन्दजी के राजमलजी माणिकचन्दजी तथा हीरालाल जी नामक ३ पुत्र हुए। इनमें माणिकवन्दजी स्वर्गवासी होगये।
इस समय इस परिवार में सेठ राजमलजी, रिखबदासजी, मोतीलालजी, हीरालालजी तथा रतनचन्दजी मुख्य हैं। सेठ मोतीलालजी शिक्षित तथा वजनदार सज्जन हैं। सन् १९२१ से आप म्युनिसिपल मेम्बर हैं। जबलपुर की हरएक सार्वजनिक संस्थाओं में आप भाग लेते रहते हैं। सेठ रिखवदासजी के पुत्र हुकुमचन्दजी व्यापार में भाग लेते हैं और रतनचन्दजी सेठ नेमीचन्दजी के नाम पर दत्तक गये हैं, तथा ईसरचन्दजी व प्रेमचन्दजी छोटे हैं। राजमलजी के पुत्र मगनमलजी एवं मोतीलालजी के खुशहालचन्दजी हैं। यह परिवार जबलपुर में प्रतिष्ठा सम्पन्न माना जाता है।
गाँधी गाँधी मेहता डाक्टर शिवनाथचंदजी, जोधपुर भाटों की ख्यातों से पता चलता है कि जालौर के चौहान वंशीय राजा लाखणसी से भण्डारी और गांधी मेहता वंशों की उत्पत्ति हुई। लाखणसीजी के ११ पीढ़ी बाद पोपसीजी हुए जो अपने समय के आयुर्वेद के विख्यातज्ञाता थे। कहा जाता है कि उन्होंने संवत् १३३८ में जालोर के रावल सांवन्तसिंह जी को एक असाध्य व्याधि से आराम किया इससे उक्त रावलजी ने इन्हें "गान्धी" की उपाधि से विभू. षित किया। पोपसीजी के १३ पुश्त बाद रामजी हुए जो बड़े वीर और दानी थे। रामजी की पांचवी पीढ़ी में शोभाचन्दजी हुए जो बड़े वीर और नीतिज्ञ थे। आप पोकरण के एक युद्ध में वीरतापूर्वक लड़ते हुए काम आये। उनके स्मरण में पोकरण ठाकुर साहब ने वहाँ देवालय बनवाया है, जहाँ लोग "जान" के लिये जाते हैं। आपके पौत्रों में आलमचन्दजी बड़े वीर हुए। आप पोकरण ठाकुर सवाईसिंहजी के प्रधान थे और मूंडवे मुकाम पर अमीरखाँ से युद्ध करते हुए धोके से मारे गये । आपके स्मारक में उक्त स्थान पर छत्री बनी हुई है। शोभाचन्दजी के कनिष्ट भ्राता रूपचन्दजी मराठों के साथ युद्ध करते हए वीरगति को प्राप्त ह। आपके पश्चात् इसी वंश के रत्नचन्दजी और अभयचन्दजी पोकरण ठाकुर साहब के पक्ष में युद्ध करते हुए काम आये। इस वंश में कई सतियाँ हुई।
डाक्टर शिवनाथचन्दजी इसी प्रतिष्ठित वंश में हैं। संवत् १९४८ में आपका जन्म हुआ। १३ वर्ष की अवस्था में आपके पिता देवराजजी का देहान्त होगया। भारने इन्दौर में स्टेट की ओर से डाक्टरी की शिक्षा प्राप्त की। जोधपुर राज्य के देशी आदमियों में आप सबसे पहले डॉक्टर हुए । इस समय आप वेक्सीनेशन सुपण्टेिण्डेण्ट हैं। आप जोधपुर की ओसवाल यंगमेन्स सोसायटी के कई वर्ष तक मन्त्री रहे। आप अत्यन्त लोकप्रिय और निःस्वार्थ डोक्टर है और सार्वजनिक काय्यों में उत्साह से भाग लेते है। आपके बड़े पुत्र मेहतापचन्दजी बी० कॉम बड़े उत्साही और देशभक्त युवक हैं।
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ओसवाल जाति का इतिहास
राजवैद्य हीराचंद रतनचन्द रायगांधी का खानदान, जोधपुर
रायगाँधी देपालजी के पूर्वज गुजरात में गाँधी (पसारी ) का व्यापार तथा वैद्यकी का कार्य करते थे। इसलिये ये "रायगाँधी" कहलाये। गुजरात से देपालजी नागोर आये। इनके पौत्र गहराजजी ख्याति प्राप्त वैद्य थे। संवत् १५२५ में इन्होंने देहली के तत्कालीन लोदी बादशाह को अपने इलाज से आराम किया। कहा जाता है कि इनकी प्रार्थना से बादशाह ने शत्रुजय के यात्रियों पर लगनेवाला कर माफ किया। इनकी १० वीं पीढ़ी में केसरीचंदजी प्रतिष्ठित वैद्य हुए। इनको संवत् १८०८ में महाराजा बखतसिंहजी नागोर से जोधपुर लाये, और जागीर के गाँव देकर बसाया, तब से यह खानदान जोधपुर में "राज्यवैद्य" के नाम से मशहूर हुआ। केशरीसिंहजी के बाद क्रमशः बखतमलजी, वर्धमानजी सरूपचन्दजी, पन्नालालजी, तथा मालचन्दजी हुए, उपरोक्त व्यक्तियों को समय २पर १० गाँव जागीरी में मिले थे। संवत् १८९३ में मालचन्दजी के गुजरने के समय उनके पुत्र इन्द्रचन्दजी किशनचन्दजी तथा मुकुन्दचन्दजी नाबालिग थे, अतः बागी सरदारों ने इनके गाँव दबालिये। इनके सयाने होनेपर दरबार ने गाँवों की एवज में तनख्वाह करदी। समय २ पर इस खानदान को राज्य की ओर से सिरोपाव भी मिलते रहे। गाँधी बखतमलजी के पौत्र गदमलजी तथा मालचन्दजी के छोटे भ्राता प्रभूदानजी प्रसिद्ध वैद्य थे। किशनचन्दजी तथा मुकुन्दचन्दजी को वैद्यक का अच्छा अनुभव था। आप क्रमश संवत् १९५१ तथा १९६४ में स्वर्गवासी हुए। मुकुन्दचन्दजी के माणकचन्दजी, हीराचन्दजी तथा रतनचन्दजी नामक ३ पुत्र हुए, इनमें संवत् १९७४ में माणकचन्दजी स्वर्गवासी हुए। हीराचन्दजी का जन्म सम्वत् १९२५ में हुआ, इनके पुत्र चाँदमलजी हैं। रायगाँधी चाँदमलजी का जन्म संवत् १९५० में हुआ इनको स्टेट की ओर से जाती सनख्वाह मिलती है, आपको वैद्यक का अच्छा ज्ञान है। सनातन धर्म सभा ने आपको "वैद्य भूषण की पदवी" दी है । आपके पुत्र मानचन्दजी कलकत्ता में वैद्यक तथा डाक्टरी की शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।
रायगाँधी रतनचंदजी का जन्म संवत् १९४२ में हुआ। आपको भी स्टेट से जाती तनख्वाह मिलती है आपके पुत्र वैद्य पदमचन्दजी हैं । डाक्टर परमचंदजी वैद्य का जन्म संवत् १९६२ में हुआ, सन् १९२९ में आपने इन्दौर से डाक्टरी परीक्षा पास की, इस परीक्षा में भाप प्रथम गेट में सर्व प्रथम उत्तीर्ण हुए । और आप इसी साल जोधपुर स्टेट में मेडिकल ऑफीसर मुकर्रर हुए इस समय आप बाड़मेर डिस्पेंसरी में सब असिस्टेंट सर्जन के पद पर हैं। सन् १९३० में आपने जोधपुर दरबार के साथ देहली में उनके परसनल फिजिशियन की सियत से कार्य किया । आप डाक्टरी में अच्छा अनुभव रखते हैं। डिपार्टमेंट से व जनता से आपको कई अच्छे सार्टीफिकेट मिले हैं । नागोर की जनता ने आपको मानपत्र तथा केस्केट भेंट किया था।
सेठ ताराचन्द वख्तावरमल गांधी, हिंगनघाट इस परिवार के पूर्वज गांधी ताराचन्दजी नागोर से पैदल मार्ग द्वारा लगभग १०० साल पूर्व हिंगनघाट आये। तथा यहाँ लेनदेन का व्यापार शुरू किया। आपके वख्तावरमलजी, धनराजजी तथा हजारीमलजी नामक ३ पुत्र हुए । गांधी वख्तावरमलजी समझदार, तथा प्रतिष्ठित पुरुष थे। हिंगनघाट की जनता में आप प्रभावशाली व्यक्ति थे। आपने व्यापार की वृद्धि कर इस दुकान की शाखाएं नागपुर कामठी, तुमसर, वर्धा, भंडारा तथा चांदा आदि स्थानों में खोली। आपका संवत् १९४४ में स्वर्गवास
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गड़िया
हुआ | आपके भीकमचन्दजी तथा हीरालालजी नामक २ पुत्र हुए, इनमें हीरालालजी, सेठ हजारीमलजी के नाम पर दत्तक गये । इन दोनों बंधुओं का व्यापार संवत् १९६३ में अलग २ हुआ। सेठ हजारीमलजी संवत् १९७७ में स्वर्गवासी हुए। तथा धनराजजी के कोई संतान नहीं हुई ।
सेठ हीरालाल जी गांधी- आपका जन्म संवत् १९३१ में हुआ । आप समझदार तथा प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं । आपके यहाँ " हजारीमल हीरालाल ” के नाम से लेन देन तथा कृषि का कार्य्यं होता है। आपके पुत्र हंसराजजी २४ साल के तथा वच्छराजजी २१ साल के हैं। इसी प्रकार सेठ भीकमचन्दजी के हेमराजजी तथा जँवरीमलजी नामक २ पुत्र हुए। इनमें गाँधी जँवरीमलजी तथा हेमराजजी के पुत्र पुखराजजी विद्यमान हैं । आप दोनों सज्जन भी व्यापार करते हैं । यह परिवार हिंगनघाट के व्यापारिक समाज में प्रतिष्ठित माना जाता है ।
गड़िया
मेसर्स पीरदान जुहारमल (गड़िया ) एण्ड संस, त्रिचनापल्ली
यह परिवार अपने मूल निवास नागोर से फलोदी, जोधपुर, लोहावट आदि स्थानों में होता हुआ
सेठ झुरमुटजी गड़िया के समय में मथानियाँ ( ओसियाँ के पास ) आकर अबाद हुआ। कहा जाता है कि झुरमुटजी ने थोड़े समय तक जोधपुर में दीवानगी के कार्य में मदद दी थी । ये अपने समय के समृद्धि शाली साहुकार थे | एकबार जोधपुर दरबार ने वारेट अमरसिंह को कुछ जागीर देना चाही, उस समय उसने यह कह कर मथाणिया माँगा कि, खम्मा खम्मा कर उठाणिया, देराजा गांव मथानियाँ | बहुत साँवाँ धण पाणियाँ जिण में बसे झुरमुट वाणियां । गड़िया परिवार में सेठ राजारामजी गड़िया जोधपुर में बहुत नामी साहुकारी हुए। इन्होंने संवत् १८७२ में मीरखां को चिट्ठा चुकाने के समय महाराजा मानसिंहजी को बहुत बड़ी इमदाद दी थी । तथा आपने शत्रुंजयजी का विशाल संघ भी निकल वाया था ।
गड़िया झुरमुटजी के वंश में आगे चलकर गजाजी हुए। इनके पुत्र देवराजजी तथा पौत्र पीरदान जी, चतुर्भुजजी तथा ऊदाजी थे । सेठ पीरदानजी संवत् १९४३ में सेठ रावलमलजी के पारख के साथ त्रिचनापल्ली आये, और थोड़े समय में इनके यहाँ मुनीमात करके फिर उन्हींकी भागीदारी में दुकान की । यह कार्य्यं आप संवत् १९५९ तक करते रहे। इनके ३ वर्ष बाद आपने अपनी स्वतंत्र दुकान तिर ( त्रिचनापल्ली ) में खोली । इधर १५ सालों से सब व्यापार अपने पुत्रों के जिम्मे कर आप देश में ही रहते हैं। इधर आपने संवत् १९८९ में “ पीरदान जुहारमल बैंक लिमिटेड” की स्थापना की है। आपके पुत्र घेवरचंदजी, धनराजजी, लूमचन्दजी, पृथ्वीराजजी तथा गणेशमलजी ( उर्फ चम्पालालजी ) तमाम व्यापारिक काम उत्तमता से संचालित करते हैं। श्री घेवरलालजी का जन्म संवत् १९५२ में हुआ । आप स्थानीय पाँजारापोल तथा जीवदया मंडली के प्रधान हितचिंतक हैं। आप जीवदया संस्था के प्रेसिडेंट हैं । आपके छोटे बंधु लूमचंदजी बैंक के मेनेजिंग डायरेक्टर तथा पांजरापोल के सेक्रेटरी है। आपके बैंक में अंग्रेजी पद्धति से बैंकिंग विजिनेस होता है। इसके अलावा आपके यहाँ ४ दुकानों पर ब्याज का काम होता है । आप सब भाई सरल तथा शिक्षित सज्जन हैं। घेवरचंदजी के पुत्र सिरेमलजी हैं ।
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मौसवाल जाति का इतिहास
रुगावाल
सेठ पन्नालाल शिवराज रूणवाल, बीजापुर
इस परिवार का मूल निवास स्थान खुडी-बंडवारा (मेड़ते के पास ) है । आप स्थानकवासी आम्नाय के माननेवाले सज्जन हैं । इस परिवार के पूर्वज सेठ किशनचन्दजी के चतुर्भुजजी, पन्नालालजी, रिधकरणजी तथा इन्द्रभानजी नामक ४ पुत्र हुए। इनमें सेठ चतुर्भुजजी खुड़ी ठाकुर के यहाँ कामदार का काम करते थे । आपका सम्वत् १९६१ में तथा पन्नालालजी का सम्वत् १९४४ में स्वर्गवास हुआ । सेठ चतुर्भुजजी के पूमालालजी तथा सुखदेवजी सेठ पन्नालालजी के शिवराजजी, अभयराजजी तथा चुन्नीलालजी और इन्द्रभानजी के कुन्दनमलजी नामक पुत्र हुए। इनमें पूसालालजी तथा सुखदेवजी स्वर्गवासी हो गये हैं । सेठ पन्नालालजी रूणवाल का परिवार - सेठ पन्नालालजी के बड़े पुत्र शिवराजजी का जन्म सम्वत् १९२४ में हुआ । आप सम्वत् १९४० में बागलकोट आये । तथा सर्विस करने के बाद सम्वत् १९६५ में " प्रेमराज भागीरथ" के नाम से बीजापुर में दुकान की । आपके पुत्र प्रेमराजनी, भागीरथजी, जीतमलजी तथा मूलचन्दजी हैं। जिनमें बड़े तीन पुत्र अपनी तीन दुकानों का संचालन करते हैं। श्री पेमराजजी के पुत्र भंवरू लालजी, हीरालालजी, अजराज, पारसमल तथा दलीचन्द हैं । इसी प्रकार भागीरथजी के पुत्र अम्बा• लालजी तथा मूलचन्दजी के जेठमलजी हैं। शिवराजजी की प्रधान दुकान पर "शिवराज जीतमल " के नाम से रूई तथा अनाज का बड़े प्रमाण में व्यापार होता है। सेठ अभयराजजी का जन्म सम्वत् १९३३ में हुआ । आपके पुत्र राजमलजी, सेठ चुन्नीलालजी के पुत्रों के साथ भागीदारी में व्यापार करते हैं ।
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सेठ चुन्नीलालजी रूणवाल - आप इस परिवार बड़े समझदार तथा प्रतिष्ठित महानुभाव हैं । आप सम्वत् १९४४ में केवल ९ साल की वय में अपने बड़े भ्राता के साथ जलगाँव आये । तथा वहाँ से आप बागलकोट आये । यहाँ आपने फूलचन्दजी भय्या की दुकान पर सर्विस की । तथा पीछे इस दुकान भागीदार हो गये । सम्बत् १९६४ में आपने "चुन्नी लाल उत्तमचंद” के नाम से रूई तथा आढ़त का व्यापार चालू किया । इस समय आपकी फर्म पर यूरोपियन तथा जापानी आफिसों की बहुत खरीदी रहा करती है। आप बीजापुर की जनता में बड़े लोकप्रिय व आदरणीय व्यक्ति हैं । सम्वत् १९६१ से लगातार १६ वर्षों तक आप जनता की ओर से म्यु० मेम्बर चुने गये। जब आपने म्यु० के लिये खड़ा होना छोड़ दिया, तब सरकार ने आपको आनरेरी मजिस्ट्रेट के सम्मान से सम्मानित किया। और इस सम्मान पर आप अभीतक कार्य्यं करते हैं। इसी तरह आप बीजापुर मर्चेंट एसोशिएसन के प्रेसिडेंट हैं । कहने का तात्पर्य यह कि आप बीजापुर के वजनदार व्यक्ति हैं। आपके उत्तमचन्दजी, दुर्गालालजी, देवीलालजी, केशरीमलजी, पुखराजजी, माणकचन्दजी, मोतीलालजी और साकलचन्दजी नामक ८ पुत्र हैं। इनमें बड़े ३ तीन पुत्र आपकी तीन दुकानों के व्यापार में सहयोग लेते हैं । उत्तमचन्दजी भी म्यु० मेम्बर रह चुके हैं । इसी तरह इस परिवार में सेठ कुन्दनमलजी तथा उनके पुत्र भेरूलालजी और ताराचन्दजी अपना स्वतन्त्र व्यापार करते हैं। सेठ पूसालालजी के ६ पुत्र हैं, जिनमें छोटमलजी तथा बरदीचन्दजी बागलकोट में सेठ बच्छराज कन्हैयालाल सुराणा के साथ तथा शेष ४ बीजापुर में व्यापार करते हैं ।
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सियाल, रायसोनी और कातरेला
सायाल
सेठ फतेमलजी सीयाल, ऊटकमंड यह परिवार पाली निवासी मन्दिर आनाव का मानने वाला है। पाली से सेठ फतेमलजी सीयाल ने सम्वत् १९६० में आकर नीलगिरी के वेलिंगटन नामक स्थान में ब्याज का धंधा शुरू किया। आप सजन व्यक्ति हैं तथा विद्यमान हैं। आपने तथा पुखराजजी ने इस दुकान के कारवार को ज्यादा बढ़ाया। आपका परिवार पाली तथा नीलगिरी के भोसवाल समाज में प्रतिष्ठित माना जाता है। आपके यहाँ गोरीलाल फतेमक के नाम से वेलिंगटन में तथा रिखबदास फतेमल के नाम से ऊटकमंड में भागीदारी में ब्याज का व्यापार होता है। आपके नाम पर धरमचन्दजी सीयाल दत्तक आये हैं। भाप १२ साल के हैं।
राय सोनी सेठ सिरेमल पूनमचन्द मूथा (राय सोनी) बेलगांव यह परिवार भाँवरी (पाली) का निवासी है। वहाँ मूथा दायाजी रहते थे । इनके माणकचन्दजी तथा इंदाजी नामक २ पुत्र हुए। इनमें माणिकचन्दजी, भाँवरी ठिकाने के कामदार थे। इनके पुत्र पूनमचन्दजी तथा जसराजजी हुए । मूथा पूनमचन्दजी के पुत्र सिरेमलजी २२ साल की आयु में सम्वत् १९९५ में बेलगाँव आये । तथा “दानाजी उमाजी" की भागीदारी में कपड़े का व्यापार शुरू किया। इसके बाद आप हलियाल (कारवार डिस्ट्रिक्ट) में लकड़ी का कंट्राक्टिग विजिनेस करते रहे। इसमें सफलता प्राप्त कर सम्बत् १९७३ में आपने कपड़े का व्यापार शुरू किया। तथा व्यापार में उन्नति प्राप्त कर सम्मान को बढ़ाया। सम्वत् १९८० में आप स्वर्गवासी हुए । आपके नाम पर आपके चाचा मूथा जसराजजी के पौत्र जीवराजजी दत्तक आये। इनका भी १० साल की वय में सम्वत् १९८४ में शरीरान्त हो गया। अतः इनके नाम पर सेठ इंदाजी के प्रपौत्र भीकमचन्दजी दत्तक लिये गये । इनका जन्म सम्बत् १९७२ में हुआ। इस दुकान पर सोजत निवासी भंडारी माणिकराजजी १५ सालों से मुनीम हैं। आप समझदार व्यक्ति हैं। यह दुकान बेलगाँव के व्यापारिक समाज में अच्छी प्रतिष्ठित मानी जाती हैं। यहाँ कपड़े का थोक व्यापार होता है।
- कातरेला सेठ धौंकलचन्द चुन्नीलाल कातरेला, बंगलोर इस खानदान के मूल पुरुषों का खास निवास स्थान बगड़ी (मारवाद) है। आप श्वेताम्बर में जैन स्थानक वासी सम्प्रदाय को माननेवाले हैं। इस खानदान में सेठ मनरूपचन्दजी अपने जीवन भर बाड़ी में ही रहे । आपके पुत्र धोकलचन्दजी का जन्म संवत् १९०१ में हुआ। आप भी बगड़ी में ही रहे। आप बड़े धार्मिक और सज्जन पुरुष थे । आपका स्वर्गवास संवत् १९४८ में हुभा । आपके पुत्र धनराजजी
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मोसवास जाति का इतिहास
चुन्नीलालजी और सुखराजजी विद्यमान हैं। इनमें से धनराजजी ने अपनी फर्म अमरावती में 'धोकलचन्द धनराज" के नाम से खोली। सेठ चुनीलालजी ने संवत् १९५६ में अपना फर्म बंगलोर में “धोकलचन्द चुन्नीलाल के नाम से कालीप बाज़ार में खोली। तथा सेठ सुखराजजी ने संवत् १९७७ में अपनी दुकान मद्रास में खोली । आप तीनों भाई बड़े धार्मिक और व्यापार दक्ष पुरुष हैं। आप लोगों का जन्म क्रमशः संवत् १९३१ संवत् १९३५ तथा १९३८ में हुआ। सेठ धनराजजी के पुत्र बन्शीलालजी हैं । सेठ सुखराजजी के पुत्र अमोलकचन्दजी और अमोलकचन्दजी के पुत्र भंवरीलालजी हैं । भवरीलालजी को सेठ चन्नी. लालजी ने दत्तक लिया है।
मरलेका सेठ धूलचन्द दीपचन्द मग्लेचा, चिंगनपेठ ( मद्रास )
इस परिवार के पूर्वज सेठ बोरीदासजी मरलेचा कण्टालिया रहते थे। सम्बत् १९२३ में वहाँ के जागीदार से इनकी अनबन हो गई, और जिससे इनका घर लुटवा दिया गया। इससे आप कण्टालिया से मेलावास (सोजत) चले आये। तथा ४ साल बाद वहाँ स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र धूलचन्दजी व्यवसाय के लिये जालना आये, यहाँ थोड़े समय रह कर आप मारवाड़ गये, तथा वहाँ सम्बत् १९७६ में स्वर्गवासी हुए । आपके पुत्र दीपचन्दजी का जन्म सम्वत् १९५६ में हुआ। दीपचन्दजी मरलेचा मारवाड़ से सम्वत् १९६६में अहमदनगर और उसके डेढ़ बरस बाद मद्रास आये । और वहाँ सर्विस की। सम्वत् १९७६ में आपने बगड़ी निवासी सेठ धनराजजी कातरेला की भागीदारी में चिंगनपेठ (मद्रास) में व्याज का धधा "धनराज दीपचन्द" के नाम से शुरू किया आपके पुत्र पारसमलजी तथा चम्पालालजो हैं। आप स्थानकवासी आम्नाय के सजन हैं। श्री धनराजजी कातरेला के पुत्र वंशीलालजी इस फर्म के व्यापार में भाग लेते हैं। आप दोनों युवक सजन व्यक्ति हैं।
मड़ेचा
मेसर्स सागरमल जवाहरमल मडेचा, इस फर्म के मालिकों का मूल निवासस्थान सोजत (जोधपुर-स्टेट) का है। आप श्वे० जैन समाज के तेरह पंथी आम्नाय को मानने वाले सजन हैं। इस फर्म के स्थापक सेठ जमनालालजी मारवाड़ से जालना आये और यहाँ पर आकर लोहे और किराने की दुकान खोली। आपका स्वर्गवास हुए करीब ३० वर्ष हो गये । आपके पश्चात् आपके छोटे भाई सेठ सागरमलजी ने इस फर्म के काम को सम्हाला । सागरमलजी सं. १९७० में स्वर्गवासी हुए। आपके चार पुत्र हुए। इनमें जवानमलजी, कुन्दनमलजी तथा समरथमलजी छोटी २ उमर में गुजर गये, तथा इस समय फर्म के मालिक आपके चतुर्थ पुत्र केशरीमलजी हैं। आपकी ओर से १००००) दस हजार की लागत से एक बङ्गाला सामायिक तथा प्रति क्रमण के लिए दिया गया। आपके पुत्र चम्पालालजी तथा मदनलालजी बालक हैं।
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बागमार, कुचरिया और हड़िया
बागमार
सेठ जगन्नाथ नथमल बागमार, बागलकोट
पिताजी ने
इस परिवार का मूल निवास ळूणसरा ( कुचेरा के पास ) ओधपुर स्टेट है। इस परिवार के पूर्वज सेठ रिदमलजी बागमार के पुत्र सेठ थानमलजी बागमार संवत् - १९३२ में बागलकोट आये, तथा, भागीदारी में रेशमी सूत का व्यापार शुरू किया । आप संवत् १९०८ में स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र सेठ जगनाथजी बागमार का जन्म संवत् १९३५ में हुआ । आपने तथा आपके इस दुकान के व्यापार तथा सम्मान को बढ़ाया । आप कपड़ा एसोशिएसन के अध्यक्ष हैं। बागलकोट के व्यापारिक समाज में आपकी दुकान प्रतिष्ठित मानी जाती है। सेठ जगन्नाथजी के पुत्र नथमलजी का जन्म संवत् १९६१ में हुआ। आप फर्म के व्यापार को तत्परता से सम्हालते हैं। आपके पुत्र हेमराजर्जी, पूनमचन्दजी, हंसराजजी, तथा केवलचन्दजी हैं। आपके यहाँ बागलकोट में सूती कपड़े का व्यापार होता है ।
कुचेरिया
सेठ खींवराज अभयराज कुचेरिया, धूलिया
यह परिवार बोराबद ( जोधपुर स्टेट ) का निवासी है। देश से सेठ गोपालजी कुचेरिया संवत् १९10 में व्यापार के लिये धूलिया आये । आप संवत् १९५० में स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र अभयराजजी ने व्यवसाय को उन्नति दी। आप भी संवत् १९५८ में स्वर्गवासी हुए । आपके खींवराजजी तथा मोतीलालजी नामक २ पुत्र हुए, इनमें खींवराजजी विद्यमान हैं। कुचेरिया खींवराजजी का जन्म संवत् १९३८ में हुआ | आपने १९६० में रुई अनाज और किराने की दुकान की । तथा इस व्यापार में अच्छी सम्पत्ति और प्रतिष्ठा प्राप्त की । आप स्थानकवासी आम्नाय के मानने वाले हैं, तथा धार्मिक कामों
में सहयोग लेते रहते हैं आपके पुत्र नेमीचन्दजी तथा बरदीचन्दजी व्यापार में सहयोग लेते हैं ।
हड़िया
सेठ दलीचंद मूलचंद हड़िया, बलारी
यह परिवार सीवाणा ( मारवाड़) का निवासी है। वहाँ से सेठ दलीचन्दजी अपने भ्राता शुश्री को साथ लेकर संवत् १९३० में बलारी आये । तथा मोती की फेरी लगाकर दस पन्द्रह हजार रुपयों की सम्पत्ति उपार्जित की, और संवत् १९४४ में "दुलीचंद झूठाजी" के नाम से कपड़े का कारवार शुरू किया । आप दोनों बंधु क्रमशः संवत् १९६५ तथा १९६० में स्वर्गवासी हुए 1 आप दोनों बन्धुओं ने मिलकर लगभग ३ लाख रुपयों की सम्पत्ति इस व्यापार में कमाई । सेठ मूलचन्दजी तथा आसूरामजी नामक ३ पुत्र हुए। सेठ रघुनाथमलजी, यह दुकान ऊपर के नाम से व्यापार कर रही है। इन तीनों भाइयों के
दकीचन्दजी के रघुनाथमलजी,
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१९७७ में गुजरे । इनके बाद नाम पर श्री छोगालालजी दत्तक
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ओसवाल जाति का इतिहास
हैं। आपके पुत्र सम्पतराजजी हैं। सीवाणची में यह परिवार बड़ा नामी माना जाता है। आप, स्थानकवासी आम्नाय के मानने वाले सज्जन हैं। इस फर्म में सीवाणा निवासी कई सज्जनों के भाग हैं। इसी तरह अन्य स्थानों के भी भागीदार हैं।
धोका - सेठ बहादुरमल सूरजमल, धोका यादगिरी (निजाम)
इस कुटुम्ब का मूल निवास स्थान साथीण (पीपाड़ के पास ) है। आप श्वे. जैन समाज के स्थानक वासी आम्नाय के मानने वाले सजन हैं। सेठ जीतमलजी के पुत्र बालचन्दजी धोका देश से संवत् १९४१ में यादगिरी आये तथा आपने कपड़े का काम काज शुरू किया। आपका संवत् १९५० में स्वर्गवास हुआ। आपके नवलमलजी, बहादुरमलजी तथा सूरजमलजी नामक ३ पुत्र हुए। सेठ नवलमलजी धोका के हाथों से इस दुकान के रोजगार और इजत को बहत तरकी मिली। आपका स्वर्गवास संवत १९८५ में तथा बहादुरमलजी संवत् १९६१ में हुआ। इस समय इस परिवार में सेठ सूरजमलजी सेठ नवलमलनी के दत्तक पुत्र हीरालालजी, बहादुरमलजी के दत्तक पुत्र किशनलालजी तथा सूरजमलजी के दत्तक पुत्र लालचन्दजो मोजूद हैं। सेठ सूरजमलजी का जन्म संवत् १९३४ में हुआ। आप ही इस समय इस परिवार में बड़े हैं। तथा दान धर्म के कामों की ओर आपकी अच्छी रुचि है। आपकी दुकान यादगिरी की मातबर दुकानों में है । आपके यहाँ "बहादुरमल सूरजमल" के नाम से आढ़त सराफी लेन-देन का काम काज होता है। हीरालालजी के पुत्र पूरनमलजी तथा मदनलालजी हैं।
परिशिष्ट.
सेठ हरचन्दरायजी मुराणा का खानदान, चुरू इस खानदान का मूल निवास स्थान नागौर (मारवाड़) का था। वहाँ से इस परिवार के पूर्व पुरुष सेठ सुखमलजी चूरू आकर बस गये। तभी से आपके परिवार के सज्जन, चूरू में ही निवास कर रहे हैं। आपके बालचन्दजी, चौथमलजी तथा हरचन्दरायजी नामक तीन पुत्र हुए। इनमें यह बानदान सेठ हरचन्दरायजी से सम्बन्ध रखता है।
सेठ हरचन्दरायजी-आप बड़े सीधे सादे, मिलनसार एवं धार्मिक वृत्ति के महानुभाव थे। आप देश में ही रह कर साधारण व्यापार करते रहें। आपका स्वर्गवास होगया है। आपके उगरचन्दजी, रतीरामजी मुन्नालालजी एवं शोभाचन्दजी नामक.चार पुत्र हुए।
जिन खानदानों का परिचय भूल से छपना रह गया, या जिनका परिचय पुस्तक छपने के पश्चात् प्राप्त हुआ. उन परिवारों का परिचय "परिशिष्ट" में दिया जा रहा है।
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ओसवाल जाति का इतिहास
SakaaranarthackrkarAchAchak
Emacharacchackroachchadhaross
स्व० सेठ मुन्नालालजी सुराना, चूरू.
सेठ तिलोकचंदजी सुराना, चूरू.
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कु० हनुतमलजी सुराना, चूरू.
कुँ० हिम्मतमलजी सुराना, चूरू.
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सुराणा
सठ उगरचन्दजी का परिवार-सेठ उगरचन्दजी सीधे सादे और धार्मिक प्रकृति के पुरुष थे। आप चुरू से व्यापार के निमित्त कलकत्ता आये थे। मगर प्रायः आप देश में ही रहा करते थे। आपका स्वर्गवास होगया है। आपने रतीरामजी के पुत्र धनराजजी को अपने नाम पर बत्तक लिया। सेठ धनराजजी भी साधारण स्थिति में न्यापार करते रहे। आपका भी स्वर्गवास होमया है। आपके स्वर्गवास के पश्चात् आपकी धर्मपत्नी सिरेकुंवरजी तथा आपके पुत्र श्री सोहनलालजी ने जैन धर्म के तेरापन्थी सम्प्रदाय में दीक्षा ग्रहण करली। श्रीमती सिरेकुँवस्जी का स्वर्गवास होगया है। श्री सोहनलाब्जी इस सम्प्रदाय में संस्कृत के विद्वान तथा शास्त्रों का अच्छा हान रखते हैं। ....
सेठ रतीरामजी का परिवार-आप भी देश से कलकत्ता न्यापार निमित्त आये थे। आपने सर्व प्रथम दलाली का काम प्रारंभ किया था। कुछ समय पश्चात् आप अपने भाइयों से अलग होकर अपना स्वतन्त्र व्यापार करने लगे थे। तभी से आपके परिवार के सज्जन अलग व्यवसाय करते हैं। आपके सुगनचन्दजी, धनराजजी, खूबचन्दजी तथा हजारीमलजी नामक १ पुत्र हुए। पहले पहल आपने मेसर्स
बन्द हजारीमल के नाम से धोती जोडों का काम शुरू किया। इस फर्म का व्यवसाय सं० १९६० के करीब साझे में चलता रहा। तदनन्तर आप सब लोग अलग र व्यवसाय करने लग गये। इस समय सेठ सुगनचन्दजी देश में ही निवास करते हैं। आपके चम्पालालजी, प्रेमचन्दजी, नेमचन्दजी तथा भँवरलालजी नामक चार पुत्र हैं। सेठ धनराजजी सेठ ऊगरचन्दजी के नाम पर दत्तक चले गये। सेठ खूबचन्दजी का स्वर्गवास होगया है। आपके सुमेरमलजी नामक एक पुत्र हैं । आप इस समय अपने काका सेठ हजारीमलजी के साथ काम करते हैं। सेठ हजारीमलजी बड़े योग्य, मिलनसार तथा धार्मिक प्रकृति के पुरुष हैं। आप आज कल मेसर्स हजारीमल माणकचन्द के नाम से सूता पट्टी में धोती जोड़ों का व्यापार करते हैं। इसके अतिरिक्त आपकी लुक्सलेन में एक छातों के व्यवसाय की फर्म तथा छातों का कारखाना भी है। आपके पुत्र बा० मागकचन्दजी इस समय पढ़ रहे हैं।
सेठ मुन्नालालजी का परिवार इस परिवार में सेठ मुन्नालालजी बड़े नामांकित व्यक्ति हुए । परिवार की उन्नति का सारा श्रेय आप को ही है। आप सबसे पहले संवत् १९२७ में देश से व्यापार निमित्त कलकत्ता आये और दलाली का काम प्रारंभ किया। आप दे ही व्यापार कुशल, होनहार तथा होशियार सज्जन थे। आपने अपनी व्यवहार कुशलता, व्यापार चातुरी तथा होशियारी से दलाली में अच्छी सफलता प्राप्त की। आप बड़े परिश्रमी तथा भग्रसोची सज्जन थे। दलाली में धनोपार्जन कर आपने अपने आर्थिक उत्थान के हेतु अपने छोटे भ्राता शोभाचन्दजी के साझे में 'मन्नालाल शोभाचन्द सुराणा' के नाम से संवत् १९४० में स्वतन्त्र फर्म स्थापित की और इस पर विलायत से धोती जोड़ों का कारवार चालू किया। इस व्यवसाय में आपको बहुत काफी सफलता प्राप्त हुई। आपके व्यवसाय को ज्यों ? सफलता मिलती गई त्यों त्यों उसे बढ़ाते गये और उसमें लाखों रुपये की सम्पत्ति उपार्जित की। आप की फर्म पर विलायत से धोती जोड़ों का डायरेक्ट इम्पोर्ट होता था। आप बड़े बुद्धिमान तथा अध्यवसायी सज्जन थे। आप वृद्धावस्था में चुरू में ही रहते रहे। आपको साधु सेवा की भी बड़ो लगन थी। आपका अन्तिम जीवन साधु सेवा में ही व्यतीत हआ। भभी भापका सं० १९९१ में स्वर्गवास हुआ है। आप
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मीसवाल जाति का इतिहास
का कलकत्ता व चुरू की ओसवाल समाज में अच्छा सम्मान था। आप चुरू पिंजरापोल के सभापति भी रह चुके थे। भापके विवार बड़े सुधरे हुए थे। आपने अपनी मृत्यु के समव ५००००) का एक बृहद् दान निकाला है जिसका एक ट्रस्ट भी कायम कर गये हैं। इस दान की रकम का उपयोग विधवाओं को सहायता पहुँचाने तथा जात्योन्नति के कार्यों में किया जायगा। इस दान के अतिरिक्त आपने चुरू और कलकत्ता की कई संस्थाओं को बहुत द्रव्य दान दिया है। आप कोई पुत्र न होने से सेठ शोभाचन्दजी के पौत्र (सेठ तिलोकचन्दजी के पुत्र) पाबू हनुतमलजी आपके नाम पर दत्तक आये हैं। आप बड़े मिलनसार एवं उत्साही नवयुवक हैं। भाप का इस समय मेसर्स "हरचन्दराय मुन्नालाल" और "मुन्नालाल हनुतमल" के नाम से बैङ्किग तथा किराया का स्वतन्त्र काम होता है। आप ओसवाल तेरापन्थी विद्यालय के सेक्रेटरी रह चुके हैं। वर्तमान में आप "ओसवाल नवयुवक समित" की ओर से व्यायामशाला के खास कार्यकर्ता हैं।
सेठ शोमाचन्दजी का परिवार-सेठ शोभाचन्दजी भी मिलनसार, समझदार तथा व्यापार कुशल सज्जन थे। आप अपने भाई के साथ व्यापारिक कामों से बड़ी कुशलता और तत्परता के साथ सहयोग प्रदान करते रहे । आपका धार्मिक कार्यों की ओर भी अच्छा लक्ष्य था। मगर कम वय में ही आपका स्वर्गवास होगया। आपके स्वर्गवास के पश्चात् आपकी धर्मपत्नी श्रीमती नौनाजी ने तेरापन्थी सम्प्रदाय में दीक्षा ग्रहण करली । आप इस समय विद्यमान हैं । आपके पुत्र तिलोकचन्दजी हैं ।
सेठ तिलोकचन्दजी-आपका जन्म संवत् १९४० में हुआ। आप प्रारंभ से ही व्यापार कुशल बुद्धिमान तथा समझदार सज्जन हैं। आर इस समय कलकत्ता व थकी प्रांत की ओसवाल समाज के प्रमुख कार्य कर्ताओं में से एक हैं। आप मारवाड़ी चेम्बर ऑफ कामर्स, मारवाड़ी एसोसिएशन, जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी सभा, जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी विद्यालय, विशुद्धानन्द सरस्वती विद्यालय व अस्पताल, मारवाड़ी रिलीफ सोसायटी, मारवाड़ी ट्रेड एसोसिएशन, चुरू पीजरापोल, ओसवाल सभा, ओसवाल नवयुवक समिति आदि कई संस्थाओं के सेक्रेटरी, उपसभापति व सभापति आदि पदों पर कई बार काम कर चुके हैं। प्रायः ओसवाल समाज की सभी सार्वजनिक सभाओं में आप पूर्ण रूप से सहायता देते तथा उसमें प्रमुख भाग लेते हैं। बिहार रिलीफ फण्ड में आपने आर्थिक सहायता पहुँचा कर बहुत से
ओसवाल नवयुवकों को सेवा कार्य के लिये बिहार भेजने में बहुत कोशिश की थी। इसी प्रकार की अन्य सार्वजनिक सेवाओं में आप भाग लेते रहते हैं। आके हनुतमलजी, हिम्मतमलजी, बच्छराजजी तथा हंसराजजी नामक चार पुत्र हैं। इनमें बाबू हनुतमलजी, सेठ मुन्नालालजी के नाम पर दत्तक गये हैं। शेष सब भाई मिलनसार सज्जन हैं। बाबू हिम्मतमलजी एवं बच्छराजजी व्यापार में भाग लेते हैं तथा हंसराजजी पढ़ते हैं । आपका इस समय कलकत्ता में 'हरचन्दराय शोभाचन्द' 'सुराना ब्रदर्स, 'लिलोकचन्द हिम्मतमल' के नामों से जमीदारी, बैकिग, जूट वेलिंग व शिपिंग का काम होता है तथा जैपुरहाट (बोगड़ा) में आपका एक राइस मिल चल रहा है। यह फर्म कलकत्ते की ओसवाल समाज में प्रतिष्ठित समझी जाती हैं। इस फर्म की यहां पर बड़ी २ इमारतें बनी हुई हैं।
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ओसवाल जाति का इतिहास
कुँ० बच्छराजजी सुराना, चूरू.
स्व० सेठ भैरोंदानजी सुराना, पड़िहारा.
कुं० हंसराजजी सुराना, चूरू.
कुं० सुमेरमलजी बोथरा (रामलाल नथमल) सरदार श
(परिचय परिशिष्ट में)
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सुराणा
सेठ रतनचंद जवरीमल सुराना, पड़िहारा इस खानदान के लोगों का मूल निवास स्थान नागौर (मारवाद) का था मगर बहुत वर्षों से इस परिवार के सेठ मलूकचन्दजी पड़िहारा में भाकर बस गये थे। तभी से आपके वंशज वहीं पर निवास कर रहे हैं। आप खेती बगैरह का काम करते थे। आपके पुत्र रतनचन्दजी सबसे पहले देश से बंगाल आये और माहीगंज में अपनी फर्म स्थापित की। भाप बड़े सज्जन तथा कुशल व्यापारी थे। आपके हरकचन्दजी तथा भेरोंदानजी नामक दो पुत्र हुए।
आप दोनों भाई भी देश से व्यापार निमित्त कलकत्ता आये और सबसे प्रथम सदाराम पूरनचंद भण्साली की कलकत्ता फर्म पर सर्विस की। इसके पश्चात् आपने सरदार शहर निवासी. सेठ चुनीलाल जी बोथरा के सझे में मेसर्स चुनीलाल भेरोंदान के नाम से फर्म खोली । इस फर्म को कुष्टे के व्यवसाय में अच्छा लाभ रहा। संवत् १९८८ तक इस फर्म पर आपका साझा रहा । तदनन्तर आप लोगों का पार्ट मला अलग होगया। जिस समय उक्त फर्म साझे में चल रही थी उस समय इस खानदान की सं० १९८१ में रतनचन्द जवरीमल के नाम से कलकत्ता में एक स्वतन्त्र फर्म खोली गई थी। वर्तमान में आप लोग इसी नाम से स्वतन्त्र व्यापार करते हैं । सेठ भेरोंदानजी बड़े मामी, मिलनसार तथा प्रतिष्ठित सज्जन थे। आपका संवत् १९८८ में स्वर्गवास हुआ। सेठ हरकचन्दजी विद्यमान हैं । आपके धनराजजी नामक एक पुत्र हैं।
सेठ भेरोंदानजी के भंवरलालजी, जवरीलालजी तथा पन्नालालजी नामक तीन पुत्र हैं। इनमें से प्रथम दो भली प्रकार व्यापार संचालन करते हैं। तीसरे अभी पढ़ रहे हैं। आप लोग जैन तेरापन्थी सम्प्रदाय के मानने वाले सज्जन हैं। इस खानदान की कलकत्ता, भालमनगर (रंगपुर), रहिया, शिव गंज, काली बाजार आदि स्थानों पर फर्मे हैं जिन पर जूट का काम होता है। पढ़िहारे में यह खानदान प्रतिष्ठित माना जाता है।
सेठ बच्छराज कन्हैयालाल सुराणा, बागलकोट यह परिवार पी ( मारवाद ) का निवासी स्थानकवासी जैन समाज का मानने वाला है। इस परिवार के पूर्वज सेठ नथमलजी सुराणा लगभग संवत् १९३० में स्वर्गवासी हुए।
सेठ बच्छराजजी सुराणा-सेठ नथमलजी के पुत्र वष्छराजजी सुराणा का जन्म संवत् १९२९ में हआ। १३ साल की वय में आप बागलकोट आये, तथा यहाँ सर्विस की। संवत् १९५५ में आपने भागीदारी में रेशम का व्यापार आरम्भ किया। एवम् १९७० में आपने अपनी स्वतन्त्र दुकान की। आपके हाथों से व्यापार और सम्मान की उन्नति हुई। इस समय आप बागलकोट के ५ सालों से आनरेरी मजिस्ट्रेट एवं २ सालों से म्युनिसिपल कौंसिलर हैं तथा वहाँ के ओसवाल समाज में नामांकित व्यक्ति हैं। धार्मिक कार्यों की ओर आपकी अच्छी रुचि है। आपके पुत्र कन्हैयालालजी का जन्म सम्वत् १९७० में हुआ। आप उत्साही युवक हैं, तथा व्यापार में भाग लेते हैं। आपके यहाँ बागलकोट तथा गुलेजगुड में "बच्छराज कन्हैयालाल" के नाम से रेशमी सूत, खण तथा रेशमी वसों का व्यापार होता है। गुलेज गुड में आपकी शाखा २५ सालों से है। इसी तरह बागलकोट और बीजापुर में “कन्हैयालाल सुराणा" के नाम से आदत व गल्लाका ब्यापार होता है। इन सब स्थानों पर भापकी दुकान प्रतिष्ठा सम्पन मानी जाती है।
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ओसवाल जाति का इतिहास सेठ महासिंह राय मेघराज बहादुर (चोपड़ा कोठारी) का खानदान, मुर्शिदाबाद
इस परिवार के पूर्व पुरुषों ने जोधपुर और जेसलमेर राज्य में अच्छे २ काम कर दिखाए हैं। ऐसा कहा जाता है कि, ये लोग वहाँ के दीवानगी के पद को भी सुशोभित कर चुके हैं। इन्हीं की सन्ताने किसी कारणवश गैर सर नामक स्थान पर आकर रहने लगी। कुछ वर्षों पश्चात् कुछ लोग तो बीकानेर चले गये एवम् सेठ रतनचन्दजी, महासिंहजी और आसकरनजी तीनों बंधु मुर्शिदाबाद आकर बसे । यहाँ आकर आप लोगों ने अपनी प्रतिभा के बल पर सम्वत् १८१८ में ग्वालपाड़ा में अपनी फर्म स्थापित की। इसमें सफलता मिलने पर कमशः गोहाटी और तेजपुर में भी अपनी शाखाएँ स्थापित की। उस समय इस फर्म पर बैकिंग, रबर और चायबागान में रसद सप्लाय का काम होता था । सेठ महासिंहजी के पुत्र मेघराजजी हुए।
राय मेघराजजी ब.iदुर-आपके समय में इस फर्म की बहुत तरक्की हुई और बीसियों स्थानों पर इसकी शाखाएँ स्थापित की गई । आप बड़े व्यापार चतुर पुरुष थे। भारत सरकार ने आपके कार्यों से प्रसन्न होकर सन् १८६७ में आपको "राय बहादुर" के सम्मान से सम्मानित किया। आपका सन् १९०१ में स्वर्गवास हो गया। आपके पुत्र बाबू जालिमचन्दजी और प्रसन्नचन्दजी-सन् १९०७ में अलग २ हो गये।
सेठ जालिम चन्दजी का परिवार-सेठ जालिमचन्दजी भी बड़े धार्मिक और व्यवसाय-कुशल व्यक्ति थे। आपके पाँच पुत्र हए जिनके नाम क्रमशः बा० धनपतसिंहजी, लक्ष्मीपतसिंहजी, खड़गसिंहजी, जसबन्तसिंहजी और दिलीपसिंहजी हैं । आप सब लोग बड़े मिलनसार और शिक्षित सजन हैं। वर्तमान में आप लोग उपरोक्त नाम से व्यवसाय कर रहे हैं । आपकी फमैं इस समय तेजपुर. ग्वालवाड़ा, गोहाटी, विश्वनाथ, बड़गाँव, उरांग, माणक्याचर, मुर्शिदाबाद, धुलियान, युटारोही, जीयागंज, सिराजगंज, बालीपाड़ा, पुरानाघाट, नयाघाट, आदमबाड़ी, बुढ़ागांव, चुढैया, पामोई, टांगामारी, सांकूमाथा, गंभीरीघाट, कदमतल्ला जांजियां, फूलसुन्दरी, सड़ानी, बांसवाड़ी, सूर्सिया, बड़गाँव हाट, पावरी पारा, लावकुवा, गोरोहित इत्यादि स्थानों पर हैं। इन सब पर जमींदारी, जूट और बैकिंग का व्यापार होता है।
सेठ प्रसन्नचंदजी का परिवार-सेठ प्रसन्नचन्दजी ने अलग होने के बाद "प्रसन्नचन्द फतेसिंह" के नाम से व्यापार प्रारम्भ किया। आपका स्वर्गवास हो गया। इस समय आपके भंवरसिंहजी और
तेसिंहजी नामक दो पुत्र है. इनमें से भंवरसिंहजी का स्वर्गवास हो गया। आपके पुत्र कमलपतसिंहजी हैं। बाबू फतेसिंहजी मुर्शिदाबाद में व्यापार करते हैं । तथा कमलपतसिंहजी कलकत्ता में रहते हैं यह परिवार मन्दिर सम्प्रदाय का अनुयायी है।
___ चौपड़ा राजरूपजी का खानान, गंगाशहर इस परिवार के पूर्वजों का मूल निवास स्थान मण्डोवर का था। वहाँ से इस खानदान के पूर्व पुरुष का कापड़ेद, कुचौर तथा देराजप्सर में आकर बसे थे। तदनंतर सम्वत् १९६७ में इस खानदान के वर्तमान पुरुष श्री छौगमलजी चौपड़ा गंगा शहर आकर बस गये तभी से आप लोग गंगाशहर में निवास कर रहे हैं । इस खानदान में सेठ राजरूपजी हुए। आपके रतनचन्दजी दुर्गदासजी, करमचन्दजी, हरकचंदजी सरदारमलजी तथा ताजमलजी नामक छः पुत्र हुए।
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्व॰ राय मेघराजजी कोठारी बहादुर, गुर्शिदाबाद.
स्व० सेठ प्रसन्नचंदजी कोठारी, मुर्शिदाबाद.
स्व० सेठ जालिमसिंहजी कोठारी, गुर्शिदाबाद.
बाबू छोगमलजी चौपड़ा, गंगाशहर
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चोपड़ा
चौपड़ा करमचन्दजी का परिवार - चोपड़ा करमचन्दजी के प्सराजजी, लाभूरामजी तथा गुमारामजी नामक ३ पुत्र हुए। आप तीनों भाई देश से व्यापार निमित रंगपुर आये और माहीगंज (रंगपुर ) में वहाँ की प्रसिद्ध फर्म मेसर्स मौजीराम इन्द्रचंद नाहठा के यहाँ सर्विस करते रहे । सेठ दूसराजजी बड़े बुद्धिमान तथा अच्छे व्यवस्थापक थे । आपको बंगला भाषा का भी अच्छा ज्ञान था । आप रंगपुर जिले के नामी व्यक्ति हो गये हैं। आप रंगपुर जिले की म्यु० क० के मेम्बर भी थे। आपका स्वदेश प्रेम भी बदत बढ़ा चढ़ा था । सन् १९०५ की बंगाल स्वदेश मुव्हमेंट में आपने अग्र भाग लिया था तथा तभी आप स्वदेशी वस्त्रों का उपयोग किया करते थे । आप ही के समय में सम्वत् १९५० में छोगमल तिलोकचन्द चौपड़ा के नाम से माहीगंज से सेठ हरकचन्दजी के पुत्र बीदामलजी के साझे में स्वतंत्र फर्म स्थापित की गई। सम्वत् १९८१ में इस फर्म की एक शाखा कलकत्ता में भी खोली गई थी । सम्वत् १९८७ के पश्चात् सेठ बीदामलजी व सराजजी के परिवार वाले अलग २ हो गये । सेठ प्सराजजी के छोगमलजी तथा रावतमल जी नामक दो पुत्र हुए ।
श्री छोगमलजी चौपड़ा - आपका जन्म सम्वत् १९४० में हुआ। आपने सन् १९०५ में बी० ए० तथा सन् १९०८ में एल० एल० बी० की परीक्षाएँ पास की। इस समय आप सारे परिवार में समझदार, योग्य तथा बुद्धिमान सज्जन हैं। आप कलकत्ते की ओसवाल समाज के नामी वकीलों में से एक हैं। आप मारवाड़ी चेम्बर आफ कामर्स, मारवाड़ी एसोसिएशन, ओसवाल सभा, ओसवाल नवयुवक समिति आदि कई संस्थाओं के सेक्रेटरी, मेम्बर तथा प्रधान कार्य्यकर्त्ता रहे हैं। आपके इस समय गोपीचन्दजी, भोजराज जी, मेघराजजी, अजीतमलजी तथा भूरामलजी नामक पाँच पुत्र हैं। इनमें गोपीचन्दजी ने सन् १९३३ में एल० एल० बी० पास किया है। शेष सब व्यापार में भाग लेते हैं ।
लेठ लाभूरामजी के पुत्र मंगलचन्दजी लाहौर की फर्म पर बलौइज फायर इंशुरंस कं० स्विट्जरलैण्ड की जनरल एजेन्सी का सब काम देखते हैं। चौपड़ा गुमानीरामजी के पुत्र इन्द्रचन्दजी, तिलोकचंदजी तथा प्रतापमलजी फर्म के काम में सहयोग देते हैं । आप लोगों की एजेंसी में उक्त इंन्शुरंस कंपनी की पालिसियाँ भी इश्यु की जाती हैं। आप लोगों की “ोगमक रावतमल" के नाम से कलकत्ता में भी एक फर्म है । सेठ हरकचन्दजी का परिवार — सेठ हरकचन्दजी के दू दामलजी, रामसिंहजी, धनराजजी, बीदामल जी, जोरावरमलजी तथा गुमानीरामजी नामक छः पुत्र हुए। सेठ रामसिंहजी व बीदामलजी देश से रंगपुर तथा दिनाजपुर आये तथा वहाँ मौजीराम इन्द्रचन्द्र नाहटा के यहाँ सर्विस करते रहे। आप लोग देश से बंगाल प्रान्त में आते समय देहली तक का मार्ग पैदल तै करते हुए आये थे । आप यहाँ प्रतिष्ठित समझे जाते थे । आपके पश्चात् सेठ बीदामलजी उसी फर्म पर सर्विस करते रहे । तदनंतर आपने संवत् १९५० में माहीगंज में एक फर्म स्थापित की जिसका उल्लेख हम ऊपर कर चुके हैं। इसी समय दिनाजपुर में आपने तिलोकचन्द चौपड़ा के नाम से एक स्वतंत्र फर्म भी व्यापार होता था । इस फर्म पर इस समय " तिलोकचंद आपकी तिलोकचन्द पृथ्वीराज के १९६६ स्वर्गवास हो गया है।
स्थापित की थी जिस पर, बैकिंग वगैरह का सुगनमल" नाम पड़ता है। इसके अतिरिक्त नाम से कलकत्ता में एक और फर्म है। सेठ बीदामलजी का संवत आपके पुत्र तिलोकचन्दजी, फतेचन्दजी तथा सुगनचन्दजी हैं।
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ओसवाल जाति का इतिहास
श्री तिलोकचन्दजी बड़े प्रतिष्ठित तथा व्यापार कुशल सजन थे। आपका जन्म संवत् १९४४ में हुआ था। आप दिनाजपुर के म्युनिसीपल कमिश्नर भी रह चुके हैं। दिनाजपुर फर्म का आपने बड़ी योग्यता से संचालन किया था। आपका संवत् १९८१ में स्वर्गवास हुभा । आपके पुत्र लालचन्दजी हैं।
___ श्री फतेचन्दजी-आपका जन्म संवत् १९९० में हुआ। आप चौपड़ा रामसिंहजी के नाम पर दत्तक गये थे लेकिन रामसिंहजी की धर्मपत्नी अत्यंत तपस्विनी थी अतः आप सब के शामिल ही रहते हैं। आप बड़े योग्य, समझदार तथा बुद्धिमान सजन हैं। इस समय आप इनकमटैक्स ऑफीसर हैं। आपके रतनचन्दजी, छगनमलजी तथा अमरचन्दजी नामक तन पुत्र हैं। सुगनचन्दजी का जन्म संवत् १९५२ में हआ। आप मिलनसार हैं तथा इस समय फर्म के सारेकाम को संचालित कर रहे हैं। आपके पृथ्वीराजजी नामक एक पुत्र हैं।
गोठी परिवार, सरदारशहर इस परिवार के लोग बहुत समय से सरदार शहर ही में निवास करते चले आ रहे हैं। इस परिवार में सबसे पहले सेठ चिमनीरामजी और आपके भाई चौथमलजी दिनाजपुर गये, एवम् वहाँ सर्विस की। पश्चात् वहाँ से आप लोग जलपाईगोड़ी चले गये। वहाँ जाकर आपने अपनी फर्म स्थापित की, एवम उसमें बहुत सफलता प्राप्त की। आप ही लोगों ने वहाँ बहुत सी जमींदारी भी खरीद की । सेठ टीकमचन्दजी के ६ पुत्रों में से चिमनीरामजी अविवाहित ही स्वर्गवासी हो गये। शेष के नाम क्रमशः जीवनदासजी, चौथमलजी, पांचीरामजी, वख्तावरमलजी और हीरालालजी था। आप लोगों का स्वर्गवास हो गया है। आप लोगों के पश्चात् इस फर्म का संचालन आपके पुत्रों ने किया । आप लोगों की जमींदारी बीकानेर स्टेट, जलपाईगौड़ी, पबना एवम् रंगपुर जिले में हैं। यह जमींदारी अलग २ विभाजित है। संवत १९९१ से आप लोगों का व्यवसाय अलग २ हो गया। इस समय इस परिवार की चार शाखाएँ हो गई जो भिन्न २ नाम से अपना व्यवसाय करती है। जिसका परिचय इस प्रकार है।
चौथमल जैचन्दलाल-इस फर्म के मालिक सेठ बिरदीचन्दजी गोठी और आपके पुत्र मदनचन्द जी और जयचन्दलालजी हैं । सेठ बिरदीचन्दजी बड़े प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं।
गिरधारीमल रामबाल-इस फम के वर्तमान संचालक सेठ रामलालजी गोठी हैं। आपको जूट के व्यापार की अच्छी जानकारी है। अपनी कलकत्ते की सम्मिलित फर्म की सारी उचति का श्रेय आप ही को है। आपके चम्पालालजी, छगनलालजी, नेमीचन्दजी, हनुमानमलजी और रतनचन्दजी नामक पांव पुत्र हैं।
गिरधारीनल अभयचन्द-इस फर्म के मालिक सेठ गिरधारीमलजी के पुत्र अभयचन्दजी और सुमेरमलजी हैं। आप दोनों ही मिलनसार और उत्साही नवयुवक हैं।
सरदारमल शुभकरन-इस फर्म के मालिक सेठ सरदारमलजी के वंशज हैं ।
जौहरी लाभचन्दजी सेठ (राकां) का खानदान, कलकत्ता
इस खानदान के पूर्वजों का मूल निवास स्थान जयपुर का है। यहाँ पर सेठ अमीचन्दजी बड़े नामी व्यक्ति हो गये हैं। आपके कल्लूमलजो, धनसुखदासजी, हाबूलालजी तथा चन्द्रभानजी नामक चार
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बच्छावत मेहता पुत्र हुए। इनमें से प्रथम दो भाइयों ने संवत् १८०० के करीब मिर्जापुर आ कर अपनी व्यापार कुशलता ओर होशियारी से रुई तथा गल्ले के व्यवसाय में अच्छी सफलता प्राप्त की । आप लोगों का स्वर्गवास हो गया है । सेठ कल्लूमलजी के नथमलजी नामक एक पुत्र हुए जिनका युवावस्था में ही देहावसान हो गया । आपके नाम पर अजमेर से सेठ लाभचन्दजी गेलड़ा दत्तक लिये गये ।
सेठ लाभचन्दजी - आप इस परिवार में बड़े नामांकित व्यक्ति हो गये हैं। आप बड़े बुद्धिमान व्यापार चतुर तथा प्रतिष्ठित पुरुष थे । आपने करीब ८० वर्ष पूर्व कलकशे में जवाहरात का व्यापार किया तथा सेठ मोतीचन्दजी नखत के साझे में करीब ३५ वर्षो तक "लाभचन्द मोतीचंद" के नाम से जवाहरात का सफलता पूर्वक व्यवसाय किया। यह फर्म बड़ी प्रतिष्ठित और कोर्ट जुएलर रही तथा वाइसराय आदि कई उच्च पदाधिकारियों से अपाइन्टमेंट भी मिले थे । सन् १९१६ में उक्त फर्म के दोनों पार्टनर अलग २ हो गये । तभी से सेठ लाभचन्दजी के पुत्र लाभाचन्द सेठ के नाम से स्वतंत्र जवाहरात का व्यापार कर रहे हैं। इस फर्म के वर्तमान संचालक लाभचन्दजी के पुत्र सौभागचंदजी, श्रीचन्दजी, अभयचन्दजी, लखमीचन्दजी, हरकचन्दजी, विनयचन्दजी एवं कीरतचन्दजी हैं। इनमें प्रथम चार व्यवसाय का संचालन करते हैं । आप लोग मिलनसार तथा शिक्षित सज्जन हैं। शेष तीन भाई पढ़ते हैं । आप लोगों का आफीस इस समय ७ ए. लिन्डसे स्ट्रीट में है जहाँ पर जवाहरात का व्यवसाय होता है । आप लोगों की कलकरो में. बहुत सी स्थायी सम्पत्ति भी है। आपके पिताजी द्वारा स्थापित किया हुआ । श्री 'लाभचन्द मोतीचन्द जैन फ्री प्रायमरी स्कूल कलकत्ते में सुचारुरूप से चल रहा है। इसके लिये लाभचन्द मोतीचन्द नामक फर्म से ८००००) का एक ट्रस्ट भी कायम किया गया था ।
बच्छावत मेहता माणकचन्द मिलापचन्द का खानदान, जयपुर
इस खानदान के पूर्वज मेहता भेरोंदासजी सं० १८२६ में जोधपुर से जयपुर आये। इनके सवाईरामजी, सालिगरामजी तथा शेरकरणजी नामक तीन पुत्र हुए। इनको "मौजे मानपुर टीला" (चारसू तहसील) नामक गांव जागीर में मिला जो इस समय तक सवाईरामजी की संतानों के पास मौजूद है। सवाईरामजी के पुत्र उदयचन्दजी तथा साहिबचन्दजी हुए। उदयचन्दजी के विजयचन्दजी, माणकचन्दजी तथा मिलापचन्दजी नामक तीन पुत्र हुए। इनमें माणिकचन्दजी, साहिबचन्दजी के नाम पर दत्तक गये। मेहता उदयचन्दजी राज का काम तथा साहिबचन्दजी गीजगढ़ ठिकाने के कामदार और महारानी तंवरजी व चम्पावतजी के कामदार रहे। इसी प्रकार माणकचंदजी और मिलापचंदजी शिवगढ़ ठिकाने के कामदार रहे । मेहता मिलापचंदजी के पुत्र रामचन्द्रजी तथा माणकचंदजी के लक्ष्मीचंदजी, अखेचंदजी, नेमीचंदजी, गोपीचंदजी तथा भागचंदजी नामक पांच पुत्र हुए। इनमें अखेचन्दजी विजयचन्दजी के नाम पर तथा गोपीचन्दजी अन्यत्र दत्तक गये । मेहता लक्ष्मीचन्दजी तथा भखेचंदजी ने गीजगढ़ ठिकाने का काम किया। इन दोनों का संवत् १९७८ में स्वर्गवास हुआ ।
वर्तमान में इस कुटुम्ब में मेहता नेमीचंदजी, अखेचंदजी के पुत्र मंगलचंदजी बी० ए०, मिलापचन्दजी के पुत्र रामचन्द्रजी तथा लक्ष्मीचन्दजी के पुत्र जोगीचंदजी, केवलचन्दजी, उमरावचन्दजी, उगमचंद जी और कामचन्दजी विद्यमान हैं। मेहता मंगलचन्दजी जयपुर में २७/२८ सालों तक सर्वे सुपरिन्टेन्डेन्ट
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ओसवाल जाति का इतिहास
रहे। यहाँ से पेंशन होने के बाद आप वर्तमान में सीकर स्टेट में सेटलमेंट ऑफीसर हैं। आपके गोपालसिंह जी, हरकचंदजी तथा सुखचन्दजी नामक तीन पुत्र हैं। इनमें गोपालसिंहजी तो उदयपुर दत्तक गये हैं। शेष दोनों भ्राता घर का कारबार सम्हालते हैं। मेहता उमरावचन्दजी शिवगढ़ ठिकाने के कामदार हैं।
इसी प्रकार शालिगरामजी के प्रपौत्र रूपचन्दजी के पुत्र सरूपचंदजी बालक हैं। इनके कुटुम्ब में भी गीजगढ़ ठिकाने का काम रहा। मेहता शेरकरणजी के पुत्र चौथमलजी जनानी ड्योढ़ी के तहसीलदार रहे। इनके पुत्र गोपीचन्दजी विद्यमान हैं। मेहता भागचन्दजी के पुत्र कानचंदजी सेटलमेंट डिपार्टमेंट में तथा नेमीचंदजी के पुत्र प्रभूचन्दजी इम्पीरियल बैंक में खजांची हैं। मेहता जोगीचन्दजी के पौत्र (ज्ञानचन्दजी के पुत्र) गुमानचन्दजी एव केवलचन्दजी के पौत्र (उत्तमचन्दजी के पुत्र) अमरचन्दजी हैं।
श्री लक्ष्मीलालजी बोथरा, उटकमंड लक्ष्मीलालजी बोथरा के दादा शिवलालजी तथा पिता केवलचंदजी खिचंद (मारवाड़) में ही निवास करते रहे । केवलचन्दजी संवत् १९५५ में स्वर्गवासी हुए। लक्ष्मीलालजी का जन्म संवत् १९५२ में हुआ। आप संवत् १९६५ में नीलगिरी आये, तथा मिश्रीमलजी वेद फलोदी वालों की भागीदारी में व्यापार आरम्भ किया । इस समय आप ऊटकमंड में "जेठमल मूलचंद एण्ड कम्पनी" नामक फर्म पर बैंकिंग फेंसी गुडस एण्ड जनरल ड्रापर्स विजिनेस करते हैं । एवम् यहाँ के व्यापारिक समाज में यह फर्म अच्छी प्रतिष्ठित मानी जाती है। श्री लक्ष्मीलालजी सज्जन व्यक्ति हैं। आपके हाथों से व्यापार को तरक्की मिली है । आपके पुत्र भोमराजजी कामकाज में भाग लेते हैं, तथा रामलालजी और भंवरलाल जी पढ़ते हैं ।
कोठारी जवाहरचन्दजी दूगड़ का खानदान, नामली __ इस परिवार के पूर्वज अमरसिंहजी दूगड़ ने नागोर से जालोर में अपना निवास बनाया। इनके पश्चात् महेशजी, जेवंतजी, भेरूसिंहजी और पंचाननजी हुए। पंचाननजी ने अनेकों राज्यकीय कार्य किये । कहा जाता है कि इनको “रावराजा बहादुर की पदवी" तथा १२ गाँव जागीर में मिले थे और संवत् १७६५ में इन्हें सोने की सांट, हाथो, कड़ा. मोती और पालकी सिरोपाव इनायत हुआ। सम्बत् १७७१ में विठोर नामक गाँव को एक लड़ाई में आप काम आये। आपके पुत्र बल्लूजी, सोनगरा राजपूत नायक के साथ मालवा की ओर गये, और उनके साथ नामली में आबाद हुए । तथा वहाँ कोटार और कामदारे का काम करने के कारण “कोठारी" कहलाये । बल्लूजी के पश्चात् क्रमशः जीवराजजी और सूर्यमलजी हुए । सूर्यमल जी के स्वर्गवासी होने के समय उनके पुत्र गुलाबचन्दजी, जवाहरचन्दजी तथा हीराचन्दजी छोटे थे। कोठारी हीराचन्दजी ऊँचे दर्जे के कवि थे, कवित्व शक्ति के कारण कई दरवारों में आपको उच्च स्थान मिला था।
कोठारी जवाहर चन्दजी-आपका जन्म सम्वत् १८८१ में हुआ । आप बाल्य काल से ही होनहार व्यक्ति थे। नामली ठाकुर के छोटे भ्राता बख्तावरसिंहजी के साथ आप रतलाम दरबार बलवन्तसिंहजी के पास आया जाया करते थे । जब महाराजा बलवन्तसिंहजी के पुत्र भेरूसिंहजी राजगद्दी पर बैठे, तब उन्होंने कोठारी जबाहरचन्दजी को दीवान का सम्मान दिया। तथा इमको कुछ जागीर भी इनायत की। सम्वत् १९२१ में महाराजा के स्वर्गवासी हो जाने पर आप वापस नामली चले गये। सम्बत् १९७३ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके नाम पर कोठारी हीराचन्दजी के बड़े पुत्र खुमानसिंहजी दत्तक आये । आपके
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सिंधी-बावेल पुत्र दुल्हेसिंहजी तथा वेरीसालसिंहजी विद्यमान हैं । आप दोनों सजनों ने जोधपुर में ही शिक्षा पाई। इस समय कोठारी दुलहसिंहजी जोधपुर सायर में कस्टम आफीसर हैं। और कोठारी वेरीसालसिंहजी जोधपुर स्टेट के असिस्टेंट स्टेट आडीटर हैं । आप जोधपुर के शिक्षित समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्ति हैं। कोठारी दुल्हेसिंहजी के पुत्र कुँवर दौलतसिंहजी, देवीसिंहजी, सजनसिंहजी तथा रघुवीरसिंहजी हैं। इसी प्रकार कोठारी वेरीसालसिंहजी के पुत्र कुंवर कुशलसिंहजी, कोमलसिंहजी, केशवसिंहजी तथा कंचनसिंहजी हैं। कुशलसिंहजी के पुत्र भंवर स्वतंत्र कुमार हैं।
इसी तरह इस परिवार में गुलाबचन्दजी कोठारी के पुत्र राजसिंहजी और पौत्र उम्मेदसिंहजी तथा मनोहरसिंहजी हुए। मनोहरसिंहजी के पुत्र धर्मसिंहजी हैं। कोठारी हीराचन्दजी के खुमानसिंहजी, निधराजसिंहजी, सालासहजी और दलेलसिंहजी हुए । तथा दलेलसिंहजी के तजेराजसिंहजी, नगेन्द्रसिंहजी, चन्द्रवीरसिंहजी और सूर्यवीरसिंहजी नामक पुत्र हुए।
सिंघी (बावेल) खानदान, शाहपुरा (मेवाड़) इस परिवार के पूर्वज सेठ झांझणजी बावेल"पुर" में निवास करते थे। संवत् १५६५ में आपने एक संघ निकाला, अतः इनका परिवार सिंघी कहलाया। भापकी सोलहवीं पुश्त में देवकरणजी हुए। आप "पुर" से शाहपुरा आये। आपके साथ आपकी धर्मपत्नी लखमादेवीजी संवत् १७६९ में सती हुई। इनकी तीसरी पुरत में नानगरामजी हुए । आप बड़े वीर और पराक्रमी पुरुष हुए। कहाजाता है कि संवत् १८२५ में उदयपुर की ओर से उज्जैन में सिंधिया फौज से युद्ध करते हुए आप काम आये थे। आपको शाहपुरा दरबार ने ताजीम दी थी । आपके पुत्र चतुरभुजजी, चन्द्रभानजी, इन्द्रभानजी और वर्द्धभानजी हुए।
सिंघी चतुरभुजजी का परिवार-आप भी अपने पिताजी की तरह प्रतिष्ठित हुए। आपको उदयपुर महाराणाजी ने शाहपुरा दरबार से १५०० बीघा जमीन जागीर में दिलाई। आपने अपनी जागीरी में “आई” नामक गाँव बसाया, जो भोज "सिंधीजी के खेड़े" के नाम से बोला जाता है। भाप शाहपुरा के कामदार थे। उस समय आपको मोतियों के आखे चढ़ाये थे। आपके गिरधारीलालजी, समरथसिंहजी, सूरजमलजी, अरीमलजी, गाढमलजी और जीतमलजी नामक ६ पुत्र हुए। इनमें सिंधी समरकसिंहजी बड़े सीधे व्यक्ति थे। स्थिति की कमजोरी के कारण आपने पुश्तैनी "ताजीम" विनय पूर्वक वापस करदी। इनके पुत्र महताबसिंहजी के सवाईसिंहजो और केसरीसिंहजी नामक २ पुत्र थे। सवाईसिंहजी ने
टम तथा तहसीलदारी का काम बड़ी होशियारी से किया। संवत् १९५७ में आप स्वर्गवासी हुए। केसरीसिंहजी के पुत्र इन्द्रसिंहजी, सोभागसिंहजी और सुजानसिंहजी हुए । इममें इन्द्रसिंहजी, सवाईसिंहजी के नाम पर दसक गये । आप स्टेट ट्रेशर और खासा खजाना के आफीसर थे। आपके नाम पर आपके भतीजे (सोभागसिंहजी) के पुत्र मदनसिंहजी दत्तक आये । इस समय आप शाहपुरा में सिविल जज हैं।
सिंघी सुजानसिंहजी का जन्म संवत् १९३३ में हुआ। आप राजाधिराज उम्मेदसिंहजी के कुवर पदे में हाउस होल्ड आफीसर थे। इस समय आप स्टेट के रेवेन्यूमेम्बर हैं। आपके पास सिंघीजी का खेड़ा तो जागीर में है ही। इसके अलावा दरबार ने आपको, हजार की रेख की जागीर इनायत की है।
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ओसवाल जाति का इतिहास
भापके पुत्र चन्दनसिंहजो फौजदारी सरिश्तेदार हैं, एवं फतेसिंहजी ने इंजनियरिंग परीक्षा पास की है। आप दोनों सज्जन व्यक्ति हैं। चन्दनसिंहजी के पुत्र प्रतापसिंहजी पढ़ते हैं।
सिंघी इन्द्रमानुजी का परिवार-आपके बदनमलजी तथा बाघमलजी नामक २ पुत्र हुए। सिंधी बाघमलजी इस परिवार में बहुत प्रतापी पुरुष हुए । आपका जन्म सम्बत् १८४३ में हुआ था । आपने महाराजा जगतसिंहजी के बाल्यकाल में सम्बत् १८९७ से १९०४ तक कामदारी का काम बड़ी होशियारी और ईमानदारी से किया। आपके लिये कर्नल डिक्सन ने लिखा था, जिसका आशय यह है कि सब रैयत राज के कामदारे से खुश और राजी है। इलाके का बन्दोबस्त दरुस्त और खालसे के गाँव आवाद हैं।.........ता० १७ फरवरी सन् १८४६ ई०। आगरा के लेफ्टिनेंट गवर्नर ने आपके लिये लिखा कि ......"सिंघी बागमल की कामदारी से राज्य बहुत आवाद हुआ" ता० १८ अगस्त सन् १८४५ ई.। उदयपुर के महाराणा स्वरूपसिंहजी ने सिंघी बाघमलजी को एक रुक्के में लिखा था कि......राजाधिराज होश संभाले, जब तक इसी श्याम धर्मो से बन्दगी करना"......संवत् १९०२ मगसर सुदी १५। आपने परिश्रम करके शाहपुरा स्टेट की खिराज 10 हजार करवाई। आपको उदयपुर महाराणा तथा शाहपुरा दरबार ने खिल्लत भेंट कर सम्मानित किया। आपने अपनी बहुत सी स्थाई सम्पत्ति व्यावर में बनाई। पुष्कर की घाटी में भी आपने अच्छी इमदाद दी थी। आपने बूबल बाड़ी के मीणों पर राणाजी की ओर से फौज लेकर चढ़ाई की, और उनका उपद्रव शांत किया। आपको “बांगूदार” नामक एक गाँव भी जागीर में मिला था । आपने शाहपुरा में रिखबदेव स्वामी का मन्दिर बनवाया। इस प्रकार प्रतिष्ठा मय जीवन बिता कर सं० १९०५ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र केसरीसिंहजी २२ साल उम्र में सं० १९२१ में स्वर्गवासी हुए। इनके पुत्र सिंघी कृष्णसिंहजी हुए
सिंघी कृष्णसिंहजी का जन्म संवत् १९१६ में हुआ। आपको पठन पाठन का बहुत शौक था। संवत् १९५६ के अकाल में आपने शाहपुरा की गरीब जनता की अच्छी सहायता की थी। संवत् १९६० में भापने अपना निवास गोवर्द्धन में भी बनवाया। यहाँ आपनं एक अच्छी धर्मशाला बनवाई। एवं मथुरा जिले के २ ग्राम एवं १ लाख ४० हजार रुपयों के प्रामिज़री नोट धर्मार्थ दिये, इनकी आय से, औषधालय, अनाथालय, सदावृत, विधवाओं की सहायता और छात्रवृत्तियाँ दिये जाने की व्यवस्था की तथा इसका प्रबन्ध एक ट्रस्ट के जिम्मे कर उसकी सुपरवीझन लोकल गवर्नमेंट के जिम्मे की। आपने शाहपुरा में रघुमाथजी का मन्दिर बनाया । संवत् १९७९ में आप स्वर्गवासी हुए । आपके पुत्र फतेसिंहजी बाल्यावस्था में ही गुजर गये थे । इनके नाम पर २० हजार की रकम का "साधु और जाति सेवा" के अर्थ प्राइवेट ट्रस्टकिया गया । कृष्णसिंहजी के यहाँ सजनसिंहजी बड़ी सादड़ी से दस साल की आयु में संवत् १९५८ में दत्तक आये
सिंघी सजनसिंहजी शाहपुरा तथा गोवर्द्धन के प्रतिष्ठित सज्जन हैं। आप गोवर्धन में डिस्ट्रक्ट बोर्ड के मेम्बर, लोकल बोर्ड के चैयरमैन और डिस्ट्रीक्ट एडवायजरी एक्साइज कमेटी के मैम्बर हैं। अपने पिताजी द्वारा स्थापित धार्मिक व सहायता के कार्यों को आप भली प्रकार संचालित करते हैं। आप वैष्णब मतानुयायी हैं । शाहपुरा की गोशाला के स्थापन में आपने परिश्रम उठाया है। इसी साल आपने भोसवाल सम्मेलन अजमेर के सभापति का आसन सुशोभित किया था। आप गोवरन के आनरेरी
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श्री सज्जनसिंहजी सिंधी, शाहपुरा.
बाबू भूपेन्द्रसिंहजी S/O बा० धनपतसिंहजी कोठारी, मुर्शिदाबाद
सेठ नेमीचन्दजी सावणसुखा (गणेशदास जुहारमल) कलकत्ता.
बा० अरिदमनसिंहजी s/o बा० धनपतसिंहजी कोठारी, मुर्शिदाबाद.
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सिंघो-अवैन
मजिस्ट्रेट एवं लोकप्रिय महानुभाव है । उदयपुर दरबार ने आपको "ताजीम" बख्शी है। आपके पुत्र कुवर गोविन्दसिंहजी इण्टर में पढ़ रहे हैं । इनसे छोटे कुवर मुकुन्दसिंहजी भी पढते हैं। आपका परिवार शाहपुरा तथा गोवर्द्धन में बहुत प्रतिष्ठा सम्पन्न माना जाता है । आपके यहाँ जमीदारी और बैंकिग का काम होता है।
सुजानगढ़ का सिंधी परिवार इस परिवार के पूर्व पुरुष जोधपुर से राव बीकाजी के साथ इधर आये थे। उन्हीं की सन्ताने चुरू, छापर वगैरह स्थानों में वास करती रहीं। चुरू में राजरूपजी हुए । आपके ३ पुत्र हुए। इनमें प्रथम मोतीसिंहजी चुरू ही रहे । दूसरे कन्हीरामजी हरासर नाम के स्थान पर चले आये। तीसरे करनीदानजी निःसंतान स्वर्गवासी हो गये । कहा जाता है कि कन्हीरामजी तत्कालीन हरासर के ठाकुर हरोजी के कामदार रहे थे। किसी कारणवश अनबन हो जाने के कारण आप सम्वत् १८८९ के करीब सुजानगढ़ भाकर बस मये । जब आप हरासर में थे उस समय वहाँ आपने एक तालाब और कुवाबनवाया जो आज भी विद्यमान है। आपके पाँच पुत्र हिम्मतसिंहजी, शेरमलजी, गोविन्दरामजी, पूर्णचन्दजी और अनोपचन्दजी थे । इन सब भाइयों में पूर्णचन्दजी बड़े प्रतिभावान व्यक्ति हुए। आपने मुर्शिदाबाद आकर वहाँ की सस्काकीन फर्म सेठ केशोदास सिताबवन्द के यहाँ सर्विस की। पश्चात् आप अपनी होशियारी से उक्त फर्म के मुनीम हो गये । आपके द्वारा जाति के कई व्यक्तियों का बहुत लाभ हुआ । आपने अपने देश के कई व्यक्तियों को रोज़गार से लगवाया था। हिम्मतमलजी भी बड़े न्यायी और उदार सजन थे । सम्वत् १९०५ में आप लोग अलग . हो गये । सेठ हिम्मतमलजी के परिवार में चेतनदासजी हुए। आपके इस समय बींजराजजी और रावतमलजी नामक दो पुत्र हैं। शेरमलजी के कुशलचन्दजी, ज्ञानमलजी और लालचन्दजी नाम ३ पुत्र हुए । आप सब अलग अलग हो गये और आपके परिवार वाले इस समय स्वतंत्र व्यापार कर रहे हैं।
सेठ कुशलचन्दर्ज का परिवार-सेठ कुशलचन्दजी के तीन पुत्र हए, जिनके नाम क्रमशः जेस. राजजी, गिरधारीलालजी और पनेचंदजी हैं। सेठ जेसराजजी शिक्षित और अंग्रेजी पढ़े लिखे सज्जन थे। आपने अपने भाइयों के शामलात में केरोसिन तेल का व्यापार किया। इसमें आपको अच्छी सफ़ कता मिली। इसके बाद आप लोग जूट बेजिंग का काम करने लगे। इसमें भी बहुत सफलता रही। भाप मन्दिर सम्प्रदाय के अनुयायी थे। आपने अपने जीवन में बहुत सम्पत्ति उपार्जित की। भापका स्वर्गवास हो गया। आपके पुत्र बछराजजी इस समय विद्यमान हैं। आप मिलनसार सज्जन हैं और कलकत्ता में १६१ हरिसन रोड में जूट का व्यापार करते हैं। आपके हंसराजजी, धनराजजी और मोहनलालजी नामक तीन पुत्र हैं।
सेठ गिरधारीमलजी अपने चाचा सेठ लालचन्दजी के नाम पर दत्तक चले गये । आपके इन्द्रचन्द जी नामक एक पुत्र हुए । इस समय आपके भंवरलालजी भौर नथमलजी नामक दो पुत्र विद्यमान हैं।
सेठ पनेचन्दजी भी अपने बड़े भ्राता की भाँति कुशल व्यापारी हैं। आपने अपनी शामलात वाली फर्म पर जूट के व्यापार में बड़ी उथल पथल पैदा कर लाखों रुपये अपने हाथों से कमाये थे। अपनी फर्म के नियमानुसार धर्मादे की रकम में से आप लोगों ने सुजानगढ़ में एक सुन्दर मन्दिर का निर्माण करवाया। आप इस समय बीकानेर स्टेट कौंसिल के मेम्बर हैं। आपको दरबार से कैफियत की इज्जत
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प्रदान है। सुजानगढ़ की जनता में आपके प्रति आदर के भाव हैं। इस समय आप नं ३० काटनस्ट्रीट में जूट का व्यापार करते हैं । आपके पुत्र चैनरूपजी और सोहनलालजी व्यापार में सहयोग देते हैं।
___सेठ ज्ञानचन्दनी का परिवार-सेठ ज्ञानचन्दजी गोहाटी में तत्कालीन फर्म मेसर्स जोधराज जैसराज के यहाँ मेनेजरी का काम देखते थे । आपके तीन पुत्र भैरोंदानजी, जीतमलजी और प्रेमचन्दजी हुए। भैरोंदानजी कम वय ही में स्वर्गवासी हो गये । शेष दोनों भाई और इनके पुत्र वगैरह संवत १९८७ तक जीतमल प्रेमचन्द के नाम से जूट का अच्छा व्यापार करते रहे । तथा आजकल अलग २ स्वतंत्र व्यापार कर रहे हैं।
सेठ जीतमलजी प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थे। आपने अपने समय में व्यापार में बहुत उन्नति की। आपका स्वर्गवास हो गया। आपके पुत्र मालचन्दजी, अमीचन्दजी, हुलाशचन्दजी और भिखमचन्दजी हैं। आप लोग सिरसाबाड़ी में "जीतमल जौहरीमल" के नाम से जूट का व्यापार करते हैं।
सेठ प्रेमचन्दजी का जन्म संवत् १९३९ है। आप को जूट के व्यापार का अच्छा अनुभव है। आपने अपनी साझेवाली फर्म के काम को बहुत बढ़ाया था। साथ ही कई स्थानों पर उसकी शाखायें भी स्थापित की थी। इस समय आप प्रेमचन्द माणकचन्द के नाम से १०५ चीना बाजर में जूट का अच्छा व्यापार करते हैं । आप मिलमसार संतोषी और समझदार सज्जन हैं । आपकी यहाँ और सुजानगढ़ में अच्छी प्रतिष्ठा है। आपके इस समय माणकचन्दजी, धनराजजी और अमोलमचन्दजी नामक तीन पुत्र हैं। इनमें से बा० माणकचन्दजी फर्म के कार्य का संचालन करते हैं। बाबू धनराजजी बी० काम थर्ड ईयर में पढ़ रहे हैं। आप लोगों का व्यापार कलकत्ता के अलावा ईसरगंज, जमालपुर (मैंमनसिंह ) में भी होता है। आपकी जोर से जमालपुर में जीतमल प्रेमचन्द रोड के नाम से एक पक्का रोड बनवाया हुआ है तथा वहाँ के स्कूल के बोर्डिग की इमारत भी आप ही ने बनवाई है। भोसवाल विद्यालय में भी आपकी ओर से अच्छी सहायता प्रदान की गई है।
सेठ भिखनचन्दजी मालचन्दजी सिंघी, सरदारशहर इस खानदान के लोग जोगड़ गौत्र के हैं। मगर संघ निकालने के कारण सिंघी कहलाते हैं। आप लोगों का पूर्व निवास स्थान नाथूसर नामक ग्राम था। मगर जब कि सरदारशहर बसने लगा आपके पूर्वज भी यहीं आ गये। वहाँ सेठ दुरंगदास के गुलाबचन्दजी नामक एक पुत्र हुए। सेठ गुलाबन्दजी जब कि १५ वर्ष के थे सरदार शहर वाले सेठ चैनरूपजी के साथ कलकत्ता गये। पश्चात् धीरे २ अपनी बुद्धिमानी, इमादारी तथा होशियारी से आप इस फर्म के मुनीम हो गये । इस फर्म पर आपने करीब ५० वर्ष तक काम किया। इसके पश्चात् संवत् १९६६ में आपने नौकरी छोड़दी एवम अपने पुत्र भीखनचन्द मालचन्द के नाम से स्वतंत्र फर्म खोली तथा कपड़े का व्यापार प्रारंभ किया। इस फर्म पर डायरेक्टर विलायत से इम्पोर्ट का काम भी प्रारंभ किया गया। इस कार्य में आपको बहत सफलता रही। आपका संवत् १९८३ में स्वर्गवास हो गया। आपके तीन पुत्र हैं जिनके नाम करनीदानजी, भीखनचन्दजी एवम् मालचन्दजी हैं। आप तीनों सज्जन और मिलनसार हैं। करनीदानजी के भूरामलजी और रामलालजी नामक पुत्र हैं। आप लोग भी व्यापार संचालन करते हैं। भूरामलजी के बुधमलजी नामक
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स्व. लाला फग्गूमलजी, अमृतसर.
लाला भगवानदासजी, अमृतसर.
श्रीयुत पन्नालालजी जैन, अमृतसर.
श्रीयुत विजयकुमारजी जैन, अमृतसर.
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सिंघी-बावे
एक पुत्र हैं। भीखनचन्दजी के पुत्र जयचन्दलालजी और चम्पालालजी हैं। तथा जयचन्दलालजी पुत्र शुभकरनजी और मालचन्दजी के पुत्र मदनचन्दजी हैं।
आप लोगों का व्यापार कलकत्ता में ३९ ऑर्मेनियनस्ट्रीट होता है। इसी स्थान पर "गुलाबचन्द सिंघी" के नाम से विलायत से तथा उपरोक्त नाम से जापान से डायरेक्ट कपड़े का इम्पोर्ट व्यापार होता है। इसके अतिरिक्त "जयचन्दलाल रामलाल" के नाम से मनोहरदास कटला में स्वदेशी कपड़े का व्यापार होता है। आपका परिवार तेरापंथी संप्रदाय का अनुयायी है ।
लाला फग्गूमल भगवानदास बावेल, अमृतसर यह परिवार लगभग १५० वर्ष पूर्व मारवाड़ से आकर अमृतसर में आबाद हुआ। पह कुटुम्ब श्वेताम्बर जैन स्थान कवासी सम्प्रदाय का मानने वाला है। इस परिवार के पूर्वज लाला धनपतराव जी के पुत्र लाला मुकुन्दामलजी और नंदामलजी हुए। लाला मुकुन्दामलजी बसाती का व्यापार करते थे, तथा बड़े धार्मिक प्रवृत्ति के पुरुष थे। संवत् १९६१ में ७० साल की आयु में आप स्वर्गवासी हुए । आपके लाला कसूरियामलजी और लाला फग्गूमलजी नामक २ पुत्र हुए। लाला नंदामलजी भी प्रतिष्ठित व्यक्ति हो गये हैं। संवत् १९५९ में आप निसंतान स्वर्गवासी हुए। लाला कसूरियामलजी सन् १९१२ में स्वर्गवासी हुए। इनके पुत्र लाला दीनानाथजी तथा लाला अमरनाथजी का भी स्वर्गवास हो गया है।
लाला फग्गूमलजी-आपका जन्म संवत् १९९७ में हुआ। आप वयो वृद्ध और धार्मिक पुरुष हैं। आप उन भाग्यवानों में हैं, जो अपनी चौथी पीढ़ी को अपने सम्मुख देख रहे हैं। आप के पुत्र लाला भगवानदासजी तथा लाला जंगीमलजी हए ।
लाला भगवानदासजी-आपका जन्म संवत् १९४० में हुआ। आप अमृतसर के ओसवाल समाज में अच्छे प्रतिष्ठित सजन हैं। दान धर्म के कामों में भी आप अच्छा सहयोग लेते हैं । इस समय भाप एस. एस. जैन सभा अमृतसर के खजांची हैं। आपके पुत्र लाला पालालजी, विलायतीरामजी तथा विजयकुमारजी हैं। आपकी कन्या श्रीमती शांतिदेवी ने गत वर्ष "हिंदीरत्र" की परीक्षा पास की है। लाला पन्नालालजी का जन्म १९६१ में हुआ । माप व्यापारकुशल तथा उत्साही युवक हैं । आपके हाथों से म्यापार की बहुत उन्नति हुई है। धार्मिक कामों में भापकी अच्छी रुचि है। पूज्य सोहनलालजी महाराज के नाम से स्थापित जैन कन्या पाठशाला के भाप सभापति हैं। भापके पुत्र श्री राजकुमारजी पढ़ते हैं। लाला विलायतीरामजी भी व्यापार में भाग लेते हैं तथा इनसे छोटे विजयकुमारजी पढ़ रहे हैं।
___इस परिवार का अमृतसर में ४ दुकानों पर बीड्स, हॉयजरी, मनिहारी और जनरल मर्चेटाइज का थोक व्यापार होता है। "बी० पी०बावेल एण्ड संस" के नाम से विलायती तथा जापानी माल का डायरेक्ट इम्पोर्ट होता है। इसके अतिरिक्त हाल ही में इस परिवार ने “पी० विजय एण्ड कम्पनी" के माम से भोसाका (जापान ) में अपना एक ऑफिस कायम किया है, इस पर इम्पोर्ट तथा एक्सपोर्ट विजिनेस होता है। यह खानदान अमृतसर के ओसवाल समाज में नामांकित माना जाता है। सिंघी (बावेल) हेमराजजी का खानदान, उत्तराण और खेडगांव (खानदेश)
इस परिवार का मूल निवासस्थान भगवानपुरा (मेवाड़) है। वहाँ से सिंघी हेमराजजी के छोटे
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पुत्र हजारीमलजी तथा जुहारमलजी संवत् १९०१ में तथा बड़े पुत्र रूपचंदजी संवत् १९०६ में उत्तराण (खानदेश) आये । तथा यहाँ इन भाइयों ने व्यवसाय आरम्भ किया।
सिंघी रूपचन्दजी का खानदान-आप उत्तराण से संवत् १९०७ में खेड़गाँव चले आये तथा वहाँ आपने अपना कारवार जमाया। आपके मोतीरामजी, बच्छराजजी तथा गोविन्दरामजी नामक ३ पुत्र हुए। इन तीनों भाइयों के हाथों से इस परिवार के व्यापार तथा सम्मान की वृद्धि हुई । इन बन्धुओं का परिवार इस समय अलग २ व्यापार कर रहा है। सिंघी मोतीरामजी संवत् १९६० में स्वर्गवासी हुए। आपके नाम पर सिंघी चुन्नीलालजी केरिया (मेवाड़) से दत्तक आये। आपका जन्म संवत् १९३३ में हुआ। आप खानदेश के ओसवाल समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। भुसावल, जलगाँव तथा पाचोरा की जैन शिक्षण संस्थाओं में आप सहायता देते रहते हैं। आपके पुत्र दीपचन्दजी तथा जीपरूलालजी हैं। आप दोनों का जन्म क्रमशः संवत् १९५२ तथा ६२ में हुआ। दीपचंदजी सिंधी अपना व्यापारिक काम सम्हालते हैं, तथा जीपरूलालजी बी० ए०, पूना में एल० एल० बी० में अध्ययन कर रहे हैं। आप समझदार तथा विचारवान् युवक हैं। आपके यहाँ "मोतीराम रूपचंद” के नाम से कृषि, बैंकिंग तथा लेनदेन का व्यापार होता है। बरखेड़ी में आपकी एक जीनिंग फेक्टरी है। दीपचन्दजी के पुत्र राजमलजी, चांदमलजी तथा मानमलजी हैं।
सिंघी बच्छराजजी-आप इस खानदान में बहुत नामी व्यक्ति हुए। आपने करीब २० हजार रुपयों की लागत से पाचोरे में एक जैन पाठशाला स्थापित कर उसकी व्यवस्था ट्रस्ट के जिम्मे की। आपने पाचोरे में जीनिंग प्रेसिंग फेक्टरी खोलकर अपने व्यापार और सम्मान को बहुत बढ़ाया। संवत् १९७७ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र तोतारामजी, हीरालालजी स्वर्गवासी हो गये हैं । और कपूरचंदजी तथा लक्खीचंदजी विद्यमान हैं। इन भाइयों का व्यापार १९७७ में अलग २ हुआ। सिंघी कपूरचंदजी, "कपुरचंद बच्छराज" के नाम से पाचोरे में रुई का व्यापार करते हैं तथा यहाँ के प्रतिष्ठित व्यापारी माने जाते हैं। आपके सुगनमलजी तथा पूरनमलजी नामक २ पुत्र हैं। इसी तरह तोताराम जी के पुत्र शंकर लालजी, गणेशमलजी, प्रतापमलजी तथा हीरालालजी के पुत्र मिश्रीलालजी, कनकमलजी, खुशालचंदजी और सुवालालजी और सिंधी गोविन्दरामजी के पुत्र छगनमलजी, ताराचंदजी, विरदीचंदजी तथा सरूपचन्दजी खेड़गाँव में व्यापार करते है।
सेठ हजारीमलजी तथा जुहारमलजी सिंघी का परिवार-इन बन्धुओं का परिवार उत्तराण में निवास करता है। आप दोनों बन्धुओं के हाथों से इस परिवार के व्यापार और सम्मान को विशेष वृद्धि हुई। सेठ जुहारमलजी के पुत्र सेठ किशनदासजी और सेठ हजारीमलजी के सेठ औंकारदासजी, चुन्नीलालजी तथा छोटमलजी नामक ३ पुत्र हए । सेठ किशनदासजी ख्याति प्राप्त पुरुष हए। आप बड़े कर्तव्यशील व समझदार सजन थे। सम्बत् १९५३ में आपका स्वर्गवास हुआ। सिंघी ओंकारदासजी संवत् १९७४ में स्वर्गवासी हुए। आपके पन्नालालजी, माणिकचन्दजी, पूनमचन्दजी, दलीचन्दजी, रतनचन्दजी तथा रामचन्दजी नामक ६ पुत्र विद्यमान हैं। इनमें सेठ माणिकचन्दजी, किसनदासजी के नाम पर दत्तक गये हैं।
ठ माणिक चन्दजी सिंघी-आपका जन्म सम्बत् १९४५ में हुआ। आपने सम्वत् १९७२ से साहकारी व्यवसाय बन्द कर कृषि तथा बागायात की ओर बहुत बड़ा लक्ष दिया। आपका विस्तृत बगीचा
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सेठ माणकचंदजी सिंघी (माणकचंद किशनदास) उत्तराण.
श्री राजमलजी बलदोटा बी. एस. सी., स.न.क, पूना
सेठ माणकचंदजी सिंघी के पुत्र
श्री हरलालजी बलदोटा सपत्नीक, पूना.
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बलदोटा लगभग ७५ एकड़ भूमि में है। इनमें हजारों मोसम्मी के साद है। इन झाड़ों से पैदा होने वाली मोसम्मी की सैकड़ों बैगन बम्बई, गुजरात भादि प्रान्तों में भेजी जाती हैं। इधर आपने लेमनज्यूस तथा अरेंजज्यूस बड़े प्रमाण में बनाने का आयोजन किया है और इस कार्य के लिये १५ एकड़ भूमि में नीबू के हजारों झाड लगाये हैं। इन तमाम कार्यों में आपके साथ आपके बड़े पुत्र बंशीलालजी सिंघी परिश्रम पूर्वक सहयोग लेते हैं । आपका फलों का बगीचा बम्बई प्रांत में सबसे बड़ा माना जाता है। सेठ माणिकचन्दजी के इस समय बंशीलालजी, शिवलालजी तथा शांतिलालजी नामक ३ पुत्र हैं। सिंबी बंशीलालजी का जन्म संवत् १९६५ में हुआ। आपने लेमन तथा अरेंज ज्यूस के लिये पूना एग्रीकलचर कॉलेज से विशेष ज्ञान प्राप्त किया है। आप बड़े सजन व्यक्ति हैं। आपके छोटे भाई शिवलालजी पूना एग्रीकलचर कॉलेज में केमिस्ट का ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं।
सिंघी पन्नालालजी भी बरखेड़ी में बागायात का व्यापार करते हैं । आपके पुत्र मिश्रीलालजी, चम्पालालजी, इन्द्रचंदजी, हरकचंदजी तथा भागचंदजी हैं। इसी प्रकार पूनमचंदजी अमलनेर में व्यापार करते हैं और दलीचंदजी बरखेड़ी में तथा रतनचंदजी और रामचंद्रजी उत्तराण में कृषि कार्य करते हैं । इसी प्रकार इस परिवार में सेठ चुन्नीलालजी सिंघी के पुत्र मोहनलालजी, वृजलालजी, झूमरलालजी तथा उत्तमचंदजी और छोटमलजी के पुत्र कन्हैयालालजी और नंदलालजी उत्तराण में कृषि कार्य करते हैं।
सेठ उम्मेदमल रूपचंद बलदोटा, दौंड (पूना) इस परिवार का मूल निवास स्थान बारवा (आऊना के पास ) मारवाड़ में हैं। इस परिवार के पूर्वज सेठ गंगारामजी बलदोटा, मारवाड़ से व्यापार के लिए लगभग ६० साल पूर्व नीमगाँव ( अहमदनगर ) आये। तथा वहाँ किराना का धंधा शुरू किया। संवत् १९५० के लगभग आप स्वर्ग: वासी हए। आपके चार पुत्र हुए, जिनमें उम्मेदमलजी का परिवार विद्यमान है। सेठ उम्मेदमलजी ने संवत् १९६० में अपनी दुकान दौंड में की और व्यापार की आपके हाथों से उन्नति हुई। संवत् १९७२ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र रूपचन्दजी (उर्फ फूलचन्दजी) का जन्म १९४२ में मोहनलालजी का संवत् १९५७ में एवं राजमलजी का संवत् १९६६ में हुभा। इस समय बलदोटा रूपचन्दजी, अपनी उम्मेदमल रूपचन्द नामक दुकान का कार्य दौंड में संचालित करते हैं। आपके पुत्र श्री हरलालजी हैं।
श्री मोहनलालजी बलदोटा ने सन् १९२० में बी० ए० तथा १९२२ में एडवोकेट परीक्षा पास की। सन् १९२३ से आप पूना में प्रेक्टिस करते हैं, एवं यहाँ के प्रतिष्ठित वकील माने जाते हैं। आप ४ सालों तक स्थानीय स्था० बोडिंग के सेक्रेटरी रहे थे। अापके छोटे बन्धु राजमलजी बलदोटा ने सन् १९३२ में बी. एस. सी० की परीक्षा पास की। तथा इस समय पूना लॉ कालेज में एल, एल० बी० में अध्यपन कर रहे हैं। हरलालजी बलदोटा का जन्म सन् १९11 में हुआ। आपने सन् १९२९ में मेट्रिक पास किया तथा इस समय पना मेडिकल स्कूल के द्वितीय वर्ष में अध्ययन कर रहे हैं।
इस परिवार ने शिक्षा तथा सुधार के कार्यों में प्रशंषनीय पैर बढ़ाया है। श्रीयुत राजमलजी और हरलालजी बलदोटाने परदा प्रथा को त्याग कर महाराष्ट्र प्रदेश के ओसवाल समाज के सम्मुख एक नवीन आदर्श उपस्थित किया है। आप दोनों युवक अपनी पत्नियों सहित शुद्ध खद्दर का व्यवहार करते
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मोसवाल जाति का इतिहास हैं। धार्मिक मामलों से भी आप लोगों के उदार विचार हैं । आपने दृढ़ता पूर्वक परिश्रम कर चचवड़ में एक अबोध कन्या को दीक्षा दिये जाने के कार्य को रुकवाया था। श्री हरलालजी का विवाह सन् १९३२ में अजमेर में वर्द्धमानजी बांठिया की पुत्री श्रीमती दीपकुमारी (उर्फ सरकादेवी) के साथ बहुत सादगी के साथ हुआ । इस विवाह में तमाम फुजूल खर्चियां रोककर लगभग ३००) रुपयों में सब वैवाहिक काम पूरा किया गया। तथा शुद्ध खद्दर का व्यवहार किया गया। श्री दीपकुमारी बलदोटा सन् १९३० में विदेशी वस्त्रों की पिकेटिंग करने के लिये ३ । ४ वार जेल गई। लेकिन १५ वर्ष की अल्पायु होने के कारण आप दो चार दिनों में ही छोड़ दी गई। .
लाला रणपतराय कस्तूरीलाल बम्बेल का खानदान, मलेर कोटला
इस परिवार के मालिकों का मूल निवास स्थान सुनाम का है। आप जैन म्वेताम्बर स्थानक वासी सम्प्रदाय को मानने वाले हैं । इस खानदान में लाला कानारामजी के पश्चात् क्रमशः छज्जूरामजी, मोतीरामजी तथा लाला रणपतरायजी हए । लाला रणपतरायजी इस कुटुम्ब में बड़े योग्य व्यक्ति होगये हैं। आप सौ साल पूर्व मलेरकोटला में सुनाम से आये थे । आपने अपने परिवार की इज्जत व दोलत को बढ़ाया। आपके पुत्र लाला मुकुंदीलालजी का स्वर्गवास संवत् १९५० में होगया । आपके लाला कस्तूरीलालजी, मिलखीराम जी एवं चिरंजीलालजी नामक तीन पुत्र हुए। लाला कस्तूरीलालजी का जन्म १९४६ का था । आप बड़े सज्जन और धार्मिक पुरुष थे। आपका संवत १९७९ में स्वर्गवास होगया है। आपके लाला बचनाराम जी नामक एक पुत्र हैं। लाला मिलखीरामजी का जन्म संवत् १९४८ में हुभा। आप यहां की बिरादरी के चौधरी हैं। आपका यहाँ के राज दरबार में अच्छा सम्मान है। आपके प्रेमचन्दजी नामक एक पुत्र है। लाला चिरंजीलालजी का जन्म संवत् १९५० में हुआ। आप भी मिलनसार सज्जन हैं। आपके मनोहरलालजी तथा शीतलदासजी नामक दो पुत्र हैं।
___ इस परिवार की इस समय दो शाखाएँ होगई हैं। एक फर्म पर मेसर्स कस्तूरीलाल मिलखी राम के नाम से तथा दूसरी फर्म पर चिरंजीलाल मनोहरलाल के नाम से व्यापार होता है।
सेठ फतहलाल मिश्रीलाल वेद, फलोदी इस परिवार के पूर्वज सेठ परशुरामजी वेद ने फलोदी से ४४ मील दूर रोहिणा नामक स्थान से आकर सम्वत् १९२५ में अपना निवास फलोदी में बनाया । आपके पुत्र बहादुरचन्दजी तथा मुलतानचंदजी हुए। यह परिवार स्थानकवासी सम्प्रदाय का माननेवाला है। सेठ मुल्तानचन्दजी के चुनीलालजी, छोगमलजी, हजारीमलजी, आईदानजी तथा सूरजमलजी नामक ५ पुत्र हुए। इनमें सेठ सूरजमलजी तथा भाईदानजी ने बम्बई तथा ऊटकमंड में दुकानें खोली। सेठ सूरजमलजी फलोदी के स्थानकवासी सम्प्रदाय में नामांकित व्यक्ति हो गये हैं। संवत् १९७४ में आप स्वर्गवासी हुए। सेठ आईदानजी के जेठमलजी फतेलालजी, विजयलालजी, मिश्रीलालजी तथा कंवरलालजी नामक ५ पुत्र हुए। इनमें सेठ मिश्रीलालजी, सूरजमलजी वेद के नाम पर दत्तक गये हैं।
वर्तमान में इन बंधुओं में जेठमलजी, विजयलालजी तथा मिश्रीलालजी विद्यमान हैं। सेठ जेठमलजी फलोदी में ही रहते हैं, तथा विजयलालजी और मिश्रीलालजी मे इस कुटुम्ब के व्यापार तथा सम्मान
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को बहुत बढ़ाया है। आपने बेलिंगटन, कुन्मूर और स्टकमंड में दुकानें खोली । बम्बई में आपका “फतहलाल मिश्रीलाल" के नाम से व्यापार होता है। तथा नीलगिरी में भापकी ५दुकाने हैं। जिनमें लालचन्द शंकरलाल एण्ड कं. अंग्रेज़ी ढंग से बैकिंग व्यापार करती है और नीलगिरी में बड़ी प्रतिष्ठित मानी जाती है। सेठ मिश्रीलालजी बड़े शिक्षा प्रेमी तथा धार्मिक व्यक्ति हैं। आप अपनी फर्म की भोर से माठ साल से २ हजार रुपया प्रतिवर्ष ब्यावर के “जैन गुरुकुल" को सहायता दे रहे हैं। एवं माप उस गुरुकुल के प्रेसिडेण्ट भी है।
सेठ जेठमलजी के पुत्र नेमीचन्दजी व शंकरलालजी, सेठ फतेलालजीके पुत्र चम्पालालजी, सेठ विजयलालजी के पुत्र कन्हैयालालजी और रामलालजी तथा कंवरलालजी के पुत्र फकीरचन्दजी तथा मूलचन्द जी हए । इन बंधुओं में शंकरलालजी, चाँदमलजी (बहादुरचंदजी के पुत्र) के नाम पर तथा मूलचन्दजी, मिश्रीलालजी के नाम पर दत्तक गये । एवं फकीरचन्दजी का स्वर्गवास सम्बत् १९८९ में अल्पवय में हो गया। नेमीचन्दजी, चम्पालालजी तथा कन्हैयालालजी व्यापार में भाग लेते हैं। यह परिवार फलोदी बम्बई और नीलगिरी के ओसवाल समाज में अच्छी प्रतिष्ठो रखता है।
. श्री बख्तावरमल नथमल वेद, ऊटकमंड
इस परिवार के पूर्वज दौलतरामजी वेद के पुत्र शिवलालजी, बींजराजजी तथा जोरावरमलजी वेद ने रोहिणा नामक स्थान से आकर अपना निवास स्थान फलोदी में बनाया। सेठ शिवलालजी संवत् १९५७ में स्वर्गवासी हुए । तथा बींजराजजी व जोरावरमलजी का व्यापार अमलनेर के पास पीपला नामक स्थान में रहा । सेठ शिवलालजी के बाघमलजी तथा बख्तावरमलजी नामक २ पुत्र हुए। इन बंधुओं ने रामगाँव (बरार) में अपना व्यापार शुरू किया । सम्वत् १९५९ में सेठ बख्तावरमलजी वे सेठ सूरजमलजी वेद फलोदीवालों की भागीदारी में "सूरजमल सुजानमल" के नाम से साहूकारी व्यापार चाल किया। संवत् १९६६ में आपका तथा १९८२ में बाघमलजी का स्वर्गवास हुआ।
सेठ बख्तावरमलजी के पुत्र नथमलजी का जन्म सम्बत् १९५५ में हुआ। इस समय आप सेठ मिश्रीलालजी वेद फलोदी वालों की भागीदारी में “शिवलाल नथमल" के नाम से कटकमंड में वैकिंग व्यापार करते हैं। यहाँ के ओसवाल समाज में आप प्रतिष्ठित एवं समझदार व्यक्ति हैं। आपको पठन पाठन का बड़ा प्रेम है। इसी तरह इस परिवार में सेठ जोरावरमलजी के पौत्र भेरूदानजी, बेलिंगटन में सेठ मिश्रीलालजी वेद की भागीदारी में तथा बींजराजजी के पुत्र मोतीलालजी वेद अमलनेर में व्यापार करते हैं।
सेठ चुनीलाल छगनमल वेद, ऊटकमंड इस परिवार के पूर्वज वेद गंभीरमलजी तथा उनके पुत्र बालचंदजी ठिकाना रास (मारवाड़) में रहते थे। सेठ बालचन्दजी सम्बत् १९६४ में स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र चुनीलालजी का जन्म सम्बत् १९५४ में तथा छगनमलजी का १९६० में हुआ। इन बंधुओं ने सम्बत् १९८० में अपना निवास म्यावर में किया । भाप लोगों ने सेठ "रिखबदास फतेमल" की भागीदारी में सन् १९.८ में उटकमंड में सराकी व्यापार चाल किया। इस समय इस दुकान पर कपड़े का व्यापार होता है। आप दोनों सज्जन वेताम्बर जैन स्थानकवासी आनाय के माननेवाले हैं। व्यापार को मापने तरकी दी है।
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
लाला सुखरूपमल रघुनाथप्रसाद भण्डारी, कानपुर
इस परिवार में लाला सुखरूपमलजी के पुत्र लाला रघुनाथप्रसादजी बड़े धार्मिक व प्रतापी व्यक्ति हुए। आपने व्यापार में लाखों रुपयों की सम्पत्ति उपार्जित कर कानपुर, सम्मेदशिखरजी तथा लखनऊ में ३ सुन्दर जैन मन्दिर बनवाकर उनकी प्रतिष्ठा करवाई। इस प्रकार प्रतिष्ठापूर्ण जीवन बिताते हुए संवत् १९४८ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके नामपर लाला लछमणदासजी चतुरमेहता के पुत्र मेहता सन्तोषचन्दजी दत्तक आये। आपका जन्म संवत् १९३५ में हुआ। आप भी अपने पिताजी की तरह ही प्रतिष्ठित व्यक्ति हए। आपने अपने कानपुर मंदिर में कांच जड़वाये, और आसपास बगीचा लगवाया। यह मन्दिर भारत के जड़ाऊ मन्दिरों में उच्च श्रेणी का माना जाता है। मंदिर के सामने आपने धर्मशाला के लिए एक मकान प्रदान किया। संवत् १९८९ के फाल्गुण मास में आप स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र बाबू दौलतचन्दजी भण्डारी का जन्म संवत् १९६४ में हुआ। आप भी सजन एवम् प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। आपके पुत्र विजयचंदजी हैं।
श्री हुलासमलजी मेहता का खानदान, रामपुरा । लगभग ३०० वर्षों से यह परिवार रामपुरा में निवास कर रहा है । राज्यकार्य करने के कारण इस परिवार की उपाधि “मेहता" हुई। संवत् १८२५ से राज्य सम्बन्ध त्याग कर इस परिवार ने अफीम का व्यापार शुरू किया और मेहता गम्भीरमलजी तक यह व्यापार चलता रहा। आप बड़े गम्भीर तथा धर्मानुगारागी थे। संवत् १९५३ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके पुत्र चुन्नीलालजी मेहता भी व्यापार करते रहे। इनके भाइयों को मंदसोर में "धनराज किशनलाल" के नाम से सोने चाँदी का व्यापार होता है। मेहता चुनीलालजी के मोहनलालजी तथा हुलासमलजी नामक २ पुत्र हैं। मोहनलालजी विद्याविभाग में लम्बे समय तक सर्विस करते रहे तथा इस समय पेंशन प्राप्त कर रहे हैं।
मेहता हुलासमलजी-आप इन्दौर स्टेट में कई स्थानों के अमीन रहे। तथा इस समय मनासामें अमीन हैं। आप बड़े सरल तथा मिलनसार सजन हैं । आपके ४ पुत्र हैं। जिनमें बड़े सजनसिंहजी मेहता इसी साल एल० एल० बी० की परीक्षा में बैठे थे। आप होनहार युवक हैं । आप से छोटे मनोहरसिंहजी बी० ए० में तथा आनंदसिंहजी मेट्रिक में पढ़ रहे । और ललिजसिंह बालक हैं।
मेहता किशनराजजी, मेड़ता इस परिवार के पूर्वज मेहता जसरूपजी जोधपुर में राज्य की सर्विस करते थे। इनके मनरूप जी तथा पनराजजी नामक २ पुत्र हुए। पनराजजी जालोर के हाकिम थे। इनके रतनराजजी, कुशलराज जी, सोहनराजजी तथा शिवराजजी नामक ४ पुत्र हुए। इन बंधुओं में केवल शिवराजजी की संताने विद्यमान हैं। मेहता शिवराजजी जोधपुर में वकालात करते थे। इनका संवत् १९७४ में ५४ साल की वय में स्वर्गवास हुआ। आपके किशनराजजी तथा रंगराजजी नामक २ पुत्र हुए । मेहता किशनराज जी का जन्म संवत् १९४७ में हुआ । आपने सन् १९१३ में जोधपुर में वकालात पास की । तथा ..८ सालों तक वहीं प्रेक्टिस करते रहे । उसके बाद आप मेड़ते चले आये। तथा इस समय मेड़ते के प्रतिष्ठित वकील माने नाते हैं। आपके छोटे बंधु रंगराजजी हवाला विभाग में कार्य करते हैं।
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स्यामसुखा
सेठ घमड़सी जुहारमल स्याम सुखा, बीकानेर हम ऊपर लिख भाये हैं कि चंदेरी के खतरसिंह के पौत्र भैसाशाहजी के पुत्रों से अलगअलग आठ गौत्रे उत्पन्न हुई। इनमें श्यामसीजी से श्यामसुखा हुए। इनकी नवीं पीदी में मेहता रतनजी हुए। आप बीकानेर दरबार के बुलाने से संवत् १५.५ में पाटन से बीकानेर में आकर मावाद हुए। इनकी दसवीं पीढ़ी में श्यामसुखा साहबचन्दजी हुए आपके संतोषचदजी, सुल्तानचन्दजी, सुमाकचन्दजी एवं घमढ़सीजी नामक ४ पुत्र हुए।
सेठ घमड़सीजी श्यामसुखा -जिस समय मरहठा सेना के अध्यक्ष महाराजा होल्कर स्थान पर चदाइयाँ करके अपने राज्य स्थापन की व्यवस्था में व्यस्त थे, उस समय बीकानेर से सेठ धमइसीजी इन्दौर गये, एवं महाराजा होल्कर की फौजों को रसद सप्लाय करने का कार्य करने लगे। कहना न होगा कि ज्यों ज्यों होल्करों का सितारा उन्नति पर चढ़ता गया । त्यों त्यों सेठ धमढ़सीजी का व्यापार भी उन्नति पाता गया। मापने होल्कर एवं सिधियाजीते हुए प्रदेशों में डाक की सुव्यवस्था की। होल्करी सेना को भाप ही के द्वारा वेतन दिया जाता था। तत्कालीन होल्कर नरेश ने आपके सम्मान स्वरूप इन्दौर में आधे एवं सांवेर में पौने महसूल की माफी के हुक्म चल्यो । एवं घोड़ा, छत्री, चपरास व छड़ी, आदि पाकर आपको सम्मानित किया। इसी प्रकार गवालियर स्टेट की भोर से भी भापको कई सम्मान प्रास हुए।
समय पटवा खानदान के प्रतापी पुरुष सेठ जोरावरमलजी बापना का आप से सहयोग हुआ, एवं इन दोनों शक्तियों ने “घमड़सी जोरावस्मल" के नाम से अनेकों स्थानों में दुकानें स्थापित कर बहुत जोरों से अफीम व बैंकिंग का व्यापार बढ़ाया। तमाम मालवा प्रान्त की अफीम आपकी भादत्त में आती थी। जब सेठ जोरावरमलजी का व्यापार पाँच भागों में विभक्त हो गया, उस समय सेठ घमसीजी अपने पुत्र जुहारमलजी के साथ में “घमइसी जुहारमल" के नाम से अपना स्वतन्त्र कारबार करने लगे। सेठ जुहारमलजी संवत् १९१३ में स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र सुरजमलजी एवं समीरमलजी ने अफीम तथा सराफी व्यापार को बहुत उसत किया। इन्दौर के "पंचों में आप भी प्रभावशाली और प्रधान व्यक्ति थे। सेठ समीरमलजी श्यामसुखा बीकानेर के सम्माननीय पुरुष थे। बीकानेर दरबार ने आपको केफियत तथा चौकड़ी बख्शी थी। इसी तरह भापके पुत्र सहसकरणजीको सोने का कड़ा एवं केफियत तथा उनकी धर्म पत्नी को पैरों में सोना पहनने का अधिकार बस्दा था। आपने सिद्धाचलजी आदि में कई धार्मिक काम करवाये।
सेठ सूरजमलजी के सोभागमलजी एवं पूनमचन्दजी नामक २ पुत्र हुष्ट। इनमें सेठ सोभाग.. मलजी के अल्पवय में गुजर जाने से उनके नाम पर सेठ पूनमचन्दजी दत्तक गये। आपका जन्म संवत १९२५ में हुआ। भाप बीकानेर के प्रतिष्ठित एवं वयोवृद्ध सज्जन हैं। बीकानेर से आपको इज्जत, केफियत, छड़ी, चपरास, चौकड़ी आदि का सम्मान प्राप्त हुआ है। देहली दरबार के समय बीकानेर दरबार सेठ चाँदमलजी ढड्डा एवं आपको अपने साथ ले गये थे। आपके पुत्र कुँवर दीपचन्दजी का जन्म संवत् १९४४ में हुआ। आप अपनी दुकानों का कारोबार समालते हैं। कुँवर दीपचन्दजी के पुत्र टीकमसिंहजी, पदमसिंहजी, रत्तीचन्दजी एवं तेजसिंहजी हैं। कुंवर टीकमसिंहजी का जन्म संवत १९५४ में हुमा ।
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श्रोसवाल जाति का इतिहास
आप मिलनसार युवक हैं। इस परिवार की इन्दौर एवं उज्जैन में दुकाने हैं। तथा इन्दौर, उज्जैन, सांवेर और बीकानेर में स्थाई जायदाद है। कुँवर टीकमसिंहजी के पुत्र भँवर दुलीचन्दजी हैं।
श्री राखेचा मानमलजी मंगलचन्दजी, बीकानेर इस परिवार के पूर्वज लच्छीरामजी राखेचा बीकानेर में अपने समय में बड़े प्रतापी पुरुष हुए । आप संवत् १८५२-५३ में बीकानेर के दीवान रहे। आपने अपनी अन्तम वय में सन्यास वृत्ति धारण की एव "अलख मठ" स्थापित कर "अलख सागर" नामक प्रसिद्ध विशाल कप बनवाया। जो इस समय बीकानेर का बहुत बड़ा कूप माना जाता है। इनके पुत्र मानमलजी एवं गेंदमलजी माजी साहिबा पुगलियाणीजी के कामदार रहे। मानमलजी के पुत्र राखेचा मंगलचन्दजी बड़े प्रभावशाली व्यक्ति थे। आप श्री महाराजा गंगासिंहजी के वाल्यकाल में रिजेंसी कोंसिल के मेम्बर थे। इनके दत्तक पुत्र भेरूदानजी कारखाने का कार्य करते रहे। इस समय भेरूदानजी के पुत्र गंभीरचन्दजी एवं शेषकरणजी विद्यमान हैं।
सेठ पूनमचन्दजी नेमीचन्दजी कोठारी (शाह) बीकानेर
यह परिवार सेठ सूरजमलजी कोठारी के पुत्रों का है। लगभग १५० साल पहिले सेठ "बोलचन्द गुलाबचन्द" के नाम से इस परिवार का व्यापार बड़ी उन्नति पर था। एवं इनकी दुकानें जयपुर, पूना आदि स्थानों पर थीं। सेठ बालचन्दजी के पुत्र भीखनचन्दजी एवं पौत्र हरकचन्दजी हुए । कोठारी हरकचन्दजी के पुत्र नेमीचन्दजी का जन्म सम्वत् १९०२ में हुआ। आपने जादातर बीकानेर में ही ब्याज और जवाहरात का व्यापार किया । सम्वत् १९५२ में आप स्वर्गवासी हुए । आपके प्रेमसुखदास जी, पूनमचन्दजी तथा आनन्दमलजी नामक ३ पुत्र हुए । आप तीनों का जन्म क्रमशः सम्वत् १९३० सम्बत् १९३८ एवं सम्वत् १९४३ में हुभा। सेठ प्रेमसुखदासजी व्यापार के लिये सम्वत् १९४४ में रंगून गये, तथा "प्रेमसुखदास पूनमचन्द" के नाम से फर्म स्थापित की । सम्बत् १९५३ में आप स्वर्गवासी हो गये । आपके बाद आपके छोटे बंधु सेठ पूनमचन्दजी तथा आनन्दमलजी ने इस दुकान के व्यापार एवं सम्मान में अच्छी वृद्धि की । सेठ पूनमचन्दजी कोठारी रंगून चेम्बर आफ कामर्स के पंच थे। एवं वहाँ के व्यापारिक समाज में गण्यमान्य सज्जन माने जाते थे। इधर सम्वत् १९८२ से व्यापार का बोझ अपने छोटे बंधु पर छोड़ कर आप बीकानेर में ही निवास करते हैं। इस समय आप बीकानेर के आनरेरी मजिस्ट्रेट एवं म्युनिसिपल कमिश्नर हैं । यहाँ के ओसवाल समाज में आप प्रतिष्टित एवं समझदार पुरुष हैं। स्थानीय जैन पाठशाला में आपने ७१००) की सहायता दी है । इस समय आपके यहाँ “प्रेमसुखदास पूनमचन्द" के नाम से रंगून में बैकिंग तथा जवाहरात का व्यापार होता है। आपका परिवार मन्दिर मार्गीय आम्नाय का माननेवाला है। सेठ आनन्दमलजी के पुत्र लालचन्दजी एवं हीराचन्दजी हैं।
कोचर परिवार बीकानेर सम्वत् १६७२ में महाराजा सूरसिंहजी के साथ कोचरजी के पुत्र उरझाजी अपने ४ पुत्र रामसिंहजी, भाखरसिंहजी, रतनसिंहजी तथा भीसिहजी को साथ लेकर बीकानेर आये। तथा उरझाजी के शेष ४ पुत्र फलोदी में ही निवास करते रहे। बीकानेर आने पर महाराजा ने इन भाइयों को अपनी रियासत में ऊँचे २ ओहदों पर मुकर्रर किया । इन बंधुओं ने अपनी कारगुजारी से रियासत में अच्छा
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कचर-महा
सम्मान पाया । इस समय इन चारों भाइयों की संतानों के लगभग १२५ घर बीकानेर में निवास कर रहे हैं। यहाँ का कोचर परिवार अधिकतर बीकानेर स्टेट की सेवा ही करता चला आ रहा है राज्य कार्य्यं करने से यह परिवार " मेहता” के नाम से सम्मानित हुआ, आज भी इस परिवार के अनेकों व्यक्ति स्टेट सर्विस में हैं । बीकानेर का कोचर परिवार अधिकतर श्री जैन श्वे. मंदिर मार्गीय आम्नाय का माननेवाला है । मेहता रामसिंहजी कोचर का परिवार
कोचर रामसिंहजी, उरझाजी के पाटवी पुत्र थे, बीकानेर दरबार महाराजा सूरसिंहजी ने इन्हें चाँदी की कलम एवं दवात बख्श कर लिखने का काम दिया, जिससे इनका परिवार " लेखणिया" कहलाने लगा । इस परिवार को स्टेट ने "वीमलू" नामक गाँव जागीर में दिया, जो आज भी इस परिवार के पाटवी मेहता मंगलचन्दजी के अधिकार में है। मेहता रामसिंहजी के पश्चात् क्रमशः जीवराजजी, भगौतीरामजी और माणकचन्दजी हुए। मेहता माणकचन्दजी के पुत्र दुलीचन्दजी तथा बख्तावरचन्दजी थे। इनमें मेहता दुलीचन्दजी के परिवार में राय बहादुर मेहता मेहरचन्दजी एवं बख्तावरचन्दजी के परिवार मेंस्वर्गीय मेहता बहादुरमलजी नामी व्यक्ति हुए ।
राय बहादुर मेहता मेहरचन्दजी का परिवार — ऊपर हम मेहता दुलीचन्दजी का नाम लिख आये हैं। आपके पुत्र चौथमलजी एवं पौत्र सुल्तानचन्दजी हुए। मेहता सुल्तानचन्दजी के सूरजमलजी, बींजराजजी, चुन्नीलालजी एवं हिम्मतमलजी नामक ४ पुत्र हुए, इनमें मेहता चुन्नीलालजी २२ सालों तक हनुमानगढ़ में तहसीलदार रहे। आपके कार्यों से प्रसन्न होकर दरबार ने आपको सूरतगढ़ में नाजिम का सम्मान दिया । आपके लखमीचन्दजी एवं मोतीचन्दजी नामक २ पुत्र हुए, इनमें मेहता मोतीचन्दजी, हिम्मतमलजी के नाम पर दत्तक गये । मेहता लखमीचन्दजी बहुत समय तक बीकानेर एवं रिणी में नाजिम के पद पर कार्य करते रहे । पश्चात् आप स्टेट की ओर से आबू, हिंसार एवं जयपुर के वकील रहे। इसी प्रकार मेहता मोतीचन्दजी भी कई स्थानों पर तहसीलदारी एवं नाजिमी के पद पर कार्य्य करते रहे । आपके मेहरचन्दजी मिलापचन्दजी, गुणचन्दजी तथा केसरीचन्दजी नामक ४ पुत्र हुए, इन में मेहरचन्दजी, मेहता लखमीचन्दजी के नाम पर दत्तक गये। मेहता मेहरचन्दजी का जन्म सम्वत् १९३२ में हुआ । आप इस परिवार में विशेष प्रतिभावान पुरुष हुए। सम्वत् १९५४ में आप रियासत में तहसीलदारी के पद पर मुकर्रर हुए। एवं सन् १९१२ में स्टेट ने आपको सूरतगढ़ का नाजिम मुकर्रर किया। आपकी कारगुजारी एवं होशियारी से दिनों दिन जिम्मेदारी के कार्यों का भार आप पर आता गया । सन् १६१३ में बीकानेर स्टेट ने जोधपुर, जयपुर एवं बीकानेर के सरहद्दी तनाजों को दूर करने के लिये आपको अपना प्रतिनिधि बनाकर सुजानगढ़ भेजा । सन् १९१६ में महाराजा श्री गंगासिंहजी बहादुर ने आपको "शाह" का सम्मान इनायत किया । इसी तरह से वार आदि कार्यों में स्टेट की ओर से इमदाद में सहयोग लेने के उपलक्ष में आपको ब्रिटिश गवर्नमेंट ने सन् १९१८ में " रायबहादुर” का खिताब एवं मेडिल इनायत किया । इसी साल बीकानेर दरबार ने भी आपको "रेवेन्यू कमिश्नर" का पद बख्श कर सम्मानित किया । इस प्रकार प्रतिष्ठापूर्ण जीवन बिता कर आप १९ दिसम्बर सन् १९१९ को स्वर्गवासी हुए। आप बड़े लोकप्रिय महानुभाव थे । आपके अंतिम संस्कारों के लिये दरबार ने आर्थिक सहायता पहुँचाई थीं। इतना
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ओसवाल जाति का इतिहास
ही नहीं आपकी धर्मपत्नी एवं २ नाबालिग पुत्रों के लिये खास तौर से पेंशन भी मुकरर कर दो। आपके स्मारक में आपके पुत्रों ने बीकानेर में कोचरों की गवाड में एक जैन धर्मशाला बनवाई। भापके कपाचन्दजी उत्तमचन्दजी एवं मंगलचन्दजी नामक ३ पुत्र विद्यमान हैं। इन तीनों भाइयों का जन्म क्रमशः सम्वत् १९५१, ६५ तथा सम्बत् १९६७ में हुआ। मेहता कृपाचन्दजी थोड़े समय तक कलकत्ता में व्यापार करते रहे, तथा इस समय नौहर में नायब तहसीलदार हैं। आपके पुत्र धीरचन्दजी बालक हैं। . मेहता उत्तमचन्दजी बी० ए० एल एल० बी०-आपने बनारस युनिवर्सिटी से सन् १९२८ में बी० ए० तथा १९३० एल एल० बी० की परीक्षा पास की। इसके २ वर्ष बाद आपको स्टेट ने सुजानगढ़ में मजिस्ट्रेट बनाया। इतनी अल्पवय होते हुए भी इस वजनदारी पूर्ण कार्य को आप बड़ी योग्यता से संचालित कर रहे हैं। आप बड़े सहृदय, मिलनसार एवं लोकप्रिय युवक हैं। आपके पुत्र उपध्यानचन्द बालक हैं। आपके छोटे बंधु मेहता मंगलचन्दजी सुजानगढ़ में गिरदावर हैं।
इसी प्रकार इस परिवार में मेहता मिलापचन्दजी भी कई स्थानों पर तहसीलदार एवं नाजिम के पद पर काम करते रहे सन १९२७ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके पुत्र पीरचन्दजी भिनासर में डाक्टरी करते हैं, मोहनलालजी एफ. ए. मे तथा सम्पतलालजी मिडिल में पढ़ते हैं। इसी तरह मेहता मेहरचन्दजी के सब से छोटे भाई मेहता केसरीचन्दजी के पुत्र माणिकचन्दजी बालक हैं।
मेहता बहादुरमलजी कोचर का परिवार-ऊपर हम लिख आये हैं कि मेहता दुलीचन्दजी के छोटे भ्राता मेहता वक्तावरचन्दजी थे। इनके पश्चात् क्रमशः मेहता तखतमलजी, मुकुन्ददासजी एवं छोगभलजी हुए। मेहता छोगमलजी बीकानेर स्टेट में सर्विस करते रहे । संवत् १९४२ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके मेहता कणगमलजी, बहादुरमलजी, एवं हस्तीमलजी नामक ३ पुत्र हुए। इनमें मेहता छणगमलजी भी स्टेट में सर्विस करते रहे । आपका स्वर्गवास हो गया । आपके सहसकरणजी एवं अभयराजजी नामक २ पुत्र हुए। इनमें अभयराजजी, अपने काका मेहता बहादुरमलजी के नाम पर दत्तक गये।
मेहता बहादरमलजी इस परिवार में नामी व्यक्ति हए। आपने सर्वत् १९४० में सेह मोजीराम पन्नालाल बांठिया भिनासर वालों की भागीदारी में कलकत्ते में छातों का व्यापार भारम्भ किया, एवं इस व्यापार को उन्नत रूप देने के लिये आपने वहाँ एक कारखाना भी खोला। इस व्यापार में सम्पत्ति उपार्जित कर आपने अपने सम्मान में अच्छी उन्नति की । आप बड़े दयालु थे, तथा धर्म के कामों में उदारता पूर्वक भाग लेते थे। एवं अन्य कामों में भी उदारतापूर्वक सहायता देते थे। बीकानेर के
ओसवाल समाज में आप गण्यमान्य व्यक्ति माने जाते थे। इस प्रकार प्रतिष्ठा पूर्वक जीवन बिताकर सर्वत् १९९० की प्रथम बैसाख सुदी १४ को आका स्वर्गवास हो गया। आपके दत्तक पुत्र मेहता अभयराजजी का जन्म संवत् १९४० में हुआ । इधर संवत् १९८६ से आपका सेठ मोजीराम पन्नालाल फर्म से भाग अलग हो गया है। एवं आप “बहादुरमल अभयराज" के नाम से बीकानेर में बैंकिंग व्यापार करते हैं । आप बड़े सरल एवं सजन व्यक्ति हैं। बीकानेर के कोचर परिवार में आप सधन व्यक्ति हैं। एवं यहाँ के ओसवाल समाज में अच्छी प्रतिष्ठा रखते हैं। आपके पुत्र भँवरलालजी, अनंदमलजी एवं दुली. चन्दजी हैं।
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ओसवाल जाति का इतिहास
स्वर्गीय मेहता बहादुरमलजी कोचर, बीकानेर.
मेहता शिववख़्शजी कोचर, बीकानेर.
सेठ पूनमचन्द्रजी कोठारी, बीकानेर.
सेठ थानमलजी मुहणोत, बीदासर (परिचय पृष्ठ ६८५ में)
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ओसवाल जाति का इतिहास
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स्वर्गीय मेहता नेमीचन्दजी कोचर, बीकानेर.
मेहता मेघराजजी कोचर, बीकानेर.
मेहता लूनकरणजी कोचर, बीकानेर.
कुंवर रावतमलजी कोचर, बीकानेर.
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कोचर मेहता
मेहता बहादुरमलजी के छोटे भाई मेहता हस्तीमलजी भी राज्य में सर्विस करते रहे । आपका संवत् १९७४ में स्वर्गवास हो गया। आपके पुत्र मेहता शिवबख्शजी, सेठ मोजीराम पन्नालाल बांठिया की भागीदारी में छातों के कारखाने का संचालन एवं व्यापार करते हैं । . तथा अच्छे प्रतिष्ठित सज्जन माने जाते | आपके पुत्र मेघराजजी मेट्रिक में पढ़ते हैं । इनसे छोटे सम्पतलालजी एवं जतनलालजी हैं । मेहता भवसिंहजी कोचर का परिवार
कोचर उरझाजी के तीसरे पुत्र भीवसिंहजी की संतानों में समय २ पर कई प्रतिष्ठित व्यक्ति हुए। जिन्होंने बीकानेर रियासत की सेवाएं कर अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त की। इस परिवार में मेहता शाहमलजी नामांकित व्यक्ति हुए। आपको बीकानेर दरबार महाराजा सरदारसिंहजी ने संवत् १८६७ में दीवानगी का
सम्मान बख्शा था ।
मेहता भीवसिंहजी के पुत्र पहराजजी थे । इनके चन्द्रसेनजी एवं इन्द्रसेनजी नामक २ पुत्र हुए। इनमें मेहता चन्द्रसेनजी के परिवार में मेहता मेवराजजी, लूणकरणजी, रावतमलजी एवं चम्पालालजी मेहता जतनलालजी, आदि सज्जन हैं । एवं चन्द्रसेनजी के परिवार में मेहता शिवबख्शजी हैं।
मेहता मेघराजजी, लूणकरणजी कोचर का खानदान - हम ऊपर मेहता चन्द्रसेनजी का नाम लिख आये हैं । आपके पुत्र अजबसिंहजी एवं अनोपचन्दजी बड़े बहादुर पुरुष थे । आप लोग रियासत की ओर से अनोपगढ़ आदि कई लड़ाइयों में शामिल हुए थे । मेहता अजबसिंहजी के पुत्र कीरतसिंहजी के जालिमचंदजी, मदन चन्दजी एवं केसरीचंदजी नामक ३ पुत्र हुए। आप बंधु स्टेट के ऊँचे २ ओहदों पर कार्य करते रहे । स्टेट ने आप लोगों को कई खास रुक्के बख्शे थे । इन भाइयों में मेहता मदनचन्दजी के पुत्र मोतीचन्दजी और पौत्र हरखचंदजी हुए। मेहता हरक चन्दजी तहसीलदारी के पद पर कार्य करते थे । संवत् १९५२ में आपका स्वर्गवास हुआ । आपको तथा आपके बड़े पुत्र को राज्य ने "शाह" की पदवी इनायत की थी । आपके मेहता नेमीचन्दजी एवं मेघराजजी नामक २ पुत्र हुए। इन बन्धुओं में मेहता मेघराजजी विद्यमान हैं। शाह नेमीचन्दजी आफीसर कोर्ट आफ वार्ड तथा आफीसर श्री बड़ा कारखाना थे । महाराजा श्रीगंगासिंहजी बहादुर आप पर बड़े प्रसन्न थे । आप स्पष्ट वक्ता एवं स्टेट के सच्चे ख़ैरख्वाह व्यक्ति थे । आपके पास स्टेट के प्राइवेट जवाहरात कोष की चाबियाँ अन्तिम समय तक रहीं । संवत् १९८९ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र मेहता लूणकरणजी एवं विशनचन्दजी विद्यमान हैं। मेहता लूणकरणजी का जन्म संवत् १९४५ में हुआ । आप ९ सालों तक महकमा हिसाब तथा १६ सालों तक कंट्रोलर भाफ दि हाउस होल्ड रहे । तथा संवत् १९८९ से अपने पिताजी के स्थान पर आप आफीसर श्री बड़ा कारखाना हैं। आप बड़े सरल एवं समझदार पुरुष हैं । आपके छोटे बन्धु विशनचन्दजी खजाने में सर्विस करते हैं । मेहता मेघराजजी कोचर का जन्म संवत् १९२९ में हुआ । आप वर्तमान महाराजा श्री गंगासिंहजी की बाल्या वस्था में उनके प्राइवेट दफ्तर के खजांची रहे । पश्चात् संवत् १९७२ में तहसील बनाये गये। इसके बाद आप रामकुमार श्री सार्दुलसिंहजी की चीफ मिनिस्टरी के समय उनके पेशकार रहे। इधर संवत् १९८१ से आप पेंशन प्राप्त कर शांत्तिलाभ कर रहे हैं। आप बड़े सरल एवं सज्जन पुरुष हैं। आपके पुत्र श्री रावतमलजी कोचर का जन्म संवत् १९६१ में हुआ । आप इस समय
दार
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वीकानेर में प्रेक्टिस करते हैं, एवं यहाँ के नामी वकील माने जाते हैं। आप बड़े मिलनसार एवं समनदार युवक हैं। तथा स्थानीय ओसवाल जैन पाठशाला एवं महाबीर मंडल की व्यवस्थापक कमेटी के मेम्बर हैं। आप शुद्ध खादी पहिनते हैं।
मेहता रतनलालजी, जतनलालजी कोचर का खानदान-हम ऊपर मेहता चन्द्रसेनजी तथा उनके पुत्र अजबसिंहजी एवं अनोपचन्दजी का परिचय दे चुके हैं। मेहता अनोपचन्दजी फरासखाने के मुंसरीम थे । आपके आसकरणजी, माणकचन्दजी एवं हठीसिंहजी नामक ३ पुत्र हुए । इनमें मेहता हठीसिंहजी के पुत्र रिखनाथजी हुए, जो आसकरणजी के नाम पर दत्तक गये । मेहता रिखनाथजी राज्य में सर्विस करते रहे । आप बड़ी धार्मिक वृति के पुरुष थे । आपके सुजानमलजी, चुन्नीलालजी एवं पन्नालालजी नामक ३ पुत्र हुए। इन बन्धुओं ने भी स्टेट की अच्छी सेवकाई की । मेहता पन्नालालजी, राव छतरसिंहजी के वेद के साथ महाजन, बीदासर तथा नौहर की लड़ाइयों में शामिल हुए थे। आपके अनाड़मलजी तथा जसकरणजी नामक २ पुत्र हुए। मेहता अनाड़मलजी ने बीकानेर स्टेट के कस्टम विभाग के स्थापन में अच्छा सहयोग लिया था । आप चतर एवं प्रभावशाली व्यक्ति थे। आपके रतनलालजी, जतनलालजी एवं राजमलजी नामक ३ पुत्र हुए, इनमें जवनलालजी मेहता जसकरणजी के नाम पर दत्तक गये। मेहता जसकरणजी का स्वर्गवास संवत् १९७५ में हुआ। मेहता रतनलालजी इस परिवार में बहुत समझदार एवं अपने समाज में सम्माननीय व्यक्ति थे । संवत् १९८९ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके छोटे बंधु मेहता जतनलालजी का जन्म संवत् १९५० में हुआ। आप लगभग ३५ सालों से बीकानेर रियासत. में सर्विस करते हैं । एवं इस समय कस्टम सुपरिटेन्डेन्ट के पद पर हैं । आपने अपने पुत्रों को उच्च शिक्षा दिलाने में अच्छा लक्ष दिया है। आपके पुत्र चम्पालालजी, कन्हैयालालजी एवं शिखरचन्दजी हैं।
. मेहता चम्पालालजी बी० ए० एल० एल० बी०-आपका जन्म संवत् १९६५ में हुआ । सन् १९२८ में आपने बनारस युनिवर्सिटी से बी० ए० एवं सन् १९३१ में एल० एल० बी० की डिगरी हासिल की । इसके पश्चात् आप बीकानेर स्टेट में नायब तहसीलदार, तहसीलदार एवं इंचार्ज नाजिम के पद पर कार्य करते रहे, एवं इस समय आप असिस्टेंट टू दि रेवेन्यू कमिश्नर बीकानेर हैं। आप बड़े सुशील, होमहार एवं उग्र बुद्धि के युवक हैं। इतनी अल्प वय में जिम्मेदारी पूर्ण ओहदों का कार्य बड़ी तत्परता से करते हैं । आपके छोटे बंधु कन्हैयालालजी बी० ए० की तयारी कर रहे हैं। तथा उनसे छोटे शिखरचन्दजी बनारस युनिवर्सिटी में बी० ए० में पढ़ रहे हैं। आपके काका मेहता राजमलजी व्यापार करते हैं। इनके बड़े पुत्र सिरेमलजी मेट्रिक में पढ़ते हैं।
: मेहता शिववख्शजी कोचर का खानदान-हम ऊपर लिख आये हैं कि मेहता चन्द्रसेनजी के छोटे भाई इन्दसेनजी थे। इनके पश्चात् क्रमशः हरीसिंहजो, गाजीमलजी, प्रतापमलजी एवं चुन्नीलालजी हुए। मेहता चुन्नीलालजी के मलूकचन्दजी एवं जेठमलजी नामक २ पुत्र हुए। आप दोनों भाई स्टेट की सर्विस करते रहे। इनमें मेहता मलूकचन्दजी संवत् १९५७ में स्वर्गवासी हुए। आपके शिववख्शजी तथा हीराचन्दजी नामक २ पुत्र विद्यमान हैं। इनमें हीराचन्दजी, जेठमलजी के नाम पर दत्तक गये हैं। मेहता शिववख्शजी का जन्म संवत् १९३९ में हुआ। मेट्रिक तक शिक्षा प्राप्त कर सन् १९०० में आप
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स्वर्गीय मेहता रतनलालजी कोचर, बीकानेर.
श्री मेहता जंतनलालजी कोचर, बीकानेर.
कुँवर चम्पालालजी कोचर, बी. ए. एल. एल. बी. बीकानेर.
कुंवर शिखरचन्दजी कोचर, बीकानेर.
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पूनमचन्दजी नाहटा भादरा : एम. एल. ए. ( बीकानेर स्टेट कौंसिल ).
relate
बिल्डिंग सेठ पूनमचन्द्रजी नाहटा भादरी, ( बीकानेर स्टेट)
श्री रामचन्द्रजी सिंघी बी० ए०१ S/O से संतोषचन्द्रजी सिंधी, नौहर
श्री सुगनचन्द्रजी गोलेच्छा, इनकमटेक्स श्राफीसर, श्रमरावती
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माहटा
बीकानेर स्टेट सर्विस में शामिल हुए। तथा कई औहदों पर कार्य करते हुए सन् १९१९ में आप असिस्टेंट इन्स्पेक्टर जनरल कस्टम एण्ड एक्साइज़ के पद पर मुकरर हुए, और तब से इस पद पर काम करते हैं। इस समय आप बीकानेर के कोचर परिवार में सबसे ऊँचे ओहदे पर हैं। स्थानीय ओसवाल जैन पाठशाला की उन्नति में आपका बजनदार सहयोग रहा है। आप सज्जन एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। सेठ लखमीचन्दजी रामलालजी नाहटा का परिवार भादरा (बीकानेर स्टेट)
इस परिवार के पूर्वज नाहटा खेतसीदासजी बिल्लू ( भादरा से २२ कोस) से लग भग १०० साल पूर्व भादरा में आकर आबाद हुए। आपके नवलचन्दजी तथा जेठमलजी नामक २ पुत्र हुए। भाप दोनों बन्धु भी साधारण लेन देन करते रहे। सेठ नवलचंदजी के रामलालजी एवं जेठममजी के लखमीचन्दजी नामक पुत्र हुए।
सेठ रामलालजी नाहटा का परिवार-सेठ रामलालजी का जन्म संवत् १९२३ में हुआ। आप भादरा एवं आसपास की जनता में प्रतिष्ठा प्राप्त महानुभाव थे। संवत् १९७८ से ८५ तक भाप बीकानेर स्टेट कोंसिल की मेम्बर शिप के सम्माननीय पद पर निर्वाचित रहे। इसके अलावा आप बहुत समय तक भादरा म्यु. के मेम्बर रहे। जनता आपको बड़े आदर की निगाहों से देखती थी। संवत् १९८५ की मगसर सुदी ५ को आप स्वर्गवासी हुए। आपके लूणकरणजी, सुगनचन्दजी एवं पनालालजी नाम ३ पुत्र विद्यमान हैं। आप बंधुओं का जन्म क्रमशः संवत् १९४५, ५० तथा १९६१ में हुआ है। मेहता लूणकरणजी भादरा म्यु. के मेम्बर हैं। आपके पुत्र नेमीचन्दजी, सोहनलालजी, मोहनलालजी, भवरलालजी एवं हुकुमचन्दजी हैं। नाहटा सुगनचन्दजी के पुत्र इन्द्रचन्द्रजी हैं। नाहटा पन्नालालजी समझदार तथा मिलमसार सजन हैं। आपके पुत्र रामचन्दजी हैं। आपके यहाँ “नवलचन्द रामलाल" के नाम से व्यापार होता है । तथा निर्मली ( भागलपुर ) और फाजिलका में आपकी दुकानें हैं, जिन पर जमीदारी तथा लेन देन का व्यापार होता है। यह परिवार भादरा में अच्छी प्रतिष्ठा रखता है।
सेठ लखमीचन्दजी नाहटा का परिवार-सेठ लखमीचन्दजी का जन्म संवत् १९०० में हुआ। आप इस परिवार में बड़े नामांकित व्यक्ति हुए आपने अपने आसामी लेन देन के व्यापार को बहुत बढ़ाया, एवं इसमें सम्पत्ति उपार्जित कर संवत् १९५३ में हिसार जिले में सारंगपुर नामक एक गाँव खरीद किया। व्यापार और स्टेट की वृद्धि के साथ २ आपने बीकानेर स्टेट एवं जनता में भी काफी सम्मान पाया। ६ सालों तक आपको बीकानेर स्टेट कौंसिल की मेम्बरी का सम्मान मिला। भादरा व आसपास की जनता आपका बड़ा आदर करती थी। आप बड़े सरल पुरुष थे, अभिमान आपको छू तक नहीं गया था। इस प्रकार प्रतिष्ठा पूर्वक जीवन विताते हुए संवत् १९७७ की भादवा सुदी १२ को आप स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र सेठ भेरोंदानजी नाहटा होनहार तथा जनता में प्रिय युवक थे। लेकिन संवत १९६२ में २८ साल की वय में इनका स्वर्गवास हो गया । आपके पुत्र नाहटा पुनमचन्दजी का जन्म संवत् १९५८ की भासोज सुदी १५ को हुआ। आप भी अपने पूर्वजों की तरह प्रतिष्ठिति एवं समझदार सज्जन हैं। संवत १९८५ से
आप बीकानेर स्टेट असेन्बली की मेम्बरी का स्थान सुशोभित कर रहे हैं। इधर ३ सालों से भादरा म्यु० के मेम्बर व 5 साल से वाइस प्रेसिडेंट हैं। यूरोपीय वार के समय गव्हर्नमेंट ने सार्टिफिकेट एवं
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श्रो सवाल जाति का इतिहास
“सिल्वर मेडल घड़ी" देकर आपकी इज्जत की थी । आप के यहाँ " जेठमल लखमीचन्द" के नाम से बेकिंग व जमीदारी का कार्य्यं होता है, एवं बीकानेर स्टेट के प्रतिष्ठा प्राप्त परिवारों में इस कुटुम्ब की गणना है । यह परिवार श्री श्वे० जैन तेरापंथी आम्नाय का मानने वाला है।
सेठ जेठमल लखमीचन्द फर्म के वर्तमान मुनीम चम्पालालजी चोरड़िया हैं। आपके पितामह सेठ चिमनीरामजी चोरड़िया रिणी से भादरा आये । इनके पुत्र सेठ बींजराजजी चोरड़िया सेठ लखमीचंदजी के समय उनके यहाँ सुनीम हुए। तथा मालिकों के कारबार को आपने बहुत बढ़ाया। भादरा की जनता में आप बड़े आदरणीय सम्माननीय एवं वजनदार पुरुष थे। संवत् १९७१ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके पुत्र चम्पालालजी भी प्रतिष्ठित, मिलनसार एवं सज्जन व्यक्ति है ।
सेठ संतोषचन्दजी सदासुखजी सिंघी, नौहर
जोधपुर के सिंधी परिवार से इस कुटुम्ब का निकट सम्बन्ध था । वहाँ से १७५ वर्ष पूर्व यह परिवार " छापर " " आया, एवं वहाँ से "सवाई” में आबाद हुआ । सवाई से सिंधी परिवार सरदारशाह, सुजानगढ़ नौहर आदि स्थानों में जा बसा । सवाई से लगभग १५० साल पूर्व इस परिवार के पूर्वज लालचन्दजी के पिताजी नौहर आये। सिंधी लालचन्दजी के खेतसीदासजी, मेघराजजी तथा चौथमलजी नामक ३ पुत्र हुए। इनमें खेतसीदासजी सवा सौ साठ पूर्व आसाम प्रान्त के जोरहाट नामक स्थान में गये । कहा जाता है कि आपकी होशियारी से खुश होकर जोरहाट के तत्कालीन अधिपति ने आपको अपनी रिया सत का दीवान बनाया । १८ साल में कई लाख रुपयों का जवाहरात लेकर आप वापस मौहर आये । तथा आपने यहाँ सराफे का रोजगार शुरू किया। संवत् १९२५ आप स्वर्गवासी हुए 1 आपके पूरनमलजी तथा रिखबचन्दजी नामक २ पुत्र हुए। सेठ पूरनमलजी नौहर के म्यूनीसिपल मेम्बर व प्रतिष्ठित पुरुष थे । आप बड़े दयालु स्वभाव के थे। संवत् १९५६ में आपने जनता की अच्छी सहायता की थी । संवत् १९८४ में आपका स्वर्गवास हो गया। आपके पुत्र सेठ संतोषचन्दजी का जन्म संवत् १९४३ में हुआ । आप भी नोहर के अच्छे प्रतिष्ठित एवं शिक्षा प्रेमी सज्जन हैं। आप स्थानीय म्युनिसिपैलेटी तथा धर्मादा कमेटी के मेम्बर हैं । आपने अपने पुत्रों को शिक्षित करने की ओर काफी लक्ष दिया है। सेठ संतोषचन्द्रजी श्री जैन तेरापंथी सम्प्रदाय का अच्छा ज्ञान रखते हैं। आपके इस समय सदासुखजी, हीरालालजी, रामचन्द्रजी, पांचीलालजी एवं इन्द्रचन्दजी नामक ५ पुत्र । इन बन्धुओं में सिंघी रामचन्द्रजी बी० ए० पास करके दो साल पूर्व चार्टेड अकाउंटेंसी का अध्ययन करने के लिये लंदन गये हैं । सदासुखजी, हीरालालजी एवं पांचीलालजी का भी शिक्षा की ओर अच्छा लक्ष है । आप तीनों भाई फर्म के व्यापार में भाग लेते हैं । इस समय आपके यहाँ "संतोषचन्द सदासुख" के नाम से ११ आर्मेनियन स्ट्रीट में पाट का व्यापार होता है। श्री सदासुखजी के पुत्र भँवरलाल, जसकरण, हीरालालजी के पुत्र रतनलाल एवं रामचन्द्रजी के पुत्र जयसिंह हैं। नौहर में यह परिवार अच्छा प्रतिष्ठित माना जाता है। इसी तरह इस कुटुम्ब में सेठ, रिखबचन्दजी के पुत्र कालूरामजी नेपाल में व्यापार करते थे। संवत् १९८० में आपका स्वर्गवास हो गया । इस समय आपके पुत्र बेगराज भी कलकचे में एफ० ए० में पढ़ रहे हैं।
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मुहणोत, छाजेड़, गोलेछा, बोराड़िया ।
सेठ थानमलजी मुहणोत, बीदासर (बीकानेर स्टेट )
इस परिवार का मूल निवास तोसीणा (जोधपुर) है। यहाँ से मुहणोत मंगलचंदजी लगभग सं० १८९० में बीदासर आये। यहाँ से लगभग सं० १९१० में आपके पुत्र कुन्दनमलजी व्यापार के लिये कलकत्ता गये। सं० १९५७ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र मुहणोत थानमलजी का जन्म सं० १९३५ में हुआ। आप भी सं० १९४६ में कलकत्ता गये, तथा सेठ थानसिंह करमचन्द दूगड़ की भागीदारी में कारबार करते रहे। सं.१९७२ में आपने तथा बीदासर निवासी सेठ दुलीचन्दजी सेठिया और सुजानगढ़ के सेठ नेमीचन्दजी डागा ने मिल कर भागीदारी में कलकत्ते में जूट बेलर का व्यापार आरंभ किया, तथा इस व्यापार में आप सजनों ने अपनी होशियारी, चतुराई और बुद्धिमानी से अच्छी सम्पत्ति एवं सम्मान उपार्जित किया। एवं अपनी फर्म की शाखाएं रंगपुर, भाँगड़िया, नागा आदि जगहों पर खोली। इस समय आप तीनों सज्जनों का व्यापार "दुलीचन्द थानमल" के नाम से १०५ पुराना चीना बाजार में होता है। सेठ थानमलजी बिदासर के प्रतिष्ठित सज्जन हैं। आपको सन् १९३२ में बीकानेर दरबार ने पैरों में सोना पहिनने का अधिकार बख्शा है। आपके पुत्र कानमलजी एवं मांगीलालजी हैं।
श्री सेठ कस्तूरचन्द उत्तमचन्द छाजेड़, मद्रास इस फर्म के वर्तमान मालिक सेठ उत्तमचन्दजी छाजेड़ हैं। आप सरल प्रकृति के सजन हैं। आप सेठ कस्तूरचन्दजी छाजेड़ के पुत्र हैं। आपका मूल निवास बीकानेर है। आप मद्रास के चांदी सोने के अच्छे व्यवसायी हैं। एवं मन्दिर मार्गीय आम्नाय के मानने वाले सजन हैं। खेद है कि आपका परिचय खोजाने से विस्तृत नहीं छापा जा सका। आपके फोटो "छाजेड़" गौत्र में छापे गये हैं।
श्री सुगनचन्दजी गोलेछा, अमरावती आप शिक्षित सज्जन हैं। एवं इस समय अमरावती (बरार) में इनकम टेक्स आफीसर के पद पर कार्य करते हैं। वहाँ के सरकारी आफीसरों में एवं जनता में सम्माननीय व्यक्ति हैं। खेद है कि आपका परिचय प्राप्त न होने से जितनी हमारी जानकारी थी. उतना ही लिखा जा रहा है।
श्रीयुत लक्ष्मीलालजी बोरडिया, इन्दौर आपका मूल निवासस्थान उदयपुर है। आपने आरम्भ में बांसवाड़ा राज्य में सर्विस की। इसके बाद आपने इन्दौर में असिस्टेंट गेजेटियर आफिसर, असिस्टेंट प्रेस सुपरिन्टेन्डेन्ट आदि अनेक पदों पर कार्य किया। इस समय आप कॉटन ऑफिस में ऑफिस सुपरिन्टेन्डेन्ट के पद पर अधिष्ठित हैं। आप समाज सुधारक तथा उन्नत विचारों के सज्जन हैं । आपके ५ पुत्र हैं। सबसे बड़े पुत्र केसरीमलजी इन्दौर होलकर कॉलेज में प्रोफेसर हैं। और दूस परे पुत्र नंदलालजी बोरडिया इन्दौर के महाराजा तुकोजीराव अस्पताल में डाक्टर हैं। तीसरे पुत्र नोरतनमलजी इलाहाबाद में बी० ए० में पढ़ते हैं। तथा चौथे पुत्र चन्द्रसिंहजी विद्याभवन उदयपुर में शिक्षा पा रहे हैं। आप सभी सजन बड़े उन्नत तथा समाज सुधारक विचारों के हैं। यह कुटुम्ब अच्छे संस्कारों वाला है और इन्दौर में इस परिवार ने परदा प्रथा को तिलांजलि देकर समाज के सम्मुख अनुकरणीय भादर्श रक्खा है। आपके प्रथम तीनों पुत्र देशभक्त भी हैं।
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ओसवाल जाति का इतिहास
सेठ समीरमल भेरूदान फतेपुरिया, अमरावती इस परिवार के पूर्वज सेठ भेरूदानजी दूगड़ 1 साल की आयु में सम्बत् १९1 में अमरावती आये । आपने यहाँ होशियार होकर “धर्मचंद केशरीचंद" भेरूदान जेठमल, तथा पूरनमल प्रेमसुखदास नामक दुकानों पर सर्विस की । सम्वत् १९४५ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके पुत्र सेठ समीरमलजी दूगड़ का जन्म संवत् १९२७ में हुआ। आप अपने पिताजी के स्थान पर संवत् १९८२ तक “सेठ पूरनमल प्रेमसुखदास" के यहाँ मुनीमात करते रहे। इस समय आपके यहाँ आढ़त, रुई, दलाली तथा किराये का व्यापार होता है । अमरावती के ओसवाल समाज में आप समझदार तथा प्रतिष्ठित सज्जन हैं।
सेठ रावतमल करनीदान गोलेछा, मद्रास यह परिवार खिचंद (मारवाड़) का निवासी है, तथा श्वेताम्बर स्थानकवासी आम्नाय का मानने वाला है। सेठ शोभाचन्दजी गोलेछा के पुत्र करनीदानजी और रावतमलजी हुए। सेठ करनीदानजी ने संवत् १९३८ में मद्रास में दुकान खोली। इसके पूर्व इनका विजगापट्टन तथा बम्बई में व्यापार होता था। संवत् १९४८ में करनीदानजी का स्वर्गवास हआ। आपके पुत्र जवानमलजी तथा सदासखजी ने और सेठ रावतमलजी के पुत्र बख्तावरमलजी और अगरचंदजी ने व्यापार को विशेष बढ़ाया। सेठ बख्तावरमलजी ने अंग्रेजों के साथ व्यापार कर बहुत उन्नति प्राप्त की। आप खिचंद व आसपास की पंचपंचायती में सम्माननीय व्यक्ति थे। संवत् १९७२ में ४५ साल की आयु में आप स्वर्गवासी हुए । आपके ३ साल बाद आपके पुत्र किशनलालजी भी स्वर्गवासी होगये, अतः उनके नाम पर विजयलालजी दत्तक आये हैं। आप विद्यमान हैं।
गोलेला अगरचंदजी के कँवरलालजी, घेवरचंदजी, विजयलाल जी, नेमीचन्दजी तथा लालचंदजी नामक पुत्र विद्यमान हैं। इसी प्रकार सेठ जवानमलजी के पुत्र राजमलजी, अमरचंदजी तथा भंवरलालजी
और सदासुखजी के पुत्र जीवनलालजी, माणिकलालजी तथा सुखलालजी विद्यमान हैं। इनमें विजयलालजी, किशनलालजी गोलेछा के नाम पर दत्तक गये हैं। • आप लोगों का मद्रास के “बेपेरी सुला" नामक स्थान में ब्याज और बैंकिंग व्यापार होता है।
सेठ चौथमल दुलीचन्द दस्साणी, सरदारशहर इस परिवार का मूल निवास स्थान अजमेर है । वहाँ से यह परिवार बीकानेर, डांडूसर आदि स्थानों में निवास करता हुआ सरदारशहर के बसने के समय यहाँ आकर आबाद हुआ। यहाँ दस्साणी हुकुमचन्दजी आये । आप के सालमचन्दजी, चोथमलजी एवं मुलतानचन्दजी नामक ३ पुत्र हुए। आप बंधु संवत् १८८० के लगभग लखनऊ गये । कहा जाता है कि लखनऊ के नबाब से इनका मैत्री का सम्बन्ध था । सन् १९१४ में गदर को लूट होने से आप लोग सरदारशहर चले आये । इन भाइयों में सालमचन्दजी तो बीकानेर दत्तक गये । और सेठ चौथमलजी एवं मुलतानचन्दजी संवत् १९१५ में कलकत्ता गये । एवं मुलतानचन्द दुलीचन्द के नाम से कपड़े का व्यापार आरंभ किया। संवत् १९३५ में इस दुकान पर गरम और रेशमी कपड़े का धन्धा शुरू हुआ। आप दोनों भाई क्रमशः संवत् १९४९ में तथा १०३४ में स्वर्ग वासी हुए । सेठ चौथमलजी के दुलीचन्दजी, केसरीचन्दजी, चुनीलालमी, मग.
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दस्साण श्रार गुलगुलिया
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राजजी तथा कोड़ामलजी और मुलतानचन्दजी के भेरोंदानजी नामक पुत्र हुए। सेठ चौथमलजी १० साक की वय में संवत् १९२४ में कलकत्ता गये । आपने अपनी दुकान के व्यापार व सम्मान को बहुत बढ़ाया । संवत् १९६९ से सेठ दुलीचन्दजी का भाग मुलतानचन्दजी से अलग हो गया, तब से दुलीचन्दजी अपने भाइयों के साथ कारबार करने लगे । इसी साल आप अपनी दुकान का काम अपने भाइयों के जिम्मे छोड़ सरदारशहर में आ गये एवं धार्मिक जीवन बिताते हुए संवत् १९८६ में स्वर्ग वासी हुए। आपने उपवास त्याग और तपस्या के बड़े २ कार्य्यं किये। अपनी पत्नी के साथ ३१ दिनों के उपवास किये । अपने जीवन के अन्तिम ५ सालों में आप केवल ८ वस्तुओं का उपयोग करते थे । संवत् १९७५ में सेठ दुलीचन्दजी के सब भ्राताओं का कारबार अलग २ हो गया। सेठ दुलीचन्दजी के संतोषचन्दजी, धनराजजी, बरदीचन्दजी, नथमलजी, चंदनमलजी, सदासुखजी एवं कुशलचन्दजी नामक ७ पुत्र हुए। इनमें सेठ संतोषचन्दजी को छोड़ कर शेष सब भाई मौजूद हैं। सेठ संतोषचन्दजी ने इस फर्म पर इम्पोर्ट व्यापार भारंभ किया । आप बुद्धिमान् एवं व्यापार चतुर पुरुष थे। आप संवत् १९७४ में स्वर्ग वासी हुए । आपके पुत्र मोतीलालजी एवं इन्द्रचन्दजी हैं। आपके छोटे भ्राता सेठ धनराजजी ने संवत् १९७५ में श्री जैन तेरापंथी सम्प्रदाय में दीक्षा ग्रहण की है।
इस समय सेठ " चौथमल दुलीचन्द" फर्म के मालिक सेठ मोतीलालजी, इन्द्रचन्दजी, नथमलजी, चंदनमलजी, कुशलचन्दजी एवं सेठ कोड़ामलजी के पुत्र रिधकरणजी हैं । इन भाइयों में मोतीलालजी, इन्द्र चन्दजी तथा रिधकरणजी फर्म के प्रधान संचालक हैं। आप सज्जनों के हाथों से व्यापार की वृद्धि हुई है। आप बंधुओं के साथ अन्य भाई भी व्यापार में सहयोग देते हैं। सेठ मोतीलालजी समझदार पुरुष हैं । एवं इस परिवार में सब से बड़े हैं। आपके पुत्र श्री शुभकरणजी को उनके मामा सुजानगढ़ निवासी सेठ हजारीमलजी रामपुरिया ने अपनी सम्पत्ति प्रदान की है। आप होनहार युवक 1 इस समय आप लोगों के यहाँ कलकत्ते के मनोहरदास कॅटला और केशोराम कटला में देशी विलायती कपड़े का इम्पोर्ट, व देशी मिलों के कपड़े की कमीशन सेलिंग एवं बैंकिंग तथा जूट का व्यापार होता है। इसके अलावा फारविसगंज ( बंगाल ) में जूट और जमीदारी का काम होता है । यह परिवार सरदारशहर के ओसवाल समाज में अच्छा प्रतिष्ठित माना जाता है ।
• सेठ रावतमल प्रेमसुख गुलगुलिया, देशनोक ( बीकानेर )
इस परिवार का मूल निवासस्थान नाल ( बीकानेर ) था । वहाँ से गुलगुलिया रामसिंहजी के पुत्र पीरदान की तथा रावतमलजी संवत् १९२५ में देशनोक आये, तथा इन बन्धुओं ने यहाँ अपना स्थाई निवास बनाया । संवत् १९३६ में सेठ पीरदानजी सिलहट गये और संवत् १९४२ में आपने मोलवी बाज़ार ( सिलहट ) में दुकान खोली । २ साल बाद सेठ रावतमलजी भी मोलवी बाज़ार आगये । सं० १९४७ में इस फर्म की एक ब्रांच श्रीमङ्गल में भी खोली गईं। इन दोनों दुकानों पर "पीरदान रावत मल" के नाम से व्यापार होता था । सम्वत् १९६५ में दोनों बन्धुओं का कारबार अलग २ होगया । तब से मोलवी बाजार की दुकान सेठ रावतमलजी के भाग में एवं श्रीमंगल की दुकान पीरदानजी के भाग में भाई । एवं इन दुकानों पर पुराने नाम से ही व्यापार चालू रहा । सम्वत् १९७८ में सेठ पीरदानजी स्वर्गवासी
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श्रीसंवाल जाति का इतिहास
हुए। आपके तोलारामजी, मोतीलालजी, प्रेमसुखजी, नेमचन्दजी एवं सोहनलालजी नामक ५ पुत्र हुए । इनमें तोलारामजी सम्वत् १९७२ में गुजर गये । तथा शेष ४ भाई विद्यमान हैं। श्री प्रेमसुखजो अपने काका सेठ रावतमलजी के नाम पर दत्तक गये हैं ।
सेठ रावतमलजी का जन्म सम्वत् १९१८ में हुआ । आपने मोलवी बाजार के व्यापारियों में अच्छी इज्जत पाई । आप वहाँ की लोकल बोर्ड के मेम्बर भी रहे थे । सम्बत् १९७७ में आपने श्रीमङ्गल के नूतन बाजार में दुकान खोली । इस समय आप देशनोक में ही धार्मिक जीवन बिताते हैं । आपके दत्तक पुत्र श्री प्रेमसुखजी का जन्म संवत् १९५८ में हुआ। आपका मोलवी बाजार और श्रीमङ्गल की दुकानों के अतिरिक्त प्रेमनगर ( सिलहट ) में भागीदारी में एक चाय का बागान है। इन स्थानों पर और देशनोक में यह परिवार अच्छा प्रतिष्ठित माना जाता है ।
इसी प्रकार सेठ पीरदानजी के शेष पुत्र मोतीलालजी, नेमचन्दजी तथा सोहनलालजी, श्रीमंगल, भानुगास और समशेरनगर ( सिलहट ) में अपना स्वतन्त्र व्यापार करते हैं ।
सेठ चतुर्भुज हनुमान बख्श बोथरा, गंगाशहर
यह परिवार जालोर से घोड़वण, भग्गू और वहाँ से पार वा आकर आबाद हुआ । पारवा से संवत् १९७६ में गंगाशहर में इस परिवार ने अपना निवास बनाया। इस परिवार के पूर्वज सेठ लालचन्दजी के पुत्र जोरावरमलजी बोथरा संवत् १९०५ में दिनाजपुर गये तथा वहाँ अपना धंधा शुरू किया । संवत् १९३० में आपने फूलवाड़ी ( दिनाजपुर ) में अपनी दुकान खोली । आपके अगरचन्दजी, चुन्नीलालजी, तनसुखदासजी, राजरूपजी एवं चतुर्भुजजी नामक ५ पुत्र हुए। संवत् १९४४ में सेठ जोरावरमलजी स्वर्गवासी हुए । संवत् १९४३ में सेठ चतुर्भुजजी बंगाल गये, एवं कलकत्ते में “अगरचन्द चतुर्भुज” के नाम से दुकान खोली 1 सेठ चतुर्भुजजी के हाथों से इस दुकान के व्यापार तथा सम्मान को उन्नति मिली । संवत् १९८३ में इस फर्म से सेठ राजरूपजी और अगरचन्दजी का तथा संवत् १९८८ में सेठ तनसुखदासजी का कारबार अलग हुआ ।
इस समय सेठ चुन्नीलालजी एवं चतुर्भुजजी का व्यापार शामिल है। सेठ चुन्नीलालजी के पुत्र कालूरामजी, चिमनीरामजी, रेखचन्दजी, पुसराजजी एवं अमोलकचन्दजी तथा सेठ चतुर्भुजजी बोथरा के पुत्र हनुमानमलजी एवं तोलारामजी हुए। इन भाइयों में चिमनीरामजी, रेखचन्दजी और सराजजी का स्वर्गवास हो गया है। तथा कालुरामजी, अमोलकचन्दजी एवं हनुमानमलजी व्यापार में भाग लेते हैं । इस परिवार का " चतुर्भुज हनुमान बख्श " के नाम से १६ बनफील्ड्स लेन कलकत्ता में जूट कपड़ा तथा आढ़त का कारबार होता है । गंगाशहर में यह परिवार अच्छा प्रतिष्ठित माना है।
इसी तरह इस परिवार में सेठ अगरचन्दजी के दत्तक पौत्र घेवरचन्दजी तथा राजरूपजी के पुत्र जसरूपजी और रामलालजी “अगरचन्द रामलाल" के नाम से ६९५ /१ हरिसन रोड में एवं तन सुखदासजी के पुत्र रावतमलजी, “इन्द्रचन्द्र प्रेमसुख" के नाम से आर्मेनियन स्ट्रीट में व्यापार करते हैं । यह परिवार श्वेताम्बर जैन स्था० आम्नाय का माननेवाला है ।
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सेठिया और दुधोरिया
सेठ दुलीचन्दजी सेठिया का परिवार बीदासर (बीकानेर स्टेट)
इस परिवार का मूल निवास बीदासर है। यहाँ से सेठ भेरोंदानजी सेठिया ८ साल की उमर में कलकत्ता गये। एवं सेठ थानसिंह करमचन्द दूगड़ के यहाँ मुनीमात करते रहे, इनके पुत्र सेठ दुलीचन्दजी सेठिया १९३८ में कलकत्ता गये, तथा दूगड़ फर्म पर भागीदारी में व्यापार करते रहे । पश्चात् १९७२ में थानमलजी मुहणोत आदि के साथ “दुलीचन्द थानमल" के नाम से जूट का व्यापार शुरू कर अपनी कई शाखाएं बाहर खोली। संवत् १९८० में आप स्वर्ग वासी हो गये। इस समय आपके पुत्र प्रतापमल्जी , जेठमलजी एवं आपके छोटे भाई कुंदनमलजी तथा मोतीचंदजी विद्यमान हैं। आप सब सज्जन व्यक्ति हैं। तथा बीदासर में भापका परिवार अच्छा प्रतिष्ठित माना जाता है। सेठ प्रतापमलजी के ५ जेठमलजी के १ मोतीचन्दजी के ३ एवं कुंदनमलजी के ७ पुत्र हैं ।
सेठ छोगमल मोहनलाल दुधोरिया, छापर ( बीकानेर स्टेट)
यह परिवार मूल निवासी लाच्छरसर (बीकानेर) का है। वहाँ से सेठ भारमलजी दुधेरिया संवत् १९१२ में छापर आये। आपके सूरजमलजी, वींजराजजी एवं छोगमलजी नामक तीन पुत्र हुए। छापर से सेठ सूरजमलजी दुधोरिया व्यापार के लिये शिलांग गये. एवं वहाँ गवर्नमेंट आर्मी को रसद सप्लाय करने का कार्य करने लगे। आपके साथ आपके बंधु सेठ शेरमलजी एवं कालरामजी दुधोरिया भी सम्मिलित थे। इन भाइयों ने व्यापार में अच्छी सम्पत्ति पैदा कर अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाई। पीछे से सेठ बींजराजजी तथा छोगमलजी दुधोरिया भी शिलांग गये। तथा इन भाइयों ने तेजपुर, पटना, कलकत्ता गोहाटी, आदि स्थानों में अपनी दुकाने खोली। एवं इन दुकानों पर रबर चलानी एवं अफीम गांजे की कंट्राक्टिंग का व्यापार शुरू किया। इन सज्जनों के साथ लाडनूं के सेठ शिवचन्द सुल्तानमल सिंघी तथा हजारीमल मुलतानमल बोरड़ भी सम्मिलित थे। संवत् १९६० में कालूरामजी और पांचीरामजी दुधोरिया इस फर्म से अलग हुए। इसी तरह और लोग भी अलग २ हो गये। संवत् १९७८ में सेठ भारमलजी दधारिया के पुत्र भी अलग २ हो गये। तथा सरजमलजी एवं बीजराजजी साथ में और छोगमलजो एवं चोथमलजी ( शेरमलजी के पुत्र ) सामिल व्यापार करते रहे। सेठ सूरजमलजी का १९३० बींजराजजी का १९८७ में तथा छोगमलजी का संवत १९८२ में स्वर्गवास हुआ।
सेठ बींजराजजी के पुत्र चुन्नीलालजी, सागरमलजी तथा धनराजजी हुए। इनमें सेठ सागरमलजी, दुधोरिया सूरजमलजी के नाम पर दत्तक गये। वर्तमान में आप तीनों भाइयों के तेजपुर में 'भारमल सूरजमल" के नाम से कई “चाय बागान" हैं । इसी प्रकार सेठ छोगमलजी के पुत्र मोहनलालजी, तिलोकचन्दजी तथा जसकरणजी गोहाटी में "छोगमल मोहनलाल" के नाम से आढ़त का व्यापार करते हैं। सागरमलजी के पुत्र मांगीलालजी, चुन्नीलालजी के पुत्र हजारीमलजी, जयचन्दलालजी, मालचंदजी, मांगीलालजी, तथा मोहनलालजी के पुत्र पूनमचन्दजी, लादूरामजी एवं तिलोकचन्दजी के पुत्र समीरमल हैं।
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मोसवाल जाति का इतिहास
- सेठ मोतीलालजी हीरालालजी सिंधी, बीकानेर
यह परिवार मूल निवासी किशनगढ़ का है। वहाँ से सिंघी शेरसिंहजी, बीकानेर आये । आपके पुत्र सिंघी कुंदनमलजी व्यापार के लिए बीकानेर से बंगाल गये। सथा ढाका और पटना में गल्ला का व्यापार आरंभ किया। आपके सिंघी वख्तावरचन्दजी तथा सिंघी मोतीलालजी नामक २ पुत्र हुए। आप दोनों बंधु भी बंगाल प्रान्त में व्यापार करते रहे। सेठ मोतीलालजी सिंघी से पुत्र हीरालालजी का जन्म संवत् १९४४ में हुआ। आपने संवत् १९६९ में कलकत्ते में कपड़े की दुकान खोली । आप बीकानेर के ओसवाल समाज में अच्छे प्रतिष्ठित सज्जन माने जाते हैं। इस समय आप "मोतीलाल हीरालाल" के नाम से कलकत्ते में कपड़े का व्यापार करते हैं।
सेठ शालिगराम लुनकरण* दस्सामी का खानदान, बीकानेर
सेठ हीरालालजी दस्साणी--इस परिवार के पूर्वज सेठ हीरालालजी दस्साणी का जन्म सं० १८८५ में हुआ । आप बीकानेर में कपड़े का व्यापार करते थे। तथा वहाँ की जनता और अपने समाज में गण्यमान्य पुरुष माने जाते थे । बीकानेर दरबार श्री सरदारसिंहजी एवं श्री डूंगरसिंहजी के समय में आप राज्य को आवश्यक कपड़ा सप्लाय भी करते थे। आपके उदयचन्दजी तथा सालिगरामजी नाम के २ पुत्र हुए।
सेठ उदयचन्दजी दस्साणी-आपका जन्म सम्वत् १९१० में हुभा। आप बीकानेर के दस्साणी परिवार में सर्वप्रथम कलकत्ता जाने वाले व्यक्ति थे। बाल्यकाल ही में आपने पैदल राह से कलकत्ते की यात्रा की। एवं वहाँ १२ सालों तक व्यापार कर आप वापस बीकानेर आ गये। तथा यहाँ अल्पवय में सम्वत् १९३९ में स्वर्गवासी हुए । आपके पुत्र सुमेरचन्दजी दस्साणी हुए। .
सेठ सालिगरामजी दस्साणी-आपका सम्वत् १९२२ में जन्म हुआ। आप बुद्धिमान, व्यापारदक्ष तथा प्रतिभाशाली सज्जन थे। आपने १३ साल की अल्पवय में पैदल राह द्वारा व्यवसायार्थ कलकत्ते की यात्रा की। एवं वहाँ कुछ समय व्यापार करने के अनंतर बीकानेर के माहेश्वरी सजन सेठ शिवदासजी गंगादासजी मोहता की भागीदारी में कपड़े का व्यापार चाल किया। तथा बाद में शालिगराम सुमेरमल के नाम से अपनी स्वतंत्र दुकानें भी खोली । जिनमें एक पर देशीधोती तथा दूसरी पर विलायती मारकीन का प्रधान व्यापार होता था । इन व्यापारों में आपने कई लाख रुपयों की सम्पत्ति उपार्जित की थी। आप कलकत्ता मर्चेट कमेटी के सदस्य थे। एवं अपने समय के समाज में प्रभावशाली तथा समझदार व्यक्ति माने जाते थे। सम्वत् १९७४ में आपका स्वर्गवास हुआ। आपके पुत्र लुनकरणजी, मंगलचन्दजी, सम्पतलालजी तथा सुन्दरलालजी इस समय विद्यमान हैं।
सेठ सुमेरमलजी दस्साणी-आप भी कलकत्ते के मारवाड़ी व्यापारिक समाज में प्रतिष्ठित सज्जन माने जाते थे। सम्वत् १९७५ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके स्वर्गवासी हो जाने के बाद असहयोग आन्दोलन के कारण उपरोक्त “सालिगराम सुमेरमल" फर्म का काम बंद कर दिया गया। साथ ही सेठ शिवदासजी गंगादासजी की फर्म से भागीदारी भी हटा ली गई । आपके पुत्र सतीदासजी तथा भवरलालजी हैं।
खेद है कि आपका परिचय समय पर न माने से यथा स्थान नहीं छापा जा सका ।
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ओसवाल जाति की मर्दुम शुमारी
सेठ लूनकरणजी, मंगलचन्दजी -- आप को वर्तमान में अपनी "शालिगराम लूनकरण दस्साणी" नामक फर्म के प्रधान संचालक हैं। यह फर्म नं० ४ राजा उडमंड स्ट्रीट, कलकता में व्यापार करती है । बीकानेर राज सभा एवं दर्बार खास आदि अवसरों के समय आप लोग निमंत्रित किये जाते हैं । आपका परिवार बीकानेर के ओसवाल समाज में गण्य मान्य एवं प्रतिष्ठित माना जाता है। आपके छोटे भाई सम्पतलालजी एवं सुंदरलालजी पढ़ते हैं। आप लोग वे ० जैन मन्दिर मार्गय आम्नाय को मानने वाले है । श्री खुशालचंदजी खजांची ( चांदा )
. इस परिवार के पूर्वज सेठ हीराकारुजी खजांची बीकानेर से लगभग ७० साल पहिले कामठी आये तथा सेठ जेठमलजी रामकरणजी गोछा की दुकान पर मुनीम रहे। इनके दुलीचन्दजी तथा घासीरामजी नामक २ पुत्र हुए। हीरालालजी संवत् १९५३ में गुजरे और इनके स्थान पर इनके पुत्र घासीरामजी सुनीमा करने लगे । संवत् १९७६ में कामठी में घासीरामजी का शरीरान्त हुआ। आपके पुत्र खुशालचंदजी, लूणकरणजी तथा ताराचंदजी हुए। श्रीखुशालचंदजी खजांची १६ साल की वय में संवत् १९७० में चाँदा आये । आपका शिक्षण मेट्रिक तक हुआ । सन् १९२२ से आपने सार्वजनिक तथा देश हित के कार्यों में सहयोग देना आरम्भ कर दिया। इसी साल आप जनता की ओर से म्यु० मेम्बर निर्वाचित हुए । १९२७ में आप डिस्ट्रीक्ट कौंसिल के मेम्बर बनाये गये । आपकी सेवाओं के कारण आप सन् १९२९ में प्रथम बार तथा १९३१ में दूसरी बार स्यु० के प्रेसिडेन्ट बनाये गये । इस पद पर आप अभी तक कार्य करते हैं। राजनैतिक कार्यों में भी आप काफी दिलचस्पी से भाग लेते हैं । नागपुर में " गढ़वाल डे" के उपलक्ष में प्रान्तिक डिक्टेक्टर की हैसियत से आप गये थे । इसलिए आपको ता० ८-८-३१ को ७ मास की सख्त कैद तथा २००) जुर्माना हुआ । सन् १९३२ में कांग्रेस कार्य के कारण चांदा में २००) जुर्माना तथा ४ मास की पुनः सजा हुई, इस समय आप अछूतोद्धार निवारक संघ के प्रेसिडेन्ट हैं । सन् १९३३ के लड के समय आपने गरीब जनता की बहुत सेवा की। चांदा की जनता आपको आदर से देखती है आपके पुत्र छगनमलजी हैं। आपके यहाँ "लुणकरण छगनमल" के नाम से कपड़े का व्यापार होता है इसका संचालन लूणकरणजी खजांची करते हैं । तथा तीसरे भ्राता ताराचंदजी खजांची नागपुर साइन्स कॉलेज में एफ० ए० में शिक्षण पाते हैं ।
ओसवाल जाति की मर्दुमशुमारी के सम्बन्ध में कुछ जानने योग्य बातें
स्त्रियां
. ओसवाल आबादी १९३१ की गणना से मर्द
१ - बीकानेर राज्ज
२ - जोधपुर राज्य (मारवाड़)
३ - मेवाड़ (उदयपुर)
१४ - सिरोही स्टेट
११९५७
४५४३५
२५२१८
३५३३
६९१
१५६११
५३३६१
२३०९७
४६३०
.
कुल
२७५६८
९६७९६
૧
८१६६
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ओसवाल जाति का इतिहास
५-किशनगढ़ स्टेट ६-प्रतापगढ़
६८९ -नाशिक जिला में ... ३२१४
२७५१
५९६९ योग ७ प्रांतों का
९०४८१
९८८९६ १८९७७७ -पंजाब में कुल २३२ गांवों में ३३६६ घर निवास करते हैं। उनमें आवादी संख्या १४२६५ है।
इन प्रान्तों के अलावा ओसवाल जाति की आबादी सी० पी०, बरार, खानदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, अहमदनगर, मद्रास प्रान्त, निजाम स्टेट, बिहार, यू० पी०, बंगाल आसाम आदि प्रान्तों में है। जिनकी आबादी इनमें शुमार करने से इतनी या इससे अधिक संख्या हो जाना सम्भव है।
राजपूताना और अजमेर मेरवाड़ा में ओसवाल आबादी नाम प्रान्त सन् १९०१ में सन् १९११ में सन् १९२१ में सन् १९३१ में राजपूताना ... २०९१८४ २०९९६५
१९७४६० अजमेर मेरवाड़ा ९५४७ १ ४२२८ १२३९६
_सन् १९३१ की मृदुमशुमारी के अनुसार नाम प्रान्त
___ कंवारे ब्याहे विधुर और विधवाएँ ___ योग मारवाड़ में मर्द २४००. ६९४९ ४४४५ ४५३९५ E , औरतें १६७९५ २१५०२ १३०६४ ५१३६१
२०९९६५
१ ८०९५४
जोधपुर स्टेट
३८४५१
१७५०९
९६७५६
उदयपुर स्टेट
योग. ४०७९६ मेवाड़ में मर्द १२४२०
७६६४
१०१९४ १०४१४
२५२१८ २३०९७
,
औरतें
५०१९
योग २००८४
२०६०८ ७६२३ जोधपुर तथा मेवाड़ का कुल योग १०८८० ५९०५९ २५१२७ १४५०६६ नाशिक जिले में ... २६९० २ ३४३ - ९३६
५९६९ नोट-यह अवतरण हमें जोधपुर के इतिहास वेत्ता श्री कुँवर जगदीशसिंहजी गहलोत द्वारा प्राप्त हुए । धन्यवाद
यह संख्या केवल पजाब के श्वे० स्था० भानाय माननेवाले कुटुम्बों की है। इनमें अग्रवाल कुटुम्ब जो स्था० सम्प्रदाय मानते हैं। उनकी गणना भी शामिल है। लेकिन तौभी इस संख्या में विशेष भाग पोसवाल जाति का है। इसके अलोवा मन्दिर सम्प्रदाय के भी पजाब में सैंकड़ों घर है। यदि उपरोक्त संख्या में जैन श्वे. मन्दिर आम्नाय के घर भी जोड़ दें तो पजाब के पोसवालों की गणना लगभग १० हजार की हो जायगी। + यह गणना नाशिक जिला ओसवाल सभा के अधिवेशन के समय मई १९३३ में की गई थी।
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सिंहावलोकन
ओसवाल जाति के इस विशाल इतिहास के द्वारा जो गहरी और गवेषणा पूर्ण सामग्री पाठको के सामने पेश की जा रही है हमारे खयाल से वह इतनी पर्याप्त है कि प्रत्येक विचारक पाठक के सम्मुख वह ओसवाल जाति के उत्थान और पतन के मूल भूत तत्वों का चित्र सिनेमा फिल्म की तरह खींच देगी । प्रत्येक व्यक्ति, जाति और देश के इतिहास में कुछ ऐसे विरोधात्मक मूल भूत तत्व काम करते रहते हैं जो समय आने पर या तो उस जाति को उत्थान के शिखर पर ले जाते हैं या पतन के गर्भ में ढकेल देते हैं। कहना न होगा कि संसार के अन्तर्गत परिवर्तन का जो प्रबल चक्र चलता रहता है वह इन्हीं तत्वों से संचालित होता है। ओसवाल जाति के इतिहास पर भी यदि यही नियम चरितार्थ होता हो तो इसमें भाचार्य की कोई बात नहीं।
इस जाति के इतिहास का मनोयोग पूर्वक अध्ययन करने से हमें इसमें कई सूक्ष्म तत्व काम करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। हम देखते हैं कि मध्ययुगीन जैना चार्यों के अन्तर्गत सारे विश्व को जैन धर्म
झण्डे के नीचे लाने की एक प्रबल महत्वाकाँक्षा का उदय होता है, और उसी महत्वाकाँक्षा की एक चिन गारी से ओसवाल जाति की स्थापना होती है। स्थापना होते ही यह जाति वायुवेग के साथ, उन्नति के मैदान में अपना घोड़ा फेंकती है और क्या राजनैतिक, क्या सैनिक और क्या व्यापारिक सभी क्षेत्रों में अपना प्रबल अस्तित्व स्थापित कर देती है। प्रति स्पर्दा के मैदान में वह अपने से प्राचीन कई जातियों को पीछे रख देती है। इसकी इस आकस्मिक उन्नति के कारणों पर जब हम विचार करते हैं तो हमें इसमें सबसे पहला तत्व जैनचार्यों की बुद्धिमत्ता और उनकी विकेशीलता के सम्बन्ध में मिलता है। इस जाति की स्थापना के अन्तर्गत जैनाचार्यों ने जिन उदार भावनाओं और सिद्धान्तों को रक्खा, उसके उदाहरण इतिहास में बहुत कम देखने को मिलते हैं। इस जाति के गठन में जातीय, धार्मिक और कौटुम्बिक आदि सभी प्रकार की उन स्वाधीनताओं का अस्तित्व रक्खा गया, जिसके वायुमण्डल में रहकर उसका प्रत्येक सदस्य अपना सांसारिक और नैतिक हर प्रकार का विकास कर सकता है।
. सामाजिक दृष्टि बिन्दु से यदि देखा जाय तो इस इतिहास में हमें स्पष्ट दिखलाई देता है कि जैनाचार्यों ने जाति पांति के विचार को गौण रख कर प्रतिभा और शक्ति के मान से तेजस्त
. जाति में मिलाना प्रारम्भ किया। उन महात्माओं ने इस जाति में उन्हीं पुरुषों को ग्रहण जैनाचाव्यों का सामा- करना प्रारम्भ किया जो या तो अपने मालिक के बल से राज शासन की धुरी को जिक दृष्टि बिन्दु घुमा सकते थे, या जो अपनी भुजाओं के बल से रणक्षेत्र के धोरण को बदल देने में
सफल हो सकते थे अथवा जो अपनी व्यापारिक चतुरता से आर्थिक जगत के भन्तर्गत अपना पैर रोक देने की ताकत रखते थे। फिर चाहे वे ब्राह्मण हों, चाहे क्षत्रिय, चाहे वैश्य । उन्होंने हर समय चुने हुए और प्रतिभाशील व्यक्तियों के संगठन का ध्यान रक्खा। इसका परिणाम यह हुआ कि इस जाति में जितने भी लोग सम्मिलित हुए वे सब शकिशाली और प्राकृतिक विशेषताओं से सम्पन्न थे । एक ओर जहाँ उन्होंने राजनैतिक वातावरण में अपने अद्भुत करिश्मे दिखलाये, दूसरी मोर उसी
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सिंहावलोकन
प्रकार सैनिक क्षेत्र में भी उन्होंने अपनी भुजाओं के बल से काया पलट कर दिया। वे स्वयं चाहे राजा न बने हों, मगर इसमें कोई सन्देह नहीं कि उन्होंने कई राजाओं को बना दिया । इसी प्रकार व्यापारिक लाइन में भी उन्होंने अपना अद्भुत पराक्रम प्रकट किया । सच बात तो यह है, कि वे जिधर झुक गये विजय भी उधर ही हो गई ।
जोधपुर, उदयपुर, बीकानेर आदि रियासतों का इतिहास देखने से पता लगता है कि सोलहवीं शताब्दि से लेकर बीसवीं सदी के आरम्भ तक इन रियासतों के शाशन संचालन में ओसवालों का प्रधान हाथ रहा है। जोधपुर स्टेट के अन्तर्गत साढ़े चारसो वर्षों में लगभग १०० दीवान ओसवाल हुए, इसी प्रकार वहाँ की मिलीटरी लाइन में भी उनका काफी प्रभुत्व था । इसी प्रकार मेवाद और बीकानेर में भी हमें पचीसों प्रधान, दीवान और फौजबक्षी ( कमाण्डर इन चीफ) भोसवाल दिखलाई देते हैं। इसके साथ ही यह बात भी खास तौर से ध्यान में रखने की है कि वह समय आज की तरह शान्ति और सुव्यवस्था का न था, उस समय भारत के राजनैतिक वातवरण में अशान्ति के भयङ्कर काले बादल मण्डरा रहे थे। मिनिट मिनिट में साम्राज्यनीति और राजनीति में परिवर्तन होते थे । जिसकी वजह से शासकों का अस्तित्व खतरे में था, दीवान और मुसाहबों की तो बात ही क्या, मगर कठिनता की उस काल रात्रि में भी ओसवाल राजनीतिज्ञों ने अपने अस्तित्व को नष्ट न होने दिया। यही नहीं कठिनाइयों की भयङ्कर कसौटी पर कस जाने की वजह से उनका अस्तित्व और भी अधिक प्रकाशित हो उठा, और उन्होंने अपने अस्तित्व के साथ २ अपने मालिकों के अस्तित्व की भी रक्षा की। मुहणोत नैणसी, भण्डारी खींवसी, भण्डारी रघुनाथ, भण्डारी गंगाराम, सिंघवी जेठमल, सिंघवी इन्दराज, सिंघवी धनराज, सिंघवी फतेराज, बच्छावत कर्मचंद, मेहता हिन्दूम, मेहता जालसी, कावड़िया भामाशाह, सिंघवी दयालदास, मेहता अगरचंद, मेहता गोकुलचंद, मेहता शेरसिंह, जोरावरमक बापना इत्यादि अनेकों प्रतापी ओसवाल मुस्तुद्दियों की गौरव गाथाओं से आज राजस्थान का इतिहास प्रकाशित हो रहा है। रियासतों की ओर इन से लोगों को प्राप्त हुए रुक्कों, परवानों से पता लगता है कि उनकी सेवाओं का उस समय कितना बड़ा मूल्य रहा था ।
राजनैतिक क्षेत्र ही की तरह ये लोग धार्मिक क्षेत्र में भी कभी किसी से पीछे नहीं रहे। इस जाति के धार्मिक इतिहास में भी हमें समराशाह, करमाशाह, वर्द्धमानशाह, थीहरूशाह, भैंसाशाह, पेथड़शाह, कर्मचन्द बच्छावत, जगत सेठ, जेसलमेर के बापना (पटुवा) बंधु इत्यादि ऐसे २ महानपुरुषों के उल्लेखनीय नाम मिलते हैं जिन्होंने लाखों रुपये खर्च करके बड़े २ संघ निकलवाये, शत्रुंजय आदि बड़े २ तीर्थों का पुननिर्माण करवाया, प्रतिमाओं की प्रतिष्ठाएँ कीं, शास्त्र भंडार भरवाये, अकाल पीड़ितों के लिये अस के भंडार खोल दिये, इत्यादि जितने भी महान और उदारतापूर्ण बातें हो सकती हैं, वे सब हमें इस जाति के इतिहास में देखने को मिलती हैं । धर्म में इतनी गहरी भनुभूति रखने पर हमें यह विशेषता इस जाति के लोगों में देखने को मिलती है कि किसी भी प्रकार की धार्मिक गुलामी और सङ्कीर्णता के चक्कर में ये लोग न फंसे और यही कारण है कि अहिंसा धर्म का पालन करनेवाली इस जाति ने युद्ध के मैदान में हजारों लोगों को तलवार के
राजनैतिक प्रतिभा
धार्मिक जगत में
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घाट उतार दिया, मगर जैन धर्म की अहिंसा कहीं भी उनके मार्ग में बाधक न हुई। इसी प्रकार जब आवश्यकता महसूस हुई तो इस जाति के कई परिवारों ने वैष्णव धर्म को भी ग्रहण कर लिया। मगर उनका जातीय संगठन इतना मज़बूत था कि इस धर्म परिवर्तन से उस संगठन को बिलकुल धका न पहुँचा । आगे जाकर तो यह धार्मिक स्वाधीनता और भी ज्यापक हो गई, और आज तो हम ओसवाल परिवारों में मित्र २ धर्मों की एकता के अद्भुत राय देखते हैं। एक ही घर में इम देखते हैं कि पिता जैन है, तो माता वैष्णव है, पुत्र आर्यसमाजी है तो पुत्रवधू स्थानकवासी है, मगर इस धार्मिक स्वाधीनता से उनके कौटुम्बिक प्रेम और जातीय संगठन में किसी भी प्रकार की बाधा नहीं भाती। इसका परिणाम यह हुआ कि धार्मिक बंधनों की वजह से नातीय संगठन में अभीतक कोई शिथिलता न माने पाई। .
इस इतिहास के अन्तर्गत हमें यह बात भी देखने को मिलती है कि इस जाति का मुत्सुद्दी धर्ग जिस समय अपनी राजनैतिक प्रतिभा से राजस्थान के इतिहास को देवीप्यमान कर रहा था। उसी
__ समय उसका व्यापारिक वर्गहनारों माइल दूर देश विदेश में जाकर अपनी व्यापारिक व्यापारिक क्षेत्र में प्रतिभा से कई अपरिचित देशों के अन्दर अपने मजबूत पैरों को रोकने में समर्थ हो
रहा था। कहना न होगा कि उस जमाने में रेख, तार, पोस्ट आदि यातायात के साधनों की बिलकुल सुविधा न थी, यात्राएँ या तो पैदल करनी पड़ती थी या बैल गाड़ियों और ऊँटों पर । अन्धकार के उस घनघोर युग में ओसवाल म्यापारी घर से एक लोटा डोर लेकर निकलते थे और "धर कूच घर मुकाम" की कहावत को चरितार्थ करते हुए, महीनों में बंगाल, आसाम, मद्रास इत्यादि अपरिचित देशों में पहुंचते थे। ये लोग वहाँ की भाषा और रीति रिवाजों को न जानते थे और न वहाँ वाले इनकी भाषा
और सभ्यता से परिचित थे। मगर ऐसी भयंकर कठिनाई में भी ये लोग विचलित न हुए, और इन्होंने हिन्दुस्तान के एक छोर से दूसरे छोर तक छोटे २ म्यापारिक केन्द्रों में भी अपने पैर अत्यन्त मजबूती से से रोप दिये और लाखों रुपये की दौलत प्राप्त कर अपने और अपने देश के नाम को अमर कर दिया। कहाँ मागौर, कहाँ बाल, कहां उस समय की भयंकर परिस्थिति, और कहाँ बेटा डोर लेकर निकलने वाला सेठ हीरानन्द ! क्या कोई कल्पना कर सकता था, कि इसी हीरानन्दके वंशज भारत के इतिहास में “जगत् सेठ" के नाम से प्रसिद्ध होंगे, और वहां के राजनैतिक, धार्मिक और सामाजिक वातावरण पर अपना एकाधिपत्य कायम कर लेंगे ? सच बात तो यह है कि प्रतिमा के लगाम नहीं होती, जब इसका विकास होता है तब सर्वतोमुखी होता है। और यही कारण था उसी हीरानन्द के वंशजों के घर में एक समय ऐसा आया जब चालीस करोद का व्यापार होता था, और सारे भारत में वह प्रथम श्रेणी का धनिक था। लार्ड क्लाइव ने अपने पर लगाये गये इलजामों का प्रतिकार करते हुए खन्दन में कहा था कि-"मैं जब मुर्शिदा बाद गया और वहाँ सोना चांदी और जवाहरात के बड़े र देखे, उस समत्र मैंने अपने मन को कैसे काबू में रक्खा, वह मेरी अन्तरास्मा ही मानसी है।" इस प्रकार इस माति और भी हजारों लाखों परिवार अपनी व्यापारिक प्रतिभा के बल से भारत भर में फैल गये। और आज भी उनके वंशज अत्यन्त प्रतिष्ठा के साथ वहाँ पर अपना व्यापार कर रहे हैं। ... .
ऊपर के अवतरणों से हमें यह बात सह-मावस हो जाती है कि किसी जाति को उन्नति के
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शिखर पर आरूद करने के लिये जिन २ गुणों और प्रतिभाओं की आवश्यकता होती है वह ओसवाल जाति में
थी। इतना होने पर भी इस जाति का अक्षय प्रताप इतिहास के पृष्ठों पर अधिक पतन का प्रारम्भ समय तक टिका न रह सका, और उन्हीं महान् पुरुषों के वंशज धीरे २ गिरते हुए आज
ऐसी कमजोर स्थिति में पहुँच गये, इसका कारण क्या ? क्या यह केवल भाग्य का फेर है? क्या यह केवल विधि की विडम्बना है ? या इसके अन्तर्गत भी कोई रहस्य है ? इतिहास स्पष्ट रूप से घोषित करता है कि संसार में बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता, हर एक छोटी से छोटी घटना के अन्त काल में भी उसका मूल भूत कारण विद्यमान रहता है। अगर ओसवाल जाति उत्थान के ऊँचे शिखर पर पहुंची, तो उसकी जड़ में भी कई महत्वपूर्ण तत्व विद्यमान थे और अगर आज वह अपनी स्थिति से इतनी नीचे गिर गई, तो उसके अन्दर भी उतने ही मजबूत कारण हैं। नीचे हम उन्हीं में से कतिपय कारणों पर संक्षिप्त प्रकाश डालने का प्रयत्न करते हैं।
___ इस जाति के पतन का पहला कारण जो हमें इतिहास के पृष्टों पर दिखलाई देता है, वह मुत्सुद्दियों को पारस्परिक फूट है। राजस्थान के ओसवाल मुत्सुद्दी राजनीतिज्ञ थे, वीर थे, स्वामि भक्त थे, अपने स्वामी
के लिए हंसते २ अपनी जान पर खेलजाना उनके लिए रोज की मामूली बात मुत्सुद्दियों की पारस्परिक फूट थी, इन सब गुणों के होते हुए भी उनमें बन्धु विद्रोह की अगन बहुत जोरों से
प्रज्वलित थी, अपने भाइयों के उत्कर्ष को सहन करना उनके लिए बहुत कठिन था, और यही कारण था, कि इन लोगों के बीच में हमेशा भयङ्कर षड्यंत्र चला करते थे। जहाँ कोई एक दीवान हुआ, तो उसको विरुद्ध पार्टी वाले, उसीके भाई, हर तरह से उसका नाश करने की कोशिश में लग जाते थे। ऐसी कई दुःखपूर्ण दुर्घटनाएँ हमें इतिहास में देखने को मिलती हैं, कि राजनैतिक षड्यंत्रों में पड़कर समय २ पर जिन बड़े २ मुत्सुद्दियों का चूक (कतल) हुआ उन षडयंत्रों में उन्हीं के सजातीय सब से अधिक लीडिंग पार्ट ले रहे थे। इन्हीं घात प्रतिघातों से इस जाति की उन्नति में बहुत ठेस पहुंची । इसी प्रकार इस जाति के पतन का दूसरा कारण मुत्सुद्दी क्लॉस का नकली आडम्बर और झूठा अभिमान है। घर में बेशक चूहे दण्ड पेलते हों, खाने को फाकाकशी हो, मुत्सुद्दी क्लॉस का व्यक्ति इन सब कष्टों को सहन कर लेगा, मगर व्यापार के द्वारा अपनी आजीविका को उपार्जन करने में अपनी बहत बड़ी बेइजती समझेगा वह दस रुपये की राज्य की नौकरी करना पसन्द करेगा, मगर स्वतंत्र व्यवसाय की कल्पना भी उसके मस्तिष्क को दुःखदायी होगी। इसका भयङ्कर परिणाम यह हो रहा है कि इन्ही रियासतों में जहाँ पर किसी समय इन लोगों के पूर्वजों ने राजाओं तक को अपने एहसानमन्द बनाए थे, वहीं इन लोगों की बहुत खराब स्थिति हो रही है, और धीरे २ इनकी प्रतिष्ठा और इजत भी कम होती जा रही है, और निर्माल्य पदार्थों की तरह ये अपने जीवन को बिता रहे हैं। फिर भी मूंछ पर चांवल ठहराने की इनकी नकली ऐंठ आज भी कायम है।
इस जाति के पतन का दूसरा जबर्दस्त कारण इसके अन्दर पैदा हुई साम्पदायिकता और धार्मिक मतभेद हैं। सच पूछा जाय तो इसी जहरीले कारण ने आज इस जाति को रसातल में पहुंचा दिया है। हम तो स्पष्ट रूप से निःसंकोच और निर्भीक होकर यह घोषित कर देता चाहते हैं कि ओसवाल जाति उत्थान के इतने ऊँचै शिखर पर पहुंची उसका प्रधान कारण भी तत्कालीन जैनाचार्य थे और आज
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जो वह पतन की इस चरम सीमा पर पहुँच रही है इसका सारा उत्तर दायित्व भी वर्तमान धर्माचात्रों पर ही है । धर्म संस्था मनुष्य की भावुकता का विकास करने वाली संस्था है । इस भावुकता को यदि उचित मार्ग से संचालित किया जाय तो इसीमे संसार के बड़े से बड़े उपकार सिद्ध हो सकते हैं और यदि इसी को गलत रास्ते पर लगा दी जाय तो संसार के बड़े से बड़े अनिष्ट भी इससे हो सकते हैं । प्राचीन जैनाचारयों ने जहाँ इस भावुकता का उपयोग लोगों को मिलाने और संगठित करने में किया, वहाँ आगे के जैनाचार्यों ने, अपने २ व्यक्तित्व और अहंकार को चरितार्थ करने के लिए मत्रीन २ सम्प्रदायों और भेड़ भावों की गहराई करके उस सङ्गठन के
टुकड़े करने में ही अपनी शक्तियों का उपयोग किया। इन्हीं लोगों की दया से समाज में कई सम्प्रदायों और मत मतान्तरों का उदय हुआ, और एकता के सूत्र पर स्थापित की हुई भोसवाल जाति फूट और वैमनस्य के चक्कर में जा पड़ी। और आज तो यह हालत है कि ये मतभेद हमारे जातीय संगठन की दीवार को भी कमजोर करने लगे हैं। हमारे पूज्य साधुओं की कृपा से उनके भावकों में अब यह भावना भी उदय होने लगी है कि स्थानकवासी, स्थानक वासियों में ही शादी सम्बन्ध करें और मन्दिर मार्गी मन्दिर मार्गियों में ही । ईश्वर न करे यदि यह नियम भी कहीं प्रचलित हो गया, तो फिर इस जाति का अन्त ही निकट समझना चाहिए ।
धार्मिक मतभेद
हमें यह मानने में तनिक भी संकोच नहीं हो सकता कि त्याग और तपस्या में आज भी हमारे जैन साधु भारत में सब से आगे बढ़े हुए हैं । लेकिन इसके साथ ही दुःख के साथ हमें यह भी स्वीकार करना पड़ता है कि अहंभाव और व्यक्तित्व के मोह की मात्रा उनमें क्रमशः अधिक बलवती होती जा रही है। जैन शास्त्रों में इस प्रवृत्ति पर विजय प्राप्त करना सब से कठिन बतलाया गया है, यह ऐसी प्रवृत्ति ( उपश्म मोहनीय ) है कि ग्यारहवें गुण स्थान पर पहुँची हुई आत्मा को भी वापस पतित करके दूसरे गुण स्थान में लाकर पटक देती है। इसी प्रवृत्ति की बजह से संसार में समय २ पर अनेक मतम तान्तरों और सम्प्रदायों का उदय होता है और अशान्ति की मात्रा बढ़ती है । कि जो व्यक्ति अपने घरबार, धन, दौलत और कुटुम्बी जनों के मोह को मुट्ठी भर धूल की तरह छोड़ कर संसार में विरक्त हो जाते हैं वे अत्यन्त साधारण "पूज्य" और "आचार्य” पदवी के लिए ऐसे लड़ते हुए दिखलाई देते हैं कि गृहस्थों तक को आश्चार्य होता है और उनकी लड़ाई को मिटाने के लिए श्रावकों को बीच में पढ़ना पड़ता है। अगर ये अपने अहंभाव को नष्टकर अपनी महानता के प्रकाश में देखेंगे तो यही पदवियाँ उन्हें अत्यन्त क्षुद्र दिखलाई देंगी ।
इसी प्रवृत्ति का प्रताप है
अगर आज हमारे ये जैनाचार्य्यं इस प्रवृत्ति पर विजय प्राप्त करके, समानता के महान् सिद्धांतों का बीड़ा उठा कर तैय्यार हो जायं तो जाति की धार्मिक, सामाजिक और कौटुम्बिक सभी कमजोरियाँ क्षण भर में दूर हो सकती हैं। इन लोगों के हाथों में आज भी महान् शक्ति केन्द्रीभूत है। जनता आज भी. इनके पीछे पागल है ।
इधर गृहस्थों का कर्तव्य भी उनके पीछे इस बात का तकाज़ा कर रहा है कि इन लोगों का
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अनुकरण करके अब तक वे धार्मिक और सामाजिक दृष्टि से अपनी काफ़ी बरबादी कर चुके हैं। यदि
अब भी ये लोग अपने अहंभाव को तिलाञ्जलि देकर जनता को एकता के सूत्र में बांधे सामाजिक कमजोरियाँ तो बहुत ही अच्छा है वरना इस प्रकार समाज में वैमन
साधुओं की अब समाज को जरूरत नहीं है। धार्मिक मतमतान्तरों ही की तरह इस जाति के कलेबर में कई ऐसे सामाजिक दोष भी घुसे हुए हैं, जिनकी वजह से यह जाति दिन प्रति दिन क्षीण होती जा रही है। इन सामाजिक कमजोरियों में हमारो वैवाहिक जीवन, परदा और पोशाक, और सामाजिक फिजूल खर्चियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं।
किसी भी जाति की उन्नति का यदि अन्दाज करना हो तो वह उस जाति के वैवाहिक जीवन से भली प्रकार किया जा सकता है। जिस जाति का वैवाहिक जीवन सुन्दर और प्रेमपूर्ण होता है,
जिसका नारी अङ्ग सभ्य और स्वस्थ होता है, उस जाति की सन्तानें भी हृष्ट-पुष्ट, हमारा वैवाहिक जीवन बलवान् , मेधावी और सुंदर होती हैं। खेद है कि ओसवाल जाति का वैवाहिक
जीवन अत्यन्त निराशापूर्ण और अन्धकारमय है। एक ओर तो घोर अशिक्षा और परदे की अमानुषिक प्रथा की वजह से हमारा नारी अङ्ग निर्माल्य और निर्जीव हो गया है, इसकी दूसरी ओर प्रति वर्ष हजारों छोटे २ बालकों का विवाह की वेदी पर बलिदान होता है, तीसरी ओर पचासों उतरी उम्र के खुड़े भी समाज के नवयुवकों का हक नष्ट कर समाज की बालिकाओं का जीवन नष्ट कर देते हैं । इन सब बातों से समाज का संयम और सदाचार खतरे में पड़ा हुआ है, नारी अंग के निर्माल्य होने से हमारे समाज की ठीक वही हालत हो रही है जो पक्षाघात से पीड़ित व्यक्ति की होती है। हमारा दाम्पत्य जीवन कलहमय हो रहा है, समाज का वायुमण्डल हजारों बाल-बिधवाओं की आहों से धुंवाधार हो रहा है। इन सभी बातों से दिन २ समाज का भविष्य अन्धकार की ओर अग्रसर हो रहा है।
इन सब बातों को दूर कर समाज को स्वस्थ करने के लिए यह आवश्यक है कि समाज के वैवाहिक जीवन को सुंदर बनाया जाय। इसके लिए समाज के नारी अंग को शिक्षित और सुसंस्कृत किया जाय । हर्ष है कि समाज के अगुवाओं का ध्यान इस ओर धीरे २ आकृष्ट होने लगा है और अब स्थान २ पर बहुत सी कन्या पाठशालाएं खुल रही हैं। पर अभी यह प्रयत्न समुद्र में बून्द के तुल्य ही कहा जा सकता है। इस दिशा में बहुत बड़े स्केल पर काम होने की आवश्यकता है।
दूसरा महत्व का प्रश्न वैवाहिक स्वाधीनता का है। कोई भी तर्क और कोई भी दलील इस बात का समर्थन नहीं कर सकती कि पुरुषों को तो साठ २ वर्ष की उम्र तक पांच २ छः२ विवाह करने की समाज की ओर से खुली इजाज़त हो और स्त्रियाँ दस वर्ष की उम्र की आयु में विधवा होने पर भी पुनर्विवाह के अधिकार से बञ्चित रक्खी जाँय । इतिहास के न मालूम किस अन्धकार पूर्ण युग में इस कठोर और पक्षपात पूर्ण व्यवस्था का उदय हुआ जिसने भारत के सारे सामाजिक जीवन को नष्ट भ्रष्ट कर रक्खा है। जब स्त्री और पुरुष में समान मनोविकारों का उदय होता है, तब क्या कारण है कि पुरुषों के मनोविकारों की तो इतनी सावधानी से रक्षा की जाय और स्त्रियों के मनोविकारों की भोर बिलकुल ध्यान ही न दिया जाय । अनेकों वर्ष के वादविवाद और समय की जरूरतों से यह विषय अब इतना स्पष्ट और निर्विवाद हो
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पहा है कि अब इस विषय पर अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं। विधवा विवाह एक ऐसी औषधि है। जिसका प्रचार होते ही बालविवाह, वृद्धविवाह और वैवाहिक जीवन सम्बन्धी सभी समस्याएं अपने बाप हल हो जायंगी। .
दूसरी जो भयङ्कर कमजोरी हमारे समाज के अन्तर्गत है वह परदा और पोशाक की है। असभ्यता और जङ्गलीपन के किस युग में इस वर्बर प्रथा का जन्म हुआ, यह नहीं कहा जा सकता। मगर
यह निश्चय है कि इस प्रथा ने हमारी नियों को संसार के सम्मुख अत्यन्त हास्यास्पद परदा और पोशाक बना रक्खा है। वैसे तो इस जालिम पृथा का अस्तित्व किसी न किसी अंश में
भारत की कई जातियों में है, मगर ओसवाल जाति में इसका रूप इतना भयार गया है कि उसकी नजीर कहीं भी ढूंढे न मिलेगी। हमारी ही जाति वह जाति है जहाँ स्त्रियाँ नियों से परदा करती हैं, बहू सास से परदा करती हैं, कई बहुएं तो जिन्दगी पर्यंत अपनी सास को मुँह नहीं बसलातों और बिना बोले रह जाती हैं। हमारी जाति वह जाति है जहाँ सभ्यता का काम परदे से किया जाता है, भमुक के आठ x का परदा है अमुक के चार का परदा है और अमुक के दो का परदा है, जिसके जितना अधिक परदा होता है, वह सानदान उतना ही ऊंचा समझा जाता है। इस प्रकार इस भयंकर प्रथा ने हमारी सियों को जिन्दगी और प्रकाश की उन सब किरणों से वंचित कर रक्खा है जो उनकी जीवनी शक्ति की रक्षा के लिए अत्यन्त आवश्यक है। वे संसार की सारी गतिविधि से अपरिचित रहती हैं। अपनी मात्मरक्षा की भावनाओं से वे सर्वथा अपरिचित रहती हैं। आश्चर्य है कि बीसवीं सदी के इस प्रकाश मय युग में भी यह महान जाति अभी तक इस महान वबर प्रथा को अंगीकार किए हुए है। हमारे पास इतमा स्थान नहीं कि इस प्रथा के सम्बन्ध में हम कुछ विशेष लिखें। लेकिन यह निश्चय है कि समाज में जब तक इस प्रथा का अस्तित्व है, तब तक जाति सुधार का नाम लेना ही व्यर्थ है।
परदे के साथ ही पोशाक का भी बहुत गहरा सम्बन्ध है इस समय जो पोशाक ओसवाल महिसानों ने अङ्गीकार कर रक्खी है वह इतनी भही भौर भवैज्ञानिक है कि उसको रखते हुए परदा प्रथा को तोड़ना बिलकुल व्यर्थ है। क्या स्वास्थ्य की रष्टि से, क्या सौन्दर्य की दृष्टि से और क्या सभ्यता की दृष्टि से, सभी दृष्टियों से किसी भी दृष्टि में इस वेष भूषा का समर्थन नहीं किया जा सकता । इस पोशाक में मामूली परिवर्तन होने की आवश्यकता है।
इसके पश्चात समाज के रीतिरिवाजों की वेदी पर होने वाली फिजूलखर्चियों का नम्बर भाता है। अनेकों परिवारों के इतिहास में हमें कई घटनाएं ऐसी देखने को मिली जिनसे उन लोगों ने हजारों
लाखों रुपया लगाकर शहरसारणी और ग्रामसारणियें की हैं। उस युग में चाहे ये फिजूलखची बातें अच्छी मानी जाती हों, मगर बर्थ समस्या के इस कठिन युग में जब कि दिन ।
अर्थ का महत्व बढ़ रहा हो ऐसी बातों का अनुमोदन नहीं किया जा सकता। खेद है कि अदूरदर्शी लोग इस कठिन समय में भी सामाजिक रीतिरिवाओं की वेदी पर अपने आपको बलिदान
x जो स्त्रियाँ आठ स्त्रियों को साथ लेकर निकलती है उनके पाठ का और जो चार को लेकर जाती है उनके चार का परदा कहलाता है।
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________________ सिंहावलोकन कर देते हैं। मगर बुद्धिमानी का अब यह तकाजा है कि समाज के आर्थिक वैभव की रक्षा के लिए इस प्रकार की सभी सामाजिक-फिजूल खर्थियों का अन्त किया जाय। सम्प्रदाय भेद ही की तरह इस जाति में समय 2 पर कुछ ऐसे सामाजिक भेद भी उत्पन्न हो गये जिसकी वजह से यह जाति कई टुकड़ों में विभिन्न होगई। आज इस जाति में बीसा, दस्सा, पांचा, अया आदि कई भनेकों भेद हो रहे हैं और कहीं बेटी व्यवहार बन्द है तो कहीं रोटी दस्सा बीसा आदि भेद व्यवहार बन्द है. और इन सब भेदों का मनुष्यता के नाम पर समर्थन किया जाता है। इन भेदों के सम्बन्ध में जो किम्बदन्तियां हैं उनसे पता चलता है कि बहुत साधारण घटनाओं के द्वारा ये भेद प्रभेद अस्तित्व में आये हैं, मगर आज संसार के अन्दर ऐसे युग का प्रादुर्भाव हो रहा है कि जिसमें मनुष्य से मनुष्य को जुदा करने वाले ऐसे सभी भेदभाव नष्ट हो जाएंगे। हमें हर्ष है कि पंजाब के भोसवाल समाज ने इस लाइन में काफी पैर बढ़ाया है. और वहां इस्सों बीसों में शादी विवाह प्रचलित होगये हैं, हमें आशा है कि सारे भारत का ओसवाल समाज इस भेद भाव को नष्ट करने की ओर अग्रसर होगा। ऊपर हम इस इतिहास की भली और बुरी दोनों बाजुओं पर काफी प्रकाश डाल चुके हैं / अब भन्त में हम इस जाति के प्रकाशमान युवकों से यह अपील करना चाहते हैं इस समय सारा संसार परि वर्तन के प्रवल चक्र में पड़ा हुआ है। राज्य, धर्म, समाज और पूंजी की सभी नवयुवकों से अपील संस्थाओं में क्रान्तिकारी परिवर्तन हो रहे हैं। मनुष्य, स्वार्थ, जातीयता और राष्ट्री __ यता से भी ऊंचा उठकर अखिल मानवीयता के समीप पहुँचने के लिए प्रयत्नशील हो ऐसी स्थिति में उनके ऊपर भी कार्यक्रम का बहुत बड़ा बोझा आता है। यदि वे ऐसी स्थिति में भी सावधानी के साथ अपने सामाजिक रोगों की चिकित्सा के लिए तय्यार न हुए, तो जाति का जो भयङ्कर नसान होगा उसका उत्तरदायित्व उन्हीं पर आवेगा। इस समय उनका पवित्र कर्तव्य उन्हें इस बात का तकाजा कर रहा है कि वे अखिल भारतवर्षीय ऐसे ओसवाल नवयुवकों का एक विशाल संगटन करें जो समानशील और समान विचार वाले हों। जब तक एक बलवान् संगठन की ताकत उनके पीछे नहीं होगी तब तक एक व्यक्तिगत उत्साह और जोश से किये हुये कार्यों का कोई भी महत्व और प्रभाव न होगा। सबसे बड़ी कठिनाई हमारे नवयुवकों के सामने यही आती है, कि जोश और उत्साह में भाकर वे जो भी काम करते हैं कोई भी मजबूत संगठन उनका समर्थन नहीं करता और इसी कारण चारों ओर से हास्या. स्पद बन कर वे निरुत्साही हो जाते हैं। अगर उनके पीछे कोई मजबूत संगठन उन्हें उत्साह प्रदान करने वाला हो तो वे बहुत कुछ कार्य कर सकते हैं। इस लिए एक ऐसे बड़े संगठन की बहुत बड़ी आवश्यकता है, और इस समय सारे भारत के पोसवाल नवयुवकों को ऐसे महान् संगठन को बनाने के लिये पूरी शक्ति से जुटजाना चाहिए।