________________
बच्छावत
इंगलिया की आज्ञानुसार उनके नायक गणेशपंत ने शक्तावतों का पक्ष करना छोड़ दिया तथा प्रधान सतीदास और सोमचन्द गांधी के पुत्र जयचन्द उनके द्वारा कैद किये गये उस समय महाराणा भीमसिंहजी में फिर अगरचन्दजी मेहता को अपना प्रधान बनाया । जब सेंधिया के सैनिक लकवादादा और आंबाजी इंगलिया के प्रतिनिधि गणेशपंत के बीच मेवाड़ में लड़ाइयाँ हुई और गणेशपंत वे भागकर हमीरगढ़ में शरण ली तो लकवा उसका पीछा करता हुआ वहाँ पर भी आपहुँचा । लकवा की सहायता के लिये महाराणा ने कई सरदारों को भेजा जिनके साथ अगरचन्दजी भी थे ।
संवत् १८१८ से लगाकर संवत् १८५६ तक ये अपने स्वामी के खैरख्वाह रहे। ये कभी भी अपने मालिक के नुकसान में शरीक न हुए। ये अपने चारों पुत्रों को हमेशा यह उपदेश करते थे कि "मैं रवाही के कारण छोटे दरजे से बड़े दरजे पर पहुँचा हूँ । इसलिये तुम लोगों को भी चाहिये कि चाहे जैसी भयंकर तकलीफें क्यों न उठानी पड़े, हमेशा अपने मालिक के खैरख्वाह बने रहना । इसी में हमारी मेक नामी और इज्जत है।" अगर चन्दजी ने बड़ी २ तकलीफें उठाकर मांडलगढ़के किले को गनीमों के हाथ से बचाया । आप समय २ पर उस परगने के राजपूत और मीणा लोगों की बड़ीर जमायतें लेकर महाराणा की खिदमत में हाजिर होते रहे। ये स्वामी भक्त मुसाहिव प्रधान का अलग किये जाने पर अर्थात् दोनों अवस्थाओं में, अपने मालिक के पूरे खैरख्वाह बने रहे । महाराणा ने भी इनके खानदान की इज्जत बढ़ाने तथा बक्शीश 'में किसी बात की कमी न की आपकी सेवाओं से प्रसन्न होकर महाराणा साहब ने आपको कई रुक्के बक्षे जो हम ओसवालों के राजनैतिक महत्व नामक अध्याय में दे चुके हैं। अपका स्वर्गवास संवत् १८५७ में मांडलगढ़ में हुआ ।
ओहदा मिलने व इससे
मेहता देवीचन्दजी
अगरचन्दजी के पीछे उनके ज्येष्ठ पुत्र देवीचन्दजी मंत्री बने और जहाजपुर का किला इनके अधिकार में रखा गया । इस किले का प्रबंध इनके हाथों में रहने से मेवाड़ को बहुत लाभ हुआ । कारण इस खैरख्वाह वंश के वंशज देवीचन्दजी ने बड़ी बुद्धिमानी से इसकी रक्षा कर शत्रुओं का पूर्णदमन किया और इस सरहद्दी किले को सुरक्षित रक्खा । उन दिनों भवाजी इंगलिया के भाई बालेराव मे शक्तावतों तथा सतीदास प्रधान से मिलकर महाराणा के भूतपूर्व मंत्री देवीचन्दजी को चुँडावतों का तरफदार समझ कर कैद कर लिया। परंतु महाराणा ने उन्हें थोड़े ही दिनों में छुड़वा लिया । झाला जालिम सिंह ने बालेराव आदि को महाराणा की कैद से छुड़वाने के लिये मेवाड़ पर चढ़ाई की जिसके खर्च के लिये उसने जहाजपुर का परगना अधिकार में कर लिया। इसके अतिरिक्त वह माँडलगढ़ का किका
१५