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श्रोसवाल जाति का इतिहास
शिला में खोदा हुआ है। इस शिलालेख में * सबसे पहले कर्माशाह के वंश का वर्णन किया गया है जिससे पता लगता है कि गवालियर के अन्दर आम राजा ने बप्प भट्टसूरि के उपदेश से जैन धर्म को ग्रहण किया। उसकी एक स्त्री वणिक कन्या थी । उसकी कुक्षि से जो पुत्र उत्पन्न हुए थे वे सब ओसवाल जाति में मिला लिये गये और उनका गौत्र राज कौष्टागार के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसी कुल में आगे चल कर सारणदेव नामक एक प्रसिद्ध पुरुष हुए। सारणदेव की ८ वीं पुश्त में तोलाशाह नामक एक व्यक्ति हुए। उनके लीलू नामक स्त्री से छः पुत्र हुए जिनमें सबसे छोटे कर्माशाह थे। आपके भी दो स्त्रियाँ थी। पहली स्त्री का नाम कपूरदे और दूसरी का कामलदे था। कर्माशाह का राज दरबार में बड़ा सम्मान था । यद्यपि वे एक व्यापारिक पुरुष थे फिर भी राजनैतिक वातावरण के उपर उनका बहुत अच्छा प्रभाव था। उस समय मेवाड़ की राज गद्दी पर राणा रत्नसिंहजी अधिष्ठित थे। " कर्माशाह ने अपने गुरु के पास से शत्रुञ्जय तीर्थ का महत्व सुनकर उसके पुनरुद्धार करने की इच्छा प्रगट की और चित्तौड़ से गुजरात आकर वहाँ के तत्कालीन सुलतान बहादुरशाह के पास से उसके उद्धार का फरमान प्राप्त किया। तत्पश्चात् आप वहाँ से शत्रुञ्जय को गये। उस समय सोरठ के सूबेदार मजादखाँन के कारभारी रविराज और नरसिंह नाम के दो व्यक्तियों ने कर्माशाह का बहुत आदर किया । उनकी सहानुभूति और सहायता से कर्माशाह ने बहुत द्रव्य खर्च करके सिद्धाचल का पुनरुद्धार किया और संवत् १५८७ के बैसाख पदी ६ को अनेक संघ और अनेक मुनि आचार्यों के साथ उसकी कल्याण कर प्रतिष्ठा की।
शत्रुञ्जय तीर्थ और शह तेजपाल
कर्माशाह के ६० वर्ष के पश्चात् खम्भात के रहनेवाले प्रसिद्ध ओसवाल धनिक शाह तेजपाल सोनी ने शधुंजय के इस महान मंदिर का विशेष रूप से पुनरुद्धार कर फिर से उसे तय्यार करवाया और तप गच्छ के प्रसिद्ध आचार्य हीरविजय सूरि के हाथों से उसकी प्रतिष्ठा करवाई। इसका एक शिला लेख । मुख्य मंदिर के पूर्व द्वार के रंग मण्डप में लगा हुआ है । इस शिलालेख में शुरू २ में तो तपागच्छ के आचार्यों की पहावली और उनके द्वारा किये खास २ कामों का वर्णन किया गया है। उसके पश्चात् उद्धारकर्ता का परिचय देते हुए लिखा है।
• पूरे शिलालेख के लिए देखिए मुनि जिन विजयजी कृत "जैन लेख संग्रह" भाग २ लेखाङ्क १ +देखिये मुनि विजयजीकृत जैन लेख संग्रह भाग २ लेख १२