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चोपड़ा गौत्र की उत्पत्ति
विक्रमी संवत् ११५६ में जैनाचार्य जिनबल्लभसूरिजी मंडोवर नगर में पधारे। वहाँ के अधिपति नाहरराव पड़िहार ने जैनाचार्य से पुत्र प्राप्ति के लिए प्रार्थना की । आचार्य श्री के उपदेश से राजा के ४ पुत्र हुए। लेकिन राजा ने जैन धर्म अंगीकार नहीं किया। थोड़े समय बाद राजा नाहरराव पड़िहार के बडे पुत्र कुकड़देव साँप का विष खाजाने से भयंकर रोग ग्रसित हो गये और सारे शरीर से दुर्गन्ध आने लगी। अनेकों चिकित्साएँ करने पर भी जब शांति नहीं मिली, उस समय राजा चतुर के दीवान गुणधरणी ने नाहरराव को बतलाया कि आपने जैनाचार्य के साथ धोखा किया है, इसी के प्रतिफल में यह आपत्ति भाई है। फलतः राना मुनिदेव की तलाश में गये, और सोजत के समीप उनसे भेंट की। राजा की प्रार्थना पर ध्यान देकर मुनिदेव मंडोवर आये और कुछड़देव के शरीर पर मक्खन चोपड़ने को कहा। इससे कुक्कड़ देव ने स्वास्थ्य लाभ किया। यह चमत्कार देख राजा अपने चारों पुत्रों सहित जैन धर्म से दीक्षित होगया। इस तरह औषधि चोपड़ने से इनकी गौत्र “चौपड़ा” प्रसिद्ध हुई और कुक्कड़ पुत्र के नाम से कुक्कड़ चोपड़ा विख्यात हुए। इसी तरह मंत्री गुणधरजी की संतानें गणधर चोपड़ा कहलाई।
माहरदेव के पश्चात् उनकी पीदी में दीपचन्दजी हुए । जैनाचार्य जिनकुशलसूरिजी के उपदेश से इन्होंने ओसवाल समाज में अपना सम्बन्ध किया। इनकी कई पीढ़ियों के बाद सोनपालजी के पौत्र ठाकुरसीजी हुए। वे बड़े शूर तथा बुद्धिमान पुरुष थे । जोधपुर के राष चूंडाजी ने इनके जिम्मे अपने कोठार का काम किया, तबसे ये चौपड़ा कोठारी कहलाये ।
यह कहे बिना नहीं रहा जा सकता कि इस चोपड़ा परिवार ने समय २ पर अनेकों धार्मिक काम किये, अनेकों मंदिरों का निर्माण कराया, और शास्त्र भंडार भरवाये, जिनका परिचय स्थान २ के शिलालेखों में मिलता है । इस परिवार के साः हेमराजजी, पूनाजी नामक व्यक्तियों ने संवत् १४९४ में जेसलमेर में सुप्रसिद्ध संभवनाथजी का मन्दिर तयार करवाया । इस विशाल मन्दिर के भूमि गृह में ताडपत्र पर अंकित जेसलमेर का सुप्रसिद्ध जैन वृहद् ग्रंथ भण्डार मौजूद है। इस भण्डार के ग्रंथों की सूची “बड़ौदा सैंट्रल लायब्रेरी" ने प्रकाशित कराई है। इसी तरह संखलेचा साः खेता तथा चोपड़ा साः पाँचा ने जेसलमेर में शांतिनाथजी तथा अष्टापदजी के मंदिर की प्रतिष्ठा संवत् १५३६ में कराई। इन दोनों मन्दिरों में लगभग