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सिंहावलोकन
पहा है कि अब इस विषय पर अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं। विधवा विवाह एक ऐसी औषधि है। जिसका प्रचार होते ही बालविवाह, वृद्धविवाह और वैवाहिक जीवन सम्बन्धी सभी समस्याएं अपने बाप हल हो जायंगी। .
दूसरी जो भयङ्कर कमजोरी हमारे समाज के अन्तर्गत है वह परदा और पोशाक की है। असभ्यता और जङ्गलीपन के किस युग में इस वर्बर प्रथा का जन्म हुआ, यह नहीं कहा जा सकता। मगर
यह निश्चय है कि इस प्रथा ने हमारी नियों को संसार के सम्मुख अत्यन्त हास्यास्पद परदा और पोशाक बना रक्खा है। वैसे तो इस जालिम पृथा का अस्तित्व किसी न किसी अंश में
भारत की कई जातियों में है, मगर ओसवाल जाति में इसका रूप इतना भयार गया है कि उसकी नजीर कहीं भी ढूंढे न मिलेगी। हमारी ही जाति वह जाति है जहाँ स्त्रियाँ नियों से परदा करती हैं, बहू सास से परदा करती हैं, कई बहुएं तो जिन्दगी पर्यंत अपनी सास को मुँह नहीं बसलातों और बिना बोले रह जाती हैं। हमारी जाति वह जाति है जहाँ सभ्यता का काम परदे से किया जाता है, भमुक के आठ x का परदा है अमुक के चार का परदा है और अमुक के दो का परदा है, जिसके जितना अधिक परदा होता है, वह सानदान उतना ही ऊंचा समझा जाता है। इस प्रकार इस भयंकर प्रथा ने हमारी सियों को जिन्दगी और प्रकाश की उन सब किरणों से वंचित कर रक्खा है जो उनकी जीवनी शक्ति की रक्षा के लिए अत्यन्त आवश्यक है। वे संसार की सारी गतिविधि से अपरिचित रहती हैं। अपनी मात्मरक्षा की भावनाओं से वे सर्वथा अपरिचित रहती हैं। आश्चर्य है कि बीसवीं सदी के इस प्रकाश मय युग में भी यह महान जाति अभी तक इस महान वबर प्रथा को अंगीकार किए हुए है। हमारे पास इतमा स्थान नहीं कि इस प्रथा के सम्बन्ध में हम कुछ विशेष लिखें। लेकिन यह निश्चय है कि समाज में जब तक इस प्रथा का अस्तित्व है, तब तक जाति सुधार का नाम लेना ही व्यर्थ है।
परदे के साथ ही पोशाक का भी बहुत गहरा सम्बन्ध है इस समय जो पोशाक ओसवाल महिसानों ने अङ्गीकार कर रक्खी है वह इतनी भही भौर भवैज्ञानिक है कि उसको रखते हुए परदा प्रथा को तोड़ना बिलकुल व्यर्थ है। क्या स्वास्थ्य की रष्टि से, क्या सौन्दर्य की दृष्टि से और क्या सभ्यता की दृष्टि से, सभी दृष्टियों से किसी भी दृष्टि में इस वेष भूषा का समर्थन नहीं किया जा सकता । इस पोशाक में मामूली परिवर्तन होने की आवश्यकता है।
इसके पश्चात समाज के रीतिरिवाजों की वेदी पर होने वाली फिजूलखर्चियों का नम्बर भाता है। अनेकों परिवारों के इतिहास में हमें कई घटनाएं ऐसी देखने को मिली जिनसे उन लोगों ने हजारों
लाखों रुपया लगाकर शहरसारणी और ग्रामसारणियें की हैं। उस युग में चाहे ये फिजूलखची बातें अच्छी मानी जाती हों, मगर बर्थ समस्या के इस कठिन युग में जब कि दिन ।
अर्थ का महत्व बढ़ रहा हो ऐसी बातों का अनुमोदन नहीं किया जा सकता। खेद है कि अदूरदर्शी लोग इस कठिन समय में भी सामाजिक रीतिरिवाओं की वेदी पर अपने आपको बलिदान
x जो स्त्रियाँ आठ स्त्रियों को साथ लेकर निकलती है उनके पाठ का और जो चार को लेकर जाती है उनके चार का परदा कहलाता है।