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राजनैतिक और सैनिक महत्व
रा हजार हजार सौगन है तू माठचीराखी है तो थारो जीव हर मारो राज जावेगा जीरो म्हूँ थारो दावणगीर होऊँगा अठा सु सौसिंहजी हे मी लिख्यो है सो जूं बणे जूं छूट हजूर हाजिर हुजै अणी मैं औछ राखी है तौ थाहें माणा लाख सूस है सम्वत् १८२५ रौ वरस महा वुद १३"
इस रुक्के से पाठकों को यह स्पष्टतः ज्ञात होगा कि मेहता अगरचन्दजी के कार्यों में महाराणाजी का कितना विश्वास था और उनकी सुख दुख की दशा में वे कितनी हमदर्दी प्रदर्शित करते थे। मेहता अगरचंदजी भी इस पत्र को पाते ही शिवचंद्रजी की मदद से शत्रु के पंजे से छूट कर निकल आये और महाराणा की सेवा में उपस्थित हुए । महाराजा ने आपका बहुत सम्मान किया और उसी प्रधानगी के उच्च पद पर आपको अधिष्ठित किया। कहने का मतलब यह है कि महाराणा को आपकी सेवाओं से बड़ा संतोष रहा जिसकी भूरि २ प्रशंसा आपने अपने निन्निलिखित रुक्के में मुक्त कंठ से की है।
सिद्ध श्री भाई मैहता अगरा जोग अप्र मे तो थां सपूत चाकर थी नचीता हाँ राज थारा वापरौ छै थाहरी सेवा बंदगी म्हारा माथा पर छै निपट तू म्हारो साव धौ छै थारी चाकरी तो सपना मै भी भुला नहीं ई राज माहें आधी रोटी होसी जो भी बटका पेली थाने दे र खासां थारां वंश का सूं उरीण होवां पावां नहीं सीसोदिया हौसी जो तो थारा बंस काने आखां की पलकां पर ही राखसी फरक पाड़ेगा तौ जीणने श्रीएकलिंगजी पूगसी ई राज म्हें तौ म्हारा बैटा बच भी . थारा बैटा रो उर सौ वत्तो छै कतराक समाचार धाभाई रूपा रा साह मोतीराम बूल्यारा कागद सं जाणौगा सम्वत् १८२३ वरषै वैसाख वुदी १० गुरै
महाराणा अरिसिंहजी के पश्चात् संवत् १८२९ में उदयपुर के सिहांसन पर महाराणा हमीरसिंहजी विराजे । आप भी मेहता अगरचन्दजी की वीरता, कारकीर्दी एवं स्वामिभक्ति से बड़े प्रसन्न थे । महाराणा हमीरसिंहजी केवल ४ सालों तक राज्य कर संवत् १८३४ में स्वर्गवासी हुए । आपके जीवन काल में ऐसी कोई विशेष उल्लेखनीय घटना घटित न हुई ।
महाराणा हमीरसिंहजी के पश्चात् महाराणा भीमसिंहजी उदयपुर के राज्यासन पर आरूढ़ हुए। उसी समय की बात है कि रामपुरा के चन्द्रावतों को मेहता अगरचन्दजी ने अपने यहाँ पर शरण दी । इस घटना से चन्द्रावतों के विरोधी ग्वालियर के सिंधिया को बड़ा क्रोध आया और उसने लखाजी तथा अम्बाजी के सेनापतित्व में मेहता अगरचन्दजी को परास्त करने के लिए एक बहुत बड़ी सेना भेजी। इस सेना का मेवाड़ की सेना के साथ घमासान युद्ध हुआ और अंत में मेहता अगरचन्दजी की ही विजय हुई। इसी प्रकार की और कई घरेलू लड़ाइयों में मेहता अगरचन्दजी ने हमेशा अपने स्वामी महाराणा भीमसिंह का पक्ष लिया और आजीवन तक वे बड़ी वीरता से युद्ध करते रहे।
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