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________________ राजनैतिक और सैनिक महत्व तो उन्हें बहुत बुरा लगा। वे अब हमेशा इसी चिन्ता में रहने लगे कि किस प्रकार सोमजी गांधी का कंटक मार्ग से दूर हो। इधर प्रधान सोमजी गांधी ने राजमाता द्वारा कई बिगड़े सरदारों को खिल्लत व सरोपाव दिलवा कर उन्हें वश में करने की कोशिश की। साथ ही भिंडर के स्वामी शक्तावत मोहकमसिंहजी के पास जो करीब २० वर्षों से राज्य वंश के विरुद्ध हो रहे थे, महाराणा को भेजकर उन्हें सम्मान सहित उदयपुर बुलवाये। इसी प्रकार रामप्यारी को सलूम्बर भेजकर रावत भीमसिंहजी को जो शक्तावतों का जोर हो जाने के कारण उदयपुर छोड़ कर चले गये थे वापस उदयपुर निमंत्रित किया, क्योंकि उन्हें मेवाड़ राज्य से मरहठों को भगाना था उपरोक्त काम कर लेने के पश्चात् इन्होंने जयपुर और जोधपुर के महाराजाओं को भी मरहठों के विरुद्ध खड़ा किया । इस प्रकार कार्य्यं कर उन्होंने खिलाफ एक बहुत बड़ा वातावरण पैदा कर दिया । राजपूताने में मरहठों के चूंडावत सरदार रावत भीमसिंहजी ने यद्यपि ऊपरी तौर पर सोमजी गांधी वगैरह से मेल कर लिया था मगर उनके दिल में हमेशा सोमजी से बदला लेने की प्रवृत्ति उत्तरोशर बढ़ती ही गई। उन्होंने इसी बीच और भी कुछ सरदारों को अपनी ओर मिला लिया । अन्त में एक दिन जब कि सोमजी महलों में थे तब कुराबड़ के रावत अर्जुनसिंह और चांवड़ के रावत सरदारसिंह दोनों व्यक्ति भी महलों में पहुँचे । वहां जाकर उन्होंने सलाह करने के बहाने से सोमजी को अपने पास बुलवाया और यह पूछते हुए कि "तुम्हें हमारी जागीरें जप्त करने का साहस किस प्रकार हुआ" इन दोनों सरदारों ने उनकी छाती में कटारें भोंक दीं। तत्काल रक्त का फवारा निकल पड़ा और दूरदर्शी, राजनीतिज्ञ और कार्य्यं कुशल सोमजी का वहीं अन्त हो गया। महाराणा साहब के कहने से इनका दाह संस्कार पिछोला की बड़ी पाल पर किया गया जहां आज भी उनके स्मारक स्वरूप एक छत्री बनी हुई है। प्रधान सोमजी के पश्चात् महाराजाजी ने इनके छोटे भाई सतीदासजी तथा शिवदासजी को क्रमशः प्रधान एवम् सहायक बनाए। ये दोनों अपने भाई का बदला लेने के लिये कोशिश करने लगे । उन्होंने भिंडर के सरदार मोहकमसिंहजी की सहायता से सेना एकत्रित की और चित्तौड़ की ओर प्रस्थान किया । इस समाचार को सुनते ही उधर से भी कुरावड़ के रावत अर्जुनसिंहजी की अधीनता में चूण्डावत सरदारों की एक सेना मुकाबला करने के लिये रास्ते में आ मिली । अकोला नामक स्थान पर दोनों भोर की सेना में घमासान युद्ध हुआ । प्रधान सतीदासजी विजयी हुए। भाग गये और सतीदासजी ने अपने भाई के हत्यारे को मारडाला । करने वालों के साथ युद्ध कर अपने भाई का बदला चुका लिया । रावत अर्जुनसिंह रण-क्षेत्र छोड़कर इस प्रकार इन वीर बन्धुओंने धोखा ८५
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
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