SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोमबाल जाति और श्राचार्य स्वरूप दिखलाया गया है और उसके निरूपण में लगभग ५५ नाटकादि निबन्धों के बाहरण दिवे गये हैं। प्रबन्ध चिंतामणि नामक ग्रन्थ में रामचन्द्रसूरि को प्रबन्धशतकर्ता के नाम से सम्बोधित किया गया है। इससे कितने ही विद्वानों ने यह अनुमान किया है कि उन्होंने सब मिला कर सौ ग्रन्थों की रचना की होगी । पर फिल हाल उनके इतने ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं। फिलहाल उनके जो जो ग्रन्थ उपलब्ध हैं, वे निम्न लिखित हैं। सत्य हरिश्चन्द्र नाटक, कौमुदी मित्रानंद, निर्भय भीम व्यायोग, राघवाभ्युदय, यादवाभ्युदय, यदुविलास, रघुविलास, नवबिलास नाटक, मल्लिका मकरन्द प्रकरण, रोहिणी मृगांक प्रकरण, बनमाला नाटिका, कुमार विहारशतक, सुधाकलश, हैम हहृद वृत्ति न्यास, युगादिदेव द्वात्रिंशिका, प्रसाद द्वात्रिंशिका आदिदेवस्तव, मुनिसुवतस्तव, नेमिस्तव, सोलाजिनस्तव, तथा जिन शास्त्र । इन तमाम ग्रन्थों की रचना मौलिक है और उसमें लेखक के महान् व्यक्तित्व की छाप जगह २ पर प्रकट होती है। महेन्द्रसूरि रामचन्द्र सूरि के अतिरिक्त हेमचन्द्राचार्य के गुणचन्द्र, महेन्द्रसूरि, बर्द्धमानसूरि, सोमप्रभसूरि आदि कई शिष्य थे । गुणचन्द्रसूरि ने,रामचन्द्रसूरि के साथ मिल कर कुछ ग्रंथों की रचना की थी। महेन्द्रसूरि ने संवत् १२४१ में श्री हेमचन्द्राचार्य कृत कैरवा कर कोमुदी नामक ग्रन्थ की टीका की। श्री वर्द्धमान गणि ने कुमार विहार प्रशस्ति काव्य नामक ग्रन्थ को रचना की। उक्त तीनों मुनी राजों का प्रतिबंधक म्याख्यान राजा कुमारपाल ने सुनाया। हेमचन्द्र के एक दूसरे शिष्य देवचन्द्र ने एक 'चन्द्र लेखा विजय' नामक ग्रन्थ रचा। कहने का अर्थ यह है कि श्री हेम वन्द्राचार्य के बाद भी उनके शिष्यों का गुजरात के तत्कालीन नरेशों पर अच्छा प्रभाव था। यह कहने में तनिक भी अतिशयोक्ति न होगी कि हेमचन्द्राचार्या अपने युग से प्रवर्तक थे । जैन साहित्य के इतिहास में वह युग "हेमयुग" के नाम से प्रसिद्ध है। जैन शासन और साहित्य के लिये यह युग वैभव, प्रताप तथा विजय से दैदीप्यमान युग था। उसका प्रभाव सारे गुजरात पर पड़ा और आज भी उस युग को लोग हेम-मय, स्वर्णमय युग कहकर स्मरण करते हैं। मल्लवादी प्राचार्य भाप भी जैन साहित्य के अच्छे विद्वान थे। आपने धर्मातर टिप्पणक नामक प्राकृत भाषा का एक अन्य ताद पन पर लिखा, जिसकी मूल कापी अब भी पाटन के भण्डार में मौजूद है।
SR No.032675
Book TitleOswal Jati Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOswal History Publishing House
PublisherOswal History Publishing House
Publication Year1934
Total Pages1408
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size47 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy