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सवाल जाति का इतिहास
का रूपनगर नामक गांव इनायत कर दिया। इस नगर पर अधिकार करने के लिये जोधपुर महाराजा ने जोधपुर से सींघी अक्षयदासजी, भण्डारी गंगारामजी और मुहणोत ज्ञानमलजी को सेना लेकर भेजे । सात मास तक बराबर युद्ध होता रहा। अन्त में रूपनगर पर महाराजा जोधपुर का अधिकार हुआ और किशनगढ़ के महाराजा प्रतापसिंहजी ने हार मानकर तीन लाख रुपया देना स्वीकार किया और जोधपुर आकर वहां के दरबार से मुजरा किया। सम्वत् १८४७ में माधवजी सिन्धिया मारवाड़ पर चद भाया । इसके मुकाबिले के लिये मुहणोत ज्ञानमलजी, सिंघवी भीमराजजी, कोचर मुहता सूर्य्यमलजी, छोड़ा साहसमलजी और भण्डारी गंगारामजी आदि भेजे गये, मेड़ते मुकाम पर सम्बत १८४७ की भाव बदी १ को भारी लड़ाई हुई। जोधपुरी सेना ने इस युद्ध में इतनी वीरता का प्रदर्शन किया कि जिसकी प्रशंसा सिन्धिया के सेनापतियों ने अपने पत्रों में और अंग्रेजी और मराठी लेखकों ने अपने ग्रन्थों में की है। दैव राठौड़ों के अनुकूल नहीं था। इससे उनके हाथों से सैनिक दृष्टि से कई भूलें हो गई । इसके अतिरिक्त मराठी फौजें सुप्रख्यात् फ्रेन्च सेनापति डी० बोइने के कुशल सञ्चालन में थीं। वे नवीन अस्त्र शस्त्रों से सुसजित थीं। इससे उनकी बिजय हुई। पर इस समय जोधपुरी फौजों ने जिस अतुलनीय पराक्रम का परिचय दिया, उसे देख कर महादजी का फ्रेन्च सेनापति डी० बोयने भी आश्चर्यचकित होगया । उसने देखा कि जोधपुरी सेना के अधिकांश मनुष्य धराशायी हो गये हैं और उसके मुठ्ठी भर वीर केसरिया पहन कर मराठी सेना पर टूट पड़ते हैं और अपनी जानकी कुछ भी पर्वाह न कर शत्रु सेना में हाहाकार मचा देते हैं। मराठी और अंग्रेजी के लेखकों ने जोधपुरी सेना की अपूर्व वीरता की बड़ी प्रशंसा की है। मराठी सेना के एक अफसर ने अपने एक खानगी पत्र में लिखा था "यह वर्णन करने की मेरी लेखनी में शक्ति नहीं है कि केसरिया पोशाक वालों ने अपनी जान हथेली में रख कर क्या क्या बहा दुरी दिखलाई। मैंने देखा कि उस समय लैन टूट चुकी थी । पन्द्रह या बीस मनुष्य हजारों मनुष्यों पर टूट पड़े थे। उस असंख्य मराठी सेना के सामने इन्होंने जान झोंक कर युद्ध किया और इतनी अपूर्व वीरता का परिचय दिया कि इतिहास में जिसके उदाहरण मिलना मुश्किल हैं। आखिर ये वीर तोपों से उड़ा दिये गये। इस युद्ध में सूर्य्यमलजी आदि कुछ ओसवाल सेनानायक भी मारे गये । पर इसमें मराठों की विजय हुई। जोधपुर नरेश ने क्षति पूर्ति के लिये साठ लाख रुपया देने का वादा कर अपना पिंण्ड छुड़ाया। इन रुपयों में से कुछ तो नक्द, कुछ पर्गने और कुछ मनुष्यों को ओल में दिये गये । भोल में दिये जाने वाले लोगों में मुहणोत ज्ञानमलजी भी थे ।
सम्वत् १८६० में जब महाराजा भीमसिंहजी का देहान्त हुआ, तब आपने महाराजा मानसिंहजी के जोधपुर आने तक, किले का बड़ी योग्यता से प्रबन्ध किया। महाराजा मानसिंह को राज्यगद्दी दिलवाने
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