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यापमा
पाहा। उनकी यह इच्छा देखकर सन् १४.५ की २८ वी मार्च को सेठ जोरावस्मरूजी ने महाराणा को अपनी हवेली पर निमंत्रित किया, और जिस प्रकार महाराणा ने चाहा, उसी प्रकार मापने कर्ज का फैसला कर लिया। इस पर प्रसन्न होकर महाराणा मे भापको कुण्डल गाँव, आपके पुत्र चांदणमलजी को पालकी
और आपके पौत्र गंभीरमलजी और इन्द्रमलजी को भूषण और सिरोपाव दिये। इन्हीं के अनुकरण . पर दूसरे लेनदारों ने भी महाराणा की इच्छानुसार अपने ब्जे का फैसला कर दिया। इस प्रकार रियासत का भारी कर्ज सहज ही में भदा हो गया और इसका बुद्धिमानी पूर्ण फैसला कर देश में सेठ जोरावरमलजी की बहुत प्रशंसा हुई।
इस प्रकार अपनी बुद्धिमानी, राजनीतिज्ञता और व्यापार-दूरदर्शिता से सारे राजस्थान में लोक प्रियता और नेकनामी प्रास कर सन् १८५३ की २६ फरवरी को इन्दौर में सेठ जोरावरमलजी का स्वर्गवास हो गया। वहाँ के तत्कालीन महासमा ने बड़े समारोह के साथ छत्रीबाग में भापकी दाह क्रिया
उपरोक भवरणों से यह बात सहज ही मालूम हो जाती है कि सम्पत्तिशाली होने के साथ ही साब सेठ जोरावरमलजी बहुत गहरे अप्रसोची, राजनीतिज्ञ और प्रबन्ध कुशल सजन थे। यही कारण है कि उदयपुर, जोधपुर, इन्दौर, कोटा, बूंदी, टोंक और जैसलमेर में आपका अत्यंत सम्मान रहा। गंभीर से गंभीर मामलों में भी अंग्रेज सरकार तथा उपरोक्त राणा, महाराजा मापसे सलाह किया करते थे।
केवल राजनैतिक मामलों में ही सेठ जोरावरमलजी ने कीर्ति प्राप्त की हो, सो बात नहीं है। भार्मिक और परोपकार इत्ति की और भी आपका बहुत बड़ा लक्ष्य था । सन् १८३२ की २ दिसम्बर को आपने सुप्रसिद्ध ऋषभदेवजी के मंदिर पर ध्वना दं चढ़ाया और वहाँ पर नक्कारखाने की स्थापना की।
___ उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट मालूम हो जाता है कि सेठ जोरावरमलजी जितने राजनैतिक और व्यापारिक जगत में अग्रगण्य थे, उतने ही वे धार्मिकता और दानवीरता में भी प्रसिद्ध थे । आपके दो पुत्र हुए-पहिले सुलतानमलजी और दूसरे चांदणमलजी। सिपाही-विद्रोह के समय सेठ च.दणमलजी ने जगह र अंग्रेज सरकार के पास खजाना पहुँचा कर उसकी अच्छी सेवा की, जिससे सरकार उनसे प्रसन्न हुई। ... सेठ सुलतानमलजी के दो पुत्र हुए जिनका नाम क्रमशः सेठ गंभीरमलजी और सेठ इन्धमलनी थे। सेठ गंभीरमलजी के सरदारमलजी नामक पुत्र हुए। आपके कोई पुत्र न होने से आपके नाम पर सेठ समीरमलजी दत्तक लिये गये। इसी प्रकार सेठ इनमलजी के भी कोई पुत्र न हुआ । भतएव आपके नाम पर भी सेठ कुन्दनमलजी दत्तक लिये गये। हमके भी जब कोई संतान नहीं हुई तब भापके यहाँ सेठ संग्रामसिंहजी को दत्तक लिया गया।
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